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चतुर्थ परिजेद. (१६३) जावमां वस्तु हती, ते कारणथी हेतु दे, त्यारे तो ज्यारे हती त्यारे हेतु न होतो, अन्यदा हेतु थयो, एम तो बहु सारी तत्वव्यवस्था थर।
वली एक बीजी वात डे के- तनावे जाव एवा अवगममा कार्य कारणनावनो अवगम , ते जो तनावे नाव , ते शुं प्रत्यक्षथी प्रतीत थाय डे के अनुमानथी प्रतीत थाय जे ? प्रत्यक्षथी तो प्रतीत थतो नथी, कारण के पूर्ववस्तुगत प्रत्यक्षथी पूर्ववस्तु परिबिन्न थर, धने उत्तर वस्तुगतथी उत्तरवस्तु परिचिन्न थर, अने था बनेनुं अनुसंधान करनार त्रीजें खरूप तो को मानता नथी, ते कारणथी ते अनंतर तेनो नाव बे, एवो केम अवगम थाय ? ते तो तेने पण प्रत्यक्षपूर्वक होवाथी श्रनुमानथी पण न थाय, अने अनुमान तो लिंगलिंगिसंबंधग्रहणपूर्वक प्रवृत्त थाय , श्रने लिंगलिंगिनो संबंध तो प्रत्यदायी ग्राह्य , जो श्रनुमानथी संबंधग्रहण करियें, तो अनवस्था दूषण थावे जे; अने कार्य कारणजावविषे प्रत्यक्ष प्रवृत्त यतुं नथी, ते कारणथी अनुमाननी पण प्रवृत्ति नथी. तेवीजरीतें ज्ञानना बनेक्षणोना परस्पर कार्यकारणभावनो अवगमपण निषेध थयो जाणवो. त्यांपण खसंवेदनथी पोतपोताना रूप ग्रहणमां परस्परखरूप अनवधारणथी तदनंतर हुँ उत्पन्न थयो ९, अने हुँ तेनो जनक बुं, एवी अवगति नहि होवाथी तमारा मतमां कार्य कारणजाव नथी, तेमज तेनो अवगमपण नथी, तेथी, एक संतति पतित थवाथी बंधमोदनुं एकाधिकरण बे, श्रा केदेवू तमारं मृषा बे. श्रा केहेवाथी जे कडे के उपादेय उपादान क्षणोनो परस्पर वास्यवासकलाव होवाथी, उत्तरोत्तर विशिष्ट विशिष्टतर क्षणोत्पत्तिथी मुक्तिनो संजव डे, तेपण उपादेय उपादान नावना उक्तरी तिथी अनुपपद्यमान होवाथी प्रतिक्षिप्त जाणवा; अने जे वास्यवासकनाव कहेल , तेपण तलफूलनीपेठे एककालमां बने दोय त्यारे होश् शके . "उक्तं चान्यैरपि" "श्रवस्थिताहि वास्यंते, नावाजावैरवस्थितैः" तो केवीरीतें उपादेय उपादान कण बनेने परस्पर असाहित्य होवाथी वास्यवासकनाव होय ? उक्तं च ॥ वास्यवासकयोश्चैव, मसाहित्यान्नवासता ॥ पूर्वक्षणैरनुत्पन्नो, वास्यते नोत्तरः क्षणः॥१॥ उत्तरेण विनष्टत्व, न च पूर्वस्य वासना ॥ इति ॥
एक बीजी वात एवी डे के वासना वासकथी जिन्न डे के अभिन्न ?