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जैनतत्त्वादर्श.
अर्थात् सर्वलोकप्रिय जीव थाय, ते सुजगनामकर्म, ३६ जेना उदयथी जीवनो स्वर कोयलनी सदृश मीठाशवालो थाय ते सुस्वरनामकर्म, ३१ जेना उदयथी जीवनुं वचन उपादेय अर्थात् सर्वलोकने माननीय थाय, ते देयनामकर्म, ३० जेना उदयथी विशिष्ट कीर्त्ति तथा यश जगत्मां जीवनी विस्तार पामे ते यशः कीर्त्तिनामकर्म, ३ए जेना उदयी जीवनी चौसठ इंद्रो पूजा करे, तेमज त्रिभुवनमां पूज्यपणुं जेनाथी जीवने प्राप्त थाय, तेमज धर्म तीर्थनी प्रवर्त्तना जेनाथी थाय, ते तीर्थंकर नामकर्म, ४० तिर्यंचोनुं श्रायु, ४१ मनुष्यायु, ४२ देव श्रायु, या त्रण प्रायुनी प्रकृति प्रयुकर्मनी बे जेना उदयश्री जीव ते ते ग तिमां जइ ते ते नवमां स्थिति करे बे, या बेतालीश प्रकारथी पुण्यफल जीवने जोगववामां यावे .
४ हवे पापतत्वनुं स्वरूप लखियें बियें. येनाशु प्रकृत्या आत्मकं कर्म जीवान् दुःखं ददाति तत् पापं ” जे अशुभप्रकृतिथी पोते करेलां कर्म जीवोने दुःख थापे ते पाप, तेमज आत्माना आनंदरसने पीये (जस्मकरे) ते पाप तथा पुण्यश्री विपरीत, ते पाप, या पाप नरकादिफल प्रवर्त्तक होवाथी शुबे, पुण्यनी जेम तेनो आत्मानी साथेज संबंध बे, कर्मपुलरूप बे. अगर जो के बंधतत्त्व अंतर्भूत पुण्यपापा बे, तो पण तेनुं स्वरूप पृथक् पृथक् नानाविध, परमतभेद निरासार्थ कहेवामां श्रावेलुं बे. परमतभेद था प्रमाणे बे. केटलाएक मतवाला कहेबे के केवल एक पुण्यज बे, परंतु पाप नथी, कोइमतवादी कहेबे के एक पापज बे, पुण्य नथी. वली कोइ मतवादी एम पण कड़ेबे के मेचकमणि जेम पुण्य पाप बने परस्पर अनुविद्ध स्वरूपबे, तेथी मिश्र सुखदुःखफलना हेतु बे; ते कारणी साधारण पुण्यपाप एकवस्तुज बे, वली केटलाएक कदेने के मूलथी कर्मज नथी. जगत्मां सर्व विचित्रता स्वनावथीज सिद्ध बे. पूर्वो
सर्वमतो मिथ्या बे. कारण के सुख दुःख बने पृथक् पृथक् अनुभववामां आवेढे. ते कारणथी तेर्जना कारणभूत पुण्य पाप पण स्वतंत्रज अंगीकार करवा योग्य बे, परंतु एकलुं पुष्य, के एकलुं पाप, के एकबुं पुण्यपाप मिश्र मानवुं ठीक नथी.
कर्मवादी नास्तिक तेमजवेदांती कहे बे के पुण्यपाप, खाका