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द्विवेदी जी का दोषमूलक आलोचना के अनेक उद्दश थ हिन्दी में बटत हुए कूडाकर कट के संहार के लिए 'भाषा-पद्य व्याकरण' आदि की खंडनप्रधान तीव्र आलोचना की
निवार्य अपेक्षा थी । लाला सीताराम आदि लेखकों के अनुवादों की दोषमूलक समीक्षा का लक्ष्य था कालिदासादि महान् कवियों के गौरव की रक्षा | "हिन्दी - नवरत्न' आदि की आलोचना द्वारा वे लेखकों को सुधार कर साहित्य-रचना के आदर्श मार्ग पर लाना चाहते थे । कालिदास की निरंकुशता' जैसी समीक्षा माहित्यमर्मज्ञों के मनोरंजनार्थ लिखी गई थी | इन समालोचनाओ के शरीर भी अनेक प्रकार के थे । 'कलासर्वज्ञसम्पादक', " 'काशी वैसे ही हैं या नहीं, और वे प्रस्तुत कवियां में पाये भी जाते हैं या नहीं ।"
'समालोचना - समुच्चय', पृ० २०७ । आपने कैसे पद्य में व्याकरण विषय सिखाये है सो भी देख लीजिए । अनुवाद विपय पाठ आप यो पढते हैं-
प्रथम स्वभापा वाक्य को स्यामपटल पर लिखी । बालकगण स्वकापी पर प्रतिलेख सबै लिखौ || प्रथम कर्ता क्रिया कहें अन्य भाषा जाने } प्रश्नद्वारा शब्द रवै तुल्य कारक जाने || क्रियापद स्थान देखि क्रियापदे प्रकाशे । वर्ता कर्म क्रिया जोड़ि लघुवाक्य प्रकाश ||
भगवान पिगलाचार्य ही आपके इस छन्द का नामधाम बतावै तो बता सकते हैं, और आपके इस समग्र पाठ का अर्थ भी शायद कोई श्राचार्य ही अच्छी तरह बता सके । ''''
आपने पुस्तकादि में जो एक छोटी सी भूमिका लिखी है, उसका पहला ही वाक्य है 'मैने यह पुस्तक बड़े परिश्रम से बनाई है और आज तक ऐसी पुस्तक भारतवर्ष में किसी से नही लिखी गई ।' सचमुच ही न लिखी गई होगी। आपके इस कथन में ज़रा भी ऋत्युक्ति नहीं । भारतवर्ष ही में क्यों शायद और भी किसी देश में भी ऐसे पद्य में ऐसा व्याकरण न लिखा गया होगा । "
आचार्य जी ने अपने व्याकरण का आरम्भ इस प्रकार किया हैश्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधारि ।
व्याकरण पद्य में जो दायक फल चारि ॥
खो धार्मिक हिन्दुओं को चतुर्वर्ग की प्राप्ति के लिए पूजापाठ, दानपुण्य छोड़कर केवल आपके व्याकरण का पारायण करना चाहिए। तुलसीदास पर जो आपने कृपा की है उसके लिए हम गोसाई जी की तरफ में कृतज्ञता प्रकट करते हैं।
' विचार-विमर्श', पृ० १८५.८६ |
२. देखिए 'हिन्दी कालिदास की समालोचना', पृ० ७२ ३ ' समालोचना-समुच्चय' पु०२८६ ।
४ देखिए 'कालिदास की निरंकुशता', पृ० ३ ।
१६०३ ई० पू० १० प० ३६
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