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चतुर्थ परिच्छेद.
(१८३ ) चैतन्यरूप बे. पोते पोताने प्रकृतिथी एकमेक समजे. श्री मोदी संसारने श्राश्रित रहेल बे. ते देतुथी प्रकृति सुखादिखजावथी ज्यांसुधि विवेकपूर्वक ग्रहण करशे नहि, त्यांसुधि मुक्ति नथी; तेमज केवलज्ञाननो उदय थवाथीज मुक्ति बे, ए पण असत् बे. कारण के आत्मा एकांत नित्यबे ने सुखादि, उत्पाद, व्यय स्वभाववालां बे; त्यारे तो विरुद्ध धर्म संसर्ग श्रात्माथी प्रकृतिनो भेद प्रतीतज बे, तो हवे मुक्ति केम नहि ?
हवे ते तो संसारी विचार करतो नथी, तेवास्ते मुक्ति नथी, जो एम कदेशो तो तो तमारा केदेवाची कदापि मुक्ति यशे नहि. एवो विवेक अध्यवसाय संसारिने कदापि थइ शकतो नथी, तेज बता वियें बियें.
ज्यां सुधी संसारी बे. त्यां सुधी विवेक परिभावनाथी संसारीपणुं दूर तुं नथी. तेवास्ते विवेक अध्यवसायना अनावश्री कदापि संसारथी बुटवानुं नथी.
तथा
सृष्टि पेलां तो केवल श्रात्मा बे, एम तमे मानो बो, तो श्रात्माने संसार क्यांथी लपटायो ? जो कहो के निर्मल श्रात्माने संसार लपटाय बे, तो तो मोक्ष थया पढी पण संसार लपटाशे; हवे विचारो के मोक्ष शुं थयो ? केवल विटंबना थइ.
पूर्वपक्ष:-सृष्टि पेढेलां आत्माने दिदृक्षा यश, ते दिवाना जोरथी प्रधाननी साथै पोतानुं एकरूप देखायुं; तेथी संसारी थयो. ज्यारे प्रकृतिनुं दुष्टपणुं ध्यानमां आव्युं, त्यारे प्रकृतिथी वैराग्य यो पढी प्रकृति विषे दिक्षा न रही, त्यारे संसारपण न रह्यो.
उत्तरपक्षः - या तमारुं केहेतुं स्वकृतांत विरुद्ध होवाथी ययुक्त बे. जु. दिक्षा, देखवानी जिलाषानुं नाम बे. ते अभिलाषा पूर्वे देखेला पदार्थोंमां तेना स्मरणथी थाय बे. प्रकृति तो पूर्वे कदापि ते देखी नथी, तो केवीरीतें तेनेविषे स्मरण अभिलाषा होय ? जो एम कहो के अनादि वासनाना बलथी प्रकृतिमांज स्मरण अभिलाषा बे, तोपण असत् छे, कारण के वासनापण प्रकृतिनो विकार होवाथी प्रकृति पेहेलां न होती. जो एम कहो के वासना श्रात्माना स्वजावरूप बे. तोतो श्रात्मस्वरूपनी जेम वासनानो कदापि अभाव थशे नहि, श्रने मोक्षपण क
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