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(१एन) जैनतत्त्वादर्श. क्ति . पनी ते शक्ति उपलब्ध केम थती नथी ? जो कहो के श्रावृत थवाथी उपलब्ध थती नथी, तो ते पण ठीक नथी, कारण के आवृति शब्दनो अर्थ आवरण ले. ते आवरण शुं विवक्षित परिणामनो अनाव बे ? के परिणामांतर ? के जूतोथी अतिरिक्त बीजी वस्तु के ? तेमां, विवदित परिणामनो अनाव तो नथी. कारण के एकांत तुब होवाथी ते विवक्षित परिणाम अनावने आवरण शक्ति नथी, अन्यथा तेनुं श्रतुबरूप होवाथी, ते पण जावरूप थर जाय. ज्यारे जावरूप थाय, त्यारे टथिवी श्रादिमांथी अन्यतम थाय, कारण के “पृथिव्यादीनि जूतानि तत्त्वमिति वचनात् " अने पृथिवी आदि जे चूत डे ते चैतन्यनां व्यंजक बे, परंतु आवरक नथी, तेथी, केवीरीतें श्रावरणपणुं सिक थाय ? __जो कहो के परिणामांतर दे, तो तेपण अयुक्त बे, कारण के परि• णामांतर पण नूतखनाव होवाथी जूतोनी पेठे चैतन्यव्यंजकज थर
शके डे, श्रावरक थक्ष शकतुं नथी. - जो कहो के नूतोथी अतिरिक्त वस्तु बे, तो ते कदेवु बहुज असं
गत . कारण के नूतोथी अतिरिक्त (न्यारी) वस्तु मानवाथी “चस्वार्येव पृथ्व्यादिजूतानि ” तत्त्वसंख्याने व्याघात यश् जशे.
वली जुठ के था जे चैतन्य बे ते एक एक नूतनो धर्म ? के सर्व नूतसमुदायनो धर्म डे ? एक एक नूतनो धर्म तो लागतो नथी, कारण के एक एक नूतमा देखातो नथी, तेमज एक एक परमाणुमां संवेदन उपलब्ध थतुं नश्री. जो दरेक परमाणुमां होय तो पुरुष, सहस्र चैतन्य वृंदनी पेठे परस्पर जिन्नखनाव थाय, परंतु एकरूप चैतन्य नज थाय, अने देखवामां तो एकरूप श्रावे . " अहं पश्यामि " अर्थात् हुं देखेंबु. हुं करूंढुं, एवो सकल शरीर अधिष्ठाता एक उपलब्ध थाय .
जो समुदायनो धर्म मानी तो पण प्रत्येकमा अनाव होवाथी असत् बे. कारण के जे प्रत्येक अवस्थामा असत् बे, ते समुदायमां यश् शकतुं नश्री. जेम रेती समूहमांथी तेल. __ जो कहो के मद्यांगोमां मदशक्ति नथी. समुदायमा थर जायडे, तेम चैतन्यपण थ जाय तो, शुं दोष ? आ पण अयुक्त जे. कारण के प्रत्येक मॅय अंगमा मदशक्ति अनुयायी माधुर्यादि गुण देखाय के जुर्ज.