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(शत) जैनतत्त्वादर्श. तिमंदमंदं । प्राणायामोललाट, स्थल निहितमना, दत्तनासाग्रहष्टिः नाऽत्युन्मीलानिमील, नयनमतितरां, बझपर्यंकबंधो । ध्याने प्रध्याय शुक्लं, सकल विदनव, द्यः सपायाजिनोवः ॥१॥ वली केवा बे ते योगीं ? मन, चित्त, अंतःकरणना विकल्परूप व्यापारने बंध कयों ने, जेणे कारण के विकल्पज दृढकर्म बंधननो हेतु . यदाह ॥ शुजावाह्यशुजावापि, विकल्पा यस्य चेतसि ॥ सस्वं बन्धात्ययः स्वर्ण, बंधना तेन कर्मणा ॥१॥ वरं निसा, वरंमूळ, वरं विकलताऽपि वा ॥ नत्वातरौपडलेश्या, विकल्पाकुलितं मनः ॥२॥ वली ते योगी केवा ? संसारनो उछेद करवा वास्ते उद्यम जे जेनो एवा बे, कारण के नवने उछेद करवानी अनिलाषावाला ध्यानवाननेज योगनी सिकि थाय बे. यदाद ॥ उत्साहान्निश्चयार्याि, संतोषात्तत्त्वदर्शनात् ॥ मुनेर्जनपदत्यागा, पनिर्योगः प्रसिद्धयेदिति ॥१॥ तथा योगीजमुनि प्रवनने उर्ध्व प्रचाराप्ति दशमहार गोचर प्राप्त करे . शुं करीने प्राप्त करे ले ? अपानधार मार्गथी गुदाने रस्ते पोतानी हाथी निकलता पवनने संकोचीने, मूलबंध युक्ति पूर्वक करे . ते मूलबंध आ डे ॥ पाणिनागेन संपीड्य, योनिमाकुंचयेशुदं ॥ अपानमूर्धमाकृष्य, मूलबंधोनिगद्यते ॥१॥ आ श्राकुंचन कमज प्राणायाम, मूल जे. ॥ यमुक्तं ॥ ध्यानदंडस्तुतौ ॥ संकोच्यापानरंध्र हुतवह सदृशं, तंतुवत्सूक्ष्मरूपं । धृत्वा हृत्पद्मकोशे, तदनु च गलके ताबुनि प्राणशक्तिं ॥ नीत्वा शून्यां, पुनरपि खगति, दीप्यमानं समंतात्, लोकालोकावलोकां, कलयति सकलां यस्य तुष्टो जिनेशः ॥१॥
हवे पूरक प्राणायामनुं खरूप कहियेबियें. योगी पूरक ध्यानना योगथी अतिप्रयन्नपूर्वक सर्व देहगतनाडीसमूहने पवनथी पूरे . शुंक रीने ? बार आंगल सुधी पवननुं आकर्षण करीने, अर्थात् बहारथी सर्व बाजुएथी बार बांगलप्रमाणे पवनने खेंचीने पूरे. तात्पर्य ए डे के
आकाश तत्व वदेतां थकां नासिकानी अंदरज पवन होयडे, अग्नितत्व वहेतां थकां चार आंगल प्रमाण बहार पवन उर्ध्वगति स्फुरे , वायु तत्व वहेतां बांगल प्रमाण बहार पवन तिर्यग् स्फुरे डे, पृथ्वीतत्व वहेतां थकां आठ आंगल प्रमाण बहार पवन मध्यम जागमा रहे , अने जल तत्व वहेतां थकां बार बांगल प्रमाण पवन नीचे वहे . एवी