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षष्ठ परिजेद.
(२६५) जाए समण नूए य ॥१॥ प्रतिमा विस्तारथी खरूप जो, होय तो श्रीपंचाशक नामा शास्त्रमा प्रतिमा पंचाशक जोवु तथा श्रावकनां व्रत बार ने. तेनुं विस्तारथी कथन हवे पनी करवामां आवशे. आषट्कर्म एकादश प्रतिमा अने बार व्रत पालवामां मध्यम, धर्मध्यान होय . देश विरति गुणस्थानस्थ जीव, अप्रत्याख्यान चार कषाय, मनुष्यगति, मनुष्यायु, मनुयापूर्वी, श्राद्यसंहनन, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, सर्व मली दशकर्मप्रकृतिनो बंधव्यवछेद करवाश्री, सडसठ कर्म प्रकृतिनो बंध करेबे. तथा अप्रत्याख्यान चार, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी, नरकत्रिक, देवत्रिक, वैक्रियटिक, उर्जग,अनादेय,अयशःकीर्ति, आ सत्तर कर्म प्रकृतिनो उदयव्यवछेद थवाथी सत्त्याशी कर्म प्रकृतिनुं फल जोगवे डे, श्रने एकसो आडत्रीश प्रकृतिनी सत्ता .
पांचमा गुणस्थान उपरनां जे जे गुणस्थानको ने तेमांथी तेरमुं गुणस्थानक बाद करीने बाकीनां सर्व गुणस्थानकोनी पृथक् पृथक् अंतर्मुहूर्त्तमात्र स्थिति बे, अने बहुं तथा सातमु गुणस्थानक हिंडोला समान होवाथी तेनुं उत्कृष्ट कालमान देश जणुं पूर्व कोटि वर्ष बे.
हवे हा प्रमत्त संयत गुणस्थानकनुं खरूप लखिये बियें. सर्व विरति साधु बहा प्रमत्त गुणस्थानकवाला होय बे, ते साधु केवा होय ? अहिंसादि पांचमहाव्रतना धारक होय बे. ते साधु प्रमत्त शा कारणथी थाय ? प्रमादसेवन करवाथी प्रमत्त थाय . ते प्रमाद पांच प्रकारे जे. ॥ गाथा ॥ मऊं विषय कसाय, निमा विगहीय पंचवी नणिया ॥ ए ए पंच पमाया, जीवं पाडंति संसारे ॥१॥ नावार्थः- मद्य, विषय, कषाय, निडा, तेमज विकथा, आ पांच प्रमाद .ते जीवने संसारमा नाखे बे. जे साधु था पांच प्रमादसंयुक्त होय, तथा जो तेने संज्वलन चोथा कषायनो उदय होय, तो महाव्रतधारक साधु पण अंतर्मुहूर्त सुधी अवश्य सप्रमाद होवाथी प्रमत्त थाय . जो अंतर्मुहूर्त्तथी उपरांत प्रमाद सहित वर्ते तो ते प्रमत्त गुणस्थानकथी पण नीचे पड़ी जाय बे, जो अंतर्मुहूर्तमां प्रमाद रहित थाय तो फरी श्रप्रमत्त गुणस्थानमा श्रारोहण करे .
हवे प्रमत्त संयत गुणस्थानमा ध्याननो संचव कहियेबियें. या गुण