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उस विपम काल में जब न तो माहित्य-सम्मेलन की योजनाएं थी, न विश्व-विद्यालयों और कालेजो में हिन्दी का प्रवेश था, न रंग-बिरंगे चटकीले मासिकपत्र थे, हिन्दी के नाम पर लोग नाक भौ सिकोडने थे, लेख लिखने की तो बात ही दूर रही, अँगरेजीदा बाबू लोग हिन्दी मे चिट्ठी लिग्वना भी अपमान-जनक समझते थे, जनसाधारण में शिक्षा का प्रचार नगण्य था, हिन्दी-पत्रिका 'सरस्वती' को जनता का हृदय-हार बना देना अदि अमाध्य नही तो कष्टमाध्य अवश्य था। हिन्दी के इने गिने लेग्वक थे और वे भी लकीर के फकीर । ममाज की श्राकाक्षाएँ बहुमुग्त्री थी । इतिहास पुरातत्व, जीवन-चरित,पर्यटन, ममालांचना, उपन्यास, कहानी, व्याकरण, काव्य, नाटक, कोप, गजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन, विज्ञान, सामयिक प्रगति, हास्य-विनोद आदि सभी विषयों की विविध रचनायो और तदर्थ विपन्न हिन्दी को मम्पन्न बनाने के लिए विशिष्ट कोटि के लेखकों की अाबश्यकता थी । काल था गद्यभाषा लडीबोली के शैशव का। काशी-नागरी-प्रचारिणी समा में सुरक्षित 'सरस्वती' की हस्त-लिम्बित प्रतियाँ इस बात की साक्षी हैं कि तत्कालीन साहित्यकाराकी तुनली भाषा व्याकरगा आदि के दोपों में कितनी भ्रष्ट और भावाभिव्यंजन में कितनी श्रममयं श्री।
लेखकों की कमी का यह अर्थ नहीं है कि लेन्बक थे ही नहीं। 'सरस्वती' के अस्वीकृत लेग्या मे स्पष्ट सिद्ध है कि लेग्वको की मंज्या पर्याप्त थी । परन्तु उनको रद्दी रचनाएँ अनभीष्ट थी। सम्पादन-काल के प्रारम्भ में 'सरस्वती' को आदर्श पत्रिका बनाने के लिए द्विवेदी जी को अथक परिश्रम करना पड़ा। इस कथन की पुष्टि में १६०३ ई० की 'मरम्वती' का निम्नाकित विवरण पर्याप्त होगा---
मंख्या-मूलक विवरण
'सरस्वती' को मख्या । कुल रचनाएं
अन्य लेखको की
द्विवेजी जी की
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१ काशी नागरी प्रच रिसा ममा के कलाभवन में रचित