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षष्ठ परिच्छेद.
( २६७ ) के जे साधु सप्रमादी थइने श्रावश्यक, सामायिकादि षडावश्यक साधक अनुष्ठानो परिहार करीने, निश्चल, निरालंबन धर्मध्याननो - श्रय करे, ते साधु मिथ्यात्व मोहित जावची मूढ थयो थको, श्रीसर्वज्ञ प्रणीत जैनागम ( सिद्धांत) जाणतो नथी. ते व्यवहारनो त्याग करी दूर बेबे ने निश्चयने प्राप्त करी शक्यो नथी; धने जे जैन सिद्धां - तना ज्ञाता बे, ते तो व्यवहारपूर्वक निश्चयने साधे बे. यदाह ॥ ज जिणमयं पवजह, तामा विवहारनिच्चए मुयह ॥ विवहार नर्ज बे ए, तिनुन्छे जर्ज नपि ॥ १ ॥ अर्थः- जो जैनमतने अंगीकार करता हो, तेमज जैनमतना साधु थता हो तो व्यवहार, निश्चयनो त्याग करो नहि, जो व्यवहारनो उच्छेद करशो तो तीर्थनो उछेद थइ जशे, या कथन उपर दृष्टांत कहीये बियें. कोई पुरुष पोताना घरमा निरंतर बाजरानी रोटली खाय बे, एकाद दिवस कोइ गृहस्थे तेने निमंत्रण करी पूर्व मिष्टान्न आहारनुं जोजन कराव्युं श्रा मिटान आहारथी स्वादनो लोलुपी थने ते पोताना घरनी बाजरानी रोटली निःखाद जाणी खातो नथी, अने अंतःकरणमां दुःप्राप्य मिष्टान्ननी अभिलाषा करी रह्यो बे, मिष्टान्न मलतुं नथी, अने बाज - रानी रोटली रुचिकर थवाथी खातो नथी, तेथी उजयन्रष्ट थइ अंते दुःखी थाय बे, तेवीज रीतें श्रा जीव पण कदाग्रहरूप भूत वलगी जवाथी प्रमत्त गुणस्थानसाध्य स्थूलमात्र पुण्य पुष्टिनां कारण, षडावश्यका दि कष्ट क्रिया करतो नथी, छाने कदाचित् प्रमत्त गुणस्थानमां जेनो लाज बे, एवं निर्विकल्प मनोजनित, समाधिरूप निरालंबन, ध्यानांश अमृत - हारतुल्य प्राप्त थाय बे, तेनाथी उत्पन्न थयो जे परमानंद सुखखाद, ते चित्तमां रेहेवाथी प्रमत्त गुणस्थानगत पडावश्यकादि कष्ट क्रियाकर्म बाजरानी रोटली समान जाणी, तेनुं सम्यक् रीतें आराधन करतो नथी,
ने मिष्टान्न तुल्य निरालंबन ध्यानांश तो प्रथम संहननना श्रावथी प्राप्त करी शकतो नथी, तेथी आवश्यकादि क्रिया नहि करवायी उजयष्ट थाय बे. या पंचम कालमां महामुनि, कृषिए निरालंबन ध्याननो मनोरथज करेलो बे ॥ तथा च पूर्वमहर्षयः ॥ चेतोवृत्तिनिरोधनेन करणग्रामं विधायोद्वशं । तत् संहृत्य गतागतं च मरुतो धैर्य समा