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त्रि को तृप्त करने का प्रयास न करके उन्होंने उसके परिष्कार का ही उद्योग किया इस अर्थ में उन्होने लोकरुचि और लोकमत की अपेक्षा अपने सिद्धातों और आदर्शो का ही अधिक ध्यान रखा । वस्तुतः उनके सम्पादक-जीवन की समस्त साधना 'सरस्वती' - पाठको के ही कल्याण के लिए थी । विविधविषयक उपयोगी और रोचक लेम्बो, ग्राख्यायिकाया, कविताश्री, श्लोकों, चित्रों, व्यंग चित्रों, टिप्पणियों आदि के द्वारा जनता के चित्त को 'सरस्वती' के पठन में रमाया ।
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आज 'वीणा, ' 'विशाल भारत' 'हंस' 'माधुरी' 'विज्ञान' 'भूगोल' साहित्य - संदेश' आदि अनेक व्यापक एवं विशिष्ट विषयक पत्रिकाएँ हिन्दी का गौरव बढ़ा रही हैं । द्विवेदी जी के सम्पादन-काल में, खद्योत सरीखे साप्ताहिक और मासिक पत्रों की उस अंधकारमयी रजनो में, अपनी अप्रतिहत प्रभा से चमकने वाली एक ही ध्रुवतारिका थी- 'सरस्वती' । तव उसमे कुछ प्रकाशित कराना बहुत बड़ी बात थी। लोग द्विवेदी जी को अनेक प्रलोभन देते थे | ‘कोई कहता- मेरी मौसीका मरसिया छाप दी, मैं तुम्हें निहाल कर दूंगा । कोई लिखताअमुक सभापति की स्पीच छाप दो, मैं तुम्हारे गले में बनारसी डुपट्टा डाल दूंगा । कोई चामा देतामेरे प्रभु का सचित्र जीवन चरित्र निकाल दो तो तुम्हें एक बढिया घडी या पैरगाडी नज़र की जावेगी । द्विवेदी जी अपने भाग्य को कोसते और बहरे तथा गूंगे बन जाते थे । पाठको के लाभ के लिए स्वार्थी की हत्या कर देने में ही उन्होंने गौरव, सुख और शाति का अनुभव किया । शक्कर की थैलिया मेट करने वाले सजन को उन्होंने मुँहतोड उत्तर दिया था - "तुम्हारी थैलिया जेसी की तैमी रवी है । 'सरस्वती' इस तरह किसी के व्यापार का साधन नहीं बन सकती । १२
सत्समालोचना के श्रागे उन्होंने सम्बन्धी को प्रधानता नहीं दी । उनकी खरी और अप्रिय आलोचनात्रों से सन्तुष्ट अनेक सामाजिक सत्पुरुषो ने 'सरस्वती' का बहिष्कार कर दिया परन्तु द्विवेदी जी डिगे नहीं | स्वार्थी और मायावी संसार परार्थी और अमायिक द्विवेदी की सच्चाई का मूल्य न ग्रॉक सका । उन्होंने अपने ही लेबो- 'विक्रमाक देव-रितचर्चा, ' 'नाट्यशात्र', 'व्योम विहरण' यादि -- को स्थानाभाव के कारण न छाप कर दूसरों की रचनाओं को उचित स्थान और सम्मान दिया । ४ 'सरस्वती' को वाद-विवाद के चमरपन में बचाने के लिए उन्होंने अपना ही लेग्य 'शील निधान जी की शालीनता' 'भारतमित्र' मे छपाया ।" यह एक सम्पादक की न्यायनिष्ठा और निष्पक्षता की पराकाष्ठा थी ।
१. 'श्रात्मनिवेदन', 'साहित्य-संदेश', एप्रिल १६३६ ई०, पृ० ३०४
२.
'द्विवेदी - अभिन्दन ग्रन्थ', पृ० ५४३ ३. ' श्रात्म-निवेदन', 'साहित्य संदेश', एप्रिल सांवत्सरिक सिंहावलोकन' 'सरस्वती',
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५ काशी - नागरी प्रचारिणी सभा के
१६३६ ई०, पृ० ३०४ भांग ५ संख्या
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में रक्षित कतरनें