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नवम परिबेद
(४३ए) तथा जे शुद्ध प्ररूपक होय, ते गुरु बे. पांच आचारनुं स्वरूप जोर्बु होय तो, श्रीरत्नशेखरसूरिकृत आचारप्रदीप ग्रंथ जोश लेवो.
पूर्वोक्त गुरु, आचार्य प्रमुख सन्मुख, जे प्रत्याख्यान पूर्व पोते पोतानी मेले कर्यु हतुं, ते विशेष रीतें विधिपूर्वक गुरुमुखथी उचरावे; कारण के प्रत्याख्यान त्रणतरेहथी करवामां आवेडे. १ आत्मसाक्षिक, २ देवसादिक, ३ गुरुसाक्षिक, तेनो विधि बे___ गुरु, मंदिरमां देववंदनार्थे, स्नानादि देखवावास्ते, धर्मोपदेश देवावास्ते, जिनमंदिरमा व्या होय, तथा वस्तिमां होय, त्यां मंदिरनी जेम त्रण निस्सिहि, पांच अभिगमनादि, यथायोग्य विधिपूर्वक जश् गुरु धर्मोपदेश आपे ते पहेलां अथवा पडी यथाविधियें पचवीश आवश्यक, शुद्ध द्वादशावत वंदन करे; गुरुवंदननुं फल बहुज मोटुं जे. कृष्णवासुदेववत्. नाष्यमां वंदनाना त्रण प्रकारले. एक तो मस्तक नमावq ते फेटावंदना, बीजी संपूर्ण बे खमासणां प्रमुख कहेवां ते स्तोनवंदना, त्रीजी छादशावर्त करवायी, बादशावर्तवंदना थाय . प्रथमनी वंदना सर्व संघने करवी; बीजीवंदना सर्व खदर्शनी साधुउने करवी; अने त्रीजी वंदना पदवीधर आचार्य प्रमुखने करवी.
जेणें सवार पडिकमणुं न कर्यु होय, तेणें विधिपूर्वक वंदना करवी; कारण के जाष्यमा लख्यु डे के, सवारनो वंदना विधि आ प्रमाणे करे.प्र. थम १ जाष्योक्तविधियें ापथ प्रतिक्रमे, पनी ५ कुस्थाननो कायोत्सर्ग • करे, सो उहास प्रमाण करे, जो खप्नमां स्त्रीसाथे संगम कर्यो होय तो अ
शुचिनी सर्व जगा धोझ, पड़ी एक सो श्राप श्वासोच्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करे. पढी ३ चैत्यवंदन करे. पडी ४ क्षमाश्रमणपूर्वक मुहपत्ति प्रतिलेखे, पळी ५ बे वंदणां दे, पड़ी ६ देवसि आदिक आलोवे, पड़ी ७ वांदणां दे,पड़ी; अनुनिमि कहे, पडी ए बे वांदणां दे, पडी १० प्रत्याख्यान करे, पडी ११ नगवान अहं इत्यादि चार क्षमाश्रमण दे, पडी १५ खाध्याय संदिसाहु कहे, पनी क्षमाश्रमणपूर्वक सद्याय करूं एम कहे, पली स्वाध्याय करे.
हवे संध्यावंदनविधि लखीयें जीयें. १ र्यापथ पडिकमे, पनी २ चैत्यवंदन करे, पड़ी ३ दमाश्रमणपूर्वक मुखवस्त्रिकानुं प्रतिलेखन करे, प