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प्रसार श्रीमान पनित ना महराज प्रणाम
कृपण कार्ड मिला। जिने कहीं से अनुकूलता की ग्राशा नहीं होती वह एकान्त में अपने देवता के चरणों में बैठकर, मले ही वह दोपी स्वयं हो, उसी को उपालम्भ देता है । ऐसे ही मैंने किया है— तस्मात्तवास्मि नितरामनुकम्पनीयः ।
मेरे सबसे छोटे भाई चारुशीलाशरण का वचा अशोक कभी-कभी खीझ कर मेरी टागो मे अपना शिर लगा देता है और मुझे ठेलता हुआ अपना अभिमान प्रकट करता है। समझ लीजिए, ऐसा ही मैने किया है और मेरा यह व्यवहार सहन कर लीजिए-गीता के शब्दों में पितेव पुत्रस्य ।
चरणानुन्चर
मैथिली ११
गुप्त जी के श्रद्धावति पत्र ने द्विवेदी जी की पूर्ववत् प्रसन्न कर दिया। श्यामसुन्दर दाम, बालमुकुन्द गुप्त, लक्ष्मीधर बाजपेयी, बी० एन० शर्मा, कृष्णकान्त मालवीय आदि माहित्यकारों से द्विवेदी जी की ग्वटपट हुई। उनकी उग्रता या विवादों का कारण उनकी सत्यप्रियता, न्यायनिष्ठा, स्पष्टवादिता और इससे भी महत्तर हिन्दी - हितै पिता थी । यदि वे एक ओर उग्र और क्रोधी थे तो दूसरी ओर क्षमा और दया की राशि भी थे । वे परशुराम और तथागत गौतम के एक साथ अवतार थे। इसको पाप में कह कर पुण्य कहना ही अधिक युक्तियुक्त है।
द्विवेदी जी के चिन्तन, वचन और कर्म में, विचार और आदर्श में, ग्रभिन्नता थी 1 दूसरी के प्रति वे वही व्यवहार रखते थे जिसकी दूसरो में आशा करते थे । उनकी वाणी में निम्नाकित श्लोक बहुधा मुखरित हुआ करता था - २
लज्जागुणजननी जननीमित्रस्यामत्यन्तशुक्लहृदयामनुवर्तमानाम् ।
तेजस्विन. मुखमपि सत्यजन्ति सत्यत्रतव्यमनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ||
उनकी न्यायप्रियता इतनी ऊँची थी कि अपनी भी मची थालोचना सुनकर व प्रसन्न होते थे । २७५ १६१० ई० को पद्मसिंह शर्मा को लिखा था---
"इस हफ्ते का भारतोदय श्रवश्य मनोरंजक है । कुछ पढ़ लिया। बाकी की भी पहूंगा। 'शिक्षा' की ममालोचना के लिए धन्यवाद । खूब है। पढ़ कर चित्त प्रसन्न हुआ। पर आप
१ दौलतपुर में रचित गप्त जी का पत्र
५ द्विवेदी मीर्मानां पृ० २३२