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जैनतत्त्वादर्श. जो कहो के जिन्न डे तो तो ते वासनायें करी शून्य होवाथी अन्यने वस्तु अंतरवत् कदापि वासित करशे नहि. जो कहो के अजिन्न ने तो तो वास्यदणमां वासनानो संक्रम कदापि थशे नहि. तेवी रीतें तेना स्वरूपनी पेठे तेनाथी अजिन्न होवाथी वासकनी पण संक्रांति . जो कहो के सं. क्राति ने तो अन्वयनो प्रसंग श्रावशे, तेथी तमारु केहेबु कोश्पण कामर्नु नथी, अने तमे जे कडं इतुं के सकलजगत् रागोषादि कुःखसंकुल जाणतां थकां सकल जगत्नो उःखोथी केवीरीतें हुँ उकार करूं ? इत्यादि. आ पण पूर्वापर असंबंध जे. कारण के तमारो दणिक मतज पूर्वापर तुटेलो परमार्थथी असत् . वली क्षणोनुं रेहेवानुं कालमान एक परमाणुना व्यतिक्रममात्र . ते कारणथी उत्पत्तिथी व्यतिरिक्त तेनी को क्रिया उपपद्यमान थती नथी. “नूमिर्येषां क्रियासैव, कारकं सैव वोच्यते” इति वचनात् ॥ तेथी शानदणोनुं उत्पत्ति अनंतर गमनथी, अवस्थान नथी, पूर्वापर क्षणोथी अनुगम नथी, ते कारणथी तेजेने परस्परखरूप अवधारण नथी, तेमज उत्पत्ति अनंतर को व्यापार नथी, तो केवीरीतें मारी सन्मुख था अर्थ सादात् प्रतिनासे ले ? श्रा प्रकारें अर्थनो निश्चयमात्र करवामां पण अनेकदणोनो संचव के अनुस्यूत (संतति रूप ) थर उत्पन्न थाय . अने ते संततिरूपना अनावी सकल जगत् रागद्वेषादि पुःखसंकुलतानो क्याथी विचार होय ? अने दीर्घकालना अनुसंधानथी शास्त्रार्थनुं चिंतवन पण क्याथी होय ? जेना प्रजावथी सम्यक् उपाय जाणीने विशेष दयाथी मोदवास्ते घटना थाय ?
पूर्वपक्षः- आ जे सर्व व्यवहार ने ते शानदणोनी संततिनी अपे. साथी , पडी तमे शा वास्ते या पक्षमा दूषण आपो बो? ।
उत्तरपदः- सुकुमारप्रज्ञोदेवानां प्रियः सदैव सप्तघटिकामध्यमिष्टान्ननोजनमनोज्ञाशयनीयशयनान्यासेन सुखै धितो" परंतु वस्तुना यथार्थतत्वविचारवामां तमारी बुद्धि कुशल थ नथी तेथी अमारुं केहेQ तमारी समजमां आवतुं नथी. कारण के ज्ञानसंततिविषे पण तेज दूषण बे. जे अमे उपर कहेल बे तेज बतावियें बियें. वैकल्पिक तेमज अवैकल्पिक जे ज्ञानदण , ते परस्पर अनुगमना अनावथी परस्पर स्वरूप जाणती नथी, अने क्षणमात्र उपरांत रेहेती नथी, त्यारे हवे केवी रीतें