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पारतोक्क्तिा का ओर उन्मुग्व है ।
ये गद्य काव्य 'बासवदत्ता', 'दशकुमार चरित', 'हर्ग चरित', 'कादम्बरी' आदि संस्कृत गद्य-काव्यों मे अनेक बातों में भिन्न हैं। कथावस्तु की दृष्टि बे प्राचीन--काव्य अाधुनिक उपन्यासो के पूर्व रूप हैं, इसलिये उन्हें 'पाख्यायिका' या 'कथा' बहा गया है। यहा त कि मराठी में उपन्यास के लिए कादम्बरी शब्द का ही प्रयोग किया जाता है । अाधुनिक गबकाव्य में इस प्रकार की कशा वस्तु का सर्वथा अभाव है । इसका कारण यह है कि अाज साहित्य ही नहीं सारा वाडमय ज्ञान विस्तार के माथ ही माय अनेक भागों में विभाजित होता जा रहा है। इसीलिये तब की पाल्यायिका और कथा के स्थान पर अब वहानी, उपन्यास और गद्यकाव्य तीन रूप दिखाई पड़ते हैं। आख्यायिका, कथा, उपन्यास श्रादि के रूप में दूसरों का वर्णन करते करते लेखक का हृदय थक गया और आत्माभिव्यक्ति के लिए रो पड़ा । वतमान गद्यगीत उसके उसी अाकुल अन्तर के शब्द प्रतीक हैं । वाणभट्ट ने भी अपने हर्ष चरित्र' के प्रारम्भिक अध्यायों में अपना चरित लिखा था किन्तु उनकी वह अभिव्यक्ति अध्यान्तरिक न होकर जीवन वृत्त-मात्र थी ! वे प्रबन्ध काव्य हैं, उनमें प्रबन्ध व्यंजकता है और रस परिपाक की ओर विशेष ध्यान दिया गया है ।२ द्विवेदो-युग के गद्यकाव्य लघुपबन्धमुक्तक हैं और इनमें रम परिपाक का प्रयास न करके कोमल भावी की मार्मिक अभिव्यक्त ही की गई है । उन संस्कृत कवियों ने शब्द-चमत्कार और अलंकारादि की अोर बहुत ध्यान दिया । हिन्दो-गद्रकाव्य कश्मिो के गीत एक श्वेतवसना तप प्रत १. “हे मेरे नाविक, यह कैसी बात है जब मेरी नाव मंझधार में थी तब तो तुम्हे हटाकर
मैंने डाँड लेलिए थे और तुम्हारे आसन पर आसीन होकर बड़ा भारी खेया बन बैठा था । पर जब वह धार मे पार होकर गम्भीर जल मे पहुँची तब मै हारकर उसे तुम्हार भरोले छोड़ता हूँ। ___ तब तो नाव धार के सहारे बह रही थी, खेने की आवश्यक्ता ही न थी । इसी म मेरी मूर्खता न खुली । पर अब ? अब तो इम गम्भीर जल से चतुर नाविक के बिना और कौन नाव निकाल सकता है ?
परन्तु मै तुम्हारी बडाई किम मुख मे करू. ! तुम मरी मर्वता और अभिमान तथा अपने अपमान की अोर नहीं देवते और सोम डॉड नाव किनारे की ओर चलाते हो ।'
"राय कृष्णादाम'"साधना, पृ. ३१ । २. स्फुरस्कलाला पविलासकोमला करोति राग हृदि कौतुकाधिकम् । रसेन शरयां स्वयमभ्युपागता कथा जनस्यामिनवावधूरिव ॥
__बाणभट्ट, 'कादम्बरी' की प्रस्तावना । ३. सरस्वतीदत्तवरप्रसादश्चक्रे सुबन्धुः मुजनैकबन्धुः । प्रत्यक्षरश्लेषमयप्रबन्धविन्यासवैदग्थ्यनिधिनिबन्धम् ।।
सुर धुक्त वासवदत्ता का प्रारम्भ