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प्रथम परिच्छेद.
१७-१८ राग अने द्वेष- रागद्वेषवान् मध्यस्थ होइ शकता नथी. तेमज रागद्वेषीमां क्रोध, मान, मायानो संजवडे जगवान् वीतराग, समशत्रु मित्र, सर्वजीवपर समबुद्धि न कोइने दुःखी अथवा सुखी करे जो दुःखी सुखी करे तो वीतराग करुणासमुद्र कदापि न होइ शके, ए कारणथी राग द्वेष वाला अर्हत जगवंत परमेश्वर नहीं. पूर्वोक्त अढार दूषणरहित त जगवंत परमेश्वर बे, बीजा कोइ परमेश्वर नथी.
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नां नाम बे लोकश्री लखीए बीए. " अन् जिनः पारग तस्त्रिकालवित्, क्षीणाष्टकर्मा परमेष्ट्यधीश्वरः ॥ शंभुः स्वयंभूर्भगवान् जगत्प्रभु, स्तीर्थंकरस्तीर्थकरो जिनेश्वरः ॥ १ ॥ स्याद्वाद्यऽनयदसर्वाः, सर्वज्ञः सर्वदर्शिकेवलिनौ ॥ देवाधिदेवबोधिद, पुरुषोत्तमवीतरागात्ताः ॥२॥ अर्थ - चोत्री अतिशयें करी सर्वथी अधिक होवाथी सुरेंद्र दिएं क रेली अष्ट महाप्रातिहार्य तथा जन्म स्नात्रादि पूजाने जे पात्र बे ते ईन् अथवा ज्ञानावरणीय आदि या कर्मरूप शत्रुनो नाश करवाथी अर्हन् अथवा बांधेली कर्मरजनो नाश करवाथी अन् अथवा कोई प दार्थ जेना ज्ञानमां गुप्त नथी ते अन् तथा नामांतरथी अरुन् जेने नवरूप अंकुर उत्पन्न थवानो नथी ते (२) जीत्यां बे राग द्वेष मोहादि
ढार दूषणो जेणें ते जिन (३) संसारना तेमज प्रयोजन मात्रना यंतने जे प्राप्त था वे एटले के संसारमा जेने कोइ प्रयोजन नथी ते पारगत (४) नूत, भविष्य, वर्तमान ए त्रणे कालने जे जाणे ते त्रिकाल वित् (२) दय यां या ज्ञानावरणीय यदि कर्म जेनां ते कीणाष्टकर्मा (६) परम उत्कृष्ट पदमां जे रहे ते परमेष्टी ( 9 ) जगतना ईश्वर ते अधीश्वर (८) शाश्वत सुखमां जे होय ते शंभु (ए) पोते पोतानाज श्रात्माथी तथा जव्यत्व यदि सामग्रीनी परिपक्कताथी तथा बीजाना उपदेश विना होय ते स्वयं (it कथन तेज जवनी अपेक्षानुं बे ) (१०) जग शब्दना चौदा माथी अर्काने योनि ए बे बाद करीने बार अर्थवंत जे हो शके बे. तेनां नाम (१) ज्ञानवंत ( २ ) माहात्म्यवंत (३) शाश्वत वैरियोना वैर उपशमाववाथी यशस्वी (४) राज्य लक्ष्मीनो त्याग करवाथी वैराग्यवंत (५) मुक्तिवंत (६) रूपवंत (9) अनंत बल होवाथी वीर्यवंत (i) तप करवामां उत्साहवान् होवाथी प्रयत्नवंत (ए) संसारमांधी जीवो