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(३६) जैनतत्त्वादर्श. गर, संसारजलधि उद्धरण, परोपकार करणीमां चतुर, क्रोधादि कषाय निवारक, तरण तारण, एवा मुनिराज मारे घेर पधार्या, तेथी आजे मारं अहो नाग्य ! एवं जाणी संत्रमसंयुक्त सन्मुख जाय, त्रिकरणशुद्ध प. रिणामथी विनति करे के हे खामि ! दीन दयाल पधारो! माझं गृहांगण पवित्र करो! एम अति सन्मानपूर्वक घरमां पधरावे;मनमां विचारे के श्राजे मारो पुण्योदय थयो, जे साधु आहार पाणीनोअनुग्रह करे जे. कारण के साधुने आहारलेवामां बहुज विधि ,साधु शुझ नात पाणी जाणे तोज लहे, ते कारणथी रखे माराथी कांश दोष लागी जाय, एवो विचार करी, त्रिकरण शुझ, बहुमानपूर्वक, उपयोगसंयुक्त, विधिपूर्वक आहार लावे, लावीने मधुरखरथी विनति करे के हे स्वामि ! आ शुद्ध आहार बे,तेश्री सेवक उपर परम कृपादृष्टि करी पात्र पसारी मारो निस्तार करो; एम विनति करतां थकां आहार वहोरावे. मुनिपण ते श्राहारने योग्य जाणीने खइ ले. श्रावकपण दान देवा योग्य जे जे वस्तु होय, ते सर्वनी निमंत्रणा करे, ए प्रमाणे विधिपूर्वक दान दश हाथ जोडी, पृथ्वी उपर मस्तक लगावी, नमस्कार करे; पड़ी मिष्टवचनोथी विनति करे के हे कृपानिधान! सेवक उपर मोटी कृपा करी,आजे मारूं घर पवित्र थयुं. पूरा पुण्योदय विना मुनिराजनो योग क्याथी मले? वली हे स्वामि ! कृपा करी अशन, पान, खादिम, स्वादिम, औषध, वस्त्र, पात्र, शय्या, संस्तारकादिनुं प्रयोजन होय तो अवश्य सेवक उपर अनुग्रह करी पधारशो, आप तो मुनिराज गुणवान् बेपरवाह बगे, आपने कोई वस्तुनी क- . मी नथी, कोश्नी साथे प्रतिबंध नथी, आप पवननी जेम अप्रतिबद्ध बो, तोपण मारा उपर जरुर फरी उपकार करशो, एम कहेतां कहेतां पोताना आंगणानी सीमा सुधी पहोंचाडे, श्रा त्रीजो गुण जे.
४ मुनिराजने वलावी, वंदना करी, घेर श्रावी, जोजन करवा बेसे, परंतु मनमां श्रानंदना उन्नरा श्राव्या करे, विचारे के श्राजे मारु श्रहो जाग्य थयु! श्राज को उत्तम वात थशे; कारण के श्राजे निःस्पृही, सहज उदासी, खसुखविलासं। मुनिराजने विनति करी थाहार प्रतिलाज्यो, अने श्राहार वहोरावता वचमां कांश विघ्न श्राव्युं नहि. श्राजे. कृ.