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(१४) जैनतत्त्वादर्श. दापि थशे नहि, ए प्रमाणे सांख्य मतपण बालकना खेलसमान थयो. शति सख्यिमतखंडन.
हवे मीमांसक मतनुं खंडन लखतां, तेना मतनुं स्वरूप तो पूर्वे बतावेल ने, अने वेदांतियोना ब्रह्म (अद्वैत ) - खंडन ईश्वरवादमां बीजा परिछेदमां विस्तारपूर्वक करेडे, तेश्री आ स्थडे वर्णन करेलु नथी. इति मीमांसकमत.
हवे जैमिनीय मतनुं खंडन लखियेंद्रियें, जैमिनीय कदे के “हिंसागाात् " जे हिंसा इंजियोना रसवास्ते, अथवा कुव्यसन निमित्तें करियें तेज हिंसा अधर्मनो हेतु . प्रमादना उदयथी कसाइ, मालिनी जेम. अने वेदोमां जे हिंसा कही ले ते हिंसा नथी, परंतु धर्मनो हेतु बे, देवता, अतिथि, पितुनी प्रीति संपादक होवाथी, तथाविध पूजा उपंचारनी पेठे. वली आ प्रीतिनुं संपादन कर असिद्ध नथी. कारण के कारीरी प्रमुख यशोना स्वसाध्य विषे वृष्टि श्रादि कुलो, जे श्रव्यभिचारिपणुं बे, ते यज्ञ करवायी जे देवता तृप्त थाय , ते वृष्टि श्रादिनो हेतु बे. तेवीजरीते "त्रिपुरार्णववर्णित बगल" अर्थात् बकराना मांसनो होम करवाथी परराज्यनुं जे वश थq बे, तेपण तेमांसनी आहुतियोथी तृप्त थयेला देवताउँनोज प्रनाव बे, अने अतिथि प्रति पण “मधु संपर्कसंस्कारादिसमाखादजा" प्रत्यदज देखाय . अने पितृउने माटे जे श्रा करवामां आवे , ते श्राकथी पितृ तृप्त थतां, खसंताननी वृद्धि प्रत्यक्षज देखाय . वली ते बाबतमां आगम पण प्रमाण श्रापेले. श्रागममां देवनी प्रीतिवास्ते, अश्वमेध, नरमेध, गोमेध, आदि यज्ञ करवा कहेल , अने अतिथि विषय “ महोदं वा महाजं वा, श्रोत्रियाय प्रकपयेदिति" एवं कहेवू . वली पितृनी प्रीति वास्तेयाप्रमाणे लखेलुं .
छौ मासौ मत्स्यमांसेन, त्रीन् मासान् हारिणेन तु ॥ औरफ्रेणाथ चतुरः, शाकुनेनेह पंच तु ॥१॥षएमासबागमांसेन, पार्षतेनेह सप्त वै ॥ अष्टावेणस्य मांसेन, रौरवेण नवैव तु ॥२॥ दशमासांस्तु तृप्यंति, वराहमहिषामिषैः ॥ शशकूर्मयोासेन, मासानेकादशैव तु ॥३॥ संवत्सरं तु गव्येन, पयसा पायसेन तु ॥ वाधीणसस्य मांसेन, तृतिर्वादशवार्षिकी ॥४॥ आ श्लोक स्मृतिना . अर्थः-जो