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नवम परिबेद, (४२५) दीपोमृत्युविनाशकः ॥ नैवेद्य विपुलं राज्यं, सिद्धिदात्री प्रदक्षिणा ॥१॥ नैवेद्य चढावतुं, आरति करवी इत्यादि आगममां पण लखेल . " कीर बलि ” एवो पाठ आवश्यक नियुक्तिमां . तथा निशीथचूर्णीमां पण बलि चढाववी एम लखेल . वली कल्पनाष्यमां पण लखेवू डे के, जे नैवेद्य जिनप्रतिमा आगल चढाववावास्ते कर्यु होय, ते साधुने न कस्पे. तथा प्रतिष्ठाप्रातृतथी रचेली, श्रीपादलिप्त आचार्यकृत प्रतिष्ठापअतिमां लख्यु के के, आरति उतारवी, मंगल दीवो कर्यापली चार स्त्री मली नैवेद्य, गीतगानविधियी करे.॥ तथा च महानिशीथे तृतीये अध्ययने ॥ अरिहंताणं जगवंताणं गंधमसपश्व समजाणोवलेवण विचित्त बलिवत्थ धूवश्एहिं पूा सकारेहिं पदिण मञ्चणंपि कुवाणा चिनुपणं करेमोत्ति ॥ इति अग्रपूजा.
हवे नावपूजार्नु स्वरूप लखीये बीये. अव्यपूजानो व्यापार निषेधवा वास्ते त्रीजी निस्सीहि त्रणवार करे, श्रीजिनेश्वर नगवाननी दक्षिण वाजुयें पुरुष, अने डाबी बाजुयें स्त्री रहे. आशातना टालवावास्ते मंदिरमा जघन्यथी नूमिनो संजव होतां नव हाथ प्रमाण, अने घरदेरासरमां जघन्यथी एक हाथ प्रमाण, अने उत्कृष्ठथी साठ हाथ प्रमाण अवग्रह डे. तेनी वहार बेसीने चैत्यवंदन विशिष्ट काव्योथी करे, श्रीनिशीथमां, वसुदेव हिंडमां, तथा अन्यशास्त्रोमां, श्रावकोयें पण कायोत्सर्ग, स्तुति श्रादि करी चैत्यवंदन करेल , एवा पाठ ले. जाष्यमां चैत्यवंदन त्रण तरेहथी करवू कहेल. एक जघन्य चैत्यवंदन, ते बे हाथ जोडी, मस्तकनमावी, प्रणाम करवा, यथा “नमो अरिहंताणं” इति, अथवा श्लोकादिबोली नमस्कार करवो, अथवा एक शकस्तव बोलें तो जघन्य चैत्यवंदन थाय. बीजुं मध्यम चैत्यवंदन, ते चैत्यस्तव दंडकयुगल 'अरिहंत चेश्श्राण' इत्यादि कायोत्सर्ग कर्या पड़ी एकस्तुति कहेवी ते. त्रीजु उत्कृष्ठ चैत्यवंदन, ते पंचदंड, शकस्तव, चैत्यस्तव, ३ नामस्तव, ४ श्रुतस्तव,५ सिहस्तव,प्रणिधान, जयवीयराय इत्यादि.वली कोश् आचार्यनो एवो मत डे के एकशकस्तव करवाथी जघन्य चैत्यवंदन थायडे, बेत्रणशकस्तव करवाथी मध्यम चैत्यवंदन थायडे, अने चार अथवा पांच शकस्तव करवाथी उत्कृष्ठ चैत्यवंदन थाय. तेनोविधि चैत्यवंदन नाष्यथीजाणवो.