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षष्ठ परिजेद.
(न्य) यथाख्यातनामा दायिक चारित्र थाय , मतलब के उपशम श्रने कयोपशम था बे जाव रहेता नथी.
हवे ते केवली आत्माना केवलनी विनूति कहियेंबियें. ते केवलज्ञान रूप सूर्यना प्रकाशथी चराचर जगत् केवलज्ञानी आत्माने हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष नासन थाय . आ स्थले केवलज्ञानने सूर्यनी उपमामात्र व्यवहारथीज कही . निश्चय स्वरूपें तो केवलज्ञान अने सूर्यमां अपार अंतर .
हवे जे श्रात्माठ तीर्थकरनामकर्म उपार्जन करे ने तेनुं विशेष स्वरूप कहियें जियें. अर्हत्नक्तिप्रमुख वीशपुण्यस्थानको जे आत्मा विशेष श्राराधन करे , ते तीर्थकरनाम कर्म उपार्जन करे . ते वीशस्थानक था . गाथा ॥ अरिहंत सिद्ध पवयण, गुरु थेर बहुस्सुए तवस्सीसु ॥ वलयाश्एसु, अजिरकणंणो वजग्गेय ॥१॥ दंसण विणए श्राव, स्सए सीलवए निरश्यारे ॥ खणलवच्चियाए, वेयावच्चे समादीयं ॥२॥ अपुत्व नाणग्गहणं, सुयजत्ती पवयण पजावणया ॥ एएहिं कारणेहिं, तिबयरत्तं लहर जीवो ॥३॥ आ गाथाउँनो अर्थ श्रागल लखशुं. या गुणस्थानकमां, तीर्थंकर नामकर्मना उदयथी ते केवली त्रिजुवनपति जिनें थाय . जिन अर्थात् सामान्य केवली, तेजेना जेते जिनें कहेवाय .
हवे तीर्थंकरना महिमानुं वर्णन करिये बिये. ते लगवान् तीर्थंकर,प्रथम परिछेदमा वर्णन कर्या मुजब चोत्रीश अतिशययुक्त होय . सर्व देवता तथा मनुष्यो जेमने नमस्कार करे, एवा सर्वोत्तम, सकलशासनमा प्रधान एवं तीर्थप्रवर्तन करे बे, अने उत्कृष्टथी देशोनपूर्वकोटि सुधी विद्यमान रहे . __ हवे ते तीर्थकरनामकर्म केवीरीतें वेदवामां थावे तेनुं स्वरूप कहियें बियें. पृथ्वीमंडलमां विहार करतां जव्यजीवोने प्रतिबोधी, तेजने सर्व विरति तेमज देशविरति करवाथी तीर्थकरनाम कर्म वेदवामां आवे . जो तीर्थकरनामकर्मनो उदय न होयतो नगवान् कृतकृत्य थवाथी तेमने उपदेश करवानुं शुं प्रयोजन के ? ते कारणथी जे वादी नगवानने निःशरीरी, नैरुपाधिक, मुखरहित, सर्वव्यापी माने बे, ते नगवान् देहादिना अजावथी धर्मना उपदेशक यश् शकता नथी. जो उपाधिरहित,