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जैनतत्त्वादर्श. एज बे के, आ कुकडानो वध न करवो, कारण के गुरु पूज्य तो निरंतर महा दयालु बे, अने हिंसाथी पराङ्मुख . मात्र अमारी परीक्षावास्ते
आ आदेश प्राप्यो बे, तेथी हुँ तो कुकडाने मार्याविनाज कुकडाने लइ गुरुपासे आव्यो, अने कुकडाने नही मारवाना सघला विचार गुरुजीने कही दीधा. गुरुराजे मनमा निश्चय कयों के, आ नारद विवेकवालो ने, तेथी खर्गमां जशे, गुरुजीये मने पोतानी गती साथे लगावी, वह सारं थयुं उत्तम उत्तम! एम कडं; तेटलामां वसु अने पर्वत पण गुरु पासे आव्या, अने गुरुने कडं के अमो कुकडाने एवी जगाये जश् मारी आव्या बीये के ज्यां को देखतुं न होतुं. गुरुये कडं के तमे तो देखता हता, तथा खेचरो पण देखता हता. हे पापिष्टो! तमे कुकडा केम मार्या ? एम कही गुरुजीये विचार कयों के वसु अने पर्वतने जणाववानी मारी मेहेनत वृथा गइ. परंतु हुं शुं करूं! पाणी जेवा पात्रमा जाय , तेज बनी जाय . विद्यानो पण तेवोज खनाव . न्यारे प्रापथी प्यारो पर्वत पुत्र अने पुत्रथी प्यारो वसु बने नर्कमा जाय, तो हवे मारे घरमा रहेवातुं शुं प्रयोजन ? एवा निर्वेद जावथी दीरकदंबक उपाध्यायजीये दीक्षा ग्रहण करी. साधु थया. तेनी पदवी पर्वते धारण करी, कारण के व्याख्यान करवामां पर्वत बहुज विचरण हतो. हूं (नारद) गुरु प्रसादथी सर्व शास्त्रोनो अभ्यास करी मारे स्थानके श्राव्यो. वली अनिचंड राजाये संयम लेवाथी वसु तेना पितानी राज्यगादी उपर वेगे. वसु राजा जगत्मां सत्यवादी प्रसिद्ध थयो, अर्थात् वसुराजा कदापि जूतुं वोलता नथी, ए प्रमाणे लोकोमा तेनी प्रशंसा प्रसरी गश्. वसुराजाए पण पोतानी प्रशंसा निरंतर थया करे ते सारं सत्य बोलवानुं दृढ व्रत अंगीकार कयु. दरमीआन वसुराजाने एक स्फटिक सिंहासन प्रसन्न रीते एवं मली गयु के, सूर्यना प्रकाशमांज्यारे वसुराजा ते सिंहासन उपर वेसतो त्यारे, ते सिंहासन लोकोना देखवामां बिलकुल यावतुं नहोतुं, तेथी लोकोमा एवी प्रसीछि थके,सत्यना प्रजावधी व. सुराजानुं सिंहासन देवता आकाशमांअधर राखे .तेनीआवी कीर्तिथी वीजा सर्वे राजाउँ डरीने तेनी श्राझा मानता हता, कारण के साची अथवा जूठी गमे ते रीते थयेली प्रसीकि पुरुषने जयकारी थाय ने.