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अष्टम परिवेद. (३५) १ जैनमार्गी दातारने, शुद्ध पात्रनो योग प्राप्त थवाथी, अर्थात् पोताना घरमां मुनिराजनां दर्शन मात्र थवाथी अंतरंगमां बहुज आनंद पामे, जेम पोतानो अत्यंत प्यारो, हितकारी मित्र बहु वखतथी दूर देशांतर गयो होय, जेनी को वखत विस्मृति थ न होय, अने जेने-मलवाने निरंतर अंतःकरणमां आतुरता रहेती होय; एवा परम वल्सन मित्रने अकस्मात् मलवाथी जेम आनंदना बांसु श्रावी जाय, तेवीज रीतें मुनिराजने पोताने घेर पधारेला जो आनंदनां आंसु लावे, मनमां विचारे के आज मारुं परम जाग्य के, आवा मुनिराज मारे घेर पधार्या. वली हुँ केवो डं? अनादिकालश्री नूल चमित, अव्य संबल रहित, दारिख अंधनावपीडित, ज्ञानलोचनरहित, अपार संसार चक्रमां जटकनार एवा मने, अत्यंत अकथनीय दुःखसंयुक्त देखीने, मारा उपर परम दयादृष्टिपूर्वक, प्रथम ज्ञानांजन शलाकाथी मारां ज्ञानरूपनेत्र उघाडी दीधां, वली त्रण तत्व सेवारूप व्यापार मने शिखव्यो, तथा रत्नत्रयीरूप पुंजी (राशि) मने आपी माझं अनादि कालनुं दारिजय दूर कर्यु, मने उत्तमपुरुषोनी गणतरीमा लावी मुक्यो, एवा गुरु मुनिराज निःस्वार्थे परोपकारी मारा घर आंगणामां पधार्या एवा प्रशस्त राग नावना उदासथी आनंदनां आंसु लावे, एवी पुष्ट नावना जावे था दातारनो प्रथम गुण .
जेम संसारमा जीवने अत्यंत श्ष्ट वस्तुना संयोगथी रोमावलि विकखर थाय बे, तेम मुनिराजने देखी, अति नक्तिना प्रजावधी रोमावलि विकखर थाय, अने अंतःकरणमां हर्ष समाय नहि. या बीजो गुण . __३ मुनिराजने देखी बहुमान एवी रीतें करे, जेम कोश् गृहस्थने घेर, राजा पधार्या होय, अने ते राजानुं बहुमान, जेम ते गृहस्थ करे, एवा विचारथी के श्राजे मारा नाग्यनो उदय थयो के राज्यना खामि, राजाधिराज मारे घेर पधार्या, माटे उत्तम प्रकारनां नजराणां आ वखते करवां ते मने उचित बे, कारण के राजानुं पधार वारंवार थतुं नथी, एम निश्चय करी जेम उत्तम वस्तु नेट करे, तेवी रीतें श्रावक पण मुनिराजनुं बहुमान करे; मनमां विचारे के श्रावा निःस्पृहीयोमां शिरोमणी, जगदू बंधु, जगत् हितकारी, जगत् वत्सल, निष्कामी, श्रात्मानंदी, करुणासा