________________
१३ । भक्त अवाचीन कविया की धनकामना भी न थी और न उनकी काव्यनिब धना तुलसी
आदि की भाति स्वान्त मुखाय ही हुई थी उनकी अधिमाश कवितामा का प्रयोजन है ‘कान्तासम्मिततथोपदेश' । अपने कवि-जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में हिन्दी-पाठको को संस्कृत की काव्यमाधुरी का श्रास्वाद कराने, संस्कृत के सुन्दर वर्णवृत्तों को हिन्दी में प्रचलित करने
और अतिश्रृंगारिक काव्यो को सबके पढने योग्य बनाने के लिए उन्होंने संस्कृत के 'वैराग्यशतक', 'गीतगोविद', 'शृंगारशतक', 'महिम्नस्तोत्र', 'ऋतुसमर' और 'गंगास्तवन', के छन्दोबद्ध अनुवाद किए। बाद की रचनाओं में मुधारक का स्वर विशेष प्रधान है । उनमें उनका उद्देश गद्य और पद्य की भाषा एक करके साहित्यसामग्री को समाजव्यापी बनाना रहा है । ऋषि द्विवेदी पर संस्कृत और मराठी का प्रभाव एवं खडी बोली तथा हिन्दू-संस्कृति के प्रति पक्षपात की प्रवृत्ति सर्वत्र ही स्पष्ट है। ___द्विवेदी जी को काव्यकसौटी पर एकबार उनकी कविताश्नों को परख लेना सर्वथा सनीचीन होगा। उन्होंने कविता की कोई मौलिक परिभाषा न देकर संस्कृतसाहित्यशत्रियोंके काव्यलक्षणो का निष्कर्ष मात्र निकाला है--
मुरम्यरूपे ! रसराशिरजित ! विचित्रवर्णाभरणे ! कहा गई १ अलौकिकान दविधायिनी ! महार वीन्द्रकान्त | कविते ! अहो कहा ? सुरम्यता ही कमनीय कान्ति है अमूल्य प्रान्मा रस ह मनोहरे ?
शरीर तेरा सब शब्दमात्र है, नितान्त निष्कर्ष यही यही, यही ॥२ उनके गद्यनिबन्ध-'कवि बनने के मापेक्ष माधन', कवि और कविता', 'कविता' श्रादिभी उपयुक्त लक्ष की पुष्टि करते हैं । कविता को कान्ता का उपमेय मानना संस्कृत के साहित्यकारो की परम्परागत माधारण बात है।४ संस्कृत के प्राचीन प्राचार्यों ने 'शरीर ताव
भगवान, भारतवर्ष में गूजे हमारो भारती ॥ 'भारत-भारती' । १. धावक
"धावकादीनामिव धनम्"
_ 'काव्यप्रकाश', प्रथम उल्लास, दूसरी कारिका की वृत्ति । २. द्विवेदी-काव्यमाला, पृ० २६१ और २६५ । ३. 'रमजरंजन', पृ० २०, ३० और १० । ४. क. 'अनेन वागर्थविदामल कृता विभाति नारीव विदग्धमंडला'।
भामह,३,५७ । ख. यामिनीवेन्दुना मुक्ता नारीव रमएं बिना । लक्ष्मीरिव ऋते त्यागासो वाणी भाति नीरसा ॥
स्दम श्र गारनिवर्क