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सप्तम परिवेद,
(३२७) पंखा करता नथी, कोमल शय्या तेमज पलंग पर सुता नथी, रात्रिए जलपण पीता नथी, दिवसेंपण उष्ण जल पीये बे, आ प्रमाणे तेनुं नारे तप . तेथी उलटा जे साधु बनी बेग ने, अने गरमी लागे त्यारे पाडानी पेठे सरोवरमा जश् पडे बे, एवा सुखशी विधा शुं तरी जशे ? जेठने कोश् वातनो नियम नश्री. वली हाथी, घोडा, रेल प्रमुखनी खारि करवी, सर्व प्रकारनां फलनक्षण करवां, धन राखवां, मकान बांधवां, खेती करवी, कराववी, गाय, नेस, हाथी, घोडा प्रमुख जानवर तथा रथादि अने शस्त्रादि सरंजाम राखवा, बल, बलथी लोको पासेथी धन लेवां, स्त्री साथे 'विषयसेवन करवां, सुंदर खानपान करवां, मांसनदण करवां, मदिरापान करवां, नांगना रगडा, चरसनी चलमो उडाववी, हाथपग तथा शरीरने वेश्यानी जेम चमकाववां, चित्तमां मोटा अनिमान राखवां, दंड पीलवा, कुस्ती करवी, इत्यादि अनेक साधुऊने अनुचित कामो करवां, बतां श्री श्री खामिजी महाराज बनीठणी बेसवं, अमे महंत श्ए, अमे गादिपति झए, अमे जहारक श्ए, अमे श्रीपूज्य श्ए, श्रमे जगत्नो उझार करीए बश्ए, अमे महान् अ
तब्रह्मवेत्ता अश्ए, श्रमे शुभ ईश्वरनी उपासना बतावीए बश्ए, अमे मूर्तिपूजन पाखंडनो नाश करीए बश्ए.
हवे जव्य जीवोए विचार करवो जोशए के, पूर्वोक्त कुगुरुज शुं जल स्नान करवाथी संसार समुश्री तरी जशे ? अने जेठ, जीवहिंसा, असत्य, चोरी, मिथुन तेमज परिग्रह, श्रा पांचेना त्यागी, शरीरना ममत्वरहित, प्रतिबंधरहित, कामक्रोधना त्यागी, महातपखी, मधुकर वृत्तिथी निदा लेनारा, इत्यादि अनेक गुणोथी सुशोजित, शुं जल स्नान नहि करवाथी पातकी थजशे? कदापि थशे नहि. ते कारणथी साधुऊने देखी जुगुप्सा न करवी, जो करे तो त्रीजो अतिचार. __ चोथो मिथ्यादृष्टिनी प्रशंसारूप अतिचार . जिनप्रणीत श्राज्ञाथी जे बहार ले ते मिथ्यादृष्टि , कारण के सर्वज्ञनां कथन करेलां वचनो ते मानता नथी, अने असर्वज्ञनां कथन करेलां वचनो सत्य माने , वती असर्वज्ञप्रणीत शास्त्रोमां जे अयोग्य वातो कहेली , तेजेने बुपाववा वास्ते खकपोलकल्पित जाण्य, टीका, अर्थ बनावी मूर्ख लोकोने बहेकावी