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का माफी मांगना अनचित छुपा ।
जब वैयाकरण कामताप्रसाद गुरु ने द्विवेदी जी के 'राजे', 'योद्ध', 'जुदा जुदा नियम', 'हजारहा' श्रादि चिन्त्य प्रयोगो की चर्चा की तब उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया--प्राप मेरे जिन प्रयोगो को अशुद्ध समझते हैं उनकी स्वन्त्रता से समालोचना कर सकते हैं। ये रिश्वत, झठ आदि से डरने वाले धर्मभीरू थे । इस कथन की पुष्टि अधोलिखित पत्र मे हो जाती है--
"श्रीमन्
में रिश्वत देना नहीं चाहता । मै झठ बोलने से डरता है। यह मुझे न करना पड़े तो अन्छा हो ।...13
मम्पादक, भानररी मुंसिफ और ग्राम पंचायत के सरपंच के जीवन-काल में उन्हें न जाने कितने प्रलोभन दिए गए। द्विवेदी जी ने उन सबको ठुकरा कर कर्तव्य और न्याय की रक्षा की, उन पर तनिक भी आँच न आने दी। सम्पादनकाल मे अपने हानिलाभ का ध्यान न रखकर सदा ही 'सरस्वती' के स्वामी और पाठको का ध्यान रखा । न्यायाधीश के पद से, न्यायाधिकरण मे व्यवहार चाहने वालो के पाप और पुण्य को निष्पक्ष भाव में न्याय की तुला पर तोला । सामारिक शिष्टाचार और कृत्रिमता से दूर रह कर उन्होंने जीवन की सच्चाई को ही अपना ध्येय माना । दब कर किमी मे बात नहीं की, क्योंकि उनमें स्वार्थ की भावना न थी। द्विवेदी जी की अालोचनाएँ उनकी निर्भीकता, सष्टता और मत्यवादिता प्रमाणित करती है । अपनी कर्तव्यपरायणता और न्यायनिष्ठा के कारण ही व अनेक मायिक महानुभावो के शत्रु बन गये । यहाँ तक कि अध्ययनागार में भी उन्हें श्रात्मरक्षा के लिए तलवार, बन्दूक आदि शस्त्रास्त्र परखने पड़े।
द्विवेदी जी सिद्धान्त और शुद्धता के पक्षपाती थे। वे प्रत्येक कार्य में व्यवस्था, निय
१ 'मरम्वती', नवम्बर, १६४०ई० । २ 'सरस्वती', भाग ४०, पं० २, पृ० १३४. ३५ । ३ 'सरस्वती', जुलाई १९४०ई०, पृ०७४ । ४ मेटन प्रेस, लन्दन के एक Indian Empire number प्रकाशित हो रहा था । कविता.
विभाग के उप सम्पादक ने द्विवेदी जी से उनकी रचना माँगी । उक महोदय ने पत्र में द्विवेदी जी का नाम लिखा था Mahabur Prasad Deveda कविता भेजते हुए द्विवेदी जी ने उनसे निवेदन किया"If you accept it, please see that it is correctly printed, and sead me a copy of the puh icat on contin og it 1 no see that my name