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मिश्र बालमुकुद गुप्त श्रादि ने जनता को इन विनाशकारी प्रभावों से बचने के लिये चेताव दी, समाज सुधार और स्वदेशी श्रादोलन सम्बधी विषयों पर ग्राम गीत लिसने और लिखा का प्रयास किया जिससे जागरण का नूतन स्वर अशिक्षित जनता के कानों तक भी पहुँच सके। भारतेन्दु ने जनपद-साहित्य के योग्य रचनाएँ की, अंगरेजी साहित्य और शिक्षा बेकारी, सरकारी कर्मचारियो, पुलिस कचहरी, कानून उपाधियों, विधवा-विवाह, मद्यपार मुन्दर मुकरियाँ लिखी--
सब गुरु जन को बुरो बतावे, अपनी खिचड़ी आप पकानी । भीतर तत्व न झूठी नेजी, क्यों सखि साजन? नहिं अगरेजी !! तीन बुलाए तेरह आवे, निज निज विपदा रोइ सुनावें। आँखी फूटे भरा न पेट, क्यों सखि साजन? नहिं मेजुएट । ' मतलब ही की बोले बात, राखे सदा काम की घात । डोले पहिने सुन्दर समला, क्यों सखि साजन ? नहिं सखि अमला ॥ रूप दिखावत सरबस लूटे, फन्दे में जो पड़े न छूटे। कपट कटारी हिय में हूलिस, क्यों सखि साजन ? नहिं सखि पूलिस ॥ २
'बाल-विवाह से हानि', 'जन्मपत्रो मिलाने की अशान्त्रता' 'बालकों की शिक्षा अंगरेजी फैशन से शराब की श्रादत', 'भ्र णहत्या', 'फूट और बैर', बहु-जातित्व और बहुभक्तित्व', 'जन्मभूमि से स्नेह और इसके सुधारने की आवश्यकता', 'नशा', अदालत', 'हिन्दुस्तान की वस्तु हिंदुस्तानियों को व्यवहार करना चाहिये' अादि विषयों पर रचनाएँ की गई । 'हरिश्चन्द्र मेगजीन में प्रकाशित 'यूरोपीय के प्रति भारतवर्षीय के प्रश्न' और 'कलिराज की सभा' में सरकार के पिट्ठों पर श्राक्षेप है। उसी के सातवें अङ्क में नये अंगरेजी पढे-लिखे लोगों का अच्छा उपहास किया गया है। 3
भारतेन्दु ने साहित्य को समाज से संबद्ध करने का प्रयास किया। उनके नाटकों में तत्कालीन सामाजिक दशा की सुन्दर व्यंजना हुई है। 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' में उन्होंने धार्मिकता के नाम पर प्रचलित सामाजिक अनाचारों और स्वार्थ लोलुप जनों का चैत्रण किया है । "विषस्य वित्रमौषधम् में देशी नरेशों के बीभत्स दृश्य अङ्कित कर के दूषित बाताबरण और दयनीय दशा की झॉकी उपस्थित की गई है।
१ भारतेन्दु-अन्थावली', पृ०८१० २ भारतेन्दु-ग्रन्थावली', पृ०८११
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