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१५ समझा उनकी पयाप्त ममोहा की, जो उनम जी उनकी प्रशसा के पुल बाव दिए । जिन्हें दूषित या निकृष्ट समझा उनको तीव्र एवं प्रतिकूल अालोचना की और जो पुस्तके माल्व हीन, घोर अंगारिक या अनुपयोगी प्रतीत हुई उनका नाम और पता मात्र देकर ही रह गए।
उन्होंने 'भाइर्न रिव्यू' की भाति भाषानों के नामानुसार शीर्षक देकर प्रतिमाम नियमित ए में विवि व भापायी की पुस्तकों की परीक्षा नहीं की। हाँ, पाठको के लाभ का ध्यान रखकर हिन्दी, उर्दू, मस्कृत, अँगरेजी, मराठी, गुजराती, बँगला, मारवाडी आदि भाषामा एवं साहित्य, धर्म, ममाजशास्त्र, राजनीति, विज्ञान, भूगोल, इतिहास, ज्योतिष, दर्शन कामशास्त्र, यात्रादि, स्थानादि, श्रायुर्वेद, शिल्प, वाणिज्य, कला श्रादि विषयों की रचनाओं, मासिक, साप्ताहिक, देनिक आदि पत्री, सभापतियों के भाषण, शिक्षा-संस्थानो की पाठ्यपुस्तको आदि पर वे टिप्पणियाँ प्रकाशित करते थे । __अालोचनार्थ पुस्तक भेजने वाला म सन्चे मुगा-दोष-विवेचन के इच्छुक बहुत कम थे। अधिकाश लोग ममालोचना के रूप में पुस्तक का विज्ञापन प्रकाशित कराकर श्रार्थिक लाभ अथवा उसकी प्रशंमा प्रकाशित कराकर अपनी यशोवृद्धि करना चाहते थे : प्रतिकल ममीक्षा होने पर असन्तुष्ट लोग कभी अपने नाम न, कभी बनावटी माम में, कभी अपने मित्रा, मिलने वाला या पार्षदो में प्रतिकुल समीक्षा के एक एक शब्द का प्रतिवाद उपस्थित करत या करते थे। कुछ लोग तो घुस्तक की भूमिका में ही यह लिवा देत थे कि कटु आलोचना म लन्त्रक का उल्मा भग हो जायगा ।" द्विवेदी जी ने निम पुस्तक को ज्ञान, कला पार उपयोगिता को कमोटी पर जैसा पाया, उसकी वैसी बालोचना की । रचनाकार की माहित्यिक रस्ता या लघुता का ध्यान न करके न्यायपूर्वक आलोचक की कैंची चलाई। किमी की अप्रसन्नता और प्रनिशाधभावना की उन्होंने रनीभर भी परवाह न की !
मानव-मस्तिष्क नाव की अपेक्षा रूप में अधिक प्रभावित होता है । इमीलिए शिक्षा पद्रति में चित्रों का स्थान बहुत ऊंचा है। द्विवेदी जी ने पाठको के बौद्धिक और हादिक विकाम के लिए मादे और रंगीन चित्रो में सरस्वती' को अल कृत किया। चित्री , विषयानुसार वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है---- १ 'चन्द्रगुप्त की परीक्षा--सरस्वती' भाग १४, पृ० २५३ ।। २. 'भारत-भारती-'सरस्वती, अगस्त १९१४ ई०, ३ भाषापद्य व्याकरण'-~-'सरस्वती', अगस्त १६१६ ई. ४ प्रायः प्रत्येक अंक में इसके उदाहरण प्राप्य है।
कामकार'सरस्वती', १११७. पृ३२७ के पापार पर
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