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(१२) जैनतत्त्वादर्श, कारण के प्रकृति विना सांख्योए बीजी कांश्वस्तु मानेली नथी. जो कहो के अभिन्न ले तो तो प्रकृति , खनाव नथी.
वली महत् तेमज अहंकार ज्ञानथी जिन्न अमे देखता नथी. जुर्ज, बुद्धि अध्यवसायमात्र बे, अने अहंकार हुं सुखी, हुं कुःखी, एवा खरू. पवालो जे. श्रा बनेमां चिडूप होवाथी आत्मानुं गुणपणुं बे, परंतु जडरूप प्रकृतिनो विकार नथी.
वली तन्मात्राथी जूतोनी जे उत्पत्ति माने, जेम के र गंधतन्मात्राथी पृथ्वी, रसतन्मात्राथी जल,३ रूपतन्मात्राथी अग्नि, ४ स्पर्शतन्मात्राथी वायु, ५ शब्द तन्मात्राथी आकाश,श्रा तेउनु मानवू युक्त नथी. जो बाह्यनूतनी अपेक्षाथी कहेता होतो अयुक्तले.ा बाह्य पांच जूतो निरंतर विद्यमान होवाथी तेनी उत्पत्ति नथी. "न कदाचिदनीदृशं जगत् इतिवचनात्" . अर्थात् श्रा जगत् प्रवाहथी अनादि कालथी एबुंज चाल्युं श्रावे .
जो एम कहोके दरेक शरीरनी अपेदाए अमे मानियें बियें तेर्जमां, त्वचा, हाड, कठणलक्षणा पृथिवी, श्लेष्म, रुधिर, अव लक्षण जल डे, पक्ति (जर) लक्षण अग्नि , पानापान (श्वासोलास) लक्षण वायु बे, सुषिर (पोलाण) लक्षण आकाश . पण केहे ठीक नथी; कारण के तेमां पण केटलाएक शरीरोनी उत्पत्ति पितानुं शुक्र श्रने माताना रुधिरथी थायजे, त्यां तन्मात्रार्जुनो गंधपण नथी, अने अदृष्ट वस्तुउँने कारण कल्पवामां अतिप्रसंग दूषण बे. वली इंडां, उनिज, अंकुरादिनी उत्पत्ति पण बीजी वस्तुथी थती देखवामां आवे. ते कारणथी महत, अहंकार श्रादिनी उत्पत्ति सांख्योए जे पोतानी प्रक्रियाथी मानी , ते युक्तिरहित मानी जे. केवल पोताना मतना रागथीज मानेली , वली श्रात्माने अकर्ता माने , तेथी तो कृतनाश, अकृत अन्यागमनुं दूषण श्रावे, तेमज बंध मोदनो अनाव थायडे, अने निर्गुण होवाथी श्रात्मज्ञानशून्य थ जायजे. पूर्वोक्त सर्व युक्तिहीन होवाथी बालप्रलापमात्र .
हवे सांखमतना मोदनो विचार करिये. "प्रकृति पुरुषांतरपरिज्ञानान् मुक्तिः" अर्थात् प्रकृति पुरुषयी अन्य डे एवं ज्यारे ज्ञान थाय , त्यारे मुक्ति थायले. यथा ॥ शुद्धचैतन्यरूपोयं, पुरुषः पुरुषार्थतः ॥प्रकृत्यंतरमज्ञात्वा, मोहात्संसारमाश्रितः॥२॥ जावार्थ- पुरुष परमार्थथी शुरू