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चतुर्थ परिबेद.
(१३३) समुदायरूप वडनुं कारण जे एम जगत्मां प्रसिबे तेवीज रीतें शाखाना एक नागथी उत्पन्न श्रयेल वड, परमार्थथी मूल, ते वडशाखारूपजबे, तेथी ते मूल पण बीजबीज उत्पन्न थयेल मान जोश्ये ते कारणथी कोश्पण स्थलें कार्यकारणनाव व्यभिचारी नथी.इति यहलावादिमतखंडन.
हवे अज्ञानवादिना मतनुं खंडन लखिये बियें. अज्ञानवादी कदेने के झान श्रेय नथी, कारण के ज्यारे ज्ञान थायडे, त्यारे परस्पर विवादना योगथी चित्तमां क्वेश थवाना कारणथी दीर्घतर संसारनी वृद्धि थाय . श्त्यादि. अज्ञानवादिनुं आ कथन मूर्खतासूचक . जुर्म के बीजी वात तो दूर रही परंतु प्रथम अमे आपने बे सवाल पुखिये बिये, मुख्य ए डे के ज्ञाननो तमे जे निषेध करोबो ते शुं ज्ञानथी करोडो के अज्ञानथी करोडो? जो कहो के ज्ञानथी करिये बियें, तोपड़ी केम कही शको के अझान श्रेय? था कथनथी तो ज्ञानज श्रेय थयुं ज्ञानविना अज्ञानने स्थापन करवाने कोश् समर्थ नथी. जो पूर्वोक्त कथन खीकारशो तो तमारी प्रतिज्ञाने व्याघातनो प्रसंग आवशे. जो केहेशो के अज्ञानथी निषेध करिये लियें तो तेपण अयुक्त , कारण के अज्ञानमा ज्ञानने निषेध करवानुं सामर्थ्य नथी. कारण के अज्ञानमा कोश्नेपण सिद्ध करवानी के बाध करवानी शक्ति नथी; ज्यारे अज्ञानमां ज्ञानने निषेध करवानुं सामर्थ्य नथी त्यारे ज्ञानज श्रेय एम सिद्ध थयु, वली तमे कयुं बे के ज्यारे ज्ञान थायडे त्यारे परस्पर विवादना योगथी चित्त, क्लेशादि नावने प्राप्त करे, तेपण आपनुं विना विचारनुं कथन . अमे परमार्थथी ज्ञानी तेनेज कहियें लियें के जेनो आत्मा विवेकथी पवित्र होय; अने जे झाननो गर्व न करे, तेमज अल्पज्ञानी थक्ष कंठ लगी मदिरापान करनारनी जेम उन्मत्त वचनो बोले अने सर्व जगत्ने तृण सदृश माने, ते परमार्थथी अज्ञानीज बे, कारण के तेने ज्ञाननुं फल प्राप्त थयुं नश्री. ज्ञानफल तो रागद्वेषादि दूषणोनो त्यागनावडे. ज्यारे तेम थयु नहि त्यारे परमार्थथी तेनामां ज्ञानज नथी, उक्तं च ॥ तज्ज्ञानमेव न नवति, यस्मिनुदिते विनाति रागगणः ॥ तमसः कुतोस्ति शक्ति, दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥१॥ एवा ज्ञानी विवेकथी पवित्र आत्मावावाला परजीवोने हित करवामां एकांत रसिया होय. एवा ज्ञानी कदापि विवाद करशे, तो पण प