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चौथा अध्याय
कविता
'कविता करना आप लोग चाहे जैमा समझे हमें तो एक तरह दुस्साध्य ही जान पड़ता है। अज्ञता और अविवेक के कारण कुछ दिन हमने भी तुकबन्दी का अायास किया था। पर कुछ समझ पाते ही हमने अपने को इस काम का अनधिकारी समझा। अतएव उस मार्ग से जाना ही प्रायः बन्द कर दिया ।
द्विवेदी जी की उपर्युक्त उक्ति मे शालीनोचित कोरी नम्रता ही नहीं सत्यता भी है। श्रेष्ठ काव्य की स्थायी प्रदर्शिनी मे उनकी कविताओं का ऊंचा स्थान नहीं है। उनके निबन्यो को 'बाता के सग्रह' कहने वाले उनकी कविताओं को भी एक नज्ञ की तुकबन्दी कह सकते हे । द्विवेदी जी ने स्वयं भी उन्हे काव्य या कविता न कहकर तुकबन्दी या पद्य ही माना है। परन्तु आधुनिक हिन्दी काव्य के इतिहास में उनकी कविताग्री के लिए एक विशिष्ट पद १. द्विवेदी जी की उक्ति, रमजरंजन' पृ० २० । २. 'सुमन' की भूमिकामे उसके प्रकाशन की चर्चा करतेहुए मैथिलीशरणगुप्त ने लिखा है--
"परन्तु स्वयं द्विवेदी जी महाराज इस ओर से उदामीन थे । जब मैंने इसके लिए उनसे प्रार्थना की तब उन्होंने इसे व्यर्थ का परिश्रम कहकर मुझे इस काम मे विरत करना चाहा । गुरुजनो के साथ विवाद करना अनुचित समझ कर मैने उनकी बात का विरोध न करके अपनी बात का अनुब बारम्बार किया । झर क्या कह', मन ही मन विरोध भी किया। द्विवेदी जी महाराज को कुछ भी जानने का सौभाग्य जिन्हें प्राप्त है उन्हें ज्ञात है कि वे कितने कृपालु और वत्सल हैं । इच्छा न रहने पर भी बे बालहठ को न टाल सके । मुझे किसी तरह अाज्ञा मिल गई। परन्तु फिर भी एक प्रतिवन्ध लगा दिया गया । वह इस तरह---
मुझे अपने कोई पद्य पसंद नहीं ।""आप की सलाह है, इसमे चुनकर भेजता है । नाम पुस्तक का आप ही रख दीजिए । नाम में पद्य हो, काव्य या कविता नहीं । नाम विल्कुल ही महत्वहीनतासूचक होना चाहिए।" एक छोटी सी भूमिका श्राप ही लिख दीजिए । पद्यो की तारीफ मे कुछ न कहिए।
ऐतिहासिक सत्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती। हिन्दी में बोलचाल की भाषा का जो स्रोत उमड रहा है और कवितागत भाव मे जो परिवर्तन दिनाई दे रहा है, उसका उद्गम
और मार्गनिर्देश इन रचनाओं की उपेक्षा नहीं कर सकता। क्या यही एक कारण इनके प्रकाशित किए जाने के लिए पर्याप्त नहीं है १ ।
मैविलीशरण गुप्त"
सुमन + भमिता