________________
पंचम परिबेद. () तेठमां गम्य अगम्यनो विचार , तेवीजरीतें उंचनीचपणाना विजागनो विचार . आ व्यवहार ब्राह्मण तथा जैनियोये चलाव्यो नथी, परंतु ते जीवोना जलां, बुरां कर्मोना उदयश्री चालेलो . आ प्रमाणे परस्पर जातियोमा खान पान नहिं करवानो व्यवहार मिसर देशमां पण हतो, तेथी सिझ थाय डे के ऊंच नीच गोत्रना अनावश्रीज उंच नीच जाति, कुल थाय बे. __ तथा श्रायुकर्मनी नरक श्रायुनी प्रकृति पापमां गणायजे. नरकशब्दनी व्युत्पत्ति आ प्रमाणे बे. "नरान् प्रकृष्टपापफलजोगाय गुरुपापकारिणः प्राणिनोनरानित्युपलक्षणत्वात् कायति शब्दयंतीति नरकास्तेष्वायुस्तनवप्रायोग्यसकलकर्मप्रकृतिविपाकानुनवकारणं प्राणधारणं यत्तन्नरकायुष्कं तहिपाकवेद्यकर्मप्रकृतिरपि नरकाथुष्कमिति ॥”
तथा वेदनीकर्मनी अशाता वेदनी पापप्रकृतिमां गणायजे. अशातानाम उखनुं बे, जेना उदयथी जीव दुःख जोगवे ने ते अशातावेदनी ३. श्रा प्रमाणे.
ज्ञानावरण पांच, अंतराय पांच, दर्शनावरण नव, मोहनी बबीश, नामकर्मनी चोत्रीश, नीच गोत्र एक, नरकायु एक, अशातावेदनी एक, सर्व मली व्याशीनेदें पापफल लोगववामां आवेने. इति.
हवे आश्रवतत्त्वतुं स्वरूप लखियें लियें. "आश्रवन्ति, आगठन्ति क. र्माणि जीवेषु येन साश्रवः" जेनाथी जीवोने कर्मनी प्राप्ति थाय ते श्राश्रव १ असत् देव, श् असत् गुरु, ३ असत् धर्म, तेउविषे सत् देव, सत् गुरु श्रने सत् धर्म एवी जे रुचि ते मिथ्यात्व, तथा हिंसादिथी न निवर्त्त, ते अविरति, तथा मद्यप्रमुख ते प्रमाद, तथा क्रोधादि ते कषाय, अने मन, वचन, कायानो व्यापार ते योग, आ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग, पांचे पुनबंधक जीवना ज्ञानावरणीय श्रादि कर्मना बंधना हेतु बे, तेउने जैनमतमां श्राश्रव कहे. ते मिथ्यात्वादि शुजाशुन्ज कर्मबंधना हेतु होवाथी तेज आश्रव . आ तात्पर्य जे.
प्रश्नः-प्रथम, वंधोनो अनाव उतां, श्राश्रवनी उत्पत्ति केम होय ? जो कहो के आश्रवथी पहेलां बंध , तो तो ते बंध पण श्राश्रवहेतु