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लिग्बा-पढी के पश्चात उन्हाने अपनी मम्मति दे दी।
४.५.६. मई, १६३३ ई० को मेले का उत्सव मनाया गया १५० मदनमोहन मालवीय ने उदघाटन और डा. गगानाथ झा ने सभापतिन्व किया । सी० वाइ० चिन्तामणि, जस्टिस उमाशकर बाजपेयी श्रादि महान व्यक्ति भी मंच पर विराजमान थे । अपने भाषण में डा. झा ने द्विवेदी जी को अवरुद्व कंठ में अपना गुरु स्वीकार किया और उनका चरण-स्पर्श करने के लिए मुक पडे । द्विवेदी जी झट कुर्मी छोडकर अलग जा बड़े हुए। समस्त जनता इस दृश्य को मत्रमुग्ध की भाँति देग्वती रही । आवेग शान्त होने पर द्विवेदी जी ने कहा"भाइयो, जिस ममय डाक्टर गंगानाथ झा मेरी अोर बढे, मैने मोचा, यदि पृथ्वी फट जाती और मै उसमें ममा जाता तो अच्छा होता !"२
पश्चिमीय देशो के लिए यह मेला कोई नूतन वस्तु भले ही न हो परन्तु हिन्दी-संसार के लिए तो यह निराला दृश्य था । हिन्दी-प्रेमियो ने तो इस मेले का आयोजन किया था अपने माहित्य के अनन्य पुजारी द्विवेदी जी की पूजा करने के लिए परन्तु अपने वक्तव्य में द्विवेदी जी ने इसका कुछ और ही कारण बतलाया--- "अाप ने कहा होगा-बूढ़ा है, कुलद्रुम हे, अाधि-व्याधियों में व्यथित है, नि.नहाय है, सुतदार और बन्धु-बान्धवा मे रहित होने के कारण निगश्रय है ! लायो, इन अपना आश्रित बना ले । अपने प्रेम, अपनी दया और अपनी सहानुभूति के सूचक इस मेले के माथ इसके नाम का योग करके इस कुछ मान्त्वना दने का प्रयत्न करे, जिसमें इसे मालूम होने लगे कि मेरी भी हितचिन्तना करने वाले और शान्तिदान का सन्देश सुनाने वाले सजन मौजूद है'। द्विवेदी जी अपनी शालीनता और मृजुता की रक्षा के लिए चाहे जो कुछ कडे, द्विवेदी-मले के प्रबन्धको ने इस अभूतपूर्व याजना द्वारा अपने माहिल-प्रेम का परिचय देकर हिन्दी का मस्तक ऊंचा किया।
कवि- सम्मेलन के अवमर पर 'कुछ छिछोरे छोकरी'४ के विश्न करने पर भी मेले की मफलता में कोई अन्तर नहीं पडा । द्विवेदी जी के आदेशानुमार मातृभाषा की महत्ता' विषय पर एक निबन्ध प्रतियोगिता की गई और उनका प्रदत्त ना कपए का पुरस्कार : मई, ३४ इ० को सैयद अमीर अली मीर को प्रदान किया गया ।"
१. क. दौलतपुर में रक्षित कन्हैयालाल का पत्र ६.११. ३२ ई० । ___ ख मेले के समय द्विवेदी जी का भाषण, पृष्ट । २ 'सरस्वती'. भाग ४०, मंग्या २, पृष्ट १६४ ।। ३. मेले के अवसर पर द्विवेदी जी का भाषण, पृ. ६ । ४ भारत ५ ६ ३३ ई. ५ भारत १६ १ ३४०