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निरकुशता पर विद्वाना की सम्मतिय' १ 'प्राचीन रविया क काव्यो म दोपोदभावना'२ अ दि उनकी पालोचनाए शास्त्राथपद्धति पर की गई हैं विपन का नडन और स्वपक्ष का मन करते समय उन्होने कठोर तर्क से काम लिया है । अोज लाने के लिए उन्होने निस्संकोचभाव से संस्कृत, फारसी आदि के शब्दों का प्रयोग किया है । कहीं कहीं श्राक्षेपों की तीव्रता अमा हो गई है। स्थान स्थान पर सन्दर्भो, मिद्धान्ता आदि का सन्निवेश करके अपने मत को पुष्ट सिद्ध करने में उन्हे सफलता मिली है।४
सुन्दर जेचनेवाली वस्तु की प्रशंसा करना मनुष्य का स्वभाव है। संस्कृत-काव्यां और कवियों के विषय में भी प्रशंसात्मक सुभाषित लोकोक्तियो के रूप में प्रचलित हुए यथा---
उपमा कालिदाम्य भारवेरर्थगौरवम ।
नैपधे पदलालित्यं माघ सन्ति त्रयो गुणाः ॥ १. , १६११ ई०, पृ.० १६२ । २
, १५६, २२३, २७२। ३. 'अपने पहले लेख में एक जगह हमने लिखा-मन में जो भाव उदित होते है वे भाषा की सहायता से दूसरो पर प्रकट किए जाते है। इस पर उम्र भर कवायददानो की सोहबत और जु बादानो की खिदमत करके नामपाने वाले हमारे समालोचकों मे से एक ममालोचकशिरोमणि ने दूर तक मसखरापन छांटा है। श्राप की समझ में यहा पर सहायता गलत है। अब अाप को चाहिए कि जग देर के लिए जुबांटानी का चोगा उतार कर मेक्समूलर के सामने पावें । या अगर उर्दू फारमी ही के जाननेवाले अाप की समझ में सर्वज्ञ हो तो हेचमदानी का जामा पहन कर श्राप पंडित इकबाल कृष्ण कौल एम० ए० के ही सामने सिर झुकावें । 'रिसाले तालीम व तरबियत' नाम की अपनी किताब के शुरू ही में पंडित साहब फरमाते है---"अशयाए खार्जिया का इल्म हमको इन्ही कृवता के जरिए होता है। ...हवास के जरिए जो खयालात पैदा होते हैं...।' लेकिन इसरो को भी कुछ समझने और उनकी बात मानने वाले जीव और ही होते हैं। बहुत तरफ की बाते फाकने का ख्याल आते ही इन जीवो को तो जुड़ी आ जाती है । ये इन्हे हजम ही नही होती । ह्जम होती है सिर्फ एक चीज-प्रलाप । उसे वे इतना खा जाते हैं कि उगलना पड़ता है।"
सरस्वती, 'भाग ७, सं० २, पृ० ६३।। ४. “योग्य समालोचक के लिए यह कोई नहीं कह सकता कि जिसकी पुस्तक की तम समालोचना करना चाहते हो उसके बराबर विद्वत्ता प्राप्त कर लो तब तो समालोचना लिम्बने के लिए कलम उठानो। होमर ने ग्रीक भाषा मे 'इलियड' काव्य लिखा है । वाल्मीकि और कालिदास ने संस्कृत में अपने काव्य लिखे है। फिरदौसी ने फारसी म शाहनामा' लिखा है। कौन ऐसा समालोचक इस मसर है जो इन भाषाओं में पूर्वोक्त विद्वानों के महश योग्यता रखने का दावा कर मकता हो ?"
ग्रालोचनाज'ल' प० ३