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________________ (ए४) जैनतत्त्वादर्श. (कह ) कथा. केवल स्त्रियोनेज, तथा एकली स्त्रीने धर्मदेशना वचनना प्रबंधरूप कथा न कहे, तथा स्त्रीनी कथा न करे ॥ यथा ॥ क टी सुरतोपचारचतुरा, लाटी विदग्धा प्रिया ॥ इत्यादि कथा न करे. कारण के था कथा राग उत्पन्न करवानो हेतु दे. तथा स्त्रीना, देश, जाति, कुल, वेष, जाषा, गति, विज्रम, इंगिते, हास्य, लीला, कटाक्ष, स्नेह, रति, कलह, शृंगार इत्यादि जे विषय रसनी पोषण करनारी कामिनीनी कथा ते कदी न करे, जो करे तो अवश्य मुनिनु मन पण विकार पामे. आ बीजी ब्रह्मचर्यनी गुप्ति. ३ (निसिङ ) श्रासन- स्त्रियोनी साथे एक श्रासनपर न बेसवू, तथा जे जगा अथवा आसनथी स्त्री उठी होय ते आसन अथवा स्थानमां बे घडी सुधी साधु न बेसे, कारण के ते जग्यामा तत्काल बेसवाथी स्त्रीनी स्मृति थाय , तेमज स्त्रीना बेसवाथी शय्या अथवा श्रासन, मेलथी मलिन थवाश्री स्त्रीना स्पर्शवाला श्रासनादिना स्पर्शथी विकार उत्पन्न थाय . आ त्रीजी ब्रह्मचर्यगुप्ति. ___(इंघिय ) इंजिय, अविवेकी लोकोने देखवा योग्य स्त्रियोनां अंगोपांग जे नाक, स्तन, जंघा प्रमुख तेउने ब्रह्मचारी साधु अपूर्व रसमां मन थश्ने, नेत्र फाडीने देखे नहि. कदाचित् दृष्टि पडी जाय तो पड़ी एवी चिंतवना पण न करे के वाह \ विशाल सुंदर लोचन डे ! वाह शुं नासिका सीधी ! तथा श्लवा योग्य बने स्तन ! जो स्त्रीनां पू. वोक्त अंगोपांगर्नु एकाय रसमां मग्न थचिंतवन करे तो अवश्य मोहाधीन थर मन विकार प्राप्त थाय, आ चोथी ब्रह्मचर्यगुप्ति. ___५ ( कुटुंतर ) कुम्यांतर. जे नीत, तट्टी के कनातने अंतरे स्त्री पुरुष मैथुन सेवन करतां होय, तेमज तेऊना शब्द संजलाता होय, त्यां ब्रह्मचारी साधु न रहे. आ पांचमी गुप्ति. (पुत्वकीलिय) पूर्वक्रीडा. पूर्व गृहस्थ अवस्थामा स्त्रीनी साथे जे विषय, जोग, क्रीडा, करी, होय, तेनुं स्मरण न करे. जो करे तो कामानि प्रज्वलितं थाय. आ ही गुप्ति. __ (पणीय) प्रणीत. अति चिकाशवाला, मीग दूध, दही, प्रमुख अति १ आंतर अने बाह्य-मानस तथा शारीर, हाव भावादि चेष्टित.
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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