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________________ (५७२) जैनतत्त्वादर्श. कर्यो तेमांथी कांश्क लखीए बीए:- "नवि मारिये नवि चोरिये, परदारगमन निवारिये ॥ थोवाधो वंदाश्य, सम्गिमहे मट्टे जाइये. ॥१॥ वली बोलवा तथा नाचवा लाग्या ॥ बंद ॥ कालो कंबल नीचो वह, बाजरिज दीवडो थट्ट ॥ एवड पडी नीले जाड, अवर किसो ले सग्ग नि. लाड ॥२॥ इत्यादि गोपो सांजली बहुज खुशी थया, अने कहेवा लाग्या के वृद्धवादि सर्वज्ञ बे, अमने केवो मीठगे, कानने सुखदायक तथा श्रमारा योग्य उपदेश कर्यो. सिद्धसेन तो कां जाणतो नथी. गोपोनो निर्णय सांजली सिकसेनजीए वृद्धवादिने कडं हे जगवन् ! तमे मने दीक्षा श्रापी पोतानो शिष्य बनावो, कारण के मारी प्रतिज्ञा डे के जो गोपो मने हार्यों कहे तो हुं हार्यों, अने तमारो शिष्य हुं बनु. वृद्धवादिए कडं के था गोपोनी सनामां वाद विवाद शो ? ते प्रमाणेना वादविवादथी हारजीत कहेवाय नहि. तमे गुपुर (जरुच) मां राजसनामां चालो; सजा समद मारो तमारो वाद विवाद थशे. सिद्धसेनजीए कह्यु के हुँ नले विछान् होलं, परंतु अवसरनो जाण नथी, श्रवसरना ज्ञाता तमे ठो, तेथी मने हार्यों समजी दीक्षा श्रापो. सिझसेनजीए पूर्वोक्त कह्या बतां वृद्धवादि आचार्य तेने राज्यसनामां विवाद करवा सारु लइ आव्या. राज्यसत्ता समद विवाद थयो, तेमां सिद्धसेनजीनो पराजय थयो,तेणे श्राचार्य पासे दीक्षा लीधी, गुरुए तेनुं नाम कुमुदचंद्र पाड्यु. पडी ज्यारे आचार्य पदवी प्रापी त्यारे फरी सिइसेन, दिवाकर नाम राख्यु. पी वृद्धवादि तो अन्यत्र विहार करी गया, अने सिकसेन दिवाकर श्रवंती (उजायन) मां गया. उजयननो संघ सन्मुख आव्यो, अने सिझसेन दिवाकरने सर्वज्ञपुत्र एवं बिरुद श्राप्यु, एम विरुदावली बोलतां अवंती नगरीना चोकमां श्राव्या. ते अवसरे विक्रमादित्य राजा हाथी उपर चडेला सन्मुख श्रावता मव्या. राजाए सर्वज्ञपुत्र एवं विरुद सांजली तेनी परिक्षा वास्ते हाथी उपर वेगा वेगंज मनथी तेमने नमस्कार कर्यो. आचार्ये तत्काल धर्मलाज कह्यो. राजाये पुन्यु, वंदना कर्या विना आपे मने धर्मलाज केम श्राप्यो ? शुं धर्मलान बहु सस्तो बे? आचार्ये कह्यु, था धर्मलान कोड चिंतामणि रत्नोथी पण अधिक बे, जे कोइ अमने वंदना करे के,
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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