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एकादश परिछेद.
(५३ए) डे. पगमांथी रुधिरनी धारा बुटे , तोपण जीववाली नूमि उपर पग मुकतो नथी. ते वखते देवताये गीत नाटकनो बहु मोहक प्रारंज कर्यो, तो पण राजा दोलायमान थयो नही; तेथी बने देवता सिझ पुत्रोनुं रूप करी राजाने कहेवा लाग्या, हे महानाग! तमारं आयुष्य हजु लांबु बे. तेथी खबंद जोग विलास करो, कारण के यौवनमां तप करवो ते वास्तविक नथी. ज्यारे वृक्ष था, त्यारे दीक्षा लेजो. या वात सांजली राजाए कह्यु के जो मारु श्रायुष्य लांबु , तो हुं बहुज धर्म करीश. कारण के पाणी जेटटुं हुं होय , तेटलीज कमलनी नाल पण वधी जाय , वली यौवनमा इजियोनो जय करवो, तेज खरो तप . हवे बंने देवताउने खातरी थश् के श्रा राजा तो कदापि चलायमान थाय तेवो नथी. पनी बंने देवता सर्वथी उत्कृष्ट जमदग्नि तापस पासे तेनी परीक्षा करवा श्राव्या. तेउँए, जेनी वडवृदनी जटानी जेम, धरतीनी साथे जटा लागी रही , तथा जेना पगोमां सर्पनी बंबी वनी गई बे, एवी स्थितिमां जमदग्नि तापसने दीगे. हवे बंने देवता देवमायाथी जमदग्निनी दाढीमां मालो बनावी, चकला, चकली बनी, बने जणा मालामां बेग, पनी चकलो चकलीने कहेवा लाग्यो के हुँ हिमवंत पर्वत उपर जश्श. चकलीए कह्यु के हुँ तने कदापि नहि जवा दलं, कारण के तुं त्यां जश् कदाच कोश् चकलीमां आसक्त यश् जाय तो मारा शुं हाल थाय ? चकलाए कडं के जो हुं फरीने पाडो न आq तो मने गौहत्यानुं पाप लागे. चकलीए कह्यु के हुँ था तारा सोगनने मानती नथी, जे हुँ सोगन थापुं ते तुं कबुल करे, तो हुँ तने जवा दलं. चकलाए कडं जले तुं जे सोगन श्रापवानी होय ते कही दे ? चकलीए कडं के जो तुं को चकलीनी साथे यारी करे तो, आ जमदग्नि तापसर्नु जे पाप ने ते तने लागे एम सोगन खा. चकला चकलीना श्रावचन सांजली जमदग्निने क्रोध उत्पन्न थयो, अने बंने हाथवती चकला चकलीने पकडी लीधा, श्रने ते ने कहेवा लाग्यो के हुँ पापनो अत्यंत नाश करनार एवो महा पुष्कर तप करुं बुं, बतां हवे मारे एवं कयुं पाप बाकी रही गयुं डे के जेथी तमे मने पापी उरावो बो ? चकलाए कडं हे रुषि! तुं अमारा उपर गुस्सो कर नही; कारण के अमे