Book Title: Jain Tattvadarsha
Author(s): Vijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Atmaram Jain Gyanshala
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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000००००००००००००००००००००००००००००००००००००.866666666688०००.३ RASTAsaseaseasesasaram श्रीमद्विजयानंदसूरिविरचित श्री जैनतत्त्वादर्श. SSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSS65668VASSSSSSSSSSSS556762555316553Skisxsssssssssssssssasia नाषान्तर करनार, वकील मुलचंद नथुभाई नावनगर छपावी प्रसिद्ध करनार, श्रीवात्मारामजी जैनज्ञानशाला तथा पुस्तकालयनी कार्यदद सना. नावनगर 00000000000 संवत १९५६. कारतक सुद १५ सने १८९९. मुल्य चार रुपीआ. आ ग्रंथ मुंबई निर्णयसागर प्रेसमा छाप्यो. ग्रंथस्वामित्वना सर्व हक्क प्रसिद्ध करनाराए पोताने स्वाधिन राखेला . RS Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हंसराज बच्छराज नाहटा सरदारशहर निवासी द्वारा जैन विश्व भारती, लाडनूं को सप्रेम भेंट - आ ग्रंथ मलवाना ठेकाणां. १ अमारे त्यांथी. दोशी गुलाबचंद श्राणंदजी. लाश्ब्रेरीयन मारफत. ५ मुंबश् शा. जीमशी माणक जैनपुस्तक वेचनार मांडवीबंदर. ३ जावनगर जैनधर्म प्रसारक सना श्राफीस. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्पण पत्रिका. - अनेक गुणगणालंकृत सुज्ञ मुरबी शेठ __ आणंदजी परशोतमनी सेवामा मुण नावनगर. बाल्यावस्थाथी स्वशक्तिबले सांसारिक व्यापारमा अन्युदय प्राप्त थवाथी श्रापे खोपार्जित अव्यनो,अन्य अन्य प्रसंगे, तीर्थयात्रा, उद्यापन (उजमणु) अहा महोत्सव, शत्रुजय महातीर्थ । उपर जीनबिंबोनुं स्थापन, श्रदयनीधियादि धर्मकार्योमां अंतःकरणना धार्मिक उत्साहथी व्यय करी पोताना आत्माने निमल करेलो डे, अने तेवी निर्मलता प्राप्त थवाथी वृद्धावस्थामा शांतरसनो आपना अंतःकरणमां जमाव थयो, तेनो प्रत्यक्ष अनुजव जावनगरना जैनसमुदायमां प्रसंगे प्रसंगे यता उंचा मनने शांति पमाडवामां आपनुं अंतःकरण साधनचूत थायडे, एवां अनेक कारणोने लीधे, तेमज मारा उपर आप अत्यंत प्रीति न राखो डो; तेथी था जापान्तररूप ग्रंथ आपने सविनय अर्पण करंडं ते स्विकारशो. र नावनगर, ता० १७ नोवेंबर ली. आझांकित, भाषांतर कर्ता. ՀԵս Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. नमे जाता महावीरो, नद्वेषो कपिलादिषु ॥ युक्तिमद् वचनंयस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ १ ॥ इत्याचार्य श्री हरिजन सूरिः ॥ जैनदर्शन सर्व दर्शनोमां श्रेष्ठ बे, एम पूर्वाचार्य श्रीमद् हरिनद्र सूरिए षट्दर्शन समुच्चय नामना ग्रंथमां व ए दर्शनोना देवता तत्वप्रमुखना यथार्थ विचार प्रदर्शित करी सिद्ध करी बताव्यं बे. मोक्षा जिलाषी श्रात्माने मोक्षपद प्राप्त करवामां जैनदर्शननुं श्राराधन एज सत्य सा धान बे. साधन रत्नत्रयीनुं श्राराधन करवुं तेज बे. ज्ञान, दर्शन, चारित्र रत्नत्रय बे. श्री तत्वार्थमां " सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्राणि मोक्षमार्गः एम यथार्थ सिद्ध करी बताव्युं बे. 35 वेदांत यादि दर्शनमा मात्र ज्ञाननेज मुक्तिनुं साधन मानेलुं बे. दर्शन, चारित्र तो तेमनी गणनामांज नथी. जुर्ज शंकराचार्यकृत अपरोक्षानु भूति, तथा विद्यारण्य खामिकृत पंचदशी. श्री शंकराचार्यकृत आत्मबोधमां चारित्र अर्थात् क्रियानी जरुरीयात बतावी बे, परंतु दर्शन अर्थात् सम्यग्दर्शननी मोक्षप्राप्तिमां केटली आवश्यकता बे ते संबंधी विचार जैनदर्शन शिवाय बीजा कोइपण दर्शनमां बिलकुल बताव्या नथी. सम्यग्दर्शननुं यथार्थ स्वरूप तो मात्र जैनदर्शनना पूर्वाचार्य प्रणीत गहन ग्रंयोनुं अवलोकन करवाथीज जाणी शकाय बे, तेमां पण गुरुगम ज्ञाननी आवश्यकता बे. जैनदर्शनमां सम्यग्दर्शननी मुख्यता बे, कारण के ते शिवाय ज्ञान छने चारित्र मोक्ष प्राप्त कराववामां श्रसमर्थ बे; श्रप्रमाणे बेतां सम्यग्दर्शन अने सम्यग् चारित्रनु मूल कारण सम्यग् ज्ञान डे. जो सम्यग् ज्ञान प्राप्त थाय तो सम्यग् दर्शन अने सम्यग् चारित्र से - जे प्राप्त थाय बे, परंतु सम्यक् ज्ञान प्राप्त धनुं ते अति दुर्लन . जुदा जुदा दर्शनना श्राचार्यांनी विद्वत्ता तेज॑ना ग्रंथोनुं अवलोकन कर वाथी स्पष्ट रीते मालम पडे डे. जुदा जुदा दर्शनना ग्रंथो अवलोकन क रशो तो आपने सिद्ध थशे के सम्यग् ज्ञान मात्र जैनदर्शनना ग्रंथोमांज बे. अवलोकन करती वखते निष्पक्षपात मतिनी पुरी जरूर बे. बी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. जाउँ वास्ते तो झुंज बोलवू, परंतु वेदांतमतना धुरंधर श्री माधवाचार्ये पोताना सर्वदर्शन संग्रह नामना ग्रंथमां जुदा जुदा शोल दर्शनना विचारो बतावेला, एकनुं बीजामां एम उत्तरोत्तर खंडन करेलुं बे, तेमां आईत (जैन) दर्शन संबंधी विचारो बतावतां जेजे बाबतोर्नु जेजे रूपे खं. डन करेलुं ते एवं तो विचित्र डे के, आ प्रसंगे हुं हिंमतथी लखी शकुं तुं के, तेवा महान् आचार्यने पण जैनदर्शन- यथार्थज्ञान न होतुं. सर्व दर्शनसंग्रहमा आईत दर्शननुं स्वरूप बताववामां ब अव्यसंबंधी तथा सप्तनंगीसंबंधी विचारो बताव्या . उ अव्यमा . “ धर्म अने अधर्म" जे प्रथमना बे अव्यो बे, तेनुं स्वरूप तदन असत्य ते स्थले बतावेलुं बे; जैनदर्शन- सत्यज्ञान जो तेमने होत तो ते बने पदार्थोनो जेवो तेमणे अर्थ कों ने तेवो करतज नहि; खोटो अर्थ करी असत्य खंडन कर्यु जे. खेर ! मात्र तेटलुंज नहि परंतु सप्तनंगीनी गहन शैली पण तेवा विछान् आचार्यने समजवामां आवी नथी, बता "नैकस्मिन्नसंचवात्" एम सूत्र लखी असत्य कल्पना बतावी . सप्तनंगीना असत्य खंडन- खंडन श्रीमद्विजयानंदसूरिजीए बहुज विस्तारथी करेलु जे जे थोडावखत पड़ी पाववामां आवशे, ते अवलोकन करवाथी वाचकवर्गने सिक शशे के जैनदर्शन अति गहन दर्शन बे, अने तेनुंज यथार्थ ज्ञान ते स. म्यग् ज्ञान . श्री माधवाचार्य जेवा महान् आचार्यपण जैनदर्शनना परम रहस्यथी अज्ञात हता, तो सामान्य विज्ञानो माटे तो झुंज बोलवू? आमारा लखाणनी साबिती माटे जीज्ञासुए जैनदर्शनना प्रवीण पुरुष पासे जैनदर्शन- यथार्थ ज्ञान नवतत्व प्रमुखनुं प्राप्त करी सर्व दर्शनसंग्रहमां वर्णवेला आईत दर्शनसंबंधी विचारो तथा तेनुं खंडन अवलोकन करवं, आर्यावर्तमां वसनारा तेमज बहारना विछानो मध्येनो मोटो नाग वेदांतदर्शनने सर्वोत्तम दर्शन माने बे, परंतु दिलगीरी मात्र ए बे के वेदांतनुं ज्ञान धरावनारा महाविद्वानो पण जैनदर्शन- यथार्थ ज्ञान प्राप्त करवा सारु तेना गहन ग्रंथोनो लेशमात्र अन्यास करता नथी. जैनदर्शन- यथार्थ ज्ञान पूर्वाचार्य श्रीमहरिजमसूरि तथा श्रीमद् हेमचंदाचार्य प्रमुखना रचेला अव्यानुयोग संबंधी ग्रंथोनुं सदगुरु समद अध्ययन करवायी थाय बे. संस्कृत नाषाना वेत्ताउँ, तर्कना नियमो लदमां Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ es प्रस्तावना. ल, पूर्वाचार्यप्रणीत जैनदर्शनना गहन ग्रंथोनुं अध्यन करे , त्यारेज तेने सर्व दर्शनो करतां जैनदर्शननी महत्वता, नासन थाय . जैनदर्शननुं यथार्थ ज्ञान थवा सारू प्राचीन तथा अर्वाचीन महान् श्राचायोए अनेक ग्रंथोनी रचना करेती बे; परंतु एवा निःखार्थ परोपकारी महात्माए ज्ञानरूप लक्ष्मी जैनोने वारसामां आपां उत्तरोत्तर प्राप्त थतां वर्तमान कालना जैनोना कबजामां ते एवी तो बंधनमां पडेली डे के, ते ज्ञानरूप लक्ष्मीना उत्तम नगीना अति जीज्ञासुऊने पण दृष्टिपथे श्राववा पामता नथी. श्राप्रमाणे लखवानो हेतु ए के परमकृपालु श्री. मद् विजयानंदसूरिजीने (ग्रंथकर्त्ताने ) एक प्रसंगे अमुक शेहेरनो ज्ञान नंडार अवलोकन करवानी जीज्ञासा थर हती. तेवा धर्मधुरंधर महान् श्राचार्यने पण त्यांना श्रावकोए ज्ञानजंडार बताववामां आनाकानी करी हती. श्रावी अज्ञानता ज्या ज्या व्यापेली , ते ते स्थलना जैनो जैनदर्शननी ज्ञानरूप लक्ष्मीनो समुपयोग करताज नथी, तेमज बीजा जीज्ञासुर्डने पण करवा देता नथी. महाविद्वान् आचार्योए परम उपगार बुद्धिए अति प्रयासथी अमूल्य ग्रंथोनी रचना करी जैनीउने जे खाधिन करेला ,ते मात्र सिंधुकमा राखवासारु तेमज बार मासे एक दिवस धूप देवा अने वज नाखवासारु नहि, परंतु नदीना जलनी जेम ज्ञाननी पिपासावालाने तृषा बीपाववासारु प्रगट दृष्टिपथे आवे तेवी रीते राखवासारु खाधिन करेला .मारो लखवानो हेतु ए डे के जैनदर्शननुं ज्ञान बीजा दर्शनवालाना ज्ञानना प्रमाणमां बहु अल्प विस्तारमा प्रसिद्धिमां श्रावेलु . अन्य दशनवालाउना जेजे महान् ग्रंथो बे ते सर्वे प्रगट थएंला , त्यारे जैनदर्शनना महान् ग्रंथो ज्ञानजंडारोमांज मात्र बिराजे . जुर्व सम्मतितर्क, रत्नावतारिका प्रमुख. जैनदर्शनधारी श्रावक समुदायतो आवा अमूल्य ग्रंथोना ज्ञानथी अतिदूर .साधु समुदायमां पण विरला . सारांश के वर्तमान कालना जैनोने ज्ञान प्राप्त करवानी बहुज अल्प जिज्ञासा . जैनदर्शनमां सात क्षेत्रमा अव्यनो व्यय करवानी जिनाज्ञा जे. सात देत्रमा ज्ञानक्षेत्रनो समावेश के; था क्षेत्र एवं तो बलवान डे के तेना रक्षण उपर जैनदर्शनना अस्तित्वनो परम आधार . ए प्रमाणे जिनाज्ञा बतां वर्तमान कालना जैनो आ श्राधारजूत क्षेत्रमा बिलकुल व्यय श Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. तिना प्रमाणमां करताज नथी. जे कांश व्यय करे ने ते बीजार्जुना प्र. माणमा यत्किंचित् बे. श्रा प्रसंगे कोई सवाल करशे के हालमां जैनशालाउँ अनेक स्थले स्थापवामां आवी ते शुं ज्ञानदेत्रमा व्यय नथी ? उत्तर मात्र एटलोज डे के ते व्ययनी बीजा देवना व्यवनी साथे सरखामणी करशो, त्यारेज यथार्थ समजवामां आवशे. श्रावी जैनशालाउँमा महाविद्वान् शिक्षकोने राखी तीक्ष्ण बुजिवाला जैनना बालकोने उत्तरोत्तर गहन ग्रंथोनुं अध्ययन कराववामां पुष्कल अव्यनो व्यय करवानी जरूर बे, एटले सुधी के जे दरजे चैत्यक्षेत्र तथा प्रतिमाक्षेत्र वर्तमान कालमां प्रकाशित थयेल , ते दरो ज्ञानदेवने प्रकाशित करवानी जरूर बे. ज्ञानीने पुष्टि श्रापवी तेज ज्ञाननी पुष्टि , अने ज्ञानने पुष्टि श्रापवी ते ज्ञानीने खोराक श्रापवातुल्य . था बाबतमा वर्तमान कालना अन्यदर्शनीउनी पति तरफ दृष्टि करवी जोश्ए. अन्यदर्शनोना तमाम महान् ग्रंथो प्रगट थएला . विद्वान् पुरुषो ते प्रगट थएला ग्रंथोनुं अवलोकन करी शकेले. जेवी बुट विधानोने अन्यदर्शनोना ग्रंथोनी ने, तेवी जैनदर्शनना ग्रंथोनी नश्री. टुंकामां कहीए तो जैनदर्शनना ग्रंथो बिलकुल विस्तार पामेला नथी. जे प्रगट थयेला डे ते पण एवी पद्धतिमां के प्रवेशकने सहायक शिवाय मार्ग पण सूफे नहि. सारांश के जैनदर्शननुं ज्ञान केलवणी रूप थवामां तेवा प्रकारनी रचनानी वर्तमानमा अत्यंत खामी जे. श्रावी अनेक मुश्केलीउना कारणथी सम्यगज्ञान प्राप्त थर्बु ते वर्तमान कालना मनुष्योने अति उर्लज डे. सम्यग् ज्ञान, सम्यग दर्शन, सम्यक् चारित्र ते मोक्षमार्ग एवं जे प्रथम दर्शावेल ने तेनो सामान्य अर्थ आ प्रसंगे बताववानी जरूर . सम्यग् ज्ञान-ते आप्तप्रणीत तत्वखरूपनो यथार्थ अवबोध. सम्यग् दर्शन ते आप्त प्रणीत तत्व स्वरूपना यथार्थ अवबोधनो अनुनव, वा यथार्थ तत्व रुचि. सम्यक्चारित्र. ते आत्मस्वरूपमा, कर्मदय करवा निमित्ते रमणताकरवी. .सम्यग् दर्शन अने सम्यक् चारित्र, विस्तारथी स्वरूप बताववानो श्रा स्थले प्रसंग नथी. मात्र सम्यग् ज्ञानसंबंधी काश्क लखवानी आ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. Ա वश्यकता बे, तेथी पूर्वाचार्यप्रणीत ग्रंथनुं अनुकरण करी नवतत्व संबंधी aise विचार जाहेर करवा रजा लउं बुं. प्रणीत तत्व बे बे. १ जीव, २ जीव. बे तत्वना विस्ताररूप सात तथा नव तत्व बे. ते या प्रमाणे १ जीव, २ जीव, ३ पुण्य, ४ पाप, ५ - श्रव, ६ संवर, निर्जरा, बंध, ए मोक्ष. पुण्य, पापने बंधमां अंतनवी करवायी सात तत्व थाय बे. प्रथम जीवतत्व - जीव शब्द चेतन, आत्मा इत्यादि श्रर्थवाची बे. जीवन यथार्थबोध तेज प्रति गहन ज्ञान बे. जीवनुं अस्तित्व माननारा विद्वानोना विचारमां पण बहुज विचित्रता बे. जीव, ज्ञान, दर्शन, चारित्रयुक्त, सुख दुःख वीर्यवान् बे जव्यत्व, अजव्यत्व, प्रमेयत्व, सत्व, द्रव्यत्व, प्राणधारित्व, संसारित्व, सिद्धत्व, यदि ख अने परपर्या जीवने बे. ज्ञानादि जीवना धर्म बे. तेमना थकी जीव जिन्न पण नयी ने जिन्न पण नथी, परंतु ते बन्नेथी जिन्न जातिरूप जिन्नाजिन्न बे. जो ज्ञानादि धर्मोथी जीव जिन्न होय तो हुं जाएं बुं हुं जोटं बुं हुं सुखी, हुं दुःखी, हुं जव्य इत्यादि अनेद प्रतिपत्ति न थवी जोइए, अने ते तो प्राणीमात्रने बे; तेमज जो ज्ञानादि धर्मोथी जीव छाजिन्न होय तो था धर्मी अने आ तेना धर्म बे, एवी जेदबुद्धि न थवी जोइए. माटे ज्ञानादि धर्म थकी जिन्ना जिन्न एवोज जीव मानवो जोइए. वली जीव केवो बे ? कर्मना दोनो कर्त्ता बे, तेमज ते कर्मोना फलनो पण जोक्ता बे, चतुर्गतिरूप संसारमां कर्मना संबंधी परिभ्रमण करना बे. तेमज द्वादशविध तपप्रयोगथी सकल कर्मनो दय करी सिद्धत्व प्राप्त करनारो बे. या सर्व लक्षणो जीवना, चेतनना, श्रात्माना बे. जीव, पृथ्वी, छाप, तेज, वायु वनस्पतिकायनो तेमज बे, त्रण, चार के पांच इंडियवालो ने, एम नव प्रकारनो बे. प्रकारांतरे तेना ५६३ द पण यावे. बीजुं जीवतत्व - जीव करतां जेनां लक्षणो विपरीत होय ते जीव, ज्ञानादि धर्मवान्, रूप, रस, गंध, स्पर्शादिथी जिन्ना जिन्न, नरदेवादि जवांतरमां नहि गमन करनार, ज्ञानावरणीयादि कर्मनो कर्त्ता, तेमना फलनो जोक्ता, अने जडस्वरूप, सडन, पडन, विध्वंसनादि धर्मवान्, Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ प्रस्तावना. ते जीव बे. तेना धर्म, अधर्म, आकाश, पुल छाने काल एवा पांच भेद बे. श्रीजुं पुण्यतत्व ने चोथुं पापतत्व - सत्कर्मपुल ते पुण्य बे, अने ते - नाथ विपरीत ते पाप बे. पुण्य पापथीज जीवने उत्तरोत्तर सुखदुःख प्राप्त या बे. दानादि शुभ क्रिया पुण्यनुं कारण बे; ने हिंसादि अशुक्रिया पापनुं कारण बे. जीवमात्रमां श्रात्मत्व तो सरखुंज बे, बतां मनुष्य, पशु यदि प्रमुख विचित्रता जे जणाय बे, तेनुं कारण पुण्यपाप बे. पांच व तत्व बे. जेनाथी जीवने कर्म प्राप्त थाय ते याश्रव. तेना मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग, श्रा हेतु बे. सद् देव, गुरु, धर्मने सत् रूपे मानवानी जे बुद्धि ते मिथ्यात्व, हिंसादिथी न विरमनुं ते अविरति, क्रोध, मान, प्रमुख ते कषाय, छाने मन, वचन, कायानो व्यापार ते योग. सारांश के ज्ञानावरणीयादि कर्म बंधना हेतु ते श्राश्रव तत्व बे. तुं संवर तत्व बे. मिथ्यात्व, अविरति कषाय ाने योग रूप - वनो सम्यग् दर्शन, विरति, कमादि छाने त्रिगुप्ति आदि धर्मना श्राचरret निरोध अर्थात् निवारण ते संवर. सारांश के जीवने कर्म उपादान हेतुभूत परिणामनो नाव ते संवर बे. सातनुं निर्जरा तत्व बे. जीवसाथे बंधायेला ज्ञानावरणीयादि कर्मनुं बार प्रकारना तपथी बुटा पडवुं ते निर्जरा बे तेना वे प्रकार बे. १ सकाम, २ काम. अति पुष्कर तपश्चर्या करनारा, कायोत्सर्गमां रहेनारा, बावीस परीषद सहन करनारा, लोचादि काय क्लेश जोगवनारा, अष्टादश शीलांग रथना धारण करनारा, बाह्य, अभ्यंतर सर्व परिग्रहना त्यागनारा, चारित्रीसकाम निर्जरावालां बे. देशविर तिने पण सकाम निर्जरा थाय बे बाकी काम निर्जरावालां बे. श्रमुं बंध तत्व बे. बंध अर्थात् बंधन, अर्थात् जीव श्रने कर्मप्रदेश पुजलनो कीरनीर जेवो संबंध. सवाल - जीव अन्य तरेनो बे ? उत्तर - कंचुकिक ने कंचुकना जेवो नथी, परंतु श्रम अने लोहना जेवो तेमज कीर ने नीरना जेवो, कर्म अने जीवनो संबंध परस्पर - ने कर्मनो संबंध कंचुकिक ने कंचुकना जेवो बे के Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. । नुप्रवेशात्मक अर्थात् परिणमन धर्मवालो संबंध . था प्रसंगे को शंका . करे के जीवतो अमूर्त , तेने हस्त प्रमुख तो ने नहि, एटले लेवा मु कवानी शक्ति पण नथी, तो तेने कर्म ग्रहण केम संचवे ? समाधान ए बे के जीवने अमूर्त कोणे मान्यो ? जीवने कर्मनो संबंध अनादि बे, अर्थात् बने दीरनीरनी जेम एक होय तेम परिणाम पामे . ए प्रमाणे जीव मूर्त होवाथी कर्म ग्रहण करे . कर्मने सेवा मुकवामां का इस्त प्रमुखनी जरूर पडती नथी; परंतु राग द्वेष, मोहरूप परिणामनी चीकाशथी, तेलमां पडेला वस्त्रने रज चोटवानी जेम जीव कर्मने ग्रहण करे बे, अने तेनाथीज विपरीत एवा सद् अध्यवसायथी जीव कर्मने मुके बे. सारांश के संसार अवस्थामां जीव मूर्त जे. श्रावो जे बंध ते प्रकृति, स्थिति, रस अने प्रदेश एवा चार नेदयी प्रशस्त अने प्रशस्त एम बे प्रकारनो बे. नवमुं मोद तत्व जे. शरीर, इंजिय, आयुष्य आदि बाह्य प्राण, पुण्य, पाप, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, पुनर्जन्मग्रहण, वेदत्रय; कषायादि संग, श्रज्ञान, असिहत्व इत्यादि समेत देहादिनो जे श्रात्यंतिक वियोग ते मोद . सारांश के सकल कर्मनुं सर्वथा दय लक्षण ते मोद . श्रा नव तत्वनुं स्वरूप अति सूक्ष्म बे, अति विस्तारवाद् डे अने तेनुं अनुजवरूप स्वरूप समजवामां स्वसंवेदनत्व तथा गुरुगम अवबोधनी संपूर्ण आवश्यकता . नवतत्वनुं प्रकरण कंगन करवाथी जे पोपटीयुं ज्ञान प्राप्त थाय , ते मुमुक्षु थवानी अभिलाषा राखनारा प्राणीउने बस नथी; कारण के शास्त्रमा कयु के " श्रावक तेजे जाणे तत्व" या सूत्रनो अर्थ समजनारा एम मानता होय के अमे नवतत्व कंठे कर्यां एटले श्रावक थया, तो एवं तेमनुं मानतुं यथार्थ नथी. ज्यारे तत्वनुं खरूप यथार्थ रीते जाणवामां आवे अने ते प्रमाणे गुण धारण करवामां आवे त्यारेज श्रावकपणुं प्राप्त थाय . तेवी अनिलाषा धारण करनारा उत्तम जीवोना हीतने अर्थे परम कृपालु महाराजे अनेक प्राचीन, अर्वाचीन महान ग्रंथकारोना अति उत्तम ग्रंथोमांधी जीन वचनामृत, दोहन करी था जैनतत्वादर्श ग्रंथरूप क्यारीमां तेनुं सिंचन करेल . ग्रंथकर्ताए आ ग्रंथy नाम “ जैनतत्वादर्श आपेलुं ते यथार्थ , कारण के था ग्रंथना श्र Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G प्रस्तावना. ध्ययन करनार, आदर्श ( खारीसा ) मां जोनार जेम पोताना प्रतिबिंबने जुए बे, तेम या ग्रंथरूप श्रादर्शमां तत्व स्वरूप जुए बे. या प्रसंगे मारे जणाववुं जोइए के, मात्र सांसारिक विद्याना अज्यासी वारंवार एवो सवाल करे बे के अमोने जैनदर्शननुं ज्ञान मेलवानी तो बहुज जीज्ञासा याय बे, परंतु पद्धतिप्रमाणे ज्ञान प्राप्त करवानुं कोश्पण ग्रंथकारे अत्यारसुधीमां एक पण साधन योजेलुं होय तेम मारी. नजरे श्रावतुं नथी. तेवा जीज्ञासुर्जने मारी नम्र विनंति एवी बे के सांसारिक तत्वनुं ज्ञान एकडेएकथी ते महान पाठशालाउंनी उंचा प्रकारनी केलवणी सुधी प्राप्त करतां केटलां वर्षो व्यतीत थाय बे, तेमां जेवी धीरज ने खंत राखो बो, तेना करतां था यति गहन धर्मतत्व विषयमां विशेष धीरज छाने खंत राखवानी जरूर बे. तत्वज्ञाननी जीज्ञासावालाने शरुआत करवामां या ग्रंथ श्रति उत्तम बे; ज्यां ज्यां पारिनाषिक कठिनता लागे, त्यां त्यां तत्ववेत्तार्जनी सहाय लेवी तत्वनुं ज्ञान लेशमात्र नहि तां मात्र सांसारिक विद्याना कारणथी पोताने कृतकृत्य मानवा ते मिथ्या जिमान बे. सांसारिक विद्या ऐहिक सुखनां साधनोनी योजना करी आपे बे, परंतु मुष्मिक सुखनां साधनो योजवामां तो तत्व विद्यानुंज साम्राज्य बे. सांसारिक विद्याना उत्कर्षरूप ज्वरने शांत करवामां श्र ग्रंथ परम उषध बे. . ग्रंथ हिंदुस्तानी जाषामां ग्रंथकर्त्ताए रचेलो बे, तेनुं गुजराती ाषामा जाषान्तर करी आपवानी मने मारा मित्रोए तथा गुरुराजना केटलाएक शिष्योए जलामण करी में तेमने कह्युं के हिंदुस्तानी जाषामां जे खुबी समायेली बे, ते गुजराती भाषामां कोश्पण ते ववानी नथी. बतांपि तेमनो आग्रह एवो थयो के काठीयावाड गुजरातना बहु लोको हिंदुस्तानी भाषा बराबर समजी शकता नथी, तेवार्डना हीतने अर्थे जाषान्तर करी थापो, ते कारणथी या जाषान्तर मारी अल्पमति अनुसार में कयुं छे. आ भाषान्तरमां जेजे स्थले भूल चूक मा लम पढे ते सर्वे सुइजनोए सुधारी वांचवा कृपा करवी. एज विनंति. ली. भाषान्तर कर्त्ता :7 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. १४ बीजा नैयायिक दर्शनना स्वरूपमां नैयायिक मतना गुरुना लिंग, तेना देवना अढार अवतारना नाम, प्रत्यक्षादि चार प्रमाण, अने सोल पदार्थना नाम, तथा तेना तर्कशास्त्रोनानाम. १४० १५ वैशेषिक मतनुं संदेपथी स्वरूप. १४१ १६ चोथा सांख्यमतनुं स्वरूप घणुं विस्तारथी. १४१ १७ पांचमां मीमांसक मत, तेनुं बीजुं नाम जैमिनीय, तेनुं स्वरूप १४८ १० नास्तिक चार्वाक दर्शन तेने लोक वाममार्गी कड़े बे ए नास्तिक दर्शन षट्दर्शनमां गणातुं नथी, तेनुं स्वरूप, तथा आ मत बृहस्पति नामना पुरुषथी उत्पन्न थयेल बे, तेनी कथा. १० प्रथम बौद्धमतमां पूर्वापर विरोध तथा ते मतनुं खंडन, २० बीजा नैयायिक मतमां पुर्वापर विरोध, तथा ते मतनुं खंडन. १६५ २१ श्रीजां वैशेषिक मतनुं खंडन. १५१ १६० १७ ११ यू २२ चोथा सांख्य मतनुं खंडन. १५ २३ पांचमां मीमांसक मतना खंडनमां वेदांतीयोना ब्रह्म (अद्वैत) नुं खंडन तो प्रथम ईश्वरवादमां करी चुक्या बीये, परंतु तेनुं अपर नाम जैमिनीय मत बे. तेनुं स्वरूप तथा खंडन. २४ वेदोमां जे यज्ञादि करीने हिंसा करवी लखेल बे, तेनुं खंडन. १८५ १५ चार्वाक ( नास्तिक) मतनुं पुर्वपक्ष उतरपक्ष पूर्वक खंडन. १९७ ॥ पांचमा परिछेदमां शुद्ध धर्मतत्त्वनुं स्वरूप कहेल बे, तेनी अनुक्रमणिका ॥ १ नव तत्वमां प्रथम जीव तत्वनुं स्वरूप. २०६ २ पृथ्वी आदि पांच स्थावरोमां जीवत्व सिद्ध करेल .. २०० ३ बीजा जीव तत्वना स्वरूपमां धर्मास्तिकायादिक द्रव्योनुं लक्षण २११ ४ त्रीजा पुण्य तत्वना स्वरुपमां पुण्य उपार्जन करवाना नव प्र कार, तथा ते बेंताली प्रकारे जोगववामां आवे बे, तेना नाम २१३ ५ चोथा पाप तत्वना स्वरूपमां कर्माजाव वादी नास्तिक तथा Sarita by पाप जे बे, ते श्राकाशना फुलनी माफक असत् बे तथा तेना फल जोगववानुं स्थान जे स्वर्ग अने नरक ते पण नथी, ए प्रमाणे कथन करवावालानुं निराकरण करीने पाप अढार प्रकारे बंधाय बे, अने ते ब्यासी प्रकारे Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका: atraani Maa तेना नाम, तदंत र्गत २२६ मा पानामां नीच उच्च वर्ण नहीं मानवावाला लोकोनुं पण निराकरण बे. २१६ ६ पांचमा श्रव तत्वना स्वरुपमां याश्रवना उतर नेद, जे पांच इंडिय, चार कषाय, पांच व्रत, पच्चीश असत् क्रिया तथा त्रण योग, ए बेंतालीश नेद कडेल बे, तेमां श्रव म दनुं स्वरूप, तथा पांच व्रत द्रव्य तथा जाव, ए बे नेदे करीने बतावेल बे, तथा द्रव्यहिंसा तथा जाव हिंसानुं स्वरूपचनंगी करीने कडेल बे; ए प्रमाणे पांचे व्रतोनुं स्वरूप चनंगी पुर्वक कल बे. प्र वा संवर तत्वना स्वरूपमां पांच समिति यादिक सत्तावन नेद कल बे, तेनुं स्वरूप गुरुतत्वमां लखेल बे, पण श्रहींयां तो मांयी बावीश परीसहनुं स्वरूप विस्तारथी बे. २३६ + ८ सातमा निर्जरा तत्वनुं स्वरूप गुरु तत्वमां संदेपथी कहेल बे. १३७ ए आवमा बंध तत्वना स्वरूपमां को एक वादी कहे वे के, जीव प्रथम पुण्य पापनो बंध करीने रहित थया, पढी थी पुण्य पापनो बंध थाय बे, इत्यादि ब ' विकल्पनुं समाधान करीने पढी बंधना मुल हेतु चार तथा पांच प्रकारना मिथ्यात्व, बार प्रकारनी विरति, पच्चीश कषाय, तथा पंदर योग, मली सत्तावन उत्तर हेतुना नाम. १३ १० - नवमां तत्वमां सत्पदादि नव द्वारोथी सिद्ध जगवाननुं स्वरूप १५१ ॥ उघा परिछेदमां चौद गुणस्थाननुं स्वरूप बे, तेनी अनुक्रमणिका ॥ १ प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानकना स्वरूपमां मिथ्यात्वनुं गुणस्था 1 नक केवी रीते कद्देवाय डे ? एवी आशंकानुं समाधान, तथा मिथ्यात्वनुं कांक स्वरूप पण कहेल बे. २५५ 2 बीजा सास्वादान गुणस्थानकना स्वरूपमां तेनुं कारणभूत जे पशमिक सम्यक्त्व बे, तेनुं स्वरूप. ६ २२७ ԱԱՍ श्‍ ३ श्रीजुं मिश्रगुण स्थानकनुं स्वरूप. ४ चोथा अविरति सम्यग्रदृष्टि गुणस्थानकना स्वरूपमां सम्यक्दृष्टि जीवनुं लक्षण, अने यथाप्रवृत्यादि त्रण करणोनुं लक्ष्ण २६० Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ५ . पांचमां देशविरति गुणस्थानकनास्वरूपमांश्रावकनाषट्कर्मादि २६३ ६ बा प्रमत संयत गुणस्थानकना स्वरूपमा किंचित् धर्मध्या. ननुं स्वरूप, तथा आ गुणस्थानकमा निरालंबन ध्यान होतुं नथी, तेनो निश्चय करीने, आ कालमां केटलाएक पोतानी कल्पनाथी काश्ने कांश बोले बे, तेउने उपदेश दीधेल . २६५ ७ सातमा अप्रमत गुणस्थानकना स्वरूपमा धर्मध्यान स्वरूप मैत्रीआदि अनेक नेदरूप, तथा श्रा गुणस्थानकमां सामायि. कादि षट् आवश्यक नथी, तेनुं व्याख्यानादि करेल . श्६ए श्रापमा, नवमा, दशमा, अगीयारमा, अने बारमा, ए पांच गुण स्थानकोनुं स्वरूप एक कहेल , तेमां उपशमश्रेणि तथा दपक श्रेणिर्नु किंचित स्वरूप, तथा शुक्लध्यान- स्वरूप सारी रीते विस्तार पुर्वक, रेचक, पूरक, कुंजकादि ध्याननी व्युप्तत्ति सहित अर्थ करीने, तथा स्वरूप कहीने निरु. पण करेल . ०३ ए तेरमा सयोगीगुणस्थानमा सयोगी केवलीना नाव कहेल , तथा तीर्थकरनाम कर्म उपार्जन करवाना वीश स्थानक तथा तीर्थकर जगवाननो महीमा, तथा तीर्थंकर नाम कर्म वेदवानुं स्वरूप, केवली समुद्घातनुं स्वरूप, तथा कोण समुद्घात करे जे? तथा कया केवली नथी करता ? तेनुं स्वरूप, तथा मनादि योगोने केवी रीते सूक्ष्म करे , इत्यादि स्वरूप... २४ १० चौदमा अयोगी गुणस्थानकनुं स्वरूप, तेमां कर्मरहित जी वोनी जे उर्ध्व गति थाय ने तेनो हेतु, तथा सिझोनी स्थिति, . सिझना श्राउ गुण, सिझोना सुख तथा मुक्तिनुं स्वरूप. नए ॥सातमा परिछेदमां सम्यग् दर्शननुं खरूप लखेल, तेनी अनुक्रमणिका॥ १ व्यवहार अने निश्चय ए बंने प्रकारे सम्यक्त्वना स्वरूपमा देवादि त्रण तत्वोपर व्यवहार तथा निश्चय ए बंने प्रकारे श्रकान थाय बे, तेमां प्रथम व्यवहार श्रद्धाननुं कथन, तथा त्रण तत्वोमां पण प्रथम देव तत्वनुं खरूप कथनमा श्रीअरिहंतजीना नामादि चार निदेपर्नु खरूप. ए४ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ ३०२ अनुक्रमणिका.. ५.श्री अरिहंतजीनी प्रतिमाजीने पुजवीं, नमस्कार करवो, तेनुं खरूप प्रतिपादनमां मूर्ति अपूजक लोकोना प्रश्नोत्तर पूर्वक तेउनी कुयुक्तिउनुं सारी रीते खंडन करेल . शए ३ गुरु तत्वनुं स्वरूप. शए ४ धर्म तत्वना स्वरूपमा दयालु स्वरूप अनेक प्रकारे कहेल बे. एए ५ निश्चय धर्मनुं स्वरूप. ३०१ ६ निश्चय सम्यक्त्व, स्वरूप, ७ सम्यक्त्वनी करणी, ७ सम्यक्त्वना शंका नाम अतिचारमां पांचमा कालमा एकशो वीश वर्षना आयुष्यनी शंकानुं समाधान तथा नरत क्षेत्रना समुख तथा नूमी संबंधी आशंकानुं समाधान, तथा पृथ्वीनो गोलो फरे बे, ए प्रमाणेनी आशंकानुं समाधान तथा वेदोनो प्राचीन अर्थ बोडीने नवीन अर्थ बनाववानुं कारण तथा जैन मतना ग्रंथो पुस्तकारुढ क्यांची थयां इत्यादि. .३०४ ए बीजा आकांक्षा नामा अतिचारनुं स्वरूप. १० त्रीजा वितिगिठा नामा अतिचारनुं स्वरूप, तेमां पुण्य पापा दिनुं फल जीवने अवश्य प्राप्त थाय , ए वातनो निश्चय त था कुगुरुजनो अनाचार प्रदर्शित करेल . ११ चोथा मिथ्यादृष्टिनी प्रशंशा रूप अतिचारनुं स्वरूप. १५ पांचमा मिथ्यादृष्टिनो परिचय करवाना अतिचार. ३१० १३ रायानियोगेणादि उ श्रागारनुं स्वरूप. १५ अन्नत्थणाजोगेणादि चार आगारनुं स्वरूप. ३१ए ॥ श्रापमा परिछेदमां चारित्रनुं स्वरूप कहेल , तेनी अनुक्रणिका ॥ १ ग्रहस्थना देश विरति चारित्रमांजव्य नावथी प्रथम व्रतनुं स्वरूप३२० ५ श्राकुट्टी श्रादिक चार प्रकारनी हिंसानु स्वरूप. ३० ३ गृहस्थथी सवाविश्वा दया पली शके ले तेनुं स्वरूप. ३२१ ४ प्राणातिपात विरमण व्रतना पांच अतिचारनुं स्वरूप, ३२५ ५ बीजा स्थूल मृषावादविरमण व्रतनुं स्वरूप. ६ त्रीजा स्थूल अदत्तादानविरमण व्रतनुं स्वरूप. ३९५ ३१७ ३१० ३२६ ३ए Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. उ चोथा मैथुनत्याग व्रतनुं स्वरूप. ३३२ G पांचमा स्थूल परिग्रहपरिमाण व्रतनुं स्वरूप. ३३६ ए बगदिक् परिमाण व्रतनुं स्वरूप. ३४० १० सातमा जोगोपनोग व्रतनुं स्वरूप, ३४१ ११ मदिरापान करवामां एकावन दोषो बतावेल बे. ३४२ १२ मांस नक्षण करवामां अनेक प्रकारना दूषणो बतावेल बे. ३४४ १३ निर्विवेकी लोक, व्याघ्र, काग प्रमुख हिंसक जीवोने पोताना ध. मोपशेक गुरु माने जे. तेना मतनुं खंडन. ३४५ १४ मांसाहारी पोतेज पोताने अधर्मी बनावे ने तेनुं स्वरूप. ३४७ १५ मांसजक्षण करनारा महा मूढ , ए सिक करेल . ३४७ १६ मांस खावामां अनुत्तर उषण बतावेल डे. नावेल ते. ३४ए १७ मांस खाईं ते जेणे कथन करेल बे तेनाशास्त्र बनाववावालाना नाम.३५ए १७ जेम विचारा निरपराधी पशुउनु मांस खावू, एम उष्ट लोकोए पोताना बनावेल कुशास्त्रमालखेल बे, तेम मनुष्यनुं मांस खावू एवं कोर शास्त्रमा लखेल नथी, तेनो हेतु. ३४ए रए माखण तथा मधुश्रादिक अनदय वस्तुना जाणमा दोषोत्पत्ति. ३५० २० रात्रिलोजन करवामां था लोकोमा तो प्रत्यक्ष पुषण तथा पर लोकमां दुःखनो हेतु थाय डे, इत्यादि रात्रिनोजननो निषेध, ३५३ २१ बहुबीजादि अजय वस्तु खावानो निषेध. ३५७ श्श बत्रीश अनंतकाय अजय वस्तु , तेना नाम. ३५ए २३ सचित्त परिभाणादि चौद नियमोनुं स्वरूप, व कंगालकर्म आदिक पंदर कर्मादानोनुं स्वरूप. ३६३ २५ सातमा जोगोपनोग व्रतना पांच अतिचारोनुं कथन. ३६६ २६ आठमा अनर्थदंडविरमण व्रत, खरूप. ३६० व आर्तध्यानना अनिष्टार्थ संयोगादि चार नेदोनुं स्वरूप. ३६० २० रोष ध्यानना हिंसानंद थादिक. चार दो. ३७० शए बीजा पापकर्मोपदेश अनर्थदंड, तथा त्रीजा हिंसप्रदान अन र्थदंड, तथा चोथा प्रमादाचरण अनर्थदंडनुं स्वरूप. ३० अनर्थदंड विरमण व्रतना पांच अतिचार. ३७५ ३६० ३७३ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अनुक्रमणिका. ३१ नवमा सामायिक व्रतना स्वरूपमा बत्रीश दोषादिना नामो. ३७६ ३२ दशमा देशावकाशिक व्रतनुं स्वरूप. ३० ३३ अगीयारमा पौषधोपवास व्रतनुं स्वरूप. ३१ ३४ बारमा अतिथिसंविनाग व्रतनुं स्वरूप. ३४ नवमापरिदमांश्रावकोनो दिनकृत्य विधि कहेल बे, तेनी अनुक्रमणिका. १ श्रावकोए निझा स्वरूप लेवी एक प्रहरादि रात्रिमा जागवू. ३ २ सवारमा निखा बेदवाना वखते पृथ्वी श्रादिक तत्वना वहे वामां सुखदुःखादिकनुं कथन, तथा पृथ्वी श्रादिक पांच तत्वोनुं स्वरूप. ३ए ३ क्या क्या कार्यमां क्या क्या तत्व शुभ अशुन . ४ पंच परमेष्टी श्रादिक जाप केवी तरेहथी करवो. ३ए? ५ धर्मजागरणा केवी रीते करवी. ३९३ ६ स्वप्न नव कारणोथी श्रावे बे, तेना शुनाशुन कारणादि. ४ए। ७ प्रजातमा मातपितादिने नमस्कार करवो, इत्यादि कृत्य. ३५ ७ श्रावकोने सवारे उठीने चौद नियमादि करवानो उपदेश, तथा ग्रहण करवानी विधी, तथा सचित्त वस्तुनुं स्वरूप. ३ए। ए मीगश्नी मर्यादा, विदलनो निषेध, तथा रींगणा टींवरुआदिक वस्तु नहीं खावानो उपदेश. ४०० १० श्रावके निरवद्य थाहार करवो ते, तथा नवकारसी आदिक नियमोनुं स्वरूप, तथा चार प्रकारना आहारना विनाग. ४०१ ११ मलोत्सर्ग, दंतधावन, केश समारन, स्नान करवू इत्यादि. ४०३ १५ जिनपूजादि करवामां प्रथम अंगपूजानी विधि. ४०७ १३ प्रथम मूलनायकजीने पूजवा, तथा पली बीजा बिंबोनी पूजा करवी, एतो स्वामीसेवक नाव ठयों, एवी आशंका-समाधान. ४१२ १४ बीजी अग्रपूजानुं स्वरूप. १५ त्रीजी नावपूजार्नु स्वरूप. ४१५ १६ पंचोपचारादि बहु प्रकारे पूजाना नेदो. ४१६ १७ पूजा करवानी विधि बत्रीश प्रकारनी. ४१७ १० पूजाना एकवीश प्रकारना नाम. ४१ए Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न अनुक्रमणिका. रए विषमासनादिथी बेसीने पूजा न करवी, इत्यादि स्वरूप, ४१ए २० स्नात्र कर्या पली जलधारा देवानी विधि. १ आरति तथा मंगलदीवो करवानी विधि. ४२१ २५ स्नानादिकमा समाचारी विशेषे विविध प्रकारनी विधि देख वामां व्यामोह न करवो, इत्यादि स्वरूप. ५३ जिनप्रतिमा पण अनेक प्रकारनी होय बे, इत्यादि. ४२५ २४ श्रविधिथी जिनमंदिर तथा जिनप्रतिमा बनी होय, तेने न पूजवा विकल्प न करवो, इत्यादि स्वरूप. - ४२३ २५ जिनमंदीरमांथी करोलीयाना जाला उतारवानो उपदेश. ४५३ २६ सामायिक त्यागीने अव्य पूजा करवी उचित नहीं, एवी श्रा शंकानुं निराकरण. २७ विधि न थाय तो न करवी श्रेष्ठ बे, ए कदेवू पण अयुक्त जे. ४४ २० अंग तथा अग्रादि त्रणे पूजार्नु फल. ४२५ शए अव्यपूजामां यद्यपि षट्कायनी किंचित् विराधना थाया, तो पण ते करवी योग्य , तेनुं उदाहरण. ४२६ ३० प्रतिदिन त्रण संध्याएं पूजा करवानो विधि. ४२७ ३१ हृदयमा बहुमान पूर्वक देवपूजादि करवा, अहीया प्रिति, नक्ति श्रादिक चार प्रकारना अनुष्ठान- स्वरूप कहेल . ४२७ ३५ श्री जिनमंदीरोना प्रमार्जन तथा समारन प्रमुखनो अधिकार. ४२७ ३३ जिनमंदीरमां जघन्य दश, तथा मध्यम चालीश, तथा उत्कृष्टथी चोराशी प्रकारनी श्राशातना वर्जवी, तेना नामो.. ३४ गुरुनी तेत्रीश आशातना वर्जवी तेना नामो. ४३२ ३५ स्थापनाचार्यनी त्रण प्रकारनी आशातना. ४३३ ३६ देवजव्य, ज्ञानप्रव्य, साधारणअव्य अने गुरुजव्यनो विनाश करवावालाउँने साधु जो न हगवे,तो ते अनंत संसारी थाय बे.४३३ ३७ जिनमंदिरनी आमदानीने नंग करवावाला, तथा जे मुखथी क हीने देव अव्य न दे, ते संसारब्रमण करे, तेनुं स्वरूप. ४३५ ३७ जे अव्य, देवना नाम, बोल्या होइए, ते तत्काल दे. ४५ ३॥ देवादिकनी कोश पण वस्तु आपणा (पोताना) काममां न लेवी, ४३६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ १४७ अनुक्रमणिका. ४० देवादिकना घरादिक पण श्रावकोए नाडे लेवां नहीं. ५३६ ४१ घरदेरासरमां चढेला अक्षतादिकनी व्यवस्थाना प्रकार, तथा देवादि अव्य सेवा खरचवाना प्रकार, इत्यादि. ४३७ ४२ गुरुवंदनानी विधि, तथा नियमादिक पण गुरुने सादी करी करवा.४३७ ४३ धन उपार्जन करवानी चिंताना स्वरूपमा व्यापारादिक सात प्रकारे करीने आजीविका चलाववानुं स्वरूप. ४४ त्रण अगर आदिक पर्वतिथिना दिवसोमां व्यापारन करवो. ४५ ४५ दे, होय तो करार उपर विना मांग्याज दर देवं. ४६ श्रावकने मुख्य वृतिथी तो धर्मिजनोथीज व्यापार करवो. ४६ ४ घणुंज धन जतुं रहे तो पण धर्म करवामां आलस न करवू. ४४६ घणो पैसावालो थ जाय तो पण अनिमान न करवू. भए स्वामिलोह तथा मित्रमोहादि न करवा, इत्यादि. ५० पुण्यानुबंधी पुण्य, पापानुबंधी पुण्य, पुण्यानुबंधी पाप, तथा पापानुबंधी पाप, ए चार प्रकारनुं किंचित स्वरूप. ४४ ५१ यथार्थ कहेवाथी मित्र- मनहरण. ५२ साक्षिविना मित्रना घरमां पण धन राखq नहीं. ४४ए ५३ मुख्य वृतिथी तो जे गाममां रदेवं, त्यांज वेपार करवो, परंतु । जो परदेश जर्बु पडे तो केवी रीते जq तेनुं कथन. ५४ जला वस्त्रादि पेहेरवानो आडंबर न बोडवो, ४५१ . ५५धनप्राप्त होय (थाय)के तरत धर्ममा लागीने मनोरथ सफल करवो.४५१ ५६ न्यायोपार्जितादिक धन खरचवाना चार नांगा. ४५२ ५७ देशविरुफ, कालविरुक, राज्यविरुक, लोकविरुझ, तथा धर्मविरुद्ध कार्य करवू नहीं, तेनुं स्वरूप. ४५३ ५७ पितानी साथे तथा मातानी साथे उचित् आचरणनुं स्वरूप. ४५४ ५ए सहोदरनी साथे तथा स्त्रीनी साथे चित् श्राचरणनु स्वरूप. ४५६ ६० पुत्रनी साथे तथा सगाऊनी साथे उचित् आचरणतुं स्वरूप. ४५ए ६१ गुरुनी साथे उचित् आचारणतुं स्वरूप. ४६१ ६२ नगरनिवासी जनोनी साथे चित् श्राचरण- स्वरूप. ४६१ ६३ परतीर्थिनी साथे उचित् आचरणतुं स्वरूप. ४६१ पए Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ अनुक्रमणिका. ६४ कोइ पण अवसरमा उचित् बोलवू, तथा कुशोजाकारी त्याग. ४६५ ६५ सुपात्रोने दानादिक देवानी युक्ति. ४६३ ६६ मातापितादिक तथा गुरु प्रमुखनी चिंताना प्रकार. ४६६ ६७ नोजन करवानी विधि. ४६६ दशमा परिछेदमां रात्रिकृत्यादिक पांच कृत्यो कहेल , तेनी अनुक्रमणिका. १ पौषधशालादिकमा यत्न पूर्वक प्रतिक्रमणादिक करवानी विधि. ४६ ५ सकल परिवारने,धन खरचवू,श्रादिक धर्मोपदेश करवानी रीति.४६ए ३ निशा खेवानी विधि तथा सूता पड़ी रात्रीमां ज्यारे जागी ज वाय, त्यारे कदाचित् काम पीडा करे तो स्त्रीना शरीर अ शुचिपणुं विचारे. ४ कषाय जीतवानो उपाय,तथा जवस्थितिने महापुखरूप विचारे,४७२ ५ धर्म मनोरथ जाववो, तथा अष्टमी श्रादिक पर्वकृत्यनुं स्वरूप. ४७३ ६ चातुर्मासिक कृत्य, स्वरूप. ४७६ ७ वर्षकृत्यना बार छारोमा प्रथम संघपूजानुं स्वरूप, - बीजं साधर्मिकवात्सल्य, स्वरूप, , ए ए त्रीजुं यात्राविधिनुं स्वरूप तथा चोथु स्नात्र विधिनुं स्वरूप, ए १० पांचमुं देव अव्यनी वृधिनु, सुंदर आंगी श्रादिक, सा तमुं देवनी श्रागल विविध प्रकारना गीत नृत्यादिक करवानु. ४१ ११ श्रापमा श्रुतज्ञाननी पूजा कर्पुरादिथी करवानी विधि. धन्य १५ नवमा पंच परमेष्टि नमस्कारनी तथा तप करवानी विधि. ज्य १३ दशमातीर्थनी प्रनावना करे तेनी विधि. । १४ अगीयारमा गुरुनो योग मलेथी आलोचना करे, तेनी विधि.. जर १५ श्रावक- जन्मकृत्य अढार छारोए करीने कहेल , तेमांप्रथम वसवानुं स्थान जे घर बनावq तेनुं स्वरूप. ४५ १६ बीजं विद्यान्यास करवानु, तथा त्रीजुं विवाह करवानुं स्वरूप. ४ १७ चोथु मित्र करवानुं तथा पांचमुं जिनमंदिर बनाववानुं स्वरूप.४ए। २७ बलु प्रतिमा बनाववानु, सातमुं प्रतिमानी प्रतिष्ठानु, आठमुं . बीजाने दीदा देवान, नवमुं तत्पदस्थापननुं स्वरूप. भए? १५ दशमुं पुस्तक लखाववानुं द्वार. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ए०४ अनुक्रमणिका. २० अंगीयारमुं पौषधशाला बनाववानुं द्वार, बारमु सम्यक्त्व द र्शननुं द्वार, तेरमुंव्रतादि पालवा, हार, चौदमुं दीक्षा ग्रहण करवानुं स्वरूप, तेमां जावश्रावकना सतर गुणो कहेल . ४ए १ पंदरमुं आरंजत्यागर्नु, शोलमुं ब्रह्मचर्य पालवा, सतरमुं प्र. तिमादि तप विशेषतुं तथा अगर{ आराधनानुं द्वार. ए. ॥ अगीयारमा परिछेदमां श्री ज्ञषनादिथी महावीरपर्यंत जैनमतादि __शास्त्रोना अनुसारे इतिहास कहेल , तेनी अनुक्रमणिका.॥ १ जैनमत क्यारथी प्रचलित थयो, एवी ब्रांतिनुं समाधान. ५०० २ जगत्ना स्वरूपमा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल तथा सुखम सुखमादिक ब श्रारानु, तथा सात कुलकरोतुं किंचित स्वरूप.५०१ ३ रुपनदेवस्वामि किंचित् वृत्तांत तथा तेमना सो पुत्रोना नाम. तथा हाथी घोडादिकना संग्रहनी विधि. आहारनी विधि, तथा शिल्पना नेद. ५ कर्मधारमा खेती वाणिज्यादिकनुं स्वरूप, तथा पुरुषनी बहो तेर कला, तथास्त्रीनी चोसठ कला,तथा अढार प्रकारनी बीपी.५०ए ६ मातापितानी दीधेल कन्याना विवाहप्रवर्तननुं स्वरूप. ५११ ७ को सृष्टिनो कर्त्ता नश्री, तेनुं स्वरूप. ५११ ब्रह्मादि शब्दोथी ध्यान करवानी प्रवृति, तथा निदा देवानी रीति.५१५ ए धर्मचक्र तीर्थ विक्रम राजासुधी चाव्युं, तेनुं वृत्तांत. ५१२ १० म्लेड, निर्दयी, अने अनार्य लोक थयानुं वृतांत. ११ श्री रुषजदेवनुं ब्रह्मा नाम प्रचलित थयानुं वृतांत. ५९४ १५ श्री श→जयतुं पुडरिकगिरि नाम थयानुं वृतांत. પષ્ટ १३ परिव्राजकोना लिंग उत्पन्न थयानुं स्वरूप, ५१४ १४ मरिचीथी कपिलादि मत उत्पन्न थयानु स्वरूप. १५ श्राजरतखंडनुं नाम जरतखंड राखवानो हेतु. ५१६ १६ श्रावकोनुं ब्राह्मण नाम क्यारथी प्रचलित थयु, तेनुं स्वरूप. ५१६ १७ कुरुवंशनी उत्पत्ति, यज्ञोपवीतनी उत्पति, चार वेदोना नाम ब दलवानो तथा मतलब फेरववानो हेतु, चारे वेदोनी उत्पत्ति. ५१७ १७ याज्ञवल्क्य, सुलसा, पीप्पलाद, तथा पर्वत प्रमुखथी फरी श्र Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) जैनतत्त्वादर्श. वस्तु सांजलवाथी अथवा अपूर्व आश्चर्यना अनुजवनुं स्मरण थवाथी. ए विगेरे हास्यनां निमित्त; तेमज मोहकर्मनी प्रकृति हास्य- उपादान कारण तेथी ए बंने कारण अर्हत.जगवंतमां नथी. प्रथमना निमित्त कारणनो अहंत जगवंतमां संनवज केम होय, कारण के अहंत नगवंत सर्वज्ञ सर्वदर्शी ने तेमना ज्ञानमां एवी अपूर्व वस्तु नथी के जेने देख वाथी सांजलवाथी के अनुलववाथी आश्चर्य उत्पन्न थाय, तेथी हास्यनिमित्त कारण कांश नथी; अने मोहकर्म तो अर्हत नगवंतें सर्वथा दय कर्युठे तेथी उपादान कारणनो पण संजव नथी. ए हेतुथी अर्हतमा हा स्यरूप दूषण नथी. जे हसनशील हशे ते अवश्य असर्वज्ञ, असर्वदर्शी तेमज मोहयुक्त हशे तेथी ते परमेश्वर केम हो शकशे ? ' ७ रति-जेनी प्रीति पदार्थो उपर होय ते अवश्य सुंदर शब्द,रूप,रस, गंध,स्पर्श,स्त्री श्रादि उपर प्रीतिमान् होय, जे प्रीतिमान् होय ते अवश्य ते पदार्थनी लालसावाला होय अने जे लालसावाला होय ते अवश्य ते पदार्थनी अप्राप्तिथी पुःखी होय, ते अहंत परमेश्वर केवी रीतें होश् शके? अरति-जेनी पदार्थों उपर अप्रीति होय ते तो पोतेज अप्रीति रूप कुःखें करी फुःखी बे ते अहंत नगवंत केवीरीतें होई शके ? ए जय-जेणे पोतानोज जय दूर कयों नहि तेअर्हत जगवंत केम होश् शके? १० जुगुप्सा-मलीन वस्तु देखीने नाक चढाव. परमेश्वरना ज्ञान मां सर्ववस्तुनुं जासन थाय . जो परमेश्वरमां जुगुप्सा होय तो श्र त्यंत कुःख होय तेथी जुगुप्सावंत अहंत जगवंत केम हो शके ? ११ शोक-जे पोतेज शोक वालो ते परमेश्वर केम होय ? १५ काम-जे पोतेज विषयी, स्त्रियोनी साथे लोग करे एवा विषयाचिलाषीने कयो बुद्धिमान पुरुष परमेश्वर माने ? १३ मिथ्यात्व-जे दर्शनमोहें करी लेपायेल ते जगवंत नहीं. १४ अज्ञान-जे पोतेज मूढ डे ते जगवंत नहीं. १५ निजा-जेने निझा आवे जे ते निजामां केटबुंएक जाणता नथी. तेथी निजावान्, अहंत जगवंत सदा सर्वज्ञ, केम हो शके ? १६ अप्रत्याख्यान-जे प्रत्याख्यानरहित ते सर्वानिलाषी ने तेथीत ब्णावाला अहँत जगवंत केम हो शके ? Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद. १७-१८ राग अने द्वेष- रागद्वेषवान् मध्यस्थ होइ शकता नथी. तेमज रागद्वेषीमां क्रोध, मान, मायानो संजवडे जगवान् वीतराग, समशत्रु मित्र, सर्वजीवपर समबुद्धि न कोइने दुःखी अथवा सुखी करे जो दुःखी सुखी करे तो वीतराग करुणासमुद्र कदापि न होइ शके, ए कारणथी राग द्वेष वाला अर्हत जगवंत परमेश्वर नहीं. पूर्वोक्त अढार दूषणरहित त जगवंत परमेश्वर बे, बीजा कोइ परमेश्वर नथी. ( 6 ) नां नाम बे लोकश्री लखीए बीए. " अन् जिनः पारग तस्त्रिकालवित्, क्षीणाष्टकर्मा परमेष्ट्यधीश्वरः ॥ शंभुः स्वयंभूर्भगवान् जगत्प्रभु, स्तीर्थंकरस्तीर्थकरो जिनेश्वरः ॥ १ ॥ स्याद्वाद्यऽनयदसर्वाः, सर्वज्ञः सर्वदर्शिकेवलिनौ ॥ देवाधिदेवबोधिद, पुरुषोत्तमवीतरागात्ताः ॥२॥ अर्थ - चोत्री अतिशयें करी सर्वथी अधिक होवाथी सुरेंद्र दिएं क रेली अष्ट महाप्रातिहार्य तथा जन्म स्नात्रादि पूजाने जे पात्र बे ते ईन् अथवा ज्ञानावरणीय आदि या कर्मरूप शत्रुनो नाश करवाथी अर्हन् अथवा बांधेली कर्मरजनो नाश करवाथी अन् अथवा कोई प दार्थ जेना ज्ञानमां गुप्त नथी ते अन् तथा नामांतरथी अरुन् जेने नवरूप अंकुर उत्पन्न थवानो नथी ते (२) जीत्यां बे राग द्वेष मोहादि ढार दूषणो जेणें ते जिन (३) संसारना तेमज प्रयोजन मात्रना यंतने जे प्राप्त था वे एटले के संसारमा जेने कोइ प्रयोजन नथी ते पारगत (४) नूत, भविष्य, वर्तमान ए त्रणे कालने जे जाणे ते त्रिकाल वित् (२) दय यां या ज्ञानावरणीय यदि कर्म जेनां ते कीणाष्टकर्मा (६) परम उत्कृष्ट पदमां जे रहे ते परमेष्टी ( 9 ) जगतना ईश्वर ते अधीश्वर (८) शाश्वत सुखमां जे होय ते शंभु (ए) पोते पोतानाज श्रात्माथी तथा जव्यत्व यदि सामग्रीनी परिपक्कताथी तथा बीजाना उपदेश विना होय ते स्वयं (it कथन तेज जवनी अपेक्षानुं बे ) (१०) जग शब्दना चौदा माथी अर्काने योनि ए बे बाद करीने बार अर्थवंत जे हो शके बे. तेनां नाम (१) ज्ञानवंत ( २ ) माहात्म्यवंत (३) शाश्वत वैरियोना वैर उपशमाववाथी यशस्वी (४) राज्य लक्ष्मीनो त्याग करवाथी वैराग्यवंत (५) मुक्तिवंत (६) रूपवंत (9) अनंत बल होवाथी वीर्यवंत (i) तप करवामां उत्साहवान् होवाथी प्रयत्नवंत (ए) संसारमांधी जीवो Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ज) जैनतत्त्वादर्श, नो उद्धार करवानी मरजी होवाथी इछावंत (१७) चोत्रीश अतिशयरूप लक्ष्मीए बिराजमान होवाथी श्रीमंत (११) धर्मवंत (१५) अनेक कोटि देवोधी सेव्यमान होवाथी ऐश्वर्यवंत बार अर्थ युक्त ते नगवान्(११) जगत्ना परमेश्वर तेथी जगत्प्रजु (१२) तरीए संसारसमुड जेनाथी ते तीर्थ, प्रवचनना आधार, चार प्रकारना संघ अथवा प्रथम गणधर तेम ने स्थापन करवानो स्वन्नाव होवाथी तीर्थंकर (१३) रागादिने जीतनारा जिन (केवली) तेना जे ईश्वर ते जिनेश्वर (१४) स्यात् अव्यय अनेकांत वाचक ने तेथी वस्तुउँने अनेकांत पणे, अनेक स्वरूपथी केदेवानुं शील जे जेमने ते स्याहादि (१५) जय सात प्रकारना जे. (१) मनुष्यने स्वजा तिथी अर्थात् एक मनुष्यने बीजा मनुष्यथी जय ते श्हलोकजय (२) वि जातीय तिर्यंच देवताथी जे जय उत्पन्न थाय ते परलोकनय (३) धना दिना कारणथी चोर प्रमुखथी जे जय थाय ते आदाननय (४) बाहार ना निमित्त विना घरादिनेविषे बेसनारने रात्रिआदिने समये जे जय अत्पन्न थाय ते अकस्मात् जय (५) हुँ निर्धन हुँ उकालमां केवी रीते जीवितव्य धारण करीश एवो जे जय ते आजीविका जय (६) मरणजय (७) श्रा प्रमाणे करीश तो मारी मोटी अपकीर्ति थशे एम धारी अय शना नयथी प्रवर्ते नही ते अश्लाघानय. ए सात प्रकारना जयनो जे प्रतिपक्षी ते अजय. ते अजय शुं वस्तु ? विशिष्ट आत्मानु खस्थपणुं, निःश्रेयस धर्मनिबंधन नूमिकाजूत ते गुणनी प्रकर्षताथी अचिंत्य शक्ति युक्त होवाथी सर्व प्रकारे पर हितकारी होय; एवं जे अजय आपे ते अजयद (१६) सर्व प्राणी प्रत्ये जे हित चाहे ते सर्वाः (१७) सर्व जे जाणे ते सर्वज्ञ (१७) सर्व जे देखे ते सर्वदर्शी (१ए) सर्व प्रकारे कर्म था वरणने दूर करवाथी चेतनखरूप प्रगट थयु ले ते "केवल" केवलज्ञान डे जेने ते केवली (२०) देवताउंना जे अधिपति ते देवाधिदेव (२१) जि नप्रणीत धर्मनी प्राप्ति जे करावे ते बोधिद (२२) पुरुषोमांहे उत्तम सह ज तथा जव्यत्वादि जव करी श्रेष्ठ ते पुरुषोत्तम (२३) गया बे राग रोष जेमांथी ते वीतराग (२४) हितोपदेशक होवाथी श्राप्त ए रीते चोवी शनाम तथा बीजां हजारो नाम परमेश्वरना बे. पूर्वोक्त परमेश्वरनुं स्वरूप श्रीहेमचंझाचार्यकृत ग्रंथोने अनुसार तथा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद. (ए) समवायांग राजप्रश्नीय प्रमुख शास्त्रानुसार लखेल बे. अन्यथा जिनसह स्र नामना ग्रंथमां एक हजार श्रावनाम अन्वयार्थ सहित वर्णवेल बे. सर्वनाम व्युत्पत्ति सहित अर्हत परमेश्वरनां बे. “ अर्हत पद " अनादि अनंत परंतु ते पदना धारण करनारा जीव अनंत अतीत कालमां घई गया. कारण के एकेक उत्सर्पिषि अवसर्पिणि कालमांजारत वर्षमां चो विश चोवीश जीव त पढ़ने धारण करी सिद्ध पदने प्राप्त थयेला बे. 1 या वर्त्तमान व्यवसर्पिषिश्री आगलनी उत्सप्पिणिमां जे जीवो श्रर्द्धत पदने धारण करनारा थई गया तेमनां नाम (१) केवल ज्ञानी (2) नि र्वाणी (३) सागर (४) महायश (५) विमलनाथ ( ६ ( सर्वानुभूति (9) श्री धर (0) दत्त (v) दामोदर (१०) सुतेज (११) स्वामी ( १२ ) मुनिसुव्रत (१३) सुमति (१४) शिवगति, (१५) अस्ताग (१६) नेमीश्वर (१७) अनि ल (१८) यशोधर (१) कृतार्थ (२०) जिनेश्वर (२१) शुद्धमति ( 22 ) शिवकर (२३) स्पंदन (२४) संप्रति. वर्तमान चोवीश तनां नाम. (१) श्रीकृषननाथ ( 2 ) श्री अजित नाथ ( ३ ) श्री संजवनाथ (४) श्री अभिनंदन नाथ ( ५ ) श्री सुमतिनाथ (६) श्री पद्मन (9) श्री सुपार्श्वनाथ ( 5 ) श्री चंद्रप्रन (ए) श्री सुविधि नाथ बीजुं नाम पुष्पदंत (१०) श्री शीतलनाथ ( ११ ) श्रीश्रेयांसनाथ ( १२ ) श्री वासुपूज्य स्वामी (१३) श्री विमल नाथ (१४) श्री अनंतनाथ ( 24 ) श्री धर्मनाथ (१६) श्री शांतिनाथ (१७) श्री कुंथुनाथ (१०) श्री धरनाथ (१) श्रीमल्लिनाथ ( २० ) श्री मुनिसुव्रत स्वामी (२१) श्री नमिनाथ (२२) श्री अरिष्टनेमि (२३) श्री पार्श्वनाथ (२४) श्री महावीर. वर्त्तमान चोवीश तीर्थंकर जगवंतनां नाम शा शा कारणथी थयां ते तथा नामोना सामान्यार्थ जे सर्व तीर्थंकरोमां पामी शकाय तथा विशे षार्थ जे ते एक तीर्थंकरना नामने निमित्तें बे ते लखीयें बीयें. "षति गछति परमपदमिति रुषनः" जाय जे परमपदने ते कृषन था अर्थ सर्व तीर्थंकरमां व्यापक बे तथा " उर्वोर्वृषनलांबनमभूद्द्भगवतो ज नन्या चतुर्द्दशानां स्वप्नानामादौ वृषनोदृष्टः तेन षनः " जगवानना बने साथलोमा बलदनुं लांबन हतुं अथवा जगवंतनी माता मरुदेवीए चौद स्वप्नीयादिमां बलदनुं स्वप्न दीव्रं ते कारणची रुषन एवं नाम दीधुं. २ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) जैनतत्त्वादर्श. एवी रीते सर्व तीर्थकरनो प्रथम सामान्यार्थ अने पड़ी विशेषार्थ जाणवो. “परिसहादिनिर्नजित इत्यजितः” बावीश परिसह आदि शब्दश्री चार कषाय, आपकर्म, चारप्रकारना उपसर्ग इत्यादिथी न जीताय, ते अजित; तथा “यहा गर्नस्थेऽस्मिन् द्यूते राज्ञा जननी न जितेत्यजितः” ज्यारे जगवान् गर्नमां हता त्यारे जुगार खेलतां राजा राणीने न जी ती शक्या ते हेतुश्री अजित नाम दीधुं. ३ “शं सुखं जवत्यस्मिन् स्तुते सशंजवः" शं नाम सुखवाचक डे सुख थाय जेनी स्तुति करतां ते संचव “यहा गर्जगतेऽप्यस्मिन्नन्यधिकसस्य . संजवात् संजवोपि" अथवा ज्यारे जगवान् गर्जमां हता त्यारे पृथ्वीमां अधिक धान्यनो संजव होवाथी संजव. ५" अभिनंद्यते देवेंादिनिरित्यजिनंदनः" जेनी स्तुति करायेली ने देवेंजादिथी ते अभिनंदन " यहा गर्नात् प्रनृत्येवानीदणं शक्रेणानिनंद नादनिनंदनः” अथवा जे दिवसे नगवान् गर्नमां श्राव्या ते दिवसथी लश्ने वारंवार श–२ स्तुति करी तेश्री अभिनंदन. ५ “शोजना मतिरस्येति सुमतिः” नवी ने बुद्धिते जेनी ते सुमति, यहा गर्नस्थे जनन्याःसुनिश्चिता मतिरनूदिति सुमतिः"अथवा नगवान् गर्नमां आव्या त्यारथीमातानी बहुज निर्मल निश्चितबुझिथश्ते कारणधीसुमति. ६ “निष्पंकतामंगीकृत्य पद्मस्येव प्रजाऽस्य पद्मप्रतः" विषयतृष्णा कर्मकलंकरूप कीचडथी रहित पद्मनी पेठे प्रजा ने जेनी ते पद्मप्रन " यहा पद्मशयनदोहदो मातुर्दैवतया पूरितति पद्मवर्णश्च जगवानिति पद्मप्रजः" अथवा पद्मशयन दोहलो माताने उत्पन्न थयो ते देवतायें पूर्ण कयों ते कारणथी प्रद्मप्रन अथवा पद्मकमल समान जगवानना श रीरनो वर्ण हतो ते कारणथी पद्मप्रन. "शोजनौपार्शवस्य सुपार्श्वः" शोजनिक ले बने पासांजेनां ते सुपार्श्व, “यहा गर्जस्थे नगवति जनन्यपि सुपार्थाऽनूदिति सुपार्श्वः" अथवा नग वान् गर्नमा रह्यात्यारथीमातानांबंने पासांबहुजसुंदर थश्गयांतेथीसुपार्श्व. G" चंडस्येव प्रना ज्योत्स्ना सौम्यवेश्याविशेषाऽस्य चंद्रप्रनः" चंद्र मानी पेठे सौम्य लेश्या जे जेनी ते चंडप्रन, तथा “ गर्नस्थे देव्याः चं उपानदोहदोऽभूत् इति चंपनः " गर्नमां ज्यारे लगवान् हता त्यारे Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद. (११) माताने चंद्रमा पीवानो दोहद उत्पन्न थयो ते कारणथी चंद्रप्रन. " शोजनो विधिर्विधानमस्य सुविधिः "रूडो बे विधि ते जेनो तेसुवि धि तथा " या गर्भस्थे जगवति जनन्यप्येवमिति सुविधिः" जगवान् ग मां रेहेवाथी माता पण शोजनिक विधिवाली घर ते कारणथी सुविधि. १० " सकल सत्त्वसंतापहरणात् शीतलः " सर्वजीवोनो संताप दूर करवायी शीतल तथा " गर्जस्थे जगवति पितुः पूर्वोत्पन्नाऽचिकित्स्य पि तदादोजननीकरस्पर्शापशांत इति शीतलः " जगवंतना पिताना श मां पित्तदानो रोग हतो तेनी वैद्योथी शांति न थई परंतु जगवान् माताना गर्भमां श्रववाथी जगवंतनी माताना हाथस्पर्शथीज राजानुं शरीर शीतल थई गयुं ते कारणथी शीतल. . " ११ " श्रेयान् समस्तभुवनस्यैव हितकरः प्राकृतशैल्या बांदसत्वाच्च श्रे यांसइत्युच्यते” सर्वजगतनुं जे हित करे ते श्रेयांस" या गर्भस्थेऽस्मिन् के नापि नाक्रांतपूर्वी देवताधिष्टितशय्या जनन्या आकांतेति श्रेयोजातमिति श्रेयांसः " ज्यारे जगवान् गर्भमां हता त्यारे जगवानना पिताना घरमां देवताऽधिष्टित शय्या हती ते उपर जे बेसता तेने समाधि उत्पन्न यती जगवानी माताने ते शय्यापर सुवानो दोहद थयो, माता ते शय्यापर सुती, देवतायें उपद्रव न कर्यो पण शांत थयो ते कारणथी श्रेयांस. "" १२ " तत्र वसूनां पूज्यः वसुपूज्यः वसवोदेवाः " देवताउँथी जे पूज नीय ते वसुपूज्य " वसुपूज्यनृपतेरपत्यं वासुपूज्यः वसुपूज्य नामना राजाना जे पुत्र ते वासुपूज्य " वासवो देवराया तस्स गनगयस्स ि कणं निरकणं जणणीए पूयं करेति तेण वासुपुद्योति वा वसूि राणि वासवो वेसमणो सो गनगए अजिरकणं अरिणं तं रायकु लं रयणेहिं पूरेयति वासु द्योति. अर्थः- वासव नाम इंडनुं बे. जगवान् ज्यारे गर्भमां याव्या त्यारे वारंवार इं जगवाननी मातानी पूजा करी ते कारणथी वासुपूज्य अथवा वसु एटले रत्न अने वासव नाम वैश्रमणनुं बे. जगवान् ज्यारे गर्भमां हता त्यारे वैश्रमणे जगवानना कुलमां वारंवा र रत्नोनी पूर्णता करी ते हेतुश्री वासुपूज्य. १३ " विगतो मलोऽस्य विमलः विमलज्ञाना दियोगाद्वा विमलः " रथा बेठ कर्मरूप मल जेना ते विमल, अथवा निर्मलज्ञानादि यो Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) जैनतत्त्वादर्श. गें करी विमल, “ यद्वा गर्भस्थे मातुर्मतिस्तनुश्च विमला जातेति विम लः " तथा जगवान् ज्यारे गर्भमां हता त्यारे मातानी बुद्धि तथा शरीर निर्मल थई गयां ते कारणथी विमल. १४ " न विद्यते गुणानामंतोऽस्य अनंतः अनंतकर्माशजयाद्वाऽनंतः श्र नंतान वा ज्ञानादीनि यस्येत्यनंतः " जेना गुणनो अंत न जाणी शकियें ते अनंत, अथवा अनंत कर्माश जीतवाथी अनंत अथवा अनंत बे ज्ञाना दि गुण जेने ते अनंत, " रयण विचित्तं रयण खवियं प्रणतं अतिमह पमाणं, दामं सुमिणे जणणीयें, दिघं तर्ज तोत्ति " विचित्ररतें जडि त अति मोटी दाममाला मातायें स्वप्नमां दीठी ते कारणथी अनंत. १५ " दुर्गतौ पतन्तं सत्वं संघातं धारयतीति धर्मः” दुर्गतिमां पड ता जीवोना समूहने जे धारण करे ते धर्म, तथा " गर्भस्थे जननी दा नादिधर्म्मपरा जातेति धर्मः " परमेश्वर गर्भमां श्राववाथी माता दाना दि धर्ममां तत्पर यई तेथी धर्म. १६ “ शांतियोगात्तदात्मकत्वात्तत्कर्त्तृकत्वाच्चायं शांतिः " शांतिना यो ret वा शांतिरूप होवाथी अथवा शांति करवाथी शांति, तथा “गर्ज स्थे पूर्वोत्पन्ना शिवं शांतिरनूदिति शांतिः” तथा जगवान् गर्भमां उत्प न. यवाची पूर्वे जे शिव उत्पन्न ययुं हतुं ते शांत थई गयुं तेषी शांति. १७ " कुः पृथ्वी तस्यां स्थितिवानिति कुंथुः पृषोदरादित्वात् " कु नाम पृथ्वीनं बे ते पृथ्वीमां जे स्थित थया ते कुंथु तथा " गर्भस्थे जग वति जननी रत्नानां कुंकुं राशिं दृष्टवतीति कुंथुः " जगवान् गर्भमां श्र व्यापी मातायें रत्नमय कुंथुर्जनो राशि दीठो ते कारणथी कुंथु. "" १० " सर्वोत्तम महासत्त्वः, कुले यउपजायते ॥ तस्यानिवृद्धये वृद्धैरसा वरजदाहृतः ॥ १ ॥ इतिवचनादरः सर्वथी उत्तम महासात्त्विक कुलमां जे उत्पन्न याय तथा ते कुलनी वृद्धिकारक जे होय तेने वृद्धपुरुष प्रधान र कहे तथा " गर्भस्थे जगवति जनन्या स्वप्ने सर्वरत्नमयोऽरोदृष्ट इत्यपरः तथा जगवान् गर्भमां हता त्यारे मातायें सर्वरत्नमय र स्व मां दीठो ते कारणथी अर. " १ " परिसहा दिमलजयनान्निरुक्तान् मल्लिः " परिसदादि मल्लोने जीतवाथी मलि तथा " गर्भस्थे जगवति मातुः सुरनिकुसुममाल्यशय Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिछेद. (१३) नीयदोहदो देवतया पूरित इति मनिः" तथा जगवान् गर्नमां आव्या पली माताने सुगंधी फुलोनी मालावाली शय्या उपर सुवानो दोहद उ त्पन्न थयो ते देवतायें पूर्ण कर्यो ते कारणथी मसि २० " मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः शोजनानि व्रतान्यस्ये ति सुव्रतः मुनिश्चासौ सुव्रतश्च मुनिसुव्रतः” त्रणे कालमा जे जगतने माने ते मुनि, नलां के व्रत जेनां ते सुव्रत आ बंने पद एकत्र करवाथी मुनिसुव्रत, तथा “ गर्जस्थे जननी मुनिवत् सुव्रता जातेति मुनिसुव्रतः” तथा नगवंत गर्नमा रह्यां थकां माता रूडाव्रतवाली थ तेथी मुनिसुव्रत. २१ " परीसहोपसर्गादीनां नामनात् नमेस्तुवेति विकल्पेनोपांत्य स्येकारानावपदे नमिः" परिसह उपसोंने नमाववाथी नमि, तथा " यहा गर्नस्थे जगवति परचक्रनृपैरपि प्रणतिः कृतेति नमिः " जगवा न् गर्नमां श्राववाथी वैरीराजाय पण नमस्कार कर्यो ते कारणथी नमि. २२ “ धर्मचक्रस्य नेमिवन्नेमिः" धर्मचक्रनी धारासमान ते नेमि त था “गपगए तस्स मायाए, रिवरयणा मउमहति महालक नेमि ॥ उप्प यमाणो सुमिणे, दिगेत्ति तेणसे रिग्नेमित्ति नामं कयंति" तथा न गवान् गर्नमां आव्यापली मातायें अरिष्ट रत्नमय मोटो नेमि ( चक्रधा रा) आकाशमा उत्पन्न थयो एम स्वप्नमां दीगे ते कारणथी अरिष्टनेमि. २३ " स्पृशति ज्ञानेन सर्वजावानिति पार्श्वः” सर्वपदार्थोने ज्ञानें करी स्पर्शे जाणे ते पार्श्व.तथा“गर्जस्थे जनन्या निशि शयनीयस्थयांऽधकारेसो दृष्टशति गर्नानुनावोयमिति पश्यतीति निरुक्तात् पार्श्वः पार्थोऽस्यवैयावृत्त्य करो यदस्तस्य नाथः पार्श्वनाथः जीमो नीमसेन इति न्यायाछा पार्श्वः" तथा नगवान् गर्नमा रह्या थका मातायें रात्रिमा शय्या उपर बेगं थकां अंधारामां सर्प जातो दीठो,माता पितायें विचाऱ्या के श्रा गर्जनोप्रजावडे अथवा पार्श्वनामा वैयावच्च करनारा देवताना जे नाथ ते पार्श्वनाथ. श्व "विशेषेण रयति प्रेरयति कर्माणीति वीरः" विशेषेकरी प्रेरे जे कमोंने ते वीर तथा अत्यंत उग्र परीसह उपसर्ग सहन करवाथी देवता उयें श्रमण जगवान् महावीर एवं तथा माता पितायें धनधान्यादिनी वृद्धि थवाश्री वर्धमान एवं नाम दीधुं. तथा शमासर्व जातो यावत्र करमास कमाणात वणि सहन करवाधान्यदिनी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) जैनतत्त्वादर्श. ए प्रकारें आ अवसप्पिणिमां जे तीर्थंकर श्रया तेमनां नाम तथा शा हेतुश्री ते नाम राख्यां ते समाप्त थयु. आ चोवीश तीर्थंकर मध्येबी बावीश अर्हत इक्ष्वाकुकुलमा उत्पन्न थया एटले के षजदेवजीना वंशमां श्रया, इक्ष्वाकुकुल रुपनदेवजीथी प्रसिद्ध , तेनुं स्वरूप आगल केहवामां आवशे, बाकीना वीशमा मुनि सुव्रतखामी तथा बावीशमा अरिष्टनेमि नगवान् ए बंने तीर्थकर हरिवं शमा उत्पन्न थया. चोवीश तीर्थंकरोमां बहा पद्मप्रन अने बारमा वासु पूज्य लाल वर्ण शरीरवाला थया, आठमा चंझपन तथा नवमा सुविधि नाथ (पुष्पदंत) ए बे तीर्थंकर श्वेतवर्ण स्फटिकवत् उज्वल शरीरवाला थया, उंगणीशमा महिनाथ तथा विशमा पार्श्वनाथ हरितवर्ण शरी रवाला थया, तथा वीशमा मुनिसुव्रत खामी तथा बावीशमा अरिष्टनेमि जगवान् श्यामवर्ण रंगें अलसीना फुलजेवा शरीरवाला थया. बाकीना सोल सुवर्णवर्ण शरीरवाला थया. चोवीश तीर्थकरोनां चिह्न तेमना दक्षिण पगमा हतांतथा तेमनी ध्व जामां ते चिह्न होय , हालपण तेमनी प्रतिमाना आसनमा ते चिह्न होय ने ते चिह्नो या प्रमाणे- (१) षनदेवजी बलद, चिह्न (५) अजित नाथजी, हाथीनू चिह्न (३) संजवनाथजीनुं घोडानुं चिह्न (४) अभिनंद नजी, वांदरानुं चिह्न (५) सुमतिनाथजीन कौंच पदीन चिह्न (६)पद्मप्र जुजी- कमल, चिह्न (s) सुपार्श्वनाथजीनुं साथीयानुंचिह्न (1) चंप्रजु जीनुं चंप्रमानुं चिह्न (ए) सुविधिनाथ (पुष्पदंत ) जीर्नु मकरनुं चिह्न (१३) शीतलनाथजीनुं श्रीवत्सनुं चिह्न (११)श्रेयांसनाथजीनुं गेंमानुंचिह्न (१२) वासुपूज्यजीनुं महिषर्नु चिह्न (१३) विमलनाथजीनुं सूअरनुं चिह्न (१४) अनंतनाथजीनुं बाजनुं चिह्न (१५) धर्मनाथजीनुं वजनुं चिह्न (१६) शांतिनाथजीनुं हरण- चिह्न (१७) कुंथुनाथजी, बोकडानुं चिह्न (१७) अरनाथजीनुं नंदावर्त्तनुं चिह्न (रए)महिनाथजीन कुंजन चिह्न (२०)मुनिसुव्रतस्वामिनु काचबानुं चिह (५१)नमीनाथजीनुं लीला कमलनुं चिह्न (२२) अरिष्टनेमिजीतुं शंखनुं चिह्न (२३) श्रीपार्श्वनाथजीनुं सप्पनुं चिह्न (२४) श्रीमहावीरस्वामिनु सिंहनुं चिह्न. हवे चोवीश तीर्थंकरोना पितानां तथा मातानां नाम कहीयें बीयें. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) प्रथम परिवेद. श्रा बावन बोल प्रत्येक तीर्थंकरमां कहे. रजगणधर संख्या . ए५) गणधर ए३) गणधर ) गणधर. ३०००००) २५०००) २०००००) ३० साधवियोनी संख्या. ४३००००) ३०) १२००००) ३वैक्रिय लब्धिवंत. १५३००) १४०००) १३०००) ३वादियोनीसंख्या. न्ध००) ६००) ६०००) ३३अवधिज्ञानी संख्या. ए ) roo) ३४केवली संख्या. ११०००) १००००) ७५००) ३५मनःपर्यवसंख्या. ए१५०) 5000) ७५०) ३६चौदपूर्वीसंख्या. २०३०) २०००) १५००) ३७ श्रावक संख्या. २५000) | २५००००) शए ) • ३जश्राविकासंख्या. ४ए३०००) | Y ) | ४३१०००) ३ए शासनयदनांनाम. मातंगयद विजय यद अजिता यदा ४० शासनयदणीनांनाम.शांता नृकुटी सुतारिका प्रथम गणधर नाम. विदर्ज वराहक शप्रथमश्रआर्या नाम. सोमा ५३ मोक्षस्थान. समेतशिखर समेतशिखर समेतशिखर श्वमोतिथि. फागण वदि नालवा वदि नाजवा शुदिए ४५मोक्षसंवेषणा. एक मास एकमास एकमास ४६मोक्षयासन. काउस्सग्ग काउस्सग्ग काउस्सग्ग अंतर प्रमाण. एसोकोडीसागर एकोडीसागर ए कोडीसागर जगणनाम. राक्षसगण देवगण राक्षसगण एयोनि नाम. मृगयोनि मृगयोनि वानरयोनि ५०मोदपरिवार. ५४) १०) १००) ५१ नवसंख्या . त्रणनवकस्या त्रणनवकत्या त्रणनवकस्या ५कुलगोत्र नाम. दवाकुकुल दिवाकुकुल वाकुकुल ५३गर्नकाल मान. एमासरएदिवस नवमास दिव०मास दिव.२६ दिन सुमना वारुणी - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ (२५) जैनतत्त्वादर्श. श्रा बावन बोल प्रत्येक तीर्थंकरमां कहेजे. ca १ तीर्थकरनाम. शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १५ श्रीवासुपूज्य. २ च्यवनतिथि. वैशाखवदि ६ ज्येष्ठवदि ६ ज्येष्ठ शुदि । ३ विमाननाम, अच्युत देवलोक अच्युतदेव लोकप्राणतदेवलोक ४ जन्मनगरी. नद्दिलपुरसिंहपुरीचंपापुरी ५ जन्मतिथि. महाव दि १५ फागणवदि १२ फागण वदि १४ ६ पितानां नाम. दृढरथराजा विष्णुराजा वसुपूज्यराजा मातानांनाम. नंदामाता विष्णुमाता जयामाता ज जन्मनदत्र. पूर्वाषाढा श्रवण नक्षत्र शतनिषानक्षत्र . एजन्मराशि. धनराशि मकर राशि कुंजराशि १० लांडन नाम. श्रीवत्सनुलांउन गेंडानुंलांबन पामार्नु लांबन ११शरीरनुं मान. नेQधनुष एंशीधनुष सीत्तेरधनुष शायु-प्रमाण. एकलाखपूर्व व लाखवर्ष २ लाखवर्ष १३शरीरनावर्ण. सुवर्णवर्ण सुवर्णवर्ण लालवर्ण १४/पदवीराजानी. राजा कुमार १५पाणिग्रहण. परण्या . परण्या परण्या १६ केटलासाथेदीदा. (2000) साधु (१०७० साधु ६० साधु १७दीक्षानगरी. दिलपुरसिंहपुरी चंपापुरी रणदीदातप. उपवास उपवास बे उपवास रएप्रथमपारणानोथा. दीरजोजन . दीरजोजन दीरनोजन २०पारणानांस्थान पुनर्वसुनेघेर नंदनेघेर सुनंदनेघेर केटला दिवसमुंपारणं बे दिवस दिवस बे दिवस श्शदीदातिथि. महाव दि १५ फागणवदि १३ फागणशुदि १५ २३बमस्थकाल. त्रणमासरह्या बे मासरह्या एक मासरह्या २४ज्ञाननगरी. नदिलपुरसिंहपुरी चंपापुरी २५ज्ञानतप, बे उपवास बे उपवास बे उपवास श्क्षदीदावृक्ष. प्रियंगुवृक्ष तंकवृक्ष पागलवृक्ष ज्ञानतिथि. पोषवदि १४ महावदि ३ महाशुदिर राजा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) प्रथम परिवेद. श्रा बावन बोल प्रत्येक तीर्थकरमा कहे. Sooo रजगणधरसंख्या. १)गणधर । ७६)गणधर ६६)गणधर शएसाधुऊनी संख्या. १00000 G४००० २००० ३० साधवीयोनीसंख्या. १००००६ १०३००० १00000 ३ वैक्रियलब्धिवंत. १२००० ११००० १०००० शवादियोनी संख्या. ५००० YSoo ३३अवधिज्ञानी संख्या. ६००० ५४०० ३ केवली संख्या. ६५० ६००० ३५मनःपर्यवसंख्या. १५०० ६००० ६५०० ३६चौदपूर्वी संख्या. १४०० १३०० १२०० ३७ श्रावक संख्या. २१५००० ३जश्राविका संख्या. Y५1000 ४३६००० ३एशासनयदोनांनाम.ब्रह्मायक्ष. जदेटयदा. कुमार यदा. शासननी यक्षिणी. अशोका मानवी चंमा ४१प्रथम गणधर नाम,नंद काप शप्रथम आर्या नाम. सुयशा धारणी धरणी ४३मोक्षस्थान. समेतशिखर समेतशिखर चंपापुरी धमोक्षतिथि. वैशाखवदि २ श्रावणवदि३ अशाड शुदि १४ ४५/मोक्षसंलेषणा. एकमास एक मास एकमास ४६मोक्षधासन. काउस्सग्ग काउस्सग्ग काउस्सग्ग ४अंतर मान. एककोडीसागर चोपन सागर त्रीश सागर जगण नाम. मानवगणदेवगण राक्षसगण एयोनि नाम. नकुलयोनि वानरयोनि अश्वयोनि ए०मो६परिवार. १००० परिवार १००० परिवार ६००परिवार ५१ जवसंख्या. त्रणजवकस्या. वणजवकस्या त्रण जव कस्या ५२कुसगोत्र नाम. श्क्ष्वाकुकुल दवानुकुल इक्ष्वाकुकुल ५३गर्नकाल मान. मास ए दिवसमास ए दिवसमास दिवस२० - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनतत्त्वादर्श. श्रा बावन बोल प्रत्येक तीर्थंकरमा कहे. १ श्रीतीर्थकर नाम. | १३ विमलनाथ| १४ अनंतनाथ |१५ श्रीधर्मनाथ २ च्यवन तिथि. वैशाखशुदि १२ श्रावणवदि वैशाखशुदि ३ विमान नाम. अष्टसारदेवलोक प्राणत देवलोक विजय विमान ४ जन्म नगरी. कंपिलपुरी अयोध्या रत्नपुरी नगरी ५ जन्म तिथि. महाशुदि३ वैशाखवदि १३ महाशुदि३ ६ पितानां नाम. कृतवर्माराजा सिंहसेन राजा नानुराजा ७ मातानां नाम, श्यामामाता यशामाता सुव्रता माता जन्म नदात्र, उत्तरानाजपद रेवतीनदात्र पुष्यनदात्र एजन्म राशि. मीनराशि मीन राशि कर्कराशि १०लांबन नाम. वराहनुं लांउन सीचाणानुंलांबन वनलांबन १९शरीरनुं मान. शाउधनुष पचाशधनुष पीस्तालीशधनुष शआयुर्मान. शाउलाखवर्ष त्रीशलाखवर्ष दशलाखवर्ष १३ शरीरना वर्ण. सुवर्ण वर्ण सुवर्ण वर्ण सुवर्ण वर्ण १४/पदवी राजानी. राजा राजा राजा १५/पाणिग्रहण, परण्या परण्या परण्या १६)केटला साथे दीक्षा. १००० ) साधु १०००) साधु १०) साधु १७दीदा नगरी. कंपिल पुर अयोध्या रत्नपुरी १जदीदा तप. उपवास उपवास उपवास रएप्रथमपारणानोआ कीर जोजन दीर जोजन वीर जोजन २०पारणानां स्थान. जयराजाने घेर विजयराजानेघेरधनसिंहने घेर शकेटलादिवसनांपा बे दिवस दिवस दिवस दीदा तिथि. महाशुदि ४ वैशाखवदि १४ महाशुदि १३ २३ बमस्थ काल. बे मासत्रण वर्ष बे वर्ष श्शज्ञान नगरी. कंपिलपुरी अयोध्या रत्नपुरी २५झान तप. बे उपवास बे उपवास उपवास २६दीदा वृक्ष. जंबूवृक्ष अशोक वृक्ष दधिपर्णवृक्ष ज्ञानतिथि. पौषशुदि ६ वैशाख वदि १४ पौष शुदि १५ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद. श्री बावन बोल प्रत्येक तीर्थंकरमां कडे बे. १८' गणधर संख्या. साधुर्जनी संख्या. ३० साधवी योनी संख्या. ३१ वैक्रिय लब्धिवंत. ३२ वादियोनी संख्या. ३३ अवधिज्ञानी संख्या. ३४ केवली संख्या. ३५ मनः पर्यवसंख्या. ३६ चौद पूर्वीसंख्या. V000) ३६०० ) YG००) yy00) ५५००) (200) २०८०००) ३७ श्रावकसंख्या. ३० विकासंख्या. ४२४०००) ३० शासन योनांनाम षण्मुखयद४० शासन यक्षिणीनांना ० विदिता ४१ प्रथम गणधरनाम. मंदरगणधर ४२ प्रथम आर्यानाम. ४३ मोक्ष स्थान. ४४ मोक्ष तिथि. ४५ मोक्ष संलेषणा. ४६ मोदआसन. ४७ अंतरमान. ४८ गणनाम. ४० योनिनाम. ५० मोक्षपरिवार. ५१ जवसंख्या. ५२ कुल गोत्रनाम. ५३ गर्न कालमान. ५७) गणधर ६८०००) १००००० ) "" मानवगण बागयो नि ५०) गणधर ६६०००) ६२०००) GOOD) ३२०० ) ६०० ) ४३००) 2000) ५०००) 2000) २०६०००) ४०१४००) धरा पद्मा समेत शिखर समेत शिखर आषाढवदि ७ चैत्रशुदि ५ एकमास एकमास काजस्सग काजस्तग नवसागरोपम चारसागरोपम पातालयक अंकुशा जसगणधर देवगण हस्तियो नि Joo) (99) ४३) गणधर ६४०००) ६२४०० ) 3000) २०००) ३६००) ४५००) ४५००) VOO) २०४०००) ४१३०००) किन्नरयक कंदप अरिष्ट चार्य शिवा समेत शिखर ज्येष्ठशु दि ५ | एकमास काउस्सग त्रणसागरोपम देवगण मंजारयो नि -२०७) त्रणजवकस्या त्रणनवकस्या त्रणजवकस्या इक्ष्वाकुकुल इक्ष्वाकुकुल इक्ष्वाकुकुल मास दिवस २१ मास दिवस ६ मास दिवस२६ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) जैनतत्त्वादर्श. आ बावन बोल प्रत्येक तीर्थंकरमां कहेले. श्री तीर्थकरनाम. १६श्रीशांतिनाथ १७ श्रीकुंथुनाथ रश्रीअरनाथ च्यवनतिथि. जाजवाव दि ७ श्रावणवदि ए फागण शुदिर ३ विमाननाम. सर्वार्थसिद्ध सर्वार्थसिक सर्वार्थ सिक जन्मनगरी. गजपुर गजपुर गजपुर ५जन्मतिथि. ज्येष्ठव दि १३ वैशाख वदि १५मागशिरशु०१० ६ पितानां नाम. विश्वसेन सूरराजा सुदर्शन मातानां नाम. अचिरा राणी श्री राणी देवीराणी जन्मनक्षत्र. जरणी नक्षत्र कृत्तिका नक्षत्र रेवती नक्षत्र ' एजन्म राशि. मेषराशि वृष राशि मीन राशि १०लांबननां नाम. हरिण- लांबन. बकरानुं लांडन नंदावर्त्तनुं १९शरीर मान. 0) धनुष ३५) धनुष ३०) धनुष शवायुनुं प्रमाण. एक लाखवर्ष एए००) वर्ष ४०) वर्ष १३शरीरना वर्ष. सुवर्णवर्ण सुवर्णवर्ण सुवर्णवर्ण १४पदवी राजानी. चक्रवर्ती चक्रवर्ती चक्रवर्ती १५पाणि ग्रहण. ६४०००) स्त्री ६४०००) स्त्री ६४०००) स्त्री १६केटला साथे दीक्षा. १०००) साधु १०००) साधु १०००) साधु १७दीक्षानगरी. गजपुर गजपुर गजपुर रजंदीदातप.. बे उपवास उपवास बे उपवास रएप्रथमपारणानोआ क्षीर जोजन वीर नाजन कीर जोजन २०पारणानां स्थान. सुमित्रने घेर व्याघ्रासंहने घेरअपराजितने घेर केटला दिवसनांपाबे दिवस दिवस दिवस श्शदीदा तिथि. ज्येष्ठ वदि १४ चैत्र वदि ५ मागशिर शुण्११ . बनस्थ काल. एकवर्ष शोल वर्ष त्रणवर्ष २४ज्ञाननगरी. गजपुर गजपुर २५ज्ञान तप. बे उपवास बे उपवास बे उपवास २६दीदांवृद. नंदीवृक्ष नीलक वृक्ष यांबार्नु वृक्ष खज्ञानतिथि. गोषशुदि ए वैवशुदि३ कार्तिक शुदिर Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) प्रथम परिछेद. आ बावन बोल प्रत्येक तीर्थंकरमा कहे. श्जगणधर संख्या. ३६) गणधर ३५) गणधर ३३) गणधर. शएसाधुओनीसंख्या. | ५२०००) ६००००) ५००००) ३०साधवियोनी संख्या. ६१६००) ६०६००) ६००००) ३१ वैक्रियलब्धिवंत. ६०००) ५१००) 9300) ३शवादियोनीसंख्या. ४०) २०००) १६००) ३३अवधिज्ञानी संख्या. ३०००) २५००) २६००) ३४ केवली संख्या. ४३००) ३२००) ज०) ३५मनःपर्यवसंख्या. ४०००) ३३४०) २५५१) ३६चौदपूर्वीसंख्या. ज०) ६०) ६१०) ३७ श्रावक संख्या. रए०००) । ए००) १०००) ३ श्राविकासंख्या. ३ए३०००) ३१००) ३२०००) ३एशासनयक्षनांनाम, गरुडयद गंधर्वयद योदयद ४० शासनयक्षणीनांनाम. निर्वाणी बला धणा ४२प्रथम गणधर नाम. चक्रयुक्त सांब शप्रथमथार्या नाम. शुचि दामिनी रदिता मोक्षस्थान. समेतशिखर समेतशिखर समेतशिखर धमोक्षतिथि. ज्येष्ठ वदि १३ वैशाख वदि १ मागशिरशुदिर ४५मोदसलेषणा. एक मास एकमास एकमास ४६मोक्षधासन. काउस्सग्ग काउस्सग्ग काउस्सग्ग अंतर प्रमाण. गापट्योपम पट्योपम १००० कोडवर्ष धनगणनाम. मानवगण राक्षसगण देवगण धए योनि नाम. हस्तियोनिबागयोनि हस्तियोनि ५०मोदपरिवार, एपरिवार १०००)परिवार १०००) परिवार ५१नवसंख्या. बार नव कत्या त्रपनवकस्वा प्रणनवकस्या एकुलगोत्र नाम. श्क्ष्वाकुकुलश्क्ष्वाकुकुल क्ष्वाकुकुल ५२गर्नकाल मान. मासनव दिवसबमासनवदिपांचमासनव दिव. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) जैनतत्त्वादर्श. श्रा बावन बोल प्रत्येक तीर्थंकरमा कहेले. १ श्रीतीर्थंकर नाम. १ए श्रीमद्धिनाथ श्रीमुनिसुव्रत १ श्रीनमि नाथ २ च्यवन तिथि. फागण शुदि ५ श्रावण शुदि १५/आशोशुदि १५ ३ विमान नाम. जयंतविमान अपराजितविमा.प्राणत देवलोक ४ जन्मनगरी. मथुरानगरी राजगृही नगरी मथुरा नगरी ५ जन्मतिथि. मागशिरशुदिज्येष्ठव दिन श्रावण वदि न ६ पितानां नाम. कुंजराजा सुमित्रराजा विजयराजा मातानां नाम. प्रजावती पद्मावती विप्रा राणी जन्म नदात्र. अश्विनी नक्षत्र श्रवण नक्षत्र अश्विनी नक्षत्र ए जन्म राशि. मेषराशि मकरराशि मेषराशि १०लांबन नाम. कलशनुं लांबन कबपनुं लांबन कमलनुं लांबन ११शरीर-प्रमाण, पचीश धनुष वीश धनुष पंदर धनुष ५५७)वर्ष ३०००) वर्ष १०००) वर्ष १३ शरीरना वर्ण. नीलो वर्ण श्यामवर्ण पीलो वर्ण १४/पदवी राजानी. कुमार राजा राजा १५पाणिग्रहण, नथी परण्यापरण्यापरण्या १६/केटलासाथे दीक्षा. ३००) साधु १०००) साधु (१०००) साधु १७ दीक्षानगरी. मिथिला नगरी राजगृही नगरी मथुरा नगरी रजदीदातप, त्रण उपवास बे उपवास बे उपवास १एप्रथमपारणानोआ कीर नोजन दीर जोजन कीर नोजन २०पारणानां स्थान. विश्वसेन ब्रह्मदत्त दिन्नकुमार १ केटला दिवसनांपाबे दिवस बे दिवस दिवस श्शदीदातिथि. मागशिरशुदि११फागणशुदि १५ अषाढ वदिए २३बद्मस्थकाल. एक अहोरात्र अगियार मास नवमास २४ ज्ञान नगरी. मथुरा नगरी राजगृही नगरी मथुरा नगरी २५ ज्ञानतप. बे उपवास उपवास बे उपवास २६दीक्षावृद. .. , अशोक वृक्ष . . चंपकवृदबकुलवृक्ष । २७ ज्ञानतिथि. मागशिरशुदि११ फागण वदि रश्मागशिरशुदि११ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) प्रथम परिजेद. . था बावन बोल प्रत्येक तीर्थंकरोमां कहे. 0000 २००० १२०० श्णगणधर संख्या. २) गणधर १७) गणधर १७)गणंधर शएसाधुउनी संख्या. ४०००० ३० ३० साध्वीयोनी संख्या. ५५०० ५०००० ४१००० ३२वै क्रियल ब्धिवंत. ए ५००० ३शवादियोनी संख्या. १४०० १२०० १०० ३३अवधिज्ञानी संख्या. {០០០ १६०० ३४केवली संख्या. २०० 20០០ १६०० ३५/मनःपर्यव संख्या. १७५ १५०० . १२५० ३६चौदपूर्वी संख्या. ६६न ५०० ३७/श्रावक संख्या. २३००० १७२००० ११०००. ३श्राविका संख्या. ३0000 ३५0000 ३४00 ३एशासन यदोनांनाम.कुबेरयद वरुण यद तृकुटी यद ४०शासनयक्षणीनांनामधरण प्रियानरदत्ता गंधारी ४१प्रथम गणधर नाम.अनीदकगणधर महीगणधर शुजगणधर ४२प्रथम आर्या नाम. वधुमती पुष्पमती अनिला ४३.मोद स्थान. समेतशिखर समेतशिखर समेतशिखर भधमोद तिथि. फागण शुदि १ज्येष्ठ वदि ए वैशाखवदि १० ४५ मोद संखेषणा. एकमास एक मास एकमास ४६मोक्ष आसन. काउस्सग्ग काउस्सग्ग कास्सग्ग अंतरमान. ५४00000 वर्ष. ६०००00 वर्ष 200000 वर्ष वजगण नाम. देवगण देवगण देवगण एयोनि नाम. अश्वयोनि वानरयोनि, अश्वयोनि ५०मोद परिवार. ५०० परिवार १००० परिवार १००० परिवार ५१नव संख्या. त्रण नव कस्या त्रण नव कस्या त्रणव कस्या ५शकुलगोत्र नाम. इक्ष्वाकुवंश कुलश्क्ष्वाकुवंशकुल इक्ष्वाकुवंशकुल ५३गर्नकालमान, मास ए दिवस मास एदिवस मास ए दिवस Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) जैनतत्त्वादर्श. श्रा बावन बोल प्रत्येक तीर्थंकरमां कहे. १|श्रीतीर्थकरनाम, ५ श्रीनेमिनाथश्रीपार्श्वनाथ २४ श्रीमहावीर च्यवनतिथि. कार्तिकवदि १५ चैत्रवदि ४ आषाढशुदि६ ३ विमाननाम. अपराजित प्राणत देवलोक प्राणतदेवलोक ४ जन्मनगरी. सौरिपुरवणारसीदत्रियकुंड ५ जन्मतिथि. श्रावणशुदि५ पौषवदि १० चैत्रवदि १३ ६ पितानां नाम. समुख विजय अश्वसेन सिद्धार्थराजा मातानांनाम. शिवा देवी वामा देवी त्रिशला देवी जजन्मनदात्र. चित्रानदात्र विशाखा नक्षत्र उत्तरा फाल्गुनी ए जन्मराशि. कन्याराशि तुला राशि कन्याराशि १० लांबन नाम. शंखनुं लांबन सपनुं लांबन केशरी खांबन ११ शरीरनुं मान. दशधनुष नवहाथ सातहाथ १शवायुनुप्रमाण. हजारवर्षशो वर्ष बहोंचेर वर्ष १३ शरीरनावर्ण. श्यामवर्ण नीलो वर्ण पीलो वर्ण १४पदवीराजानी. कुमार पदवी कुमारपदवी कुमार पदवी १५पाणिग्रहण. . नथी परण्या परण्या परण्या १६ केटलासाथेदीक्षा. १७००) साधु (३०० साधु एकाकी दीक्षा १७दीक्षानगरी. सौरिपुरवणारसी क्षत्रियकुंक रजदीक्षातप. बे उपवास उपवासब उपवासब उपवास उपवास १एप्रथमपारणानोश्रा. दीरजोजन दीरनोजन दीरजोजन २०पारणानांस्थान वरदिन्न धन्यनाम बहुल ब्राह्मण शकेटलादिवसनुपारपुं बे दिवस दिवस बे दिवस श्शदीदातिथि. श्रावण शुदि ६ पौषवदि ११ मागशिरवदिर २३बद्मस्थकाल. चोपन दिवस चोराशी दिवस बार वर्ष २४ाननगरी. गिरनार वणारसी रुजुवालुका नदी २५ज्ञानतप. त्रण उपवास त्रण उपवास बे उपवास शक्षादीक्षावृदा. वेडसवृक्ष धातकीवृक्ष शालवृक्ष ज्ञानतिथि. श्राशोवदि) चैत्रवदि४ वैशाख शुदि १० Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद. या बावन बोल प्रत्येक तीर्थंकरमां कहे . २० गणधर संख्या. साधुर्जनी संख्या. ३० साधवी योनी संख्या. ३१ वे क्रियलब्धिवंत. ३२ वादियोनी संख्या. ३३ अवधिज्ञानी संख्या. ४१ प्रथम गणधरनाम. ४२ प्रथम आर्यानाम ४३ मोक्ष स्थान. ४४ मोक्ष तिथि. ४५ मोकसंलेषणा. ४६ मोक्षासन. ४७ अंतरमान. ४८ गणनाम. ४योनिनाम. ५० मोक्षपरिवार. ५१ जवसंख्या. ५२ कुल गोत्रनाम. ५३ गर्न कालमान. ५ ११) गणधर (0000) yoooo) (200) ३४ केवली संख्या. १६०००) ३५ मनः पर्यवसंख्या. ३६ चौद पूर्वीसंख्या. ३७ श्रावकसंख्या. ३विकासंख्या. ३० शासन योनां नाम. गोमेधयक्ष ४० शासन यक्षिणीनांना० बिका ३३६०००) GOO ) (400) १५००) (000) You वरदत्त यक्ष दिन्ना गिरनार आषाढशुदि १०) गणधर १६०००) ३८०००) (200) ६०० ) (000) १०००) १५०) ३५०) १६४०००) ३३००००) पार्श्वयक पद्मावती चार्य दिन्न पुष्पचूडा समेत शिखर श्रावण शुदि ८ एकमास काउस्सग २५०) वर्ष ( ३३ ) ११) गणधर . १४०००) ३६०००) goo) ४००) १३००) Joo) ५००) ३००) १५०००) ३१००००) मातंगयक्ष सिद्धायिका इंद्रभूति चंदनबाला पावापुरी कार्तिक वदि ० ) बे उपवास करया एकमास पद्मासन · ८३०५०) वर्ष राक्षसगण राक्षसगण महिषयोनि मृगयो नि (५३६) परिवार ३३) परिवार नवजवकस्या दर्शनव कस्या हरिवंश इक्ष्वाकुकुल इदवा कुकुल मास दिवस मास दिवस ६ मास दिवस ७ ॥ पद्मासन चरम जिनेश्वर. | मानवगण महिषयोनि एकला पोते सत्यावीशजवक० Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) जैनतत्त्वादर्श. आ यंत्र अनुसार दरेक तीर्थकरना बावन बोलनो संबंध जाणवो. ते मध्येनां मातादि केटलांएक द्वार व्युत्पत्तिना कारणसर प्रथम पृथक बतावेल . श्रा चोवीश तीर्थंकरमांना नवमा, दशमा, अग्यारमा, बारमा, तेरमा, चौदमा, अने पंदरमा ए सात तीर्थकरना निर्वाण थया पली तेम नां शासन (छादशांग वाणीरूप शास्त्र) तथा साधु, साध्वी, श्रावक, अने श्राविका चतुर्विध श्रीसंघरूप तीर्थ केटलाएक काल प्रवर्ती विबेद गयां. ते समये नारत वर्षमा जैनमतनुं नाम पण विद्यमान न होतुं; ते वखतथी अनेक मत मतांतर तथा कुशास्त्रोनी प्रायः प्रवृत्ति थई ते वर्तमान काल सुधी विद्यमान . बहु लोकोए स्वकपोलकल्पित शास्त्रो रचीने प्राचीन मुनि, झषि अथवा ईश्वरप्रणीत ते जे एम प्रसिक कयां. ए प्रमाणे त्रणसो त्रेसठ मत प्रवा. चारे आर्यवेद विछेद गया, अने नवीन वेदोनी रचना करी. नवीन वेदो मध्ये पण लोकोए केटलीएक वार नवी नवी रचना करी तेमने उलट पालट करी दीधा. नवी नवी रचना कख्या पनी जे बाकी रह्या तेनी अनेक तरेहथी नाष्य, टीका, दीपिका, रचीने अर्थमां गडबड करी दीधी. अत्यार सुधी ते प्रमाणेज कस्या करे . आ सर्व खरूप ज्यां वेदोनी उत्पत्ति विषे लखशं त्यां स्पष्ट लखगुं-वेद-नाम बहुज प्राचीन कालथी . जे पुस्तकोनांनाम वेद आज प्रसिक ते प्राचीन नथी, तेनुं प्रमाणयुक्त वर्णन श्री गल करवामां आवशे. इति श्री तपागलीयमुनिश्रीबुझिविजय शिष्य मुनि श्री आनंद विजय श्री आत्मारामविरचिते जैनतत्त्वादशैं प्रथमः परिछेदः संपूर्णः॥ ॥ अथ द्वितीय परिछेद ॥ आ परिवेदमां कुदेवतुं स्वरूप लखिये बियें जे “ नगवान् ” नथी परंतु लोकोए पोतानी मतिथी जेने परमेश्वर मान्या तेने कुदेव कहेवामां आवे बे. ते कुदेवनुं स्वरूप प्रथम वर्णवेला देव स्वरूपथी विपरीत ने ए म सर्व बुद्धिमान् तो जाणी शके बे परंतु जे विस्तारपूर्वक लखवाथी समजी शके तेमना हित सारु लखियें लियें. %3 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) जैनतत्त्वादर्श. '. उत्तर-नवीन वेदांती, नैयायिक, वैशेषिकादि सर्व अज्ञानी थया ले के जे ईश्वरने जगत्कर्ता माने .. प्रश्न-ईश्वर जगत्ना अथवा सर्व वस्तुना कर्त्ता जे एम जो मानियें तो शुं दूषण के ? : उत्तर-ईश्वरने जगत्ना कर्ता अथवा सर्व वस्तुना कर्त्ता मानवामां बहु दूषणो आवे . प्रश्न-बाप अपूर्व वात कहोडो. अमें तो कदी सांजल्युं नथी के ईश्वरने जगत्कर्ता अथवा सर्व वस्तुना कर्ता मानवामां दूषण आवेडे. हवे तो आ ईश्वरने जगत्कर्ता मानवामां शुं शुं दूषणो आवेडे ते केहेवू जोश्ये ? उत्तर-हे जव्य ! प्रथम तो आप ए बतावो के आप कया ईश्वरने जगत्कर्ता मानोडो? . प्रश्न-शुं ईश्वर पण कश्क तरेहना , जे आप अमने एम पुगेडो ? ___उत्तर-शुं आप नथी जाणता के बे प्रकारना ईश्वर मतावलंबियोयें मानेला ? एकतो जगत् उत्पत्ति पेहेलां केवल एकज ईश्वर हता; जगत्नां उपादानादि कोश.पण कारण अथवा बीजी वस्तु न होती, एकज शुद्ध बुद्ध सच्चिदानंदादिखरूपयुक्त परमेश्वर हता, केटलाएक जीवोने तो एवा ईश्वर, जगत् वा सर्व वस्तुना रचनार संमत के अने बीजाउने तो १ जीव र परमाणु ३ आकाश ४ काल दिशादि सामग्रीवाला अर्थात् एक तो ईश्वर उपर वर्णवेला विशेषणसंयुक्त-अने जेथी जगत् रचीशकाय एवी बीजी सामग्री-ए बने वस्तु अनादि , एम संमत ; अर्थात् एक तो ईश्वर, अने बीजी जगत् उत्पन्न करवानी सामग्री; ए बंने कोश्ये बनावी नथी एम ते माने. हवेआपने बेमतमांथी कयो मत संमतले. पूर्वपद-अमने तो प्रथम मत संमत . कारण के वेदादि शास्त्रोमां एम लख्यु -" एतस्मादात्मन आकाशः संनूतः आकाशाहायुः वायोरग्नि रग्नेरापः अङ्ग्यःपृथिवी पृथिव्या उषधयः उषधिन्योन्नमन्नाखेतः रेतसः पुरु षः सवा एष पुरुषोन्नरसमयः" तैत्तिरीय शाखानी श्रुति तथा “सदेव सौम्येदमग्रघासीदेकमेवाद्वितीयं तदैवत बहः स्यां प्रजायेयेति " आ श्रुति बांदोग्य उपनिषद्नी . तथा "ना सदासीनो सदासीत्तदानीन्ना Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीय परिबेद. (४१) सीधजोन व्योम परोयत् किमावरीवः कुहकस्य शर्मण्यतः किमासीजहनं गनीरं" श्रा श्रुति ऋग्वेदनी, तथा “आत्मा वा श्दमग्र आसीनान्यत् किंचिन्मिषत् सईदत लोकानुसृज इति" श्रा ऐतरेय ब्राह्मणनी श्रुति बे; इत्यादि अनेक श्रुतियोथी सिक थाय के सृष्टिनी पेहेलां एक ईश्वर हता. न जगत् हतुं अथवा नहोतुं जगत् कारण,एकज ईश्वर शुखरूप हता. वली इसाइ तेमज मुसलमान मतवाला पण एमजमाने जे.एहेतुथी श्रमे प्रथम पद मानियें बीयें. उत्तर- हे पूर्वपदिापर्नु ए केहे ईश्वरने बहुज कलंकित करे. पूर्वपद- जगत् रचवाथी ईश्वरने शुं कलंक प्राप्त थाय ने ? उत्तरपद-प्रथम तो जगत्नु उपादान कारण नथी, ते हेतुश्री जगत् कदापि उत्पन्न यश् शकतुं नथी. जेनुं उपादान कारण होय नहि ते कार्य कदापि उत्पन्न थर शके नही. जेम के गधेडानां सींग. पूर्वपद-ईश्वरें पोतानी, शक्ति, नामांतर कुदरतथी जगत् रचेल .ई. श्वरनी जे शक्ति ने तेज उपादान कारण डे. उत्तरपद-ईश्वरनी जे शक्ति ले ते ईश्वरथी जिन्न , के अजिन्न ने ? जो कहो के जिन्न , तो पड़ी जड डे के चेतन डे ? जो कहो के जड , तो ते नित्य , के अनित्य ? जो कहो के नित्य ने तो श्रापनुं एम जे केहे हतुं के सृष्टिनी पेहेला एक केवल ईश्वर हता अने बीजी काश्पण वस्तु न होती; ते प्रमाणरहित अन्यायी वचन थयु, पोतेज पोताना वचनने मृषा कराव्यु. वली एम कहो के अनित्य ले तो पड़ी तेनी उपादानकारणरूप बीजी ईश्वरनी शक्ति यश, ते शक्तिनी उत्पन्न करनारी त्रीजी शक्ति थर एवीरीतें करतां अनवस्था दूषण श्रावे .जो कहो के चेतन दे, तो पड़ी नित्य डे के अनित्य ? बंने पक्षमा उपर बताव्या मुजब पूर्वापर स्ववचन व्याहत तेमज अनवस्था दूषण . जो कहो के ईश्वरशक्ति ईश्वरथी अभिन्न डे तो सर्ववस्तुने, ईश्वरज केहेवी जोश्ये, जो सर्ववस्तु ईश्वर बनी गई तो पड़ी सारं के बुरुं, नरकके खर्ग, पुण्य के पाप, धर्म के अधर्म, उंचनीच, रंकराजा,सुशील के उःशील, राजा तेमज प्रजा, चोर तेमज साधु, सुखी तेमज फुःखी इत्यादि सव, ईश्वर पोतेज बन्या. हवे विचारो के ईश्वरें जगत् अ॒ रच्यु ? पोतेज . Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) जैनतत्त्वादर्श. पोतानुं सत्तानाश करी लीधुं. श्रा प्रथम कलंक ईश्वरने लागे , तथा ज्यारें ईश्वर पोतेज सर्वरूप बनी गया तो पड़ी वेदादि शास्त्र शा माटे बनाव्यां ? तेमज तेनो अभ्यास करवाथी शुं फल थयुं ? या बीजुं कलंक तथा ज्यारे वेदादि शास्त्र बनाव्यां त्यारे पोते पोताने ज्ञानी बनाववाने रच्यां ते उपरथी सिझ थयु के प्रथम तो पोते अज्ञानी हता. या त्रीजें कलंक; तथा शुद्ध हता ते अशुद्ध बन्या कारण के जगरूप बनवानी . मेहेनत करी जे निष्फल थई. था चोथु कलंक; को वस्तु जगत्मां सारी के बुरी नहि, आ पांचमुं कलंक; शा माटे पोते पोताने संकटमा ना‘ख्या. या बहुं कलंक; इत्यादि अनेक कलंक आप ईश्वरने लगावो गे. पूर्वपद-ईश्वर सर्वशक्तिमान् बे, ते हेतुश्री ईश्वर, उपादान कारण विनापण जगत् रची शकेले. उत्तरपक्ष-श्रा जे आपनु केहे जे ते प्यारी स्त्री अथवा मित्र मानशे परंतु प्रेक्षावान् कोईपण नहि माने; कारण के आ तमारा केहेवामां कोईपण प्रमाण नथी. जेर्नु उपादान कारण होय नहि ते कार्य कदी थईशके नहि. जेम के गधेडानां सींग, एबुं प्रमाण आपना केहेवाने बाधक डे परंतु साधक तो कोई नथी, तेम बतां हठ करी खकपोलकल्पितनेज मानशो तो प्रेक्षावाननी पंक्तिमां कदापि दाखल नहि थई शको. तेमज था तमारा कथनमां इतरेतर आश्रय दूषणरूप वजनो प्रहार पडे . जेम के सृष्टिनी पेहेलां उपादानादि सामग्रीरहित केवल शु. क, एक ईश्वर सिझ थाय तो सर्वशक्तिमान् सिझ थाय, जो सर्वशक्तिमान् सिक थाय तो सृष्टिनी पेहेला उपादानादि सामग्रीरहित केवल शुभ, एक ईश्वर सिक थाय; या बंनेमांथी ज्यां सुधी एक सिद्ध न थाय त्यांसुधी बीजं कदीपण सिकन थाय. तेमज था तमारा कथनमा चक्रक दूषण आवे , सृष्टिकर्त्ता सिद्ध थाय तो सर्वशक्तिमान् सिङ थाय. ज्यारे सर्व शक्तिमान् सिझ थाय त्यारे सृष्टिनी पेहेलां सामग्रीरहित • केवल शुरु एक ईश्वर सिक थाय, ज्यारे एम थाय त्यारे सृष्टिकर्ता सिद्ध थाय, एम प्रगट चक्रक दूषण आवे . पूर्वपद-ईश्वर तो प्रत्यक्ष प्रमाणथी सिक बे, पड़ी श्राप तेने सृष्टिकख़ केम नथी मानता ? Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीय परिवेद. (४३) ___ उत्तरपद- जो ईश्वर स्मृष्टिना का प्रत्यक्ष प्रमाणथी सिद्ध थाय तो कोश्ने पण अमान्य न होय, अने तमारो अमारो ईश्वरविषयी विवाद पण कदी न होय, कारण के प्रत्यक्षमा विवाद होतोज नथी. परंतु ईश्वरनुं प्रत्यक्ष दर्शन तो श्रापना वेदमंत्रथी विरुफ बे. वेदमंत्र. अपाणिपादो जवनो ग्रहीता, पश्यत्यचकुस्सशृणोत्यकर्णः ॥ सवेति विश्वं नच तस्यास्ति वेत्ता, तमाहुरत्र्यं पुरुषं पुराणम् ॥ श्रआ मंत्रथी साबीत थायडे के ईश्वरने जाणनार को नहि. पूर्वपद-कर्ता विना जगत् केम थर गयुं ? श्रा अनुमान प्रमाणथी ईश्वर सृष्टिकर्ता सिद्ध थाय बे, ते आप केम नथी मानता ? __ उत्तरपद-श्रा आपना अनुमाननुं बीजा ईश्वरपदमां खंडन करवामां आवशे. उपर बतावेला प्रकारथी एक केवल उपादानादि सामग्री रहित, सृष्टिनी पेहेलां ईश्वर सिझन थया तो पण अमे आगल चलावियें लियें. ज्यारे ईश्वरें आ जीवोने रच्या हता त्यारे १ निर्मल रच्या हता ? ५ पुण्यवाला रच्या हता ? ३ पापवाला रच्या हता? ४ मिश्रित पुण्यपाप अ| अर्धवाला रच्या इता ? ५ पुण्य अल्प पाप अधिक एवा रच्या हता ? ६ किंवा पुण्य अधिक पाप अल्प एवा रच्या हता ? जो प्रथम पद ग्रहण करशो तो जगत्मां सर्व जीव निर्मलज होवा जोश्ये, पठी वेदादि शास्त्रद्वारा तेउँने उपदेश करवो वृथा बे. तेमज वेदादि शास्त्रोना कर्त्ता पण मूढ सिझ थशे. कारण के जो प्रथमश्रीज जीव निर्मल तो तेउँने माटे शास्त्र शा माटे रच्यां ? जे वस्त्र निर्मल होय छेतेने कोश्पण बुधिमान् धोता नथी. जो कदापि धोवे तो ते महामूढ . श्रा कारणथी जे निर्मल जीवोना उपदेश निमित्त शास्त्र रचे ते पण मूढ . १. पूर्वपद-ईश्वरें तो जीवोने शुद्ध निर्मल अर्थात् सारा बनाव्या हता, परंतु जीवोए पोतानी श्वाथी सारां अथवा चूंडां कामो करी लीधांडे, तेमां ईश्वरनो का दोष नहि. उत्तरपदा-जो ईश्वरें जीवोमां सारां अथवा बुरां काम करवानी शक्ति रची न होती तो पड़ी जीवोमां पुण्य श्रथवा पाप करवानी शक्ति क्यांची श्रावी? पूर्वपद-शक्तियो तो जीवमां सर्व ईश्वरेंज रची ने, परंतु जीवोने बुरां Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) जैनतत्त्वादर्श. काम करवामा प्रवर्ताव्या नथी. बुरां काम करवामां जीव पोतेज प्रवृत्त थयेल. जेम के को गृहस्थे पोताना प्रिय बालक पुत्रने खेलवा माटे एक रमकडं दीg, हवे जो ते बालक ते खेलवानी वस्तुथी पोतानी आंख खोवे तो तेमां तेना पितानो शुं दोष ? तेवीज रीते ईश्वरें जीवोने जे हाथ, पग प्रमुख वस्तु पापी ते नित्य केवल धर्म करवाने वास्ते श्रापेली बे, पडी जे जीव पोतानी श्वाथी ते वस्तुने पापकममा प्रवर्गवे तो तेमां ईश्वरनो शुं दोष ? उत्तरपद-हे जव्य ? श्रा जे तमे बालकनुं दृष्टांत आप्युं ते समीचीन नथी. कारण के बालकना मातपिताने ए ज्ञान नथी के बालकने खेलवा वास्ते श्रापणे जे वस्तु आपियें लिये ते खेलवानी वस्तुथी श्रा बालक पोतानी आंख फोडी नाखशे, जो कदापि बालकना मातपिताने ए ज्ञान होत के आ बालक खेलवानी वस्तुथी पोतानी आंख फोडी नाखशे तो ते माता पिता कदापि तेना हाथमां ते खेलवानी वस्तु श्रापत नहि, जो कदी जाणवा बतां आपे तो ते तेनां मातपिता नथी परंतु परम शत्रु डे. तेवीज रीतें ईश्वर मातपिता तुल्य डे अने तमे श्रमे तेनां बालक बियें. जो ईश्वर जाणता हता के में श्रा जीवोने रच्या, तेउँने हाथ, पग, मन इंजियादि सामग्री थापी ,श्रा जीव ते सामग्रीथी बहु पाप करीने नरकमां जानार बे, तो पड़ी ईश्वरे ते जीवने शा माटे रच्यो? जो कदी एम कहो के ईश्वर ए वात जाणता न होता के में धर्म करवाने आपेली सामग्रीश्री पाप करीने ते जीव नरकमां जाशे, तो पड़ी ईश्वर श्रापना केहेवाथीज अज्ञानी, असर्वज्ञ, सिक थाय . जो कदी एम कहो के ईश्वर जाणता हता के आ जीव मारी आपेली सामग्रीथी पाप करीने नरक जवानो ने तो पड़ी अमने रचनार ईश्वर परम शत्रु थया के नहि.? प्रयोजन विना रांक जीवोने सामग्रीहारा पाप करावीने शा माटे तेउने नरकमां नाख्या ? ज्यारे सामग्रीद्वारा प्रथम पाप कराव्यां श्रने पड़ी नरकमां जवानी शिक्षा करी त्यारे आ तमारा केहेवाथी ईश्वर करतां अधिक श्रन्यायी कोई नथी; कारण के प्रथम तो ते जीवने रच्यो, पढ़ी नरकमां नारच्यो. बस ाथीज तमे ईश्वरने अन्यायी, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ () वितीय परिजेद. असर्वज्ञ, निर्दय, अज्ञानी, वृथा मेहेनती इत्यादि कलंक दीधां. ते कारणथी निर्मल जीव ईश्वरें रच्या नथी ए प्रथम पदोत्तर. द्वितीय पदोत्तर-जो एम कहो के ईश्वरें पुण्यवालाज जीव रच्याले तो ते पण तमा6 केहे मिथ्या . कारण के जो पुण्यवालाज सर्व जीव हता तो गर्नमांज अंधा, लंगडा, खूला, बहेरा, मूंगा होवापणुं, मूंडं रूप, नीच अथवा निर्धन कुलमां जन्मवा पणुं, जावजीव कुःखी रेहे, खावा पीवाने पुरुं न मलवु, महाकष्टकारक मेहेनत करी पेट जरवू, आ सर्व पुण्यना उदयथी होशकतुं नथी, वली पुण्य कर्या विनाज जीवोने ईश्वरें पुण्य केम लगावी दीधुं ? जो कदी कर्या विनाज. जीवोने ईश्वरें पुण्य लगावी दी, तो तेवीज रीतें धर्म कर्या विनाज जीवोने खर्ग तेमज मोक्ष केम नथी पहोंचाडी शकता ? शास्त्रोपदेश करावीने, जूखें मरावीने, तृष्णा बोडावीने, राग द्वेष मिटावीने, घरबार तजावीने, साधु बनावीने, टुकडा मगावीने, दया, दम, दान, सत्यवचन, चोरीनो त्याग, स्त्रीनो त्याग, इत्यादि अनेक साधन करावीने पढी खर्ग मोदमां पहोंचाडवा; आ संकट ईश्वरें फोकट उत्पन्न करीने जीवोने शा माटे फुःख दीधुं. आ वातथी तो ए प्रतीत थायदे के ईश्वरने कांश समजण नथी. तृतीय पदोत्तर- जो कदी एम कहो के ईश्वरें पापसंयुक्तज जीव रच्या बे, तो पड़ी कर्या विनाज जीवोने पाप लगावी दीधा तेमां तो ईश्वरें श्रमारं सत्तानाश करी दी . हवे अमे कोनी पासे जश् विनति करियें के गुन्हा कर्या विना ईश्वर अमने पाप लगावे , जेथी आप तेमने मना करो के कर्याविना श्रमने पाप न लगावे; एवा अन्यायी ईश्वरनुं तो कदी नाम पण ले न जोयें. तथा जो ईश्वरे पापसंयुक्तज सर्व जीव रच्या बे, तो राजा, मंत्री, शेव, सेनापति धनवान् इत्यादिना घरमां उत्पन्न थर्बु, नीरोगी काया, सुंदर रूप, सुंदर शरीर, घरमा श्रादर सन्मान, बहार यशकीर्ति, पंचेंजिय, विषयजोग, इत्यादि सामग्री प्राप्त थवानो पापथी कदी संजव होतो नथी. ते. कारणथी जीवोने केवल पापवान् ईश्वरें रच्या नथी. इति. चतुर्थ पदोत्तर-जो एम कहो के अर्थोश्रर्ध पुण्य पापवाला जीव ई Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) जैनतत्त्वादर्श. श्वरें रच्या ने तो ते पद पण यथार्थ नथी, कारण के अरधा सुखी श्ररधा कुःखी एवा-पण सर्व जीव देखवामां आवता नथी. इति. पंचम पदोत्तर- पांचमो पद पण ठीक नथी, सुख थोडं अने दुःख विशेष एवा पण सर्व जीव देखवामां नथी श्रावता, परंतु सुख विशेष श्रने फुःख अल्प, एवा बहु जीव देखवामां आवे . इति. षष्ठ पदोत्तर- को पद पण समीचीन नथी. सुख घणुं अने फुःख थोडं एवा पण सर्व जीव देखवामां आवता नथी, उःख बहु अने सुख अल्प, एवा बहु जीव देखवामां आवे . आ हेतुथी ईश्वर जीवोने कोश्पण व्यवस्थावाला रची शकता नथी. तो पनी सृष्टिना कर्त्ता ईश्वर केम सिद्ध थर शके ? कदी थश् शकता नथी. तथा ज्यारे ईश्वरें सृष्टि रची न होती त्यारें ईश्वरने शुं फुःख इतुं ? अने ज्यारे सृष्टि रची त्यारे शुं सुख थयुं ? पूर्वपद-ईश्वर तो सदा परम सुखी . शुं ईश्वरमां कांश न्यूनता डे के ते न्यूनताने पूर्ण करवा वास्ते सृष्टि रचे बे. ते तो जगत्मा पोतानी ईश्वरता प्रगट करवाने सृष्टि रचे बे. उत्तर पद-ज्यारें ईश्वरें सृष्टि रची न होती त्यारें तो ईश्वरनी ईश्वरता प्रगट न होती अने ज्यारे सृष्टि रची त्यारे ईश्वरता प्रगट थर, तो प्रथम ज्यारें ईश्वरनी ईश्वरता प्रगट न होती थक्ष त्यारे तो ईश्वर बहुज उदास, तेमज अपूर्ण मनोरथवाला अने ईश्वरता प्रगट करवामां विह्वल हता. श्रा हेतुथी अवश्य ईश्वरने फुःख होवू जोश्यें. ज्यारे ईश्वर सृष्टिनी पेहेलां एवा पुःखी हता त्यारे निरुद्यमी केम बेसी रह्या हता? श्रा सृष्टिनी पेहेलां बीजी सृष्टि रचीने पोतानुं उःख केम दूर कयुं न होतुं ? पूर्वपद-ईश्वरें जे सृष्टि रची बे ते जीवोने धर्म करावीने ते ने अनंत सुख देशे. था परोपकार वास्ते ईश्वरें सृष्टि रची बे.. __ उत्तरपद-धर्म करावीने जीवोने सुख देवं ते तो तमारा केहेवा मुजब परोपकार थयो, परंतु जेठं पाप करीने नरकमां गया तेर्जना उपर शुं उपकार कयों ? ते ने उःखी करवाथी शुं ईश्वर परोपकारी थश्शके जे? १ सारो वा प्रमाणसिद्ध सत्य. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीय परिजेद. (४७) पूर्वपद-तेउँने नरकमांथी काढीने पनी स्वर्गमा स्थापन करशे; उत्तरपद-तो पडी प्रथमज नरकमां केम जवा दीधा ? पूर्वपद-ईश्वरज सर्व पुण्यपापादि करावे . जीवने आधीन कापण नथी. ईश्वर जे चाहे जे ते करावे . जेम काष्ठनी पुतलीने बाजीगर जेम चाहे जे तेम नचावे के अने पुतली खाधीन नश्री तेम. उत्तरपद-जो जीवने कां आधीन नथी तो जीवने सारा नरसानुं फल पण न जोश्ये. कारण के जो कोश् सरदार कोइ नोकरने फरमावे के तमे था काम करो पड़ी नोकर सरदारना हुकम मुजब ते काम करे, अने ते काम सारं अथवा नरसुंबे तो शुं पड़ी ते सरदार ते नोकरने कांश शिदा करी शके ले ? कांश पण करी शकता नथी. तेवीज रीतें ईश्वरनी आज्ञाथी जो जीवें पुण्य अथवा पाप कर्यां तो पड़ी पुण्य पापर्नु फल जीवोने नज मल जोश्ये, ज्यारे पुण्य पाप जीवनां कयाँ थतां नयी त्यारें स्वर्ग तेमज नरक पण जीवने न होवां जोश्य. पड़ी जीवने, नरक, खर्ग, तिर्यक् तेमज मनुष्य ए चार गति पण न होय. ज्यारे चार गति न होय त्यारे संसार पण न होय. जो संसार न होय तो वेद, पुराण, . तौरे, तजबूर, इंजिल प्रमुख शास्त्र पण न होय. ज्यारे शास्त्र न होय त्यारें शास्त्रना उपदेशक पण न होय, ज्यारे शास्त्रना उपदेशक पण होय नहि त्यारे ईश्वर पण नहि. जो ईश्वरज नहि तो पड़ी सर्व शून्यता सिक थर. था कलंक केम मटशे? । पूर्वपद-श्रा जगत् बाजीगरनी बाजी जेवू ,अने ईश्वर तेना बाजीगर जे. तेथी ईश्वर था जगत्ने रचीने खेलथी क्रीडा करे. नरक, वर्ग, पुण्य तेमज पाप कांश नथी. उत्तरपद-जो ईश्वरें क्रीडाने माटे.जगत्नी रचना करी तो क्रीडाज मात्र तेनुं फल थर्बु जोश्य. परंतु आ जगत्मा तो कुष्टी, रोगी, शोकी, धनहीन, बलहीन, महाकुःखी इत्यादि महाप्रलाप करी रह्या, जेउँने देखीने दयावश थवाथी अमारां रोम उंचां थायजे. तो शुं पड़ी ईश्वरने श्रा फुःखी जीवोने देखीने दया नथी आवती.? जो ईश्वरने दया नथी श्रावती तो पड़ी निर्दयपण कदी ईश्वर थर शकेले ? वली जे क्रीडा करवा वाला बे ते बालकनी पेठे रागी, वेषी, अज्ञानी होय . जो राग शेष ले Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) जैनतत्वादर्श. तो तेमां सर्व दूषण जे जो पोतेज अवगुणथी नरेला ने तो ते ईश्वर शेना ? ते तो संसारी जीव. वली जो राग द्वेषवाला हशे तो सर्वज्ञ कदापि न हशे; जो सर्वज्ञ नहि तो तेने ईश्वर कोण कही शकेले ? पूर्वपद-जीवोएं करेला पुण्य पापने अनुसारें ईश्वर दंड दिये , तेमां ईश्वरने शुं दोष ? जेवां जेणें ( पुण्यपाप ) कर्यां तेवां तेने फल दीधां. उत्तरपद-श्रा तमारा केहेवाथी, आ संसार अनादि सिझ थ गयो, वली ईश्वर कर्ता नहि एम सिद्ध थयु. वाह रे मित्र ? पोते पोतानी मेसेज मात थया. कारण के जे जीव हाल बे, अने जे कांश ते ने श्रहियां फल मलेल , ते पूर्वजन्ममां करेलु सिक थयु. वती जे पूर्व जन्म हतो तेमां जे फुःख सुख जीवने मलेल हतुं, ते तेनी पेहेलांना पूर्वजन्ममां कडे हतुं. तेवी रीतें पूर्व पूर्व जन्ममां कुःख सुख करवां श्रने उत्तरोत्तर जन्ममां सुख दुःखने जोगवां, एम करतां संसार अनादि सिक थाय. हवे विचारो के जगत्ना कर्त्ता ईश्वर केम सिक थया ? पूर्वपद-अमें तो एकज परमब्रह्म पारमार्थिक सप मानिये बियें. उत्तर- जो एकज परम ब्रह्म सप , तो पड़ी था जे सरल, रसाल, प्रियाल, हिंताल, ताल, तमाल, प्रवाल प्रमुख पदार्थ अग्रगामी पणे करी जे प्रतीत थाय ने ते शा कारणथी सत्खरूप नथी. पूर्वपदा-श्रा पूर्वोक्त पदार्थ जे प्रतीत थाय ने ते सर्व मिथ्या . तेमज अनुमानप्रपंच पण, मिथ्या बे. प्रतीत होवाथी जे एवा ले ते एवा बे, जेम के सीप, चांदीरूप, तेवोज आ प्रपंच . आ अनुमानश्री प्रपंच मिथ्यारूप ले अने एक ब्रह्मज पारमार्थिक सप डे. उत्तरपद-हे पूर्वपक्षि! आ अनुमान केहेवाथी आप तीक्ष्ण बुद्धिमान् नथी, तेज हवे बताविये बियें. आ जे प्रपंच तमे मिथ्यारूप मानेल ते मिथ्या त्रण तरेहनुं होय . एक तो अत्यंत असत् रूप, बीजूं ने तो कांश अन्य, अने प्रतीति होय अन्य तरेहनी, अने त्रीजु अनिर्वाच्य, श्रा त्रणे मिथ्यारूप प्रपंचमांथी कया प्रपंचने आप मानोगे ? पूर्वपद-श्रात्रणे पदमांथीप्रथमनाबे पदनोतोश्रमने खीकारजनथीत्रीजो अनिर्वाच्य पद अमें मानियें बियें. तेथी श्राप्रपंच अनिर्वाच्यमिथ्यारूप. १ तेनां कारणरूप पाप पुण्य. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद. (४) उत्तरपक्ष - प्रथम तो याप ते कहो के अनिर्वाच्य शुं वस्तु बे ? अर्थात् निर्वाच्यक वस्तुने कहो हो ? (१) शुं वस्तुने के देवावालो शब्द नथी ? (२) श्रथवा शब्दनुं निमित्त नथी ? प्रथमनो विकल्प तो कल्पनाज करवा योग्य नथी. या सरल बे, या रसाल बे, एवा शब्द तो प्रत्यक्ष सिद्ध बे. बीजो विकल्प लहियें, तो शुं शब्दनुं निमित्त ज्ञान नथी ? के पदार्थ नयी ? प्रथम पक्ष तो समीचीन नथी. सरल, रसाल, ताल, तमाल, प्रमुखनुं ज्ञान तो प्राणी प्राणी प्रत्ये प्रतीत बे. सर्व बुद्धिवंत जीव जाणे बे के सरल, रसाल, ताल, तमाल प्रमुखनुं ज्ञान अमने बे. बीजो पक्ष - पदार्थ नावरूप नश्री ? के अनावरूप नथी ? जो एम कहो के पदार्थ जावरूप नथी अने प्रतीत थाय बे, तो आपने विपरीत ख्याति मानवी पडी, छाने अद्वैतवादियोना मतमां विपरीत श्राख्याति मानवी ते महादूषण बे. बीजो पक्षजो पदार्थ श्रावरूप नथी तो जावरूप सिद्ध थया, त्यारे तो सत्ख्याति मानवी पडी; अने ज्यारे अद्वैतमतनो अंगीकार कस्यो ने सत्ख्याति मानवी पडी त्यारे सतख्यातिना मानवाची अद्वैतमतना मूलने कुहाडाश्री कापी नाख्युं. एवी रीतें कदापि अद्वैतमत सिद्ध यशे नहि. पूर्वपक्ष - जावरूप तथा अभावरूप ए बने प्रकारें वस्तु नथी. उत्तरपक्ष- में आपने पुढियें बियें के नाव तेमज नाव या बनेना जे लोकमां प्रसिद्ध वे तेज श्रापें मान्या बे ? के तेनाथी विपरीत अन्य तरेहना अर्थ पें मान्या बे ? जो कदी प्रथम पक्ष मानशो तो ज्यां जावनो निषेध करशो त्यां अवश्य जावने मानवो पडशे अने ज्यां saiवनो निषेध करशो त्यां अवश्य जावने कबुल करवो पडशे; कारण के वने परस्पर विरोधी बे. तेथी एकनो निषेध बीजानो विधि अवश्य कबुल करावशे. ए रीतें अनिर्वाच्यता तो जड मूलथी नाश पामी. हवे बीजो पक्ष लेशो तो तेथी अमने कांइ हानि नथी, कारण के लौकिक अर्थात् थापना मनःकल्पित शब्द तेमज शब्दनुं निमित्त जो नाश पामशे तो तेथी लौकिक शब्द तथा लौकिक शब्दनुं निमित्त कदापि नाश पामशे न हि तो पछी अनिर्वाच्य प्रपंच केवी रीतें सिद्ध थशे ? जो अनिर्वाच्य सिद्धन थयो तो प्रपंच मिथ्या केम सिद्ध थायज ? तो पढी एक अद्वैत ब्रह्मपण केम सिद्ध थाय ? ७ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) जैनतत्त्वादर्श. पूर्वपद-अमें तो जे प्रतीत न थाय तेने अनिर्वाच्य कहियें जियें. उत्तरपद-श्रा तमारा केहेवामां तो बहुज विरोध श्रावे . जो कदी प्रपंच प्रतीत थतो नथी तो था पोताना प्रथम अनुमानमां प्रपंचने प्रतीयमान हेतुस्वरूपपणे शा माटे ग्रहण करयो ? श्रने प्रपंचने अनुमान करती वेला धर्मिपणे शा माटे ग्रहण करयो ? जो एम कहेशो के प्रपंचने धर्मीपणे अथवा प्रतीयमान हेतुपणे ग्रहण करवामां शुं दोष बे? तो पड़ी आ उपर जे प्रतिज्ञा करी हती के अमे तो जे प्रतीत न होय तेने अनिर्वाच्य कहियें लियें, तो हवे प्रपंच अनिर्वाच्य केवी रीतें सिक थयो ? ज्यारे प्रपंच अनिर्वाच्य नहि त्यारे तो नावरूप अथवा तो अजावरूप सिक थशे. या बंने पक्षमा कोश्पण रूपें प्रपंच मानवाथी पूवर्वोक्त विपरीताख्याति तथा सत्रख्याति रूप बंने दूषण वली थापना ग. लामा रसी नाखे . हवे जागी क्यां जशो ? वली अमे आपने पुबियें लिये के श्रा प्रपंचने तमे जे अनिर्वाच्य मानोडो ते प्रत्यक्ष प्रमाणथी मानोबो ? के अनुमान प्रमाणथी ? प्रत्यद प्रमाण तो आ प्रपंचने सत् स्वरूपज सिक करे. जेवा जेवा पदार्थ डे, तेवं तेज प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न थाय जे. वली प्रपंचस्वरूप एवं डे के, परस्पर जुदी जुदी जे वस्तु ते पोत पोताना स्वरूपमा नावरूप ,अने बीजा पदार्थना स्वरूपनी अपेदायें अनावरूप . आ इतरेतर विविक्त वस्तुउनेज प्रपंच रूप मानेल , तो पड़ी प्रत्यद प्रमाण, प्रपंचने अनिर्वाच्य केवी रीतें सिद्ध करी शके ? पूर्वपद-उपर बतावेल अमारो जे पद ले तेने प्रत्यक्ष कांश पण हानि करी शकतुं नथी, कारण के प्रत्यद तो विधायकज . जो कदी प्रत्यद एक वस्तुमां बीजी वस्तुना स्वरूपनो निषेध करे तो अमारा प. दने बाध करनार ठरे, परंतु प्रत्यक्ष प्रमाण तो एवं नथी. प्रत्यद प्रमाण तो अन्य वस्तुमां अन्य वस्तुनु स्वरूप निषेध करवाने बुलु (कुंठ) . उत्तर पद-श्रा पण श्रापर्नु कहेवू असत्य बे. अन्य वस्तुना स्वरूपनो निषेध कस्या विना प्रस्तुत वस्तुना यथार्थ स्वरूपनो कदापि बोध नहि थाय. पीयूँ इत्यादि वर्णोना अनावनो ज्यारे बोध थशे, त्यारेज कालु एवा रूपनो बोध थशे. तेमज ज्यारे प्रत्यक्ष प्रमाणथी यथार्थ व Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद. (43) लोलुप तथा विषयमा अति श्रासक्त देखीने राजा ( शंकरस्वामी ) सन्मुख नाटक करवा लाग्या. शंकरस्वामिने परोक्तिथी प्रतिबोध करवा लाग्या. ते परो कि नीचे मुजब. ( १ ) " यत्सत्यमुख्यशब्दार्थानुकूलं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन् ! (2) नतत्त्वं विदितं नृषु जावं, तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन् ! (३) विश्वोत्पत्यादिविधिहेतु तत्त्वं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन् ! ( ४ ) सर्व चिदात्मकं सर्वमद्वैतं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन् ? (५) परतार्किकैरीश्वरसर्वदेतु, स्तत्वमसि तत्त्वमसि राजन् ! (६) यद्वेदांता दि निर्ब्रह्म सर्वस्थं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन् ! (3) यमिनिनोक्तम खिलकर्म, तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन् ! (G) यत् पाणिनिः प्राह शब्दखरूपं तत्त्वमसि तत्वमसि राजन् (ए) यत् सांख्यानां मतहेतुभूतं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन् ! (१०) अष्टांगयो नानंतरूपं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन् ! ( ११ ) सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन् । ( १२ ) नह्येतददृश्यप्रपंचं तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन् ! (१३) यद् ब्रह्मणोब्रह्मविषावीश्वराह्यजवन्, तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन् ! (१४) त्वपमेवमस्मा निर्विदितं राजन् ! तव पूर्वयत्याश्रमस्थ म् " आ परोक्तियोथी राजा प्रतिबोध पाम्या, सर्व विद्यमान राजाना देहमांथी निकलीने चाया गया, पर्वतनी कंदरामां शोधतां शरीर प्राप्त न युं, एटलामां विशेष शोध करतां शरीरने चितामां दीतुं, देखतांज तेमां कपालना मध्यथी प्रवेश कर्यो. शरीरनी आसपास चारे बाजुए - नि सलगतो हतो तेथी निकलवुं दुष्कर ययुं, एटले लक्ष्मीनृसिंहनी स्तुति करी, स्तुति करतांज लक्ष्मीनृसिंहें खामिजीने जीवता श्रग्निमांथी बहार काढ्या. इति. हे जय ! हवे विचार करी जु. में आपने प्रथम जे कथं हतुं ते सत्य बे के नहि ? प्रथम तो ( १ ) ज्यारे सरसवाणीयें पुबेला प्रभोनो उत्तर शंकरस्वामी न आपी शक्या, त्यारे हवे कयो बुद्धिमान् निष्पक्ष - पाती खामिजीने सर्वज्ञ कही शके बे ( २ ) वली ज्यारे पटराणी साथे विषयसेवन कर त्यारे कामी केडेवामां कां पण शंका रहेने ? (३) ज्यारे शिष्योयें आवीने प्रतिबोध कस्यो त्यारे अज्ञानी पण अवश्य साबीत या. (४) अने ज्यारे चितामांथी निकली शक्या नहि, ८ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) जैनतत्त्वादर्श. काढवाने लक्ष्मीनृसिंहनी स्तुति करी अने लक्ष्मीनृसिंहें आवीने सलगता अग्निमांथी काढ्या, त्यारे शंकरखामी असमर्थपण सिक थया. हवे ज्यारे शंकरस्वामियें फरीश्री आवीने सरसवाणीना प्रश्नोना उत्तर प्राप्या, त्यारे सरसवाणीयें कयु-हे स्वामिन् ! तुं सर्वज्ञ बो. जुर्ज के-मरण पामेलाना शरीरमा प्रवेश करीने, तेहनी राणी साथे विषयसेवन करीने, तेमज राणी पासेथी कांक कामशास्त्रनी वातो शीखीने शुं सर्वज्ञ थ शकाय ? सर्वज्ञ तो यश् शक्या नहि, परंतु या तो गझा उंटनो न्याय थयो. सरसवाणीयें स्वामिने सर्वज्ञ कह्या, अने स्वामियें सरसवाणीने सर्वज्ञ कही दीधी. वाह झुं सर्वझोनी जोडी मली? सरसवाणी ब्रह्मनी शक्ति थर, वली स्त्री बनीने मंडनमिश्रनी साथे विषयसेवन करवा ला. गी, पाबी सर्वज्ञ पण बनी गश्, तेम शंकरस्वामी परस्त्री साथे विषयसेवन करी, कांश्क कामशास्त्र शीखी सर्वज्ञ थश् गया; आ ते गझाउंटनो न्याय थयो के बीजुंशुं थयु ? ज्यारे शंकरस्वामी पोतानुं स्थूल शरीर बोडी राजाना शरीरमा दाखल थया, अने ब्रह्मविद्या सर्वे नूली गया त्यारे तो शिष्योने उपदेश करवो पड्यो. जो न जूली गया होत तो तेउने तत्त्वमसिनो उपदेश करवानी शी जरुर हती ? ज्यारे शंकरस्वामी स्थूल शरीरने बदली शक्या, अने परब्रह्मविद्याने नूली गया, त्यारे तो ब्रह्मविद्यानो संबंध, न लिंगशरीरनी साये रह्यो के न आत्मानी साथे रह्यो, परंतु स्थूल शरीरनीज साथे रह्यो, तेथी एम सिद्ध थायले के- ज्यारे वेदांती मरण पामे त्यारे तेनुं ज्ञानपण नाश पामे. कारण के स्थूलशरीरनी साज ज्ञाननो संबंध रहे, आत्मानी साथे रेहेतो नश्री. वली में एम कडं हतुं के- शंकरखामियें प्रगट कथन करेला अद्वैत मतने कोण खंमन करी शकेले ? तो हे नव्य ! ज्यारे शंकरखा मिनुं चरित्रज असमंजसले, तो पड़ी तेनो कथन करेलो मत कोण सयुक्तिक समजी शके ? पूर्वपदः- “पुरुषएवेदं” इत्यादि श्रुतियोथी अद्वैतज सिझ थायडे. उत्तरपदः- आ पण तमारूं केहेवू असत् डे, कारण के जो पुरुषमात्ररूप अद्वैततत्व होय तो तो आ जे को सुखी, को पुःखी इत्यादि देखाय ते सर्व परमार्थथी असत् थ जशे. ज्यारे एम थशे त्यारे श्रा जे केहे ने के- “प्रमाणतोऽधिगम्य संसारनैर्गुण्यं तद्विमुखया प्रज्ञया Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद. (यूए) तडुछेदाय प्रवृत्तिरित्यादि - अर्थः - संसारनुं निर्गुणपणुं प्रमाणथी जापीने, संसारथी विमुख बुद्धि यइने, या संसारनो ऊछेद करवामाटे प्रवृत्ति करे, पढी या केहेतुं ते आकाशना फुलना सुगंधनुं वर्णन करवा सरखं बे, कारण के ज्यारे अद्वैतरूपज तत्त्व बे त्यारे तो नरकादि . जवज्रमणरूप संसार क्यां रह्यो ? के संसारने निर्गुण जाणी तेनो उच्छेद करवानी प्रवृत्ति याय. पूर्वपक्ष:- तत्त्वथी पुरुष अद्वैतमात्रज बे, अने या जे संसार निर्गुण वर्णन करेल बे, ते जेम चित्रामण करेली स्त्रीनां सर्व अंगोपांग सारां नरसां प्रतीत थाय बे तेमज सर्व संसार प्रतीत थायडे, सर्व जीवोने हमेशां तेमज प्रतिभासन थर रहेलबे. परंतु चित्रामण करेली खीना - गोपांगना सारा नरसापपानी पेठे सर्व चांतिरूप अथवा चांतिजन्य बे. उत्तरपक्षः - श्रा जे तमारूं केहेतुं ते सत् बे, या वातमां कांइ वास्तविक प्रमाण नथी. जो कदि श्रद्वैत सिद्ध करवाने पृथग्भूत प्रमाण मानशो तो तो द्वैतापत्ति यशे, कारण के प्रमाण विना कोश्नो पण मत सिद्ध तो नथी, जो कदि प्रमाण विनाज सिद्ध मानशो, तो तो सर्व वादियो पोत पोताना मानेला मतने सिद्ध करी लेशे वली प्रांति पण प्रमानूत थी जिन्न न मानवी जोइये, नहि तो प्रमाणभूत अद्वैत अप्रमाणज थइ जशे, चांति ज्यारे अद्वेतनुंज रूप य त्यारे तो पुरुष रूप थइ, अने प्रांतिस्वरूपवाला पुरुषज बे नहि, त्यारे तत्वव्यवस्था तो कांपण सिद्ध न य जो कदि जांति जिन्न मानशो तो द्वैतापत्ति श्रवशे अने अद्वैत मतनी हानि थशे. जो कदी स्तंभने कुंनादिकथी भेद मानवो तेनेज प्रांति केदेशो तो निश्चयथी सत्स्वरूप कुंजादि कोइ जगें तो जरूर शे. अांतिने दी विना कदापि चान्ति देखवामां श्रावशे नहि. पूर्वे जेणें साचो सर्प दीठो नथी तेने दोरडामां सर्पनी जांति कदापि नहि यावे. यथा - नाड दृष्टपूर्वसर्पस्य, रज्ज्वां सर्पमतिः क्वचित् ॥ ततः पूर्वानुसारित्वाद्, चांतिरत्रांतिपूर्विका ॥ १ ॥ या कथनथी अद्वैततत्त्व खंमन थइ गयुं. वली पुरुष अद्वैततत्त्व अवश्य बीजाने निवेदन करयुं, पोते पोताने नहि पोतामां तो व्यामोह बे नहि. जो कदी के देनारमां व्यामोह होय तो तो अद्वैतनी प्रतिपत्ति ( सिद्धि ) कदापि नहि थाय. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) जैनतत्त्वादर्श. पूर्वपदः-ज्यारे आत्माने व्यामोह जे त्यारे तो अद्वैततत्त्वनो उपदेश कस्यो जाय ? उत्तरपक्ष:- ज्यारे आत्मानो व्यामोह दूर थशे त्यारे तो आत्मा श्रवश्य अवस्थांतरने प्राप्त थशे, ज्यारे अवस्था बदलाशे, त्यारे अवश्य हैतापत्ति थ जशे. वली ज्यारे अद्वैत तत्त्वनो उपदेशक परने उपदेश करशे त्यारे अवश्य परने मानवो पडशे. पड़ी अद्वैततत्त्व परने निवेदन करवू अने अद्वैततत्व मानवु ा कथन तो मारो पिता कुंवारो (बाल) ब्रह्मचारी ने तेना जेवं थयु. आ वचन केदेवाश्री उन्मत्ताश्नो दोष आवशे. पोताने अने परने बनेने जो मानशे तो द्वैतापत्ति अवश्य थशे. श्रा कारणथी अद्वैतमत युक्तिविकल ने. पूर्वपदः- परमब्रह्मरूप सिहज सकल नेदज्ञान प्रत्ययोना निरालंबनपणांनी सिकि. उत्तरपदः-श्रा कथन पण तमारूं ठीक नथी. कारण के परम ब्रह्मनीज सिकि नथी. जो जे तो स्वतः सिद्धि के परतः सिकि ? स्वतः सिकि तो नथी, जो होय तो तो कोश्नो पण विवाद रहे नहि. जो परतः सिधि ले तो झुं अनुमानथी ले के आगमथी ? जो कहो के अनुमानथी ले तो ते अनुमान के ? पूर्वपदः-ते अनुमान था . विवादरूप जे अर्थ ले ते प्रतिज्ञासांत प्रविष्ट ब्रह्मजासनी अंतर , प्रतिनासमान' होवाथी, जे जे प्रतिजासमान ले ते ते प्रतिनासांत प्रविष्टज देखायडे, जेम प्रतिनास आत्मा प्रतिनासमान बे, सकल अर्थ सचेतन अचेतन विवादरूप ले ते कारणथी प्रतिजासांत प्रविष्ट. घटपटादि श्रा अनुमान बे. उत्तरपदाः-श्रा अनुमान तमारूं सम्यक् नथी (१) धर्मी (२) हेतु (३) दृष्टांत आ त्रणे प्रतिज्ञासांत प्रविष्ट होवाथी साध्यरूपज थया. पूर्वपदः-त्यारे तो (१) धर्मी (२) हेतु (३) दृष्टांत, श्रा त्रणेना नहि होवापणाथी अनुमानज नहि बनी शके. जो एम कहो के (१) धर्मी (२) हेतु (३) दृष्टांत आ त्रणे प्रतिजासांत प्रविष्ट नथी, तो तेउनीज साथे हेतु, व्यभिचारी थशे, जो एम कहो के अनादि विद्या वासनाना बलथी हेतु दृष्टांत जे ते प्रतिजासना बाहिरनी पेठे निश्चय Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीय परिछेद. (६१) करे, जेम प्रतिपाद्य, प्रतिपादक, सजा, सजापति जननी पेठे, ते कारगथी अनुमान पण थ शकेले, अने ज्यारे सकल अनादि अविद्यानो विलास दूर थर जाशे त्यारे तो प्रतिजासांत प्रविष्ट प्रतिजास थशे. विवाद पण नहि रहे, पतिपाद्य प्रतिपादक साध्य साधक नाव पण रहेशे नहि. पड़ी तो अनुमान करवानुं पण कांश फल नहि. आपज अनुजवमान परमब्रह्म बने ते देश काल अव्यवबिन्न खरूप प्रगट थतां नियंनिचार, सकल अवस्था व्यापकपणा वालामां अनुमाननो कांश प्रयोगज जोश्तो नथी. उत्तरपद-जो अनादि अविद्या प्रतिनासांत प्रविष्ट ने तो तो विद्या थश् गइ. त्यारे हवे असत्रूप (१) धर्मी (२) हेतु (३) दृष्टांतादि जेद केम देखी शकाय. जो कहो के प्रतिनासनी बाहिरनूत तो तो अविद्या प्रतिनासमान के अप्रतिजासमान ? ते अविद्या प्रतिनासमान रूप होवाथी अप्रतिनासमान तो नहि. जो एम कहो के प्रतिजासमान , तो तेनीज साथे हेतु, व्यजिचारी ३. तथा प्रतिनासनी बाहिरजूत होवाथी तेनो प्रतिनासमान होवाथी जो कदी तमारा मनमा एम होय के अविद्या जे जे ते नथी प्रतिमासमान के नथी अप्रतिजासमान, नथी प्रतिनासनी बाहिर के नथी प्रतिजासनी अंदर प्रविष्ट, नथी एक के नथी अनेक, नथी नित्य के नथी अनित्य, नथी व्यभिचारिणी के नथी अव्यभिचारिणी, सर्वथा विचारने योग्य नथी, सकल विचारांतर अतिक्रांत स्वरूप बे, रूपांतरना बजावधी अविद्या जे ले ते नीरूपता लक्षण , श्रा पण तमारो अज्ञाननो विस्तार , तेवी नीरूपता खनावने आ अविद्या , आ अप्रतिनासमान डे, एम कोण कथन करवाने समर्थ डे ? जो एम कहो के आ अविद्या प्रतिजासमान ने तो पड़ी केवीरीतें अविद्या नीरूप सिंह थशे, जे वस्तु जे खरूपथी प्रतिनासमान बे, ते तेज वस्तुनुं रूप बे; तथा अविद्या जे जे ते विचारगोचर के विचारगोचरतारहित जे ? जो कहो के विचारगोचर डे तो तो नीरूप नहि, जो विचारगोचर नथी तो तो तेने माननार महामूर्ख बे. ज्यारे विद्या, अविद्या बंने सिक, त्यारे एक परम ब्रह्म अनुमानथी केम सिफ थया ? था केहेवाथी उपनिषदूमा जे एक ब्रह्मने कहेनारी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) जैनतत्त्वादर्श, श्रुति ते पण खंमन यश् गइ, तेमज " सर्व वै खल्विदं ब्रह्मेत्यादि वचनने परमात्मानो अर्थातर होवाथी द्वैतापत्ति यश् जसे, जो एम कहेशो के अनादि अविद्यात्री एम प्रतीत घायडे तो तो पूर्वोक्त दूषणोनो प्रसंग आवशे. सवत्र अद्वैतनी सिद्धि वंध्यापुत्रनी शोजा जेवी . ते कारणथी अद्वैतमत युक्तिविकत . तेथी एकज ईश्वर जगत् पेहेलां हता ए केहे मिथ्या बे, आ प्रथम ईश्वरने माननारना मतनुं खेमन ययु. हवे वीजा ईश्वर जगत्ना उपादान कारणबाला, एक ईश्वर श्रने वीजी सामग्री, श्रा बने पदार्थ अनादि . सामग्री जे जे ते नीचे मुजब डे, (१) पृथ्वी (५)जल (३) अग्नि (४) वायु आ चारेना परमाणुर्ज, () आकाश (६) दिशा (७) आत्मा (ज) मन (ए) काल आ नव वस्तु नित्य बे, अनादि, कोश्नी बनावेली नबी, ईश्वर, आ पूर्वोक्त सामग्रीत्री श्रा सृष्टिने रचेले. मतावलं वियें जेवी रीते ईश्व रने जगत्कर्ता मानेल बे ते रीति लखियें लिये. उपजातिबंद ॥कर्तास्ति कश्विजगतः सचैकः, ससर्वगः लखवशः सनित्यः ॥ श्माः कुवाकविडंवनाः स्यु, स्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥ १॥ आ जगत् प्रत्यदादि प्रमाणधी लक्ष्य . चराचररूप त्रणे जगत् तेनो कोश् एवो पुरुष रचनार बे के जेनुं स्वरूप कही शकातुं नथी. ईश्वरने जगत्का माननारा बाढ़ी एबुं अनुमान करेले के-पृथ्वी, पर्वत, वृदादि सर्वे, बुद्धिमान् कर्त्तानां करेला बेकार्य होवायी जे जे कार्य हे ते सर्वे बुद्धिमान् कर्त्तानां करेल जे.जेबो घट तेवू आजगत् बे, ते कारणयी जगत् बुद्धिवालानुं रचे, .जेवुद्धिवाला तेज ईश्वर, एम पण न केद्देशो के आतमारो हेतु असिद्ध बे,शा कारणथी असिझने ? जुर्ड, पृथ्वी, पर्वत, वृतादि पोतपोताना कारण समूहयी उत्पन्न घयेल ते कारणथी कार्यरूप ने, तथा अवयवी ने, तेथी कार्यरूपडे, सर्ववादियोनो एवो निश्चय . तया एम पण न केहेतुं के आ तमारो हेतु अनेकांतिक ने, तथा विरुद्ध ते, कारण के अमारो हेतु विपत्थी अत्यंत दूर गयेल तया एम पण न केहेंबु के श्रा तमारो हेतु कालात्ययापदिष्ट , कारण के प्रत्यदा, अनुमान, आगमधी वाधित नथी, धर्म धर्मी अनंतर केहेवायी तथा एम पण न केहेबु के तमारो हेतु प्रकरणसम ने, कारण के अनु Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षितीय परिजेद. (६३) मानथी जे साध्य बे, तेना शत्रुनूत बीजा साध्यने साधनारा अनुमानना अनावथी, तथा एम पण न केहे के ईश्वर, पृथ्वी, पर्वत, वृदादिना कर्ता नथी, कारण के मुक्त आत्मानी पेठे शरीर विनाना बे. आ,पालना तमारा अनुमाननो वैरी अनुमान ले ते ईश्वरने जगत्कर्त्ता सिक थवा देतुं नथी. कारण के तमे तो ईश्वरने शरीरविनाना सिझ करीने जगत्ना अकर्ता सिझ कर्या, परंतु अमे तो ईश्वर शरीरवाला मानेला बे ते कारणथी तमारं अनुमान असत्य जे. वली अमारो हेतु निरवद्य ने तथा ईश्वर एक बे. कारण के जो बहु ईश्वर मानियें तो तो एक कार्य करवामां ईश्वरोनी जूदी जूदी बुद्धि थर जाय अने तेउँने मना करनार तो कोश बे नहि तेथी कार्य केम उत्पन्न थाय ? को ईश्वर पोतानी - बाथी चार पगवालो मनुष्य रचे, वली बीजो ईश्वर ब पगवालो रची दे, अने त्रीजो बे पगवालो रचे, तो चोथो आठ पगवालो रचे, एवी रीतें सर्व वस्तु विलक्षण विलक्षण रचाय तो सर्व जगत् असमंजसरूप थर जाय. परंतु एम नहि तेथी ईश्वर एकज होवा जोश्ये. वली ईश्वर सर्वगत सर्वव्यापी डे, जो ईश्वर सर्वव्यापक न होय तो त्रण जुवनमा जे एक साथे उत्पन्न थनारां कार्य में ते सर्व एक कालमां कदी उत्पन्न नहि थाय.. जेम के कुंनारादि ज्यां हशे त्यांज कुंजादि कार्य करी शकशे. परंतु देशांतरमा कदी ते नहि करी शके. तेमज ईश्वर सर्वज्ञ , जो सर्वज्ञ न होय तो सर्व कार्योनां उपादान कारणो केम.जाणी शकशे ? जो कार्योनां उपादान कारण न जाणे तो जगत् विचित्र केम रंची शके ? तथा ईश्वर स्वतंत्र बे, बीजा कोश्ने आधीन नथी, ईश्वर पोतानी बाथी सर्व जीवोने सुखःख, फल आपे बे. कडं जे. के:- ईश्वरप्रेरितोगत्, स्वर्ग वा स्वमेव वा ॥ अन्योजंतुरनीशोय, मात्मनः सुखपुःखयोरिति ॥ अर्थः-ईश्वरनीज प्रेरणाथी जगत्वासी जीव, स्वर्ग तथा नरकमां जाय डे, कारण के ईश्वर विना कोइ जीव पोते पोताने सुख उखनुं फल आपवाने समर्थ नथी. जो ईश्वरने परतंत्र मानियें तो मुख्य कर्ता ईश्वर रेहेशे नहि, एक बीजाने आधीन मानवाथी अनवस्था दूषण लागी जशे. ते हेतुथी ईश्वर खवश बे परंतु पराधीन नथी. वली ईश्वर नित्य ने जो कदी अनित्य होय तो तेने उत्पन्न करनार बीजो कोश होवो जोश्ये, Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) जैनतत्त्वादर्श. ते तो नथी. ते हेतुश्री ईश्वर नित्यज . पूर्वोक्त विशेषणयुक्त ईश्वर (जगवान् ) जगत्कर्त्ता . इति पूर्वपदा । उत्तरपदः-हे वादि ! थाप जे एम कहो बो के पृथ्वी, पर्वत वृदादि बुद्धिमान् कर्त्तानां रचेलां बे, ते अयुक्त डे, कारण के आ आपना अनुमानमां व्याप्तिनुं ग्रहण यश् शकतुं नथी, अने हेतु जे होय जे ते सर्वत्र व्याप्तिमां प्रमाणथी सिम थया थकाज पोताना साध्यने सिक करी शके डे. आ कथनमां सर्ववादियो एकमत ने. हवे प्रथम आप कहो के जो ईश्वर जगत् रचे ले तो पूर्वे कह्या मुजब ते ईश्वर, शरीरवाला के शरीर विनाना ने ? जो एम कहो के ईश्वर शरीरवाला ने तो अमारा सरखा दृश्य शरीरवाला ले के पिशाचादिनी पेठे अदृश्य शरीर वाला ? प्रथम पद तो प्रत्यक्ष बाधित के कारण के तेई. श्वरना विनाज वर्तमानमां पण उत्पन्न थनारां तृण, वृक्ष,धनुष्, वादला प्रमुख कार्यों देखिये बिये. "अनित्य शब्दप्रमेयत्वात्" जेम था प्रमेयत्व हेतु साधारण अनेकांतिक बे तेमज था कार्यत्वहेतु साधारण अनेकांतिक . बीजो पद मानशो तो शुं ईश्वरतुं शरीर नथी देखी शकातुं ते ईश्व• रनामाहात्म्यथी नथी देखी शकातुं के अमारा माग अदृष्टना प्रनावथी ? अर्थात् अमारा माग कर्मना प्रजावथी नथी देखी शकातुं ? जो एम केहेशो के ईश्वरना माहात्म्यथी ईश्वरनुं शरीर देखातुं नथी तो था पदमां को पण प्रमाण नथी के जेथी ईश्वरनुं माहात्म्य सिद्ध थाय, परंतु वादी जो तपावेलु जसत पीवानी हिंमत करे तो कदाचित् मानी लश्यें. आ तमारा कथनमां इतरेतर आश्रय दूषण आवे . जो ईश्वर माहात्म्य विशेष सिद्ध थाय तो अदृश्य शरीरवाला सिह थाय, जो अदृश्य शरीरवाला सिद्ध थाय तो माहात्म्य विशेष सिझ थाय. बीजो पद-जो पिशाचादिनी पेठे ईश्वरचं अदृश्य शरीर मानशो तो तो संशयनी निवृत्ति थशे नहि. जेम के-झुं ईश्वर नथी के-जेथी तेनुं शरीर नजरे पडतुं नथी? त्यारे तो वांफणीना पुत्रना शरीरनी जेम, अथवा तो अमारा पूर्वना पापोना प्रजावणी ईश्वरनुं शरीर देखातुं नथी. श्रा संशय कदी दूर नहि थाय. जो एम कहो के अमारा ईश्वर, शरीररहित ने तो तो दृष्टांत तेमज दार्टीतिक ए बने विषम थइ जशे अने हेतुविरुद्ध थ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीय परिजेद. (६५) जशे, कारण के घटादि कार्योना कर्त्ता कुंजारादि शरीरवालाज देखिये बियें, अने ईश्वरने ज्यारे शरीररहित मानिये त्यारे तो ईश्वर कांश पण कार्य करवाने समर्थ नहि थाय; जे आकाशनी जेम नित्य व्यापक अक्रिय बे ते अकर्ता बे. श्रा हेतुश्री शरीरसहित के शरीररहित ईश्वरनी साथे कार्यत्वहेतुनी व्याप्ति सिक थती नथी, तथा आपनो हेतु कालात्ययापदिष्ट पण डे, आपना साध्यना धर्मिनो एक देश वृदा, वीजली, वादलां, ईअधनुष्यादिना आज पण कोइ बुद्धिमान् कर्ता देखाता नथी, ते कारणश्री प्रत्यक्षथी बाधित थया पनी तमे पोतानो हेतु कह्यो. तेथी तमारो देतु कालात्ययापदिष्ट सिद्ध थयो. श्रा तमारा कार्यत्वहेतुथी बुद्धिमान् ईश्वर जगत्कर्ता कदी सिझ यता नथी. हवे बीजी रीते जगत्कर्ता खमन करवानुं स्वरूप लखियें जियें जे कोश ईश्वरवादी एम कहे के जगत् सर्व ईश्वरनु रचेवू ! ते तेनु केहे समीचीन नथी, कारण के जगत्कर्ता ईश्वर को प्रमाणथी सिझ यता नथी. पूर्वपदः-ईश्वरने जगत् कर्त्ता सिझ करनार अनुमान प्रमाण जे. जुर्ज. जे यथोचित रीते अनिमत फलने संपादन करवाने प्रवृत्त होय, तेनो अधिष्ठाता को बुद्धिमान् अवश्य होवो जोश्य, जेम वांसला, आरि प्रमुख शस्त्र, काष्ठना बे कटका करवामां प्रवर्ते डे, तेमज यथोचित रीतें सर्वजगत्ने सुख दुःखादि जे फल आपे ले तेनो अधिष्ठाता को बुद्धिमान् जरूर होवो जोश्य, थापें एम न केहेबु के वांसला, आरि प्रमुख पोतेज काष्ठना बे कटका करवामां प्रवर्ने बे, कारण के ते तो अचेतन डे तेथी पोतानी मेले केम प्रवर्ती शके ? जो एम कहो के वासला, आरि प्रमुख खजावधी प्रवर्ने दे तो तो तेउनी निरंतर प्रवृत्ति होवी जोश्ये, वचमां कदी स्तब्ध थवां न जोश्यें, पण एम नहि पूर्वोक्त हेतुथी यथोचित रीतें पोत पोतानां फलने साधनारा जे जीव बे, तेउनो अधिष्ठाता ईश्वरज सिद्ध थाय . तथा बीजुं अनुमान. जे परिमंमलादि, वृत्त, त्र्यंश, चतुरंश, संस्थानवाला गाम, नगरादि बे, ते सर्वज्ञानवाननां करेला जे. जेम घटादि पदार्थ, तेमज पूर्वोक्त संस्थान संयुक्त पृथ्वी, पर्वत प्रमुख . श्रा अनुमानथी पण जगत्कर्ता ईश्वर सिक थाय . उत्तर पदः-जगत्कर्ता सिद्ध करनारुं श्राप, श्रा अनुमान अयुक्त , Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनतत्त्वादर्श. कारण के पूर्वोक्त तमारुं अनुमान जेम अमारामतमां प्रथमश्रीज सिद्ध तेमज सिद्ध करे , ते कारणथी सिद्धसाधन दूषण तमारा अनुमानमां आवे . अमारा मतमा प्रथमथीज नीचे मुजब सिक. संपूर्ण आ जगत्नी जे विचित्रता डे ते सर्वे कर्मना फलथी जे एम अमे मानिये बियें, कारण के आ जारत वर्षमां अनेक देशोमां, टापुर्डमां, हेमवंतादि पर्वतोमां अनेक प्रकारना मनुष्यादि प्राणी जे वास करे , तथा तेऊने सुख मुःखादि अनेक तरेहनी जे अवस्था बनी रही डे ते सर्व अवस्थानुं कारण कर्मज . बीजु कोश् नथी, वली देखवामां पण कर्मज कारण थश शके बे, कारण के ज्यारे को पुण्यवान् राजा राज्य करे बे, त्यारे तेना राज्यमां सुकाल, निरुपलव होय , ते, ते राजाना शुज कर्मनो प्रजाव . ते कारणथी जे यथोचित रीतें जीवोने फल आपेले ते कर्म . कर्म जीवने आधीन , अने जीव चेतन होवाथी बुद्धिमान् डे, तेथी बुद्धिमानने आधीन थश्ने कर्म यथोचित फल आपे . आरीतें तमारा अनुमानमां सिझसाधन दूषण . जो एम केहेशो के अमेतो विशिष्ट बुद्धिवाला ईश्वरनेज सिक करिये बिये, परंतु सामान्य बुकिवाला जीव नथी सिक करता, तो तो तमारं दृष्टांत साध्यविकल ले. वांसला, श्रारि प्रमुखमां ईश्वर अधिष्ठितपणांनो व्यापार तो उपलब्ध थतो नथी परंतु सुथारादिनो व्यापार अन्वयव्यतिरेकथी उपलब्ध थाय . पूर्वपदः-सुथारादिपण ईश्वरनी प्रेरणाथीज ते ते काममा प्रवर्ते ले अमारं दृष्टांत साध्यविकल नथी. उत्तरपक्षः-त्यारे तो ईश्वर पण बीजा ईश्वरनी प्रेरणाथीज प्रवर्तता हशे, परंतु पोतानी मेले प्रवर्त्तता नहि होय, वली ते ईश्वरपण बीजा ईश्वरनी प्रेरणाथी प्रवर्त्तता हशे, एवी रीतें तो अनवस्था दूषण आवशे. पूर्वपक्षः-बढईप्रमुख जीव तो सर्वे अज्ञानी ले तेथी ईश्वरनी प्रेरणाथी ज पोत पोताना काममा प्रवर्ते डे, अने ईश्वर ( जगवान् ) तो सर्व पदार्थोना झाता ने तेथी अनवस्था दूषण नथी. __ उत्तरपक्षः-श्रा तमारं केहेवू असत् बे. कारण के तेमां इतरेतर दूषण आवे . प्रथम ईश्वर जो सर्व पदार्थना यथाऽवस्थित खरूपना ज्ञाता सिक थाय, तो अन्यनी प्रेरणा विना पोतेज प्रवर्ने जे एम सिह थाय,जो . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' दितीय परिवेद. (६७) अन्यनी प्रेरणा विना ईश्वर पोतेज प्रवर्ते जे एम सिद्ध थाय तो तो सर्व पदार्थना यथावस्थित स्वरूप जाणनारा सर्वज्ञ सिझ थाय, ज्यां सुधी श्रा बनेमांथी एक सिक न थाय त्यां सुधी बीजानी सिद्धि कदी न थाय, वली हे ईश्वरवादि ? अमे तमने पुलिये बियें के जो ईश्वर सर्वज्ञ तेमज वीतराग ने तो शा माटे बीजा जीवोने असत् व्यवहारमा प्रवर्त्तावे ? कारण के जे विवेकी होय जे ते मध्यस्थज होय जे तेमणे तो जीवोने सत् व्यवहारमांजप्रवृत्त करवा जोश्ये, परंतु असत् व्यवहारमा नहि प्रवृत्त करवा जोश्ये, अने ईश्वर तो जीवोने असत् व्यवहारोमां पण प्रवावे तेथी ईश्वरने सर्वज्ञ तेमज वीतराग केम केहेवा जोश्ये? पूर्वपदः- ईश्वर तो सर्व जीवोने शुज कर्म करवामांज प्रवर्त्तावे , तेथी चगवान् तो सर्वज्ञ अने वीतरागज डे; अने जे जीव अधर्म करनारा के तेउँने असत् व्यवहारमा प्रवावीने पनी नरकपातनुं फल आपे बे, जेथी ते जीवो पुःखथी मरीने फरी पाप न करे, तेथी उचित फल देवाथी ईश्वर (नगवान् ) विवेकवान् तेमज वीतराग सर्वज्ञ बे, तेमां कांश्पण दूषण नथी. उत्तरपदः-श्रा श्रापर्नु केहेतुं विचारविनानुं बे, कारण के प्रथम पाप करवामां तो ईश्वरज प्रवृत्त करे , ईश्वर विना बीजो तो कोश् प्रेरक नथी, वली जीव पोते तो कांश करी शकतो नथी कारण के ते तो अज्ञानी ने तेथी पापमां के धर्ममा पोते प्रवृत्त थ शकतो नथी, तो पडी प्रथम पाप कराववामां जीवने प्रवर्त्तववो. पनी नरकमां नाखीने तेनुं फल नोगवावq, पड़ी धर्ममां प्रवर्त्ताववो वाह ? शुं ईश्वरनी ईश्वरता अने विचारपूर्वक काम ? पूर्वपदः-ईश्वर (जगवान् ) जीवोने कदी प्रवद्वता नथी परंतु जीव पोतेज प्रवः बे. तेथी जे जीव जेवां कर्म करे , ते कर्मना वशथी ईश्वर (नगवान् ) तेवां तेवां फल ते जीवोने आपेले. जेम को राजा राज्य करे ने ते चोरी करवानी मना करे , कोश्ने चोरी करवानु केहेता नथी, तांपि को सख्स चोरी करशे तो ते चोरने अवश्य राजा शिदा करशे, तेवीज रीतें ईश्वर पाप तो करावता नथी, परंतु पाप करनारने शिक्षा करे . Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) जैनतत्त्वादर्श. उत्तरः- तौरेत नामनो ग्रंथ , तेमां एम लख्यु डे के, ईश्वरें अबरहामने त्यां रोटी खाधी, तथा याकुबनी साथे कुस्ती करी; था लखापथी प्रतीत थाय बे के ईश्वर देहधारी जे. वली शंकरदिगविजयना बीजा प्रकरणमां शंकरखा मिना शिष्य आनंदगिरि तेज ग्रंथना आदिमां लखे के “हुँ सर्वज्ञ हूँ" ते लखिये बियें. “ज्यारे नारदजीए जोयुं के श्रा लोकमां बहुज कपोलकल्पित मत उत्पन्न थया ने, श्रने सनातन धमें लुप्त थयो , त्यारे ते तत्काल ब्रह्माजीपासे पहोच्या. अने जश्ने केहेवा लाग्या के हे पिताजी! आपनो मत तो प्रायः रह्यो नश्री, अने लोकोए अनेक मत चलाव्या बे, तेथी आ वातनो कांश उपाय करवो जोश्ये; ते सांजली ब्रह्माजी बहु वखत सुधी विचार करीने, पुत्र, मित्र, नक्त जनोंने साथे लश्ने पोताना लोकथी निकली शिवलोकमां प्रवेश करता हवा. त्यां जश् जुए तो मध्याह्नमां कोड सूर्यनो प्रकाश होय नहि, तथा कोड चंजमा समान शीतल, जेने पांच मुख , चंजमा मुगटमां ने विजलीवत् पिंगलि जटा धारण करी , अने पार्वती जेना वामार्क अंगमा डे एवा सर्वना ईश्वर, महादेव दीग. पडी ब्रह्माजीये नमस्कार करी स्तुति करी; अने केहेवा लाग्या के हे महादेव ! सर्वज्ञ, सर्वलोकेश, सर्वसादी, सर्वमय, सर्व कारण इत्यादि-आ लखवाश्री प्रगट प्रतीत थाय डे के ईश्वर देहधारी बे, जो देहधारी ईश्वर न होय तो पड़ी पांच मुख केम होय ? आ लखाणथी ईश्वर शरीररहित सिद्ध 'थता नथी. हवे जो शरीरधारी ईश्वर होय तो तो आ लोकमां ईश्वरज व्यापी रदेशे, अने बीजा पदार्थोंने रेहेवामाटे बीजो लोक जोश्शे. जो एम कहो के ज्ञानात्माथी ईश्वर सर्वव्यापक तो तो सिझसाध्य नथी; अमे पण झानखरूपथी तो जगवानने सर्वव्यापी मानियेंद्रियें. परंतु जु5. तमारा वेदथी विरुद्ध न होय ? कारण के वेदोमां शरीरथीज सर्व व्यापक कहेल . यथा. “विश्वतश्चकुरुत विश्वतोमुखोविश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पादित्यादि श्रुतेः" आ श्रुतिश्री सिद्ध थाय ने के ईश्वर शरीरश्रीज सर्वव्यापक , अने तेम होवाथी पूर्वोक्त दूषणो आवे ने तेथी ईश्वर सवव्यापक नथी. वली श्राप कहो हो के ईश्वर सर्वज्ञ , परंतु तमारा ईश्वर सर्वज्ञ पण नथी; कारण के अमे जे सृष्टिकर्ता ईश्वरना खंमन क Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीय परिजेद. (७५) रनारा लियें, ते तेनाथी विपरीत चालिये बिये, तेथी थमने तेउँए शामाटे रच्या ? जो एम केहेशो के जन्मांतरोधी उपार्जन करेलां जे जे तमारां शुजाशुज कर्म डे ते कमोंने अनुसार तमने ईश्वर फल आपे , तो पड़ी तमारा केदेवाथीज ईश्वरनी स्वतंत्रतापर पाणी फगुं; कारण के जो अमारां कमोंविना ईश्वर फल आपी शकता नथी तो तो ईश्वरने कां आधीन नथी; जेवां अमारा कर्म हशे तेवु अमने फल मलशे, जो एम कहो के ईश्वर जे श्छे ते करे तो तो शुं जाणिये के ईश्वर शुं करशे, धर्मियोने नरकमां नाखशे के पापियोने स्वर्गमां मोकलशे ? जो एम कहो के परमेश्वर न्यायी , जेवं जेवं जे करे , तेवू तेवं तेने फल श्रापे , तो वली तेज परतंत्रतारूप दूषण ईश्वरमा लागे . वली ईश्वर नित्य जे एम केहेबु ते पण तमारा पोताना घरमांज सुंदर लागे डे, कारण के नित्य तो ते वस्तुने कहिये के जे त्रणे कालमा एकरूप रहे. जो ईश्वर नित्य ने तो झुं तेनामां जगत् बनाववानो खनाव डे के नहि जो एम कहो के तेनामां जगत् रचवानो खनाव तो ईश्वर निरंतर जगत्ने रच्या करशे,कदाऽपि बंध रदेशे नहि,कारण के जगत् रचवानो खन्नाव तो तेनामां नित्य जे.जो एम केहेशो के ईश्वरमां जगत् रचवानो खन्नाव नथी तो तो ईश्वर कदापि जगत् रचशे नहि, कारण के जगत् रचवानो स्वनाव तेनामां नथी. तथा जो ईश्वरमां जगत् रचवानो स्वजाव एकांत नित्य ने तो तो प्रलय कदापि नहि थाय, कारण के ईश्वरमां प्रलय करवानो खनाव नथी. जो एम कहो के ईश्वरमां रचवानी तेमज प्रलय करवानी बने शक्तियो नित्य ने तो तो कदापि जगत् रचाशे पण नहि, तेम तेनो प्रलय पण थशे नहि, कारण के परस्परविरुद्ध एवी बे. शक्तियो एक स्थानमा एककालमां कदापि रेहेती नथी. जो रेहेशे तो जगत् रचाशे नहि, तेम तेनो प्रलय थशे नहि कारण के जे कालमां रचनारी शक्ति रचशे तेज कालमां प्रलय करनारी शक्ति प्रलय करशे, अने जे कालमां प्रलय करनारी शक्ति प्रलय करशे तेज कालमा रचनारी शक्ति रची देशे; एवी रीतें ज्यारे शक्तियोनो परस्पर विरोध थशे त्यारे जगत् रचाशे नहि तेम तेनो प्रलय पण थशे नहि. हवे तो अमांरोज मत सिछ थयो. कारण के जगत् कोश्य रचेल नथी. तेम - तेनो कदापि प्रलय Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) जैनतत्त्वादर्श. पण तो नथी, तेथी या जगत् अनादि अनंत सिद्ध युं. जो एम कहो के ईश्वरमां बने शक्तियो नथी तो पढी जगत् रचाशे पण नहि तेमज तेनो प्रलय पण थशे नहि. तेथी पण जगत् अनादि अनंत सिद्ध थयुं. जो एम कहो के ईश्वर रचवानी इछा करे बे त्यारे रचे बे, घने प्रलय करवानी इछा करे बे त्यारे प्रलय करे बे तेमां शुं दूषण ? तो तो ईश्वरी शक्तियो नित्य थई, जले अनित्य होय, तेमां अमारे शुं दानि बे ? पण जुर्ज, ईश्वरनी शक्तियो नित्य बे तो तो ईश्वर पण नित्य शे, कारण के ईश्वर पोतानी शक्तियोथी अभेद बे, जो एम कहो के शक्तियो ईश्वरथी नेदरूप बे तो पढी शक्तियो नित्य होवाथी जगत् रचा शे नहि तेम तेनो प्रलयपण थशे नहि, अने ईश्वर किंचित्कर सिद्ध थशे. कारण के ज्यारे ईश्वर सर्वशक्तियी रहित बे, त्यारे तो कांपण करवाने समर्थ नथी, पढी जगत् रजवामां केम समर्थ थशे ? वली शक्तिनुं उपादान कारण कोण यशे ? पढी ईश्वरनो व थ जशे . कारण के ज्यारे ईश्वरमां शक्तिज कांई नथी त्यारे ते ईश्वर शेनों ? तो तो यकाशना फुलसमान असत् बे पढी जगत्कर्त्ता कोने मानशो ? हवे खरडा निनो ईश्वरवाद लखियें बियें. खरडज्ञानी कहे बेके, जगत्मा जेटला पदार्थ बे तेना विलक्षण, विलक्षणसंयोग, आकृति, गुण तेमज स्वाव मालम पडे बे. जो कदी तेर्जनो तथा तेर्जना नियमोनो कर्त्ता कोइ न होय तो ते नियमो कदि बने नहि ; कारण के जड पदार्थमां मलवानुं तेमज जुदा थवानुं यथावत् सामर्थ्य नथी. ते हेतुथी ईश्वर कर्त्ता अवश्य होवा जोइयें. उत्तर पक्ष - प्रथम मे जगत्कर्त्ता ईश्वरनुं खंकन करी चुक्या बियें, तो पढी आप जगत्कर्त्ता केम मानो बो ? वली थापें कयुं के जगत्ना पदार्थोंमां जुदा जुदा खनाव मालम पडे बे, तेथी ईश्वर सिद्ध थाय बे; परंतु या कथनथी ईश्वर जगत्कर्त्ता सिद्ध यता नथी, कारण के सर्व पदार्थोमां अनंत शक्ति बे, तेथी पोतपोतानी शक्तिथी सर्व पदार्थों . पोतपोतानां कार्य करे बे. पदार्थोना संयोगमां निमित्त या बे. १ काल, २ स्वाव, ३ नियेति (जवितव्यता ) ४ जीवोनां कर्म, ५ जीवोनो उद्यम; १ प्रारब्ध- दैव- अदृष्ट - जीवकृत धर्माधर्म -किंवा- पुद्गलो. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) वितीय परिछेद. श्रा पांच निमित्त विना बीजं कोश्पण निमित्त नथी, ए पांचवें स्वरूप आगल उपर लखवामां आवशे. । प्रत्यदमां पण पांचे निमित्तोश्री सर्व कांश उत्पन्न थाय ने ते जोयें बिये. जेम के बीजांकुर ज्यारे बीज ववाय , त्यारे काल पण यथानुकूल होवो जोश्य, तेमज बीज, जल अने पृथ्वी इत्यादिना खजाव पण अवश्य होवा जोश्य, तेमज नियति पण कारण जे-जे जे पदार्थोना खजाव ते ते पदार्थोना तेवा तेवा जे परिणाम थाय डे तेनुं नाम नियति बे; वली अष्टविध कर्मपण कारण बे. तथा पुरुषकार (जीवोनो उद्यम ) पण कारण बे, आ पांच वस्तु अनादि , कोश्य रचेल नथी; कारण के वस्तुना जे जे खनाव जे ते ते सर्व अनादिथी . जो कदी वस्तुमां पोतपोताना स्वजाव न होय तो तो कोश् वस्तुज सत्रूप रेहेशे नहि. सर्व शशशृंगवत् असत् थ जशे. वली प्रत्यद देखाय बे एवां, पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चंडमा इत्यादि पदार्थों एवीरीतें अनादिरूपथी सिक, तेमज पृथ्वीउपर जे जे रचना देखाय ने ते सर्व प्रवाहथी एमज चाली आवे बे. वली जगत्ना जे जे नियमो के ते सर्व श्रा पांच निमित्त विना श्रश् शकता नथी. ते कारणथी सर्वे पदार्थो पोतपोताना नियमोमां . जो तमे अव्यनी शक्तिनेज ईश्वर मानी लेशो तो तो अमने कांश हानि नथी; कारण के अमे अव्यनी अनादि शक्तिनुं नाम इश्वर राखी लेशु, अने ज्यारे तमे अव्यनी अनादि शक्तिने ईश्वर मानी त्यारे तमारो अमारो विवाद दूर थयो; पड़ी तमे जे लख्युं ने के जडमा यथावत् मलवानी शक्ति नथी, ते पण तमारं लखाण मिथ्या थयुं. वली जुर्ड के जगत्मां जड पदार्थों अनेक तरेहथी पोतपोतानी मेले पूर्वोक्त पांच निमित्तोथी पोतपोतामां मली जाय . जेम के सूर्यना किरणो वादलामां पडवाथी अधनुष्नुं बनवं, संध्या होवू, पांच वर्णनां वादलांनी एकत्र घटा थवी, चंड सूर्यनी आस पास कुंमालां थवां, श्राकाशमां पवनोना मेलापथी जल तेमज अग्निर्नु उत्पन्न थर्बु, तेमज वरसाद वरसवाथी घास तृणादि अनेक प्रकारनी वनस्पतिर्नु उत्पन्न थर्बु, तथा अनेक प्रकारना कीट पतंग प्रमुख जीवोनुं उत्पन्न थर्बु इत्यादि १ जीवकृत पुरुषार्थ वा तेणें करेलो शुभाशुभ यत्न. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (G) जैनतत्त्वादर्श. आ पांचे निमित्त विना कोश वस्तुने बनावतां ईश्वर देखाता नथी. जरा पक्षपात बोडी विचार करो? ईश्वर कर्त्ता को तरेदथी सिझ थ शके ने? कारण के पृथ्वी, आकाश, चंद्र सूर्य इत्यादि तो अव्यार्थिक नयना मतथी अनादि . पडी तेने वास्ते पुब्बु थाय के आ कोणे बनाव्या? तो हवे अमे पुबियें लियें, ईश्वरने कोणे बनाव्या ? जो कहेशो के ईश्वरने तो कोश्य बनाव्या नथी, ते तो अनादिथी बन्या बनेलाज , तो पड़ी पृथ्वी प्रमुख केटला एक पदार्थो पण बन्या बनेला अनादिश्रीज ने एम मानवामां शुं लजा आवे ? खरडज्ञानी कहे डे के-खजावथी जगत्नी उत्पत्ति जे माने में तेना मतमां आ दोष आवे . जो पृथ्वी खनावथी थाय बे तो तेनो कर्त्ता तेमज नियंता होय नहि, वली आ पृथ्वीथी जुदी दश कोश उपर श्राकाशमां पोतानी मेले बीजी पृथ्वी थर जात,जे आज सुधीबनी नथी तेथी एम जणाय डे के ईश्वर कर्ता . उत्तरपदः- आप कोई विचार करो जो के नहि ? जो विचारशो तो पूर्वोक्त केहे अयुक्त लागशे. कारण के अमे कहिये बियें के पृथ्वी विगेरे अनादि , कोईये बनावेल नथी, अने तमे कहो जो के आकाशमां उंचे दश कोशने अंतरे बीजी पृथ्वी केम नथी बनती ? हवे विचारो के . आ तमारो सवाल समजणवालो के ? आ तमारा प्रश्नना उत्तरमा कोश एम पुडे के जो ईश्वर खन्नावथी बन्या होय तो ईश्वरथी अलग बीजा ईश्वर केम उत्पन्न यता नथी ? जो एम कहो के ईश्वर अनादि ने तेथी बीजा नवा ईश्वर केम बने ? तेवी रीतें अमे पण कही शकिये बियें के पृथ्वी अनादि ,नवी नथी बनती,तो पड़ी दश कोश आकाशमां केम बने? पूर्वपदः- जो वस्तु पोते पोतानी मेवेज बनीजाय तो सर्वपरमाणु एका केम मली जता नथी?अथवा एकेक थईने विखरीपण केम जता नथी? उत्तरपदः- जड काई अमारी आज्ञा मानता नथी के अमारा केहेवाथी एकग थश्ने एकरूप थई जाय, अथवा एक एक थई विखरी जाय; पूर्वोक्त पांच निमित्त ज्यां मलवानां हशे त्यां एकत्र थशे, ज्यां निमित्त नहि मले त्यां एकगं थशे नहि. पूर्वपक्षः-सर्व परमाणुऊने एकत्र मलवामां पांचनिमित्त केम मलतांनश्री? Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) क्तिीय परिछेद, • उत्तरपक्षः- अनादि संसारनी जे नियतिरूप मर्यादा ले ते कदापि अन्यथा थती नथी. जो कदी थाय तो, संसारमा जे जीवो जन्म लहे ते सर्वे स्त्रीनाज, अथवा पुरुषनाज रूपथी केम उत्पन्न न थाय ? जो एम कहो के जेवां जेवां जेणे कर्म कस्यां होय तेवां तेवांज तेने फल मले बे, पड़ी फक्त स्त्री श्रादि स्वरूपश्रीज केम उत्पन्न थाय ? तो हवे अमे पुछिये बियें के, सर्वजीवोयें स्त्री होवानां के पुरुष होवानां जुदां जुदां कर्म केम कस्यां? एकसरखां कर्म केम न कस्यां ? उत्तरमा एम केहेशो के, संसारमा ए सनातनथी रीत डे के सर्वजीव सरखां कर्म कदापि करता नथी; त्यारे तो परमाणुमां पण सनातनथी एज खनाव डे के एकत्र कदापि मल, नहि, तेमज एकएक थर विखरा पण जq नहि. हे पूवपति! था तमारा ईश्वर जे जगत् रचे ते तमारा केदेवाश्री, अगाऊ अनंत सृष्टि रची चुक्या , तेमज एकेक जीवोने अशुनकर्मोनां फल अनंतवार दश् चुक्या , तो पण ते जीवो आजसुधी पाप कस्याज करे बे, तो हवे तेने शिदा करवाश्री ईश्वरने शुं लान थयो ? के अनंत कालथी आ विडंबनामां पड़ी रह्या ? वली ईश्वरने सृष्टि रचवा, पण शुं प्रयोजन हतुं ? पूर्वपदः- ईश्वरने सृष्टि नहि रचवानुं शुं प्रयोजन हतुं ? उत्तरपदः- वाह रे अज्ञशिरोमणि ! आ तमे शुं उत्तर प्राप्यो ? श्रा तमारा उत्तरथी विद्वान् माणस उपहास नहि करे ? ईश्वर जो सृष्टि रचे तो ईश्वरताज नष्ट थर जाय; आ वृत्तांत, उपर सारी रीतें लखी श्राव्या बियें. पूर्वपदः- ईश्वरनी जे शक्ति ने ते सर्वे पोत पोतानुं काम करने, जेम अांख देखवानुं काम करेने, कान सांजलवानुं काम करेले, तेवी रीतें ईश्वरमां जे रचनाशक्ति , ते रचना करवाश्रीज सफल थायबे, ते वास्ते जगत् रचेले. उत्तरपदः-जो तमे ईश्वरने सर्व शक्तिमान् मान्या तो ईश्वरनी सर्व शक्ति सफल थवी जोश्ये. पड़ी तो ईश्वर एक सुंदर पुरुषy रूप रचीने १ जगत्नी सर्व सुंदर सुंदर स्त्रियो साये जोग करे, चोर बनी चोरी करे, ३ विश्वास धातिपणुं करे, ४ जीवहत्या करे, ५ जूठ बोले, ६ श्र Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) जैनतत्त्वादर्श. न्याय करे, ७ अवतार लश् गोपियो साथे कबोल करे, कुब्जा साथे जोग करे, ए बीजानी स्त्रीने जगवी लइ जाय, १० शिरपर जटा राखे, ११ त्रण आंख बनावे, १५ बेलपर चढे, १३ शरीरपर विनूति लगावे, १४ एक स्त्रीने वामाआंगमा राखे, १५ कोश् मुनिनी पासे नागा थइ नाचे, १६ कोश्ने वरदान आपे, १७ कोश्ने शाप दे, १७ चार मुख बनावी एक स्त्री राखे, १ए पोतानी पुत्री साथे जोग करे, २० संग्राम करे, १ स्त्रीने चोरी बजाय तो पड़ी ते स्त्रीने मादे रोतो फरे, २५ एक पोतानो ना३ बनावे, पळी ज्यारे संग्राममां तेने शस्त्र लागे, त्यारे नाश्ना कुःखथी बढ रोवे, २३ पोते पोताने अज्ञानी समजे, २४ नाश्नी चिकित्सा वास्ते वैद्य बोलावे, २५ सर्व कांश खाय, २६ पीये, २७ नाचे, २० कुदे,शए रोवे, ३० पीटे, पडी, ३१ निर्मल, ३२ ज्योतिःस्वरूप, ३३ निरहंकार, ३४ सर्व व्यापक; बनी बेसे इत्यादि शक्ति ईश्वरमां बे के नहि ? जो दे तो, पूवोक्त सर्व काम ईश्वरने करवां पडशे, जो नहि करे तो ईश्वरनी सर्व शक्ति सफल नहि थवानी ? पड़ी तो ईश्वर महापुःखी थर जशे. कारण के जेने नेत्र तो मलेला ,अने तेने देखवानुं न मले तो, ते केवो कुःखी थाय ? जो एम कहो के पूर्वोक्त अयोग्य शक्ति ईश्वरमां नथी, तो तो सर्व शक्तिमान ईश्वर ने एम कदापि न केहे जोश्य. जो एम कहो के योग्य शक्तिर्जनी अपेदायें अमे सर्वशक्तिमान् मानियें बियें, तो तो जगत् रचवानी शक्ति पण अयोग्यज बे, ते पण परमात्मामां नथी. ते शक्तिनी अयोग्यता, उपर लखी आव्या बियें. तथा पूर्वपदि! ज्यारे ईश्वरें प्रथम सृष्टि रची हती, त्यारे स्त्री, पुरुषो तो न होता, हवे विचारो के माता पिता विना मनुष्य केम उत्पन्न थयां हशे ? पूर्वपदः-ज्यारे ईश्वरें सृष्टि रची हती, त्यारेज बहुपुरुष, तेमज बहु स्त्रियो, माता पिता विना रच्यां हता,त्यारपडी गर्नथी उत्पन्न थवा लाग्यां. .उत्तरपदः-श्रा प्रमाणरहित केहे कोश्पण विद्वान् मानशे नहि. कारण के माता पिता विना कदापि पुत्र उत्पन्न थ शकतो नथी. जो कदी ईश्वरें प्रथम माता पिता विना पुरुष, स्त्री उत्पन्न करयां हतां तो आज पण घड्यां घडाव्यां, बन्यां बनाव्यां स्त्री पुरुष केम नथी मोकलता? गर्नधारण कराववां, स्त्रीपुरुषनां मैथुन कराववां, गर्जवासनां कुःख जो Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीय परिजेद. (१) गवाववां, योनियंत्रद्वारा खेंची कढाववां, इत्यादि संकट शावास्ते रच्यां? ईश्वरें अनंतवार सृष्टि रची, अने प्रलय कस्यो, त्यारे तो थाक्या नहि तो शुं मनुष्योनेज बनाववाथी थाक चडवानो ? के घडेला घडावेला बनेला बनावेला मोकली शकता नथी ? माता पिता विना पुत्र उत्पन्न थाय ए कदापि बनी शकतुं नथी, ते हेतुथी जगत्नो प्रवाह अनादिथी तेवीज रीतें तरतमता रूपें चालतो आवेलो सिक थाय . पूर्वपद-जो कदी ईश्वर सर्व वस्तुना कर्ता न होय, अने जीवज कर्ता होय तो तो जीव पोतेजशरीर धारण करी शे. वली शरीरने कदापि बोडशे नहि, पोते पोतानां सारां फल जोगवी लेशे, अने कदी मरशे नहि. __उत्तरपदः-आपें जे कडं ते सर्व कर्मने वश , परंतु जीवने आधीन नथी, जो एम कहो के कर्मपण जीवेंज कस्यां हता, त्यारे अशुज कम जीवें केम कस्यां ? कारण के कोइपण पोतानुं बुरुं करतां नथी; श्रा वातनो उत्तर तो अपाई गयो , परंतु तमारी समजण थोडी जे तेथी समजता नथी. कारण के जीवोनी जे जे शुभ अशुन अवस्था बे, ते सर्व कर्मोनुं फल . वली जीव, कर्म करवामां तो प्रायः खतंत्रज बे, परंतु फल नोगववामां खवेश नथी. कारण के जेम कोइ जीव धनुष्थी तीर चलावे अने पढ़ी पकडवा चाहे तो ते जेम तेनामां सामर्थ्य नथी, तेमज कोई जीव विष खाय, ते खावामां तो खवश बे परंतु ते विषना वेगने रोकवामां जेम समर्थ नथी, तेम कर्म करवामां तो जीव प्रायः स्वतंत्र डे परंतु फल जोगववामां परवश . वली जेम वर्तमान कालमां रेलगाडी, तथा तार जीवोए बनावेला ते चालती रेलगाडी तथा जता तारना वेगने, जेटलो वखत तेनी कलनी प्रेरणा शक्ति बंध पडती नथी तेटलो वखत, को जीव रोकी शकता नथी, तेवीज रीतें कर्मफलना वेगने रोकवामां जीवपण समर्थ नथी. वली जीवने जवांतरमां कोण लई जाय ? तथा जीवना शरीरनी रचना, आंखोना पडदा, अनेक प्रकारना रंग बेरंगी, हाड, चामडी, लोही, वीर्य इत्यादि रचना कोण रचेने ? . तेनुं पूर्ण स्वरूप ज्यां (१४) कर्म प्रकृतिनुं स्वरूप लखशुं त्यांची जाणबु. ते हेतुथी ईश्वर जगत् कर्ता को तरेहथी सिक थता नथी. विशेष १सारासार-नहाना मोहोदा उंचनीच वा न्यूनाधिक-के समविषम सुखिदुःखी. रस्वतंत्र, ११ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) जैनतत्वादर्श. रीते जगत्कर्ता ईश्वरनुं खंडन जाणवु होय तो (१) श्रीसंमतितक, (२) छादशसार नयचक्र, (३) स्याहादरत्नाकर, (४) अनेकांतजय पताका, (५) शास्त्रसमुच्चयस्याछादकल्पलतो, (६) स्याहादमञ्जरी, (७) स्याहादरत्नाकरावतारिका, (ज) सूत्रकृतांग, (ए) नंदी सिद्धांत, (१०) शब्दांनोनिधिगंध हस्ति महाजाष्य, (११) प्रमाणसमुच्चय, (१५) प्रमाणपरीक्षा, (१३) प्रमाणमीमांसा, (१४) आप्तमीमांसा, (१५) प्रमेय कमलमार्त्तम, (१६) प्रमेय दिनमातम, (१७) न्यायावतार, (१७) धर्मसंग्रहणी, (१ए ) तत्त्वार्थ, (२०) षग्दर्शनसमुच्चय, इत्यादि जैनमतना ग्रंथ जोई बेवा. ते कारणथी जे कामी, क्रोधी, कपटी, धूर्त, परस्त्री गामी, स्वस्त्रीगामी, नाचनारा, गानारा, बजावनारा, रोपीटकरनारा, जस्म लगावनारा, माला जपनारा, संग्राम करनारा, ममरु आदि वाजां वगाडनारा, वरदान अथवा शाप देनारा, विनाप्रयोजन अनेक संकटमा पडनारा, इत्यादि अढारे दूषणसहित २ ते कुदेव बे. तेने ईश्वर मानवा तेज मिथ्यात्व . श्रा कुदेवोने माननारा पटरनी नाव उपर बेग बे. ते कारणथी लखवानुं प्रयोजन एटबुं ले के कुदेवने कदापि अहंत जगवंत परमेश्वर मानवा नहि. ___इतिश्री तपागलीयमुनिश्रीबुझिविजय शिष्यमुन्यानंद विजयात्माराम विरचितजैनतत्त्वादर्शनाषांतरेकुदेव निर्णयनामाद्वितीयःपरिवेदःसंपूर्णः॥५॥ - ॥अथ तृतीयपरिछेदप्रारंजः॥ त्रीजा परिदमां गुरुतत्त्वनुं स्वरूप कहियें बियें. जैनमतमां गुरुनां लक्षण आ प्रमाणे लखेलां बेः- महाव्रतधराधीरा, जैदमात्रोपजीविनः॥ सामायिकस्थाधर्मोप, देशकागुरवोमताः ॥ १ ॥ अर्थः-अहिंसादि पांच महाव्रत धारण करनारा तथा पालनारा, अने आपत्ति समये धैर्य राखनारा, पोताना धारण करेला व्रतमां दूषण लगावी कलंकित नहि करनारा, तथा बेंतालीश दूषणरहित माधुकरी निदावृत्ति करी, पोताना चारित्र धर्मना, तथा शरीरना निर्वाहवास्ते जोजन करनारा, नोजन पण पुरूं पेट जरी नहि करनारा, नोजनने वास्ते अन्न, पाणी रात्रिमा नहि राखनारा, तथा धर्म साधननां उपकरण वर्जी बीजो कां पण Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) तृतीय परिच्छेद. संग्रह नहि करनारा, धन, धान्य, सुवर्ण, रौप्य, मणि, मोती, प्रवालादि कांपण परिग्रह नहि राखनारा, तथा राग द्वेषना परिणामरहित, माध्यस्थवृत्तिथी सदा वर्तनारा, तथा जीवोना उद्धारवास्ते, श्रहंत जगवंत परमेश्वरें सम्यग्रज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप धर्म, स्याद्वाद अनेकांतस्वरूप निरूपण करेल बे, तेनो नव्यजीवोने उपदेश करनारा, परंतु ज्योतिष शास्त्र, अष्टांगनिमित्तशास्त्र, वैद्यकशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा राजनीतिसेवाप्रमुख अनेक शास्त्र, जेथी धर्ममां बाधा पहोंचे तेवां शास्त्रोनो उपदेश नहि करनारा, कारण के लौकिक शास्त्रो बुद्धिमान पुरुषो वर्त्तमानमां पण बहु अध्ययन करे बे, तेमज सांसारिक विद्यानां नवीन, नवीन अनेक पुस्तको बनावे. तथा पाश्चात्त्य पुरुषोनी बुद्धि जोइ श्रा देशना लोको पण सांसारिक विद्यामां बहुज निपुण थाय बे, अने ते कारणथी जीवोने धर्म पामवो बहुज मुश्केल थायबे, तेथी फक्त धर्मनोज उपदेश करनारा, एवा लक्ष्णवाला गुरु जैनमतमां बे अर्थात् जैनमतमां गुरुनां वां लक्षणो बे. प्रथम पांच महाव्रत साधुने धारण करवां कलां बे ते पांच महाव्रत कयां बे ? ते कहियें बियें. अहिंसासूनृताऽस्तेय, ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः ॥ पंचभिः पंच निर्युक्ता, जावना निर्विमुक्तये ॥ २ ॥ श्रर्थः - (१) हिंसा ( जीवदया ) (२) सूनृत ( सत्यवचन बोलवु ) (३) अस्तेय ( साधुने उचित, या विना वस्तु न लेवी ते ) (५) ब्रह्मचर्य पाल (५) सर्व परिग्रहनो त्याग, ए पांच महाव्रत बे, तथा था पांच महाव्रतोमा एकेक महात्रतनी पांच पांच जावना बे. साधु या पांच महाव्रत, तथा पचीश जावना, मोहने वास्ते पाले. या पांच महाव्रतमांथी प्रथम महाव्रतनुं स्वरूप लखियें बियें. न यत् प्रमादयोगेन, जीवितव्यपरोपणं ॥ त्रसानां स्थावराणां च तदहिंसावतं मतं ॥ ३ ॥ श्रर्थः - त्रस, ( द्वीप्रियादि ) छाने स्थावर, ( पृथ्वी काय ) (अप्काय ते काय वाचकाय वनस्पतिकाय) या सर्व जीवोने प्रमादवश थइ मारे नहि. प्रमादनां लक्षणो; राग, द्वेष, सावधान, अज्ञान, मन वचन कायानुं चंचलपणुं, धर्मने विषे अनादर इत्यादि प्रमादने वश थइ जे प्राणातिपात करवो, तेनो जे त्याग, तेनुं नाम हिंसा व्रत बे. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनतत्त्वादर्श. बीजा महाव्रतनुं स्वरूप लखिये बियें. प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं, सूनृतव्रत मुच्यते ॥ तत्तथ्यमपिनो तथ्यमप्रियं चा हितं च यत् ॥ ४ ॥ जे वचन सांजलवा बीजा जीव हर्ष पामे, ते वचनने प्रियवचन कहियें, तथा जे वचन जीवोनेपथ्यकारि होय, परिणाम सुंदर होय, अर्थात् जे वचनथी जीवने विष्यमा बहुज सारुं याय, तथा जे वचन सत्य होय, एवं वचन जे बोल ते सूनृत व्रत कहियें; अने जे वचन अ प्रिय तथा हितकारि होय ते सत्य होय तो पण सत्य नथी. या व्रतविषे कांइक विशेष लखिये बियें. जे वचन व्यवहारमां जलें सत्यज होय, परंतु ते जो बीजा जीवने दुःखदायक होय तो ते वचन साधु न बोले. जेम के काणाने काणो के देवो, चोरने चोर केद्देवो, कुष्टीने कुष्टी केवो, इत्यादि; वली जे वचन जीवोने जविष्यमां नर्थकारक होय तेपण वसुराजानी पेठे बोले नहि. जो या बने वचनो बोले तो ते साधुने सूनृत व्रतमां कलंक लागी जाय, कारण के बने वचनो असत्यमांज गणेलांबे. ( ८४ ) हवे त्रीजुं महाव्रत लखियें बियें. अनादानमदत्तस्याऽस्तेयत्रतमुदी - रितं ॥ बाह्याः प्राणानृणामर्थो, दरता तं हताहि ते ॥ ५ ॥ अर्थः- दत्त मालेकना श्राप्या विना लई लेवुं तेनो जे नियम ते अस्तेय व्रत कहियें. नामातंर चोरीत. श्रदत्तादान, चार प्रकारनुं बे (१) जे वस्तु साधुने लेवा योग्य बे, जेम के चित्त, जीवरहित वस्तु, तृण, काष्ठ, पाषा दि, ते तेना खामिना पुग्या विना लई लेवी, ते खामि दत्त. (2) तथा जेम कोई घेटुं, बकरी, गाय प्रमुख जीव, जेनो स्वामी बीजा हिंसकजीवने तेनी किंमत लई खापे, अथवा किंमत विना यापे ाने लेनारें पेली वस्तु बीधी बे, परंतु ते जीवें पोतानुं शरीर पेलुं नथी, ते देतुथी जीवदत्त. ( ३ ) तथा श्रधाकर्मादि श्राहार प्रमुख जे जे वस्तु, अचित्त, जीवरहित पण बे, घने आपली पण ते वस्तुना स्वामियें जबे, परंतु तीर्थंकर जगवंतें निषेध करी बे. पबी जो साधु ते वस्तुने ग्रहण करे तो तीर्थंकर अदत्त (४) तथा जे वस्तु निर्दोष बे, जेम के वस्त्र थाहारादि, अने ते वस्तुना स्वामियें ते यापेली बे, तेमज तीर्थकर जगवतें तेनो निषेध पण करेलो नथी, बतांपि गुरुनी यज्ञाविना ते वस्तुने जो साधु लड़े तो अदत्त. या व्रतमां या चारे प्रकारनुं श्रदत्त Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद. (एर) (३) श्रार्जव - मनवचनं कायाथी सरल तेनो जे नाव अथवा कर्म ते आर्जव मनवचन कायानी कुटिलतानो अनाव. (४) मुत्ती मोचनं - बाह्याभ्यंतरथी तृष्णानो त्याग, लोजनो त्याग ते मुक्ति. (५) तप - रसादि धातु अथवा कानां कर्म नाथी जस्म थाय ते अशनादि बार प्रकारें तप, (६) संयम - श्राश्रवनी त्यागवृत्ति ( 3 ) सत्यं - मृषावाद विरति, जूठनो त्याग (6) शौच - संयमवृत्तिमां कलंकनो श्राव (ए) आकिंचन - किंचित्मात्र द्रव्यनुं पोतानी पासे नहि होवाएं (१०) ब्रह्मचर्य - सर्वथा मैथुननो - जाव. या दश प्रकारना यतिधर्म जाणवा, वली मतांतरथी दशप्रकारें यतिधर्म या रीतें कहे. यतः ॥ खंती मुत्ती श्रव, मद्दव तहलाघवे तवे चैव ॥ संजम वियोग किंचण, बोधवे बंजचेरेय ॥ १ ॥ अर्थनी सुगमताथी विस्तार करयो नयी. हवे सत्तर भेद संयमना लखिये बियें. यतः। पंचासवा विरमणं पंचिदिय निग्गहो कसाय जर्ज ॥ दंत्तयस्स विरइ, सत्तरसदा संजमो होइ ॥ १ ॥ श्रथवा ॥ पुढवि दग श्रगणिमारुय, वणसइ खिति च पबिंदि जीवा ॥ पहुप्पे पण, परिववण मणो वर काए ॥२॥ अर्थः- ॥ उत्पन्न करियें कर्म जेनाथी ते श्राश्रव तेना पांच प्रकार, पांच महाव्रतमां बताया बेते (१) हिंसा ( २ ) मृषा (३) चोरी ( ४ ) मैथुन ( ५ ) परिग्रह. या पांचे श्राश्रवनो त्याग करे तथा स्पर्शन, रसन, प्राण, चकु तेमज श्रोत्र. या पांचे इंडियाना स्पर्शादि पांचे विषयोविषे लंपटपणुं त्यागे. तथा क्रोध, मान, माया ने लोन ए चारे कषायने जीते. ए चारेना उदयने निष्फल करे, तेमज नहि उदय पाम्या होय तेने उत्पन्न न करे तथा जीवनी चारित्रधर्मरूप लक्ष्मी जेनाथी दंकाय एवा खोटा मन वचन कायारूप जे त्रण दंग तेनी विरति करे. ए सत्तर नेद संयमना बताव्या. दवे प्रकारांतरथी संयमना सत्तर भेद बतावियें बियें. (१) पृथ्वी, (२) जल, (३) अग्नि, (४) पवन, (२) वनस्पति, (६) ह्रींद्रियजीव, (3) त्रीडियजीव, (G) चतुरिंडियजीव, (ए) पंचेंद्रियजीव. पूर्वोक्त नवविध जीवोनी, मन, वचन ने कायाथी, करवी, कराववी ने करनारने अनुमोदवारूप हिंसावृत्तिनो त्याग, ते नव प्रकारना संयम - तेमां सरंज, समारंभ, आरंज तेनी समज या बे. प्राणीना प्राणना विनाश करवानो संकल्प करवो ते Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( एश् ) जैनतत्त्वादर्श. सरंज; जीवना प्राणने परिताप उपजाववो याने पीडा करवी ते समारंज; तथा जीवोना प्राणनो विध्वंस करवो ते श्रारंज; तथा (१०) जीवसंयम, जे जीव वस्तु राखवाथी संयममां कलंक लागे. जेमके मांस, मदिरा, सुवर्णप्रमुख धातु, मोतीप्रमुख रत्न, अंकुशादि शस्त्र, इत्यादि छाजीव वस्तु राखवाथी संयममां कलंक लागे, तेथी तेवी अजीव वस्तु न राखवी; वरूप पुस्तक, तथा शरीर उपकरणादि, ते या दूषमकाल प्र प्रमुख दोषथी, बुद्धि, आयु, श्रद्धा, संवेग, उद्यम, बल इत्यादि सर्व हीन इ गयेल बे. विद्यास्मरण रेहेती नयी. ते कारणथी या कालमां पुस्तक राखवां, ते प्रतिलेखणा, प्रमार्जनपूर्वक यत्नथी राखवां तथा ( ११ ) प्रेक्षासंयम - नेत्रथी देखी, बीज, हरिप्रमुख जीवरहित स्थानमां सुतुं, बेसकुं, चाल इत्यादि करतुं ते. तथा (१२) उपेक्षासंयम - गृहस्थाने पापनो व्यापार करतां उपदेश करवो के था काम तमे श्रावी रीतें करो तेः अथवा कोई साधु संयमथी चलायमान थया होय तेने हितपूर्वक उपदेश करवो ते, तथा पार्श्वस्थादि साधु जे समाचारीथी ऋष्ट थया होय, तेज ते कोई अनुचित काम करी रह्या होय, तेजने उपदेश करीश तो ते मानवाना नयी, एम कोइ साधु मनमां जाणी उदासीन रहे ते - तथा (१३) प्रमार्जन संयम - अवलोकन करेला स्थानमां वस्त्र, पात्रादि जो लेवां अथवा राखवां पडे तो प्रथम रजोहरणादिथी प्रमार्जन करीने पढी लेवां, राखवां के सुलुं, बेसवुं करें ते. तथा (१४) परिष्ठापना संयम - जात, पाणी, वस्त्र, पात्रादि जेमां जीव पडी गया होय तेने जीवरहित शुद्ध भूमिकामां शास्त्रोक्त विधिथी जे परठववां ते तथा (१५) मनः संयम-म मां द्रोह, ईर्ष्या, अजिमान न करवां थाने धर्मध्यानादिमां मन प्रवृत्त करवुं ते. तथा (१६) वचनसंयम - हिंसाकारी कठोरवचन न बोलवां थाने शुजवचननुं उच्चारण करतुं ते. तथा ( १७ ) कायासंयम - गमनागमन करवामां, तथा अवश्य करवा योग्य कामोमां उपयोगपूर्वक कायाने प्रवर्त्ताववी ते. या सत्तर जेद संयमना जाणवा. वे वैयावृत्तना दश नेद कहियें बियें. आयरिय जवद्याय, तवस्सि सेहे गिलाण साहुसु ॥ समणोन्न संघ कुलगण, वेयावश्चं हवइ दसदा ॥ १ ॥ अर्थः- (१) ज्ञानादि पांच श्राचारने पाले ते श्राचार्य, तथा सेवियें Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद, ( ए३) जे ते आचार्य, तथा (2) जेनी पासे आवीने अध्ययन करीयें ते उपाध्याय तथा (३) तप जे करे ते तपस्वी तथा (४) जेणें नवुं साधुपएं अंगीकार कर्य होय ते शिष्य. तथा (५) ज्वरादि रोगवाला जे साधु ते ग्लान. तथा (६) धर्मथी गगनारने स्थिर करे ते स्थविर तथा ( 9 ) जे साधुनी पोताना सरखी समाचारी होय ते समनो. तथा (G) साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका ए चारेनो जे समुदाय ते संघ तथा (ए) बहु एक सरखा गोना, सजातिर्जना जे समूह ते कुल, चंद्रादि तथा (१०) एक आचार्यनी वाचना वाला साधुर्जना समूह ते गए, गछ, कौटिकादि. पूर्वोक्त आचार्यादि दशेने अन्न, पाणी, वस्त्र, पात्र, मकान, ( १ ) पीव, (२) फलके, ( ३ ) संस्तारंक प्रमुख धर्म साधनोथी जे साहाय्य करवुं, शुश्रूषा करवी, तथा जंगलमां रोग उत्पन्न थवायी औषध करवां, तथा नाना प्रकारना उपसर्गोथी पालना करवी तेनुं नाम वैय्यावृत्त बे. a हवे जे शीलवान् साधु नव वाडसहित शील पाले तेने नवविध ब्रह्मचर्यनीतिक बे. ते लखियें बियें. यतः ॥ वसहि कह निसि - बिंदिय, कुरूंतर पुबकी लिय पणीए ॥ अश्मायाहार विनू, सणा नव बंज गुत्तीर्थं ॥ १ ॥ अर्थः- १ ( वसहि ) वस्ति - जे ब्रह्मचारी साधु होंय ते स्त्री, पशु, पंकसंयुक्त जे वस्ति होय त्यां न रहे. तेमां प्रथम स्त्री, बे प्रकारनी बे, एक देवी, बीजी " मानुषी" मनुष्यणी; ते बनेना बेबे द बे, एक असल, बीजी तेनी मूर्त्ति के चित्रामनी मूर्त्ति. या बने प्रकारनी स्त्री न होय ते वस्तीमां रहे. तथा पशु जे तिर्यंचणी, गाय, कुतरी, पाडी, घोडी, बकरी, घेटी प्रमुख जे वस्तिमां नहि रहेती होय. त्यां रहे. तथा पंडक, नपुंसक, त्रीजा वेदवाला, अत्यंत मोहमय काम करनारा, स्त्री ने पुरुष बनेनी साथे विषय सेवनारा, जे वस्तिमां रेदेता होय त्यां ब्रह्मचारी न रहे. कारण के या त्रणे संयुक्त वस्तिमां रे तां थकां तेनी काम विकारनी चेष्टा देखवाथी, ब्रह्मचारीना मनमां विकार उत्पन्न वाथी ब्रह्मचर्यने बाधा थाय बे. जेम जंदर तेमज बिलाडी : एक जगामां रहे तो नंदरने सुख नहि, तेमज आत्रणे संयुक्त वस्तिमां : रेहेवाथी शीलवान्ने शियलमां उपद्रव थाय. श्रा प्रथम ब्रह्मचर्य सि. १ पाटला, २ पाटियुं. ३ संथाराआदि. " Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए४) जैनतत्त्वादर्श. (कह ) कथा. केवल स्त्रियोनेज, तथा एकली स्त्रीने धर्मदेशना वचनना प्रबंधरूप कथा न कहे, तथा स्त्रीनी कथा न करे ॥ यथा ॥ क टी सुरतोपचारचतुरा, लाटी विदग्धा प्रिया ॥ इत्यादि कथा न करे. कारण के था कथा राग उत्पन्न करवानो हेतु दे. तथा स्त्रीना, देश, जाति, कुल, वेष, जाषा, गति, विज्रम, इंगिते, हास्य, लीला, कटाक्ष, स्नेह, रति, कलह, शृंगार इत्यादि जे विषय रसनी पोषण करनारी कामिनीनी कथा ते कदी न करे, जो करे तो अवश्य मुनिनु मन पण विकार पामे. आ बीजी ब्रह्मचर्यनी गुप्ति. ३ (निसिङ ) श्रासन- स्त्रियोनी साथे एक श्रासनपर न बेसवू, तथा जे जगा अथवा आसनथी स्त्री उठी होय ते आसन अथवा स्थानमां बे घडी सुधी साधु न बेसे, कारण के ते जग्यामा तत्काल बेसवाथी स्त्रीनी स्मृति थाय , तेमज स्त्रीना बेसवाथी शय्या अथवा श्रासन, मेलथी मलिन थवाश्री स्त्रीना स्पर्शवाला श्रासनादिना स्पर्शथी विकार उत्पन्न थाय . आ त्रीजी ब्रह्मचर्यगुप्ति. ___(इंघिय ) इंजिय, अविवेकी लोकोने देखवा योग्य स्त्रियोनां अंगोपांग जे नाक, स्तन, जंघा प्रमुख तेउने ब्रह्मचारी साधु अपूर्व रसमां मन थश्ने, नेत्र फाडीने देखे नहि. कदाचित् दृष्टि पडी जाय तो पड़ी एवी चिंतवना पण न करे के वाह \ विशाल सुंदर लोचन डे ! वाह शुं नासिका सीधी ! तथा श्लवा योग्य बने स्तन ! जो स्त्रीनां पू. वोक्त अंगोपांगर्नु एकाय रसमां मग्न थचिंतवन करे तो अवश्य मोहाधीन थर मन विकार प्राप्त थाय, आ चोथी ब्रह्मचर्यगुप्ति. ___५ ( कुटुंतर ) कुम्यांतर. जे नीत, तट्टी के कनातने अंतरे स्त्री पुरुष मैथुन सेवन करतां होय, तेमज तेऊना शब्द संजलाता होय, त्यां ब्रह्मचारी साधु न रहे. आ पांचमी गुप्ति. (पुत्वकीलिय) पूर्वक्रीडा. पूर्व गृहस्थ अवस्थामा स्त्रीनी साथे जे विषय, जोग, क्रीडा, करी, होय, तेनुं स्मरण न करे. जो करे तो कामानि प्रज्वलितं थाय. आ ही गुप्ति. __ (पणीय) प्रणीत. अति चिकाशवाला, मीग दूध, दही, प्रमुख अति १ आंतर अने बाह्य-मानस तथा शारीर, हाव भावादि चेष्टित. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद. (एए) धातुपुष्ट करनार आहार निरंतर न करे. जो करे तो वीर्यनी वृद्धि - are वश्य वेदोदय याय, पढी जरूर विषयसेवन करे, कारण के जीर्ण कोrani विशेष रूपैया जरियें तो जरुर फाटी जाय. या सातमी गुप्ति. (मायाहार) अतिमात्राहार. ते रूक्ष, लुखी निक्षा पण प्रमाणची अधिक न खाय, कारण के अधिक खावाची पण विकार थइ जाय बे, तेमज शरीरने विषूचिकादि पीडा थवानुं कारण बे. या आठमी गुप्ति. (विनूसणा) विभूषणादि, शरीरनी विभूषा, ते स्नान, विलेपन, धूप, नख, दांत, केश, जेमनी सुंदरता वास्ते करवा, समारवा, तथा विभूषा वास्ते तिलक कर, सुरमो, काजल याखमां सारवा, तथा सुकोमल करवा सारु हाथ, पग, साबु तेल प्रमुखथी मसली गरमपाणीथी धोवां, इत्यादि शरीरनी विभूषा न करे. या नवमी ब्रह्मचर्यगुप्ति. श्री नव प्रकारनी गुप्ति ते ब्रह्मचर्यनी रक्षा माटे नव वाड बे. हवे ज्ञानादित्रण कहियें बियें. यथार्थ वस्तुनो जे यथार्थ बोध करे ते ज्ञान. ज्ञानावरणीय कर्मनो कय तथा क्षयोपशम थवाथी उत्पन्न थयो जे बोध, तेनां हेतु जे द्वादशांग, तेमज द्वादश उपांग, तथा प्रकीर्णक जे उत्तराध्ययनादि ते सर्व ज्ञान कहियें. तथा बीजुं दर्शन - १ जीव, २ अजीव, ३ पुण्य, ४ पाप, ५ श्रव, ६ संवर, 9 निर्जरा, बंध, एमोक्ष, या जीवादि नवतत्वनुं जे स्वरूप तेमां श्रद्धा ( रुचि) करवी. जेम के ए नवतत्त्व सत्य बे, मिथ्या नथी. एवी तत्त्वरुचि तेनुं नाम दर्शन तथा श्रीजुं सर्वपापना व्यापारोथी ज्ञान, श्रद्धानपूर्वक निवृत्त यतुं तेनुं नाम चारित्र बे. तेमां देशविरति चारित्र तो ज्यां गृहस्थाश्रम धर्मनुं स्वरूप लखशुं त्यांथी जाणवुं; ाने जे सर्वविरति चारित्र बे तेनुं स्वरूप तो श्रा गुरुतत्त्व वर्णनमां लख्या करियें बियें. वे बार प्रकारना तपनुं स्वरूप लखियें बियें. यतः ॥ सण मूणो यरिया, वित्तीसंखेवण रसच्चार्ज || काय कलेसो संली, याय बघो तवो होई ॥ १ ॥ पायवित्तं विष, वेयावच्चं तदेव सचाई ॥ जमणं उस्सग्गो बिय, अजिंतर तवो होइ ॥ २ ॥ श्रर्थः १ अनशन व्रत करवां २ कपोदरी - थोडं खावुं ३ वृत्तिसंक्षेप - अनेक प्रकारना निग्रह करवा ४ रसत्याग - दूध, दहीं, घी, तेल, गोल, मीगं पक्वान्न तेनो त्याग करवो. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योने पोतल अनेकतरेधी का कारें बाह्यतया (ए६) जैनतत्त्वादर्श. ५ कायक्लेश-वीरासन, दंगासन, प्रमुख अनेकतरेथी कायाने कष्ट श्रापq. ६ संलीनता-पांचे इंजियोने पोत पोताना विषयोथी रोकवी, आउ प्रकारें. बाह्यतप. १ प्रायश्चित्त-जे कांश अयोग्य काम कझुं होय ते गुरुनी पासे जे प्रमाणे कयुं होय ते प्रमाणे प्रगटपणे केहे; पड़ी ते पापनी निवृत्तिवास्ते गुरुपासे यथायोग्य दंम लेवो, अने नविष्यमां फरी ते पाप न करवू तेनुं नाम प्रायश्चित्त तप बे, २ विनय-पोतानाथी गुणाधिकनुं बहुमान करवू ते. ३ वैयावृत्त पोतानाथी गुणाधिकनी नक्ति करवी ते. ४ KATAR स्वाध्याय (१) पोते जणq बीजाउँने जणाव. (२) संशय उत्पन्न थयां थकां गुरुने पुब. (३) पोते अध्ययन करेधुं वारंवार स्मरणमां लावQ. (४) जे. कां अध्ययन कडं होय तेना तात्पर्यनुं एकाग्र चित्तथी चितवन कर, (५)धर्मकथा करवी ते संक्षेपमां-वांचना,पृछना, परावर्त्तना,अनुप्रेदा, धर्मकथा, ए पांच रूपें. ५ ध्यान, १ वार्तध्यान ५ रौअध्यान ३ धर्मध्यान ४ शुक्लध्यान.आ चारमा आर्त अने रौअध्यान तजवां अने धर्म अने शुक्लध्यान अंगीकार करवां. ६ व्युत्सर्ग सर्व उपाधिजनो त्याग करवो ते. श्रा प्रकारें आत्यंतर तप. सर्व मली बार प्रकारनां तप . - क्रोध, मान, माया, अने लोन. चारेनो निग्रह करवो. ए प्रमाणे पांच महाव्रत, दश श्रमणधर्म, सत्तर नेदें संयम, दशप्रकारे वैय्यावृत्त,नव ब्रह्मचर्यगुप्ति, त्रण शान, दर्शन, चारित्र, बार प्रकारे तप, क्रोधादि चार निग्रह, सर्वमती सित्तेर नेदचारित्रना . ते वास्ते तेने चरणसित्तरी कहेजे. हवे करणसित्तरीना नेद लखिये बियें. यतः ॥ पिंमविसोही समिई, जावण पडिमाय इंघियनिरोहो ॥ पडिलेहण गुत्तीर्ड, अजिग्गह चेव करणं तु ॥१॥ अर्थः पिंमविशुकि १ आहार, ५ उपाश्रय, ३ वस्त्र, ४ पात्र, या चार, वस्तुउँने साधु बेतालीश दूषणरहित लहे. तेनुं नाम पिंड विशुकि बे. बेंतालीश दोषतुं संपूर्ण स्वरूप जोवु होय तो पिंडनियुतिनामा ग्रंथ जसबाहुखामिकृत ने तेनी मलयगिरिसूरिकृत टीका सात हजार श्लोक प्रमाण ने ते, तथा पिंमविशुकि ग्रंथ जिनवलन सूरिकृत बेतेनी जिनपति सूरिकृत टीका नेते तथा प्रवचनसारोकार श्रीनेमिचंद्र सूरिकृतसूत्र तथा तेनी सिझसेनसुरिकृत टीका ते तथा श्रीहेमचंबसूरिकृत योगशास्त्र अवलोकन करवां. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिछेद. (ए) हवे पांच समितिनुं स्वरूप लखिये बिये. प्रथम र्यासमिति. चालवानुं नाम ा केहेवाय बे, अने सम्यक् आगमने अनुसार जे प्रवृत्ति, चेष्टा करवी ते समिति कहियें. त्रस स्थावरजीवोने अजयदान आपनार जे मुनि, ते,प्रयोजन निमित्तें चालवू पडे त्यारे केवीरीतें चाले? प्रथम तो प्रसिक रस्ते चाले, जे रस्तो सूर्यना किरणोथी तपेलो होय प्रांशुक-जीवरहित होय, तथा स्त्री, पुरुषना संघट्टरहित होय, ते रस्ते जीवोनी रक्षानिमित्तें अथवा पोताना शरीरनी रक्षानिमित्तें पगना अंगुगथी चार हाथ प्रमाण नूमिका आगल देखीने चाले. तेनुं नाम र्यासमिति . ते प्रमाणे साधु जो चाले, तेमज बीजं काम करे, ते काममां कदाचित् कोश् जीव मरी पण जाय तो पण साधुने पाप लागतुं नथी, कारण के तेनो उपयोग बहुज शुज जे. तथा जाषासमिति. पापसहित नाषा, तथा कगेरजाषा जेम के तुं धूर्त्त बे, कामी , राक्षस बे, एवा चार्वाकप्रमुख बोले तेवा शब्दो तथा निंदनीय शब्दो न बोले. परंतु बीजाने सुखदायक, बोलवामां अल्प, बहु प्रयोजनने साधनार, अने संदेहविनानां एवां वचन बोले ते जाषासमिति. तथा ३ बेंतालीश दूषणरहित आहारादि ग्रहण करे ते एषणासमिति. तथा ४ श्रासन, संस्तारक, पीठ, फलक, वस्त्र, पात्र, दंमादि आंखथी देखीने उपयोगपूर्वक लेवां, राखवां, करवां ते श्रादाननिक्षेप समिति. तथा ५ पुरीष, प्रस्त्रवण, थूक, श्लेष्म, शरीर मल, वस्त्र, अन्न, पाणी जे शरीरने उपयोगनां न होय ते सर्वने जीवरहित नूमिकामां स्थापन करे ते; पांचमी परिस्थापना समिति. श्रा पांच समिति कही. हवे बार नावना लखिये बियें. प्रथम अनित्य जोवना,बीजी श्रशरण नावना, त्रीजी संसार नावना, चोथी एकत्वजावना, पांचमी अन्यत्वनावना, बही अशुचितावना, सातमी आश्रवनावना, थाउमी संवरजावना, नवमी निर्जरानावना, दशमी लोकखनावजावना, अग्यारमी बोधिधुर्लन नावना, बारमी धर्मना कथन करनारा अरिहंत बे. श्रा बार जावना रात्रियें तथा दिवसें जेवी रीतें नाववा योग्य तेवी रीतें श्रन्यास करवो. श्रा बार नावनानुं कांश्क खरूप लखिये बियें. १ अनित्य नावना- जेनुं शरीर वजसमान, सुंदर तेमज कठण हतुं, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) जैनतत्त्वादर्श. ते पण अनित्यरूप राक्षसना जद थया, तो पड़ी केलना गर्न समान निःसार जे जीवोनां शरीर ते था अनित्यरूप राक्षसथी केवी रीतें बचशे ? वली लोको बिलाडीनी पेठे श्रानंदित थश्ने दूधनी पेठे विषय सुखनो खाद लहे, परंतु लाकडीना मारने देखता नथी; नावार्थ ए ले के, विषयनोगमा मग्न थ श्रानंद तो माने बे, परंतु जन्मांतरमां नरकपतनरूप संकटथी मरता नथी. वली जीवोनां शरीर पाणीना परपोटा समान, बे, तथा जीवित ध्वजासमान चंचल डे, लावण्य, स्त्री, परिवार, आंखनी पांपण जेम चंचल , युवावस्था हाथीना काननी पेठे चंचल बे, स्वामिपणुं खप्ननी श्रेणी समान , लक्ष्मी वीजली जेम चपल बे. एवीरीतें सर्व पदार्थोर्नु अनित्यपणुं विचारतां, प्यारा स्त्री पुत्रादि मरी जाय तो पण पोताना मनमा शोक न करे; अने जे मूर्ख जीव, सर्व नावने नित्य माने ते जीर्ण पांदडानी कुंपडीनो नाश थवाथी पण रात दिवस रुदन करे. ते कारणथी तृष्णानो नाश करी ममत्व रहित थ शुबुद्धिवाला जीव अनित्यनावना जावे. २ अशरणनावना- पिता, माता, पुत्र, जार्या प्रमुख विद्यमानबतां, अत्यंत आधि व्याधिना समूहरूप शृंखलामां बंधायेला रुदन करता जीवोने कर्मरूप योझा, यमराज (काल) ना मुखमां प्रदेप करतां थकां ( फेंकेडे त्यारे) बहुज कुःख थाय . जे लोक शरणरहित अनाथ , ते करशे ? तथा नाना प्रकारना शास्त्र विषयोने जाणनारा, तथा अनेक प्रकारना मंत्र, यंत्रोनी क्रिया जाणनारा, तथा ज्योतिष विद्याना जाणनारा, तथा अनेक प्रकारनी औषधि, रसायन प्रमुख वैद्यक शास्त्रनी तमाम क्रियामां कुशल, एवा विद्वानोनी कुशलता तथा क्रिया, कालनी सामे कांश्पण करवामां समर्थ थ नहि. तथा नाना प्रकारना शस्त्रोवाला शूरवीर योहानी सेनाथी परिवेष्टित, (चो तरफ वीटायेला) तथा नानाप्रकारना मदऊर हाथीउनी जेने वाड , एवा इंज, वासुदेव, चक्रवर्तिसमान बलवान् पण कालना घरमां खेंचाता चाव्या जाय . अत्यंत दिलगीरी के प्राणियोने कोनुं शरण नथी. तथा पृ. थ्वीनुं बत्र अने मेरुनो दंड करवाने समर्थ, तेमज जेने अल्पपण क्वेश न १ सांकल वा बेडी. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिबेद. (एए) होतो एवा अनंत बलवान् तीर्थंकरपण लोकोने कालथी बचाववाने समर्थ नथी तो पड़ी बीजो कोण समर्थ डे ? स्त्री, पुत्र मित्रादिना स्नेहरूप नूतने दूर करवा वास्ते शुभमति जीव श्रशरण जावना नावे. ३ संसारजावना कहिये बियें. बुद्धिमान् तेमज बुद्धिहीन, सुखी तेमज फुःखी, रूपवान् तेमज कुरूपवान्, खामी तेमज सेवक, वैरी, राजा . तेमज प्रजा इत्यादि देवतामनुष्य, तिर्यंच, नारकिना अनेक प्रकारना कर्मवशथी वेष धारण करीने श्रा संसाररूप अखाडामां था जीव नाटक करेजे. तथा महारंज, मांसजण, मदिरापानादि कारणोथी अनेक प्रकारनां पापनो बंध करीने, महाअंधकारवाली नरकनूमिकामां जश् पडे बे, त्यां अंगछेदन, अग्निप्रज्वलनादि क्वेशरूप महाकुःख जे जीवने थाय बे ते पुःखोजें खरूप केवली पण कथन करी शकता नश्री. श्रा नरकगति कही.तथा कपट,जुतुं बोलवू इत्यादि कारणोथी प्राणी तिर्यंचगतिमा सिंह, वाघ, हाथी, मृग, बेल, बकरी प्रमुखनां शरीर धारण करे. तथा ते गतिमां दुधा, तृषा, वध, बंधन, ताडन, तर्जन, रोग, हलवहन इत्यादि जे कुःख सदा ते जीवोने सहन करवां पडे ते केहेवाने कोण समर्थ डे ? था तिर्यंच गति कही. __ तथा खाद्य, अखाद्य, विवेकशून्यता, मनमां खजानो अनाव, मा, बेन, दीकरी गमन करवामां एक समानता,निःशंकता वहन डे ज्यां, एवा अनार्य मनुष्यमां, निरंतर जीवघात, मांसजक्षण, चोरी, परस्त्रीगमनादि अत्यंत कनिष्ठ पापकर्म महाकुःख उत्पन्न करनार ज्यां थया करे ,तथा थायदेशमां पण क्षत्रिय, ब्राह्मणादि, अज्ञान, दरिलता, कष्ट, दौाग्य पणुं रोगादिश्री पीडित , तथा पराधीनता, माननंग, सेवकनावप्रमुख मुःख, निरंतर जोगवां पडे ज्यां, तथा अग्निमां अत्यंत तपावेली - ज, जेम एक एक रोममा एक एक सूत्र को जुवान पुरुषने परोववामा आवे तेम ते सघली, समकाले चारे बाजुए परोववामां आवे तेथी जे मुःख उत्पन्न थाय तेनाथी भाव गणुं फुःख स्त्रीना गर्जमां ज्यारे उत्पन्न थाय डे त्यारे जोगवे , ते पुःखथी अनंतगणुं फुःख जन्मसमयें जोगवे , तथा बाल अवस्थामा मल, मूत्र, धूलमां बालोटवू. तथा मूर्खता १ भक्ष्य. २ अभक्ष्य. ३ निर्भयपणुं. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) जैनतत्त्वादर्श, प्रमुख तथा युवावस्थामां धन उपार्जन करवानुं जुःख, इष्ट वस्तुनो वियोग, अनिष्ट वस्तुनो संयोग इत्यादि, तथा वृद्धावस्थामा शरीर- कंपवू, नेत्रनुं बलहीनपणुं, तथा श्वास, खांसी प्रमुख अनेक व्याधियी महापु:खोजें उत्पन्न थर्बु इत्यादि ज्यां निरंतर डे त्यां एवी कश् दशा ले के प्राणी सुख प्राप्त करे ? श्रआ मनुष्यगति कही- तथा सम्यक् दर्शनादि पालवाथी जे जीव देवता थाय ने ते पण शोक, विषाद, मत्सर, नय, अल्प शद्धिथी इर्ष्या, काम, मद, लुधा प्रमुखथी पीडित थवाथी पोतानुं आयुष्य दीन मनवाला थश्ने पूर्ण करे . या देवगति कही. या प्रमाणे मोक्षानिलाषी जीव संसारजावना नावे. ४ एकत्वनावना कहियें लिये. जीव एकलोज उत्पन्न थाय , अने एकलोज मरण पामे बे; एकलोज कर्म करे , अने एकलोज तेनुं फल जोगवे जे. वली जीवें अत्यंत कष्ट जोगवी जे धन उपार्जन करेलुं ने ते धन तो स्त्री, मित्र,पुत्र,बंधु प्रमुख खा जशे, अने जे पाप कर्म ते धन उपार्जन करवामां बांध्यां ने तेनुं फल तो तेने एकलानेज नरक, तिर्यंच गतिमा जश्ने जोगव, पडे था केआश्चर्य ले ? तथा श्रा जीव, श्रा देहने वास्ते, रात दिन अटन करे , दीनपणुं धारण करे , धर्मथीनष्ट थाय डे, पोताना हितमां उगाय , न्यायथी दूर रहे इत्यादि अनेक कृत्य करे , परंतु था देह, श्रात्मानी साथे परजवमा एक पगला जेटली जगा सूधी पण ते साथे श्रावशे नहि. हवे विचार करो के था देह करशे ? शुं मदद आपशे ? वली सगां वाहालां सर्व पोत पोताना खार्थमा तत्पर डे, वास्तवमां को तारुं नथी, ते वास्ते हे बुद्धिमन् ! तुं पोताना हितने माटे धर्म करवामांप्रयत्न कस्य, श्रा प्रमाणे एकत्व नावना जावे. ___५ अन्यत्वनावना कहियें लिये. था संसारमा तुं कोनो नथी अने को तारुं नथी. माता, पिता, स्त्री, पुत्र, नाश् प्रमुख सगां तथा संबंधियो. ज्यां सुधी ताराथी तेऊनी कार्यसिफि थाय ने त्यां सुधी तुं तेऊना प्राण समान वाहालो ने तेम ते मानशे परंतु स्वार्थ सिकिमां नंग थये जाणे एक बीजाने लेशमात्र संबंध नथी एम शासन थतां वेर जाव पण उत्पन्न थशे. वली था देहने बोडी जीव परलोकमां जाय तेथी श्रा शरीरथी जीव जिन्न ने तेम उतां अनेक प्रकारनां खान, पान, जोग, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिवेद. (१०१) उपनोग, सुगंध, लेपनप्रमुखथी शरीरनी पुष्टि श्ववी ते पण व्यर्थ डे. कदाचित् था शरीरने कोश् लाकडी प्रमुखथी मार मारे तो पण समता राखी सहन कर, जोश्ये. जे पुरुष अन्यत्वनावना जावे तेने शरीर, धन, पुत्रादिना वियोगथी दुःख शोक थतां नश्री. आ पांचमी अन्यत्व नावना कही. ६ श्रशुचि जावना कहिये डिये. जेम लूणनी खाणमा जे पदार्थ पडे बे ते खूण थर जायजे, तेम ा कायामां जे आहारप्रमुख पडेले ते मलरूप थर जाय , एवी श्रा काया अपवित्र , तथा रुधिर अने शुक्र (वीर्य) बनेना मेलापथी श्रा काया (गर्न) उत्पन्न थाय ने, जरा (र) विंटाएली होय , माता जे आहारप्रमुख ग्रहण करे तेना रसथीज था गर्न वृद्धि पामे , एवा था देहने कोण बुद्धिमान् पवित्र मानेडे ? तथा मिष्ट स्वाद, अने सुगंधमय मोदक, उध, दहिं प्रमुख षरस, श्तुरस, कमोद प्रमुख धान्य, घेबर प्रमुख मिष्टान्न, तथा श्रान प्रमुख फल जे खावामां आवे जे ते तत्काल मलरूप थर जाय , एवी था अशुचि कायाने, महामोहांध पुरुष पवित्र माने. तथा पाणीना सो घडाथी स्नान करीने तथा सुगंधमय पुष्प, कस्तूरि प्रमुख अव्यो लगावीने, उपरनी चामडी तो केटलो एक वखत मुग्ध जीव शुचि सुगंधमय करे बे, परंतु मध्य नागमा रहेलो विष्ठानो कोठो केम पवित्र करी शके तेम डे ? तथा अत्यंत श्रानंदनी वृद्धि करनारां अव्योथी मघमघायमान थक्ष रदेली दिशा, तथा चंदन, कस्तूरि, कपूर, अगर, कुंकुम प्रमुख वस्तु पण श्रा शरीरनो तेमनी साथे संबंध थाय बे, त्यारे अल्पकालमां उर्गंधरूप थर जाय , तो पठी विचारो के श्रा कायाने कोण बुद्धिमान् पवित्र माने ? ए प्रमाणेनी अशुचिरूपता था शरीरनी विचारीने बुद्धिमान् पुरुष था शरीरनी ममता न करे. आ बी अशुचिनावना कही. श्राश्रवनावना कहियें लिये. मन, वचन, श्रने कायाना योगथी झुंजा शुजकर्म जे जीव ग्रहण करे बे, तेनुं नाम श्राश्रव, जिनेश्वर नगवान् कहे . सर्व जीवो विषे मैत्री नावना, गुणाधिक जीवोमा प्रमोदनावना, अविनीत शिष्यादिमां मध्यस्थ जावना, श्रने कुःखी जीवोमां करुणाजा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) जैनतत्त्वादर्श. तृषादि परीसहोनो संचव थये थके कायोत्सर्ग प्रमुख करीने कायाने निश्चल करवी, तथा अयोगी अवस्थामां सर्वथा कायानी चेष्टानो जे निरोध करवो, ते प्रथम कायगुप्ति. तथा गुरुश्री प्रबन्नशरीर संस्तारक, नू म्यादि प्रतिलेखन, प्रमार्जनादि, जेम शास्त्रमा कहेल , तेवी रीतें कियाकलापपूर्वक शयनादि साधुयें करवां, शयनासन लेवा, राखवा, श्रा सर्व कृत्योमा खबंद चेष्टानो त्याग करवो, मर्यादासहित कायानी चेष्टा करवी, ते बीजी कायगुप्ति. हवे अनिग्रह, प्रतिज्ञा लखिये बियें. ते अनिग्रह अव्य, देत्र, काल तथा नावथी चार प्रकारें बे. तेनो विस्तार प्रवचनसारोकारवृत्तिमा बे. आहारप्रमुखनां बेंतालीश दूषण, शास्त्रमा बतावेल बे, तोपण पिंक, शय्या, वस्त्र, पात्र, आ चारज वस्तु सदोष न ग्रहण करवी तेथी ते चार दूषण, तथा पांच समिति, बार जावना, बार प्रतिमा, पांच इंखियनिरोध, पचीश प्रतिलेखना, त्रण गुप्ति, चार अनिग्रह ए सर्व मती सित्चेर करणसित्तरीना नेद कहे .. प्रश्नः- चरणसित्तरी तेमज करणसित्तरी आ बनेमां शुं विशेष ? उत्तरः-जे नित्य करवू ते चरण, अने प्रयोजन थयां थकां करीले, अने प्रयोजन न होय त्यारे न करवू ते करण, आ तेर्डमां नेद . ए प्र. माणे चरणसित्तरी तथा करणसित्तरीना नेद समाप्त थया.. इत्यादि जैनमतना गुरुतत्वनुं स्वरूप लखवामां लाखो श्लोक लखाई जाय तो पण संपूर्ण तेनुं खरूप जाणी शकाय नहि, ते वास्ते संक्षेपमांज खरूप बताव्यु . जो विशेष जाणवानी श्वा होय तो, श्री उघनियुक्ति, श्री आचारांग, दशवैकालिक, बृहत्कल्पनाष्यवृत्ति, पंचकल्प चूर्णी, जितकल्पवृत्ति, महाकल्पसूत्र, कल्पसूत्र, निशीथ नाष्यचूर्णी, महानिशीथसूत्र, ईत्यादि पदविनाग समाचारीनां शास्त्र जो लेवां. प्रश्नः- जैनमतना शास्त्रोमां गुरुनु स्वरूप जे लखेल बे, तेवी वृत्तिवाला जैनना कोपण साधु देखवामां आवता नथी, तो पड़ी जैनमतना साधु ने था कालमां गुरु केम मानवा जोश्य ? उत्तरः-श्रा कोई गीतार्थनो परिचय कस्यो लागतो नथी, तेमज जैन मतना चरणकरणानुयोगना शास्त्रनुं अध्ययन पण कयुं होय तेम ला Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिवेद. (१०ए) गतुं नथी, अथवा तो कोश् गीतार्थ गुरुना मुखारविंदश्री वचनामृतनुं पान पण कलुं लागतुं नथी, जो आपें पूर्वोक्त कांपण कडे होत तो आपने ते बाबतनो संशय कदापि न उत्पन्न थयो होत. जैनमतमा ब प्रकारना निग्रंथ कहेला बे. श्रा कालमा जैनमतना जे साधु ने ते पूर्वोक्त ब प्रकारमध्येथी बे प्रकारना बे, कारण के श्री जगवतीसूत्रना पचीशमा शतकना बा उद्देशामां लख्यु बे के पांचमा कालमां बे प्रकारना नियंथ होशे, तेर्जनाथी तीर्थ प्रवर्तशे. कषायकुशील निग्रंथ तो कोईमां परिणाम अपेक्षा होशे, मुख्य तो बेज रहेशे. वली जैनशास्त्रमा जे गुरुनी वृत्ति लखी , ते प्रायः उत्सर्गमार्गनी अपेदा बे, अने आकासमां तो प्रायः अपवाद मार्गनी प्रवृत्ति बे, तेथी उत्सर्गवृत्तिवाला मुनि था कालमां केवी रीतें होय ? कोश्पण रीतें होई शकेज नहि, कारण के, नथी तेवु वज्रषजनाराच संहनन,के नथी तेवु मनोबल; नश्री तेवी जीवोनी श्रद्धा, के नथी तेवो देशकाल, के नथी धैर्य, तो हवे आ कालमां तेवी उत्सर्गवृत्ति जीव केम करी शके ? प्रश्न:- जो तेवी वृत्ति था कालमां नथी तो तेने साधुपण केम केहेवा जोयें ? उत्तरः-श्रा श्रापर्नु कहेवु बहुज बेसमजनुं बे. कारण के व्यवहार सूत्रनाष्यमां लख्यु डे केः-गाथा पोरकरिणी आयारे, आणयण ते गाय गीय ॥ आयरिय जएए, आहरण हुंति नायवा ॥१॥ सब परिणा बकाय, अहिगमो पिंड उत्तरिद्याए ॥ रूखे वसहे जूहे, जोहे सोहीय पुस्करिणी ॥२॥" दारगाहादो" था बंने छारगाथार्नु व्याख्यान नाज्यकारें पंदर नाष्यगाथाथी करेल . जो नाष्यगाथा जोवानी श्छा हो. यतो व्यवहारलाष्यमां जो देवी, अहियां तो ते पंदर गाथानो अर्थ नाषा (नाषांतर) मां लखिये बियें. पूर्वकालमां जेवी सुगंधमय फूलोवाली पुष्करिणी चावडीयो हती, तेवा फ्लोवाली हाल नथी, परंतु पुष्करिणी वावडीयो तोडे,लोको आ सामान्य वावडीयोथी पोतानुं काम करे ॥१॥ तथा संपूर्ण श्राचारप्रकल्प नवमा पूर्वमा हतुं, आ नवमा पूर्वमांथी उझार करीने पूज्यपाद वैशाखगणियें निशीथसूत्र रच्यु तो शुं श्रा निशीथने आचारप्रकल्प, न केहेबु जोश्य ?॥२॥ पूर्वकालमा तालोद्घा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) जैनतत्त्वादर्श. टिनी अवखापिनीश्रादि विद्यानाधारक चोर हता, अनाथ कालमा तेवी विद्या तो नथी तो शु चोरी करनारने हाल चोर न केहेवा जोश्य ? ॥३॥ पूर्वकालमां चौदे पूर्वना पठन करनारने गीतार्थ केहेता हता, तो श्रा कालमा जघन्य श्राचारप्रकल्प निशीथ, अने मध्यम आचारप्रकल्प बृ. हत्कल्पनां अध्ययन करनारने शुं गीतार्थ न केहेवा जोश्य ? ॥४॥ पूर्वकालमां श्रीथाचारांगनुं शस्त्रप्रज्ञा अध्ययन जणवाथी, बेदोपस्थापनीय चारित्रमा स्थापन करता हता, तो शुं हाल दशवैका विकनुं ब जीवनीय अध्ययन जणवाथी स्थापन न करवा जोश्य ? ॥५॥ बीजा ब्रह्मचर्यना पांचमाउद्देशामां जे आमगंधी सूत्र ने ते सूत्रने अनुसार पूर्व मुनि श्राहारग्रहण करता हता, तो शुं हाल पिंषणा अध्ययन अनुसारे न ग्रहण करी शके ? ॥६॥ पूर्व प्राचारांग पली उत्तराध्ययन जणता हता तो शु हाल दशवैकालिक पड़ी न अध्ययन करी शके ? ॥७॥ पूर्व मत्तांगादि दशप्रकारना वृक्ष हता, तो शुं हाल आंबादि वृद न केदेवा जोश्य ? ॥ ॥ पूर्वे बहु गायोना समूहवाला नवगोपने गोवाल केहेता हता, तो शुं हाल थोडी गायोवालाने गोवाल न केहेवा जोश्य ? ॥ए॥ पूर्वे सहस्रमक्ष योछा हता, तो शुं हाल कोश्ने योको न केहेवो जोश्यें ? ॥ १०॥ पूर्वे बमासी तपनुं प्रायश्चित्त हतुं तो तेने बदले हाल नीवी प्रमुखनुं प्रायश्चित्त न बेद् जोश्य ? ॥ ११ ॥ एवी रीतें जो पूर्वकालना मुनियोनी वृत्ति हाल नथी तो अ॒ तेने श्राचार्य श्रथवा साधु न केहेवा जोश्य ? परंतु जरुर साधु मानवा जोश्य. तथा जीवानुशासन सूत्रनी वृत्तिमां पण लख्यु डे के पांचमा कालमां साधु पूर्वोक्त प्रकारना होय तो पण ते ने संयमी केहेवा जोश्ये. तथा निशीथमां पण लख्युं २ ॥ नाष्यगाथा ॥ जासंजमया जीवे, सुतावमूले गुणुत्तर गुणाय ॥ इत्तरियजेय संजम, नियंठव सा पडिसेवी ॥१॥श्रा गाथानी चूर्णीनो अर्थः- बकायना जीवो विषे ज्यां सुधी दयाना परिणाम हशे, त्यां सुधी बकुश निग्रंथ तेमज प्रतिसेवना निर्यथ रहेशे, ते कारपथी प्रवचनशून्य तेमज चारित्ररहित, पंचमकाल कदापि नहि होय ? वली मूलउत्तर गुणोमा दूषण लागवाथी चारित्र तत्काल नष्ट पण थतुं नथी. मूलगुणजंगमां बे दृष्टांत डे, उत्तरगुणजंगमां मंपर्नु दृष्टांत डे. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद. (222) निश्चयनयची, एक व्रतनो जंग थयो तो, सर्वव्रतनो जंग थाय बे, परंतु व्यवहारनयना मतथी तो जे व्रतनो जंग थयो होय, तेनोज जंग गपाय, बीजानो नहि; ते कारणची बहु अतिचार. लागवाथी संयम जतुं नथी; परंतु जो कुशील सेवे, तेमज धन राखे, छाने काचुं सचित्त पाणी प्रवचन अनपेक्ष पीये, ते साधु नहि; ज्यां सुधी बेक प्रायश्चित्त लागे त्यां सुधी संयम सर्वथा जतो नथी. वली या कालमां साधु नथी एम जेमाने बे ते मिथ्यादृष्टि डे, कारण के स्थानांग सूत्रमां लख्युं बे के बहु अतिचार लागता देखीने, तेमज आलोचना, प्रायश्चित्त कोइने ग्रंथार्थ लेता देता नहि देखवाथी, कोइ एम कहे बे. हाल कोई साधु नथी ते चारित्रनेदिनी विकथाना करनार बे तथा श्री जगवती सूत्रना पचीशमा शतकंना बघा उद्देशाना संग्रहणी कार श्रीमान् अजय देवसूरि, या बने निर्ग्रथोनुं जे स्वरूप डे ते लखे. ॥ गाथा ॥ बसं सव कवर; मेगवंत मिह जस्स चारितं ॥ अश्यारपंकजावा, सोबनसो होइ निग्गंथो ॥ १ ॥ व्याख्या ॥ बकुश, शबल, कर्बुर, श्रात्रणे एकार्थवाची बे, अतिचाररूप पंक लागवाथी एवं जेनुं चारित्र बे ते बकुशनामा निर्बंध a. मारतवर्षमा कालमां बकुश श्रने कुशील, ए बे निर्ग्रथडे, बाकी ना नो विछेद येल बे ॥ तथा चोक्तं परममुनिभिः ॥ बकुश कुशीला दोपुण, जातिवं तावदो ति इति ॥ श्रर्थः - बकुश, कुशील ए बे प्रकारना निथ ज्यां सुधी तीर्थ रहेशे त्यां सुधी रहेशे. कुश निर्बंधना बे नेद बे, ते कहियें बियें. वस्त्र पात्रादि उपकरणनी जे विभूषा करे ते उपकरणबकुश, तथा हाथ पग नख मुखादि देहना अवयवोनी जे विभूषा करे ते शरीरवकुश श्रा बे जेदना वली पांच द बे. ॥ गाथा ॥ जवगरण सरीरेसु, सोडुद्दा विहो वि होइ पंचविहो ॥ अजोग अणाजोग, असंवुड संबुडे सुदुमे ॥१॥ अर्थः- प्रथमना बे पदोनो अर्थ उपर लखेलो ने पाबलना बे पदोनो अर्थ लखिये बियें. साधुने श्र करवा योग्य नथी, एम जाणतां बतां पण जे ते कामने करे ते योग बकुश, अने जे अजाणपणाथी करे ते अनाजोगबकुश मूल तथा उतर गुणमा जे गुप्तपणे बाना दोष लगावे ते संवृत बकुश, तथा मूल उ- ' १ एक अर्थना कहेनार. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) जैनतत्त्वादर्श. तर गुणोमां जे प्रगट दूषण लगावे ते असंवृत बकुश. नेत्र, नासिका, मुखादिना जे मल दूर करे ते सूक्ष्म बकुश. ए पांच भेद कह्या. दवे उपकरणकुशनुं स्वरूप लखिये बियें || गाथा ॥ जो उपगरणे बउसो, सो धुवा पाउसे विवहई || ईई लहयाई, किंचिविनूसाई मुंजईय ॥ १ ॥ व्याख्या:- उपकरणबकुश वर्षातु विना पण जलदा - रथी वस्त्र धोवे बे, वर्षातुमां तो सर्व गछवासी साधुर्जने श्राज्ञा बे; वर्षातु पेहेलां जो एकवार पोतानां सर्व उपकरण जलदारथी धोई लहे नहि तो वर्षातुमां मलना संसर्गंधी निगोदादि जीवोनी उत्पति थई जाय. वली बकुश निर्यय वर्षास्तु विना अन्यस्तु मां पण जलक्षारथी वस्त्रादि धोई लहे बे, तेमज सुंदर, सुकुमाल वस्त्रनी पण वांढा राखेबे, तेमज उपकरण विभूषा अर्थात् शोजाने वास्ते पण कांइक पेढेरे. ॥ गाथा ॥ तपत्त दंडयाइ, घमवं सिणेह कय तेय ॥ धारेश् विनूसा ए, बहुंच बच्चेई वगरणं ॥ १ ॥ व्याख्या ॥ पात्र, दंगप्रमुख बहुज घसीने सुकमाल करे, तथा घी, तेल प्रमुख चोपडीने तेजवंत चमकदार करी राखे, तेमज विभूषामाटे बहुज उपकरण राखवाने चाहे अर्थात् राखे. हवे शरीर बकुशनुं स्वरूप लखियें बियें || गाथा || देह बसो क घे, करचरण नहाश्यं विनू से || डुविदोवि इमोडि, इ परिवार पनिय ॥ १ ॥ व्याख्या ॥ शरीरबकुश कारण विना पण हाथ, पग, नखादिनी विभूषा करे, जलादिथी धोवे. ए प्रमाणे उपकरण तेमज शरीर बकुश निर्बंध परिवारप्रमुखनी रुद्धि वांबेबे ॥ गाथा ॥ पंडिच्च तवा इ कथं, जसच इवे तंमि तुस्सश्य ॥ सुहसीलो नयवाढं, जयइ श्रहोरत कि रियासु ॥ १ ॥ व्याख्या:- पंडितपणाथी तथा तपादिथी यशनी इछा करे ते यशनो लाज थवाथी अत्यंत खुशी थाय, तेमज सुखशी लियो याय, तेमज दिनरातनी समाचारी, क्रियामां बहुउद्यमी पण न होय ॥ गाथा ॥ परिवारोय संजम, विवित्तो होइ किंचि एयस्स । घंसीय पाउ तिल्लाई, मासणि कित्तरिय केसो ॥ १ ॥ व्याख्या:- तेनो जे परिवार होय ते संयमी होय, वस्त्रपात्रादि मोहथी दूर करे नहि, हाथ, पग तेल साबु विगेरेथी चोपडी सुकोमल राखे, तेमज दाढी, मूल छाने मस्तकना वाल कातरथी कापे अर्थात् लोचने बदले या थवा कातरथी Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारबद. तृतीय परिवेद. (११३) वाल दूर करे, परंतु लोच करे नहि. ॥गाथा ॥ तह देसवब्यारि, देहिं सबसेहिं संजुङ बउसो ॥ मोह कयचमनु, हिय सुत्तमि जणियं च ॥ १॥ व्याख्याः -तथा देशलेद, सर्ववेद योग्य दोषोथी जेनुं चारित्र कर्बुर बे, परंतु जेना मनमां मोहदय करवानी छाडे, अर्थात् मनमां संयम पालवानो उत्साह बे, परंतु संपूर्ण संयम पाली शकता नथी. था पूर्वोक्त कृत्योथी संयुक्त होय तेने बकुश निर्यथ कहिये. वली सूत्रमा जे कहे जे ते हवे लखिये बियें ॥ गाथा ॥ उवगरण देह चुका, रिकि रस गारवासिया निच्चं ॥ बहु सबल बेय जुत्ता, निग्गंथा बजसा जणिया ॥१॥ आजोगो जाणंतो, करे दोसं अयाणमण नोगे ॥ मूलुत्तरे हि संवुड, विवरिय असंवुडो होश ॥२॥ अलि मुह मजमाणो, होइ अहा सुहमउँ तहा बउसो ॥ सीलं चरणं जंजस्स, कुड़ियं सो श्ह कुसीलो ॥३॥ पडिसेवणा कसाए, उहा कुसीलो उहावि पंचविहो ॥ नाणे दंसण चरणे, तवेय अह सुहुमए चेव ॥४॥हनाणा कुसीलो उवजीवं होश नाण पनिईए ॥ अह सुहुमो पुणतुस्सर, एस तव सत्ति संसए ॥५॥ व्याख्या-उपकरण, देह शुभ राखे, रस, शकि अने शाता, श्रा त्रणे गारवमां नित्य मन्न रहे, उपकरणोथी श्रविविक्त रहे परिवार जेनो बेद योग्य, सबल चारित्रसंयुक्त होय, ते निग्रंथ बकुश कहेवाय ने ॥१॥ साधुउने श्रा करवा योग्य नथी एम जाणतां बता पण जे ते काम करे तेने आजोगबकुश कहियें, अने जे अजाणपणाथी अकृत्य करे तेने अनाजोगबकुश कहियें, मूल उत्तर गुणोथी संयुक्त बे, लोक एम जाणे पण डे, परंतु गुप्त दोष लगावे तेने संवृतबकुश कहियें, अने जे प्रगटपणे मूल उत्तर गुणमां दोष लगावे तनेअसंवृतबकुश कहियें ॥२॥ तथा जे आंख, मुख प्रमुख मांजे, मलादि दूर करे, तेने यथासूक्ष्म बकुश कहिये. श्रा बकुशना पांच नेद कह्या. हवे कुशील निर्यथर्नु खरूप लखियें लिये, शील अर्थात् चारित्र, ते चारित्र जेनुं कुत्सित होय ते कुशील नियंथ, तेना बे नेद २ ॥३॥प्रति सेवनाकुशील तथा कषायकुशील, संज्वलन कषायोथी कुशील होय ते कषायकुशील. ा बनेना वली पांच नेद ते कहिये बियें. १ ज्ञान १५ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) जैनतत्त्वादर्श. २ दर्शन ३ चारित्र ४ तप ५ यथा सूक्ष्मतः ॥४॥ जे ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप, या चारे आजीविकाने वास्तें करे ते ज्ञानादिकुशील याने चारे प्र तिसेवनाकुशील, तथा था तपस्वी बे इत्यादि पोतानी प्रशंसा श्रवण करी खुशी थाय ते पांचमा यथासूक्ष्म प्रतिसेवनाकुशील जाणवा. तथा जे ज्ञान, दर्शन, तप प्रमुखनो संज्वलन कषायना उदयश्री व्यापार करे, ते ज्ञान, दर्शन, चारित्रना कषाय कुशील जावा. जे कषायकुशील बे ते कषायने वश थईने शाप दीएडे. मनथी जे क्रोध प्रमुखनुं सेवन करे ते यथा सूक्ष्मकषायकुशील, अथवा कषायथी जे ज्ञान प्रमुखनी विराधना करे ते ज्ञानादि कुशील जाणवा. कोइ आचार्य, तप कुशीलना स्था मां लिंगकुशील कहे बे. या बे प्रकारना निर्बंथ पांचमा श्रारा पर्यंत रहेशे. जे कोई या तरेहना साधुने साधु अथवा गुरु न माने ते जीव मिथ्यादृष्टि, बहुल संसारी, जिनमतना उत्थापक बे. एवा मिथ्याहटिनी संगत पण करवी योग्य नथी. इतिश्री तपागष्ठीयमुनिश्री बुद्धि विजय शिष्यमुन्यानंद विजयात्माराम विरचित जैन तत्त्वादर्शनाषांतरे गुरुतत्त्व निर्णयनामा तृतीयः परिच्छेदः संपूर्णः ॥ ॥ श्रथ चतुर्थपरिछेदप्रारंभः ॥ या चोथा परिछेदमां कुगुरु तत्वनुं स्वरूप लखिये बियें. ॥ श्लोक ॥ सर्वा जिला षिणः सर्व, जोजिनः सपरिग्रहाः ॥ ब्रह्मचारिणो मिथ्यो, पदेशागुरवोमताः ॥ १ ॥ अर्थः- स्त्री, धन, धान्य, सुवर्ण, रुपाच्यादि सर्व धातु, तथा क्षेत्र, घर, हाट, हवेली प्रमुख सर्व स्थावर मिलकत तथा चतुष्पदादि अनेकप्रकारनां पशु, या सर्वनी अभिलाषा करवानो जेनो aara a ते सर्वा जिलाषी, तथा सर्व मद्यमांसादि बावीश अजक्ष्य, तथा बत्री अनंतकाय, तथा अन्य अनुचित श्राहारादि, या सर्वनुं जोजन करवानो जेनो खनाव बे ते सर्वजोजिनः, तथा पुत्र, कलत्र, पुत्री प्रमुख सहवर्तमान प्रवर्त्ते ते सपरिग्रही, अने तेज कारणची ब्रह्मचारी, जे ब्रह्मचारी, होय बे ते महादोषवान् होय बे तेथी ब्रह्मचारी एवो श्री श्लोकमां जूदो उपन्यास करेलो बे. वली गुरुपषानुं असाधारण Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिजेद. (१२५) कारण कहिये बियें, मिथ्योपदेशाः, मिथ्या (वितथ) आतना उपदेश विनानो धर्मनो उपदेश दे जेनो ते अगुरु बे. अहिंयां कोई एवी शंका करे के धर्मना उपदेशदाता गुरु बे, बतां पण निःपरिग्रहादि गुणोनुं ते उपदेशदातामां शामाटे अस्तित्व होवू जोश्यें ? ते शंका दूर करवाना हेतुथी विशेष लखिये बियें. ॥श्लोक ॥ परिग्रहारंजमन्ना, स्तारयेयुः कथं परान् ॥ स्वयं दरिलो नपर, मीश्वरीकर्तुमीश्वरः॥२॥ अर्थः-परिग्रह- स्त्री प्रमुख अने श्रारंज- जीवहिंसा अर्थात् सर्वानिलाषी तथा सर्वजोजी आ बने विषयोमां जे मन , अर्थात् आ बंने विषयरूप जवसमुखमा जे डुबेला बे, ते बीजा जीवोने केवीरीतें संसार सागरमांथी तारी शके तेम डे ? दृष्टांत के जे पुरुष पोतेज दरिज डे ते बीजाने धनवान् केवी रीतें करी शके तेम ? हवे प्रथम श्लोकना चोथा पदमा " मिथ्योपदेशागुरवोमताः" जे ले ते पदनो अर्थ विस्तारथी लखिये लियें. कुगुरुनो उपदेश श्रा प्रमाणे मिथ्या .. आ मिथ्या उपदेशना स्वरूपमा प्रथम त्रणसे त्रेसठ मतनुं स्वरूप लखियें लियें. एकसो एंशी मत क्रियावादिना . तथा चोराशी मत अक्रियावादिना , तथा सडसठ मत अज्ञानवादिना , अने बत्रीश मत विनयवादिना , ए रीतें त्रणसे त्रेसठ मत थाय . प्रथम क्रियावादिना मतनुं खरूप कहियें लियें. क्रियावादी कदेने के कर्त्ताविना पुण्यबंधादिलक्षणरूप क्रिया थती नथी तेथी क्रिया, श्रास्मानीसाथे समवायसंबंधवाली . ए प्रमाणे तेमनो मत २. क्रियावादी थात्मा प्रमुख नव पदार्थोंने एकांत अस्ति स्वरूपपणे माने , आ क्रिया वादिना एकसो एंशीमत, नीचेमुजब जाणी लेवा. १ जीव,श्यजीव,३श्राश्रव, ४ बंध, ५ संवर,'६ निर्जरा ७ पुण्य, अपुण्य, ए मोदा, आ नव पदार्थ अनुक्रमें पत्रादिपर लखवा; पनी जीव पदार्थना नीचे खतः तेमज परतःथाबे नेद स्थापन करवा. या खतः परतः नीचे वाली जुदा जुदा नित्य तेमज अनित्य एवा बे नेद स्थापन करवा; पळी नित्य, अनित्य था बंनेनी नीचे जुदा जुदा काल, ईश्वर, ३ श्रात्मा, ४ नियति ५ खजाव, श्रा पांच स्थापन करवा,त्यारबाद विकल्प करीलेवा, ते नीचे मुजब-यंत्रस्थापना. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) जैनतत्त्वादर्श. जीव. नित्य. नित्य. परतः अनित्य. अनित्य १ काल. १ काल. १ काल. १ काल. २ ईश्वर. २ ईश्वर. २ ईश्वर. २ ईश्वर. ३ श्रात्मा. ३ आत्मा . ३ आत्मा . ३ आत्मा. ४ नियति. ४ नियति. ४ नियति. | ४ नियति. ५ स्वजाव. | ५ स्वनाव. । ५ स्वनाव. | ५ स्वनाव, विकल्प करवानी रीत कहिये बियें. अस्ति जीवः खतोनित्यः कालत इत्येकोविकल्पः॥१॥ अर्थः-श्रा आत्मा निश्चयें खखरूपश्री कालथी उत्पन्न थयेल . कालवादिना मतनो आ विकल्प. कालवादी, कालथीज जगतनी उत्पत्ति, स्थिति, तेमज लय माने .वली कालवादी कहे डे के चंपक, अशोक, सहकार, निंब, जंबु, कदंबादि जे वनस्पति बे, तेउनी उपर फुलोर्नु लागवू, फलप्रमुखनुं बंधावं ते कालविना यश् शकतुं नथी, तथा हिमकणसंयुक्त शीतनुं पडवू, तथा नक्षत्रगर्जनुं धारण, वरसादनुं वरस, इत्यादि काल विना होतुं नथी, वती बझतुोना विजाग, तथा बाल, कुमार, यौवन, वृछादिअवस्था, तेपण काल विना थक्ष शकती नथी, जे जे प्रतिनियत काल विजागादि बे, ते सर्वनो कालज नियंता ने, जो कालने नियंता न मानियें तो कोश्वस्तुनी व्यवस्था थशे नहि कारण के जेम को पुरुष मग रांधे , ते मगपण काल विना रंधा जाता नथी, नहि तो हांमली तथा इंधन प्रमुख सामग्रीना संयोगथी प्रथम समयमांज मग केम न रंधा जाय ? ते कारणथी जे कर्ता डे ते कालज . तथा चोक्तं ॥ न कालव्यतिरेकेण. गर्नबालशुनादिकं ॥ यत् किंचिजायते लोके, तदसौ कारणं किल ॥१॥ किंचित् कालादृते नैव, मुजपक्तिरपीदयते ॥ स्थास्यादिसन्निधानेऽपि, ततः कालादसौ मतः ॥२॥ कालाजावे च गर्नादि, सर्वं स्यादव्यवस्थया ॥ परेष्टहेतु सदनाव, मात्रादेव तनवात् ॥३॥ आ श्लोकोनो नावार्थ उपर लखेलो . तथा ॥ कालः पचति नूतानि, कालः संहरते प्रजाः॥ काल: सुतेषु जागर्ति, कालोहि दुरतिक्रमः ॥ ४॥ अहियां पर इष्ट हेतुना स Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिबेद. (११७) नाव मात्रादिश्री बीजाश्रोए जे एम मानेल ले के स्त्री पुरुषना संयोग मात्र हेतुथी गर्जनी उत्पत्ति थायडे तो एक वर्ष वयना स्त्री पुरुषना संयोगथी केम गर्जनी उत्पत्ति थती नथी ते कारणथी कालज गर्जनी उत्पत्तिनो हेतु बे. तेमज स्त्रीने गर्न उत्पन्न थवामां तुकाल होवो जोश्ये, ते विना स्त्री पुरुषना संयोगथी गर्न केम उत्पन्न थतो नथी? वली कालज पकावे डे तथा पृथ्वी श्रादि नूतोने परिणामांतर प्रत्ये कालज पहोचाडे . तेमज पूर्व पर्यायथी पर्यायांतरमा लोकोने कालज स्थापन करे . वली सुप्त अवस्था प्राप्त श्रयेला प्राणियोनी रदापण कालज करे, ते कारपथी प्रत्यक्ष ने के काल उरतिक्रम . कालने दूर करवामां कोई समर्थ नथी, श्रा कालवादिनो विकल्प . तेविजरीतें बीजा विकल्प पण जाणी लेवा. परंतु कालने स्थानकें ईश्वरनी योजना करवी, “यथा अस्ति जीवः खतो नित्यः ईश्वरतः" जीव पोताना स्वरूपथी नित्य , परंतु ईश्वर उत्पन्न करे . कारण के ईश्वरवादी सर्व जगत् ईश्वरनुंज करेलुं माने . जेने १ ज्ञान, श्वैराग्य,३ धर्म, ४ बैश्वर्य,श्रा चारे स्वतः सिद्ध होय, तेमज जे, जीवोना स्वर्ग, नरक, मोदादि गमनमां प्रेरक होय तेने ईश्वर कहियें. यथा॥ ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः ॥ ऐश्वर्यं चैव धर्मश्च, सदसिहं चतुष्टयं ॥१॥श्रझोजंतुरनीशोय, मात्मनः सुखऽखयोः ॥ ईश्वरप्रेरितोगळेत, स्वर्ग वाश्वमेव वा ॥२॥इत्यादि. ___त्रीजो विकल्प श्रात्मवादियोनो . " पुरुष एवेदं सर्वमित्यादि" जे काई देखाय ले ते सर्व पुरुषज जे एम आत्मवादियोनो मत डे. चोथो विकल्प नियतवादियोनो . नियतवादियो कहे डे के पदार्थोमां एक एवं सामर्थ्य के जे सामर्थ्यथी सर्व पदार्थ पोत पोताना खरूपनियमोथी तेवाने तेवाज बन्या रजे, परंतु अन्यथापणे थता न थी. वली तेज बताविये बियें. जे पदार्थ जे कालमा जेनाथी थाय , । ते पदार्थ तेज कालमां, तेनाथी नियतरूपें थतो मालम पडेले. तेम जो न होय तो कार्य कारण जावनी व्यवस्था नियामकना अन्नावथी कदापि थायज नहि. ते कारणथी कार्यनियतताथी उपर मुजब प्रतीत थती जे नियति तेने प्रमाण पंथमां कुशल एवो कयो पुरुष बाध करी शके ले ? Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) जैनतत्त्वादर्श. जो नियति बाधित थई जाय तो बीजे स्थले प्रमाण मिथ्या थई जशे. तथा चोक्तं ॥ नियतैनेवरूपेण, सर्वे नावा नवंति यत् ॥ ततो नियति जाह्येते, तत्स्वरूपानुबंधतः॥ १॥ यद्यदेव यतो यावत्, तत्तदेव ततस्तथा ॥ नियतं जायते न्यायात्, कएनां बाधितुं नमः॥२॥ आ बंने श्लोकनो श्रर्थ उपर लख्यो . पांचमो विकल्प खनाववादियोनो के. खन्नाववादियो कहे जे के आ संसारमा सर्व पदार्थ स्वनावधीज उत्पन्न थाय ने ते कहे जे के माटीथी घट थाय ने, परंतु वस्त्र यतुं नथी, तेमज तंतुथी वस्त्र थाय डे परंतु घटादि यता नश्री, आ जे मर्यादापूर्वक थर्बु ले ते खजाव विना कदापि थई शकतुं नश्री. ते कारणथी जगत्मां जे काई थाय ने ते सर्व स्वजावश्रीज थाय बे. वली बीजां कार्य तो दूर रहो परंतु या जे मगर्नु रंधावू बे, ते पण स्वनावविना थतुं नथी, कारण के हामी, इंधन, काल प्रमुख सामग्री विद्यमान बतां (कांगडु) करडु मग रंधाता नथी याने पाकता (चडता) नथी; ते कारणथी जे जेना सदनावें विद्यमान होय, तेमज असदनावें विद्यमान होय ते ते अन्वयव्यतिरेकथी तेना कर्ता के खजावधीज मग रंधाय ने तेथी स्वनावज सर्व वस्तुनो हेतु जे. श्रा पांच विकल्प खतः ईश पदयी होय , तेवीज रीतें पांच परतः ईशपदथी उपलब्ध थाय . परतः शब्दनो अर्थ एवो बे के, पर पदार्थोंथी व्यावृत्तरूपें आ श्रात्मा निश्चयथी . तेवी रीतें नित्य शब्दयी दश विकल्प थाय , तेमज अनित्य पदयी पण दश विकल्प थाय बे. बंने एकग करवाश्री वीश थाय जे. आ वीश विकल्प जीव पदार्थ साथे थाय , तेवीज रीतें अजीवादि नवे पदार्थ साथे जुदा जुदा वीश विकल्प जाणी सेवा, एटले वीशने नवधी गुणतां एकसो एंशी मत क्रियावादिना थाय जे. हवे अक्रियावादिना चोराशी मत लखियें बियें. अक्रियावादी कहेबे के पुण्य, पापरूप क्रिया कांश नथी. कारण के पुण्य, पापरूपादि किया तो स्थिर पदार्थोने लागे , अने जगत्मां स्थिर पदार्थ तो कोश बे नहि, कारण के उत्पत्ति अनंतरज पदार्थनो विनाश थतो जाय डे. तथा श्लोक ॥ दणिकाः सर्वसंस्कारा, अस्थिराणां कुतः क्रिया ॥ नूतिर्येषां क्रिया सैव, कारकं सैव चोच्यते ॥१॥ अर्थः- सर्वसंस्कार पदार्थ क Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद. (१२५) ढुं पण किंचित् मात्र, पूर्वाचार्यांनी युक्तियो या स्थले जाषाग्रंथमां लखुंडं. प्रथम, कालवादी कहे बे के, सर्व वस्तुनो कालज कर्त्ता बे, तेनुं खंमन लखुं बुं. हे कालवादि ! या जे काल बे ते शुं १ एक खजाव नियव्यापी बे ? २ किंवा समयादिरूपथी परिणामी बे ? जो प्रथम पक्ष मानशो तो ते युक्त बे, कारण के एवा कालने सिद्ध करनारुं कोईपण प्रमाण नथी. जेवो प्रथम पक्षमां तमे काल मान्यो बे, तेवो काल प्रत्यक्ष प्रमाणची उपलब्ध यतो नथी, तेमज एवा कालनुं कोइ लिंग पण अविनाभावरूप देखातुं नथी, ते कारणथी अनुमानथी पण सिद्ध थतुं नथी. पूर्वपक्ष:- केवी रीतें विनाजाव लिंगनो अभाव कहो बो ? कारण के जरत रामचंद्रादिविषे पूर्वापर व्यवहार देखाय बे, ते पूर्वापर व्यवहार वस्तुरूप मात्र निमित्त नथी; जो वस्तुरूप मात्र निमित्त होय तो वर्तमानकालमां वस्तुरूपना विद्यमानपणाथी तेवो व्यवहार होवो जोइयें. ते कारणथी जेणेकरीने या जरत रामादिविषे पूर्वापर व्यवहार बे, ते काल बे, तेवीज रीतें, पूर्वकालयोगी, पूर्वजरतचक्रवर्त्ती, अपरकालयोगी, अपर रामादि. उत्तरपक्षिनो तर्कः - जो जरत रामादिविषे पूर्वापर कालना योगथी पूर्वापर व्यवहार बे, तो कालनो पूर्वापर व्यवहार केम सिद्ध यशे ? पूर्वपक्षिनुं समाधानः - कालनो जे पूर्वापर व्यवहार बे ते अन्य बीजा कालना योगी बे. उत्तरपक्षः - जो बीजा कालना योगथी प्रथम कालनो पूर्वापर व्यवहार बे, तो बीजा कालनो पूर्वापर व्यवहार, त्रीजा कालना योगथी थयो, एम करतां करतां अनवस्था दूषणनो प्रसंग वेडे. पूर्वपक्ष:- ए दूषण मने लागतुं नथी, कारण के मे तो ते कालनाज स्वयमेव पूर्वापर विभाग मानिये बियें. बीजा कालादि योगथी मानता नथी. ॥ श्लोक ॥ पूर्वकालादियोगी यः पूर्वा दिव्यपदेशना ॥ पूर्वापरत्वं तस्यापि स्वरूपादेव नान्यतः ॥ १ ॥ अर्थ - जो पूर्वापर कालना योगी जरत रामादि बे तो जरत रामादि पूर्वापर व्यपदेशवाला बे, अने कालना जे पूर्वापर विभाग बे ते स्वतःज बे, परंतु अन्य कालादि योगथी नथी. : उत्तरपक्षः - हे पूर्वपक्षि ! या तमारुं केहेतुं कंठ लगी मदिरा पीनार Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) जैनतत्त्वादर्श. मदिरापानिना प्रलाप जेवू . कारण के तमे प्रथम पक्षमां काल एकांत एक नित्य व्यापी मानेल बे, तो हवे केवी रीते ते कालनो पूर्वापर व्यवहार होय ? पूर्वपक्षः-सहचारिना संगथी एक वस्तुनो पण पूर्वापर कल्पनामात्र व्यवहार यश् शके . जेम सहचारि जरतादिना पूर्वापर व्यवहार ने, तेवीज रीतें जरतादि सहचारियोना संगथी कालनो पण कल्पनामात्र पूर्वापर व्यपदेश थाय ने. सहचारियोथी व्यपदेश, सर्व तार्किकोना मतमां प्रसिद्ध . यथा, “ मंचाःक्रोशंतीति" जेम मंचा गालो दीये. उत्तरपक्षः-या पण असमंजस कथन . कारण के श्रा कथनमां श्तरेतर दोषनो प्रसंग आवे बे. ते कहिये डिये. सहचारि नरतादिनो कालना योगयी पूर्वापर व्यवहार थयो, अने कालनो पूर्वापर व्यवहार, सहचारि जरतादिना योगयी थयो; जो एक सिझ नहि थाय तो बीजुं पण सिक नहि थाय. उक्तं च ॥ एकत्वव्यापितायां हि, पूर्वा दित्वं कथं जवेत् ॥ सहचारिवशात्तच्चे, दन्योन्याश्रयतागमः ॥ १॥ सहचारिणां हि पूर्वत्वं, पूर्वकालसमागमात् ॥ कालस्य पूर्वादित्वं च, सहचार्यवियोगतः ॥२॥ प्रागसिकावेकस्य, कथमन्यस्य सिकिरिति ॥ ते कारणथी प्रथम पद श्रेय नथी. __ जो बीजो पक्ष मानशो तो ते पण अयुक्त बे. कारण के समयादि रूप परिणामी कालविषे काल एकज ने तोपण विचित्रपणुं उपलब्ध थाय . जुर्ड. एक कालमां मगने रांधतां को रंधाय बे, को रंधाता नथी, तथा समकाल एक राजानी नोकरी करता थकां एक नोकरने अल्प कालमांज नोकरीनुं फल मली जाय , अने बीजाने बहु काल व्यतीत थया उतां पण ते फल मलतुं नथी; तथा समकालें खेती करतां बतां एक खेडुतने बहु धान्य उत्पन्न थाय बे, अने बीजाने अल्प, बगडेलु तेमज खंमित उत्पन्न थाय बे; तथा समकालें कोडीउनी मूठी जरीने जमीन उपर नांखिये तो केटलीएक कोडी चती पडे , अने केटलीएक जंधी पड़े बे. हवे जो कालज एकवू कारण होय तो सर्व मग एकज कालमा रंधावा जोश्ये, परंतु तेम यतुं नथी, इत्यादि, ते कारणथी निःकेवल कालज जगतनी विचित्रतानो कर्ता नथी. परंतु Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिजेद. (१७) कालादि सामग्रीना मलवाथी कर्म कारण बे, श्रा सिझ पद . इति प्रथम कालवादिना मतनुं खंमन. बीजा ईश्वरवादी अने त्रीजा अद्वैतवादी श्रा मतोनुं खंमन ईश्वरवादमां लखी आव्या बिये, त्यांथी जाणी लेवू. हवे चोथो मत नियतिवादियोनो ने तेनुं खंमन लखिये बिये. नियति वादी कहे के सर्व पदार्थना कर्त्ता नियति बे. जे तत्त्वांतर थाय ते नियति केहेवाय. ते नियति पण ताडन पामती अति जीर्ण वस्त्रनी पेठे विचाररूप ताडनाने नहि सहन करी शकती सेंकडो कटकाने प्राप्त थाय . ते कहिये बियें. हे नियतवादि ! तमारं जे नियतिनाम तत्वांतर ते जावरूप जे के अनावरूप जे? जो कहो के नावरूप दे तो पड़ी एकरूप के अनेकरूप जे? जो कहो के एकरूप में, तो वली नित्य ले के अनित्य बे ? जो कहो के नित्य ने तो पदार्थोनी उत्पत्ति श्रादिमां केवीरीतें हेतुरूप ले ? कारण के जे नित्य होय जे ते कोनुं पण कारण थ शकतुं नथी. कारण के जे नित्य जे ते सर्व कालमा एकरूप होय . नित्यनुं लक्षण-"अप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकखजावतया नित्यत्वस्य व्यावात् " एबुं बे. जे करे नहि, तेमज उत्पन्न पण न थाय, स्थिर एक खन्नावथी रहे ते नित्य. हवे जो नियति ते नित्यरूपथी जो कार्य उत्पन्न करे तो तो हमेशां तेजरूपथी कार्य उत्पन्न करे, कारण के तेना स्वरूपमां कांपण विशेष नथी एकज रूप बे, अने हमेशां तेजरूप थी तो कार्य उत्पन्न करती नथी, कारण के कदी एक जातनुं तो कदी बीजी जातवें कार्य उत्पन्न अतुं देखिये जियें. वली एक बीजी पण वात ए बे के जे बीजा, त्रीजा, आदि क्षणमां नियतिने कार्य करवानुं डे, ते सर्व कार्य प्रथम दणमांज उत्पन्न करी बेवु जोश्ये, कारण के ते नियतिनो जे नित्य करणस्वन्नाव बीजा, जीजा श्रादि क्षणमां ने ते स्वजाव प्रथमदणमां पण विद्यमान ले. जो प्रथम क्षणमां द्वितीयादि क्षणवर्ती कार्य करवानी शक्ति न होय तो द्वितीयादि क्षणमां पण कार्य न थर्बु जोश्ये. कारण के प्रथम द्वितीयादि क्षणमां कांश पण विशेष नथी. जो प्रथम द्वितीयादि दणमां नियतिना रूपमा परस्पर विशेष मानशो तो तो खाजाविक रीतें नियतिना रूपमा अनित्यता आवी जशे. “श्रताद Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) जैनतत्त्वादर्श. वस्थ्यमनित्यतां ब्रूम- इति वचनप्रामाण्यात्" जे जे होय ते तेवू न . रहे. ते अनित्य. ते वचन प्रमाणथी तेने अमे अनित्य कहिये बियें. पूर्वपदः-नियति नित्य, विशेष रहितज , तो पण ते ते सहकारिनी अपेक्षाथी कार्य उत्पन्न करे बे, अने जे सहकारि ले ते प्रतिनियत देश कालवाला बे, ते कारणथी सहकारिना योगथी कार्य अनुक्रमें थाय . उत्तरपदाः-श्रा पण तमाएं केहेबु असमीचीन ने. कारण के सहकारि जे , ते पण नियतिथीज प्राप्त थाय बे, अने नियति जे वे ते प्रथम क्षणमां पण तेने करनार स्वजाववाली ने, जो द्वितीयादि क्षणमां बीजा स्वजाववाली नियति मानशो तो तो नित्यपणानो नाश थशे. ते कार थी प्रथम क्षणमां सर्व सहकारियोनो संचव होवाश्री प्रथम क्षणमांज सर्व कार्य करवानो प्रसंग थयो. वली एक बीजी वात डे के सहकारिना विद्यमानपणाथी कार्य थयुं, अने सहकारिऊना न होवापणाधी कार्य न युं, त्यारे तो सहकारिज अन्वयव्यतिरेक न्यायथी कारण बे, एम कल्पना करवी जोश्ये, परंतु नियति कारण थ नहि,कारण के नियतिमां व्यतिरेकनो असंजव . उक्तं च ॥ श्लोक ॥ हेतुनान्वयपूर्वेण, व्यतिरेकेण सिध्यति ॥ नित्यस्याव्यतिरेकस्य, कुतोहेतुत्वसंचवः॥१॥ हवे जो पूर्वोक्त दूषणोना जयथी अनित्य पद मानशो तो तो ते नियतिनां दरेक क्षणे अन्य अन्य रूप थवाथी नियति बहुरूप थर गश्, अने तमे जे नियति एकरूप मानी हती ते तमारी प्रतिज्ञाने व्याघात थवानो प्रसंग आव्यो. वली जे पदार्थ दणक्यी होय , ते कोठे कार्य कारण यश् शकतुं नश्री. वली एक बीजी पण वात डे के, जो नियति एकरूप होय तो तेनाथी जे कार्य उत्पन्न थाय ते सर्व एकरूपज होवां जोश्ये. कारण के कारणनो नेद थया विना कार्यमां कदापि नेद थर शकतो नथी. जो तेम थर जाय तो ते कार्यनेद निर्हेतुकज थवानो, अने हेतुविना को कार्यनो जेद नथी. जो नियति अनेकरूप मानशो तो तो ते नियतिथी अन्य अनेकरूपी विशेषण विना नियति नानारूप कदापि नहि थाय. जेम के वरसादनुं पाणी, काली, पीली, उखर जमीनना संबंध विना अनेकरूप थश् शकतुं नथी. यमुक्तं ॥ “विशेषणं Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिछेद. (१२ए) विना यस्मा, न तुल्यानां विशिष्टतेति वचनप्रामाण्यात् ” ते कारणथी अवश्य ते नियतिथी अन्य नानारूप विशेषण नियतिना नेद मानवा जोश्यें. ते अनेकरूप विशेषणोनुं होवु ते गुंते नियतिथीज थाय ने के को बीजाथी थाय बे ? जो कहो के नियतिथीज थाय ने तो ते नियति खतः एकरूप होवाथी ते नियतिथी उत्पन्न थयेला विशेषणोनी अनेक रूपता केवी रीतें थाय? जो विचित्र कार्यनी अन्यथा अनुपपत्तिथी नियति पण विचित्ररूपज मानशो, तो नियतिनी विचित्रता बहु विशेषणो विना नहि थाय, ते कारणथी ते नियति विषे विशेष्य अनेक अंगीकार करवा जोश्ये. हवे ते विशेषणोना जे जाव के ते, ते नियतिथीज थाय ने के को बीजाथी? इत्यादि, तेज फरी आव्यु. ते कारणथी अनवस्था दूषण लागेजे. हवे जो एम कहो के बीजाथी थाय , तो ते पद पण अयुक्त . कारण के नियति विना बीजा कोश्ने तमे हेतु मानेला नथी, तेथी आ तमारु केहे कोई कामर्नु नथी. वली एम मानशो के नियति अनेक रूप , तो तमारा मतना बे वेरी विकल्प अमे. तमारी सन्मुख खडा करिये लियें. जो तमारी नियति अनेकरूपडे तो मूर्त ने के अमूर्त ने ? जो कहो के मूर्त ले तो नामांतरथी कर्मनोज अंगीकार कस्खो. कारण के कर्म पुजलरूप होवाथी मूर्तपण जे अने अनेकरूप पण डे. तो तो तमारो अने अमारो एक मत थ गयो, कारण के अमे जेने कर्म मानियें लियें, तेज कर्मने नामांतरथी तमे नियति मानी लीधी; परंतु वस्तु एकज . जो नियतिने अमूर्त मानशो तो ते अमूर्त होवाथी सुखपुःखनो हेतु थशे नहि. जेम के आकाश अमूर्त डे परंतु सुखाःखनो हेतु नथी. पुजलज मूर्त होवाथी सुखदुःखनो हेतु थर शकेले. जो तमे एम केहेशो के आकाशपण देशदथी सुखःखनो हेतु थाय डे. जेम के मारवाड देशमा आकाश फुःखदायक बे, अने बीजा जलवाला देशोमां सुखदायक जे. श्रा पण तमारं केदेवू असत् .ते मारवाड श्रादि देशोमां पण आकाशमा रहेला जे पुजलो डे ते पुजलथीज सुख उःख थाय जे. जेम के मरुस्थल प्रायः जलथी रहित , अने रेती घणीज बे, तेथी रस्ते चालतां पग रेतीथी घसाय बे, जेथी परसेवो बहुज Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) जैनतत्त्वादर्श. थाय ने वली उनालामां सूर्यना किरणोथी रेती बहुज तपी जाय ले त्यारे चालतां बहुज संताप थाय , अने पाणीपण पुरं पीवाने मलतुं नथी, तेथी खोदीने काढतां अनेक प्रयत्न करवा पडे . ते कारणथी ते देशोमां बहुज फुःख डे, अने सजल देशोमां तेवां कारणो नथी तेथी तेवां कुःख पण नथी; था हेतुथी पुजलज सुखपुःखना हेतु बे, परंतु आकाश नथी. जो नियतिने अनावरूप मानशो तो तेपण तमारो पद अयुक्त बे. कारण के अनाव जे जे ते तुबरूप बे, शक्तिरहित , अने कार्य करवामां समर्थ नथी. जुर्व के कटक कुंमलादिनो जे अन्जाव डे ते कटक ' कुंमल उत्पन्न करवाने समर्थ नथी; अने तेमज देखवामां आवे . जो कटक कुंमलादिनो अनाव कटक कुंमलादि उत्पन्न करे तो तो जगत्मा को दरिजि रहे नहि. पूर्वपक्षः-घटानाव जे जे ते मृपिंड , ते माटीना पिंडथी घट उत्पन्न थाय , तो पड़ी अमारा केहेवामां अयुक्तता शी बे ? माटीनो पिंड तुरूप नथी, कारण के ते पोताना वरूपथी विद्यमान , तो पड़ी अनाव पदार्थनी उत्पत्तिमां हेतु केम न थ शके ? उत्तरपदाः-आ पण तमारो पद असमीचीन बे, कारण के माटीना पिंडनुं जे नावखरूप ले ते नाव अनावने अरसपरसमां विरोध होवाथी . अनाव स्वरूप थश् शकतुं नथी. कारण के जो नावरूप ले तो अनाव केम थाय ? अने जो अनावरूप ने तो जोवरूप केम थाय ? जो एम कहो के खखरूप अपेक्षायें नावरूप डे अने परखरूप अपेक्षायें अनाव रूप डे ते वास्ते नाव अनाव बंनेनां जुदा निमित्त होवाथी कापण दूषण नथी. आ केहेवाथी तो माटीनुं पिंड, नाव अजावरूप अनेकांतास्मिकरूपें तमने प्राप्त थयुं, परंतु या अनेकांतात्मिकपणुं जैनोनाज मतमां शोने जे. कारण के जैनमतवालाज सर्व वस्तुने खपरजावादि खरूपथी अनेकांतात्मिक माने जे; परंतु ते तमारा सरखा एकांतग्रहग्रस्त मतवालाउँने शोजतुं नथी, जो एम कहो के माटीना पिंगमा जे पररूपनो अनाव , ते तो कल्पित बे, अने जे जावरूप ने ते तात्विक डे, ते कारणथी अनेकांतात्मिकवाद अमारा मतमां श्रावतो नथी, तो तो ते माटीना पिंडथी घट केम थशे ? कारण के ते मृत्पिडमां परमार्थथी घ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिछेद. ( १३१ ) टना प्राग्जावनो श्राव बे. जो प्राग्रनाव विना पण ते मृत्पिंथी घट o जाय तो तो सूत्रपिंडादिथी पण घट केम न थाय ? जेवो मृत्पिडमां घट प्रजावनो श्राव बें, तेवोज सूत्रपिंकादिमां पण घट प्राग्भावनो नाव बे. तथा ते मृत्पिंथी खरशृंग केम यह जतां नथी ? ते कारणश्री पूर्वोक्त तमारुं केहेतुं कांइ नहि एवं बे तथा तमे जे कां हतुं के जे वस्तु जे अवसरे जेनाथी थाय बे. तेज वस्तु कालांतरें पण तेज - वसरें तेनाथी नियतिरूपथी घती देखाय बे. या जे तमारू केहेतुं वे ते वास्तविक . कारण के कारण सामग्रीना छानादि नियमोथी कार्य पण तेज अवसरें तेनाथ नियतरूपेंज थाय बे. ज्यारे कारणशक्तिना नियमी कार्य थ गयुं, त्यारे प्रमाणपंथनो कुशल कोण एवो प्रेक्षावान् Maharaत नियतिनो अंगीकार करे इति नियतिखंडनं ॥ sa पांचमा स्वनाववादिनुं खंडन लखियें बियें स्वजाववादी एम कड़े बेके, संसारमां सर्व जाव पदार्थ खजावथीज उत्पन्न याय बे. या स्वनाववादिर्जनो मत नियतिवादना खंगनथीज खंमन थइ गयो. कारण के जे दूषणो नियतिवादिना मतमां कहेलां वे ते सर्व दूषणो प्रायः मतमां पण समानज बे. जेम के या जे तमारो स्वभाव बे ते नाव - रूप बे के अनावरूप बे ? जो कहो के जावरूप बे तो एकरूप बे के अनेकरूप बे ? इत्यादि सर्व दूषण नियतिनी जेम केदेवां. 7 एक बीजी पण वात बे के स्वभाव आत्माना जावने कहे बे. ते खजाव कार्यगतहेतुबे के कारणगत हेतु बे ? कार्यगत तो नथी, कारण के ज्यारे कार्य थइ जशे, त्यारे कार्यगत वजाव यशे, परंतु कार्य थयाविना कार्यगत स्वजाव केम थाय ने जो कार्य यर गयुं तो तेनो हेतु स्वजाव केम था ? जे जेनो लब्ध लाज संपादन करवामां समर्थ होय ते तेनो तु, कार्य तो निष्पन्न थवाथी आत्मलाभ प्राप्त थयो बे; नहि तो ते स्वनावनेज नावनो प्रसंग थइ जशे, त्यारे तो ते स्वभाव का - नो हेतु केवीरीतें शे ? जो कहो के कारणगत हेतु बे तो ते तो - मने पण संमत . ते स्वभाव प्रतिकारण जिन्न बे, तेथीज माटीथी घट थाय बे, परंतु पट यतुं नथी, माटीना पिंगमां पटादि थवानो स्वनाव नथी. तेवीज रीतें तंतुथी पटज थाय बे, घटादि यता नथी, Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) जैनतत्त्वादर्श. कारण के तंतुउँमां घट थवानो स्वजाव नथी. ते कारणथी जे तमे का हतुं के माटीथी घटज थाय बे, पटादि यता नथी, ते तो सर्व कारणगत स्वन्नाव मानवाथी सिद्ध थयेलानेज सिद्ध कलुं . आ पद अमारा मतने बाधक नथी. वली तमे जे कयुं हतुं के मगमा रंधावानो स्वनाव बे, कांगकु (कोरडू ) मां नथी, इत्यादि. तेपण कारणगत स्वनाव अंगीकार करतांज सर्व समीचीन थर जायने, जेम के एक कांगडु मग बे ते स्वकारणवशथी तेवा रूपवालो थयेल बे; हांडी, इंधन, कालादि सामग्रीनो संयोग बे तो पण रंधातो नथी, अने स्वन्नाव जे जे ते कारणथी अन्नेद ने तेथी सर्व वस्तु सकारणज . आ पद सिद्ध बे. इति क्रियावादिना मतनुं खमन. ___ हवे अक्रियावादिऊना मतमा जे यहावादि तेउनुं एवं केहेकुंडे के वस्तुऊना नियमपूर्वक कार्य कारणजाव नथी इत्यादि ते तेमनु केहेबुं कार्यकारणना विवेचनवाली बुद्धिना रहितपणाने सूचवे बे. कारण के कार्यकारणने प्रतिनियतपणानो संजव जे. ते कहिये लिये. शाबुक (देडका) श्री शावुक उत्पन्न थायडे ते निरंतर शावुकथीज थायडे, परंतु गोबर (गण) श्री यता नथी, अने गोबरथी जे शालुक उत्पन्न थायडे, ते निरंतर गोबरबीज उत्पन्न थायडे, परंतु शाबुकथी थता नथी.वली आ बंने जातनां देडकां शक्तिवर्णादि विचित्र,ताथी तेमजपरस्पर जात्यंतर होवाथी एकरूप पण नथी. वली अग्निथी जे अनि उत्पन्न थायजे तेपण निरंतर अग्निथीज उत्पन्न थायडे, परंतु अरणीना काष्ठथी उत्पन्न थतो नथी, अने अरणीना काष्ठथी जे अग्नि उत्पन्न थायडे ते निरंतर अरणीना काष्ठश्रीज उत्पन्न थायडे परंतु अग्निथी उत्पन्न यतो नथी. वली बीजयी केलां उत्पन्न थवां इत्यादि अनेक बाबतोमा परस्पर जिन्नता होवाथी तेनो खुलासो पण तेज. वती एक हकीकत एवी डे के जे केलां कंदथी उत्पन्न थायबे तेपण पर- . मार्थथी तो बीजबीज थायडे, एटले परंपराए तो बीजज कारण जे. तेवीज रीतें वड आदिनी शाखापण एकदेशथी उत्पन्न थती बतां परमार्थथी तो बीजबीज उत्पन्न थायजे. विशेष हकीक एवी डे के शाखाथी जे शाखा उत्पन्न थाय ने ते उत्पन्न थनारी शाखानी हेतु शाखा डे एम लोक व्यहार चालतो नथी, कारण के वडनुं बीजज सर्व शाखा, प्रशाखा Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिबेद. (१३३) समुदायरूप वडनुं कारण जे एम जगत्मां प्रसिबे तेवीज रीतें शाखाना एक नागथी उत्पन्न श्रयेल वड, परमार्थथी मूल, ते वडशाखारूपजबे, तेथी ते मूल पण बीजबीज उत्पन्न थयेल मान जोश्ये ते कारणथी कोश्पण स्थलें कार्यकारणनाव व्यभिचारी नथी.इति यहलावादिमतखंडन. हवे अज्ञानवादिना मतनुं खंडन लखिये बियें. अज्ञानवादी कदेने के झान श्रेय नथी, कारण के ज्यारे ज्ञान थायडे, त्यारे परस्पर विवादना योगथी चित्तमां क्वेश थवाना कारणथी दीर्घतर संसारनी वृद्धि थाय . श्त्यादि. अज्ञानवादिनुं आ कथन मूर्खतासूचक . जुर्म के बीजी वात तो दूर रही परंतु प्रथम अमे आपने बे सवाल पुखिये बिये, मुख्य ए डे के ज्ञाननो तमे जे निषेध करोबो ते शुं ज्ञानथी करोडो के अज्ञानथी करोडो? जो कहो के ज्ञानथी करिये बियें, तोपड़ी केम कही शको के अझान श्रेय? था कथनथी तो ज्ञानज श्रेय थयुं ज्ञानविना अज्ञानने स्थापन करवाने कोश् समर्थ नथी. जो पूर्वोक्त कथन खीकारशो तो तमारी प्रतिज्ञाने व्याघातनो प्रसंग आवशे. जो केहेशो के अज्ञानथी निषेध करिये लियें तो तेपण अयुक्त , कारण के अज्ञानमा ज्ञानने निषेध करवानुं सामर्थ्य नथी. कारण के अज्ञानमा कोश्नेपण सिद्ध करवानी के बाध करवानी शक्ति नथी; ज्यारे अज्ञानमां ज्ञानने निषेध करवानुं सामर्थ्य नथी त्यारे ज्ञानज श्रेय एम सिद्ध थयु, वली तमे कयुं बे के ज्यारे ज्ञान थायडे त्यारे परस्पर विवादना योगथी चित्त, क्लेशादि नावने प्राप्त करे, तेपण आपनुं विना विचारनुं कथन . अमे परमार्थथी ज्ञानी तेनेज कहियें लियें के जेनो आत्मा विवेकथी पवित्र होय; अने जे झाननो गर्व न करे, तेमज अल्पज्ञानी थक्ष कंठ लगी मदिरापान करनारनी जेम उन्मत्त वचनो बोले अने सर्व जगत्ने तृण सदृश माने, ते परमार्थथी अज्ञानीज बे, कारण के तेने ज्ञाननुं फल प्राप्त थयुं नश्री. ज्ञानफल तो रागद्वेषादि दूषणोनो त्यागनावडे. ज्यारे तेम थयु नहि त्यारे परमार्थथी तेनामां ज्ञानज नथी, उक्तं च ॥ तज्ज्ञानमेव न नवति, यस्मिनुदिते विनाति रागगणः ॥ तमसः कुतोस्ति शक्ति, दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥१॥ एवा ज्ञानी विवेकथी पवित्र आत्मावावाला परजीवोने हित करवामां एकांत रसिया होय. एवा ज्ञानी कदापि विवाद करशे, तो पण प Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) जैनतत्त्वादर्श. कोपीन पेहेरे , धातुरक्त वस्त्र राखे बे, कोई शिरपर शिखा राखे , कोई जटा राखे बे, कोई मस्तक पर दौरमुंगकरावे , मृगचर्मनुं श्रासन राखे बे, ब्राह्मणना घरनुं अन्न खाय , कोई पांचज ग्रास खाय , बार अदरनो जाप करे , तेजेना नक्त ज्यारे गुरुने वंदना करेने सारे “ ॐ नमो नारायणाय " एम कहे , त्यारे गुरु तेउँने “ नमो नारायणाय " एम कहे बे, अने महानारतमा जेनुं नाम “ वीटा" लखेल डे, काष्ठनी मुखवस्त्रिका मुखना निःश्वासना निरोध वास्ते राखे बे, जेथी मुखश्वासश्री जीवहिंसा न थाय. ॥ श्लोक ॥ ते प्राणादनुयातेन, श्वासेनैकेन जं. तवः ॥ हन्यते शतशो ब्रह्म, नणुमात्रादरवादिनः॥१॥ सांख्य गुरु जलना जीवोनी दया वास्ते पाणी गलवा सारु पोतानी पासे गलj राखेने, अने पोताना नक्तोने पाणी गलवा सारु त्रीश आंगल लांबुं अने वीश श्रांगल पोहोबुं अने जाउं एबुं गलणुं राखवानो उपदेश करे. वली जे जीव पाणी गलवा पडी निकले ते तेज पाणीमां पाला प्रदेप करे , कारण के मीगपाणीना पूरा खारा पाणीमां मरी जाय , अने खारा पाणीना पूरा मीठा पाणीमां मरी जाय . तेथी जुदां जुदां पाणी एकगं करता नथी. पाणीना सूक्ष्म एक बिमां जेटला जीव बे ते जीवोनी काया जो चमर समान बनाववामां आवे तो ते जीवो त्रण लोकमां समाय नहि. आ तेऊनो पाणी गलवानो विचार . सांख्य बे प्रकारना , एक प्राचीन, बीजा नवीन. नवीननुं बीजुनाम पातंजलपण . प्राचीन सांख्य ईश्वरने मानता नथी. नवीन सांख्य ईश्वरने माने जे. जे निरीश्वर ने ते नारायणने पर माने बे, अने तेना जे आचार्य ने ते विष्णु प्रतिष्ठाकारक चैतन्यप्रमुख शब्दोथी केहेवाय बे, सांख्य मतनुं स्वरूप बतावनारा आचार्यनां नाम. कपिल, सुरि, पंचशिख, जार्गव, उलूक, ईश्वर, कृम. ते शास्त्रकर्ता बे. सांख्यमत वाला कापिलपण केहेवाय . तथा कपिलनु परमर्षि एवं बीजं नाम , तेथी ते पारमर्षा पण केहेवाय . बनारसमां ते संख्याबंध . मास उपवास पण करे . ब्राह्मण जे जे ते अर्चिर्गिथी विरुज धूममार्गानुगामी , अने सांख्य अर्चिार्गानुयायी ; ब्राह्मणोने वेद पर प्यार ले तेथी यज्ञमार्गानुयायी बे, अने सांख्य हिंसाथी पूर्ण, एवा जे वेद ते Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिजेद. (१४३) नाथी निवतेला . अध्यात्मवादी सांख्य पोताना मतनो महिमा श्रा प्रमाणे माने २ ॥ श्लोक ॥ इस पिब च खाद मोदं, नित्यं सुंदव च जोगान् यथाऽनिकामं ॥ यदि विदितं कपिलमतं, तत् प्राप्स्यसि मोदसौख्यमचिरेण ॥१॥ एम माठर शास्त्रना प्रांतमां लखेदूं . अर्थ:- जो तमे कपिलमत जाण्यो होय तो पड़ी इसो, खेलो, पीठ, खाउँ, सदा खुशी रहो, जेवी रुचि थाय तेवा सदा जोग जोगवो तो पण तमने अरूप कालमा मुक्ति, सुखें प्राप्त थशे. तेमना बीजा शास्त्रमा पण कडं ले के ॥ श्लोक ॥ पंचविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र तत्राश्रमे रतः॥ शिखी मुंडी जटी वापि, मुच्यते नात्र संशयः ॥१॥ अर्थः- पचवीश तत्त्वने जाणनार, पनी चाहे ते को थाश्रममा रहेतो होय, के शिखावालो होय, वा मुंडित होय,के जटाराखे,तो पण ते उपाधिश्री मुक्त थाय तेमां संशय नथी. सांख्य मतमां सर्व सांख्य पचीश तत्व माने जे. ज्यारे पुरुष त्रण पुःखथी दणाय बे, त्यारे ते त्रण फुःखने दूर करवा वास्ते तेने जिज्ञासा उत्पन्न थाय बे. ते त्रण फुःखनां नाम १ श्राध्यामिक, ५ आधिदैविक, ३ अधिनौतिक; आध्यात्मिक कुःख बे प्रकारनुं . १ शारीरिक र मानसिक. तेमां वायु, पित्त, श्लेष्म, आ त्रणनी विषमताथी शरीरमा जे अतिसारादि रोग थाय ने ते शारीरिक, अने काम, क्रोध, लोज, मोह, ईर्ष्या, इत्यादि, विषयो जोवाथी जे थाय ते मानसिक. या बंने आत्यंतर उपायथी दूर थई शके ने तेथी ते आध्यात्मिक कुःख केहेवाय . श्या घिनौतिक, तथा ३ आधिदैविक, श्रा बने बाह्य उपायथी दूरकरी शकायडे तेमा जे दुःख मनुष्य, पशु, पक्षी, मृग सर्पादि, स्थावरा दिना निमित्तथी थाय ले ते श्राधिनौतिक, अने जे यद, राक्षस, नूतादिना प्रवेशथी, तथा महामारी, अनावृष्टि अतिवृष्टि इत्यादिथी थायडे ते श्राधिदैविक केहेवायचे. या त्रण फुःखथी, रज परिणामना नेदथी प्राणिउने पुःख दूर करवा वास्ते तत्व जाणवानी श्छा थाय ने ते तत्त्व पञ्चीश प्रकारनां बे. प्रथम पचीश तत्वोनुं खरूप लखिये बिये. तेमां प्रथम सत्त्वादि गुणोनुं खरूप कहियें बिये. ते त्रण गुण . १ सत्त्व गुण, सुखलक्षण, २ रजोगुण उखलक्षण, ३ तमोगुण,मोहलक्षण; या त्रण गुणनां त्रण लिंग . १स Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४४) जैनतत्त्वादर्श. त्वगुणतुं चिह्न प्रसन्नता, ५ रजोगुणर्नु चिह्न संताप, ३ तमोगुण- चिह्न दीनपएं. हवे १ प्रसाद, ५ बुझिपाटव, ३ लाघव, ४ प्रश्रय. ५ अनजिब्वंग, ६ अद्वेष, प्रीत्यादि, बा सत्वगुणनां कार्यलिंग , १ ताप, २ शोष, ३ नेद ४ चलचित्त, ५ स्तंज, ६ उद्वेग, श्रा रजोगुणनां कायलिंग . तथा १ दैन्य, २ मोह, ३ मरण, ४ असादन, ५ बीजत्सा, ६ ज्ञान गौरवादि, ७ आ तमोगुणनां कार्यलिंग के. कार्योथी सत्त्वादि गुणनो लास थाय बे. तथा लोकमां जे कांश सुख उपलब्ध थाय , जेम के आर्जव, मार्दव, ३ सत्य, ४ शौच, ५ लजा, ६ बुद्धि, उदामा, अनुकंपा, प्रसादादि, या सर्व सत्त्वगुणनां कार्य में तेमज जे कांश पुःख उत्पन्न थाय ने जेम के १ वेष, २ मोह,३ मत्सर ४ निंदावचन, ५ बंधन, तापादिस्थान, आ सर्व रजोगुणनां कार्य में तेमज जे कांश मोह उपलब्ध थाय बे, जेमके १ अज्ञान, मद,३ बालस्य, ४ जय, ५ दैन्य, ६ कृपणता, नास्तिकता, विषाद, ए उन्माद, खप्नादि या सर्व तमोगुणनां कार्य .श्रा सत्त्वादि परस्पर उपकारीत्रण गुणोथी सर्व जगत् व्याप्त बे, परंतु ऊर्वलोकमां देवताउँमा प्रधानपणे सत्त्वगुण , अने अधोलोक तिर्यंच, नरकविषे प्रधानपणे तमोगुण , तथा मनुष्यमां प्रधानपणे रजोगुणले. या त्रणे गुणोनी जे सम अवस्था तेनुं नाम प्रकृति. ते प्रकृतिनां अपरनाम प्रधान, अव्यक्त एमपण . प्रकृति नित्यखरूप ." अप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकखनावं कूठस्थं नित्यं" था नित्यनुं लदाण . तथाथा प्रकृति जे बे, ते अन्वय, असाधारणी, अशब्दा, अस्पर्शा, अरसा, अगंधा, अव्यया, केहेवाय जे. जे मूल सांख्य ते दरेक आत्मानी साथ जुदा जुदा प्रधान माने अने जे नवीन सांख्य ते सर्व आत्माउमा एक, नित्य, प्रधान माने. प्रकृति अने श्रात्माना संयोगथी सृष्टि थाय बे, ते कारणथी सृष्टि थवानो क्रम लखियें लिये. ' ते प्रकृतिथी बुद्धि उत्पन्न थाय.गाय श्रादि सन्मुख देखवाथी,आ गायडे, घोडो नथी, तथा श्रास्थाणु ने, पुरुषनश्री, एवो जे निश्चयरूप अध्यवसाय थाय ने तेनेबुद्धि कहे बीजं तेनुं नाम महत्पण कहेले. ते बुद्धिनां आठ रूप .१ धर्म, ज्ञान, ३ वैराग्य, ऐश्वर्य, आचार सात्विक १ सुकुंकाष्ठ. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिवेद. (१४५), बुछिनां रूपडे . तथा १ अधर्म, ५ अज्ञान, ३ अवैराग्य,४ अनैश्वर्य, आचार तामसी बुफिरूप. ते बुद्धिथी अहंकार उत्पन्न थायले. ते अहंकारथी सोल गुणनो समूह उत्पन्न थाय बे ते सोल गुण आले. १ स्पर्शनं, त्वक, २ रसनं जिव्हा, ३ घाणं, नासिका, ४ चतुः, लोचन, ५श्रोत्रं, श्रवण, श्रा पांचेने बुझींजिय कहे, कारण के आ पांचे पोत पोताना विषयने जाणे. तथा पांच कर्मेजिय. १पायु, गुदा, २ उपस्थ, पुरुष स्त्रीनुं चिह्न ३ वच, कंगदि आवस्थानथी उच्चाराय ते शब्द, ४ हाथ, ५ पग, आ पांचेथी पांच काम थायडे, १ मलोत्सर्ग, २ संजोग ३ वचन, ४ ग्रहण, ५ चलन, ते कारणथी आ पांचने कमॆजिय कहे. ११ मन, मन ज्यारे बुद्धीजियने मले, त्यारे बुद्धीजियरूप थर जायजे; अने कर्मेजियने मले त्यारे कमपियरूप थर जायजे. आ मन जे जे ते संकल्पवृत्तिले. तथा अहंकारथी पांच तन्मात्रा जेनी सूक्ष्म संझा ने ते उत्पन्न थायडे. १ रूप तन्मात्रा, ते शुक्लकृष्णादि रूपविशेष, २ रसतन्मात्रा, ते तिक्तादि रस विशेष, ३ गंधतन्मात्रा, ते सुरज्यादि गंधविशेष, ४ शब्दतन्मात्रा, ते मधुरादि शब्दविशेष, ५ स्पर्शतन्मात्रा, ते मृएकाठिन्यादिस्पर्श विशेष, श्रा षोडशक गण . हवे पांचतन्मात्राउँथी पांचनूत उत्पन्न थायडे, ते कहेबे. १ रूप तन्मात्राथी अग्नि उत्पन्न थायडे, रसतन्मात्राथी जल उत्पन्न थायडे, ३ गंध तन्मात्राथी पृथ्वी उत्पन्न थायडे, शब्द तन्मात्राथी श्राकाश उत्पन्न थायडे ५ स्पर्श तन्मात्राथी वायु उत्पन्न थायडे एम पांच तन्मात्राोथी पंच जूत उत्पन्न थाय. एम सर्व मती चोवीश तत्व प्रधान निवेदन कस्वां. " अने अकर्ता विगुण जोक्ता" एवं पुरुष तत्व पचीशमुं नित्य चिप माने. चोवीश तत्व रूप प्रधान. १ प्रकृति२ महान, ३ अहंकार पांच ज्ञानेंजिय, १३ पांच कम जिय, १४ मन, १ए पांच तन्मात्रा, २४ पांच नूत. एम चोवीश तत्व . तेमांथी प्रथम जे प्रकृति ने ते अनुत्पन्न होवाथी बुद्धि आदि सात प्रथमनां कारण बे, अने सोल पालनां कार्य बे, तेथी प्रथमनी सात प्रकृति विकृति केहेवाय बे, अने षोडशकगण कार्यरूप होवाथी विकृतिरूप; अने पुरुष जे जे ते न प्रकृति, न विकृति बे. नथी कोश्थी उत्पन्न थयेल के नथी कोश्ने उत्पन्न करतो, ते कारणथी तेवो . ॥ तथाचेश्वरः कृष्णः Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) जैन तत्त्वादर्श. सांख्यसप्ततौ ॥ “ मूलप्रकृतिर विकृति, महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त ॥ षोडशकश्च विकारो, न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुष इति ॥ अर्थ:- ईश्वर कृष्ण, सांख्य मतना श्राचार्य सांख्यसप्ततिग्रंथमां लखेबे के. मूलप्रकृति विकृति महत् यादि सात प्रकृति विकृति बे, षोडशक विकार विकृति बे, छाने पुरुष न प्रकृति, न विकृतिडे तथा महदादि, प्रकृतिना विकार बे, ते व्यक्त थइने फरी अव्यक्तपण थ‍ जाय बे. ते नित्यदोवाथी पोताना स्वरूपथी द्रष्ट थइ जायबे; अने प्रकृति यविकृति रूप होवाथी पोताना स्वरूपथी द्रष्ट यती नथी. तथा महत् या दिनुं अने प्रकृतिनुं स्वरूप सांख्य मतवाला या प्रमाणे मानेडे. १ हेतुमत्, २ अनित्य, ३ व्यापक, ४ सक्रिय, ए अनेक, ६ आश्रित, लिंग, सावयव, ए परतंत्र, १० व्यक्त. प्रकृति तेनाथी विपरीत बे. १ हेतुमत्, कारण वाला बे, महत् यदि, नित्य, उत्पत्ति धर्मवाला, ३ अव्यापक, बुद्धि आदि व्यापिबे, सर्वगत नथी, ४ सक्रिय, अध्यवसायसंयुक्त वर्तेबे, ते हेतुथी क्रिया सहित, सव्यापार चालवा वालांबे, ए छानेक, त्रेवीश प्रकारना डे, तेथी, ६ आश्रित. आत्माना उपकार वास्ते प्रधानने अवलंबीने रहे 9 लिंग, जे जेमांची उत्पन्न थायडे ते तेमांज लय पामे बे, "लयंकयं गरबतीति लिंगं,” पांच भूत, पांच तन्मात्रामा लय पामेबे, पांच तन्मात्रा, दश इंद्रिय, अने मन, अहंकारमां लयपामेबे, अहंकार बुद्धिमां लयपामेबे, छाने बुद्धि प्रकृतिमां लय पामेबे; प्रकृतिनो कोइमां पण लय थतो नथी. ८ सावयव, शब्द रूप, रस, गंध, स्पर्शादि संयुक्त बे, ए परतंत्र, कारणने आधीन होवाथी, १० व्यक्त; तेवीज रीतें महदादि व्यक्त बे; प्रकृति तेनाथ विपरीत, सुगम बे. या अपमात्र स्वरूप बतावेल बे, विस्तारथी जाणवुं दोयतो सांख्य सप्तति यदि शास्त्रो जोवां. 66 हवे पचशमा पुरुष तत्वनुं स्वरूप कहियें बियें. पुरुष " कर्त्ता विगुणोजोक्ता, नित्यचिदन्युपेतश्च" बे. पुरुषतत्व श्रात्माने कहे बे. १ - त्मा, विषय सुखादिनां कारण पुण्यादि करतो नथी तेथी कर्त्ता बे; कारण के आत्मा तृणमात्र पण तोडवाने समर्थ नथी; छाने कर्त्ता प्र कृति, कारण के प्रकृतिमां प्रवृत्तिखनाव बे; तथा २ “ विगुणः " सवादिगुणरहित, कारण के सत्त्वादि प्रकृतिना धर्म बे, तथा ३ " जो Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिछेद. (१४७) ता" आत्मा जोक्ता, जोगवनार , जोक्ता पण सादात् नथी, परंतु प्रकृतिना विकारजूत उन्नय मुख दर्पणाकार जे बुद्धि , तेमां संक्रमण थयां थकां निर्मल आत्मखरूप विषे सुख दुःखोना प्रतिबिंब उदय मा थी जोक्ता केहेवाय बे. “ बुद्ध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतत" इतिवचनात्॥ जेम जासुस फुलनी समीप रेहेवाना कारणथी स्फटिकमां रक्ततादि केहेवामां आवे डे, तेम प्रकृतिना निकट संबंधथी पुरुषपण सुख दुःखोनो नोक्ता केहेवाय ने. सांख्य मतना वादमहार्णवमां पण कहे जे " बुविदर्पणसंक्रांतं, समर्थप्रतिबिंबकं ॥ द्वितीयं दर्पणं कल्पे, पुंसिअट्यारोहति ॥१॥ तदेव नोक्तृत्वमस्य नत्वात्मनोविकारापत्तिरिति ॥ श्रानो तात्पर्य उपर बतावेल बे. तथा कपिलनो शिष्य आसुरिपण कहे जे ॥ श्लोक ॥ विवक्तेहपरि णतौ, बुद्धौ जोगोऽस्य कथ्यते ॥ प्रतिबिंबोदयः खले, यथा चंगमसोंजसि ॥१॥ तथा विंध्यवासी सांख्याचार्य आत्माने तेवीज रीतें नोक्ता कहे . पुरुष अविकृत आत्माज बे, खनिर्नास अचेतन मन कर्ता . ते मननी निकटताथी उपाधि स्फटिकवत् देखाय बे; "नित्या या चिच्चेत ना तयाऽन्युपेतः” आ केहेवाथी पुरुषज चैतन्यखरूप . " नतु ज्ञानस्य" परंतु ज्ञान नथी, कारण के ज्ञाननो धर्म बुद्धि . तथा पतंजलि पण एमज कहे . तथा " पुमान् ” आ जे एक वचन डे ते जातिनी अपेदाथी ने; परंतु आत्मा अनंत , कारण के जन्म मरणादि कारणोना नियम, तथा धर्मादि अनेक प्रवृत्ति देखवामां आवे . ते सर्व अनंत आत्मा सर्वगत तेमज नित्य . ॥ उक्तं च ॥ अमूर्तिश्चेतनो नोगी, नित्यः सर्वगतोऽक्रियः॥ अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म, आत्मा कापिलदर्शनशति॥ सांख्यमत त्रण प्रमाण माने . १ प्रत्यद, २ अनुमान, ३ शब्द. ते मतनुं नाम सांख्य अथवा शांख्य शा वास्ते कहे ? तेनो हेतु एवो डे के, संख्या प्रकृति तत्व पचीश रूप तेने जे जाणे अथवा जणे. ते सांख्य. तथा जो तालु शकारथी बोलियें तो शांख्य एम केहेवाय. तेजेना मतमा शंखध्वनि ने एम वृझोनो श्रान्नाय तेथी शांख्य नाम बे. वली शंख नामे कोई श्राद्य पुरुष थया डे. "तस्यापत्यं पौत्रादिरिति गर्गा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) जैनतत्त्वादर्श. दित्वादय स्त्री प्रत्यये शांख्या षामि इदं दर्शनं शांख्यं शांखं वा" ॥ इति सांख्यमतसंक्षेपवर्णनं. हवे मीमांसकमत लखिये बियें, तेनुं बीजुं नाम जैमिनीय पण कहेबे. मतवाला सांख्यमतनी पेठे एकदमी, त्रिदंडी होय , धातुरक्त वस्त्र पहेरे . मृगचर्मासन पर बेसे बे, कमंमल राखेडे, शिरमुंमित करावे, संन्यासी प्रमुख द्विज था मतमां होय , वेद तेमना गुरु , परंतु बीजा कोई वक्ता गुरु नथी. ते पोते पोताने संन्यस्तं संन्यस्तं कहे, यझोपवीतने धोईने त्रणवार तेनुं जल पीये. आमीमांसक बे प्रकारना बे, एक याज्ञिकादि, ते पूर्वमीमांसक बे, अने बीजा उत्तरमीमांसावादी डे. या झिकादि, कुकर्मना तजनार, यजनादि षट्कर्मना करनार, ब्रह्म सूत्रना धारक, गृहस्थाश्रममां स्थित, शूजनुं अन्नादि तजनार बे, तेना पण बे नेद , एक जह, बीजा प्रजाकर; नह प्रमाण माने बे, अने प्रनाकर पांच प्रमाण माने . उत्तरमीमांसक वेदान्ति बे, ब्रह्म अद्वैतज माने " सर्वमेवेदं ब्रह्मेति नाते" तेपर प्रमाण आपे ले के एकज आत्मा सर्वशरीरोमां उपलब्ध थाय . ॥ श्लोक ॥ एक एवहि नूतात्मा, जूते जूते व्यवस्थितः ॥ एकधा बधुधा चैव, दृश्यते जलचंडवत् ॥१॥ इति वचनात् ॥ " पुरुष एवेदं सर्वयभूतं यच्चन्नाव्यमिति वचनात् ॥ श्रात्मामांज लयथर्बु तेनुं नाम मुक्ति जे. बीजी कांश मुक्ति नथी. ते मीमांसक छिजज जेनुनाम जगवत् , ते चार प्रकारना बे; १ कुटीचर, ५ बहूदक, ३ हंस, ४ परमहंस. तेमा १ त्रिदंडी, सशिखा, ब्रह्मसूत्री, गृहत्यागी, यज मान, परिगृही, एकवार पुत्रना घरमां जोजन करे , कुटीमां वसेजे तेने कुटीचर कहेबे, २ तुल्यवेष, पूर्वोक्त विप्रना धरमां नीरस निदा नोजी विष्णुजापपर नदीना तीरपर रहे थे, तेने बहूदक कहे , ३ ब्रमसूत्र, शिखारहित, कषाय वस्त्र, दंडधारी, गाममां एकरात्रि अने नगरमांत्रण रात्रि रहे, अग्नि ज्यारे धूमरहित थाय त्यारे ब्राह्मणना घरमां जोजन करे जे अने तपथी शरीर शोषण करी, देशोमां फरता रहे बे, तेने हंस कदे ने हंसनेज ज्यारे ज्ञान थाय बे, त्यारे चारे वर्णना घरमां लोजन करे डे, पोतानी श्वाथी दंड राखे , ईशान दिशा सन्मुख जाय जो.शक्तिहीन थई जाय तो अनशन ग्रहण करे , ४ वेदांत एकध्यायी, ते Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिबेद. (१४ए) परमहंस केहेवाय बे; था चारेमा पूर्वथी परस्पर अधिक चारे केवल बह्माद्वैतवाद साधवामां व्यसनी , इत्यादि था मतनुं खरूप . हवे पूर्वमीमांसावादिर्जनो मत विशेषथी लखिये बियें. जैमिनीय वाला कहे जे के, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी वीतराग, सृष्टियादिना कर्ता, आ पूवोक्त विशेषणयुक्त कोश्पण देव नथी, के जे देवतुं वचन प्रामाणिक होय, प्रथम तो देवज कोश वक्ता नथी, के जेतुं कहेलुं वचन प्रमाण थाय. अनुमानथी पुरुष सर्वज्ञ नथी, मनुष्य होवाथी, रथ्यापुरुषवत. पूर्वपदः- किंकर थई जेनी सुर, असुर सेवा करे, तेमज त्रण लोकमां ऐश्वर्यना सूचक, बत्र,चामरादिजेनी विजूति , ते सर्वज्ञ केम न होशके? __उत्तरपदः-श्रा विनूति तो अजालीआ पण रची शके , ते वातना सादी जैनमतना सामंतजन आचार्य पण ॥श्लोक ॥ देवागमनजोयान, चामरादिविनूतयः ॥ मायाविष्वपि दृश्यंते, यतस्त्वमसि नो महान् . पूर्वपक्षः- जेम अनादि सुवर्णनो मेल, क्षार प्रमुख अग्नि पुटादि क्रियाविशेषथी शोधाता, सुवर्ण सर्वथा निर्मल थई जाय बे, तेम आस्मा पण निरंतर ज्ञानादि अन्यासथी निर्मल थवाथी तेने सर्वज्ञपणांनो संजव केम न होय ? अवश्य होयज. उत्तरपदः-आ तमारं केदेवु ठीक नथी; कारण के अभ्यास करवाश्री शुछिनी तरतमताज थाय बे, परंतु परम प्रकर्ष अवस्था थती नथी, कारण के जे पुरुष चालवानो अभ्यास करे, अर्थात् कूदवानो, बलंग मारवानो, ठेकडो मारवानो अभ्यास करे,ते दशहाथ वीशहाथ कुदी शकशे, परंतु सो योजन कूदवानी शक्ति ते कदापि मेलवी शकशे नहि, अने सर्व लोक कूदी जवानो अभ्यास तो कदापि तेनाथी थश्शकशे नहि. तेवीज रीतें आत्मापण अन्न्यासद्वारा सर्वज्ञ थक्ष शकतो नथी. पूर्वपदः- मनुष्यने सर्वज्ञता चले न होय, परंतु ब्रह्मा विष्णु, महेश्वरादिने तो सर्वज्ञता होय बे, कारण के तेमने तो जगत् ईश्वर माने बे. ते वात कुमारिल पण कहे . "दिव्य देह होवाथी” ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, तेउँने सर्वज्ञता होय , मनुष्यने सर्वज्ञता केवीरीतें होय ? उत्तरपदः-जे रागद्वेषमा मन ने निग्रह अनुग्रहमां ग्रस्त, काम सेवनमा तत्पर दे, एवा लदाणवाला ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, सर्वज्ञ केवी Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५०) जैनतत्त्वादर्श. रीतें होश् शके ले ? कारण के प्रत्यक्ष प्रमाण तो सर्वसाधक नथी, कारण के तेतो (इंडियो) वर्तमान वस्तुनेज ग्रहण करेजे; अने अनुमानथी पण सर्वज्ञ सिद्ध थता नथी, कारण के अनुमान प्रत्यक्ष पूर्वकज प्रवृत्त यश् शके बे; तेमज आगम पण सर्वज्ञनी सिद्धि करनारूं कोई नश्री; कारण के आगम सर्वे विवादास्पद बे; वली उपमान पण नथी, कारण के बीजा सर्वज्ञ को होय तो उपमान बने, तेवीज रीतें अर्थापत्तिथी पण सर्वज्ञ सिक थता नथी, कारण के अन्यथा अनुपपद्यमान एवो कोर पदार्थ नथी, जे होवाथी सर्वज्ञ सिझ थाय. ज्यारे नावग्राहक पांचे प्रमाणथी सर्वज्ञ सिद्ध न थया, त्यारे सर्वज्ञ अनाव प्रमाणना विषय थया. सर्वज्ञ प्रत्यक्षादि गोचरने अतिक्रांत होवाथी, शशशृंगवत् ज्यारे कोश् देव सर्वज्ञ नश्री, अने तेवा सर्वज्ञ देवतुं कथन करेलुं ज्यारे कोश् शास्त्र नथी, त्यारे अतींडिय अर्थनुं ज्ञान केम थाय ? एवी मनमां आशंका करीने जैमिनि कहे बे के “ तस्मात् ” ते कारणथी अतीप्रिय इंजियोना विषयरहित जे, आत्मा, धर्म अधर्म, काल, स्वर्ग, नरक, परमाणु प्रमुख पदार्थो बे, तेना करतल आमलकवत् साक्षात् देखनार कोश् नथी. ते हेतुथी नित्य जे वेदवाक्य बे, तेनाश्रीज यथार्थ तत्त्वनो निश्चय थाय .कारण के वेद, अपौरुषेय बे, अर्थात् कोश्य रचेला नथी, अनादि नित्य बे, ते वेदवचनोथी अतींजिय पदार्थोनुं ज्ञान थाय , परंतु कोश् सर्वाना कहेला आगमथी यतुं नथी, कारण के सर्वज्ञ कोश्पण पूर्व कालमां थया नथी, वर्तमानमा जे नहि, अने नविष्यमा थवाना नथी. ॥ यथाहुस्ते ॥ अतींजियाणामर्थानां, साक्षात् दृष्टा न वियते ॥ वचनेनहि नित्येन, यः पश्यति सपश्यति ॥१॥ प्रश्नः-अपौरुषेय वेदना अर्थ केवीरीतें जाणी शकाय ? उत्तरः- अमारी परंपरा जे अव्यवछिन्न जे तेनाथी जाणी शकाय डे, ते कारणथी तथा सर्वज्ञा दिनो अनाव होवाथी प्रथम वेदनाज पाठ प्र. यत्नथी करवा जोश्ये. वेद चार बे, १ रुन, ५ यजुष्, ३ सोम, ४ अथर्व. ए चारनो पोठ करी, पड़ी धर्मजिज्ञासा करवी जोश्ये ? धर्म अतींजि १ विवादनास्थानरूप.२ वीजे प्रकारे. ३ उपपन्न नहि (सिद्धन) थयेली. ४ हथेलीमां. ५आमलानी पेठे. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिजेद. (२५१) य . वली धर्म ते केवो जे ? तथा क्या प्रमाणथी जाणियें ? एवी जे जाणवानी श्वा, तेनुं नाम जिजासा . ते जिज्ञासा केवी ते जिज्ञासा धर्म साधवानो उपाय , तेनुं नाम नोदना बे, ते नोदनानां निमित्त बेडे, एक जनक, बीजो ग्राहक के. अहियां ग्राहक निमित्त जाणवू. तेज विशेष खरूप कहियें बियें. श्रेयः साधकमव्यादिविषे जीवोने प्रेरियें जेनाथी, ते नोदना, वेद वचननी करेली प्रेरणा ले ॥ इत्यर्थः॥ धर्म नोदनाथी जणाय . ते कारणथी नोदनालक्षण धर्म , धर्म अतींजिय होवाथी नोदनाथीज जा. णियें लियें. प्रत्यदादि बीजा को प्रमाणथी जाणी शकातो नथी, कारण के प्रत्यदादि विद्यमाननाज उपलंजक डे. अने धर्म कर्त्तव्यतारूप ले अने कर्त्तव्यतात्रणेकाल खजाव वाली ले ते कर्त्तव्यतानुं ज्ञान नोदनाज उत्पन्न करी शके . आ मीमांसकोनो अभ्युपगम . हवे नोदनानुं व्याख्यान करिये जियें, अग्निहोत्र, सर्व जीवोनी अहिंसा, दानादि क्रिया ते करवावास्ते जे प्रवर्तक, प्रेरक वेदोनां वचन बे. तेज नोदना जे. जेम के “ अग्निहोत्रं जुयात् स्वर्गकामः" एवां जे प्रवर्तक वेदवचन , ते नोदना जाणवी. यथा ॥ " न हिंस्यात् सर्वतानि, तथा नवै हिंस्रो नवेत् " आ वचनोथी प्रेयां थकां अव्य, गुण, कर्मोथी हवनादिविषे जे प्रवृत्त थवं, ते धर्म , अने श्रावेदवचनोप्रेत्यां थकां पण जे न प्रवर्ते, अथवा विपरीत प्रवर्ते, तेने नरकादि अनिष्टफल थायजे. शाबरजाष्यमां पण एमज कहेल . श्रा जैमिनीय ब प्रमाण माने . १ प्रत्यक्ष, ५ अनुमान, ३ शब्द, ४ उपमान, ५ अर्थापत्ति, ६ अनाव. तेउनुं विस्तारथी खरूप जाणवू होय तो षम्दर्शन समुच्चयनी टीका जोवी. इति संक्षेपथी मीमांसकमत. आ पांच दर्शन आस्तिक केदेवाय बे, अने बहुं जैनदर्शन . तेनुंखरूप आगलना परिछेदमां लखवामां आवशे. नास्तिकमत दर्शनमां नथी. "नास्तिकं तु न दर्शन मिति राजशेखरसूरिकृतषम्दर्शनसमुच्चयवचनात्" ॥ तो पण नव्य जीवोने जाणवा वास्ते तेनु कांश्क खरूप लखिये बियें. ___ कपाली, जस्म लगावनार, योगी, ब्राह्मणादि, अंत्य जातिना लोक जेठने लोको वाममार्गी कहेडे, तेजे, तथा कौलिक इत्यादि नास्तिक Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३) जैनतत्त्वादर्श. बे, तेना मतनुं नाम नास्तिक चार्वाक . ते जीव, पुण्य पापादि कांई मानता नथी, चार जौतिक देह माने , तेमज सर्वजगत्ने पण चार लौतिक मानेडे. वली केटला एक चार्वाक एक देशी, श्रोकाशने पांचU नूत माने बे. पंचजूतात्मक जगत् के एम कहे . जूतोथीज मद्य शक्तिमत् चैतन्य उत्पन्न थाय डे एम तेर्जनो मत दे. पाणीना परपोटानी जेम, शरीर ने तेज जीव ने एम तेउनु मानवू . श्रआ मतवाला मद्य, मांस, खायचे; माता, बेहेन, दिकरी आदि जे अगम्यो, तेनी साये गमन करे ले. ते नास्तिक वामी, दरेक वरसे एक दिवस सर्वे, एकस्थडे एका थाय. स्त्रीउँने नग्न करी तेउनी योनिनी पूजा करे,तेमज विषय सेवनपण करे श्त्यादि, एवां बुरां काम करेले के आ पुस्तकमां तेनुं वर्णन करतां मने शरम लागे . तेथी लखेल नथी. ते नास्तिक कामसेवन उपरांत बीजो धर्म मानता नथी, मतलब के कामनेज धर्म माने. आ मतनी उत्पत्ति जैनमतंना शीलतरंगिणी नामना शास्त्रमा जे प्रमाणे लखेली ते प्रमाणे कहियें बियें. बृहस्पति नामनो एक ब्राह्मण हतो. तेनुं बीजुं नाम देवव्यास हतुं. तेने एक बेहेन हती. ते बाल्यावस्थामां विधवा थर हती. जेना आश्रयथी पोतानी जींदगी संपूर्ण करे एबुं को तेणीना सासराना घरमां साधन न होतुं, तेथी निराधार थश्ने पोताना जाश्ना घरमां आवी रही. ते अत्यंत स्वरूपवती तेमज यौवनवती हती, श्रा समये बृहस्पतिनी पत्नी मृत्यु पामी हती,बृहस्पतिने काम वासनाथी पीडा थावालागी, तेथी विषयासक्त थवाने लीधे पोतानी बेहेननी साथे विषयसेवन करवानी इला थर. विधवा बेहेनने प्रार्थना करी के हे बेहेन ? मारी साथे तु विषयसेवन कस्य, त्यारे तेनी बेहेनें कडं के हे ना? या वात उलयलोकविरुष्क , तेथी केम करी शकुं ? कारण के प्रथम तो हुं तारी बेहेन बुं तेथी नाश्नी साथे विषयनोग करूं तो अवश्य हुं नरकमां जाऊं, अने आ वातजो जगत्मा प्रसिद्ध थाय तो, सर्वलोकने धिक्कार पात्र थालं. एवी वात श्रवण करी बृहस्पतिए पोताना मनमां विचार कस्यो के, ज्यां सुधी तेणीना मनमाथी पाप, तेमज नरकादि कुःखनो नय दूर थशे नहि, त्यांसुधी ते मारी साथे कदापि संजोग Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिचेद. (श्यल ) रावनारने, कारणपणाना श्रावधी त्रिकालगत अर्थने विषय कहेनारने केम पूर्वापर व्याघात यशे नहि ? कारण के कारणनेज प्रमाणनो विषय मानेल बे. ते वास्ते त्री जो पूर्वापर विरोध बे. तथा कणय अंगीकार करवामां जेनो काल चिन्न जिन्न बे, एवा जे अन्वयव्यतिरेक, तेनी प्रतिपत्तिनो संजव थतो नथी, त्यारे तो साध्य साधनोनी त्रिकाल विषयव्याप्तिग्रहणमाननारने पूर्वापर व्यादति केम नहि ? या चोथो पूर्वापर विरोध बे. तथा सर्व पदार्थोंने पक्ष्यी मानीने पढी बुझें एम कयुं छे. ॥ श्लोक ॥ इत एकन्वते कल्पे, शक्त्या में पुरुषोहतः ॥ तेन कर्म विपाकेन, पादे विद्धोस्मि निक्षवः॥ १ ॥ या श्लोकमां जन्मांतर विषयमां शब्दनो प्रयोग कणयविरुद्ध बोलतां थकां बुद्धने पूर्वापर विरोध केम न केवो जोइयें या पांचमो पूर्वापरविरोध . तथा निरंश सर्व वस्तु बे एम प्रथम कहीने पढी फरी " हिंसाविरतिदान चित्तख संवेदनं श्ररुस्वगतं सङ्घव्य चेतनत्वस्वर्गप्रापण शक्त्या दिकं गृह्णदपि खर्गप्रापणशक्त्यादेरंशस्येति सांशतां पश्चारुदतः सौगतस्य कथं पूर्वापरविरुद्धं वचोन स्यात् " ए बहो विरोध बे. तेवीज रीतें निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण नीलादि वस्तुने सर्वप्रकारथी ग्रहण करतां बतां नीलादि श्रंशविषे निर्णय उत्पन्न करे बे, परंतु नीलादि श्रर्थगत कणय अंशविषय निर्णय उत्पन्न करता नथी, एम सांताने कतां कां सौगतने पूर्वापरवचन विरोध सुबोधज बे. सातमो विरोध . . तथा हेतुने त्रण रूपवाला माने बे, छाने संशयने बे उल्लेखवाला माने बे तेमज कहे बे, बतां सांश वस्तुने मानता नथी, या पणं श्रा. उमो पूर्वापर विरोध बे. तथा परस्पर नहि मलेला परमाणु निकट संबंधवाला एकत्र य घटादिरूपपणे प्रतिजास थायडे, परंतु पोतपोतामां अंगांगी जावरूपें कोपण कार्य आरंभ करता नथी. श्रा बौद्धोनो मतले. तेमां दूषण ए डे के परमाणु पोतपोतानामां नहि मली जवाथी घटनो एकजाग ज्यारे मे हाथी पकडियें त्यारे संपूर्ण घटने न हि रेहेतुं जोइयें. तथा घटने एक जा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) जैनतत्त्वादर्श. गथी उठावतां घटनो एक जागज उठवो जोइये, परंतु संपूर्णघट नहि Goat जोइयें. तथा ज्यारे घटने तेनो कांठोप कडी मे खेंचीयें, त्यारे घ नो एकदेशज श्रमापासे श्राववो जोइए, परंतु संपूर्ण घट न श्राववो जोइये, श्रने जलादिधारणरूप घटने अर्थक्रियालक्षण सत्व, अंगीकार करवा थकी सौगतोए परमाणुर्जनं मलवुं मानेलबे, घने तेना मतमां परमार्जनं मलवुं डे नहि, ते कारणथी या नवमो पूर्वापर विरोध बे. इत्यादि बौद्धमतमां ने पूर्वापर विरोधबे. वे बौद्धमनुं थोडं खंडन पण लखिये बियें. बौद्धोनो एवो मत बे के सर्व पदार्थ नैरात्म्य बे, अर्थात् श्रात्मस्वरूपें पोताना स्वरूपथी सदा स्थिर रेहेवावाला नथी, एवी जे जावना, तेनुं नाम नैरात्म्यभावना बे. नैरात्म्यजावना रागादि क्लेशोनो नाश करनारी बे जुड़े ज्यारे नैरात्म्यभावना थशे त्यारे पोताने पोताविषे, तथा पुत्र, जाई, जार्या, दिविषे पण आत्मीय अभिनिवेश नहि याय, अर्थात् " या मारां बे” एवो मोह नहि थाय. कारण के जे पोताने उपकारी बे ते आत्मीय बे, " जे पोताने प्रतिघातक बे ते द्वेष बे. न्यारे श्रात्माज नथी, परंतु पूर्वापर क्षण तुटेलाउनुं अनुसंधान बे ने पूर्व पूर्व हेतुथी प्रतिबद्ध ज्ञान क्षण, तेज तेवी रीतें उत्पन्न याय बे, त्यारे कोण कोनो उपकारक तथा उपघातक बे ? कारण के क्षणो, क्षणमात्र रेहेवाथी परमार्थथी उपकार, अनुपकार करीशकता नथी. ते वास्ते तत्ववेदियोने पोताना पुत्रादिमां आत्मीय मिनिवेश नथी. तेमज वैरीयो विषे द्वेष नथी. अने लोकोने अनात्मीय पदार्थोमां जे आत्मीय अभिनिवेश बे, ते तत्वमूल होवाथी अनादि वासनाना परिपाकें करेल . एम जाणवुं. प्रश्नः - जो परमार्थथी उपकार्युपकारक जाव नथी तो एम केम कहो बो के जगवान् सुगत करुणावडे सर्व जीवोना उपकारवास्ते देशना थापता हवा ? अने क्षणिकपणुं पण जो एकांतज बे तो तो तत्ववेत्ता पण एक क्षणपटी नाश पाम्या, अने तत्ववेत्ता पण जाणता दता के हुं भूतकालमां हतो नहि अने जविष्यमां दोवानो नथी, तो पढी मोक्षवास्ते शा माटे यत्न करे ? उत्तरः- तमे जे कनुं ते श्रमारो अभिप्राय नहि जाणवाथी अयुक्त जे. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिजेद. (१६१) जगवान् प्राचीन अवस्था विषे अवस्थित बे, अने सकल जगत्ने रागदेषादिषुःखोथी संकुल जाणतां थकां, केवीरीतें आ सर्व जगत्नु उःख माराथी दूर थाय एवी दया उत्पन्न थवाथी नैरात्म्य क्षणिकत्वादि जाणतां बतांपण ते उपकार करवा योग्य जीवोने निःक्लेशक्षण उत्पन्न करवावास्ते खप्रजाहितकर राजानीपेठे पोतानी संतति बुद्धिविषे, सकल जगत् साक्षात् करवाने समर्थ एवी पोतानी संततिगत विशिष्टतणनी उत्पत्तिवास्ते यत्न श्रारंज करेने. कारण के सफल जगत् साक्षात्कार कस्याविना सर्वने श्रदण विधान उपकार करवो अशक्य थाय तेथी समुत्पन्न केवल ज्ञान पूर्वस्थापन कृपाना विशेष संस्कारवशथी जगवान् कृतार्थज ने तोपण देशना देवामा प्रवृत्त थायले. तेथी ते देशना सांजलीने निर्मल बुद्धिथी नैरात्म्यतत्त्व विचारतां थकां जीवनेनावनाप्रकर्ष विशेषथी वैराग्य उत्पन्न थायडे, तेथी अनुक्रमें मुक्तिलाल थायजे. अने जे श्रात्माने माने तेने मुक्तिनो संनव नथी, कारण के परमार्थथी श्रात्मा विद्यमान ते श्रात्मा स्नेहना वशथी ते श्रात्माने सुखी थवानी तृष्णा थशे, अने तृष्णाने वश थवाथी सुखनां साधनोविषे ते प्रवृत्त थशे, एम ज्यारे गुणोमां राग करशे, ते रागथी ज्यांसुधी श्रात्मानिनिवेश रहेशे त्यांसुधी संसार .॥ श्राह च ॥ श्लोक ॥ ये पश्यंत्यात्मानं, तत्रास्याहमिति शाश्वतः स्नेहः ॥ स्नेहात् सुखेषु तृष्यति, तृष्णा दोषांस्तिरस्कुरुते ॥ १॥ गुणदर्शि परितृष्यन्, ममेति तत्साधनान्युपादत्ते ॥ तेनात्मानिनिवेशो, यावत्तावत्ससंसारः ॥२॥ इति बौद्धमत पूर्वपक्ष. __ हवे जैनमतनी तरफथी उत्तरपक्षः-'श्रा सर्व कहे तमारा अंतःकरणमां वासकरेला महामोहना विलासनुं सूचक . श्रात्मानो अनाव थतां . बंध मोक्षादिनुं एकाधिकरणत्व नहि थाय ते बतावियें बियें. हे बौछो! तमे थात्मामानता नथी, परंतु पूर्वापर दण तूटेलातुं अनुसंधान ज्ञान क्षणोनेज मानोडो. ज्यारे एम मानशो त्यारे बंध अन्यने थयो, अने मुक्ति अन्यनी थर; कुधा श्रन्यने लागी, तृप्ति अन्यने थ; अनुन्नव श्रन्यने थयो, अने स्मरण अन्यने थयु; जुलाब अन्य लीधो, अने रोगरहित अन्य थयो; तपःक्लेश अन्यने थयो, अने स्वर्गादिफल अन्यने प्राप्त थयु; श्रन्यासनी प्रवृत्ति अन्यने थर, अने श्रन्यासनु फल Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२) जैनतत्त्वादर्श, श्रन्यने यु; या सर्व हकीकत अतिप्रसंग होवाथी युक्तियुक्त नथी.जो एम कहो के संताननी श्रपेदाथी बंध, मोदा दिनुं एक अधिकरण अश्शकेडे, तो तेपण ठिक नथी. कारण के संतानपण तमारा मतमां यश् शकतां नथी जुर्ज संतान जे जे ते संतानिथी जिन्न के अजिन्न ? जो कहो के जिन्नने तो पनी बे विकल्प श्रमे तमने सोंपियें लियें. ते संतान नित्य ले के अनित्य जे? जो कहो के नित्य जे तो तेने बंध मोदा दिनो संजव नथी, कारण के सर्वकाल एकखजाव होवाथी तेनी अवस्था विचित्र थश् शकती नथी. अने तमेतो नित्य मानता नथी " सर्व क्षणिकमिति वचनात्" हवे जो कहो के अनित्य ले तो तो तेज प्राचीन बंधमोदादि वैय्यधिकरण दूषण प्राप्त थयु. जो कहो के अजिन्न , तो तो तेनाथी अजिन्न होवाथी तेना स्वरूपनी पेठे संतानिज थया, संतान थया नहि. ज्यारे एम थया त्यारे तो तदवस्थज पूर्व, दूषण जे. जो कहो के दणथी अन्य संतान कोइ नथी परंतु जे कार्यकारणजाव प्रबंधथी क्षण नावडे, तेज संतान बे, ते वास्ते दोष नथी;था पण तमारु केहेबुं श्रयुक्त , कारण के तमारा मतमां कार्यकारणनावपण घटतो नथी. तेज बतावियें लिये. प्रतीत्यसमुत्पादमात्र कार्यकारणनाव , तेथी यथाविवक्षित घटक्षण अनंतर घटक्षण , तेमज पटादिक्षणपण , अने जेम घटक्षणथी पेहेला अनंतर विवक्षित घटक्षण ले तेमज पटादिक्षणपण , त्यारे तो केवीरीतें प्रतिनियत कार्यकारणनावनो अवगम थाय ? __ एक बीजुं पण दूषण ने ते ए डे के. कारणथी जे कार्य उत्पन्न थाय बे, ते सत् उत्पन्न याय में के असत् उत्पन्न थाय ? जो कहो के सत् उत्पन्न थाय ने तो कार्योत्पत्तिकालमां पण कारण सत् थयु; त्यारे तो कार्य कारणने समकालतानो प्रसंग बन्यो; अने एककालमां बे पदार्थोना कार्यकारणलाव मान्या नथी, नहि तो माता पुत्रनो व्यवहार बनशे नहि. घटपटादिने पण परस्पर कार्यकारणजावनो प्रसंग थर जशे. जो असत् पक्ष मानशो तो तेपण अयुक्त बे, कारण के जे असत् , ते कार्य यश् शकतुं नथी. नहि तो खरशृंगथीपण कार्य उत्पन्न थर्बु जोश्ये. वली अत्यंतालाव, प्रध्वंसाजाव, बने जगाए वस्तुसत्तानो संजव होवाथी, था बनेनुं कांपण विशेष थयु नहि, जो कहो के प्रध्वंसा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिजेद. (१६३) जावमां वस्तु हती, ते कारणथी हेतु दे, त्यारे तो ज्यारे हती त्यारे हेतु न होतो, अन्यदा हेतु थयो, एम तो बहु सारी तत्वव्यवस्था थर। वली एक बीजी वात डे के- तनावे जाव एवा अवगममा कार्य कारणनावनो अवगम , ते जो तनावे नाव , ते शुं प्रत्यक्षथी प्रतीत थाय डे के अनुमानथी प्रतीत थाय जे ? प्रत्यक्षथी तो प्रतीत थतो नथी, कारण के पूर्ववस्तुगत प्रत्यक्षथी पूर्ववस्तु परिबिन्न थर, धने उत्तर वस्तुगतथी उत्तरवस्तु परिचिन्न थर, अने था बनेनुं अनुसंधान करनार त्रीजें खरूप तो को मानता नथी, ते कारणथी ते अनंतर तेनो नाव बे, एवो केम अवगम थाय ? ते तो तेने पण प्रत्यक्षपूर्वक होवाथी श्रनुमानथी पण न थाय, अने अनुमान तो लिंगलिंगिसंबंधग्रहणपूर्वक प्रवृत्त थाय , श्रने लिंगलिंगिनो संबंध तो प्रत्यदायी ग्राह्य , जो श्रनुमानथी संबंधग्रहण करियें, तो अनवस्था दूषण थावे जे; अने कार्य कारणजावविषे प्रत्यक्ष प्रवृत्त यतुं नथी, ते कारणथी अनुमाननी पण प्रवृत्ति नथी. तेवीजरीतें ज्ञानना बनेक्षणोना परस्पर कार्यकारणभावनो अवगमपण निषेध थयो जाणवो. त्यांपण खसंवेदनथी पोतपोताना रूप ग्रहणमां परस्परखरूप अनवधारणथी तदनंतर हुँ उत्पन्न थयो ९, अने हुँ तेनो जनक बुं, एवी अवगति नहि होवाथी तमारा मतमां कार्य कारणजाव नथी, तेमज तेनो अवगमपण नथी, तेथी, एक संतति पतित थवाथी बंधमोदनुं एकाधिकरण बे, श्रा केदेवू तमारं मृषा बे. श्रा केहेवाथी जे कडे के उपादेय उपादान क्षणोनो परस्पर वास्यवासकलाव होवाथी, उत्तरोत्तर विशिष्ट विशिष्टतर क्षणोत्पत्तिथी मुक्तिनो संजव डे, तेपण उपादेय उपादान नावना उक्तरी तिथी अनुपपद्यमान होवाथी प्रतिक्षिप्त जाणवा; अने जे वास्यवासकनाव कहेल , तेपण तलफूलनीपेठे एककालमां बने दोय त्यारे होश् शके . "उक्तं चान्यैरपि" "श्रवस्थिताहि वास्यंते, नावाजावैरवस्थितैः" तो केवीरीतें उपादेय उपादान कण बनेने परस्पर असाहित्य होवाथी वास्यवासकनाव होय ? उक्तं च ॥ वास्यवासकयोश्चैव, मसाहित्यान्नवासता ॥ पूर्वक्षणैरनुत्पन्नो, वास्यते नोत्तरः क्षणः॥१॥ उत्तरेण विनष्टत्व, न च पूर्वस्य वासना ॥ इति ॥ एक बीजी वात एवी डे के वासना वासकथी जिन्न डे के अभिन्न ? Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) जैनतत्त्वादर्श. जो कहो के जिन्न डे तो तो ते वासनायें करी शून्य होवाथी अन्यने वस्तु अंतरवत् कदापि वासित करशे नहि. जो कहो के अजिन्न ने तो तो वास्यदणमां वासनानो संक्रम कदापि थशे नहि. तेवी रीतें तेना स्वरूपनी पेठे तेनाथी अजिन्न होवाथी वासकनी पण संक्रांति . जो कहो के सं. क्राति ने तो अन्वयनो प्रसंग श्रावशे, तेथी तमारु केहेबु कोश्पण कामर्नु नथी, अने तमे जे कडं इतुं के सकलजगत् रागोषादि कुःखसंकुल जाणतां थकां सकल जगत्नो उःखोथी केवीरीतें हुँ उकार करूं ? इत्यादि. आ पण पूर्वापर असंबंध जे. कारण के तमारो दणिक मतज पूर्वापर तुटेलो परमार्थथी असत् . वली क्षणोनुं रेहेवानुं कालमान एक परमाणुना व्यतिक्रममात्र . ते कारणथी उत्पत्तिथी व्यतिरिक्त तेनी को क्रिया उपपद्यमान थती नथी. “नूमिर्येषां क्रियासैव, कारकं सैव वोच्यते” इति वचनात् ॥ तेथी शानदणोनुं उत्पत्ति अनंतर गमनथी, अवस्थान नथी, पूर्वापर क्षणोथी अनुगम नथी, ते कारणथी तेजेने परस्परखरूप अवधारण नथी, तेमज उत्पत्ति अनंतर को व्यापार नथी, तो केवीरीतें मारी सन्मुख था अर्थ सादात् प्रतिनासे ले ? श्रा प्रकारें अर्थनो निश्चयमात्र करवामां पण अनेकदणोनो संचव के अनुस्यूत (संतति रूप ) थर उत्पन्न थाय . अने ते संततिरूपना अनावी सकल जगत् रागद्वेषादि पुःखसंकुलतानो क्याथी विचार होय ? अने दीर्घकालना अनुसंधानथी शास्त्रार्थनुं चिंतवन पण क्याथी होय ? जेना प्रजावथी सम्यक् उपाय जाणीने विशेष दयाथी मोदवास्ते घटना थाय ? पूर्वपक्षः- आ जे सर्व व्यवहार ने ते शानदणोनी संततिनी अपे. साथी , पडी तमे शा वास्ते या पक्षमा दूषण आपो बो? । उत्तरपदः- सुकुमारप्रज्ञोदेवानां प्रियः सदैव सप्तघटिकामध्यमिष्टान्ननोजनमनोज्ञाशयनीयशयनान्यासेन सुखै धितो" परंतु वस्तुना यथार्थतत्वविचारवामां तमारी बुद्धि कुशल थ नथी तेथी अमारुं केहेQ तमारी समजमां आवतुं नथी. कारण के ज्ञानसंततिविषे पण तेज दूषण बे. जे अमे उपर कहेल बे तेज बतावियें बियें. वैकल्पिक तेमज अवैकल्पिक जे ज्ञानदण , ते परस्पर अनुगमना अनावथी परस्पर स्वरूप जाणती नथी, अने क्षणमात्र उपरांत रेहेती नथी, त्यारे हवे केवी रीतें Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिजेद. (१६५) पूर्वापर अनुसंधानरूप दीर्घकालिक सकल जगत् फुःखिपणानो विचार शास्त्रविचारणरूप था व्यवहार होय ? श्रांख मीचीने जरा विचारो तो सही ? इत्यादि, बौद्धमतनुं खंडन. नंदिसिद्धांत, संमतितर्क, बादशारनयचक्र, अनेकांतजयपताका, स्याहादरत्नाकर, स्याहादरत्नावतारिका प्रमुख अनेक शास्त्रोमां बहु सारीरीतेकरेल .तेजोश्ले.इति बौद्धमतखंमन॥ हवे नैयायिकमतमा पूर्वापर व्याहतपणुं ने ते काश्क लखियें बियें. सत्तायोगथी सत्त्व जे एम कहीने सामान्य, विशेष, समवाय, आ पदाथोंने सत्ताना योग विनाज सत् केहेनारने पूर्वापरवचन व्याहतपणुं केम न थाय ? - ५ ज्ञान पोते पोताने जाणतुं नथी, पोताने पोताविषे क्रियानो विरोध बे, ते कारणथी; एम कहीने फरी कहे के ईश्वरचं जे ज्ञान ने ते पोते पोताने जाणे, श्रने खात्माविषे क्रियाना विरोध मानता नथी, तो हवे केम खवचनविरोध न थयो ? ३ वली दीपक जे जे ते पोते पोतानो प्रकाश करनार बे, अने श्रहिंयां खात्मविषे क्रियाविरोध मानता नथी, था पूर्वापर वचन व्याहतो. ४ बीजाने उगवावास्ते बल, जाति, निग्रहस्थान, तेउँने तत्वरूपपणाथी उपदेश करतां थकां थक्षपादकषितुं वैराग्यवर्णन एवं डे के जेम अंधकारने प्रकाशवालु केहेबुं तेना सदृश था केम पूर्वापरव्याहत नहि. __५ श्राकाशने निरवयवी स्वीकारीने फरी तेनो गुण जे शब्द ले ते एकदेशमां सुणावी श्रापे , सर्वत्र नहि. तेथी तो आकाशने सांशता थ ग. श्रा पूर्वापरव्याहतपणुं बे. ६ सत्ता योगथी सत्त्व , श्रने योग सर्व वस्तुउँमा सांशता होवाथी थाय , श्रने सामान्यने निरंश एक माने . श्रा पूर्वापरव्याहत वचन केम नहि ? ७ समवाय, नित्य एक स्वप्नाव माने बे, अने सर्व समवायी पदार्थोनी साथे संबंध नैयत्य (खसत्ता)थी थवाथी समवाय, अनेक अनेक स्वनाववालो थगयो. थाथी तो पूर्वापर विरोध थयो. ___" अर्थवत् प्रमाणं " अर्थ सहकारी ने जेनो ते अर्थवत् प्रमाण, एम कहीने फरी योगिप्रत्यक्षने अतीतादि अर्थ विषय कहेनारने केम Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६) जैनतत्त्वादर्श. पूर्वापर विरोध न होय ? कारण के अतीतादि जे जे ते विनष्ट, अनुत्पन्न होवाथी सहकारी यश् शकता नथी. 'ए तथा स्मृति गृहीतग्राहि होवाथी प्रमाण मानता नथी. " अनर्थ जन्यत्वेन" अर्थ विना होवाश्री, तेमज गृहीतग्राही होवाथी प्रमाण नथी; श्रने धारावाही ज्ञान तो गृहीतग्राही , तेने पण अप्रमाणता होवी जोश्यें. परंतु धारावाहि ज्ञानने नैयायिक तेमज वैशेषिक प्रमाण माने .अने स्मृतिने अनर्थजन्य होवाथी ज्यारे प्रमाण मानी, त्यारे श्रतीत अनागत अनुमानपण अनर्थजन्य होवाथी प्रमाण न थयां; श्रने अनुमानने शब्दनी पेठे त्रिकालविषयक माने बे, कारण के धुमाडाथी वर्तमान अग्नि अनुमेय बे, अने मेघोन्नतिथी थवानी वृष्टि, तेमज नदीनुपूर देखवायी थयेली वृष्टिर्नु अनुमान,श्रा बने अनर्थजन्य बे, तो पड़ी धारावाहि ज्ञान, श्रने अनर्थजन्य अनुमान, था बंनेने तो प्रमाण मा. नवां, अने स्मृतिने प्रमाण नहि मानवी, आ पूर्वापर विरोध डे. १० ईश्वरतुं सर्वार्थ विषय प्रत्यक्ष ज्ञान, इंजियार्थसन्निकर्षनिरपेक्ष मानोडो ? के इंजियार्थसन्निकर्षोत्पन्न मानोबो? जो एम कहो के इंजियार्थसंन्निकर्षनिरपेक्ष मानियें लियें, तो तो " इंजियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्य मित्यत्र सूत्रे " सन्निकर्षोपादान निरर्थक थशे; कारण के ईश्वरप्रत्यक्षज्ञान सन्निकर्ष विना पण थश् शके बे, जो एम कहो के ईश्वरप्रत्यक्षज्ञान, इंजियार्थसन्निकर्षोत्पन्न मानियेंबिये, तो तो ईश्वरना मनने अणुमात्र प्रमाण होवाथी युगपत् सर्वपदार्थोनी साथे संयोग नहि थशे; त्यारे तो ईश्वर ज्यारे एक पदार्थने जाणशे, त्यारे बीजो पदार्थ विद्यमान उतां पण तेने जाणी शकशे नहि; तेथी तो श्रमारी जेम ते ईश्वरने सर्वज्ञता कदापि प्राप्त थशे नहि, कारण के सर्व पदार्थोनी साये युगपत् सन्निकर्ष तो थर शकतो नथी; जो एम कहो के सर्वपदार्थोने अनुक्रमें जाणवाथी सर्वज्ञ , तो तो दीर्घकालें सर्वपदार्थोंने जाणवाथी ईश्वरनी जेम श्रमने पण सर्वज्ञ केहेवा जोश्य, वली एक बीजी वात ए ने के, अतीत,अनागत पदार्थ जे जे ते विनष्ट, अनुत्पन्न होवाथी मननी साथे तेनो सन्निकर्ष थ शकतो नथी; अने वर्तमान पदार्थनो संयोग थाय , तथा अतीत अनागत पदार्थ तो ते अवसरे असत् बे, तेथी म Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिजेद. (१६७) हेश्वरनुं ज्ञान केवीरीते अतीत अनागत अर्थनुं ग्राहक हो शके १ अने तमे तो ईश्वरचं ज्ञान सर्वार्थग्राहक मानो डो, तेथी पूर्वापरविरोध सहज थ गयो. तेवीज रीतें योगियोने पण सर्वार्थग्राहक ज्ञाननो उर्धर विरोध जाणी सेवो. ११ कार्यप्रव्य प्रथम उत्पन्न थवाथी तेनुं रूप पालथी उत्पन्न थाय , श्राश्चर्य विना गुण केवीरीतें उत्पन्न यशके ? एम केहेवा अनंतर कहे के कार्यअव्यनो विनाश थया पड़ी तेना रूपनो नाश थाय . श्रा पूर्वापर विरोध बे, कारण के ज्यारे कार्यअव्यनो नाश थयो त्यारे श्राश्रय विना रूप केवीरीते रही शक्युं ? नैयायिक तेमज वैशेषिक जगत्ना कर्ता ईश्वरने माने जे. श्रा पण तेउनु एक महामूढतानुं चिह्न बे; कारण के ईश्वर, जगत्ना कर्ता कोश्पण प्रमाणथी सिद्ध थश् शकता नथी. था हकीकतनुं बीजा परिछेदमां बहुज विस्तारथी वर्णन करेलु बे, तो पण जव्य जीवने बोध थवा वास्ते थोडो विस्तार अहियां पण करिये बियें. केटलाएक कदे के, साधुऊपर उपकारवास्ते तेमज पुष्टोनो संहार करवावास्ते ईश्वर युगयुगमां अवतार धारण करे; तेमज सुगतादि केटलाएक एम कहे के, मोक्ष प्राप्त कर्या पनी पोताना तीर्थने क्लेशमा दे. खीने नगवान् फरी अवतार धारण करे. यथा ॥ ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदं ॥ गत्वा गळंतियोपि, नवं तीर्थ निकारतति ॥१॥ जे फरी संसारमा अवतार लहे, ते परमार्थथी मोक्षरूप थयाज नथी, कारण के तेनां सर्व कर्मक्षय थयांनथी. जोमोहादि कर्म क्ष्य थयां, होय तो ते पोताना मतनो तिरस्कार देखीने शावास्ते पीडा पामे? तेमज श्रवतार धारण करे? जो साधुऊंना उपकार अर्थे तेमज पुष्टोना संहार वास्ते अवतार लहेडे, एम होय तो तो ते असमर्थ थया, कारण के अवतार लीधा विना ते काम करी शकता नथी, जो करी शकता होत तो, गर्जावासमां शा वास्ते पडे? ते उपरथी साबीत थायडे के तेनां सर्व कर्म क्षय थयां नथी, जो क्ष्य थयां होत तो कदापि अवतार लेत नहि ॥यक्तं॥ दग्धे बीजे यथात्यंतं, प्रार्जवति नांकुरः॥ कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति जवांकुरः॥१॥ उक्तं च श्रीसिद्धसेन दिवाकरपादैरपि ॥ जवाजिगामुकानां, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनताल (२६०) जैनतत्त्वादर्श. प्रबलमोहविजृजितं ॥ श्लोक ॥ दग्धनः पुनरुपैति जवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितनीरनिष्टं ॥ मुक्तः स्वयं कृततनुश्च परार्थशूर, स्त्ववासन प्रतिहतेष्विह मोहराज्यं ॥ १ ॥ श्त्यलं विस्तरेण ॥ पूर्वपदः-सुगतादि, ईश्वर चले न होय, परंतु सृष्टिना कर्त्ता तो महादेव ईश्वर बे, ते केम मानता नथी? उत्तरपदः-जगत्कर्ता ईश्वरनी सिछिमां प्रमाणनो अन्नाव , ते कारणथी मानता नथी. पूर्वपक्षः-जगत्कर्त्तानी सिधिमां प्रमाण . पृथिव्यादि को बुद्धिमाननां करेला . घटादि जेम कार्यरूप होवाथी; आ हेतु असिद्ध नश्री. पृथिव्यादि सावयव होवाथी कार्यत्वनी प्रसिद्धि होवाथी; तेमज जुर्म. पृथिवी, पर्वत, वृदादि सर्व सावयव होवाथी घटवत् कार्यरूप बे, वली आ हेतु विरुद्ध पण नथी, निश्चयपूर्वक करेला घटादिविषे कायत्वहेतु देखवाश्री, वली जेनो कर्त्ता नथी तेनाथी व्यावृत्त होवाथी अनेकांतिक पण नथी, तेमज प्रत्यद आगमपूर्वक अबाधित विषय होवाथी कालात्ययापदिष्ट पण नथी, श्रा निर्दोष हेतुथी जगत्कर्ता ईश्वर सिक थाय जे. उत्तरपक्षः-प्रथम पृथिव्यादि बुद्धिमाननां बनावेलांडे, आ सिद्ध करवा वास्ते कार्यत्वहेतु जे तमे कहोडो, ते हेतु शुं सावयवत्व ले ? के प्राग्वत् खकारणसत्ता समवाय ? के "कृतं" एवा प्रत्ययनो विषयत्व बे ? के विकारित्व ? जो एम कहो के सावयवत्वस्वरूप बे, तो श्रा सावयवपणुं शुं अवयवोविषे वर्तमानत्त्व ? के अवयवोथी आरज्यमाणत्व ? के प्रदेशत्व बे ? के सावयव एवी बुद्धिविषयत्व के ? प्रथम पदविषे अवयव सामान्य होवाथी था हेतु अनेकांतिक बे. तथा अवयवोविषे वर्तमान पण निरवयव तेमज अकार्य कहे , तथा बीजा पदमां हेतु साध्य समान बे. जेवी रीतें पृथिवी श्रादिने कार्यत्व साध्य बे, तेवीजरीतें परमाणु आदिने अवयव श्रारज्यत्व . त्रीजा पक्षमा आकाशनी साथे हेतु अनेकांतिक ने, कारण के आकाश प्रदेशवाळ बे, परंतु कार्य नथी. चोथा पदमा श्राकाशनी साथे हेतु व्यनि बलहेतु देखवाशी, वा पण नधी, निश्चयव होवाची घट Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७६) जैनतत्त्वादर्श. क् पदार्थ नथी. ए प्रेत्यजाव, परलोकनो सनाव, ते पण जीव अजीव विना बीजुं कांश पण जे नहि, १० फल, जे सुख दुःखनुं जोगव, तेनोपण जीवना गुणमा अंतर्भाव , तेथी एथक् पदार्थ मानवू वास्तविक नथी. ११ कुःख, श्रा पण फलथी जुई नथी. १५ जन्म मरणप्रबंध उठेदरूपें सर्व फुःख, दूर करवं, ते मोदनुं लक्षण , ते अपवर्ग तो श्रमे नवतत्वमा मानेल . ३ श्रा शुं ? एवा अनिश्चयरूप प्रत्ययने संशय कहे बे, ते पण निर्णय ज्ञानवत् श्रात्मानोज गुण डे. . ४ जेनाथी प्रयुक्त थया थकां प्रवर्ने , तेनुं नाम प्रयोजन , ते पण श्वाविशेष होवाथी श्रात्मानो गुण जे. ५ श्रविप्रतिपत्ति विषयमा प्राप्त जे अर्थ ते दृष्टांत , ते पण जीव अजीव पदार्थथी पृथक् नथी, तेथी न्यारो पदार्थ नथी, कारण के अवयव ग्रहण करवामां तेनुं पण ग्रहण थर जशे. ६ सिद्धांत चार प्रकारे . १ सर्वतंत्राविरुधः सर्व शास्त्रोमां श्रविरुद्ध जेम के स्पर्शनादि इंजियडे, अने स्पर्शादि इंजियार्थडे, तथा प्रमाणथी प्रमेयनुं ग्रहण थायले. २ समानतंत्रसिकः परतंत्रासिकः प्रतितंत्रासिकांतः जेमके सांख्य मतवालानो असत् श्रात्मलाल प्राप्त थतो नथी, अने सत्नो सर्वथा विनाश नथी.३ अधिकरण सिद्धांतः, जेनी सिद्धि थतां बीजापण अर्थ अनुषंगथी सिकथइ जाय ते.४ "अपरीक्षितान्युपगमत्वात्तहिशेषपरीक्षणमन्युपगमसिकांतः" जेमके कोश्य कडं के, शब्द शुं वस्तु ? कोश्क कहे, शब्द अव्य. ते शब्द नित्य ? के अनित्य ? इत्यादि विचार या चारे प्रकारना सिद्धांत ज्ञानविशेषथी अतिरिक्त नथी, अने ज्ञान विशेष, श्रात्मानो गुण, गुणिने ग्रहण करवाथी ग्रहण करेल तेथी पृथक् पदार्थ नथी. ७ अवयवाः प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन, था पांचे अवयवने जो शब्दमात्र मानियें तो तो पुजलरूप होवाथी तेनो अजीवतत्वमा समावेश थायडे, श्रने जो ज्ञानरूप मानियें तो जीवतत्वमा तेनो समावेश थायजे. तेथी तेमने पृथक् पदार्थ केहेवा ठीक नथी. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिजेद. (२४) जो ज्ञान विशेषने पृथक् पदार्थ मानियें तो तो पदार्थ अनेक घर जशे, . कारण के ज्ञानविशेष अनेक प्रकारना डे. संशयथी उपरांत जवितव्यता प्रत्ययरूप सत् अर्थ पर्यालोचनात्मक तेने तर्क कहेजे. जेमके श्रा स्थाणु अथवा पुरुष जरूर दशे, आ पण ज्ञान विशेषज; ज्ञान विशेष ज्ञाताची शनिन्न, तेथी पृथक् पदार्थ कल्पवो वास्तविक नथी. ए संशय, तेमज तर्कथी उत्तरकालनावि निश्चयात्मक एवं जे ज्ञान, तेनुं नाम निर्णय दे.श्रा पण ज्ञान विशेष अने निश्चयरूप होवायी, प्रत्यदादि प्रमाणनाअंतर्भाव अवाथी टयक् पदार्थ कल्पवो वास्तविक नयी. १०-११-१२ वाद, जप, वितंडा, प्रमाण तर्क साधन उपालंज सिद्धांत अविरुफ पंच श्रवयवसंयुक्त पद, प्रतिपदानुं जे ग्रहण कर तेनुं नाम वादळे. ते वादतत्व शिष्य अने आचार्यनो ज्ञानवास्ते घाय. तया तेज वाद वीजाने जीतवावास्ते, तेनीसाये बल, जाति निग्रहस्थानयी साधन उपालंज ते जल्पवे. तयाते वादज प्रतिपदस्थापनारूपेंज वितंडा. आ वाद, जल्प, वितंमा ए त्रयेनो नेदज घर शकतो नथीकारण के तत्वनुं चितवन करवामां तत्वना निर्णयार्थे वाद करवो जोश्ये, परंतु बल, जाति पादियी तत्वनो निश्चय यश् शकतो नयी; कारण के बलादि वीजाने उगवावास्ते करवामां श्रावे. तेनाथी तत्व निर्णयनी प्राप्ति यश् शक्ती नथी. जो तेजेनो नेदपण मानशो, तोपण ते पदार्थ घश् शकता नथी, कारण के जे परमार्थयी वस्तु , तेज पदार्थ. वाद तो पुरुषनी श्वाने श्राधीन , नियतरूप नथी, ते कारणथी पदार्थ नथी. वली कुकडां, कुतरां, मेढां एऊना वादमांपण पद, प्रतिपद ग्रहण करिये तो तेर्जुनेपण तत्वज्ञाननी प्राप्ति थवी जोश्य; परंतु ते तो तमे मानता नथी, तेथी वाद, जल्प, वितंमा, पदार्थ नथी. १३ हेत्वाजास १ असिझ, २ अनेकांतिक, ३ विरुड. श्रा त्रण प्रकारेंजे. हेतु तो नथी, परंतु हेतुनी जेम नासन घायडे, तेथी हेत्वानास कहेले. ज्यारे सम्यक् हेतुऊनीज तत्व व्यवस्थिति नथी, त्यारे हेत्वाजासोनुं तो केहेबुज गुं? कारणके जे नियत खरूपथी रहे ते वस्तुबे, श्रने २३ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७७) जैनतत्वादर्श. हेतु तो कोई साध्य वस्तुमां हेतु बे, अने बीजी साध्य वस्तुमा अहेतुने, ते कारणथी नियत स्वरूपवालो नथी. १४-१५-१६ बल, जाति, निग्रहस्थान. या त्रणे पदार्थ नथी. कारण के आत्रणे वास्तवमा कपटरूप. जेए तेमने तत्वरूपें कथन करेल ने, तेना ज्ञान, वैराग्यमाटे शुं कहे ? आ संसारमा जे चोरी, उगाइ, हाथफेरी प्रमुख शिखवे, ते नेपण तत्वज्ञानना उपदेशक मानवा सरडे, ए प्रमाणे नैयायिक मतना सोल पदार्थनुं खंडन समजवु. विशेष जाणवा श्छनारें न्यायकुमुदचंड अवलोकन करवो. आ खंडन सूत्रकृतांग सिकांतथी लखेल . जुउँ बारमुं अध्ययन. इति नैयायिकदर्शनखंडन. - हवे वैशेषिकमतखंमन लखिये बियें. वैशेषिकनां कहेला तत्व पण तत्व नथी. तेउए १ अव्य, ५ गुण, ३ कर्म, ४ सामान्य, ५ विशेष, ६ स. मवाय, एम तत्व मान्यां बे. तेमां अव्य नव , १ पृथिवी, २ अप, ३ तेज, ४ वायु, ५ आकाश, ६ काल, ७ दिक, श्रात्मा, ए मन. प्रथमनां चारे अव्योने जिन्न जिन्न अव्य मान्यां ते वास्तविक नथी; कारण के परमाणु जे जे ते प्रयोग विश्रसाथी पृथिवी श्रादिना रूप पणे परिणमे पण डे, तो पण पोताना अव्यपणांने तजता नथी, श्रने अति प्रसंग होवाथी अवस्थाजेदें अव्यना नेद मानवा ते योग्य नथी. वली आकाश तथा कालने तो अमे पण अव्य मानियें लियें, अने दिशा तो श्राकाशनुं अवयव नूत .तेथी टथक् अव्य नथी. आत्मा शरीरमात्रव्यापी उपयोग लक्षण तेने अमे अव्य मानिये बियें. अव्यमन पुजलप्रव्य अंतर्जावि बे, श्रने नावमन जीवनो गुण होवाथी, श्रात्मा अंतर्नावी . वैशेषिक कहे बे के जेम पृथिवीत्वना योगथी पृथिवी , इत्यादि.आपण तेनु केहे खप्रक्रियामात्र डे कारण के पृथिवीथी अन्य बीजं कोई पृथिवीपणुं नथी, जेना योगयी पृथ्वी थाय. परंतु सर्व जे कांश ते सामान्य विशेषात्मक डे, नरसिंहाकारवत् उन्नयखनाव बे. नान्वयः सहि नेदत्वा,नानेदोन्वयवृत्तितः ॥ मृदष्यसंसर्ग, वृत्ति जात्यंतरं घटः॥१॥ नावार्थः- घटमां मृत्तिकानो अन्वय नथी, पृथु बुध्न उदराकारादि हेतुथी नेद ने, तेमज अन्वयवर्ति होवाथी घटनो मृत्तिकाथी एकांत जेद पण नथी, अर्थात् घट मृत्तिका रूपज . अन्वय Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिवेद. (१७ए) व्यतिरेक बनेना मलवाथी घट जात्यंतर रूप, अर्थात् मृत्तिकाथी कथं चित् नेदानेदरूप . यथा ॥ न नरः सिंहरूपत्वा, न सिंहोनररूपतः॥ शब्दविज्ञानकार्याणां, दोजात्यंतरं हि सः ॥१॥ जावार्थ:-सिंहरूप होवायी नर नथी,अने नररूप होवाथी सिंहपण नथी, तो शुंडे? १ शब्द, विज्ञान,३ कार्य, तेजेना नेद होवाथी नरसिंह, त्रीजी जातिबे. २ रूप, रस, गंध, स्पर्श, तेजनी रूपिअव्यमा प्रवृत्ति बे, अने विशेष गुण , तथा ? संख्या, परिमाण, ३ पृथक्त्व, ४ संयोग, ५ विनाग, ६ परत्व, ७ अपरत्व, या सामान्य गुण बे, तेउनी सर्वप्रव्यमा प्रवृत्ति . तथा १ बुद्धि, सुख,३ पुःख, ४ श्ला, ५ द्वेष, ६ प्रयत्न, धर्म, न्यधर्म, ए संस्कार, था आत्माना गुण . तथा गुरुत्व पृथ्वी तथा जलमां बे, अव्यत्व पृथ्वी, जल, तेमज अग्निमां , स्नेह जलमांज , वेगनाम संस्कार तेमूर्त प्रव्योमांज , अने शब्द आकाशनो गुण . तेमां संख्यादि सामान्य गुण रूपादि पेठे अव्यखनाव होवाथी परजपाधियी गुणज नथी. वली गुण जो अव्यथी पृथक् थ जाय तो अव्यना खरूपनो नाश थर जशे. “ गुणपर्यायवत् अव्यं" आ केहेवाथी गुण अव्यथी जिन्न नथी. अध्यग्रहण करवामां गुणतुं ग्रहण थ जाय , तेज युक्त ने परंतु गुणने पृथक् पदार्थ मानवो, युक्त नथी. तथा शब्द श्राकाशनो गुण नथी, कारण के ते तो पौद्गलिक डे, अने आकाश तो अमूर्त जे. बाकी जे वैशेषिके कहेल ने ते प्रक्रियामात्र , साधन दूषणोनुं अंग नथी. ३ कर्म पण गुणनी पेठे पृथक् पदार्थ मानवो अयुक्त ने. ४ सामान्य बे प्रकारें . एक पर, बीजुं अपर. तेमां पर सामान्य महासत्ता नाम . अव्यादि त्रण पदार्थोमां व्यापि बे, अने अपर तेजव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्वादि . तेमां महासत्ताने पृथक् पदार्थ मानवू अ. युक्त के कारण के सत्तामा जे सत् प्रत्यय , ते शुं कोई बीजी सत्ताना योगथी ? के स्वरूपथी बे? जो कहो के बीजी सत्ताना योगथी तो ते सत्तामां सत्प्रत्यय वली बीजी सत्ताना योगथी होवो जोश्य. एम करतां धनवस्था दूषण श्रावे . वली जो कहो के स्वरूपथी, सत् ने तो तो अव्यादि पण खरूपथी सत् . त्यारे हवे बकराना, गलाना स्तनोनी पेठे निष्फल सत्तानी कल्पना करवातुं शुं प्रयोजन . वली अव्यादि स Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) जैनतत्त्वादर्श. ताना योगथीज सत् केदेवाय बे ? के सत्तासंबंध विनाज सत्स्वरूप बे? जो कहो के स्वतःज सत्स्वरूप बे, तो सत्तानी कल्पना करवी व्यर्थ a. जो कहो के सत्ताना योगथी सत् बे तो तो शशविषाणपण सत्ताना योगथी सत् होवां जोइयें. यथा ॥ स्वतोऽर्थाः संतु सत्ताव, त्सत्तया किं सदात्मना ॥ सदात्मसु नैषा स्या, त्सर्वथा तिप्रसंगतः ॥ १ ॥ इत्यादि. श्रा दूषणो तुल्य योगदेम होवाथी पर सामान्यमांपण जोडी देव. वली मे पण वस्तु सामान्य विशेषरूप होवाथी तेजने कथं चित् सामान्यरूप मानियेंज बियें. ते वास्ते द्रव्यग्रहण करवामां सामान्यनुं प्र ह युं, तेहेतुथी सामान्य, द्रव्यथी पृथक् पदार्थ नथी. ५ विशेष अत्यंत व्यावृत्ति बुद्धिनो हेतु दोवाथी वैशेषिकोए मानेa. हवे जु. ते विशेषमां जे विशेषबुद्धि बे, ते पर विशेषोथी बे ? के स्वतःज स्वरूपथी बे ? अपर विशेषदेतु तो लागतो नथी, नवस्था, तेमज विशेषमां विशेषनो अंगीकार नथी. जो कहो के स्वतःज विशेषबुद्धिन हेतु बे, तो पढी विशेषोने द्रव्यथी अतिरिक्त पदार्थ कपवा व्यर्थ बे. अने द्रव्यथी अव्यतिरिक्त विशेषोने, सर्व वस्तु सामान्य विशेषात्मक होवाथी, अमे पण मानियें बियें. ६ समवाय, अयुत सिद्ध आधार श्राधेयभूतोना जे इह प्रत्ययनो देतु बे, ते समवाय देवाय बे. वली समवाय नित्य, तेमज एक बे, एम वैशेषिक माने बे. ते समवाय नित्य होवाथी, समवायी पण नित्य होवां जोईयें. जो समवायी अनित्य बे, तो समवाय पण नित्य होवो जोइये ? कारण के समवायनो आधार समवायी बे. तथा समवाय एक होवा समवायी पण एकज होवो जोइयें अथवा समवायी अनेक होवाथी समवाय पण अनेक होवा जोइयें. वली समवाय जे पदार्थोंनो समवायी संबंध करे बे, ते समवाय ते पदार्थोनी साथे पोतानो संबंध बीजा समवायना योगथी करे बे ? के पोतेज पोतानो संबंध करे बे ? जो कहो के बीजा समवायथी करे ढे, तो तो अनवस्था दूषण बे, अने समवायपण बीजो बे नहि. जो कहो के पोतानो संबंध करे छे, तो तो गुण क्रियादि पण व्यथी स्वरूपें तथा श्रविष्वंग जावसंबंधथी संबंधी बे. तो हवे समवाय कल्पवो पण व्यर्थ बे. + Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिजेद. (२१) एवीरीते वैशेषिक मतमां पण सम्यक् पदार्थोनुं कथन श्राप्तोक्त नथी. तथा नैयायिक, वैशेषिक मतमां जे मोद माने जे तेपण प्रेक्षावानोने मानवा योग्य नथी. ते तो ज्यारे थात्मा ज्ञानथी रहित थाय, अर्थात् जडरूप थश्जाय, त्यारे श्रात्मानो मोद माने. एवा मोदने कयो बुछिमान उपादेय माने? कारण के एवो कोण बुद्धिमान् होय के सर्वसुख तेमज ज्ञानश्री रहित यश् पाषाणतुल्य पोतानो आत्मा करवा चाहे? तेकारणथी कोश्ये वैशेषिकर्नु उपहास्य पण करेल . यथा ॥ श्लोक॥ वरं वृंदावने रम्ये, कोष्टुत्वमनिवांति ॥ न तु वैशेषिकी मुक्तिं, गौतमोगंतुमिति ॥ १॥ स्वर्गनां सुख उपाधिसहित, अवधिवाला बे, तेमज परिमित आनंदरूप , अने मोह तो निरुपाधिक, निरवधिक, अपरिमित श्रानंद ज्ञानसुखस्वरूप, विचरण पुरुष कहे. जो मोद होवू पाषाण तुल्य , तो एवो मोक्ष प्राप्त करवान का प्रयोजन नथी. तेनाथी तो संसारज सारो ले के जे संसारमा कुःखमिश्रित सुख जोगववामां आवेडे, जरा विचार तो करो के थोडा सुखने नोगवद् ते सारूं? के सर्वसुखनो उछेदः सारो ? इत्यादि विशेष चर्चा, स्याछादमंजरीनी टीकाथी जाणवी. ते कारणथी नैयायिक, वैशेषिक बंने मत उपादेय नथी.. हवे सांख्यमतनुं खंडन लखिये बियें. सांख्यमत वास्तविक नथी. जुर्ज, परस्परविरोधी एवां सत्व, रज, तमोगुणोनुं प्रकृति रूपोनुं गुणीविना ए. कत्र अवस्थान अर्थात् रेहेवं ते युक्त नथी. जेम कृष्ण, श्वेतादि गुण, गुणिविना एकत्र रही शकता नथी तथा महत् श्रादि विकार होवामां, प्रकृतिमां विषमता उत्पन्न करनार कोपण कारण नथी; कारण के प्रकृति विना बीजी को वस्तु सांख्य मानता नश्री. श्रआत्माने अकर्त्ता, अर्किचित्कर माने. जो खजावधी वैषम्य मानशो, तो निर्हेतुकतानी आपत्ति श्रावशे, कारण के कार्य कदी होय, 'अने कंदी न होय, ते हेतु विना थश् शकतां नथी. तेमज खरशृंगादि जे नित्य असत् बे, अने आकाशादि जे नित्य सत्वे ते हेतुथी नथी. यथा ॥ नित्यसत्त्वमसत्त्वं वा, हेतोरन्यानपेक्षणात् ॥ अपेदातोहिनावानां, कदाचित्तत्वसंचवः॥१॥ वली खनाव प्रकृतिथी निन्न ? के अनिन्न ? निन्न तो नथी, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) जैनतत्त्वादर्श, कारण के प्रकृति विना सांख्योए बीजी कांश्वस्तु मानेली नथी. जो कहो के अभिन्न ले तो तो प्रकृति , खनाव नथी. वली महत् तेमज अहंकार ज्ञानथी जिन्न अमे देखता नथी. जुर्ज, बुद्धि अध्यवसायमात्र बे, अने अहंकार हुं सुखी, हुं कुःखी, एवा खरू. पवालो जे. श्रा बनेमां चिडूप होवाथी आत्मानुं गुणपणुं बे, परंतु जडरूप प्रकृतिनो विकार नथी. वली तन्मात्राथी जूतोनी जे उत्पत्ति माने, जेम के र गंधतन्मात्राथी पृथ्वी, रसतन्मात्राथी जल,३ रूपतन्मात्राथी अग्नि, ४ स्पर्शतन्मात्राथी वायु, ५ शब्द तन्मात्राथी आकाश,श्रा तेउनु मानवू युक्त नथी. जो बाह्यनूतनी अपेक्षाथी कहेता होतो अयुक्तले.ा बाह्य पांच जूतो निरंतर विद्यमान होवाथी तेनी उत्पत्ति नथी. "न कदाचिदनीदृशं जगत् इतिवचनात्" . अर्थात् श्रा जगत् प्रवाहथी अनादि कालथी एबुंज चाल्युं श्रावे . जो एम कहोके दरेक शरीरनी अपेदाए अमे मानियें बियें तेर्जमां, त्वचा, हाड, कठणलक्षणा पृथिवी, श्लेष्म, रुधिर, अव लक्षण जल डे, पक्ति (जर) लक्षण अग्नि , पानापान (श्वासोलास) लक्षण वायु बे, सुषिर (पोलाण) लक्षण आकाश . पण केहे ठीक नथी; कारण के तेमां पण केटलाएक शरीरोनी उत्पत्ति पितानुं शुक्र श्रने माताना रुधिरथी थायजे, त्यां तन्मात्रार्जुनो गंधपण नथी, अने अदृष्ट वस्तुउँने कारण कल्पवामां अतिप्रसंग दूषण बे. वली इंडां, उनिज, अंकुरादिनी उत्पत्ति पण बीजी वस्तुथी थती देखवामां आवे. ते कारणथी महत, अहंकार श्रादिनी उत्पत्ति सांख्योए जे पोतानी प्रक्रियाथी मानी , ते युक्तिरहित मानी जे. केवल पोताना मतना रागथीज मानेली , वली श्रात्माने अकर्ता माने , तेथी तो कृतनाश, अकृत अन्यागमनुं दूषण श्रावे, तेमज बंध मोदनो अनाव थायडे, अने निर्गुण होवाथी श्रात्मज्ञानशून्य थ जायजे. पूर्वोक्त सर्व युक्तिहीन होवाथी बालप्रलापमात्र . हवे सांखमतना मोदनो विचार करिये. "प्रकृति पुरुषांतरपरिज्ञानान् मुक्तिः" अर्थात् प्रकृति पुरुषयी अन्य डे एवं ज्यारे ज्ञान थाय , त्यारे मुक्ति थायले. यथा ॥ शुद्धचैतन्यरूपोयं, पुरुषः पुरुषार्थतः ॥प्रकृत्यंतरमज्ञात्वा, मोहात्संसारमाश्रितः॥२॥ जावार्थ- पुरुष परमार्थथी शुरू Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद. (१८३ ) चैतन्यरूप बे. पोते पोताने प्रकृतिथी एकमेक समजे. श्री मोदी संसारने श्राश्रित रहेल बे. ते देतुथी प्रकृति सुखादिखजावथी ज्यांसुधि विवेकपूर्वक ग्रहण करशे नहि, त्यांसुधि मुक्ति नथी; तेमज केवलज्ञाननो उदय थवाथीज मुक्ति बे, ए पण असत् बे. कारण के आत्मा एकांत नित्यबे ने सुखादि, उत्पाद, व्यय स्वभाववालां बे; त्यारे तो विरुद्ध धर्म संसर्ग श्रात्माथी प्रकृतिनो भेद प्रतीतज बे, तो हवे मुक्ति केम नहि ? हवे ते तो संसारी विचार करतो नथी, तेवास्ते मुक्ति नथी, जो एम कदेशो तो तो तमारा केदेवाची कदापि मुक्ति यशे नहि. एवो विवेक अध्यवसाय संसारिने कदापि थइ शकतो नथी, तेज बता वियें बियें. ज्यां सुधी संसारी बे. त्यां सुधी विवेक परिभावनाथी संसारीपणुं दूर तुं नथी. तेवास्ते विवेक अध्यवसायना अनावश्री कदापि संसारथी बुटवानुं नथी. तथा सृष्टि पेलां तो केवल श्रात्मा बे, एम तमे मानो बो, तो श्रात्माने संसार क्यांथी लपटायो ? जो कहो के निर्मल श्रात्माने संसार लपटाय बे, तो तो मोक्ष थया पढी पण संसार लपटाशे; हवे विचारो के मोक्ष शुं थयो ? केवल विटंबना थइ. पूर्वपक्ष:-सृष्टि पेढेलां आत्माने दिदृक्षा यश, ते दिवाना जोरथी प्रधाननी साथै पोतानुं एकरूप देखायुं; तेथी संसारी थयो. ज्यारे प्रकृतिनुं दुष्टपणुं ध्यानमां आव्युं, त्यारे प्रकृतिथी वैराग्य यो पढी प्रकृति विषे दिक्षा न रही, त्यारे संसारपण न रह्यो. उत्तरपक्षः - या तमारुं केहेतुं स्वकृतांत विरुद्ध होवाथी ययुक्त बे. जु. दिक्षा, देखवानी जिलाषानुं नाम बे. ते अभिलाषा पूर्वे देखेला पदार्थोंमां तेना स्मरणथी थाय बे. प्रकृति तो पूर्वे कदापि ते देखी नथी, तो केवीरीतें तेनेविषे स्मरण अभिलाषा होय ? जो एम कहो के अनादि वासनाना बलथी प्रकृतिमांज स्मरण अभिलाषा बे, तोपण असत् छे, कारण के वासनापण प्रकृतिनो विकार होवाथी प्रकृति पेहेलां न होती. जो एम कहो के वासना श्रात्माना स्वजावरूप बे. तोतो श्रात्मस्वरूपनी जेम वासनानो कदापि अभाव थशे नहि, श्रने मोक्षपण क T Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) जैनतत्त्वादर्श. दापि थशे नहि, ए प्रमाणे सांख्य मतपण बालकना खेलसमान थयो. शति सख्यिमतखंडन. हवे मीमांसक मतनुं खंडन लखतां, तेना मतनुं स्वरूप तो पूर्वे बतावेल ने, अने वेदांतियोना ब्रह्म (अद्वैत ) - खंडन ईश्वरवादमां बीजा परिछेदमां विस्तारपूर्वक करेडे, तेश्री आ स्थडे वर्णन करेलु नथी. इति मीमांसकमत. हवे जैमिनीय मतनुं खंडन लखियेंद्रियें, जैमिनीय कदे के “हिंसागाात् " जे हिंसा इंजियोना रसवास्ते, अथवा कुव्यसन निमित्तें करियें तेज हिंसा अधर्मनो हेतु . प्रमादना उदयथी कसाइ, मालिनी जेम. अने वेदोमां जे हिंसा कही ले ते हिंसा नथी, परंतु धर्मनो हेतु बे, देवता, अतिथि, पितुनी प्रीति संपादक होवाथी, तथाविध पूजा उपंचारनी पेठे. वली आ प्रीतिनुं संपादन कर असिद्ध नथी. कारण के कारीरी प्रमुख यशोना स्वसाध्य विषे वृष्टि श्रादि कुलो, जे श्रव्यभिचारिपणुं बे, ते यज्ञ करवायी जे देवता तृप्त थाय , ते वृष्टि श्रादिनो हेतु बे. तेवीजरीते "त्रिपुरार्णववर्णित बगल" अर्थात् बकराना मांसनो होम करवाथी परराज्यनुं जे वश थq बे, तेपण तेमांसनी आहुतियोथी तृप्त थयेला देवताउँनोज प्रनाव बे, अने अतिथि प्रति पण “मधु संपर्कसंस्कारादिसमाखादजा" प्रत्यदज देखाय . अने पितृउने माटे जे श्रा करवामां आवे , ते श्राकथी पितृ तृप्त थतां, खसंताननी वृद्धि प्रत्यक्षज देखाय . वली ते बाबतमां आगम पण प्रमाण श्रापेले. श्रागममां देवनी प्रीतिवास्ते, अश्वमेध, नरमेध, गोमेध, आदि यज्ञ करवा कहेल , अने अतिथि विषय “ महोदं वा महाजं वा, श्रोत्रियाय प्रकपयेदिति" एवं कहेवू . वली पितृनी प्रीति वास्तेयाप्रमाणे लखेलुं . छौ मासौ मत्स्यमांसेन, त्रीन् मासान् हारिणेन तु ॥ औरफ्रेणाथ चतुरः, शाकुनेनेह पंच तु ॥१॥षएमासबागमांसेन, पार्षतेनेह सप्त वै ॥ अष्टावेणस्य मांसेन, रौरवेण नवैव तु ॥२॥ दशमासांस्तु तृप्यंति, वराहमहिषामिषैः ॥ शशकूर्मयोासेन, मासानेकादशैव तु ॥३॥ संवत्सरं तु गव्येन, पयसा पायसेन तु ॥ वाधीणसस्य मांसेन, तृतिर्वादशवार्षिकी ॥४॥ आ श्लोक स्मृतिना . अर्थः-जो Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद. (१५) पितृर्जने मत्स्यनुं मांस आपे तो पितृ वे माससुधी तृप्त रहे. जो हरिनुं मांस पे तो त्रणमाससुधी तृप्त रहेबे, जो मेंढानुं मांस तेने आपे तो, चारमास सुधी ते तृप्त रहेबे, जो जंगली कुकडानुं मांस तेने पे तो, पांचमास सुधी ते तृप्त रहेबे, जो बकरानुं मांस तेने या तो, उमास सुधी ते तृप्त रहेबे, पृषट्त्विंडयुक्त जे हरिण होय, ते पार्षत कवायडे, तेनुं मांस जो पितृर्जने देवामां आवे तो, पितृ सातमास सुधी तृप्त रहेबे, जो एपमृगनुं मांस देवामां श्रावेतो, आग्माससुधी पितृ तृप्त रहेबे, जो मोटा काला मृगनुं मांस देवामां आवे तो, नवमाससुधी पितृ तृप्त रहेबे, जो सूर, अने महिषनुं मांस देवामां श्रावेतो, दशमास सुधी पितृ तृप्त रहेबे, जो ससला छाने काचबा बनेनुं मांस देवामां आवे तो अग्यार मास सुधी पितृ तृप्त रहेबे, जो गायनुं दुध अथवा खीर देवामां आवे तो, बार माससुधी पितरो तृप्त रहे, अने बहुज बूढायला लांबा कानवाला धोला बकरानुं मांस आपवामां वे तो, बार वर्षसुधी पितरो तृप्त रहेढे. या प्रमाणे मीमांसको माने बे. वे तेनुं खंडन लखियें बियें. हे मीमांसक ? वेदोमां जे हिंसा कहिबे, ते धर्मना हेतुरूप कदापि थइ शकेबे ? तमारा केद्देवामां प्रत्यक्ष स्ववचन विरोध बे. जु. जो धर्मनो हेतु बे, तो हिंसा केवी रीतें बे ? जो हिंसा बे, तो धर्मनो हेतु ते केवी रीतें यह शकेडे ? यथा ॥ श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यतां ॥ श्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ १ ॥ इत्यादि. जो धर्म कहेलो बे, तो हिंसा केवी रीतें धर्म यइ शकेबे ? कारण के मातापण े, अने ते वंध्यापण बे, एम कदी थइ शकतुं नथी. पूर्वपक्ष:- हिंसा कारणबे, घने धर्म तेनुं कार्य बे. " उत्तरपक्षः - श्रा तमारूं केहेतुं असत् बे. कारण के जे जेनी साथे श्रन्वय व्यतिरेकवालुं होय बे, ते तेनुं कार्य थायडे. जेम माटीना पिंड प्रमुखतुं घटादि कार्य, तेम धर्म कांइ हिंसाज करयाथी थतो नथी, कारण के तप, दान, स्वाध्याय प्रमुखपण धर्मनां कारण बे. पूर्वपक्ष:- अमे सामान्य हिंसाने मानता नथी, परंतु विशिष्ट हिंसानेज धर्म कहियें जियें विशिष्ट हिंसा तेज बे, जे वेदोमां करवी कहीं बे. उत्तरपक्षः - जो वेदनी हिंसा धर्मनी हेतु बें, तो शुं जे जीव यज्ञादिमां २४ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७६) जैनतत्त्वादर्श. मारवामां आवे, ते मरता नथी? ते कारणथी धर्म ? अथवा शुं मरण समये तेने आर्तध्याननो अनाव ? ते कारणथी धर्म जे? अथवा जे जीव यज्ञादिमां मारवामांआवेडे. ते मरीने वर्ग प्राप्त करे? ते कारणथी धर्म ? प्रथम पद तो वास्तविक नथी, कारण के प्राणनो त्याग करतां तो ते जीवने प्रत्यक्ष देखिये बियें. बीजो पद पण असत् बे, कारण के बीजाना मननुं ध्यान उर्लय , ते कारणथी वार्तध्याननो अनाव कहेवो, तेपण परमार्थशून्य वचनमात्र बे; आर्तध्याननो अनाव तो शृं थवानो हतो परंतु अरे छःखी बियें ? डे कोश् करुणासागर के अमने डोडावे? एम पोतानी नाषामां कहेतां कहेता पोतानी नापाथी विरस अरराट करतां, दीनमुखवालां, तेमज चहु फाडी चारे दिशाए जोतां, इत्यादि चिह्न देखवाथी, ते बिचाराउनुं आध्यान स्पष्ट उपलब्ध थाय जे. पूर्वपदः- जेम लोढानो गोलो पाणीमा डुबी जाय , तेनां जो पातलां पतरां करवामां आवे तो ते जेम पाणीमां नहि डुबतां तरे दे, तेमज जेम विष मृत्यु पमाडनार , तो पण मंत्रोथी संस्कार करता थकां गुणकारि थाय , तथा जेम अग्नि दाहकखनाववालो , तो पण सत्यशीलादिना प्रजावथी दाहक थतो नथी, तेवीज रीतें वेदमंत्रादियी संस्कार पामेली हिंसा दोषनुं कारण नथी . तेमज वेदोक्त हिंसा निंदनीय कदापि नथी; कारण के ते हिंसा करनारा याज्ञिक ब्राह्मणो जगत् मां पूजनीय देखाय . उतरपदः- पूर्वोक्त तमारं सर्व कथन असत् बे, कारण के जेटलां दृष्टांत तमे कयां ते सर्व वैषम्य बे; तेथी सिद्धि कांपण थई शकती नश्री. लोढानो गोलो पतरांरूप थई जल उपर जे तरे जे ते परिणामांतर थवाथी तरे , इत्यादि; परंतु वेदमंत्रोथी संस्कार करीने ज्यारे पशुने मारवामां आवे , त्यारे तेउँमा परिणामांतर झुं थाय बे ? ते परिणामांतरथी, ते पशुऊने मारतां पुःख यतुं नश्री ? फुःखथी तो ते प्रगट अरराट शब्द करे . तो हवे लोहपत्रनुं दृष्टांत केवी रीतें समीचीन थर शके ? पूर्वपदः- यज्ञमा जे पशु मारवामां आवे , ते सर्व देवता थई जाय , या यज्ञ करवामां परोपकार डे. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिछेद. (१३) करी, तो तो एक मुखथी युगपत् अनुग्रह, निग्रह वाक्यना उच्चारणमांज व्यनिचारनो प्रसंग आवशे. __ वली मुख देहनो नवमो नाग बे, ज्यारे देवतानां मुखज दाहात्मक , त्यारे एकेक देवतानुं शरीर दाहात्मक होवाथी त्रणे जुवन जस्मीनूत थजवां जोश्य ? आटली चर्चाथी सयुं. __वली कारीरी यज्ञादिमां वृष्टयादि फलनो जे अव्यजिचार , ते फलमां आहुतिथी संतुष्ट थयेला देवतानो अनुग्रह जे तमे कहोबो ते पण अनेकांतिक , कोश्स्थलें व्यभिचार पण देखवामां आवे बे. ज्या व्यभिचार नथी, त्यां पण आहुतिनुं जोजन करवाथी अनुग्रह नथी, परंतु ते देवताविशेष, अतिशय ज्ञानी बे, पोताने उद्देशीने करेला पूजा उपचारने देखीने, पोताना स्थानमांज स्थित थया थका, पूजा करनारउपर प्रसन्न थईने, तेनुं कार्य पोतानी श्वाथी करी थापे . अनुपयोगथी नहि जाणता, अथवा जाणता थका पण, पूजकना अनाग्यश्री कार्य नथी पण करता ? कारण के अव्य, क्षेत्र, काल जावादिनी सहायताथी कार्य, थनजरे पडे अने ते जे पूजा उपचार , ते नि:केवल पशुउनाज मारवाथी थई शके ने एम नथी, परंतु बीजी रीते पण यश् शकेबे, तो पठी जेनुं फल एक पापरूपज ने एवी सौनिक ( कसाइ) वृत्ति करवाथी शुं लान ? वली जे बगल अर्थात् बकरानुं मांस होमवाश्री परराज्य वश करनारी सिध्यादि देवीने संतुष्ट करवानुं जे अनुमान बे, तेमां शुं आश्चर्य ? केटलाएक हुम देवता तेवीज रीतें संतुष्ट थाय बे, त्यां पण ते उष्ट देवता पोतानी पूजा देखीने राजी थाय ने, परंतु मलिन मांस खावाथी राजी थता नथी. जो कदी होम करेली वस्तुने खाता होय तो निंबपत्र कडवांतेल, धारनाल (बाकला ) धूमांश आदि होम करेखां अव्य पण तेनुं जोजन थई जशे. वाह ! शुं तमारा देवता सुंदर नोजन करे ? वली अतिथिनी परोणागत सुंदर संस्कार करेला पक्वान्न आदिथी पण थई शके थे, तो पड़ी ते ने वास्ते महोद, महाश्रजादिनी कल्पना करवी, ते निःकेवल तमारी निर्विवेकता बतावी आपे जे. वली श्रासादि करवाथी पितरोनी जे प्रीति मानो बो, ते पण अने २५ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९४) जैनतत्त्वादर्श. - कांतिक बे, कारण के केटलाएक श्राद्ध करता नथी तो पण तेउनी संतान वृद्धि देखवामां आवे . सुमनाटोलानी जेवी वृद्धि देखाय बे. तेथी श्रा आदि जे करवू बे, ते मुग्ध लोकोने विप्रतारण ( उगवा) मात्रज फल थाय . जे पितरो लोकांतर पामेला , ते पोताना शुन्न अशुज कमोंने अनुसारे देव, नारकादि गतियोमा सुख दुःख जोगवी रह्या , तो पड़ी ते पुत्र प्रमुखें आपेला पिंडोने केवी रीतें नोगववानी श्वा करी शके ले ? " तथाच युष्मद्यूथिनः पठन्ति ॥ मृतानामपि जंतूनां, श्रा चेत्तृप्तिकारणं ॥ तंनिर्वाणप्रदीपस्य, स्नेहः संवईये निखामिति ॥ • तथा श्राफ करवाथी ते पितरोने पुण्य केवीरीतें पहोचे जे ? कारण के पुण्यतो बीजाए करेढुंबे, वली पुण्य पोते जड रूप , तथा पगरहित बे, तेथी पितरोने पहोची शकतुं नथी. जो कहो के उद्देश तो पितरोनो बे, परंतु पुण्य, श्राछकरनारा पुत्रादिने थाय बे, ते पण केहे वास्तविक नथी. पुत्रादिने पुण्य यतुं नथी, तेनुं कारण ए डे के पुत्रादिना मनमां वासना एवी नथी के जे कार्य अमे करियें लिये तेनुं फल अमने मले, तो पड़ी पुण्यनी नावना विना पुण्य फल मलतुं नथी. ते कारणथी पितरो के पुत्रादि कोश्ने श्राफ करवानुं फल मलतुं नथी, परंतु अधरथीज त्रिशंकुना दृष्टांतनी पेठे विलीन थई जाय बे. __ वली पापानुबंधि जे पुण्य बे, 'ते तत्त्वथी पापरूपज ' जो कहो के ब्राह्मण जे कां खाय , ते पितरोने गमे बे, ते वात सत्य बे एवी प्रतीति तो तमनेज थती हशे, अमारी नजरमां तो ब्राह्मणोनुं मोटुं पेट थयेढुं श्रावे , परंतु तेर्जुना पेटमा प्रवेश करीने, पितरो खाता होय एम कदापि देखता नथी. जोजन अवसरे ब्राह्मणोना उदरमा प्रवेश करता पितरोनुं कांपण चिह्न श्रमारी दृष्टिए पडतुं नथी. केवल ब्राह्मणोज तृप्त थता देखियें लियें. . वली तमे कयु हतुं के अमारी पासे आगम प्रमाण , तो पुलिये बिये के, ते तमारु आगम पौरुषेय बे ? के अपौरुषेय जे ? जो कहो के पौरुषेय , तो शुं ते सर्वज्ञy करेलुं ले ? के असर्वज्ञनुं करेबुं ? जो प्रथम पद मानशो तो तमारा मतने व्याहति थशे, कारण के तमारो श्रा सिद्धांत . " अतींजियाणामर्थानां, सादादृष्टा न विद्यते ॥ नित्ये Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद . (ILU) ज्योवेदवाक्येयो, यथार्थत्व विनिश्चयः ॥ १ ॥ सारांश के अतींद्रिय पदानो को साक्षात् दृष्टा नथी. बीजो पक्ष मानशो तो दूषणवाला (अ. सर्वज्ञ) कर्त्तानां 'शास्त्री उपर विश्वास थतो नथी. जो कहो के पौरुषेय बे, तो संभवज थइ शकतो नथी. खरूप निराकरणाथी घोडाना भृंगरूप पुरुष क्रियानुगत तेनुं रूप बे, सारांश के पुरुषक्रिया बिना ते केवी रीतें शके बे ? ते कारणथी जे साक्षर वचन बे, ते पौरुषेयज बे, कुमार संजवादि वचननी जेम. वेद पण वचनात्मकज बे " तथा चाहुः ॥ ताल्वा दिजन्मा नतु वर्णवर्गों, वर्णात्मकोवेद इति स्फुटं च ॥ पुंसश्च ताब्वादिरतः कथं स्या, दपौरुषेयोयमिति प्रतीतिः ॥ १ ॥ इति " श्रुतिने छापौरुषेय गीकार करी, तो पण तदर्थव्याख्याने पौरुषेयज अंगीकार करी बे. श्रन्यथा “ श्रग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः " तेनो अर्थ " स्वमांसं नक्षयेत् इति " एम नियामकना श्रमावधी केम न थई जाय ? ते कारणथी शास्त्राने पौरुषेयज मानवां ते श्रेय बे. तमारा इथी कदी वेद अपौरुषेय मानियें, तो तेथी वेदनी प्रमाणता थशे नहीं, कारण के प्रमाणता आप्त पुरुषने धीन बे. ज्यारे वेद प्रमाण न थया, त्यारे ते वेदनुं कथन, तथावेदानुसारिणी स्मृतियो पण प्रमाणभूत घयां नहीं, तेथी हिंसामय यज्ञ तथा श्राद्धादिविधि पण प्रमाणथी विरुद्ध थया. पूर्वपक्ष:- “न हिंस्यात् सर्वभूतानि " इत्यादिथी जे हिंसानो निषेध करेलो बे, ते औत्सर्गिकमार्ग बे, अर्थात् सामान्य विधिबे, वेदवि हिता जे हिंसा बे ते अपवाद मार्ग बे. अर्थात् विशेष विधि बे. ते कारथी, तथा अपवाद उत्सर्गथी बलवान् होवाथी वेदविहिता हिंसा दोधनुं कारण नथी " उत्सर्गापवादयोरपवाद विधिर्बलीयानिति न्यायात् " त मारा जैनमतमां पण हिंसाना एकांत निषेध नथी. केटलांएक कारणोमां पृथ्वी कायादि जीवोनी हिंसा करवानी थाज्ञा बे. वली ज्यारे साधु रोग पीडित थाय बे, तेमज असमर्थ छाने ग्लान थाय बे, त्यारे आधाकर्मादि आहार ग्रहण करवानी पण आज्ञा बे, तेवीज रीतें श्रमारा मतमां याझिकी हिंसा देवता, अतिथिनी प्रीतिवास्ते पुष्ट श्रालंबनरूप होवाथी अपवादरूप बे, ते कारणथी तेमां दोष नथी. उत्तरपक्ष:- अन्यकार्यवास्ते उत्सर्गवाक्य, अने अन्यकार्यवास्ते अप Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९६) जैनतत्त्वादर्श. वादवाक्य, केहेवां, ते उत्सर्ग, अपवाद कदी पण थश् शकतां नथी. परंतु जे अर्थवास्ते शास्त्रमा उत्सर्ग कहेल होय. तेज अर्थवास्ते अपवाद के हेवो जोश्ये; त्यारेंज उत्सर्ग अपवाद थश्शके ले. ते बंने उन्नत निम्नादि (उंचां नीचां) व्यवहारवत् परस्पर सापेक्ष होवाथी एक श्रर्थनां साधक थर शके . जेम के जैनोए संयम पालवा अर्थे नवकोटि विशुद्ध थाहार ग्रहण करवो, ते उत्सर्गमार्ग . तेवीज रीतें अव्य, क्षेत्र, काल, जावथी आपत्तिमां पडतां गत्यंतरना अनावथी, पंचकादि यत्नापूर्वक श्रनेषणीय श्राहारादिने ग्रहणकरवा ते अपवादमार्ग बे, तेपण संयम पालवाने वास्तेज . एमपण न केहेवू के जेसाधुने मरणज एक शरण , तेने गत्यंतर अनावनी असिकि.॥ उक्तं चार्षिनिः॥ सबब संजमं सं जमाउँ, अप्पाणमेवर खिज॥मुच्चश्शश्वाया, पुणो विसोहीनया विर॥॥श्त्यागमात् ॥नावार्थः-सर्वरीतें संयम पालवो,जो संयममां दूषण लागवाथी प्रा. पनी रक्षा थती होय तो संयममां दूषण पण लगावीने रक्षण करवू, प्राण रेहेवाथी प्रायश्चित्तधारा ते पापथी मुक्त थ शुरू थवाशे, अने अविरतिपणुं पण रदेशे नहि. वली आयुर्वेदमां पण कडं बे के, जे वस्तु को रोगमां को अवस्थामा अपथ्य बे, तेज वस्तु तेज रोगमां बीजी अवस्थामा देश, काल जो श्रापे तो पथ्य बे. देशादि अपेक्षाए ज्वरवालाने दहीं पण खावा देवामां आवे . तथा च वैद्याः॥ कालाविरोधि निर्दिष्टं, ज्वरादौ लंघनं हितं ॥ तेऽनिलश्रमक्रोध , शोककामकृतज्वरात् ॥१॥जेम प्रथम अपथ्यनो परिहार करवो, अने बीजी अवस्थामा तेनेज जोगवावां, था बंने प्रसंगें रोगर्नु निवारण करवानुं प्रयोजन . तेथी एम सिक श्राय डे के एकज वस्तुविषयक उत्सर्ग अपवाद . तमारो उत्सर्ग एक अर्थवास्ते में, अने, श्रदवाद बीजा अर्थ वास्तेबे. जुर्ज. "न हिंस्यात् सर्वजूतानि" था जे उत्सर्ग , ते ऽर्गतिना निषेध वास्ते बे, अने जे तमारी अपवाद, हिंसा , ते देवता, अतिथि, पितुनी प्रीतिसंपादन अर्थे . ते कारणथी परस्पर निरपेक्ष होवाथी, उत्सर्ग, अपवाद विधि थश् शकता नथी. हवे विचारो के तमारो अपवाद, उत्सर्गविधिथी केवीरीतें बलवान् थ शकेले ? एम पण न कहेवू के वैदिक हिंसानो जे विधि , ते खर्गहेतु हो Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद. (209) वाथी, दुर्गतिना निषेधवास्तेज बे. वैदिक हिंसा स्वर्गनो हेतु नथी. ते उपर सारी रीतें लखी श्राव्या ढियें. वैदिक हिंसा विना पण स्वर्गप्राप्ति es शके बे. गत्यंतरना श्रावमांज अपवाद थइ शके बे. यज्ञ करवाथी स्वर्गनो निषेध थाय बे, एम अमेज मात्र कहेता नथी, परंतु व्यासजी पण कहे बे. यदाह व्यासमहर्षिः ॥ पूजया विपुलं राज्य, मग्निकार्येण संपदः ॥ तपः पापविशुद्धयर्थं ज्ञानं ध्यानं च मुक्तिदं ॥ १ ॥ श्रहिंयां अग्निकार्य शब्दवाच्यना यागादि विधि उपायांतरथी जे संपत् साध्य बे, तेनोज हेतु कहेतi rai, आचार्य ते यागने सुगतिनो हेतुज कदर्थन करी गया बे, तथा तेज व्यासजी नाव अग्निहोत्र " ज्ञान पाली ” इत्यादि श्लोकोथी स्थापन करी गया बे. इति मीमांसकमतखंडन ॥ ५ ॥ हवे चार्वाकमतनुं खंडन लखियेंबियें. चार्वाक कहेबे के श्रात्माजनश्री. तेथी मतावलंबी पुरुषो शा वास्ते वचन कलह करे बे ? ज्यारे श्रात्मानोज श्राव बे, त्यारे जैन, बौद्ध, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, तेमज जैमिनीय, या जे दर्शनो बे, ते शा वास्ते निःकेवल लोकोने जममां नाखीने जोगविलासी बोडावे बे ? वास्तवमां श्रात्मा एवी कोइ वस्तुज नयी, ते कारथी मारो मत सुंदर बे. जो श्रात्मा होय तो तेनी सिद्धि बतावो ? उत्तरपक्ष :- प्रतिप्राणी स्वसंवेदन प्रमाण चैतन्यनी अन्यथा अनुपपतिथी सिद्ध बे. जु या जे चैतन्य बे, ते भूतोनो धर्म नथी, जो भूतोनो धर्म होय, तो तो पृथिवीनी कठिनतानी पेठे सर्व कार्ले, सर्व स्थलें उपलब्ध थवो जोइयें, ते सर्वदा उपलब्ध यतो नथी, कारण के लोष्टादिमां, तेमज मृत अवस्थामां चैतन्य उपलब्ध यतुं नथी. पूर्वपक्ष:- लोटादिमां, तेमज मृत अवस्थामां पण चैतन्य बे, केवल शक्ति रूपें बे, ते कारणथी उपलब्ध यतुं नथी. उत्तरपक्षः - बे विकल्प न उलंघन करवायी या तमारुं कहेतुं प्रयुक्त a. जु. ते शक्ति चैतन्ययी विलक्षण बे ? के चैतन्यज बे ? जो कहो के विलक्षण बे, तो तो शक्तिरूपें चैतन्य ने एम कहो नहि. कारण के पट विद्यमान बतां, पटरूपें घट रहेतोज नथी " आह च ॥ प्रज्ञाकरगुप्तोपि ॥ रूपांतरेण यदित, तदेवास्तीति मारटीः ॥ चैतन्यादन्यरूपस्य, जावेद्य कथम् ॥ १ ॥ जो बीजो पक्ष मानशो. तो तो चैतन्यज ते श Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१एन) जैनतत्त्वादर्श. क्ति . पनी ते शक्ति उपलब्ध केम थती नथी ? जो कहो के श्रावृत थवाथी उपलब्ध थती नथी, तो ते पण ठीक नथी, कारण के आवृति शब्दनो अर्थ आवरण ले. ते आवरण शुं विवक्षित परिणामनो अनाव बे ? के परिणामांतर ? के जूतोथी अतिरिक्त बीजी वस्तु के ? तेमां, विवदित परिणामनो अनाव तो नथी. कारण के एकांत तुब होवाथी ते विवक्षित परिणाम अनावने आवरण शक्ति नथी, अन्यथा तेनुं श्रतुबरूप होवाथी, ते पण जावरूप थर जाय. ज्यारे जावरूप थाय, त्यारे टथिवी श्रादिमांथी अन्यतम थाय, कारण के “पृथिव्यादीनि जूतानि तत्त्वमिति वचनात् " अने पृथिवी आदि जे चूत डे ते चैतन्यनां व्यंजक बे, परंतु आवरक नथी, तेथी, केवीरीतें श्रावरणपणुं सिक थाय ? __जो कहो के परिणामांतर दे, तो तेपण अयुक्त बे, कारण के परि• णामांतर पण नूतखनाव होवाथी जूतोनी पेठे चैतन्यव्यंजकज थर शके डे, श्रावरक थक्ष शकतुं नथी. - जो कहो के नूतोथी अतिरिक्त वस्तु बे, तो ते कदेवु बहुज असं गत . कारण के नूतोथी अतिरिक्त (न्यारी) वस्तु मानवाथी “चस्वार्येव पृथ्व्यादिजूतानि ” तत्त्वसंख्याने व्याघात यश् जशे. वली जुठ के था जे चैतन्य बे ते एक एक नूतनो धर्म ? के सर्व नूतसमुदायनो धर्म डे ? एक एक नूतनो धर्म तो लागतो नथी, कारण के एक एक नूतमा देखातो नथी, तेमज एक एक परमाणुमां संवेदन उपलब्ध थतुं नश्री. जो दरेक परमाणुमां होय तो पुरुष, सहस्र चैतन्य वृंदनी पेठे परस्पर जिन्नखनाव थाय, परंतु एकरूप चैतन्य नज थाय, अने देखवामां तो एकरूप श्रावे . " अहं पश्यामि " अर्थात् हुं देखेंबु. हुं करूंढुं, एवो सकल शरीर अधिष्ठाता एक उपलब्ध थाय . जो समुदायनो धर्म मानी तो पण प्रत्येकमा अनाव होवाथी असत् बे. कारण के जे प्रत्येक अवस्थामा असत् बे, ते समुदायमां यश् शकतुं नश्री. जेम रेती समूहमांथी तेल. __ जो कहो के मद्यांगोमां मदशक्ति नथी. समुदायमा थर जायडे, तेम चैतन्यपण थ जाय तो, शुं दोष ? आ पण अयुक्त जे. कारण के प्रत्येक मॅय अंगमा मदशक्ति अनुयायी माधुर्यादि गुण देखाय के जुर्ज. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिछेद. (१एए) माधुर्यादि कुरसमां धातकी फूलोथी थोडी विकलता उत्पादक शक्ति देखिये बियें, तेवी रीते चैतन्य, सामान्य प्रकारथी नूतोमा उपलब्ध यतुं नथी ; तो केवीरीतें जूतसमुदायथी चैतन्य थश् शकेले ? प्रत्येकमां असत् वे ते समुदायमां थ जाय तो, सर्व समुदायथी सर्व कां बनीजवां जोश्य. ए अति प्रसंग थशे. वली जो तमे चैतन्यने धर्म मानेल , तो धर्मने अनुरूप धर्मीपण अवश्य मानवो जोश्शे. जो अनुरूप नहि मानशो तो तो जल अने कठिनता था बनेने धर्म, धर्मि मानवा जोशे, एमपण न कहेशो के नूतज धर्मि बे, कारण के नूत, चैतन्यथी विलक्षण . जुर्ज. चैतन्य बोधखरूप, तेमज अमूर्त बे; अने नूत तेनाश्री विलक्षण ; तो केवीरीते तेऽनो परस्पर धर्म, धर्मिनाव थर शकेले? वली या चैतन्य नूतोनुं कार्यपण नथी, कारण के अत्यंत विलक्षण होवाथी कार्यकारणभाव कदापि थश् शकतो नथी. उक्तं च ॥काठिन्याबोधरूपाणि, नूतान्यध्यदसिद्धितः॥ चेतना च न तपा, सा कथं तत्फलं जवेत् ॥१॥ ____वली जो चैतन्य नूतकार्य होय, तो तो सर्वजगत् प्राणिमय होवू जोश्ये. जो कहो के परिणतिविशेष सजावना अनावथी सकल जगत् प्राणिमय थर जतुं नथी, तो ते परिणतिविशेष सन्नाव सर्वत्र शा वस्ते थतो नथी ? ते परिणति पण नूतमात्र निमित्तज डे, तो केवी रीतें तेनुं को स्थडे होवू न होसिक यश् शकेले? वली ते परिणतिविशेष केवा स्वरूपवालो ? जो कहो के कठिनादिरूप बे, कारण के धुणांदि जंतु काष्टादिमां उत्पन्न थता देखिये बियें, ते कारणथी ज्यां कठिनत्वादि विशेष , ते प्राणिमय बे, बीजा नहि. श्रा पण व्यभिचार देखवाथी असत् जे. जुर्ज. अशिष्टपण कठिनत्वादि विशेष बतां को स्थडे होयजे, भने कोइ स्थलें होता नथी, अने कोश्स्थवें कठिनत्वादि विशेष विनापण संस्वेदज घन श्राकाशमां संमूर्छिम उत्पन्न थायजे. __ वली केटलाएक जीव समानयौनिकपण विचित्रवर्ण संस्थानवाला देखाय . जुर्ज. गोवरश्रादि एकयोनिवाला पण केटलांएक कालां शरीरवालां तो केटलांएक पीलां शरीरवाला होयडे, बीजां विचित्रवर्णवाला होय. संस्थानपण तेऊनां परस्पर जिन्न . जो नूतमात्रनिमित्त चैतन्य Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) जैनतत्त्वादर्श, होय तो तो एकयोनिवाला सर्व एकवर्ण, संस्थानवालां होवां जोयें. परंतु तेम तो थतां नथी. ते कारणथी श्रात्माज तेवा तेवा कर्मना वश थी तेवा उत्पन्न थाय. एम निश्चयें मानवू जोश्ये. ___ जो कहो के श्रात्मा होय तो गमनागमन करतां केम न उपलब्ध थवो जोश्य ? कारणके केवल देह विद्यमानज संवेदन उपलब्ध थायडे, अने देहनो अनाव थतां नस्म अवस्थामा देखातो नथी, ते कारणथी आत्मा नथी, परंतु संवेदनमात्रज एक बे, ते संवेदन देहy कार्य बे, देहमांज श्राश्रित . जीतना चित्रनी जेम. चित्र जीत विना रही शकतुं नथी, तेमज बीजी नीतपर संक्रमण पण यश् शकतुं नथी, अने जीतनी सायेज तेनो विनाश थायजे. संवेदन, पण तेवीज रीतें जाणी लेवं. आ कथनपण असत् जे. कारणके श्रात्मा स्वरूपथी अमूर्त बे; अने अांतर शरीर अति सूक्ष्म , तेकारणथी दृष्टिगोचर नथी. तमुक्तं ॥ अंतराजावदेहोपि, सू. क्ष्मत्वान्नोपलच्यते॥ निष्क्रामन् प्रविशन् वात्मा, नाजावोऽनीक्षणादपि। ॥१॥ ते कारणथी आंतःशरीरयुक्त पण आत्मा, जतां श्रावतां देखातो नथी, परंतु लिंगथी उपलब्ध थाय. जुर्ज. तत्काल उत्पन्न थयेला कृमि जीवने पण पोताना शरीरविषे ममत्व थायजे. घातकने जाणीने दोडी जायजे, जेने जेनेविषे ममत्व , ते पूर्व ममत्व अभ्यास पूर्वक जे. तेज देखायजे. केम के ज्यां सुधी को वस्तुना गुण दोष जाणता नथी, त्यां सुधी ते वस्तुमा कोश्ने पण ममत्व थतुं नथी. ते कारणथी जन्मनी थादिमां जे शरीरपर ममत्व , ते शरीर परिशीलन अभ्यासपूर्वक संस्कार निबंधन . ते सबबथी श्रात्मानुजन्मांतरथी श्राव, सिक थायजे. उक्तं च ॥ शरीरगृहरूपस्य, चेतसः संजवो यदा ॥ जन्मादौ देहिनां दृष्टः, किन्न जन्मांतरा गतिः॥१॥ हवे आगति प्रत्यक्षथी देखाती नथी, तो केवीरीतें तेनो अनुमानथी बोध थाय ? था तमारा केहेवाथी कांश दूषण आवतुं नथी. कारण के अनुमेय अर्थविषे प्रत्यक्षानी प्रवृत्ति यश् शकती नथी. परस्पर विषयने परिहार करीने प्रत्यक्षा, अनुमान, प्रवर्त्तवं बुद्धिमान लोको माने. हवे तमारूं दूषण केवीरीतें लागे ? श्राह च ॥ अनुमेयेस्ति नाध्यदा, मिति कैवात्रफुष्टता ॥ अध्यक्षस्यानुमानस्य, विषयो विषयो नहि ॥ १॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद. ( २०१ ) वली जे चित्रनुं दृष्टांत तमे श्राप्युं बे, ते पण विषम होवाथी युक्त बे. जुर्ज. चित्र तो अचेतन, तथा गमनस्वनावरहित बे. आत्मा तो चैतन्य बे, तथा कर्मवशथी गमनागमन करे बे, तो केवीरीतें दृष्टांत तेमज दाष्टतिकनी साम्यता थई ? जेम देवदत्त कोइ विवक्षित गाममां केटलाएक दिवस रहीने, पढी बीजे गाम जई रहे बे, तेम आत्मा पण विवक्षित जवमां देहनो त्याग करी जवांतरमां देह रचीने रहे बे. वली तमे कछु के संवेदन देहनुं कार्य बे ते पण वास्तविक नथी. कारण के चक्षुरादि इंद्रियद्वारा उत्पन्न थवाथी चाचुषादि संवेदन कथंचित् देहथी पण उत्पन्न थाय बे, परंतु जे मानस ज्ञान बे, ते केवी रीतें देहनुं कार्य थई शकेबे ? तथा ते मानसज्ञान देहयी उत्पद्यमान तुं होय तो, इंद्रिय रूपथी उत्पन्न घाय बे ? के छानिंद्रिय रूपथी उत्पन्न याय बे ? के केश नखादि लक्षणथी उत्पन्न थाय बे ? प्रथम पक्ष तो ठीक नथी, जो इंडियरूपथी उत्पन्न यतुं होय, तो तो इंडिय बुद्धिवत् वर्त्तमामान अर्थनुंज ग्राहक दोखुं जोइयें. इंद्रियज्ञान वर्त्तमान अर्थनेज ग्रहण करी शके ढे, ते सामर्थ्यश्री उत्पन्न यतुं मानस ज्ञान पण इंडिय ज्ञानवत् वर्तमान अर्थनेज ग्रहण करी शकशे. वे ज्या चतु रूप विषय व्यापार करे बे, त्यारेज रूपविज्ञान उत्पन्न थाय बे, बीजे वखते यतुं नथी. हवे ते रूपविज्ञान वर्त्तमान अर्थ विषय बे, कारण के वर्त्तमान अर्थ विषयज चतुनो व्यापार थाय बे. - रूपविषयव्यावृत्तिना श्रावमां मनोज्ञान बे, ते कारणथी ते नियत कालविषयक नथी. तेवीज रीतें बीजी इंडियोमां पण जाणी लेवुं. दवे केवीरीतें मनोज्ञानने वर्त्तमान अर्थग्रहण प्रसक्ति होय ? उक्तं च ॥ अक्ष व्यापारमा श्रित्य जवदजमिष्यते ॥ तद्व्यापारोन तत्रेति, कथम जवं जवेत् ॥ १ ॥ atest के रूपथी बे, तो पण ते अचेतन होवाथी अयुक्त बे. वली केशनखादि तो मनोज्ञानथी स्फुरित चिद्रूप उपलब्धज थतो नथी, तो केवीरीतें तेर्जनाथी मनोज्ञान होय ? आह च ॥ चेतयंतो न दृश्यंते, केशश्मश्रुनखादयः ॥ ततस्तेज्यो मनोज्ञानं, नवतीत्यति साहसं ॥१॥ जो केशनखादिथी प्रतिबद्धमनोज्ञान होय तो तो तेनो उच्छेद यतां २६ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) जैनतत्त्वादर्श. जे बाष्प थाय बे, ते उष्ण स्पर्शवाली वस्तुथी थाय . शीतजलथी सेचनकरेला शीतकालमां मनुष्य शरीरनी बाष्पनी जेम. वली उकरडामां कूडा कचवरमांथी धूआ (बाष्प) निकले बे, त्यां पण अमे पृथ्वीकायना जीव मानियें बियें या हेतुथी जल सजीव सिद्ध थाय ने. प्रश्नः- तेजस्कायमां जीव केवीरीतें सिक थाय ? उत्तरपदः- जेम रात्रिमा खद्योत (आगीश्रा कीडा) नुं शरीर जीवशक्तिथी बनेबुं प्रकाशवान् बे, तेम अंगारा दिपण प्रकाशमान होवाथी सचेतन . तथा जेम ज्वरनी उष्मा जीवना प्रयोग विना अर्थात् श्रस्तित्व विना होती नथी, तेम अग्निमां पण जीवविना गरमी थती नथी. जुर्म के मृतकशरीरमां ज्वर कदापि होतो नथी. एवा अन्वयव्यतिरेकथी अनि सचेतन जाणवो. वली प्रयोग आ बे, आत्माना संयोगथी प्रगट थयो जे अंगाराप्रमुखने प्रकाश परिणाम, शरीरस्थ होवाश्री खद्योत शरीर परिणामवत्. तथा आत्मा संयोगपूर्वक शरीरस्थ होवाथी ज्वर उष्मवत् अंगाराप्रजुखमां उष्णता जे. एमपण न कदेबु के सूर्यनी उष्मा साथे अनेकांतिक हेतु . सूर्यमां जे उष्मा ले ते पण आत्मसंयोग पूर्वकज अमे मानियें बियें. तथा अग्नि सचेतन , कारण के यथायोग्य आहार करवाश्री वृद्धि आदि विकार मालम पडवाश्री पुरुषना शरीरनी जेम. इत्यादि लक्षणोथी अनि सचेतन . प्रश्नः- वायुकाय (पवन ) मां जीवसत्ता केवी रीतें सिद्ध करो डो? उत्तरपदः- जेम देवतानां शरीर शक्ति प्रजावथी, तेमज मनुष्योनां शरीर अंजनादि विद्यामंत्रना प्रजावथी, अदृश्य थजवाथी नेत्रथी देखातां नथी, तोपण विद्यमान चेतनावालां, तेम वायुकाय सूक्ष्म परिणाम होवाथी, परमाणुनी जेम, नेत्रथी देखाता नथी तोपण विद्यमान चेतनावाला . तेमज अग्निथी दग्ध पाषाणखंडगत अग्निवत्ः प्रयोग श्रा . बीजाऊनी प्रेरणाविना, नियमपूर्वक तिर्यक् गति होवाथी वायु चेतनावान् . गवाश्वादिवत् तिर्यक् गतिना नियमथी; परमाणुनी साथे व्यभिचार नश्री. वली शस्त्रथी अनुपहत होवाथी वायु सचेतन डे. । वनस्पतिकायमां तो प्रत्यक्ष प्रमाणथी जीव सिकज बे. ते कारणथी अहिंयां तेनो विस्तार को नथी. सर्वज्ञना कथन करेलां श्रागमपण पृ. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिछेद. (११) थिवी जल, अग्नि, पवन, वनस्पतिमां जीवसत्ता कहे . तेम बतां कदापि को हीजिय, त्रीजिय, चतुरिंजिय, तेमज पंचेंजियमां पण जीव नहि माने तो तेजनी श्रमान्यताथी अमने कांश हानि नथी. आ संक्षेपथी जीवखरूप वर्णन कयु, विस्तारनी अजिलाषावालाए जैनसिकांत जोवा. हवे बीजं अजीवतत्व कहियें लियें. अजीवनां लक्षणो जीवनां लक्षपोथी विपरीत . जे ज्ञानथी रहित होय, रूप, रस, गंध, स्पर्शवाला होय, नर, अमरा दिगतिमां न गमन करनार होय, ज्ञानावरणीयादि कमना कर्त्ता न होय, तेमज ते कर्मफलना नोक्ता न होय, अने जडस्वरूप होय, ते अजीव बे. ते अजीवना पांच प्रकार ले. १ धर्मास्तिकाय, ५ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय, ४ पुजलास्तिकाय, ५ काल. १ धर्मास्तिकायतुं स्वरूप प्राप्रमाणे जे. जेम मत्स्यना संचारनुं अपेदाकारण पाणी , तेम जीव तथा पुजलने गतिपणे परिणमतां जे श्रपेक्षाकारण होय ते धर्मास्तिकाय . यद्यपि जीव तथा पुजल स्वशक्तिथी चाले ने, परंतु तेउने गतिसहायक गुणप्रदाता धर्मास्तिकाय पदार्थ बे. ते लोकव्यापी , नित्य ,अवस्थित बे, अरूपी असंख्यप्रदेशी जे.ज्यां सुधी था धर्मास्तिकाय अव्य बे, त्यांसुधी लोकनी मर्यादा . जो धर्मास्तिकाय अव्य न मानियें, तो लोक अलोकनी मर्यादा रहे नही.ज्यां सुधी धर्मास्तिकाय अव्य वत्तेंडे, त्यांसुथी जीव, पुजल गति करे. तेनुं संपूर्ण खरूप जैनमतना ग्रंथो अध्ययन कर्या शीवाय जाणी शकाय नहि. श्वीजु अधर्मास्तिकाय अव्य . तेनुं स्वरूप धर्मास्तिकाय सदृश जाणवू, परंतु तफावत ए के, आ अव्य जीव, पुजलने स्थिति सहायक डे जेम पंथीजन रस्तामां चालतां थाकी जायजे, त्यारे विश्राम लेवा सारू वृदादिनी बायामां बेसेजे, ते प्रसंगें स्थिति तो पोतेज करे, परंतु श्राश्रय विना स्थिति थ शकती नथी, तेम जीव पुजल गतिकरतां करतां स्थिति करवा प्रसंगे स्थिति तो पोतेज करे, परंतु अपेक्षाकारणरूप वृदनी बाया जेम अधर्मास्तिकाय अव्य बे. ३ त्रीजु आकाशास्तिकाय अव्य बे. तेनुं खरूप पण धर्मास्तिकाय सदृश . परंतु विशेष प्राप्रमाणे बे. श्रा अव्य लोकालोकव्यापी श्रवकाशदानलक्षण बे. जीव, पुजलने रदेवामां अवकाश आपेले. श्रा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) जैनतत्त्वादर्श. त्रणेजव्य एक बीजामा मली गयेलांडे. ज्यांसुधी आकाशास्तिकाय, धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकाय , त्यांसुधी लोक बे, अने ज्यां केवल श्राकाशास्तिकाय , अने बीजुं कांश नथी, ते अलोक . चोथु पुजला स्तिकाय अव्य . परमाणुउनु नाम पण पुजल , तेमज परमाणुऊना समूहनां घट, पटादि कार्य , तेजेने पण पुजलज कहेजे. एक परमाणुमां, एकवर्ण, एकरस, एकगंध, बे स्पर्श दे, कार्य तेनुं लिंग . वर्णथी वर्णांतर, रसथी रसांतर, गंधयी गंधांतर, अने स्पर्शथी स्पशीतर थ जायजे. परमाणु अव्यरूपें अनादि अनंत बे, पर्यायरूपें सादि सांत बे. परमाणुऊनां जे कार्य , ते मां कोश्कतो प्रवाहथी अनादि अनंत , अने कोश् सादि सांत जे. जे जडरूप देखाय , ते सर्व परमाणुऊनां कार्य . सुकेली वनस्पति, तेमज अभिप्रमुख शस्त्रोथी परिणामांतर प्राप्त थयेलां पृथिवी आदि सर्व पुजल डे. समुच्चय पुजल अव्यमां, पांच वर्ण, पांच रस, बे गंध, आठ स्पर्श, पांच संस्थान, जे. कालो, ली. लो, रातो, पीलो, धोलो, आ पांच वर्ण बे. तीखो, कडवो, कषायेलो, खाटो, मीठो, आ पांच रस डे. सुगंध, मुर्गंध, आ बे गंध . खरखरो, सुवालो, हलवो, जारे, टागे, उनो, चीकणो अने लूखो आ आह स्पर्श बे. तेना विशेषवर्णादि थाय , ते सर्व एक बीजाना मेलापथी थाय डे, पुजलोमां अनंत शक्ति बे,अनंत खन्नाव . १ अव्य, क्षेत्र, ३ काल, लाव, इत्यादि ते ते निमित्तोना मलवाथी विचित्र परिणाम तेना थाय बे. ५ पांचमुं कालव्य . ते प्रसिद्ध आ पांचे अव्य अजीव . इति. हवे पांच निमित्तनुं स्वरूप लखिये बियें. १ काल, २ स्वजाव, ३ नियति, ४ पूर्वकृत, ५ पुरुषकार, तेउनुं स्वरूप श्रीसिद्धसेन दिवाकर थाचार्यकृत सम्मतितर्क ग्रंथमां विस्तारथी बतावेल . ते पांचमांथी जो एकने माने तो ते मिथ्याज्ञान, अने मिथ्या दृष्ट ले. जो पांचेना समवायने माने तो सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् दृष्ट . थापांचे निमित्तमांना १ काल, ५ स्वजाव, ३ नियति, आ त्रण निमित्तोनुं स्वरूप क्रियावादिना मतमां लखी आव्या बियें, ४ पूर्वकृत (कर्म) नुं स्वरूप आगल कर्म स्वरूपनो विस्तार करवामां श्रावशे त्यां करवामां आवशे. ५ पुरुषकार, ते जीवोनो उद्यम , आ पांचे निमित्तोथी जगत् प्रवृत्ति निवृत्ति थर Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) पंचम परिबेद. रही. या पांच निमित्तोथीज जीव नरकादि गतियोमा जायजे; तेमज सुख दुःखनां फल जोगवे बे. आ पांच निमित्त विना फल प्रदाता ईश्वरादि कोइ पण नथी, जो कोश वादि आ पांच निमित्तोना समवायने ईश्वर माने, तो तो अमे पण ईश्वर कर्त्ता मानी बेशुं, कारण के जैनमतनी तत्त्वगीतामां लखेबुं बे के, अव्यमां जे अनादिव्यत्व शक्ति बे, तेज सर्वपदार्थोंने उत्पन्न करे, तेमज लय करे,ते शक्ति चैतन्य अचैतन्यादि अनंत स्वनाववाली ले तेने ईश्वर कर्ता मानवाथी जैनमतने कांश हानि यती नथी. ३ हवे पुण्यतत्व- स्वरूप लखिये बियें. “येन शुनप्रकृत्या आत्मकं कर्म जीवान् सुखं ददाति तत् पुण्यं” इत्यादि जेणे करी अर्थात् जे शुन प्रकृतिथी पोते करेलां कर्म जीवोने सुख आपे डे ते पुण्य. पुण्य उपार्जन करवानां नव कारण बे, “उक्तं च स्थानांगे" अन्नपुरे पाणपुले लेणपुले सयणपुले मणपुले वयपुसे कायपुणे नमोकारपुष इति सूत्रं ॥ व्याख्या १ पात्रने अन्ननुं दान आपवाथी जे तीर्थकरनामादि पुण्य प्रकृतिनो वंध थाय ते अन्नपुण्य बे, तेवीजरीतें एपीवाने जल श्रापवं, ३ वस्त्र श्रापवां, ४ रहेवाने स्थानक श्रापवां ५ सुवा, बेसवाने आसन आपवां, ६ गुणीजनने देखी मनमां संतोष, खुशी मानवी, गुणिजनोनी वचनथी प्रशंसा करवी कायाथी पर्युपासना अर्थात् सेवा करवी ए गुणि जनोने नमस्कार करवो आ पुण्य उपार्जन करवानी बावतो कही, ते कांश जैनमतवालाउने देवावास्ते कही, एटबुंज नहि परंतु कोश्पण मतवालो अथवा कोश्पण दान देवायोग्य प्राणी होय, तेने अनुकंपाथी जे को दान थापे ते अवश्य पुण्य उपार्जन करे परंतु तफावत एटलो ठे,के पात्रने जे दान आपवामां श्रावशे, ते पुण्य तेमज मोक्ष बनेनो हेतु यशे, अने अनुकंपाथी जे बीजाने दान देवामां आवशे, ते केवल पुण्य उपार्जन करवानोज हेतु थशे. जैनमतना को शास्त्रमा पुण्य करवानो निषेध नथी कारण के जैनमतज्ञ रुषचदेवादि चोवीश तीर्थंकरो थयेला बे; तेजेए दीदा लेतां पहेला एककोड आठ लाख सोनैया दिन दिन प्रति एकवर्षसुधी दान आपेल बे. ते कारणथी जैनमतमा प्रथम दान Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) जैतनत्त्वादर्श. धर्म बे. जैनमतना शास्त्रमां बीजी केटलीएक रीतथी पुण्य उपार्जन याय एम लखेलुं बे. ४ हवे पुण्यनां फल बेंतालीश प्रकारें जोगववामां यावेळे ते बेंतालीश प्रकार लखिये बिये. १ जेना उदयश्री जीव शाता जोगवे बे ते शाता वेदनीय, २ जेना उदयथी जीव क्षत्रियादि उंचा कुलमां उत्पन्न थाय बे ते उच्चगोत्र, ३ जेना उदयथी जीव मनुष्यगतिमां उत्पन्न याय बे ते मनुष्यगति, ४ जेना उदयथी जीव देवगतिमां उत्पन्न याय बे ते देवगति, ५ वक्रगति पराजवमा जतां, बलदने नाथ घालीने सिद्धो चलाववानी जेम, जे उपजवाने स्थानकें जीवने पहोंचाडे तेने श्रानुपूर्वी कड़े बे. मनुष्य गतिमां जीवने लाववाने उदयमां श्रावे ते मनुष्यानुपूर्वी, ६ देवानुपूर्वी, ७ जेना उदयश्री जीव पंचेंद्रियपणुं पामे बे ते पंचेंद्रियजाति, हवे पांच जातनां शरीर कहियें बियें. 0 जेना उदयश्री जीव औदारिक वर्गणानां पु लो ग्रहण करीने औदारिक शरीरनी रचना करे बे, अर्थात् औदारिक शरीरपणे परिणमावे बे, ते यदारिक शरीर, तेवीजरीतें ए वैक्रियशरीर. १० आहारक शरीर, ११ तैजसशरीर, १२ कार्मणशरीर, एम पांच शरीरनी प्रकृतिनो कार्य समजवो. तथा छांगोपांग त्रण बे. तेमां अंग, शिरप्रमुख, उपांग, यांगली प्रमुख, बाकीनां अंगोपांग बे. जेम के १ शिर, 2 बाति, ३ पेट, ४ पीठ, ५-६ बने हाथ उ-5 बने साथल, या आठ अंग बे, यांगली प्रमुख उपांग बे, नखादि अंगोपांग बे. जेना उदयथी जीवने प्रथमना त्रण शरीरना गोपांगनी उत्पत्ति थाय, तेनां नाम, १३ औदारिक अंगोपांग, १४ वैक्रिय अंगोपांग, १५ आहारक अंगोपांग, १६ जेना उदयथी जीव प्रथमनुं संहनन जेनुं नाम वज्रकषन नाराच बे, ते प्राप्त करे बे, तेनुं स्वरूप या प्रमाणे बे. वज्रनाम की लिका ( खीली ) बे, तथा कषन एटले परिवेष्टन पट्ट अर्थात् उपर लपेटवाना हाडरूप पाटो, तथा नाराच, ते मर्कटबंध, आ त्रणे रूपथी जे उपलक्षित ने तेने वज्जरपज नाराच संहनन कहे बे, हाडना संचय सामर्थ्यनुं नाम संहनन बे. या संहनन श्रदारिक शरीरवालाउंमांज होय बे. १७ जेना उदयथी जीवने प्रथमना समचतुरस्र संस्थाननी प्राप्ति थाय, तेनुं स्वरूप या प्रमाणे. सम अर्थात् तुल्य, जेनुं शरीर चारे बाजुएयी तुल्य, लक्षणयुक्त, प्रमाण Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिजेद. (१५) सहित, सुंदर श्राकार, पोताना आंगल प्रमाणे एकसो आठ आंगल प्रमाणशरीर थाय ते; हवे वर्ण, रस, गंध, अने स्पर्श, कहिये बियें. १० कृष्णादिवर्ण, १ए तिक्तादिरस, २० सुरच्या दिगंध, १ मृ श्रादि स्पर्श, जेना उदयथी शुज होय, २५ जेना उदयश्री मध्यम वजनदार शरीरनी प्राप्ति थाय, अर्थात् लोहनी जेम अत्यंत नारे नहि, अने आकडाना कपासनी जेम अति हलकुं पण नहि, परंतु मध्यमपरिणामी होय, तेने अगुरु लघु नामकर्म कहीये. २३ जेना उदयथी बीजाने हणीशके, तथा शरीरनी आकृति एवी होय के जेने देखीने बीजाउँने अनिजव अर्थात् असामर्थ्यता थाय ते पराघातनामकर्म कहीयें, २४ जेना उदयथी उहासनलब्धि, अर्थात् श्वासोबास लेवानी शक्ति जीवने थाय , ते उहासनामकर्म, २५ जेना उदयथी जीपनुं शरीर प्रकाशवातुं तथा सूर्यना बिंबनी जेम बीजाने ताप उत्पन्न करवाना हेतुरूप तेजयुक्त शरी. रनी प्राप्ति थाय , ते आतपनामकर्ग, २६ जेना उदयथी चंबिंबनी जे. म शीतलताने उत्पन्न करवाना हेतुरूप तेजयुक्त शरीरनी प्राप्ति थाय, ते उद्योतनाम कर्म; २७ जेना उदयथी जीवने विहायसनाम आकाश, तेमां जे गति, ते विहायोगति, ते गति राजहंससदृश होय, ते सुविदायोगति नामकर्म, २७ जेना उदयथी जीवने शरीरनां अंगोपांग आदिने नियतस्थानमा स्थापन करनार सूत्रधार (कारीगर) समान, अर्थात् नसो, जाल, मस्तकनी खोपरी, हाड, चा, कान, केश, नखादि शरीरना सर्व अवयवो योग्यस्थाने रचनार नामकर्मनी प्राप्ति थाय ते निर्माणनामकर्म, ए जेना उदयथी जीवने त्रसपणानी प्राप्ति थाय, ते त्रसनामकर्म, उष्णप्रमुखथी तप्त थतां विवक्षित स्थान तजी या प्रमुखमां गति करे, तेमज हींजियादि पर्यायनां फल लोगवे, ते त्रस. ३० जेना उदयथी जीव बादर (स्थूल ) शरीरवाला थाय, ते बादर नामकर्म, ३१ जेना उदयथी जीव पूर्वे कहेलीब पर्याप्ति पूर्ण करे , ते पर्याप्त नामकर्म, ३२ जेना उदयथी एक एक जीवने एक एक शरीर प्राप्त थाय , ते प्रत्येक नामकर्म, ३३ जेना उदयथी जीवने हाडप्रमुख अवयवो स्थिर, निश्चल होय , ते स्थिरनामकर्म, ३४ जेना उदयथी जीवने मस्तकप्रमुख श्रवयवो शुज होय . ते शुजनामकर्म, ३५ जेना उदयथी सौजाग्यवान् Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) जैनतत्त्वादर्श. अर्थात् सर्वलोकप्रिय जीव थाय, ते सुजगनामकर्म, ३६ जेना उदयथी जीवनो स्वर कोयलनी सदृश मीठाशवालो थाय ते सुस्वरनामकर्म, ३१ जेना उदयथी जीवनुं वचन उपादेय अर्थात् सर्वलोकने माननीय थाय, ते देयनामकर्म, ३० जेना उदयथी विशिष्ट कीर्त्ति तथा यश जगत्मां जीवनी विस्तार पामे ते यशः कीर्त्तिनामकर्म, ३ए जेना उदयी जीवनी चौसठ इंद्रो पूजा करे, तेमज त्रिभुवनमां पूज्यपणुं जेनाथी जीवने प्राप्त थाय, तेमज धर्म तीर्थनी प्रवर्त्तना जेनाथी थाय, ते तीर्थंकर नामकर्म, ४० तिर्यंचोनुं श्रायु, ४१ मनुष्यायु, ४२ देव श्रायु, या त्रण प्रायुनी प्रकृति प्रयुकर्मनी बे जेना उदयश्री जीव ते ते ग तिमां जइ ते ते नवमां स्थिति करे बे, या बेतालीश प्रकारथी पुण्यफल जीवने जोगववामां यावे . ४ हवे पापतत्वनुं स्वरूप लखियें बियें. येनाशु प्रकृत्या आत्मकं कर्म जीवान् दुःखं ददाति तत् पापं ” जे अशुभप्रकृतिथी पोते करेलां कर्म जीवोने दुःख थापे ते पाप, तेमज आत्माना आनंदरसने पीये (जस्मकरे) ते पाप तथा पुण्यश्री विपरीत, ते पाप, या पाप नरकादिफल प्रवर्त्तक होवाथी शुबे, पुण्यनी जेम तेनो आत्मानी साथेज संबंध बे, कर्मपुलरूप बे. अगर जो के बंधतत्त्व अंतर्भूत पुण्यपापा बे, तो पण तेनुं स्वरूप पृथक् पृथक् नानाविध, परमतभेद निरासार्थ कहेवामां श्रावेलुं बे. परमतभेद था प्रमाणे बे. केटलाएक मतवाला कहेबे के केवल एक पुण्यज बे, परंतु पाप नथी, कोइमतवादी कहेबे के एक पापज बे, पुण्य नथी. वली कोइ मतवादी एम पण कड़ेबे के मेचकमणि जेम पुण्य पाप बने परस्पर अनुविद्ध स्वरूपबे, तेथी मिश्र सुखदुःखफलना हेतु बे; ते कारणी साधारण पुण्यपाप एकवस्तुज बे, वली केटलाएक कदेने के मूलथी कर्मज नथी. जगत्मां सर्व विचित्रता स्वनावथीज सिद्ध बे. पूर्वो सर्वमतो मिथ्या बे. कारण के सुख दुःख बने पृथक् पृथक् अनुभववामां आवेढे. ते कारणथी तेर्जना कारणभूत पुण्य पाप पण स्वतंत्रज अंगीकार करवा योग्य बे, परंतु एकलुं पुष्य, के एकलुं पाप, के एकबुं पुण्यपाप मिश्र मानवुं ठीक नथी. कर्मवादी नास्तिक तेमजवेदांती कहे बे के पुण्यपाप, खाका Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिछेद. (१७) शनां फुलसमान असत् बे, सत् नथी तो हवे पुण्यपापनां फल जोगववानां स्थान स्वर्ग, नरक केम मानी शकाय? . उत्तरपदः- पुण्यपापनो अनाव मानशो तो सुख कुःख निर्हेतुक जत्पन्न मानवां पडशे, तेम मानवामा प्रत्यक्ष विरोध श्रावे . जुर्ज. मनुष्य पणुं सदृश बे, परंतु कोइ स्वामी, कोश् सेवकले; को लाखोनां उदर पोषण करे, कोश् पोता, पण उदर पोषण करी शकतो नथी; को देवतानी पेठे निरंतर सुख जोगविलास करे , कोश नारकीनी पेठे निरंतर कुःख जोगवी रह्या . ते कारणथी अनुयमान सुख कुःखना निबंधनजूत पुण्य पाप अवश्य मानवां जोश्य. ज्यारे पुण्य पाप मान्यां, त्यारे तेऊना अत्यंत उत्कृष्ट फल जोगववानां स्थान स्वर्ग, नरक पण मानवां जोरशे. जो तेम नहि मानशो तो ईजरतीय न्यायनो प्रसंग श्रावशे, अर्धं शरीर वृक्ष, अर्धं जुवान. ते बाबतमा प्रयोग अर्थात् अनुमानपण . सुख दुःख कारणपूर्वक , अंकुर जेम कार्य होवाथी, तेवास्ते जे सुख दुःखनां कारण , ते मानवां जोश्य, जेम अंकुरनां बीज. . पूर्वपदः-नीलादि जे मूर्त पदार्थ बे, ते खप्रतिनासि अमूर्त ज्ञाननां जेम कारण , तेम अन्न, फूलमाला, चंदन, स्त्रीप्रमुख मूर्त दृश्यमानज सुख अमूर्त्तनां कारण , सर्प, विष, कंफू (खस) आदि उःखना कारण बे. तो हवे शावास्ते अदृश्य पुण्यपापनी कल्पना करोडो ? उत्तरपदः-या तमारूं कहे अयुक्त , कारण के ते कथनमां व्यनिचार . जुर्ज. बे पुरुषोनी पासे तुल्य साधन , तोपण फलमां अत्यंत तफावत देखवामां श्रावे. तुल्य भन्नादि जोगववामांपण कोश्ने आह्नाद (हर्ष) तथा शरीरपुष्टि थायडे, अने बीजाने रोगोत्पत्ति थायजे. श्रा फलनेद अवश्य सकारणने नहितो नित्य सत् नित्य असत् थर्बु जोश्ये, कारण के जे वस्तु (कार्य) कदी थाय, कदी न थाय, ते कारण विना कदापि तेम थतां नथी, अथवा कारणानुमानथी कार्य, पुण्य पाप जाणी शकायचे, त्यां कारणानुमान था बे, दानादि शुन क्रियानां, तेमज हिंसादि अशुज क्रियानां फखजूत कार्य, कृष्यादि क्रियावत् कारण होवाथी डे. जे श्रा क्रियानां फललूत कार्य , ते पुण्य पाप जाणवां. जेम खेती करवानी क्रियानां फल, कमोद, जुवार, घळं प्रमुख . . . २८ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) जैनतत्वादर्श. पूर्वपक्ष:- जेम कृष्यादि क्रियानां दृष्ट फल कमोद प्रमुखडे, तेम दानादि, तेमज पशुहिंसादि क्रियानां दृष्टफल श्लाघा, मांसमक्षण, निर्दयता श्रादिबे, तो हवे शावास्ते दृष्ट पुण्यपापनां फल कल्पवां जोइयें ? कारके जनसमुदाय विशेषें करी दृष्ट फलमांज प्रवृत्त थायडे, खेती, वेपार प्रमुख हिंसादि क्रियामां बहु लोको प्रवर्त्ते बे ने अदृष्ट दान फलादि क्रियामां थोडा लोक प्रवर्त्तेबे. ते कारणथी कृषि हिंसादि अशुभ क्रियानां दृष्ट फल पापरूप श्रमे मानता नथी. उत्तरपक्षः - जो श्रा तमारुं कथन वास्तविक होय, तो तो परनवमां फलना श्रावथी मरणानंतर सर्व जीव प्रयत्नविना मोक्ष प्राप्त कर - शे. तथा संसार प्रायः शून्य था जशे, संसारमां कोइपण दुःखी होशे नहि, मात्र दानादि शुभ क्रियाना करनारा, तेमज तेनां फल जोगवनारा रहेशे; परंतु तेम नथी, संसारमां दुःखी बहुज देखवामां आवेढे, अने सुखी थोडाज देखायडे, ते कारणथी साबीत याय के कृषि, वाणिज्य, हिंसादि क्रिया निबंधन श्रदृष्ट पापरूप फल दुःखी जीवोने बे, अने दानादि दृष्ट पुण्यफल सुखी जीवोने बे. प्रश्नः - जे सुखीने ते हिंसादि क्रियाथी, छाने जे दुःखीबे ते दानादि क्रियायी एम केम न बने ? उत्तरः- एम बनतुं नथी, कारणके हिंसादि अशुभ क्रिया करनारा बहु बे, अनेदानादि शुभ क्रिया करनारा थोडाबे, या कारण अनुमानबे. हवे कार्य अनुमान कहिये बियें. जीवोमां श्रात्मस्व समान बतां नर पशु यदि देहोमां कारणनी विचित्रताथी कार्य विचित्र देखायडे, जेमके घटनां दंड, चक्र, चीवरादि सामग्री संयुक्त कुंनकार; हवे एम पण कहेवाय के, देखाय जे माता, पिता ते या देहनां कारण बे, परंतु पुण्य पाप नी, कारण के मातापिता एकज ने बतापि पुत्रोना देहोमां विचित्रता देखायेबे, या विचित्रता, श्रदृष्ट (शुभाशुभ कर्म) विना यह शकती नथी. ते कारण जे शुभ देह बे, ते पुण्यनुं कार्य बे, घने अशुभ देहबे ते पा पनुं कार्य, या कार्यानुमान सिद्धबे. सर्वज्ञ वचन प्रमाण थी पुण्यपापनी सत्ता पण सिद्धबे. विशेष जाणवानी इछावालाए विशेषावश्यकनी टीका जोवी. पाप, प्राणातिपात आदि अढार पापस्थानकोथी बंधायडे, अने ते 1 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिवेद. (शए) ब्याशी प्रकारथी जोगववामां श्रावे. ते ब्याशी प्रकार था प्रमाणे . पांच झानावरण, पांच अंतराय, नव दर्शनावरण, बवीश मोहनीय प्रकृति, चोत्रीश नामकर्मप्रकृति, एक अशाता वेदनी, एक नरकायु. एक नीचगोत्र, सर्व मली ब्याशी प्रकार थया तेउनुं विस्तारथी खरूप लखियें बियें. ज्ञानावरण कर्मनी पांच प्रकृति के. ज्ञानना पांच प्रकार ले १ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, श्रा बने अनिलाप प्लावितार्थ (वाणीतर्क) ग्रहण रूप ज्ञान ३.३ अवधिज्ञान, इजियोनी अपेदाविना आत्माने रूपी विषयक सादात् अर्थग्रहण करनारं ज्ञान, ४ मनः पर्यवज्ञान, मनमां चिंतित श्रर्थने सादात् ग्रहण करनारं ज्ञान, ५ केवलज्ञान, लोकालोकना सकल पदार्थखरूपन्नासन करनारुं ज्ञान. या पांचे ज्ञाननां जे श्रावरण ते झानावरण , १ मतिज्ञानावरण, २ श्रुतज्ञानावरण, ३ अवधिज्ञानावरण,४ मनः पर्यवज्ञानावरण, ५ केवलज्ञान आवरण, १ जेना उदयथी जीव मतिहीन, निःप्रतिजा होय ते मतिज्ञानावरण, जेना उदयथी जीवने कांपण जणतां न श्रावडे ते श्रुतकानावरण, ३ जेना उदयथी अवधिज्ञान न थाय, ते अवधिज्ञानावरण, ४ जेना उदयथी मनः पर्यवज्ञान न थाय ते मनःपर्यवज्ञानावरण, ५ जेना उदयथी केवल ज्ञान न थाय ते केवलज्ञानावरण. हवे अंतराय कर्मनी पांच प्रकृति कहिये बियें. १ जेना उदयथी, थापवानी वस्तु पण बे, गुणवान् पात्र पण डे, दान- फल पण आपनार जा. णे , परंतु दान आपी शकतो नथी, ते दानांतराय, २ जेना उदयथी, देवा योग्य वस्तु पण , दातारपण बहुज प्रसिक , मागनारपण मागवामां अत्यंत कुशल ने उतापि मागनारने का पण न मले, ते लाजांतराय, ३ जेना उदयथी, एकवार जोगववायोग्य वस्तु थाहारादि विद्यमान पण , परंतु जीवथी जोगवी न शकाय, ते जोगांतराय, ४ जेना उदयथी, वारंवार जोगववा योग्य वस्तु शयन, अंगनादि विद्यमान पण बे, परंतु जीवथी जोगवी न शकाय, ते उपजोगांतराय, ५ जेना उदयथी युवान, रोगरहित, पुष्टांग, तथा बलवान् बतां पण पोतानी शक्ति फोरवी शकाय नहि, ते वीर्यांतराय. ' हवे दर्शनावरण कर्मनी नव प्रकृति कहियें बीयें. सामान्य अवबो Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिबेद. () तेठमां गम्य अगम्यनो विचार , तेवीजरीतें उंचनीचपणाना विजागनो विचार . आ व्यवहार ब्राह्मण तथा जैनियोये चलाव्यो नथी, परंतु ते जीवोना जलां, बुरां कर्मोना उदयश्री चालेलो . आ प्रमाणे परस्पर जातियोमा खान पान नहिं करवानो व्यवहार मिसर देशमां पण हतो, तेथी सिझ थाय डे के ऊंच नीच गोत्रना अनावश्रीज उंच नीच जाति, कुल थाय बे. __ तथा श्रायुकर्मनी नरक श्रायुनी प्रकृति पापमां गणायजे. नरकशब्दनी व्युत्पत्ति आ प्रमाणे बे. "नरान् प्रकृष्टपापफलजोगाय गुरुपापकारिणः प्राणिनोनरानित्युपलक्षणत्वात् कायति शब्दयंतीति नरकास्तेष्वायुस्तनवप्रायोग्यसकलकर्मप्रकृतिविपाकानुनवकारणं प्राणधारणं यत्तन्नरकायुष्कं तहिपाकवेद्यकर्मप्रकृतिरपि नरकाथुष्कमिति ॥” तथा वेदनीकर्मनी अशाता वेदनी पापप्रकृतिमां गणायजे. अशातानाम उखनुं बे, जेना उदयथी जीव दुःख जोगवे ने ते अशातावेदनी ३. श्रा प्रमाणे. ज्ञानावरण पांच, अंतराय पांच, दर्शनावरण नव, मोहनी बबीश, नामकर्मनी चोत्रीश, नीच गोत्र एक, नरकायु एक, अशातावेदनी एक, सर्व मली व्याशीनेदें पापफल लोगववामां आवेने. इति. हवे आश्रवतत्त्वतुं स्वरूप लखियें लियें. "आश्रवन्ति, आगठन्ति क. र्माणि जीवेषु येन साश्रवः" जेनाथी जीवोने कर्मनी प्राप्ति थाय ते श्राश्रव १ असत् देव, श् असत् गुरु, ३ असत् धर्म, तेउविषे सत् देव, सत् गुरु श्रने सत् धर्म एवी जे रुचि ते मिथ्यात्व, तथा हिंसादिथी न निवर्त्त, ते अविरति, तथा मद्यप्रमुख ते प्रमाद, तथा क्रोधादि ते कषाय, अने मन, वचन, कायानो व्यापार ते योग, आ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग, पांचे पुनबंधक जीवना ज्ञानावरणीय श्रादि कर्मना बंधना हेतु बे, तेउने जैनमतमां श्राश्रव कहे. ते मिथ्यात्वादि शुजाशुन्ज कर्मबंधना हेतु होवाथी तेज आश्रव . आ तात्पर्य जे. प्रश्नः-प्रथम, वंधोनो अनाव उतां, श्राश्रवनी उत्पत्ति केम होय ? जो कहो के आश्रवथी पहेलां बंध , तो तो ते बंध पण श्राश्रवहेतु Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (शश) जैनतत्त्वादर्श. विना थइ शकतो नथी. कारण के जे जेनो हेतु दे, ते तेनो अनाव नता थश् शकतो नश्री, जो होय तो, अतिप्रसंग दूषण आवशे.. उत्तरः-श्रा कदेवू असत् बे, कारणके श्राश्रवने पूर्वबंधनी अपेक्षाए कार्यपणुं ,अने उत्तरबंध अपेदाए कारणपणुं बे, तेवीजरीतें बंधने पण पूर्वउत्तर आश्रवनी अपेक्षाए कार्यत्व, कारणत्व जाणवू, बीजांकुरनी जेम. बंध, आश्रव बनेने परस्पर कार्यकारणनावनो संबंध बे; तेथी अहीयों श्तरेतर दूषण नथी. प्रवाह अपेक्षाए बने अनादि . थाश्रव पुण्यपापनो बंधहेतु होवाथी बे प्रकारें . आ बंने प्रकारना मिथ्यात्वादि उत्तर दोना उत्कर्ष, अपकर्ष अर्थात् अधिक, न्यूनपणाथी अनेक प्रकार . आ शुजाशुज मन,वचन, कायाना व्यापार रूप आश्रवनी सिकि पोताना आत्मामा स्वसंवेदनादि प्रत्यक्षायी, अने बीजाउमां वचन श्रने कायाना व्यापारनी प्रत्यक्षथी सिद्धि बे, बाकीनाउनी तेना कार्यथी उत्पन्न थता अनुमानथी जाणवी, तेमज आप्तप्रणीत श्रागमथी पण जाणवी. श्राश्रवना उत्तरनेद बेंतालिश , पांच इंजिय. चार कषाय, पांच श्रव्रत, पचीशक्रिया, त्रणयोग, जीवरूप तलावमां, कर्मरूप पाणी जेनाथी आवे, ते आश्रव. ते गरनाला प्रथम तो पांच इंजिय बे. तेनुं स्वरूप कहिये लिये १ स्पर्शियें स्वविषय स्पर्शलदण, जेनाथी, ते स्पर्शनेंजिय, २ "रस्यते आस्वाद्यते रसोऽनयेति" श्रास्वादिये, रस लहियें जेनाथी, ते रसना ( जिव्हा) इंजिय, ३ सूंघीए गंध जेनाथी, ते घ्राणे जिय, ४ चक्कु ते नेजिय, ५ सांजलीये शब्द जेनाथी, ते श्रोत्रेजिय, मूलनेदनी अपेक्षाथी आ पांच ईजिय, आश्रवनां पांच कारण ने. ___"क्रुष्यति कुप्यति" सचेतन, अचेतन वस्तु उपर जेणे करी प्राणी सनिमित्त, निनिमित्त कोप करे ते क्रोध मोहनीयकर्म बे, तेनो उदय ते पण क्रोध : तथा मान ते मृतानो अनाव, तेना बे प्रकार . प्राप्त थयेली वस्तुवडे जे अहंकार थाय ते मद, श्रने अप्राप्त बतां श्रहंकारी वृत्ति ते मान. ते मदना थाहप्रकार. १ जातिमद, ५ कुलमद, ३ बलमद, ४ रूपमद, ५ ज्ञानमद, ६ लाजमद, ७ तपमद, ७ बैश्वर्यमद, Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिछेद. (शशए) १ पोतानी माताना पदनो अहंकार करे, जेम के मारी माता मोटा घरवालानी दीकरी , इत्यादि. एवीरीतें पोताने उंचा मानी श्लाघा करे अने बीजाऊनी ते बाबतमा निंदा करे ते जातिमद. ५ पोताना पिताना पक्ष, अनिमान करे, जेमके मारा पितानुं कुल उंचुं बे, अने बीजानी ते बाबतमां निंदा करे, ते कुलमद. ३ पोताना बलनु अनिमान करे, अने बीजाना बलनी निंदा करे ते बलमद. ४ पोताना रूपर्नु अनिमान करे, अने बीजाना रूपनी निंदा करे ते रूपमद. ५ पोताने महाज्ञानी माने, अने बीजाने तुबमति माने ते ज्ञानमद,६ तप करीने अनिमानथी पोताना मनमां माने के मारा समान को तपस्वी नथी ते तपमद. ७ पोते पोताने मोटो नशीबदार माने, अने बीजाने हीनपुण्यवाला समजे ते लाजमद. पोतानी उकुराश्चं अजिमान करे. अने बीजाने घास फुस समान गणे ते झैश्वर्यमद. ते प्रमाणे मानना पण समजवा. तथा "मयति गति" जाय जे जे विकारोथी वीजाने उगवावास्ते जीव ते माया कदेवाय . तथा जेनाथी परधन प्राप्त करवामां जीवने गृद्धिपणुं होय, ते लोज कहेवाय ते चारे कषाय कहेवाय डे. हवे पांच अवतनुं खरूप कहिये बियें. पांच इंडिय, त्रण बल, मनबल, वचन बल, कायबल,तथा श्वासोच्छ्वास अने आयु, श्रा दश प्राण बे. ते दश प्राणना योगथी जीवने पण प्राण कहिये. ते प्राणोनो जे वध अर्थात् नाश ते प्रथम प्राणवध याने जीव हिंसा जाणवी. ५ मृषावाद अर्थात् जुठं बोलवू. ३ अदत्तादान अर्थात् बीजानी वस्तु चोरी लेवी. ४ मैथुन (अब्रह्मसेवन) स्त्री पुरुषवें जोडं ते मिथुन, ते बनेना मेलापथी जे कर्म थाय ते मैथुन, ५ परिग्रह सर्व बाजुएथी ग्रहण याने एकत्र करीयें, चार गतिनां निबंधन कर्म जेनाथी ते परिग्रह. आ पांच अव्रतना चार चार नांगा दे तेनुं स्वरूप लखिये बियें. प्रथम हिंसाना चार लांगानुं स्वरूप, १ अव्ये हिंसा, परंतु जावें नहि, अव्यें हिंसा नहि, परंतु नावें , ३ अव्ये हिंसा अने नावे पण हिंसा, ४ अव्ये हिंसा नहि,अने जावें पण नहि. प्रथमना गर्नु स्वरूप एवं के साधुने समाचारी, प्रतिलेखना करतां, मार्गमा विहार करतां, नदी प्रमुख उतरतां, नावमांबेसी नदी श्रोलंगता, नदीमां साध्वी श्रादिने Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०) __ जैतनत्त्वादर्श. तणाता, काढतां, वरसाद वरसते थंडील जता, ग्लान साधुऊनी वरसादमां लघुशंकाने परग्वता, गुरुनां शरीरने वातप्रमुख व्याधिने प्रसंगें तथा थाक लागवायी मुठी चंपीकरतां जे हिंसा थाय ते अव्य हिंसा ने. तथा श्रावकोने पण जिनमंदिर बनावतां, जिनपूजा करतां साधर्मिवात्सल्य करतां, तीर्थयात्रा करतां, रथयात्रा करतां, अधाश्महोत्सव कर तां, प्रतिष्ठा तेमज अंजन शलाका करतां, जगवान् तेमज गुरूनी सन्मुख सामैयुं करी जतां, इत्यादि कर्तव्य करतां जे हिंसा थाय बे ते सर्वे अव्यहिंसा डे, परंतु नावहिंसा नथी. तेनुं फल अल्प पाप अने बहु निर्जरा , एम श्रीनगवतीसूत्रमा कहेवू दे.आ हिंसा थाय बे ते प्रसंगे साधुआदिना परिणाम बहुज सुंदर , माग अध्यवसाय नथी, अने उपयोगयुक्त वर्तन के तेथी अव्य हिंसा डे. प्रश्नः-यज्ञादिमां गौ, अश्वप्रमुख जीव मारवामां आवेडे, तेपण अव्य हिंसा केम नहि ? तेनो उत्तर मीमांसक मतखंडनमा लखेलो डे. बीजा नंगनुं स्वरूप एवं के जे पुरुष उपरथी तो शांतरूप देखाय बे, परंतु तेना अंतःकरणना अध्यवसाय महामलीन, हिंसामय , जेम के तेनी चाहना एवी थाय के, मारा शत्रुनुं मरण थाय, तेना कुटुंबमां मरकी चाले, तेना घरमां आग लागे, ते नदीमां मुबी जाय, तेना पुत्र स्त्रीनो नाश थाय, तथा बीजा अनेक प्रकारें जीवहिंसा करवानां कामनो संकल्प विकल्प करे, तेवा विचारोमा प्रवर्त्तवाथी, हिंसा तो करतो नथी, तेथी अव्ये हिंसा नथी, परंतुतेना अध्यवसाय हिंसामय होवाथी ते नावें हिंसा , अने तेश्री ते जीव हिंसक . तेनुं फल अनंताकाल सुधी संसारमा परिभ्रमण करवू तेज बे. त्रीजा नंगमां इंजियोना विषयोमा तेमज कषायमा अत्यंत गृह थर जीवहिंसा करवी, जेमके कसा थ, शिकार करवा, विश्वासघातप्रमुख करी जीव जाय तेवां काम करवां, तथा पंदर कर्मादान प्रमुख अनाचरणीय जीव हिंसानां काम करवां, अने तेथी लाज थतां मनमा धानंद मानवो. या अव्ये हिंसा तथा जावें पण हिंसा ,तेनुं फल, संसार परिज्रमण तथा उर्गति . Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिवेद. (३१) चोथा जंगमा अव्ये पण हिंसा नहि, अने जावे पण हिंसा नहि. श्रा नंगशून्य . या जंगवालो जीव संसारमा कोइ पण न होय. मृषावादना पण चार जंग बे. तेनुं खरूप कहियें बियें. १ साधु रस्तामा चाल्या जायचे, तेनी आगल थर जंगलनी गायो तथा मृग प्रमुखनुं टोलुं चादयुं जायजे. टोलानी शोध करतो को शिकारी बंछुक प्रमुख शस्त्र लश् चाल्यो आवे बे, ते शिकारी ते जीवोनो शिकार करवा वास्ते साधुने पुढे जे के तमे अमुक जीवोने जता देख्या जे? साधु ते शिकारीना सवालनो जवाब नहि देतां मौन रहे . शिकारी जवाब मेलववासारू साधुपर हुमलो करे . तथा मारे, तेवे प्रसंगे साधु कहे डे के में तो टोलाने जतां देखेल नथी. यद्यपि साधुनुं आ बोल, अव्ये जूतुं , परंतु जावें जू नथी, कारण के जे इंजियोना जोगने वास्ते तेमज लोलादि कषायश्री जूतुं बोले तेज जावें जू डे, परंतु साधुनुं जूतुं बोलq तो निरपराधी प्राणीउनी दयावास्तेज थयेवू बे, तेथी वास्तवा ते मृषावाद नश्री. बीजा नंगमां को मनुष्य मुखथी तो कांश बोलतो नथी, परंतु बीजाने उगवावास्ते मनमां अनेक विकल्प करे.आजव्यथी मृषावाद नथी परंतु नावें मृषावाद . त्रीजानंगमां मुखथी असत्यवचनो बोले बे, अने अंतःकरणमा बलकपट करवाना मलीन अध्यवसाय पण . आ अव्ये तथा नावें मृषावाद . चोथो नंग पूर्ववत् शून्य बे. ___ हवे चोरींना चार नंगनुं खरूप कहिये बियें. प्रथम जंगमां-एक स्त्री शीलवंती , तेनो शील नंग करवा कोश् उष्ट परिणामवालो राजा ते स्त्रीने पकडी पोताना कबजामा राखेडे, ते हकीकत को धर्म पुरुषना जाणवामां श्रावतां, ते स्त्रीना शीलनुं रक्षण करवावास्ते, ते स्त्रीने, ते पुरुष, ते राजाना कबजामाथी राज्य बहार लइ जाय तो व्यवहारथी तो ते राजानी ते पुरुषे थाझानंगरूप चोरी करी बे, परंतु वास्तवमां ते चोरी नथी. वली कोश्पुरुष पोताना घरमां अव्य राखी, घरनां द्वार बंध करी परदेश गयेल ने, गाममां चोरनो उपजव थवाथी, ते परदेश गयेला सख्सनुं अव्य चोराइ जशे, एम तेना कोश हितचिंतकने लागवाथी, रात्रिने समये ते परदेश गयेलाना घरनां द्वार खोली तेनु सघ अव्य, Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३२) जैनतत्त्वादर्श. ते पोताने घेर पाडो आवेथी तेने आपवानी बुद्धिपूर्वक लश, पोताना घरमा राखेडे, या दृष्टांतमां बीजानुं अव्य, तेनी रजा शिवाय, तेना कबजामांथी लश् लेवाथी अव्ये चोरी थायडे, परंतु बदद्यानतनो अन्नाव होवाथी जावेंचोरी यती नथी तेवीरीतें बीजी बाबतमां पण समजवू. बीजाजंगमां को पुरुष चोरी तो करतो नथी, परंतु चोरी करवाना अध्यवसाय तेना मनमा थया करे, ते अव्यथी चोरी नहि, परंतु नावें चोरी . वली वीतराग सर्वज्ञ परमात्मानी आझाना नंग करनाराउँने पण नावचोर कहेलां. त्रीजा नंगमां, को पुरुष चोरी करेले, तेमज तेनो अध्यवसाय पण चोरी करवानो ने ते अव्य तथा जावें चोरी बे. चोथो नंग पूर्ववत् शून्य . __ हवे मैथुनना चारनंग कहिये बियें. जे साधु जलमां मुबती साध्वीने देखीने, तेने काढवाने वास्ते पकने, तेमज कोश् गृहस्थ जंचेथी पमीजती को स्त्रीने तेना रदणार्थे पकने, तेमज कोशगांमी थर गयेती नुकशान करती स्त्रीने पकने, तेवा प्रसंगोमां पकम ते अव्य मैथुन बे.परंतु नावें नथी. बीजा नंगमां-को पुरुष, स्त्रीने नोगवतो नश्री, परंतु तेना मनमां. स्त्रीसेवन करवानी अनिलाषा बहुज रह्या करे, ते अव्य मैथुन नहि, परंतु जावें मैथुन डे. त्रीजा नंगमां-स्त्रीसाथे मैथुन अभिलाषापूर्वक करवू ते अव्य तथा नावें मैथुन जे. चोथो नंग पूर्ववत् शून्य बे.. __ हवे परिग्रहना चार जंग कहिये बिये. कायोत्सर्गमां स्थित रहेला कोश् मुनिना गलामां को सख्स हारादि आयूषण पहेरावी दे, ते जोश्ने बीजा अजाण्या पुरुषो, सुनिने परिग्रहवाला धारे, परंतु मुनिने ते पदार्थपरपरिग्रहबुद्धि नथी तेवा प्रसंगमां अन्य परिग्रह कहेवाय, परंतु मुनि जावें परिग्रही नथी. बीजा नंगमा-कोश्पुरुष पासे एक कोमी पण नथी परंतु धन मेलववानी बहुज अनिलाषा रह्या करे, ते जावें परिग्रही जे. अव्ये नहि. त्रीजा नंगमां-धनपण पासे होय, अने धन मेलववानी अनिलाषा पण रह्या करे, ते अव्य तथा जावें परिग्रही . चोथो नंग पूर्ववत् शून्य जे. सर्वजंगमां बीजो तथा त्रीजो जंग निश्चयथी अविरतिरूप बे. • हवे पचीश क्रिया खरूप लखिये बियें ? शरीरथी जे क्रिया थया Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिछेद. (२३३) करे, ते कायिकी क्रिया. कसा प्रमुख शस्त्रथी परजीवोने उपघात करी पोताना श्रात्माने नरकगतिमा जवाना अधिकारी करे ते अधिकरण क्रिया. ३ जीव तथा अजीव उपर वेषनी चिंतवना करवी ते प्राषिकी क्रिया. ५ पोताने तथा परने जे परिताप उपजाववो ते पारितापनिकी क्रिया. ५ एकेडिय प्रमुख जीवोने हणवा तथा हणाववानी जे क्रिया ते प्राणातिपातिकी क्रिया. ६ पृथ्वीकायादि जीवना उपघात कराववा तथा करवा सारू कर्षण प्रमुख कर, करावq ते आरंनिकी क्रिया. धनधान्यादि नवविध परिग्रह मेलवतां, तथा तेना रक्षणसारू मू ना परिणाम बनेला राखवा सारू जे क्रिया करवी पडे ते पारिग्रहिकी क्रिया. बीजाने उगवा सारू कपट युक्त जे क्रिया करवी पडे ते मायाप्रत्ययिकी क्रिया. ए जिनवचन असदहता विपरीत प्ररूपणा प्रमुख करवाथकी जे क्रिया लागे ते मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया १० संयमने विघातकारक कषायोना उदयथी पञ्चखाण कीधा विना जे सर्ववस्तुनी क्रिया लागे ते अप्रत्या ख्यानिकी क्रिया. ११ कौतुकेंकरी अश्वादि जोवां तेमज रागादि कलुषित चित्तथी जीव, अजीवने जोवा ते दृष्टिकी क्रिया. १५ राग, द्वेष, मोह संयुक्त चित्तथी स्त्री श्रादिना शरीरने स्पर्श करवो ते स्पृष्टिकी क्रिया. १३ जीव तथा अजीवसंबंधी जे राग द्वेष थाय, जेम के बीजाने घेर हस्ती, घोडा, वस्त्र प्रमुख देखी वेष धरे, जे ए वस्तुळ तेनी पासे क्याथी? एम चिंतवता कर्म बंध करे ते प्रातित्यकी क्रिया. १५ पोताना श्रश्वप्रमुखने जोवावास्ते.आवेला स्त्री पुरूषोने प्रशंसा करता जोश्ने हर्ष धारण करे, तेमज स्त्री प्रमुखने जोजन करवा आवतां जे क्रिया लागे ते, अथवाफुध, दही, घी, तेल प्रमुखना नाजन उघाडां रहेतां तेमां त्रस जीव आवी पडे, ते सामंतोपनिपातिकी क्रिया. १५ परउपदेशित पापमा लांबा वखतसुधी प्रवर्तवू, तथा पापना नावथी अनुमोदना करवी ते नैसष्टिकी क्रिया, १६ को पुरुष अत्यंत अजिमानश्री उइकेराश्ने कोधित चित्त थयो थको, जे काम नोकरपासे कराववा जेवं होय ते पोताना हाथथी करे ते खहस्तिकी क्रिया. १७ अर्हत जगवंतनी आज्ञानुं उबंधन करीने पोतानी बुद्धिथी जीवाजीवादि सूक्ष्म पदार्थोनी प्ररूपणा करवासारू जे क्रिया करे ते आज्ञापनिकी क्रिया. १७ बीजाना अबतां खोटां आचरणो Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३४) जैनतत्त्वादर्श. प्रगट करवां, तेमनी पूजानो नाश करवो, तेम करवाथी जे उत्पन्न थाय ते वैदारणिकी क्रिया, जे उपयोगथी विपरीत ते अनाजोग, तेनाथी उपलदित जे क्रिया ते अनाजोगक्रिया. देख्या विना तेमज पूजन, प्रमार्जन कर्याविना जीत तेमज नूमि प्रमुखउपर शरीरादिनो निक्षेप करवो ते अनाजोगक्रिया. २० पोतानी तेमज परनी अपेक्षा तेनुं नाम अवकांक्षा बे, तेनाथी जे विपरीत ते अनवकांदा, तेज कारण जे जेतुं ते अनवकांदा प्रत्ययिकी क्रिया, तात्पर्य एम के, जिनोक्त कर्त्तव्य विधियोमा जे पोताने तेमज परने जे क्रिया हितकारी होय तेमां प्रमादने वश थर जे आदर न करवो ते अनवकांदा प्रत्ययिकी क्रिया १ चालवा, दोडवा प्रमुख कायाना व्यापार, तथा हिंसाकारी, कगेर जूठ बोलवाना वचनना व्यापार, अने परलोह, ईर्ष्या, अनिमानादि मनोव्यापार, ए त्रणेनुं जे करवू ते प्रयोग क्रिया. २२ जेनाथी विषयग्रहण करिये ते समुदान इन्जिय तेनी जे क्रिया, देश तेमज सर्व उपघातरूप व्यापार ते समुदान क्रिया. कोश ए मोटुं पाप करिये के जेथी आवे कर्मनुं समुदायपणे ग्रहण थाय ते समुदान क्रिया. ३ माया तेमज लोजथी जे क्रिया थाय ते प्रेम प्रत्ययिकी क्रिया. २४ क्रोध तेमज मानथी जे क्रिया थाय, ते वेषप्रत्ययिकी क्रिया. २५ चालवाथी जे क्रिया लागे ते यापथिकी क्रिया. श्रा क्रिया वीतरागने लागे ने तेमज अप्रमत्त मुनियोने पण लागे . . हवे था पचीश क्रिया व्याख्यान करिये बियें. १ कायिकी क्रिया बे प्रकानी ने, एक अनुपरता कायिकी क्रिया अने बीजी अनुपयुक्त कायिकी क्रिया, तेमां अत्यंत कुष्ट एवा मिथ्यादृष्टि जीवोनो, मन वचननी अपेदारहित परजीवने पीडा कारक कायानो उद्यम ते प्रथम नेद तथा प्रमत्त संयतनोउपयोग विना अनेक कर्तव्य रूप कायानो व्यापार ते बीजो नेद. २ श्राधिकरणिकी क्रियाना बे प्रकार जे. एक संयोजना, बीजी निवर्त्तना. तेमां विष, गरल, फांसी, धनुष, यंत्र, तलवार, प्रमुख शस्त्रोने, जीवोने मारवावास्ते संयोजन अर्थात् एकत्र करवां, जेम धनुषने तीरनो मेलाप करवो इत्यादि, ते प्रथम नेद, तथा तलवार, तोमर, शक्ति, तोप, बंधुक इत्यादिने नवां सरस बनाववां, ते बीजो नेद. ३ जे निमित्तथी क्रोध उ, त्पन्न थाय ते निमित्त जीव तथा अजीव बे बे. तेमां जीव ते प्राणी, Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिवेद, (२३५) अने अजीवमा खुंटो, कांटो, पथ्यर प्रमुख, तेऊना उपर वेष करे ते प्रदोष क्रिया.४ पोताना हाथथी, तेमज बीजाना हाथें जीवोने मार मारवो पीटवो ते परितापना, तेना बे नेद जे. पुत्रकलत्रादिना वियोगथी दुःखी थश्ने पोताने हाथें बाती तेमज शिर कुटवू ते प्रथम नेद, तथा पुत्र, शिष्यादिने मार मारवो ते बीजो नेद.५ प्राणातिपातिकी क्रिया बे प्रकारे . एक तो पोताने हाथे पोतानो घात करवो जेम के कुवामां पड़ी मर, पर्वतउपरथी गरीपडवू, अनिमां ऊंपापात करवो, फेर खा प्रमुख खात्मघातिकी क्रिया ते महापापरूप क्रिया देते प्रथम नेद.तथा कषायने श्राधीन थ बीजा जीवोनो नाश करवो ते बीजो जेद.६ जीव अजीवनो आरंज करवो जेथी पृथ्वी कायादि बकायना जीवोनो उपघात थाय, एवां लक्षणो जे क्रियामां होय ते आरंजिकी क्रिया. ७ जीव अजीवनो परिग्रह करवो, तेनामां अत्यंत मूळ राखी प्रवर्तवं ते परिग्रहिकी क्रिया माया (कपट) गुप्तरीतें खार्थवृत्ति साधवी ते मायाप्रत्ययिकी क्रिया. ए विपरीत वस्तुनुं श्रकान तेज डे निमित्त जेतुं, ते मिथ्यात्वदर्शनप्रत्ययिकी क्रिया १० जीवने हणवाना, तेमज मद्यमांसादि पिवा खावानो जेमां त्याग नहि, एवा जे असंयति जीवनी क्रिया ते अप्रत्याख्यानिकी क्रिया. ११ घोडाप्रमुख जीव तथा रथप्रमुख श्रजीवोने जोवा वास्ते जq ते दृष्टिकी क्रिया. १२ जीव, अजीव, स्त्री, पुतली आदिने रागथी स्पर्श करवो ते स्पृष्टिकी क्रिया. १३ जीवनी तेमज अजीवनी थपेक्षाथी जे कर्मबंध थाय ते प्रातीत्यकी क्रिया. १४ जीव ते पुत्र, स्त्री, जाप्रमुख, अने श्रजीव ते, घर, आजूषण प्रमुख तेजने जोवासारू लोको श्रावे, तेउनी प्रशंसाथी ते वस्तुनो खामी हर्षित थाय ते सामंतोपनिपातिकी क्रिया. १५ जीव मनुष्यादि, अजीव पथ्थरादि ते ने फेंकवा ते नैस्पृष्टिकी क्रिया १६ पोताना हाथथी जीव तेमज अजीवनी प्रतिमाने ताडन प्रमुख करे ते खहस्तिकी क्रिया. १७ जीव, अजीवनी मिथ्या प्ररूपणा करवी, तेमज जीव, अजीवने मंत्रथी बोलाववां ते थाज्ञापनिकी क्रिया १७ जीव, श्रजीवने विदारवा, ते वैदारणिकी क्रिया. १ए उपयोग विना वस्तु लेवी, तेमज नूमि प्रमुख उपर मुकवी ते अनाजोग क्रिया. २० इह लोक विरुद्ध तेमज परलोकविरुरू चोरी, परस्त्रीगमनादि उराचण सेववां, Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ ) जैनतत्त्वादर्श. मनमां कर नहि ते नवकांक्षा प्रत्यय क्रिया. २२ अष्टविध कर्म परमानुं जे ग्रहण कर ते समुदान किया. ५३ रागजनक वीणा दिना शब्दादिनो जोग करवो ते प्रेमप्रत्ययिकी क्रिया २४ पोताउपर तेमज परपर द्वेष करवो ते द्वेषप्रत्ययिकी क्रिया. २५ मात्र योगोथी जे क्रिया लागे ते केवली तेमज श्रप्रमत्त मुनिनी र्या पथिकी क्रिया. या पचीश क्रियानुं बहुज संदेपथी स्वरूप कहेलुं बे. विस्तारथी जाणवानी यमिलाषावाला शब्दांनो निधि गंधहस्तिमदाजाष्य जोवां. श्रा पचीश क्रियामां केटली एक जोतां एकसरखी लागे, परंतु ते एक सरखी नथी. दरेकनुं स्वरूप तदन पृथक् पृथक् बे. वेण योगनुं खरूप लखियें बियें. १ मननो व्यापार ते मनोयोग. २ वचननो व्यापार ते वचनयोग. ३ कायानो व्यापार ते काययोग. एप्रमाणे सर्व मी आश्रवना बेतालीश नेद थया. तेनाथी जीवने शुभाशुन कर्मनी श्रमदानी थायडे. इति. हवे संवरतत्वनुं स्वरूप लखियें बियें. पूर्वोक्त श्राश्रवथी जीवने श्रावतां कर्म ने रोकनार अर्थात् श्राश्रवनुं रूंधन करनार ते संवर बे. ते संवरना सत्तावन द बे. पांच समिति, त्रण गुप्ति, दश यतिधर्म, बार जावना, बावीश परिसह, पांच चारित्र, सर्व मली सत्तावन थया. तेमांथी पांच समिति, त्रण गुप्ति, दशविध यतिधर्म, अने बार जावनानुं स्वरूप तो गुरूतत्व वर्णनमां लखि श्राव्या बिये. तेथी त्यांथी जाणवुं. हवे बावीश परीसहनुं स्वरूप लखिये बियें ? कुधा परिसह. कुधा एटले भूख नूखनी वेदना सर्ववेदनाथी अधिक बे. ज्यारे भूख लागे, त्यारे पोतानी प्रतिज्ञाथी जंग थाय नहि. तेमज श्रार्त्तध्यान पण करे नहि. सम्यक् परिणामें कुधा सहन करे, २ तेमज पिपासा जे तृषा तेपण सम्यक् परिणामें सहन करे. ३ शीतपरीसह. ज्यारे अत्यंत शीत पडे, त्यारे पण कल्पनिक वस्त्रोनी वांडा न करे. जेवां जीर्णप्राय वस्त्र होय तेनाथी टाढ सहन करे, अनि तापे नहीं, सम्यक् प्रकारें शीतसहन करें, ४ उष्णपरीसह - सूर्यना सख्त तडकामां पण चालतां थकां उपानह प्रमुखनी वांडा करे नहि, तेमज सख्त गरमी, उकलाट बतां पवनपंखानी इछा करे नहीं, परंतु सम्यक् प्रकारें ताप सहन करे. ५ दंश मशकपरीसह. मांस तथा Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४ ) जैनतत्त्वादर्श. द्वान् कड़े के तमेवातमां या प्रमाणे मूल खाबो. ते प्रमाणे बराबर पोताना जाणवामां धावतां बतां, पोतें कहेला असत्यवादमां कदाग्रह ग्रहण करे, जात्यादि अजिमानथी वारंवार कदेवा बतां न माने, विरुद्ध स्वकपोलकल्पित कुयुक्तियो बनावीने, पोताना कथन करेला मतने सिद्ध करे, वादमा हार पामे तोपण मत मुके नहि. एवा कदाग्रहवाला जीव, श्रतिपापी, तेमज बहुलसंसारी थाय बे एवं मिथ्यात्व प्रायः जे जैनी जैनमतने विपरीत कथन करे बे तेनामां थइ जाय बे. तेवा कदाग्रही गोष्ठामदिल प्रमुख थाय बे. जाष्यकार श्री अजयदेवसूरि नवांगीवृत्तिकारक, नवतत्वप्रकरणना जाध्यमां कहेबे के “गोठा माहिलमाइणं, जं निनिविसितु तयं" श्रादिशब्दथी. बोटिक शिवभूतिने पण या जिनिवेशिक मिथ्यात्ववाला जाणवा. ४ संशय मिथ्यात्व. ते जिनोक्त तत्वमां शंका करवी, जेम के जीव - संख्य प्रदेश बे ? के नथी ? इत्यादि. एवीरीतें सर्व पदार्थमां शंका करवी, तेनाथी जे उत्पन्न याय ते सांशयिक मिथ्यात्व . " तदाह जाष्यकृत् ॥ सांशयिकं मिथ्यात्वं तदशेषया शंकासंदेहो जिनोक्ततत्वे ष्विति ॥ संशय मिथ्यात्व दोवानां कारणो श्री जिननप्रगणि क्षमाश्रमण ध्यानशतकमां लखे बे के. प्रथम तो जैनमत स्याद्वादरूप अनंतनयात्मक बे, ते कारणथी समजवोज कठिन बे, तेमज सप्तजंगीनुं सकलादेशी, विकलादेशी स्वरूप, अष्टपक्ष, सातसें नयस्वरूप, चार निक्षेप, द्रव्य, क्षेत्र, काल, नाव, तथा १ उत्सर्ग, २ अपवाद, ३ उत्सर्गापवाद, ४ अपवादोत्सर्ग, ५ उत्सर्गोत्सर्ग, ६ अपवादापवाद, तथा विधिवाद, चारित्रानुवाद, इत्यादि अनंतनय अपेक्षाए जैनमतनां शास्त्र कथन करेलां बे, ज्यां सुधी जे - पेाथी जे शास्त्रस्वरूप कथन करेलुं बे ते अपेक्षाथी ते स्वरूपने न समजे, त्यां सुधी जैनमतनी यथार्थ समज पामवी अतिकठिन बे, तेवी समजण पामवावास्ते बहुज निर्मलबुद्धि जोइये. ते प्रायःथोडा जीवोने बे, तेमज शास्त्रना अर्थ बतावनारा संपूर्ण विद्धान् गुरु जोइए, ते देखाता नथी इत्यादि निमित्तोथी संशय मिथ्यात्व थाय बे. ५ नाजोग मिथ्यात्व. जे जीवोने उपयोग नथी के धर्म, अधर्म शुं वस्तु बे ? एवा जे विकलें प्रियादि जीव, तेजुने अनाजोग मिथ्यात्व होय ते. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिजेद. (४५) ए प्रमाणे मिथ्यात्वना पांच नेद , तेजेना पण बीजा अनेक नेद थाय , परंतु ते सर्वे था पांचनी अंतर्जूत समजवा. ते या प्रकारे . १ प्ररूपणा मिथ्यात्व. जिनवाणीरूप जे सूत्र, नियुक्ति, नाष्य, चूर्णी, टीका, तेनाथी विपरीत प्ररूपणा करवी ते. प्रवर्त्तनामिथ्यात्व. जे काम मिथ्यादृष्टि जीवो धर्म जाणीने करे बे, तेउनी देखादेखीए, तेजेना करवा मुजब करे ते.. ३ परिणाम मिथ्यात्व, मनना परिणाम विपरीत रहे, मनमां कदाग्रह होय ते टले नहि, तेमज शुद्ध शास्त्रार्थ माने नहि ते. ४ प्रदेश मिथ्यात्व. मिथ्यात्वना प्रदेश जे सत्तामा डे, तेनुं नाम प्रदेशमिथ्यात्व, श्रा चार नेदोना पण अनेक नेद , तेमांधी केटला एक लखिये बियें १ धर्म जे वीतराग, सर्वझें प्ररूपेलो , तेने अधर्म माने. ५ जे हिंसा प्रवृत्ति प्रमुख श्राश्रवमय अशुद्ध अधर्म , तेने धर्ममाने, ३ जे सत्यमार्ग तेने मिथ्यात्व (असत्य ) मार्ग माने, जे विषयियोनो मार्ग के तेने सत्यमार्ग माने. ५ जे साधु सत्तावीश गुणें विराजमान ने तेने असाधु कहे, ६ जे आरंन परिग्रह, कषायमां रक्त, तेमज जेना उपदेशश्री लोकोने सांसारिक विषयोमा मस्तपणुं, कुवासना, कुबुद्धि इत्यादि उत्पन्न थाय, एवा परनी नावसमान अन्यलिंगी कुलिंगी, तेमने साधु, कहे. ७ बकायना जीवोमां अजीवपणुं माने, सुवर्ण, काष्ठ प्रमुख अजीवने जीव माने. ए मूर्तपदार्थोंने अमूर्त माने. १० अमूर्त पदार्थोंने मूर्त माने, आ दशनेदमिथ्यात्वना . वली छ नेद मिथ्यात्वना ते कहिये डिये. १ लौकिकदेव, २ लौकिक गुरु, ३ लौकिक पर्व, ४ लोकोत्तर देव, ५ लोकोत्तर गुरु, ६ लोकोत्तर पर्व, १ लौकिक देवगत मिथ्यात्व. जे देव रागवेषयी नरेला , एक उपर कृपावान् थाय बे, बीजानो विनाश करे , स्त्रीना नोगविलासमां मन डे, जेणे अनेक प्रकारनां शस्त्र धारण करेला बे, पोतानी ऐश्वर्यताना जे अजिमानी बे, जेना हाथमा जपमाला बे, सावद्यजोग जोगवे , पंचेंजियवध चाहाय बे, एवा देवने परमेश्वर मानवा, परमेश्वरना अंश अवतार मानवा, तेउनुं पूजन करवू. इत्यादि. ते लौकिक देवगत मि Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) जैनतत्त्वादर्श. थ्यात्व बे. तेना अनेक भेद बे, तेनुं स्वरूप मिश्रात्वसित्तेरी प्रमुख ग्रंथश्री जाणवुं. २ लौकिक गुरुगत मिथ्यात्व. जे अढार पापस्थाकोनुं सेवन करे, नव प्रकारना परिग्रह राखे, गृहस्थाश्रम पाले, स्त्री, पुत्रपरिवारवाला होय, कुलिंगी होय, मनःकल्पित नवा नवा वेष बनावी स्वकपोलकल्पित मत चलावे, मंबर राखे, बाह्य परिग्रह तो कदाचं त्यागेल होय, तो पण अभ्यंतर ग्रंथिमां मग्न होय, तजे नहि, गुरुनाम धरावी मंडल परिवारें विचरे, जेनी नादिनी मूल मटेली न होय, जेने शुद्धसाध्यनी पिठान न होय तेवाने गुरु माने, तेनुं बहु मान करे, तेजने मोक्षप्रदाता जाणी दान दें, तेजने परम पात्र जाणे, एवाज जीवना परिणाम ते लौकिक गुरुगत मिथ्यात्व a. ३ लौकिक पर्वगत मिथ्यात्व. १ खाजापडवो, १ प्रेतबीज, ३ गुरुत्रीज, ४ गणेशचोथ, ५ नागपांचम, ६ कोलांबट, शीली सातम, ८ बुध अष्टमी, ए नोली नवमी, १० विजयदशमी, ११ व्रत एकादशी, १२ वत्स बारश, १३ धनतेरश, १४ अनंतचौदश, १५ श्रमावास्या, १६ सोमवती अमावास्या, १७ रक्षाबंध, नालीएरी पुनम, १० होली, १० आदित्यवारादि, २० सोमप्रदोष, २१ उत्तरायण, २२ अन्य संक्राति, १३ ग्रहण, २४ नवरात्रि, १५ श्राद्ध, २६ पीपलेपाणी सेचन, २७ अश्व, गर्दजपूजनं, २८ गोत्राटी, १० अन्नकूट, ३० दसुरा, ३१ स्मशानपूजन, ३२ कबरमेला, इत्यादि ने लौकिक पर्वगत मिथ्यात्व बे. ४ लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व ते देव श्री अरिहंत, धर्मना श्राकर, विश्वोपकार सागर, मोक्षमार्गदातार, परमपूज्य, सकलदोषरहित, एवा शुद्ध, निरंजन देवनी स्थापना रूप जे प्रतिमा, तेनी पासे, या लोकना नेकप्रकारना पौलिक सुखजोग मेलववानी वांडा करे, जेम के जगवन् ! जो मारुं काम थशे तो, तमारी मोटी पूजा, श्रांगी रचावीश, बत्र चडावीश, दीपमाल, रोशनी करावीश, इत्यादि, तेमज परवमां मने यापनी चक्ति पूजाथी इंद्र, चक्रवर्त्तिपणुं, तथा देव, नरपतिनी पदवी प्राप्त थाय इत्यादि, तथा मारा तथा पुत्र स्त्री प्रमुखना रोग प्रमुखनो नाश थाय इत्यादि पौलिक सुखवास्ते, तेमज दुःखना Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिबेद. (१४७ . निवारणवास्ते नावपूर्वक वीतराग देवने मानवा, ते लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व . दृष्टांत. जे पुरुष चिंतामणी रत्ननो दातार होय, तेनी पासे काचना कटकानी मांगणी करवी ते जेम हास्यास्पद तेमज अज्ञानता बे, ते समान आ श्छा बे, तेथी अयोग्य , जेने कर्मप्रकृति स्वरूपनुं ज्ञान तेमज अनुजव न होय तेज एवी मागणी करे . ____५ लोकोत्तर गुरुगत मिथ्यात्व पोते निर्गुणी बतां साधुनो वेष राखे, जीववाणीने उनापी, पोताने मनःकल्पित उपदेश आपे सूत्रना साचा अर्थने त्रोडे, एवा उत्सूत्रना प्ररूपक ते ने गुरु जाणी, तेउनुं बहुमान जक्ति पूजा करवी ते तथा जे साधु गुणवान् होय, तपस्वी होय, चारित्रपात्र होय, श्राचारवंत, तेमज यथोक्तक्रियावंत होय, तेमनी श्रा लोकना सुखवास्ते, तेमज परलोकना पौजनिक सुखवास्ते, सेवा करे बहु मान करे, मनमां एम पण जाणे के जो तेमनी बहु सारी रीतें सेवा करीश तो तेमनी मेहेरबानीश्री, धन झछि स्त्रीपुत्रादि परिवार मने प्राप्त थशे, एवा परिणाम ते लोकोत्तर गुरुगत मिथ्यात्व, ६ लोकोत्तर पर्वगत मिथ्यात्व. जिनेश्वर नगवानना पांच कल्याणकनी तिथियोने दिने, तथा बीजा पर्वने दिने, धन, स्त्री, पुत्रादिवास्ते तप, जपादि धर्मकरणी करवी ते लोकोत्तर पर्वगत मिथ्यात्व . इत्यादि मिथ्यात्वना अनेक नेद , परंतु ते सर्वे पूर्वोक्त अनिग्रहादि मिथ्यात्वमां अंतर्भूत . हवे बार प्रकारनी अविरतिनुं खरूप कहियें बियें. पांच इंजिय, अने ब्तुं मन, तेमज ब काय, मली बार प्रकार , तेमनुं स्वरूप एवं डे के, पांचे इंजियोने पोत पोताना विषयोमा प्रवविवी, ते पांच तथा कोश पण पापमय वस्तुथी मननो निरोध न करवो ते, तथा ब जीवनिकायनी हिंसामा प्रवृत्ति करवी, ते सर्व मली बार अविरति . हवे कषाय बंधना पचीश नेदतुं स्वरूप कहिये बियें. अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोज, तथा अप्रत्याख्यानी क्रोध, मान,माया, लोज, तथा प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोज, तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोन, मली सोल, तथा.नव नोकषाय, १ हास्य, २ रति, ३ श्ररति, ४ जय, ५ शोक, ६ जुगुप्सा, ७ स्त्रीवेद, पुरुषवेद, ए नपुंसकवेद Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) जैनतत्त्वादर्श. मली पचीश कषाय, संसार स्थितिनां मूल कारणो बे, तेमनुं विस्तारथी कथन आगल करेढुंबे. हवे योगनामें बंध हेतुनुं स्वरूप लखियें लियें. ते मन, वचन, काय, एम योगना त्रण प्रकार . या त्रणना उत्तर नेद पंदर . मनोयोगना चार नेद, वचनयोगना चार नेद तथा काययोगना सात नेद सर्व मली पंदर नेद . मननाम अंतःकरणतुं , तेना चार प्रकार . १ सत्य मनोयोग, २ असत्य मनोयोग, ३ मिश्र मनोयोग, ४ व्यवहार मनोयोग, मन शुं वस्तु बे? कायाना व्यापारथी पुजल ग्रहण करीने, ते पुजलोने चिंतन धर्मरूपें काढवां ते अव्यमन में अने ते पुजलोना संयोगथी जे ज्ञान उत्पन्न थाय तेनुं नाम जावमन बे. ते ज्ञानश्री व्यवहार सिक थाय बे, श्रने ते व्यवहारथी मन पण सत्यादि व्यपदेशने प्राप्त थाय . वली उपचारे अव्यमन पण शायक . वली मन शब्दथी मनोयोग, तेनो इंजियावरण कर्मना क्षयोपशमथी उत्पन्न थयुं जे मनोज्ञान, तेनाथी परिणत आत्मा ने बलाधान करवावाली मनोवर्गणाना संबंधश्री उत्पन्न थयु जे वीर्य वि. शेष, ते अहीया मन जाणवू. तेवीज रीते वचनयोग, ते वचननी वर्गणा अर्थात् परमाणुऊनो समूह, ते वचन वर्गणाथी उत्पन्न थयुं जे सामर्थ्यविशेष, आत्मानी परिणति, ते वचनयोग जाणवां. ते मनोयोग तथा वचनयोगना मली बार प्रकार ले. प्रथम मनमा जे सत्य व्यवहारतुं चितवन करवं, ते सत्यमन, जेमके जीवादि पदार्थ अव्यरूपें नित्य, पर्यायरूपें अनित्य, एम अनेकांतपणे चिंतववं, ते सत्यमनोयोग. तेनाथी विपरीतपणे जीवादि पदार्थोनुं स्वरूप वचन निरपेक्षपणे चिंतव, तेमज धर्म नथी, पुण्यपाप नथी स्वर्ग नरक नथी इत्यादि चिंतवन करवं ते असत्य मनोयोग. तेवीजरीतें सत्यचिंतवन वचनरूपें बोलवू ते सत्यवचनयोग, अने असत्यचिंतवन वचनरूपें बोलवु ते असत्यवचनयोग. तथा कांक असत्य, जेम के श्रा गाममां आजे दश जन्म्या, तथा दश मुश्रा, तेमां कांश्क साचुं अने कांक जुटुं चिंतवन करवू तथा गोवर्गने देखीने चिंतवई के था सर्व गायो बे, पळी तेमां बलद पण होय ते मिश्रमनोयोग, अने ते प्रमाणे Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिछेद. (श्मए) बोलq ते मिश्र वचन योग. तथा आमंत्रणा, याचना, जेम के हरिचंड अहियां आवे, दामोदर आ वस्तु आपे, इत्यादि जे चिंतववं, तेथी जिनवचन विरोधाय नहि, तेथीअसत्यपण नहि, अने आराधक पण नहि, तेथी सत्यपण नहि. जेथी ए प्रमाणे चितवन करवू ते व्यवहार मनोयोग श्रर्थात् असत्य मृषा मनोयोग, अने तेज प्रमाणे बोलवू. ते व्यवहार वचनयोग. ए प्रमाणे मनोयोग तथा वचनयोगना श्राव जेद थया. हवे सत्यवचनना दशप्रकार के तेनुं खरूप कहिए लिए. १ जनपद सत्य, जे देशमा जे वस्तुने जे नामथी बोलता होय, ते देशमां ते नाम सत्य बे, जेम के कोकणदेशमां पाणीने पिछ कहे, को देशमां मोटा पुरुषने बेटो कहे , वली बेटाने काको कहे बे, पिताने ना कहेजे, सासुने आइ कहे, इत्यादि. ते जनपद सत्य . ५ सम्मत सत्य, जेम के पंकथी (कादवथी) मेमक, शेवाल, कमलादि उत्पन्न बाय बे, तोपण पंकज शब्दें कमलज विछान् पुरुषोए सम्मत करेल बे, परंतु मेडक, शेवाल ते मानता नथी. ३ स्थापना सत्य, जे प्रतिमा जेनी होय, तेने तेना नामथी बोलवी ते स्थापना सत्य, जेम के महावीर, पार्श्वनाथजी श्रादि अर्हतनी प्रतिमा होय, ते प्रतिमाने, महावीर, पार्श्वनाथजी कहे तो ते सत्य , परंतु तेने पार कहेनार मृषावादी बे; जेम के शाहीथी कागल उपर अदरोनी स्थापना करवायी. तेउने रुग, यजु, साम, अ थर्व वेद कहेवाय , तेमज आचारांगादि अंग कहेवाय , तथा का: ष्ठना आकार विशेषने कमाड कदेवाय बे, इंट, चुना, पबरना आकार वि शेषने स्थंज कहेवाय बे; पुस्तकमां त्रिकोणादि चित्र काढ्यां होय, तेने । थार्यावर्त, जरतखंड, हिंदुस्थान, अमेरिका इत्यादि कहेवाय , तथा , श्याहीथी कागलपर आकृति करवाथी ककार, खकार कहेवाय . ए प्र माणे बोल ते सत्य . ए प्रमाणेनी स्थापनाई जोवाथी मनुष्यनी का र्य सिद्धि अवश्य थाय , ते सर्वने अनुनव थयेल . ए प्रमाणे सिद्धि । यती न होय तो मनुष्यो स्थापना शावास्ते करे? ते कारणथी महावीर तथा पार्श्वनाथजीनी प्रतिमाने श्रीमहावीर तथा श्रीपार्श्वनाथजी कहेवा ते स्थापना सत्य बे, तेमां विशेष ए के, जे देव शुद्ध , तेनी स्थापना पण शुकडे, अने जे देव शुद्ध नथी, तेनी स्थापना पण शुद्ध नथी; Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (quo) जैन तत्त्वादर्श. परंतु ते स्थापनाने, ते देव कहेवा ते वात सत्य बे. ४ नाम सत्य, कोइ पुरुष पोताना पुत्रनुं नाम कुंलवर्द्धन राखेलुं बे, अने जे दिवसथी ते पुनो जन्म थल बे, ते दिवसथी तेना कुलनो नाश यतो जाय बे, तो पण ते पुत्रने कुलवन नामथी बोलावे तो ते सत्य बे. ५ रूप सत्य. कदापि गुणोथी ष्ट होय तो पण साधुना वेषवालाने साधु कड़े तो ते सत्य बे. ६ प्रतीत अर्थात् अपेक्षा सत्य. जेम के मध्यमानी अपेक्षाए अनामिका आंगलीने नानी कहेवी ते 9 व्यवहार सत्य. जेम के पर्वत बले बे, रस्तो चाले बे, इत्यादि. ८ जावसत्य. जेम के तोतामां पांच रंग बे, तोपण तोताने लीला रंगवालो कहेवो इत्यादि. ए योगसत्य. जेम के दंडना योगथी दंडी कहेवो, इत्यादि. १० उपमा सत्य. जेम के मुख, चंद्र समान बे, इत्यादि. दशप्रकारनां सत्य बे. हवे दशप्रकरनां जूठ कहियें बियें. १ क्रोधमिश्रित अर्थात् क्रोधने वश थर वचन बोलवां ते असत्य, २ मानना उदयथी बोलवां, ३ मायाना उदयथी बोलवां, ४ लोजना उदयथी बोलवां, ५ रागना बंधनयी बोलवां, ६ द्वेषना उदयथी बोलवां, उ हास्यने वश यर बोलवां छनयने वश थ बोलवा, ए विकया करवी, १० जे बोलवाथी जीवनी हिंसा थाय. या दश प्रकारनां सत्य वचन बे. हवे दश प्रकारां मिश्रवचन कहियेंबियें १ उत्पन्न मिश्रित जेम के खबर बिना कहे के श्राजे या गाममां दशबालक जन्म्या बे, इत्यादि . २ विगतमिश्रित, जेम के खबर विना कहेतुं के आने या गाममां दशमाणस मुयां बे, इत्यादि. ३ उत्पन्न विगत मिश्रित जेम के खबर विना कहे के जे या गाममां दश जन्म्या बे, अने दशज मुखा बे, ४ जीवमिश्रित. ते जीव जीवना राशिने कहेतुं के था जीव बे. ५ अजीव मिश्रित ते अन्नना राशिने कहेतुं के या अजीव बे. ६ जीवाजीवमिश्रित ते जीव जीव बने माटे मिश्रभाषा बोलवी ते. नंतमिश्रित ते मूल यदि अवयवोमां केटलीएक जगाए अनंत जीव बे, कोश्जगाए प्रत्येक जीव बे, तेउने प्रत्येक वनस्पतिकाय कहेतुं ते, प्रत्येक मिश्रित ते प्रत्येकजीवोने अनंतकाय कदेवां ते. ए श्रद्धामिश्रित. ते बे घडी तडको थया बतां कहे के दिवस उग्यो बे. १० अद्धा Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिजेद. (२५१) मिश्रित. एक घडीरात्रि गश् होय तथापि कदेके दिवसनो उदय बे. आ दश प्रकारनां मिश्रवचनो . हवे व्यवहार वचनना बार द कहियें लियें. १ आमंत्रण कर के हे जगवन् ! २ श्राज्ञापना, ते था काम करो, आ वस्तु लावो, ३ याचना-आ वस्तु.श्रापशो, ४ पृबना-श्रा गाम जवानो रस्तो कयो ? ५ प्रज्ञापना-धर्मखरूप या प्रमाणे . ६ प्रत्याख्यानी-श्रा काम अमने कर कल्पे नहि. ७ श्वानुलोम-यथा सुखं, अननिगृहीत-ते वातनी मने खबर नहि. ए अनिग्रहीत-मने ते वातनी खबर . १० संशय-तेनुं खरूप एम केम होय ? ११ स्पष्ट प्रगट अर्थ कहेवा. १५ अस्पष्ट अप्रगट अर्थ कहेवा. हवे काययोगना सातनेदतुं खरूप कहियेबियें-काययोग अर्थात् श्रा. माना निवासजूत पुजल अव्य घटित, जेम वृक्ष तथा पुर्बलने अवष्टंन जूत लाकडी बे, तेम विषम काममा जेना योगथी जीवना वीर्यतुं परिणाम सामर्थ्य; जेम अग्निना संयोगथी घडानी रक्तता थाय , तेवीजरीतें आत्माने कायाना करण संबंधथी वीर्यपरिणाम . श्रा काययोगना सात नेद. १ औदारिक काययोग, ५ औदारिक मिश्र काययोग, ३ वैक्रिय काययोग, ४ वैक्रिय मिश्र काययोग, ५ आहारक काययोग, ६ श्राहारक मिश्र काययोग, ७ कार्मण काययोग. प्रथमना बे काययोग, मनुष्य अने तिर्यंचमां होय . त्रीजो चोथो काययोग खर्गवासी देवताउँमा होय . पांचमो, हो काययोग चौदपूर्वधर साधुऊमां होय . सातमो काययोग, जीव ज्यारे काल करी परनव गमन करे , त्यारे रस्तामां तेनी साथे होय जे; तेमज समुद्घात अवस्थामां केवलीने होय बे; थाहार पाचन करवामां समर्थ एवं तैजस शरीर, कार्मण योगनी अंतर्जूत होवाथी तेनुं पृथक् ग्रहण करवामां आव्यु नथी. ए प्रमाणे सात नेद काययोगना बताव्या. सर्व मली बंधतत्वना उत्तरनेद सत्तावन थया. ___ हवे मोद तत्वनुं खरूप कहिये बियें.प्रथम मोदनी व्याख्या कहिये बियें. “जीवस्य कृत्स्नकर्मक्षयेण यत्स्वरूपावस्थानं तन्मोद उच्यते"॥ जावार्थः-जीवनां ज्ञानावरणादि सर्वकर्मनो क्षय थवाथी तेनुं जे खरूप अवस्थान ते मोद बे. ते मोक्ष, जीवनो धर्म जे. अने धर्म, धर्मी क Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) जैनतत्त्वादर्श. थंचित् अनेद होवाश्री, धर्मी जे सिझ, तेनी जे प्ररूपणा ते पण मोक्षप्ररूपणा ; कारण के मोक्ष जे जे ते जीवपर्याय बे, ते जीवपर्याय कथंचित् सिक जीवथी अजिन्न बे; जीवना पर्याय सर्वथा जीवथी जिन्न थर शकता नथी. यउक्तं ॥ अव्यं पर्याय वियुतं, पर्यायाजव्यवर्जिताः ॥ क कदा केन किंरूपा, दृष्टा मानेन केन वेति ॥१॥ नावार्थ-अव्य पर्यायोथी र. हित, अने पर्यायो अव्यथी रहित एम को जगाए, कोश् अवसरें, कोश प्रमाणे, कोरूपें कोश्पुरुषं देखेल ? हवे सिकोर्नु खरूप नवप्रकारें, सूत्रकार तेमज नाष्यकार कहे . ? सत्पदप्ररूपणा, अव्यप्रमाण, ३ क्षेत्र, ४ स्पर्शना, ५ काल, ६ अंतर, ७ नाग, नाव, ए अल्पबहुत्व आ नव हार बे. १ सत्पदप्ररूपणा हार. मोक्षपद सत्पदने, विद्यमान पद , तुं पद बे, शा कारणथी? एक पद डे तेथी, कारण के जगत्मां जेटला एकपदवाची घटपटादि पदार्थ बे, ते सर्व अवश्य बताडे, अने जे जे बेबे पदवांची पदार्थ बे, ते ते पदार्थ बता पण , अने अबता पण जे. जेम अश्वशृंग, वंध्यापुत्र, आकाशकु. सुम. श्राबे पदनां नाम ले ते अबतां , तेमज गोशृंग, राजपुत्र, केतकी कुसुम, था बे पदनां नाम उतां . ते न्यायें मोक्षपद एकपदवाची होवाश्री विद्यमान पद बे. ते मोक्षपद याने सिझपद गति आदि चौद पदोमा जोडवां. जेम के १ गति पांच डे, १ नरकगति, २ तिर्यग्गति, ३ मनुष्यगति, ४ देवगति, ५ सिद्धगति, तेमां सिद्धगति शिवाय बाकीनी चारगतिमां सिद्ध नथी. यद्यपि १ कर्म सिझ, २ शिल्पसिझ, ३ विद्यासिझ, ४ मंत्रसिझ, ५ योगसिद्ध, ६ आगमसिझ, ७ अर्थसिक, ७ यात्रासिफ, ए अभिप्रायसिक, १० तपःसिक, ११ कर्मदयसिझ. एम अनेक प्रकारना सिझ, आवश्यक नियुक्तिकारें कथन करेल , तो पण श्रहींयांतो जे कर्मदयश्री सिद्ध थया ने तेनोज अधिकार . तेउनेज मो६ पर्याय बे, बीजाउँने नहि.२ इंजियो पांच बे, एकेजिय, नीजिय, त्रींजिय, चतुरिंजिय, पंचेंजिय, आ पांचे प्रकारमा सिझ नथी; कारण के शरीरनो सर्वथा नाश थाय जे त्यारे सिक थवाय बे, ज्यां शरीर बे, त्यां इंजियो ने, सिझने शरीर नथी तेथी ते अतींजिय .३ बकाय. १ पृथ्वीकाय, २ अपकाय, ३ तेउकाय, ४ वाजकाय, ५ वनस्पतिकाय, ६ त्रस Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिवेद, (५३) काय, था उए कायमां सिद्धपणुं नथी, कारण के सिझ कायरहित के अर्थात् अशरीरी . ४ योग. त्रणप्रकारें योग बे, मन, वचन, काययोग; तेमां केवल काययोग एकेत्रिय जीवने बे, अने हींजिया दिथी असंही पंचेजिय पर्यंत जीवने, काययोग तथा वचनयोग डे, अने संझी पंचेंजिय पर्याप्त जीवने त्रणे योग , आ त्रणे योगमां सिद्धपणुं नथी, अने सिछ तो मन वचन, काययोगनो अन्जाव थाय जे त्यारे थवाय जे तेश्री सिक अयोगी . ५ वेद, त्रणप्रकारें बे, स्त्री, पुरुष, नपुंसक, आत्रणे वेदमां सिद्धपणांनो अनाव , त्रणे वेदनो दय करवामां आवे त्यारे सिअपणुं प्राप्त थाय , तेथी सिझ अवेदी . ६ कषाय. चार प्रकारे जे. क्रोध, मान, माया, लोन, आ चारेनो अजाव थाय त्यारे सिद्धपणुं प्राप्त थाय जे तेथी सिझ अकषायी जे. ७ ज्ञान. ते मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवविज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, आ पांच प्रकारे ज्ञान , अने मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विजंगज्ञान, या त्रण अज्ञान , तेमां प्रथमना चार ज्ञानमां अने त्रण अज्ञानमां सिकपणुं नथी, एक केवल ज्ञानमा सिकपणुं , ते केवलज्ञान अहियां सिझपणानुं जाणवू, परंतु सयोगी अवस्थानुं नहि. ७ चारित्र. सामायिक, बेदोपस्थापनीय, परिहार विशुकि, सूक्ष्म संपराय, यथाख्यात, आ पांच चारित्र, तेमज तेना प्रतिपक्षी देशसंयम तथा असंयम; ते पांचे चारित्रमा तेमज बंने विपक्षमा सिअपणुं नथी, कारण के ते सर्वे शरीर विद्यमान होय , त्यारे होय बे, अने सिद्ध तो शरीररहित . ए दर्शन, चक्षु, अचक्षु, अवधि अने केवल, आ चार दर्शनोमां प्रथमना त्रणमां सिकपणुं नथी, परंतु केवल दर्शनमां केवलज्ञाननी पेठे सिद्धपणुं . १० लेश्या. कृष्ण, नील कापोत, तेजु, पद्म, शुक्ल, आ गए वेश्यामां सिद्धपणुं नथी, कारण के वेश्या जवस्थजीवनो पर्याय , अने सिझ अलेशी बे. ११ नव्य, अजव्य, श्रा बंने अवस्थामां सिकपणुं नथी, कारण के जेने सिकपदनी प्राप्ति थशे ते जव्यजीव कदेवाय डे, अने सिकोने नवी पदवी तो कांश प्राप्त करवानी नथी, तेथी जव्यपणुं सिझमां नथी. वली जेने सिझ थवानी योग्यता कोपणकालमां न होय ते अजव्य कहेवाय बे, सिद्धना जीव एवा नथी, कारण के अतीतकालमा तेमां एवी योग्यता हती, तेथी सिक अनव्य Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ परिजेद. (२६१) जे कोटवालादि, तेजेनाथी विडंबना पामतां, पोतानां व्यसनजनित कमोंने विरूप जाणी, पोताना कुलनी सुंदरसुख संपत्तिनी अभिलाषा पण करे , तो पण कोटवालोथी बुटीने पूर्वोक्तसुखनो श्वासोवासपण जेम लश् शकतो नथी, तेम आ जीव पण अविरतिपणाने बुरा कर्मनुं फल जाणे बे, अने विरतिना सुंदरसुखनी अभिलाषा पण करे बे, परंतु कोटवाल समान बीजा कषायना बंधनश्री बुटवानेज हिंमत पण करी शकतो नश्री, अने अविरति सम्यक्दृष्टि गुणस्थानकनो अनुभव करे बे. हवे चोथा गुणस्थानकनी स्थिति कहिये बियें. आ गुणस्थानकनी उस्कृष्टी स्थिति तेत्रीश सागरोपमथी कांक अधिक . ते सर्वार्थ सिशादि विमानवासिउनी स्थिति तथा मनुष्यायु अधिकनी, अपेक्षाए बे. वली आ सम्यक्त्व जीवने अर्धपुजल परावर्तन संसार बाकी रहे बे, त्यारे प्राप्त थाय , ते पहेलां थतुं नथी. हवे सम्यक् दृष्टिनां लक्षण कहियेबियें. १ युःखी जीवोनां कुःख दूर करवानी जे चिंता, तेनुं नाम अनुकंपा जे. ५ को कारणथी क्रोध उत्पन्न पण थर जाय, तो पण तीव्र अनुशय अर्थात् वैरनावनो अनाव जेनाथी रहे जे तेनु नाम प्रशम . ३ शिवमंदिर चडवावास्ते सोपान समान, सम्यग् ज्ञानादि साधनोमां उत्साह लक्षण अर्थात् मोदानिलाष तेनुं नाम संवेग बे. ४ अत्यंत कुत्सिततर अर्थात् अत्यंत कनिष्ठ एवा संसार रूप बंदीखानामांथी निकलवा वास्ते परम वैराग्यरूप दरवाननी सेवना करवी तेनुं नाम निर्वेद . ५ श्री सर्वज्ञप्रणीत समस्तजावोनुं यथार्थ चितवन तेनुं नाम आस्तिक्यता बे. था पांच लक्षण जे जीवमां होय ते नव्यजीव सम्यक् दर्शनथी अलंकृत होय . हवे सम्यकदृष्टि गुणस्थानवर्ति जीवोनुं गतिखरूप कहियेबिये. तेमां प्रथम, जीवना परिणाम विशेषरूप जे करण, तेना त्रण प्रकार बे. १ यथाप्रवृत्तिकरण, ५ अपूर्वकरण, ३ अनिवृत्तिकरण, पर्वतमांथी निकलती नदीना जलथी आलोड्यमान पबरनी जेम घोलना घंचना न्यायें, जीव आयुकर्म शिवाय बाकीनां साते कर्मनी स्थिति किंचित् उणी एक कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण जे अध्यवसाय विशेषथी करी, ग्रंथिदेश सुधी आवे , ते यथाप्रवृत्तिकरण कहेवाय , तथा २ जे पूर्व अप्राप्त एवा अ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६२) जैनतत्त्वादर्श. व्यवसाय विशेषथी जे ग्रंथिने, घननिविड रागद्वेष परिणति रूप कहे बे ते ग्रंथिने नेदवानो जे आरंभ, ते अपूर्वकरण कदेवाय ते. तथा ३ जे अध्यवसाय विशेषथी ग्रंथिभेद करीने छानिवृत्त थकां परमयानंद ज नक सम्यक्त्व प्राप्त करे बे तेनुं नाम यनिवृत्तिकरण बे. या त्रणे करनुं स्वरूप श्री जिननङ्ग शिक्षमाश्रमणाचार्य यावश्यकना शुद्धांनोनिधि गंधहस्ती महाजाध्यमां त्रण पंथीजनना दृष्टांतथी या प्रमाणे व्याख्यान करे बे. त्रण पंथीजनो एक नगर जवा सारु निकलतां जंगलना उऊड रस्तापर चाल्या जता हता. चालतां चालतां विकाल वेला थइ ग अर्थात् सूर्यास्त थयो. पंथीजनो मनमां बहुज करवा लाग्या. तेट मां तत्काल बे चोर तेउनी नजीक घ्यावी पहोंच्या. चोरोने देखी त्रण मांनो एक पंथी जन मरीजवाथी दोडी पाटो जागी गयो. एकने बने चोरो पकडी लीधो, नेत्री जो पंथीजन बने चोरो साथे लडतां ल तां तेने मारी कुटीने मुद्दाम नगरें पहोंची गयो. या दृष्टांतने दृष्टांत ( सिद्धांत ) रूप था प्रमाणे घटावकुं. उजड जंगल ते मनुष्यजव बे, कमनी स्थिति ते लांब रस्तो बे, जयनुं स्थानक ते गांव बे, रागद्वेष ते बने चोर बे, नगर ते मोक्षस्थान बे. जे पुरुष चोरथी डरी पाडो जागी गयो, तेनी संसारभां परिभ्रमण करवानी स्थिति अधिक बे, जे पुरुषने चोरोए पकडी लीधो, तेमज चोरथी बुंटायो ते पण दुःखी तेमज परिमण करनार बे, छाने जे पुरुष चोरोने मारी कुटी नगर पहोंची गयो ते सम्यकदृष्टि मोहनगर पहोंचनार तथा सुख प्राप्त करनार बे. वे कीडीना दृष्टांतथी त्रण करणनुं खरूप कहिये बियें. जेम कीडी - नो समूह बिलमांथी निकली एक खुंटानी आसपास फर्या करे बे, तेमांधी केलीएक की डिने खुंटा उपर चडे बे, छाने केटलीएक खुंटा उपर पहोंचतां पांख याववाथी उडी चाली जाय बे, तेवी रीतें था त्रण करणी बाबतमां पण जाणी लेवुं. ज्यारे जीवो यथाप्रवृत्ति करण करीने ग्रंथि देशने प्राप्त थाय बे, अने त्र्यपूर्वकरण करी ग्रंथिनो नेद करे बे, त्यारे ग्रंथभेदकर्या पी कोइक जीव मिथ्यात्व पुलनी राशिने वेहेंची ने १ मिथ्यात्वमोह, २ मिश्रमोह, ३ सम्यक्त्वमोह, रूप त्रण पुंज करे बे; ज्यारे निवृत्तिकरण करी विशुद्धमान थतां, उदय श्रावेला मि Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ परिच्छेद. ( १६३) थ्यात्वनो य करे, अने नहि उदय श्रावेला मिथ्यात्वने उपशमावे, त्यारे क्षयोपशमिक सम्यक्त्वनी तेउने प्राप्ति थाय बे. ज्यारे जीवोने क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न याय बे, त्यारे मनुष्यगति अने देवगतिनी प्राप्ति थाय बे तथा पूर्वकरण करीने, जे ए त्रण पुंज कर्या बे, एवा जीवो चोथा गुणस्थानकथीज रूपकपणानो जो आरंभ करेबे, तो अनंतानुबंधी चार कषाय तथा मिथ्यात्व मोह, अने सम्यक्त्व मोह, रूप त्रण पुंज ए सातेनो दय करतां तेने कायिक सम्यक्त्व प्राप्त थाय a. हवे ते क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव जो ते वखते अबद्धायु होय तो तेज जवमां मोक्ष प्राप्त करे बे, अने जो प्रायुनो बंध कर्या पढी कायिक सम्यक्त्ववान् थया होय तो त्रीजा जवमां मोक्ष पाने बे, छाने जो श्रसंख्यात वर्ष जीवनारा मनुष्य, वा तिर्यंचनुं श्रायु बांध्या पढी कायिक सम्यक्त्व प्राप्त थयुं होय तो चोथे नवे मोक्ष प्राप्त करे बे. हवे विरति गुणस्थानवर्त्ती जीवनां कृत्य लखियें बियें. व्रतनियम तो तेने कांपण होतुं नथी, परंतु देवश्रीवीतराग, जगवान्, परस्मानी तथा पूर्वोक्त लक्ष्णवाला गुरुमहाराजनी तथा चतुर्विध श्रीसंघनी पूजा, जक्ति, नमस्कार, वात्सल्यादि कत्यो करे बे, तथा प्राजाविक श्रावक होवाथी शासननी उन्नति तथा शासननी प्रजावना करे बे. चतुर्थ गुणस्थानकवालो जीव, १ तीर्थंकर नामकर्म, २ मनुष्यायु, ३ देवायु, या त्रण, प्रकृति त्रीजा गुणस्थानवालाथी अधिक बांधे बे, तेथी सत्तोतेर प्रकृतिनो बंध करे बे, तथा मिश्र मोहनो व्यवच्छेद थवाथी, ने चार खानुपूर्वी, तथा सम्यक्त्व मोहनो उदय थवाथी, एकसो चार कर्मप्रकृतिने वेदेवे. कायिक सम्यक्त्ववालाने १३० कर्मप्रकृतिनी सत्ता होय ते.ाने उपशम सम्यक्त्ववालाने चोथा गुणस्थानकथी ते ग्यारमा गुणस्थानकपर्यंत १४८ कर्मप्रकृतिनी सत्ता बे ने कायिक सम्यक्त्ववालाने जे जे गुणस्थानकमां जेटली जेटली कर्मप्रकृतिनी सत्ता बे ते यथानुक्रम लखवामां आवशे. हवे पांचमा देशविरति गुणस्थानकनुं स्वरूप लखीयें बीयें. सम्यक् तत्वाववोधथी उत्पन्न थयो जे वैराग्य, ते वैराग्यश्री जीवने सर्व विरतिपानी वांबा थायबे, परंतु सर्व विरतिघातक प्रत्याख्यान नामना कषायना उदयची तेनामां सर्वविरतिपणुं अंगीकार करवानुं सामर्थ्य होतुं Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) जैनतत्त्वादर्श, नथी, परंतु जघन्य, मध्यम उत्कृष्टरूप देश विरति ते यश् शकेले. जघन्य देशविरतिपणामां आकुट्टि स्थूल हिंसा प्रमुखनो त्याग, मद्यमांसादि परिहार, तेमज पंचपरमेष्ठि नमस्कार स्मरणादि . यदाह ॥आउटि थूल हिंसा, मधमंसा चाय ॥ जहन्नो सावर्ड होश, जो नमुक्कार धार ॥१॥ तथा मध्यम देशविरति अनुमादि न्यायसंपन्न वैजवादि धर्मयोग्यताना गुणोसहित, तथा गृहस्थ उचित षट्कर्मधर्ममां तत्पर, छादश व्रतना पालक, सदाचारवान्, एवा होय ते मध्यम श्रावक जाणवा. तथा उत्कृष्ट देश विरति सचित्ताहारना त्यागी होय, प्रतिदिन एकासणुं करे, ब्रह्मचारी होय, महानत अंगीकार करवानी श्वावाला होय, अने गृहस्थनो धंधो त्यागेलो होय ते उत्तम श्रावक जाणवा, आ त्रण प्रकारनी विरतिमांथी एकपण प्रकारनी विरति होय ते श्रावक कहेवाय . देशविरति गुणस्थानकनी उत्कृष्टी स्थिति देशजणी कोटिपूर्वनी बे. हवे देशविरतिपणामां ध्याननो संलव कहीयें लियें. आ गुणस्थानक वाला जीवोमां १ अनिष्टयोगात, ५ श्ष्टयोगात, ३ रोगचिंतात, ४ अग्रशौचात, आ चार पादरूप आर्तध्यान, तथा १ हिंसानंदरौद्ध, २ मृषानंद रौद्ध, ३ चौर्यानंदरौआ, ४ संरक्षणानंदरौद्ध, आ चार पादरूप रौनध्यान, मंद होय . जेम जेम देशविरतिपणुं विशेष यतुं जायजे. तेम तेम आर्त रौषध्यान मंद मंदतर थतुं जाय . वली जेम जेम देश विरतिपणुं अ. धिक यतुं जाय , तेम तेम धर्मध्यान अधिक अधिक थतुं जाय , परंतु मध्यमरूपेंज रहे; उत्कृष्ट धर्मध्यान देशविरतिपणामां होतुं नथी. जो उत्कृष्ट धर्मध्यान थ जाय तो, सर्व विरतिपणुं यश् जाय. प्रश्नः-पांचमा गुनस्थानमा धर्मध्यान केवी तरेहनुं होय ? उत्तरः- गृहस्थधर्म उचित षट्कर्म, एकादश प्रतिमा, तथा श्रावक व्रतपालनरूप होय. षट्कर्म आ प्रमाणे . १ तीर्थंकर नगवंत वीतराग सर्वज्ञनी प्रतिमाछारा पूजा करवी, ५ गुरुनी सेवा करवी, ३ खाध्याय, ४ संयम (इंखियदमन) ५ तप, ६ दान, यदाह ॥ देवपूजा, गुरूपास्तिः, खाध्यायः संयमस्तपः ॥ दानं चेति गृहस्थानां, षट्कर्माणि दिने दिने ॥१॥ तथा प्रतिमा ते अनिग्रह विशेषने कहेवामां आवे जे ॥ गाथा ॥ दसण वयसामाश्य, पोसहपडिमा अबंज सचित्ते ॥ आरंजपेस उदिर, व Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ परिजेद. (२६५) जाए समण नूए य ॥१॥ प्रतिमा विस्तारथी खरूप जो, होय तो श्रीपंचाशक नामा शास्त्रमा प्रतिमा पंचाशक जोवु तथा श्रावकनां व्रत बार ने. तेनुं विस्तारथी कथन हवे पनी करवामां आवशे. आषट्कर्म एकादश प्रतिमा अने बार व्रत पालवामां मध्यम, धर्मध्यान होय . देश विरति गुणस्थानस्थ जीव, अप्रत्याख्यान चार कषाय, मनुष्यगति, मनुष्यायु, मनुयापूर्वी, श्राद्यसंहनन, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, सर्व मली दशकर्मप्रकृतिनो बंधव्यवछेद करवाश्री, सडसठ कर्म प्रकृतिनो बंध करेबे. तथा अप्रत्याख्यान चार, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी, नरकत्रिक, देवत्रिक, वैक्रियटिक, उर्जग,अनादेय,अयशःकीर्ति, आ सत्तर कर्म प्रकृतिनो उदयव्यवछेद थवाथी सत्त्याशी कर्म प्रकृतिनुं फल जोगवे डे, श्रने एकसो आडत्रीश प्रकृतिनी सत्ता . पांचमा गुणस्थान उपरनां जे जे गुणस्थानको ने तेमांथी तेरमुं गुणस्थानक बाद करीने बाकीनां सर्व गुणस्थानकोनी पृथक् पृथक् अंतर्मुहूर्त्तमात्र स्थिति बे, अने बहुं तथा सातमु गुणस्थानक हिंडोला समान होवाथी तेनुं उत्कृष्ट कालमान देश जणुं पूर्व कोटि वर्ष बे. हवे हा प्रमत्त संयत गुणस्थानकनुं खरूप लखिये बियें. सर्व विरति साधु बहा प्रमत्त गुणस्थानकवाला होय बे, ते साधु केवा होय ? अहिंसादि पांचमहाव्रतना धारक होय बे. ते साधु प्रमत्त शा कारणथी थाय ? प्रमादसेवन करवाथी प्रमत्त थाय . ते प्रमाद पांच प्रकारे जे. ॥ गाथा ॥ मऊं विषय कसाय, निमा विगहीय पंचवी नणिया ॥ ए ए पंच पमाया, जीवं पाडंति संसारे ॥१॥ नावार्थः- मद्य, विषय, कषाय, निडा, तेमज विकथा, आ पांच प्रमाद .ते जीवने संसारमा नाखे बे. जे साधु था पांच प्रमादसंयुक्त होय, तथा जो तेने संज्वलन चोथा कषायनो उदय होय, तो महाव्रतधारक साधु पण अंतर्मुहूर्त सुधी अवश्य सप्रमाद होवाथी प्रमत्त थाय . जो अंतर्मुहूर्त्तथी उपरांत प्रमाद सहित वर्ते तो ते प्रमत्त गुणस्थानकथी पण नीचे पड़ी जाय बे, जो अंतर्मुहूर्तमां प्रमाद रहित थाय तो फरी श्रप्रमत्त गुणस्थानमा श्रारोहण करे . हवे प्रमत्त संयत गुणस्थानमा ध्याननो संचव कहियेबियें. या गुण Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) जैनतत्त्वादर्श. स्थानमा मुख्य तो आध्यान दे, उपलक्षणथी रौजध्याननो पण संभव बे, कारण के हास्यादि ब नोकषायनुं प्रवर्तवं जे. तथा आशा आदि थालंबनयुक्त धर्मध्याननी गौणता . धर्मध्यानना चार पाद . १ आज्ञा, २ अपाय, ३ विपाक, ४ संस्थान, यथा ॥ आझापायविपाकानां, संस्थानस्य विचिंतनात् ॥ इत्थं वा ध्येयनेदेन, धर्मध्यानं चतुर्विधं ॥१॥ सवज्ञ अस्त जगवंतें जे कांश कथन करेल , ते सर्व सत्य बे, मारी समजमां जे जे वस्तुखरूप यथार्थ श्रावतुं नथी, तेनुं मुख्य कारण मारी बुधिनी मंदता बे, वली सुषम कालना प्रजावधी तेमज संशय परास्त करनारा गुरुना अजावधी इत्यादि अनेक कारणोथी जिनेश्वर जगवाने कथन करेला तत्वनी सूक्ष्मता मारी समजमां श्रावती नथी, परंतु अईत जगवंतनुं कथन निःस्वार्थ, एकांत हितकारक, तथा मृषा बोलवाना निमित्त विनानुं इत्यादि जे चिंतवन कर, ते आज्ञा विचयनामा प्रथम नेद .२ राग द्वेष कषायादि जे आश्रव , तेनाथी श्लोक परलोकमां अपाय (कष्ट) उत्पन्न थाय , ते महाअनर्थना हेतु बे, एवं जे चिंतवन कर, ते अपाय विचयनामा बीजो नेद . ३ दणे कणे कर्मफलोदय जे विचित्ररूप उत्पन्न थाय बे, तेनाथी सुखःखादि जोगवतां, हर्ष, शोक नहि करतां, पूर्वकृत कर्मनो विपाक डे इत्यादि जे चिंतवतुं ते विपाक विचयनामा त्रीजो नेद . ४ आ लोक अनादि अनंत जे. सर्व प. दार्थ उत्पाद, व्यय, ध्रुवरूप ने, तथा पुरुषाकार लोकनुं संस्थान , एवं जे चिंतवन करवू ते संस्थान विचय नामा चोथो नेद . इत्यादि आलंबनयुक्त धर्म ध्याननी गौणता प्रमत्त गुणस्थानमां , परंतु सप्रमाद होवाथी मुख्यता नथी. हवे जो को प्रमत्त गुणस्थानमा निरालंबन धर्मध्यान कहेता होय तो तेनो निषेध करेलो ने, जिननास्कर (जिनसूर्य) एम कहीगया डे के ज्यां सुधी साधु प्रमादसंयुक्त होय, त्यांसुधी तेने निरालंबन धर्मध्यान होतुं नथी. कारण के प्रमत्तगुणस्थानमां मध्यम धर्मध्याननी पण गौणता कही , मुख्यता कही नथी, ते कारणथी प्रमत्त गुणस्थानमां नि. रालंबन धर्मध्याननो संचव नथी. हवे जेठ श्रा अर्थ (कथन) नो स्वीकार न करे तेने कहिये बियें. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ परिच्छेद. ( २६७ ) के जे साधु सप्रमादी थइने श्रावश्यक, सामायिकादि षडावश्यक साधक अनुष्ठानो परिहार करीने, निश्चल, निरालंबन धर्मध्याननो - श्रय करे, ते साधु मिथ्यात्व मोहित जावची मूढ थयो थको, श्रीसर्वज्ञ प्रणीत जैनागम ( सिद्धांत) जाणतो नथी. ते व्यवहारनो त्याग करी दूर बेबे ने निश्चयने प्राप्त करी शक्यो नथी; धने जे जैन सिद्धां - तना ज्ञाता बे, ते तो व्यवहारपूर्वक निश्चयने साधे बे. यदाह ॥ ज‍ जिणमयं पवजह, तामा विवहारनिच्चए मुयह ॥ विवहार नर्ज बे ए, तिनुन्छे जर्ज नपि ॥ १ ॥ अर्थः- जो जैनमतने अंगीकार करता हो, तेमज जैनमतना साधु थता हो तो व्यवहार, निश्चयनो त्याग करो नहि, जो व्यवहारनो उच्छेद करशो तो तीर्थनो उछेद थइ जशे, या कथन उपर दृष्टांत कहीये बियें. कोई पुरुष पोताना घरमा निरंतर बाजरानी रोटली खाय बे, एकाद दिवस कोइ गृहस्थे तेने निमंत्रण करी पूर्व मिष्टान्न आहारनुं जोजन कराव्युं श्रा मिटान आहारथी स्वादनो लोलुपी थने ते पोताना घरनी बाजरानी रोटली निःखाद जाणी खातो नथी, अने अंतःकरणमां दुःप्राप्य मिष्टान्ननी अभिलाषा करी रह्यो बे, मिष्टान्न मलतुं नथी, अने बाज - रानी रोटली रुचिकर थवाथी खातो नथी, तेथी उजयन्रष्ट थइ अंते दुःखी थाय बे, तेवीज रीतें श्रा जीव पण कदाग्रहरूप भूत वलगी जवाथी प्रमत्त गुणस्थानसाध्य स्थूलमात्र पुण्य पुष्टिनां कारण, षडावश्यका दि कष्ट क्रिया करतो नथी, छाने कदाचित् प्रमत्त गुणस्थानमां जेनो लाज बे, एवं निर्विकल्प मनोजनित, समाधिरूप निरालंबन, ध्यानांश अमृत - हारतुल्य प्राप्त थाय बे, तेनाथी उत्पन्न थयो जे परमानंद सुखखाद, ते चित्तमां रेहेवाथी प्रमत्त गुणस्थानगत पडावश्यकादि कष्ट क्रियाकर्म बाजरानी रोटली समान जाणी, तेनुं सम्यक् रीतें आराधन करतो नथी, ने मिष्टान्न तुल्य निरालंबन ध्यानांश तो प्रथम संहननना श्रावथी प्राप्त करी शकतो नथी, तेथी आवश्यकादि क्रिया नहि करवायी उजयष्ट थाय बे. या पंचम कालमां महामुनि, कृषिए निरालंबन ध्याननो मनोरथज करेलो बे ॥ तथा च पूर्वमहर्षयः ॥ चेतोवृत्तिनिरोधनेन करणग्रामं विधायोद्वशं । तत् संहृत्य गतागतं च मरुतो धैर्य समा Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (शक्षण) जैनतत्त्वादर्श. श्रित्य च ॥ पर्यकेन मया शिवाय विधिवत् , स्थित्वैक जूजूदरी मध्य. स्थेन कदाचिदर्पितदृशा, स्थातव्यमंतर्मुखं ॥१॥ चित्ते निश्चलतांगते प्रशमिते, रागादि निखामदे । विखाणेऽक्षकदंबके विघटिते, ध्वांतत्रमारंजके ॥ आनंदे प्रविजृजिते पुरपते, आने समुन्मीलिते । मां रदयंति कदा वनस्थमनितो पुष्ठाशयाः श्वापदाः॥२॥ तथा श्रीसूरपनाचार्याः चित्तावदातैवदागमानां, वा नेष जैरागरुजं निवर्त्य ॥ मया कदा प्रौढसमाधिलक्ष्मी, इत्यादि । तथा श्रीहेमचंजसूरयः॥ वनपद्मासनासीनं, कोडस्थितमृगार्जकं ॥ कदा घ्रास्यंति वक्रो मां, चरंतो मृगयूथपाः॥१॥ शत्रौ मित्रे तूणे स्त्रैणे, हेम्नेश्मनि मणौ मृदि ॥ मोदे नवे जविष्यामि, निर्विशेषमतिः कदा ॥२॥ नावार्थः- चित्तवृत्तिनो निरोध करीने, ईप्रियसमूह अने तेना विषयोने दूर करीने, पवन अर्थात् श्वासोबासनी गत्यागतिनुं रोधन करीने, धैर्यतार्नु अवलंबन करीने, पद्मासन बेसीने, कल्याण करवा निमित्ते, विधियुक्त, कोश, पर्वतनी कंदरा (गुफा) मां बेसीने, एकवस्तु उपर स्थिर दृष्टि करी मुजने अंतर्मुख रहेवु योग्य . ॥१॥ चित्त निश्चल थतां, राग, द्वेष, कषाय, निशा अने मद शांत थतां जियसमूहकृत विकार दूर थतां, चमारंजक अंधकार प्रलय थतां, ज्ञाननो प्रकाश थतां, अने आनंद प्रगट वृद्धिमान् थतां, आत्म अवस्थामां स्थित एवा मारा जीवने वनमा रहेतां, पुष्टाशयवाला सिंह क्यारे रदा करशे ? ॥२॥ वली श्रीसूरप्रजाचार्य पण कहे , हे जगवन् ! तमारा आगम रूप नेषजथी, राग रूप रोगनिवर्त्तवाथी, निर्मल चित्तयुक्त थये, क्यारे एवो दिवस आवशे के जे दिवसे हुँ समाधिरूप लक्ष्मीनुं दर्शन करीश ? इत्यादि. तथा श्री हेमचंग सूरि कहे डे के, वनमां पद्मासनथी बेगं थकां, मारा खोलामां मृगनुं बचुं आवी बेसे, अने हरणनो खामि कालियार मारा मुखने सूंघे, ते समये हुं मारी समाधिमां निश्चल रहुँ॥१॥ तथा शत्रुमां, मित्रमां, तृणमां, स्त्रियोमा सुवर्णमां तेमज पाषाणमां, मणिमा तेमज माटिमां, अने मोदमां तेमज संसारमां एकसरखी मतिवालो क्यारे हुं थश्श ? ॥२॥ तेवीजरीतें मंत्री वस्तुपाल, तथा परमतमां नर्तृहरिए पण मनोरथ करेला बे, श्रने मनोरथ जे लोक करे जे ते पुःप्राप्य वस्तुनोज करे , जे वस्तु कष्टविना Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ परिबेद. (२६ए) सुखे मलती होय तेनो मनोरथ को पण करतुं नथी. जे निरंतर मिष्टान्न खाय , अने मोटुं राज्य जोगवे बे, ते कदापि मिष्टान्न जोजन तथा राज्य जोगववानो मनोरथ करता नथी. ते कारणथी प्रमत्त गुणस्थानस्थ विवेकि पुरुषोए, परमसंवेग जावधी अप्रमत्त गुणस्थानकनो स्पर्श को होय ते पण सर्व प्रकारें परम शुद्ध परमात्मतत्व संवित्तिनो मनोरथ करवो, परंतु षट्कर्म, षडावश्यकादि व्यवहार क्रियानो परिहार न करवो, अने जे मूढ (अज्ञानी) योग ग्रहथी ग्रस्त , तेमज सदाचार व्यवहारथी पराङ्मुख दे, तेनो योगपण कांश कामनो नथी, तेमज तेनो पा लोक पण नथी, अने परलोक पण नश्री, अर्थात् ते जीवो जडात्मा होवाथी उन्नयनष्ट थाय ॥ यतः॥ ये तु योगग्रहग्रस्ताः, सदाचार पराङ्मुखाः ॥ एष तेषां च योगोऽपि, न लोकोपि जडात्मनां ॥१॥ इत्यादि. ते कारणथी साधुयें दिवसे तेमज रात्रिमा जे जे दूषणो तेमने लाग्यां होय, तेनो उछेद करवा वास्ते अवश्य षडावश्यकादि क्रिया करवी जोश्य. ज्यां सुधी उपरनां गुणस्थानकोथी साध्य जे निरालंबन ध्यान बे, ते प्राप्त न थाय, त्यां सुधी करवी जोश्य. प्रमत्त गुणस्थानस्थ जीव, चार प्रत्याख्याननो बंध व्यवछेद होवाथी वेसठ प्रकृतिनो बंध करे , तथा तिर्यग्गति, तिर्यगानुपूर्वी, नीचगोत्र, उद्योत तथा प्रत्याख्यान चार था आवप्रकृतिनो उदय व्यवछेद थवाथी अने थाहारक शरीर तेमज आहारक अंगोपांगनो उदय होवाथी एकाशी प्रकृति वेदे बे, अने एकसो आडत्रीश प्रकृतिनी सत्ता . हवे सातमा अप्रमत्तगुणस्थानकनुं स्वरूप लखिये बियें. पांच महाव्रतधारी साधु पांच प्रमादना अनावें, अप्रमत्तगुणस्थानस्थ होय. तेने संज्वलन चार कषायनो, तेमज नोकषायनो पण उदय मंद होय, तात्पर्य के, संज्वलन कषाय तेमज नोकषायनो जेवो जेवो मंद उदय होय तेवो तेवो साधु अप्रमत्त होय. यदाह ॥ यथा यथा न रोचंते, विषयाः सुलना अपि ॥ तथा तथा समायाति, संवित्तौ तत्वमुत्तमं ॥१॥ यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्वमुत्तमं ॥ तथा तथा न रोचंते, विषयाः सुलजा अपि ॥२॥ अर्थ:-जेम जेम सुखें प्राप्त थता विषयो रुचता नथी, तेम तेम उत्तमतत्त्व संवित्तिनो लाल थतो जाय , तथा जेम जेम उत्त Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) जैनतत्त्वादर्श. मतत्त्व संवित्तिनो लाल यतो जाय , तेम तेम सुखें प्राप्त थता विषयो रुचता नथी. वली अप्रमत्तगुणस्थानकवाला जीव जेम जेम मोहनीयकमनो उपशम करवामां तेमज क्षय करवामां निपुण थता जाय डे तेम तेम सद्ध्याननो श्रारंज करे . दूर कयोंडे सर्वप्रमाद जेणे एवा जे जीव, तथा पंचमहाव्रतधारक साधु, अष्टादश सहस्र शीलांग लक्षण संयुक्त, सदागमअन्यासी ज्ञानवान् एकाग्रध्यानवान् (ज्ञान ध्यान रूप धन होवाथी ) मौनी मौनवान् (कारण के मौनवान्ज ध्यानरूप धनवान् होश शके बे) एवा पवित्रमुनि पूर्वोक्त सम्यक्त्वमोह, मिश्रमोह, मिथ्यात्वमोह अने अनंतानुबंधी चार, श्रा सात प्रकृति विना एकवीश प्रकृतिरूप मोहनीय कर्मने उपशम करवामां तेमज दय करवामां ज्यारे सन्मुख थायडे, त्यारे सालंबन ध्यान तजीने निरालंबन ध्यानमा प्रवेश करवानो आरंज करे. या निरालंबन ध्यानमा प्रवेश करनारा योगी त्रण प्रकारना . १ यथा प्रारंजकाः, ५ तन्निष्ठाः, ३ निष्पन्नयोगाः॥ यदाह ॥ सम्यग् नैसर्गिकी वा, विरतिपरिपति, प्राप्य सांसर्गिकी वा ॥ क्वाप्येकांते निविष्टाः, कपिचपलचलन्मानसस्तंननाय, शश्वन्नासाग्रपाली, घनघटितहशो, धीरवीरासनस्था। ये निष्पापाः समाधे, विदधति विधिनाऽरंजमारंजकास्ते ॥१॥ कुर्वाणोम रुतासनेडियमनः कुत्तर्षनिसाजयं।योंतं जल्पति रूपणानिरसकृत् तत्त्वं समन्यस्यति॥ सत्वानामुपरि प्रमोदकरुणा मैत्रीशं मन्यते। ध्यानाधिष्ठितचेष्टयाऽज्युदयते, तस्येह तन्निष्टता ॥॥ उपरतबहिरंतर्जदपकबोलमाले, लसदविकल विद्या पद्मिनीपूर्णमध्ये ॥ सततममृतमंतानसे यस्य हंसः, पिबति निरुपलेपः सोत्र निष्पन्नयोगी ॥३॥ हवे अप्रमत्तगुणस्थानमा ध्याननो संजव कहीये बियें, सर्वज्ञ- कथन करेलु धर्मध्यान मैत्रीप्रमुख अनेक नेदरूप ॥ यदाद ॥ मैत्र्यादिनिश्च तुउँदं, यहाज्ञादि चतुर्विधं ॥ रूपस्थादि चतुर्बा वा, धर्मध्यानं प्रकीर्तितम् ॥ १॥ मैत्रीप्रमोद कारुण्य, माध्यस्थानि नियोजयेत् ॥ धर्मध्यानमुपस्कर्तुं, तकि तस्य रसायनं ॥२॥ आज्ञापायविपाकानां, संस्थानस्य विचिंतनात् ॥श्वं वा ध्येयनेदेन, धर्मध्यानं प्रकीर्तितं ॥३॥ धर्मध्यान मैत्री जावप्रमुख चार नेद डे. तथा आज्ञाविचयप्रमुख चार नेदें , अने Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (शत) जैनतत्त्वादर्श. तिमंदमंदं । प्राणायामोललाट, स्थल निहितमना, दत्तनासाग्रहष्टिः नाऽत्युन्मीलानिमील, नयनमतितरां, बझपर्यंकबंधो । ध्याने प्रध्याय शुक्लं, सकल विदनव, द्यः सपायाजिनोवः ॥१॥ वली केवा बे ते योगीं ? मन, चित्त, अंतःकरणना विकल्परूप व्यापारने बंध कयों ने, जेणे कारण के विकल्पज दृढकर्म बंधननो हेतु . यदाह ॥ शुजावाह्यशुजावापि, विकल्पा यस्य चेतसि ॥ सस्वं बन्धात्ययः स्वर्ण, बंधना तेन कर्मणा ॥१॥ वरं निसा, वरंमूळ, वरं विकलताऽपि वा ॥ नत्वातरौपडलेश्या, विकल्पाकुलितं मनः ॥२॥ वली ते योगी केवा ? संसारनो उछेद करवा वास्ते उद्यम जे जेनो एवा बे, कारण के नवने उछेद करवानी अनिलाषावाला ध्यानवाननेज योगनी सिकि थाय बे. यदाद ॥ उत्साहान्निश्चयार्याि, संतोषात्तत्त्वदर्शनात् ॥ मुनेर्जनपदत्यागा, पनिर्योगः प्रसिद्धयेदिति ॥१॥ तथा योगीजमुनि प्रवनने उर्ध्व प्रचाराप्ति दशमहार गोचर प्राप्त करे . शुं करीने प्राप्त करे ले ? अपानधार मार्गथी गुदाने रस्ते पोतानी हाथी निकलता पवनने संकोचीने, मूलबंध युक्ति पूर्वक करे . ते मूलबंध आ डे ॥ पाणिनागेन संपीड्य, योनिमाकुंचयेशुदं ॥ अपानमूर्धमाकृष्य, मूलबंधोनिगद्यते ॥१॥ आ श्राकुंचन कमज प्राणायाम, मूल जे. ॥ यमुक्तं ॥ ध्यानदंडस्तुतौ ॥ संकोच्यापानरंध्र हुतवह सदृशं, तंतुवत्सूक्ष्मरूपं । धृत्वा हृत्पद्मकोशे, तदनु च गलके ताबुनि प्राणशक्तिं ॥ नीत्वा शून्यां, पुनरपि खगति, दीप्यमानं समंतात्, लोकालोकावलोकां, कलयति सकलां यस्य तुष्टो जिनेशः ॥१॥ हवे पूरक प्राणायामनुं खरूप कहियेबियें. योगी पूरक ध्यानना योगथी अतिप्रयन्नपूर्वक सर्व देहगतनाडीसमूहने पवनथी पूरे . शुंक रीने ? बार आंगल सुधी पवननुं आकर्षण करीने, अर्थात् बहारथी सर्व बाजुएथी बार बांगलप्रमाणे पवनने खेंचीने पूरे. तात्पर्य ए डे के आकाश तत्व वदेतां थकां नासिकानी अंदरज पवन होयडे, अग्नितत्व वहेतां थकां चार आंगल प्रमाण बहार पवन उर्ध्वगति स्फुरे , वायु तत्व वहेतां बांगल प्रमाण बहार पवन तिर्यग् स्फुरे डे, पृथ्वीतत्व वहेतां थकां आठ आंगल प्रमाण बहार पवन मध्यम जागमा रहे , अने जल तत्व वहेतां थकां बार बांगल प्रमाण पवन नीचे वहे . एवी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ परिजेद. ( ए) रीते बार आंगल पर्यंत वारुण मंडल प्रचार अमृतमय पवन आकर्षणथी तेनुं नाम पूरकध्यानकर्म कहेवाय छे. हवे रेचक प्राणायाम कहियें डिये. पूरक ध्याननी अनंतर साधक योगी, योगसामर्थ्यथी तेमज प्राणायाम अज्यासबलथी रेचकनामा पवन, नाभिकमल उदरथी हलवे हलवे बहार काढे , तेनुं नाम रेचक ध्यान . यदाह ॥ वज्रासनः स्थिरवपुः स्थिरधीः सचित्त, मारोप्य रेचक समीरणजन्मचके ॥ खांतेन रेचयति नाडिगतं समीरं, तत्कर्म रेचक मिति प्रतिपत्तिमेति ॥१॥ हवे कुंजक ध्यान कहिये बियें. योगी कुंजकनामा पवन, नाजिपंकज कुनक ध्यान अर्थात् कुंजककर्मप्रयोगथी कुंनवत् अर्थात् घडारूपें श्रतिशयेंकरी स्थिर करे . ॥ यदाह ॥ चेतसि यति कुंजकचक्र, नाडिकासु निबिडीकृतवातः ॥ कुंलवत्तरति यजालमध्ये, तदंति किल कुंजककर्म ॥१॥ इति लेशमात्र प्राणायामस्वरूपं. . __ हवे पवन जीतवाथी मन वश थाय बे, तेनुं स्वरूप कहिये बियें. ज्यां मन , त्यां पवन , अने ज्यां पवन , त्यां मन . यदाह ॥ उग्धांबुवत् संमिलितौ सदैव, तुल्यक्रियौ मानसमारुतौ हि ॥ यावन्मनस्तत्र मरुत्प्रवृत्ति, र्यावन्मरुत्तत्र मनःप्रवृत्तिः॥१॥ तत्रैकनाशादपरस्य नाश, ए. कप्रवृत्तेरपरप्रवृत्तिः ॥ विध्वस्तघोरेंजियवर्गशुफि, स्तइंसनान्मोदपदस्य सिद्धिः॥॥ श्रा प्रमाणे पूरक, रेचक, कुंजक पवनोनां अनुक्रमें आकुंचन, निर्गमन साधीने, वायुनो संग्रह, तेमज चित्तनुं एकाग्रपणुं चिंतन करीने समाधिविषे निश्चलपणुं धारण करे , कारण के पवन जीतवाथीज मन निश्चल थाय . यदाह ॥ प्रचलति यदि, दोणी चक्र, चलंत्यचला अपि । प्रलयपवन, खालोला, श्चलंति पयोधयः॥ पवन जयिनः, स्वावष्ठंज, प्रकाशितशक्तयः । स्थिरपरिणते, रात्मध्याना, चलंति न योगिनः॥१॥ . हवे जावनीज प्रधानता, स्वरूप कहीये बियें, दपक श्रेणि आरोह करतां प्राणायामनो क्रम अर्थात् प्रौढ पवननो अभ्यासक्रम जे कहेलो बे, ते प्रागल्यता अर्थात् रूढिपूर्वक जे प्रसिद्ध बे, तेम बतावेलो डे परंतु प्राणायाम करे तोज दपकश्रेणिए चडी शके एवो कांश नियम. नथी, Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) जैनतत्त्वादर्श. कारण के पकनो जावज रूपक श्रेणिनुं कारण बे, परंतु प्राणायामादि जे आडंबर बे ते कारण नथी. यथा चर्पटिनापि ॥ नासाकंद नाडीवृंद, वायोश्चारः प्रत्याहारः ॥ प्राणायामो बीजग्रामो, ध्यानाच्यासो मंत्रन्यासः ॥ १ ॥ हृत्पद्मस्थं चूमध्यस्थं, नासाग्रस्थं श्वासांतःस्थं ॥ तेजः शुद्धं ध्यानं बुद्ध:, काराख्यं सूर्यप्रनाख्यं ॥ २ ॥ ब्रह्माकाशं शून्यानासं, मिथ्याजल्पं चिंताकल्पं ॥ कायाक्रांतं चित्तत्रान्तं त्यक्त्वा सर्व मिथ्या गर्व ॥ ३ ॥ गुर्वादिष्टं चिंतितमिष्टं, देहातीतं जावोपेतं ॥ त्यक्त्वा द्वंद्वं, नित्यानंद, शुद्धं तत्वं जानीहि त्वं ॥ ४ ॥ अन्यच्च ॥ योंकाराऽन्यसनं विचित्रक - रणैः, प्राणस्य वायोर्जया । तेजश्चितनमात्मकायकमले, शून्यांतरालंबनं ॥ त्यक्त्वा सर्वमिदं कलेवरगतं, चिंतामनोविज्रमं । तत्त्वं पश्यत जदपकल्पनकला, ऽतीतं खनावस्थितं ॥ १ ॥ श्र सर्व रूढिपूर्वक रूपक श्रेणिना आडंबर बे, परंतु तत्वथी तो मरुदेवादिवत् जावज प्रधान बे. " हवे शुक्ल ध्यानना प्रथम पायानुं नाम कहीयें बियें. मन, वचन, कायाना योगने वशकरनार मुनिने शुक्लध्याननो प्रथम पाद थाय बे, ते पाद केवो बे ? वितर्कसहित जे वर्ते ते सवितर्क, विचारसहित जे वर्ते ते सविचार, पृथक्त्वसहित जे वर्ते ते सपृथक्त्व. या त्र विशेष - णयुक्त होवाथी शुक्लध्यानना प्रथम पायातुं नाम सपृथक्त्व, सवितर्क, प्रविचार . हवे या त्रणे विशेषणोनुं स्वरूप कहीयें बीयें. पूर्वोक्त प्रथम शुक्लध्यान त्रयात्मक क्रमक्रमें गृहीत विशेष ऋण रूपें बे. तेमां श्रुतचिंतारूप वि तर्क बे, तथा शब्द अर्थ योगांतरमां जे संक्रमण कर ते विचार बे, अने द्रव्य, गुण, पर्यायादिथी जे अन्यपणुं वे ते पृथक्त्व बे. वे या त्र विशेषणना प्रगट अर्थ कहियें बियें, जे ध्यानमां अंतरंगध्वनिरूप वितर्क, विचार रूप होय ते सवितर्क ध्यान छे, कारण के स्वकीय निर्मल परमात्मतत्व अनुभवमय अंतरंग जावगत श्रागमना अवलंबनथी या सवितर्कध्यान थाय बे. जे ध्यानमां पूर्वोक्त वितर्क विचा रणरूप अर्थ अर्थातरमां संक्रमण होय, शब्दथी शब्दांतरमां संक्रमण होय, तथा योगथी योगांतरमां संक्रमण होय ते सविचार संक्रमण कहेवाय डे. तथा जे ध्यानमां पूर्वोक्त वितर्क सविचार अर्थ व्यंजन योग Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ परिजेद. (२१) तर संक्रमणरूप पण शुद्धात्मानी पेठे अव्यथी अव्यांतरमा जाय , श्रथवा गुणोथी गुणांतरमां जाय , अथवा पर्यायोथी पर्यायांतरमां जायबे, तेमां सहनावी ते गुण बे, जेम के सुवर्णमां स्निग्धता, पीतता बे, इत्यादि, अने क्रमनावी ते पर्याय ने, जेमके सुवर्णमां मुखा, कुंडलादि. ते अव्यगुण पर्यायांतरोमांजे ध्यानमां अन्यत्व पृथक्त्व ते सपृथक्त्व . __ हवे शुक्ल ध्यानथी जे शुद्धि थाय ने ते कहिये बिये. समाधिवान् योगी पूर्वोक्तत्रयात्मक पृथक्त्व वितर्क सप्रविचार शुक्ल ध्यानने ध्यातां थकां परम प्रकृष्ट विशुद्धिने प्राप्त थाय बे, ते शुद्धि केवी ? मुक्ति रूप लक्ष्मीना मुखने देखाडनारी . हवे तेनुं कांश्क विशेष खरूप कहिये लियें. यद्यपि आ शुक्लध्याननो पायो प्रतिपाती (पतनशील) उत्पन्न थाय , तो पण अति विशुद्ध होवाथी अर्थात् अत्यंत निर्मल होवाथी उपरना गुणस्थानमा आरोह करवानी चाहना रह्या करे बे, अर्थात् उपरना गुणस्थानमा दोडेले. __ अपूर्वकरण गुणस्थानस्थ जीव निवाधिक, देवधिक, पंचेंजियजाति, प्रशस्त विहायोगति, त्रसनवक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण, वैक्रिय उपांग, आहारक उपांग, आयसंस्थान, निर्माणनाम, तीर्थकरनाम, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, उल्हास. था बत्रीश कर्मप्रकृतिनो बंधव्यवछेद थवाथी, बवीश कर्म प्रकृतिनो बंध करेले. तथा डेली त्रण संहनन, अने सम्यक्त्व मोह, आ चारनो उदयव्यवछेद थवाथी बोतेर कर्म प्रकृति वेदे बे. अने १३७ कर्म प्रकृतिनी सत्ता . इति दपक श्रेणि आठमा गुणस्थाननुं स्वरूप, हवे आपक, अनिवृत्तिनामा नवमा गुणस्थानकपर आरोह करे त्यारे जे जे कर्म प्रकृतिनो ज्यां ज्यां क्षय थाय , ते कहियेडिये. क्षपकमुनि नवमा गुणस्थानकना नवनाग करे .प्रथम नागमां सोल कर्म प्रकृतिनो क्षय करे , ते आ प्रमाणे बे, १ नरकगति, २ नरकानुपूर्वी, ३ तिर्यग्गति, ५ तिर्यंचानुपूर्वी, ५ साधारणनाम, ६ उद्योतनाम, ७ सूक्ष्म, बीजियजाति, एत्री प्रियजाति, १० चतुरिंजिय जाति, ११ एप्रियजाति, १५ आतपनाम, १५ स्त्याना त्रिक, १६ स्थावरनाम. तथा बीजा नागमां अप्रत्याख्यान कषायनी तथा प्रत्याख्यान क Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २) जैनतत्त्वादर्श. षायनी चोकडी क्षय करे .त्रीजा नागमा नपुंसक वेदनो अने चोथा नागमा स्त्रीवेदनो क्षय करे , पांचमा नागमां हास्य, रति, अरति, जय, शोक, जुगुप्सा 3 नोकषायनो क्षय करे बे, बाद ध्याननी अति निर्मलताथी बहा नागमा पुरुषवेदनो, सातमा जागमां संज्वलन को. धनो, श्रापमा जागमां संज्वलन माननो, अने नवमा नागमां संज्वलन मायानो कय करे , तथा आ गुणस्थानमा वर्त्तता मुनि हास्य, अरति, जय, जुगुप्सा, श्रा चारनो व्यवछेद होवाथी, बावीश प्रकृतिनो बंध करे बे, अने हास्यषटनो उदयव्यवछेद थवाथी असर प्रकृतिने वेदे. तथा नवमा अंशमां मायापर्यंत प्रकृतियोनो दय करवाश्री, पांत्रीश प्रकृति व्यवछेद थवाथी एकसो त्रण प्रकृतिनी सत्ता बे. __ हवे दपकना दशमा गुणस्थानकनुं स्वरूप लखीये बिये. पूर्वोक्त नवमा गुणस्थानक अनंतर दपकमुनि सूदम संपराय नामा दशमागुणस्थानपर आरोह करे . शुं करीने ? क्षणमात्रमा संज्वलनना स्थूल लोजनो क्षय करतां थकां आरोह करे . सूदम संपराय गुणस्थानस्थ जीव, पुरुषवेद तथा संज्वलन चतुष्कनो बंधव्यवछेद थवाथी सत्तर प्रकृतिनो बंध करे बे, अने त्रण वेद तथा त्रण कषायनो उदयव्यवछेद थवाथी साठ प्रकृति वेदे , मायानी सत्ता व्यवछेद थवाथी एकसो बे प्रकृतिनी सत्ता जे. हवे आपकमुनिने अगीआरमुं गुणस्थानक प्राप्त यतुं नथी, परंतु द. शमा गुणस्थानकथी सूक्ष्म लोजना अंशोना सूदम खंड करता करतां क्षपक, बारमा वीणमोदवीतराग गुणस्थानमां जाय . अहींयां दपक श्रेणि समाप्त करे बे. तेनो अनुक्रम था प्रमाणे जे. प्रथम अनंतानुबंधी चार कषायनो कय करे , पड़ी मिथ्यात्व मोहनीयनो, पनी मिश्रमोहनीयनो, पडी सम्यक्त्व मोहनीयनो, पड़ी अप्रत्याख्यान चार कषायनो, पडी प्रत्याख्यान चार कषायनो, पनी नपुंसक वेदनो, पडी हास्यषट्कनो, पनी पुरुषवेदनो, पडी संज्वलन क्रोधनो, पडी संज्वलन माननो, पनी संज्वलन मायानो अने वटे संज्वलन लोजनो क्षय करे बे. हवे बारमा गुणस्थानमां शुक्लध्याननो बीजो पायो प्राप्त थाय ने तेनुं स्वरूप कहियें लियें, दपकमुनि क्षीणमोही थवाथी बारमा गुणस्थान Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ परिजेद. ( ३) मार्गमा परिणतिमान् थश्ने प्रथम शुक्लध्याननी रीतिमुजब बीजा शु. क्लध्याननो आश्रय करे बे. केवी रीतें ? वीतराग थजवाथी “वीतराग" अर्थात् विशेषेण श्तो (गतो), रागोयस्मात् सवीतरागः, वली ते क्षपक मुनि केवा जे ? महायति, यथाख्यातचारित्री, शुद्धतर नावसंयुक्त एवा क्षपक शुक्लध्यानना बीजा पायानो आश्रय करे . . हवे तेज शुक्लध्याननां विशेषण नामसहित कहिये बियें. ते वीण मोहगुणस्थानव दपकमुनि, बीजा शुक्लध्यानने एकयोगयी ध्याय ने, यदाह ॥ एकं त्रियोगजाजा, मायं स्यादपरमेकयोगवतां ॥ तनुयोगिनां तृतीयं, नियोगानां चतुर्थं हि ॥१॥ केवु ध्यान डे ? " अपृथक्त्वं पृथक्त्ववर्जितं, अविचारं विचाररहितं, सवितर्कगुणान्वितं वितर्कनाव गुणसंयुक्तं " एवां बीजो शुक्वध्यानने ध्यायले. हवे अपृथक्त्वनुं स्वरूप कहियें लिये. तत्वज्ञाता एकत्व अर्थात् श्र. पृथक्त्व ज्ञानने धारण करे , ते एकत्वपणुं शुं ? जे केवल निजात्मव्य अर्थात् विशुद्ध परमात्मव्य बे तेज अथवा तेज परमात्मा अव्यनो केवल एक पर्याय, अथवा केवल एकगुण ए प्रकारे एक अव्य, एक गुण, एक पर्याय, निश्चल अर्थात् चलनरहित ज्यां ध्यान करवामां श्रावे ते एकत्व . • हवे अविचारनुं खरूप कहीयें बीये. जे सध्यानकोविदोए शास्त्र आम्नायथी शुक्लध्यान- रहस्य जाण्युं बे, तेजेए अविचार विशेषणसंयुक्त बीजा शुक्नध्याननुं खरूप था प्रमाणे कर्तुं . पूर्वोक्तस्वरूपोमां व्यंजन अर्थयोगोमा अर्थात् शब्दार्थ योगरूपोमां परावर्त्त विवर्जित शब्दथी शब्दांतर इत्यादि क्रमथी रहित ए, चिंतन श्रुत अनुसारेंज करवामां श्रावे ते अविचार . आ कालमां सद्ध्यानकोविद अर्थात् शुक्लध्यानना जे ज्ञाता बे, ते पूर्वमुनिप्रणीत शास्त्र थाम्नाय विशेषथी बे; परंतु आ कालमां शुक्लध्यानना कोई अनुभवी नश्री. यदाहुः ॥ श्रीहेमचंबसूरिपादाः ॥ अनविलित्त्याम्नायः, समागतोऽस्येति कीर्त्यतेऽस्मानिः ॥ पुष्कर मप्याधुनिकैः, शुक्लध्यानं यथाशास्त्रं ॥१॥ हवे सवितर्कनुं स्वरूप कहिये बियें. सवितर्कगुणसंयुक्त बीजुं शुक्ल Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४) जैनतत्त्वादर्श. ध्यान नावश्नुतना आलंबनथी थाय , सूक्ष्म अंतर्जस्प जावगत अवलंबनमात्र चिंतवनथी थाय . हवे शुक्लध्यानजनित समरसीनावनुं स्वरूप कहिये बियें. बीजा शुक्लध्यानमा वर्त्तता ध्यानी समरसीनाव धारण करे . समरसीनाव एटले तदेकशरणता. कारण के आत्माने अपृथक्त्वरूपें परमात्मामां लीन करीए त्यारेज समरसीनाव धारण थाय बे. समरसीनाव केम करे? श्रात्माना अनुजवथी करे, हवे वीणमोहगुणस्थानकने अंते शुं करे ? ते कहिये बियें. पूर्वोक्त ध्यानथी तेमज बीजा शुक्लध्यानना योगथी कर्मधनोनुं दहन करीने योगीमुनि अंतना प्रथमसमये अर्थात् बारमा गुणस्थानकना बीजा चरमसमयमां निशा अने प्रचला आ बे प्रकृतिनो क्षय करे . हवे अंतसमये जे करे ते कहिये बियें. वीणमोह गुणस्थानके अंतसमयमा १ चकुदर्शन, २ अचकुदर्शन, ३ अवधिदर्शन, ४ केवलदर्शन, था चार दर्शनावरणीय, तथा पांचप्रकारनां ज्ञानावरणीय, अने पांचप्रकारना अंतराय, ए चौद प्रकृतिनो दय करीने वीणमोहांश थश्ने केवल, स्वरूप थाय . तथा वीणमोहगुणस्थानस्थ जीव, दर्शनचतुष्क, झानांतरायदशक, उच्चगोत्र, यशनाम, ए सोल प्रकृतिनो बंधव्यवछेद थवाथी एक शातावेदनीयनो बंध करे . तथा १ संज्वलनलोज, २ - षजनाराच संहनन, बे प्रकृतिनो उदयव्यवछेद थवाथी सत्तावन प्रकृति वेदे . तथा संज्वलन लोजनी सत्ता दूर थवाथी एकसो एक प्रकृतिनी सत्ता . ___ हवे क्षीणमोहांत प्रकृतियोनी संख्या कहियें बीये. चोथा गुणस्थानकथी क्षय थती थती त्रेसठ प्रकृति दीणमोहमा संपूर्ण थाय बे. एक प्रकृति चोथा गुणस्थानकमां, एक पांचमामां, श्राप सातमामां, बत्रीश नवमामां, सत्तर बारमामां, एम सर्व मली त्रेसठ थश्. बाकीनी पंचाशी प्रकृति जीर्ण वस्त्रनी जेवी तेरमा सयोगी केवली गुणस्थानकमां रहे , - हवे सयोगीकेवलीने जे नाव तथा सम्यक्त्व, अने चारित्र थाय डे ते कहियेंबियें. ते केवली जगवंत आत्माने आ गुणस्थानकमा दायिक शुभनाव प्रगट थाय बे, परम उत्कृष्ट दायिक सम्यक्त्व थाय बे, अने Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ परिजेद. (न्य) यथाख्यातनामा दायिक चारित्र थाय , मतलब के उपशम श्रने कयोपशम था बे जाव रहेता नथी. हवे ते केवली आत्माना केवलनी विनूति कहियेंबियें. ते केवलज्ञान रूप सूर्यना प्रकाशथी चराचर जगत् केवलज्ञानी आत्माने हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष नासन थाय . आ स्थले केवलज्ञानने सूर्यनी उपमामात्र व्यवहारथीज कही . निश्चय स्वरूपें तो केवलज्ञान अने सूर्यमां अपार अंतर . हवे जे श्रात्माठ तीर्थकरनामकर्म उपार्जन करे ने तेनुं विशेष स्वरूप कहियें जियें. अर्हत्नक्तिप्रमुख वीशपुण्यस्थानको जे आत्मा विशेष श्राराधन करे , ते तीर्थकरनाम कर्म उपार्जन करे . ते वीशस्थानक था . गाथा ॥ अरिहंत सिद्ध पवयण, गुरु थेर बहुस्सुए तवस्सीसु ॥ वलयाश्एसु, अजिरकणंणो वजग्गेय ॥१॥ दंसण विणए श्राव, स्सए सीलवए निरश्यारे ॥ खणलवच्चियाए, वेयावच्चे समादीयं ॥२॥ अपुत्व नाणग्गहणं, सुयजत्ती पवयण पजावणया ॥ एएहिं कारणेहिं, तिबयरत्तं लहर जीवो ॥३॥ आ गाथाउँनो अर्थ श्रागल लखशुं. या गुणस्थानकमां, तीर्थंकर नामकर्मना उदयथी ते केवली त्रिजुवनपति जिनें थाय . जिन अर्थात् सामान्य केवली, तेजेना जेते जिनें कहेवाय . हवे तीर्थंकरना महिमानुं वर्णन करिये बिये. ते लगवान् तीर्थंकर,प्रथम परिछेदमा वर्णन कर्या मुजब चोत्रीश अतिशययुक्त होय . सर्व देवता तथा मनुष्यो जेमने नमस्कार करे, एवा सर्वोत्तम, सकलशासनमा प्रधान एवं तीर्थप्रवर्तन करे बे, अने उत्कृष्टथी देशोनपूर्वकोटि सुधी विद्यमान रहे . __ हवे ते तीर्थकरनामकर्म केवीरीतें वेदवामां थावे तेनुं स्वरूप कहियें बियें. पृथ्वीमंडलमां विहार करतां जव्यजीवोने प्रतिबोधी, तेजने सर्व विरति तेमज देशविरति करवाथी तीर्थकरनाम कर्म वेदवामां आवे . जो तीर्थकरनामकर्मनो उदय न होयतो नगवान् कृतकृत्य थवाथी तेमने उपदेश करवानुं शुं प्रयोजन के ? ते कारणथी जे वादी नगवानने निःशरीरी, नैरुपाधिक, मुखरहित, सर्वव्यापी माने बे, ते नगवान् देहादिना अजावथी धर्मना उपदेशक यश् शकता नथी. जो उपाधिरहित, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) जैनतत्त्वादर्श. सर्वव्यापी परमेश्वर पण उपदेशक थश् शकता होय तो तेवा परमेश्वर श्रा कालमां अमारा जेवाने केम उपदेश करता नथी ? कारण के ते वादीना कथनमुजब पूर्वकालमां अग्नि आदि ऋषियोने तेमणे प्रेर्या हता, तथा ब्रह्मादिद्वारा चार वेदादिनो उपदेश तेमणे को हतो, तथा मूसा इसाहारा जगत्ना जीवोने उपदेश कर्यो, तो हाल केम उपदेश नथी करता ? परोपकारीने उपदेश करवामां शुं विलंब ? जो कहो के श्री कालमा सर्वजीव उपदेश देवा योग्य नथी, तेथी उपदेश श्रापता नथी. तो पूर्वकालमां पण सर्वजीवोए परमेश्वरनो उपदेश मानेलो नथी. जुर्ज. प्रथम तो कालासुर प्रमुख अनेक जीवोए उपदेश मानेलो नथी. बीजो अजाजीले पण मानेलो नथी, तेमज यहूदाए तेमज केटलाएक इसराइलियोए पण मानेलो नथी; ते कारणथी पूर्वकालमां पण परमेश्वरने उपदेश देवो योग्य न होतो. जो कहो के, परमेश्वरें ते वखते उपदेश केम थाप्यो, अने हाल केम आपता नथी, ते बाबतमां तेनी वात ते जाणे, तो पनी तमे एम केम कहोडो के परमेश्वरने मुख नथी ? ते कारणथी तेज सत्य के के तीर्थकरनाम कर्मने वेदवा वास्ते जगवान् उपदेश आपे बे, अने जे वखते उपदेश आपेठे ते वखते देहधारी होय जे आटली चर्चा बस. ___ केवलज्ञानवान् पृथ्वीमंडलमा उत्कृष्ट पाठ वर्ष न्यून एक कोटि पूर्व प्रमाण विचरे . देवताए रचेला कंचन कमलोपर पग राखी चाले ने आठ प्रातिहार्यसंयुक्त अनेक सुरासुरकोटिसंसेवित विहार करे . था स्थिति सामान्यप्रकारथी केवलज्ञानवान्नी कही बे. जिनें तो मध्य स्थितिवाला होय . हवे केवली समुद्घातकरण कहियेडिये. केवलज्ञानवान् ज्यारे वेदनी कर्मनी स्थितिथी आयुकर्मनी स्थिति अल्प जाणे , त्यारे बंने स्थितिउने तुल्य करवावास्ते, केवली समुद्घात करे . ते समुद्घातनुं खरूप श्रा प्रमाणे . प्रथम समुद्घातशब्दनो अर्थ कहिये बियें. यथाखनावस्थित आत्मप्रदेशोने वेदनादि सात कारणोथी समंतात् उद्घातनं श्रर्थात् खन्नावथी अन्यजावपणे परिणमन करवू तेनुं नाम समुद्घात बे. समुद्घातना सात प्रकार ले १ वेदना स०, ५ कषाय सण, ३ मरण स०, Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम परिबेद (एए) रूप . १ नामनिदेप, ५ स्थापना निक्षेप, ३७व्य निक्षेप, ४ जावनिक्षेप श्रा चारे निदेपर्नु विस्तारपूर्वक स्वरूप जोर्बु होय तो विशेषावश्यक अवलोकन करवू. प्रथम निदेप, नाम अर्हत अर्थात् “नमो अरिहंताणं" एम कहे. आ पदनो जप करवाथी अनेक जीव संसारसमुख तरी गयेल . बीजो स्थापनानिदेप, ते अरिहंतनी प्रतिमा, समस्त दोष चिह्रोथी रहित सहज सुजग, समचतुरस्त्र संस्थानवाली, पद्मासन, कायोसर्ग मुसारूप, शांतरसमय जिनबिंब देखीने, तेनी सेवा, पूजा, जक्ति करवायी अनंत जीवोए मोक्ष प्राप्त करेल , प्रश्न:-अरिहंतनी प्रतिमा पूजवी तथा तेने नमस्कार करवो, एम स्थापना निदेपने भानी, प्रतिमाने मुक्तिदायक समजवी, आ नि:केवल मूर्खतार्नु चिह्न , कारण के प्रतिमा जडरूप होवाथी शुं श्रापी शके डे ? उत्तरः-हे जव्य ? आप को पण शास्त्रने परमेश्वरनां वचनरूप मा. नोडो के नहि ? जो शास्त्रने परमेश्वरनां वचनरूप मानता हो, तेमज ते शास्त्रने सत्यखरूपें संसारसमुथी पार उतारनार मानता हो तो, तेवीज रीतें परमेश्वरनी प्रतिमाने मानवामां शा वास्ते लजा धारण करोडगे ? जेवू शास्त्र जडरूप में, अर्थात् तेमां श्याही अने कागल शिवाय बाकी कां पण नथी, तेवी परमेश्वरनी प्रतिमा पण ने, जो एम कहो के कागलो उपर श्याहीथी अक्षर संस्थान पडेलां वांचवाथी परमेश्वरना क. थननो बोध थाय बे, तो तेवीज रीतें परमेश्वरनी मूर्ति देखवाथी पण परमेश्वरना स्वरूपनो बोध थाय . प्रश्नः-प्रतिमा देखवाथी अरिहंत स्वरूप तो स्मरण थाय बे, परंतु प्रतिमानी नक्ति करवाथी शुं लाज ? उत्तरः-शास्त्र श्रवण करवाथी परमेश्वरना वचननो बोध थयो तो पण जक्तजनो जेम शास्त्रने उच्चस्थानमा राखे , को शिरपर लश् फरे , को गलामां लटकावी राखे , केटलाएक सिंहासन उपर, केटलाएक सुंदर बाजोठ उपर शास्त्रोने सुंदर सुंदर रुमालोमां लपेटी राखे , श्रने शास्त्रोनी पूजा, नक्ति, बहुमान, नमस्कार प्रमुख करे . जेम शास्त्रनां वचनो विनय, बहुमानपूर्वक श्रवण करवायी तेथी थता अनेक लाजनो जक्तजनो अनुजव करे , तेवीजरीतें जिन प्रतिमानी विनय, बहुमानपू Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) जैन तत्त्वादर्श र्वक जक्ति करवाथी तेनी शांतमुद्रा सेवकजनने परमशांतरस प्रमुख अ नेक लाभ उत्पन्न करावे बे. प्रश्नः - जेम पञ्चरनी गायथी दूधनी गरज सरती नथी, तेम प्रतिमाथी पण कांइ गरज सरती नथी, तो हवे प्रतिमाने शावास्ते मानवी जोइयें ? उत्तर:- जेम कोइ पुरुष सुखधी गाय, गाय, एम सत्यरूपें उच्चार करतां बतां पण तेनुं उदर दूधथी जरातुं नथी, तेम परमेश्वरनुं नाम लेवाथी, तेमज तेनो जाप करवाथी पण कांइ लाज तो नथी. ते कारणथी पर - मेश्वरनुं नाम पण न बेवुं जोइयें ? प्रश्नः -- परमेश्वरनुं नाम लेवाथी तो श्रमारुं अंतःकरण शुद्ध थाय बे. उत्तरः- तेव जरीतें परमेश्वरनी प्रतिमा देखवाथी पण परमेश्वरना स्वरूपनो बोध थाय बे. तेथी अंतःकरणानी शुद्धि अहिंश्रा पण सरखीज बे. प्रश्नः - परमेश्वरनुं नाम लेवाथी पुण्य बे तो पढी प्रतिमा शावास्ते पूजवी ? उत्तर:- जेवी स्थापना (प्रतिमा) देखवाथी श्रात्मानी शुद्ध परिणति याय बे, तेवी नामथी यती नथी. कारण के जेम कोइ सुंदर यौवनवंती स्त्रीनुं नाम लेवाथी राग तो उत्पन्न याय बे, परंतु जो ते सुंदर यौवनवती स्त्रीनी मूर्त्ति प्रगट सर्वाकारवाली सन्मुख देखीए तो अधिक तर विषयराग उत्पन्न थाय बे, तेटलाज कारणसर श्री दशवैकालिक सूमां लखेलुं बे के “ चित्तनित्ती न निकए नारी वासुलंकियं " अर्थात् स्त्रीना चित्रामणवाली जींत देखवाथी पण विकार उत्पन्न थाय बे. श्रा वात तो प्रगट ( प्रसिद्ध ) बे के रागीनी मूर्ति देखवाथी राग उत्पन्न थाय बे, तथा कोकशास्त्रोक्त स्त्री, पुरुषनां विषय सेवनना चोराशी वासन देखवाथी तत्काल विकार उत्पन्न थाय बे, तेवीज रीतें निर्विकार स्थापना रूप शांतमुद्रा, श्री वीतराग परमात्मानी देखवाथी जेवो निर्विकार शांतिनाव उत्पन्न थाय बे, तेवो नाम लेवाथी यतो नथी. प्रश्नः - जेम कोइ स्त्रीना जर्त्तारिनुं नाम देवदत्त बे, ते देवदत्त मरीगयो, बाद ते स्त्रीए पोताना पति देवदत्तनी मूर्ति बनावी; ते मूर्त्तिषी जेम ते स्त्रीनुं सुहाग, संतानोत्पत्ति तथा कामश्छा पूर्ण थतां नथी, तेवीज रीतें जगवाननी मूर्त्तिथी पण कांइ लाज थतो नथी. उत्तरः- देवदत्तनी स्त्री देवदत्तना मरण पढी श्रासन बिछावीने देवद Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम परिछेद. (शए) तना नामनी माला फेरवे, तेथी जेम ते स्त्रीन सुहाग रहेतुं नथी, तथा पतिनुं नाम लेवाथी जेम संतानोत्पत्ति थती नथी, तथा कामेडा तृप्त थती नथी, तेवीज रीतें जो कहेवामां आवशे तो तो जगवाननुं नाम लेवाश्री पण कां सिद्धि थशे नहि. आ दृष्टांतश्री तो नगवाननुं नाम पण न ले जोए ? प्रश्नः-प्रतिमा तो कारीगर बनावे ,ते कारीगरने पण पूजवा जोश्ये ? उत्तरः वेदादि शास्त्र विखारी (लहीया) लखे , तेने पण पूजवा जोश्ए. तेमज साधुनां मात पिताने साधुश्री अधिक पूजवां जोश्ए. प्रश्नः-श्रा कालमां कोश्पण बुद्धिमान् स्थापना मानता नथी. उत्तरः-बुद्धिमान् तो सर्व माने , परंतु मूर्ख मानता नथी. प्रश्नः-कया बुद्धिमान् स्थापना माने ले ? बतावो तेनां नाम ? उत्तरः-प्रथम तो सांसारिक विद्यावाला सर्व बुद्धिमान् , नूगोल, खगोल, हिप, अर्थात् युरोपखंड आदिमां इग्लंड प्रमुखनां चित्र सर्व, स्थापनारूप माने बे, तेमज बनावे बे; तथा ककार आदि जे अदरो ने ते सर्व पुरुषना (ईश्वरना) शब्दनी स्थापना करे बे. वली जैनिउँना मतमा एकसो आठ मणका, मालामा राखवामां आवे , परंतु न्यूनाधिक राखवामां आवता नथी तेनो हेतु ए डे के जैन, बारगुण अरिहंत पदना माने , श्राग्गुण सिक पदना माने जे, बत्रीश गुण आचार्यपना माने , पचीश गुण उपाध्याय पदना माने , अने सत्तावीश गुण साधु पदना माने , सर्व मली एकसो आठ गुण थाय बे; ते वास्ते जैनीना मतमा मालामां जे मणका बे, ते एकेक मणका एकेक गुणनी स्थापना , तेथी आ माला पण स्थापना बे; तेवीज रीतें बीजा मतोमां पण माला, तसबीर बे, ते सर्व कोश्ने को वस्तुनी स्थापना , नहि तो एकसो आठ अथवा एकसो एकनो नियम नहि जोश्ए. वली पादरी लोकोपण पोताना बापेला पुस्तकोमा सामसीह (जीससक्राइस्ट) नी मूर्ति तेज वखतनी उपावे बे, के जे वखते मसीहने शूली उपर देवाने लइ जता हता. ते मूर्त्तिने देखवाथी सामसीहनी सर्व अवस्था ख्यालमां ावी जाय . बस ! स्थापनानुं प्रयोजन तो एज के ते देखवाथी असल वस्तुनुं स्वरूप याद आवी जाय . श्राश्चर्य तो एज डे ३८ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए) जैनतत्त्वादर्श. के वर्तमानमा केटलाएक तुबबुद्धिवाला पोताना बनावेला पुस्तकमां यज्ञशाला तथा यज्ञोपकरणनी स्थापना पोताना हाथथी करीने पोताना शिष्योने जणावे जे के यज्ञोपकरण आ आकृतिनां जोइए, उतां फरी कहे जे के अमे स्थापनाने मानता नथी. हवे विचार करवो जोइए के ते उना करतां अधिक मंदमति कोश् जगत्मां ? पोते स्थापना करे , बतांपि फरी कहे जे के अमे स्थापनाने मानता नथी. ते कारणथी जे पुरुष पोताना शास्त्रना कर्त्ताने देहधारी मानशे, ते अवश्य तेनी मूर्त्तिने पण मानशे, अने जेठ पोताना शास्त्रना उपदेष्टाने देहरहित माने बे, ते अल्पबुद्धिमंत होवाथी प्रमाण अननि बे, कारण के जेने देह नथी, ते शास्त्रना उपदेष्टा कदापि होश् शकता नथी, कारण के देह रहित होवू, अने शास्त्रना उपदेश देवावाला थवू, ए वातमां को पण प्रमाण नथी. वली निराकार, सर्वव्यापी परमेश्वरखें ध्यानपण कोश करी शकतुं नथी, दृष्टांत, जेम आकाशनुं ध्यान. ते कारणश्री अढार दूषणोथी रहित जे परमेश्वर दे, तेनी मूर्ति अवश्य मानवी तथा पूजवी जोश्ए, एवा देव तो अहंतज , ते कारणथी अर्हतनी प्रतिमा मानवी जोइए, परंतु कोश् पुर्बुद्धिमान्ना कुहेतुथी तजवी न जोशए, इति स्थापना. हवे त्रीजा अव्यनिक्षेप, खरूप एवं डे के, जे जीवें तीर्थंकर नाम कर्मनो निकाचित बंध करेलो , ते जीवमां जावि गुणोनो आरोप, श्रर्थात् नविष्यमा तीर्थंकर नगवान् श्रा प्रमाणे थशे, एवो वर्तमानमां तेनामां आरोप करीने वंदन, पूजन करवायी अनेक नव्यजीवोए मोद प्राप्त करेल . चोथो चावनिक्षेप. वर्तमानकालमां सीमंधर प्रमुख तीर्थंकर केवलज्ञानसंयुक्त, समवसरणमा बिराजमान, नव्यजीवोना प्रतिबोधक, चतुर्विधसंघना स्थापक, एवा नाव अर्हत, जेना चरणकमलनी सेवा करीने अनेक जीव मोक्ष प्राप्त करे, आ नाव निदेप बे. आ चारे निदे संयुक्त, एवा जे अरिहंत, देवाधिदेव, महागोप, महामाहण, महानिर्यामक, महासार्थवाह, महावैद्य, महापरोपकारी, करुणासमुख, इत्यादि अनेक उपमा लायक, नव्यजीवोनो अझान अंधकार दूर करवाने सूर्य समान, जेमनां वचन प्रमाणथी श्रविरोधि, एवा मुनिमनमोहन, योगी Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम परिछेद. (शएए) श्वर, चिदानंदघनरूप, अरिहंतने हुँ देव अर्थात् परमेश्वर मार्नुछ, तेनी सेवा करूं, तेनी आज्ञा शिरपर धारण करुं, एम जे मानवं ते प्रथम व्यवहार शुद्ध देवतत्व बे. बीजा निश्चय शुद्ध देवतत्त्वनुं खरूप कहीयें बीये. जे शुद्ध श्रात्मस्वरूपनो अनुभव करवो, ते शुद्धात्मखरूपज निश्चय देवतत्त्व जे. केर्बु डे ते आत्मखरूप ? पांचवर्ण, बे गंध, पांच रस, आठ स्पर्श, शब्द, किया, तेथी रहित, तथा योगथी रहित, अतींजिय, अविनाशी, अनुपाधि, अबंधी, अक्लेशी, अमूर्ति, शुद्ध चैतन्य, ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि अनंतगुणो, जाजन, सच्चिदानंद खरूपी एवो मारो आत्मा , तेज निश्चय देव बे. हवे बीजा गुरुतत्त्वनुं स्वरूप कहीयें बीये. तेना पण बे नेद .१ शुक व्यवहार गुरु, ५ शुकनिश्चय गुरु. तेमां शुरू व्यवहारगुरुनु स्वरूप तो गुरुतत्व निरूपण परिबेदमा लखी आव्या बीए, त्यांथी जाणी लेवु. एवा साधुने गुरु करी माने. एवा गुरुनी आज्ञा मुजब प्रवर्ते. एवा मुनिने पात्र बुद्धिथी शुभ अन्नादि आपे, इति व्यवहारशुद्धगुरुतत्त्वस्वरूप. निश्चय गुरुतत्त्व तो शुझात्मविज्ञानपूर्वक . हेयोपादेय उपयोगयुक्त जे परिहार प्रवृत्तिज्ञान ते निश्चय गुरुतत्त्व . त्रीजा धर्मतत्व- स्वरूप कहीयें बीयें, धर्मतत्त्वना पण बे नेद . १ व्यवहारधर्मतत्त्व, निश्चयधर्मतत्त्व. तेमां व्यवहाररूपधर्म दया मुख्य बे. अने सत्यादि व्रत सर्व दयानी रक्षावास्ते बे; ते कारणथी दयानुं स्वरूप लखीए बीए. दयाना आप नेद . १ अव्यदया, २ जावदया, ३ स्वदया, ४ परदया, ५ स्वरूप दया, ६ अनुबंध दया, ७ व्यवहार दया, न निश्चय दया. १अव्यदयानुं स्वरूप एवं डे के सर्वकाम यत्नापूर्वक करवां. जैनमत वालाउँनो था कुलधर्म . सर्व जैनसमुदाय प्राणी गलीने पीए , अन शोधीने खाय बे, जे को जैनी बल कपट करे , असत्य बोले बे, विश्वासघात करे बे, ते पापी जीव बे, अने ते जैनमतने कलंकित करेबे. ते सर्वदोष, ते जीवनाज डे, जैनमतनो तेमां कांपण दोष नथी. जैनमत तो एवो पवित्र डे के जेमां कांपण अनुचित उपदेश नथी, श्रा Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) जैनतत्त्वादर्श, वात सर्वसुज्ञ जनोने विदित . ते कारणथी जे जे काम करवां ते सर्व यत्तापूर्वक जीवरक्षाथी करवां ते अव्यदया समजवी. २ बीजी जावदया. बीजा जीवोने गुणप्राप्ति वास्ते, तथा उर्गतिमां पडतां जीवोना रक्षणवास्ते, अंतःकरणमां अनुकंपा बुद्धिसंयुक्त तेर्डने हितोपदेश करवो ते नावदया . त्रीजी स्वदया. पोताना आत्मानी. अनादि कालथी मिथ्यात्व अशुद्ध उपयोग, अशुद्धश्रद्धानपूर्वक अशुद्धप्रवृत्ति, तथा कषायादि नाव शस्त्रोश्री समये समये, आत्माना ज्ञानादिगुणोरूप जावप्राणोना घातरूप, हिं. सा थया करे , एवी जिनेश्वर जगवान्नी वाणी श्रवण करवाथी पूर्वोक्त नावशस्त्रोनो त्याग करीने, स्वसत्तामा प्रवृत्ति करीने, शुद्धोपयोग धारण करीने, विषय, कषायथी दूर रहीने, अने शुज अशुज कर्मफलना उदयमां अव्यापक रहीने अर्थात् सुखःखमां हर्षविषाद न करता, प्रतिक्षण अशुज कर्मने निदान दूर करवानी जे चिंता तेनुं नाम स्वदया . आ स्वदयानी रुचिवाला जीव पोतानी परिणति शुद्ध करवा वास्ते जिनपूजा, तीर्थयात्रा, रथयात्रा प्रमुख शुजप्रवृत्ति करे, बहुमान पू. र्वक जिनगुणामृतनुं पान करे, असत् प्रवृत्तिथी चित्तने हगवी तत्त्वावलंबी करे, पुजलावलंबीपणुं हगवे, आ शुन आश्रवमां यद्यपि देखवामां केटलाएक जीवोनी हिंसा मालम पडे बे, तोपण आत्मानी अशुद्ध परिणति दूर थवाथी आत्मा गुणग्राही थाय बे, ज्यारे गुणग्राही थाय बे, त्यारे ज्ञानवान् थाय बे, ते कारणथी सर्वसाधक जीवोने आ स्वदया परम साधन . या स्वदया वास्ते साधुपण नवकल्पी विहार करे , उपदेश आपे , चर्चा करेजे, तथा पूजन, प्रतिलेखन करे . यद्यपि नदी नाला उतरतां तथा अन्य कार्यपरत्वे योगोनी चपलताथी आश्रव थाय , तोपण चेतनस्वरूप अनुयायी रहे, जिनाझा पाले , कषाय स्थानमंद करे , स्वबंदता दूर करे बे, अने धर्म प्रवृत्तिनी वृद्धि करे . आ स्वदया वास्ते साधुपण शुजाश्रव पोताना कल्पप्रमाणे आचरण करे बे, परंतु श्रा आश्रव साधक दशामां बाधक नथी. ४ चोथी परदया, अर्थात् ब कायना जीवोनी रक्षा करवी. ज्यां स्वदया ले त्यां परदया निश्चयपूर्वक बे, अने ज्यां परदया बे, त्यां Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमस परिवेद. (३०१) खदयानी जजना बे, अर्थात् होय पण खरी श्रने न होय पण खरी. ५ पांचमी खरूपदया. श्ह लोक, परलोकना विषयसुखवास्ते तथा लोकोनी देखादेखीश्री जे जीवनी रक्षा करवी ते खरूपदया . आ दयाथी विषयसुख तो प्राप्त थायडे, परंतु देडकाना चूर्णनी जेम संसारनी वृद्धि थाय ने. खरूपदया देखवामां दया बे, परंतु जावें हिंसाज . . ६ बही अनुबंधदया. श्रावक मोटा आडंबरथी मुनिने वांदवा वास्ते जाय, तथा उपकार बुद्धिथी बीजा जीवोने सन्मार्गमा लाववावास्ते ताडना तर्जना करे, कोश्ने शिक्षा पण आपे. ए प्रमाणे करतां, देखवामां तो हिंसा बे, परंतु अंते खपरने लाजनुं कारण होवाथी दया . वली साधु, आचार्य पोतानां शिष्य शिष्याउँने तेउनीनूल याद करावे , योग्य प्रसंगें शिक्षा करे , कोश्ने अनुचित करतां निवारे , कोश्ने एकवार कहे , कोश्ने वारंवार कहे , तथा शिदा करे , को उपर क्रोधपण करे , शासनना प्रत्यनीकने पोतानी लब्धियी दंडपण आपे , इत्यादि कामोमां यद्यपि हिंसा देखाय बे, तो पण फल दयानां बे. सातमी व्यवहारदया. जे विधिमार्ग अनुयायी जीवदया पाले, सर्व क्रियाकलाप उपयोगपूर्वक करे ते व्यवहारदया बे. आग्मी निश्चयदया. शुद्ध साध्य उपयोगमा एकत्वनाव, अन्नेद उपयोग, साध्यानावसां एकताज्ञान, ते निश्चयदया. आ दयाथी उपरना गुणस्थानकोमा जीव आरोह करे , तेथी था दया उत्कृष्ट ने; इत्यादि अनेक प्रकारथी दयाना खरूपविज्ञानपूर्वक, सूत्र, नियुक्ति, नाष्य, चूर्णी, वृत्ति पंचांगी सम्मत, प्रत्यदादि प्रमाणपूर्वक, नैगमादि नय, नामादि निदेप, सप्तनंगी, ज्ञाननय, क्रियानय, निश्चय व्यवहार नय, तथा अव्यार्थिक पर्यायार्थिक नय, इत्यादि उजय जावमा यथावसरें अर्पित, श्रनर्पित नयनिपुणताथी, मुख्य गौण नावें उन्नयनयसम्मत, शुभस्याद् वादशैलीविज्ञानपूर्वक, श्रीसिद्धांतोक्त दान, शील, तप, जावनारूप शुजप्रवृत्ति तेनुं नाम शुक्रव्यवहार धर्म कहियें. बीजो निश्चय धर्म. ते पोताना आत्मखरूपने जाणवू तथा वस्तुना स्वजावने जाणवो, जेम के मारो आत्मा शुद्ध चैतन्य रूप, असंख्यात प्रदेशी, अमूर्त, स्वदेहमात्रव्यापी, सर्व पुजलोथी जिन्न, अखंड, अलिप्त, Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०२) जैनतत्त्वादर्श. झान, दर्शन, चारित्र, सुख, वीर्य, श्रव्याबाध, सचिदानंदादि अनंत गुणमय, अविनाशी, अनुपाधि, अविकारी . तेनाथी विलक्षण जे परपजलादि ते मारा नथी. ते पुजलना पांच विकार , १ शब्द, ५ रूप, ३ रस, ४ गंध, ५ स्पर्श, आ पांचना उत्तर नेद अनेक बे. आलोकाका. शमां उद्योत, अंधकार, शब्द, सर्वरूपी वस्तुनी बाया, रत्ननी कान्ति, शीत, धूप, नानाप्रकारना रंग, रूप, संस्थान, नानाप्रकारना सुगंध, पु. गंध, नानाप्रकारना रस, सर्वसंसारी जीवोना देह, नाषा, मनना वि. कल्प, दशप्राण, ब पर्याप्ति, हास्य, रति, अरति, लय, शोक, जुगुप्सा, खुशी, उदासि, कदाग्रह, हठ, लडाइ, क्रोधादि चार कषाय, शाता, अ. शाता, उंच, नीच, निजा, विकथा, सर्वपुण्य प्रकृति, सर्वपापप्रकृति, रीज, मोज, खीज, खेद, ब वेश्या, लाजालाज, यश, अपयश, मूर्खता, त्रणप्रकारना वेद, कामचेष्टा, गति, जाति, कुल, इत्यादि आवे कर्मनां विपाक फल. या सर्व बाबतो जीवने अनुजव सिद्ध बे, अने सूदमपुजल इंघिय अगोचर , ते परमाणु आदि अनेक तरेहना बे. पूर्वोक्त पुलना संयोगथी जीव चारे गतिमां चटके . आ पुजल मारी जाति नथी, आ पुजलनो मारी साये कां वास्तव संबंध नथी, आ पुजल सर्व त्यागवा योग्य , जे आ पुजलनो संसर्ग ने तेज संसार , आ पुशलनी संगतथी ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि गुण बगडी जाय , जे श्रा पुजल अव्यनी रचना ते मारा श्रात्मानो स्वन्नाव नश्री, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, श्राकाशास्तिकाय, काल, आ चारे अव्य ज्ञेयरूप बे, परंतु हुं ते सर्वश्री अन्य बुं, ते मारा नहि, हुं तेनो नहि, हुं तेउनो साथी पण नहि, हुं मारा स्वरूपनोज स्वामी बु, मारो स्वन्नाव सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप , वर्णरहित, गंधरहित, रसरहित, स्पशरहित, चैतन्यगुण, अनंत, अव्याबाध, अनंत दान, लाज, जोग, उपजोग, वीर्यादि अनंतगुणस्वरूप में, तेजेनी श्रझा, नासन, रमणतारूप चिदानंदघन मारो स्वन्नाव जे. एवो जे मारो पूर्णानंद स्वन्नाव, ते प्रगट करवावास्ते सर्व शुरु व्यवहारनय निमित्तमात्र बे, परंतु मुख्य तो मारा स्वनावमा जे रमणता करवी तेज शुद्ध साधन , तेज धर्म . शति निश्चयधर्मस्वरूप. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम परिबेद. (३०३) श्रा त्रणे तत्त्वनी जे निश्चल परिणतिरूप श्रद्धा ते सम्यक्त्व कहेवाय बे. जे जीवने ए प्रमाणे बोध न होय ते जीव जो कदी पक्षपात रहित, एम मनमा धारे के “ तं सवं निस्संकं, जं जीणेहिं पवेश्यं - त्यादि" जे जिनेश्वर जगवाने अर्थ कह्या बे ते सर्व निःशंकित सत्य , तो तेनी एवी तत्त्वार्थश्रद्धा पण सम्यग्दर्शन कहेवाय बे. तेनाथी विपरीत ते मिथ्यात्व कहेवाय . या मिथ्यात्वनुं खरूप नवतत्वखरूपमा लखी श्राव्या बीए त्यांची जाणवू. मिथ्यात्वनो त्याग तेज सम्यक्त्व कहेवाय . इति व्यवहारसम्यक्त्वस्वरूप, हवे निश्चय' सम्यक्त्वनुं स्वरूप लखीए बीए. पूर्वे निश्चय देव, गुरु अने धर्मनुं जे स्वरूप कडं , तेज निश्चय सम्यक्त्व जे. जे जीव चार अनंतानुबंधी कषाय, सम्यक्त्व मोह, मिश्रमोह, मिथ्यात्वमोह, श्रा सात प्रकृतिनो उपशम, क्षयोपशम, तथा कय करे तेने निश्चय सम्यकत्व थाय बे. निश्चय सम्यक्त्व परोदज्ञाननो विषय नथी, केवली जाणी शके बे, के श्रा जीवने निश्चय सम्यक्त्व . आ सम्यक्त्व प्रगट थतां जीवने नरक, तिर्यंच, आ बंने गतिना आयुनो बंध थतो नथी. हवे सम्यक्त्वनी करणी लखीये बीयें. सम्यक्त्वी जीव नित्य योगवा मलतां, तथा शरीरमां व्याधिनो अनाव उते, जिनप्रतिमानां दर्शन कर्या पली नोजन करे, जो जिनप्रतिमानो योग न मले तो पूर्व दिशि सन्मुख बेसी वर्तमान तीर्थंकरोतुं चैत्यवंदन करे, जो रोगादि विघ्नथी दर्शन न थाय तो जेउँने आगार बे, तेजेना नियमनो जंग थतो नथी. जिनेश्वर जगवान्ना मंदिरमा दश मोटी आशातना अवश्य वर्जे. तेनां नाम. १ तंबोल, फल प्रमुख खावानी वस्तु नगवान्ना मंदिरमां खाय नहि, २ पाणी, उध, बाश, अर्क प्रमुख पीये नहि, ३ नोजन करे नहि, ५ मंदिरनी अंदर उपानह प्रमुख लावे नहि, ५ स्त्री आदि संग मैथुन सेवे नहि, ६ शयन करे नहि, ७ धुंके नहि, लघुशंका करे नहि, ए जंगल (दिशा) जाय नहि, १० मंदिरमा जुगार, चोपट, चित्तरंज प्रमुख खेले नहि. आ दश धाशातना टाले, तथा उत्कृष्टी चोराशी आशातना वर्जे. वली एक मासमां आटला फुलहार चढावू, एकमासमां आटवू घी आपुं, एकवर्षमां श्रा Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०४) जैनतत्त्वादर्श. टला अंगलूहणां आपुं, वर्षमा पाटर्बु केशर, चंदन, बरास, कपुरप्रमुख जगवान्नी पूजामां वापरुं, धूप, अगरबत्ति उखेमू, अक्षत, नैवेद्य, फल पूजा था प्रमाणे करूं, धनने अनुसार वर्षमा आटली अष्टप्रकारी, सत्तर प्रकारी पूजा रचावू, वर्षमां आटला रुपैया साधारण व्यमा खरचं, वअमां आटवू अव्य पूजावास्ते खरचुं, दिनदिन प्रति एक नवकारवाली अर्थात् माला पंचपरमेष्टि मंत्रनी, मोक्षानिमित्त जपुं, दिनप्रति रोगना अनाव बते नमस्कार सहित बे घडी दिन चडे त्यांसुधी चार आहारतुं प्रत्याख्यान करूं, रात्रिमा विहार प्रत्याख्यान करूं, रोगादिकारणे न थश् शके तो श्रागार, वर्षप्रति आटला साधर्मी बंधुजने जमाडं, ए प्रमाणे सम्यक्त्व पादुं; तथा सम्यक्त्वना पांच अतिचार डे ते टावं. ते पांच अतिचार्नु स्वरूप कहिये लियें: १ प्रथम शंका अतिचार. जिनवचनमा शंका न करवी, कारण के जिनवचन बहुज गंजीर ; ते सर्वना यथार्थ अर्थ समजावनाराका . लमां को गुरु नथी, वली शास्त्रो जे जे ते अनंतनयात्मक बे. ते मां गणतरी तथा संज्ञा विचित्र तरेहनी . को स्थडे कोडीशब्द कोडनो वाचक , तो कोई स्थलें रूढी वस्तुवाचक , कारण के श्रीनगणि क्षमाश्रमण सर्वसंघना सम्मत आचार्य, संघयणनामा पुस्तकमां तथा विशेषणवती ग्रंथमा लखेने के, कोश्क आचार्य कोडी शब्दने क्रोडनो वाचक मानता नथी, परंतु संज्ञांतर मानेडे, वर्तमान कालमां वीशने पण कोडी कहे, तथा सोरठ देशमां पांच आनाने पण कोडी कहेले. जेवो श्रा कोडी शब्दमा मतांतर बे, तेवी रीतें शत, सहस्र शब्दोपण को संज्ञाना वाचक होय तो कांश दोष नथी. वली शत्रुजय तीर्थमां ज्यां मुनि मोद गयेला बे, त्यां पण पांच कोडी श्रादिशब्दोनी को संझा , तेवीजरीतें बप्पन कुलकोडी जादव कहेवायचे, त्यांपण यादवोना उप्पन कुलोनी कोडी को संज्ञा विशेष , एजप्रमाणे शास्त्रोमां सर्वस्थलें चक्रवर्तिनी सेना, तथा कोणिक चेटक राजाउनी सेनामा जे कोडी तथा शत सहस्र शब्दो बे, ते संझाविशेषवाचक संजव थायडे, ते कारणथी सर्व शब्दोना सर्वस्थलें एकसरखा अर्थ मानवा युक्त नथी. था-कथनमां पूज्यश्री जिनजगणितमाश्रमण पुरा सादो आपनारळे Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१२ ) जैनतत्त्वादर्श. 3 सूरि कुमारपाल राजाने बहार लाव्या. राजायें पुब्धुं के महाराज ! तमासो बहुज आश्चर्यकारी बे. सूरिजीए कयुं के हे राजन् ! इंद्रजालनी विद्या जेर्जने आवडती होय, ते एम करी शके बे. इंद्रजाल विद्यानां सत्तावीश पीठ बे, तेमांथी सत्तर पीठ शंसारमा प्रचलित बे, परंतु सत्तावीशे पीठ हुं जाएं बुं, हाल बीजो कोइपण जारतवर्षमां जातो नथी, अने जे गुरुर्जए श्रमने ते विद्या श्रपी हती, तेमणें एवी श्राज्ञा पण करेली से के, जविष्यमां या विद्या तमारे कोइने पण देवी नहि कारण के विद्याथी मोटो अनर्थ उत्पन्न यशे, सारांश के श्रा कालमां जीव तुछ बुद्धिवाला होवाथी तेने या विद्या जरशे नहि, वली तेज कारणथी अमारा श्राचार्योंए योनिप्रानृत शास्त्र विछेद करी दीघेलां बे, ते योनि प्रानृतने अनुसारें था इंद्रजाल रची शकाय डे. श्रा योनिप्रानृतनुं कथन व्यवहार जाष्यचूर्णीमां करेलुं बे, ज्यां लख्युं ने के या योनिप्रानृतमां तंत्रविद्या बे, जेनाथी सर्प, घोडा, हाथी विगेरे जीवतां जानवर, वस्तुना मेलापथी बनी शके बे, तथा सुवर्ण, मणि, रत्न प्रमुखपण बनी शके बे. या मशालामांज एवी मिलनशक्ति बे के मरजीमां आवे ते बनावी व्यो ? ते कारणथी वर्त्तमानमां नवीन वस्तुने देखीने कोइए जैनधर्मथी चलायमान न थवं जोइए. तत्त्वार्थना महाजा मां सामंत श्राचार्य पण लखे वे के इंद्रजालीया तीर्थंकरनी समान बाह्यरुद्ध सर्व बनावी शके बे, ते कारणथी कोइ बाबतमां चमत्कार देखी जिनवचनमां शंका न करवी. वली केटलाएक जैनमतवालाउने श्रा पण आश्चर्य बे के, ज्यारे आर्यावर्त्तमां बे प्रहर दिन होय बे, त्यारे अमेरिकामां अर्धरात्रि होय बे, ज्यारे अमेरिकामां बे प्रहर दिवस थाय बे, त्यारे आर्यावर्त्तमां श्र रात्रि थाय बे, ते बाबतना चोकस समाचार तारनी मददथी तेमज घडीयाला साधनथी मेलवी शकाय बे. या वातनो यथार्थ उत्तर हुं पी शकुं तेम नथी. मारी श्रद्धा एवी पण नथी के पूर्व श्रचायनी शाहादत शिवाय समाधान करूं, कारण के मात्र मारी कंल्पनाथी कां जैनमत सत्य थइ शकतो नथी, जैनमत तो पोताना स्वरूपथीज सत्य बनशे, जो मारी कल्पनाज जैनमतनी सत्यतानुं कारण होय तो, कोइ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम परिछेद. (३१३) पूर्वाचार्यनी अपेक्षाज रहेशे नहि, वली जेना मनमा जे अर्थ सारो लागशे ते अर्थ बनावी लेशे. जेम वर्तमानमां को पाखंडी मस्कराए झग आदि वेदो उपर स्वकपोल कल्पित टीका बनावेली , ते अमे वांची पण जे तेए वेदमंत्रादि उपर जे भाष्य बनाव्यु बे, ते मंत्रोना अर्थमां एवं लखेलुं डे के "अग्निबोट" अर्थात् वरालयंत्रथी चालनारां वहाण, तथा रेलगाडी चालवानो विधि, तथा पृथ्वी गोल , ते सूर्यनी चारे बाजुए फरे , अने सूर्य स्थिर , इत्यादि अंग्रेजोए पोतानी बुद्धिना बलथी जे नवीन शोधनी विद्या बहार पाडी जे, ते सर्व विद्यानुं वेदोमां कथन . पोताना शिष्योने वेदतुं महत्त्व बताववा वास्ते खकपोलकल्पित अर्थ बनावी लीधा बे; अने पूर्व महीधरादि पंडितोए वेदो उपर जे दीपिका तथा नाष्यो रचेला तेउनी निंदा तेमज मूर्खता प्रगट करेली बे. जेमके ते मूर्ख हता, तेउँने वेदना अर्थ आवडता न होता. प्रश्नः-पूर्वना श्रर्थ बोडीने नवीन अर्थनी रचना करवातुं शुं कारण ? उत्तरः-प्रथम तो वेदो उपरनां प्राचीन नाण्य, तेमज दीपिका मानवाथी वेदोनी सत्यता, ईश्वरोक्तता तेमज प्राचीनता सिद्ध थती न होती. ते कारणथी ईशावास्य उपनिषद् वर्जीने, सर्व उपनिषदो, सर्व ब्राह्मण नाग, सर्व स्मृति, पुराणादि शास्त्र, जाष्य, दीपिकादि मानवां तजी दीधा, तेमणे एवो विचार कयों के पूर्वोक्त सर्व ग्रंथो मानवाथी अमारो मत बीजा मतवाला खंडित करी देशे, कारण के पूर्वोक्त सर्व ग्रंथो युक्ति प्रमाणथी विकल बे, वली प्राचीनोए जे अर्थ करेला , तेमां केटलाएक अर्थ एवा बे के जे श्रवण करवाथी श्रोताजनोने लगा उत्पन्न थाय बे, कारण के महीधरकृत दीपिका जे वेदनी टीका डे, तेमां मंत्रादिना जे अर्थ लखेला , तेमां लख्युं ले के यज्ञपत्नी घोडार्नु लिंग पकडीने पोतानी योनिमां प्रक्षेप करे, इत्यादि अर्थ . तेनुं वर्णन श्रागल उपर लखीश. ते अर्थाने बोडवावास्ते, अने वेदो खंगन न थाय ते वास्ते खकपोल कल्पित जाष्य बनावी अंग्रेजादि पाश्चिमात्यनी रीतिमुजंब तथा इंजिल मतानुसार अर्थ बनाव्या बे, परंतु वेदादिवेत्ता बुद्धिमान् पुरुषो तो को ते मानता नथी, अने जेठ माने ते कांश Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२४) जैनतत्त्वादर्श. वेदादि जाणता नथी, कारण के ज्यारे पूर्वना ऋषि मुनि, पंडित असत्यवादी तेमज तेऊना बनावेला अर्थ असत्य बे, त्यारे वर्तमानना बनावेलाउँना अर्थ केवीरीतें सत्य करी शकशे ? जे मूलमांज असत्य ने ते नवीन रचनाथी कदापि सत्य थवाना नथी. ते कारणथी पोतानी बुछिनो विचार सत्य मानवो, अने वेदोने माननारा प्राचीन संप्रदाय वालाना अर्थ जूहा मानवा, तेनाथी अधिक अविवेक तथा अन्याय शिरोमणि पणुं बीजु कयुं ? वली ज्यारे प्राचीनोना बनावेला अर्थ जूग करशे, त्यारे तेऊना बनावेला वेदो पण जूगर उरशे, ते कारणथी जेर्ड मतधारी , तेर्जए कां तो पोताना प्राचीनोना कथन करेला अर्थ मानवा जोश्ए, अथवा तो ते मतने तेमज तेमतनां शास्त्रने तजी देवां जोए, अने तेज कारणथी मारी एवी श्रझा के जैनमतमा जे प्रामाणिक तेमज पंचांगी कारक आचार्य लखी गया में तेजेने अनुसारज मारे कथन करवु जोश्ए, खकपोलकल्पित कदापि नहि. जे स्वकपोल कल्पित करशे तेमज मानशे, ते कदापि जैनमतवालो बनी शकशे नहि, अने तेनी कल्पना पण सर्वथा सत्य उरशे नहि, कारण के पूर्वाचार्य ज्यारे जूग , त्यारे नवीन कल्पनावाला केवीरीतें साचा उरशे ? ते सर्व कारणथी पूर्वना प्रश्ननो उत्तर पंचांगी प्रमाणथी हुँ श्रापी शकतो नथी, कारण के १ शास्त्रो बहुज विछेद गया बे, तथा श्ार्यरक्षितसूरिना समयमांचारेअनुयोग तोडीने पृथक् पृथक् अनुयोग रचवामां आव्या ने, तथा ३ स्कंधिल आचार्यना समयमां बार वर्ष सुधी अकाल पड्यो हतो ते वखतमां शास्त्रो बहुज विस्मृत थवा लाग्यां, जेथी सर्व साधुए दक्षिण मथुरामां समाज करी, जे प्रसंगे जे जे आचार्य तथा साधुऊने जे जे शास्त्रनां जे जे स्थल,स्मृतिमा रह्यां इतां ते ते स्थल एकत्र करी लखवामां आव्यां,बादध देवर्किगणि दमा श्रमण प्रवृति आचार्योए पानाउपर एक क्रोड ग्रंथो लख्या, बाकीना तजी दीधा, ५ प्रजावकचारित्रमा लख्यु डे के, सर्व शास्त्रो उपर टीका लखी हती, जे सर्व विछेद गश्, तथा ६ ब्राह्मणो अने बौछोए तो ग्रंथोनो बहुज नाश कर्यो, तथा ७ मुसलमानो ए पोताना समयमां सर्वमतनां शास्त्रोमाटीमां मेलवी दीधां, अंनेक सलगावी दीधां, शेष रह्यां ते जंडारोमां गुप्त रहेवाथी गलीगयां, अने व Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम परिछेद. (३१५) र्तमानमांजे नंडारोमा पडेलां , ते सर्व अमे वांचेला नथी, आटला श्राटला उपजवो जैनशास्त्रो उपर वीतवाथी अमे सर्व शंकाउँनुं केवी रीतें समाधान करी शकीए ? ते कारणथी जैनमतमां शंका न करवी. श्रमे सर्व मतनां शास्त्रो अवलोकन करेला बे, परंतु जैनमतसमान अति उत्तम मत बीजो कोश्पण मारा देखवामां आव्यो नश्री, तेथी आ मतमा दृढ रहे जोश्ए. १ शंका अतिचार ते कहेवाय , जेम के जिनवचनोमां शंका करवी अर्थात् जिनेश्वर लगवाने कथन करेला नाव सत्य हशे के नहि ? श्रा प्रथम अतिचार डे. २ बीजो आकांक्षा अतिचार. अन्यमतवालाउँनां अज्ञानकष्ट देखी, तेमज को पाखंडीना विद्यामंत्रना चमत्कार देखी, तेमज पूर्वजन्मना अज्ञानकष्टथी फल पामेला अन्यमतवालाउँने सुखी तेमज धनवान् देखी मनमां विचारे के अन्यमतवालार्जुना धर्म तथा ज्ञान सारांबे, जेना प्रजावधी, ते धनवान् , सुखी, तथा पुत्रादि परिवारवाला थाय , ते कारणथी हुँ पण तेऊनोज धर्म अंगीकार करुं, जेथी हुँ पण धनवान् तेमज पुत्र परिवारवालो थालं. श्राकांदा अतिचार तेज जीवोने लागेले, जे जीवोने जैनधर्मनो बहुज सारी रीतें बोध होतो नथी. कारण के जैनधर्मवाला पण सर्व दरिजी तथा पुत्रादि परिवारथी रहित नश्री, तेमज अन्यमतवाला पण सर्वे धनवान् तेमज परिवारवाला नथी, सारांश के सर्व पोतपोतानां पूर्वनां तथा जन्मांतरनां करेला पुण्य पापनां फल जोगवे जे. जुर्म के केटलाएक, मनुष्यजन्ममां साते कुव्यसननो सेवनारां बतां धनवान् , अने केटलाएक कसार, खाटकी इत्यादि नीचधंधानां करनारां पण धनवान् तेमज पुत्रादि परिवारवाला तेमज सुखी बे, अने केटलाएक या अवस्थाथी विपरीत , ते कारणथी मात्र तेज सत्य डे के दरेकजीव पोताना पूर्वना तेमज जन्मांतरना सुकृत पुष्कृतद्वं फल जोगवे बे, मात्र था जन्मनां कृत्योर्नुज फल जोगवता नथी. सर्व मतोमां राजाज थ गया बे, तेमज रंक पण बहुज , ते कारणथी बीजा मतनी बाकांदा न करवी. जो करी ए तो बीजो अतिचार, । ३त्रीजो वितिगिजा नामे अतिचार बे. जे जीव पोतानां पूर्वजन्मनां करेलां पापोना उदयथी कुःख जोगवे , त्यारे एवो विचार करे Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१६) जैनत्तत्त्वादर्श. के हुं जे धर्म करूं तुं, तेनुं फल मने शुं मलशे ? अर्थात् धर्मनुं फल मने मलशे के नहि ? वली जेट धर्म करता नथी, ते सुखी बे, घने हुं धर्म करूं, बतांपि दुःखी हुं, ते कारणथी कोण जाणे धर्मनुं फल दशे के नहि ? तथा साधुनां मलिन शरीर तथा मलिन वस्त्र देखीने मनमां डुंगंबा करे के साधु सारा नथी, कारण के तेमनुं शरीर गंडु बे तथा तेमनां वस्त्र पण गंदां बे. ते संसारथी केवी रीतें तरी शकशे, जो ते उष्णजलथी स्नान करे तो तेथी कयुं महाव्रत तेनुं जंग थाय बे ? उत्तरः- जो धर्मनुं फल न होय तो, संसारनी विचित्रता कदापि न होय, ते कारणथी धर्मनुं फल अवश्यमेव बे. वली साधु जे मलिन वस्त्र राखे बे, तेनुं कारण ए बे के सुंदरवस्त्र राखवाथी मन श्रृंगार रसने चहाय बे. वली स्त्रियो पण सुंदर वस्त्रवालाउने देखी ने तेजनी साथे जोग जोगवनी इछा करे बे. ते कारणथी शियल पालवानी इछा राखनारा साधुए शृंगार करवो वास्तविक नथी. वली स्नान, कामनुं प्रथम अंग बे, तेथी साधुउने उचित नथी, अने कोइ कारण प्रसंगें साधु हाथ, पगादि धोवे तो ते कां दूषण नथी, वली साधुर्जने पोतानां शरीर उपर ममत्व पण नथी, छाने शुचिमात्र स्नान तो साधु करे बे. परंतु शरीरना सुखवास्ते. तथा शरीरने चमकाववा वास्ते स्नान करता नयी, कारण के जैनिउनी एवी श्रद्धाज नथी के स्नान करवायी पाप दूर थ जाय बे. जलस्नानथी शरीरनो मेल दूर थाय बे, शरीरनो ताप मटी जाय बे, अने आलस दूर थाय बे, परंतु पाप तो दूर यतुं नथी, जो जल स्नानथी पाप दूर तुं होय तो, अनायासें सर्व जीवनी मुक्ति थर जाय, कारण के एवं कोइ नथी जे जल स्नान करतुं नथी. वली साधुने मेला समजवा, ते पण मोटी मूर्खता डे, कारण के शरीरें मेल होवाथी श्रात्मा मलिन यतो नयी श्रात्मातो मात्र पापकरवाथीज मलिन थाय बे. वली जगत् व्यवहारमां मेलापणुं स्त्री साथै संजोग करवाथी, तेमज कोई मलिन वस्तुनो स्पर्श करवायी मानवामां आवे छे, छाने साधुतोते सर्व वस्तुना त्यागी बे, तेथ मेला कहेवाय नहि, बलके साधु ने धन्यवाद देवो जोइए, केमके ताप पडे बे, लू वाय बे, पसीनो वहे बे, बतांपि साधु उघाडा पगे तेमज खुले मस्तके विहार करे बे, रात्रियें मात्र बाजेला मकानमां सुवेडे, Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम परिवेद, (३२७) पंखा करता नथी, कोमल शय्या तेमज पलंग पर सुता नथी, रात्रिए जलपण पीता नथी, दिवसेंपण उष्ण जल पीये बे, आ प्रमाणे तेनुं नारे तप . तेथी उलटा जे साधु बनी बेग ने, अने गरमी लागे त्यारे पाडानी पेठे सरोवरमा जश् पडे बे, एवा सुखशी विधा शुं तरी जशे ? जेठने कोश् वातनो नियम नश्री. वली हाथी, घोडा, रेल प्रमुखनी खारि करवी, सर्व प्रकारनां फलनक्षण करवां, धन राखवां, मकान बांधवां, खेती करवी, कराववी, गाय, नेस, हाथी, घोडा प्रमुख जानवर तथा रथादि अने शस्त्रादि सरंजाम राखवा, बल, बलथी लोको पासेथी धन लेवां, स्त्री साथे 'विषयसेवन करवां, सुंदर खानपान करवां, मांसनदण करवां, मदिरापान करवां, नांगना रगडा, चरसनी चलमो उडाववी, हाथपग तथा शरीरने वेश्यानी जेम चमकाववां, चित्तमां मोटा अनिमान राखवां, दंड पीलवा, कुस्ती करवी, इत्यादि अनेक साधुऊने अनुचित कामो करवां, बतां श्री श्री खामिजी महाराज बनीठणी बेसवं, अमे महंत श्ए, अमे गादिपति झए, अमे जहारक श्ए, अमे श्रीपूज्य श्ए, श्रमे जगत्नो उझार करीए बश्ए, अमे महान् अ तब्रह्मवेत्ता अश्ए, श्रमे शुभ ईश्वरनी उपासना बतावीए बश्ए, अमे मूर्तिपूजन पाखंडनो नाश करीए बश्ए. हवे जव्य जीवोए विचार करवो जोशए के, पूर्वोक्त कुगुरुज शुं जल स्नान करवाथी संसार समुश्री तरी जशे ? अने जेठ, जीवहिंसा, असत्य, चोरी, मिथुन तेमज परिग्रह, श्रा पांचेना त्यागी, शरीरना ममत्वरहित, प्रतिबंधरहित, कामक्रोधना त्यागी, महातपखी, मधुकर वृत्तिथी निदा लेनारा, इत्यादि अनेक गुणोथी सुशोजित, शुं जल स्नान नहि करवाथी पातकी थजशे? कदापि थशे नहि. ते कारणथी साधुऊने देखी जुगुप्सा न करवी, जो करे तो त्रीजो अतिचार. __ चोथो मिथ्यादृष्टिनी प्रशंसारूप अतिचार . जिनप्रणीत श्राज्ञाथी जे बहार ले ते मिथ्यादृष्टि , कारण के सर्वज्ञनां कथन करेलां वचनो ते मानता नथी, अने असर्वज्ञनां कथन करेलां वचनो सत्य माने , वती असर्वज्ञप्रणीत शास्त्रोमां जे अयोग्य वातो कहेली , तेजेने बुपाववा वास्ते खकपोलकल्पित जाण्य, टीका, अर्थ बनावी मूर्ख लोकोने बहेकावी Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१८ ) जैनतत्वादर्श, गप्पा मारता फरे बे, वली जेटने धर्मनियम कां पण नथी, अने अनाथ पशुने मारि जाणे बे, तथा धूर्त्तपणाथी साचो डोल धारण करी मूखोंने मिथ्यात्व जालमा फसावे बे, एवा मिथ्यादृष्टि बे; तेर्जनी प्रशंसा क रवी, तथा जिनाज्ञा बहार एवा अज्ञान कष्ट करनाराने कहें के, अहो ! केवा महान् तपस्वी बे! महापुरुष बे ! महापंडित बे ! तेर्जनी बराबरी करी शके तेवा कोण बे ? तेर्जए धर्मनी वृद्धि वास्तेज श्रावतार धारण करेल बे. वली मिथ्यादृष्टि कोइ व्रत यज्ञादि करे तो तेनी बहुज प्रशंसा करे, तमे बहुज सारां काम करो बो, तमारो अवतार सफल बे, इत्यादि प्रशंसा करे, ते चोथो अतिचार बे. ५ पांचमो मिथ्यादृष्टिनो परिचय करवो ते अतिचार बे. मिथ्यादृष्टिनी साथे बहुज मेलाप राखे, खान पान करे, वास करे, इत्यादि अनेक प्र कारथी सहवास करवायी मिथ्यादृष्टिनी वासना लागी जवाथी धर्मश्री ष्ट वाय बे, ते कारणथी मिथ्यादृष्टिनो बहुपरिचय करवो ते वास्तविक नथी. जो करे तो पांचमो अतिचार. ज्यारे गृहस्थने सम्यक्त्व आपवामां आवे बे, त्यारे तेने गुरु ब थागार बतावे बे. जोब कारणोमां तमने कां अनुचित काम करवुं पडे तो आगार राखी शकाय जेथी तमारुं सम्यक्त्व कलंकित शे नहि, ते बागार नीचे मुजब बे. 66 १ प्रथम राया जिगेणं " नगरना स्वामि जे राजा, ते कोइ - नुचित काम जोरावरीथी करावे तो सम्यक्त्वमां दूषण लागे नहि. २ बीजा " गणाजिरंगेणं " गण अर्थात् ज्ञाति तथा पंचायत, ते कड़े के या काम तमे अवश्य करो, नहि तो तमने ज्ञाति तथा पंचायत मोहोटो दंड करशे. तेवे प्रसंगे जो ते काम करवुं पडे तो सम्यक्त्वमां दूषण नहि. ३ त्री जो "बला जिगेणं " बलवंत चोर, म्लेच्छादि तेर्जने वश पडतां, जोरावरीथी ते अनुचित काम करावे तो सम्यक्त्वमां अतिचाररूप दूषण नहि. ४ चोथो देवा निर्जगेणं " कोइ पुष्ट देवता क्षेत्रपालादि, व्यंतर शरीरमां प्रवेश करी अनुचित काम करावे तो जंग नहि, तथा कोइ देवता Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम परिजेद. (३१ए) मरणांत फुःख आपे, जेथी मनमा धैर्य न रहे, अने मरणांत कष्ट जाणी कांश विरुद्ध काम करवू पडे तो सम्यक्त्वमा अतिचार जंग नहि. ___५ “गुरुनिग्गदेणं" गुरु ते मातपितादि तेमना आग्रहथी का अनुचित काम करवू पडे; तथा गुरु ते धर्माचार्यादि तथा जिनमंदिर, ते. उने अर्थात् गुरुने को पुष्ट संकट देतो होय, तथा जिनमंदिर तोडतो होय. जिनप्रतिमानुं खंडन करतो होय, तो गुरुनिग्रह , तेउनी रक्षा . वास्ते का अनुचित काम करवू पडे तो सम्यक्त्वमां दूषण नहि. ६ बहो "वित्तिकंतारेणं" वृत्ति जे मुकालादि आपत्ति श्रावी पडे,त्यारे श्राजीविकावास्ते को मिथ्यादृष्टिने अनुसार चालवू पडे, तथा आजीविका वास्ते को विरुद्ध आचरण करवू पडेतो दूषण नहि.आ उ वस्तुना श्रांगारोने ब बिंडी कहे.तथा चार आगार बीजा ले तेपण कहियें जियें. १ अन्नवणालोगेणं" को कार्य अजाणपणे, उपयोग प्राप्या विना, काश्र्नु कांश थर जाय, ज्यारे याद आवे, त्यारे फरी ते कार्य न करवू ते प्रथम आगार. २" सहस्सागारेणं" को काम अकस्मात् थ जाय; पोताना मनमां जाणे के आ काम मारे करवातुं नथी, योगोनी चपलताथी तथा निरंतरना बहु अन्यासथी जाणतां उतां पण विरुष्क कार्य थइ जाय तो सम्यक्त्वमां नंग नहि, या बीजो आगार. ३ “महत्तरागारेणं” को मोटो लान थाय बे, परंतु सम्यक्त्वमां दूषण लागे, तथा को मोटा ज्ञानीनी आज्ञाथी कमवेशी कर, पडे तो, श्रा त्रीजो श्रागार . ४“ सबसमाहि वत्तिया गारेणं" सर्व समाधि व्यत्ययथी अर्थात् मोटा सन्निपातादि रोगोने प्रसंगें बावरा थर जवाथी, तथा अतिवृद्धावस्थामां स्मृतिजंग थवाथी, तथा रोगादि संकट समये मनमा आर्तध्यान थइ जवाने प्रसंगें, तथा सर्पादि डंख मारवाथी असमाधि थवाना समयमां, आ आगार जे. तेथी सम्यक्त्व तथा व्रतजंग थतां नथी. तेवे प्रसंगें, कोई मूर्खना कहेवाश्री आर्तध्यानमां प्राण त्यागवा ते योग्य नथी. केटलाएक जैनमतना अननिझोनुं एम पण कहेवू डे के, गमे तेम थर जाय तोपण, जे नियम लीधेलु , ते कदापि तोडq नहि, आ कहे स Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३०) जैनतच्चादर्श. fथा वास्तविक नथी, कारण के जो पढ़ेलेथी आगार राख्या बे, तो पी व्रतनंग केवीरीतें थायडे ? अने जे वार्त्तध्यानमां मरी जायते, तथा श्रागार राखता नथी, तेज जैनमार्गनी शैलीना अजाण बे. ते कारणथी ब बिंडी ने चार आगार सर्व बारे व्रतमां जाणवा, वली साधुना सर्व प्रत्याख्यानमां अनशन पर्यंत आज चार श्रागार जाणवा. इतिश्री तपगत्रियगणिश्रीमणि विजय, तविष्य मुनिश्री बुद्धि विजयत विष्य मुन्यात्मा रामानंद विजय विरचिते जैनतत्वादर्श (गुर्जर भाषांतरे ) सम्यग्दर्शन नियनामा सप्तमपरिच्छेदः संपूर्णः ॥ ७ ॥ ॥ थाष्टमपरिछेद प्रारंभः ॥ या परिछेदमां चारित्रनुं स्वरूप लखियें बियें, चारित्र धर्मना बे नेद बे. एक सर्वचारित्र. बीजं देशचारित्र. तेमां सर्व चारित्र तो साधुमां होय. तेनुं स्वरूप या परिछेदमां लखिये बियें. देशचारित्रना बार नेद a. देशचारित्र गृहस्थधर्म बे. बार व्रतरूप बे. तेनुं किंचित् खरूप लखतां प्रथम स्थूलप्राणातिपात विरमण व्रतनुं स्वरूप लखिये बियें. १ स्थूलप्राणातिपात विरमणव्रतना बे नेद बे. एक द्रव्य प्राणातिपात व्रत, बीजं नाव प्राणातिपात व्रत. द्रव्यप्राणातिपात विरमणत्रतनुं स्वरूप एवं बेके, परजीवने पोताना आत्मासमान जाणीने तेर्जना दश द्रव्यप्राएनी रक्षा करवी. या व्यवहार दयारूप बे. बीजुं नाव प्राणातिपातव्रत. ते पोतानो आत्मा कर्मवश पड्यो थको दुःख पामेबे; वली जावप्राण जे ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि, तेर्जना, मिथ्यात्व, कषायादि अशुद्ध प्रवर्त्तनची प्रतिक्षण घात थया करेले, ते कर्मशत्रुनंधी जावप्राणनो घात यतो - Career वास्ते, तथा आत्माने कर्मशत्रुथी बोडावावास्ते उपाय करवा ते उपाय I प्रमाणे. आत्मरमणता करे. परजाव रमणता त्यागे. शुद्धउपयोगमां प्रवर्त्ते. कर्मना उदयमां व्यापक रहे. एक स्वभाव ममता करे. या उपजोग समस्त कर्मशत्रुनो उच्छेद करवाने अमोघ शस्त्रो बे. - र्थात् सकल परजाव इष्ठता दूर करी, स्वरूप सन्मुखरूप उपयोगमां प्रवर्त्ताविj, तेनुं नाम जावप्राणातिपात विरमणत्रत कहियें. तेनुंजनाम जाव. हवे स्थूल नाम मोटा दृष्टिगोचर हाले, चाले तेवा जे प्रसजीव, तेउने संकल्पथी न इ. श्रींयां हिंसाना चार प्रकार बतावीए बीए. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिछेद, (३२) आकुट्टी. ते निषेध वस्तुने उत्साहथी करवी. जेमके संपूर्णफलना जडयां करवां, ते श्रावकने निषेध , तेथी जेणे जेटली जातनां फल खावामां राख्यां होय, तेमांधी कोश्पण फलनुं नडधुं न करवू, बतां मनमा उत्साहपूर्वक नडयां करे तो बाकुट्टी हिंसा लागे. २ दर्प हिंसा. ते चित्तना उबरंगथी, उन्मत्तपणाश्री, गर्वधारण करीने, दोडे तेमज गाडी, घोडा प्रमुख दोडावे तो दर्प हिंसा लागे. ३ कटपहिंसा. ते शरीरना कामनोगवास्ते तीन अभिलाषापूर्वक, कामनो जोस चडाववावास्ते त्रस जीवनी हिंसा करी, गोली, माजम प्रमुख बनावी खाय तो कल्पहिंसा लागे. ४ प्रमादहिंसा. ते घरनां कामकाज, जेम के रांधवू, दलवू, जरडवू प्रमुख अनेक काम करतां त्रसजीवनी हिंसा थ जाय तो प्रमाद हिंसा लागे. आ चारे हिंसामांनी प्रथमनी हिंसा, तथा बीजी हिंसा तो बिलकुल न करवी जोशए. ते कारणथी संकल्पथी आकुट्टी तथा दर्पथी त्रसजीव हणवानो त्याग करे. वती जेम आ कीडी जाय , तेने हुँ मारूं? एवा संकल्पथी हणवं, हणाववं, ते आकुट्टी संकल्प कहेवाय डे, एवा संकल्पथी निरपराधी जीवोने, कारण विना हणुं नहि. हणावू नहि, एवो नियम करे, अने सांसारिक श्रारंज, रांधवा प्रमुखनां काम करतां, तथा पुत्रादिना शरीरमां कीडा प्रमुख पडतां, व्याधिने प्रसंगे औषधोपचार करतां यत्नापूर्वक प्रवर्ते. वली घोडा, बलद प्रमुखने चाबक प्रमुख मारवा पडे तेनो आगार राखे. तथा पेटमां कृमि, गंडोला, पगमा नारा अर्थात् वाला, हरस, जू प्रमुख अनेक जीव शरीरमां उपजे, तथा खजन, मित्रादिना शरीरमा उपजे, तेना उपचार करवानी जयणा राखे. कारण के साधुने तो त्रस तथा स्थावर, सूक्ष्म तथा बादर, सर्वजीवोनी हिंसा नवकोटी विशुद्ध अप्रमत्त योगोथी सर्व हिंसानो त्याग डे, तेथी साधुने वीश विश्वा दया बे, श्रने गृहस्थथी तो सवा विश्वा दया पली शके . तेनुं स्वरूप लखीए बीए. ॥ गाथा ॥ जीवासुहुमा थूला, संकप्पा श्रारंजा नवे विदा ॥ सवराह निरवराहा, साविका एव निरविरका ॥१॥ अर्थः-जगत्मा जीव बे प्रकारना . १ स्थावर, ५ त्रस. तेमां स्थावरना बेनेद , १ सूक्ष्म, २ बादर. तेमां सूक्ष्मजीवोनी हिंसा तो थतीज नथी, कारण के अति Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२२) जैनतत्त्वादर्श, सूक्ष्म जीवोना शरीरने बाह्य शस्त्रना घा लागता नथी; परंतु अहींा तो सूक्ष्मशब्द, स्थावर जीवो जे पृथ्वी, पाणी, अग्नि, पवन, वनस्पतिरूप पांच बादर स्थावर, ते सूक्ष्म वाचक बे, अने स्थूल जीव ते छींजिय, तीजिय, चतुरिंजिय पंचेंजिय जाणवा. था बंने नेदमां सर्वजीव श्रावी गया. ते सर्व जीवोनी त्रिकरण शुद्धियी साधु रक्षा करे , ते कारणथी साधुने वीश विश्वा ( वसा) दया बे. श्रावकथी तो पांच स्थावरनी द. या पलती नथी, सचित्त आहारादि करवाथी अवश्य हिंसा थाय , ते कारणथी दश विश्वा दया दूर थश्. बाकी दश विश्वा रही. सारांश के त्रसजीवनी दया रही. त्रसजीवनी हिंसाना पण बे नेद . एक संकपथी हणवा, बीजा आरंजथी हणवा. तेमा संकल्पथी हणवानो त्याग बे, परंतु श्रारंजनी हिंसानो श्रावकने त्याग नथी, श्रारंज हिंसामा यला राखवानी , कारण के आरंज हिंसा श्रावकने थाय , ते कारणथी दश विश्वामाथी पांच विश्वा बाद थक्ष, अर्थात् संकल्पथी त्रसजीवनी हिंसानो त्याग . वली तेना पण बे नेद . एक सापराधी, बीजा निरपराधी. तेमां निरपराधी जीवोने न हणवा, अने सापराधी जीवोने दणवानी जयणा हे. कारण के सापराधी जीवनी दया श्रावकथी सदा सर्वथा पलती नथी. जेम के घरमां चोर आवी चोरी करी धन, माल लइ जता होय, तेउने मार्या, कुट्या विना ते धन, माल बोडता न होय, तथा पोतानी स्त्रीनी साथे को अन्यपुरुष पुराचार सेवतो देखवामां श्रावे, तेवे प्रसंगे मारवो पडे, तथा कोश् श्रावक राजा होय, अथवा तो राजाना हुकमथी युद्ध करवा जq पडे, तेवे प्रसंगे श्रावक, प्रथम शस्त्र चलावे नहि, परंतु ज्यारे शत्रु शस्त्र चलावी मारवा आवे ते समये शत्रुने मारवा पडे. तथा सिंहादि जानवर खावा श्रावे, ते वखते तेउने मारवां पडे. त्यारे संकल्पथी पण हिंसानो त्याग नथी. ते कारणथी पांच विश्वामांथी श्ररधी बाद थक्ष, बाकी अढी विश्वा दया रही. अर्थात् मात्र निरपराधी त्रसजीव दृष्टिगोचर आवे ते ने न मारं. एवो नियम रह्यो. तेनापण बे नेद , एक सापेक्ष, बीजो निरपेद. तेमां पण सापेक्ष निरपराधी त्रसजीवनी दया श्रावकथी पलती नथी, कारण के श्रावक ज्यारे घोडा गाडी, बलद गाडी, घोडा, घोडी प्रमुखनी Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिजेद. (३शए) ३ खदारा मंत्रनेद अतिचार. पोतानी स्त्रीए कां बानी वात कहेली होय, ते वात पति · लोकोमा प्रकट करे. उपलक्षणथी जाइ प्रमुखनी कहेली वात प्रगट करवी. तात्पर्य ए डे के मर्मवाली वात प्रगटयवाथी स्त्री श्रादि कुवामां पड़ी डुबी मरे . ४ मृषा उपदेश अतिचार. बीजाउँने असत्य कामो करवानो उपदेश । आपवो. वली विषयसेववानां चोराशी आसन शिखववां, तथा बीजा जेथी फुःखमां श्रावी पडे तेवो उपदेश करवो. वली वीर्यपुष्टिनां औषधादि बताववां, जेथी विषय, कषाय अत्यंत वृद्धि पामे, अने जेथी बहुज विषयसेवन करवामां थावे तेवो उपदेश करवो ते. ___५ कूट लेखकरण अतिचार. जूग दस्तावेज बनाववा, जूठी सही करवी, जूठी महोर बाप करवी, अदरो चुसी नाखी, नवा अदरो दाखल करवा, इत्यादि बीजाने नुकशान थाय तथा पुःख थाय एवा हेतुथी कूटलेख करवा ते आ पांच आतिचार, तथा पूर्वोक्त पांचप्रकारनां श्रसत्य नरकादि गतिनां कारण जाणी, श्रावक अवश्य वर्जे, शति मृषावादविरमणबत. ____३ त्रीजा स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत, खरूप लखिये बियें. मोटी चोरी करवी, जेमके धाड चोरी करवी, रस्तानी बुट करवी. गणेशीर्ष मारी जीत फोडी खातर पाडवू, जबरदस्तिश्री बीजानी वस्तु लेवी, बल कपटथी उगीने बीजानी वस्तु लेवी, विश्वासघात करी बीजानी वस्तु - लवी जवी, अपराधसहित मिलकतनो खोटो उपयोग करवो, मिलकतनी अदलाबदली करवी, इत्यादि अदत्तादान अर्थात् चोरीनुं स्वरूप जे. चोरी करवाथी परलोकमां नरकादि माठी गति प्राप्त थाय , अने था लोकमां पण प्रगट थवाथी राज्यदंड, अपयश, तथा अप्रतीति थाय . ते कारणथी श्रावक अदत्तादाननो त्याग करे. अदत्तादान व्रतना बेदबे, ते कहिये डिये. अव्य श्रदत्तादान विरमण व्रत. पूर्वोक्त प्रकारें बीजानी पडेली के विसरेली वस्तु लेवी नहि ते अव्य श्रदत्तादान विरमणव्रत . २ नाव श्रदत्तादान विरमणव्रत. पर जे पुजल अव्य, तेनी रचना, वर्ण, गंध, रस, स्पर्शादिरूप, त्रेवीश विषय, तथा श्रापकर्मनी वर्गणा, ४२ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३०) जैनतत्त्वादर्श. श्रा सर्व पराइ वस्तु , ते वस्तु तत्वज्ञानमां जीवने अग्राह्य बे, बतां तेमनी जे उदय नावथी वांग करवी ते नाव चोरी समजवी. जिनागम श्रवण करी तेमनो त्याग करवो, तथा पुजलानंदि पणानो अनाव करवो, तेज नाव अदत्तादान विरमण व्रत . जे जे कर्मप्रकृतिनो बंध नाश पामेल होय, ते नाव अदत्त विरमण व्रत कहेवाय. सामान्य प्रकारे श्रदत्तना चार नेद बे. १ कोश्नी वस्तु तेनी परवानगी विना लेवी ते खामि अदत्त. ५ सचित्त वस्तु अर्थात् जीववाली वस्तु, फूल, फल, बीज, गुबा, पत्र, कंद मूलादि, बकरा, गाय, सुअरादि, तेजेनो नाश करवो, बेदवां, नेदवां, कापवां इत्यादि ते जीव अदत्त, हेतु ए के फुलादि जीवोए पोताना शरीरने बेदवा, नेदवानी आज्ञा आपी नथी, के अमाकं बेदन, नेदन करो, ते कारणश्री ते जीव श्रदत्त जे. ३ जे वस्तु तीर्थकर, अर्हत जगवंतें निषेध करेली , तेउनु जे ग्रहण करवू, जेमके साधुने अशुद्ध आहार करवानो निषेध , अने श्रावकने अजय वस्तुग्रहण करवानो निषेध बे, बतां ते श्राज्ञाविरुक ग्रहण करे तो ते तीर्थंकर अदत्त. ४ कोश साधु शास्त्रोक्त रीति मुजब निर्दोष आहार शुद्ध ग्रहण करी लावे, पनी ते आहारा दिने गुरुनी आज्ञा विना उपनोगमां बहे तो ते गुरु अदत्त, पूर्वोक्त चारे अदत्त संपूर्ण तो जैनना यतिज त्यागी शके, गृहस्थथी तो मात्र खामि अदत्तज त्यागी शकाय बे, ते कारणथी तेनीज आ स्थले मुख्यता . सारांश के पराश् वस्तु पूर्वोक्त रीते लेवी नहि, जो लहे तो चोर कहेवाय, राज्यदंड पामे, अपयश, अपकीर्ति, अप्रतीति थाय, ते कारणथी पारकी वस्तु ग्रहण करवी नहि. जे वस्तु यत् किंचित् मूल वाली , अर्थात् जे लेवाथी तेना मालेकने एवं नुकसान थतुं नथी के को समजु माणसना विचारमा ते नारे पडतुं थाय, सारांश के जे लेवाथी चोर नाम पडतुं नथी, तेवी वस्तु लेवानी जयणा राखे. वली कोइनी पडीगयेली वस्तु हाथमा आवे, पळी जाणवामां आवे के ते वस्तु अमुक सख्सनी बे, तो ते वस्तु तेने आपे, जो ते वस्तुना मालेकनो पत्तो न मले, अने पोतानुं मन दृढ रहे तो ते वस्तु पोते राखे नहि कदाचित् बहु मूल्यवान् वस्तु होय, अने मन दृढ रहे तो ते वस्तु Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिजेद. (३३१) लश पोताना खाधीनमा केटलाएक दिवस राखे, जो तेना मालेकनो पत्तो मले तो तेनी खात्री करी तेने सोंपी दे, अने संपूर्ण रीतें शोध करतां उतां तेनो मालेक मालम न पडे तो धर्म खातामां ते धननो उपयोग करे. पोतानो खन्नाव अत्यंत लोनी होय तो पण ते वस्तुनी अर्ध किंमत तो धर्मना काममांज वापरे. पोतानी जमीनमां खोदतां धनादि निकले तो ते राखवावो आगार बे. परंतु तेमां पण अर्ध हिस्सो, श्रथवा चोथो हिस्सो धर्ममां वापरे तो ते उत्तम . वली बीजानी जगा किंमत आपी लीधी होय, ते खोदतां जो धनादि निकले, अने पोताना मनमां संतोष होय तो ते जगा वेचनारने निकलेली वस्तु सोंपी दे, परंतु पोतानो खन्नाव लोजी होय अने वेचनारने आपवानी मरजी न होय, तो पण अर्धजाग धर्ममां वापरे, अने अर्धनाग पोते राखे. वली को सख्ख पोतानी पाउल धन मुकी मरी गयो होय, अने तेनो को वारस न होय, एवी बीना श्रावकना जाणवामां आवे तो उत्तम माणसोने पंचमां राखी तेने ते बीना जाहेर करे, अने पंचना फरमान मुजब करे; ते प्रमाणे करतां कदापि देशकालनी विषमताथी राज्यसंबंधी क्लेश उठवानो संजव लागे, तथा को लोनी राजा फरमान करे के तमारा धरमा आवीरीतनुं बीजुं धन डे इत्यादि विटंबना थवानो जयलागे तो मौनपणे ते धन धर्मकार्योंमां वापरे. ___ घरनी चोरीनुं स्वरूप था प्रमाणे. घरनी सर्व वस्तुऊनां मालेक मात पिता , तेर्जुनी आज्ञा विना धनवस्त्रादि देवानी जयणा राखे, तेमज जे उनी साथे प्रेम होय, तथा जेठ संबंधी होय, अने जेऊना घरमां जवा आववानो तेमज खावा पीवानो व्यवहार होय, ते ने पुळ्याविना कांश वस्तु खावामां अथवा जोगववामां आवे तो तेनो श्रागार राखे, परंतु जो ते वस्तुनो उपनोग करतां मालेकनुं मन दुःखाय तो ते वस्तु ग्रहण करे नहि. ए प्रमाणे त्रीजुं अदत्त व्रत पाले. या शुक व्यवहार अदत्तादानविरमण व्रत बे. निश्चयथी श्रदत्तव्रत तो जेटलो अबंध परिणाम थयेल बे, अर्थात् गुणस्थानकनी वृद्धि थवाथी बंधव्यवछेद थयो होय , तेज निश्चय अ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३५) जैनतत्त्वादर्श. दत्त विरमण व्रत कदेवाय . आ व्रतना पांच अतिचार बे. ते वर्जे, तेनुं खरूप कहिये लिये. १ स्तेनाढत अतिचार. चोरनी चोरेली वस्तु स्तेनाहत कहेवाय . ते वस्तु लहे नहि, अर्थात् चोरनी वस्तु जाणीने लहे नहि, कारण के जे चोरीनी वस्तु जाणीने लहे , ते लेनार पण चोर , जैन मतना शास्त्रोमां चोरना सात प्रकार . यथा ॥ चौरश्चौरापकोमंत्री, नेदशः काणकक्रयी ॥ अन्नदः स्थानदश्चैव, चौरः सप्तविधः स्मृतः॥१॥ श्रा प्रथम अतिचार. प्रयोग अतिचार. ते चोरी करनाराउँने प्रेरणा करवी. जेमके अरे! तमे धंधाविनाना बानामाना आजकाल केम बेसी रह्या डो? जो तमारी पासे खरची न होय तो हुं मदद करु. तमे लश् श्रावशो ते वस्तु हुँ वेची थापीश. तमे चोरी करवा जाउँ. इत्यादि वचनोथी चोरोने प्रेरणा करवी. आ बीजो अतिचार. ३ तत् प्रतिरूपक व्यवहार अतिचार. ते सारी वस्तुमा खराब वस्तु मेलवी वेचवी. जेमके केशरमां कसुंबादि मेलववां, घीमां सादि, हिं. गमा गुंदरादि मेलवां खोटी कस्तूरी खरी दाखल वेचवी, अफीमां नेल संजेल करी वेच, जूनावस्त्रने रंगावी नवाना जावथी वेचवां, रूमां पाणी नाखी वेचवं, उधमां पाणी नेलवी वेच. इत्यादि काम करवां. श्रा त्रीजो अतिचार. ४ राज्य विरुद्ध गमन अतिचार. ते पोताना शेहेरना अथवा देशना राजाए फरमान कर्यु होय के अमुक गाम जर्बु श्रावq नहि, तेमज ते गामना लोको साथे व्यापार करवो नहि, उतां राजानी श्राझार्नु उबंधन करीने वैरी राजाना देश गाममा जq आवq तथा व्यापार करवो. श्रा चोथो अतिचार. ___५ खोटां तोलां मापां राखवां ते अतिचार. जंग तोलां, मापथी देवं, अंने अधिक तोला,मापथी ले. श्रापांचमो अतिचार. इतितृतीयव्रतस्वरूप, चोथु व्रत. मैथुनसेवननो त्याग, ते मैथुन त्यागवत कहेवाय छे. मैंथुनना बे नेद . १ अव्य मैथुन त्याग, ५ नाव मैथुन त्याग. अव्य मैथुन तो परस्त्री तथा परपुरुष साये संगम करवो ते तेमां पुरुष स्त्रीनो Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मखी तेनाल, ने तृष्णाए ले के चेतनया व्यवहार अष्टम परिजेद. (३३३) त्याग करे,अने स्त्री पुरुषनो त्याग करे, अर्थात् अरस परस रतिक्रीडा काम सेवननो त्याग करे, ते अव्यब्रह्मचारी तथा व्यवहारब्रह्मचारी कहेवाय डे. नाव मैथुनर्नु खरूप एवं के चेतनरूप पुरुष, परपरिणतिरूप विषय विलास, अने.तृष्णा, ममतारूप कुवासना, एवी निश्चय परस्त्रीने मली तेनी साथे लालन, पालन, कामविलास करवो ते. तेनुं जिनवाणीना उपदेशथी, तथा गुरुनी हितशिक्षाथी ज्ञान थयु, त्यारे जातिहीन जाणीने, तेमज भविष्यमां तेनुं सेवन महाकुःखदायक परिणामवाएं थवानु डे एम जाणीने, तथा पूर्वकालमां तेना सेवनथी अनंत जन्म मरणनां दुःख अनुजव्यां ने एम विचारीने ते विजातीय स्त्रीनो त्याग करवो ते ठीक बे, अने मारी परमजक्त, खजातीय, उत्तम, सुकुलवती स्त्री, समतारूप सुंदरी, तेनो संग करवो वास्तविक जे. वली विजाव परिणतिरूप परस्त्रीए मारी सर्व विनूति हरण करी बे, तेथी सद्गुरुनी सहायताथी हवे ते कुष्ट परिणतिरूप स्त्रीना संगनो थोडो निग्रह करूं, त्यागवानो नाव आदरुं, जेथी शुद्धखजाव घटरूप घरमा प्रवेश करूं, तथा मारा खरूपना तेजनी वृद्धि थाय एम प्रवर्तु; एवी समजण ला. वीने परपरिणति मग्नतानो त्याग करे, तेमज कर्मना उदयमा व्यापक न थाय, अने शुद्ध चेतनाना संगी थाय, ते नाव मैथुनत्यागी कदेवाय . अव्य मैथुनना त्यागी तो गए दर्शनमा मती शके बे, परंतु नावमैथुनना त्यागी तो श्रीजिनवाणी श्रवण करवाथी, ज्यारे नेदशान घटमां प्रगट थाय , त्यारे नवपरिणतिथी सहज उदासीनरूप नाव थाय ने तेवा मैथुनना त्यागी जैनमतमांज होय .. __ स्थूल परस्त्रीगमनविरमणव्रत. ते परस्त्रीनो त्याग करवो, परपुरुषनी विवाहिता स्त्री, तथा परनी राखेली स्त्री, तेनी साथे अनाचार न सेववो, एवं जे प्रत्याख्यान, ते परदारगमन विरमण व्रत; अने पोतानी स्त्रीमां संतोष करवो एवं जे व्रत, ते खदारासंतोष व्रत . देवांगना तथा तिर्यंचणी, तेउनी साथे कायाथी मैथुन सेवन करवानो निषेध ा व्रतमा जे. वली वर्तमान स्त्रीनो त्याग करीने, बीजी स्त्री साथे विवाह न करे; तथा दिवसें पोतानी स्त्री साथे पण मैथुन सेवन न करे, कारण के दिनसंजोगथी जे संतान उत्पत्ति थाय बे, ते Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनतत्त्वादर्श. ( ३३४ ) निर्बल चाय बे जो काम अभिलाषा अधिक होय तो दिवसनी पण मर्यादा करे. तेवीजरीतें स्त्रीपण पर पुरुषनो त्याग करे. ए प्रमाणे चोथुं व्रत पाले. या व्रतना पांच अतिचार बे. ते वर्जे, ते लखियें बियें. १ अपरिग्रहीतागमन अतिचार परण्या विनानी (कुमारी) तथा विधवा स्त्री परिगृहीता कड़ेवाय बे, कारण के तेर्जनो को नर्त्तार नथी. कोइ अल्पमति, विषयाभिलाषी मनमां एम विचारे के में तो परस्त्रीनो त्याग करेलो बे, घने अपरिगृहीता तो कोइनी स्त्री नथी, तेथी तेनी साथै विषयसेवन करवाथी मारुं व्रतजंग नहि थाय, एवो विचार करीने कुमारी तथा विधवा स्त्रीनी साथे जोग विलास करे, तथा स्त्री पण व्रतधारण करीने कुंवारा तथा रांडेला पुरुषनी साथे व्यजिचार सेवन करे तो या अतिचार लागे, आ प्रथम अतिचार. २ इत्वर परिगृहीतागमन प्रतिचार इत्वर अर्थात् अल्पकाल कोपुरुष थोडी मुदत माटे कोइ वेश्याने पोतानी करी राखेली होय तेवे प्रसंगें ते पुरुष ज्ञानना उदयथी एवो विचार करे के मारे तो परस्त्रीनो त्याग बे, छाने वेश्यानो संबंध तो मारे अल्पकाल माटे बे, तेथी वेश्यानी साथ सेवन करवायी मारा व्रतनो जंग थशे नहि, एवा श्रज्ञानतायुक्त विचारथी विषयसेवन करे तो बीजो अतिचार लागे. वली स्त्री पण पोतानी शोक्यना वाराने दिवसे पोताना जतरनी साथे विषय सेवन करे ते एवा वीचारथी के मेंतो मारापति साथे विषय सेवन करेल बे, तेथी मारा व्रतनो जंग थशे नहि, तेवे प्रसंगे स्त्रीने पण अतिचार लागे. पूर्वोक्त बंने रीतिमां श्रावक यथार्थ रीतें जाएया पढी फरीथी ते प्र. माणे करे तो व्रतजंग थाय, परंतु अतिचार नहि. ३ नंगीडा अतिचार अनंगनाम काम. ते काम कंदर्प जाग्रत करवो. लिंगन चुंबन प्रमुख करवां नेत्रोना हाव नाव कटा, वा मस्करी प्रमुख, परस्त्री साथे करवां. मनमां एवो निचार वरवो के में तो परस्त्री साथे परस्पर एक शय्या उपर विषयसेवननो त्याग करेलो बे, परंतु अनंगक्रीडानो त्याग करेलो नथी. एवो विचार करनार मूढमति जाणतो नथी के पूर्वोक्त कामक्रीडाथी व्रत कदापि रहीशके नहि, कारण के तेवी मनोवृत्ति महापाप तो ते जीवें उपार्जन करी लीधुं. निश्चय नयना Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिच्छेद. ( ३३५) मतथी तेनो व्रतजंग पण थर गयो. वली पोतानी स्त्रीसाथे चोराशी आसate विषयसेवन करे, तथा पंदर तिथिना विचारे स्त्रीनी साथै अंगमईना दि पूर्वक काम प्रदीप्त करे, अत्यंत कामाभिलाषी तथा पोतानी स्त्रीनो योग न प्राप्त था तो हस्तकर्म करे. स्त्रीपण अत्यंत कामव्याप्त थइ गुह्यस्थानमो वस्तु संचारादि हस्तकर्म करे. तेवा प्रसंगे या यतिचार लागे. ते कारणी श्रावके अनेक उपायथी काम इछा मंद करवी जोइयें, कारण के विषयवृत्ति मंद वाथी, ने वीर्यनुं रक्षण करवाथी, बुद्धि, आरोग्यता, आयु, बल प्रमुख वृद्धि पामेबे, घने कामसेवन अधिक करवाथी तेर्जनी मंदता थतां मन मलिन थायडे, पापवृद्धि पामेबे, दाय, चम, मूर्छा, क्लम, स्वेदादि अनेक रोग उत्पन्न थायडे. ते कारणथी मात्र जेथी वेदविकार शांत थाय, तेटलुंज मैथुन सेवन कर, एवी अभिलाषा जोइए. वली ज्यारे काम उत्पन्न याय, त्यारे स्त्रीनी कामसेवननी जगाने जाजरू समान गणे. एवो विचार मनमां लावे के स्त्रीनुं शरीर मलमूत्र - श्री नरेलुं बे, विषयसेवननुं स्थान अत्यंत मलिन, दुर्गंधमय बे, सुखमां पण दुर्गंधमय लाल बे, नाकपण दुर्गंधयुक्त श्लेष्मवालुं बे, कानमा मेल a. पेटमा विष्टा मूत्र जरेल बे, नसोमां खानपाननो दुर्गंधमय रस रुधिर, हाड, चाम, चरबी, वात पित्त, कफ नरेल बे, स्त्रीनुं शरीर अत्यंत अशुचिनुं पुतलुं बे, ज्यांची वास निकलशे त्यां महादुर्गंधमय वासनिकलशे, वली ते शरीर नित्य, अशाश्वत, सडन, पडन, विध्वंसन जाववालुंबे, ए प्रमाणे स्त्रीना शरीरनो खजाव बतां दिलगिरि बे के चतुर पुरुषो पण कामाधीन थइ विषयसेवनमा मन रहेबे, तेथी पूर्वोक्त सत्य समजथी विचार करी कामने शांत करे. या त्रीजो अतिचार. ४ पर विवाहकरण अतिचार पोताना पुत्र, पुत्री विना, यशवास्ते तथा पुण्यवास्ते, बीजाउंना विवाह करे, करावे. या चोथो प्रतिचार. ५ तीव्रानुराग अतिचार पुरुष, स्त्रीउपर, तेमज स्त्री, पुरुष उपर काम सेवन जिलाषाची अत्यंत राग, स्नेह राखे. परस्त्रीने देखी मनमां तेनीसाथे मैथुन सेवननी बहुज चाहना राखे रात दिन कामकाज करतां सुतां, बेसतां, उठतां, जतां यावतां, स्त्रीमांज चित्तवृत्ति राखे; तेमज कामवृद्धिमाटे, अफीण, माजम, जांग, हरताल, पारा, त्रांबु प्रमुख Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३६) जैनतत्त्वादर्श. खाय, अने तेप्रमाणे खाश कामवृद्धि करी, स्त्रीसाथे अत्यंत प्रीति करे, स्त्रीपण कामवृद्धिमाटे अनेक औषधोपचार करे, हावनाव, विषय, ला. लसा करे. श्रा पांचमो अतिचार. पांचे अतिचारनुं स्वरूप श्रावक जाणी तेने तजवानी अनिलाषा करे. पांचे अतिचारनुं विशेष खरूप धर्मरत्न प्रकरणनी टीकाथी जाणवू. शति चतुर्थव्रतं. _५ पांचमा स्थूलपरिग्रहपरिमाण व्रतनुं स्वरूप लखिये बियें. परि. ग्रहना बे नेदजे. एक बाह्यपरिग्रह अधिकरणरूप, ते अव्य परिग्रह, नवप्रकारनो के. बीजो जाव परिग्रह, ते चौद अन्यंतर ग्रंथिरूप, परजाव ग्रहणरूप, समस्त प्रदेश सहित, सकषायीपणे बंध, ते नाव परिग्रह . वली शास्त्रमा मुख्य वृत्तिथी, मूळने नाव परिग्रह, कहेली बे. तेमां चौद प्रकारना अत्यंतर परिग्रह ाप्रमाणे . १ हास्य, २ रति, ३ श्ररति, ४ नय, ५ शोक, ६ जुगुप्सा, क्रोध, मान, ए माया, १० लोज,' ११ स्त्रीवेद, १५ पुरुषवेद, १३ नपुंसकवेद, १५ मिथ्यात्व. आ चौद अन्यंतर ग्रंथि . आ संसारमा जीवने केवल अविरतिना बलथी श्वा, श्राकाशसमान अनंती . कदापि तेनुं माप अश् शकतुं नथी, अविरतिना उदयथी श्छा, अने स्वाबलथी कर्मबंधनमां पडतां थकां चारे गतिमा श्रा जीव ब्रमण करे. नवितव्यताना योगें पुण्यना उदयथी मनुष्यनवादि सकल सामग्रीनो योग प्राप्त करीने सद्गुरुना सत्संगथी श्रीजिनेश्वर नगवाननी वाणी श्रवण करवामां आवी; अनुक्रमें चेतना, जाग्रतदशानो अनुजव करवा लागी; मनमा विचार थयो के अहो! हुं समस्त परजावथी अन्य डं! श्रबंधी, अवेद्य, अन्नेय, अदाह्य धर्मी हूँ! परंतु श्वाने अधीन.बनवाथी समस्त बेदन, नेदन, परिमणादि फुःखोने जोगवनार परधर्मी बनी रह्यो बुं! ते वास्ते समस्त परनावद्वं मूल जे श्छा , ते दूर करूं. बाद समस्त परजाव त्यागरूप चारित्र श्रादरे. साधुवृत्ति अंगीकार करे; अने जे जीव श्छानुं प्रबल होवाथी एकदम सर्व परिग्रह त्यागवाने समर्थ न होय, अने दोषथी करतो होय, तो गृहस्थधर्म, श्वा परिमाणरूप व्रत श्रादरे. ते श्छा परिमाण व्रत नवप्रकारे जे. तेनुं खरूप. १ प्रथम धनश्वा परिमाणवत. धनना चार प्रकार . १ गणिम धन नालीएर प्रमुख, जे गणत्रीथी वेचवामां आवे ते. २ धरिम धन, गोल Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिवेद. (३३७) प्रमुख, जे तोलीने वेचवामां आवे ते. ३ परिवेद्य धन, सोनू, रू', जवाहिरप्रमुख, जे परीक्षाथी वेचवामां आवे ते.४ मेय धन, उधप्रमुख, जे मापीने वेचवामां आवे ते. या चारे प्रकारना धननुं परिमाण करे, ते धन परिमाण व्रत. २ धान्य परिमाण व्रत. धान्यना चोवीश प्रकार . १ कमोद, रघळं, ३ जुवार, ४ बाजरी, ५ जव, ६ मग, ७ मठ, अडद, ए घुट, १० बोडा, ११ मटर, १२ तुअर, १३ किसारी, १४ कोजवा, १५ कंगणी, १६ चणा, १७ वाल, १० मेश्री, रए कलथी, २० मसूर, १ तल, २२ मंडवा, २३ कुरी, २४ बंटी. आ धान्य खावा वास्ते तेमज व्यवहार वास्ते उपयोगी बे; अने १ धाणा (धनीया), जीडी, ३ सोवा.४ अजवायन, ५ जीरं, श्रा पांच धान्यनी जाति बे, परंतु औषधादिमा काममां आवे बे. तथा १ शामक, २ मणकी, ३ जुरट, ४ चेकरीश्रा, था चार मारवाड देशमा प्रसिद्ध जे. बीजां पण केटलांएक धान्य वाव्याविना उगे , जे लोको उकालना वखतमां खाय . या सर्व जातिनां धान्यनुं परिमाण करे, ३ क्षेत्रपरिग्रह व्रत. वाववाना खेतर, तथा बाग, बगीचादि जाणवां क्षेत्रना त्रण नेद २१ वर्षादना पाणीथी ववाय एवां क्षेत्र, ५ कुवाना पाणीथी ववाय एवां क्षेत्र, ३ बंने प्रकारना पाणीथी ववाय एवां क्षेत्र. ए प्रमाणे क्षेत्र परिमाण करे. ४ वास्तुक परिमाण व्रत. घर, हाट, हवेली प्रमुख. तेना पण त्रण नेद २ १ जमीन तल माल विनाना. २ एकमाल, बे माल, त्रणमाल, यावत् सातमाल सुधी, ३ नोयरां. तेनुं परिमाण करे. ५ रूप्य परिग्रह परिमाणवत. सिक्का विनानुं काचुं रुपुं, तेना तोलनुं परिमाण करे. ६ सुवर्णपरिग्रहपरिमाण व्रत. सिका विनानुं सोनु, तेना तोलनुं परिमाण करे. ___ कुपदपरिग्रहपरिमाण व्रत. बांबु, पीतल, जसत, कांसु, सीसुं, लोढुं प्रमुख धातुनां वासणोना तोलनु परिमाण करे. उपदपरिग्रहपरिमाण व्रत. दास, दासी, पगारदार मुनीम प्रमुख राखवां, तेनी संख्या परिमाण करे. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३७) जैनतत्वादर्श ए चौपदपरिग्रहपरिमाण व्रत. गाय, नेस, घोडा, हाथी, बलद, बकरी प्रमुख जानवरो राखवानी संख्यानु परिमाण करे. हवे पोतानी श्छा परिमाणथी परिग्रह केवीरीतें राखे, ते कहीए बीए. रुघु तथा सोनु, घडेलुं तेमज नहि घडेलु आटला वजन राखु, तथा रुपैया, सोनामहोर, जवाहीर, आटलां राखं, ते प्रमाणे परिमाण करे, ते उपरांत पुण्योदयथी धनवृद्धि थाय तो, वधेलु धन, धर्मकार्योमां वापरे, वली वर्षप्रति बाटली नातनां वस्त्र पहेलं, तथा एकवरसमां श्राटटुं अन्न घर खरच वास्ते राखू, तथा आटबुं व्यापार वास्ते राखं, इ. त्यादि बाबतो, खरूप विस्तारथी, सातमा व्रतना खरूपमा कथन करवामां श्रावशे. क्षेत्र परिमाणमां, खेतरो, वाडी, बगीचा, सर्व मली आटलां सांती वा विघा जमीन राखं, तथा घर, चोकबंध, खडकीबंध, जुकान, तबेला, वखारो, तथा परदेश संबंधी पुकानोनी जयणा तथा नाडे राखवाना मकानोनी जयणा, तथा जाडे राखेलां मकानो समराववानी जयणा राखे; तथा कुटुंब संबंधी घर बनाववाना उपदेशनी जयणा; वली पोताना संबंधी तेमज गुमास्ता परदेश गया होय, अने पाउल तेउनां घर प्रमुखसमराववां पडे तो जयणा, आजीविकावास्ते कोश्नी चाकरी करवी पडे, तेवे प्रसंगे शेठना घरप्रमुख समराववानी जयणा. कुपद परिमाणमा त्रांबा, पितल, कांसा विगेरे धातुनां वांसणो तथा धातु बुटी अमुक मण राखवानी जयणा; छिपद परिमाणमा दास, दासी वेचाता लेवानो प्रतिबंध, परंतु पगारवाला नोकरो गणत्रीश्री राखवा जोइए, वली अमुक गुमास्ता राखवानी जयणा, चौपद परिमाण, गाय, नेंस, बकरी प्रमुख राखवानुं परिमाण संख्याथी करे, या व्रतना पांच अतिचार तेनुं स्वरूप लखीए बीए. १ धन परिमाण अतिक्रम अतिचार. ज्यारे श्छा परिमाणथी अधिक धन यश् जाय, त्यारे तीव्र लोजना उदयथी मनमां एवो संकल्प करे के, मारो पुत्र मोटो थयो , तेने धननी जरुर बे, वलि ते कमाश् शके तेवो थयो , तेथी मारे तेने धन श्रापबुं जोइए, एवो कुविकल्प करी पुत्रना नामथी अमुक रूपीथानी रकम जुदी राखे, ए प्रमाणे जुदी जुदी रीते धननां खाता राखे. धान्य पोताना परिमाणथी अधिक राखवानी Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४६) जैन तत्त्वादर्श. महाफल बे. दवे जु उनी अज्ञानता ? केवो स्ववचन विरोध बे ? जे करवामां पाप नथी, ते त्यागवामां धर्मफल कदापि होइ शके ? sa निरुक्तिवली पण मांस त्यागवा योग्य बे, ते बाबतमां मनुजी कड़े बे के ॥ श्लोक ॥ मांसभक्षयिताऽमुत्र, यस्य मांस मिहाडयां ॥ ए तन्मामांसस्य मांसत्वे, निरुक्तं मनुरब्रवीत् ॥ १ ॥ श्रर्थः - जेनुं मांस हुं खाउबुं, ते जीव, परजवमां मने प्रक्षण करशे, आ निरुक्तिश्री मनुजी कहे के, मांसमक्षण करनारने महापाप लागे बे. जे प्राणी मांस खावामां लंपट बे, ते जे जे जलचर मत्स्या दिजीवो, स्थलचरमृगादि जीवो, अने खेचर, तेतरादि जीवोने देखतांज, तेने मारीने खावानी तेर्जनी मति या बे. साक्षात् डाकणनी जेवी खावानी वृत्ति याय बे. मांस खानारा उत्तम पदार्थोंनो परिहार करी नीच पदार्थोंने ग्रहण करवामां उद्यत थायडे. साक्षात् कागडानी जेम अमृत बोडी विष्टामां चांच देवे. तेनुंज नाम निर्विवेकता . ॥ श्लोक ॥ ये नक्षयन्ति पिशितं, दिव्यभोज्येषु सत्स्वपि ॥ सुधारसं परित्यज्य, मुंजते ते हलाहलं ॥ १ ॥ अर्थः- सर्व धातुर्जने पुष्टि पनार, तथा इंडिने श्राब्हादकारक, दिव्य जोजन समान, दुध, खीर, दही प्रमुख, तथा मोदक, सुतरफेणी, घारी, खाजा, मोहनथाल, मेसुब, सक्करपारा, घेवर प्रमुख मिष्टान्न, तथा इक्षुरस, द्राक्ष, नारंगी, सफरजन, संतरा प्रमुख उत्तमफल तथा बदाम, पस्ता, एलची, जायफल, जावंत्री प्रमुख मुखवासी उत्तम वस्तु तजीने मूढमति, विस्रुगंधि, सूगवाला, तथा वमन थाय तेवा बीजत्स मांसनुं भक्षण करे बे. तेर्ज जीवितव्यनी वृद्धिवास्ते श्रमृतरसने तजीने जीवितव्यनो नाश करनार दलाल, विषनुं क्षण करे ठे. बालक पण पथ्थरने बोडी, सुवर्णने ग्रहण करे बे, परंतु मांसाहारी पुरुष तो मांसथी अधिक पुष्टि आपनार दिव्य जोजननो त्याग करी मांसने ग्रहण करे बे, तेथी ते बालक करतां पण अज्ञानी. मांस खावाथी मनुष्यनी निर्दयी प्रकृति थर जाय बे तेथी ते धर्मने योग्य रही शकता नथी. धर्मनुं मूल दया बे, या सिद्धांत सर्व उत्तम पुरुषो तथा संतजनो अंगीकार करे छे, तेथी मांसाहारी, मांस खावाथी दयायुक्त रही शकताज नयी, अने तेज कारणची तेने कसाई समान कह्या बे, तेथी मांसाहारीने धर्म नथी. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिवेद. (३४७) प्रश्न:-मांसाहारी पोते पोताने अधर्मी केम बनावे ? उत्तरः-मांसना खादमा बुब्ध थवाश्री, तेजे दया के धर्म का पण जाणता नथी. कदाचित् जाणवामां आवे तो पण मांसलुब्ध थर जवाथी मांसने तजवाने समर्थ रहेता नथी. ते कारणथी मनमा विचारे ने के आपणी समान बीजाउँ थर जाय तो कोश निंदा करे नहि, तेथी पोते बीजाने मांसलक्षण नहि करवानो उपदेश करी शकता नथी. . • केटलाएक मूढमति पोते तो मांस खाता नथी, परंतु देवता, अतिथि श्रने पितरोने माटे मांसनो उपयोग करे . तेना शास्त्रकार कहे के ॥ यथा ॥ क्रीत्वा स्वयं वा उत्पाद्य, परोपहतमेव वा ॥ देवान् पितॄन् समज्यर्च्य, खादन् मांसं न दृष्यति ॥ १॥ अर्थः-आ श्लोक मृगपदिना विषयमा ने. कसाश्नी उकान विना, पारधी तेमज शिकारी, श्रने जानवरोने मारनारा पासेश्री मूल आपीने मांस लेवु श्रने ते देवता, अतिथि तेमज पितरोने आप जोशए; कारण के कसाश्नी उकानना मांसश्री देवता, पितरोनी पूजा यश् शकती नथी, तेथी पोते मांस उत्पन्न करीने पितृयादिने थापे तो ते प्रसन्न थाय. पोते मांस था प्रमाणे - त्पन्न करे. ब्राह्मण, मागीने मांस लावे, क्षत्रिय शिकार करीने मांस लावे अथवा कोए मांसनी नेट करी होय, तो ते मांसपी देवता पितरोनी पूजा करीने, पनी पोते मांस खाय तो दोष नथी. था कथन, महामूढ तथा मिथ्यादृष्ठिउनुज बे; कारण के दयाधर्मी, आस्तिकमतवालाउँने तो मांस दृष्टिथीपण जोवू योग्य नथी, तो पड़ी देवता, अतिथिर्नुपूजन मांसथी करवं, या विचार खप्नमांपण तेउने केम श्रावे ? वली देवताउने मांस चढाव, ते बुद्धिमान्नुं काम नथी, कारण के देवता तो महापुएयवान् बे, केवल थाहार करता नथी, तो वो पुगंडा उत्पन्न करे तेवो आहार देवता केम ग्रहण करे ? तेथी जे देवताउँने मांसाहारी कहे जे, ते महाअज्ञानी . वली पितरो, पोतपोताना पुण्य पापने अनुसारें, सारी अथवा माठी गतिने प्राप्त थयेला बे, ते ते गतिमां पोताना कर्मनां फल जोगवे , अने पुत्रना करेला कर्मनां फल तेउँने काश्पण लागतां नथी, तो हवे मांस श्रापवाना पापर्नु तो झुंज कहेवू ? पुत्रादिना सुकृतनां फलपण तेउँने पहोंचतां नयी; कारण के आंबाने सेचन करवा Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) जैनतत्वादर्श. थी केल फलीत थती नश्री. तथा अतिथिनी जक्ति वास्ते मांसर्नु अर्पण नरकपातनो हेतु होवाथी, महा अधर्मनुं कारण .श्रा बाबतमां को एवो सवाल करे के, जे वात श्रुति, स्मृतिमां , ते मानवी जोशए. उत्तरः- श्रा कथन वास्तविक नथी. जे वात श्रुति, स्मृतिमा अप्रा. माणिक होय, ते बुद्धिमान् कदापि मानेज नहि,कारण के श्रुतिमां श्रमे एम सांजलीए बीए के “वचांसि नूयांसि यथा पापन्नोगोस्पर्शःमाणां च पूजागादीनां च पूजागादीनां च वधः खर्ग्यः ब्राह्मण जोजनं पितृप्रीणनं मायावीन्यधिदैवतानि वह्नौ हुतं देवप्रीतिप्रदं” श्रावं कथन जे श्रुतियोमा बे, तेने युक्तिकुशल पुरुष कदापि मानशे नहि; तेथी मांसथी देवतानी पूजा करवी ते महा अज्ञानता . वली केटलाएक कहे बे के, जेम मंत्रथी संस्कृत, अग्नि दाह करतो नथी, तेमज मंत्रथी सं. स्कार पामेलुं मांस दोषकारक रहेतुं नथी. था कथन मनुजीतुं ॥ यथा ॥ संस्कृतान् पशून् मंत्र, नाद्याहिप्रः कथंचन ॥ मंत्रैश्च सं. स्कृतानद्या, बाश्वतं विधिमास्थितः ॥१॥ अर्थः- मंत्रथी श्रसंस्कृत पशुउनुं मांस ब्राह्मण न खाय, अने मंत्रथी संस्कृत पशुतुं मांस खाय तो, शाश्वता नित्य वैदिक विधिमा रहेलो एम जाणवो. श्रा बाबतमा समाधान ए के, मंत्रथी जे मांस पवित्र करवामां श्राव्युं होय, ते पण धर्मी पुरुष कदापि नदण न करे, कारण के मंत्र जेम अग्मिनी दाहकशक्तिने रोके, तेम नरकादिप्रापण शक्ति जे मांस नी, तेने दूर करवाने मंत्रा शक्ति नथी. जो तेवी शक्ति मंत्रमा होय तो, दरेक पाप करीने, पडी ते पापना नाशकरनार मंत्रनुं स्मरण करवा मात्रयीज ते पाप नाश थई जाय, जो ए प्रमाणे होय तो वेदोमां पापनो निषेध करेलो , ते कथन सर्व निरर्थक समजवं; कारण के सर्वपाप मंत्रस्मरणथीज नाश थाय बे, पडी निषेध करवानी शी जरुर हती ? ते कारणथी आ पण अज्ञानीनुज कथन . वली केटलाएक कहे जे के जेम थप मद्यपानथी निस्सो चडतो नथी, तेम थोडं मांस खावाथी पाप लागतुं नथी. . उत्तरः-- थोडं पण मांस बुद्धिमान् खाय नहि. जेम थोडं पण विष पुःखदायक थाय , तेम थोडं पण मांस दोषरूप थाय डे. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिजेद. (३४ए) हवे मांस खावामां जे अनुत्तर दूषण जे ते कहीए बीए. तत्काल मांसमा समूर्छिम जीव उत्पन्न थाय डे, तेमज अनंत निगोदरूप जीव, तेनुं संतान वारंवार उत्पन्न थया करे , ते कारणथी महादूषण बे.॥ यदाहुः॥ आमासु अपक्वासु, अविपञ्चमाणासु मंसपेसीसु ॥ सयय चि य उववाऊ, नणि निगोय जीवाणं ॥१॥ अर्थः- काची, तेमज अपक्व जे मांसनी पेशी रांधवामां आवे , ते रंधाया उतां पण तेमां निरंतर निगोदना जीव उत्पन्न थाय बे. ते कारणथी मांसजदण, नरक गमन करनार जीवोने पुरी खरची बे, तेथी उत्तम जीवे कदापि मांस नक्षण करवु नहि. हवे मांसलक्षण करवानो उपदेश जेए करेलो , तेऊनां नाम लखीए बीए. १ मांस खावाना लालचुऊं. २ मर्यादारहितो, ३ नास्तिको, ४ अल्पबुद्धिमानो, ५ असत्य शास्त्र बनावनाराऊ, ६ पशुना वैरी. मांसाहारी समान कोश्पण निर्दय नथी. मांस आहारथी अधिक, नरक अग्निमाटे इंधन नथी. गंदकी खाश्ने सूअरो जे पोतानांशरीर पुष्ट करेने ते सारां बे, परंतु जीवने मारीने मांस खानारा सारा नथी. . प्रश्नः- सर्वजीवोनुं मांस खावू, एम सर्व कुशास्त्रोमां लखेबुं बे,परंतु मनुष्यनुं मांस खावू, एम कोश्पण शास्त्रमा लख्युं नथी, तेनुं शुं कारण ? उत्तरः-पोताना शरीरना मांसनी रक्षावास्ते कोपण कुशास्त्रिए मनुष्यनुं मांस खा लख्यु नथी; कारण के ते जाणता हता के, मनुव्यनुं मांस खावू, एम शास्त्रमा लखशुं तो, मनुष्य कदी अमने पण मारीने खा जशे. तेथी लखे नथी. जे पुरुषना मांसमां तेमज पशुना मांसमां तफावत मानता नथी, ते समान को धर्मी नथी; अने ते बाबतमा जे तफावत माने डे, भने मांस खाय , ते समान को पापी नथी. वली मांसनी उत्पत्ति रुधिरथी थाय बे, तथा विष्टाना रसथी तेनी वृद्धि थाय बे, वली लोही जेमा नरेलुं रहे बे, श्रने कृमि जेमा उत्पन्न थाय , एवा मांसने बुद्धिमान् केम खा शके ? आश्चर्य तो एज के ब्राह्मण लोको धर्म तो शुचिमूल कहे . अने सात धातुश्री जे मांस हाड बने , ते मांस हाडने मुखमां दांतथी चावे . हवे तेवाउने कुतरा समान गणवा के शु. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५०) जैनतत्त्वादर्श. चिधर्मवाला गणवा ? तेथी जे उष्टोनी एवी समज के, अन्न तथा मांस, श्रा बने एक सरखां , तेउनी बुद्धिमा, जीवित तथा मृत्यु श्राप नारां अमृत तेमज विष सरखांज जे. __ वली जे जडबुद्धिमानोनुं एबुं मानवू डे के, उदननी जेम, मांस प्राणीनुं अंग होवाथी खावा योग्य बे. श्रा तेर्जुनी मान्यता वास्तविक नथी, कारण के जो तेम होय तो गाय, मूत्र, तथा माता, पिता, स्त्री, पुत्री, ए सर्वेनुं मूत्र तेमज विष्टा, केम खाता पीता नथी, कारण के ते पण प्रा. णीना अंगथी उत्पन्न थयेल जे. वली पोतानी स्त्रीनी जेम, पोतानी माता, बेहेन दीकरीनी साथे केम गमन करता नथी ? स्त्रीत्व तेमज प्राणी अंगत्व सर्व स्थलें बराबर . वली जेम गायतुं उध पी बो, अने मातार्नु पय पान करो बो, तेम गायतुं रुधिर तेमज मातानुं रुधिर केम पिता नथी ? कारण के प्राणी अंग हेतु सर्वस्थते तुल्य . ते हेतुथी जे अन्न तथा मांसने एक सरखां माने बे,ते महापापीउना सरदारले. वली शंखने पवित्र माने , परंतु पशुना हाडने को पवित्र मानता नथी, ते कारणथी अन्न तेमज मांस, प्राणी अंग , तो पण अन्न जदय , अने मांस अजय . एक पंचेंजिय जीवनो वध करीने मांस खावाथी जेम खानारने नरकगति प्राप्त थाय बे, तेम तेवी मानी गति श्रन्नखानारनी थती नथी; कारण के अन्न, मांस थई शकतुं नश्री. मांसनी तसीरोथी अन्ननी तसीरो ओर तरेदनी बे. मांस महाविकार करे , अन्न तेम करतुं नथी. इत्यादि विलक्षण खनाव , तेथी मांस खानारनी नरकगति जाणीने संत पुरुषो अन्नना जोजनथी तृप्ति मानेबे, अने उत्तम पद प्राप्त करे . आ सर्व मांसनां दूषणो श्रीमद् हेमचंडसूरिकृत योगशास्त्रने अनुसारें लखेला . वली वर्तमानमां बुद्धिमान् पाश्चिमात्य लोकोए मांस खावाथी चोवीश उर्गुण प्रगट थाय डे, एम बतावेलु , अने मदिराथी तो एटली खराबी थाय ने के जेनी गणत्री पण थई शकती नथी. ते कारणथी मदिरा तेमज मांस श्रा बने श्रजयनो श्रावक त्याग करे, श्रा सातमुं अजय कडं. श्रापमुं अजय माखण जे. जैनमतना शास्त्रानुसार गशथी बहार काढेला माखणने ज्यारे अंतर्मुहूर्त अर्थात् बे घडी काल व्यतीत Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिछेद. (३५१) थाय डे, त्यारे ते माखणमां सूक्ष्म जीवो तेज वर्णना उत्पन्न थर जाय बे, ते कारणथी माखण त्यागवा योग्य ले. जैनलोकोए बाशथी माखण बहार काढीने, तत्काल अग्निसंयोगथी, बनावीने, गलीने, पनी खावू जोश्ए; कारण के ए रीतिथी शास्त्रोक्त जीव तेमां उत्पन्न थता नथी ते. नी हिंसा थती नथी, वनी माखी, कंसारी, मछरादि जीवोना अवयव प्रमुख पण, घी गलवाथी निकली जाय ; वली माखण कामनी पण वृद्धि करे , तेथी मनमां खोटा विकल्प उत्पन्न थाय बे; तेथी श्रावकें माखण न खावू जोए. वली एक जीवनो नाश करवाथी ज्यारे पाप थाय बे, त्यारे पूर्वोक्त रीतिथी माखण तो जीवोनुंज पिंड थई जाय . तेथी माखण खावाथी पापनी गणतरी केम थर शके ? प्रश्नः- माखणमां बे घडी पड़ी कोईपण जीव उत्पन्न थयेल अमे दे: खता नथी, तो केवीरीतें तमारूं कहे सत्य मानी शकीए ? उत्तरः- जेठ जैनमतना शास्त्रोने सत्य मानशे, ते तो शास्त्रकारना कथनने सत्यज मानशे, अने जे जैननां शास्त्रोने सत्य मानता नयी ते कदापि था कथन सत्यमानो अथवा न मानो, परंतु अमे तो श्रा वातमां बागम प्रमाण विना बीजुं प्रमाण दई शकता नथी. तात्पर्य ए के के वस्तु बे प्रकारे सिक थाय ; एक हेतुगम्य, बीजी आगमगम्य माखणहिदलादिमां जे जीव उत्पन्न थाय , ते हेतुगम्य नथी, परंतु आगमगम्य . ते कारणथी जे पागम सर्वज्ञ जिन अस्त वीतरागें कथन करेल , ते सत्य होवाथी मानवु जोईए. जो कोश पुरुष, कोपण शास्त्रने सत्य नहि मानतां, आंखथी देखेली वस्तुनेज मानशे, तो तेनाथी वर्ग नरकादि, जे अदृष्ट बे, ते पण मानी शकाशे नहि, वली परमेश्वर सातमा अथवा चौदमा असमान उपर , तथा जीव, पुण्य, पाप करवाथी खर्ग, नरकमां जाय , था पण नहिज मानी शकाशे. इत्यादि अनेक बाबतो तेनाथी मानी शकाशे नहि. जो बीजी बाबतो, इजियोने अगम्य, मानशे तो, श्रागम प्रमाण पण मानतुं पडशे, कारण के सर्व वस्तु अमारी दृष्टिमां श्रावि शकती नथी. ए नवमुं अजय मधु अर्थात् मध अनेक जीवोनो घात थवाथी उत्पन्न थाय बे. श्रा परलोकविरुद्ध दोष , अने मुखनी लालना जे Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५२) जैनतत्त्वादर्श. q उगंला उत्पादक , था इहलोकविरुफ दोष बे. ते कारणथी धर्मी श्रावके मध न खावू जोश्ए. हवे मधखानारनुं पापीपणुं बतावीए बीए. ॥ श्लोक ॥ जदयन् मादिकं हुई, जंतुलदादयोनवं ॥ स्तोकजंतुनिहंतृन्यः, सौनिकेन्योऽतिरिच्यते ॥१॥अर्थः-अर्थात् नाना, हाडरहित लाखो जीवोनो ज्यारे नाश थायने, त्यारे मध उत्पन्न थाय , ज्यारे मध चक्षण करवामां आवे , त्यारे थोडा पशु मारनारा कसाश्थी पण अधिक पाप खानारने लागेडे, कारण के लक्षण करनारा पण घातक , आ वात उपर सारी रीतें बतावेली . वली लोक व्यवहारमा पण एq जोजन निंदनीय डे, अने मध तो महा जूठ एवं डे. कारण के एकेक फुलनो मकरंद ( रस) पीश्ने मांखी ते रसने वमन करे . तेज मध . ते कारणथी धर्मीपुरुषे जूठ न खावु जोशए. आ वात लोकव्यवहारमा प्रसिक . वली को कहे के मध तो त्रिदोषने दूर करनार , ते कारणथी औषधमां लक्षण करवायी शुं दोष ? उत्तरः-अप्यौषधकृते जग्धं, मधु श्वचनिबंधनं ॥ जदितःप्राणनाशाय कालकूटकणोपिहि ॥१॥अर्थः-रसनी लंपटताथी मध खाय तेनी वात तो दूर रही, परंतु औषधवास्ते पण जे मध खाय,अने तेथी कदापि रोगनो नाशपण थाय तोपण, तेथी नरकगतिर्नु कारण प्रगट थाय , कारण के प्रमादना उदयथी, जीववानो अर्था उतां पण जे को कालकूट विषनो एक कण पण खाशे तो, अवश्य तेना प्राण नाश पामशे. प्रश्नः-मध तो खजूर, बादादि रसनी जेम मीतुंबे, सर्व इंजियोने सुखकारि बे, तो तेने त्यागवाने शा वास्ते उपदेश करोबो ? . उत्तरः-मधमां मीगश बे, ए वात सत्य बे, पण ते व्यवहारथी डे. परमार्थथी तो नरकनी वेदनानो हेतु होवाथी मध अत्यंत कडवू डे. हवे मधने पवित्र मानी जे मंदबुद्धिमानो देवस्नानमा उपयोगी माने बे, तेउनु उपहास्य शास्त्रकार करे ॥ लोक ॥ मक्षिकामुख निष्ठयूतं, जंतुघातोद्भवं मधु ॥ अहो पवित्रं मन्वाना, देवस्नाने प्रयुंज ते ॥१॥ अर्थः-मांखीऊना मुखनी जून तथा जीव घातमा हजारो बच्चा तेमज इंडांमारवाथी जे उत्पन्न थायजे, ते बच्चों तेमज इंडांव्याय , त्यारे तेना Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिच्छेद. ( ३५३ ) शरीरनुं पाणी (लोही ) पण मधमां मली जाय बे, हवे जुर्ज के मध केवुं पवित्र बे ? अहो शब्द श्लोकमां उपहास्य माटे बे. कारण के जेवा ते देवता बे, तेवी पवित्र वस्तु पण तेमने चडाववामां आवे बे. या उपहास्य बे. ॥ यथा ॥ करजाणां विवाहे तु, रासनास्तत्रगायकाः ॥ परस्परं प्रशंसन्ति, श्रहोरूपमहोध्वनिः ॥ श्रश्लोकमां अहो शब्द उपहास्य माटे बे. इति नवमं अजय. १० पाणीनो बनावेलो बरफ अजय बे. बरफ असंख्य काय जी - वोनुं पिंड डे. ते खावाथी चेतना मंद थायडे, तत्काल शरदी थायले. कांपण बलवृद्धि यती नथी. वीतराग श्रतजगवन्तें निषेध करेल बे, ते कारणयी अक्ष्य बे. ११ फी प्रमुख विषवस्तु जक्ष्य बे. कारण के फेरी वस्तु खावाथी उदरमां कृमि, गंडोलादि जे जीव होय बे, ते मरीजायडे, विष खावाथी चेतना काय बे. वली जो खावानी देव पडी जायबे तो, पढी बोडवुं मुश्केल थायडे. वखतसर न मले तो क्रोध उत्पन्न याय बे. शरीर शिथिल इ जायडे. वली जे व्यसनी थायडे, तेनाथी व्रत, नियम प्रायः अंगीकार यइ शकतां नथी. व्यसनिनो खन्नाव वारंवार दलबदल थायडे. ज्यारे अमल खायडे, त्यारे एकरंग थायडे; ज्यारे अमल उतरी जायडे, त्यारे बीजो रंग थायडे. वली स्वतंत्रता तजी, पराधीन पणु अंगीकार करवुं पडे. मलनो स्वाद पण बुरो बे. वली विषखानारा ज्यां लघुनीत, वडीनीत करेढे, त्यां त्रस, स्थावर जीवोनी हिंसा थायडे. सोमल, वचनाग, हरताल प्रमुख सर्व विषमां दाखल थायडे. तेर्जनो त्याग करवो श्रावकने उचित बे. १२ करा, जे आकाशमांथी वरसादमां पडेडे. आपण अजय बे. १३ सर्वजातनी काची माटी अजय बे. काची, सचित्त माटी, नाना प्रकारनी असंख्य जीवात्मक बे. माटी खावार्थी पेटमां बहु जीव उत्पन्न थायडे. पांडु रोग, श्रमरोग, वात, पित्त, पथरी प्रमुखरोग उत्पन्न याय बे. माटी बहु खावाथी शरीरनो पीलो रंग थायडे. वली केटलीएक जातनीमाटीमांदेडका प्रमुखजीवोनी योनि बे. ते कारणोथी अनक्ष्य बे. १४ रात्रिजोजन अजय बे रात्रिभोजनमां प्रत्यक्षथी लोकमां दूषणो बे, छाने परलोकमां ते दुःखनं हेतु बे; रात्रिए चारे आहार अज ४५ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५४ ) जैनतत्त्वादर्श, क्ष्य बे. रात्रिमां जे जे रंगना पदार्थोंनो आहार करवामां आवे छे, ते ते रंगना जीवो, जेनुं नाम तमस्काय बे, ते ते पदार्थोंमां उत्पन्न यायढे. वली श्राश्रितजीवपण बहुज होय. तथा रात्रिमां उचित अनुचित वस्तुनो जेल, संजेल थर जायडे. वली रात्रिभोजनमां प्रसंग दोष बहुज लागेढे. जेम के, ज्यारे रात्रिए खावानुं बनशे, त्यारे रात्रिभोजन वास्ते, निरंतर रसोइपण करवी पडशे: रसोइ करतां, त्रस, स्थावर जीवोनो संहार थइ जशे; तेथी श्रावकना कुलाचारनो नाश थशे. वली सूक्ष्मत्रस जीव नजरमां पण - वता नथी, कदापि देखाय तो निध्वंस परिणाम थवाथी यत्ना पण रही शकती थी. ज्यारे नि बलेबे, त्यारे पासेनी जीतपर जे श्राश्रित जीवो रहेला होय, ते तापथी श्राकुल व्याकुल थश्ने, अनिमां पडे डे. वली सपदि फेरी जानवर कदापि होय, तो तेना मुखथी जो जोजनमां लाल पडेतो, पोतानो तेमज खानारा सर्वनो विनाश थायडे. वली पतंगिया, गरोली, उपकली, मकडी, मटर, करोली या प्रमुख जीवो जे रात्रिए श्रासपास होयडे, ते मिना प्रकाशथी जोजनमां श्रावी पडे तो, जारे रोगोत्पत्ति थायडे. यडुक्तं योगशास्त्रे ॥ मेधां पिपीलिका दंति, यूका कुर्याऊलो दरं ॥ कुरुते मक्षिका वान्तिं कुष्टरोगं च कोलिका ॥ १ ॥ कंटकोदारुखंडंच, वितनोति गलव्यथां ॥ व्यंजनांतर्निपतित, स्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥ विलग्नश्च गले वालः, स्वरभंगाय जायते ॥ इत्यादयोदृष्टदोषाः सर्वेषां निशि जोजने ॥३॥ अर्थः- न्नादिमांकीडी खावामां आवे तो बुद्धिनाश या मंद थायबे, जु खावामां आवी जाय तो जलोदर थायडे, माखी वमन करावे बे, ने मकडी कुष्टरोग उत्पन्न करे. कांटा अथवा लाकडानाकटका खावामां आवी जाय तो, गलामां व्याधि उत्पन्न करेबे, अने रांधवानुं जाजन उघडतां जो विंडी पडी जायतो तालबुं विंधी नाखेडे, इत्यादि दृष्टदोष रात्रि जोजन करवामां सर्वे लोकोने देखवामां श्रावे. वली जेम रसोइ करतां षट्काय जीवोनी हिंसा रात्रिए करवी पडेबे, तेवीज रीतें रांधेलां जाजनो धोवाथी जलगत जीवोनो पण विनाश थायडे. वली जल पडवाथी भूमिपर कुंधु, कीडी प्रमुखनो पण नाश थायडे. ते कारणथी जीवरक्षाने इछनार प्राणी रात्रिजोजन करे नहि. प्रश्नः - ज्यां अन्नपण रांधवुं न पडे, तेमज जाजन पण धोवां न पडे एवा Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिछेद. (३५५) बनावी राखेला लाडवा प्रमुख तथा तैयार खजुर, जादादि जे जदय . ते खावामां शुं दोष ? उत्तरः-यथा ॥ नाप्रेदय सूक्ष्मजंतूनि, निश्ययात् प्राशुकान्यपि ॥ अप्युक्तं केवलज्ञान, निदितं यन्निशाशनं ॥ १॥ अर्थः-मोदक तथा. फलादि अगर जो प्राशुक अर्थात् अचेतन पण बे, तो पण रात्रिए न खावा जोशए, कारण के कुंथवादि सूक्ष्मजंतुर्ज रात्रिए नजरे पडता नथीवनी केवलज्ञानी, जेने निरंतर सर्वकांश देखाय , ते पण रात्रिए जोजन करता नथी. सूक्ष्मजंतुनी रदा वास्ते, तेमज अशुद्ध व्यवहार दूर करवावास्ते, केवलज्ञानी रात्रिए आदार करता नथी. अगर जो दीवा प्रमुखना प्रकाशथी कीडीप्रमुख दृष्टिए पडे , तो पण मूलगुणनी विराधना टालवा वास्ते रात्रि जोजन अनाचरणीय . __ हवे लौकिक मतवादीउनी सम्मतिपूर्वक रात्रिलोजननो निषेध करीए बीए. यथा ॥ धर्मविन्नैव मुंजीत, कदाचन दिनात्यये ॥ बाह्या अपि निशानोज्यं, यदलोज्यं प्रचक्षते ॥१॥ श्रुतधर्मनो ज्ञाता कदापि रोत्रिनोजन करे नहि, कारण के जिनशासनथी बहारना मतवाला पण रात्रिजोजनने अजय कहेले. तेउना शास्त्रोमां कहेलु बे के ॥ यथा ॥त्रयीतेजोमयोजानु, रिति वेदविदोविः ॥ तत्करैः पूतमखिलं, शुनं कर्म समाचरेत् ॥ १॥ अर्थः-झग, यजुः, साम लवण त्रणे वेद, तेनुं जे तेज ते सूर्य दे. " श्रादित्यः त्रयीतनुः” एवं सूर्यनुं नाम . ए प्रमाणे वेदोने जाणनारा जाणे ; ते सूर्यना विद्यमान अर्थात् किरणोथी पवित्र थतां सर्व शुनकामो अंगीकार करे; ज्यारे सूर्य न होय त्यारे शुज कर्मों करे नहि. ते शुजकोनां नाम तेए था प्रमाणे लखेला . ॥ यथा ॥ नैवाहुतिन च स्नानं, नाकं देवतार्चनं ॥ दानं वा विहितं रात्रौ, जोजनं च विशेषतः ॥॥ अर्थः-थाहुति अर्थात् अग्निमां घीप्रदेप करवू,स्नान अर्थात् शरीरना अंगोने धोवां,श्राफ पितृकर्म, देवपूजा, दानदेवं, अने जोजन तो विशेषे करीनज करवं; आटला कामो रात्रिए नज करवां. वली परमतमां बीजा बे श्लोक जे ॥ यथा ॥ देवैस्तु जुक्तं पूर्वाह्ने, मध्याह्ने शषिनिस्तथा ॥ अपराह्ने तु पितृनिः, सायाह्ने दैत्यदानवैः ॥१॥ संध्यायां यदरदोनिः, सदा जुक्तं कुलोछह ॥ सर्ववेलां व्यतिक्रम्य, Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिछेद. (३६३) खी ले; परंतु एटलो अपवाद के, देवपूजा, देवदर्शनादि प्रसंगें, तेमज धर्म करणी करतां हस्तमां धूपादि लेवां पडे, तथा मस्तके तिलक करवू पडे, तथा नगवानने अर्चन करवा वखते चंदनादि विलेपन कर, पडे, तेनुं श्रावकने, नियम नथी. ११ अगीश्रारमुं ब्रह्मचर्य नियम. दिवसे तेमज रात्रिए बाटली वखत खस्त्री साये मैथुनसेवन करुं ते उपरांत मैथुनसेवननो त्याग बे. वली हास्य, विनोद, आलिंगन, चुंबनादि करवाना नांगा राखे. १२ बारमुं दिशिनुं नियम. अमुक दिशिमा आज मारे अमुक कोस उपरांत जवू नहि तेमां आदेश, उपदेश, माणस मोकलबुं तथा पत्र व्यवहार, विगेरेसर्वनोसमावेश थायजे,जेवीरीतेपाली शके तेवं नियम करे. १३ तेरमुं स्नाननियम. आजे तेलादिमर्दनपूर्वक अथवा मर्दन विना आटली वखत स्नान करूं, तेनुं प्रमाण करे, तेमां देवपूजा वास्ते नियमथी अधिक स्नान करवु पडे तो, व्रतजंग नहि. १५ चौदमुं नात पाणीनुं नियम. चार आहारमाथी स्वादिमनुं नियम तो श्रावकें तंबोल नियममा करी लीधुंबे, तेथी बाकीना त्रण आहारतुं नियम करवानुं बे; तेमां प्रथम अशन, ते रोटली, जात, कचोरी, शीरा प्रमुखना वजननुं परिमाण करे, ते उपरांत त्यागे. पोताना घरमां बहु परिवार होय, तेजेने वास्ते अशनादि कराववां पडे तेनी जयणा राखे. वली बीजाने घेर न्याति आदि जमतां होय तेवे प्रसंगे जमवा जर्बु पडे, त्यां अधिक रसोश बनावेली होय, तेनुं दूषण नियमधारीने नथी; कारण के नियमधारियें तो पोताना नोजनार्थे वापरवानुं परिमाण करे, बे, परंतु ज्ञाति वास्ते मर्यादा करेली नथी. नियममां अशनना तोलन परिमाण करे बीजुं पाणी पीवाना तोलनु परिमाण करे, त्रीजें खादिम, ते मिष्टान्न पदार्थ खावाना तोलनु परिमाण करे. आ चौद नियम . अधिक जाववाला श्रावक सचित्तादि परिमाणमां अव्यर्नु परिमाण जुदा जुदा नामश्री राखे, तो बहुज निर्जरा थाय. इति चौदनियमखरूप. हवे पंदर कर्मादाननुं स्वरूप लखीए बीये. नीचेना पंदर व्यापार श्रावके वर्जवा; कारण के ते करवामां बहुज पापडे, कदापि पोतानी आजीविका न चालती होयतोकरवाना व्यापारनुं परिमाणकरें. ते पंदर कर्मादाननां नाम, Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६४ ) जैनतत्वादर्श. १ प्रथम इंगालकर्म. कोयला बनाववा, इंट बनाववी, नहीमां अनेक प्रकारां ठाम बनाववां, ते सर्वे वेचवां, लुहारनां काम, सोनारनांकाम, बंगडीकारनां काम, कलालनां काम, जठीयारानां काम, हलवाइनांकाम, धातुगालक प्रमुख जे जे कामो मिश्री थाय, तेसर्व इंगाल कर्म बे; या कामोमां पाप बहुज लागे बे, अने लाज बहु मलतो नथी; तेथी श्रावक श्रवां काम करे नहि. " २ बीजुं वनकर्म. बेद्यां, अणबेद्यां वन वेचवां, वाडी, बगीचानां फूल, फल, कंदमूल, घास, काष्ठ, वांसादि, तेमज तमाम लीली वनस्पति करवी, तथा वेचवी, या सर्व वनकर्म बे. ३ श्रीजुं साडी कर्म. गाडी, रथ, दमणीयां, शीगराम, वहाण, आगबोट, हल, दंताल, चरखा, घाणी, चक्की, धुंसरा प्रमुख बनाववां तथा वे - चवां या सर्व शकटकर्म बे. ४ चोथुं जाडी कर्म. गाडां प्रमुख बलद उंट खच्चर गधेडा घोडा पाडा स प्रमुखथी वदेवरावी, बीजानां जाडां करी, श्राजीविका चलाववी ते जाडी कर्म. ५ पांच फोडी कर्म. श्राजी विकावास्ते, कुवा, वाव, तलाव प्रमुख खोदवा, खोदाववां, हल चलाववां, पछर फोडवा, खाण खोदाववी इत्यादि स्फोटिक कर्म बे. या पांचे कर्ममां बहुज जीवोनी हिंसा थायडे, तेश्री पांचे कुकर्म कहेवाय बे. हवे पांच कुवाणिज्यनुं स्वरूप लखीये बीये. १ प्रथम दंतकुंवाणिज्य, हाथीना दांत, घुवडना नख, जीन, कलेजां, पक्षीजनों रोम, गायनां चमर, हरणनां सींग, गेंडांना सींग, रेशमना कृमि इत्यादि जे त्रस जीवोनां अंगोपांग वेचवां, ते सर्व दंतकुवाणिज्य बे. ज्यारे ते वस्तु लेवा वास्ते श्रागरमां जवुं पडे, त्यारे जिल्लादि लोक तत्काल हाथी गैंडा प्रमुख जीवोनी हिंसामां प्रवृत्त थाय बे. महानर्थरूप पापनां काम याचरे बे. त्यां जवाथी आपणा परिणाम पण मलिन थइ जायढे. कदाचित् तीव्रलोनग्रस्त यवाथी, जिल्लादि व्याधोने कहेतुं पडे के, - मारे मोटा जारे दांत प्रमुख जोइये बीये, त्यारे ते लोको तत्काल हाथी प्रमुखने मारी श्रापणने जोश्ती वस्तु लावी श्रापशे. तेथी श्रावकने वस्तुनी जरुर होय तेवे प्रसंगे श्रागरमां नहि जतां, ते बाबतना व्यापारी पा Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिबेद. (३६५) सेथी ते वस्तु ले. एक चमर सेवा जतां एक गाय मरे. ते कारणथी विचारीने व्यापार करे. . २ बीजु लाख कुवाणिज्य. लाख, धावडी, गली, साजीखार, मणसील, हरताल प्रमुख सर्व लाख कुवाणिज्य . लाख, त्रस जीवोना समूहथीज बने , परी ज्यारे रंग काढे ने, अने तेने अन्नथी सडावे , त्यारे तेमा त्रसजीवनी उत्पत्ति थाय ने. महापुगंधि रुधिर सरखो वर्ण देखाय . धावडीमां त्रसजीव उपजे बे, कुंथवा पण बहुज थायडे, मदिरानुं अंगजे. वली गली ज्यारे सडावे , त्यारे तेमा त्रसजीवनी उत्पत्ति थाय बे. गलीना कुंम्मांपण त्रसजीव बहुज उत्पन्न थाय बे; गलीवाला वस्त्रो पहेरवामां जू लीखादि त्रसजीव उत्पन्न थाय . हरताल, मणसीलने पीसतीवखत यत्न न रखायतो मांखी प्रमुख अनेक जीव मरी जाय . ३त्रीजुं रसकुवाणिज्य.मदिरा, मांस इत्यादि वस्तुऊना व्यापार महापापरूप . वली बुध, दही, घी, तेल, गोल, खांड प्रमुख जे नरम वस्तुबे, तेऊनो जे व्यापार ते रसकुवाणिज्य . श्रा व्यापारमा अनेक जीवोनो घात थाय बे. ४ चोथु केशवाणिज्य. छिपद जे मनुष्य दास, दासी प्रमुख, खरीद करी वेचवां, तथा चौपद ते गाय, घोडा, बलद नेंस प्रमुख खरीद करी वेचंवां; तथा पदी मां तितर, मोर, पोपट, मेंना, प्रमुख, वेचवां. आ वाणिज्यमा बहज पाप ने. ५ पांचमु विषवाणिज्य. सोमल, वचनाग, अफीण,मणसील, हरताल, चरस, गांजो प्रमुख; तथा शस्त्र, ते धनुष्, तलवार, कटारी, बरी, बरबी, फरसी, कुहाडी, कोदाली, बंडक, बख्तर, ढाल, गोली, तोप प्रमुख जे संग्राममां उपयोगमां आवेडे, तथा हल,मुशल, उखल, दंताली, कर्वत, दातरडी, हवाइ पटाका, शतनी प्रमुख,श्रा सर्व हिंसानां अधिकरण बे; तेजनो जे व्यापार ते विषवाणिज्य बे. हवे पांच सामान्य कर्म बतावीये लिये. १ प्रथम यंत्रपीलन कर्म. तल, एरंडी, श्छु श्रादि पीली, पीलावी,वेचवां, या सर्व जीवहिंसाना निमित्तरूप कर्म . २ बीजं निाउन कर्म. बलद, घोडानी खांसी करवी; घोडा, बलद,जं. ट प्रमुखने दाग देवां; कोटवालपणुं, जेलखानाना जेलरनुं काम, मेहेसु Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६६) जैनतत्त्वादर्श. ल जारानां काम, चोरीना माल लेवानां काम, इत्यादि निर्दयपणानां सर्वकाम निलाउन कर्ममां समाय डे. ३ त्रीजुं दावाग्निदान कर्म, केटलाएक मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव धम मानीने वनमां आग लगावी देने; ते मनमां एम धारे ने के, नवं घास उत्पन्न थशे, त्यारे गाय प्रमुख चरशे, जिहादि लोक सुखेथी र. हेशे, अन्न निपजशे, इत्यादि विचार लावी वनदवतुं काम करे, परंतु आग लगाडवाथी लाखो जीवोनो नाश थर जायडे, तेनो विचार तेजेने आवे नहि. ते कारणथी आग न लगाववी जोश्ए. ४ चोथु शोषणकर्म. वाव, तलाव, सरोवर, कुवा प्रमुखतुं पाणी पोताना खेतरादिमां एवी रीतें लावq के, तमाम पाणी बहार निकलतां लाखो जीव पाबल, जलरहित यश् तरफडी मरी जाय, या शोषण कर्म . ते कारणथी सर्व पाणीशोषण न करवू. ५ पांचमुं असतीपोषण, कर्म कुतूहलने वास्ते कुतरा, बिलाडा प्रमुख हिंसक जीवोनुं पोषण करवं. वली कुष्ट जार्या तथा पुराचारी पुत्रादिनुं मोदशी पोषण करवू, तेउने सारां, नरसां नहि जाणतां, मनमां आवे तेवी रीते, तेउने राजी राखवानो यत्न करवो, तथा वेचवावास्ते पुराचारी दास, दासीन पोषण करवू, इत्यादि असतीपोषणकर्म कहेवाय जे. वली मानी, कसाइ, वाघरी, चमार, प्रमुख बहु हिंसक जीवोनी साथे व्या. पार करवो, तेउँने अव्यादिनी मदद आपवी, या पण इष्टजीवोनुं पोषण . कदापि अनुकंपायुक्त बुद्धिथी श्वानादि पशुढ पोषण करवामां आवे तो ते बाबतमा निषेध नथी. वली पोताना मोहोरामां कदाचित् तेवा जीवोनी खबर लेवी पडे, तेमज पोताना कुटुंबीउन पोषण करवू पडे तेमां पूर्वोक्त दोष नथी; कारण के ते लोकनीति, राज्यनीतिनुं फरमान . श्रा पांच सामान्य कर्म. इति पंदर कर्मादान स्वरूप, हवे आ नोगोपजोग व्रतना पांच अतिचारनुं स्वरूप लखीए बीए. १ प्रथम सचित्त आहार अतिचार. मूल जांगे तो श्रावक सर्व सचितनो त्याग करे, जो तेम न थ शके तो, तेनुं परिमाण करे, तेमां सर्व सचित्तना त्यागी, तथा सचित्तना परिमाणवाला, जो अनाजोगादिकथी सचित्त आहार करे, जेम के जल, उष्ण करतां त्रण उकाला (उजरा) Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिबेद. आवी जाय त्यारे शुद्ध प्राशुक थायबे, परंतु एक उकाला अथवा बे उकालानुं पाणी तो मिश्र उदक कहेवाय , ते पाणीने अचित्त जाणी पीये, तथा सचित्त वस्तुने अचित्त थवामां विलंब होय, उतांपि तेने अचित्त जाणी खाय तो प्रथम अतिचार लागे. २ बीजुं सचित्त प्रतिबझाहार अतिचार. जेने सचित्त वस्तुनो नियम बे, ते तत्काल खेरनी गांउथी गुंदर उखेडीने खाय, तेमां गुंदर तो अचित्त डे, परंतु सचित्तनी साये मलेलो हतो, तेथी दोष लागे . वली पाकी केरी चूसे, तथा बोर, रायणना समूहने खाय, अने मनमा एम जाणे के हुं तो अचित्त खाउनु, सचित्त गोठली, उलीयाने फेंकी दश्श, तेमां शुं दोष ? एवा विचारथी खाय तो, बीजो अतिचार लागे. ३त्रीजो अपक्वाहार अतिचार.चाल्या वगरनो लोट, तथा जेने अग्नि संस्कार न करवामां आव्यो होय, एवो काचो लोट फाके; कारण के श्री सिद्धांतमां कडं बे के, आटो दव्या पली, चाल्या विना केटलाएक दिवस मिश्र रहे. श्रावण, जादरवा मासमां श्रणचाल्यो आटो पीस्यापबी, पांच दिवस मिश्र रहे, आसो, कारतक मासमा चार दिवस मिश्र रहे बे, मागशर, पोष मासमांत्रण दिवस मिश्र रहे , माघ, फागण मासमां पांच पदोर मिश्र रहेने, चैत्र, वैशाख मासमां चार पहोर मिश्र रहे, अने जेठ असाड मासमां त्रण पहोर मिश्र रहेबे, पनी अचित्त थर जाय, तेथी मिश्र खायतो, त्रीजो अतिचार लागे. ___४ चोथा उपक्वाहार अतिचार, कांश्क काचा तथा कांश्क पाका एवा सर्व जातिना उला, लंबी, पोंक, जुवार, बाजरा,घ प्रमुखना लीला पोंक बीजथी जरेला, ते अग्निसंस्कार करतां जेना केटलाएक दाणा अचित्त थाय, तथा केटलाएक दाणा सचित्त रहे, तेने अचित्त जाणी खाय तो, चोथो अतिचार लागे. ___५ पांचमो तुऔषधि लक्षण अतिचार. तुब अर्थात् असार जे खावाथी तृप्ति न थाय, परंतु खावामां पाप बहुज लागतुं होय, जेमके चणानां फूलखाय, बोरना उलियामांथी गरज काढी खाय, वाल, चणा, मग, चोलानी फली खाय, श्र वस्तु खावामां प्रसंगदूषणो बहुज लागे ,कारण, Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६७) जैनतत्त्वादर्श. के केटली एक वनस्पति अति कोमल अवस्थामां अनंतकायपण होयने, ते खावाथी अनंतकायनो व्रतजंग थाय. आ पांचमो अतिचार, हवे बाग्माअनर्थदंड विरमणव्रत, खरूप कहियें जियें. पोतानाप्रयोजनवास्ते करवू ते अर्थदंड कहेवाय . धन, धान्य देत्रादि नवविध परिग्रहमा हानि वृद्धि थाय, त्यारे करे, कारण के धनवृद्धिने निमित्ते संसारी जीवने बहुपापनां कारणो सेवां पडे, तेवे प्रसंगे साचुं, जुलै बोल्याविना रही शकातुं नथी. पापना उपकरणां पण मेलववां पडे, ज्यारे कांश मनसुबो करवो पडे, त्यारे विकल्परूप आर्तध्यान करवू पडे, कारण के धनादि परिग्रह अजीविका अर्थे जरूरना , तेवास्ते धननी वृद्धि निमित्ते जे जे पाप करवामां आवे ते ते सर्व अर्थदंकडे, वली ज्यारे धननी हानि थायडे, त्यारे धननी हानि दूर करवा वास्ते अनेक विकल्प रूप पाप करवां पडे, तेपण अर्थदंड; कारण के धन, व्यवहार संसार सुखनु मुख्य कारण , ते व्यवहार वास्ते जे जे पाप करवां पडे ते सर्व अर्थदंड . वली पोताना वजन कुटुंब परिवारादि वास्ते अवश्य जे जे पाप सेववां पडे, ते ते सर्व अर्थदंड बे; अने चोथु, पांच प्रकारनी इंजियोना जोगवास्ते जे पाप करवां पडे ते पण अर्थदंड जे. पूर्वोक्त चार प्रयोजनविना जे पाप करवामां आवे ते अनर्थदंड जाणवां. तेना चार नेद २. १ अपध्यान अनर्थदंड,श्पापोपदेश अनर्थदंड, हिंसाप्रदान अनर्थदंड, ४ प्रमादाचरित अनर्थदंड. तेमां प्रथम जे अपध्यान अनर्थदंड डे, तेना वली बे नेद. १ आर्तध्यान; २ रौऽध्यान; तेमां बार्तध्यानना चार नेद बे, ते पृथक् पृथक् कहिये बियें. १प्रथम इष्टवियोग आर्तध्यान. पोताने प्राप्त थयेला नवविध परिग्र. हनो रखे वियोग थाय, एवं चिंतवन निरंतर मनमा लाव्या करे, श्रने कदाचित् तेनो वियोग थाय तो मनमां घणोज खेद धारण करे, श्रने निरंतर तेने वास्ते विलोपात कर्या करे, तेमज पोताना वहालां माता, पिता, पुत्र, पुत्री, जार्या नाइ, बेहेन, मित्रादि परदेश गयां होय, अथवा तो मृत्यु पाम्यां होय ते प्रसंगे अत्यंत चिंता करे, खाय पीये नहि, वियोगना दुःखथी आत्मघात करवानो विचार करे, निरंतर क्रोधातुर रहे, इत्यादि प्रसंगे, जे चिंतवन थाय ते वार्तध्यान बे. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिवेद. (३६ए) बीजु अनिष्ट संयोगार्तध्यान, इंजियसुखने विघ्नकारक अनिष्ट शब्दादिनो संयोग रखे मने थाय एवी मनमां चिंता करे, वली घरमां स्त्री खराब मली होय, पुत्र कपूत थयो होय, जाइ विश्वासघाती, बे दीलवालो होय, पिता क्रोधी होय, माता पुराचरणी होय, मित्र कृतघ्न मट्यो होय, एवा प्रसंगोमां निरंतर तेऊनो उपाय करवानी चिंता थाय, वली स्त्री मनमां एवो विचार करे के,मारी शोक्य बहुज खराब , मारा पतिने रोज जुलावो खवरावे बे, रखे मने को दिन पतिवियोग करावे ? तेथी ते रांडनो का उपाय करवो जोश्ए. वली सेवक मनमा एवो विचार करे के, मारा शेग्नी पासे मारो अमुक उश्मन अवश्य चाडीखाशे, अने मारादरजाने नरम करी नाखशे, अथवा तो शेठने जू, साचुं कही मने नोकरीथी रद बातल करावशे, तो पड़ी हुं हुंकरीश, तेथी ते पुश्मननो कांक उपाय करवो जोश्ए. तेवे प्रसंगें, तेना निग्रह वास्ते, यंत्र, मंत्र, कारण, वशीकरण प्रमुख करे. ते उपर जूगं कलंक मूके, बलिदान देवावास्ते त्रसजीवने मारे, श्रा सर्व पोताना शत्रुना निग्रह वास्ते करे. वली मूठ मारी तथा वीर नाखी मारवा चाहे, परंतु मूर्ख मनमां विचारे नहि, के जोतुं दीलमा साचो बो, तो तने रुं फिकर ने ? वली ज्यां सुधी सामानुं पुण्य बलवान् , त्यांसुधी तुं मंत्र, यंत्रथी तेनुं कांश पण बुरुं करवाने शक्तिमान् नथी. वली पोताना मनमा एवो कुविकल्प करे के मारा उश्मनना कुलमां अमुक सख्स जबरदस्त उत्पन्न थयेल डे, रखे मने नविष्यमां हेरान करे? को रीतें तेनी राज्य दरबारमा श्राबरु जाय, अथवा दंड थाय तो ठीक जे. वली जो तेनुं बिन मली जाय तो सरकारने अरज करी तेने देश निकाल करा. या प्रमाणे मूर्ख, मूढ जीव संकल्प कर्या करे . वली गाममां चोरनो उपजव ब- हुज थयो , तेथी ते पुष्टोने पकडी सख्तशिवा थाय, अथवा तो फांसीए देवाय तो सारं. वली अमुक सख्स बहुज फाटी गयो बे, मारी उपर ईर्ष्या करे , तेथी ते हरामजादानो कांश्क बंदोबस्त करवो जोशए; जेथी फरी ईर्ष्या निंदा न करे, श्रा प्रमाणे निरंतर असत्य वि. कल्पो करे तो अनर्थदंड लागे . कारण के आपणा बुरा चिंतवनथी बीजा- कांश बगडतुं नथी. जे कांश सारं नरसु थाय बे, ते पुण्य, पापने ४७ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७०) जैनतत्त्वादर्श. आधीन बे; तेम उतां मूढात्मा बिसी जेम फोकट मनोरथ करे ने. श्रा सर्व विना प्रयोजननां पाप बे, तेथी अनर्थदंम लागे . . '. ३ त्रीजु रोगनिदानार्तध्यान. मारा शरीरमां को कोइ वखत रोग थाय , ते न थाय तो सालं. एवो विचार लावी, लोकोने पुढे के अमुक रोगनो शुं उपाय हशे ? कोइ कहे के अमुक अमुक जो खावामां आवे तो रोग थतो नश्री. ते सांजली ते वस्तु अजय होय तो पण खाइ जाय. वली ज्यारे शरीरमा रोग होय, त्यारे बहुज हाय हाय करे, आ. 'रंज करे, जोशीने पूजे के मारो आ रोग क्यारे जशे ? वैद्यने वारंवार पूजे के गमे तेवी दवानो उपयोग करो, अने मारो रोग टालो. वली मनमां विचारे के रखे मारा उपर कोश्ए जाउ कयु होय ! डेवटे रोग दूर करवा वास्ते, कुद विरुष्क, धर्मविरुद्ध आचरण करे, रोग दूर करवा वास्ते औषध, जडी, बूटी, मंत्र, तंत्र शीखे; मनमां विचारे के को वखत काम श्रावशे. आत्रीजो भेद . ". ४ चोथु अग्रशौच आर्तध्यान. नविष्य कालनी चिंता करे. जेम के श्रावता वर्षमां मोटां लग्न करीश, उकान मांडीश, घर बंधावीश, जे देखी बीजा बहुज आश्चर्य पामशे. वली फलाणा खेतरनो, वाडी श्रथवा बगीचो करवो बे, जेथी बीजार्जुना बाग नकामा थई जशे, पुइमनोनी गति ते देखीने बलशे; वली श्रमुक वस्तुउँनो में वेपार कर्यो , ते वस्तुऊनो नाव चडी जाय तो मने बहुज सारो लाज मले, इत्यादि अनेक तरेहनी नविष्य कालनी.चिंता करे, श्रा कुविकल्पो शेखचली सरखा . शति आर्तध्यान खरूपसंक्षेप. . . . हवे रौजध्यान, खरूप कहियें लियें. प्रथम हिंसानंद रौअध्यान. प्रस, स्थावर जीवोनी हिंसा करीने मनमां बहुज आनंद माने. बहु पाप युक्त कामो करी घर, दुकान, बाग, वाडी प्रमुख बनावे. जे देखी लोको प्रशंसा करे त्यारे मनमां बहुज हर्ष पामे. वली मनमां विचारे के मारा जेवो.अकलबाज कोण. ? थावी हिकमत कोण लडावि शके ? रसोर बनाववा प्रसंगे जदयाजदयनो देश मात्र विचार नहि करतां इंजियोनी रसरफि वास्ते, माल मसाला बहुज नाखी बहुज थानंदपूर्वक खाय; वसी जमणवार प्रसंगे तीव्र मानना उदयथी.पोतानी वाहवाह कहेव Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिबेद. (३४१) राववा वास्ते अनेक आरंजनां काम करे जेथी असंख्य जीवोनी हिंसा थश् जाय, उतापि मनमां आनंद माने. पोताना, सगाना, मित्रना के कुटुंबीउँना पुश्मनोनुं चुंडं करवा, तेउँने नुकशान करवा मनमा संकल्प कर्या करे. वली मनमां विचार करे के अमुक रीतें पुश्मनो पायमाल थाय तेउनुं सत्यानाश जाय, तेउनां घर बार नाश पामे तो सारु, जेथी मारा अंतःकरणमां शांति थाय. वली राजाऊनी लडाश्नी वातो सांजली तथा उश्मन राजाना योझा नाश पामता जाणी मनमां बहुज प्रमोद माने. वली को शिकारीए व्याघ्रादि, पशुऊनो शिकार कर्यो होय ते सांजली मनमा खुशी थाय. वली एवा शिकारी तथा योझाउँनी बहुज प्रशंसा करे, जेथी ते विशेष हिंसानां काम करवा सारु उइकेराय. पोते उश्मनने मारी अत्यंत राजी थाय, मूड मरडे,अनेक तरेहथी पोतानी जयपताका फरके एवां हिंसानां काम करी आनंद माने. सारांश के बीजा जीवोनुं जेमा मालु थाय तेवां तमाम कामोमां पोते श्रानंद माने, श्रारौअध्याननो प्रथम पायो नरकगतिनो हेतु .प्राणीमात्रनुं सारं नरसुं थq ते दरेकना कर्माधीन बे, बतापि मूढ श्रात्मा अनंताकाल सुधी संसारमा परिघ्रमण करवासारु . महाअनर्थकारक उर्ध्यान ध्यातां खेशमात्र विचार करतो नथी. । २ बीजुं मृषानंद रौअध्यान. जुवं बोली, बल कपट करी, मनमां बहुज खुशी थाय; वली मनमां विचारे के में एवी युक्तिसर वात बनावीने करी डे के कोश्नी ताकात नथी के मारा प्रपंचने समजी शके. मतकबाजीपणुं एक जुदी शक्ति आज काल मारी साथे प्रपंच बाजीमां को फावी-शके एम समजवु नहि. वली बोलवू, ते पण करामात . एवा धूचना प्रसंगें, जो हुं न होत तो, शुं परिणाम श्रावत, तेनी अत्यारे शी वात? वली अनेक तरेहनां दगाबाजी, विश्वासघातनां कामो करी मनमा पोतानी चतुरा माटे बहुज खुशी थाय; वली बीजा पोताने बहुज युक्तिसर बोलनार, तथा पोते नहि फसतां, बीजाउनै जालमां नाखवाने शक्तिमान डे एम, माने , तथा एवां कामो करतां मारी वाहवाह बोलाय जे एम मा. नी बहुजं आनंद पामे. वली राज्यदरबारमां तथा बीजाउँ पासे उश्मनोनी चुगली, निंदा प्रमुख करी मनमा हर्ष पामे. इत्यादि मृषानंद रौजले. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७२ ) जैनतत्त्वादर्श. ३ त्रीजुं चौर्यानंद रौद्रध्यान. अनेक तरेहनां बल कपट, दगाबाजी, विश्वास घात करी, नक जीवोनी बहु मूल्यवाली वस्तु थोडी किंमत श्रापी लाइले ने मनमा खुशी थाय. वली चोरी, धाडचोरी, रस्तानी लुट, जब श्री कढाaj इत्यादि कामो करी परधन मेलवी बहुज खुशी थाय; ते.. वा चोर लूटाराउंनी पासेथी मिलकत लेवामां तेर्जने मदद करवामां ब हुज हिंमती प्रवर्त्ते ने लाभ मेलवी श्रानंद माने पोते वेपारी होय ने माल खरीद करवा घराक श्राव्यो होय, तेवे प्रसंगे विश्वास बेसाडी, नमुनो कांश्क बतावी, माल कांइक तरेहनो थापे, अने पोते सोदो कर वामां करामातवालो पोताने माने नरवामां, तोलवामां तुं श्रापवानी द्यानत राखे, चोपडामां, ठरावती वखते जाव जे बोल्या होय तेनाथी जास्ति लखे . रू प्रमुख माल बेचवामां मालमां नेल संनेल करी लेनारने बेतरी, मनमां खुशी थाय. नोकरीनो धंधो करतो जघराणी लावी खाइ जाय, अने खुशी याय; वली शेवने बल कपट करी बेतरे, छाने राजी करे, पढी मनमां विचारे के में केवी युक्ति लडावी, पैसा खाइ गयो, अने शेवने खुशी कर्या वली दगाबाजीथी पैसा मेलवी मनमां एवं अभिमान लावे के मारा जेवी कमावानी शक्ति कोनामां बे १ चोरी करी मनमां एवो खुशी याय के, मारी चतुराइ तथा शक्तिने कोण समजी शके तेवुं डे. जूठा दस्तावेज ब नावी, लोको उपर न्यायनी अदालतोमां खोटा दावा करी, फतेह मेलवी, धन न्यायची उपार्जन करी, पोताने ऋद्धि सिद्धि वालो देखी मनमां बहुज आनंद पामे. न्यायना अधिकारीने में बेतर्या, तेथी मारा जेवो कोण चालाक बे, इत्यादि चौर्यानंद रौद्रध्यान अनेक तरेहथी मूढात्मा ध्यावे. ४ चोथुं संरक्षणानंद रौद्रध्यान. नवविध परिग्रह, धन, धान्यादि बहुज वधारी मनमां खुशी थाय, लोजनो थोज नथी एवो विचार निरंतर सु करे बे, शक्तिहीन करे बे, परंतु पोते मनमां विचारे के, परिग्रह एज जगत्मां सार बे, पैसा विनाना मनुष्य पशु समान बे, तेथी परिग्रहनी इलाने लेशमात्र नहि बी करतां द्रव्य एक करवानीज चिंताराख्या करे. वली मनमां विचारे के द्रव्य मेलववुं तेमां तो ताकात बे, परंतु मेलवेलुं साचवी राखनुं, तेमां तो बहुज ताकात जोइए बीये. में करामात अजमावी न होत तो या पैसा जलवावा मुश्केल हता. वली म Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) जैनतत्त्वादशे. ज, मोह, अजिमान, ईर्ष्या, व्यासंग, संत्रमचित्त सहित सामायिक करे. ३ वचन पुःप्रणिधान अतिचार. सामायिकमां सावध वचन बोले,सूत्रादर हीनाधिक पढे. स्पष्ट उच्चार न करे. ४ अनवस्था दोष रूप अतिचार, सामायिक वखतसर न करे, जो करे तो पण बे मर्यादाथी, आदरविना, उतावलथी करे, ____५ स्मृतिविहीन अतिचार, सामायिक करी के नहि ? सामायिक पारी के नहि ? लीधी छे तो क्यारे लीधी ? इत्यादि नूल करे इति नवम सामायिक व्रतखरूप. हवे दशमा दिशावकाशिक व्रतनुं स्वरूप लखीए बीए. ग व्रतमांजे दिशाउनु परिमाण करेलु होय, ते जावजीव सुधीनुं होय हे, तेमां बहु क्षेत्र मर्यादा बुटी राखी होय बे, तेटलानी हररोज जरूर पडती नथी, ते कारणथी दिन दिन प्रत्ये न्यूनन्यून करे, जेमके श्राजरोज पांच कोश, वा दशकोश, वा पचीश कोश, वा बे माश्ल, वा नगरना दरवाजासुधि, वा अमुक बाग बगीचा सुधि मारे गमन करवानी बुट बे, उपरांत प्रतिबंध , एवं जे नियम ते दिशावकाशिक व्रत कहेवाय जे. अर्थात् श्रा व्रत उगवतनुं संदेपत्रत . उपलक्षणश्री पांच अणुव्रता दिनो संदेप थोडा कालनो तेपण था व्रतमा समाय डे. या व्रत चार मास, एक मास, वीश दिवस, पांच दिवस, अहोरात्र, एक दिवस, एक रात्रि, वा एक मुहूतमात्र कालसुधी पण लश् शकाय . नियम एवी रीतें करे के अमु. क नगरादिमां शरीरथी जाश्श, ते उपरांत शरीरें जवानो निषेध . श्रा व्रतवाला श्रावकने देश, परदेशना व्यापार होय तो करेला क्षेत्रपरिमाण उपरांत कायाथी ते जर शके नहि, परंतु दूरदेशना कागल प्रमुख आवे ते वांचवानो, तेमज माणस मोकलवानो आगार जे. एवं नियम ते राखी शके. परदेशनी वात सांजलवानो श्रागार राखे, परंतु जेऊने परदेशनो व्यापार न होय, ते कागल, चीठी प्रमुखपण वांचे नहि, तेमज आदमी पण मोकले नाह. वली चित्तवृत्ति स्थिर होय, अने संकल्प विकल्प न थता होय तो परदेशनी वात पण श्रवण करे नहि. जो तेम रही शकातुं न होय तो श्रागार राखे, परंतु जाणीने पोताना व्रतने दोष लगावे नहि. श्रा दिशावकाशिक व्रत निरंतर सवारमा चौद नियमनी यादगिरीमा उ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिछेद. (३२) पयोगपूर्वक राखे, अने रात्रिए जुई राखे, आ व्रत जेवी रीतें गुरुमुखथी धारे तेवी रीतें पाले. आ व्रतना पांच अतिचार वर्जवा, ते कहीए बीए. १ श्राणवण प्रयोग अतिचार. नियम करेला क्षेत्रथी बहारना क्षेत्रमा को वस्तु होय, अने तेनी जरूर पड़े, त्यारे विचारे के मारे तो नियम करेला क्षेत्रथी बहार जवानो निषेध बे, तेथी को त्यां जतुं होय तेने कहे के अमुक वस्तु मारे वास्ते लेता श्रावजो. पली विचारे के माकं व्रत जंग थयुं नहि. अने वस्तु आवी ग. आ प्रथम अतिचार. २ पेसवण प्रयोग अतिचार. बीजा आदमीनी साथे पोताना नियम उपरांतना देत्र बहार को वस्तु मोकलवी ते. ३ सद्दाणुवाय अतिचार. नियमनी नूमिकाबहार को श्रादमी जतो होय, तेनी पासे कांश काम करावयूँ होय, त्यारे तेने खोखारो प्रमुख करी बोलावे, पड़ी कहे के अमुक वस्तु लेता श्रावजो. आ त्रीजो अतिचार जे. ४ रूपानुपाती अतिचार. पोताना नियम उपरांतना क्षेत्र को श्रादमी जतो होय, तेनी साथे कांश काम होय, त्यारे हवेली अथवा उकानना उपरना मजला उपर चडी, पोते तेनी दृष्टिए पडे तेम करे, पड़ी जनार आदमी पोतानी पासे आवे, एटले पोताना मतलबनी सर्व वात तेनी साथे करे तो था अतिघार लागे. ___५ पुग्लादेप अतिचार. पोताना नियम उपरांतनी नूमिकाए को श्रादमी जतो होय, अने तेनी साथे का काम होय, त्यारे तेना उपर कांकरो फेंके, जेथी ते पोतानी पासे आवे त्यारे, तेनी साथे सर्व मतलबनी वातचित करे तो आ अतिचार लागे. इतिदशम: . .. हवे अगीधारमा पौषधोपवास व्रतनुं खरूप लखीए बीए. पौषध बतना चार भेद , तेमां प्रथम आहार पोषध डे, तेना पण बेनेद , एक देशथी, बीजो सर्वथी. देशथी तो त्रिविहार उपवास करीने वा श्राचाम्ल (आयंबिल) करीने, वा त्रिविहार एकासणुं करीने पोषध करे, तेनो विधि लखीए बीए. . पोषध लीधा पहेला पोताने घेर कही राखे के, हुं श्राजे पोषध उचरवानो ढुं, तेमां श्राचाम्ल अथवा एकासणुं करवानो , तेथी नोजनने अवसरे थाहार करवा वीश, अथवा तमे ते अवसरे पोषध शालामां Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८२ ) जैनतत्त्वादर्श. श्राहार लइ आवजो, एम यथायोग्य कथन करी पोषध करवा श्रावे, पोषध व्रत उचरे; बाद देववंदन कर्या पठी कटास, चरवलो तथा मुहपत्ति, आ ण उपकरण साथै लइ पोताने घेर जनुं होय तो, चादर ढी, साधुनी जेम, उपयोगसंयुक्त मार्गमां यत्नापूर्वक चाली, जोजन स्थानकें जइ, प्रथम इरिया वहिया पडिक्कमे गमनागमननी आलोचना करे, पढी कटासा उपर बेसी, आहार करवानुं जाजन पडिलेही ( प्रतिलेखी) बाद पोताने लेवा योग्य आहार लड़े, साधुनी जेम रस गृद्धिरहित आहार करे, आहारने सारो अथवा बुरो कहे नहि, मुखश्री बोल्या विना आहार करे, श्राहारतुं जूट पडे नहि, श्रहार कर्या पढी उष्ण जलश्री श्राहारनुं वासण धोने पी जाय, वासण शुद्ध करी, सुकवी, उपयोगसंयुक्त पोषधशालामां श्रावे, मार्गमां जतां आवतां कोइनी साथे वात करे नहि, पोषधशालामां पूर्वना स्थानपर यावी बेसे, इरिया वही पडिक्कमि, चैत्यवंदन करी, धर्मक्रियामां प्रवर्त्ते. जो पोतानो संबंधी अथवा सेवक पोषधशालामां श्राहार लइ श्रव्यो होय तो, पूर्वोक्त रीतिए आहार करी वासण पाठां आपी दे, पढी धर्म क्रियामां प्रवर्त्ते. या देशी पोषध कद्देवाय बे; अने जो चारे आहारनां पखाण करी पोषध करे तो सर्वथी कडेवाय बे. या प्रथम नेद बे. 3 २ शरीरसत्कार पोषध. तेमां सर्वथा शरीरसत्कार पोषध ते शरीरनो सर्वथा सत्कार. स्नान, धोवन, धावन, तैलमर्दन, वस्त्राभरणादि शृंगार प्रमुख कां पण शुश्रूषा करे नहि, साधुनी जेम थपरिकमिति शरीर राखे ने जो पोषधमां हाथ, पग प्रमुखनी शुश्रुषा करवी एवो आगार राखे तो ते देश शरीर सत्कार पोषध कद्देवाय बे. ३ ब्रह्मचर्य पोषध. त्रिकरण शुद्धिए ब्रह्मचर्य व्रत पालवं ते सवथा ब्रह्मचर्य पोषध बे; अने मन, वचन, दृष्टि प्रमुखनो आगार राखवो, अथवा परिमाण राखनुं, ते देशथी ब्रह्मचर्य पोषध कहेवाय बे. ४ सर्वथा सावद्यव्यापारनो त्याग, ते सर्वश्री व्यापार पोषध बे, कादि व्यापारनो आगार राखवो ते देशी व्यापार पोषध बे, ए प्रमाणे चारे प्रकारना पोषधना बे बे नेद बे. पूर्वकालमा ज्यारे श्रागम व्यवहारी गुरु विचरता हता, अने श्रावक पण शुद्ध उपयोग Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिजेद. (३७३) वाला हता, त्यारे जे जे प्रतिज्ञा लेता हता, ते ते सर्व अखंडित, तेवीज रीतें पालता हता, नूलता नहि, तेम न्यूनाधिक पण करता नहि श्रने गुरु पण अतिशय ज्ञानना प्रनावथी योग्यता जाणीने देश वा सर्व पोषधनो आदेश थापता हता; तथा श्रावक पण कदाचित् स्मृतिनंग थता हता, तो पण तत्काल प्रायश्चित्त लश् लेता हता. श्रआ कालमां तो एवा उपयोगवाला जीवज नथी. सुषम कालना प्रजावथी जड बुझि जीव बहुज . ते कारणथी पूर्वाचार्योंए उपकारने अर्थे थाहार पोषध तो बंने करवाने राख्यां, अने बाकीना त्रणे पोषध जितव्यवहार ग्रंथने श्रनुसारे निषेध करी दीधा जे. श्रा प्रवृत्ति वर्तमान संघमा प्रचलित . पोषध तो श्रावकें अवश्य करवा जोशए; कारण के कर्मरूप लावरोग वास्ते ते परम औषधि बे. तेथी ज्यारे पर्वनो दिवस आवे, त्यारे अवश्य पोषध करवो जोश्ए. तेना पांच अतिचार वर्जवा, ते कहीए बीए. १ अप्पडिले हिय उप्पडिले हिय सिद्या संथारक अतिचार. जे स्थानमा पोषध संस्थारक (संथारो) कर्यो होय, ते नूमिका तथा संथारानी पडिलेहणा न करे, अर्थात् संथारानी जगा सारी रीतें निघा करीने नेत्रथी जोवे नहि, कदापि जोवे तो पण प्रमादने वश थर कांक देखी, कांक न देखी एम करे ५ अप्पमधिय कुप्पमधिय सिद्या संथारक अतिचार. संथाराने रजोहरणादिथी पूंजे नहि, कदापि पूंजे तो पण यथार्थ न पूंजे, गडबड करी दे, जीवरदा साचवे नहि.. ३ अप्पंडिलेहिय, उप्पडिलेहिय उच्चार पासवण नूमि अतिचार लघुशंका, वडीशंका परग्ववानी नूमिका नेत्रथी अवलोकन न करे; अवलोकन करे तोपण जेम तेम करी काम चलावे, जीवयत्ना विना करे, परिग्वे. ४ अप्पमधिय, कुप्पमधिय उच्चार पासवण नूमि अतिचार, ज्यां मूत्र, विष्ठा करे, त्यां नूमिकाने प्रथम पूंज्याविना मल, मूत्र करे, कदाच पूंजे तोपण यहा तछा करे, परंतु यत्नापूर्वक न पूंजे. ___५ पोसह विहि विवरीए अतिचार. पोषधमा लुधा लागे, त्यारे पारणानी चिंता करे, जेम के प्रजाते अमुक वस्तु करावीने थाहार करीश वली अमुक काम करवा सारु अमुक स्थानकें जवू पडशे. अमुकनी पासे Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५४) जैनतत्त्वादर्श. उघराणी , ते तगादो कर्या विना आपशे नहि वली शरीर थाकी गयु ने तेथी प्रजातमां तेल मर्दन करावीश, गरम पाणीथी स्नान करीश, अमुक पोशाक पहेरीश, स्त्रीनी साथे नोगविलास करीश, इत्यादि सावध चितवन करे. संध्याए पोषध मंडल शोधन करे नहि, पाखी रात सुइ रहे, वा विकथा करे, पोषधनां अढार दूषणो वर्जे नहि. ते अढार दूषणो श्रा प्रमाणे. पोसहमां व्रती विनाना श्रावकनुं लावे. बुं पाणी पीये, ५ पोषध वास्ते सरस आहार करे, ३ पोषधने वागले दिवसे अनेक तरेहनी रसवती मेलवी थाहार करे, ४ पोषध निमित्ते, श्रथवा पोषधने आगले दिवसे विजूषा करे, ५ पोषधवास्ते वस्त्र धोवरावे, ६ पोषधवास्ते बाजरण घडावी पहेरे, स्त्रीपण नथ, कंकणादि सोहागनां चिन्द शिवाय नवां घरेणां घडावी पहेरे, ७ पोषध वास्ते वस्त्र रंगावी पढेरे, पोषधमां शरीरनो मेल उतारे, ए पोषधसां काल विना निसालहे, १० पोषधमां स्त्री कथा करे, स्त्रीने सारी, बुरी कहे, ११ पोषधमां जक्तकथा करे, श्राहारने सारो, नरसो कहे, १५ पोषधमा राज्यकथा करे, युद्धनी वार्ता करे, १३ पोषधमा देशकथा करे, देशने सारो, नरसो कहे, १४ लघु शंका नूमि पूंज्या विना करे. १५ बीजानी निंदा करे, १६ स्त्री, माता, पिता, पुत्र, नाइ, बहेन साथे वार्तालाप करे, १७ चोरनी कथा करे, १७ स्त्रीनां अंगोपांग स्तन, जंघादि निहाले. श्रा अढार दूषणो वर्जे तो शुद्ध पोषध जाणवो. इति एकादश व्रतवरूपं. हवे बारमा अतिथि संविनाग व्रतनुं स्वरूप लखीए लिये. जेणे लौकिक वर्षोत्सवादि तिथियोनो त्याग करेलो होय ते अतिथि कहेवायडे, जेम परोणो (मेमान) तिथि विना आवे बे, अर्थात् अमुक तिथियेंज श्रावे एवो जेम नियम नथी, तेम जे साधु होय जे ते अणचिंतव्याज आवे , तेथी ते अतिथि जाणवा. एवा मधुकर वृत्तिवालाथी जो विनाग करे, श्रर्थात् शुक व्यवहार न्यायोपार्जित धनथी, वस्तु लावी, पोताना उदरपूरणार्थे जे रसोश करी बे, तेमांथी उत्तम कुलाचारपूर्वक पूर्व कर्म पश्चात्कर्मादिदोषरहित, शुद्ध निर्दोष आहार, नक्तिपूर्वक साधुने वहोरावे (आपे) ते अतिथि संविजाग व्रत कहेवाय ने प्रथम दान देनारमा जो पांच गुण होय तो ते दातार शुरू होय , ते पांच गुण सखिये लिये. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिवेद. (३५) १ जैनमार्गी दातारने, शुद्ध पात्रनो योग प्राप्त थवाथी, अर्थात् पोताना घरमां मुनिराजनां दर्शन मात्र थवाथी अंतरंगमां बहुज आनंद पामे, जेम पोतानो अत्यंत प्यारो, हितकारी मित्र बहु वखतथी दूर देशांतर गयो होय, जेनी को वखत विस्मृति थ न होय, अने जेने-मलवाने निरंतर अंतःकरणमां आतुरता रहेती होय; एवा परम वल्सन मित्रने अकस्मात् मलवाथी जेम आनंदना बांसु श्रावी जाय, तेवीज रीतें मुनिराजने पोताने घेर पधारेला जो आनंदनां आंसु लावे, मनमां विचारे के आज मारुं परम जाग्य के, आवा मुनिराज मारे घेर पधार्या. वली हुँ केवो डं? अनादिकालश्री नूल चमित, अव्य संबल रहित, दारिख अंधनावपीडित, ज्ञानलोचनरहित, अपार संसार चक्रमां जटकनार एवा मने, अत्यंत अकथनीय दुःखसंयुक्त देखीने, मारा उपर परम दयादृष्टिपूर्वक, प्रथम ज्ञानांजन शलाकाथी मारां ज्ञानरूपनेत्र उघाडी दीधां, वली त्रण तत्व सेवारूप व्यापार मने शिखव्यो, तथा रत्नत्रयीरूप पुंजी (राशि) मने आपी माझं अनादि कालनुं दारिजय दूर कर्यु, मने उत्तमपुरुषोनी गणतरीमा लावी मुक्यो, एवा गुरु मुनिराज निःस्वार्थे परोपकारी मारा घर आंगणामां पधार्या एवा प्रशस्त राग नावना उदासथी आनंदनां आंसु लावे, एवी पुष्ट नावना जावे था दातारनो प्रथम गुण . जेम संसारमा जीवने अत्यंत श्ष्ट वस्तुना संयोगथी रोमावलि विकखर थाय बे, तेम मुनिराजने देखी, अति नक्तिना प्रजावधी रोमावलि विकखर थाय, अने अंतःकरणमां हर्ष समाय नहि. या बीजो गुण . __३ मुनिराजने देखी बहुमान एवी रीतें करे, जेम कोश् गृहस्थने घेर, राजा पधार्या होय, अने ते राजानुं बहुमान, जेम ते गृहस्थ करे, एवा विचारथी के श्राजे मारा नाग्यनो उदय थयो के राज्यना खामि, राजाधिराज मारे घेर पधार्या, माटे उत्तम प्रकारनां नजराणां आ वखते करवां ते मने उचित बे, कारण के राजानुं पधार वारंवार थतुं नथी, एम निश्चय करी जेम उत्तम वस्तु नेट करे, तेवी रीतें श्रावक पण मुनिराजनुं बहुमान करे; मनमां विचारे के श्रावा निःस्पृहीयोमां शिरोमणी, जगदू बंधु, जगत् हितकारी, जगत् वत्सल, निष्कामी, श्रात्मानंदी, करुणासा Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) जैनतत्त्वादर्श. गर, संसारजलधि उद्धरण, परोपकार करणीमां चतुर, क्रोधादि कषाय निवारक, तरण तारण, एवा मुनिराज मारे घेर पधार्या, तेथी आजे मारं अहो नाग्य ! एवं जाणी संत्रमसंयुक्त सन्मुख जाय, त्रिकरणशुद्ध प. रिणामथी विनति करे के हे खामि ! दीन दयाल पधारो! माझं गृहांगण पवित्र करो! एम अति सन्मानपूर्वक घरमां पधरावे;मनमां विचारे के श्राजे मारो पुण्योदय थयो, जे साधु आहार पाणीनोअनुग्रह करे जे. कारण के साधुने आहारलेवामां बहुज विधि ,साधु शुझ नात पाणी जाणे तोज लहे, ते कारणथी रखे माराथी कांश दोष लागी जाय, एवो विचार करी, त्रिकरण शुझ, बहुमानपूर्वक, उपयोगसंयुक्त, विधिपूर्वक आहार लावे, लावीने मधुरखरथी विनति करे के हे स्वामि ! आ शुद्ध आहार बे,तेश्री सेवक उपर परम कृपादृष्टि करी पात्र पसारी मारो निस्तार करो; एम विनति करतां थकां आहार वहोरावे. मुनिपण ते श्राहारने योग्य जाणीने खइ ले. श्रावकपण दान देवा योग्य जे जे वस्तु होय, ते सर्वनी निमंत्रणा करे, ए प्रमाणे विधिपूर्वक दान दश हाथ जोडी, पृथ्वी उपर मस्तक लगावी, नमस्कार करे; पड़ी मिष्टवचनोथी विनति करे के हे कृपानिधान! सेवक उपर मोटी कृपा करी,आजे मारूं घर पवित्र थयुं. पूरा पुण्योदय विना मुनिराजनो योग क्याथी मले? वली हे स्वामि ! कृपा करी अशन, पान, खादिम, स्वादिम, औषध, वस्त्र, पात्र, शय्या, संस्तारकादिनुं प्रयोजन होय तो अवश्य सेवक उपर अनुग्रह करी पधारशो, आप तो मुनिराज गुणवान् बेपरवाह बगे, आपने कोई वस्तुनी क- . मी नथी, कोश्नी साथे प्रतिबंध नथी, आप पवननी जेम अप्रतिबद्ध बो, तोपण मारा उपर जरुर फरी उपकार करशो, एम कहेतां कहेतां पोताना आंगणानी सीमा सुधी पहोंचाडे, श्रा त्रीजो गुण जे. ४ मुनिराजने वलावी, वंदना करी, घेर श्रावी, जोजन करवा बेसे, परंतु मनमां श्रानंदना उन्नरा श्राव्या करे, विचारे के श्राजे मारु श्रहो जाग्य थयु! श्राज को उत्तम वात थशे; कारण के श्राजे निःस्पृही, सहज उदासी, खसुखविलासं। मुनिराजने विनति करी थाहार प्रतिलाज्यो, अने श्राहार वहोरावता वचमां कांश विघ्न श्राव्युं नहि. श्राजे. कृ. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम परिछेद. (३७) तकृत्य थयो; वली श्रावा मुनिराजनो योग क्यारे मले ? एवी अनुमोदना वारंवार करे, था चोथो गुण बे. ___५ जेम कोश मंद जाग्यवान् व्यापार करतां थोडं थोडं कमाय, तेने को दिवस को सोदामां लाख रुपैयानी प्राप्ति थ जाय, त्यारे जेवो ते आनंदित थाय, अने फरी तेज व्यापारनी जेवी चाहना राखे, तेनाथी पण अधिक, श्रावक साधुने दान देवानी चाहना राखे. था पांचमो गुण बे. या पांच गुण युक्त दान आपे तो अतिथिसंविजाग व्रत होय. श्रा व्रतना पांच अतिचार वर्जवा, ते लखीए बीए. १ सचित्त निक्षेप अतिचार. सचित्त पृथ्वी, जल, कुंज, चूला, इंधनादि उपर साधुने न देवानी बुद्धिथी आहार राखे; मनमां एवो विचार करे के साधु तो आहार लेशे नहि, परंतु निमंत्रणा करवाथी मारू अतिथिसंविजाग व्रत बन्यु रहेशे. आ प्रथम अतिचार. २ सचित्त पीहण अतिचार. आहारने सचित्त वस्तुथी ढांके, सूरण, कंद, पत्र, पुष्पादिथी न देवानी बुद्धिथी ढांकी राखे तो बीजो अतिचार. ३ कालातिक्रम अतिचार. साधुने जिदानो काल वित्या पली, अथवा निक्षा काल पहेला, अथवा साधु थाहार करी रह्या होय ते पड़ी, श्राहारनी निमंत्रणा करवा जाय तो त्रीजो अतिचार. ४ परव्यपदेश अतिचार. साधु ज्यारे याचना करे, त्यारे क्रोध करे; पोतानी पासे वस्तु होय बता, मागतां आपे नहि वली थापे तो पण एवा विचारथी के आवा गरीब लोको साधुने आपे ले तो, तेर्जनाथी शुं हुं गरीब ढुं ते न आपुं? आवी जावनाथी आपे तो चोथो अतिचार. ५ गोल, खांड प्रमुख पोतानी वस्तु होय, ते न आपवानी बुद्धिए पारकी कहे, अने पारकी वस्तु होय ते आपवानी बुछिए पोतानी कहे तो श्रा पांचमो अतिचार. इति श्री अतिथिसं विजागवतं संपूर्ण. __ सम्यक्त्वपूर्वक बारव्रतरूप, गृहस्थ धर्म, खरूप धर्मरत्न प्रकरण, तथा योगशास्त्रादि ग्रंथानुसार संक्षेपमात्र लखेल जे; विशेष जाणवानी अजिलाषावालाए धर्मरत्नशास्त्र वृत्ति, तथा योगशास्त्र जोवां. इतिश्रीतपोगडीयगणिश्रीमणिविजयतविष्यश्रीमुनिबुझिविजयतविष्य Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) जैनतत्त्वादर्श. मुन्यात्मारामानंदविजयविरचित जैनतत्त्वादर्श (नाषांतरे )श्रावकनिरूपण नामा अष्टमपरिछेदः संपूर्णः॥ ॥अथ नवमपरिछेदप्रारंजः॥ श्रावकोनां न कृत्यो बे. १ दिनकृत्य, रात्रिकृत्य, ३ पर्वकृत्य, ४ चातुर्मासिक कृत्य, ५ संवत्सरकृत्य, ६ जन्मकृत्य, तेमांथी प्रथम दिनकृत्यविधि, आ परिछेदमा श्राफविधिग्रंथ तथा श्रावककौमुदी शास्त्रानुसार लखिये बियें. प्रथम तो श्रावके निझा अल्प लेवी जोश्ए. ज्यारे एक प्रहर रात्रि शेष रहे, त्यारे निझा तजी उठवु जोश्ए. कोश्ने बहु निमा आवती होय ती पण जघन्यथी चौदमा ब्राह्ममुहूर्त्तमां अवश्य उठवू जोश्ए. सवारमा वहेला उठवाश्री इहलोक परलोकनां अनेक कार्य सिद्ध थाय डे, ते अवसरें बुद्धिपण निर्मल, सुंदर होय . पूर्वापर विचार बहुज सारी रीतें थर शके . ग्रंथकार एम पण लखे डे के निरंतर जेने सूतां सूतां सूर्योदय यश् जाय, तेनुं आयुष्य अल्प थाय बे; तेथी ब्राह्ममुदूर्त्तमां अवश्य उठवू जोश्ए. ज्यारे निशानो त्याग करी उठे, त्यारे मनमां विचारे के हुँ श्रावकबु, पोताना घरमा सुतो हतो के बीजाना घरमा सुतो हतो? नीचे सुतो इतो के उपरमाले सुतो हतो? दि वसना सुतो हतो के रात्रिना सुतो हतो? इत्यादि विचार करतां निप्रानो वेग न मटे तो नासिका तेमज मुखनो श्वासोवास रोके, तेम करवाथी निमा तत्काल दूर थर जाय बे, पनी हार सारी रीते तपासी जरुर होय तो लघुशंकादि करे. रात्रिमा जागतां कोश्ने कांश कहेवु पडे तो, मंदखरथी कहे, जंचे खरे शब्दोच्चार करे नहि. जंचा खरथी बोलवाथी रात्रिमा उपकली प्रमुख हिंसक जीव जागी जाय तो माखी प्रमुख अनेक जीवोनी ते हिंसा करे . कसा जागी जाय तो, गाय, ब. करी, घेटा प्रमुखने मारवाने चाल्यो जाय बे, माबी जाल लश् पोतार्नु काम शरु करवा जाय बे, वाघरी, श्राहेडी, मदिरापानी, खुनी, परस्त्रीलं. पट, तस्कर, लूटारा, धोबी, घांची, कुंजार प्रमुख अनेक हिंसा करनारा जीवो जागवायी अनेक तरेहनां पापकर्ममा प्रवृत्त थर जाय . या सर्व Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवम परिछेद. (३नए) पापर्नु निमित्त कारण रात्रिए ऊंचा खरथी वात करनारने थाय, तेथी जं. चा खरथी रात्रिमा नहि बोलवू जोश्ये. सवारमा निजानो बेद थाय त्यारे तत्त्वज्ञाता श्रावकें तत्त्वविचार करवो जोश्ये. तत्त्व पांच बे. १ पृथ्वी, जल, ३ अग्नि, ४ वायु, ५ श्राकाश, निशाना बेद समये जो पृथ्वीतत्त्व तथा जलतत्त्व वदेतां होय तो शुन अने जो अग्नि, वायु के आकाशतत्त्व वहेतां होय तो दुःखदायक . शुक्लपक्ष प्रतिपद् दिने जो वामनासिकानो स्वर चालतो होय तो पंदर दिवस सुधी आनंद आरोग्य रहे; अने कृष्णपदनी एकमने दिवसे जो दक्षिण नासिकानो स्वर.वहेतो होय तो पंदर दिवस सुधी सुख आनंद रहे; तेनाथी विपर्यय होयतो विपर्यय फल थाय. __ शुक्ल पदना प्रथमना त्रण दिवस वामनासिकानो खर उठतां वहेतो होय तो शुज .. ते पळीना त्रण दिवस दक्षिणवर चालतो होय तो शुन्न , वली ते पबीना त्रण दिवस वाम वर चालतो होय तो शुज , एम अनुक्रमें पंदर दिवस सुधी समजवं. तथा कृष्णपदनी एकमना दि. वसथी त्रण दिवस सुधी दक्षिणखर वदेतो होय तो शुन , ते पीना त्रण दिवस वामखर वदेतो होय तो शुज . वली ते पडीना त्रण दिवस दक्षिण स्वर वहेतो होय तो शुन्न , एम पंदर दिवस सुधी जा. णQ. तथा चंडखरमां सूर्य उगतो होय, अने सूर्यवरमां सूर्य अस्त थतो होय तो शुल बे. तथा सूर्यनाडीमां सूर्य उदय होय, अने चंनाडीमां श्रस्त थाय तो पण शुज ने. कोश् शास्त्रना मत प्रमाणे रवि, मंगल, गुरु, शनि, या चार वारमां दक्षिणस्वरमां सूर्यनाडी दिवस उगतां चाले तो शुन्न , अने सोम, बुध तथा शुक्र आत्रण वारमा सूतां, उठतां चंजस्वर वामस्वर चाले तो शुन्न , तेनाथी विपर्यय चाले तो अशुज बे. __वली कोश्क शास्त्रकारना मत प्रमाणे संक्रांतिना क्रमथी सूर्य चंडनाडी वहे तो शुन बे, जेम के मेष संक्रांतिने दिवस सूर्यस्वर चाले, तथा वृषसंक्रांतिने दिने चंनाडी चाले तो शुज जाणवी इत्यादि. तथा कोश्क मतमां चंजमा राशि पलटे ते अनुक्रमें अढी घडी सुधी एक नाडी वहे ने इत्यादि; परंतु जैनमतना आचार्य श्रीहेमचंदादिनो तो प्रथम लख्या प्रमाणे मत बे. बनीश गुरु श्रदरो उच्चार करतां जेटलो Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) जैनतत्त्वादर्श काल लागे , तेटलो काल वायुनो एक नाडीमांथी बीजी नाडीमां सेचार करतां लागे बे. हवे पांचतत्त्व संबंधी बोधस्वरूप कहिये बियें. नासिकानो पवन जो जंचो जाय तो अग्नितत्त्व, जो नीचो जाय तो जलतत्त्व, जो तिबों जाय तो वायुतत्त्व, जो नासिकाची निकली सिधो तिर्यो जाय तो पृथ्वी तत्त्व, जो नासिकाना बंने पुटनी अंदर वहे, बहार निकले नहि तो श्राकाश तत्व; ए प्रमाणे जाणवू. प्रथम पवनतत्त्व वहेने, पनी अग्नितत्त्व वहे बे, पड़ी जलतत्व वदेने, पली पृथ्वीतत्त्व वहेडे, पठी आकाश तत्त्व वहे. निरंतर आ प्रमाणे अनुक्रम ने. बंने नाडीउमां पांचे तत्त्व वहे बे; तेमां पृथ्वीतत्त्व पंचाश पल प्रमाण वहे , जलतत्त्व चालीश पल प्रमाण वहे , अमितत्त्व त्रीश पल प्रमाण वहे. वायुतत्त्व वीश पल प्रमाण वहेडे, श्राकाशतत्त्व दश पल प्रमाण वहे. पृथ्वी अने जलतत्वमा शांतिकार्य करवां; अग्नि, वायु तथा आकाशतत्त्वमां दीप्तिमान् अने स्थिर कार्य करवा; ए प्रमाणे करे तो शुज फलोन्नति थाय बे, जीववानो प्रश्न, जयप्रश्न, लाजप्रश्न, धनार्जन प्रश्न, मेघवर्षण प्रश्न, पुत्र होवानो प्रश्न, जवा आववना प्रश्न, या प्रश्नो जो पृथ्वी अने जलतत्त्वमां करे तो शुज थाय; अने अग्नि, वायु वदेतां करे तो शुज थाय नहि वली जो पृथ्वीतत्त्वमा प्रश्न करे तो कार्यनी सिकि स्थिरपणे थाय, अने जलतत्वमा कार्य शीघ्रताथी थाय. प्रथमनी जिनपूजा करतां, धन कमावा जतां, पाणिग्रहण करतां किलो खेतां, नदी उतरतां, गयेलानुं आगमन पुगतां, जीवननो प्रश्न करतां, घर क्षेत्रादि खरीदतां, करीश्राणां लेतां, वेचतां, वर्षतुं प्रश्न करतां, नोकरी करतां, खेती करतां, शत्रुने जीतता, विद्यारंज करतां, राज्याभिषेक करतां, इत्यादि शुज कार्यों करतां चंषनाडी वहे तो कल्याणकारी . प्रश्नसमये कार्यना आरंजमा पूर्ण वामनाडी प्रवेश करती होय, त्यारे निश्चयपूर्वक कार्यसिद्धि जाणवी, तेमां संदेह नथी. वली अमुक सख्स केदमांथी क्यारे बुटशे ? अमुक रोगी साजो क्यारे थशे! अमुक स्थानचष्ट थयेलो क्यारे पद प्राप्त करशे? या प्रश्नोमां, तथा युद्ध करवाना प्र Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिछेद. क ( ३७ ) उत्सव करीने चडावे. स्नात्रमहोत्सव, श्रष्टोत्तरी पूजा, रात्रि जागरण करे. निरंतर चोमासा श्रादिमां केटली एक वार जिनमंदिर, धर्मशाला प्रमार्जन करे, करावे, देरासर समरावे, पौषधशाला लिंपे, लींपावे. प्रतिवर्ष जिनमंदिरमां गणां आपे दीवानेवास्ते रु आपे, तेल थापे, घी थापे, केशर, सुखड थापे, पौषधशालामां कटासणा, मुहपत्ति, चरवला, धोती, कांबल, दोरा, उन प्रमुख खापे. वर्षमां श्रावकोने बेसवावास्ते केटली एक पाट, बाजोव प्रमुख थापे. जो निर्धन होय तो पण वर्षमां एक दिवस सुतरना दोरा, वा आंटी प्रमुख आपी संघपूजा करे. केटलाएक साधर्मी बंधुउने शक्ति अनुसार जोजन करावी साधर्मिवात्सल्य प्रमुख करे. निरंतर केटलोएक काजसग्ग करे. स्वाध्याय करे. निरंतर जघन्यथी नवकारसीनुं प्रत्याख्यान करे. रात्रिए चरित्र प्रत्याख्यान करे. बने वखत प्रतिक्रमण करे. या करणी प्रथम करवा पढी बार व्रत अंगीकार करे. तेमां पण सातमा व्रतमां सचित्त, चित्त छाने मिश्रवस्तुनुं स्वरूप सारी रीतें जाणवुं जोइए. · जेम प्रायः सर्वधान्य, अनाज, तेमज धाणा, जीरुं, श्रजमो, वरीयाली, सुश्रा, राइ, खसखस प्रमुख सर्वकण, सर्वपत्र, सर्वे लीलांफल, तथा मीतुं खारो, लालरंगनुं सिंधालू, संचल, माटी, खडी, हिरमची, लीलां दातण प्रमुख, सर्वव्यवहारथी सचित्त (सजीव) बे; तथा पाणी मां पलालेला चणा, घढं प्रमुख अनाज, तथा चणा, मग, छाडद, तूार प्रमुखनी दाल जेमां याखा दाणा रही गया होय, ते सर्वे मिश्र बे; तथा प्रथम मीतुं लगाडीने मिनी बाप्प प्रमुख श्राप्या विना, तथा तपावेली रेतीमां नाख्याविना चणा, घजं, जुझार प्रमुख भूंजे ते, तथा खारो प्रमुख श्राप्याविना मसलेला तल, उला, जंबी, पोंक, थोडी शेकेली फली तथा चित्रडा प्रमुखफल, मरचां, राइ हींग प्रमुखथी वधारे; तथा जेनी अंदर बीज सचित्त होय एवां पाकेलां सर्वफल, मिश्रबे तथा तलवट, तिलकूट जे दिन करवामां आवे ते दिन मिश्र, जो तलमां अनाज प्रमुख नाखी कूटे तो एक मुहूर्त्त पी अचित्त थायडे. वली दक्षिण मालवादि देशोमां बहु गोल प्रमुख नाखवाथी तेज रोज श्रचित्त थर जायबे. वृदनो तत्काल उखडेलो सुंदर, लाख, बाल, तरतनुं फोडेलुं नालीयेर, लींबु, दाडम, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ( ३८ ) जैनतत्त्वादर्श. " प्राशु संतरां, केरी, निंब तथा शेरडीनो तत्कालनो काढेलो रस, तथा तत्काल काढेलुं तनुं तेल, तत्काल जांगेलां बीज, नालीयेर, सोपारी, सिंगोडांप्रमुख, तथा बीजरहित करेलां पाकां फल खडबूजादि, तथा अत्यंत म दन करीने काढेला जीरादि, या सर्व अंतर्मुहूर्त सुधी मिश्र बे, पढी प्राशुकनो व्यवहार बे तथा बीजांपण प्रबल अग्निना योगबिना क करेला अंतर्मुहूर्त सुधी मिश्रबे, पढी प्राशुकनो व्यवहार बे. वली - प्राशुक पाणी, काचां फल, काचां अनाज अगर जो बहुज मर्दन कर्यां होय तोपण लवणानि प्रमुख प्रबल शस्त्र विना, प्राशुक यतां नथी; कारण के श्री पंचमांग जगवती सूत्रना रंगणीशमा शतकना त्रीजा उद्देशमां लख्युं बे के वज्रमय शिला, वज्त्रमय लोटो, अने श्रामला प्रमाण पृथ्वी काय लइने एकवीरा वार वाटवामां आवे तोपण केटलाएक पृथ्वीका यना जीवोनो लोटाने स्पर्श पण यतो नथी, एवी ते जीवोनी सूक्ष्म कायाडे. वली सो योजन उपरांतथी आवेलां दरडां, खारेक, द्राक्ष, लालप्राक, खजुरादि मेवा, तीखां, पीपर, जायफल, बदाम, खोड, नेउजा, जरगोजा, पस्तां, चारोली, चीनी, उज्वल सिंघालूण, साजी, नहीमां पकावेलुं लू, बनावटी खार, कुंभारें करेली माटी एलायची, लवींग, जा वंत्री, सूकी मोथ, कोकणदेश प्रमुखनां केलां उनां करेला सिंगोडा, सोपारी, या सर्वनो प्राशुक व्यवहार बे. साधु पण कारण प्रसंगें ग्रहण करे बे. या वात कल्पनाष्यमां पण लखेली बे. " जोयण सयं तु गंतु श्र पाहारे जंड संकंति" इत्यादि. तेमां हरडे, पीपर प्रमुख श्राचरणीय बे ते कारणथी लेवाय बे, अने खजूर, द्राक्ष प्रमुख अनाचरणीय बे. वली उत्पल कमल, पद्मकमल, तडकामां राखवाथी एक पहोरनी अंदरज - चित्त थर जाय बे; अने मोगरानां फुल, जुइनां फुल तडकामां बहुवखत. पड्यां रहे तो पण चित्त थतां नथी, परंतु मोगरानां फुल पाणीमां नाखेला एक पड़ोरनी अंदरज चित्त घर जाय बे, अने उत्पल कमल तथा पद्मकमल बने पाणी मां राखवाथी बहु वखत सुधी चित्त थ तां नथी. " शीतयोनिकत्वात्. " तथा पांदडाना, कूलोना, तेमज जे फलोमां गोवली बंधा न होय तेना, तथा वथुवा प्रमुख लीली वनस्प Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिजेद. (३एए) तिना, या सर्वना डीटीयां (वृंत ) करमा जाय त्यारे ते जीवरहित थयां जाणवां था कथन श्रीकल्पनाष्यवृत्तिमा जे. श्री पंचमांगना बग शतकना पांचमा उद्देशामां सचित्त अचित्त वस्तुनुं खरूप आ प्रमाणे लखेळु बे, शाल, ब्रीहि, घलं, जव, जवजव, श्रा पांच धान्यनी जाति कोगरा, मोटा पालामां वा माला याने कोगर विशेषमा मुख ढांकीने राखे तथा लींपे, चारे बाजुथी लींपे, अने उपर मजबुत ढांकणुं राखी सील मारवाजेई बंध करे तो केटलाककाल सुधी तेमां जीव योनि रहे ? या प्रमाणे प्रश्नपुबवाश्री लगवान् कहे के हे गौतम! जघन्य तो अंतर्मुहर्त रहे, अने उत्कृष्ट तो त्रण वर्ष रहे, पडी श्रचित्त थ जाय. तथा वटाणा, मसूर, तल, मग, अडद, वाल, कलथी, चोला, तुअर, चणा इत्यादि धान्य सर्व उपर प्रमाणे जाणवू, परंतु एटलुं विशेषके, ते उत्कृष्ठथी पांच वर्ष उपरांत अचित्त थ जाय . तथा अलसी, कसुंबानी करड, कोडं, कंगणी, बंटी, राल, कोडुसक, सण, सरसव, मूलीनां बीज इत्यादि धान्यपण उपर प्रमाणे जाणवां, परंतु ज़स्कृष्ठथी सात वर्ष उपरांत अचित्त थ जाय . तथा कपासनां डोडवां उत्कृष्ठथी त्रण वर्ष उपरांत अचित्त थ जाय . आपण कल्पनाष्यनी वृत्तिमां बे. तथा चाव्या विनानो आटो (लोट ) श्रावण, जादरवा महिनामां पांच दिवस सुधी मिश्र रहे. पडी अचित्त थाय बे; आसो, कारतक मासमां चारदिनसुधी मिश्र रहे, पनी अचित थाय बे; मागसर पोस मासमां त्रण दिन सुधी मिश्र रहे डे, पनी अचित्त थाय डे; माहा, फागणमासमां पांच पहोर मिश्र रहे , तथा चैत्र, वैशाख मासमां चार पहोर मिश्र रहे , तथा ज्येष्ठ, आषाढ मासमां त्रणपहोर मिश्र रहे , उपरांत अचित्त थ जाय . जो तत्काल चाली ले तो अंतर्मुहर्तसुधी मिश्र रहे, पनी अचित्त थाय . प्रश्नः- पीसेलो बाटो केटला दिवसनो अचित्त जोगीने तथा श्रावकने खावो योग्य ? उत्तरः- सिझांतमां श्राटानी मर्यादानो नियम अमारा वाचवामा श्राव्यो नथी, परंतु बुद्धिमान् नर्बु जुनुं अनाज, सरस नीरस क्षेत्र, वर्षा, शीत, उष्णादि ऋतु, तेमां पण ते आटानो पंदर दिवस के मासादि का Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०० ) जैनतत्त्वादर्श, लमां, वर्ण, गंध, रस, स्पर्शादि बगडेल देखे, तेमज तेमां सुरसली प्रमुख जीव पडेला देखे तो ते न खाय; जो खायतो जीव हिंसा थाय श्रने रोगोत्पत्तिनुं कारण याय. मिठाइनी मर्यादा छाने वीदलनो निषेध, उपर सातमा व्रतमां लखी श्रव्या बीए, त्यांथी जाणवुं. दहींमां सोल पोर उपरांत जीव उत्पन्न थाय बे, वली विवेकी जीवोयें रींगणां, टींबरु, जांबु, बिलां, पीलु, करमदां, पाकां गुंदां, पंचु, महुडां, मोर, वालोल, मोटां बोर, चणीयांबोर काचां कोठ फल, खसखस, तल इत्यादि न खावां जोइए. तेमां त्रसजीव थाय बे. तथा जे फल लालरंग देखवामां बुरां लागे, पाकीगयेलां तथा गोल, एवा कंकोडां, फणस प्रमुखपण बूरी जावनाना हेतु होवाथी न खावां जोश्ए. वली जे फल जे देशमां खावां विरुद्ध लागे, जेमके कडवं तुंबडुं, कूष्मांड अर्थात् कोहोलुं हलवुं ( कडु ) ते पण न खावां जोइए. वली अजय, अनंतकाय, कंदमूल, पढी ते परघरनां श्रचित करेला, रांघेलां होय तोपण न खावां जोश्ए; कारण के एक तो निःशूकता ने बीजा रसलंपटता तथा वृद्धवादि दोषनो प्रसंग थाय बे. ते कारणी न खावां जोइए. तथा उकालेला सेलरां, रांधेलां आर्द्रादिकंद, सुरण, रींगणाप्रमुख अगर जो के चित्त बे तोपण श्रावक प्रसं गदूषण त्यागवा वास्ते न खाय. वली मूला तो पंचाग खावा योग्य नश्री. निषिद्धत्वात् तथा शुंग ने हलदर, नाम तेमज खाद नेद थवाश्री अजय नथी. तथा उकालेलं पाणी त्रण उत्तरा यावे त्यारे चित्त थइ जाय बे. कथन पिंड निर्युक्तिमां बे. चोखाना धोनुं पाणी ज्यारे नितरीने निर्मल जाय, त्यारे चित्त थाय बे. वली उष्ण जलनी मर्यादा प्रवचनसारोद्धारादि ग्रंथोमां या प्रमाणे लखी डे. त्रण वखत उजरा श्रावेलुं उष्णजल उनालाना चारे मासमां पांच पोर चित्त र हे. या चूलेथी उतार्या पढीनी मर्यादा बे तथा वर्षातुना चारे मा. समांत्रण पोर चित्त, धने शियालाना चारे मासमां चार पोर - चित्त रहे बे, पढी सचित्त थर जाय बे. जो ग्लान, बाल, वृद्धादि साधु वास्ते मर्यादा उपरांत राखवुं होय तो दारादि वस्तुनो प्रदेष करीने राखनुं, तेम करवायी सचित्त यतुं नथी. या कथन प्रवचन सारोद्धारना " Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिद. (०१) १३६ मा धारमा बे. तथा कांगडु मग, मठ श्रने हरडादिनां मीज (गोग्ली) थगरजो के श्रचित्त , तोपण योनि राखवा वास्ते, तथा निःशूकतादि परिहार वास्ते दांतथी तोडवा न जोशए. इत्यादि सचित्त वस्तुनु खरूप जाणीने सातमुं व्रत अंगीकर करवू जोश्ए. श्रावके प्रथम तो निरवद्य (दोष रहित) श्राहार करवो जोइए, तेम न करी शके तो सर्व सचित्त वस्तु खावानो त्याग करवो जोशए; तेम पण न करी शके तो बावीश अजय अने बत्रीश अनंतकाय तो अवश्य त्यागवा जोश्ए, वली चौद नियम धारवा जोश्ए. सूर उठीने यथाशक्ति नियम ग्रहण करवू, पनी यथाशक्ति प्रत्याख्यान करवं. नमस्कार सहित पोरसी प्रमुख प्रत्याख्यान, जो सूर्य उदय पहेला उचरवामां आवे तो शुद्ध , अन्यथा शुझ नश्री. शेष प्रत्याख्यान सूर्योदय पड़ी पण थर शके . नवकारशी जो सूर्योदय पहेला उचरवामां आवी होय तो तेनी पड़ीना पोरसी तेमज साढ पोरसी प्रमुख प्रत्याख्यानो थर शके जे. जे नमस्कारसहित सूर्योदयनी पदेलां उच्चारण न करीए तो कोपण काल प्रत्याख्यान करवू शुफ नथी; अने जो प्रथम नमस्कारादि प्रत्याख्यान मुष्टि सहितादि करे तो सर्वकाल प्रत्याख्यान करवामां अवे ते शुरुज थाय डे. रात्रिए चौविहार करे अने दिवसें एकासणुं करे, पड़ी ग्रंथिसहित प्रत्याख्यान करे तो तेने दरेकमासमां गणत्रीश उपवासनु फल मले बे. दररोज बे वखत नोजन, उपर कहेली रीति प्रमाणे करे तो तेने अहावीश उपवासनुं फल मले बे; कारण के भोजन करतां बे घडी काल लागे डे, बाकीनो काल तपमा व्यतीत थाय . आ कथन पद्मचरित्रमा डे. प्रत्याख्यान उपयोगपूर्वक पुरुं थइजाय तो पारे. हवे चारप्रकारना थाहारना विजाग कहीयें बीयें, अनाज, पक्वान्न, रोटला प्रमुख, जेनाथी तुधानो नाशयश् शके, ते प्रथम श्रशन नामनो थाहार . बाशनुं पाणी तथा उष्णजल प्रमुख श्रा बीजो पाननामा आहार . फल, फूल, शेलडीरस, सुखडीप्रमुख, श्रात्रीजो खादिमनामा थाहार बे; अने सूंठ, हरडे, पिपलीमूल, तीखां, जीरे, अजमो, जायफल, जावंत्री, अशेली, खेरवडी, जेठीमध, तज, तमालपत्र, एलायची, कोठ, Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) जैनतत्वादर्श. विडंग, बिडलवण, अजमोद, कुलिजण, पीपर, चीणकबाब, कचूर, मुस्ता, कंटासेली, कपूर, संचल, हरडा, बहेडा, कुंठनई, बबुल, धव, खदिर, पान, सोपारी, हिंग, हिंगुलाष्टक, त्रेवीस, पंचकुल, पुष्करमूल, जवासा मूल, बाबची, तुलसी, था सर्व खादिम नामा चोथा आहारमा बे. प्रवचन सारोछारादि ग्रंथो तेमज नाष्यमां ा विचार बतावेल . कल्पवृत्तिमां तेने खादिम कहे . कोश् अजमाने पण खादिम कहे . श्रा मतांतर . श्रा सर्वस्वादिमनामा आहार जे. वली एलायची तथा कपुरप्रमुखथी वासित करेबुं जल मुविहार प्रत्याख्यानमां पी, कल्पे बे. तथा वेशण, वरीयाली, सोय, कोठवडी, श्रामलागांउ, आंबानी गोठली, लींबुनां पान प्रमुख खादिम होवाथी सुविहार प्रत्याख्यानमां लेवां कल्पतां नथी. त्रिविहार प्रत्याख्यानमा मात्र जल पीई कल्पे . तेमां .पण फुकारेवु पाणी, तथा साकर, कपुर, एलची, कला, खेर, चूर्णक, सेलक, पाडलादिवासित जल, जो नितारीने तेमज गलीने वापरे तो कल्पे, अन्यथा नही. शास्त्रोमां मध, गोल, साकर, खांडप्रमुख स्वादिममां गणेला डे, श्रने जाद, शर्करादि जल, तक प्रमुखने पानमां गणेलां , तो पण ते कुविहार प्रत्याख्यानमां कल्पता नथी. उक्तं च ॥ नागपुरीयगबना करेला प्रत्याख्याननाष्यमां कडंडे के ॥ दखा पाणाश्य, पाणं तह सामं गुडाश्यं ॥ पढियं सुयंमि तहविहु, तित्तीजणगंति नायरियं ॥ १॥ स्त्रीनी साथे लोग करवाथी चौविहारनो नंग थतो नथी; परंतु बालकना तथा स्त्रीना होठ मुखमां लश् चुंबन करवामां आवे तो जंग थाय. वली उ. विहार प्रत्याख्यानमां तेम पण करे तो जंग थतो नथी. प्रत्याख्यान मात्र थाहारनुंज कराय , परंतु रोम आहारतुं करवामां श्रावतुं नथी, तेथी लेपादि करवाथी प्रत्याख्यानमां नंग थतो नथी. वली नीचेनी वस्तु कोश्पण प्रकारना थाहारमा गणाती नथी तेनां नाम. पंचांग लींबडो, गोमूत्र, गली, कडं, करीयातुं, अतिविष, कडानी बगल, चीड, चंदन, जाख, हरिखा, रोहणी, उपलोट; वज, त्रिफला, बावलनी बाल, धमासो, नहि, श्रासंध, रींगणी, एलियो, गुगल, हरडां दल, कपासनी जड, जाल, वैरी, कंकेर, करीर, तेनी जड, पुंआड, वोह Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिवेद. (४०३) थोरी, श्राबी मजीठ, बोल, बीउकाष्ट, कुंथार, चित्रक, कुंदरु प्रमुख जे जे वस्तु खावामा थनिष्ट लागे ते सर्व अणाहारिक जे. आ अणाहारी वस्तु रोगादि कष्टमां चोविहार प्रत्याख्यानमां पण खावामां आवे तो नंग थतो नथी. या प्रमाणे थाहारना नेद जाणीने प्रत्याख्यान करे. __पनी दिशाए जवू, दांतण करवं, उल उतारवी, कोगला करवा, श्रा सर्व देशस्नान करी पवित्र थर्बु जोश्ए. था कथन अनुवादरूप में; कारण के पूर्वोक्त सर्वकामो सवारमा उठी प्रायः सर्व गृहस्थ करे बे; तेमां शास्त्रोपदेशनी अपेदा नथी, कारण के व्यवहारथी खतः सिक डे, परंतु तेनो विधि शास्त्रमा कदेलो . प्रथम मलोत्सर्ग (दिशाए जवा) नो विधि श्रा प्रमाणे . ॥ यमुक्तं विवेकविलासग्रंथे ॥ मूत्रोत्सर्ग, मलोत्सर्ग मैथुनं स्नाननोजनं ॥ संध्या दिकर्म पूजा च, कुर्याऊपं च मौनवान् ॥१॥ अर्थः-मुतरवू, दिशाए जq, मैथुन करवू, स्नान, जोजन, संध्यादि कर्म, पूजा, जाप, श्रा सर्व मौनपणे करवा; तथा बने संध्या वस्त्र पेहेरीने करे दिवसे उत्तर सन्मुख मुख राखी लघुशंका करे. वली सर्व नक्षत्रोतुं तेज सूर्यथी अवरा जाय, अने सूर्यनुं मंडल अर्धबहार थावे त्यांसुधी सवारनी संध्या करे; तथा सूर्य अर्ध श्रस्त थाय, पडी बेत्रण नदात्रो ज्यां सूधी नजरे न पडे, त्यांसुधी सायंकाल कहेवाय दे. वली राखना ढगला उपर, बाणना ढगला उपर, गायोने बेसवाना स्थानमा, सर्पनी बंबी जपर, ज्यां बहुलोक पुरीपोत्सर्ग करता होय त्यां, उत्तम वृदनी नीचे, रस्ता उपरना वृक्षनी हेग्ल, रस्तामा सूर्य सन्मुख, पाणीनी 'जगामां, स्मशानमां, नदीना कांग उपर, जे जगाने स्त्री पूजती होय ते जगाउपर, इत्यादि स्थानोमा मलोत्सर्ग न करे. परंतु ज्यां बेसवाथी कोश गाल दीए नहि, मारे कुटे नही, पकडी लश् जाय नहि तेवा स्थानमा तेमज ज्यां बेसवाथी पडी जवाय नही, ज्यां जमीनमां पोलाण होय नही, मछर डांसादि त्रसजीव तथा बीजप्रमुख होय नही, एवा उचित स्थानमा मलोत्सर्ग करे, वली गामनी तथा कोश्ना घरनी समीप मलोत्सर्ग न करे. जे तरफथी पवन श्रावतो होय, तथा गामनी पूर्व दिशि तरफ पूंठ करीने मलोत्सर्ग न करे. तथा मूत्रनो वेग रोकवो नही. मूत्रनो वेग रोकवाथी नेत्रमा हानि थाय बे, अने दिशानो Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोल मनुष्याना चीपडामा, १४ सर्व अशुचिस्मा, १२ स्त्री पुरु (४०४) जैनतत्त्वादर्श. वेग रोकवाथी मृत्यु थ जाय . वली वमन रोकवाथी कुष्ट रोग थइ जाय . कदापि या त्रणे वात नही थाय तो रोग तो अवश्य थशे. श्वेष्म करवामां आवे त्यारे तेना उपर धूड नाखी देवी; कारण के श्री प्रज्ञापना उपांगना प्रथम पदमां लख्युं बे के चौदस्थानमा संमूर्बिम जीव उत्पन्न थाय . ते चौदस्थाननां नाम १ पुरीष (विष्टा) मां, २ मूत्रमां, ३ मुखना धुंकमां, ४ नाकना मेलमां, ५ वमनमां, ६ पित्तमां, वीर्यमां, वीर्य रुधिरना संगममां, ए राध (परु) मां, १० वीर्यना पुजल अलग निकली पडे तेमां, ११ जीवरहित कलेवरमां, १२ स्त्री पुरुषना सं. योगमां, १३ नगरनी मोरीमां, १४ सर्व अशुचिस्थानमां, जेमके कानना मेलमां, श्रांखना चीपडामां, बगलना मेलमा; इत्यादि. श्रा सर्वे चौद बोल मनुष्यना संसर्गवाला ग्रहण करवा अने ज्यारे शरीरथी अलग मेल थाय बे, त्यारे जीव उत्पन्न थाय . _वली दांतण पण निरवद्य स्थानमां करे, दातण श्रचित्त जाणेला - दनु कोमल करे; दांतोने दृढ करवा वास्ते तर्जनी आंगलीथी दांतोनी बीड घसे; जे दांतनो मेल पडे, तेना उपर धूड नाखी दे. दातण पण के. वीरीतें करे ? दातण सीधुं, गांव विनानु, जेनो कुचो सारो थाय तेवं, आगल जतां पातढुं, नानी बांगली समान जाडं, सारीजूमिमां उत्पन्न थयेबुं, एवं लश् तेने कनिष्ठा अने अनामिका श्रांगली वचे पकडी, प्रथम जमणी दाढा घसे, पड़ी डाबी दाढा घसे; स्वस्थ थ उपयोगथी दांतने अने पेढाने पीडा न थाय तेम घसे. उत्तर तथा पूर्वसन्मुख निश्चलासन थी बेसी मौनयुक्त दातण करे. उर्गंधी, सुकी, पोली, खाटी, खारी वस्तु दांतने न घसे वली व्यतीपात, रविवार, संक्रातिदिन, ग्रहण लागवाने दिन, नवमी, अष्टमी, पडवो, चौदश, पूर्णमासी, अमावास्या, था दिनो. मां दातण न करे.. जो दातण न मले तो मुख शुद्धिने वास्ते बार कोगला करे, अने जलतो हमेशां उतारे. दातणनी फाडथी जीजनो मेल हलवे हलवे सघलो उतारीने शुद्ध स्थानमा दातण धोश्ने पोताना मुखसन्मुख नाखे. वली खांसीवालां, श्वासवालां, तपवालां, अजीर्णवाला, शोकवाला, तृषावालां, मुख पाकेलां, मस्तक, कान, नेत्र, हृदयना रोगवाला, दातण न करे. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०५) नवम परिवेद. मस्तकना केशने निरंतर समारे, जेथी माथामां जू न पड़े. एबी तिलक करे. तिलक करती वखते श्रारीसामा पोतार्नु मुख न देखे तेमज मस्तक न देखे तो पांच दिवसनी अंदर पोतानुं मरण जाणवू. जेणें जपवास पोरसी प्रमुख प्रत्याख्यान कर्यु होय ते दांत धोया विना शुरू, कारण के तप, फल बहुज उत्तम . लौकिक शास्त्रोमां पण उपवासादि करे तो दातण विनाज देवपूजा करे एवो पाउ , ते कारणथी उपवासादिमां दातण करवानो लौकिकशास्त्रोमा निषेध . यमुक्तं विष्णुनक्तिचंसोदय ग्रंथे॥प्रतिपदर्शषष्ठीषु, मध्यांते नवमीतियौ ॥ संक्रांतिदिवसे प्राप्ते, न कुर्यात् दंतधावनं ॥१॥ उपवासे तथा श्रा, न कुर्यात् दंतधावनं॥ दंतानां काष्ठसंयोगो, हंति सप्त कुलानि वै ॥२॥ इत्यादि. __ ज्यारे स्नान करे त्यारे पनक कुंथुआदि जीवोथी रहित नूमिमां स्नान करे. नूमि उंची, नीची तथा पोली न होय त्यां स्नान करे, उष्ण प्राशुक जलथी स्नान करे, जो उष्ण जल न मले, तो वस्त्रथी गली प्रमाण संयुक्त शीतल जलथी स्नान करे. व्यवहारशास्त्रोमां लख्यु डे के, नग्न थश्ने, रोगबतां, परदेशथी श्रावीने, नोजन कर्या पडी, भानूषण पेहेरीने, कोइने विदाय करीने, मांगलिक कार्य कर्या पडी स्नान न करे; तथा अजाण्या पाणीमां, सुष्प्रवेशजलमां, मेलाजलमां, वृदोथी बालादित श्रयेला, शेवालथी आबादित जलमां स्नान न करे. वली शीतजलथी स्नान करी उष्णनोजन न करवं जोश्ए. अने उष्ण जलथी स्नान करी शीत जोजन न कर जोश्य. तेलमर्दन निरंतर कर जोश्ए. स्नान कर्या पली जेनी कांति फीकी देखाय, तथा जेना दांत परस्पर घसाय, अने जेना शरीरमां मडदा जेवी गंध श्रावे, तेनुं मरण त्रण दिवस अंदर समजg; तथा स्नान कर्यापडी जेना हृदयमा तथा बंने पगोमा तत्काल पाणी शोषार जाय, तो तेनुं दिवसमां मरण समजवं. मैथुनसेवीने तथा वमनकर्या पडी थोडीवार पड़ी स्नान करवू. मृतकनी चितानो धुमाडो लाग्यो होय तथा मस्तक मुंडाव्युं होय तो गलेला शुद्ध जलथी स्नान कर. तेलमर्दनकरी स्नान कर्या पडी उज्वल वस्त्र, आचरण, पहेरवां. प्र. याणकरवाना दिवसे, संग्राममा जतां, विद्यामंत्र साधतां, रातना, सांके, पर्व दिवसे, नवमेदिवसे, स्नान न करे तथा मस्तक पण न मुंडावे, तथा Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०६ ) जैनतवादर्श, पक्षमां एकवार दाढी मस्तकना केश तथा नख दूर करावे, पोताने हाथे तथा दांते नख न उतारे. स्नान करवाथी शरीर पवित्र चैतन्य सुखकर, जावशुद्धिन हेतु या बे ॥ उक्तं च द्वितीये अष्टकप्रकरणे ॥ जलेन देददेशस्य, क्षणं यत् शुद्धिकारणं ॥ प्रायोन्यानुपरोधेन द्रव्यस्नानं तदुच्यते ॥ १ ॥ अर्थः- जलथी शरीरनी त्वचामात्रनीज क्षणमात्र शुद्धि बे परंतु दीर्घकाल नही. शुद्धि जे थाय बे ते पण प्रायः बे. एकांत नथी, कारण के अतिसारादि रोगवालाने दण मात्र पण शुद्धि यती नथी. धोवा योग्य मेथी बीजा नासिकादि अंतर्गत मेल जे बे ते स्नानथी र यता नथी, अथवा पाणीविना बीजा जीवोनी हिंसा न करवाथी जे स्नान बे ते बाह्य स्नान बे, जे पुरुष स्नान करी जगवाननी तेमज साधुनी पूजा करे, तेनुं स्नान पण सारुं बे, कारण के ते स्नान जावशुद्धि नुं निमित्त बे. स्नान करवामां प्रकायना जीवोनी विराधना डे, तो पण सम्यक् दर्शननी शुद्धि रूप गुण बे. ॥ यक्तं ॥ पूजाए काय हो, पडिको सोउ किंतु जिए या ॥ सम्मत्त शुद्धि देउ, त्ति जावणीया निरवजा ॥१॥ श्रर्थः - को कड़े बे के पूजा करवाथी जीववध थाय छाने जीववध तो शास्त्रमा निषेध करेल बे, ते कारणथी पूजा न करवी जोइए, तेनो उत्तर एवो बे के, जिनराजनी पूजा, सम्यक्त्वनी निर्मलता करनारी बे, ते कार 3 थी जिनपूजा निरवद्य बे. ए प्रमाणे देवपूजा वास्ते गृहस्थाने स्नान करवा कह्युं बे, तथा शरीरना चैतन्य सुखवास्ते पण स्नान बे, परंतु स्नान करवायी पुण्य थाय बे एम मानवं ते मिथ्या बे, कारण के जे कोइ तीर्थमां जइ जाणीने स्नान करे बे तेने पण शरीर शुद्धि शिवाय बीजुं कां पण फल यतुं नथी. या वात त्र्यन्यदर्शनना शास्त्रोमां पण कथन करेली बे. उक्तं च ॥ स्कंदपुराणे काशीखंडे षष्ठाध्याये ॥ श्लोक ॥ मृदो चारसहस्त्रेण, जलकुंजशतेन च ॥ न शुद्धयंते दुराचारा; स्नानतीर्थशतैरपि ॥ १ ॥ जायन्ते च त्रियंते च जलेष्वेव जलौकसः ॥ न च गच्छन्ति ते स्वर्ग, मविशुद्धमनोमलाः ॥ २ ॥ चित्तं समाधिनिः शुद्धं, वदनं सत्य भाषणैः ॥ ब्रह्मचर्यादिनिः कायः, शुद्धोगंगां विनाप्यसौ ॥ ३ ॥ चितं रागादिनिः क्लिष्ट, मलीकवचनैर्मुखं ॥ जीवहिंसादिनिः कायो, गंगा तस्य पराङ्मुखी ॥ ३ ॥ परदारा परद्रव्य, परोह पराङ्मुखः ॥ गंगाप्या : . Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१४) जैनतत्त्वादर्श. लाधरने पाणीनो स्पर्श थंयापली जिनबिंब उपर ते पाणी पडे बे. तेमां दोष नथी. आ वृद्धोनी आचरणा बे. तेवीजरीतें चोवीशी गट्टा आदिमां पण जाणी लेबु. ग्रंथोमां पण एवीज रीति देखवामां आवे जे ॥ नाष्यकारनुं वचन अहींयां लखीयें बीयें. जिनराजनी शद्धि देखावावास्ते कोजिक्तजन एक प्रतिमा बनावे , साथे प्रगटपणे अष्टमहापातिहार्य देवागम सुशोजित रचावे . २ दर्शन, ज्ञान, चारित्रनी आराधनावास्ते कोश् त्रण तीर्थी प्रतिमा बनावे . ३ को जक्तजन पंच परमेष्टिना आराधन निमित्तें नयापन (उजमणा) मां पंचतीर्थी प्रतिमा जरावे . ४ चोवीश तीर्थंकरोनां कल्याणक, तप उजमणां वास्ते जरतक्षेत्रमा जे छपजादि चोवीशे तीर्थकरो थया , तेजेना बहुमान वास्ते को चोवीशी बनावे . कोइ जतिथी मनुष्यलोकमां उत्कृष्ठा एककालमा एकसो सितेर तीर्थंकर विहरमाननी एकसो सित्तेर प्रतिमा बनावे बे; ते कारणथी त्रण तीर्थी, पांचतीर्थी, चोवीशी आदिनुं बनावq युक्तियुक्त जे. श्रा पूर्वोक्त सर्व अंगपूजा बे. हवे अग्र पूजानुं वर्णन करीये बीये. रूपाना अथवा सोनाना वा धोला अक्षत, सरसव प्रमुखथी अष्टमंगलादि श्रालेखन करे, जेम श्रेणिकराजा दररोज एकसो आठ सोनाना जवथी त्रिकाल जगवाननी प्रतिमा सन्मुख साथी करता हता तेम करे; अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्रनी आराधनावास्ते अनुक्रमें पाटला उपर अदतना त्रण पुंज करे तथा साथीथा करे, तथा अशन ते एक रोटली जातप्रमुख, २ शेलडी रसप्रमुख ते पान, ३ पक्वान्नादि ते खादिम, ४ तंबोलादि ते खादिम. श्रा चारे प्रकारनां नैवेद्य नगवान् सन्मुख ढोवे. तथा उत्तम प्रकारना लीलां फल तथा सुकां फल. दाडिम, सफरजन, संतरां, नालीथर, बदाम प्रमुख प्रज्जु आगल ढोवे. वली गोशीर्ष चंदना दियी तथा पुष्पप्रकरथी विलेपन पूजनकरी श्रारति प्रमुख दीपक पूजा करे, या सर्व अग्रपूजा . ॥ यद्नाष्यं ॥ गाथा ॥ गंधव नह वाश्य, लवण जलारत्तिा दीवाश् ॥ जं किञ्च सबंपिउँ, अरई अग्गपूआए ॥१॥ नैवेद्य पूजातो दररोज करवी ते सुखदायक बे, तेनुं फलपण मोटुंबे. कोरं अनाज तथा रांधेदुं अनाज पण चढावे. लौकिक शास्त्रमा पण कयु डे के ॥ धूपोदहति पापानि, Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिबेद, (४२५) दीपोमृत्युविनाशकः ॥ नैवेद्य विपुलं राज्यं, सिद्धिदात्री प्रदक्षिणा ॥१॥ नैवेद्य चढावतुं, आरति करवी इत्यादि आगममां पण लखेल . " कीर बलि ” एवो पाठ आवश्यक नियुक्तिमां . तथा निशीथचूर्णीमां पण बलि चढाववी एम लखेल . वली कल्पनाष्यमां पण लखेवू डे के, जे नैवेद्य जिनप्रतिमा आगल चढाववावास्ते कर्यु होय, ते साधुने न कस्पे. तथा प्रतिष्ठाप्रातृतथी रचेली, श्रीपादलिप्त आचार्यकृत प्रतिष्ठापअतिमां लख्यु के के, आरति उतारवी, मंगल दीवो कर्यापली चार स्त्री मली नैवेद्य, गीतगानविधियी करे.॥ तथा च महानिशीथे तृतीये अध्ययने ॥ अरिहंताणं जगवंताणं गंधमसपश्व समजाणोवलेवण विचित्त बलिवत्थ धूवश्एहिं पूा सकारेहिं पदिण मञ्चणंपि कुवाणा चिनुपणं करेमोत्ति ॥ इति अग्रपूजा. हवे नावपूजार्नु स्वरूप लखीये बीये. अव्यपूजानो व्यापार निषेधवा वास्ते त्रीजी निस्सीहि त्रणवार करे, श्रीजिनेश्वर नगवाननी दक्षिण वाजुयें पुरुष, अने डाबी बाजुयें स्त्री रहे. आशातना टालवावास्ते मंदिरमा जघन्यथी नूमिनो संजव होतां नव हाथ प्रमाण, अने घरदेरासरमां जघन्यथी एक हाथ प्रमाण, अने उत्कृष्ठथी साठ हाथ प्रमाण अवग्रह डे. तेनी वहार बेसीने चैत्यवंदन विशिष्ट काव्योथी करे, श्रीनिशीथमां, वसुदेव हिंडमां, तथा अन्यशास्त्रोमां, श्रावकोयें पण कायोत्सर्ग, स्तुति श्रादि करी चैत्यवंदन करेल , एवा पाठ ले. जाष्यमां चैत्यवंदन त्रण तरेहथी करवू कहेल. एक जघन्य चैत्यवंदन, ते बे हाथ जोडी, मस्तकनमावी, प्रणाम करवा, यथा “नमो अरिहंताणं” इति, अथवा श्लोकादिबोली नमस्कार करवो, अथवा एक शकस्तव बोलें तो जघन्य चैत्यवंदन थाय. बीजुं मध्यम चैत्यवंदन, ते चैत्यस्तव दंडकयुगल 'अरिहंत चेश्श्राण' इत्यादि कायोत्सर्ग कर्या पड़ी एकस्तुति कहेवी ते. त्रीजु उत्कृष्ठ चैत्यवंदन, ते पंचदंड, शकस्तव, चैत्यस्तव, ३ नामस्तव, ४ श्रुतस्तव,५ सिहस्तव,प्रणिधान, जयवीयराय इत्यादि.वली कोश् आचार्यनो एवो मत डे के एकशकस्तव करवाथी जघन्य चैत्यवंदन थायडे, बेत्रणशकस्तव करवाथी मध्यम चैत्यवंदन थायडे, अने चार अथवा पांच शकस्तव करवाथी उत्कृष्ठ चैत्यवंदन थाय. तेनोविधि चैत्यवंदन नाष्यथीजाणवो. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१६) जैनतत्त्वादर्श. चैत्यवंदन निरंतर सातवखत कर, एम महानिशीथमां साधु वास्ते कहेलबे. श्रावकनेपण उत्कृष्टथी सातवखत चैत्यवंदन करवा कबुंडे. १५तिक्रमणमां, ‍मंदिरमां, ३ चाहार करतां पेहेलां, ४ दिवस चरित्र करतां, ५ देवसी प्रतिक्रमणमां, ६ सूती वखत, ७ सूइ उठतां वखत. या प्रमाणे सातवखत चैत्यवंदन साधुवास्ते कहेल बे. श्रावक जो आठ पहोरमां प्रतिक्रमण करतो होय तो ते निश्चयें सातवार चैत्यवंदन करे; वे प्रतिक्रमणमां वे चैत्यवंदन करे, श्रीजुं सुतीवखत, चोथुं उठतीवखत, अनेत्र काल पूजाकर्या पीत्रणवार एम सात वार श्रावक चैत्यवंदन करे, जे श्रावक एकवार प्रतिक्रमण करे, ते बवार चैत्यवंदन करे, जे प्रतिक्रमण न करे ते पांचवार चैत्यवंदन करे; जे सूतां उठतां पण चैत्यवंदन न करे ते त्रण वार करे. जो नगरमां बहु जिनमंदिरो होय तो सातथी अधिक पण चैत्यवंदन करे, वली जो त्रणकाल जिनपूजा न करी शके तो त्रिकाल देववंदन करे. कारण के श्रीमदानिशीयमां लख्युं बे के जेने गुरुप्रथम जैनमतनी श्रद्धा करावे, तेने प्रथम या प्रमाणे नियम यापे. सवारमां जिनप्रतिमाना दर्शन कर्या विना पाणीपण पीव्रं नही. मध्याह्ने ज्यांसाधुनी वंदना न करे, त्यांसुधी जोजन कर नही. संध्या समय चैत्यवंदन कर्याविना शय्या उपर पग मुकवो नहि. जनप्रतिमा वली गीत नृत्य जे पूजामां वर्णवेलां बे, ते जाव पूजामां पण श्र वी शकेबे . गीत, नृत्य मुख्यवृत्तियें तो श्रावक पोतेज करे, जेम निशीथ चूर्णीमां उदायिन राजानी राणी प्रभावतीनुं व्याख्यान बे तेम. वली पूजा करवाना अवसरमा श्री अरिहंतनी त्रण व्यवस्थानी कल्पना करे, तेमां स्नान करती वखत ब्रद्मस्थ व्यवस्थानी कल्पना करे; आठ प्रातिहार्यनी शोजा करतां के केवली अवस्थानी कल्पना करे; पर्यंकासन, कायोत्सर्गासन देखी सिद्धस्थानी कल्पना करे. बद्मस्थ अवस्था पण त्रण तरेह थी कल्पे, एकजन्म व्यवस्था, बीजी राज्य अवस्था, त्रीजी साधुपणानी - वस्था. स्नाननी वखत जन्म व्यवस्था कल्पे; माला, आमरण पहेरावती वखत राज्य अवस्था कल्पे, दाढी, मुख, मस्तकना वालो न होवाथी साधु अवस्था विचारे, तेमां साधु, केवली तथा मोक्ष अवस्थाने वंदना करे. वली पूजा पंचप्रकार, श्रष्टप्रकार, अने धनवान् होय तो सर्वप्रकारथी Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिबेद. (४१७) पूजा करे. तेमां पुष्प, अक्षत, गंध, दीप, धूप, आ पंचप्रकारें पूजा जाणवी, अने जल, चंदन, पुष्प, धूप, दीप, अदत, नैवेद्य, फल, था अष्टप्रकारें पूजा जाणवी. ते अष्टविध कर्मने मथनारी जे. वनी स्नात्र, विलेपन, वस्त्र, आजूषणादि, फल, दीप, गीत, नाटक, आरति आदि करे, ते सवोपचार पूजा ॥ इति बृहद्लाष्ये ॥ वली पूजाना त्रण नेद .१ पोते कायाथी पूजानी सामग्री लावे, श्वचनोथी बीजा पासे मगावे, ३ मनथी सुंदर पुष्प, फल, प्रमुखथी पूजा करे. एम काया, वचन अने मन, त्रणे योगथी, करे, करावे, अनुमोदे. आत्रण प्रकारें पूजा समजवी. ___ वली एक फल, बीजी नैवेद्य, त्रीजी थुश्, चोत्री प्रतिपत्ति ते वीतरागनी श्राझापालन रूप, था चार प्रकारें पूजा, यथाशक्तियें करे. ललितविस्तरा दिग्रंथोमां "पुषामिषस्तोत्र प्रतिपत्ति” अर्थात् फूल, नैवेद्य, स्तोत्र अने श्राज्ञा आराधनीय, श्रा उत्तरोत्तर प्रधान ने ॥ इत्यागमोक्तं पूजानेदचतुष्टयं ॥ वली पूजाना बे प्रकार के, १ अव्यपूजा, १ जावपूजा. पुष्पादियी जिनराजनी पूजा करवी, ते अव्यपूजा ने, अने जिनेश्वरनी श्राज्ञा पालवी ते नावपूजाले. वली पुष्पारोहणं, गंधारोहणं इत्यादि सत्तर नेदथी, तथा स्नात्र विलेपनादि एकवीश नेदयी पूजा ने; परंतु अंगपूजा, अग्रपूजा,श्रने नावपूजा, था त्रणे पूजा, सर्वपूजाउनी अंतर्जावी. तेमां पूजाना सत्तर नेद लखीये बीये. १ स्नात्र करई ५ विलेपन करवू, ३ चनुजोडा वा वस्त्रयुगल, ४ वास सुगंध, ५ पुष्पारोहण, ६ पुष्पनी माला, ७ पंचरंगी फूल चढाववां, जी. मसेनी बरासतुं चूर्ण बगंटवू, ए श्राजरण पहेरावां, १० पुष्पना गृह बनाववां, ११ फूलना पगर, वरसाद करवो, १५ पुष्पनी वांगी रचन, १३ श्रष्टमंगल, अक्षत, १४ धूप पूजन, १५ गीत, १६ नृत्य, १७ वाजिन, शति. हवे पूजाना एकवीश नेद लखीये बीये. तेनुं वर्णन करतां पहेलांपूजा करनारें शुं शुं नियमो जालववा जोश्ये तेनुं स्वरूप लखीये बीये. १ पूजा करनार पूर्वदिशि तरफ मुख करी स्नान करे । पश्चिम दिशातरफ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१७) जैनतत्त्वादर्श, मुख करी दातण करे, ३ उत्तर दिशासन्मुख उजा रही श्वेत वस्त्र पढेरे, ४ पूर्वोत्तर मुख राखी पूजा करे, ५ घरमांप्रवेश करतां डाबीबाजुये शख्य रहित नूमिमां देरासर करावे, ६ नूमिथी उंचुं दोढ हाथ राखी देरासर करावे, जो देरासर नीची नूमिकामा करावे तो तेनो वंश दिवसें दिवसें नीची स्थितिमा उतरतो जशे. ७ दक्षिण दिशि तथा विदिशि सन्मुख मुख न करे. घरदेरासरमां पश्चिम सन्मुख मुख करी पूजा करे तो, चोथी पेढीमां संताननो उछेद थाय,एदक्षिण दिशितरफ मुख करी पूजा करे तो संतानहीन थाय. १० अग्निकोणें करे तो धनहानि थाय. ११ वा. युखुणे करे तो संतान न थाय. १५ नैरुत्य खुणे कुलक्ष्य थाय. १३ ईशान खुणे करे तो, एकस्थलें रेदेवानुं न बने. १४ बने पग, बंने जानु, बंने हाथ, बंने स्कंध, मस्तक आ नव अंगमां अनुक्रमें पूजा करे, १५ चंदन शिवाय पूजा करे नहीं. १६ कंठमां, हृदयमां, नाजिमां तिलक करे. १७ नवे अंगमा नवतिलकधी निरंतर पूजा करे. १७ सवारमा प्रथम वासपूजा करे. रए मध्याह्ने पुष्पथी पूजा करे. २० संध्याये दीपथी पूजा करे. १ जे फूल हाथमांथी धरती उपर पडे, जे पगने लागी जाय, जे मस्तकथी उपर चाट्युं जाय, जे मेलां वस्त्रमा राखवामां आवेल होय, जे नानिधी नीचे राखवामां श्रावेल होय, जेने पुष्ट जननो स्पर्श थयो होय, जे बहुस्थलें जांगी गयुं होय, जे जीवोथी खवायुं होय, एवां फल जक्तजनोयें जिनपूजामां उपयोगमा लेवां नहि. २२ एक फूलना बे कटका करी पूजन करवू नही.२३ कलीने बेदवी नहीं, चंपक उत्पलादि फुलोने नांगवामां बहु दोष. २४ गंध, धूप, अक्षत, पुष्पमाला, दीपक, नैवेद्य, जल, उत्तम फल, इत्यादिथी जिनराजनी पूजा निरंतर करे. २५ शांतिकार्यमां श्वेत वस्त्र पेहेरी पूजा करे २६ अव्यलानने वास्ते पीलांवस्त्र पेहेरी पूजा करे. २७ शत्रु जीतवा वास्ते काला वस्त्र पेहेरी पूजा करे. मांगलिक कार्यवास्ते लालवस्त्र पेहेरी पूजाकरे. २ए मुक्तिवास्ते पांच वर्णनां वस्त्र पेहेरी पूजा करे. ३० शांतिकार्यवास्ते पंचामृतनो होम, दीवा, घी, गोल, लवणनो अग्निमां प्रदेप करवो ते पुष्टि हेतु जाणवो. ३१ फाटेलां, दांडीआं करेलां, बिजवालां, कापेलां, जेनो रातो वर्ण जयानक होय, एवां वस्त्र पेहे. री, दान, पूजा, तप, होमश्रने सामायिक प्रमुख करे तो ते निष्फल थाय. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिच्छेद. (४१५) ३२ पद्मासन बेसी, नासाग्रलोचन स्थापन करी मौनता धारण करी वar मुखकोश बांधी, जिनराजनी पूजा करे. वे पूर्वोक्त एकवी प्रकारी पूजानां नाम लखीये बीये. १ स्नात्र पूजा, ‍विलेपनपूजा, ३ जरण पूजा, ४ पुष्पपूजा, ५ वासपूजा. ६ धूप, उ दीप, फल, अक्षत, १० नागरवेलनां पान, ११ सोपारी, १२ नैवेद्य, १३ जल, १४ वस्त्र, १५ चामर, १६ बत्र, १७ वाजित्र, १० गीत, १७ नाटक, २० स्तुति, २१ भंडार वृद्धि. जे वस्तु बहुज सुंदर होय, ते जिनराजनी पूजामां वापरवी जोइये. या पूजाना प्रकार श्री उमाखातिवाचककृत पूजाप्रकरणमां प्रसिद्ध बे. विवेक विलासमां लख्युंबे के श्रावक ईशानखुणामां पण देवघर बनावे. वली पग पर पगधारणकरी, विषमासने बेसी थडक श्रासने बेसि, वामपग उंचा राखी, वामहस्तथी जिनराजनी पूजा न करे. शुष्क पुष्पोथी पूजा न करे, जे पुष्प धरतीपर पडीगयुं होय, जेनी पांखडी सडी गइ होय, नीच लोकोनो जेने स्पर्श थयो होय, जे देखवामां अशुभ होय, जे विकस्वर न थयां होय, जे कीडाथी खवायेलां दोय. जे रातन वासी होय, जे मकडीनां जालांवालां होय, जे श्रमनोइ होय, जे दुर्गंधवालां होय, सुगंधरहित होय. खाटी गंधवालां होय, मलमूत्रनी जगामां उत्पन्न थयेला होय, पवित्र थयेलां होय, एवां पुष्पोथी जिनराजनी पूजा न करवी. विस्तारसहित पूजा करवाना अवसरमां, तथा निरंतर छाने वि शेषें करी पर्व दिवसोमा सात अथवा पांच कुसुमांजलि चढावे. पढी जगवाननी पूजा करे. कुसुमांजलि करतां या विधि करे. प्रातसमये प्रथम निर्माल्य उतारे, पढी प्रकालकरे, संदेपथी पूजा करे, यारति मंगल दीवो करे. पढी स्नानादि पूजासहित बीजी वार पूजानो प्रारंभ करे. देवनी पासे पंचामृतसंयुक्त कलश स्थापन करे. पी "मुक्तालंकार विकार सारसौम्यत्वकांतिकमनीयं ॥ सहज निजरूपनिजित, जगत्रयं पातु जिन बिबं " ॥ १ ॥ श्रा गाथा कही अलंकार उतारे, पढी " वयि कुसुमाहरणं, पयइ पइतिय मनोहरछायं ॥ जाणरूव मऊणपीठं, संवियं वो सिवं दिसर्ज ॥ २ ॥ श्र गाथा कही जमणे श्रंगें कलशथी प्रकालन करी, चंदन करी, चंदन चर्ची, धूप उखेवे. पढी क Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) जैनतत्त्वादर्श. लश श्रेणिबंध स्थापन करे, उपर सुंदर वस्त्र ढांके, पढी सुंदर केशर, चं. दन, धूपथी हाथ पवित्र करे, मस्तकमां श्रावक तिलक करे, हस्तउपर चंदननुं कंकण करे, हाथ धूपवासित करे. पनी स्नात्र करनारा श्रावक श्रेणिबंध उन्ना रही या प्रमाणे कुसुमांजलिनो पाठ उंचरे. " सयवंत कुंद मालश्, बहुविद कुसुमार पंचवन्नाई ॥ जिणनाह ह्रवण काले, दि. तिसुरा कुसुमांजलि हबा ॥१॥ एम उचरी जिनराजना अंग उपर पुब्प चढावे. वली “ गंधायहिय महुयर, मणहर जंकार सद्द संगीथ ॥ जिणचलणो वरिमुका, हर तुह्म कुसुमांजलि कुरियं ॥ श्री गाथा कही जिनराजना चरणकमल उपर एक श्रावक कुसुमांजलि चढावे सर्वकुसुमांजलिना पाठमां तिलक करवां, चंदन, पुष्पपत्रादि धूपवासित करी एकत्र चढाववां. ए प्रमाणे सर्वकुसुमांजलि करी रह्या पड़ी, जे जिनेश्वर नगवाननी स्थापना करी होय, तेमना जन्माभिषेक कलशनो अत्यंत मधुरखरथी पाठ कहे. पड़ी घी, शेलडीरस, उध, दही, सुगंधजल इत्यादिथी करी राखेला पंचामृतथी जिनराजने स्नान करे, स्नान करतां धूप उखेवे, जिनराजनुं शरीर पुष्परहित न करे, यदाहु दिवेताल श्री. शांतिसूरयाचार्याः॥ ज्यांसुधी स्नात्रसमाप्ति न थाय, त्यां सुधी नगवाननुं मस्तक शून्य न राख. निरंतर जलधारा अने उत्तमपुष्पोनी - ष्टि जिनराज पर करे, अने स्नान करती वखते चामर, संगीत, तूर्यादि आडंबर खशक्ति अनुसार करे. स्नात्र कर्यापली सर्वश्रावके निर्मल जलधारा देवी. धारा देती वखत आ प्रमाणे पाठ उच्चारे. ॥ अनिषेक तोयधारा, धारेव ध्यानमंडलायस्य ॥ नवनवननित्तिनागान्, नूयोऽपि जिनत्तु नागवती ॥ १॥ पड़ी जिनराजनुं अंग लूही, विलेपन चंदनथी करे, पुष्पादि चढावे, धूप उखेवे, उत्तम नैवेद्य तथा फल चडावे. पठी ज्ञानादि त्रणे सहित त्रण लोकना स्वामि पासे त्रण पुंज स्नात्रकार करे, प्रथम वडिल श्रावक त्रण पुंज करे, पनी नानो श्रावक तथा श्राविका अनुक्रमें करे, श्री जिनजन्ममहोत्सवमां पण स्नात्र करती वखते प्रथम अच्युत इंज, पोताना देवतासंयुक्त स्नात्र करे बे, पडी अनुक्रमें बीजा इंज स्नात्र करे . स्नात्रजल पोताना मस्तक उपर श्रावक प्रक्षेप करे तो दोष नथी. ॥ यमुक्त Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिवेद, (४१) श्रीहेमचंदाचार्यैः श्रीवीरचरिते ॥ अनिषेकजलं तत्तु, सुरासुरनरोरगाः॥ ववंदिरे मुहुर्मुहुः, सर्वांगं परिचिक्षिपुः ॥१॥ श्रीपद्मचरित्रना गणत्रीशमा उद्देशमां कडं के, राजा दशरथे पोतानी राणीने स्नात्रजल मोकल्युं बे. वली बृहत्शांतिस्तोत्रमा " शांतिपानीयं मस्तके दातव्यमित्युक्तं” वली सांजलीये बीये के, जरासंधे ज्यारे जरा विद्या बोडी, त्या तेनाथी पीडा पामती सेनाने देखी श्रीनेमिनाथ नगवानना कहेवाथी श्रीकृष्णे धरणेअदेवर्नु आराधन कर्यु. धरणे पातालमा रहेली श्रीपार्श्वनाथजीनी प्रतिमाने शंखेश्वरपुरमा लावीने, तेनुं स्नात्रजल बांटी सेना सचेत करी. वली श्रीजिनदेशना अनंतर राजाप्रमुख जे चावलोनी बली उबाले , तेमांथी अरधा चोखा तो धरती उपर नही पडतां देवता लश् लहे . अरधा उगलनारा लश् लहे बे, बाकीना सर्व लोक बूटी लहे . ते चोखानो एक पणं दाणो जो मस्तकमा राखे तो, सर्वरोग उपशांत थ जाय . वलीन महिना सुधी नवा रोग थता नथी. आ कथन आवश्यकसूत्रमा . पड़ी सद्गुरुनी प्रतिष्ठित, अतिसुंदर हीरागल प्रमुख वस्त्रनी मोटी ध्वजा, अतिउत्साहपूर्वक त्रण प्रदिक्षणा दश् विधिथी चढावे. सर्वसंघ यथाशक्ति नैवेद्य प्रमुख चढावे. हवे श्रारति मंगलदीवो श्री अरिहंतनी सन्मुख करवो तेनो विचा. र लखीये बीये. मंगलदीवानी पासे अग्निनुं पात्र स्थापन करवं, तेमां लवणजल अनुक्रमें नाखवू. प्रथम " उवणेउमंगलं वो, जिणाण मुह लालि जाल संचलिआ॥ तित्थपवत्तण समए, तियस विव मुका कुसुमवुद्धी ॥श्रा गाथा कही कुसुमवृष्टि करे, वली “उथह पडिजग्गापसरं, पयाहिणं मुणिवई करेऊणं ॥ पडईस लोणणल, जिरं च लोणं हुं श्रवहं मि॥ इत्यादि पारथी विधिपूर्वक जिनराजने त्रणवार पुष्पसहित लवण जल उतारे. पली अनुक्रमें पूजा करी आरति धूप प्रक्षेपसहित बंने बाजुए अत्यंत, कलशथी पाणीनी धारा देतां श्रावक पुष्पोने विखेरे. पनी “मरगय मणि घडिय विसा, ल थालमाणिक मंडिअ पश्वं ॥ नवणयर करुखितं, जम जाणारत्तिथं तुह्म” इत्यादि पाठपूर्वक प्रधानथालमां था. रति राखी उत्सवसहित त्रणवार उतारे. या कथन, त्रेशठ शलाका पुरुष चरित्रादिमां बे. मंगलदीपक पण भारतिनी जेम पूजे- पूजती वखत श्रा Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३२ ) जैनतत्त्वादर्श. पाठ कड़े ॥ गाथा ॥ जामितो सुरा, सुरिहिंतुहनाद मंगल पईयो || कण्याय लस्स नजर, जाणुव पयादिणं दितो ॥ १ ॥ ए प्रमाणे मंगलदीव उतारी देदीप्यमान जिनराजना चरण कमलपासे राखे चार ति बुजावी देवामां दोष नथी. आरति अने मंगलदीवो मुख्य वृत्तिए, घी, साकर, कर्पूरादिथी करे. तेम करवाथी विशेष फल बे. " मुक्तालंका र " इत्यादि जे गाथा कही ते श्रीहरिजद्र सूरिजीनी करेली मालम पडे बे; कारण के श्रीहरिजप्रसूरिकृत समरादित्य चरित्रनामा ग्रंथनी श्रादिमां " उवणेन मंगलेवो ” एवो पाठ डे ॥ इति नमस्कारस्य दर्शनात् ॥ वली श्र गाथा तपगछमां प्रसिद्ध बे. ते कारणथी सर्व गाथा यहीं लखी नथी. स्नात्रादिमां समाचारी विशेषथी विविधप्रकारनो विधि देखवाथी व्यामोह न करवो; कारण के सर्व आचार्यानी अद्नक्तिरूप फलनी सिशिवास्ते प्रवृत्ति होवाथी ते दोषरूप नथी. गणधरादि समाचारीउंमां प बहुज नेद होय. तेथी जे जे, धर्मथी विरुद्ध न होय, अने त तिने पोषक होय, ते ते सर्वकार्य कोइने पण असम्मत नथी. एवी रीतें सर्व धर्मकार्यमा जाणी लेवुं वली लवण आरति प्रमुखनुं उतार, संप्रदायी सर्वगोमां तेमज परदर्शनोमां पण करतां देखीयें बीयें. तथा श्री जिनप्रजसूरिकृत पूजाविधिशास्त्रमां तो लख्युं बे के ॥ गाथा || लव - पाई उत्तारण, पालित्तय सूरिमा पुवपुरिसेहिं ॥ संहारेण श्रणुन्नयं पि संपयं सिठी एकारि जइ ॥ १ ॥ अर्थः- लवणादि उतारवा श्रीपादलिप्त सूरिप्रमुख पूर्वपुरुषोयें एकवार करवानी श्राज्ञा थपीछे वर्तमानमां श्रमे ते अनुसार करावीये बीये. स्नात्रमां सर्वप्रकारें विस्तारसहित पूजा प्रनावनादि करवाथी परलोकमां उत्कृष्ट मोक्ष प्राप्तिरूप फल थायडे. जेम चोस इंडोयें जिनजन्मस्नात्रमहोत्सव कर्या बे, ते प्रमाणे श्रावक यतिउत्सादथी करे. तेम करवाथी या लोकमां पुण्य ने निर्जरा ने परलोकमां मोक्षफल प्राप्त थायडे. या कथन राजप्रश्नीय उपांगमां करेल. वे प्रतिमा पण अनेक प्रकारनी बे. तेनी पूजानो विधि सम्यक्त्व प्र करणमां या प्रमाणे लख्यो बे. ॥ गाथा ॥ गुरु का रिवाइ के, अन्नेसय का रिवाइ तं बिंति ॥ विदि का रिश्रा श्रन्ने, पडिमाये प्राण विद्वाणं ॥ १॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिवेद. (४३३) व्याख्याः- गुरु अर्थात् माता, पिता, दादा, पर दादा, प्रमुख तेउनी करावेली प्रतिमा पूजवी जोश्ये, एम को कहे. वली को कहे के, पोतानी करावेली, प्रतिष्ठित करेली प्रतिमा पूजवी जोश्ये, तथा कोश कहे बे के विधियी करावेली, प्रतिष्ठा थयेली प्रतिमा पूजवी जोश्ये. आ सर्वमां यथार्थ पद तो था - ममत्वरहित सर्वप्रतिमाने विशेषरहित पूजवी जोश्ये, कारण के सर्वस्थवें तीर्थकरनो आकार देखवाथी तीर्थंकर बुछि उत्पन्न थायबे, जो एम न मानी तो जिनबिंबनी अवज्ञाथी, ते जीवने निश्चयें पुरंतसंसारमा चमणरूप दंड प्राप्त थशे.. __ वली एवो पण कुविकल्प न करवो के जे अविधिथि जिनमंदिर, जिनप्रतिमा बनेलां होय, तेने पूजवाश्री, थने तेवा अविधिमार्गनी अनुमोदनाथी लगवंतनी श्राज्ञानंगरूप दूषण लागे. तथादि कल्पनाष्ये ॥ गाथा ॥ निस्सकड मनिस्सकडे, चेये सव्वहिं थुतिन्नि ॥ वेलंच चे श्राणिय, नाउँ किकिया वावि ॥१॥ व्याख्याः-निश्राकत तेने कहीये, जे गबना प्रतिबंधथी बनेल होय, जेम के श्रा अमारा गनुं मंदिर , वीजु अनिश्राकृत, जेना उपर कोश् गहनो प्रतिबंध नथी;ा सर्व जिनमंदिरोमांत्रण थुश् कहेवी. जो सर्वजिनमंमिरोमा त्रण त्रण थुश् (स्तुति) कदेतां बहु काल लागी जाय, अने जिनमंदिर बहु होय, तो ए. केक जिनमंदिरमा एकेक थुइ कहेवी; परंतु सर्वजिनमंदिरमा विशेषरहित जक्ति करवी. वली जिनमंदिरमा करोलीयानां जाला लागीगयां होय, तेने दूर कर वावास्ते, जेने जिनमंदिरनी सुप्रत करी होय, तेने साधु जोरथी उपदेश करे, एवी रीतें के, तमे जिनमंदिरनी नोकरी खाडो, बतां सार संचाल केम करता नथी? वली जेनी को सारसंन्नाल न करे, तेने असं विस देवकुलिका कदेबे. ते मंदिरोमां जे करोलीनां जाला होय ते दूर करवावास्ते, सेवकोने प्रेरणा करे, के तमे जिनमंदिरने मांखीनी पांखनी जेम चमक दमकवाला राखो, जो सेवक लोक न माने तो नित्रंबना करे, पली साधु पोते जयणाथी ते जालां दूर करे; कारण के जिनमंदिर, झानभंडारप्रमुखनी साधु उपेक्षा न करे एवो पाठ . पूर्वोक्त चैत्यगमन पू. जा तथा स्नानादिविधिजे वर्णन कर्यो, ते सर्व धनवान् श्रावकनी अपेक्षा. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिद. (४३१) खधोवा, ११ केशसमारवा, १५ नख समारवा, १३ लोही नाखवू, १४ सुखडी प्रमुख खावं, १५ गुमडाप्रमुखनी त्वचा नाखवी,१६औषधखातां पित्तनाखवू. १७वमन करवं, १७ दांत उखडेलो नाखवो, १ए हाथ पग मसलाववा,२० घोडाप्रमुख बांधवा,२१ दांतनो मेल नाखवो, २ आंखनो मेल नाखवो, २३ नखनो मेल नाखवो, श्व गालनो मेल नाखवो, २५ नाकनो मेल नाखवो, २६ माथानो मेल नाखवो, २७ शरीरनो मेल नाखवो, २७ काननो मेल नाखवो, श्ए नूतादि खिली लेवावास्ते मंत्रसाधवा, वा राजाप्रमुखनुं काम होय, तेनो विचार करवो,३० मंदिरमा विवाह प्रमुखनी पंचात करवी,३१ व्यापारनां लेखां करवां, ३२ राज्यनुं काम वेहेंची श्राप, अथवा नाश्नमुखने धननो हिस्सो वेहेंची आपवो, ३३ घरनो जंडार मंदिरमा राखवो, ३४ पगउपर पगराखी खराब आसन करी बेसबु, ३५ मंदिरनी नीतउपर गणां थापवां, गणनो ढगलो करवो, ३६ वस्त्र सुकवां, ३७ दाल दलवी, ३ पापड वडी सुकववी, ३ए वडां बनावां, उपलक्षणथी केर, चीजडां, शाकप्रमुख सुकववा नाखवां; ४० राजा प्रमुखना लेणदारना जयश्री नासी मूलगनारामां संताश् जq, ४१ पुत्रकलत्रादिना मरणथी मंदिरमा रोवू, ४२ राज्यकथा, देशकथा, स्त्रीकथा, जक्तकथा या चार विकथा करवी, ४३ धनुषादि शस्त्र घडवां, ४४ गाय, बलदप्रमुख राखवा, ४५ टाढ उडाडवा अग्नि तापवो, ४६ धान्यादि रांधवां, ४ रूपैया परखवा, ४ विधियी निस्सीहि न करवी,४ए बत्र, ५० पगरखां, ५१ शस्त्र, ५५ चामर, मंदिर बहार न मुकवां, ५३ मन एकाग्र न करवू, ५४ तेलादिनुं मईन करवू, ५५ शरीरना जोगनां सचिव पुष्पादिनो त्याग न करवो, ५६ हार, मुजा, कुंडलादि बहार मुकी, श्राव. तेम करवाथी श्राशातना लागे, कारण के लोको- . मां एम कहेवाय के अर्हतना नक्त सर्व कंगाल, निखारी बे, जेथी जिन मतनी लघुता थाय. ५७ नगवानने देखतांज हाथ न जोडवा, ५७ एकसाडी उत्तरासंग न करे, ५ए मुगट मस्तकपर राखे, ६० माथाउपर मोलीयुं लपेटे, ६१ फूलना शहरा राखे, ६५ नालीअरनां बोतरां नाखे, ६३ गेडी खेले, ६४-पिताप्रमुखने जुहार करे, ६५ नांड चेष्टा करे, ६६ तिरस्कार वास्ते हुंकारा, टुंकारा करे, ६७ लेणावास्ते घरेणुं घाले, ६न् खडा करे, ६ए माथाना वाल सुकवे, ७० पलोंगी मारी बेसे, ७१ लाकडीनी पावडी Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३२ ) जैनतत्त्वादर्श, पगमा राखे, 2 पग लांबा करे, ७३ सुखनेवास्ते हाथताली (पुडपुडी ) पे, ७४ शरीरना अवयवो धोइ कीचड करावे, उ पगने लागेली उडाडे ७६ जुं नाखे, 3 जोजन जमे, 3G मैथुनक्रीडा करे, ७ गुह्य धूल चिह्न उघाडुं राखी बेसे, ८० वैद्यकनुं काम करे, ८१ क्रयविक्रयरूप वाणिज्य करे, ८२ शय्या बनावी सुवे, ८३ पाणी पीवाने वास्ते माटलुं राखे, मंदिरनी परनानुं पाणीले, ८४ स्नान करवानी जगा बनावे. या उत्कृष्ठ चोराशी आशातना जिनमंदिरमां वर्जे. हेलi हवे गुरुनी तेत्री आशातना लखी ये बीये. १ गुरुनी चागल चालवु ते शातना बे, परंतु रस्तो बताववा वास्ते चाले तो आशातना नथी. 2 गुरुनी बराबर चालवु, गुरुथी पाउल अडकीने चालबुं था चालवानी जेम ऋण शातना कही, तेम बेसवानी त्रण श्रशातना, तेमज उजा रहेवानी त्रण यशातना जाणवी, एम नव शातना थइ, १० जोजन करतां गुरुनी पेहेलां शिष्यें चलु कर, ११ गमनागमन गुरुना पेaraj, १२ रात्रिमां गुरु पुढे के कोण जागे बे ? एम सवाल सांजलतां तां ने जागतां बतां उत्तर न आपवो, १३ जो कोने कां‍ raj होयतो गुरुनी पलां शिष्यें कही देतुं, १४ बीजा साधुर्जनी पासे अशनादि घ्यालोवे, पढी गुरुपासे लोवे १५ तेवीज रीतें अशनादि प्रथम वीजा साधुने बतावे, पढी गुरुने बतावे, १६ अन्नादिवास्ते प्रथम बीजा साधुर्जने निमंत्रणा करे, पढी गुरुने निमंत्रणा करे, १७ गुरुने पुण्याविना बीजाउने स्निग्ध, मधुरादि श्राहार श्रापी दे, १० स्वेच्छाथी, गुरुने यत्किंचित् श्रहार यापी, पोते स्निग्धादि श्राहार खाय, १७ गुरु बोलावे तो बोले नहि, गुरुने बहुज कठोर वचन कहे, २१ ज्यारे गुरु बोलावे, त्यारे आसन उपर बेठांज उत्तर आपे, २२ गुरु बोलावे त्यारे बोले के शुं कहो बो ? २३ गुरुने हुंकारा करे, २४ गुरु प्रेरणा करे, त्यारे गुरुनी प्रेरयाने उत्तर थापी हणे, जेम के गुरु कड़े के हे शिष्य ! तमे अमुक ग्लानी वैय्याes केम न करी, त्यारे शिष्य कडे तमे केम करता नथी ? १५ गुरु कथा करे त्यारे मनमां प्रसन्न न थाय, परंतु विमन राखे २६ सूत्रादि कड़ेतां गुरुने कड़े के, तमने अर्थ याद नथी ! तेनो अर्थ श्र प्रमाणे यतो नथी ? 29 गुरु कथा करे, ते कथानी वचमां जंगपाडे, छाने Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिबेद. (४३३) कहे के हुं कथा करीश. २७ परखदाने विखेरे, कहे के हवे निदानो अवसर थयो , इत्यादि, शए परखदा उठ्याविना गुरुनी कहेली कथाने, पोतानी चतुराश् देखाडवा वास्ते विशेष करी कहे, ३० गुरुनी शय्या संथाराने पगथी संघट्टो करे,३१ गुरुनी शय्याउपर बेसवाप्रमुख करे, ३५ गुरुथी उंचे आसने बेसे, ३३ गुरुनी बराबर श्रासन करे. आ तेत्रीश गुरुनी भाशातना शिष्य वर्जे. श्रा गुरुनी श्राशातना त्रण प्रकारनी . पगादिश्री संघट्टो करे ते जघन्य श्राशातना. श्लेष्म, धुंकादि गुरुने लवमात्र लगावे, ते मध्यम श्राशातना. गुरुनो आदेश न करे, जो करे तो पण उलटो करे, कगेरवचन बोले, गुरुंनु कहुं न सांजले, ते उत्कृष्ट पाशातना डे. स्थापनाचार्यनी श्राशातना पण त्रण प्रकारनी ने, अहीं तही हलावे चलावे, पगनो स्पर्श करे ते जघन्य अाशातना; नूमि उपर नाखे, वा अवज्ञाथी धारण करे ते मध्यम आशातना; स्थापनाचार्यने खोवे तथा त्रोडे ते उत्कृष्ठ आशातना जे; तेवीजरीतें ज्ञानोपकरण, दर्शनोपकरण, तथा चारित्रोपकरण, रजोहरणादि, मुखवस्त्रिका, दंडक, दंडिका प्रमुखनी पण श्राशातना टाले. श्रावकें सर्वधर्मोपकरण चरवला, मुहपत्ति प्रमुख विधिपूर्वक खस्थानमां स्थापना प्रमुख करवी जोश्ए, अन्यथा धर्मनी अवज्ञा प्रमुख दूषणो लागे. शास्त्रमा लख्यु डे के जे उत्सूत्र नाखे, तथा अर्हत अने गुरुनी अवज्ञा प्रमुख महाशाशातना करे ते सावद्याचार्य, मरीचि, जमालि, कुलवालुकादिनी पेठे अनंत जन्म मरणनी वृद्धि करे. यतः॥ उस्सुत्त जासगाणं, बोही नासो अणंत संसारो ॥ पाणञ्च एवि धीरा, उस्सुत्तं तान जासंति ॥१॥तिबयर पवयण सुयं, थायरियं गणहरं महिहियं ॥ आसायं तो बहुसो, अणंत संसारि होई ॥२॥ तेवीजरीतें देवव्य, ज्ञानअव्य, साधारण अव्य तथा गुरु अव्य, वस्त्र, पात्रादि, तेनो विनाश थतो देखी, बचाव नहि करतां उपेक्षा करवी, ते पण महा आशातना . यदूचे ॥ गाथा ॥ चेश्य दव विणासे, इ. सिधाए पवयणस्स उड्डाहे ॥ संजश् चउत्थ नंगे, मूलग्गी बोहि लाजस्स ॥१॥ तथा श्रावक दिनकृत्य, दर्शनशुधि श्रादि शास्त्रोमा लख्यु Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३४) जैनतत्त्वादर्श, बे के ॥ गाथा ॥ चेश्य दवं साहा, रणं च जो उहश् मोहि अमन ॥ धम्मंच सोनयाणा, श्रहवा बजाउन रए ॥१॥ अर्थः-चैत्यभव्य तथा साधारण व्यनो जे मोहितमति नाश करे, ते को तो धर्म जाणतो नश्री,अथ वा तो तेणें नरकनुं आयुष्य बांधेदुं , तेज कारणथी एवं अयोग्य काम करे ने वली चैत्यभव्यनो नाश, जण तथा उपेक्षण को३ करतो होय, तेने जो साधु न हगवे, तो ते साधु पण अनंत सं. सारी थक्ष जाय. प्रश्नः- मन, वचन, कायाथी जेणें सावधनो त्याग करेल , एवा य. तिने चैत्यमध्यनी रक्षा करवानो अ॒ अधिकार ? उत्तरः- जो राजा, वजीर के शेठ प्रमुखनी याचना करी तेजेनी पासेथी घर, दुकान, गामादि लश विधिथी नवी पेदाश उत्पन्न करे तो तारुं विवदित दूषण लागशे; परंतु यथा नमकादिश्री जे कोइए प्रथम आपेल होय, तेनो नाश थतो देखी रक्षण करे तो कांश दूषण लागतुं नथी, बलके जिनाज्ञानी आराधना होवाथी धर्मनी पुष्टि थाय . नवां जिनमंदिर बनाववाथी, जे पूर्वे बनेलां , तेना प्रतिपंथि अर्थात् शत्रुने जो साधु हगवे, तो ते साधुने प्रायश्चित्त नथी, तथा ते साधुनी, प्रतिज्ञा पण नंग थती नथी. आगम पण एमज कथन करे . ते का. रणथी जिनअव्य जे खाय तथा उपेक्षा करे, ते श्रावक आगलना जन्ममां बुद्धिहीन थाय, अने पापकर्मथी लेपायमान थाय . यथा ॥ श्रायणं जो जंज, पडिवन्नं धणं न दे देवस्स ॥ नस्संतं समुविखर, सोविहु परिजमश् संसारे ॥१॥ अर्थः- जे पुरुष मंदिरनी आमदानी जांगे, अने जे मोढेथी बोल्याउतां, जिनअव्य न आपे, ते पण संसारमा परित्रमण करे. तथा ॥ जिणवयण वुहिकर, पनावगं नाण देसण गुणाणं ॥ नखंतो जीणदत्वं, अणंत संसारी होई ॥१॥ अर्थः- जे जिनमतनी वृद्धि करे, चैत्यपूजा, चैत्य समारवां, महापूजा, सत्कारादि करी, झा न दर्शननी प्रजावना करे, परंतु जिनअव्यनो नाश करे, तो ते अनंतसंसारी थाय, अने जो जिनअव्यनी रक्षा करे तो अल्पसंसारी थाय, देवडव्यनी वृद्धि करे तो तीर्थकर नाम कर्म बांधे; परंतु पंदर कर्मादान, असत्य व्यापार दूर करी सद्व्यवहारथी जिनमव्यनी वृद्धि करे. ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिबेद. (४३५) यतः॥ जिणवर आणा रहियं, वकारतावि केवि जिणदत्वं ॥ बुडंति नवसमुद्दे, मूढा मोहेण अन्नाणी ॥१॥ को कहे जे के श्रावक विना बीजाउँने तेजेना अधिक किंमतना दागीना राखीने कालांतरे व्याजनी वृद्धि करे, ते उचित जे. एम कहेवू पण ठीक बे; कारण के सम्यक्त्वपचीशी आदि ग्रंथोमां संकाशनी कथामां तेमज लखेल ने. चैत्यव्य जहण करवाथी बहुज कष्ट पामबुं पडे . सागर श्रेष्टिवत् ॥श्रा कथा श्राइविधि ग्रंथथी जाणवी. ज्ञानव्य पण देवाव्यनी जेम अकल्पनीय , अर्थात् तेनो पण नाश न करवो, जदण न करवू, अने बगडतां तेनी सार संजाल करवी; तेवीज री. तें साधारण अव्य पण संघनी अनुज्ञाथीज कल्पे . अनुज्ञाविना काममां लेबुं न कल्पे. संघे पण साते क्षेत्रमांज साधारण अव्य वापर, जोशए. बीजा मागनाराऊने पण तेमांथी आपबुं न जोश्ए. तेवीज रीतें ज्ञान संबंधी कागल, पत्रादि, साधुनुं आपेवू श्रावके पोताना कार्यमां नहि वापरतुं जोश्ये. पोतानी पोथीमां पण नही राखतुं जोश्ए. स्थापनाचार्य श्रने जपमालादि लश् लेवानो व्यवहार तो देखाय ; तथा गुरुनी आझा विना साधु साध्वीए लिखिया पासे लखाव. तेमज वस्त्र सूत्रादिनुं ले, पण कदेपतुं नथी. इत्यादि विचारी लेवं. ते कारणथी थोडा पण ज्ञान तेमज साधारण अव्यनो नोग न करवो जोश्ए. देवने नामें बोले, ते अव्य तत्काल आप जोश्ए, कारण के देवाव्य जेटलुं शीघ्र आपे, तेटर्बु उत्तम . कदापि विलंब करे तो पनी कोण जाणे धनहानि, वा मरण थाय? तेवे प्रसंगे देवाव्यतुं ज्ञण रही जाय, पली संसारी गृहस्थोनुं देवू पण श्रावके शीघ्र आपq जोश्ए, तो पठी देवजव्य वास्ते झुंज कहे? जे वखत माला पेहेरावी, वा जो कांश : देवजव्यना जंडारमा श्रापवानुं कर्यु, तेज वखतथी ते देवाव्य यश चुक्यु. ते अव्यथी जे लाज मेलवाय ते पण देवव्य समजवु, ते अव्य श्रावकें जोगवद् न जोशए, तेज कारणथी शीघ्र आपी देवं जोशए. जो मास आदि पढी आपवानो करार करे तो करार उपर माग्या विना जरुर ापी देवू. जो करार वित्याबाद श्रापे तो देवव्य खावानो दोष लागे. देवजव्यनी उघराणी पण श्रावक पोतानी उघराणीनी पेठे यत्नथी Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३६) जैनतत्त्वादर्श. करे जो देवद्रव्य लेवामां ढील करे, अने कदाचित् देवादारनी पुर्जिक आदि कारणथी दरिद्रादि व्यवस्था यावी जाय तो फरी मलवु मुइकेल थर जाय, वली देनार पण उत्साहपूर्वक कपटरहित यह शीघ्र आपी दे; नही तो देवद्रव्य जक्षण करवानो दोष बे. " वली देव, ज्ञान तथा साधारण संबंधी दुकान, खेतर, वाडी, घर, पवर, इंट, चुनो, काष्ठ, वांस, माटी, खडी, चंदन, केशर, बरास, फूल, चंगेरी, धूपपात्र, कलश, वासकुंपी, छत्र, सिंहासन, चामर, चंदरवा, कालर, जेरी, चंदनी, तंबु, कनात, पडदा, कांवल, बाजोव, तखता, पाटला, पाटी, घडा, बेठा, उरसीश्रा, काजल, जल, दीवा, चैत्यशाला, परनालनुं पाणी इत्यादि सर्व देव विगेरेनुं पोताना काममां न वापरतुं जोइये. तुटी जाय, फाटीजाय, वा मलिन थायतो महादोष लागेढे देवनी पासे बलता दीवाना प्रकाशमां को सांसारिक काम करे तो ते मरीने तिर्यंच घाय ते कारणी देवना दिवामां खतपत्रादि वांचवां न जोइये. रुपी आपण न परखवा. घरनां काम तो करवांज नहि. वली देवना केशर चंदननुं तिलकपण न करवुं. देवना जलयी हाथ पण न धोवा. स्नात्रजलपण थोडुंजवा परतुं जोइये, देवना कालर, मृदंग, नेरीप्रमुख जे जे सामान, गुरु तथा संघना कार्यां वापरे, तो ते बाबतनो नकराणो थापी वापरे. कदाचित् कोइ उपकरण तुटी जायतो पोताना पैसा खरची नवुं बनावी यापे. देवना दीप फानस प्रमुखमां जुदाज राखे; श्रने जो साधारण द्रव्यनी जालर प्रमुख वस्तु बनावे तो सर्व धर्मकार्यमां वापरी शकाय तेमां दोष नथी. जेवा जावथी करे, तेतुं प्रमाण बे. देवनां तथा ज्ञान खातानां घर प्रमुख पण श्रावकें निःशुकतादि दोष होवाथी जाडे राखवां न जोइये. साधारण द्रव्यना घरप्रमुख संघनी श्र नुमतिथी लोकव्यवहारें जाडुं श्रापी वापरे तो दोष नथी; परंतु जाहुं क रारने दिवसे पोतानी मेले थापी देतुं जोइये. जाडे राखेलुं मकान समराववामां पोतानुं धन वापरे तो हिसाबमां मजरे ले. तेमां दोष नथी; कोइ साधर्मी दुःखी होय, निर्धन थर गयो होय, अने ते संघनी यज्ञाथी जाडुं श्राप्याविना रहे तोपण दोष नथी. वली तीर्थादिमां श्रथवा देरासरमां बहु वखत रेहेवुं पडे, तेमां सुवे, तो त्यांपण व्यवहार मुजब अधिक जाडुं Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिवेद. (४३७) आपे, उँहुँ नाडं आपे तो दोष लागे. जाडं आप्याविना देव ज्ञान तथा साधारण संबंधी कलश, पाटला प्रमुख उपकरणो उजमणामां, पुस्तक पूजामा, नंदी प्रमुखमां मांडवासारु न लेवां जोश्ये; कारण के उजमणां पोताना नामथी करवामां आवेने, अने तेमां देव, ज्ञान, वा साधारण खातानी वस्तु नकरा शिवाय वपराय तो दोष लागेले. घर देरासरमां चडाववामां आवेला अदत, सोपारी, बदाम, प्रमुख वेचवाथी जे धन उपजे, तेनां पुष्प प्रमुख लश् घरदेरासरमां न चडावे, मोटामंदिरमां पण न चडावे. जे पूजारी होयतेने सर्व हकीकत कहे; अने मंदिर- अव्य बे, पण माझं नथी एम स्पष्ट कहे. पूजारी न होय तो संघसमद कही दे. एम न कहे तो महादोष . घरदेरासरनुं नैवेद्यादिमालीने आपे, परंतु तेथी मालीनी नोकरी हिसाबमां न ले. प्रथमथीज जोश्ती पुष्पादि वस्तु आपवी एवा करारथी काम ले तो दोष नथी. मुख्यवृत्तियें तो नोकरीवास्ते चडेलु श्रापवाथी जुई श्रापq जोश्ये. घरदेरासरमां चडेला अदत प्रमुख मोटा मंदिरमा मोकलावी श्रापे, अन्यथा घरदेरासरना अव्यथी घरदेरासरनी पूजा गणाशे, परंतु पोताना अव्यनी थशे नहि. तेम करवायी अनादर, अवज्ञादि दोष , तेथी तेम करवू युक्त नथी. खाव्यश्रीज पूजा करवी उचित . देरानां नैवेद्य, श्रक्षतादि पोताना अव्यनी जेम साचवां जोश्ये, बराबर किंमते वेची, देव अव्य वधार, जोश्ये. परंतु जेम तेम वेची थापी देवां न जोश्ये. जो तेम करे तो देवजव्य नाश करवानो दोष लागे. सर्व रीतें रक्षण करतां बतां चोर, अग्नि आदिना उपवथी देवव्यनाश पामे तो चिंताकारकने दोष नथी. देव, गुरु, यात्रा, तीर्थपूजा, संघपूजा, साधर्मिवात्सल्य, स्नात्रप्रजावना, ज्ञान लखाववा प्रमुख कारणोवास्ते बीजाउँ पासेथी धन ले, त्यारे चार पांच पुरुषोने साक्षी राखी ले; पली खरचवाना प्रसंगमां पण गुरुसंघ प्रमुख प्रगट कही दे, के आ धन में अमुक सख्सनुं श्रापेलुं खरचे .मारु नश्री. तीर्थादिमां, तेमज पूजा स्नात्रमां, ध्वजा चडाववा प्रमुख आवश्यक कर्तव्यमा खरच बीजाने शिर नहि नाखतां, पोतेज यथाशक्ति करे. जो कोश्ये धन खरचवाने श्राप्यु होय तो तेनुं नाम प्रगट बोली काम करे, Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३७) जैनतत्त्वादर्श. जो घणाये मती साधर्मिवात्सल्य, संघपूजादि कार्यमां धन वापरवा थाप्यु होय तो जेनो जेनो जेटलो जेटलो हिस्सो होय ते ते सर्व प्रगटपणे कही दे, नहिं तो पुण्यफलनी चोरी लागे. वली मरणांत समये माता, पिता प्रमुखें जे धर्ममां खरचवा कद्यु होय, तथा पुत्रादि जे खरच करवू कबुल करे. ते बहु श्रावकोपासे कही देवू जोशए. जेम के हुँ तमारा नामथी अमुक दिवसनी अंदर श्रमुक धन खरचीश, तमे तेनी अनुमोदना करो. पड़ी ते धन सर्व समद, पोताना नामथी नही, परंतु माता पिता प्रमुखना नामश्री ते मुदतनी अंदर खरची देवू जोश्ए. धर्मनां खरच मुख्यवृत्तिए तो साधारण - व्यथीज करवां जोइए; कारण के ज्यांज्यां काम पडे, त्यां त्यां उपयोगमां आवे. सात क्षेत्रोमा जे देत्र सीदातुं होय, तेमां धन खरची, तेने टेको आपे. को श्रावक निर्धन थर गयो होय तो, तेने तेज धनथी सहाय आपे॥लोकेप्युक्तं॥ दरिडं जर राजेंज, मा समृद्धं कदाचन ॥व्याधितस्योषधं पथ्यं, नीरोगस्य किमौषधं ॥ १॥ तेज कारणथी, परजावना, संघ पेहेरामणी तथा लाणीप्रमुखमा, जे निर्धन साधर्मी होय, तेने विशेष वस्तु श्रापवी जोश्ये; अन्यथा धर्म अवज्ञादि दोष लागे. वली धनवान्थी निर्धनने अधिक देवं ते पण युक्त.जो शक्ति न होय तो बनेने बराबर आपे. पोतानो खरच धर्मअव्यथी न करवो जोश्ये. यात्रादि निमित्त जे धन काढवामां आवे, ते सर्व देवादि निमित्त थयु. जो ते अव्य पोताना जो. जनमा अथवा गाडी प्रमुख नाडामां वायरे तो अवश्य तेने देवाव्य खा. वानो दोष लागे. कदाचित् अज्ञानताथी, चूकथी, बे समजथी, इत्यादि कारणथी कोश् श्रावक देवादि अव्यनो उपनोग करी ले, तेना प्रायश्चित्तमां, जेटलु अव्य तेणें उपजोगमां लीधुं होय तेटलु अव्य देव, साधारण संबंधी जुडं काढे मरणसमये शक्तिना अनावथी धर्मस्थानमां थोडं खरचे, परंतु देवु कोर्नु राखे नहि. देवप्रमुखनुं अव्य तो विशेषे करी राखे नहि. ए प्रमाणे श्रीजिनराजनी पूजा, नक्ति, अव्य रक्षणादि दृढ ना. वथी करवां जोश्ये. इति. हवे गुरुवंदनविधि लखीये बीये. ज्ञानादि पांच आचार संयुक्त होय, Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिबेद (४३ए) तथा जे शुद्ध प्ररूपक होय, ते गुरु बे. पांच आचारनुं स्वरूप जोर्बु होय तो, श्रीरत्नशेखरसूरिकृत आचारप्रदीप ग्रंथ जोश लेवो. पूर्वोक्त गुरु, आचार्य प्रमुख सन्मुख, जे प्रत्याख्यान पूर्व पोते पोतानी मेले कर्यु हतुं, ते विशेष रीतें विधिपूर्वक गुरुमुखथी उचरावे; कारण के प्रत्याख्यान त्रणतरेहथी करवामां आवेडे. १ आत्मसाक्षिक, २ देवसादिक, ३ गुरुसाक्षिक, तेनो विधि बे___ गुरु, मंदिरमां देववंदनार्थे, स्नानादि देखवावास्ते, धर्मोपदेश देवावास्ते, जिनमंदिरमा व्या होय, तथा वस्तिमां होय, त्यां मंदिरनी जेम त्रण निस्सिहि, पांच अभिगमनादि, यथायोग्य विधिपूर्वक जश् गुरु धर्मोपदेश आपे ते पहेलां अथवा पडी यथाविधियें पचवीश आवश्यक, शुद्ध द्वादशावत वंदन करे; गुरुवंदननुं फल बहुज मोटुं जे. कृष्णवासुदेववत्. नाष्यमां वंदनाना त्रण प्रकारले. एक तो मस्तक नमावq ते फेटावंदना, बीजी संपूर्ण बे खमासणां प्रमुख कहेवां ते स्तोनवंदना, त्रीजी छादशावर्त करवायी, बादशावर्तवंदना थाय . प्रथमनी वंदना सर्व संघने करवी; बीजीवंदना सर्व खदर्शनी साधुउने करवी; अने त्रीजी वंदना पदवीधर आचार्य प्रमुखने करवी. जेणें सवार पडिकमणुं न कर्यु होय, तेणें विधिपूर्वक वंदना करवी; कारण के जाष्यमा लख्यु डे के, सवारनो वंदना विधि आ प्रमाणे करे.प्र. थम १ जाष्योक्तविधियें ापथ प्रतिक्रमे, पनी ५ कुस्थाननो कायोत्सर्ग • करे, सो उहास प्रमाण करे, जो खप्नमां स्त्रीसाथे संगम कर्यो होय तो अ शुचिनी सर्व जगा धोझ, पड़ी एक सो श्राप श्वासोच्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करे. पढी ३ चैत्यवंदन करे. पडी ४ क्षमाश्रमणपूर्वक मुहपत्ति प्रतिलेखे, पळी ५ बे वंदणां दे, पड़ी ६ देवसि आदिक आलोवे, पड़ी ७ वांदणां दे,पड़ी; अनुनिमि कहे, पडी ए बे वांदणां दे, पडी १० प्रत्याख्यान करे, पडी ११ नगवान अहं इत्यादि चार क्षमाश्रमण दे, पडी १५ खाध्याय संदिसाहु कहे, पनी क्षमाश्रमणपूर्वक सद्याय करूं एम कहे, पली स्वाध्याय करे. हवे संध्यावंदनविधि लखीयें जीयें. १ र्यापथ पडिकमे, पनी २ चैत्यवंदन करे, पड़ी ३ दमाश्रमणपूर्वक मुखवस्त्रिकानुं प्रतिलेखन करे, प Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) जैनतत्त्वादर्श, गुरुखोह न करे, थापणमोसो न करे, या सर्व महापापना काम बे. वली कुडी सादी, रोष, विश्वासघात, कृतघ्नता, या चार कर्म चंडालपणां बे, तेथी ते त्यागे. असत्य बोलवू ते सर्व पापथी मोटुं पाप , तेथी असत्यं सर्वथा न बोले. न्यायथी धन उपार्जन करे, अने अन्यायी लोको जे सुखी देखाय . ते अन्यायथी सुखी नथी, परंतु तेर्जना पूर्वजन्मना पुण्यना फलथी सुखीने; कारण के कर्मफल चार प्रकारनां बे. यदाहुर्धर्मघोष सूरिपादाः ॥ एक पुण्यानुबंधिपुण्य, बीजुं पापानुबंधि पुण्य, त्रीजु पु. ण्यानुबंधि पापडे, चोथु पापानुबंधि पाप . था चारे प्रकारने कांशक विस्तारथी बतावीए बीये. १ जेणे जिनधर्मनी बिलकुल विराधना करी नथी, परंतु संपूर्ण श्राराधना करी, जे संसारमा जवांतरमा महासुखी, धनाढ्य उत्पन्न थाय, तेउ पुण्यानुबंधि पुण्यवाला समजवा. जरत, बाहुबलिवत् जे पुरुषो नीरोगादि गुणयुक्त होय, अने धनाढ्यपण होय, परंतु कोणिक राजानी पेठे पाप श्राचरणमां तत्पर होय, ते पापानुबंधि पुण्यवाला समजवा. आ पुण्य पूर्वनवमां अज्ञान कष्ट करवाथी थाय जे. ३ जे पुरुषो पापना उदयथी दरिली तथा उःखी होय, परंतु श्रीजिनधर्ममा बहुज अनुरक्त होय, धर्म करवामां तत्पर होय, ते पुण्यानुबंधी पापवाला समजवा, सुमक महर्षिवत्. पूर्वनवमां लेशमात्र दयादि सुकृत करवाथी थाय . ४ जे पापी, चंडाल कर्मना करनारा, अधर्मी निर्दय, पाप करी पश्चात्ताप नही करनारा एवा पुरुषो उःखी , तो पण पाप करवामां निरंतर तत्पर बे. ते पापानुबंधी पापवाला , कालिकसुरीश्रा कसाश्वत्. बाह्य जे नव प्रकारनी परिग्रहरूप कृषि, श्रने अंतरंग जे श्रात्मानी अनंतगुणरूप झकि बे, ते पुण्यानुबंधी पुण्यश्रीज मले; तेथी कदापि को जीव पापानुबंधी पुण्यना प्रजावथी आ लोकमां सुखी देखाय तो पण नविष्यना जन्मोमां महादुःख तथा आपदा पामवाना, वली जे मेहेसूलनी चोरी, ते स्वामिझोह , आ चोरी था लोक तेमज परलोकमां अनर्थनी दायक बे; वली जेमां बीजाने पीडा थाय, एवो व्यवहार न करे ॥ यतः ॥ शाव्येन मित्रं कपटेन धर्म, परोपतापेन Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिजेद, (भए) समृधिजावं ॥ सुखेन विद्यां परुषेण नारी, वांति ये व्यक्तमपंडितास्ते ॥ १॥ तथा जेवी रीतें लोकोने रागनाव थाय, तेवो यत्न करे. यतः॥ वंशस्थवृत्तं ॥ जितेंघियत्वं विनयस्य कारणं, गुणप्रकर्षोविनयादवाप्यते ॥ गुणप्रकर्षेण जनोनुरज्यते, जनानुरागप्रजवाहि संपदः ॥१॥ वली धननी हानि तथा लाज, संग्रहादि गुह्य राखे, बीजा पासे प्रकाश न करे. यतः ॥ स्वकीयं दारमाहारं, सुकृतं प्रविणं गुणं ॥ पुष्कर्म मर्म मंत्रं च, परेषां न प्रकाशयेत् ॥ १॥ वली असत्यपण न बोले, जो राजा, गुरु आदि पुढे तो सत्य कही दे. सत्य बोलq तेज पुरुषनो उत्तम धर्म बे. वली यथार्थ कही मित्रनुं मन हरण करे, बांधव जनोने सन्मान आपी वश करे, स्त्रीने प्रेमथी वश करे, चाकरोने दान आपी वश करे, अने दाक्षिण्यताथी वीजा लोकोनां मन हरण करे. वली को जगाये पोताना कार्यनी सिधिवास्ते बलवान् पुरुषोने पण आगल करे. वली ज्यां प्रीति होय, त्यां लेणदेणनो व्यापार न करे, था कथन सोमनीतिमां पण . साक्षीविना मित्रना घरमांपण धनादि राखवां न जोश्ये, कारण के लोज महाबुरो डे. वली जो सौंपनार सख्स गुजरी जाय तो ते धन तेना पुत्रादिने पाढं श्रापी देवु जोश्ये. जो धन सौंपनारनो कोश संबंधी न होय तो ते धन सर्व लोकोनी समक्ष धर्मस्थानमा लगावे. वली श्रावक, देवगुरु, चैत्य, जिनमंदिरना साचा अथवा जूग पण सोगंद न खाय. वली वीजाउंना साक्षीपण न थाय. यतः ॥ कर्पासिक ऋषि कहे ॥ श्रनीश्वरस्य के नार्य, पथि क्षेत्रं विधा कृषिः॥प्रातिनाव्यं च सादयं च, पंचानाः स्वयंकृताः॥१॥ वली श्रावक मुख्य वृत्तियें तो जे गाममां रहे, त्यांज व्यापार करे, कारण के तेम करवाथी कुटुंबनो अवियोग, घरनां कार्य, तथा धर्मकार्यादि सर्व बनी रहे बे. कदापि पोताना गाममां निर्वाद न थाय तो, पासेना देशांतरमा व्यापार करे, ज्यांथी जरूरी काम प्रसंगे पोताने घेर जलदीथी श्रावी शकाय. एवा कोण पामर ने के, पोताना देशमा निर्वाह थतो होय बतां परदेशमांजाय ॥ यतः॥ जीवंतोपि मृताः पंच,श्रूयंते किल नारते ॥दरिसोव्याधितो मूर्खः, प्रवासी नित्यसेवकः ॥ १॥ जो निर्वाह न थतो होय तो, पोते न जाय, तेमज पुत्रादिने परदेश न मोकले, परंतु सुपरी Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५०) जैनतत्त्वादर्श. क्षित गुमास्ताने परदेश मोकले, जो पोतानेज परदेश जq पडे तो, शुन मुहूर्त, सारां शुकन, निमित्त देखीने तथा देव गुरुने वंदना करीने, मंगलपूर्वक, जाग्यवान् पुरुषोना सथवारामां, निनादि प्रमाद तजी, केटलाएक पोताना शातिबंधुने साये लश् जाय, कारण के जाग्यवान्ना सथवाराथी विघ्न नाश पाने बे. वली लेणदेण, गुप्त धन, सर्व, पिता नाश के पुत्रादिने बतावी जाय, पोताना संबंधीउने सारी शिखामण श्रापी जाय, बहुमानपूर्वक सेवकोने बोलावी जाय. जीववानी श्ला होय तो, देवगुरुर्नु अपमान करी, कोश्नी निर्ऋबना करी, स्त्री आदिने ताडना, तर्जना करी, अने बालकने रोवरावी न जाय. कदापि कोइ पर्वमहोत्सवादिना दिवसो निकट होय तो उत्सव करीने जाय. यतः॥ उत्सवमशनं सर्व, प्रगुणं चोपेक्ष्य मंगलमशेषं ॥ असमापिते च सूतक, युगेंगनत्तौ च नो यायात् ॥ १॥ वली दूध पीश्ने, मैथुनसेवन करीने, स्नानकरीने पोतानी स्त्रीने मारीने, वमन करीने, थुकीने, रुदन करीने, कठण शब्द सुणीने, गालो सुणीने, परदेश न जाय; वली शिर मुंडावीने, श्रांसु पाडीने, अने मागं शुकन यतां पण ग्रामांतर न जाय. वली कार्यने वास्ते जो चाखे तो जे स्वर वेहेतो होय, ते बाजुनो पग प्रथम उपाडी मुके, जेथी कार्यसिद्धि थाय. वली रोगी, वृद्ध, ब्राह्मण, आंधलो माणस, गाय, पूजनीय, राजा, गर्भवती स्त्री, नार उपाडनार, तेउने कां आपीने ग्रामांतर जाय. वली धान्य पाकुं अथवा काचुं तथा पूजा योग्य मंत्रमंडल तेने तजे नहि. वली स्नाननुं जल, रुधिर, मडडु, धुंक, श्लेष्म, विष्टा, मूत्र, बलतो अग्नि, साप, मनुष्य, शस्त्र, था वस्तुने उलंघे नहि. वली नदीने कांवे, गायना गोकुलमां, वडना फाडनी नीचे, जलाशयमां, अने कुवाना कांग उपर विष्टा न करे, वली रात्रि वृक्षनीचे न रहे. उत्सव तथा सूतक पुरां थये परदेश जाय, साथ विना परदेश न जाय, दासनी साथे न जाय, मध्याह्ने तथा अर्धरात्रिये मुसाफरी न करे. वनी क्रूर प्रकृतिवाला मनुष्य, कोटवाल, चाडीथा, दरजी, धोबीप्रमुख, अने नीचमित्रनी साथे गोष्ठि न करे, तेउनी साथे अकाले चाले नहि. वली पाडा, गधेडा अने गायनी असवारी करे नहि. वली हाथीथी हजार हाथ, गाडाथी पांच हाथ,अने घोडा तथा शिंगडावाला जनावरोधी द.. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिछेद.. (४५१) श हाय दूर रहे. वली खरची विना मुसाफरी करे नहि. बहु निता लहे नहि. रस्तामा कोश्नो विश्वास राखे नहि. एकलो कोश्ना घरमां जाय नहि. जुनां वहाण उपर चडे नहि. एकलो नदीमा प्रवेश करे नहि. मु श्केलीवाली जगामां साधनो विना जाय नहि. अगाध पाणीमा प्रवेश करे नहि. जेउं बहु क्रोधी होय, बहु सुखशीलिया होय, तथा बहु कंजुस होय, तेवाउँनी साथे मुसाफरी करे नहि. तथा बांधवाना, मारवाना, जूगार खेलवाना, पीडाना, खजानाना, अने अंतेउरना स्थानमा गमन करे नहि. तथा बूरा स्थानमां, स्मशानमा, शून्यस्थानमां, चोकमा सूकाघासमां, कूडाकचवरमां; उंचीनींची जगामा, उकरडामां, वृदायमां पर्वताग्रमां, नदीना कांगमां, कूवाना कांगपर, आ स्थानोमां दीर्घकाल बेसे नहि. वनी जे जे कामो जे जे वखते करवां होय ते ते वखते करे, परंतु गफलत करे नहि, तेम तजे नहि. पुरुषे सुशोनित वस्त्र पहेरवानो आडंबर तजवो न जोश्ए. परदेशमा गमन करता तो विशेषे करीन तजवो जोश्ए; कारण के आडंबरथी अनेक कार्यों सिद्ध थाय . वली जे कार्यों करवा ते पंचपरमेष्टि स्मरण पूर्वक, तथा गौतमादि गणधरोनां नामग्रहणपूर्वक करे; तेमज देव गुरुनी नक्तिवास्ते धननी कल्पना करे. कारण के ज्यारे धन कमावानो प्रारंज थाय, त्यारे नफामांधी श्रमुक हिस्सो सातदेत्रोमां अवश्य लगावीश, एवी नावना अवश्य करवी जोश्ए. ज्यारे लाल प्राप्तथाय, त्यारे जावना अनुसारे मनोरथ सफल करे, कारण के व्यापारनुं फल धनप्राप्ति के अने धनप्रातिर्नु फल, धर्म कार्योमां धननो व्यय . तेम न थाय तो व्यापार करवो ते नरक तिर्यंच गति पामवानुं कारण थाय . जो धर्मकार्यमां धन खरचाय तो ते धर्मधन कहेवाय , अने जो पापकार्यमा खरचाय तो पापधन कहेवाय . धिना त्रण प्रकार . १ धर्मशकि, जोगछि, ३ पापशकि. जो धर्मकार्यमां धन वपराय तो धर्म रुछि, शरीरना जोगमां वपराय तो जोगशकि, अने धर्म, जोगथी रहित ते पापछि जाणवी. ते कारपथी निरंतर खधननो दानादि धर्मकार्यमां व्यय थवो जोश्ए. जो थोडं धन होय तो थोड़े धन धर्मकार्यमां वापर; कारण के श्वानुसारिणी Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) जैनतत्त्वादर्श. शक्ति कोश्कनेज होय . धनउपार्जन करवानो उपाय निरंतर करवो जोश्ए, परंतु अत्यंत लोज न करवो जोश्ये, धर्म अर्थ अने काम यथावसरे सेवन करवा जोश्ये, परंतु अत्यंत कामासक्त न थq जोए. धन पण न्यायपूर्वक उपार्जन करवू जोश्ए. न्यायोपार्जित धन सत्पात्रादिमां वापरवाना चार जंग , ते लखीए बीए. _न्यायोपार्जित धन सत्पात्रादिमां वापरवाना चार जंग ते लखिये बियें. रन्यायोपार्जितसत्पात्र विनियोगरूप प्रथम नंग. पुण्यानुबंधिपुण्यबंधनो हेतु होवाथी, वैमानिकदेवतापणुं, जोगनूमियुक्त मनुष्यपणुं, सम्यक्त्वादिनी प्राप्ति, निकटमोद फल, इत्यादि, .धन सार्थवाह, तथा शालिजमादिवत्. २ न्यायोपार्जित असत्पात्रविनियोगरूप बीजो नंग. पापानुबंधी पुण्यनो हेतु होवाथी जोगमात्र फल पण ने. तो पण परिणामें विरस फल . जेम लदलोज्य करनार ब्राह्मण अनेकनवोमां किंचित् सुख जोगवीने सेचनक नामें सर्वांग सुलक्षणो ननदस्ती थयो. ३ अन्यायोपार्जित सत्पात्रपरिपोषरूप त्रीजो नंग. तेनुं सारा के. त्रमा सामो वावी देवावत् फल . ए सुखानुबंधीहोवाथी राज्यना कारजारीना अत्यंत आरंज उपार्जित धन समान . एबुं धन पण धर्मकार्यमां वापरवामां आवे तो सारं . श्राबु पर्वत उपर जिनमंदिर बंधावनार विमलचंड तथा वस्तुपाल, तेजपाल मंत्रीनी जेम लानकारक . जो ते, धन पण धर्मकार्यमां न वापरवामां आवे तो मुर्गति तेमज अपकीति, तेनुं फल बे. मम्मण शेउनी जेम. अन्यायोपार्जितकुपात्रपोषरूप चोथो जंग. श्रा जंग सर्व प्रकारे त्यागवा योग्य . कारण के श्रन्यायोपार्जित धन अने तेनो कुपात्रमा उपयोग करवो, ते एq डे के, गायने मारी तेना मांसथी कागडा, पोषण कर. ते कारणथी गृहस्थे न्यायथी धन उपार्जन करवू जोश्ए, श्राझदिनकृत्यसूत्रमा लख्यु के के व्यवहारशुकि, तेज धर्मनुं मूल . जेनो व्यापार शुद्ध , तेनुं धन पण शुद्ध बे; जेनुं धन शुद्ध , तेनो आहार शुद्ध जेनो श्राहार शुद्ध , तेनो देह शुद्ध; जेनो देह शुरू बे, ते धर्मने योग्य बे. एवो पुरुष जे जे कृत्य करे, ते सर्व सफल थाय. जे Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिवेद. (४५३) व्यवहार शुद्ध न करे, ते धर्मनी निंदा कराववाथी खपरने उर्वजवोधी करे; ते कारणथी व्यवहारशुद्धि अवश्य करवी जोश्ए. वली देशादि विरुफनो त्याग करे. देश, काल, राजविरुकादि परिहरे, श्रा कथन हितोपदेश मालानुसार करेल . जे पुरुष देश, काल, राज्य तेमज धर्मविरुष्क तजे, ते सम्यग् धर्मनी प्राप्ति करे . देशविरुद्ध आ प्रमाणे. मारवाड देशमां खेती करवी अने सोरठ देशमा मदिरा बनाववी, इत्यादि देशविरुष समजवू. वली जे जे देशमा जे जे कार्य शिष्टजनो अनाचरणीय माने ते ते कार्य ते देशमा करवां ते देशविरुक . जाति कुलादि अपेदाए जे अनुचित होय ते. पण देश विरुफ ने. ब्राह्मण जातिये सुरापान करवू ते जातिकुलविरुक बे, अने एक देशवालानी सन्मुख बीजा देशवालानी निंदा करवी ते देशविरुधबे. कालविरुफ था प्रमाणे. शीतकालमा हिमालय समीप गमन कर, उष्णकालमां आफ्रिका देशमा मुसाफरी करवी. वर्षातुमा मरुदेशमा गमन करवू, उकालमांअनाजसहित जंगलमां मुसाफरी करवी, राजार्जना परस्पर विरोधना वखतमां तथा धाड पाडुर्ज रस्तो रोकी बेग होय ते वखते मुसाफरी करवी, सांजनी वखते धनसहित प्रयाण करवं, इत्यादि स्थानकोमां, अति सामर्थ्य, सहाय तथा दृढबल विना गमन करे तो प्राणनाश तथा धननाशनो संजव जे. फागण मास पड़ी तलादिनो व्यापार, तल पीलाववा, तलादि नक्षण करवा, तथा वर्षास्तुमां शाक पत्रादि जाजी प्रमुख खावां तथा बहु जीवाकुल नूमिमां हल फेरववां, इत्यादि महादोषनां कारण . राजविरुफ था प्रमाणे. राजाना अवर्णवाद बोलवा, जेने राजा मान्य करता होय, तेउने न मानवा, राजाना वैरीउनी साथे मेलाप करवो, राजाना शत्रुर्जना स्थानमां लोजथी जवू, राजाना शत्रुऊनी साथे व्यापार करवो, राजाना काममा पोतानी श्वापूर्वक विधिनिषेध करवा. लोकविरुष्का प्रमाणे. नगर निवासीनी साथे प्रतिकूलपणे व. तवं, खामिजोद करवो, लोकोनी निंदा करवी, गुणवान् तेमज धनवाननी निंदा करवी, पोतानी बडा गावी, सरखनी हांसि करवी, गुणवान उपर मत्सर करवो, कृतघ्नपणुं करवं, बहुलोकोना विरोधी साथे सं Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनतत्त्वादर्श. ने लोकप्रिय कविरुद्ध त्याग कर ले. तेम करवाधाकविरुद्ध तर (४५४) गत करवी, लोको जेने मान्य करे तेनी अवज्ञा करवी, उत्तम श्राचार वाला कष्टमां पडे त्यारे राजा थ, पोतानी शक्ति बतां साधर्मिनां कटनिवारण न करवां, देशादि उचित आचरणतुं उलंघन करवू, थोडं धन बतां महाधनवाननो वेष धारण करवो, धनवान बतां मेला वस्त्र पहेरवां, इत्यादि लोकविरुद्ध बे. था सर्व श्ह लोकना अपयशनां कारण . यजुवाच वाचकमुख्यः॥ लोकः खल्वाधारः, सर्वेषां धर्मचारिणां यस्मात् ॥ तस्माद्धोकविरुकं, धर्मविरुदं च संत्याज्यं ॥१॥ अर्थः- श्री उमाखातिवाचक पूर्वधर श्राचार्य कहे के, सर्वे धर्म करनाराऊने लोक (जनसमुदाय.) आधार नूत , ते कारणथी लोकविरुष्क तथा धमविरुष बने निरंतर त्यागवा योग्य . तेम करवाथी धर्मनो सुखें निहि थाय . लोकविरुद्ध त्याग करवायी सर्वलोकोने ते ववल थाय बे, अने लोकप्रिय थq तेज सम्यक्त्व तरुनु बीज . हवे धर्मविरुफ लखीए बीए; मिथ्यात्वनी करणी करवी, गाय प्रमुख सर्व प्राणीउने निर्दयताथी ताडना करवी तेमज ते जीवोनी हिंसा करवी, तेउने दृढ बंधनथी बांधवां, मांकड, जू प्रमुख हुअजंतुने निराधार फेंकवां तथा मारवां, तडकामां नांखवां, अपकायना जीवोनी श्रत्यंत विराधना करवी, पाणी गलवा माटे मजबुत गलणां न राखवां, पाणी गल्या पड़ी संखारो फेंकी देवो, अनाज, इंधन, शाक, पत्र, तांबूल, फलादि शोध्याविना खावां. सोपारी, खारेक, उली, फली, प्रमुख संपूर्ण, नांग्या विना मुखमां नाखवां, जीवाकुल नूमिउपर स्नान करवू, मलमूत्र करवां, उपयोग विना गमनागमन करवू, जीवयुक्त धान्यादि दलवां, नरडवां, रांधवां, इत्यादि हिसायुक्त काम करवा; धर्मनां कार्यों श्रनादरथी करवां, देव, गुरु अने सामिनी निंदा करवी तथा द्वेष करवो. जिनमंदिरखें अव्य खावं, देवगुरु, धर्मना निंदकनी संगत करवी, धर्मिजीवोनी मश्करी करवी, अत्यंत कषाययुक्त काम करवां, पंदर क र्मादाननां श्राचरण तथा व्यापार तीव्र मलिन अध्यवसायपूर्वक क, रवा, पापयुक्त नोकरी करवी, इत्यादि अनेक धर्मविरुद्ध कार्यों ने. श्रा पांचे प्रकारनां विरुद्ध श्रावके त्यागवां जोशए. हवे उचित आचरण कहीये बीये. पिता प्रमुख नव जनोनी साये उ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नवम परिवेद, (४५५) चित आचरण अर्थात् स्नेहवृति, कीर्त्यादिहेतु कार्य करवां, ते हितोपदेशमाला ग्रंथानुसार लखीये बीये. नवजनोनी साथे उचित आचरण करवां तेउनां नाम.१ पिता, २ माता, ३ बंधु, ४ स्त्री, ५ पुत्र, ६ स्वजन, गुरु, ७ नगरवासी लोक, ए परतीर्थिको अर्थात् बीजा मतवाला. १ पितानी साथे उचित आचरण आप्रमाणे, ते मन, वचन, कायाथी त्रण प्रकारें थायजे. तेमां कायाश्री पिताना शरीरनी शुश्रूषा करवी, किंकरनी जेम विनय, वैयावच्च करवी, पिताना मुखमांथी निकलता पेहेला तेना अंतःकरणनो व्यापार समजी तेनी अभिलाषा पूर्ण करवी, पितानुंवचन उपाडी बेवं, प्रसंगें पितानां चरणप्रदालन करवां, पितानी चंपीकरवी, वृद्धपिताने उठतां, बेसतां आश्वासना करवी, देशकाल उचित,स्वशक्ति अनुसार जोजन, शय्या, वस्त्रादि विनयपूर्वक पितानी श्राज्ञानसार श्रापवां, पितानी चाकरी पोते करवी,नोकरो पासे प्रसंग शिवाय कराववी नहीं; पितानुं वचन पालवा वास्ते श्रीरामचंञजी राज्यानिषेकनो त्याग करी वनवास गया, ए दृष्टांत ध्यानमा राखQ. वली पितानुं वचन सुएयु अणसुएयुं न करवू, मस्तक धूणावq नहि, कालदेप करवो नहि, पितानी थाज्ञानुसार वर्त्त, सर्व कार्यो यत्नपूर्वक पोताना मनमा करवानो उत्साह थयो होय ते पितानी पासे प्रगट करवो. पिताने जे कार्य कर वास्तविक लागे ते करवू, पिता, माता, गुरु श्रने बहुश्रुत थाराध्यां थकां, सर्वकार्य, रहस्य प्रकाश करे . पिता कदाचित् कठिन वचन बोले तो पण क्रोध न करवो, पितानां जे जे धर्मकार्य करवाना मनोरथ थाय ते ते पुरा करवा. २ हवे मातानी साथे उचित आचरणनुं स्वरूप कहीये बीये. पितानी जेम मातानी सर्वप्रकारें नक्ति करे, परंतु माताना मनोरथ पिताथी श्रधिक पूरा करे. देवपूजा, गुरुसेवा,धर्मश्रवण करवू, देशविरति अंगीकार करवी, श्रावश्यक करवां, सात क्षेत्रमा धन वावरवं, तीर्थयात्रा करवी, श्रनाथदीननो उद्धार करवो इत्यादि सर्व माताना मनोरथ विशेषरीतें पू. र्ण करवा. ए प्रमाणे पूर्ण करे तोज उचित आचरण कर्यां समजवां. उत्तम सुपुत्रने ते प्रमाणे करवानी फरज , कारण के मातापितानो उपकार अतुल्य , ते उपकारनो बदलो नथी. कदाच मातापिताने सुपुत्र श्री श्र Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५६ ) जैनतत्त्वादर्श. रिहंतना धर्ममां जोडे तोज मातपिताना उपकारनो बदलो वली शके बे, ते करवाथीज मातापिताना उपकारनुं रूप वली शके बे, ते शिवाय बीजा कोइ उपायथी मातापिताना उपकारनुं कृण वली शकतुं नथी. श्रा कथन श्रीस्थानांग सूत्रमां बे. हवे माता संबंधी उचित श्रचरणमां जे विशेष ने ते लखीये ढीये. माताना चित्तने अनुसखुं ते उत्तम पुत्रनी फरज बे. स्त्री जातिनो स्वनावज प्रायः एवो होय बे, पोतानी धारणा मुजब न थाय तो जलदी थी चित्त खेदयुक्त घर जाय, ते कारणथी जे काममां खेद या पीडा थाय ते काम न कर. पिताथी माता विशेष पूज्य बे. मनुस्वामी कडे ठे के ॥ उपाध्यायाद्दशाचार्यः, श्राचार्येन्यः शतं पिता ॥ सहस्रं तु पितुर्माता, गौवेणातिरिच्यते ॥ १ ॥ वली बीजाउपण कहे बे के, ज्यां सुधि दुध पीये त्यांसुधीश्रा, मारी माता एम पशुपण जाणे बे, जोजन न खाइ शके त्यांसुधि या मारी माता एम अधम पुरुष जाणे बे, ज्यांसुधी घरनुं काम करे त्यांसुधी या मारी माता एम मध्यम पुरुष माने बे श्रने ज्यां सुधी जीवे त्यांसुधी तीर्थरूप उत्तम पुरुष पोतानी माने माने बे. ३ सहोदर अर्थात् बंधु साथे उचित श्राचरण या प्रमाणे. मोटाभाइने पिता समान गणे, अने मोटो जाइ नानाजाइने सर्वकार्यमां साथे जोड़े. जो उरमान मातानो दी करो (जाइ) होय तो जेम श्रीरामचंद्र धने लक्ष्मणनो परस्पर प्रेम इतो तेवो परस्पर प्रेम राखवो जोइये. वली वडील बंधुनी स्त्रीउनी साथे तथा तेमना पुत्र, पुत्री उनी साधे पण उचित श्राचरण यथायोग्य करे, परंतु पृथग्जाव न करे. नाश्नी व्यापारमां सलाद लहे . बानी वात न राखे धननो व्यवहारपण जाइथी गुप्त न राखे. बंधुने निरंतर शिखामण थापे, जेथी धूर्त्त, प्रपंचीना बल कपटमां ते न तो फसाय. बंधुने माठी सोबत लागी होय, वा ते अविनीत थयो होय सजन पुरुषोनी सोबतमां लालच यापी उतारे, पोते नम्रताथी शिखामण पे, पोताना मित्रोद्वारा शिखामण पावे, काका, मामा, इत्यादि सगासंबंधी द्वारा तेने शिक्षा छापावे, अन्योक्तिथी वचन कहे, परंतु पोते तर्जना करे, कारण के ताडना तर्जनाथी बंधुमां अविनीतपएं तथा श्रम-. र्यादा बधती जाय. बे. सामुं बोलनारो थर जाय बे; तेथी हृदयमां प्रेम Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिछेद. (४५) सहित बहारथी ज्यारे जाश्ने देखे त्यारे तेना अंतःकरणमां पण ते बहु राजी थाय एवो देखाव बतावे. ज्यारे नाश् विनयमार्गमां आवी जाय त्यारे निष्कपटपणे मीगं वचनोथी तेनी साथे निरंतर वर्ते. कदाचित् नाश् अविनीतपणुं न तजे तो, चित्तमां विचारे के, तेनी प्रकृतिज एवी बे, एम मनमां समाधान करी उदासीनपणे वर्ते. वली जाश्नी स्त्री तथा तेना पुत्रोनी साथे समदृष्टि सर्व कार्यमा राखे. उरमान नाश्नी साथे विशेषरीतें प्रेमपूर्वक प्रवर्ते, कारण के तेनी साथे लेशमात्र अंतर राखवाथी अप्रतीति थ जाय , श्रने लोकमां पण निंदा थाय . तेवीजरीतें माता, पिता अने बंधुसमान बीजा जे जे पुरुषो , तेउनी साथे उचित आचरणो विचारी लेवां. यतः॥ जनकश्चोपकर्ताच, यस्तु विद्यां प्रयति ॥ अन्नदःप्राणदश्चैव, पंचैते पितरः स्मृताः॥१॥ राजपत्नी गुरोः पत्नी, पत्नीमाता तथैव च ॥ खमाता चोपमाता च, पंचतामातरःस्मृताः॥२॥ सहोदरः सहाध्यायी, मित्रं वा रोगपालकः॥ मार्गे वाक्य सखायश्च, पंचते जातरः स्मृताः॥३॥ वली पोताना नाजने धर्मकार्यमां पण प्रवावे; तेवीज रीतें मित्रनी साथे पण उचित आचरण करे. ४ हवे स्त्रीनी साथे उचित आचरण कहीए बीए. विवाहित स्त्रीनी साथे स्नेहसंयुक्त वचन व्यापार राखे, स्त्रीने सर्वकार्यमां अनिमुख करे, वखन अने स्नेहयुक्त वाणीविलास निश्चयपूर्वक प्रेमर्नु जीवन डे. स्नानप्रसंगें वा परिश्रमने प्रसंगें पगचंपी प्रमुख कार्यमा स्त्रीने प्रव वे. उत्तरोत्तर कार्यमा पतिनो स्नेह पत्नीना अंतरंगमा प्रवर्ते , त्यारे पत्नी कदापि उराचरण करवानी अभिलाषा करती नथी. देश, काल, समृधिपूर्वक स्त्रीने उचित वस्त्राचरणथी श्रलंकृत करे; कारण के अलंकारसंयुक्त स्त्री, लक्ष्मीनी वृद्धि करे . रात्रिए स्त्रीने बहारगमन करवा अनुज्ञा आपे नहि. वली कुशील, पाखंडी, जगत योगी इत्यादि नीचपुरुषोनी संगतमा प्रवर्तवा दे नहि. गृहकार्यमा स्त्रीने. निरंतर जोडी राखे. राजमार्गे उनां रहेता तथा वेश्याना पाडामां जतां निवारे. प्रतिक्रमण, सामायिक, देवदर्शनादि धर्मकृत्यो करवावास्ते, जिनमंदिर वा उपाश्रये जवामां, माता, बेहेन प्रमुख सुशील स्त्रीउनी संगतिमा जवानी अनुज्ञा आपे, घरना काम, दान, सगासंबंधीनां सन्मान, रसोश्नां Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिच्छेद. ( ४६५ ) पात्र त्रण तरेहनां कथन करेल. १ उत्तम पात्र साधु, २ मध्यम पात्र श्रावक, ३ विरति सम्यग्रह ष्टि जघन्यपात्र, १ अनादर, २ कालविलंब, ३ विमुख, ४ असत्य बोल, २ दान दइ पश्चात्ताप, या पांच सत् दाननां कलंक वे. १ श्रानंदनां श्रसु आववां, 2 रोमांचित थ, ३ बहुमान देनुं, ४ मिष्टाषण, ५ दानदीधा पढी अनुमोदना, या पांच सुपात्र दाननां भूषण बे. सुपात्रदाननुं परिग्रहपरिमाण करवानुं फल रत्नसार कुमारनी जेम थाय बे. या कथा श्राद्ध विधिग्रंथथी जाणवी. ते कारणथी एवा साधुनो संयोग मलवाथी सुपात्रदान दिन प्रतिदिन विवेकवान् अवश्य करे. जोजन श्रवसरें साधर्मी बंधु कोइ याव्या होय तो पोतानी साथे यथा शक्ति जोजन करावे; कारण के ते पण पात्र बे. आंधला बुला प्रमुख मागनाराने पण यथायोग्य यापे, कोइ मागनारने निराश जवादे नहि. धर्मनी निंदा न करावे, कठण अंतःकरण न करे. जोजनने अवसरें दयावंतें बारणाबंध न करवां जोइये, तेमांपण धनवानें तो अवश्य द्वार खुल्लां राखवां जोइये ॥ श्रागमेऽप्युक्तं ॥ नेव दारं पिहावेश, गुंजमाणो सुसाव ॥ णुकंपा जिणंदे हिं, सङ्घाणं न निवारिया ॥ १ ॥ दिद्दू पाणिनिवहं, जीमे जवसायरंमि दुखतं ॥ श्रविसेस अणुकंप, डुदावि सामछ कुण ॥२॥ श्रर्थः- जोजनावसरें दरवाजा बंध करे नहिं. जिनेश्वर जगवानें श्रावकने अनुकंपादान करवानी मना करी नथी. जीवोना समूहने जयानक संसारमां दुःखपीडित देखीने तेउना उपर विशेषरहित अव्य तेमज जावथी अनुकंपा करे. द्रव्यथी यथायोग्य अन्नादि च्यापे, जावी तेने सन्मार्गमां प्रवर्त्तावे. श्री पंचमांग प्रमुखमां ज्यां श्रावकोनुं वर्णन करेल बे, त्यांच्या प्रमाणे पाठ डे " अवगुंठि अडवारा " या विशेषण ध्यानमा राखी निक्षुकादिने व्यापवावास्ते निरंतर द्वार उघाडां राखे. संवत्सरीदान प्रापी तीर्थंकर महाराजाउयें पण दीन प्राणीजनो उद्धार करेल . कदापि काल पड़े तो श्रावकोयें तो विशेष रीतें दीननो उद्धार करवो. पूर्वे विक्रमसंवत् १३१५ मां प्रेसर गामनिवासी श्रीमाल ज्ञातिशाद जगडु श्रावकें ११२ एकसो बार दानशाला बंधावी दान थापेल ५९ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६६) जैनतत्त्वादर्श. बे. वली संवत् १४२ए मां सोनी सिंहा श्रावके श्व० हजार मण अन्न दीन जीवोने उकालमां आपेल बे. ___माता, पिता, नाश, बेहेन, पुत्र, स्त्री, सेवक, ग्लान, बांधेलां गाय प्रमुख जानवरो, श्रा सर्वनी जोजन अवसरें सार संजाल लेवी जोश्ये. मातपिताने नोजन करावि, पंच परमेष्टि स्मरण करी, प्रत्याख्यान पारी, सर्व नियम स्मरण करी, साम्यताथी जोजन करे. साम्यता अर्थात् जे अन्नपाणी परस्पर विरुद्ध न होय, उलटा परिणमे तेवा न होय, पोताना स्वजावने माफक होय तेवु नोजन साम्य कहेवाय जे. जे पुरुष जीवित पर्यंत साम्यताथी जोजन करे, ते कदी विष खा जाय तो, विष पण तेने अमृत थर जाय, असाम्य जोजन करनारने अमृत पण विष यश जाय बे, परंतु अपवाद ए डे के साम्यताथी पण पथ्यज खावू जोश्ये, अपथ्य नही. खावामां अत्यंत गृहिपणुं न जोश्ये. कंठनाडिथी ज्यारे जोजन नीचे उतरी जाय , त्यारे सर्व जोजन बराबर थश्जायचे; ते कारणथी एक क्षणमात्रना स्वादने वास्ते अतिलोलता न करवी जोश्ये. वली अजय, अनंतकाय, बहु सावद्यवस्तु अर्थात् बहु पापवाली वस्तु खाय नहि. जे मिताहार करे जे ते बलवान् थाय बे, अने जे बहु खाय ते ते अनुक्रमें बलहीन थाय . अधिक खावाथी अजीर्ण, वमन, विरेचनादि मरणांत कष्टपण थइ जाय . यथा ॥ हितमितविपक्कनोजी, वामशयी नित्यचंक्रमणशीलः॥ उज्जित मूत्रपुरीषः, स्त्रीषु जितात्मा जयति रोगान् ॥ अर्थः-जुख लागे त्यारे हितकारी एवं थोडं अन्न जमे, डाबी वाजु नीचे राखी सुवे, निरंतर चालवानो अभ्यास राखे, ज्यारे बाधा थाय त्यारे तरत दिशामात्रा करे, अने स्त्री साथे जोग न करे ते पुरुष रोगोउपर जय मेलवे . हवे नोजन विधि, व्यवहार शास्त्रानुसार लखिये बीये, अति प्रजातमां, अति संध्यामां तथा रात्रि जोजन न करवू जोश्ये. सडेबुं श्रने वासी अन्न न खावु जोश्ये. चालतां खावु नहि, जमणा पग उपर हाथ राखी खावु नहि, हाथ उपर राखी खावु नहि, खुला आकाशमां खावू नहि, तडकामां बेसी खावु नहि, अंधारामां बैसी खावु नहि, वृदनी नीचे वेसी खावु नहि, तर्जनी शांगली उंची राखी कदापि खावू नहि, मुख, Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिछेद. " ( ४६७ ) हाथ, पग तेमज वस्त्र धोयाविना खातुं नहि, नग्न थइ मेलां वस्त्र पेढेरी, थाल पकड्या विना खातुं नहि, मात्र एक धोतियुं पेढेरी खावा बेसवुं नहि, जीनुं वस्त्र पेहेरी खावा बेसवुं नहि, जीनुं वस्त्र माथे लपेटी खातुं नहि, ज्यारे अपवित्र होइयें त्यारे खावुं नहि, श्रतिगृद्ध, रसलंपट थइ खावुं नहि, उपानसहित, व्यग्रचित्तें, निःकेवल भूमिपर बेसी, पाटउपर बेसी खावुंनहि विदिशि तथा दक्षिण दिशि तरफ मुख राखी खावा बेसवुं नहि, पातला आसनपर बेसी खावुं नहि, आसन उपर पग राखी जोजन कर नहि, चंडालना देखतां धर्म थी पतित होय तेना देखतां, फूटेलां, तथा मलिन पात्रमां खावुं नहिः जे शाक प्रमुख वस्तु विष्टाथी उत्पन्न थयेल होय ते खावी नहि, बालहत्याप्रमुख जेणे करेल होय तथा रजखला होय तेवी स्त्रीए स्पर्श करेली वस्तु खावी नहि. जे वस्तु गाय, श्वान, पंखीये सुंधी होय, जे वस्तु श्रजाणी होय, जे वस्तु फरीथी उष्ण करी होय, ते वस्तु खावी नहि, बचबचाट शब्द करतां खावुं नहि. मुख फाटतां बुरुं लागे एम मुख करी खावुं नहि. जोजन श्रवसरें बीजाउने बोलावी प्रीति उत्पन्न याय तेम जोजन करवुं देवगुरुनुं नाम स्मरण करी, समासन उपर बेसी पोतानी माता, बेहेन, जाजु, जाणेज वा स्त्री प्रमुखें जे जोजन तैयार करेल होय ते पवित्रपणे पीरसातां मौनपणे दक्षिण तेम स्वर चालतां जमवुं. जे जे वस्तु खावी ते नासिकायें सुंघीने खावी, करतां दृष्टिदोष नाश पामे बे. अति खारुं श्रतिखाटुं, अति उष्ण, अतिशीतल, तिमीतुं तथा श्रतिशाक खावुं नहि. मुखमां स्वाद लागवा मात्र खावुं. अतिउष्ण खावाथी रसनाश पामे बे, अति खाटुं खावाथी - प्रियोनी शक्ति कम यर जाय बे, श्रतिखारुं खावाची नेत्र बगडी जायढे, प्रतिस्निग्ध खावाची घ्राणशक्ति मंद थर जाय बे, अति तीखुं तथा कडवुं खावार्थी कफ दूर थइ जाय बे, कषायतुं छाने मीतुं खावाथी पित्त नाश पामेढे, स्निग्ध घृतादि खावाथी वायु दूर थर जाय बे, बाकी शेष रोग ते न खावायी दूर थइ जाय बे. जे पुरुष शाक बहु खाय, घीथी रोटली खाय, डुधने चोखा खाय, बहु पाणी न पीये, अजीर्ण होय त्यारे खाय नहि, ते पुरुष रोगपर जीत मेलवे छे. जोजन करती वखत प्रथम मीतुं ने स्निग्ध जोजन करे, व Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) जैनतत्त्वादर्श. चमां तीक्ष्ण जोजन करे, अने पाबल कडवं जोजन करे. उक्तं च ॥ स. स्निग्धमधुरैः पूर्व, मश्नीयादन्वितं रसैः ॥ व्याम्ललवणैर्मध्ये, पर्यंते कटुतिक्तकैः ॥ जो प्रथम नरम वस्तु खाय, मध्यमां कटु वस्तु खाय अंतमा फरीनरम वस्तु खाय तो बलवंत तथा नीरोगी थाय जे. जोजननी पेहेलां पाणी पीये तो अग्निमंद थ जाय , नोजननी वचमां पीये तो रसायन स- . मान गुणकारी थाय बे, अने नोजननी अंते विषसमान थाय . नोजननी अनंतर सर्व रसथी लिंपेला हाथश्री एक अंजली रोज पीये, पशुनी जेम पाणी पीये नहि, पाणी पीधा पनी बाकी रहेढुं फेंकी दे, अंजलीथी पाणी पीये नहि, पाणी थोडं पीवं पथ्य . पाणीथी जीजेला हाथ गलाउपर, कपोलउपर तथा नेत्र उपर लगाडे नहि. जोजन कर्या पठी अं. गमईन, दिशागमन, बोज उगववानुं काम, बेसी रेहेवू तथा स्नान, ए. टलां काम करे नहि; लोजन कर्या पड़ी केटलो एक वखत बेसी रेहेवामां आवे तो पेट मोटें थजाय बे. मुख खुवं राखी चता सुवे तो बल वधे बे, डावे पडखे सुवे तो आयु वधे , नोजन करी दोडे तो मरण थवानो संजव ; जोजन कर्या पनी डावे पडखे बे घडीसुधी सुवे, परंतु निझा लहे नहि, अथवा सुवे नहि तो सो डगलां चाले. बीजे स्थलेपण कडंडे के देवने, साधुने, नगरना खामि राजाने अने खजनोने ज्यारे कष्ट श्रावे त्यारे तथा चंड, सूर्यना ग्रहण वखते विवेकवान् पुरुष, शक्ति होय तो जोजन न करे; तेवीज रीतें “ अजीर्णप्रजवारोगाः ” तेथी श्रजीर्णमां पण जोजन करे नहि. ज्वरनी श्रादिमां लांघण श्रेष्ठ , परंतु वायुज्वर, श्रमज्वर, क्रोध ज्वर, शोकज्वर, कामज्वर, घावज्वर, एटला ज्वरने वर्जिने बाकीना ज्वरमां तथा नेत्ररोगमां लांघण करे, देवगुरु वंदनना अयोगमां, तथा तीर्थ अने गुरुने नमस्कार करवाजती वखत, विशेषधर्मर्नु तथा पुण्यनुं काम आरंजतां अने अष्टमी, चतुदशी श्रादि विशेष पर्वने दिवसे लोजन न कर जोश्ये. तपश्चर्या श्रा लोक अने परलोकमां बहुज हितकारी , तथा गुणकारी जे. जोजन कर्या पली नवकार मंत्र गणी उठे. चैत्यवंदन करी, देवगुरुने यथायोग्यवं Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम परिबेद. (४६ए) दन करे. नोजन कर्या पनी गंठीसहित दिवस चरिम प्रत्याख्यान विधिथी करे; पडी गीतार्थ साधु, गीतार्थ श्रावक तथा सिझपुत्रादि समीप खाध्याय ( पठन पाठन) यथायोग्य करे. योगशास्त्रमा लख्यु डे के जे गुरुमुखथी जणेल होय, ते बीजाउँने नणावे, स्वाध्याय कर्या पड़ी संध्यासमये जिनपूजा करे, पली प्रतिक्रमण करे, पढी खाध्याय करे, पनी वैयावच्च श्रर्थात् मुनिनी पगचंपी करे, पडी घेर श्रावी सर्व परिवारने मेलवी धर्मनुं खरूपकथन करे, उत्सर्गमार्गे तो श्रावके एक वखतज जोजन करवू जोश्ये ॥ यदनाणि ॥ उस्सग्गेणं तु सहोय, सचित्ताहारं वजाJ॥श्कासणगनोश्य, बंजयारितदेवय ॥१॥जो एक वखत जोजन करवाने समर्थ न होय, तो दिवसनो आठमो नाग अर्थात् चार घडी दिवस बाकी रहे त्यारे जोजन करी ले,बे घडी दिवस बाकी रहेतां पहेलां तो नोजन करी लेवं जोश्ये. पड़ी यथाशक्ति चार आहार, त्रण आहार, वे आहार त्यागरूप दिवस चरिम, सूर्यजगतां सुधी करे. मुख्यवृ. त्तियेतो दिवस बतां प्रत्याख्यान करवू जोश्ये, परंतु अपवादें रात्रि पणकरे. इति श्रीतपगडीयगणिश्रीमणि विजयतविष्यमुनिश्रीबुद्धिविजयतलि. प्यमुन्यात्मारामानंदविजयविरचितेजैनतत्वादर्शगुर्जरलाषांतरे श्राफशा- स्त्रानुसारेण श्रावकदिनकृत्यप्रकाशकनामा नवमपरिछेदः संपूर्णः ॥ ॥अथ दशमपरिवेदप्रारंजः॥ आ परिवेदमा श्रावकोनां १ रात्रिकृत्य, २ पर्वकृत्य, ३ चातुर्मासिककृत्य, ४ संवत्सरीकृत्य, ५ जन्मकृत्य, था पांच कृत्यनुं खरूप अनुक्रमें लखवामां आवशे; प्रथम रात्रिकृत्य लखीये बीये. . साधुनी पासे तथा पौषधशाला प्रमुखमां यत्नापूर्वक प्रमार्जना करीने सामायक लही श्रावक प्रतिक्रमण करे; पठी साधुऊनी वैयावच्च (पगचंपी) करे. उत्सर्ग मार्गनी अपेक्षायें साधुने श्रावकपासे विश्रामण थादिन कराव जोश्ये, परंतु श्रावक तेम करवानो नाव करे तो महाफल थाय बे; पठी श्राविधि, श्राझदिनकृत्य, उपदेशमाला अने कर्मग्रंथ प्रमुख शास्त्रोनो खाध्याय करे, पडी सामायक पारी घेर जाय. घेर आवी सम्यक्त्वमूल बार व्रतमां सर्व शक्तिश्री यत्न करणादिरूप Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७०) जैनतत्त्वादर्श. तथा अर्हत्चैत्य अने साधर्मी वर्जित वासस्थानमां निरंतर अनिवासरूप, तथा पूजा प्रत्याख्यानादि अनिग्रहरूप, साते क्षेत्रमा यथाशक्ति व्यय करवारूप, सर्व परिवारने यथायोग्य धर्मोपदेश कथन करे. श्रावक जो पोताना परिवारने धर्मनुं स्वरूप यथायोग्य न कहे तो ते परिवार धमंथी विमुख रहे,अने ते ने धर्मनी प्राप्ति न थाय, तेथी इह लोक प. रलोकनां अनेक तरेहनां ते पापकर्म करे, ते सर्व पाप मुख्य श्रावकने लागे. लौकिक व्यवहारशास्त्रमा पण कयु के चोरने चोरी करतां जापतां बतां तेने न निवारे अने खानपानादि आपे तो ते सहायक पण मददगार चोर गणाय . धर्ममांपण तेमज जाणवू. ते कारणथी श्रावके अव्य तथा नावथी पोताना कुटुंबने निरंतर लान थापवो जोश्ये. तेमां अव्यथी पुत्र, स्त्री प्रमुखने यथायोग्य अन्न वस्त्रादि आपवां जोश्ये, अने जावथी ते ने धर्मनो उपदेश करवो जोश्ये; तेमज बीजां जे दुःखी कु. टुंबी होय तेउनां उःख निवारवानी चिंता करवी जोश्ये. पाप लागवानी बावतमां अन्यशास्त्रमा पण कडं . यतः॥राज्ञि राष्ट्रकृतं पापं, राज्ञः पापं पुरोहिते ॥ तरि स्त्रीकृतं पापं, शिष्यपापं गुरावपि ॥ १॥ धर्मदेशना थाप्या पड़ी, रात्रिनो प्रथम पहोर व्यतीत थया बाद, शरीरने सुखजनक शय्यामां विधिपूर्वक अल्प निझा करे. बाहुल्यतायें गृहस्थ, मैथुन अनिलाषा वजें, जावजीवसुधी ब्रह्मचर्य व्रत पालवा समर्थ न होयतो, पर्वतिथियें तो अवश्य ब्रह्मचर्य व्रत पाल जोश्य. जे शय्यामां मांकड प्रमुख पड्या होय, जे पलंग टुंको होय, नांगेलो होय, मेली शय्या होय, जे पलंग बबेला लाकडानो बनावेलो होय, तेनो त्याग करे. पलंगमां चार जातसुधीन काष्ठ वपराय तो शुन्न,अने वधारेनुं वपराय-तो अशुन, एम नीतिशास्त्रमा कडं बे. पूजनीय वस्तु उपर सुवे नहि, पाणीथी जीजायेला पग बता सुवे नहि, उत्तरदिशि तथा पश्चिम दिशि तरफ मस्तक राखी सुवे नहि, वांसनी जेम सुवे नहि, पगराखवानी तरफ सुवे नहि, हाथीना दांतनी जेम सुवे नहि, देवमंदिरना मूल गनारामां, सर्पनी बंबी उपर, वृदनी नीचे, तथा स्मशानमा सुवे नहि. कोश्नी साथे लडाइ थर होय तो शांति करी सुवे. सुवानी वखत पाणी पासे राखे. घार बंध करी, इष्टदेवने नमस्कार करी सर्व श्राहारनो त्याग Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम परिवेद. (४७१) करी,उँढवानांवस्त्रसमारी शरीर साफ करी,डाबी बाजुनीचेराखी शयन करे. दिवसे सुवे नहि, परंतु क्रोध, शोक तथा मद्य शमाववावास्ते, तथा स्त्रीकर्म अने बीजी मेहेनतनो थाक लाग्यो होय तो ते मटाडवावास्ते, तेमज रस्तानो परिश्रम दूर करवावास्ते सुवे; वली अतिसार, श्वास, हेडकी प्रमुख रोग दूर करवावास्ते सुवे; तथा बालक, वृद्ध अने बलहीण होय तेपण सुवे. वली अजीर्णना व्याधिवाला, वायाना व्याधिवाला, खांसीवाला. अने जेने रात्रियें निता न श्रावती होय वा अल्प श्रावती होय तेउपण सुवे. तृषा, शूल अने गड गुमडानी वेदनाथी विह्वल होय तेपण दिवसे सुदे. जेठ अने असाड मासमां दिवसेंपण सुदुं ते सारं बे. बीजा महिनामां जो सुवे तो कफ अने पित्तकर्ता थाय . बहु वखत निघालेवी तेपण सारुं नथी, रात्रे ज्यारे सुवे त्यारे दिशावकाशिक व्रत उच्चरी सुवे, चार शरण आहे, जीवराशि साथे खमावे, श्रढार पापस्थानक वोसिरावे, उष्कृतनी निंदा गर्हणा करे, सुकृतनुं अनुमोदन करे, अने नवकार सहित था गाथा त्रण वार उच्चरे. ॥ जश्मेहुजा पमार्ज, श्मस्स देहस्स इमाश् रयणीये ॥ श्राहारमुवहि देहं, सवं तिविहेण वोसरियं ॥ १॥ अर्थ सुगम . सागारी अनशन करे. सुती वखते पांच नवकार स्मरण करे, स्त्रीनी शय्याथी अलग शय्यामां सुवे, शय्यामां साथे सुवाथी विकार अ. धिक जागे २ तथा जे वासना सुती वखते होय, ते जागता सुधी दूर थती नथी. वली अधिक विकारथी दिवानापणुं थर जाय बे तथा मरण अवसरे गफलत थ जाय तो पण सेचतन अवस्थामां जे वासना विद्यमान हती तेज वासना रहे ॥ इत्याप्तोपदेशः ॥ ते कारणथी सर्वथा उपशांतमोह थश्ने, तथा धर्म वैराग्यादि नावनाथी वासित थश्ने निखाकरे तो मागं स्वप्नन आवे. जे रीतियें सुंदर धर्ममयस्वप्न आवे ते रीतियें सुवे, जेथी कदाच निजामां श्रायुनी समाप्ति थ जाय तो पण ते उत्तम गतिमां जाय. सुता पड़ी रात्रिमा जो जागी जवाय, अने तेवे प्रसंगे अनादि कालना अन्यासना रसथी कदाचित् काम पीडा करे, तो स्त्रीना शरीरना श्रशुचिपणानो विचार करे; अने श्रीजंबुस्वामि तथा श्रीस्थूलनसादि महर्षियोना तथा सुदर्शनप्रमुख महाश्रावकोनां पुष्कर शीयल पालवानी Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) जैनतत्त्वादर्श. दृढतानो विचार करे, वली स्त्रीना शरीरनी अपवित्रता जुगुप्सनीयादि सर्व श्रीहेमचंडसूरिकृतयोगशास्त्रमा तथा श्रीमुनिसुंदरसूरिकृत अध्यात्मकल्पथुममां जेम बतावेल बे, तेम विचारे, तेनुं लेशमात्र स्वरूप लखीये बीये. चामडी, हाड, मजा, आंतरडां, चरबी, नस, रुधिर, मांस, विष्ठा, मूत्र, ' खेल, खंखारादि अशुचि पुजलनुं पिंड स्त्रीनुं शरीरडे, आ पिंडमां तुं शुं रमणीय वस्तु देखे जे? जे लोक विष्ठाने दूरथी देखी शूथूकार करे , तेज मूढलोक विष्टा अने मूत्रथी नरेला एवा स्त्रीना शरीरनी अभिलाषा करे बे! बहु बिनोवाली विष्टानी कोथली जेना बिस्रोमांची कमीजाल निकसे बे, तथा कृमीजालथी नरेली, एवी स्त्री के. चपलता, माया, असत्यता, उगार इत्यादिथी संस्कारित थयेल , तेथी जे पुरुष मोदथी तेनो संग करे, जोगविलास करे, तेने नरकगति . विष्टानी कोथलीरूप स्त्रीनां अगीआरे धारथी अशुचि' वहे . जे झारने सुंघो, ते छारमांथी सडेवा कुतराना कलेवर समान दुर्गंध आवे बे. हवे विचारमात्र एज आवेडे के कामी पुरुषो आवा स्त्रीना शरीरमा रागांध केम थाय ? इत्यादि स्त्रीना शरीरनी अशुचिता विचारे. धन्य मुनि जंबुकुमारने!! जेणे नवपरिणीत श्राव पद्मिनी स्त्री तथा नवाणुक्रोड सोनैया एक क्षणमात्रमा तजी दीधां! तेनुं माहात्म्य विचारे; अने श्रीथूलिन तथा सुदर्शन शेठना शियलनुं माहात्म्य विचारे, वदी कषाय जीतवाना उपाय चिंतवे, तथा चावस्थितिनो विचार करे, अने धर्ममनोरथ जावनानी चितवना करे. __ कषाय जीतवानो उपाय आ प्रमाणे, क्रोधने क्षमाथी जीते, मानने नम्रताथी जीते, मायाने सरलताथी जीते, लोनने संतोषयी जीते, रागने वैराग्यथी जीते, वेषने मित्रताथी जीते, मोहने विवेकथी जीते, कामने, स्त्रीना शरीरनी अशुचित्व जावनाशी जीते, मत्सरने मननी मोटाश्थी जीते, विषयने संयमथी जीते, योगने गुप्तिथी जीते, बालसने उद्यमयी जीते, अविरतिपणाने विरतिपणाथी जीते;था प्रमाणे सर्व सुखेंथी जीती शकाय . पूर्वे महान् पुरुषोयें आरीतियेंज कषायने जीतेल . • जवस्थिति महापुःखरूप जे. चारे गतिमां जीव नाना प्रकारे दुःख पामी रह्या बे. नरकगतिना साते नरकोमा अत्यंत क्षेत्र वेदना . चार न-, Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम परिबेद. (४७३) रकमां परस्पर शस्त्रोथी उदीरेली वेदना , अने त्रण नरकमां परमाधामी कृत वेदना . आंख बंध करी उघाडीये तेटलो काल पण नरकवासी जीवोने सुख नथी. मात्र पुःखज पूर्व जन्मना करेला पापथी उदय पामेल . रात अने दिवस एक सरखां पुःखमांजाय जे. नरकगतिमा जीव जेटबुं दुःख जोगवे , तेनाथी अनंतगणुं मुःख निगोदमां ते जोगवे बे. तिर्यंच गतिमा अंकुश, परोणा, लाकडीना प्रहार, श्रृंगमोडन, गलमोडन, तोडन, बेदन, नेदन, दहन, अंकन, परवशत्वादि अनेक कुःख, जीव पामे . मनुष्यगतिमा गर्नमां रेहेवार्नु कुःख, जन्म जरा मरणर्नु कुःख, रोग व्याधि दरिलता प्रमुख, नाना प्रकारचें कुःख, माता, पिता, स्त्री, पुत्रना मरणादिथी थतुं फुःख इत्यादि अनेक तरेहनुं उःख जीव पामे . देवगतिमां च्यवननुं फुःख, दासपणानुं कुःख, पराजक, ईर्ष्यादि अनेक फुःख , इत्यादि जवस्थिति विचारे, धर्ममनोरथजावना था प्रमाणे करे. श्रावकना घरमां ज्ञान, दर्शन, व्रतसहित दास थ जाऊं तो पण सारं डे, परंतु मिथ्यादृष्टिमा चक्रवर्ती राजा पण थवानी वांग न करे. वली क्यारे हुं संवेगी वैराग्यवंत गीतार्थ गुरुना चरणारविंदमां खजनादि संगरहित प्रव्रज्या ग्रहण करीश! तथा क्यारे हुँ तिर्यंचना तथा पिशाचना जयथी निःप्रकंप थ स्मशानादि नूमिमां विधिपूर्वक कायोत्सर्ग करीश ? वली क्यारे हुँ तपथी कृश शरीर वालो थर उत्तम पुरुषोनो मार्ग वहन करीश ? इत्यादि नावनाथी कामकटकने जीते ॥ इति श्राविधिग्रंथानुसाररात्रिकृत्यं ॥ __ हवे श्रावकनां पर्वकृत्य लखीए बीए. अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वना दिवसोए धर्मनी पुष्टि जे करे तेनु नाम पौषध . जला व्रतवाला श्रावकें पर्वने दिवसें अवश्य पौषध करवो जोश्ए. जो पर्वने दिवसे शरीरमां शाता न होय, अने पौषध न करी शके तो बे वार प्रतिक्रमण करे; तेमज बहुवार सामायिक तथा दिशावकाशिक व्रत अंगीकार करे. पर्वदिवसोमा ब्रह्मचर्य व्रत पाले. श्रारंज वर्जे. विशेष तप करे. चैत्यपरिपाटी करे. सर्व साधुउने नमस्कार करे. सुपात्रदान, देवपूजा, गुरुनक्ति, इत्यादि सर्व, बीजा दिवसो करतां विशेष रीतें करे. धर्म करणी निरंतर करवी ते सारं , जो निरंतर न करी शकाय तो पर्वने दिवसें तो अव ६० Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) जैनतत्त्वादर्श. श्य करवी जोश्ये. पर्वना दिवसो वा बे-अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णमासी, श्रमावास्या, आ एक मासमां ब पर्व, अने पखवाडीथामांत्रण पर्व, तथा बीज, पांचम, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी आ पांच तिथि, तीर्थंकरोये वर्णवेली . बीजने दिवसे बे प्रकारनाधर्म-आराधन करे, पंचमीने दिवसे ज्ञान- आराधन करे, अष्टमीने दिवसे श्राप कर्मनो नाशं करवा तपश्चर्या प्रमुख करे, एकादशीने दिवसे श्रगीबार अंगनुं श्राराधन करे, चतुर्दशीने दिवसे चौद पूर्वनुं श्राराधन करे, था पांच तथा पूर्वोक्त पूर्णमासी अने अमावास्या, एम ब पर्व थयां. वर्षमां ब अहाश पर्व . चातुासिक पर्वोमां सर्वथा आरंजनो त्याग जो न करी शके, तो स्वस्पतर श्रारंन करे. पर्वने दिवसे सर्व सचित्त आहार वर्जे, श्रावके निरंतर सचित्त आहार वर्जवो जोश्य, जो तेम न करी शके तो पर्वने दिवसे तो अवश्य वर्जवो जोश्य. पर्वना दिवसोमां स्नान, शिरमुंडन, केशगुंथन, वस्त्रधोवन, वस्त्र रंगवां, गाडा हलादि चलाववां, धान्यना बोड बांधवा, कोश अरहट्ट (रेंट) चलाववा, दल, नरडवू, पत्र, पुष्प, फल, तोड. वां, सचित्त खडी, लीली वनस्पति विगेरे मर्दन करवी, लींपवू, माटी खोदवी, घर बंधाववां इत्यादि सर्वश्रारंजनां काम यथाशक्ति त्यागवां जोश्य; तथा सर्व सचित्त श्राहारनो जो त्याग न करी शके, तो केटलीएक वस्तुउ नाम लश्खावानी बुट राखे, विशेषनो त्याग करे. उये अहाश्मां जिनराजनी पूजा करवी, तप करवं, ब्रह्मचर्य पालवू. ये अहाश्मां चैत्र तथा श्रासो महिनानी एम बे अहा शाश्वती . आ दिवसोमां वैमानिक देवताउँपण नंदीश्वरादिमां यात्रा उत्सव करे . बाकीनी त्रण बहाई त्रण चोमासानी तथा चोथी पर्युषण पर्वनी, सर्व मनी । अहार .. प्रनात समये प्रत्याख्याननी वेलायें जे तिथि होय, ते जैनमतमा मानवी प्रमाण . सूर्योदयनां अनुसारें लोकमां पण दिवसनो व्यवहार होवाथी तेम मानकुंप्रमाण . तथा च निशीथनाष्ये ॥ चउमासीथ वरीसे, पखिय पंचमीसु नायवा ॥ ताऊ तिहिउँ जासिं, उदेश् सूरो न अन्ना ॥१॥ पूश्रा पच्चखाणं, पडिकमणं तहय नियमगहणं च ॥ जीये उदेश्सूरो, तीये तिहिये उकायत्वं ॥२॥ उदयम्मि जातिहिसा, पमाणमिअरीकीरमाणीये ॥ श्राणा जंगण वत्था, मित्त विराहणं पावे ॥३॥ अर्थः Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) . जैनतत्त्वादर्श. करे, पूजामां, माला चडाववा प्रमुख कार्योमा देवजव्यनी वृद्धि थाय तेवी योजना करे. केशर, चंदन, बरास प्रमुख अनेक वस्तु यथाशक्ति मुजब प्रति वर्ष आपे. __ सुंदर प्रांगी, पत्रनंगी, सर्वांग बाजरण, पुष्पगृह, कददीगृह, प्रमुखनी रचना करे, विविध यंत्रादिकनी रचना करे, गीत, नृत्यादि महोत्सवकरे, महापूजा रात्रि जागरण करे. श्रुतज्ञान पुस्तक प्रमुखनी पूजा कर्पुरा दियी निरंतर सुगम , अने प्रशस्त वस्त्रादियी विशेष पूजा तो प्रतिमास शुक्ल पंचमीनारोज श्रावके करवी योग्य. जो शक्ति न होय तो पण वर्षमा एकवार तो अवश्य पूजा करे. तेतुं विस्तारथी खरूप ज्ञाननक्ति छारमा लखवामां श्रावशे. ___ पंचपरमेष्टि नमस्कार, आवश्यक सूत्र, उपदेशमाला, उत्तराध्ययनादि ज्ञान दर्शननो तप करीजघन्यथी एकवार उद्यापन (उजमणु) करे; जेश्री लक्ष्मीनी सफलता थाय; ज्यारे जप तप उद्यापन करे, त्यारे चै. त्यउपर कलशारोहण करे, फल चढावे, अदत पात्रना मस्तक उपर श्रत चडावे. जेम जोजन उपर तांबुल अपाय ने तेम, श्राबाबतमा पण जाणवू. उजमणानी विधि शास्त्रांतरथी जाणी बेवी. __ तीर्थोनी प्रजावनावास्ते वाजते गाजते प्रौढ श्राडंबरथी गुरुनो प्रवेशमहोत्सव करावे. आ कथन व्यवहार नाष्यमां बे. तेम करवाथी जिनमतनी प्रजावना थायजे. श्रीसंघर्नु पण यथाशक्ति बहुमान, पूजा, जक्ति करे. नालियेर प्रमुखनी प्रजावना करे, तांबुल प्रदानरूप नक्ति करे, तेम करवाथी शासननी उन्नति थायने, अने शासननी उन्नतिथी तीर्थंकरगोत्र उपार्जन थाय. श्रा कथन ज्ञातासूत्रमा बे. गुरुनो योग प्राप्त थये बते, जघन्यथी वर्षमा एकवार आलोचना ले, पोताना करेला सर्व पाप गुरुनी सन्मुख प्रगट करे,गुरु जे प्रायश्चित्त थापे ते अंगीकार करे, फरी ते पाप न करे, तेनुं नाम आलोचना गृहण करवीने, एम श्राफ जीतकल्पादिमां विधि लखी. पक्षपड़ी, चार मास पड़ी, एक वर्ष पठी, उत्कृष्ट बार वर्ष पड़ी, निश्चयें बालोचना करे, पोताना शट्य काढवावास्ते, देत्रथी सातसो योजन अने कालथी बारवर्षसुधी गीतार्थ गुरुनी अन्वेषणा करे, ते गीतार्थ गुरु केवा होय? मन, Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम परिबेद. (४३) वचन, काया जेनां स्थिर होय, चारित्रवंत होय, आलोचना गृहणमां कुशल होय, प्रायश्चित्तना जाणकार होय, विषाद रहित होय, एवा गीतार्थ गुरु होय, ते आलोचना प्रायश्चित्त आपवा योग्य बे. ___गीतार्थ कोने कहीये? १ जे निशीथादि बेद शास्त्रोना मूलपान, नियुक्ति, जाष्य, चूर्णी आदिना जाणकार होय, ज्ञानादि पंचाचार युक्त होय, २ आधारवंत, आलोचित पापना धारणावाला होय, ३ भागमादि पांच व्यवहारना जाणवावाला होय, तेमां पण श्रआ कालमां तो जीतव्यवहार मुख्य , तेना जाणकार होय, प्रायश्चित्त आलोचकनी बजादूर करावनारा होय, ५ बालोचकनी शुद्धि करनारा होय, ६ बालोचकना पापकर्म बीजाउनी पासे न कहे, आलोचक जेम निर्वाह करी शके, तेमप्रायश्चित्त थापे, जे प्रायश्चित्त न करे तेने इहलोक परलोकना जय बतावे. आ आठ गुण युक्त गीतार्थ गुरु होय . साधु तथा श्रावके १ प्रथम तो पोताना गठमां गबना आचार्य पासे, २ तेना अजावे, उपाध्यायनी पासे, ३ तेनाअनावे, प्रवर्तकनी पासे, ४ ते. ना अनावे स्थिविरनी पासे, ५ तेना अनावे गणाक्छेदकनी पासे, खगबमां था पांचेना अनावे संजोगी एक समाचारीवाला गांतरमा पूर्वोक्त श्राचार्य प्रमुख पांचेनी पासे अनुक्रमे बालोचे, तेऊनो पण अनाव बते, असंजोगी संवेगी गबमा पूर्वोक्तक्रमे आलोचे, तेजेनो पण अनाव ते गीतार्थ पार्श्वस्थ (पास) नी पासे बालोचे, तेने अनावे गीतार्थ सारुपीनी पासे आलोचे, तेने अनावे पश्चात्कृतनी पासे बालोचे; जे शुक्ल वस्त्रधारी, शिरमुंडित, अबछकब, रजोहरण रहित, ब्रह्मचारी, स्त्री रहित निदावृत्ति होय ते सारूपी कदेवाय डे; जे शिखासहित अर्थात् चोटली सहित तथा स्त्री सहित होय ते सिझपुत्र कहेवाय जे. जे चारित्र बोडी गृहस्थवेष धारण करे , ते पश्चात्कृत कहेवाय . बालोचनाने अवसरे पासबादिने पण गुरुनी जेम वंदना करे, कारण के विनय मूल धर्म बे, ते कारणथी वंदना करे. जो ते पासडादि पोते पोताने गुणहीन जाणी वंदना न करावे, तो तेने आसन उपर बेसाडी प्रणाम मात्र की बालोचना ले; तथा पश्चात्कृतने इत्वरसामायिक आरोपण लिंग आपी, पड़ी तेनी पासें यथाविधि पूर्वक आलोचना ले. पार्श्वस्थादिने अनावे रा-. Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) जैनतत्त्वादर्श. ज गृहादि गुणशील चैत्यादिमां ज्यां श्री अरिहंत, गणधरा दिए बहवार लोकोने प्रायश्चित्त आपेलां होय, ते क्षेत्रमा रहेनारा देवताये ते देखेल होय, तेथी ते देवताउँनु अहम प्रमुख तपथी आराधन करी, तेनी पासे आलोचे, कदाचित ते देवता चवी गया होय, अने तेने स्थानके बीजा देवता उत्पन्न थया होय, तो ते देवता महाविदेहना अरिहंतने पुढीने प्रायश्चित्त श्रापे, तेने पण अजावे, पूर्वोत्तर दिशि सन्मुख मुख करी अर्हत सिझोनी समक्ष आलोवे, परंतु शल्य न राखे. आलोचना करनारा पुरुष, मायारहित बालकनी जेम सरल थश् आलोवे. जे कोश्, कोश्पण कारणथी आलोचना न करे, ते आराधक नथी. श्रालोचना करनार दस दोष वर्जी आलोचना करे. दस दोषना नाम. १ गुरुने वैयावच्च प्रमुखथी प्रथम खुशी करी पड़ी आलोचना ले, जेथी गुरु अल्प पायश्चित्त थापे,२ था गुरु अल्प दंड आपे , तेथी तेवा गुरुपासे तेवा अनुमानथी बालोवे, ३ जे अपराध बीजाये दीठा होय तेज मा. त्र आलोवे, परंतु वीजाये न देखेला होय ते न आलोववा ते, ४ बादर दोषने आलोववा, अने सूक्ष्म दोषने न थालोववा ते, ५ सूक्ष्म दोषने आलोववा, परंतु बादर दोषने न थालोववा ते, ६ अव्यक्त खरथी श्रालोववं, ७ गुरु समजे नहि तेवी रीते रोलो करीने पालोव ते, श्रालोचना कर्या पली बहुजनोने सुणावतुं ते, ए अव्यक्त गीतार्थनी पासे आलोवतुं १० जे अपराध गुरुने कह्यो होय, तेज पोताना अपराधने श्रासोचवो. आ दश दोष . आलोचना करवाथी, जेम बोजो उपाडनार जार दूर करवाथी हलको थाय , तेम पापथी बालोचन करनार हलवो थाय जे. पापरूप शव्य दूर थायडे, प्रमोद उत्पन्न थाय. पोताना दोषोनी निवृत्ति आत्मसादीये देखी बीजां पण आलोचना करे. सरलता प्राप्त थवाथी शुद्धता थाय . पुष्कर काम करनार कहेवाय . दोष, सेवन करवू ते पुष्कर नथी, परंतु दोषनो प्रकाश करवो ते पुष्कर जे. श्री तीर्थंकर जगवंतनी आज्ञानाथाराधक थाय.आलोचना करवाथीबालहत्या, स्त्री हत्या, यतिहत्यादि पाप, देवादि अव्य नदण पाप, राजपत्नी गमनादि महापाप पण सम्य. रीतिये गुरुदत्त प्रायश्चित्त करवाथी दूर थ जायजे.जो एमन होय तो Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम परिजेद. (धन्य) दृढप्रहारी प्रमुख तेज जवमा मोद केम प्राप्त करत १ ते कारणथी दर वर्षे चोमासामा तो अवश्य थालोयणा ले. हवे जन्मकृत्य अढार छारोथी लखीये बीये. १ प्रथम उचित छार. उचित अर्थात् योग्य वास करवातुं प्रथम स्थान करे; ज्यां रहेवाथी धर्म, अर्थ, काम एत्रणेनी सिद्धि थाय.बीजे स्थले वसवाथी बंने नव बगडी जायजे. जिसपनीमां, चोरोना गाममां, पर्वतनी तलेटीमां, हिंसक लोकोमां उष्ट लोकोमा, धर्मीलोकोनी निंदा करनाराऊमां, इत्यादि स्थानमा वास न करे, ज्यां जिनचैत्य होय,मुनिनु आवागमन होय, श्रावक वसताहोय, बुद्धिमान् लोको खनावेज शीलवान् होय, प्रजा धर्मशील होय, अने ज्यां बहु जल, इंधन, धान्यादि होय त्यां वास करे. जेम अजमेरनीपासे हर्षपुर नगर हतुं, एवा नगरमा रहेवाथी, धनवंत, गुणवंत अने धर्मवंतनी संगतिथी विनय, विचार, आचार, उदारता, गंजीरता, धैर्यता, प्रतिष्टा श्रादि गुणोनी प्राप्ति थायजे. धर्मकृत्यमा कुशलता थायडे, ते कारपथी कनिष्ठ गामोमा धनप्राप्ति होय तोपण वास न करे, यतः॥ यदिवांबसि मूर्खत्वं, ग्रामे वस दिनत्रयं ॥ अपूर्वस्यागमो नास्ति, पूर्वाधीतंच नश्यति ॥ १॥ __ उचितस्थान पण स्वचक्र, परचक्र, परस्पर विरोध, उर्जिदा, मारी, प्रजाविरोध, अन्नादि वस्तुक्षय, इत्यादि कारणो प्रसंगे तत्काल तजी देवू जोश्ये; नहि तो त्रिवर्गनी हानि थ जायजे. जेम पूर्वे मुसलमानना जयथी लोको दिल्हीनो त्याग करी गुजरात प्रमुख देशोमां जवाथी सुखी अने धनवान थया; तथा जेम दितिप्रतिष्ठित शेहेर उजाड थवाथी चंपा नगरी वसी, अने चंपा उजाड थवाथी पाटलीपुत्र अर्थात् पटना वस्युं, तेम श्रावक पण पूर्वोक्त हानि जाणे तो नगर बोडीने बीजी जगाये जश् वास करे, रदेवाचें घर पण सारा लोकोनी पडोशमां करे, परंतु वेश्या तिर्यंच, निदाचर, श्रमण, बौद्ध, तापस, ब्राह्मण, कोटवाल, माजी, जुगारी, चोर, नट, जाट, कुकर्मी प्रमुखना पडोसमां घर वा उकान न करे. जो देरानी पासे रहे तो हानि थाय. चोकमां, धूताराना वासमां अने प्रधानना पडोसमां रहे तो धन अने पुत्रनी हानि थाय. मूर्ख, अधर्मी, पाखंडी, पतित, Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८६ ) जैनतत्त्वादर्श. चोर, रोगी, क्रोधी, चंडाल, मदोन्मत्त, गुरुतल्पग, वैरी, खामिवंचन, लोजी, रुषि-स्त्री ने बालहत्याना करनारा एटला लोको आपएं हित करनारा होय, तोपण तेना पडोसमां वास न करवो; कारण के तेर्जनी संगतथी गुणदानि प्रमुख अनेक उपद्रव थायडे. ज्यां हाडनुं शल्य न होय, राख न होय, ज्यां डान उगतो होय, सुंदर वर्ण, गंधवाली माटी होय, मीतुं जल होय, खोदतां धन निकले, ते जगा शुभ समजवी. वली जे भूमि शीतकालमा उष्ण स्पर्शवाली श्रने उष्णकालमां शीत स्पर्शवाली होय, ते जगा बहुज शुभ जाणवी. एक दाथमात्र भूमि प्रथम खोदी, पढी तेज माटीथी तेज खाडो पुरखो, जो माटी वधे तो श्रेष्ट भूमि जाणवी, जो माटी उठी थाय तो कनिष्ठ भूमि जाणवी तथा सो पगलां जरतां जेटलो काल लागे तेटला कालमां जे भूमिमां पाणी न सूकाय, ते उत्तम भूमि जाणवी, जो तेटला वखतमां एक श्रगल जर पाणी शोषाइ जाय तो ते मध्यम भूमि जाणवी, जो एक श्रगल उपरांत पाणी शोषाय तो अधम भूमि जाणवी; तथा पक्षांतरमां जे भूमिना खातरमां फूल नाखतां जो फूल सुकाय नहि तो ते उत्तम भूमि जाणवी, जो अर्ध सूकाय तो मध्यम भूमि जाणवी. जो सर्व सुकाइ जाय तो श्रधम भूमि जाणवी. जे भूमिमां शाल वावतां त्रण दिवसे उगे ते उत्तम, पांच दिवस पढी उगे ते मध्यम, छाने सात दिवस पढी उगे ते हीन भूमि जाणवी. - सर्पनी वंदी पर घर बनाववामां आवे तो रोग थाय, पोली भूमिडपर घर बनाववामां आवे तो निर्धन याय, शल्य युक्त भूमि पर बनाववामां आवे तो मरण थाय. मनुष्यनुं हाड तथा केशनुं शल्य होय तो मनुष्योनी हानि थाय, खरनुं शल्य होय तो राजाप्रमुखनो जय याय, श्वाननुं दाड होय तो बालकनुं मरण थाय, बालकनुं हाड होय तो गृहस्खा - मि परदेशमां नाश पामे, गायनुं शल्य होय तो गौरुप धननी हानि थाय, मनुष्यना केश, कपाल अने जस्म होय तो मरण थाय. प्रथम प्रहर यने बेला प्रहर शिवायना बाकीना प्रहरमां वृक्षनी अने 'ध्वजानी बाया घर उपर पडे तो दुःखदायक समजवी. अरिहंतना मंदिरनी पालना जागमां न रेहेतुं; ब्रह्मा श्रने कृष्णना मंदिरनी साथे न Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम परिवेद. (1 ) रदेवं, चंडिकाअने सूर्यना मंदिरनी सन्मुख न रहेवं, महादेवनी तो कोश पण बाजुये रहेवू नहि. कृष्णनी डाबी बाजुये अने ब्रह्मानी जमणी बाजुये न रहे. स्नान- पाणी, ध्वजानी बाया अने विलेपन वर्जे. जिनमदिरना शिखरनी गया अने अरिहंतनी दृष्टि पडे त्यां वास न करवो. न. गर तथा गामनी इशान खुणमां घर न बनावे; बनावे तो ऊंची जातिवालो कुःख पामे. घर बनावे तो वेचनारने पूरी किंमत आपे. पाडोशीने पुःख न आपे, घर लेती वखत कोश्ने कुःख न श्रापे, काष्ठ, पाषाण, इंट प्रमुख वस्तु निर्दोष, दृढ, मजबुत अने नवीन होय ते वाजबी मूल थापीने से, वेचा. ती वस्तुउनुं योग्य सूल आपे, परंतु पोते इंट, चुनो पकाववानुं न करे, जिनप्रासादनी इंट प्रमुख न ग्रहण करे. शास्त्रमा कडं जे के, देरासर, कुवा, वाव, स्मशान, मठ अने राजाना मंदिर, तेना काष्ट, पबर, इंट प्रमुख सर्व गृहस्थना घरमां वपराय तो विरोधकारी , श्रने धर्मना स्थानमां वपराय तो सुखदायक बे. पाषाणमय घरमां काष्ठनो स्थंज अने काष्ठमय घरमा पाषाणनोस्थन न बनावे, मंदिरमां पण न बनावे. हलका काष्ठ, कोल्हानाकाष्ठ, अहंटनाकाष्ठ, चरखानाकाष्ठ, कांटावाला वृक्षनाकाष्ठ, पंच उंबरनाकाष्ठ, आ सर्व काष्ठ घरमां न वापरे. बीजोरा, केला, दाडम, जंबीर, आंबली अने धत्तुराना काष्ठ पण वर्जे.आ वृदोनां मूल पडो कोशमाथी घरमा प्रवेश करे, वा तेउनी बाया घरमां पडे तो कुलनो नाश करे. पूर्व दिशितरफ घर उंचुं होय तो धननो नाश थाय, दक्षिण दिशिये उंचं होयतो धननी वृ. कि थाय, पश्चिम दिशिये उचुं होय तो धनादिनी वृद्धि थाय, अने उत्तरदिशि तरफ ऊंचुं होय तो उजाड थाय. जे घर गोल होय, बहु खुणावालुं होय, अथवा एक, बे वा त्रण खुणावायूँ होय, अने दक्षिण वामी तरफ लांबु होय, एवा घरमां वास न करवो. जे घरनां घार खयमेव उघडे वा बंध थाय ते घर सुखकारी नहि. घरना कार उपर कलशादि चित्र होय तो शुज डे, श्रने नाटारंज, महानारत तथा रामायणना युझ, राजाऊना युद्ध, शषिर्जना चरित्र, देवचरित्र, या चित्रो घरमां शुज नथी; तथा फल वृक्ष, पुष्प वेल, सरख Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) जैनतत्त्वादर्श. ती, नव निधान, यज्ञस्तंन, लक्ष्मी देवि, कलश, वर्षमान, चौद खप्नावति, श्रा चित्रो शुज बे. __ खजूर, दाडम, केला, कोहलां, बीजोरां, जे घरमां उगे ते घरनो नाश थाय . वडवृद उगे तो लक्ष्मीनो नाश करे, कांटा वाला वृद उगे तो शत्रुनो लय करे, मोटा फलवाला वृक्ष उगे तो संताननो नाश करे, था वृदना काष्ठ पण वर्जे. कोश् शास्त्र एम पण कहे के, घरनी पूर्वे वडवृक्ष होय तो सारंडे, दक्षिण बाजुये उंबर वृक्ष शुज , पश्चिम पासे पीपल वृद अने उत्तर पासे प्लीक्षण वृद सारा ने. घरमा पूर्वदिशिये लक्ष्मीनुं घर करे, अग्नि खुणमां रसोश करे, दक्षिण दिशिये शयननी जगा करे, नैरुत खुणमां शस्त्रशाला करे, पश्चिमदिशिये नोजन क्रिया करे, वायु खुणमां अन्न संग्रह करे, उत्तर बाजुये पाणीश्रारं करे, इशान खुणमां देव गृह करे, दक्षिण पासे अग्नि, पाणी, गाय, वायु, अने दीवानी नूमिका बनावे, वामी बाजुये नोजन धान्य अव्य, वाहन, श्रने देवतानी नूमि बनावे; था पूर्वादि दिशा घरना दरवाजानी अपेदाये जाणवी, बींकवत्, सूर्य अपेक्षाये नहि. घर बनावनार सुथार, कडीश्रा, मजूरने करारथी अधिक मजूरी थापे, तेमां शोना समजवी. गृहस्थने योग्य घर बनावे, परंतु व्यर्थ मोटुं घरन बनावे, कारण के तेम करवायी व्यर्थ धन खरचाय . घरना छारो मर्यादा पूर्वक राखे. बहु धार बनावे नहि. अधिक घारथी, पुष्ट जनोना.प्र. वेशनी जय तथा स्त्री अने धननो तेथी नाश थायजे. दरवाजाना बारणां मजबुत बनावे, सांकल, बागलीपाथी सुरक्षित करे. कमाड पण सुखे खुले तेवा बनावे. नीतमा चुंगल राखवाथी पंचेंजिय जीवनी विराधना थायजे. कमाड वासे त्यारे यत्नाथी वासे; तेवीज रीते यत्नाथी उघाडे, परनाल, खाल विगेरे उचित बनावे. या प्रमाणे देश, काल, खवैजव उचित, खजाति उचित, घर बनावी, विधि सहित, स्नात्रपूजा, साधर्मीवात्सव्य, संघपूजा करी, शुज मुहूर्ते, शुन शुकने, प्रवेश करे तो सुखी थाय, त्रिवर्गनी सिझिना हेतु थाय. इति प्रथम कार. २ बीजं विद्याधार कहीये बीये. विद्या ते लखवं, जण, वाणिज्यादि कलानुं ग्रहण करवू, अर्थात् अध्ययन करवं. जे विद्यान्यास करता नथी, ते मूर्ख रहे, अने पगले Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम परिबेद. (भलए) पगले परानव पामे . विद्यावान् परदेशमां पण माननीय थाय बे, ते का, रणथी सर्व प्रकारनी कला शिखवी जोश्ये. कोण जाणे देत्र, कालना विशेषथी कश् कलाथी आजीविका करवी पडशे? जे सर्व कला शिख्या होय, ते ये पण पूर्वोक्त सात प्रकारनी आजीविकामांथी जे कलाश्री सुखे निर्वाह थाय, ते कलाथी आजीविका करवी. जो सर्व कला शिखवाने समर्थ न होश्ये, तो जे कलाथी, पोतानो निर्वाह सुखे थाय, अने परलोकमां सारी गति थाय ते कला शिखवी. पुरुषे बे वात निरंतर ध्यानमा राखवी, एक, जेथी सुखे निर्वाह थाय ते, तथा बीजी जेथी मरण पनी सद्गति थाय ते, आबने अवश्य शिखवी.३ हवे विवाहहार लखीये जीये. विवाह पण त्रिवर्ग शुझिनो हेतु होवाथी उचित करवो जोश्ये. अन्य गोत्रवाला साथे विवाह करवो जोश्ये. समान कूल, सदाचार, शील, रूप, वय, विद्या, धन, वेष, जाषा, प्रतिष्ठादि गुणोमा जे पोतानी समान होय, तेनी साथे विवाह करे, अन्यथा कुटुंबक्लेश, अवहे. लना प्रमुख अनेक विटंबना उत्पन्न थाय . श्रीमतीवत्. सामुजिक शास्त्रोक्त शरीरना लक्षण अने जन्मपत्रिका देखी, वरकन्यानी परीक्षा करी विवाह करे. ॥ यमुक्तं ॥ कुलंच शीलंचसनाथताच, विद्याचवित्तंच वपुर्वयश्च ॥वरेगुणाः सप्तविलोकनीया, स्ततः परंजाग्यवशाहि कन्या ॥१॥जोवर मूर्ख होय, निर्धन होय, दूर रेदेनार होय, सूरमो होय, वैराग्यवंत मोक्षाजिलाषी होय, वयमां कन्याथी त्रण गणो अधिक होय, तेवाने कन्या न देवी; वली अति धनवान्, अति नरम,अति क्रोधी, विकलांगी अने रोगी, तेवाने पण कन्या न देवी; तेमज कुल, जातिमां अतिहीन होय, मातपिताविनानो होय, स्त्री, पुत्र सहित जेने होय, तेने पण कन्या न देवी.व. ली जेने बहु जनोनी साथे वेर होय, दररोज कमाय तोज खावानुं साधन थाय तेम होय, आलसु होय, तेवाने पण कन्या न देवी. तथा जे एक गोत्री होय, व्यसनी होय, दरिज होय तेने पण कन्या न देवी. जे स्त्री, कपट रहितपणे जारनी साये वर्ते, देवरनी साथे पण कपट रहितपणे वर्ते, सासुनी नक्ति करे, सगा संबंधीनुं वात्सल्य करे, जामां स्नेहवाली होय, कमलनी जेम विकसित वदनवाली होय, ते कुलवधू सुलक्षणी जाणवी. ६२ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए) जैनतत्त्वादर्श. अग्नि देवनी सादीये पाणी ग्रहण कर ते विवाद कहेवाय जे. जगतमा विवाहना आर्यलोकमां आठ प्रकार . १ ब्राह्म, २ दैव, ३ श्रार्ष, ४प्राजापत्य, ५ गांधर्व,६ आसुर, राक्षस, अनेज पिशाच, जे वीवाहमां कन्यानो पिता पानेतर उंढाडी तथा अलंकार श्रापी पोतानी कन्या परणावे, ते ब्राह्मविवाह बे; जे विहाहमां यज्ञ करनार ब्राह्मणने कन्यानो पिता धर्मनी क्रिया करतां पोतानी कन्या आपे ते देव विवाह . जे वि. वाढमां कन्यानो पिता वरनी पासेथी गायनुं जोडं लश्वरने कन्या परणा- । वे ते आर्ष विवाह . श्रा बेला बे विवाह लौकिक वेदसम्मत ने. जैन वेदमां था विवाह नथी, कारण के था बे विवाहना मंत्रो जैनवेदमां नश्री; तेम प्रचलित व्यवहारमा पण नथी. जे विवाहमां कन्यानो पिता स. न्मान पूर्वक पोतानी कन्याने योग्य वरने आपे, ते प्राजापत्य विवाद . आ चारे प्रकारना विवाह लौकिक नीतिमुजब उत्तम प्रकारना . जेस्त्री. पुरुष मातापितानी श्राझाविना परस्पर रागथी पोतानी मेले विवाह करे, ते गांधर्व विवाह . जे विवाहमां कन्यानो पिता वरनी पासेथी अवेज सर कन्याने परणावे, ते आसुर विवाह . जे पुरुष कन्याने जोरावरीथी .. ग्रहण करे, ते राक्षस विवाह बे. जे पुरुष सुतेली, मदोन्मत्त, बावरी क- । न्याने ग्रहण करी लइ जाय ते पिशाच विवाह . पालना चारे विवाह अधम विवाह . जे विवाहमा वरवहुनी परस्पर बहुज प्रीति थाय, ते विवाह उत्तम प्रकारना विवाहमा गणाय , सारी स्त्रीनो लाज तेज वीवाहनुं फल . सारो पुत्र उत्पन्न थाय तेज स्त्री मलवानुं फल . जेम थवाथी चित्तवृत्ति अनुपहत रहे, शुद्धाचार रहे, देवगुरु, अतिथी, बांधव प्रमुखनो सत्कार थाय. विवाहमा धननो व्यय, पोताना कुल वैनवनी मर्यादा मुजब तथा शक्ति मुजब अने लोकमां वास्तविक लागे तेम करे, विशेष खर्च करवानी चाल करे नहि. अधिक खर्च तो धर्मना कार्योमा करवो वास्तविक . विवाहमां पण स्नात्र महोत्सव, महापूजा श्रादर सहित करे, नैवेद्यादि ढोवे, चतुर्विध संघनो सत्कार करे. विवाहना कार्यों संसार फलना आपे नारां बे, तेथी तेवा प्रसंगे धर्मकार्योमा व्यय थाय ते सफल .. ४ हवे मित्रधार कहीये बीये. उत्तम प्रकृतिवाला, साधर्मी, गुणवान् धै माटमा पण नो सत्कार भयोमा व्यवसाला, साध Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम परिछेद. (YPP) तमाससुधी सचित आहार वर्जे. आठमी प्रतिमा. आठ माससुधी पोते श्रारंभ न करे. नवमीप्रतिमा. नवमाससुधी बीजा पासे पण आरंभ करावे नहि. दसमी प्रतिमा, दस मास सुधी कुरमुंडित रहे, अथवा श्रल्प चोटली राखे. घरमांकां धन होय, छाने घर मांदेना को पुढे त्यारे कहे के हुं जाएं ढुं, ने जो न होय तो कहे जाणतो नथी, बाकी घरनुं सर्व काम वर्जे, पोताने निमित्ते घरमा जे आहार कर्यो होय ते पण न खाय. गरमी प्रतिमा. अगीयार माससुधी घरनो संग त्यागे, लोच करे, अथवा कुरमुंडित रहे, रजोहरण, पात्राप्रमुख लइ, मुनिनो वेष धारण करी स्कुलमा निक्षा लदे. मुखश्री एम कहे. “प्रतिमा प्रतिपन्नाय श्र मणोपासकाय निक्षां देहि " या प्रमाणे वचन बोले, परंतु धर्मलान शब्द न कहे. सर्व रीतिये साधुनी जेम प्रवर्ते. १० आराधना द्वार. अंतकाल समये श्रावक दश प्रकारनी आराधना के जेनुं स्वरूप गल कथन करवामां आवे छे ते, तथा संलेषणादि विधिपूर्वक करे. श्रावक ज्यारे सर्व धर्मऋत्यो करवाने अशक्त थाय, अने पोतानुं मरण पासे जाणे, त्यारे द्रव ने जावथी संलेषणा करे. द्रव्य संलेषणा ते अनुक्रमें आहारनो त्याग करे, अने नाव संलेषणा ते, क्रोधादि चारे कषायनो त्याग करे. पोतानुं मरण निकट बे एम श्र लक्षणोथी जाणे. ९ बुरा स्वप्न आता होय, २ प्रकृति, स्वनावमां फेरफार थयो होय, पुर्निमित्त मलतां होय, ४ मोठा ग्रहनो योग थयो होय ५ आत्म आ चरण विकृति पाम्या होय, वा कोइ देवतानी सहायथी जाणवामां श्रावे. जे द्रव्यथी तथा नावथी संलेषणा न करे, अने अनशन करी दे, तो तेवा जीवने प्रायः दुर्ध्यान थवाथी कुगति थाय बे, ते कारणथी संलेषणा अवश्य करे. पी धर्मना उद्योत वास्ते संयम अंगीकार करे. एक दि. वस पण दिक्षा ग्रहण करी संयम पालवामां आवे तो स्वर्ग प्राप्त थाय बे. जेम नल राजाना जाइ कुबेरना पुत्र सिंहकेशरीए मात्र पांच दिवसनी दिक्षार्थी केवलज्ञान प्राप्त कर्यु ने मोद गया; तथा हरिवाहन रा जाए पोतानुं श्रायुष्य मात्र नव प्रहर बाकी जाणी दिक्षा लीधी अने सर्वार्थसिद्ध विमाने गया. श्रावक दिक्षा श्रवसरे तेमज संथारा समये प्रजावना वास्ते यथाशक्ति धन खरचे. जेम थिरापद्रीय संघपति - Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) जैनतत्त्वादर्श. नूए ते अवसरे साते क्षेत्रमा सातकोड धन वापर्यु. वली संयमनो योग न थाय तो शत्रुजयादि तीर्थोए सुस्थानमां जश्, संलेषणा करी, निर्दोष स्थंडिलमां विधि पूर्वक चार थाहार त्यागरूप आणंद, कामदेव श्रावकोनी जेम अनशन करे. पनी सर्व अतिचारना परिहार चार शरणादिरूप श्राराधना करे. श्राराधना दश प्रकारे थाय बे. १ सर्व अतिचार आलेवे, २ व्रत उचरे, ३ सर्व जीवो साथे खमावे, ५ पोताना आत्माने अढार पापस्थानकोथी व्युत्सर्जन करे, ५ चार शरण ग्रहण करे, ६ गमना गमन कुकृतोनी गर्हणा करे, ७ जे कोइए जीनमंदिरादि सुकृतो कर्यां होय, तेर्डनी अनुमोदना करे, शुज नावना जावे, ए अनशन करे, अर्थात् चार आहार वा त्रण श्राहारनो त्याग करे, १० पंच नमस्कारचं स्मरण करे. श्रा प्रमाणे श्राराधना करवाथी जो ते नवमां मुक्ति प्राप्त न थाय, तो पण सुदेव अथवा सुमनुष्यना श्राउ नव करी अवश्य ते आत्मा मोक्षरूप थाय. श्रा प्रमाणे गृहस्थधर्म करवाथी निरंतर गृहस्थ लोको पा लोक परलोकमां सुख प्राप्त करे बे, अने परंपराए मोक्ष प्राप्त करे . इति श्री श्राझविधि अनुसार श्रावकस्य जन्म कृत्यादि स्वरूपं संपूर्णम् ॥ इति श्री तपगबीय मुनि श्री मणि विजयगणि तबिष्यमुनि श्री बु. झिविजय तविष्य मुनि श्री मुक्तिविजयगणि तस्य लघु गुरुत्रातृ मु. नि आत्माराम आनंद विजय विरचिते जैनतत्त्वादर्श गृहस्थधर्मनिरुपण नामा दशमः परिछेदः ॥ १० ॥ ॥श्रथ एकादश परिछेद प्रारंजः॥ श्रा परिवेदमां श्री रिषजदेव नगवानथी, श्री महावीर स्वामि पर्यंत जैनमतादि शास्त्रानुसार इतिहासरूप पूर्व वृत्तांत लखीए बीए, जेश्री था ग्रंथना वांचनाराउने जैननो सेहेज इतिहास जाणवामां आवशे. वर्तमान समयमा केटलाएक जव्य जीवोनी एवी जीज्ञासा डे के जैनमत क्यारथी प्रचलित थयेल ? वली केटलाएकने एवी ब्रांति ने के, जैनमत बौछमतनी शाखा बे, केटलाएक कहे जे के बौद्धमत जैनमतनी शाखा ने, कारण के तेउनु मानवु एवं के श्रा बने मतो कोश का Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश परिजेद. (५०) लमा एक हता, परंतु श्राचार्योमा मतनेद थवाथी एक मतना बे विजाग, जैन अने बौद्ध थया . वली केटलाएक कहे जे के संवत् ५०० नी लगलग जैनमत उत्पन्न थयेल , अने कोश्क कहे जे के विष्णु जगवाने दैत्योने धर्मन्रष्ट करवावास्ते अहंतनो अवतार धारण करेलो बे, वली कोश्क कहे जे के मबंदरनाथना शिष्योए जैनमत चलाव्यो बे; इत्यादि अनेक दंतकथा चाले बे, ते सर्व जैनमत न जाणवानुं कारण बे. जेम चमार लोको कहे जे के बानु अने चामु बे बेहेनो हती, तेमां बानुनी उलाद सर्व अग्रवालादि वाणीया थया, अने चामुनी उलाद अमे चमार बीए, ते कारणथी वाणीया अने चमार एक वंशना , ह. वे विचार जोशए के चमारोनुं श्रा बोलवू शुं वास्तविक ? अने बुशिवान लोको गुंते बोलवू सत्य मानशे ? तेवीज रीते जे कोश् खमतिकल्पनाथी वा दंतकथा श्रवण करवायी जैनमतनी उत्पत्ति मानशे, ते पण जैनी ने हसवा लायक थशे. सारांश ए बे के प्रथम तो कोश पण मतवाला जैनमतना मूलतत्वोने जाणता नथी. जुर्व के शंकरदिविजय ग्रंथमां श्रीशंकरखामिए जैनमतनुं जे खंडन बखेल डे ते वांचतां अमने हसवं आवे जे. ज्यारे शंकरस्वामिए जैनमतनुं स्वरूपज जाण्यु नथी, त्यारे तेनुं करेलुं जैनमतनुं खंडन, ते पुरुषनी बायाने पुरुष जाणीने लाकडीथी मारवा सर जे. ज्यारे शंकरखामिनेज जैनमतनी माहिती नहोती,तो वर्तमान कालना सामान्य विज्ञानोनी माहिती माटे सुं कहे ? ते कारणथी सर्वे जीज्ञासुने बहुज नम्रता पूर्वक विनंति करीए बीए के जैनमतनो सारी रीते अभ्यास करी, जैनमतनुं खंडन मंडन करवं, नहीं तो शंकरखामि अने रामानुज आचार्योनी जेम तमे पण हसवा योग्य थ पडशो. सजनोने जाणवा वास्ते प्रथम श्रा जगतनुं काश्क स्वरूप लखीए बीए. आ जगतने जैनी अव्यार्थिक नयना मतथी शाश्वत अर्थात् प्रवाह रूपे निरंतर एबुंज माने बे. श्रा जगतमां प्रकारे काल वर्ते बे, तेनेज जैनी आरा कहे . एक अवसर्पिणी काल, अर्थात् सर्व सारी वस्तुनो अनुक्रमे नाश करतो करतो जे काल व्यतीत थाय, तेना उ विजागो , अने बीजो उत्सर्पिणी काल अर्थात् सर्व सारी वस्तुउँने Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०२ ) जैनतत्वादर्श. अनुक्रमे वृद्धिमान् करतो करतो जे काल व्यतीत थाय, तेना पण व विair . दश कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण एक अवसर्पिणी काल, अने तेटलाज सागरोपम प्रमाण एक उत्सर्पिणी काल बे. एक सागरोपम संख्याता वर्षोनो थाय बे. तेनुं स्वरूप जैन शास्त्रथी जावं. एक अवसर्पिणी ने एक उत्सर्पिणी मली एक कालचक्र थाय बे, श्र र्थात् वीश कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण एक कालचक्र बे. एवा का लचक अनंता भूत कालमां व्यतीत थया, धने प्रविष्यमां पण व्यतीत थशे. अवसर्पिणी काल पुरो थतां उत्सर्पिणी काल प्रारंभ थाय बे, ने उत्सर्पिणी काल पुरो यतां अवसर्पिणी कालनो प्रारंभ घाय बे. एवीज रीतेनादि अनंत काल सुधी या प्रमाणेज व्यवस्था रहेशे. हवे व आरानुं स्वरूप लखीए बीए. अवसर्पिणीनो प्रथम श्रारो सुषमसुषम चार कोटाकोटी सागरोपद्म प्रमाण बे. ते कालमां भरत क्षेत्रनी भूमि बहुज सुंदर, रमणीय, मदलना तल समान सम हती. ते कालना मनुष्य जक, सरल स्वजावी, अल्प रागद्वेषी तथा अल्प मोह, काम, क्रोधादि युक्त हता, सुंदर रूपवान्, निरोगी हता. दश जातिना कल्पवृक्षोथी पोतानां खावा, पीवा, पेहेरवा, सुवा विगेरे सर्व व्यवहारना कार्यों करी लेता दता. एक पुत्र ने एक पुत्री; वेनुं युगल जन्मतुं हतुं. ज्यारे बने यौवनवंत घता हता, त्यारे ने जाइ बेहेन, स्त्रीजरतारनो संबंध करता हता. तेने वली ते. वीज रीतें युगल प्रसवता हता. ते पण पूर्वोक्त व्यवहार करता हता. जैनमतना माप सुजव त्रण गाउ ( कोस ) प्रमाण तेर्जना शरीरनी जंचाइ हती. त्रण पल्योपम प्रमाण आयुष्य इतां. बसो बपन पृष्ठकरंडना हाड हतां धर्मनो नाव हतो. जीवहिंसा, सत्यता, चोरी प्रमुख पाप पण विशेष नहोतां. वृक्षोमांज रहेता हता. युगल समुहो पण गणतरीमां थोडा हता. वाकी चतुष्पद पंचेंद्रिय, पक्षी प्रमुख सर्व जातिना जीव हता. ते पण सर्वे जनक हता. शुक नहोता. शालि प्रमुख सर्व नाज ने प्रमुख सर्व वस्तु सर्व जंगलोमां स्वयमेव उत्पन्न यती हती. ते कांइ मनुष्योना खानपानादिमां उपयोगमां श्रावती नहोती. मनुष्यो तो मात्र कल्पवृक्षोना फलफूलोनोज श्रहार करता हता. वस्त्रने Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश परिछेद. (५०३) बदले वृदोनी बाल तथा पांदडां पेहेरता, उढता हता. इत्यादि सर्व बा - बतनुं प्रथम श्रारानुं स्वरूप जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति प्रमुख शास्त्रोथी जावं. art सुषमण कोटाकोटी सागरोपम, तेमां बे गाउ (कोश) नुं देहमान, बे पढ्योपमनुं श्रायुष्य, एकसो थहावीश पृष्ठकरं रुकनां हाड हृतां. शेष व्यवहार प्रथम धारा जेम हतो. त्री जो आरो सुषमडुषम; बे कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण एक गाउ देहमान, एक पल्योपम श्रायुष्य, चोसठ पृष्ठकरंडक हाड इतां. शेष व्यवहार प्रथम धारा प्रमाणे हतो. या सर्व आरामां सर्व वस्तु अनुक्रमे घटती बेवढे श्रगलना श्रारा तुल्य रहे बे, परंतु एक साथे सर्व वस्तु एकदम घटती नथी. ए प्रमाणे त्रीजा श्राराने बेडे एक वंशमां सात कुलकर उत्पन्न थया. जेए ते कालना मनुष्यो वास्ते कांइक मर्यादा बांधी होय ते कुलकर कदेवाय बे. तेज सात कुलकरोने लौकिकमां सप्त मनु कहे बे. बीजा वंशोना कुलकर गणीयें तो श्री रुषनदेवजी शिवाय चौद कुलकर थाय बे, ने श्रीकृषनदेवजी पंदरमां कुलकर गणाय बे. पूर्वोक्त सात कुलकरोना नाम. १ विमल वाहन, १ चक्षुष्मान्, ३ यशखान्, ४ निचंद्र, ए प्रश्रेणि, ६ मरुदेव, ७ नानि. या सातेनी नार्यानाम अनुक्रमे प्रमाणे. १ चंद्रयशा, २ चंद्रकान्ता, ३ सुरुपा, ४ प्रतिरूपा, ९ चक्षुः कान्ता, ६ श्रीकान्ता, ७ मरुदेवी. या सर्व कुलकर गंगा सिंधु नदीना मध्य खंडमां थया बे. या कुलकर यवानुं कारण एवं बे के, त्रीजो खरो उत्तरतां, दश जातिना कल्प वृको कालना दोषथी अल्प थइ गया, तेथी युगलीयाए पोतपोताना वृद्धोपर ममत्व कर्यो. ज्यारे बीजा युगलीचाए राखेला वृक्षोथी फल लेवा लाग्या, त्यारे ममत्ववाला युगलो तेर्जनी साथे क्लेश करवा लाग्या, युगली या पुरुषोने वो विचार थयो के मारा क्लेशनो निवेडो लावे तेवो को पुरुष थाय तो सारुं; तेवामां ते युगली धार्ड मध्येथी एक युगलने वनना एक श्वेतहाथीए प्रेमची पोताना स्कंध उपर चडाव्यो. ज्यारे ते युगल पुरुष एकलो हाथी उपर चढी फरवा लाग्यो, त्यारे बीजा युगलो विचार करवा Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०४ ) जैनतत्त्वादर्श. लाग्या के, या युगल अमारामां मोटोडे; कारण के ते हाथी उपर चढी फरेबे, नेमे तो पगे चालीये बीये, तेथी तेने न्यायाधीश बनाववामां आवे तो सारं, अर्थात् ते जे कहे ते श्रमारे मानवुं पढी ते ए तेने न्यायाधीश बनाव्यो. जे कारणथी हाथीए युगलने पोतानी उपर चडाव्यो ते कारण, तथा तेर्जना पूर्व जवोनी कथा श्रावश्यकसूत्र तथा प्रथम अनुयोगथी जावी. न्यायाधीश युगल विमलवाहने सर्व युगलियाने कल्पवृक्षो वेहेंची प्यां. जे युगल पोताना वृद्धथी संतोष नही पामतां, बीजाना वृक्षथी फल लेवा लाग्या, तेनी साथे क्लेष थतां, ते असंतोषी युगलो ने विमलवाहन पासे लाववामां आवता हता. विमलवाहन तेजने कड़ेतो के " हा " तमे श्र शुं कर्यु ? त्यारथी विमलवाहने हाकारनी दंडनीति प्रवर्त्तावी. ते हाकार दंडनी तिथी फरी ते तेवा काम करता नहोता. पढी ते विमलवाहनना पुत्र चक्षुष्मान् थया; ते पण पोताना पितानी जेम राजा अर्थात् कुलकर थया. तेना वखतमां पण हाकारज दंड रह्यो. तेने यशस्वान् नामा पुत्र थया, यशस्वान्ने श्रमिचंद्र नामा पुत्र थया. | या वनेना समयमां थोडा अपराधवालाने हाकार दंड ने विशेष अ पराधवालाने मकार दंड, अर्थात् या काम न करयुं, या वे दंडनीति प्रवर्ती श्रमिचंद्रना पुत्र प्रश्रेणि यया प्रश्रेणिना पुत्र मरुदेव थया, अने मरुदेवना पुत्र नानि थया. या त्रण कुलकरोना समयमां हाकार, मकार, घने धिक्कार, या त्रण दंडनीति प्रवर्ती. तेमां थोडा अपराधी ने हाकार, मध्यम अपराधी ने मकार ने उत्कृष्ठ अपराधीने धिक्कार दंड करता हता. नानि कुलकरने मरुदेवी नामा जार्या हती. या नाजिकलकर इक्ष्वाकु भूमि अर्थात् विनिता नगरीनी भूमिमां विशेष काल निवास करता हता. या भूमि काश्मीर देशनी उपर हती, कारण के विनिता नगरीनी चारे बाजुए चार पर्वत इता. पूर्व दिशिमां श्रष्टापद - र्थात् कैलास गिरि, दक्षिण दिशिमां महाशैल्य, पश्चिम दिशिमां सुरशैल्य, ने उत्तर दिशिमां उदयाचल पर्वत, हता. ते नानिकुलकरनी मरुदेवी नामनी जार्यानी कुक्षिमां श्राषाढ वद चोथनी रात्रि सर्वार्थसिद्ध देवलोकथी चवीने श्रीरीषजदेवनो जीव, Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम परिवेद. . (५०५) गर्नमां पुत्रपणे उत्पन्न थयो. मरुदेवीये चौद खप्नो दीगं. महाराजे खप्न फल कह्यां. चैत्र वद आउमने दिवसे श्रीरीषनदेवजीनो जन्म थयो. बप्पन दिशाकुमारी तथा चोसठ इंजोये मली जन्म महोत्सव कों. मरुदेवीये चौद स्वप्नमां प्रथम वृषजनुं स्वप्न दीवु, तथा पुत्रना बंने साथलोमां वृदननु चिन्ह हतुं, ते कारणथी पुत्रनुं नाम रीषन पाड्यु.। बाल्यावस्थामा श्रीरीषनदेवजीने ज्यारे नूख लागती हती, त्यारे पोताना हाथनो अंगुगे मुखमां लश् चूसता हता. ते अंगुगमा इंजे अमृतनो संचार कयों हतो. ज्यारे रीषनदेवजी मोटा थया त्यारे देवता तेमने कल्पवृदाना फल लावी आपता हता. ज्यारे रीषजदेवजी काश्क न्यून वर्षना थया, त्यारे इंड तेमनी पासे श्राव्या, हाथमा कुदंड लाव्या, रिक्त हाथे स्वामि समीप जवु उचित नथी ते कारणथी गुदंड लाव्या. श्रीरीषजदेवजी ते वखते नाभिकुल करना खोलामा बेग हता. श्री. रीषनदेवजीनी दृष्टि श्खदंड उपर पडी; इंझे कडं जगवन्! आप कुनक्षण करशो? रीषनदेवजीये हाथ पसार्यो. ईश श्वदंड थाप्यो; त्यारथी छे रीषजदेवजीनो श्वाकु वंश स्थापन कयों; अने श्रीरीषनदेवजीना वंशवालाये काशकार पीधो, तेथी गोत्रनुं नाम काश्यप थयु. श्रीरीषनदेवजीना जेजे वयमा जेजे कामो उचित हतां, तेते सर्व शक इंडे काँ. जेजे शक्रसो थाय ने तेऊनो अनादि कालथी आ जीतकल्प बे, के प्रथम जगवानना वयोचित सर्व काम करवां. ते अवसरे एक बोकरो अने एक बोकरी, बेहेननाश् बाल्यावस्थामां ताडवृदनी नीचे रमता हता. ते समये ताडनुं फल पडवाथी बोकरो मरी गयो. नाजिकुलकरे ते समये विचार कर्यों के आगेकरी रीषजदेवनी जार्या थशे एम निश्चय करी पोतानी पासे राखी. तेनुं नाम सुनंदा हतुं. बीजी जे रीषजदेवजीनी साथे जन्मी हती, तेनुं नाम सुमंगला हतुं. ते बंनेनी साथे रीषनदेव बाल्यावस्थामा रमता हता, अनुक्रमे यौवन प्राप्त थये इंजे विवाहनो प्रारंज को. पूर्वे युगल समयमा विवाह विधि नहोतो, ते कारणथी आ विवाहमा पुरुषनां कृत्यो तो सर्व इंजे कर्यां, अने स्त्रीना कृत्य सर्व इंशाणीये काँ, त्यारथी विवाह विधि जगतमां प्रचलित थश्. श्रीरीषजदेवजीने बंने नार्याउनी साथे सांसारिक विषयसु Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ तीर्णनाव, २५ अकला,स्मक, डा क, ३२ का (५०६) जैनतत्त्वादर्श. ख जोगवतां ज्यारे 3 लाख पूर्व व्यतीत थया, त्यारे सुमंगला राणीने जरत अने ब्राह्मी युगल जन्म्या, अने सुनंदाने बाहुबली अने सुंदरीयुगल जन्म्या. पनी सुनंदाने तो बीजा पुत्र पुत्री जन्म्या नहि, परंतु सुमंगलाने गणपचास पुत्रोना जोडलां जन्म्या. सर्व मली सो पुत्र अने बे पुत्री श्रीरीषनदेवजीना थया. तेऊना नाम लखीये बीये. १.नरत, २ बाहुबली, ३ श्रीमस्तक, ४ श्रीपुत्रांगारक, ५ श्रीमबिदेव, ६ अंगज्योति, ७ मलयदेव, नार्गवतार्थ, ए बंगदेव, १० वसुदेव, ११ मगधनाथ, १५ मानवर्तिक, १३ मानयुक्ति, १५ वैदर्नदेव, १५ वनवासनाथ, १६ महीपक, १७ धर्मराष्ट्र, १० मायकदेव, १ए श्रास्मक, २० दंडक, १ कलिंग, २२ षकदेव, २३ पुरुषदेव, २४ अकल,२५ जोगदेव, ५६ वीर्यजोग, २७ गणनाथ, २ तीर्णनाथ, श्ए अंबुदपति, ३० आयुवीर्य, ३१ नायक, ३२ काक्षिक, ३३ श्रानर्तक, ३४ सारिक, ३५ ग्रहपति ३६ करदेव ३७ करनाथ, ३७ सुराष्ट्र, ३ए नर्मद, ४० सारखत, ४१ तापसदेव, ४श्कुरु, ४३ जंगल, १४ पंचाल, ४५ शूरसेन, ४६ पुट, ४ कालंगदेव, ४ काशीकुमार, ४ए कौशल्य, ५० नकाश, ५१ विकाशक, ५२ त्रिगर्त, ५३ श्रावर्ष, ५४ सालु, ५५ मत्स्यदेव, ५६ कुलियक, ५७ मुषकदेव, ५७ वादहीक, एए कांवोज, ६० मधुनाथ, ६१ सांजक, ६२ आत्रेय, ६३ यवन, ६४ श्रानीर, ६५ वानदेव, ६६ वानस, ६७ कैकये, ६० सिंधु, ६ए सौवीर, 50 गंधार, ७१ काष्ठदेव, ७२ तोषक, ७३ शौरक, व नारद्वाज, ७५ शूरदेव, ७६ प्रस्थान, ७७ कर्णक, 3 त्रिपुर नाथ, ए अवंतिनाथ, ७० चेदिपति, र विष्कंन, २ नैषध, ३ दशार्णनाथ, व कुसुमवर्ण, ५ नूपालदेव, ७६ पाल प्रजु, ७ कुशल, 3 पद्म, नए महापद्म एक विनिज, ए१ विकेश, एश् वैदेह, ए३ कबपति, एव नजदेव, एए वनदेव, ए६ सांजनज, एs सेतज, एG वत्स एए अंगदेव, १०० नरोत्तम, श्रीरीषजदेवजीना सो पुत्रोनां नाम कह्यां. ते अवसरे जीवोना कषाय प्रवल थ जवाथी पूर्वोक्त हकारादित्रणे दंडनो जय मनुष्यो नही करवा लाग्या. ते वखते श्रीरीषजदेवजान ज्ञा नादि गुणोमां सर्वथी अधिक लोकोये देखवाथी, ते युगल लोकोये तेमने विनंति करी के हालमांसर्व लोक दंडनो नय करता नथी, श्रीरीषजदे. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दशम परिबेद. (५०) वजी गर्नमां पण मति, श्रुत, अवधि, एत्रज्ञान संयुक्त हता.श्रीरीषनदेवजीना पूर्व जवोनो वृत्तांत श्री आवश्यक सूत्र तथा प्रथमानुयोगश्री जाणवो. श्रीरीषनदेवजीये युगलक पुरुषोने कयु के जे राजा थाय ने ते दंड करे . राजा, मंत्री, कोटवालादि सेना संयुक्त होय बे, अने ते कृताजिषेक होय , अने तेनी आज्ञा अनतिक्रमणीय होय . एवा वचनो श्रीरीषजदेवजीना श्रवण करी मिथुनको बोल्याके एवो राजा अमारोपण नले था! श्रीरीषजदेवजीये कडं के जो तमारी एम वांबा होय तो नानिकुलकर पासे जर ते प्रमाणे याचना करो. मिथुनकोये नाजिकुलकरने ते प्रमाणे विनंति करी. नानिकुलकरे कडं के जारीषनदेव. जी तमारा राजा थया. पड़ी मिथुनको श्रीरीषनदेवजीनो राज्याभिषेक करवावास्ते पद्मिनी सरोवरमां गया. ते अवसरे अनुं श्रासन कंपायमान थयु. जे अवधिज्ञानश्री राज्याभिषेकनो अवसर जाणी अहींआ श्रावी श्रीरीषजदेवजीनो राज्याभिषेक कर्यो. मुकुटादि सर्व अलंकार जे राजाने योग्य हता ते पेहेराव्या. ते समये मिथुनक लोको पद्मसरोवरमांथी नलिनी कमलोमां पाणी लाव्या.तेयेावीने प्रजुनें अलंकृत दीग, त्यारे सर्व जनोये रीषनदेवजीना चरण कमल उपर जल रेडी दीधुं. मनमा विचार कयों के मिथुनको अति विनीत बे; तेथी वैश्रमणने श्राज्ञा करी के श्रा विनीतोने रहेवावास्ते विनीता नामा नगरी बनावो ? वैश्रमणे विनीता नगरी बनावी अने युगलीया तेमां वश्या. तेनुं स्वरूप श्रीशत्रुजयमहात्म्यथी जाणवू. संग्रह वास्ते श्रीरीषनदेवजीना राज्यमां हाथी, घोडा, गाय, बलद प्र. मुख वनमाथी पकडी लाववामां आव्या. श्रीरीषनदेवजीये चार प्रकारनो संग्रह कर्यों. १ उग्रा, ५ नोगा, ३ राजन्या, ४ क्षत्रीया. जेउँने कोटवालनी पदवी थापी ते दंड करनार होवाथी उग्रवंशी कहेवाया. जेऊने गुरु अर्थात् वडील तरीके उंचामान्या ते जोगवंशी कहेवाया. जेऊ श्रीरीषनवेवजीना मित्र थया ते राजन्यवंशी कहेवाया. बाकीनार्ड क्षत्रियवंशी कड़वाया. ज्यारे कल्पवृदोना फलोनो बजाव थयो त्यारे पक्काहार खावानो व्यवहार शीरीते शुरु भयो तेनो विचार लखीये डीये. कालना प्रजावथी Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (40) जैनतत्त्वादर्श. कल्पवृक्ष फलो आपता बंध थया, जेथी लोको बीजा वृदोना कंद, मूल, पत्र, फूल, फल खावा लाग्या. केटलाएक कुरस पीवा लाग्या, अने काचा अनाज खावा लाग्या. केटलाएक दिवसो गया बाद ज्यारे लोकोने काचं अनाज पचवा न लाग्युं, त्यारे रीषनदेवजी पासे ते श्राव्या. रीषनदेवजीए कडं के,तमे हाथवती अनाज मसली फोतरा काढी नाखी खा. केटलाएक दिवसो पनी ते पण न पचवा लाग्या, त्यारे बीजी रीते काचा अनाज खावानी विधि बतावी; ए प्रमाणे अनेक रीते काचा अनाज खावानी रीत बतावी तोपण काल दोषथी अनाज पाचन न थवा लाग्यु. ते अवसरमां जंगलोमां वांस प्रमुखना घसावाथी अनि उत्पन्न थयो. प्रश्नः- तमे कहो लो के श्रीरीषनदेवजीने जातिस्मरण अने अवधिझान हतुं, तो पड़ी रीषनदेवजीए प्रथमश्रीज अग्नि बनाववानी तेमज ते अग्निथी अनाज रांधीने खावानी विधि केस न बतावी ? उत्तरः- हे नव्य ! एकांत स्निग्ध कालमा तेमज एकांत रुदकालमां अग्नि को पण वस्तुथी उत्पन्न यश् शकती नथी. कदाचित् कोश् देवता महाविदेह क्षेत्रणी अग्निने अहींा लइ पण आवे, तो पण ते अग्नि तत्काल लवाइ जती हती. तेज कारणथी अनिधी पकावी खावानो उपदेश कर्यों नहोतो. हवे ज्यारे अग्निने तृणादि दाह करता देखी, अपूर्व रत्न जाणी ते पकडवा लाग्या, त्यारे तेजेना हाथ दाऊवा लाग्या, तेथी जयज्रान्त थर दोडता वीश्रीरीपनदेवजीने तेए सर्व वृत्तांत कह्यो.रीषन देवजीए तेउने अग्नि लाववानी विधि बतावी. ते विधि प्रमाणे अग्नि घरमां लावी तेएरीषनदेवजीने विनंति करी के हवे अमारे शुं करवू ? रीषनदेवजीए हस्ति उपर बेठां थकांसाटीतुं एक कुंडु बनाव्यु. तेमां अनाज पाणी नाखी अग्नि उपर पकावी, रांधी खावानी सर्व विधि बतावी, जेना हाथथी प्रथम ते कुंडं पकडाव्यु, अने जेने ते बनाववानी विधि बतावी ते कुंजार नामथी प्रसिद्ध थया; ते कारणथी कुंजार प्रजापति कहेवाय . धीमे धीमे सर्व प्रकारना अनाज अनेक रीतथी पकावी खावानी विधि प्रवृत्त थ गइ. सर्व विधि श्रीरीषनदेवजीएज बतावी . हवे शिल्पकार कहीये बीये. श्रीरीषजदेवजीना उपदेशथी पांच मूल Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१६) जैनतत्त्वादर्श दानादि शुं शुं अनुष्ठान में कर्यां जे ? जेथी हुँ देवता थयो, ज्ञानथी जोता पोताना शिष्य आसुरीने ग्रंथार्थज्ञानशुन्य दीठो. विचार कर्यों के मारो शिष्य कंश पण जाणतो नथी, तेने कांशक तत्त्वनो उपदेश करूं तो वीक. एवो विचार करी कपिल देवता आकाशमां पंचवर्णना मंडलमां रही, पोताना शिष्यने तत्त्वज्ञाननो उपदेश करवा लाग्या. यथा-श्रव्यक्तथी. व्यक्त प्रगट थाय ; ते अवसरे षष्ठितंत्रशास्त्र श्रासुरीए रच्यु. तेमां एवं कथन कर्यु के प्रकृतिमाथी महान् थाय ,अने महान्थी अहंकार थाय ने, अहंकारथी गण षोडश थाय ने, गणषोडशथी, पंचतन्मात्रा थाय बे, अने पंचतन्मात्राथी पंच महाभूत थाय , इत्यादि स्वरूप था ग्रंथमां पूर्वे सांख्यमां लखी आव्या बीये. तेऊना संप्रदायमां नामीसंख नामा आचार्य थया, त्यारथी ते मतनुं नाम सांख्यमत प्रसिद्ध अयु. वास्तविक रीते सर्व परिबाजक संन्यासीउँना लिंग आचारादि धर्मनुं मूल मरीचि थयो, ते सांख्यमतना तत्वो हाल पण जगवद्गीता तथा जागवतादि ग्रंथोमां अने सांरख्यमतना शास्त्रोमा प्रचलित . एक जैनमतविना बीजा सर्व मतो, मूल आ मतथीज समजबुं जोश्ए. ___ ज्यारे श्रीरीषनदेवजीने केवल ज्ञान उत्पन्न थयुं. त्यारे जरतने पण तेज रोज आयुद्धशालामां चक्ररत्न उत्पन्न थयु. जेथी जरते जरत क्षेत्रना बए खंडोमां पोतानुं राज्य स्थापी आज्ञा मनावी, तेज कारणथी तेनुं नाम नरतखंड प्रसिद्ध थयु.. __ ज्यारे जरते पोताना नाना नाने आज्ञा मनाववा वास्ते दूत मोकट्या, त्यारे तेजेए विचार कयों के राज्य तो अमने पिताश्री आपी गया . तो पनी जरतनी आज्ञा अमारे शा वास्ते मानवी जोश्ये ! चालो पिताश्री पासे जश् सर्व वृत्तांत कहीयें. जो पिताजी कहेके तमे जरतनी श्राझा मानो तो पढी अमे बरतनी श्राज्ञा मानीशु, अने पिताजी कहेके तमे जरतनी साथे लडो, तो पड़ी श्रमे जरतनीसाथे लडद्यु, एवो विचार करी अहाणु नाज़ कैलास पर्वत उपर श्रीरीषजदेव जगवान पासे गया. जगवान तेऊना अंतःकरणना अनिप्राय जाणी तेजेने उपदेश करता हवा. श्री नगवाने जे उपदेश कयों ते श्रीसूत्रकृतांग सूत्रना बीजा वैतासीय अध्ययनमा लखेलले, ते उपदेश श्रवण करी जगवानना श्र Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दकादश परिवेद. (५१७) घाणु पुत्रोए दीक्षा लश लीधी. सर्व तकरार तजी दीधी. तेम बनवाथी जरतनी अपकीर्ति यश तेथी जरत चक्रवर्ती पांचसो गाडां पक्कानना लावी समवसरणमां ाव्या, अने कदेवा लाग्या के हुं मारा जानने जोजन करावीश, अने मारो अपराध क्षमा करावीश. श्री रीषनदेव नगवाने कडं के, एवो आहार साधुने कल्पे नहीं. ते सांजली जरत मनमा बहुज उदास थया. तेमणे पनी पुब्यु के नगवन् था थाहार कोने खवरावं ? त्यारे इंजे कडं के तमाराथी जेठ गुणोमां अधिक होय तेउँने श्रा जोजन आपो.जरते विचार कर्यों के माराथी गुणाधिक तो श्रावक , तेथी तेने नोजन करावं,एवो निश्चय करी सर्वे गुणवान श्रावकोने नोजन कराव्यु.वली ते श्रावकोने जरतजीए कह्यु के तमे सर्वे प्रतिदिन मारुं जोजन कर्या करो ? तमारे खेती वाणिज्यादि कांश पण काम करवू नहिं. निःकेवल खाध्याय करवामां तत्पर रहो.लोजन करी मारा मेहेलोना दरवाजा पासे बेसी आप्रमाणे कहो “जीतो जवान् वईते जयं तस्मान्माहन माहनेति" ते श्रावको पण तेमज करता हवा. जरत राजा तो जोगविलासमां मन रहेता हता, परंतु ज्यारे श्रावकोना शब्दो सांजलवामां श्रावता हता त्यारे मनमां विचारता हता के हुँ कोनाथी जीतायो ९ ? विचार करतां निश्चय थयो के क्रोध, मान, माया अने लोज, आ चारे कषायोए मने जीतेल . अने तेनाथीज जयनी वृद्धि, एवा निश्चयात्मक विचारथी जरतजीने नारे वैराग्य उत्पन्न थतो हतो. अनुक्रमे रसोइ जमनारा श्रावको बहु वधी गया, तेश्री रसोइ करनाराजेए आवीने जरत महाराजने विनंति करी के श्र समुदायमां श्रावक कोण , अने कोण नथी ? ते श्रमे जाणी शकता नथी. नरतजीए तेजने कडं के तमे पुबीने तेउने नोजन करावो. रसोश्वार्जए जमनाराउने पुबतां, जे श्रावकना पांच अणुव्रत त्रण गुणव्रत श्रने चार शिक्षाव्रत धारण करनारा हता, ते ने श्रावक मानी जरत महाराज पासे तेने लाववामां श्रावता हता. नरत महाराज तेजेना शरीर उपर कांकणी रत्नथीत्रण त्रण रेखाना चिन्ह करता, अने दर उ महीने तेउनी परीक्षा करवामां श्रावती हती. ते सर्व श्रावक ब्राह्मणना नामथी प्रसिक थया; कारणके ज्यारे चरत महाराजना दरवाजा पासे ते माहन माहन शब्द वारंवार उच्चार करता हता, Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (U2G) जैनतत्त्वादर्श. त्यारे लोको तेने माइन माइन कड़ेवा लाग्या. जैनमतना शास्त्रोमां प्राकृत जाषामा हाल पण ब्राह्मणोने माहन शब्दधी लखेल बे; संस्कृत ब्राह्मण शब्द बे, ते प्राकृत व्याकरणमां बंजण तेमज माहणना स्वरूपथी सिद्ध थाय बे, श्री अनुयोगद्वार सूत्रमां ब्राह्मणोना नाम “ बुद्ध सावया " अ र्थात् वडा श्रावक लखेल बे. ए प्रमाणे ब्राह्मणोनी उत्पत्ति बे, ते बाह्मणो पोताना पुत्रोने साधुर्जने आपता हता, छाने जे दीक्षा लेता न हता, ते व्रतधारी श्रावक यता हता; श्रा रीति जरतना राज्यमां हती. भरत महाराजना पुत्र श्रादित्ययशा थया, अर्थात् सूर्ययशा थया, जेना वंशजो जरतक्षेत्रमां सूर्यवंशी कहेवाय बे. बाहुबलीना मोटा पुत्र चंजयश थया, तेना वंशजो चंद्रवंशी कदेवाय बे. श्रीरीषनदेवजीना कुरुवंशी कदेवाय बे, जेर्जमां कौरव पांडव थयेला बे. ज्यारे सूर्ययशा सिंहासन उपर बेठा, त्यारे तेनी पासे काकणी रत्ननहोतुं. काकणीरत्न चक्रवर्ती शिवाय वीजा कोइ पासे होतुं नथी. ते कार. थी सूर्ययशा राजाये ब्राह्मण श्रावकोना गलामां सुवर्णमय यज्ञोपवीत दाखल करावी, जे भाषामां जनोइ कदेवाय बे. जोजन प्रमुख सर्वे, जरत महाराजनी जेमतेने श्रापता रह्या. सूर्ययशना पुत्र महायश गादी उपर बेठा, तेथे रूपानी यज्ञोपवीत बनावी थापी बाद तेजना वंशजो रेशमी यज्ञोपवीत थापता हवा. बेवढे सादा सूतरनी बनाववामां श्रावी. श्रा प्रमाणे यज्ञोपवीतनी उत्पत्ति बे. . जरतमहाराजनी व पाट सुधी तो ब्राह्मणोनी नक्ति भरतजीनी पेवेज यती रही. बाद प्रजा पण ब्राह्मणोने जोजन कराववा लागी. सर्व स्थले ब्राह्मणो पूजनीक गणावा लाग्या. ए प्रमाणे श्रावमा तीर्थंकर श्री चंद्रप्रन खामिना वखत सुधी सर्व ब्राह्मणो व्रतधारी जैनधर्मी श्रावको रह्या. श्रीचंद्रप्रन जगवाननी पछी केटलोएक काल व्यतीत थया बाद या जरतखंडमां जैनमत अर्थात् चतुर्विध संघ तथा सर्व शास्त्रो विछेद इ गयां, ते वखते ते ब्राह्मणानासोने लोको पुवा लाग्या के अमने धमनुं स्वरूप बतावो . ते वखते ब्राह्मणोये स्वमतिकल्पनाथी जेमां पोतानो लाज दीठो वो धर्म बताव्यो. अनेक ग्रंथो पण ते प्रमाणे बनाववामां श्राव्या. ज्यारे नवमा श्रीसुविधिनाथ ( पुष्पदंत) अरिहंत थया, त्यारे फरी Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश परिछेद. () जैनधर्म प्रगट थयो. ते लगवाननो धर्म केटलाएक ब्राह्मणाजासोये न अंगीकार कर्यो. स्वकपोलकल्पित मतनोज कदाग्रह राख्यो. साधुऊनो वेष करवा लाग्या. चारे वेदोनां नामो बदलावी नाख्यां, श्रने ते वेदोमां मतलब पण काश्नी कां लखी दीधी. हवे चारे वेदोनी उत्पत्ति लखीये बीये. ज्यारे नरत राजाये ब्राह्मणोनी पूजा करी, त्यारे बीजा लोको पण ब्राह्मणोने अनेक तरेहनां दान थापवा लाग्या. ते प्रसंगे श्रीजरतचक्रवर्तीये श्रीरीषनदेव नगवानना उपदेश अनुसार ब्राह्मणोने निरंतर खाध्याय करवावास्ते श्रीश्रादीश्वर (रीषजदेव) जगवाननी स्तुति तथा श्रावकधर्मखरूपगर्जित चार आर्यवेदनी रचना करी. तेना नाम. १ संसार दर्शनवेद २ संस्थापन परामर्शनवेद, ३ तत्त्वावबोध वेद, ४ विद्याप्रबोध वेद, चारे वेदोमां सर्वनयसंयुक्त वस्तु स्वरूप कथन ते ब्राह्मणोने शिखववामां आव्यु. पुर्वोक्त चार वेद तथा ब्राह्मणो श्रापमा तीर्थंकर सुधी यथार्थ प्रवर्तता रह्या. आठमा तीर्थकरनुं तीर्थ व्यवछेद थतां ब्राह्मणोये घ्रष्ट थर धनना लोजथी ते वेदोमां जीवहिंसा दाखल करी. चारे वेद उलट पालट करी नांख्या. जैनधर्मनुं नाम चारे वेदमांथी काढी नाख्युं, एटबुंज नहीं पण अन्योक्तिथी “दैत्य दस्यु वेदबाह्य" इत्यादि नामोथी साधुनी निंदार्जित १ रुग्, ५ यजुर, ३ साम, ४ अथर्व, या चार नामना वेद कल्पवामां श्राव्या. जे ब्राह्मणोये तीर्थंकरोनो उपदेश अंगीकार कर्यो, तेउये पूर्व वेदोना मंत्रोनो त्याग को नहीं. ते मंत्रो आजसुधी दक्षिणमा कर्णाटकदेशमा जैन ब्राह्मणोने कंठस्थ . ते प्रमाणे अमे देख्युं बे तथा सांजव्यु जे. अमारी पासे पण प्राचीन वेदोना केटलाएक मंत्रो. यतः॥ सिरि जरह चक्कवट्टी, आयरिय वेयाणविस्सुउप्पत्ती ॥ माहणपढणथमिणं, कहियं सुहककाण विवहारं ॥ १॥ जीणति वुचिन्ने, मिबत्ते माहणेहिंतेविया॥अस्संज्याण पूश्रा, अप्पाणं काहिया तेहिं ॥२॥ इत्यादि. हवे वेदोनीरचना हिंसा संयुक्त, याज्ञवल्क्य, सुलसा, पिप्पलाद अनेपर्वत प्रमुखोये केवी रीते रची तेनुं पण कांश्क स्वरूप लखीये बीये. बृहदारण्यक उपनिषद्नी नाष्यमां लख्यु डे के, यहोनुं कथन करनार यज्ञवल्क्य तेना पुत्र याज्ञवल्क्य बे. ते कडेवाथी एम प्रतीत थाय ने के Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) जैनतत्त्वादर्श. योनी रीति-प्रायः याज्ञवल्क्यथीज चाली . ब्राह्मण लोकोये शास्त्रोमां लख्यु जे के याज्ञवल्क्ये पूर्वती ब्रह्मविद्या वमीने नवीन ब्रह्मविद्या सूर्यनी पासे शिखी, प्रचलित करी; तेथी पण एज अनुमान थाय ने के, याझव क्येज प्राचीन वेद तजी दीधा अने नवा वेद बनाव्या. __श्रीवेशठ शिलाका पुरुष चरित्र ग्रंथना श्रापमा पर्वना बीजा सर्गमां लख्यु के के काशपुरीमां बे संन्यासणी रदेती हती. एकनुं नाम सुलसा अने बीजी, नाम सुनता हतुं. बंने वेद, वेदांगोनी जाणकार हती. बंने बेहेनोए बहु वादीउँने वादमां जीत्या हता. ते अवसरे याज्ञवल्क्य प. रिव्राजक तेउनी साथे वाद करवाने श्राव्या. अरस परस एवी प्रतिज्ञा करी के, जे हारीजाय ते जीतनारनी सेवा करे, याज्ञवल्क्ये सुलसाने वादमा जीती अने पोतानी सेवा करनारी बनावी. सुलसा पण रातदिवस याज्ञवल्क्यनी सेवा करवा लागी, याज्ञवल्क्य अने सुलसा बने यौवनवंत हता.तेथी कामातुर थ जवाथी वंने नोगविलासमा लागी गया. निदान अनि अने घी साये होय तो धी उंगल्या विना रहेतुं नथी, कामक्रीडामां मन थर जवाथी काशपुरीनी पासेनी एक कुटीमां बने वास करता हता. याज्ञवल्क्यथी सुलसाने पुत्र थयो. लोकोना उपहासना जयश्री ते पुत्रने पिपलाना वृदानीचे मुकी वंने जणाउँ दूर नासी गया, आ वृत्तांत सुलसानी वहेन सुनजना जाणवामां आव्यु. सुनसा बालकनीपासे आवी. बालकने देखतां ते खयमेव पीपलानुं फल मुखमां पडेलु चबोलतुंहतुं. सुनमाये वालकने लश पोताना स्थानमां पाण्यु. तेनुं नाम पिप्पलाद राख्यु. यत्नाथी पालण कर्यु, वेदादि शास्त्रो नणाव्यां, पिप्पलाद बहु बुविमान थयो, बहु वादीने जीती तेजेनां अजिमाननो तेणे नाश कयो. पिप्पलादनी साये अनुक्रमे याज्ञवल्क्य तथा सुलसा पण वाद करवा आव्या, पिप्पलादे वनेने वादमां जीत्या. बाद समुझा मासीना कहेवायी तेना जाणवामां आव्यु के, ते वंने तेना माता पिता . मने जन्म पापी निर्दयताथी वृदनीचे मुकी बंने नासी गया हता, ए वृत्तांत पण तेना जा वामां श्राव्यो. अत्यंत क्रोधयुक्त थ पिप्पलादे सम्यक् रीतिए याज्ञवल्क्य तथा सुलसा सन्मुख मातृमेध तथा पितृमेध यज्ञोने सिद्ध करी, पितृमेध यज्ञमांयाज्ञवल्क्यनोअने मातृमेध यज्ञमां सुलसानो होम कयों. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश परिवेद, (५१) पिप्पलाद मीमांसक मतनो मुख्य श्राचार्य थयो. तेनो बातली नामा शिष्य थयो, त्यारथी जीवहिंसा संयुक्त यज्ञ प्रचलित थया. ___ याज्ञवल्क्ये नवा वेदो बनाव्या बे, तेमां कांश पण शंका नथी, कारण के वेदमां लख्यु के के “ याज्ञल्क्येती होवाच” अर्थात् याज्ञवल्क्य आ प्रमाणे कहेता हवा. वेदमां जे शाखाउँ डे ते वेद कर्ता शषियोना अधिकारनी ने तेथी आवश्यक सूत्रमा जे लख्यु डे के जीवहिंसा संयुक्त जे वेद बे, ते याज्ञवल्क्य अने सुलसा आदिये बनाव्या बे, ते वात सत्य बे, कारण के केटलीएक उपनिषदोमां पिप्पलादनुं नाम , अने केटलाएक स्थले बीजा झषियोनां पण नामो . जमदग्नि कश्यप तो वेदोमां खास नामथी लखेल बे. हवे विचारो के वेदो नवा बनाववामां आव्या तेमांशु शंका रहे ? __वली लंकानो अधिपति राजा रावण, ज्यारे दिगविजय करवा वास्ते देशोमां चतुरंगी सेना साथे बीजा राजाउने पोतानी आज्ञा मनाववा फरतो हतो, ते अवसरे नारदमुनि लाकडी प्रमुखना मारथी कुटाया होवाथी पोकार करता रावणनी पासे श्राव्या. रावणे नारदजीने पुब्यु के तमने कोणे मार मार्यो, त्यारे नारदजीये कह्यु के, राजपुर नगरमा मरुत नामनो राजा बे, ते मिध्यादृष्टि ने, अने ब्राह्मणाजासोना उपदेशथी यज्ञ करवा लाग्यो,ते समये शिकारीउनी जेम होमने वास्ते ते ब्राह्मणाजासोने, अरराट शब्दो करता पशुजने यज्ञोमां होमवावास्ते मारतां में दीग. आकाशथी उतरी मरुत राजा ब्राह्मणोनी साथे बेगे इतो, त्यां आवी, मरुतराजाने में कडं के था तमे सर्वे शुं काम करवा लागी रह्या बो? मरुतराजाए कह्यु के ब्राह्मणोना उपदेशथी देवताउँनी तृप्तिवास्ते तेमज स्वर्ग प्राप्तिवास्ते पशुऊना बलिदानथी था यज्ञ करवो शरु कयों बे, या प्रमाणे यज्ञ करवो ते महा धर्म . पड़ी में कडं के हे राजा ! चारे वेदोमा जे प्रमाणे यज्ञ करवातुं कथन करेल , ते यज्ञ करवानी. विधि तमने कहुं बुं ते सांजलो? आत्मा यज्ञनो यष्टा अर्थात् करनार , तप रूप अग्नि ने, ज्ञानरूप घी , कर्मरूप इंधन डे, क्रोध,मान, माया, लोनादि पशु बे, सत्यवचनरूप यूप अर्थात् यज्ञस्थंज बे, सर्व जीवोने । अनयदानरूप दक्षिणा ,अने ज्ञान दर्शन चारित्र रत्नत्रयीरूप त्रिवेदी Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) जैनतत्त्वादर्श. बे.आप्रमाणे यज्ञ वेदमां कथन करेल , एवो यज्ञ जो योगाच्याससंयुक्त करवामां आवे तो ते करनारो मुक्ति प्राप्त करे थे; परंतु राक्षसरूप थर बकराप्रमुखने मारी यज्ञ करवामां आवे तो, यज्ञ करनार, करावनार, मरीने घोर नर्कमां चिरकाल महाकुःख जोगवे . हे राजा! तुं उत्तम वंशमां उत्पन्न थयेल बो, बुद्धिमान् तेमज धनवान् बो, तेथी श्रा व्याधोचित पापथी निवर्त. जो प्राणीवधथीज जीवोने खर्ग प्राप्त थतुं होत तो अनायासे थोडा वखतमांज था जीवलोक खाली थर जशे.श्रा मारा वचनो सांजली यानी अग्मिनी जेम प्रचंड श्रयेला ब्राह्मणो लाकडी, सो. टा, ढीका, पाटु मने मारवा लाग्या, तेथी जेम नदीना पूरथी जय पामेलो माणस उंची जमीन उपर चडी जाय , तेम दोडतो हुं तमारीपासे श्राव्यो ढुं. हे रावण महाराज! निरपराधी पशुङ मार्या जाय . तेर्नु रक्षण करवामां तमे समर्थ बो. जेम तमारां शरणथी हुँ निर्जय बुं तेम पशुजने शरण श्रापी निर्जय करो, ते सांजली रावण विमानथी उतरी मरुत राजानी पासे आव्या, मरुत राजाये रावणनी नक्ति तथा आदर सन्मान उत्तम प्रकारे काँ. रावणे कडं था तमे शुं करो डो? यज्ञमां पशुवध करी नर्कनी महा माठी गति उपार्जन करवानुं तमोए आरंन्युजे. धर्म तो तीर्थंकर महाराजाये अहिंसारूप कथन करेलो , अने तेथीज जगत्, हित थाय ; ज्यारें पशुउँने मारवामां तमे धर्म समज्या, त्यारे अधर्म, धर्मनी तमने समजणज क्या परी? माटे आ काम तमे तजी यो.. पबी सेहेज कोपमा श्रावी रावणे कडं के जो यज्ञ करवानुं काम तजी नही द्योतो तेनुं फल था लोकमां तो तमने हमणांज श्रापीश, अने परलोकमां तमारे नर्कना मेमान थर्बु पडशे. आवा लयात्मक वचन सांगली मरुत राजाये यज्ञ करवो तजी दीधो, कारण के रावणनी श्राज्ञा ते वखते एवी जयंकर हती के तेनुं को उलंघन करी शकतुं नही. श्रा कथाथी एम पण सिह थाय बे के, ब्राह्मण लोको जे एम कहे जे के, पूर्वे राक्षसो यज्ञविध्वंस करता हता, ते कोण जाणे रावणादि जबरदस्त जैनधर्मी राजाध्ये पशुवधरूप यशो करता बोडावी दीधा होय; श्रने तेज कालथी ब्राह्मणोये पुराणादि शास्त्रोमां तेजवरदस्त जैनराजाने राक्षसो लखेला . वली एम पण सांजलवामां आव्यु डे के नारदजीये मायाना जानी पापी निर्भय कम तमारां शरण मार्या जाय के. Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश परिच्छेद, ( ५२३) वशश्री जैनमत धारण करी वेदोनी निंदा करी होय तोपण शुं जाणीये? या कथानो आज तात्पर्य लोकोये लखेलो बे. 9 रावणे नारदजीने पुब्धुं के यवो पापकारी पशुवधात्मक यज्ञ क्यांश्री प्रचलित थयो ? नारदजीये कयुं के शुक्तिमती नदीना किनारा उपर शुक्तिमती नामे नगरी बे. वीशमा श्रीमुनिसुव्रत स्खामि हरिवंश तीकरनी लादमां केटलायेक राजा व्यतीत यर गया पढी अनिचंद्र नामा राजा थयो. तेनो वसु नामनो पुत्र, महाबुद्धिवान, सत्यवादी जगमां प्रसिद्ध थयो. तेज नगरीमां की रकदंबक नामना उपाध्याय रहेता हता. तेने पर्वत नामनो पुत्र इतो. ते कीरकदंबक उपाध्यायनी पासे वसुराजा, उपाध्यायजीनो पुत्र पर्वत ने हुं नारद त्रणे जणा अन्यास करता हता. एकदा श्रमो त्रणे शिष्यो अन्यासना श्रमश्री रात्रिना वेहेला सुइ गया हता, उपाध्यायजी ते वखते जागता हता. श्रमो उपरना जागमां सुता हता, ते वखते वे ज्ञानवान् चारण साधु व्याकाशमां परस्पर वातो करता चाल्या जता दता, तेर्ड बोल्या के या उपाध्यायजीना बे शिष्यो नर्कमां जशे अने एक स्वर्गमां जशे मुनियोतुं या प्रमाणे बोल सांजली उपाध्यायजी विचार करवा लाग्या के ज्यारे मारा शिखवेला शिष्यो नर्कमा जाय, त्यारे तेना करतां वधारे दुःखजनक बीजु शुं ? परंतु त्रणमां नर्कमां कोण जशे अने खर्गमां कोण जशे ? ते वातनो निर्णय करवा वास्ते त्रणेने एक साथे बोलाव्या. पती गुरुये श्रमने दरेकने एकेक लोटनो कुकडो श्राप्यो, अनेकयुं के कुकडाने एवी जगाये ज‍ मारो के ज्यां को देखतुं न होय. पढी वसु छाने पर्वत बने जणा तो शून्य जगामां ज दरेक पोतपोताना कुकडाने मारी लाव्या, अने हुंतो ते लोटना कुकडाने लइ नगरीनी बहार बहुज दूर चाल्यो गयो. ज्यां कोइ नहोतुं त्यां जइ उनो रह्यो. चारे तरफ जोवा लाग्यो, छाने मनमां या प्रमाणे तर्क थवा लाग्या. गुरु महाराजे तो आज्ञा करी बे के, हे वत्स ! कुकडाने तुं त्यां मारजे, के ज्यां कोइ तने देखतुं न होय ! प्रथम तो या कुकडाने हुंज देखुं हुं, वली कुकडो मने देखे बे, खेचर देखे बे, लोकपाल देखे बे; ज्ञानी देखे बे, एवं तो जगत्मां कोइ पण स्थान नयी, ज्यां कोइ पण न देखतुं होय. ते कारणथी गुरुनो अभिप्राय Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३४) जैनतत्त्वादर्श. एज बे के, आ कुकडानो वध न करवो, कारण के गुरु पूज्य तो निरंतर महा दयालु बे, अने हिंसाथी पराङ्मुख . मात्र अमारी परीक्षावास्ते आ आदेश प्राप्यो बे, तेथी हुँ तो कुकडाने मार्याविनाज कुकडाने लइ गुरुपासे आव्यो, अने कुकडाने नही मारवाना सघला विचार गुरुजीने कही दीधा. गुरुराजे मनमा निश्चय कयों के, आ नारद विवेकवालो ने, तेथी खर्गमां जशे, गुरुजीये मने पोतानी गती साथे लगावी, वह सारं थयुं उत्तम उत्तम! एम कडं; तेटलामां वसु अने पर्वत पण गुरु पासे आव्या, अने गुरुने कडं के अमो कुकडाने एवी जगाये जश् मारी आव्या बीये के ज्यां को देखतुं न होतुं. गुरुये कडं के तमे तो देखता हता, तथा खेचरो पण देखता हता. हे पापिष्टो! तमे कुकडा केम मार्या ? एम कही गुरुजीये विचार कयों के वसु अने पर्वतने जणाववानी मारी मेहेनत वृथा गइ. परंतु हुं शुं करूं! पाणी जेवा पात्रमा जाय , तेज बनी जाय . विद्यानो पण तेवोज खनाव . न्यारे प्रापथी प्यारो पर्वत पुत्र अने पुत्रथी प्यारो वसु बने नर्कमा जाय, तो हवे मारे घरमा रहेवातुं शुं प्रयोजन ? एवा निर्वेद जावथी दीरकदंबक उपाध्यायजीये दीक्षा ग्रहण करी. साधु थया. तेनी पदवी पर्वते धारण करी, कारण के व्याख्यान करवामां पर्वत बहुज विचरण हतो. हूं (नारद) गुरु प्रसादथी सर्व शास्त्रोनो अभ्यास करी मारे स्थानके श्राव्यो. वली अनिचंड राजाये संयम लेवाथी वसु तेना पितानी राज्यगादी उपर वेगे. वसु राजा जगत्मां सत्यवादी प्रसिद्ध थयो, अर्थात् वसुराजा कदापि जूतुं वोलता नथी, ए प्रमाणे लोकोमा तेनी प्रशंसा प्रसरी गश्. वसुराजाए पण पोतानी प्रशंसा निरंतर थया करे ते सारं सत्य बोलवानुं दृढ व्रत अंगीकार कयु. दरमीआन वसुराजाने एक स्फटिक सिंहासन प्रसन्न रीते एवं मली गयु के, सूर्यना प्रकाशमांज्यारे वसुराजा ते सिंहासन उपर वेसतो त्यारे, ते सिंहासन लोकोना देखवामां बिलकुल यावतुं नहोतुं, तेथी लोकोमा एवी प्रसीछि थके,सत्यना प्रजावधी व. सुराजानुं सिंहासन देवता आकाशमांअधर राखे .तेनीआवी कीर्तिथी वीजा सर्वे राजाउँ डरीने तेनी श्राझा मानता हता, कारण के साची अथवा जूठी गमे ते रीते थयेली प्रसीकि पुरुषने जयकारी थाय ने. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश परिजेद. (पश्य) एकदा प्रस्तावे हुँ ( नारद ) सूक्तिमती नगरीमा गयो. पर्वतने धेर जतां ते पोताना शिष्योने रूग्वेद नणावतो हतो, अने तेनो अर्थ पण शिखवतो हतो. प्रसंगे एवी श्रुति रूग्वेदमां आवी के "अजैर्यष्टव्यमिति” पर्वते आ श्रुतिनो एवो अर्थ कयों के श्रज अर्थात् बकराथी होम करवो, सारांश के बकरांने मारी तेना मांसनो होम यज्ञमां करवो. ते सांजली में पर्वतने कडं हे ना! था प्रमाणे व्याख्या कर ब्रांतिथी करे ले ? गुरुश्रीदीरकदंबकजीए आ श्रुतिनी श्रावी व्याख्या करी नथी, गुरूजीए तो आ श्रुतिमां अज शब्दनो अर्थ त्रण वर्षतुं जुर्नु धान्य करेलो बे; " न जायत इत्यजा” जे वाववाथी न उत्पन्न थाय ते अजा, आवो अर्थ श्रीगुरुजीए तमने तथा मने शिखाव्यो हतो, ते अर्थ तमे केम जूली जाउं बो ? पर्वते कडं के तमे जे अर्थ करोबो ते अर्थ गुरुजीए को नश्री, परंतु हुँ जे अर्थ करूं बुं, तेम अर्थ गुरुजीए कयों हतो, कारण के निघंटमां पण अजा नाम बकरीनुंज लखेवं . पड़ी में (नारदे) पर्वतने कडं के शब्दोना अर्थ बे प्रकारे थाय बे, एक मुख्यार्थ, बीजो गौणार्थ. श्रा स्थले श्री गुरुए गौणार्थ कयों हतो. गुरु धर्मोपदेष्टानुं वचन अने श्रुतिनो यथार्थ अर्थ, बंने अन्यथा करी हे मित्र! तुं महापाप उपार्जन करे . फरी पर्वते कडं के अज शब्दनो अर्थ गुरुजीए मेष करेलो बे, निघंटमां पण एज अर्थ बे, तेने नवंघन करी तुं अधर्म उपार्जन करे बे; वली श्रा बाबत निर्णय करवो होय तो वसुराजा जे आपणा सहाध्यायी ने, तेने मध्यस्थ राखी आ श्रुतिना अर्थनो निर्णय करीए, परंतु सरत एटली के जेनो अर्थ जूगे ठरे तेनी जीहा. दवी. या प्रमाणे प्रतिज्ञा ठरी. में पण पर्वतनी सरत मान्य करी, एवा विचारथी के साचने शुंआंच ने ? पर्वतनी माताए ते वखते पर्वतने गुतरीते कडं के हे पुत्र! तुं आवो जूगे कदाग्रह बोडीदे, कारण के में पण ते श्रुतिनो अर्थ त्रण वर्षतुं धान्यज सांजल्यो , माटे ते जे जीता बेदनी प्रतिज्ञा करी ते वास्तविक कर्यु नथी. विचार कर्या विना जे काम करवामां आवे जे, तेथी आपत्तिमां आवी पडवानो प्रसंग थावे . ते सांजली पर्वते कडं के हे माताजी ! जे में प्रतिज्ञा करी ते को पण रीते हुं फेरवी शकुं तेम नथी. पड़ी पर्वतनी माता पोताना पुत्रनुं दुःख Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) जैनतत्त्वादर्श. जाणी, उःखी थवाथी वसु राजानी पासे गश्. पुत्रना जीवितव्य वास्ते कोण एवो बे के जे उपाय न करे ? वसुराजाए पोताना गुरुनी पत्नीने थावतां देखी अपार सन्मान आप्यु. सिंहासन उपरथी उन्नो थयो, अने कहेवा लाग्यो के हे माता ! आजे में मारा गुरुराजना दर्शन काँ. मारा सरखं जे काम होय ते मने फरमावो ? गुरुपत्नीए कह्यु के हे वसुराज! मने पुत्रनी निदा आपो ? पुत्र विना मारे धन धान्यादि \ कामना ने ? वसुराजा ते सांजली कहेवा लाग्या के हे माता ! पर्वत तो मारे पू. जवा योग्य तथा पालवा योग्य बे, कारण के गुरुनी जेम गुरुना पुत्रनी साथे पण वर्तवं जोशए, एम श्रुति वाक्य बे; तो हवे कोणे क्रोधमां श्रावी कालने पत्रथी आमंत्रण कर्यु ले ? जे मारा जाइ पर्वतने मारवा चाहे ? वास्ते हे माता! तमे सर्व वृत्तांत मने कहो ? गुरुपत्नीए सर्व वृत्तांत प्रतिज्ञा लीधी त्यां सुधीनो कही वताव्यो; बेवटे कयु के जो तमारा नाश्नी रदा करवी होय तो अज शब्दनो मेष अर्थात् वकरो या वकरी अर्थ करवो, कारण के महात्मा पुरुषो परोपकार वास्ते पोताना प्राण पण अर्पण करे , अने आपने तो मात्र वचनथी परोपकार करवानो के. वसुराजाए कह्यु माताजी ! हुँ मिथ्या वचन केवी रीते बो. ली शकुं? सत्य वोलनारा पुरुषो पोताना प्राण जाय ने तो पण असत्य वोलता नथी, तो गुरुनु वचन अन्यथा करवू, अने जूठी सादी पुरवी, तेने वास्ते तो शुंज कहे ? गुरुपत्नीए कह्यु के क्यांतो गुरुना पुत्रनो जान वचशे, क्यांतो तमारा सत्य व्रतनो आग्रह रहेशे, वली हुं पण तने ते वखते मारा प्राणनी हत्या आपीश. गुरुपत्नीना आ प्रमाणेना वचनो सांजली लाचार थ तेणीनुं वचन अंगीकार कर्यु. गुरुपत्नी खु. शी थक्ष पोताने घेर आवी. तत्काल नारद तथा पर्वत बंने वसुराजानी सनामां आव्या. ते प्रसंगे मोटा मोटा विद्वान् पुरुषो सनामां आवी पहोंच्या, अने वसुराजा स्फटिक सिंहासन उपर बेसी सजापति थर पुरवा लाग्यो; पर्वत तथा नारदे पोतानो श्राद्यंत सर्व वृत्तांत वसुराजाने संजलाव्यो, बेवटे कडं के हे राजन् ! गुरुजीए था वंने अर्थमांथी कयो अर्थ कह्मो ते तमे सत्य कही द्यो ? सनामां बिराजेला वृद्ध ब्राह्मणोए पण कडं के हे राजन् तमे सत्य सत्य जे होय तेज कही देजो, Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश परिछेद (५३३) वखत सुधी राज्य करी श्री अजीत नाथजीए तो खयमेव दीक्षा लीधी. तप करी, केवलज्ञान पामी बीजा तीर्थंकर थया. पनी सगर राजा थया, अने बीजा चक्रवर्ती पण थया. सगर राजाए जरतनी जेम ब खंडनुं राज्य कर्यु. सगर राजाने जन्दुकुमार प्रमुख साठ हजार पुत्र थया. तेए दंड रत्नथी गंगा नदीने असल प्रवाहथी फेरवी, कैलास पर्वतनी चारे वाजुए खाश् खोदी, ते खाश्मां गंगा नदीने लाव्या. तेए एवो विचार कर्यों के अमारा वडील जरतजीए था पर्वत उपर सुवर्ण रलमय श्री रीषनादि तीर्थंकरोना मंदिर बनावेल . तेनी रदा वास्ते श्रा पर्वतनी चारे बाजुए खाइ खोदी तेमां गंगानो प्रवाह लाववो जोइए. ते प्रमाणे गंगानो प्रवाह लाववाथी अने प्रथम खाइ खोदवाथी नागकुमार देवताउँने बहुज उपसर्ग थयो, तेथी नागकुमार देवताए ते साठ हजार पुत्रोने मारी नांख्या. गंगाना जलथी देशमां पण बहुज उपजव थयो, जेथी सगर राजाना पौत्र जगीरथे सगरनी आज्ञाथी दंडरत्नथी नूमि खोदी गंगाने समुनमा मेलवी. तेज कारणथी गंगानुं ना. म जान्हवी तथा नागीरथी पण कदेवाय बे. सगर राजाए श्री शत्रुजय तीर्थ उपर जरतना बनावेला श्रीरीषजदेवजीना मंदिरनो उद्धार कर्यो, तथा वीजां जैन तीर्थोनो पण उधार कयों. आ समुख पण जरत - त्रमा सगर राजाज देवताना सहायथी लाव्या ले. काना टापुमां वैताट्य पर्वतथी सगर राजानी आज्ञाथी धनवाहन पहेलो राजा थयो, अने लंकाना टापुर्नु नाम राक्षसहीप, तेनो हेतु ए के धनवाहन राजाना वंशजो राक्षस कवाया. या वंशमांज रावण तथा बिनीषणादि थया डे; इत्यादि सगर चक्रवर्तीना समयनो वृत्तांत त्रेसठ शलाका पुरुष चरित्रथी जाणवो. आ चरित्रना तेत्रीश हजार काव्यो , तेथी तेनो सघलो हेवाल आ ग्रंथमां लखी शकातो नथी, मात्र संदेपथी लखेल . सगर चक्रवर्ती राज्य करी श्री अजीतनाथजी पासे दीक्षा ल२, संयम तपथी केवलज्ञान पामी मोदे पहोंच्या. श्री अजीतनाथ स्वामि पण समेत शिखर पर्वत उपर शरीरनो त्याग करी मोक्ष पाम्या, श्री रीषनदेव स्वामिना निर्वाण पली पचास लाख कोडी सागरोपम व्यतीत थये श्री अजीतनाथ तीर्थंकर निर्वाण पाम्या. ते पड़ी त्रीश Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया. राज्य सब जीतनाथ तथा सगजीतारि राजा राज्य बीजा तीर्थंकर (५३४) . जैनतत्त्वादर्श. लाख कोडी सागरोपम व्यतीत थये श्री संजवनाथजी त्रीजा तीर्थकर थया. राज्य सर्व सूर्यवंशी, चंडवंशी तथा कुरुवंशी आदि राजाउँमा रह्यु. इति श्री अजीतनाथ तथा सगर चक्रवर्ती अधिकार.. श्रावस्ती नगरीमा इक्ष्वाकुवंशी जीतारि राजा राज्य करता हता, तेने सेना नामा पटराणी हती, तेने संजव नामना पुत्र त्रीजा तीर्थकर थया, चोवीशे तीर्थंकरना वर्णन प्रथम परिछेदमां यंत्रमा तेमज गद्यमां लखी श्राव्या बीए. वीजा तीर्थंकरोनो वचमां जे अंतर डे तेपण यंत्रथी जाणी लेवू. श्ती तृतीय तीर्थकर वृत्तांत. । तेमनी पनी अयोध्या नगरीमांश्वाकु वंशी संवर राजा थया. तेमनी सिफार्था नामनी राणीनी कुखे श्रनिनंदन नामना चोथा तीर्थंकर थया. वाद अयोध्या नगरीमा इक्ष्वाकु वंशी मेघ राजानी सुमंगला राणी, तेना पुत्र सुमतिनाथ नामना पांचमां तीर्थकर थया. पबी कोसंबी नगरीमा श्वाकु वंशी श्रीधर राजानी सुसीमा राणी, तेना पुत्र पद्मप्रन नामना ग तीर्थंकर थया. पनी वाणारसी नगरीमा प्रतिष्ट राजानी पृथ्वी नामा राणी, तेना पुत्र श्री सुपार्श्वनाथ नामना सातमा तीर्थंकर थया. पनी चंद्रपुरी नगरीमा इक्ष्वाकु वंशी महासेन राजानी लक्ष्मणा नामा राणी, तेना पुत्र श्री चंप्रन नामना श्रापमा तीर्थकर थ. या. पठी काकंदी नगरीमा श्वाकु वंशी सुग्रीव राजानी रामा नामा राणी, तेना पुत्र श्रीसुविधिनाथ, अपर नाम पुष्पदंत नामना नवमा तीर्थंकर थया. अहीश्रा सुधीतो सर्व ब्राह्मणो जैनधर्मी श्रावक तथा चारे श्रार्य वेदो जे नरत राजाना समयमां रचवामां श्राव्या हता ते जणता हता. ज्यारे नवमा तीर्थकरतुं तीर्थ विच्छेद थयु, त्यारे ब्राह्मणो मिथ्यादृष्टि तथा जैन धर्मना वैषी अने जगतना पूज्य थया. कन्या, नूमि अने गोदानादिना लेनारा थया. सर्व जगत्मां उत्तम थया, सर्वना कर्त्ता हा अने मतोना मालेक बनी गया. सारांश ए जे के सुर्नु घर देखी कुतरो पण माल खा जाय , वली जगत्मा जे जे पाखंड तथा अनेक तरेहना देवताउनी पूजा तथा जे जे बीजा पण कुमार्गों प्रचलित थया दे, ते सर्व ते एज चलावेल . साक्षात् श्रादीश्वर जगवाननी रचेली सृष्टि Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश परिजेद, (५३५) रूप अमृतमां फेर दाखल करनारा थया डे, कारण के पूर्व जैनमत तथा कपिलमत शिवाय बीजो कोश पण मत नहोतो. कपिल मतवाला पण देव तो श्री श्रादीश्वर (रीषनदेव ) नगवाननेज मानता हता.निदान था डंडा श्रवसप्पिणिमां सर्व आश्चर्य गणाय . त्यार बाद नहिलपुर नगरमां श्क्ष्वाकु वंशी दृढरथ राजानी नंदा नामा राणी, तेना पुत्र श्री शीतलनाथ नामना दशमा तीर्थंकर थया. श्रा तीर्थकरना शासनमा हरिवंशनी उप्तत्ति थश्तेनी कथा लखीए बीए. कौशांबि नगरीमां वीरो नामनो कोली रहेतो हतो. तेने वनमाला नामनी अत्यंत रूपवंती स्त्री हती. नगरना राजाये तेणीने हरण करी पोतानी स्त्री बनावी. वीरो कोली स्त्रीना विरदयी बावरो थर गयो. हा वनमाला! हा वनमाला! एम बोलतो बोलतो नगरमा फरवा लाग्यो. एकदा वर्षाकालमा राजा वनमालानी साथे मेहेलना फरूखामां बेगेहतो. राजा राणीये वीराने ते हालतमां देखी बहु पश्चाताप कर्यो; डेवट निश्चय कर्यों के आपणे था काम बहुज बुलं कर्यु, तेज वखत वीजली पडवाथी राजा राणी बंने मरीने हरिवर्ष क्षेत्रमा स्त्री, पुरुष युगलीया थया. वीरो कोली राजा राणीन मरण सांजली राजी थयो, पढी तापस बनी तप करवा लाग्यो. अज्ञान तपना प्रजावधी किल्विष देवता थयो. अवधिज्ञानथी राजा राणीने युगलीया थयेला देखी, विचार कयों के, आ जक परिणामी तथा अल्पारंजी , तेथी मरीने देवता थशे, तो पड़ी ढुं माझं वेर शीरीते लश्श ? तेथी एवो उपाय करूं के, जेथी ते बंने मरीने नर्कमां जाय. एवो विचार करी ते बंनेने त्यांची उगवी जरत क्षेत्रमां चंपा नगरीमा इक्ष्वाकु वंशी चंडकीर्ति राजा अपुत्री गुजरी गयो हतो, अने हवे श्रा नगरीनो राजा कोण थशे? एवी चिंतामां सर्व लोको जे श्रावी पड्या हता, तेउने देवताये श्रा बनेने सोप्या, अने कह्यु के था तमारो हरि नामनो राजा थशे. तेने तख्तनशीन करो? तेनी श्रा हरणी नामनी राणी . तेठने खावावास्ते तमारे फल मिश्रित मांस श्रापवू, अने तेउने शिकार करवानी टेव पाडवी. लोकोये तेज प्रमाणे कयु. ते बंने पापमा आसक्त थवाथी मरीने नर्कमां गया. तेउनी उलाद सर्व हरिवंशवाली कहेवाश्. आ वंशमां वसुराजा थया,इति श्रीहरिवंशोत्पत्ति. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३६) जैनतत्त्वादर्श. श्री शीतलनाथजीनुं शासन पण विछेद गयु. तेवीज रीते पंदरमा तीर्थंकरसुधी सात तीर्थंकरोनां शासनो विछेद गयां, अने मिथ्याधर्म बहुज वृद्धि पाम्यो. श्रीशीतलनाथ पनी सिंहपुरी नगरीमा श्वाकु वंशी विष्णु राजानी विष्णुश्री नामाराणी, तेना पुत्र श्री श्रेयांसनाथ नामना अगीधारमा तीर्थंकर थया. ते समयमां वैताढ्य पर्वतश्री श्रीकंठ नामनो विद्याधरनो पुत्र, पद्मोत्तर विद्याधरनी पुत्रीनुं हरण करी पोताना बनेवी राक्षस वंशी लंकाना राजा कीर्तिधवलने शरणे गयो. कीर्तिधवले त्रणसे योजन प्रमाण वानरहीप तेजने रहेवाने श्राप्यो. तेहुना संतानोमांथी चित्र विचित्र विद्याधरोये विद्याथी वानरर्नु रूप बनाव्यु. वली वानर द्वीपमा रहेवाथी तथा वानरनुं रूप बनाववाथी वानरवंशी प्रसिद्ध थया. तेउनी उलादमा वाली तथा सुग्रीवादि थया . श्रेयांसनाथजीना समयमा पेहेला त्रिपृष्ट नामना वासुदेव हरिवंशमां थया. तेनी उत्पत्ति प्रमाणे- पोतनपुर नगरमां हरिवंशी जीतशत्रु नामनो राजा थयो. तेने धारणी नामा राणी हती. तेने श्रचल नामनो पुत्र श्रने मृगावती नामनी पुत्री थ. मृगावती अत्यंत खुब सुरत हती, ते यौवनवंती थर एटले तेना पिताये तेणीने पोतानी राणी बनावी बीधी. ते देखी लोकोये जीतशत्रु राजानु नाम प्रजापति पाड्यु. अर्थात् पोतानी पुत्रीनो पति एवं नाम राख्यु. तेज वखतथी वेदोमां आ श्रुति लखवामां आवी. “प्रजापति वैखाइहितरमन्यध्याय दिव नित्यन्य आहुपुर समित्यन्येता मृश्योजूत्वा तदसावादित्यो जवत्" ॥ जावार्थःप्रजापति ब्रह्मा पोतानी पुत्री साथे विषय सेवनने प्राप्त थता हवा. जैनमतवालाउने श्रा अर्थथी कां पण हानी नथी; परंतु जे लोकोये ब्रह्माजीने वेद कर्ता, हिरण्यगर्जना नामथी इश्वर मानेला बे, अने श्रा कथाने पुराणोमां लखे ली , तेउनी फजेती तो अवश्य बीजा मतवाला करशे. तेमां अमे शुं · करीये? कारण के जे पुरुष पोताना हाथथी पोतानुं म्हों काबुं करे, तेने देखीने बीजा केम हांसी न करे ? यद्यपि मीमांसाना वार्तिककार कुमारिले था श्रुतिना अर्थन कलंक दूर करवावास्ते मनमानी कल्पना करेली बे, तथा वर्तमानमां दयानंदसरखति खामिये पण वेद श्रुतियोना कलंक Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश परिवेद. (५३७) दूर करवावास्ते पोतानी बनावेली नाष्यमां अर्थोनी अत्यंत तोड फोड करेली बे, परंतु पुराणवालाये जे कथा लखेली ते केवी रीते बुपावी शकशे? अमारा मतमां तो वेद श्रुति अने ब्रह्मा (प्रजापति) नो अर्थ यथार्थज करेल . श्रा जीतशत्रु (प्रजापति) राजाने मृगावतीथी त्रिपष्ट नामनो पुत्र थयो. ज्यारे त्रिपृष्ट अने अचल बंने यौवनवंत थया, त्यारे तेउये त्रिखंडना राजा अश्वग्रीवने मारी त्रण खंडनुं राज्य कर्यु. त्यार पड़ी चंपापुरीमा श्दवाकुवंशी वसुपुज्य नामनो राजा थयो, तेनी ज्या नामा राणी तेनाथी श्रीवासुपुज्य नामना बारमा तीर्थंकर थया, तेमना समयमां बीजा छिपृष्ट वासुदेव अने अचल बलदेव थया,अने तेऊना प्रतिशत्रु रावण समान तारक नामना बीजा प्रतिवासुदेव थया.आ सर्व वासुदेव,चक्रवर्ती श्रादिनुं संपूर्ण वर्णन त्रेसठ शलाका पुरुष चरित्रथी जाणवू. _ त्यार पड़ी कपिलपुरनगरमा इक्ष्वाकुवंशी कृतवर्मा नामा राजा थया, तेनी श्यामा नामा राणीना पुत्र श्रीविमलनाथ नामना तेरमा तोयंकर थया. तेमना समयमांत्रीजा खयंजु वासुदेव, जज नामा बलदेव, अने मैरक नामना प्रतिवासुदेव थया. __ त्यार पनी अयोध्या नगरीमा श्वाकुवंशी सिंहसेन राजा थया, तेनी सुयशा राणीना पुत्र श्री अनंतनाथ नामना चौदमा तीर्थंकर श्रया, तेमना समयमां चोथा पुरुषोत्तम वासुदेव, सुप्रन नामना बलदेव भने मधुकैटज नामना प्रतिवासुदेव थया. त्यार पड़ी रत्नपुरी नगरीमां इक्ष्वाकुवंशी जानु नामना राजा थया, तेमनी सुव्रता नामनी राणीना पुत्र श्रीधर्मनाथ नामना पंदरमा तीर्थंकर थया. तेमना समयमां पांचमा पुरुषसिंह नामना वासुदेव, सुदर्शन नामना बलदेव, अने निशुंन नामना प्रतिवासुदेव थया. अहींा सुधी पांच वासुदेव जे थया ते सर्वे अरिहंतना जक्त अर्थात् जैनधर्मी थया. त्यार पड़ी पंदरमा धर्मनाथ अने सोलमा शांतिनाथजीना अंतरमांत्रीजा मघवा नामना चक्रवर्ती अने चोथा सनत्कुमार नामना चक्रवर्ती थया. त्यार पड़ी हस्तिनापुरी नगरीमां कुरुवंशी विश्वसेन राजा तेमनी अचिरा राणीना पुत्र श्रीशांतिनाथ नामना सोलमा तीर्थंकर थया. ते प्रथ ६८ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३७) जैनतत्त्वादर्श. म गृहवासमां तो पांचमा चक्रवर्ती थया, पनी दीक्षा लश् केवली थइ तीर्थंकर थया. त्यारपबी हस्तिनापुर नगरमां कुरुवंशी सूर नामना राजा थया, तेनी श्रीराणीना पुत्र श्रीकुंथुनाथ थया. प्रथम गृहस्थावासमां बग चक्रवर्ती थया, पड़ी दीक्षा लश् सत्तरमा तीर्थंकर थया. त्यार पड़ी श्रीहस्तिपुर नगरमां कुरुवंशी सुदर्शन नामना राजा थया, तेनी देवी राणीना पुत्र श्री अरनाथ थया. ते गृहस्थावासमा सातमा चक्रवर्ती थया, श्रने दीदा सीधा पही अढारमा तीर्थंकर थया. अढारमा अने जंगणीशमा तीर्थकरना अंतरमा श्रापमा, कुरुवंशी सुजूम नामना चक्रवर्ती थया. आ सुजूमना वखतमांज परशुराम थया. ते बनेनो संबंध जैनमतना शास्त्रोने अनुसारे लखीये बीये. योगशास्त्रमा लख्यु डे के वसंतपुर नामना नगरमा उबन्नवंशी अर्थात् जेनो कोश संबंधी नही, एवो अग्निक नामनो एक बोकरो हतो. एकदा श्रमिक को सथवारा साथे देशांतर जतां मार्गमा साथथी नूलो पडतां जंगलमा एक तापसना आश्रममा गयो. कुलपति तापसे तेने पोतानो पुत्र करी राख्यो. अनुक्रमे श्रग्निक अत्यंत घोर तप करी मोटो तेजखी थयो. जगत्मा यमदग्नि तापसना नामथी प्रसिद्ध थयो. ते अवसरे एक जैनमति विश्वानर नामनो देव तथा एक तापसोनो जक्त ध्वनंतरि नामनो देव, वंने जणा परस्पर विवाद करवा लाग्या. विश्वानरे कयुं के अरिहंतनो कथन करेलो धर्म प्रमाणिक बे, ध्वनंतरिये कह्यु के तापसोनो धर्म सत्य बे. वनेना गुरुर्जनी परीक्षा करवी एम विश्वानरे सुचना करी. ते बंने देवोये कबुल करी. तेमां पण विश्वानरे कडं के जैनमतना जघन्य गुरुनी परीक्षा करवी अने तापसोना उत्कृष्ट गुरुनी परीक्षा करवी ते मारे कबुल ने प्रथम मिथिला नगरीनो पद्मरथ राजा जे नवोज जैनधर्मी थर नावयति थयो हतो, ते चंपानगरीमा गुरुनी पासे दीक्षा सेवा सारं जतो हतो. तेने रस्तामां ते देवताउंये दोगे. रस्तामां तेने :ख देवावास्ते बहु कांटा कांकरा बनावी नांख्या, अने रस्ता शिवाय बीजा स्थानके बहु कीडा श्रादिनी उत्पत्ति करी. राजा जावयति होवाथी शुरू नाव पूर्वक, कोमल उघाडा पगे कांटा कांकरा उपर चाख्यो जाय Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश परिछेद. (५३ए) डे. पगमांथी रुधिरनी धारा बुटे , तोपण जीववाली नूमि उपर पग मुकतो नथी. ते वखते देवताये गीत नाटकनो बहु मोहक प्रारंज कर्यो, तो पण राजा दोलायमान थयो नही; तेथी बने देवता सिझ पुत्रोनुं रूप करी राजाने कहेवा लाग्या, हे महानाग! तमारं आयुष्य हजु लांबु बे. तेथी खबंद जोग विलास करो, कारण के यौवनमां तप करवो ते वास्तविक नथी. ज्यारे वृक्ष था, त्यारे दीक्षा लेजो. या वात सांजली राजाए कह्यु के जो मारु श्रायुष्य लांबु , तो हुं बहुज धर्म करीश. कारण के पाणी जेटटुं हुं होय , तेटलीज कमलनी नाल पण वधी जाय , वली यौवनमा इजियोनो जय करवो, तेज खरो तप . हवे बंने देवताउने खातरी थश् के श्रा राजा तो कदापि चलायमान थाय तेवो नथी. पनी बंने देवता सर्वथी उत्कृष्ट जमदग्नि तापस पासे तेनी परीक्षा करवा श्राव्या. तेउँए, जेनी वडवृदनी जटानी जेम, धरतीनी साथे जटा लागी रही , तथा जेना पगोमां सर्पनी बंबी वनी गई बे, एवी स्थितिमां जमदग्नि तापसने दीगे. हवे बंने देवता देवमायाथी जमदग्निनी दाढीमां मालो बनावी, चकला, चकली बनी, बने जणा मालामां बेग, पनी चकलो चकलीने कहेवा लाग्यो के हुँ हिमवंत पर्वत उपर जश्श. चकलीए कह्यु के हुँ तने कदापि नहि जवा दलं, कारण के तुं त्यां जश् कदाच कोश् चकलीमां आसक्त यश् जाय तो मारा शुं हाल थाय ? चकलाए कडं के जो हुं फरीने पाडो न आq तो मने गौहत्यानुं पाप लागे. चकलीए कह्यु के हुँ था तारा सोगनने मानती नथी, जे हुँ सोगन थापुं ते तुं कबुल करे, तो हुँ तने जवा दलं. चकलाए कडं जले तुं जे सोगन श्रापवानी होय ते कही दे ? चकलीए कडं के जो तुं को चकलीनी साथे यारी करे तो, आ जमदग्नि तापसर्नु जे पाप ने ते तने लागे एम सोगन खा. चकला चकलीना श्रावचन सांजली जमदग्निने क्रोध उत्पन्न थयो, अने बंने हाथवती चकला चकलीने पकडी लीधा, श्रने ते ने कहेवा लाग्यो के हुँ पापनो अत्यंत नाश करनार एवो महा पुष्कर तप करुं बुं, बतां हवे मारे एवं कयुं पाप बाकी रही गयुं डे के जेथी तमे मने पापी उरावो बो ? चकलाए कडं हे रुषि! तुं अमारा उपर गुस्सो कर नही; कारण के अमे Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४० ) जैनतत्वादर्श. असत्य बोल बोलता नथी, वल्ली तने जे तारा तपनुं अजिमान बे, ते तारो तप निष्फल बे, कारण के तमारा शास्त्रमां लख्युं बे के " गतिर्नास्ति ” अर्थात् पुत्र रहितनी गति नथी, या शुं तें शास्त्रमां सांअपुत्रस्य जल्युं नथी ? तो जेनी शुभगति न य तेनाथी अधिक पापी कोण बे ? जमदग्निए विचार कर्यों के अमारा शास्त्रमां तो जेम चकलाए क तेमज बे. तेथी फरी मनमां विचार श्राव्यो के, ज्यारे मारे स्त्री अने पुत्र नथी, त्यारे मारो सर्व तप एवो बे के, जेम पाणीना प्रवाहमां मुतखं, वो बे. हवे जमदग्निने मनमां स्त्रीनी चाहना थर. श्रा प्रमाणे देखी ध्वनंतर देवता जैन धर्मी थयो. बने देवतार्ज त्यांची अदृश्य थ गया. जमदग्नि त्यांथी उठी नेमिक कोष्टक नगगरमां जीतशत्रु राजा पासे गयो, राजाने बहु पुत्री हती, तेथी तेनी एक पुत्री मार्ग, एवो विचार कर्यो. राजा पण रुषिने देखी श्रासनथी उठी वे हाथ जोडी प्रणाम करी कहेवा लाग्यो के आप शा वास्ते अत्रे पधार्या हो ? मने आदेश करो ? यापनुं जे काम होय ते हुं करीश. जमदग्निए कयुं, हुं तारी पासे तारी एक कन्या मांगवा श्राव्यो बुं. राजाए कहुं, मारे (१००) सो पुत्री बे, तेमांथी जे तमारी चाहना करे, ते तमे सुखे लइ जार्ज. जमदग्नि कन्यार्जना मेहेलमां गया: श्रने कड़ेवा लाग्या के तमारामांची जेने मारी धर्मपत्नी य होय ते कही द्यो. ते राजपुत्रीए जटावाला, ताल पडेला तथा धोला केशवाला, दुर्बल ने जीख मांगी खानारा जमदग्निने दो, अने तेनुं था वचन सांजल्युं, त्यारे सर्वे तेनी उपर थुंकवा लागी ने कड़ेवा लागी के श्रावी वात करतां तने लता थावती नथी ? तेर्जना अपमानथी जमदग्निने क्रोध चढ्यो अने विद्याना प्रजावथी ते राजपुत्रीने महा कुरुपवान् बनावी दीधी, धने पोते त्यांथी निकली मेहेलोना श्रांगणामां श्राव्या; त्यां राजानी नानी पुत्री तीना ढगलामां रमती इती, तेने, हाथमां बिजोरानं फल लइ कहेवा लाग्यो के हे रेणुका ! तुं मने वांबे बे ? ते बालिकाए बिजोरुं देखी हाथ पसार्यो, तेथी रुषिए कयुं के श्रामने वांडे बे, एम कही मुनिए तेने लइ सीधी. राजाए केटलीक गाय तथा धन थापी पुत्रीनो विवाद तेनी साथै विधि पुर्वक कर्यो पढी जमदग्निए पोतानी सर्वे सालीने Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश परिजेद. (५४१) स्नेहथी रूपाली करी, श्रने रेणुकाने लइ पोताना आश्रममां आव्या. ते मुग्धा, मधुर आकृति, दरिणादीने प्रेमथी वृधि पमाडता हवा. थांगली उपर दिवस गणतां अनुक्रमे ज्यारे रेणुका सुंदर यौवन रूप कामलीलायुक्त वनने प्राप्त अश्, त्यारे, जमदनिए अग्निनी सादीए रेणुकानी साथे फरी लग्न कर्यु, ज्यारे रेणुका रुतुकालने प्राप्त थर, त्यारे जमदमि कहेवा लाग्या के हे प्रिये ! हुँ तारा वास्ते चरु साधु बु. " चरु ते होममा नाखवानी वस्तु कहेवाय डे" जेना प्रतापथी सर्व ब्राह्मणोमां उत्तम प्रतापवालो तने एक पुत्र थशे. रेणुकाए कयु हस्तिनापुरमा कुरुवंशी अनंतवीर्य राजानी साथे मारी एक बेहेन परणावी . तेने वास्ते एक क्षत्रीय चरु पण साधो, पड़ी जमदनिए ब्राह्मण चरु पोतानी नार्या वास्ते, अने क्षत्रिय चरु पोतानी जार्यानी बेहेन वास्ते सिक कर्यो. हवे रेणुकाए मनमा विचार कयों के हुँ जेम अटवीमां हरणीनी जेम रहुं बुं तेम, मारो पुत्र पण जंगलोमां तेवीज रीते रहेशे, तेथी क्षत्रिय चरु जो हुं जक्षण करूं तो मने राजपुत्र थाय, जेथी जंगलवासथी बुटे, एवो विचार करी क्षत्रिय चरु पोते खा लीधो, अने ब्राह्मण चरु पोतानी बेहेनने खवराव्यो. बनेने पुत्रो प्रसव्या. रेणुकाए जे पुत्र प्रसव्यो तेनुं नाम राम पाड्यु, अने तेनी बेहेननां पुत्रनुं नाम कृतवीर्य पाड्यु. अनुक्रमे बंने मोटा थया. राम आश्रममा मोटो थयो, कृतवीर्य राजमेहेलोमा मोटो थयो. राम क्षत्रिय तेज देखाडवा लाग्यो. अन्यदा एक विद्याधर अतिसार रोगवालो ते आश्रममा श्रावी पहोंच्यो, अतिसारना कारणथी श्राकाशगामिनी विद्या नूली गयो, ते मांदा विद्याधरनी रामे औषध, पथ्यादिथी जानी जेम आसना वासना करी. विद्याधरे संतुष्ट थ रामने परशुविद्या आपी. राम पण सरकडाना वनमां जर ते विद्या सिझ करवा लाग्यो. ते विद्याना प्रजावथी राम जगत्मा परशुराम नामथी प्रसिक थयो. एकदा रेणुका, जमदग्निनी श्राज्ञा लश् उत्कंगथी पोतानी बेहेनने मलवावास्ते हस्तिनापुरमां गश्रेणुकाने पोतानी साली जाणी अनंतवीर्य राजा मश्करी करवा लाग्यो.अनुक्रमे कामासक्त थवाथी निरंकुश थ रेणुका साथे विषय सेवन करवा लाग्यो. अनंतवीर्यना जोगथी रेणुकाने एक पुत्र थयो, बतां विषयमां श्र Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४२) जैनतत्वादर्श. तिलुब्ध एवो जमदनि, दोष तरफ बिलकुल दृष्टि नहि करतां रेणुकाने पुत्र सहित पोताना श्राश्रममां लाव्यो. ज्यारे परशुरामे पोतानी माताने पुत्र सहित दीठी, त्यारे अत्यंत क्रोधमा आवी परशुथी पोतानी मातातथा ते डोकराना मस्तक कापी नांख्यां. ज्यारे श्रा वृत्तांत अनंतवीर्य राजाना जाणवामां श्राव्यो, त्यारे क्रोध युक्त, फोज साथे भावी जमदग्निनुं श्राश्रम बाली नश्म कयु, सर्व तापसोने त्रास पमाड्यो. तापसोये नागतां नागतां जे रोलो कयों ते परशुरामे सांजल्यो; सर्व वृत्तांत जाणवा. मां श्रावतां परशुराम, राजानी सेना उपर परशु लश् चडी श्राव्यो. परशुथी राजाने तथा तेनी सेनाना सर्व सुनटोने काष्टनी जेम चीरी नाख्या. पनी पोताना श्राश्रममां चाल्यो गयो. हस्तिनापुरमा प्रधान राजपुरुषोये कृतवीर्यने राज्यसिंहासन उपर बेसाड्यो. कृतवीर्य उमरमां नानो हतो. एक दिवस पोतानी माताना मुखथी पोताना पिताना मोतनुं वृत्तांत सांजली क्रोधयुक्त थर, जमदनिने श्राश्रममां श्रावी मारी नांख्यो. परशुराम पितानो वध सांजली क्रोधमा जाज्वल्यमान थ हस्तिनापुर श्रावी कृतवीर्यने मारीने पोते राज्यसिंहासन उपर चडी बेगे, कारण के राज्य पराक्रमने आधीन बे. हवे कृतवीर्यनी तारा नामा गर्भवती राणी परशुरामना जयथी नागीने को जंगलमां तापसोना आश्रममा गश्. तापसोये दयाथी ते राणीने पोताना मना जोयरामा निधाननी जेम गुप्त राखी. राणीये चौद स्वप्न सुचित पुत्रने जन्म प्राप्यो. तेनुं नाम सुजूम राख्यु. हवे परशुराम ज्यां ज्यां क्षत्रियनो योग मले त्यां त्यां तेनो कुहाडो जाज्वल्यमान थतो होवाथी दरेक क्षत्रियनो शिरछेद करतो. अन्यदा तारा राणी ज्यां गुप्तपणे पुत्रसहित रहेली हती त्यां परशुराम श्राव्यो. परशुरामनी परशु जाज्वल्यमान थर. परशुरामे तापसोने पुब्युं, अहीश्रा को क्षत्रिय ? तापसोये कडं अमे गृहस्थावासमा क्षत्रियो हता. ते सांनली परशुरामे तापसोनो श्राश्रम तजी दीधों. श्राखर सर्व शषियोने बोडी सातवार निःक्षत्रिय पृथ्वी करी. जेम अग्नि पर्वत उपर घासने बाकी राखती नथी, तेम परशुराम जे जे क्षत्रिय राजाप्रमुख प्रसिद्ध हता,तेसवेने मारी, तेउनी दाढाथी एक थाल जयों. हवे परशुरामे गुप्तपणे निमित्तियाउने पुब्युं के मारुं मोत कोना हाथथी थशे? निमित्तियाये क Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५० ) जैनतत्वादर्श. परंतु तमारा स्नेही तमारी पासे रहेवा इतु बुं. कृष्णे कधुं के दे ना. ! तमो रहेवा बतां पण, मारे करेला कर्मनुं फल तो अवश्य जोगववानुंज बे, परंतु मने या दुःखयी ते दुःख बहुज अधिक लागे ठे के:- हुं, द्वारिका तथा सकल परिवार दग्ध यह जवाथी एकलो कोशंबी वनमां जरा कुमारना तीरथी मृत्यु पाम्यो, जेथी मारा शत्रुर्जने सुख ने मारा मित्रोने दुःख थयुं. जगत्मां सर्व यदुवंश बदनाम थयो. ते कारणयी दे जाइ ! तमो जरतखंडमां जइ चक्र, शारंग, शंख, तथा गदा धारण करना, पीला वस्त्रवालुं छाने गरुडनी ध्वजावालुं, मारुं रूप बनावी, विमानमां बेसी, लोकोने ते प्रमाणे बतावो तथा नील वस्त्रवालु तालध्वज, हल, मुशल, शस्त्रने धारण करेलुं एवं तमारुं रूप पण विमानमां बेसी लोकोने बतावो ने सर्व जगोए लोकोने कहो के, राम कृष्ण एवाश्रमे ने अविनाशी उइए, तथा स्वेच्छाविहारी बाइए. ज्यारे लोकोने श्रसत्य प्रतीत था जशे, त्यारे अमारो सर्व अपयश दूर थ जशे. श्री कृष्णनुं पूर्वोक्त सर्व कथन श्री वलनजीए विकारी लीधुं. बलभद्रजी जरतखंडमां आवी कृष्ण वलनयनुं रूप करी सर्व जगोए विमानमां बेसी, लोकोने कड़ेवा लाग्या के, हे लोको ! तमे कृष्ण बलमनी अर्थात् श्रमो वंनेनी सुंदर प्रतिमा बनावी, इश्वरनी बुद्धिथी, अति आदर सत्कारथी, तेनी पूजा जक्ति करो ? कारण के श्रमेज जगत्ना रचनारा बए, अने स्थिति संहार करनारा पण अमेज इए. श्रमे पोतानी इछा पूर्वक स्वर्ग ( वैकुंठ ) मांथी चाल्या श्रावीए बए, फरी मारी वा प्रमाणे स्वर्गमां जइए बीए. द्वारिकानी रचना श्रमेज करी हती, ने मेज द्वारिकानो संहार कर्यो छे, कारण के ज्यारे श्रमे वैकुंठमां जवानी इछा करीए बीए, त्यारे द्वारिका सहित पोतानो सर्व वंश नाश करी चाल्या जइए बीए. मारी उपरांत बीजो कोइ कर्त्ता हर्त्ता नथी. या प्रमाणे बलभद्रजीनुं कहेतुं सांजली सर्व नगर तथा गामोना लोको, कृष्ण बलमजीनी प्रतिमा, सर्व जगोए बनावी पूजवा लाग्या. जेथी चलनजी प्रतिमा पूजनाराउने धन, धान्यादि अनेक वस्तुनो लाभ प्रापी सुखी करता हता. तेज कारणथी बहु लोको ह रिजक्त यर गया. ज्यारथी ते जक्त थया त्यारथी पुस्तको बनावी कृ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश परिच्छेद. (uuz) जीने पूर्णब्रह्म परमात्मा इश्वरादि अनेक नामोथी लखी तेमनी स्तुति करवा लाग्या. ज्यारथी बलनद्रजीए कृष्णनी पूजा करावी, त्यारश्रीज लोकोए कृष्णनो इश्वरावतार मान्यो होय, एम केम न होय ? लौकिक शास्त्रोमा कृष्णने थयाने पांच हजार वर्ष थयां बे, छाने उपर मुजबना वृत्तांतने पण पांच हजार वर्ष थयां बे. ते बने तपासतां उपर मुजब बन्यानी हकीकत साची साबीत थाय बे. बावीसमा छाने वीसमा तीर्थंकरना अंतरमां बारमा ब्रह्मदत्त नामना चक्रवर्ती थया. त्यार पढी वाणारसी नगरीमां इक्ष्वाकु वंशी - श्वसेन राजा थया. तेनी वामा राणीना पुत्र श्री पार्श्वनाथ नामना देवीसमां तीर्थंकर थया. त्यार पढी क्षत्रियकुंड नगरमां इक्ष्वाकुवंशी सिद्धार्थ नाममा राजानी त्रिसला राणीना पुत्र श्री वर्द्धमान ( महावीर ) खामि चोवीसमां चरम तीर्थंकर थया. जरतखंडमां वर्त्तमानमां जैनमत जे प्रचलित बे, ते महावीरखामिना शासनथीज चाले बे, अने जे शास्त्रो रचायेलां बे, ते सर्वे तेमना उपदेश अनुसारेज रचायेलां बे. श्री महावीरखामिनुं सर्व वृत्तांत जोखुं होय तो आवश्यक सूत्रवृत्ति, कल्पसूत्रवृत्ति तथा महावीरचरित्रादि ग्रंथोथी अवलोकन कर. इति श्री तपगछीय मुनि श्री गणि मणिविजय तविष्य मुनि बुद्धिविजय तविष्य मुनि श्रात्माराम आनंद विजय विरचिते जैनतत्त्वादर्श श्री रीषजादि महावीर पर्यंत पूर्ववृतांतनिरुपणनाम एकादश परिछेदः समाप्तः ॥ ११ ॥ ॥ अथ द्वादश परिछेद प्रारंभः ॥ या परिछेदमां श्री महावीर स्वामिथी वर्त्तमान समय सुधिनुं वृत्तांत लखीए बीए. श्री महावीर जगवानना अम्यार शिष्य मुख्य हता. सर्व साधु शिष्यो चौद हजार हता. ते मां ११ मुख्य हता. तेमना नाम. १ इंद्र जूति, ( गौतमखामि ) २ अभिभूति, ३ वायुभूति, ४ व्यक्तस्वामि, २ सुधर्मास्वामि, ६ मंडितपुत्र, मौर्यपुत्र, छ अवकंपित, ए अचलाता, १० मैतार्य, श्री जगवानथी दीक्षित, बत्रीश हजार साध्वी थइ. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनतत्त्वादर्श. श्री जगवंतना अनेक राजा जक्त (सेवक ) हता, जेर्ड श्रावक हता, ते मध्येथी केटलाएकना नाम, श्रेणिक राजा, उदायन, कोणिक, उदायी, वत्सदेशना उदायन, चेटक, नवमतिकदात्रिय जाति, नवलेडिक क्षत्रियजाति, चंप्रद्योत, श्वेतराजा, विजयराजा, नंदिन राजा, हस्तिपालराजा. इत्यादि. सामान्य गृहस्थो आनंद, कामदेव, शंख, पुष्कली प्रमुख श्रावको, तथा जयंती, रेवती, सुलसा प्रमुख श्राविका लाखो हती. श्रावक समुदायमां एक श्रावक सत्यकी नामनो अविरति सम्यग्दृष्टि हतो. तेनुं चरित्र आवश्यक शास्त्रमा नीचे प्रमाणे लखेल . विशाला नगरीमां चेटक राजानी पुत्री सुज्येष्टा नामनी हती; तेणीये कुमारी अवस्थामां दीक्षा लीधी हती, अर्थात् साध्वी थर हती. ते एकदा उपाश्रयनी अंदर सूर्यनी सन्मुख आतापना लेती दती, ते अवसरे पेढाल नामनो परिव्राजक (संन्यासी) विद्यासिक हतो, ते पोतानी विद्यानुं दान करवावास्ते पात्र पुरुषनी तपास करतो हतो. विचार एवो हतो के, जो ब्रह्मचारिणीनो पुत्र होय तो दान श्रापवाने उत्तम पात्र गणाय. हवे ते संन्यासीये एकदा रात्रिये सुज्येष्टाने नग्नपणे शीतनी आतापना लेती दीगी, ते समये धुंध विद्याथी अंधारामा तेणीने अचेत करी तेणीनी योनिमां पोताना वीर्यनो संचार कर्यो. ते अवसरे सुज्येष्टा ऋतुधर्मने प्राप्त थर हती, तेथी तेणीने गर्भ रह्यो. हवे साध्वीना समुदायमा गर्जनी चर्चा थवा लागी, परंतु अतिशय ज्ञानीये कडं के सुज्येष्टायें कोश्नी साये विषयसेवन करेल नथी, अने विद्याधर संबंधी सर्व वृत्तांत कह्यो, जेथी सर्वनी शंका दूर थर गइ. योग्य समये सुज्येष्टाने पुत्र थयो, ते पुत्रने श्रावकोये पोताने घेर पाली मोटो कर्यो, तेनुं नाम सत्यकी पाड्यु. एकदा सत्यकी, साधवीनी साथे श्री महावीर जगवानना समवसरणमा गयो हतो, ते अवसरे कालसंदीपक नामनो एक विद्याधर श्री महावीरखामिने नमस्कार करी पुबवा लाग्यो के हे जगवन् मने कोनाथी जय जे? नगवंते कडं के था सत्यकी नामना बोकराथी, तने जय . ते सांजली एकदा कालसंदीपक सत्यकीनीपासे गयो, तेनी अवज्ञा करी कहेवा लाग्यो के झुं तुं मने मारीश ? एम कही जोरावरीथी सत्यकीने पोताना पगबच्चे नाख्यो, ते समये तेनो पिता पेढाल श्रावी पहोंचवाथी तेनुं संरक्षण Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादश परिछेद, (५५३) कयु. पड़ी पेढाले पोतानी सर्व विद्या सत्यकीने आपी. सत्यकी महारोहिणी विद्यानुं साधन करतो हतो. सत्यकीनो रोहिणी विद्या साधन करवानो था सातमो नव हतो. रोहिणी- विद्या साधतां सत्यकीनो जीव पांच नवसुधी जीव (प्राण) श्री मार्यो गयो. गजवमा पोतातुं आयुष्य ब मदिना बाकी रहेते बते रोहिणी विद्या साधवांनी श्वा थवाथी ते श्वा पार पाडवानो आरंज को नहि; परंतु या सातमां नवमां रोहिणी विद्या साधवानो आरंज कर्यो. तेनी विधि लखीये बीये, अनाथ मृतक मनुष्यने चितामा सलगावे, अने श्राला चामडाने शरीर उपर लपेटी डावा पगना अंगुग उपरज उन्ना रही ज्यांसुधी ते चितामां काष्ठ सलग्या करे त्यांसुधी मंत्रनो जाप करे. या विधि प्रमाणे सत्यकी विद्या साधतो हतो. ते वखते कालसंदीपक विद्याधर पण त्यां श्रावी पहोंच्यो. तेणे चितामां लाकडां नाखी सात दिवससुधी अनि बुझावा दीधो नहि.जेथी सत्यकीनी दृढता देखी रोहिणी देवी सादात् प्रगट थश्, कालसंदीपकने कहेवा लागी के तुं विघ्न कर नहि ? कारण के हुँसत्यकी उपर तुष्टमान थ सिझ थयेली ढुं. रोहिणी देवीये तत्काल सत्यकीने कडं के हे सत्यकी ! तारा शरीरमा हुँ कये रस्तेथी प्रवेश करूं ? सत्यकीये कह्यु, मस्तक उपरथी प्रवेश कर? रोहिणीये मस्तकने रस्तेथी प्रवेश कर्यो, जेथी सत्यकीने मस्तकमां खाडो पड़ी गयो. देवीये तुष्टमान अश् मस्तकना खाडानी जगाये जीजा नेत्रनो आकार बनाव्यो. हवे सत्यकी त्रण नेत्रवालो प्रसिद्ध थयो. एकदा सत्यकीये वीचार कयों के पेढाले मारी माता, जे राजानी कुमारी कन्या हती तेने बगाडेली बे, तेथी तेने शि-. क्षा करवी जोश्ये, एम निश्चय करी, तेणे योताना पिता पेढालने मारी । नांख्यो. जेथी लोकोये सत्यकी, नाम रुज (जयानक) पाडी दीधुं, कारण के जेणे पोताना पिताने मारी नांख्यो, तेना करतां बीजो कोण वधारे जयानक कदेवाय ? हवे सत्यकीये विचार कयों के कालसंदीपक मारो कुश्मन , ते क्या ? ज्यारे सांजलवामां आव्यु के ते अमुक जगाये , त्यारे ते तेनी पासे पहोंच्यो. कालसंदीपक तेने देखी जाग्यो, सत्यकीये तेनी पूंठ पकडी. कालसंदीपक नीचे उंचे, ज्यां त्यां नागतो रह्यो, परंतु सत्यकीये तेनो पीडो मुक्यो नहि. अनुक्रमे कालसंदीपके स ७० Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५४) जैनतत्त्वादर्श. त्यकीने जूल थापमा पाडवावास्ते त्रण नगर बनाव्यां, सत्यकीये विद्याथी त्रणे नगरने सलगावी दीधां. बेवटे कालसंदीपक नासीने लवण समुजना पाताल कलशामा चाल्यो गयो. सत्यकीये त्यां जश् कालसंदीपकने मारी नांख्यो. पनी सत्यकी विद्याधर चक्रवर्ती थयो, त्रण संध्यासमये सर्व तीर्थकरोने वंदना करी नाटक करतो हवो. जेथी ईझे सत्यकीखें नाम महेश्वर पाड्युं. महेश्वर (सत्यकी) ने बे शिष्यो थया. एक नंदीश्वर, बीजो नादीया. नादीयाने विद्याना बलश्री बलद बनावी लेवामां श्रावतो, अने तेना उपर बेसी महेश्वर अनेक क्रीडा, कुतुहल करतो हतो. महेश्वर श्रीमहावीर जगवंतनो अविरति सम्यग्दृष्टि श्रावक हतो, परंतु अत्यंत कामी हतो, अने ब्राह्मणोनी साथे तेने बहुज वेर हतुं, तेथी विद्याना बलथी तेणे सेंकडो ब्राह्मणोनी कुमारी कन्याउँने विषयसेवन करी बगाडी हती. अनुक्रमे वीजा लोकोनी तथा राजा प्रमुखथी वहु तथा पुत्रीउनी साथे ते विषय सेवन करवा लाग्यो, परंतु तेनी विद्याना जयथी कोइ तेने कांश पण कही शकतुं नहोतुं. जे कोइ तेनी आडे श्रावतो,ते मार्यों जातो हतो. महेश्वरे विद्याना बलथी एक पुष्पक नामनुं विमान बनाव्यु, तेमां वेसी पोतानी श्छा मुजब फरतो हतो. ए प्रमाणे तेनो काल व्यतीत थतो हतो. एकदा महेश्वर उजायनी नगरीमां आव्यो. त्यां चंप्रद्योत राजानी शिवा नामनी राणी शिवाय बीजी सर्वे राणीउनी साथे तेणे विषय जोग कों. वीजा लोकोनी वहु, पुत्री प्रमुखने पण बगाडवा लाग्यो; जेथी चं प्रद्योतने अत्यंत चिंता थवा लागी. तेणे विचार कर्यों के एवो को उपाय करीये के जेथी महेश्वरनो विनाश थर जाय; तेनी विद्याने लीधे कां पण उपाय चाल्यो नहि. हवे ते नगरमां उमा नामनी एक अत्यंत रुपवंत वेश्या रहेती हती. तेनो एवो नियम हतो के जे कोश तेने अमुक संख्यातुं धन आपे, ते तेनी साथे विषय सेवन करे. एकदा महेश्वर ते वेश्याने घेर गयो. वेश्याये तेने आदर सत्कार करी तेनी सन्मुख बे फूलो राख्यां, एक खिलेढुं, अने बीजुं खिल्याविनानु. महेश्वरे खिलेला फूल तरफ पोतानो हाथ पसार्यो, त्यारे उमाये खिट्या वगरनुं फूल महेश्वरना हाथमा आप्यु, अने कह्यु के श्रा फूल (कमल) तमारा योग्य .. महेश्वरे पुन्ह्यु के श्रा कमल मारा योग्य केम ? त्यारे उमाये कयु के श्रा Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश परिच्छेद. (uuu) खिल्या विनाना कमल समान कुमारी कन्या बे, जे तमने जोग करवावास्ते वल बे, अने हुं तो खिलेला फूल समान ढुं. महेश्वरे कयुं के तुं पण मने अति वल्ल बो. ए प्रमाणे वार्तालाप करी बन्ने जपार्ट विषयमां श्रासक्त थयां महेश्वर उमाना दावजावची तेनेज घेर रहेवा लाग्यो. उमाये महेश्वरने पोताने श्रधीन करी लीधो, जेथी उमानुं वचन महेश्वर उल्लंघन करी शकतो नहोतो. ए प्रमाणे केटलोएक काल व्यतीत थयो, त्यारे चंद्रप्रद्योते उमाने बोलावी बहुज श्रादर सत्कार तथा धन आप के तुं महेश्वरने या वात पुछ ? के एवो कोइ समय बे, के जे वखते तमारी पासे कां पण विद्या रहेती नथी ? उमाये युक्तिपूर्वक पूढी कदेवानुं वचन श्रायुं. हवे उमाये महेश्वरने पुब्धुं हे स्वामि । मने एक जातनी बहुज बीक बे. आपनी विद्या को वखते जती रहे बे के केम? तेनो खुलासा करो, जेथी मने निरांत थाय. महेश्वरे कथं हे वने ! तुं विचार कर नहि. मारी विद्या जती नथी. मात्र ज्यारे हुं मैथुन सेवन करुं हुं, त्यारे मारी पासे कां पण विद्या रहेती नथी, अर्थात् ते वखते मारी विद्या चालती नथी. हवे जमाये महेश्वरनी सर्व बिना चंद्रप्रद्योतने कही दीधी, जेथी चंद्रप्रद्योते उमाने कयुं के मारो महेश्वरने मारवानो विचार बे, जेथी तारी साथे ते जोग जोगवतो होय, धने तेने माये एवी गोठवण कर. उमाये कनुं के मने मारवी नहि. राजाये क के बहु सारं. पी युक्ति प्रमाणे चंद्रप्रद्योते उमाना घरमा सुनटोने गुप्त राख्या. ज्यारे महेश्वर उमानी साथे विषय सेवनमां मन घर बनेना शरीरो परस्पर एक शरीरवत् थ‍ गयां, त्यारे राजाना सुनटोये बनेने कापी नांख्या, अने नगरनो उपद्रव दूर कयों. दवे महेश्वरनी सर्वे विद्याये महेश्वरना शिष्य नंदीश्वरने पोतानो अधिष्ठाता बनाव्यो. ज्यारे नंदीश्वरे पोताना गुरुने उपर मुजब विटंबनाथी मार्यानी वात सांजली, त्यारे विद्यार्थी उजयनी उपर शिला विकुर्वी; छाने कड़ेवा लाग्यो के दे मारा दासो ! हवे तमे क्यां जशो ? हुं सर्वने चूर्ण करी नाखुं खुं हुं सर्व शक्तिमान् इश्वर बुं. कोइनो मार्यो मरतो नथी. हुं सदा अविनाशी ढुं. या यानक वचनोथी लोको बहुज डरवा लाग्या, सर्वे लोको विनंति करी पगे पडवा लाग्या, तथा सर्वेये कयुं के श्रमारा अपराध क्षमा करो. नंदी Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५६) जैनतत्त्वादर्श. श्वरे कयु के तमे तेज अवस्थामा अर्थात् उमाना जगमा महेश्वरनुं लिंग स्थापन करी पूजा करो, तोज हुँ तसोने जीवता बोईं. लोकोये तेज प्रमाणे अंगीकार करी पुजा करवी शरु करी. नंदीश्वरे तेज प्रमाणे अनेक गाम, नगरोमां लोकोने डरावी मंदिरो वंधाव्यां, तेमां पूर्वोक्त श्राकारे जगमां लिंग स्थापन करी पूजा करावी,आ श्रीमहावीरना अविरती सम्यग्रदृष्टि श्रावक महेश्वरनी उत्पत्ति बे. श्री महावीर खामिना समयमा राजगृह नगरमां श्रेणिक राजानी चेलणा राणीने कोणिक नामनो पुत्र अयो. कोणिकने तेना पिता श्रेणिकनी साथे पूर्व जन्मनुं वेर हतुं, तेथी कोणिक मोटो थतां तेणे श्रेणिकने गादीउपरथी उगडी, पकडीने पांजरामां केद कर्यो; अने राज्यगादी उपर पोते वेगे. एकदा पोतानी माता चेलणाए प्रसंगवशात् कोणिकने कडं के तुं तारा पिताने जेवो वहालो हतो, तेवो कोइ पण वीजो पुत्र वहालो न होतो, कारण के ज्यारे तुं वालक हतो, त्यारे तारी आंगली पाकी हती, जेथी तने रात्रिए विलकुल निमा आवती न होती, अने श्राखी रात तुं रोया करतो हतो. ते वखते तारा पिता तारी आंगलीने पोताना मुखमां लश् तने आरास थवा माटे ते पाकेली आंगलीतुं रुधिर तथा परु चुसी, थुकी काढता हता; इत्यादि अनेक प्रकारथी तारा पिताये तारी उपर स्नेह करेल , अने तें तो पूर्वना उपकारनो बदलो तेने पांजरामां घाली केद राखवारुप करेलो . माटे वाह ! पुत्र ! तारी लायकी केटली कहुँ ? माताना या प्रमाणेना वचनो सांजली कोणिक बहुज कुःखी थयो, अने पोताथी ययेला अकार्यने माटे रोवा लाग्यो, अने विचार कयों के हुँ पोतेज जश् पिताश्रीने मारा हाथथी पांजरामांथी कहाडी राज्य सिंहासन उपर वेसाडं. एवा निश्चयथी कुहाडो लश् दोडतो पितानी पासे श्राव्यो. श्रेणिके विचार कर्यों के कोणिक कुहाडो लश् दोडतो मारी उपर आवे बे, जेभी आजे सने केवी रीते कमोतथी मारशे ? एवा जयथी श्रेणिक कांश्क खाइने मरी गया. ज्यारे कोणिके पोताना पिताने मरी गयेला दीग त्यारे ते बहुज रोयो तथा कुटवा लाग्यो, अने श्रत्यंत शोकमां निमग्न थयो. ज्यारे राजगृहनी बहार तथा अंदर श्रेणिकना राजमेहेलो तथा सिंहासनादि देखतो, त्यारे ते अत्यंत दिलगीर थतो. Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश परिच्छेद. (YUG) दुःखी राजगृह नगर बोडी तेणे चंपानगरी पोतानी राज्यधानी बनावी, अने त्यां रहेवा लाग्यो: तो पण पितानी सेवा माराथी घर नहि पितानुं कार्य मोत थयुं. एवा वारंवार विचार याववाथी तें बहुज दुःखमा रहेवा लाग्यो, पढी मंत्रीए एकमत करी प्रछन्नपणे एक पुस्तक बनाव्युं, तेमां एवं कथन लखाव्युं के, जे पुत्र पोताना मरण पामेला पिताने वास्ते, पिंडप्रदान, वस्त्रजोड, आभूषण, शय्या प्रमुख ब्राह्मणोने पे, ते सर्व श्राद्धादि सामग्री तेना पिताने प्राप्त थाय बे. या पुस्तकने घुमाडावाला मकानमां राखी घुमाडाथी प्राचीन (जुना) पुस्तकजेवुं बनावी दीघुं. पठी या पुस्तक कोपिक राजाने संजलान्युं. कोषि पण पितानी जति वास्ते पिंडप्रदानादिमां बहुज धन वापर्यु. त्यारथीज मरीगयेला पाबल पिंडप्रदान श्राद्धादि प्रवृत्त थयेल डे. जगत्मां पण प्रसिद्ध बे के कर्ण राजाये श्राद्ध चलावेल बे, ते याज कोपिक राजानुं नाम लोकोए कर्ण राजा करी लखी दीधुं बे. हवे प्रयाग तीर्थनी उत्पत्ति लखीए बीए. यन्निकासुत जैनाचार्य श्रत्यंत वृद्ध श्रइ जतां, गंगानदी उतरतां केवलज्ञान पाम्या, छाने ज्यां प्रयाग बे, त्यां पोतानुं शरीर बोडी मुक्ति पाम्या, ते स्थले देवतार्जए मुनिनो निर्वाण महोत्सव कर्यो, त्यारथी प्रयाग तीर्थनो महिमा थयो. महावीर स्वामिना वखतमां जे राजा प्रमुख तथा व्यवहारा दिनुं स्वरुप हतुं, तथा जैनमतनो विस्तार इतो ते सर्वनुं स्वरूप यावश्यकसूत्र, वीरचरित्र, वृहत्कल्पादि शास्त्रोथी जाणवुं. श्री महावीर स्वामिना समयमां राजगृह नगरमां श्रेणिक राजा थया. तेनी पाल कोपिक, श्रेणिकना मरण पढी कोणिके चंपानगरी वसावी, अधिकार पूर्वेकह्योः हवे को शिकना मरण पढी तेनो पुत्र उदायी राजा थयो, ते कोकिनी पाउल तेना भरण पढी उदास थवाथी चंपा बोडी पाडलीपुत्र ( पटना ) वसावी पोतानी राज्यधानी करतो हवो. श्री महावीर जगवंत विक्रम संवतथी ( 999 ) वर्ष पहेलां पावापुरी नगरीमां हस्तिपाल राजानी पुरातन राज्यसनामां बहोंतेर वर्षनुं श्रायुष्य जोगवी कार्तिक वदी श्रमावास्यानी रात्रिए पाउले प्रहरे पद्मासने बैठा था शरीरादि शेष चारे कर्मनी सर्व उपाधी बोडी निर्वाण Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) जैनतत्त्वादर्श. पाम्या. ते समये मोटा शिष्योमां गौतमस्वामि तथा सुधर्मास्वामि श्रा बेज शिष्यो विद्यमान हता. बाकीना नवे शिष्यो श्री महावीर न. गवंत विद्यमान थकां, एक मासना अनशन करी केवलज्ञान पामी मुक्ति पाम्या हता. अगीयारे मोटा शिष्यो ज्ञातिना ब्राह्मण हता. चार वेद अनेक वेदांगादि सर्व शास्त्रोना वेत्ता हता. अगीबारे शिष्योना मली (४०) चउमालीससो विद्यार्थी हता. तेऊनो वृत्तांत लखीएबीए. __ ज्यारे श्री महावीर नगवंतने केवलज्ञान उत्पन्न थयु, ते समये मध्यपापा नगरीमा सोमल नामनो हिज यज्ञनो श्रारंज करतो हतो. ते यज्ञ प्रसंगे सर्व ब्राह्मणोमां श्रेष्ट पूर्वोक्त गौतमादि आगीबारे आचायोने आमंत्रण कर्यु हतुं. ते यनूमिनी इशान दिशाए महासेन नामना उद्यानमां श्री महावीर नगवंतनुं समवसरण रत्न, सुवर्ण, रौप्यमय, अनुक्रमे त्रण गढ संयुक्त देवोए वनाव्यु. ते समवसरणनी वचमां सिंहासन उपर वेसी श्री महावीर नगवंत उपदेश आपवा लाग्या. ते समये श्राकाश मार्गे, सेंकडो विमानोमां वेठा थका, चारे प्रकारना देवता जगवंत श्री महावीर स्वामिना दर्शन वास्ते तेमज उपदेश श्रवण करवा :आवता हता. ते ने देखी यज्ञ करनारा ब्राह्मणोए जाण्यं के श्रा सर्व देवो सादात् अमारा यानी आहुती सेवा आवे बे. एटलामां देवतार्ड तो यज्ञनूमिने बोडी नगवानना चरणोमां जश् हाजर थया. वली वीजा लोको पण श्री महावीर जगवंतना दर्शन करी तथा उपदेश सांजली गौतमादि पंडितोने कहेवा लाग्या के, भाजे या नगरीनी बहार सर्वज्ञ, सर्वदर्शी नगवान् श्राव्या बे. तेनुं रुप एवं डे के तेनुं यथार्थ वर्णन करवाने कोइ पण शक्तिवान् नथी; अने तेनो उपदेश एवो डे के तेमां कांश पण संशय पडतो नथी, वली लाखो देवता तेमना चरणोनी सेवा करे बे; जेथी श्राजे अमारं अत्यंत मोढे जाग्योदय थयु, के एवा सर्वज्ञ अरिहंत जगवंतना दर्शन श्रमे पाम्या. ज्यारे गौतमजीए लोकोना मुखथी सर्वज्ञ एवं वचन सांजव्यु, त्यारे तेमना मनमां ारुप अग्नि सलगी उठी; अने बोली उव्या के, माराथी अधिक अने सर्वज्ञ बीजो कोण ने ? हमणांज जर तेना सर्वज्ञपणाने परास्त करुं , इत्यादि अनेक गर्व संयुक्त वचनो कहाड्यां; पड़ी श्री महावीर जगवंतनी पासे ते पहोंच्या. Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश परिच्छेद. (एयए) दूरथीज श्री जगवंतने चोत्रीश अतिशय संयुक्त, तथा इंद्रो देवो अने मनुष्योथी परिवृत दीठा. देखतांज बोलवानी शक्ति मंद थर गइ. जगवंतनी सन्मुख जतांज, श्री भगवंते तेमने बोलाव्या. हे गौतम इंडनति ! तमे याव्या ? गौतमजीए मनमां विचार्यु के, मारुं नाम पण या जाणे बे; परंतु तेमां शुं आश्चर्य ? जगत्मां प्रसिद्ध एवा मने कोण जातुं नथी? मारुं नाम लेवाथी हुं कांइ तेने सर्वज्ञ मानुं नहि; परंतु मारा मननां जे संशय बे, ते संशय जो ते दूर करे तो हुं तेने सर्वज्ञ मानुं. तकाल जगवंते कं हे गौतम ? तमारा मनमां था संशय बे- जीव बे के नहि ? अने ते संशय तमने वेदोनी परस्पर विरुद्ध श्रुतियोथी थयेल . ते श्रुतियो कहीये बीये. “ विज्ञान घन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्यसंज्ञास्तीत्यादि ” तेनाथी विरुद्ध, या श्रुति बे, " सवै श्रयमात्मा ज्ञानमय इत्यादि " या श्रुतियोनो अर्थ तमारा मनमां जेम जासन याय बे, महुं तमने कहुं हुं ते सांजलो. प्रथम श्रुतिनो अर्थ तमे या प्रमाणे करो बो- नीलादि रूप होवाथी विज्ञानज चैतन्य बे, विशिष्ट जे नीलादि तेथ जे घन ते विज्ञानघन, ते विज्ञानघन या प्रत्यक्ष परिविद्यमान रूप पृथ्वी, छाप, तेज, वायु, आकाश, या पांचे भूतोथी उत्पन्न यह फरी तेनी साथेज नाश थर जाय बे, श्रर्थात् भूतोनो नाश थवाथी, तेनी साथे विज्ञानघननो पण नाश घर जाय बे, ते कारणथी प्रेत्य संज्ञा नथी, अर्थात मरण पढी फरी परलोक गमन, नर, नारकादि जन्म यतो नथी. श्रा श्रुतिथी जीवनी नास्ति श्रर्थात् तेनो अभाव सिद्ध थाय छे. दवे बीजी श्रुति कड़े बे के - श्रा श्रात्मा ज्ञानमय अर्थात् ज्ञान स्वरूप बे, इत्यादि. तेथ श्रात्मानी सिद्धि थाय बे. या बंने श्रुतियो परस्पर विरोधी होवाथी sis निश्वय र शकतो नथी. वली बीजा पण श्रात्माना स्वरुपमां परस्पर विरोधी मत बे. कोइ कढे बे के, यतः ॥ एतावानेव पुरुषो, यावा निंप्रियगोचरः ॥ जड़े वृकपदं पश्य, यद्रवदत्यवदुश्रुताः ॥ १ ॥ वली बीजा मतवाला कहे बे के यतः ॥ " न रूपं निक्षवः पुलः " श्रर्थात् श्रात्मा मूर्त. वली एक श्रागम एवं कहे बे के यतः ॥ “ श्रकर्त्ता निर्गुणो जोक्ता आत्मा" अर्थात् कर्त्ता, सत्व, रज, तम या त्रण गुणोथी रहित सुख " Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धादश परिच्छेद. (KES) जेर्जए ४ श्री प्रजवस्वामिनी पाट उपर श्री शिय्यंजवस्वामि बेठा मनक साधु वास्ते श्रीदशवैकालिक सूत्रनी रचना करी तेनी उत्पत्ति या प्रमाणे - एकदा प्रस्तावे प्रजवस्वामिने रात्रिना विचार थयो के मारी पाट उपर कोण बेसशे ? ज्ञानबलथी विचारतां सर्व संघमां पोतानी पाट योग्य कोइ देखवामां श्रव्यं नही, तेथी पर दर्शनवालाई तरफ ज्ञानवलयी देखवा लाग्या. अनुक्रमे तेमणे राजगृह नगरमां शिय्यंजव जट्टने यज्ञ करतां थकां पोतानी पाट योग्य दीवा तत्काल प्रभवस्वामि विहार करी सपरिवार राजगृह नगरमां श्राव्या. पोताना बे साधुने आदेश कयों के तमे यज्ञस्थानमां जई निक्षावास्ते धर्मलान कहो, अने यज्ञ करनाराने या प्रमाणे कहो- “अहो कष्टमोकष्टं तत्त्वं विज्ञायते न हि " बने साधु गुरुना प्रदेश मुजब पूर्वोक्त सर्व कर्यु. ज्यारे ब्राह्मणोए "होकष्टं " इत्यादि श्रवण कर्यु, ते वखते यज्ञवाडामां शिय्यंजव ब्रा ने यज्ञदीक्षा लेवानी हती, तेथी ते यज्ञवाडाना दरवाजामां उजा हता, जेथी तेमणे पण मुनियोनुं “ अहोकष्टं " इत्यादि श्रवण कर्यु. तकाल ते विचारवा लाग्या के श्रावा उपशमप्रधान साधु कदापि - सत्य बोलता नथी, तेथी तेमना मनमां संशय थयो, जेथी उपाध्याय ने पुयं के तत्त्व शुं बे ? उपाध्यायजीए कर्तुं के चार वेदमां जे कथन करेल बे तेज तखबे, वेद उपरांत बीजुं तत्त्व नथी, शिय्यंजवे कयूं के तमे ददिपाना लोथी मने तत्त्व बतावता नथी. वली रागद्वेषरहित, निर्मम, निःपरिग्रह, शांत, दांत, महंत एवा मुनियोनुं कथन कदापि सत्य होतुं नथी, तेथी हवे तमे मारा गुरु नथी, तमे तो जन्मथी जगत्ने उगवानी बाजी रची बेठा हो, माटे शिक्षायोग्य बोः वास्ते कां तो मने तत्त्व - बतावो ? अने तेम नहि करशो तो तलवारथी हुं तमारुं शिरछेद करीश. एमकतां यत्यंत क्रोधना आवेशमां आवी जवाथी मियानथी तलवार बहार काढी. उपाध्याये प्राणांत कष्ट देखी कयुं के श्रमारा वेदोमां पण एम लखेल बे, तथा अमारी आम्नाय पण एवीज बे के ज्यारे को मारुं शिरछेद करवा यावे त्यारेज तत्त्व कहेवुं, अन्यथा नही. तेथी हवे हुं तमने तत्व कहुं हुं. श्रा यज्ञस्थंजनी नीचे श्रहंतनी प्रतिमा स्थापन करेली बे, अने तेनी प्रवृन्न रीते नीचेज पूजा करवामां आवे बे. Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) जैनतत्वादर्श. तेना प्रजावधी यज्ञना सर्व विघ्नो दूर थर जाय बे. जो यज्ञस्थल नीचे अर्हतनी प्रतिमा न राखवामां आवे तो महातपा सिझपुत्र तथा नारद, था बंने यज्ञने विध्वंस करी नाखे . पडी उपाध्यायजीए स्थंन उखेडी अर्हतनी प्रतिमा बतावी, अने कह्यु के या प्रतिमा जे देवनी , ते देव, श्री अर्हतनो कथन करेलो धर्म, जीवदया रूप तत्व के अने श्रा जे वेदप्रतिपाद्य यज्ञ , ते सर्व हिंसात्मक रूप होवाथी विडंबना रूप बे, परंतु शुं करीए ? जो अमे एम न करीए तो अमारी श्राजीविका चालती नथी. हवे तुं तत्त्व समजी ले, अने मने बोडी दे; तथा परमाईत थ जा. कारण के में तने मारा पेटने वास्ते बहु दिवस रखडाव्यो बे. गुरुनु शुभ अंतःकरण थयेवू जाणी शिव्यंजवे तेने नमस्कार कर्यो, अने कह्यु के यथार्थ तत्त्वनो प्रकाश करवाथी तमे हवे साचा उपाध्याय बो. एम कही तुष्टमान थश् यज्ञनी सर्व सामग्री सुवर्णपात्रादि शिय्यंजवे उपाध्यायने आपी दीधी, अने प्रनवस्वामि पासे जश् तत्त्व स्वरूप पुबी दीक्षा लीधी. तेमनो शेष वृत्तांत परिशिष्टपर्व ग्रंथथी जाणी लेवो. शियंजव स्वामि अगवीश वर्ष गृहस्थावास, अगीथार वर्ष सामान्य साधु, अने तेत्रीश वर्प युगप्रधानाचार्य पदवी जोगवी, सर्व श्रायु वासठ वर्षतुं जोगवी श्रीमहावीर जगवंत पनी श्रगणुं वर्षे स्वर्गे गया. ५ श्रीशिय्यंजवस्वामिनी पाट उपर यशोनअस्वामि बेग. ते बावीस वर्ष गृहस्थवास, चौद वर्ष व्रतपर्याय, पचास वर्ष युगप्रधान पदवी. सर्व श्रायु बासी वर्षतुं नोगवी श्रीमहावीर पनी (१४७) वर्षे खर्गे गया. ६ श्री यशोनलस्वामिनी पाट उपर एक संनूतविजय श्रने बीजा नावाहुस्वामि, आ बंने बेग. संनूतविजयजी बेंतालीस वर्ष गृहवास, चालीस वर्ष व्रतपर्याय अने आठ वर्ष युगप्रधान पदवी, सर्व श्रायु नेवु वपर्नु जोगवी स्वर्गमां गया. श्रीनबाहुस्वामिए १ श्रावश्यक नियुक्ति, ५ दशवकालिक नियुक्ति, ३ उत्तराध्ययन नियुक्ति, ४ श्राचारांग नियुक्ति, ५ सूत्रकृतांग नियुक्ति, ६ सूर्यप्रज्ञप्ति नियुक्ति, रीषिजाषित नियुक्ति कल्पनियुक्ति, ए व्यवहार नियुक्ति, १० दशानियुक्ति, था दश नियुक्तियो; तथा १ कल्प, २ व्यवहार, ३ दशाश्रुतस्कंध, श्रा त्रण नवमा पूर्वमाथी उझार करी बनाव्या. वली जबाहुसंहिता नामर्नु अति विस्तारवाडं Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादश परिच्छेद. (LEP) ज्योतिष शास्त्र बनाव्युं. उपसर्गहस्तोत्र बनाव्युं. एवीरीते जैनमतवालाई उपर बहुज उपकार कर्यो. बाहुखा मिने वराह मिहिर नामना एक सगा नाइ हता, ते प्रथम तो जैनमतना साधु थया हता, पढी साधुपणुं तजी दीधुं, तेमणे वराही संहिता बनावी. विक्रमादित्यनी सजामां जे वराह मिहिर पंडित हता ते बीजा वराहमिहिर थया बे. संहिताकारक ते नहीं. तेमनुं सर्व वृत्तांत परिशिष्ट पर्वथी जाणवुं श्रीमद्रबाहुखामि पीसतालीस वर्ष गृहस्थावास, सत्तर वर्ष व्रतपर्याय चौद वर्ष युगप्रधान, सर्व श्रायु ढोंतेर वर्षनुं जोगवी श्रीमहावीर पछी ( १७० ) वर्षे खर्गे गया. श्री संभूतविजय तथा श्रीमद्रबाहु खामिनी पाट उपर श्रीस्थूलखामि बेठा तेमनो सर्व वृत्तांत परिशिष्ट पर्व ग्रंथथी जाणवो. १ प्र जवखामि, २ शिय्यंजवखामि, ३ यशोजस्वामि, संभूतविजय, ५. जबाहुस्वामि, ६ स्थूलन था व याचायों चौद पूर्वना वेत्ता हता. श्री स्थूलनजी त्रीस वर्ष गृहस्थावास, चोवीस वर्ष व्रतपर्याय, पीसतालीस वर्ष युगप्रधान पदवी, सर्व श्रायु नवाएं वर्षनुं जोगवी श्रीमहावीर पी (२१५) वर्षे स्वर्ग मां गया. श्रीमहावीर पढी बसे चौद वर्षे श्राषाढ श्रा चार्यनो शिष्य त्रीजो निन्द्रव थयो. स्थूलिनडजीना समयमां नवनंदोनुं ( १५५ ) एकसो पंचावन वर्षतुं राज्य उत्थापी चाणाक्य ब्राह्मणे चंद्रगुप्त राजाने राज्य सिंहासन उपर बेसाड्यो. चंद्रगुप्तना वंशजोए (१०८) वर्षसुधी राज्य कर्यु. चंद्रगुप्तना पितानुं नाम मोरपाल हतुं, तेथी चंद्रगुप्तनो मौर्यवंश कदेवाय बे. चंद्रगुप्त जैनमती श्रावक राजा हतो. चंद्रगुप्त तथा नव नंदोनुं वृत्तांत परिशिष्ट पर्व, उत्तराध्ययनवृत्ति तथा घ्यावश्यकवृत्तिथी जोइ लेवुं. श्री स्थूलभद्रस्वामि पढी उपरना चार पूर्व, प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान विछेद थइ गयां. श्रीमहावीर पछी (२२०) वर्षे श्रश्वमित्र नामनो चोथो क्षणिकवादि निन्दव थयो. श्रीस्थूलनजीना समयमां बार वर्षनो डुकाल पढ्यो, प्यारे चंद्रगुप्तनुं राज्य हतुं; तथा श्रीमहावीर पढी ( २२० ) वर्ष वित्याबाद गंग नामनो पांचमो निन्हव थयो. श्री स्थूलनजी पढी तेमना वे शिष्यो एक आर्यमहागिरि तथा बीजा सुहस्ति सूरि श्रातमी पाठ उपर बेठा, श्रार्यमहागिरिना शिष्य ७२ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) जैनतत्वादर्श. १ बकुल, २ बलिस्सह, बलिस्सहना शिष्य श्री उमास्वातिजी थया, जेमणे तत्त्वार्थादि सूत्रनी रचना करी, उमास्वातिजीना शिष्य श्यामाचार्य, जेमणे पन्नवणा सूत्रनी रचना करी, आ श्यामाचार्य श्री महावीर पनी त्रणसो बोतेर वर्षे स्वर्गे गया. आर्यमहागिरिजी त्रीस वर्ष गृहवास, चालीस वर्ष व्रतपर्याय, त्रीस वर्ष युगप्रधान पदवी, सर्व आयु एकसो वर्षनुं जोगवी स्वर्गे गया. श्रीसुहस्तिसूरिये एक भिखारीने दीदा आपी, ते निखारी काल करी चंडगुप्तना वंशमां तेना पुत्र विसार, विंडुसारनो पुत्र अशोक, अशो'कनो पुत्र कुषाल, कुणालनो पुत्र संप्रति नामनो राजा थयो. संप्रति राजाये जैनधर्मनी बहुज वृद्धि करी. श्री कल्पसूत्रना प्रथम उद्देशामां श्री महावीरस्वामिना समयमां वर्तमान समय सरखावतां बहु थोडा देशोमां जैनधर्म लखेल . मारवाड, गुजरात, दक्षिण, पंजाब विगेरे देशोमां जे जैनधर्म प्रवः बे, ते संप्रति राजाना समयबीज प्रवर्ते बे. यद्यपि वर्त्तमानमां जैनी राजा नही होवाथी जैनधर्म सर्व स्थले नथी, परंतु संप्रति राजाना समयमांजैनधर्म नारत वर्षमा सर्वत्र हतो, तथा उन्नतिपर हतो, कारण के संप्रति राजानुं राज्य मध्य खंड तथा गंगा अने सिंधुपार सर्व देशोमां हतुं. संप्रति राजाये धर्मवृद्धिमाटे पोताना नोकरोने जैनसाधुः वनावी, पोतानी आज्ञा माननारा राजाशक, यवन, फारसादि देशोमां हता, ते देशोमां पण मोकल्या हता. तेये ते राजा ने जैनना साधुर्जना आहार, विहार, आचारादि सर्व वताव्या हता,तेमज समजाव्या हता. वाद साधुऊनो विहार ते देशोमां करावी ते देशना लोकोने जैनधर्मी कर्या हता. संप्रति राजाये ( एए) नवाणुं हजार जीर्णोद्धार जिनमंदिरोना कराव्या; तथा (२६०००) बवीस हजार नवा जिनमंदिरो बंधाव्यां; सोना, चांदी, पीतल, पाषाण प्रमुखनी सवाकोड प्रतिमा बनावी. तेमना वनावेला मंदिर, नाडोल, गीरनार, शत्रुजय, रतलाम प्रमुख अनेक स्थले असे देखेल . संप्रति राजानी प्रतिमा तो अमे सेंकडो दीती ठे. संप्रति राजानुं संपूर्ण वृत्तांत परिशिष्ट पर्वादि ग्रंथोथी जाणवू. सुहस्ति सूरिए उडायननी रेहेनारी नसा शेगणीना पुत्र अवंतीसुकमालने दीक्षा आपी. जे स्थले अवंतीसुकमाले काल कों, ते स्थले Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छादश परिच्छेद. (492) तेना महाकाल नामना पुत्रे जिनमंदिर बंधाव्युं तें मंदिरमां पोताना पिताना नामची अवंती पार्श्वनाथनी मूर्ति स्थापन करी. कालांतरे बाह्मणोए पोताना बलवान समयमां ते मंदिरमां मूर्त्तिने नीचे दबावी उपर महादेवनुं लिंग स्थापन करी महाकाल मंदिर प्रसिद्ध करी दीधुं. ज्यारे उजयनमां विक्रम राजा थयो, ते अवसरे कुमुदचंद्र ( सिद्धसेन दिवाकर ) नामना जैनाचार्ये ते मंदिरमां कल्याणमंदिर स्तोत्र बनावी स्तुति करी, जेथी शिवलिंग फाटी वचमांथी तत्काल पूर्वोक्त पार्श्वना थनी मूर्ति फरी प्रगट इ. तेनो इतिहास या प्रमाणे बे. विद्याधर गani स्कंदिलाचार्यना शिष्य वृद्धवादि श्राचार्य थया. ते अवसरे उयनमां विक्रमादित्य राजा हतो. तेनो मंत्री देवरूषि ब्राह्मण हतो, कात्यायन गोत्री हतो; तेने देवसिका नामनी स्त्री हती. तेनो पुत्र सिद्धसेन विद्यानां श्रनिमानथी सर्व जगत्ना लोकोने तृणवत् समजतो हतो; बुद्धिमां पण मारा समान कोइ नथी एम मानतो हतो. मने जे मने वादमां जीते तेनो हुं शिष्य थइ जाउं एम ज्यां त्यां विवाद करतो हतो. वृद्धवादि श्राचार्यनी कीर्ति तेना सांजलवामां अत्यंत यावी, तेथे तेनी साथे विवाद करवा सुखासन ( पालखी ) मां बेसी जरुच तरफ जतो हतो. ते अवसरे वृद्धवादि पण जवितव्यताना योगे सन्मुख श्रवता तेने मल्या. बनेनो मेलाप यतां परस्पर घालापसंलाप थयो. सिद्धसेनजीए कर्तुं के मारी साथे तमे वाद करो. वृद्धवादिए कयुं के वाद तो करूं, परंतु या जंगलमां हार जीतनो कोइ साक्षि नथी. सिद्धसेनजीए कर्तुं या जे गाय चरावनारा गोपो बे, तेज मारा तमारा साक्षी था, ते जेने हायों कहे, ते हाय. वृद्धवादिए कयुं तमने जो तेम कबुल होय तो मारे इनकारी नथी. जले तेज साक्षि रहे. हवे तमे वाद चलावो ! तत्काल सिद्धसेनजीए अत्यंत बटादार संस्कृत भाषामां पोतानो वाद शरु कर्यो, अने ते वाद समाप्त कर्यो, ते सांजली गोपोए क के तो कां पण जाणता नथी, केवल लांबा बराडा पाडी - मारा कानमा धाक पाडे बे. हवे गोपोए वृद्धवा दिने कयुं हे वृद्ध ! तुं बोल ? वृद्धवादि अवसर देखी, कछ बांधी, गोपोनी जाषामा बोलवा लाग्या, ने थोडं थोडं कुदवा पण लाग्या ते श्रवसरे तेमणे जे बंदोनो उच्चार J Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७२) जैनतत्त्वादर्श. कर्यो तेमांथी कांश्क लखीए बीए:- "नवि मारिये नवि चोरिये, परदारगमन निवारिये ॥ थोवाधो वंदाश्य, सम्गिमहे मट्टे जाइये. ॥१॥ वली बोलवा तथा नाचवा लाग्या ॥ बंद ॥ कालो कंबल नीचो वह, बाजरिज दीवडो थट्ट ॥ एवड पडी नीले जाड, अवर किसो ले सग्ग नि. लाड ॥२॥ इत्यादि गोपो सांजली बहुज खुशी थया, अने कहेवा लाग्या के वृद्धवादि सर्वज्ञ बे, अमने केवो मीठगे, कानने सुखदायक तथा श्रमारा योग्य उपदेश कर्यो. सिद्धसेन तो कां जाणतो नथी. गोपोनो निर्णय सांजली सिकसेनजीए वृद्धवादिने कडं हे जगवन् ! तमे मने दीक्षा श्रापी पोतानो शिष्य बनावो, कारण के मारी प्रतिज्ञा डे के जो गोपो मने हार्यों कहे तो हुं हार्यों, अने तमारो शिष्य हुं बनु. वृद्धवादिए कडं के था गोपोनी सनामां वाद विवाद शो ? ते प्रमाणेना वादविवादथी हारजीत कहेवाय नहि. तमे गुपुर (जरुच) मां राजसनामां चालो; सजा समद मारो तमारो वाद विवाद थशे. सिद्धसेनजीए कह्यु के हुँ नले विछान् होलं, परंतु अवसरनो जाण नथी, श्रवसरना ज्ञाता तमे ठो, तेथी मने हार्यों समजी दीक्षा श्रापो. सिझसेनजीए पूर्वोक्त कह्या बतां वृद्धवादि आचार्य तेने राज्यसनामां विवाद करवा सारु लइ आव्या. राज्यसत्ता समद विवाद थयो, तेमां सिद्धसेनजीनो पराजय थयो,तेणे श्राचार्य पासे दीक्षा लीधी, गुरुए तेनुं नाम कुमुदचंद्र पाड्यु. पडी ज्यारे आचार्य पदवी प्रापी त्यारे फरी सिइसेन, दिवाकर नाम राख्यु. पी वृद्धवादि तो अन्यत्र विहार करी गया, अने सिकसेन दिवाकर श्रवंती (उजायन) मां गया. उजयननो संघ सन्मुख आव्यो, अने सिझसेन दिवाकरने सर्वज्ञपुत्र एवं बिरुद श्राप्यु, एम विरुदावली बोलतां अवंती नगरीना चोकमां श्राव्या. ते अवसरे विक्रमादित्य राजा हाथी उपर चडेला सन्मुख श्रावता मव्या. राजाए सर्वज्ञपुत्र एवं विरुद सांजली तेनी परिक्षा वास्ते हाथी उपर वेगा वेगंज मनथी तेमने नमस्कार कर्यो. आचार्ये तत्काल धर्मलाज कह्यो. राजाये पुन्यु, वंदना कर्या विना आपे मने धर्मलाज केम श्राप्यो ? शुं धर्मलान बहु सस्तो बे? आचार्ये कह्यु, था धर्मलान कोड चिंतामणि रत्नोथी पण अधिक बे, जे कोइ अमने वंदना करे के, Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शदश परिच्छेद. (२७३ ) तेनेज श्रमे धर्मलाज कहीये बीये. वली एम पण नथी के तमे अमने वंदना नथी करी. तमे पण पोताना मनथी वंदना करी बे. मनज सर्व का - - मां प्रधान बे, ते कारणथी मे धर्मलान कह्यो बे, अने तमोए पण मारी परिक्षावास्तेज मनथी नमस्कार करेल बे. विक्रम राजाए तुष्टमान थइ हाथीथी नीचे उतरी सर्व संघनी समक्ष श्राचार्यने वंदना करी. एक क्रोड सोनामहोर नेट मुकी, श्राचार्ये सोनामहोर लीधी नही, कारण के ते त्यागी हता. राजाये पण पाठी लीधी नहि. श्राखर श्राचार्यनी झायी संघना गृहस्थोये जीर्णोद्धारमां वापरी दीधी. राजाना दफतरमां तो या प्रमाणे लखेलुं बे. श्लोक ॥ धर्मलाज इति प्रोके, दूराडु ह्रितपाये ॥ सूरये सिद्धसेनाय, ददौ कोटिं धराधिपः ॥ १ ॥ श्रीविक्रम रा जानी सन्मुख सिद्धसेन दिवाकरे एम पण कर्तुं हतुं के ॥ गाथा ॥ पुणे वास सहस्से, सयंमि वरिसाण नव नवइ कलिए || होइ कुमर नरिंदो, तु विकमराय सारियो ॥ १ ॥ श्रर्थः पुण्य एवां एक हजार एकसो नवाणुं वर्षे, हे विक्रमराय तमारा जेवोज कुमारपाल नृप थशे. अन्यदा सिसेनजी चित्रकूटमां गया. चित्रकूटमां एक अति प्राचीन जिनमंदिर हतुं, तेमां एक बहु मोटो स्थंज तेमना देखवामां श्राव्यो. कोइने पुढयं के, श्रा स्थं शानो बे ? तेथे कयुं के पूर्वाचार्योंये तेमां रहस्य पुस्तको मुhai बे. या स्थं विविध औषध द्रव्यनो बनेलो, वज्जनी जेम जलादिथी ने बे. कोथी या स्पंज खोली शकातो नथी. ते सांजली सिसेनजीये ते स्थंजनी गंध लइ प्रत्यौषधरस तेना उपर बांट्यो, तेथी कमनी जेम स्थं खिली गयो. तेमां पुस्तक दीठां. तेमांथी एक पुस्तक लइ वांचतां प्रथम पत्रमां वे विद्या लखेली प्राप्त थइ. एक सरसव विद्या, बीजी सुवर्ण विद्या. सरसव विद्यानुं ए बल हतुं के कार्य यावी पडे त्यारे मांत्रिक जेटला सरसव जलाशयमां नांखे, तेटला अखार बेतालीसे हथीआर सहित बहार यावे, परदलनो जंग करी कार्य सिद्ध घयेथी अदृश्य घर जाय. हेम विद्याथी कां पण मेहेनत बिना शुद्ध डेम कोटि गमे ते धातुथी इ शके. श्रा बने विद्या सिद्धसेनजीये सारी रीते बीधी. उपरांत श्रागल वांचवा जाय बे के स्थंज बंध थइ गयो, सर्व पुस्तको वचमां रही गयां, अने आकाशवाणी यइ के तुं श्रा पुस्तकोने वांचवाने योग्य नथी, Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) जैनतत्त्वादर्श. श्रागल वांचीश नहि, वांचीश तो तत्काल मरण पामीश. सिझसेनजीये डरीने विचार कयों के बे विद्या मली तेपण सारं थयु. चित्रोडथी विहार करी सिझसेनजी पूर्व देशमा कुमारपुरमां गया, तेनो राजा देवपाल ना. मनो हतो, तेने प्रतिबोधि दृढ जैनधर्मी कों. राजा निरंतर सिद्धांत श्रवण करवा लाग्यो, एम केटलोएक काल व्यतीत थयो. एकदा राजा गुप्त रीते गुरुजी पासे आव्यो; आंसुथी नेत्र जरी कहेवा लाग्यो के, हेजगवन् अमो वहुज पापी श्ये, तेथी आपनी अति उत्तम गोष्टीनो रस पी शकता नथी. श्रमे बहुज संकटमां आवी पड्या बीये. आचार्ये पुज्यु, तमोनो अ॒ संकट ? राजाये कह्यु, मारा वैरी राजाउँ बहुं बे, ते एकत्र थ मारूं राज्य लश लेवा चाहे . आचार्ये कडं राजन् ! आकुल व्या- ' कुल था नहि, तमोने हुं सहाय बुं, हवे तमारे शी चिंता ने ? राजा श्रा हिंमतथी वहुज खुशी थयो; पनी प्राचार्य राजाने पूर्वोक्त बने विद्या श्रापी समर्थ कों. ते विद्याउँथी परदल नंग थर गयु. तेमनो सर्व सरंजाम लूटी लीधो. राजा आचार्यनो परम जक्त थ गयो.आचार्य पण सु. खमां पडी शिथिलाचारी यश् गया. आ स्वरूप वृद्धवादिजीना सांजलवामां आव्युं. उपाश्रयना दरवाजा पासे उन्ना रही कहेवराव्यु के एक बुढो वादी आव्यो बे. सिझसेने बोलावी पोतानी सन्मुख बेसाड्या. वृद्धवादी पोतानुं सर्व शरीर वस्त्रश्री ढांकी वोव्या-"श्रण फुहियफुल्लमतोडहिं मारोवामोडिहिं मणु कुसुमेहिं ॥ अच्चि निरंजणंजीण, हिंड हिकाश्वणेणवणु ॥१॥ सिझसेनने विचार करतां श्रानो अर्थ सुजयो नहि, त्यारे विचारवा लाग्या के मारा गुरु तो नहि होय? एमनी उक्तिनो माराथी अर्थ थर शकतो नथी, एम धारी फरी जोयुं तो गुरुने जेलख्या. गुरुने पगे पडी वारंवार क्षमा मागवा लाग्या, अने पद्यनो अर्थ पुरवा लाग्या. वृक्षवादीजीए कह्यु "श्रप्राप्त फल एवा फुलने तोड नहि, जावार्थ के आ योग कल्पवृक्ष, जे योग रूप वृदना यम नियम तो मूल बे, ध्यान रूप मोटुं थड जेनुं , समता, कवित्व, वक्तृत्व, यश, प्रताप, मारण, उच्चाटन, स्तंजन, वशीकरणादि सिडियो तेना पुष्प बे, अने केवलझान फल ले. हजी तो योगकल्पवृदने फुलोज लागेला , ते केवलज्ञान रूप फलथी पागल फलशे, तेथीश्रा अप्राप्त फल, पुष्पान Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छादश परिवेद. () शा वास्ते तोडे ? तथा पांच महाव्रत रूप रोपा , तेने मरोड नहि. मनरूप पुष्पोथी निरंजन जिनराजने पूज; वनथी वन शुं जम्या करे बे? राजसेवादि बूरा नीरस फल शुं प्राप्त करे ले ? गुरुना उपदेशश्री सिद्धसेनजी शिदा पाम्या. राजाने पुढी गुरु साथै अन्यत्र विहार करी गया, अने निबिड चारित्र पालवा लाग्या, अनेक श्राचार्योधी पूर्वोतुं ज्ञान प्राप्त कयु. वृद्धवादिनो वर्गवास थयो. बाद एकदा सिझसेनजीए सर्व संघ एकगे करी कडं के मारो विचार सर्व आगमोने संस्कृत नाषामां करी देवानो थयो बे, श्री संघे कद्यु, शुं तीर्थंकर, गणधर संस्कृत जाणता न होता? तेए अर्ध मागधी भाषामां आगमो शा वास्ते कां ? aa प्रमाणे कहेवाथी आपने पारांचिक नामर्नु प्रायश्चित्त श्रावे , श्राप पोते विचारी व्यो ? अमे आपने शुं कहीए ? सिद्धसेने विचार करी कयु के हुँ मौन धरी बार वर्षतुं पारांचिक प्रायश्चित्त लइ गुप्त रीते मुखव स्त्रिका, रजोहरणादि लिंग राखी, अवधूत रूप धारण करी फरीश. एम बोली गानो त्याग करी नगरादिमां पर्यटन करवा लाग्या. बार वर्ष व्यतीत थये उजायन नगरीमां महाकालना मंदिरमां शेफालिका पुष्पोथी रंगेला वस्त्र पेहेरी सिझसेन आवी बेग. नमस्कार करता नथी, तेथी पूजारी प्रमुख लोकोए कडं के तमे महादेवने नमस्कार केम करता नथी ? सिझसेन बोलताज नथी, एम लोकपरंपराथी श्रवण करतां विक्रमादित्य पण त्यां आव्या, अने का “दीर लिलिदो निदो किमिति त्वया देवो न वंद्यते" सिझसेनजीए का है राजन् ! मारा नमस्कारथी तमारा देवनुं लिंग फाटी जशे, पनी तमोने बहुज कुःख थशे, ते कारणथी हुँ नमस्कार करतो नथी. राजाए का, लिंग फाटे तो फाटवा द्यो, परंतु तमे नमस्कार करो. तत्काल सिद्धसेन पद्मासने बेसी कहेवा लाग्या, सांजलो! पडी प्रथम छात्रिंशिकाथी देवनुं स्तवन करवा लाग्या, यथा // खयंजुवं चूतसहस्त्रनेत्र, मनेक मेकाक्षर जावलिंगं ॥श्रव्यक्त मव्याहत विश्वलोक, मनादि मध्यांतम पुण्य पापं // 1 // इत्यादि प्रथमज श्लोक बोलवायी लिंगमाथी धुमाडा निकलवा लाग्या, एटले लोको बोलवा लाग्या के शिवजीतुं त्रीजुं नेत्र खुल्युं बे. हमणांज आ जिनुकने नेत्रना अग्निश्री जश्म करी देशे. तत्काल विज