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(३०२) जैनतत्त्वादर्श. झान, दर्शन, चारित्र, सुख, वीर्य, श्रव्याबाध, सचिदानंदादि अनंत गुणमय, अविनाशी, अनुपाधि, अविकारी . तेनाथी विलक्षण जे परपजलादि ते मारा नथी. ते पुजलना पांच विकार , १ शब्द, ५ रूप, ३ रस, ४ गंध, ५ स्पर्श, आ पांचना उत्तर नेद अनेक बे. आलोकाका. शमां उद्योत, अंधकार, शब्द, सर्वरूपी वस्तुनी बाया, रत्ननी कान्ति, शीत, धूप, नानाप्रकारना रंग, रूप, संस्थान, नानाप्रकारना सुगंध, पु. गंध, नानाप्रकारना रस, सर्वसंसारी जीवोना देह, नाषा, मनना वि. कल्प, दशप्राण, ब पर्याप्ति, हास्य, रति, अरति, लय, शोक, जुगुप्सा, खुशी, उदासि, कदाग्रह, हठ, लडाइ, क्रोधादि चार कषाय, शाता, अ. शाता, उंच, नीच, निजा, विकथा, सर्वपुण्य प्रकृति, सर्वपापप्रकृति, रीज, मोज, खीज, खेद, ब वेश्या, लाजालाज, यश, अपयश, मूर्खता, त्रणप्रकारना वेद, कामचेष्टा, गति, जाति, कुल, इत्यादि आवे कर्मनां विपाक फल. या सर्व बाबतो जीवने अनुजव सिद्ध बे, अने सूदमपुजल इंघिय अगोचर , ते परमाणु आदि अनेक तरेहना बे. पूर्वोक्त पुलना संयोगथी जीव चारे गतिमां चटके . आ पुजल मारी जाति नथी,
आ पुजलनो मारी साये कां वास्तव संबंध नथी, आ पुजल सर्व त्यागवा योग्य , जे आ पुजलनो संसर्ग ने तेज संसार , आ पुशलनी संगतथी ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि गुण बगडी जाय , जे श्रा पुजल अव्यनी रचना ते मारा श्रात्मानो स्वन्नाव नश्री, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, श्राकाशास्तिकाय, काल, आ चारे अव्य ज्ञेयरूप बे, परंतु हुं ते सर्वश्री अन्य बुं, ते मारा नहि, हुं तेनो नहि, हुं तेउनो साथी पण नहि, हुं मारा स्वरूपनोज स्वामी बु, मारो स्वन्नाव सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप , वर्णरहित, गंधरहित, रसरहित, स्पशरहित, चैतन्यगुण, अनंत, अव्याबाध, अनंत दान, लाज, जोग, उपजोग, वीर्यादि अनंतगुणस्वरूप में, तेजेनी श्रझा, नासन, रमणतारूप चिदानंदघन मारो स्वन्नाव जे. एवो जे मारो पूर्णानंद स्वन्नाव, ते प्रगट करवावास्ते सर्व शुरु व्यवहारनय निमित्तमात्र बे, परंतु मुख्य तो मारा स्वनावमा जे रमणता करवी तेज शुद्ध साधन , तेज धर्म . शति निश्चयधर्मस्वरूप.