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चतुर्थ परिबेद. (१४ए) परमहंस केहेवाय बे; था चारेमा पूर्वथी परस्पर अधिक चारे केवल बह्माद्वैतवाद साधवामां व्यसनी , इत्यादि था मतनुं खरूप .
हवे पूर्वमीमांसावादिर्जनो मत विशेषथी लखिये बियें. जैमिनीय वाला कहे जे के, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी वीतराग, सृष्टियादिना कर्ता, आ पूवोक्त विशेषणयुक्त कोश्पण देव नथी, के जे देवतुं वचन प्रामाणिक होय, प्रथम तो देवज कोश वक्ता नथी, के जेतुं कहेलुं वचन प्रमाण थाय. अनुमानथी पुरुष सर्वज्ञ नथी, मनुष्य होवाथी, रथ्यापुरुषवत.
पूर्वपदः- किंकर थई जेनी सुर, असुर सेवा करे, तेमज त्रण लोकमां ऐश्वर्यना सूचक, बत्र,चामरादिजेनी विजूति , ते सर्वज्ञ केम न होशके? __उत्तरपदः-श्रा विनूति तो अजालीआ पण रची शके , ते वातना सादी जैनमतना सामंतजन आचार्य पण ॥श्लोक ॥ देवागमनजोयान, चामरादिविनूतयः ॥ मायाविष्वपि दृश्यंते, यतस्त्वमसि नो महान् .
पूर्वपक्षः- जेम अनादि सुवर्णनो मेल, क्षार प्रमुख अग्नि पुटादि क्रियाविशेषथी शोधाता, सुवर्ण सर्वथा निर्मल थई जाय बे, तेम आस्मा पण निरंतर ज्ञानादि अन्यासथी निर्मल थवाथी तेने सर्वज्ञपणांनो संजव केम न होय ? अवश्य होयज.
उत्तरपदः-आ तमारं केदेवु ठीक नथी; कारण के अभ्यास करवाश्री शुछिनी तरतमताज थाय बे, परंतु परम प्रकर्ष अवस्था थती नथी, कारण के जे पुरुष चालवानो अभ्यास करे, अर्थात् कूदवानो, बलंग मारवानो, ठेकडो मारवानो अभ्यास करे,ते दशहाथ वीशहाथ कुदी शकशे, परंतु सो योजन कूदवानी शक्ति ते कदापि मेलवी शकशे नहि, अने सर्व लोक कूदी जवानो अभ्यास तो कदापि तेनाथी थश्शकशे नहि. तेवीज रीतें आत्मापण अन्न्यासद्वारा सर्वज्ञ थक्ष शकतो नथी.
पूर्वपदः- मनुष्यने सर्वज्ञता चले न होय, परंतु ब्रह्मा विष्णु, महेश्वरादिने तो सर्वज्ञता होय बे, कारण के तेमने तो जगत् ईश्वर माने बे. ते वात कुमारिल पण कहे . "दिव्य देह होवाथी” ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, तेउँने सर्वज्ञता होय , मनुष्यने सर्वज्ञता केवीरीतें होय ?
उत्तरपदः-जे रागद्वेषमा मन ने निग्रह अनुग्रहमां ग्रस्त, काम सेवनमा तत्पर दे, एवा लदाणवाला ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, सर्वज्ञ केवी