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द्वितीय परिच्छेद.
(यूए) तडुछेदाय प्रवृत्तिरित्यादि - अर्थः - संसारनुं निर्गुणपणुं प्रमाणथी जापीने, संसारथी विमुख बुद्धि यइने, या संसारनो ऊछेद करवामाटे प्रवृत्ति करे, पढी या केहेतुं ते आकाशना फुलना सुगंधनुं वर्णन करवा सरखं बे, कारण के ज्यारे अद्वैतरूपज तत्त्व बे त्यारे तो नरकादि . जवज्रमणरूप संसार क्यां रह्यो ? के संसारने निर्गुण जाणी तेनो उच्छेद करवानी प्रवृत्ति याय.
पूर्वपक्ष:- तत्त्वथी पुरुष अद्वैतमात्रज बे, अने या जे संसार निर्गुण वर्णन करेल बे, ते जेम चित्रामण करेली स्त्रीनां सर्व अंगोपांग सारां नरसां प्रतीत थाय बे तेमज सर्व संसार प्रतीत थायडे, सर्व जीवोने हमेशां तेमज प्रतिभासन थर रहेलबे. परंतु चित्रामण करेली खीना - गोपांगना सारा नरसापपानी पेठे सर्व चांतिरूप अथवा चांतिजन्य बे.
उत्तरपक्षः - श्रा जे तमारूं केहेतुं ते सत् बे, या वातमां कांइ वास्तविक प्रमाण नथी. जो कदि श्रद्वैत सिद्ध करवाने पृथग्भूत प्रमाण मानशो तो तो द्वैतापत्ति यशे, कारण के प्रमाण विना कोश्नो पण मत सिद्ध तो नथी, जो कदि प्रमाण विनाज सिद्ध मानशो, तो तो सर्व वादियो पोत पोताना मानेला मतने सिद्ध करी लेशे वली प्रांति पण प्रमानूत थी जिन्न न मानवी जोइये, नहि तो प्रमाणभूत अद्वैत अप्रमाणज थइ जशे, चांति ज्यारे अद्वेतनुंज रूप य त्यारे तो पुरुष रूप थइ, अने प्रांतिस्वरूपवाला पुरुषज बे नहि, त्यारे तत्वव्यवस्था तो कांपण सिद्ध न य जो कदि जांति जिन्न मानशो तो द्वैतापत्ति श्रवशे अने अद्वैत मतनी हानि थशे. जो कदी स्तंभने कुंनादिकथी भेद मानवो तेनेज प्रांति केदेशो तो निश्चयथी सत्स्वरूप कुंजादि कोइ जगें तो जरूर शे. अांतिने दी विना कदापि चान्ति देखवामां श्रावशे नहि. पूर्वे जेणें साचो सर्प दीठो नथी तेने दोरडामां सर्पनी जांति कदापि नहि यावे. यथा - नाड दृष्टपूर्वसर्पस्य, रज्ज्वां सर्पमतिः क्वचित् ॥ ततः पूर्वानुसारित्वाद्, चांतिरत्रांतिपूर्विका ॥ १ ॥ या कथनथी अद्वैततत्त्व खंमन थइ गयुं. वली पुरुष अद्वैततत्त्व अवश्य बीजाने निवेदन करयुं, पोते पोताने नहि पोतामां तो व्यामोह बे नहि. जो कदी के देनारमां व्यामोह होय तो तो अद्वैतनी प्रतिपत्ति ( सिद्धि ) कदापि नहि थाय.