Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC
FAIR USE DECLARATION
This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website.
Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility.
If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately.
-The TFIC Team.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर के २५सौवें निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष्य में प्रकाशित जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
(द्वितीय भाग ) भगवान महावीर और उनकी संघ-परम्परा
10.664
प्रेरक अध्यात्म योगी प्रमुख प्राचार्य श्री देशभूषण जी महाराज
सम्पादक व लेखक परमानन्द शास्त्री भूतपूर्व सम्पादक 'अनेकान्त'
प्रकाशक
रमेशचन्द्र जैन मोटरवाले
राजपुर रोड, दिल्ली
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशक :
रमेशचन्द्र जैन
पी० एस० जैन मोटर कम्पनी राजपुर रोड, दिल्ली
प्रथमावृत्ति वीर नि० संवत्
मूल्य
:
११००
२५००
३५.०० ( पैंतीस रुपये )
मुद्रक :
राजस्थानी प्रिंटिंग एजेंसी के लिये एस० नारायण एण्ड संस ( प्रिंटिंग पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ फोन: _५१३६६८
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
C
चार
नपस्या
सपागल WORD
Total
H
(CTIOW/मो अरिहंताराां, Uामो सिद्धशां, पामो आयरियाराणामो34/मायMA
मो लारासत्वसाहसा... WA सोयसमाबकारी, Armed गया महि.प
. श्री १००८ भगवान महावीर स्वामी
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
समर्पण
जिनके सौजन्य और प्रेरणा से मैं इस ग्रन्थ की रचना में प्रवृत्त हुआ, जिनको जिन साहित्य के सृजन और प्रकाशन का साहित्यानुराग है, जो जैन संस्कृति के प्रचार प्रसार में बराबर अपना योगदान प्रदान करते रहते हैं, उन प्रमुख आचार्य अध्यात्म योगी श्री देशभूषण जी महाराज की साधना से प्रेरित होकर मैं यह ग्रन्थ उन्हें सादर समर्पित करता हूँ।
-परमानन्द जैन शास्त्री
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री १०८ प्राचार्यरत्न देशभूषण जी महाराज का
शुभाशीर्वाद
स्वर्गीय प्रात्मा श्री धर्मानुरागी ला० प्रताप सिंह को सुख शांति प्राप्त हो । आपने अपने जीवन धार्मिक और सामाजिक कार्य किये थे, उसको लेखनी द्वारा जितना भी लिखें उतना कम ही है । हमारे दि चातुर्मास में लाला प्रताप सिंह और उनकी धर्मपत्नी इलायची देवी ने संघ की सेवा तन, मन और धन उसका कोई वर्णन नही कर सकते । लाला जी की गुरु के बारे में जो श्रद्धा तथा भक्ति थी वह हृदय से थी । ल ने तन-मन से अपना कर्त्तव्य समझ कर गुरु सेवा और अन्य धार्मिक कार्य अपने हाथों से करके अतुल पुण् कर इह पर का साधन जुटा लिया और सतान को भी अपने अनुकरण करने योग्य धर्म और लौकिक व सा सेवा आदि कर्त्तव्य करने का सस्कार तथा योग्य शिक्षण दिलवा कर मनुष्य के कर्तव्य कर्म पर उनको निर् आप हमेशा के लिए ससार से अलग हुए। इस बात से कुटुम्बा लोगों का हृदय दुःख से द्रवित हुआ परन्तु लीला अत्यन्त विचित्र है उसको कोई ब्रह्म देव भी परिवर्तन नही कर सकता है, फिर मनुष्य क्या कर है । अयोध्या की पचकल्याणक प्रतिष्ठा का भार अपने ऊपर लेकर गुरु की आज्ञानुसार काम करके संपू और जैनेतर जनता के हृदय में धर्म का तथा ग्रहिसा मार्ग का जो प्रभाव गुरु के द्वारा डलवाया और गुरु का अपने द्वारा ही करवाया, यह सब अपने पूर्व जन्म में किया पुण्य का संचय था। आगे भी धर्म कार्य होने क थी, परन्तु कर्म ने उस काम को करने नहीं दिया । तीर्थ क्षेत्र की यात्रा कराकर पुण्य लाभ और प्रभावना अंग इससे इह परलोक का साधन जुटाकर शोघ्र संसार से हमेशा के लिये अलग हुए। इस स्वर्गीय श्री ला० प्रताप' आत्मा को हमेशा के लिए सुख शांति मिल ऐसा श्री भगवान जिनेन्द्र देव से प्रार्थना करते है ।
श्री स्वर्गीय लाला प्रताप सिंह जी के जीवन की झाकी के अनुसार उनकी संतान तथा प्रति सता के मार्ग का अनुकरण करके श्री जिनेन्द्र भगवान के मार्ग को बढावे और अपने हृदय में सतत धर्म जागृति त मार्ग पर चलते हुए समाज सेवा भी अपने कर्त्तव्य अनुसार करते रहें हम उन्हें आशीर्वाद देते हैं कि उस धर्म श्रात्मा को शांति हो । कुटुम्बियों को धर्म में रुचि बढ़े । इति आशीर्वाद ।
I
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री १०८ प्राचार्य रन्न दशभूषण जी महाराज
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
स्व० ला० प्रताप सिंह जैन
श्रीमति इलायची देवी ध० ५० स्व० ला० प्रतापसिंह जैन एवं उनके सुपुत्र
श्री रमेश, श्री सुदेश, श्री उमेश, श्री सुभाष, व श्री प्रभाष जैन
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वर्गीय श्रीमान लाला प्रताप सिंह जो मोटर वालों के संबंध में
दो शब्द
श्रीमान् ला० प्रताप सिंह जी मोटर वालों ने अपने जीवन में धार्मिक तथा सामाजिक कार्य तथा सेवा में अपना अमूल्य समय व्यतीत किया है । उनके बारे में जो कुछ भी लिखा जाय थोड़ा ही है। तो भी यहां सक्षेप में जो धार्मिक कार्य अपने जीवन में लाना जी ने किये हैं। उस सत्कार्यों में उनका नाम हमेगा हमेशा के लिये अमर हो गया है। "न धर्मो धार्मिक विना" धर्म विना धर्मात्मा के नही चलता है। सचमुच में वह धर्मात्मा व्यक्ति थे, आप श्री परम पूज्य १०८ आचार्य देशभूपण महाराज थी का प्रथम चातुर्मास जो दिल्ली में हना था तब मे आपमें महाराज श्री के मंसर्ग से जो धामिक प्रवृत्ति एवं दान में विगेप अभिचि उत्पन्न हुई था। तत्पश्चात् प्रापकी धर्मपत्नी श्रीमती इलायची देवा ने भी विशेष धर्म की अधिचि रग्स अपने पतिदेव के अनुरूप धर्म कार्य भार विगेपरूप में उठाने का प्रयास किया। प्रथम जब महागज के गगर्ग में रहने का अधिक साधन प्राप्त हुआ, उस समय श्री माघनदि प्राचार्य कृत 'शास्त्रमार समुच्चय' मून कन्नड़ ग्रन्थ का अनुवाद हिन्दी में कराके छपवाने का भार आपने स्वयं उठा कर म पूर्ण जैन समाज को शास्त्र दान देकर महान पुण्य का सपादन किया। यह महान् गौरव की बात है। इस ग्रन्थ के द्वारा कितने ही अन्नानी जीव। ने ज्ञान प्राप्त करके अपनी प्रात्मा का कल्याण कर लिया है । आप एक महान् एव प्राचार्य श्री ने अन्यन्य भक्त " । जाचाय था के मुख से निकले हुए वचनों का कनी उल्लघन नहीं करते थे। किसी भी धार्मिक काय को महाराज कहा वह उम पूरा ही करते थे। यह उनकी अखंड साधना थी।
दिल्ली चातुर्मास द्वितीय चातुर्मास का सपूर्ण भार स्वय उठाकर आपने अपने तन, मन, धन में परिपूर्ण सेवा करके महान पुण्य का सपादन किया । चातुर्मास ममाप्त होने के बाद आपने अपने ही व्यय में महाराज का सम्मद शिखर की यात्रा के निमित्त सघ निकाल कर बिहार में जन जेनेतरों को धर्म उपदेश का लाभ दिलाकर उनको मन्मार्ग पर लगान की चेष्टा करते हुए अपने धन का सदुपयोग किया । महान सिद्ध क्षेत्र सम्मेद शिखरजी में भी अपने दान दिया इन प्रवृत्तियों से महत्पुण्य का संपादन किया प्रापक ५ सत्पुत्र है। व भो आपके समान आपके कदम पर चलत है। सबसे बड़े पुत्र रमेशचन्द्र ने भी अतीव धार्मिक अभिरुचि के साय अपने पिताजी के समान अनुगमन किया तथा इनक चार लघु भ्रातानो ने भी पिताजो तथा अपने ज्येष्ठ भ्राता और अपनी पूज्य माता श्रीमती इलायचा दवा की प्राज्ञा का उल्लघन न करते हुए उन्ही की आज्ञानुसार लांकिक, धार्मिक कार्यों का सभाला है। यह अत्यन्त गारव की बात है कि माता, पिता की मेवा करने उनके पदचिन्हों पर चलने वाली सुमतान इस युग में दुर्लभ है। यह महान गौरव की बात है । इसी तरह आगे भी होने वाली संतान भी इन्हो का अनुकरण कर।
कलकत्ता चातुर्मास कलकत्ता के चतुर्मास में वर्षायोग पूर्ण होने पर आप धर्मपत्नी सहित सघ की सेवा में तत्पर रहे। श्री ला० प्रतापसिह जी तथा इसके समधी ला० रामेश्वरदयाल जी इन दोनों ने मिल करके धर्म प्रभावना के साथ संघ की सेवा करके धर्म लाभ उठाया तत्पश्चात् श्री प्रतापसिह जी धर्मपत्नी सहित कलकत्ता से बिहार करने पर श्री गिरिराज सम्मेद शिग्वर जी तक सेवा में तत्पर रहे संघ में किसी भी प्रकार का असतोप व सेवा में कोई भी त्रुटि न पाने दी तथा संघ में किसी प्रकार का भी सेवा की दृष्टि से धन का भी प्रभाव नहीं आने दिया।
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
तत्पश्चात् शिखर जी से संघ का विहार कराके जब श्री १००८ बाहु बलिजी के दर्शनार्थ दक्षिण में दानवीर, धर्मवीर श्री नाथमल्ल जी काशलीवाल ने संघ निकालकर, संघ में रह कर बाहुबलि जी के दर्शन कराकर संघ को कोल्हापुर में चतुर्मास कराया; तब दिल्ली की जैन समाज ने पुनरपि चतुर्मास की प्रार्थना करके वापिस लाने में ला प्रतार्पासह जी मोटर वाले, इनकी धर्मपत्नी श्रीमती इलायची देवी ने अपनी ओर से पूर्णतया सहयोग देकर सघ की प्रभावना के साथ दिल्ली लाकर अपने तन, मन, धन, से चतुर्मास की समाप्ति तक पूर्ण सेवा करके धर्म लाभ लिया ।
६
अयोध्या पंचकल्याणक
अयोध्या के पंचकल्याणक में जो वहां की प्रभावना, सहायता की श्रावश्यकता में तादात से अधिकतर ला० प्रतार्पासह् जी की प्रेरणा से ला० रामेश्वरदयाल जो, बजरगवली जी इन्ही के सहयोग से यह प्रतिष्ठा सुचारू रूप से चलकर वहां श्री अयोध्या में प्रजैन, ब्राह्मणों, विद्वानां एव महन्तों ने भी इस पूजा प्रतिष्ठा की अत्यन्त प्रशसा की तथा पूर्ण सहयाग भी दिया ।
लाला प्रतापसिह जी ने अपने परिवार के साथ वहा की पूर्ण जवाबदारी अपने ऊपर लेकर १५-२० दिन तक अपना सारा व्यवसाय इत्यादिक पूर्णतया त्यागकर इस पंचकल्याणक में पूर्णतया भाग लेकर अपूर्व पुण्य का संचय किया। उनमें जन धन इत्यादि की त्रुटि न हो उस तरह से तन, मन, धन से और भी माधर्मी जन भाइयों के साथ सेवा में तत्पर रह । वहा पच कल्याणक में लाखों रुपया से दान में असमर्थ एवं दीन लोगों को सहायता देकर उन लागा की सुचारु रूप सग्रजीविका इत्यादि का भार भी श्री रामेश्वर दयाल जा और आप दानां न उठाया था पचकल्याणक के पश्चात् महाराज जी का चातुर्मास संभवतया लखनऊ तथा वाराबका में होन का पूर्ण सम्भावना थी । परन्तु एकाएक राम्मदं ।शखर के विशेष मामले को लेकर लाला प्रतापसिह जी ने पुनः प्रार्थना की कि श्री शिखर जी का मामला सभवतया राजधाना में चतुर्मास होने से मुलझ जाय तो उत्तम रहगा ऐसा विचार करके और अपने निजी खर्च में संघ दिल्ली लाकर उनकी भावना सेवा करन की प्रार्थना की थी परन्तु अकस्मात ग्रायु कर्म की गति रुकने से या देव का प्रकाप हान से लाला जी महाराज का सेवा छोड़कर पूर्व पुण्य के सहित परलोक सिधार गए। क्योंकि कर्म किसी को भी नहीं छोड़ता । तीर्थकर, चक्रवर्ती इत्यादि की भी यही स्थिति होती है । यथा - "कर्म गति टारी नाहि टरं" कर्म ने ऐसे वीरो का भी नहीं छोड़ा कर्म की ऐसा विचित्र गति है । इस कहावत के अनुसार ला० प्रतापसिंह जी न महाराज की सेवा से वंचित होकर प्रयाण किया, कर्म के आगे किसी का भी वश नही चलता । लाला प्रतापसिंह जान अपने पुरुषार्थ से कमाये हुए धन को अनेक स्थाना पर वितरण करके महान पुण्य का संचय किया । आपने एक हाइ स्कूल खोलकर अनका जैन जनतरां को विद्या दान देकर उनकी सेवा करने का उनका उत्थान करने का प्रयास किया था। इस प्रकार उन्हान अनेक स्थानों में विद्या के निमित्त दान स्कूल या पाठशाला खोलकर दीन-हीन जनो का उपकार किया है। नेपाल, नागपुर, पंजाब, रोहतक फिरोजाबाद, जयपुर इत्यादि स्थानों पर इनका कार्य आज भी अधिकाधिक रूप से चल रहा है। उसी के अनुकरण में उनकी धर्म पत्नी इलायची देवी ने भी अपनी सम्पूर्ण सुसतानी को भी न्याय मार्ग के अनुरूप प्रवर्तन किया है। इस तरह उनको भी सन्मार्ग में लगाये हुए पूर्ववत् अपने व्यवहारादि सहित उनके जीवन में जो धार्मिक अभिरुचि उत्पन्न की है यह अपूर्व बान है । लाला प्रतार्पासह जी ने अपने जीवन को जिस तरह बिताया उनकी ही परोपकारी वृत्ति थी। सम्पूर्ण विश्व का बाल गोपाल जानता है। आप जैन व अजैन समाज की दृष्टि में आदर्श तथा मुख्य व्यक्ति थे । प्राज इनके सुपुत्र श्री रमेशचन्द्र जी सामाजिक, धार्मिक कार्यों में अपने तन, मन, धन से सेवारत है, प्रस्तुत ग्रन्थ इन्हीं के सौजन्य से प्रकाशित हो रहा है ।
आपका परिवार हमेशा हा चारों दानों में अग्रणी रहता है, प्रापके गुप्त दान से कितने ही असमर्थ भाई बहिनों का जीवन सफलता पूर्वक चल रहा है, सारा परिवार पूर्ण धार्मिक विचारों का तथा गुरू भक्त है, हम इनके परिवार की उच्च सफलता की कामना करते हैं ।
- वैद्य प्रेमचन्द जैन
दिल्ली ।
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राक्कथन
'जैन धर्म का प्राचीन इतिहास और महावीर संघ परम्परा' नाम का यह ग्रन्थ पं० परमानन्द शास्त्री का लिखा हुआ है। परमानन्द शास्त्री जैन समाज के प्रसिद्ध विद्वान हैं। ग्रन्थ के ४१६ पेज मैने मग्गरी निगाह मे देखे हैं यह ग्रन्थ भगवान महवीर की पच्चीस सौ वीं निर्वाण जयन्ती के उपलक्ष्य में लिया गया है। इस पुनीत अवसर पर परमानन्द जी का यह ग्रन्थ सराहनीय महत्वपूर्ण और सर्वत्र संग्राह्य है। ग्रन्थ सुन्दर है जैनाचार्यो, अपभ्रंश कवियों और भट्टारकों के इति वृत्त के साथ जैन संघ की परम्पग पर अच्छा प्रकाश डालता है। ग्रन्थ में ईसा पूर्व तीसरी शताव्दी से १८ वीं शताब्दी तक के, जो महान जैनाचार्य हए उनका क्रमिक इतिहास मंक्षिप्त होते हुए भी उनको जीवन रचनामों पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। ग्रन्थ में जैन धर्म व संस्कृति के कृमिक विकास का मंक्षिप्त व सरल रूप देने का प्रयत्न किया गया है।
ग्रन्थ की प्रस्तावना में 'थमण संस्कृति' पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। 'श्रमण' शब्द के दो अर्थ हैं, जो सबमें समत्व देखे वह निर्मोही सच्चा श्रमण है, वह सबको समभाव से देखता है। वह अपने अङ्ग प्रत्यग मे तपश्चर्या कर आत्मा को ऊंचा उठाता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने इन्द्रियों का निग्रह करने का उपदेश दिया था।
समसत्तु बंधुवग्गो समसुखदुक्खो पसंसणिदसमो। समलोदकंचणो पुण जीवित मरणो समो समणो ।।
(प्रवचनसार ३-४१) जिसने इन्द्रियों का निग्रह किया, उसने क्या नहीं किया है । इसी निग्रह के अनेक प्रकार हैं-श्रमणों के कई विभाग, श्रमण, वातग्शना, तपस्वी आदि पठनीय हैं। ऋग्वेद में वातरशना और केगी आदि के नाम की प्राप्ति प्रानन्द दायिनी है, उसमे पता लगता है कि जैन संस्कृति उस समय में पूर्वतन थी। कई विद्वान इसे ई०पू० २५०० वर्ष मानते हैं, और पांचवीं सहस्राब्दी मे पूर्व भी कई ने समझा है, कई ने हडप्पा और मोहन जोदड़ों में इसके प्रवशेषों को देखा है।
श्री परमानन्द जी ने, जैन संस्कृति के बारे में जो कुछ लिखा है वह सब अध्येय है। जैन इतिहास का इतना वर्णनात्मक इतिहास अब तक हमारे सामने नहीं पाया है। आशा है कि अन्य भाग भी शीघ्र हो हमारे सामने पहंच कर छात्र मण्डल की ज्ञान वृद्धि करेंगे।
__ लगभग ७०० प्राचार्यों एवं प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत और कन्नड भाषा के लेखक कवियों का लघु परिचय रचनाओं पर टिप्पणियाँ बहुत परिश्रम से संकलित की गई हैं। भगवान महावीर के द्वारा प्रारब्ध धर्म तथा जीवन परिचय से यह रचना प्रारम्भ कर लेखक ने ग्यारह गणधरों, पांच श्रुत केवलियों द्वारा इस धर्म के प्रचार का उल्लेख करते हए जैन संघ के इतिहास का भी यथोचित विस्तार से विवेचन किया है। समग्र साहित्य के रूचिकर अध्ययन के लिये यह पुस्तक पठनीय है। ग्रन्थ के अवलोकन से पता चलता है कि परमानन्द जी ने इसके लिखने में महान श्रम किया है। उन्होंने अपने स्वास्थ्य की विशेष परवाह न करते हुए ग्रन्थ में इतनी अधिक सामग्री एकत्रित की है। जो कार्य बड़े २ विद्वान भी नहीं कर पाते उसे परमानन्द जी ने सम्पन्न किया है। विद्वान लेखक ने जो परिश्रम किया है
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहाग-भाग २
उमका मुल्य तो पाठक प्रांकगे ही। मेरी भावना है कि भगवान महावीर की कृपा से इनका बहत ममय तक प्रायुप्य वना रहे-'भवन्तु दीर्घायुपः श्री परमानन्द शाम्विणः' इति भगवतः प्रार्थयते'।
___ इन प्राचार्यो मे मे कई की जीवनी और कई पर विद्वान लेखक ने अपनी और मे टिप्पणियां दी हैं। इस कार्य की महत्ता समझने के लिये कुवलयमाला, लीलावती, धूर्ताख्यान और उपमिति भवप्रपंच कथा आदि को देखना हितकर हो सकता है। हमें आशा है कि समुचित ग्रन्थों का सामान्य अध्ययन भी इस कार्य में महायक होगा।
दशरथ शर्मा एम. ए. डी. लिट
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
संस्कृति को मानव जीवन के विकास की एक प्रक्रिया कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। संस्कृति शब्द अनेक अर्थों में मढ है उन सब अर्थों की यहां विवक्षा न कर मात्र संस्कारों का सुधार, शुद्धि सभ्यता, आचार-विचार मादा वेप-भूपा और रहन-सहन विवक्षित है। प्राचीन भारत में दो संस्कृतियां बहुत प्राचीन काल से प्रवाहित हो रही है। दोनों का अपना अपना महत्व है फिर भी दोनों हजारों वर्षों से एक साथ रह कर भी सहयोग और विरोध को प्राप्त होती हई भी एक दूसरे पर अपना प्रभाव अंकित किये हए हैं। इनमे एक वैदिक संस्कृति है और दूसरी अवैदिक । वैदिक मस्कृति का नाम ब्राह्मण संस्कृति है। इस मंस्कृति के अनुयायी ब्राह्मण जब तक ब्रह्म विद्या का अनुष्ठान करते हए अपने प्राचार-विचारों में दृढ रहे, तब तक उममें कोई विकार नहीं हुआ, किन्तु जब उनमें भोगेच्छा और लोकेपणा प्रचर रूप में घर कर गई, तब वे ब्रह्म विद्या को छोड़कर गुप्क यज्ञादि क्रियाकाण्डों में धर्म मानने लगे । उममें वैदिक मरकति का क्रमशः ह्रास होना शुरु हो गया। अपने उस प्राचीन मूल रूप से मुक्त होकर वह आज भी उज्जीवित है।
दमरी अवैदिक संस्कृति को श्रमण संस्कृति कहते हैं। प्राकृत भाषा में इसे समन और सुमन कहते हैं और संस्कृति में श्रमण । गमन का अर्थ ममता है, राग-द्वेप रहित परमशान्त अवस्था का नाम समन है, अथवा शत्रु मित्र पर जिसका समान भाव है ऐसा साधकोपयोगी समण या श्रमण कहलाता है। श्रमण शब्द के अनेक अर्थ हैं परन्तु उन अर्थो की यहा विवक्षा नही है, किन्तु यहाँ उनके प्रों पर विचार किया जाता है। श्रम धातु का अर्थ ग्वेद है, जो व्यक्ति परिग्रह पिगाच का परित्याग कर घर वार से कोई नाता न रखते हुए अपने शरीर से भी निस्पृह एवं निर्मोही हो जाते है, वन में प्रात्म साधना रूप श्रम का आचरण करते हैं अपनी इच्छाओं पर नियत्रण रखते हैं, काय कनगादि होने पर भी खिन्न नही होते, किन्तु विषय-कपायो का निग्रह करते हुए इन्द्रियों का दमन करते हैं वे समय पर श्रमण कहलाते है । अथवा जो बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थियों का त्यागकर तपश्चरण करते हैं, आत्म-साधना में निष्ठ और ज्ञानी एव विवेका बने रहते है-(श्राभ्यन्ति बाह्याभ्यन्तरं तपश्चरन्तीति श्रमणः) जो शुभा-शुभक्रियाओं में अच्छे बुरे विचाग में पुण्य-पाप रूप परिणतियों में तथा जीवन, मरण, सुख-दुख में और आत्म-साधनों से निष्पन्न परिस्थितियों में रागी द्वपी नहीं होते प्रत्युत समभावी बने रहते है वे श्रमण कहलाते हैं।
जो मुमन हैं-पाप रूप जिनका मन नहीं है, स्वजनों और सामान्य जनों में जिनकी दृष्टि समान रहती है। जिस तरह दुख मुझे प्रिय नहीं है, उसी प्रकार संसार के सभी जीवों को भी प्रिय नहीं हो सकता। जो न दसरों का स्वय मारते हे-न दुग्ख संक्लेश उत्पन्न करते हैं। और न दूसरों को मारने आदि की प्रेरणा करते हैं । किन्तु
१. (क) जो समगो जमुमणो, भावेण जइ ण होइ पामणो ।
ममगगे अजणेयसमो समो अमाणाऽवमाणेसु ।। जह न गमन णियं दुःखं जारिणय समेव सव्व जीवाणं । न हणइ न हणावेइय समणगई तेण सो समणो ।।
-(अनुयोगद्वार १५० (ख) यो च समेति पापानि अणु थूलानि सव्वसो ।
समितन्ता हि पापानं समणोति पवुच्चति ॥ (धम्मपद १६-१०
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
मान-अपमान में समान बने रहते हैं, वही सच्चे श्रमण हैं ।
आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कि जो श्रमण शत्रु और बन्धु वर्ग में समान वृत्ति हैं। सुख-दुख में समान हैं लोह और कंचन में समान है जीवन-मरण में समान है, वे श्रमण हैं :
समसत्तु बंधु वग्गो समसुह दुक्खो पसस - णिदं समो । समलोट्ठ कंचणो पुण जीविय मरणे समो समणो ॥
जो पांच समितियों, तीन गुप्तियों तथा पांच इन्द्रियों का निग्रह करने वाला है, कपात्रों को जीतने वाला है, दर्शन, ज्ञान, चरित्र सहित है वही श्रमण संयत कहलाता है ।
-
पंच समिदो तिगुत्तो पचेदिय संबुडो जिदकसाम्रो । दंसणाणाण समग्गो समणो सो संजदो भणिदो ||
स्थानाङ्ग सूत्र ( ५ ) की निम्न गाथा श्रमण के व्यक्तित्व और उनकी जीवन वृत्ति पर अच्छा प्रकाश डात है ।
उरग - गिरि-जल-सागर णहतल - तरुगणसमोन जो होइ । भमर-निय धरणि जलरह-रवि-पण मोश्रो समणो ॥
जो उरग सम (सर्प के समान) परकृन गुफा मठादि में निवास करने वाला, गिरिसम- पर्वत के समान अचल, ज्वलनसम—अग्नि के समान तृप्त अग्नि जम तृणा न अतृप्त रहता है, उसी तरह तप तेज संयुक्त श्रमण सूत्रार्थ चिन्तन में अतृप्त रहता है। भागरसम-समुद्र के समान गभीर, आकाश के समान निरालम्ब, भ्रमर के समान अनियत वृत्ति, मृग के समान गमार के दुखों से उद्वग्न, पृथ्वी के समान क्षमाशील, कमल के समान देह भोगों में निर्लिप्त, सूर्य के समान बिना किसी भेद भाव के ज्ञान के प्रकाशक और पवन के समान अवरुद्ध गति, श्रमण ही लोक में प्रतिष्ठित होते है । ऊपर जिन श्रमणों का स्वरूप दिया गया है वे हो सच्चे श्रमण है । अनियोग द्वार श्रमण पाँच प्रकार के बतलाये गये है, निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गेरुय प्रार प्राजीवक । इनमें अन्तवाह्यं ग्रन्थियों को दूर करने वाले विपयाशा से रहित, जिन शासन के अनुयायी मुनि निर्ग्रन्थ कहे जाते है । मुगत (बुद्ध) के शिष्य सुगत या शाक्य कहे जाते है, जो जटाधारी हैं, वन में निवास करते हैं वे तापसी है, रक्तादि वस्त्रों के धारक दण्डी कहलाते हैं। जो गोशालक के मत का अनुसरण करते हैं वे प्राजीवक कहे जाते है'।
इन श्रमणों में निर्ग्रन्थ श्रमणों का दर्जा सबसे और विवेक का अनुसरण करते हैं। ऐसे सच्चे श्रमण ही प्रतिष्ठापक आदि ब्रह्मा ऋषभदेव है जो नाभिराय और भरत के नाम से इस देश का नाम भारत वर्ष पड़ा है। ( ' णमो पण्ह समणाणं' ) ।
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
१. निग्गय सवक तावम गेरू ग्राजीव चहा समरगा । तम्मिय निगथा ते जे जिरा सासराभवा मुरिणो । सक्काय सुगय मिस्सा जे जडिला नेउ तावसा भग्गिया ।
जे गोसाल गमय मणु जे धाउरतवत्था निदण्डिगो गरुया तेरा || मति यन्नति तेउ आजीवा
ऊंचा है, उनका त्याग और तपस्या कठोर होती है, वे ज्ञान श्रमण संस्कृति के प्रतीक है। इस श्रमण संस्कृति के आद्य मरुदेवी के पुत्र थे, और जिनके शत पुत्रा में से ज्येष्ठ पुत्र महां बन्ध में प्रज्ञा श्रमणों को नमस्कार किया गया है ।
- ( अनुयोगद्वार अ १२०
२. नाभेः पुनश्च ऋषभः ऋपभद् भरतोऽभवत् । तस्य नाम्नः त्विदं वर्ष भारतं चेति कीत्यंते ॥ अग्नी सूनो नाभेस्तु ऋषभोऽभूतसुनो द्विजः । ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्र शताद्वरः ।। येषा खलु महायोगी भरतो ज्येष्ट श्रेष्ठ गुण आसीत । येनेद वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ।।
(विष्णुपुराण अ० १
भागवत ५-६
में
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
११
__बौद्ध परम्परा में भी श्रमणों का उल्लेख है। धम्मपद में लिखा है कि जो अणु और स्थूल पापों का पूर्ण रूप से शमन करता है वह पापों का शमन करने के कारण समण है।
"यो च समेति पापानि अणुथूला निसव्व सो। सम्मितत्ताति पापानं समणेति पवुच्चति ॥” (१६-१०, इसी धम्मपद (२६-६) में एक अन्य स्थान पर लिखा है 'समुचरिता समणोति वुच्चति'। समानता की
के कारण 'समण' कहा जाता है धम्मपद (१६-६) गे बतलाया है कि व्रत हीन तथा झट वोलने वाला व्यक्ति केवल सिर मुड़ा लेने मात्र से 'समण' नहीं हो जाता, जा इच्छा और लोभ से व्याप्त है वह 'समण' कैसे हो सकता है ? -
'मुंडके न समणो अव्वत्तो अलकं भण। इच्छा लोभ समापन्नो समणो कि भविस्सति ।"
प्राचार्य कुन्द कुन्दने श्रमण धर्म का सुन्दर व्याख्यान किया है, और बतलाया है कि जो दुःखो से उन्मुक्त होना चाहता है उसे श्रामण्य धर्म का स्वाकार करना चाहिए—“पाडवज्जद सामण्णं जद इच्छदि दक्खपरिमोक्खं'। इससे श्रमण धर्म की महत्ता का बोध हाता है। जिनमनाचार्य ने महापुगण म ऋपभदेव को वात रसना बतलाते हए उसका अर्थ नग्न किया है.--दिग्वासा वातरसनो निग्रंन्थेशो निरम्बरः। (२५-२-४)।
वैदिक साहित्य में भी श्रमण का उल्लख उक्त अथ में किया गया है। भागवत के (१२-३-१६) के अनुसार श्रमण जन प्रायः सन्तुष्ट करुणा आर मंत्रा भावना से युक्त, शान्त दान्त, तितिक्षु, अत्मा न रमण करने वाले और समदृष्टि कह गय है।
सन्तुष्टाः करुणा मंत्राः शान्ता दान्तास्तितिक्षवः ।
प्रात्मारामाः समदशः प्रायशः श्रमणा जना ।।
इसी ग्रन्थ मे वातरशना श्रमणो को यात्मविद्या विशारद नपि, शान्त, सन्यासी ओर अमल कह कर ऊर्ध्वगमन द्वारा उनके ब्रह्म लोक में जाने की बात कही है
"श्रमणा वातरशना प्रात्मविद्या विशारदः" (श्री भागवत् १२-२-२०) "वातरशनाय ऋषयः श्रमणाऊर्ध्वन्थितः । ब्रह्माख्य धाम ते यान्ति शान्ताः सन्यासिनोऽमलाः (श्री भाग०
वैदिक साहित्य में 'श्रमण का उल्लेख अनेक ग्रन्थों में मिलता है ऋग्वेद में वात रशना मुनि का उल्लेख किया गया है, उसमें उनके मात भेद भी बतलाय है।
पर उन सब वातरशना मुनियों में ऋषभ प्रधान थे। क्याकि अहंत धर्म को शिक्षा देने के लिए उनका अवतार हुआ बतलाया है।
"मुनयो वातरशना पिगंगा वशते मला। वात स्थान ध्राजि यान्ति यह वासो अविक्षत ।। उन्मादिता मौनेयेन वातां प्रातस्थिमा वयम। शरीरेहस्माकं यूय मर्ता सा अभिपश्यथ ।।"
(ऋग्वेद १०-१३६, २, ३) अतीन्द्रियार्थ दर्शी वातरशना मूनि मल धारण करते है जिससे वे पिगल वर्ण दिखाई देते है, जब वे वाय की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते है-रोक लेते है-तव व अपने तपश्चरण की महिमा से दीव्यमान हो कर देवता रूप को प्राप्त हो जाते है । सर्वलौकिक व्यवहार को छोड़कर हम मौन वृत्ति से उन्मत्त वत (उत्कृष्ट प्रानन्द सहित) वायु भाव को-अशरीरी ध्यान वृत्ति को प्राप्त होते है, पार तुम साधारण जन हमारे वाह्य शरीर मात्र को देख पाते हो, हमारे सच्चे प्राभ्यन्तर स्वरूप को नहीं, ऐसा वे वातरशना मुनि प्रकट करते है।
ऋग्वेद को उक्त ऋचाओं के साथ केशी की स्तुति की गई है-. १. जूनि-वातजूनि-विप्रजूनि-वृषाणक-करिकृत-एतशः ऋषिभृङ्ग, एते वातर शना मनुयः । (ऋग्वेद म० १० सूक्त १३५)
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
केश्यग्निं केशी विषं केशो विति रोदसी। केशी विश्वं स्वईशे केशीदे ज्योति रुज्यते ।।
(ऋग्वेद १०-१३६-१) केशी अग्नि जल तथा स्वर्ण और पथ्वी को धारण करता है, केशी समस्त विश्व तत्त्वों के दर्शन कराता है । केशी ही प्रकाशमान (ज्ञान) ज्योति (केवल ज्ञानी) कहलाता है। केशो की यह स्तुति वातरशना मुनियों के कथन में की गई है। जिससे स्पष्ट है कि केशी वातरशना मुनियों में प्रधान थे।
केशी का अर्थ केशवाला जटाधारी होता है सिंह भी अपनी केशर (मायाल) के कारण केशरी कहलाता है। ऋग्वेद के केशी और वातरशना मुनि और भागवत पुराण में उल्लिखित वातरशना श्रमण एवं उनके अधिनायक ऋषभ की साधनाओं की तुलना दृष्टव्य है क्योंकि दोनो एक ही सम्प्रदाय के वाचक हैं । वैदिक ऋपि वसे त्यागा पौर तपस्वी नहीं थे, जैसे वातरशना मुनि थे। वे गृहस्थ थे, यज्ञ यज्ञादि विधाना में आस्था रखते थे, और अपनी लौकिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए तथा धन इत्यादि सम्पत्ति के लिए इन्द्रादि देवताओं का आह्वान करते थे, किन्तु वातरशना मुनिअन्तर्वाह्य ग्रन्थियों के त्यागो, शरीर से निमोहो, परीषहजयो और कठोर तपस्वी थे, वे शरीर से निस्पृही, वन कदरानों, गुफाम्रो, पीर वृक्षों के तले निवास करते थे।
श्रमण संस्कृति वेदों से प्राचीन है, क्योंकि वेदों में तीन तीर्थकरों का-ऋषभदेव, अजित नाथ और नेमिनाथ का-उल्लेख है । वेदां में ऋग्वेद सबसे प्राचीन माना जाता है, उसमें वातरशना मुनियों में भ्रष्ठ ऋषभदेव का उल्लेख होने से जैन धर्म की प्राचीन परम्परा पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। यद्यपि वेदां के रचनाकाल के सम्बन्ध मतभेद पाया जाता है। कुछ विद्वान उन्हें ईस्वी सन् से १००० वर्ष पूर्व की रचना मानते है और कुछ पोर वाद की मानते है। यदि वेदों का रचना ईस्वी सन् से १५०० वर्ष भी पूर्व मानी जाय तो भी श्रमण सस्कृति प्राचीन ठहरती है।
जैन कला में ऋषभ देव की अनेक प्राचीन मूर्तियाँ जटाधारी मिलती है। प्राचार्य यति वपभ ने तिलोय पण्णत्ति में लिखा है कि उस गंगा कट के ऊपर जटा मकूट से शोभित आदि जिनेन्द्र की प्रतिमाए हैं। उन प्रतिमाओं का मानों अभिषेक करने के लिए ही गगा उन प्रतिमाओं के ऊपर अवतीणं हई है। जैसा कि निम्न गाथा से स्पष्ट है।
मादि जिण पडिमानो जड़मउडसेहरिल्लायो।
पडिवोवरम्मि गगा अभिसित्तु मणा व पडदि ॥ रविषेण ने पद्मचरित (३-२८८) में-"वातोद्धता जटास्तस्य रेजुराकुल मूर्तयः।" और पुन्नाट सघी जिनसेन ने हरि वश पुराण (६-२०४) में “स प्रलम्ब जटाभार भ्राजिष्णु" रूप से उल्लेखित किया है । तथा अपभ्रंश भाषा के सकमाल चरित्र मे भी निम्न रूप उल्लेख पाया जाता है:
"पढमु जिणवरु णविविभावेण ।
जड-मउड विहूसिउ विसह मयणारि णासणु । अमरासुर-णर-थ्य चलणु। सत्ततत्त्व णवपयत्थ णवणयहि पयासण लोयालोय पयासयरु जसुउप्पण्णउ णाणु । सो पणवेप्पिणु रिसह जिणु अक्खय-सोक्ख णिहाण ।।"
जटा-केश-केशर सब एक ही अर्थ के वाचक है 'जटा सटा केशरयोः' इति मोदिनी। इस सब कथन पर से उक्त प्रर्थ की पुष्टि हाती है । केशी पोर ऋषभ एक ही है, क्योंकि ऋग्वेद की एक ऋचा में दोनों का एक साथ उल्लेख हुमा है और वह इस प्रकार है:
ककर्दवे वृषभो युक्त मासीद प्रवाचीत् सारथिरस्स केशी। दुर्युक्तस्य द्रवतःसहानस ऋच्छन्ति मा निष्पदो मुद्गलानीम् ।।
(ऋग्वेद १०-१०२, ६) १. भवगत पुराण ५-६, २८-३१ २. Indian Philosophiy vol. I p. 287
--
---
-
--------
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
१३
इस सूक्त के ऋचा की प्रस्तावना में निरुक्त में 'मुदगलस्य हृता गाव । आदि श्लोक उद्धृत किये गये है, जिन में बतलाया है कि मुद्गल ऋषि की गायो को चोर चुरा ले गए थे, उन्हे लौटाने के लिए ऋषि न केशी वृपभ का अपना सारथी बनाया, जिसके वचन से वे गौएँ आगे न भागकर पीछे की ओर लोट पड़ी इस ऋचा का भाष्य करते हुए सायणाचार्य ने केशी और वृषभ का वाच्यार्थ पृथक् बतलाया है, किन्तु प्रकारान्तर से उसे स्वोकृत भी किया है - " प्रथवा श्रस्य सारथिः सहाय भूतः प्रकृष्ट केशी वृषभ श्रवाचीत भ्रशमशब्दयत्" इत्यादि ।
मुद्गल ऋषि के सारथी (विद्वान नेता ) केशो वृषभ जो शत्रुओं का विनाश करने के लिए नियुक्त थे, उनकी वाणी निकली, जिसके फलस्वरूप जो मुद्गल ऋषि की गौव (इन्द्रिया) जुते हुए दुर्घररथ ( शरार ) के साथ दौड़ रही थी वे निश्चल होकर मौदगलानी ( मुद्गल की स्वात्मावृत्ति) को और लाट पड़ा, अथात् मुद्गल का इन्द्रियों, जो स्वरूप से पराड़ मुख हा अन्य विपया की आर भाग रहा था व उनके याग युक्त ज्ञाना नेता कशा वृषभ के धर्मोपदेश को सुनकर अन्तर्मुखी हा गई - अपन स्वरूप में प्रविष्ट हो गई ।
"
ऋग्वेद क ( ३-५८-३) सूक्त मे - “त्रिधा बद्धो वृषभो रोर वीति महादेवो मर्त्यान विवश । बताया गया है कि (दर्शन-ज्ञान- चरित्र से अनुबद्ध वृषभ ( ऋषभ) न घापणा का और व एक महान् दत्र के रूप मत्या न प्रविष्ट हुए । इस तरह वद, भागवत और उपनिषद में श्रमणा के तपश्चरण की महत्ता का भी वणन उपलब्ध होता है वह महत्त्वपूर्ण और उसका सम्बन्ध ऋषभ देव का तपश्चया स है | श्रमणा न ग्रात्म-साधना का जात आदर्श लाक में उपस्थित किया है तथा ग्रहिसा की प्रतिष्ठा द्वारा जा श्रात्म निभयता प्राप्त का। उसने मण सम्कृति का गोरव सुरक्षित है । श्रमण संस्कृति न भारताय संस्कृति का जो ग्रहिसा अपरिग्रह अनन्तरमाद्वार आदि महत्त्वपूर्ण सिद्धान्ता का अपूर्व दन दी है, उससे भारताय सन्त परम्परा यशवा हुर है। भगवान मदव इस सन्त परम्परा एवं श्रमण संस्कृति के आद्य प्रतिष्ठापक थे । उनका इस भूतल पर अवतरित हुए बहुत काल व्यतीत हा गया है, ता भी उनकी तपश्चया की महत्ता और उनका लोक कल्याण कारा उपदेश भूमंडल में प्रभा वर्तमान है व श्रमण संस्कृति के केवल संस्थापक हा नही थे किन्तु उन्होन उस उज्जीवित और पाललवापत भी किया था । उनक अनुयायी २३ ताथकरा ने उसका प्रचार एवं प्रसार किया है। इन चात्रीस ताथकरा मातम तान तोथकरा को - नमिनाथ, पाश्वनाथ और महावोर का इतिहासज्ञा न ऐतिहासिक महापुरुष मान लिया है और वाइसव तीथकर नेमिनाथ ने अहिसा के लिए वेवाहिक कार्य का परित्याग कर अपने का आत्म-साधना में लगाया । यह श्री कृष्ण के चचरे भाई थे ।
पाश्वनाथ तईसव तीथकर थे जा बनारस के राजा विश्वमेन श्रार वामा दवी के पुत्र थे । उन्हान तपश्चरण द्वारा आत्म-सिद्धा प्राप्त का आर विहार तथा कलिगादि दशा में उपदेश द्वारा श्रमण संस्कृति का प्रसार किया । श्रार जनता का सन्मार्ग म लगाया ।
पारवनाथ से २५० वर्ष बाद महावीर ने भरी जवानी में राज्य वभव का परित्याग कर आत्म-साधना का अनुष्ठान किया, और पूर्ण ज्ञानी बन जगत का 'स्वय सुख पूर्वक जियो, और दूसरो को भी सुख पूर्वक जीने दो' के सिद्धान्त का कवल प्रसार ही नही किया । प्रत्युत उस अपन जावन में उतार कर लोक में अहिसा का पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त क। । उनका कल्याणकारी मृदु वाणी न अनेकान्त दृष्टि द्वारा जगत के विराधा का दूर किया। उनम हिसार समता की भावना का प्रात्ताजत किया। और ग्रहमा द्वारा विश्व शान्ति का लाक मे प्रगार किया उससे यज्ञादि हिसा का प्रतीकार हुआ। पशुकुल को अभय मिला। और जनता में अहिसा के प्रति अनुराग ही नही हुआ, अनेकाने उस अपने जीवन का आदर्श बनाया। उनके बाद उनकी सघ परम्परा के श्रमणा द्वारा उन्ही ला हितकारी सिद्धान्तो का प्रसार किया जाता रहा। और अब भी उनके सिद्धान्तो के अनुयायी मौजूद हे । जा अहिसा मे विश्वास रखते है । उन्ह अवतरित हुए २५०० वर्ष पूरे हो रहे है तो भी उनका उपदेश और उनके मालिक
१. भारतीय सरकृति मे जनघम का योगदान पृ० १५, १६
२. भागवत पुराण ५-६, २८-३१) ऋषभदेव की तपश्चर्या का वर्णन है ।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
૪
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
सिद्धान्त लोक में फैले हुए हैं। अब समय आ गया है कि विश्व का संरक्षण उनके पावन सिद्धान्तों के प्राचरण से ही हो सकता है
इस युग में परमाणु की अनन्त शक्ति और उनकी दाहकता की विभीषिका से लोक भयभीत हैं, दुःखी और चिन्ता ग्रस्त है । उससे यदि विश्व को संरक्षित करना है तो महावीर के अहिंसा और अनेकान्त श्रादि सिद्धान्तों को जीवन में प्रवाहित करना होगा, उनको जीवन के व्यवहार में लाये विना विश्व में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती । क्योकि साम्राज्य की लिप्सा और अहंकार ने मानवता का तिरस्कार और दुरुपयोग किया है । और किया जा रहा ,जिसका परिणाम प्रशान्ति और विनाश है ।
महात्मा बुद्ध के समय भगवान महावीर को 'णिग्गंठ णात पुत्र' कहा जाता था, और उनका शासन भी 'निग्गंठ' नाम से प्रसिद्ध था । अशोक के शिलालेखों में भी 'णिग्गंठ नाम से उसका उल्लेख है । महावीर के बाद 'णिग्गठ' श्रमण परम्परा द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षादि के कारण दो भेदों में विभक्त हो गई। एक णिग्गंठ श्रमण संघ दूसरा श्वेत पट श्रमण सघ । इन दो भेदों का उल्लेख कदम्ब वश के लेखों में मिलता है" ।
पश्चात् निर्ग्रन्थ महाश्रमण सघ हो मूल सघ के नाम से लोक में विश्रुत हुआ । मूलसंघ परम्परा ही भगवान महावीर की निर्ग्रन्थ श्रमण परम्परा है, दूसरी परम्परा मूल परम्परा नहीं कही जा सकती। इसी से इस ग्रन्थ मे भगवान महावीर की मूल निर्ग्रन्थ संघ परम्परा के आचार्यो व विद्वानों, भट्टारको ओर कवियों का यहां परिचय दिया गया है । दूसरी परम्परा के सम्बन्ध में फिर कभी विचार किया जायेगा। इस परम्परा की प्रतिष्ठा बुन्दकुन्दाचार्य जस निर्ग्रन्थ श्रमणा से हुई । उनकी कृतिया वस्तु तत्व की निदर्शक और लोक कल्याणकारी है । उनकी समता अन्यत्र नही पायी जाती। इस परम्परा में अनेक महान ग्राचार्य हुए, जिनकी कृतियां लोक में प्रसिद्ध हुई । दार्शनिक विद्वानों में गृद्धपिच्छाचार्य, समन्तभद्र, पात्र केसरी, सिद्धसेन, पूज्यपाद, प्रकलक देव, सुमतिदेव और विद्यानन्दादि महान आचार्य हुए। जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व से लोक में श्रमण संस्कृति का प्रसार हुआ । इस परम्परा में भी अनेक सघ-भेद हुए, गण-गच्छादि हुए, परन्तु मूल परम्परा बराबर संरक्षित रही, और रह रही है ।
भारतीय इतिहास में शिलालेख ताम्र पत्र, लेखक प्रशस्तियां, ग्रन्थ प्रशस्तियां, पट्टावलियां और मूर्तिलेखों की महत्ता से कोई इकार नही कर सकता। इनमें उपलब्ध साधन सामग्री इति वृत्तों के लिखने में सहायक ही नहीं होती । प्रत्युत अनेक उलझी हुई समस्याओं के सुलझाने में योगदान देती है । जैन साहित्य और इतिहास के लिखने में उनकी उपयोगिता लिये बिना किसी आचार्य विशेष, विद्वान कवि या भट्टारक, राजा आदि का परिचय लिखना सम्भव नही होता । इसी से इस ऐतिहासिक सामग्री का संकलन होना आवश्यक है। इसके साथ पुरातत्त्व सबंधी अवशेषों आदि का उल्लेख भी प्रावश्यक होता है । उससे उसमें प्रामाणिकता आ जाती है ।
जब हम किसी प्राचार्य विशेष आदि का परिचय लिखने बैठते है तब समुचित सामग्री के संकलन के प्रभाव में एक नाम के अनेक विद्वानों आदि के समय निर्णय करने में बड़ी कठिनाई का अनुभव करना पड़ता है । तब हमें उक्त सामग्री की उपयोगिता की महत्ता ज्ञात होती है और हम उसके सकलन की आवश्यकता का अनुभव करते है । विद्वान इस कठिनाई का अनुभव करते हुए भी उसके सकलन का प्रयत्न नहीं कर पाते, समाज और श्रीमानों का ता उस ओर ध्यान ही नही है। विद्वानों के सामने अनेक समस्याएं हैं, जिनके कारण उसमें प्रवृत्त नहीं हो पाते । उनमें सबसे पहला कारण अर्थाभाव है दूसरा कारण गृही समस्याएं है और तीसरा कारण सामग्री की विरलता और समय की कमी है । यद्यपि वर्तमान में ऐतिहासिक विद्वानों के समक्ष बहुत कुछ ऐतिहासिक सामग्री बिखरी हुई यत्र-तत्र दृष्टि गोचर होती है । कुछ प्रकाश में आ चुकी है, कुछ प्रकाश में लाने के प्रयत्न में है । और अधिकांश सामग्री ग्रन्थ भण्डारों, मूर्ति लेखों और ग्रन्थ प्रशस्तियों में निहित है । प्रतएव इतिवृत्तों की सामग्री का संकलित होना अत्यन्त प्रावश्यक है । इसी आवश्यकता को देखते हुए मेरा विचार बहुत दिनों से महावीर संघ परम्परा के कुछ श्राचार्यो, विद्वानों, भट्टारकों, कवियों श्रादि का जैसा कुछ भी परिचय मिलता है, संकलित करने की भावना चल रही
१. इंडियन एण्टी क्वेरी जि० ६ पृ० ३७-३८
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
थी, परन्तु इस महान कार्य में सामग्री की विरलता, साधनों की कमी और अपनी अल्पज्ञता बाधक हो रही थी, इस लिये उससे विराम ले लेना पड़ता था।
मेरे पास जो थोड़े बहुत नोट्स थे, उनके आधार पर अनेक लेख लिग्वे गये जो समय पर अनेकान्तादि पत्रों में प्रकाशित होते रहे हैं। जिनसे विद्वान प्रायः परिचित ही हैं। जिन्होंने मेरे नोट रूप लेखों का अवलोकन किया है, वे उन्हें बहुत उपयोगी प्रतीत हुए और उन्होंने उन्हें प्रकाशित कराने की प्रेरणा दी। मैंने अपने नोटों को अनुसन्धान प्रिय मुनि श्री विद्यानन्द जी को दिखलाये थे, उन्होंने देखकर कहा था कि इन्हें पुस्तक का रूप देकर प्रकाशित कर देना चाहिये । मेरी भी इच्छा प्रकाशित करने की थी ही, परन्तु अशुभोदय से मैं बीमार पड़ गया, उससे जैसे तैसे बचा तो शारीरिक कमजोरी ने लिखने में बाधा उपस्थित कर दी। अस्त,
भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव की चर्चा ने मुझे प्रेरित किया कि तू इस समय इस कार्य को पूरा कर दे। डा० दरबारी लाल जी की विशेष प्रेरणा रही इस कार्य को पूरा करने की। अन्य मित्रों की भी यही राय थी। अतः मैंने लिखने का संकल्प कर लिया। एक दिन पं० बलभद्र जी ने कहा कि आप अपनी सामग्री को तैयार करो, प्रकाशन की चिन्ता न करो, मैं उसकी जिम्मेदारी लेता हैं । इस सम्बन्ध में मेरी प्राचार्य देश भूपण जी से चर्चा हो गई है । अत: आप निश्चिन्त रहें और उसे पूरा कर दें। मुझे इस कार्य के लिये अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करना पड़ा, और पुरातत्त्व विभाग की लाइब्रेरी से अनेक बार जाकर लाभ उठाया। दूसरों की सहायता से अंग्रेजी लेखों की जानकारी प्राप्त की, इसके लिये मैं उनका आभारी हूं।
तदनुसार मैंने इस ग्रन्थ को पूरा करने का प्रयत्न किया, दिन रात परिथम किया तब किसी तरह यह ग्रन्थ पुरा हो सका है । प्रस्तावना संक्षिप्त रूप में लिखी है । कागज की समस्या के कारण कुछ परिशिष्ट छोड दिये हैं। पहले TA का परा मैटर तो लिखा नहीं गया था किन्तु कुछ मैटर प्रेस में देने के बाद उसे लिखता गया और देता गया। इससे हमें और कुछ प्राचार्यों के समय प्रादि के परिचय में कमी रह सकती है । परन्तु पाठकों के सामने लगभग सात सौ प्राचार्यों, विद्वानों, भट्टारकों और संस्कृत अपभ्रंश के कवियों का परिचय संक्षेप में उनकी रचनादि के साथ दिया गया है। मेरी प्रल्पज्ञता वश उसमें कमी रह जाना स्वाभाविक है । अतः विद्वान उसे सुधार लें, और मुझे उसकी सचना
श्रीमान डा. ए. एन. उपाध्ये पं० कैलाश चन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री, डा० भागचन्द जी नागपुर, पं० बालचन्द जी, शास्त्री पं० बलभद्र जी और प० रतनलाल जो केकड़ी आदि विद्वानों को सलाह मुझे मिलती रही है। इसके लिए मैं उनका आभारी हूं।
प्राचार्य श्री देशभषण जी महाराज ने इस ग्रन्थ के प्रकाशन में जो सौजन्य पूर्ण सहयोग दिया है इसके लिये मैं उनका विशेष आभारी हं । और आशा करता हूं कि भविष्य में उनका सहयोग मुझे मिलता रहेगा। भारतीय निवास के विशेषज्ञ विद्वान डा० दशरथ शर्मा ने अस्वस्थ होते भी मेरे निवेदन पर ग्रन्थ का प्राक्कथन बोलकर अपनी सपत्री शान्ताकुमारी से लिपि कराया है। उनकी इस महती कृपा के लिये मैं उनका बहत प्राभारी।
परमानन्द जैन शास्त्री
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
नामानुक्रमणिका
(प्राचार्य, भट्टारक और विद्वान कवि सूची) अड़देव भट्टारक १५४
अभयनन्दी २५६ अकलंक १५५,१५५
अमरकीति ३८४ अकलंकचन्द्र १५४
अमरकीति ४५१ अक्लंक विद्य १५४
अमरकीति ५२६ अकलंक देव १५४,१५५,१५५
अमरमेन १७३ अकलंक पंडित १५४
अमरमेन ३७१ अकलंकदेव १५५
अमित गति (प्रथम) २०४ अकलंकदेव १५५
अमितगति (द्वितीय) २८८ अकलंक मुनिप १५५
अमितमेन १७३ अक्षयराम
अमृतचन्द्र ठक्कुर २०५ (कवि) अग्गल ३८६
अमृतचन्द्र (द्वितीय) ३५६ अग्निभूति (गणधर) २५
अय्यपार्य ४४६ अज्जनन्दि (आर्यनन्दि) २०?
अरुणमणि अजित ब्रह्म ५१४
अर्ककीर्ति १७० अजितमेनाचार्य २३८
(कवि) अर्हदास ४०५ अजित सेनाचार्य (अलकार चिन्ताम०) ४१७
अहदबली ६८ अण्डय्य ४२६
अहनन्दि २४६ अनन्तकीति २०८
अर्हनन्दि ३३६ अनन्तकीति २२६
अर्हनन्दी २४४ अन्तकीर्ति भट्टारक २२६
अवन्ति भूभृत (राजा) १७७ अनन्तकीति २२६
(कवि) असम २२४ अनन्तवीर्य (अतिवद्ध) २८०
(कवि) असवाल ४६७ अनन्तवीर्य २४४
प्राचण्ण ३३३ अनन्तवीर्य २४०
प्रादिपम्प २१५ (लघ) अनन्तवीर्य ३५६
आर्यनन्दि १६२ अपराजित (श्रु तकेवली) ४६
पार्यनन्दी २३८ अपराजितसूरि (श्री विजय) २०२
आर्यमंक्षु १२१ अभयचन्द्र ४४४
प्रार्यव्यक्त या शुचिदत्त (गणधर) २५ अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ४१५
प्रार्यसेन २६४ अभयनन्दि १६५
आर्यसेन २३७
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
नामानुक्रमणिका (पंडित प्रवर) प्राशाधर ४०८ इन्द्रकीति २०२ इन्द्रकीति २५८ इन्द्रकीति ३०५ इन्द्रगुरु १५६ इन्द्र नन्दि (योगशास्त्र टीकाकार) ४३५ इन्द्रनन्दी ४६ इन्द्रनन्दी (प्रथम) २४० इन्द्रनन्दी (थ तावतार के कर्ता) २४५ इन्द्रनन्दी (ज्वालामालिनी कल्पकर्ता) २१२ इन्द्रभूति (प्रथम गणधर) २३ इन्दमेन भट्टारक २७६ इन्द्रायुध (राजा) १७७ उग्रदित्याचार्य १८६ उग्रसेन गुरु १५६ उदयचन्द्र ३६० उदयदेव १६३ उमास्वाति (गद्धपिच्छाचार्य) ८७ एलवाचार्य १६३ एलाचार्य २६३ एलाचार्य २२७ कनकचन्द्र ३७६ कनकनन्दी २४६ कनकसेन २१३ कनकसेन २३८ कनकमेन २४४ कनकामर ३५३ (भ०) कमल कीर्ति ५०२ कमल भव ४१४ कर्णपार्य ३३७ कलधौतनन्दि १६७ (मुनि) कल्याण ६५ (मुनि) कल्याणकीति ४८२ कवि धर्मधर ५२२ काणभिक्षु १४२ कान्ति (कवियित्री) ३०२ (ब्रह्म) कामराज कीर्तिवर्मा ३०५ कीर्तिवर्मा ३३४ कोतिषेण १७४ कुमारनन्दी १६२
कुमारसेन १४१ (भट्टारक) कुमारमेन २३६ कुमारसेन २३६ कुमुदचन्द्र ४४८ (वादि) कुमुदचन्द्र ४४८ कुमुदेन्दु ४२८ कुन्दकुन्दचार्य ७४ कुलचन्द्र उपाध्याय ४३० कुलचन्द्रमुनि ३०५ कुलचन्द्रमुनि ३३३ कुलचन्द्रमुनीन्द्र ३३२ कुल भद्र ४३६ कविलाचार्य १६८ केशवनन्दि ३०५ केशवराज २७६ केशववर्णी ४४१ (कवि) कोटीश्वर ५०३ (ब्रह्म) कृष्ण या केशवसेन सूरि ५३१ (पंडित) खेता ५०३ गणधरकीति ३३६ गण्ड विमुक्त सिद्धान्तदेव ३४८ गिरिकीर्ति ३६८ गुणकीर्ति १६० गुणकीतिमुनीश्वर २०२ गुणकीनि १६० गुणकीर्ति सिद्धान्तदेव ३०० (भ०) गुणचन्द्र ५४२ गुणचन्द्रपडित २२८ गुणदेवसूरि १६० (प्राचार्य) गुणधर ६६ गुणभद्र ४२८ गुणभद्र ३३७ (भ०) गुणभद्र ५०८ गुणभद्राचार्य १८२ गुणभद्राचार्य (धन्य कुमार चरित कर्ता) ३४६ गुणभूषण ४४४ गुणवीर पंडित ८६ गुण वर्म (द्वितीय) ४१४ गणसेन पंडितदेव २५८ गुणसेन मुनि १५६ गुरुदास २१३ गुहनन्दि ११२
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
गोपनन्दी २५६ गोल्लाचार्य २३६ गोवर्द्धन (श्रुतकेवली) ४६ गोवर्द्धनदेव ३०० (कवि) गोविन्द ५०२ चउमुह (चतुर्मुख) १४३ (भ०) चन्द्रकीर्ति ५४० चन्द्रकीर्ति ३८६ चन्द्रकीति ३४७ चन्द्रकीति ३४: चन्द्रकीति नाम के दूसरे विद्वान ३४६ चन्द्रकीति (श्रुतविन्दु के कर्ता) ३४६ चन्द्रदेवाचार्य २३७ चन्द्रनन्दि ११३ चन्द्रनन्दि १६० चन्द्रप्रभाचार्य ३०६ चन्द्रसेन १६२ (कवि) चन्द्रसेन ५०२ चामुण्डराय ३६५ (अभिनव) चारुकीर्ति पंडित देव ४६५ चितकाचार्य १२६ छत्रसेन ३३६ (कवि) जगन्नाथ ५५१ जयसिंहनन्दी १३६ (कवि) जन्न ४२६ जटाकीर्ति २७५ जयकीति २२७ जयदेवपंडित १६० जयसेन २३८ जयसेन १७३ जयसेन (प्राभत त्रयटीकाकार) ३८३ जयसेन ३२४ जयसेन ३११ (कवि) जल्हिग ५०० (40) ज़िनदास ५३० जिनसेनाचार्य १७४ जिनसेनाचार्य १४८ जिनसेन २६४ (ब्रम्ह) जीवंधर जोइन्दु (योगीन्द्रदेव) १२८ ज्ञानकीर्ति ५४४
(भ०) ज्ञानभूषण ५०४ (कवि) ठकुरसी ५२१ (शाह) ठाकुर ५३७ (कवि) डड्ढा २५७ तुम्बुलू राचार्य ११२ (कवि) तेजपाल ५१८ तेलमोलिदेवर १६० तोरणाचार्य २३६ तोलकप्पिय ८६ त्रिभुवनचन्द्र ३२३ त्रिभुवन मल्ल ३५३ त्रिविक्रमदेव ४३२ त्रकालयोगीश २२३ दयापालमुनि ३२३ दशरथगुरु १८२ दामनन्दि भट्टारक ३०० दामनन्दि ३०० दामनन्दि ३०१ दामराज ३०२ (कवि) दामोदर ३६४ (कवि) दामोदर ५०६ दिवाकरनन्दि सिद्धान्तदेव २५१ दुर्गदेव २५२ देवकीति ३४८ देवकीर्तिपंडितदेव ३०० (मुनि) देवचन्द्र ३८२ देवनन्दि (पूज्यपाद) ११५ (भ०) देवेन्द्रकीति - देवेन्द्रमुनि ३७३ देवेन्द्रसैद्धान्तिक १६६ देवसेन २८६ देवसेनगणी (सुलोचना च० कर्ता) ३७६ देवसेन (भावसग्रह के कर्ता) ४३६ देवसेन भट्टारक २३१ देवसेन २३१ देवसेन १५६ देवसेन (दर्शनसार के कर्ता) २३१ (कवि) दोड्डय्य ५३० (आचार्य) दोलामस (तिसेन) ६५ (महाकवि) धनंजय १३८ (कवि) धनपाल ४८८
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
नामानुक्रमणिका धनपाल ३०७ धर्मधर ५२२ (अभिनव) धर्मभूषण ५१२ धर्मसेनाचार्य २४५ धरसेन ७० नन्दिमित्र (श्र तकेवली) ४६ नयकीर्तिमुनि ३७३ नयनन्दी २७६ नयसेन २६४ (पं०) नरसेन ४५३ नरेन्द्रकीति त्रविद्य ३५३ नरेन्द्रकीति विद्य ४१२ नरेन्द्रसेन ३६१ नरेन्द्रसेन (प्रथम) २६३ नरेन्द्रसेन त्रिविद्य चन्देश्वर (द्वितीय) २९३ नल्विगंद नादिराज ४३१ नागचन्द्र ३३७ नागचन्द्र (सूरि) ५०७ नागदेव २६४ नागनन्दी २३६ (कवि) नागव नागवर्म (द्वितीय) २१४ नागवर्म (प्रथम) २१४ (कवि) नागराज ४४० नागसेनगुरु १५६ नागसेन गुरु १२७ नागहस्ति १२१ नेमचन्द्र ५०० (पंडित) नेमचन्द्र ३७२ पं० नेमिचन्द्र (प्रतिष्ठत तिलक के कर्ता) ५२२ नेमिचन्द्र सि. चक्रवर्ती २६१ (ब्रह्म) नेमिदत्त ५११ नेमिदेवाचार्य २१६ नेमिषेण २८७ पं० मेधावी ५२४ पण्डित हरिचन्द ५२३ पद्मकीर्ति २४२ पद्मनन्दि मलधारि ३२८ पयनन्दि मलधारि ३०६ पद्मनन्दि यती ३६७ पप्रनन्दी (जंबूद्वीपपण्णत्ति०) २७२
पद्मनन्दी ३२५ पद्मनन्दी २६२ पद्मनाभ कायस्थ ४८७ पद्मसिंह ३०६ पद्मसेनाचार्य २७६ परवादिमलय १५५ (कवि) परमेश्वर १४२ पात्रकेसरी १३१ पार्श्वपण्डित ४२६ पुष्पदत्त ७१ (महाकवि) पुष्पदत्त २५२ कवि पौन्न २१५ प्रभाचन्द्र ३७५ प्रभाचन्द्र ३७५ प्रभाचन्द्र ४८३ प्रभाचन्द्र ८४० प्रभाचन्द्र ४२८ प्रभाचन्द्र ३६१ भट्टारक प्रभाचन्द्र ४३२ प्रभाचन्द्र २८२ प्रभाचन्द्र विद्म ३७५ प्रभास (गणधर) २२८ (पंडित) प्रवचनसेन २५८ बन्धुषेण २२७ १ बप्पनन्दी २२७ २ बलदेवगुरु १५६ वलक पिच्छ ६१ बालचन्द्र ३३३ बालचन्द्रसिद्धान्तदेव ३६० बालचन्द्र पंडितदेव ४२५ बालचन्द्रकवि ४३६ बालचन्द्र मलधारी ४३२ बाहुबलि प्राचार्य ३२४ बाहुबलिदेव २१३ बोप्पण पंडित ३३४ ब्रह्मकृष्ण या केशवसेन सूरि ५३१ ब्रह्मजीवंधर ५२१ ब्रह्मदेव ३२० ब्रह्मशिव - ब्रह्मसेनवतिय २७५ (कवि) भगवतीदास ५४८
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
भट्टवोसदि ३३६ भट्टाकलंकदेव ५४६ भट्टारकविद्यानन्दि ५१३ भट्टारक प्रभाचन्द्र ५२६ भट्टारक शुभचन्द्र ५२६ भ० श्रतकोति ५१४ भगवान महावीर २ भद्रवाहु श्रुतकेवली ४७ भद्रबाहु (द्वितीय)भरतसेन २३० भानुकीति सिद्धान्तदेव ४१६ भावसेन ३१६ भाबसेन विद्य ४०६ भास्कर कवि ५०१ भास्करनन्दी (तत्त्वार्थवृत्ति) ४५५ भूतबली ७१ भूपालकवि ३०१ (कवि) मंगराज ४४८ , मंगराज द्वितीय ४४४ , मंगराज तृतीय ४८५ मदनकीति ४०३ मधुरकवि ४४० मल्लिषेण २६६ मल्लिषेण पण्डित ४३१ मल्लिषेण मलधारि ३५७ महाबलकवि ४३० (पण्डित) महावीर ३६१ महावीराचार्य १८७ महासेन २६४ (प्राचार्य) महासेन २१४ महासेन (सुलोचना कथाकर्ता) १६७ महासेन पंडितदेव ३७४ (कवि) महिन्दु या महाचन्द्र ५२४ महेन्द्रदेव २१६ माइल्ल धवल ३३६ माघनन्दि योगीन्द्र ४४७ माघनन्दी सैद्धान्तिक ७१ माघनन्दि सिद्धान्तदेव ३४६ माण्डव्य (गणधर) २८ माणिक्य नन्दी २७७ माणिक्य नन्दी३४८ (कवि) माणिक्यराज ५१६
माणिक्यसेन पंडितदेव ३७४ माधवचन्द्र विद्य (क्षपणासार गद्य) ३६७ माधवचन्द्र विद्य ३२५ माधवचन्द्र मलधारी ३४६ माधवचन्द्र ३५० माधवचन्द्रवती ३५० माधवसेन २८७ माधवसेन नाम के अन्य विद्वान ३६० माधवसेन नाम के अन्य विद्वान ३६१ मानतुंगाचार्य १३३ मुनिचन्द्र ४१६ मुनिपूर्णभद्र ४१४ मेघचन्द्र ४२८ मेघचन्द्र विद्यदेव ३७० मेतार्य (गणधर) ५८ मौनिभट्टारक २२५ मौर्यपुत्र (गणधर) २८ (प्राचार्य) यति वृषभ १२३ यश: कीर्ति ४०२ (भ०) यशः कीर्ति ४८० यशोदेव २१८ यशोभद्र ११४ (पंडित) योगदेव ५०० (कवि) रइधू ४५६ रट्ट कवि अर्हद्दास ४२५ भ० रतनचन्द्र रत्न कीर्ति ५०० रत्न योगीन्द्र ४३६ (कवि) रन्न २१६ रवि कीर्ति २३६ रवि चन्द्र २७१ रविचन्द्र (आराधना समुचय) ४२४ रवि नन्दी १२७ रबिषेणाचार्य १५६ (कवि) राजमल्ल ५३३ (पंडित) रामचन्द्र ४६४ रामचन्द्र मुमुक्षु ३६८ मुनि रामसिंह (देहा पाहुड़) २४१ (ब्रह्म) राय मल्ल ५४३ रामसेन ३२३ राससेन २०७
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
नामानुक्रमणिका
(पं०) रूपचन्द ५४४ लक्ष्मो चन्द्र ४६५ लक्ष्मणदेव ३५७ (कवि) लाख या लक्ष्मण ३६१ लोक सेन १८८ ल्लंगो वाडिगल ६१ (महामुनि) वऋग्रीव २२५ वज्रनन्दी १२६ बर्द्धमान भट्टारक ४४२ वसुनन्दी ३५१ (कवि) वाग्भट ४२० वाग्भट (नेमि निर्वाण काव्य के कर्ता) ३११ (भ०) वादि चन्द्र ५३२ वादिराज २४६ वादिराज (द्वितीय) ४३२ (कवि) वादिराज ५५२ वादि विद्यानन्द ५४२ बादीन्द्र विशाल कोति ४१३ वादीसिह १६८ वायूभूति (गणधर) २५ वावन नन्दी मुनि वासव चन्द्र मुनीन्द्र ३७३ वासव नन्दी २४० वासव सेन ४१३ विजय कीति ३७६ विजय कीति मुनि १६० विजय देव पंडिताचार्य १६७ विजय वर्णी (शृगारार्णवचद्रिका) ४१६ (बुध) विजर्यासह ४६६ (भ०) विद्यानन्द - (आचार्य) विद्यानन्द १९६८ विद्यानन्द ४५५ (भट्टारक) विद्याभूपण ५३६ (मुनि) विनय चन्द्र ३६८ (मुनि) विनय चन्द्र ३८७ विनयसेन २०५ विमल कीति ३६६ विमल कीति ४२८ विमल चन्द्र मुनीन्द्र २२५ विभल चन्द्राचार्य १६१ विमलसेन पडित २७६
विष्ण नन्दि (श्रुत केवली) ४६ (भ०) विश्वसेन ५३८ विशेषवादि १६१ (महाकवि) वीर २६७ वीर कवि या बुधवीरु ५२६ वीरदेव ११२ वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती २६० वीर नन्दी (प्राचारसार के कर्ता) ३३५ वीरसेन २७० वीरसेन २८६ वीरसेन पडित देव ३६० वृति विलास ३३८ वृपभ नन्दी १६७ वषभनन्दी (जीतसार समूचय कर्ता) २५६ शाकटायन (पाल्यकीति) १८५ शामकुण्डाचाय १५८ शान्तिदेव २८८ शान्तिनाथ २५८ शान्तिषेण ३७१ शिवकोटि (शिवायं) १०४ पडित शिवाभिराम ५५० (कवि) शिशु मायण ४२६ (भ०) शुभकानि ४८४ शुभचन्द्र योगी ४३१ (भ०) शुभचन्द्र ४६६ म्भ०) शुभचन्द्र ५०१ (प्रा.) शुभचन्द्र ३०३ शुभ नन्दी १३७ श्रो कीति ४३० श्रीकुमार कवि (प्रात्म प्रबोध के कर्ता) २६७ श्री चन्द्र कथाकोशकर्ता ३४३ श्री दत्त ११३ श्री दत्त (द्वितीय) ११३ श्री देव १८६ (कवि) श्रीधर ३६६ (कवि) श्रीधर ३८६ (कवि) श्रीधर ४४१ (कवि) श्रीधर ३४४ श्रीधर ३७३ श्रीधरसेन (विश्वलोचन कोष) ४१८ श्रीपालदेव १७४
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
२३
Jare
( भ० ) श्रीभूषण ५३६ श्री वल्लभ (राजा) १७७ श्रीषेण सूरि ३७१ श्रुतकीर्ति ३३८ श्रुतकीर्ति ३०६ (भ०) श्रुतकीर्ति - श्रुत मुनि ४३७ (ब्रह्म) श्रुतसागर ५०८ ( भ० ) सकल कीर्ति ४९१ सकल कीर्ति ४३२ सकल चन्द्र भट्टारक ४३१ ( भ० ) सकल भूषण ५४१ (आचार्य) समन्तभद्र ६२ (लघु) समन्तभद्र ४३० (अभिनव ) समन्तभद्र ५०८ सर्वनन्दी भट्टारक १६८ सर्वनन्दी भट्टारक २१३ सर्वनन्दी १६७ मुनि सर्वनन्दी १२२ सागर नन्दी सिद्धांतदेव ३३६ सागर सेन सिद्धांतिक २७६
सिंहनन्दि गुरु १५६ ( भ० ) सिंहनन्दी ५४६ सुधर्म स्वामी ( गणधर ) २६ सुमति (सन्मति ) देव १४० ( भ० ) सुमति कीर्ति ५४७ सुमतिदेव १४१ सुप्रभाचार्य ४५४ सोमकीर्ति ५१६ सोमदेव २२० सोमदेव ४८६ ( मुनि) सोमदेव ४०० स्वयंभू कवि १८६ स्वामिकुमार १२७ हंस सिद्धान्तदेव ३१६ ( पं० हरपाल (वैद्यक ग्रन्थ कर्ता ) ४४१ हल्ल या हरिचन्द ४६६
(कवि) हरिचन्द्र ४७६ ( महाकवि ) हरिचन्द्र ३१७
हरिदेव ४०१ हर्षनन्दी ३१६ (कवि) हरिषेण २२६
(ब्रह्म) साधारण ४६८ (कवि) सिद्ध और सिंह ३६२
सिद्ध नन्दी १२५ सिद्धभूषण सैद्धान्तिक मुनि १६७
हरिषेण २३० (श्री) हरिषेण २२६ हरिसिंह मुनि ३१६ हस्तिमल्ल ४५२ (ब्रह्म) हेमचन्द्र २९२
सिद्धमेन १०७ सिद्धान्त कीर्ति १६३
हेमसेन ३१६ हेलाचार्य २२५
सिंह नन्दि १०३
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची
प्रस्तुत ग्रंथ में ग्रन्थकार और उनके ग्रन्थों के अतिरिक्त जिन ग्रन्थों का उपयोग किया गया है— उनकी
तालिका निम्न प्रकार है :कान्त (वीर सेवामन्दिर दिल्ली ) आचाराग सूत्र सटीक शीलांकाचार्य श्रावश्यक नियुक्ति
इंडियन एण्टी क्वेरी जिल्द ३
इंडियन एण्टी क्वेरी भाग ११ जिल्द ५
इंडियन एण्टी क्वेरी जि० १२ इंडियन एण्टी क्वेरी वाल्यूम ११, जि० १५ इंडियन एण्टी क्वेरी जि० १२ एपिग्राफिया इंडिका जि० १
37
31
"
17
11
"
कनिघम रिपोर्ट नं ० १-१० गौतम धर्मसूत्र
ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह के. भुजबली शास्त्री, मारा
ग्रंथ सूची (श्रामर भंडार) भा० १
ग्रंथसूची भा० २ राजस्थान शास्त्र भंडार, जयपुर
ग्रंथसूची भा३ ग्रंथसूची भा० ४ ग्रंथसूची भा० ५ चौपन्न पुरिस चरिउ प्राचार्य शीलांक जागर्फीकल डिक्सनरी ग्राफ नन्दलाल डे
17
33
जि० ३ जिल्द ४-५
जि० ६
जि० ८
जि० १०
जि० २०
11
ا"
"2
11
जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० १ वीर सेवामंदिर
जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० २ वीर सेवा मंदिर जैनिज्म इन साउथ इंडिया- पी० वी० देसाई (शोलापुर ) जैन दर्शन, पत्र भा० दि० जैन
संघ चौरासी मथुरा
२३
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
जैन लेख मंग्रह भा०१, भा०२, भा०३, भा०४, भा०५,
(माणिकचन्द्र ग्रथमाला बम्बई) जैन सन्देश योधांक १५ सम्पादक डा. ज्योति प्रसाद जैन जैन सन्देश शोधांक ३-४ जैन साहित्य और इतिहास, नाथूराम जी प्रमी, बम्बई जैन माहित्य में विकार थवा थयेली हानि, प० वेचग्दास जन हितैपी भाग १३ पं० नाथूराम प्रेमी डिवानरी शिवराम वामन एण्टे तत्त्व संग्रह गा० १,२ (बौद्ध ग्रन्थ) दक्षिण भारत में जैन धर्म, पं० कैलाश चन्द शास्त्री दी राष्ट्रकटाज इन देअर टाइम, डा० अल्तेकर धर्मोत्तर प्रस्तावना पचाशक हरिभद्राचार्य परिशिष्ट पर्व हेमचन्द रि पुरातत्त्व निबंधावली, राहल मांकृत्यायन प्लटार्च एन्शियेंट इंडिका प्रस्तावना उपासकाध्ययन, पं० कैलाशचन्द जी शास्त्री प्रस्तावना पुरातन जैन वाक्य-सूची प० जुगल किशोर मुख्तार प्रस्तावना परमात्म प्रकाश डा० ए० एन उपाध्ये प्रस्तावना प्रवचनसार (डा० ए० एन० उपाध्याय) प्राकृतपिगल पिंगलाचार्य प्राचीन भारत का राजनैतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास भारत के प्राचीन राजवंश विश्वेश्वर नाथ रेउ भा०३ भारतीय इतिहास की रूप रेवा, जयचन्द्र विद्यालंकार प्रथम एडीसन, मिडियावल जैनिज्म (डा० ए० बी० सालेतोर) मनुस्मृति राजपूनाने का इतिहास प्रथम जिल्द म० म० हीराचन्द जी ओझा वशिष्ट स्मृति विशेपावश्यक जिनभद्रगणिक्षमा श्रमण शामनगढ़ . । दानपत्र (शक सं०) श्रमण भगवान महावीर मुनि कल्याण विजय मगमतंत्र स्कन्ध पुराण हिन्दु भारत का उत्कर्ष (सी० पी० वैद्य) हिस्टरी आफ इडियन लिटेरचर वाल्यूम || हैदराबाद पारवयो लाजिकल मीरीज संख्या १२
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भगवान महावीर और उनकी संघ-परम्परा
द्वितीय भाग
प्रथम परिच्छेद
१. महावीर से पूर्व देश-काल की स्थिति २. भगवान महावीर के ग्यारह गणधर ३. अन्तिम केवली जम्बू स्वामी
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. महावीर से पूर्व देश - काल की स्थिति
आज से लगभग छब्बीस सौ वर्ष पूर्व भारत की स्थिति अत्यन्त विषम थी। चारों ओर हिसा, असत्य, शोषण, दम्भ और अनाचार का साम्राज्य था। देश का वातावरण अत्यन्त क्षुब्ध, पीड़ित और सत्रस्त हो रहा था । धर्म की रुचि मन्द पड गयी थी। ब्राह्मण संस्कृति के बढते हुए वर्चस्व में श्रमण संस्कृति दवी जा रही थी । जाति भेद की दुर्गन्ध मे देश का प्राण घुट रहा था । जातिभेद के अभिमान ने ब्राह्मणो को पतित बना दिया था। ईर्ष्या, द्वेष, ग्रहकार, लोभ, अज्ञान, अकर्मण्यता, क्रूरता और धूर्ततादि दुर्गुणां का निवास हो गया था। बहुदेवतावाद की कल्पना साकार हो उठी थी। धर्म के नाम पर मानव अधर्म और विकृतियों का दाम वन गया था। धर्म का स्थान याज्ञिक क्रियाकाण्डो ने ले लिया था । यज्ञा में घृत, मधु ग्रादि के साथ पशु भी होमे जाते थे और डके की चोट यह घोषणा की जाती थी कि भगवान ने यज्ञ के लिए ही पशुओ की रचना की | वेद विहित यज्ञ में की जाने वाली हिमा, हिसा नही किन्तु श्रहिमा है । शस्त्र के द्वारा मारने पर जीव को दुख होता है। इसी शस्त्रवध का नाम पाप है, हिसा है, किन्तु शस्त्र के बिना वेद मन्त्रों से जो जीव मारा जाता है वह लोक धर्म कहलाता है । मानव अधिकारो वा दिन दहाडे हनन होता था । व्यक्ति की सत्ता विनष्ट हो चुकी थी । ब्राह्मण ही धर्मानुष्ठान के उच्च अधिकारी माने जाते थे। शासन विभाग में उन्हे खास रियायतं प्राप्त थी । बडे से बडा अपराध करने पर भी उन्हें प्राणदण्ड नहीं दिया जाता था, जबकि दूसरो को साधारण से साधारण अपराध होने पर मृत्युदण्ड दे दिया जाता था। धर्म का स्थान अधर्म ने ले लिया था, अराजकता का साम्राज्य बढ रहा था। मानवता कराह रही थी । उसकी गरिमा का पतन हो चुका था। धर्म राजनीति का एक कुण्ठित हथियार मात्र रह गया था । जनता की ग्रामथा धर्म से उठ चुकी थी । स्वार्थलोलुप धर्मगुरु उसके ठेकेदार समझे जाते थे । स्थिति अत्यन्त दयनीय हो रही थी । मूक पशुओं की हत्या और उनके ग्राक्रन्दन आदि से पृथ्वी तिलमला उठी थी। मानव का कोई मूल्य नही रह गया था। उसकी चेतना को लकवा मार गया था ।
नारी की सामाजिक स्थिति भयावह थी, उसका अपहरण हो चुका था । उसे धर्म साधन करने का कोर्ट अधिकार प्राप्त नही था। वे वेद आदि की उच्च शिक्षा मे भी वचित थी । 'न स्त्री स्वातन्त्र्यमति' 'स्त्री
१. यज्ञार्थं पशवः सृष्टा स्वयमेव स्वयभुवा । यज्ञम्य भूत्यं सर्वस्व तम्माद् यज्ञे वधोऽवध. ।। या वेदविहिता हिमा नियताम्मिश्चराचरे । अहिमामेव ता विद्याद् वेदाद् धर्मो हि निर्बभौ ।। २. या वेदविहिन हिमा स न हिमति निर्णयः । शस्त्रेण हन्यते यच्च पीडा जन्तुषु जायते ॥७० स एव धर्मएवास्ति लोके धर्मविदावर । वेदमहिन्येत विना शस्त्रेण जन्तवः ॥७६
- मनुस्मृति ५ २२, ३, ४४
- स्कन्ध पुराण
( ३ )
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २
स्वतन्त्र नही हो सकती जैसी कठोर प्राज्ञाये प्रचलित था। स्त्र और शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नही था । ' शूद्रों से पशुप्रो जैसा व्यवहार किया जाता था। उन्हे धर्म सेवन करने का कोई अधिकार प्राप्त नही था । वे पददलित और नीच समझ जाते थे । उनकी छाया पड़ जाने पर उन्हें दण्डित किया जाता था और स्वर्ग हो जाने पर संचल स्नान किया जाता था । शिक्षा-दीक्षा और देदादि शास्त्रों के सुनने का अधिकार केवल द्विजातियों को था । शुद्र को वेद की ऋचाएं सुनने पर कानों में शीशा भरने, बोलने पर जीभ काटने और ऋचाओं के कठस्थ करने पर शरीर नष्ट कर देन वा कठोर विधान था तथा यह प्रार्थना की जाती थी कि उन्हें बुद्धि न दे, यज्ञ का प्रसाद न दे और व्रतादि का उपदेश भी न दे ।
'४'
यद्यपि ३ वे तीर्थकर पार्श्वनाथ के निर्वाण को अभी पूरे दो सौ वर्ष भी व्यतीत नही हुए थे, किन्तु फिर भी उनके संघ और धर्म की स्थिति शोचनीय हो गई थी। तात्कालिक त्रियाकाण्डो के प्रभाव से जैन मघ भी अछूता नही बचा था । उसमें भी वर्ण और जाति-भेद के सस्कारों का प्रभाव किसी न किसी रूप में प्रविष्ट हो गया था । धार्मिक सस्कारों पर भी अन्धविश्वास, हिमा और रूढ़ियों का प्रभाव प्रकित हो रहा था । पार्श्वनाथ परम्परा के श्रमणों में भी शैथिल्य प्रविष्ट हो गया था। वे स्वयं अशक्त हो रहे थे। ऐसी स्थिति में हिसक क्रियाकाण्डों को मिटाना उनके लिये सम्भव नही था । राजनैतिक दृष्टि से भी उक्त समय उथल-पुथल का था । उसमें स्थिरता नही थी। कई स्थानों पर प्रजातन्त्रात्मक गणराज्य थे जिनका शासन अपेक्षाकृत सुखशान्ति सम्पन्न था। पर याजिक त्रियाकाण्डों में होने वाली हिसा का तांडव दूर नही हुआ था और न उन राज्यों में ऐसी शक्ति ही थी, जो उन याज्ञिक त्रियाकाण्डो से पा हिसा का निवारण कर पाओ को अभयदान दिला सकं । क्योंकि अशक्त आत्मा अपना स्वय भी उत्थान नहीं कर सकता, फिर अन्य के करने का प्रश्न ही नही उठता। उस समय देश का वातावरण विपम हो रहा था। ऐसी स्थिति में किसी ऐसे योग्य नेता की आवश्यकता थी, जो ग्रात्मवल से कान्ति ला दे और याज्ञिक क्रियाकाण्डों का विरोध कर उनमें अहिसा की भावना भर दे । धर्म को धर्म समझ कर जो कार्य निष्पन्न किया जाता था, उसमें परिवर्तन ला दे । धर्म की यथार्थ परिभाषा को जन-मानस में प्रतिष्ठित कर दे और जनता के कष्टों को दूर कर उसके उत्थान का मार्ग सरल एवं सुलभ बना दे। उस समय किसी ऐसे शक्तिमान नेतृत्व की आवश्यकता थी, जिसके व्यक्तित्व के प्रभाव से हिंसा का ताण्डव अहिमा में परिणत हो सके। 'जनता में हो कोई अवतार नया' की आवाजे उठ रही थी । जव अन्याय अत्याचार के साथ धर्म की मात्रा अधिक हो जाया करती है, तभी क्रान्तिकारी नेता का प्रादुर्भाव होता है। परिणामस्वरूप लोक मे महावीर का अवतार हुआ ।
1
१ 'न स्त्री शूद्रोवे द मधीयेताम् वशिष्ठ-स्मृति
२. वेदमुपशृण्वनस्तस्य जतुभ्यां श्रोत्र प्रतिपून् मुच्चारणं रिह्वाच्छेदो धारो शरीरभेदः । ( गौतम धर्ममूत्रम् १६५ )
न शूद्राय मति दयान्नांच्छिष्ट न हविष्कृतम् ।
न चाम्योपदिशेद्धर्म न चान्य व्रतमादिशेत् ।
( वशिष्ठ स्मृति १८, १२, १३)
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर की जन्म भूमि
भगवान महावीर की जन्मभूमि विदेह' देश की राजधानी वैशाली थी, जिसे वर्तमान में वसाढ़ कहा जाता है। प्राचीन काल में वैशाली की महत्ता और प्रतिष्ठा शक्तिशाली गणतन्त्र की राजधानी होने के कारण अधिक बढ़ गई थी। मुजफ्फरपुर जिले की गंडकी नदी के समीप स्थित वसाढ़ ही प्राचीन वैशाली है। उसे राजा विशाल की राजधानी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । पाली ग्रन्थों में वैशाली के सम्बन्ध में लिखा है कि- दीवारों को तीन बार हटा कर विशाल करना पड़ा था, इसीलिए इसका नाम वैशाली हुआ जान पड़ता है। वैशाली में उस समय अनेक उपशाखा नगर थे जिनसे उसकी शोभा ओर भी द्विगुणित हो गई थी । प्राचीन वैशाली का वैभव अपूर्व था और उसमें चातुर्वर्ण के लोग निवास करते थे ।
वज्जी देश की शामक जातियों में मुख्य लिच्छवि थे । लिच्छवि उच्च वशीय क्षत्रिय थे । उनका वश उस समय अत्यन्त प्रतिष्ठित समझा जाता था । यह जाति अपनी वीरता, धीरता, दृढ़ता, सत्यता और पराक्रमादि के लिये प्रसिद्ध थी । इनका परस्पर संगठन और रीति रिवाज, धर्म और शासन प्रणाली सभी उत्तम थे। इनका शरीर अत्यन्त कमनीय और प्रोज एवं तेज से सम्पन्न था। ये अपने लिये विभिन्न रंगों के वस्त्रों का उपयोग करते थे और अच्छे प्राभूषण पहनते थे । परस्पर में एक दूसरे के सुख-दुख में काम आते थे। यदि किसी के घर कोई उत्सव वगैरह या इष्ट-वियोग आदि जैसा कारण बन जाता था तो सब लोग उसके घर पहुंचते थे, और उसे अनेक तरह से सान्त्वना प्रदान करते थे प्रत्येक कार्य को न्याय-नीति से सम्पन्न करते थे । वे न्यायप्रिय और निर्भय वृत्ति थं तथा स्वार्थपरता से दूर रहते थे । वे एकता और न्यायप्रियता के कारण अजेय बने हुए थे। वे अपने सभी कार्यो का निर्णय परस्पर में विचार-विनिमय से करते थे। राजा चेटक उस गणतन्त्र के प्रधान थे । राजा चंटक की रानी का नाम भद्रा था, जो बड़ी ही विदुपी और शीलादि सद्गुणों से विभूषित थी। राजा चंटक की सात पुत्रियाँ औौर सिह्भद्रादि दश पुत्र थे । सिहभद्र की सातो बहनों के नाम- प्रियकारिणी ( त्रिशला ), सुप्रभा, प्रभा
१. गण्डकी नदी से लेकर चम्पारन तक का प्रदेश विदेह अथवा नीरभुक्त ( तिरहुत) के नाम से भी ख्यात था । शक्ति संगम तन्त्र के निम्न पद्य से उसकी स्पष्ट सूचना मिलती है।
:
गण्डकीतीरमारभ्य चम्पारण्यान्तकं शिवे । विदेहभूः समाख्याता नीरभुक्ताभिधां मनु ॥ (अ) अथ वज्रामिदेशे विद्याली नगरी नृपः ॥
(ग्रा) विदेहो श्रीर लिच्छवियों के पृथक् पृथक् संघो को मिला कर वृजिया वज्रिण था। समूचे वृजि संघ की राजधानी वैशाली ही थी। उसके स्थान पर बड़े-बड़े दरवाजे और गोपुर ( पहरा देने के मीनार ) बने हुए थे ।
- भारतीय इतिहास की रूपरेखा पृ० ३१० से ३१३
(इ) वज्जी देश में आजकल का चम्पारन और मुजफ्फरपुर, जिला दरभंगा का अधिकांश भाग तथा छपरा जिले का मिर्जापुर, परसा, सोनपुर के थाने तथा अन्य कुछ श्रीर भूभाग सम्मिनित थे । - पुरातत्व निबन्धावली पृ० १२
२. ( अ ) अथ वज्राभिधे देशे विशाली नगरी नृपः ।
अस्यां केोऽम्य भार्यामीत् यशोमतिरिति प्रभा ।। विनयाचार संपन्नः प्रतापाकान्तशत्रवः । प्रभूत् साधुकृतानन्दश्चेटकाख्यः सुनोऽनयोः ॥
— हरिणकथाकोष ५५ श्लोक १६५
एक ही मघ या गरण बन गया था जिसका नाम चारों ओर तिहरा परवोटा था जिसमें स्थान
५
- वृहत्कथाकोष ५५ - १६६-१६७
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २
वती, मृगावती, ज्येष्ठा, चेलना और चन्दना था। इनमें त्रिशला कुण्डपुर के राजा सिद्धार्थ को विवाही थी । सुप्रभा दशार्ण देश के राजा दशरथ को, और प्रभावती कच्छदेश के राजा उदायन की रानी थी। मृगावती कौशाम्बी के राजा शतानीक की पत्नी थी । चलना मगध के राजा विम्बसार (श्रेणिक) की पटरानी थी । ज्येष्ठा और चन्दना आजन्म ब्रह्मचारिणी रही। ये दोनो ही भगवान महावीर के सघ में दीक्षित हुई थी। उनमें चन्दना आर्यिका श्री में प्रमुख थी, सघ की गणनी थी । सिहभद्र वज्जिसघ की सेना के सेनापति थे । इस तरह चेटक का परिवार खूब सम्पन्न था। वज्जिसंघ में गणतन्त्र सम्मिलित थे, जिनमें वृजि, लिच्छवि, ज्ञात्रिक, विदेह, उग्र, भोग और कौरवादि आठ जातियाँ शामिल थी ।
ह
वृज लोगों में प्रत्येक गाव का एक सरदार राजा कहलाता था। लिच्छवियों के अनेक राजा थे, और उनमें प्रत्येक के उपराज, सेनापति और कोपाध्यक्ष आदि अलग-अलग होते थे । ये सब राजा अपने अपने गांव के स्वतंत्र शासक थे; किन्तु राज्य कार्य का संचालन एक सभा या परिषद् द्वारा होता था । यह परिपद ही लिच्छवियों की प्रधान - शामन शक्ति थी । शासन प्रबन्ध के लिये सभवत उनमें से नौ श्रादमी गण राजा चुने जाते थे । इनका राज्याभिषेक एक पोखरनी के जल से होता था ।
वैशाली गणतत्र के अधिकाश निवासी व्रात्य कहलाते थे । ये अर्हन्त के उपासक थे । उनमें जैनियों के तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ का शासन या धर्म प्रचलित था ।
वर्तमान वसाद के समीप ही 'वासुकुण्ड' नाम का ग्राम है, वहाँ के निवासी परम्परा से एक स्थल को भगवान महावीर की जन्म भूमि मानते आये है और उन्होंने पूज्य भाव से उस पर कभी हल नही चलाया । समीप ही एक विशाल कुण्ड है, जो अब भर गया है और जीता बोया जाता है। वैशाली की खुदाई मे एक ऐसी प्राचीन मुद्रा भी मिली है, जिसमे 'वैशाली नाम कु डे' ऐसा उल्लेख है। इन सब प्रमाणो के आधार पर विद्वानो ने वासुकुण्ड को महावीर की जन्मभूमि कुण्डग्राम स्वीकार किया है।
वैशाली के पश्चिम में गण्डकी नदी बहती थी। उसके पश्चिम तट पर क्षत्रिय कुण्डपुर, ब्राह्मण कुण्डपुर, वाणिज्यग्राम, कर्मारग्राम और कोल्लाग सन्निवेश आदि उपनगर एवं शाखानगर अवस्थित थे। क्षत्रिय-कुण्डपुर में गान, गान, ज्ञान या णाह क्षत्रियों के पाचमो घर पे । राजा सिद्धार्थ क्षत्रिय कुण्डपुर के अधिनायक थे। वे राजा सर्वार्थ और रानी श्रीमती के धर्मात्मा पुत्र थे । उन्हें प्रयास और यशाश भी कहते थे। वे काश्यप वश के चमकते रत्न थे । सिद्धार्थ वीर योद्धा और पराक्रमी शासक थे । राजा सिद्धार्थ का विवाह वेगाली गणतंत्र के अध्यक्ष राजा चेटक की अत्यन्त सुन्दर एवं विदुषा पुत्री त्रिशला के साथ सम्पन्न हुआ था, जिसका अपर नाम 'प्रिय - कारिणी' था, और जो लोक में 'विदेहदत्ता' के नाम से प्रसिद्ध थी । वह पुण्यात्मा प्रोर सौभाग्यशालिनी थी । राजा सिद्धार्थ नाथ या ज्ञात क्षत्रियों के प्रमुख नेता के रूप में ग्यान थे। इसी कारण वे सिद्धार्थ कहलाते थे । वे शस्त्र और शास्त्र विद्या में पारगामी थे और भगवान पार्श्वनाथ के उपासक थे ।
(ग्रा) सिन्ध्वाव्यविषये भूभद् वैशाली नगरेऽभवत् ।
arrant वियानो विनीत परमार्हत. ॥ ३ ॥ तम्य देवी मुभद्राम्या तयो पुत्रा दशाभवन् । घनाख्यो दन्तभद्रान्तावुपेन्द्रो ऽन्य सुदत्तवान् ॥ ४ ॥ मिहभद्र सुकुम्भोजो कंपन सपनगवः । प्रभजन प्रभामश्च धर्मा इव मुनिर्मला ||५||
- उत्तर पुराणे गुणभद्र प ७५
१. भारतीय इतिहास को रूप-रेखा भा० १ पृ० १३४
२ श्रमण भगवान महावीर पृष्ठ ५
३. श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में त्रिशला को राजा चेटक की बहिन बतलाया है। चेटक की अन्य पुत्रियो के नामों में भी विभिभिन्नता है । चन्दना को प्रगदेश के राजा दधिवाहन की पुत्री बतलाया है ।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर का जन्म भगवान महावीर का जीव अच्युत कल्प के पुप्पोत्तर नामक विमान मे च्यूत होकर आषाढ शुक्ला षष्ठी के दन, जबकि हस्त और उत्तरा नक्षत्रों के मध्य मे चन्द्रमा अवस्थित था, त्रिशला देवी के गर्भ में आया। उसी रात्रि में त्रिशला देवी ने सोलह स्वप्न देवे', जिनका फल गजा सिद्धार्थ ने बतलाया कि तुम्हारे शूरवीर, धर्म-नीर्थ के प्रवर्तक और पराक्रमी पुत्र का जन्म होगा जो अपनी समुज्ज्वल कीति में जनता का कल्याण करेगा । भगवान महावीर जबसे त्रिशला के गर्भ में पाये, तबसे गजा सिद्धार्थ के घर में विपूल धन-धान्य की वृद्धि होने लगी, राज्य में सुख-समृद्धि हुई । सिद्धार्थ के घर में अपरिमित धन और वैभव में बढोत्तरी होती हुई देखकर जनता को बड़ा प्राश्चर्य होता था कि सिद्धार्थ का वैभव इतना अधिक क्यों बढ़ रहा है और उसकी प्रतिष्ठा में भी निरन्तर वद्धि हो रही है।
नौ महीने और आठ दिन व्यतीत होने पर चैत्र शुक्ला त्रयोदगी की रत्रि में मौम्य ग्रहों और शुभ लग्न में जब चन्द्रमा अवस्थित था, उत्तरा फाल्गुणी नक्षत्र के ममय भगवान महावीर का जन्म हुआ। पुत्रोत्पत्ति का शुभ
१.(क) सिद्धार्थनपतितनयो भारतवास्ये विदेह कृण्डपरे ।
देव्या प्रियकारिण्यां मुम्वप्नान मप्रदर्य विभुः ।। भाषाढसुमितषष्ठयां हस्तोत्तर मध्यमाथिते शशिनि ।
आपात: स्वर्गमुख भुक्त्वा पुष्पोनराधीशः ॥-(निर्वाणभक्नि)
(ख) यहाँ यह प्रकट कर देना अनुचित न होगा कि श्वेताम्बरीय कल्पमूत्र पोर आवश्यक भाष्य मे ८२ दिन बाद महावीर के गर्भापहार की प्रमभव और अप्राकृतिक घटना का उल्लेख किया है। यह घटना ब्राह्मणो को नीचा दिखाने की दृष्टि से घड़ी
ई प्रतीत होती है । उसमे कृष्ण के गर्भापहार का अनुमरग पाया जाता है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे उसे अछरा या दश पाश्चर्यों में गनाया गया है । दिगम्बर सम्प्रदाय के किसी भी ग्रन्थ मे इस घटना का उल्लेख तक नही है । दूमरे यह बात मभव भी नही जचती। पभी तीर्थकरो और महापुरुषो को जब एक ही माता-पिता की मन्तान बतलाया गया है तब भगवान महावीर के दो-दो माता-पिता का उल्लेख करना कमै उचित कहा जा सकता है ? यह घटना अवैज्ञानिक भी है। इतिहास में प्रेमी एक भी घटना का उल्लेख देखने मे नही पाया जिसमे एक ही बालक के दो पिता और दो माता हो।
वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ को मातवे महीने मे दिव्य शक्ति के द्वारा पत्नी रोहिणी के गर्भ में रखे जाने की जो बात हिन्द पौराणिक पाख्यानों में प्रचलित थी, उसका अनुसरण करके महावीर के लिये भी ऐमी अप्राकृतिक अदभुत घटना को किन्ही विद्वानों ने अछेरा व हकर अग-सूत्रो मे अकित कर दिया । श्वेताम्बरी मान्य विद्वान पं० सुखलालजी भी इमे अनुचित बतलाते है।
चार तीर्थकर प० १०६ २. (अ) सिद्ध स्थगय पियकारिणीहि णयरम्मि कुडले वीरो।
उतरफग्गुणिरिक्वे चिपिया तेरमीए उपरणो॥-तिलो. ५० (पा) चैत्र मित पक्ष फाल्गनि शशाक योगे दिने त्रयोदश्या ।
जजे स्वोच्चस्येप ग्रहेषु मौम्येप शभलग्ने ।। -निर्वाण भक्ति
(इ) "मासाढ जोह पक्ग्व-घट्ठीए कुडपुर णगराहिव-गाहम-सिद्धत्य-गग्दिस्स तिसला देवीए गम्भमागतूग्ण' नत्थ प्रदिवसाहिय रणवमासे अच्छिप चइत्त सुक्ख-पक्व नेरमीए रत्तीए उत्तरफग्गुणी गक्खत्ते गम्भादो णि क्वनो बडढमाण जिरिंणदो ॥
-जय ध० भा० १ पृ० ७६-७७ (इ) उन्मीलितावधिदशा महम, विदित्वा तज्जन्म भक्तिभरत: प्रणतोत्तमागाः ।
घटानिनादममवेतनिकायमुख्या दृष्टया ययुस्तदिति कुण्डपुर सुरेन्द्राः ॥-प्रसगकषि कृन वर्धमान चरित
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २
समाचार देने वालों को खब पारितोषिक दिया गया और नगर पुत्रोत्पत्ति की खुशी में तोरणों और ध्वज-पंक्तियों से अलंकृत किया गया । सुन्दर वादित्रों की मधुर ध्वनि मे अम्बर गूज उठा। याचक जनों को मनवांछित दान दिया गया। उस समय नगर में दीन दुखियों का प्रायः अभाव-सा था। नगर के सभी नरनारी हर्षातिरेक से आनन्दित थे। धप-घटों में उदगत सुगन्धित धम्र मे नगर मरभित हो रहा था। जिधर जाइये उधर ही बालक महावीर जन्मोत्सव की धम और कलरव सुनाई पड़ रहा था।
देव और इन्द्रों ने भगवान महावीर का जन्मोत्सव मनाया और सुमेरु पर्वत पर ले जाकर इन्द्र ने उनके जन्माभिपंक का महोत्सव धूम-धाम से सम्पन्न किया और बालक को दिव्य वस्त्राभूषणों में अलकृत किया गया।
बालक का जन्म जनता के लिये बड़ा ही मुखप्रद हया था। उनके जन्म के समय ससार के सभी जीवों ने क्षणिक शान्ति का अनुभव किया था। इन्द्र ने श्रावृद्धि के कारण बालक का नाम वर्द्धमान रक्खा । बालक के जातकर्मादि मस्कार किये गए। राजा सिद्धार्थ ने स्वजन-सम्बन्धियों, परिजनों, मित्रों, नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों, सरदारों और जातीय जनों को तथा नगरनिवामियों का भोजन, पान, वस्त्र, अलकार और ताम्बूलादि से उचित सन्मान किया।
बाल्य-जीवन
वालक वर्द्धमान बाल्यकाल में ही प्रतिभासम्पन्न, पराक्रमी, वीर, निर्भय और मति-श्रत-अवधि रूप तीन ज्ञान नेत्रों के धारक थे। उनका शरीर अत्यन्त सुन्दर, सम्मोहक एवं ओज तेज से सम्पन्न था। उनकी सौम्य प्राकृति देखते ही बनती थी। उनका मधर मंभापण प्रकृतित: भद्र और लोकहितकारी था। उनका शरीर दूज के चन्द्र के ममान प्रतिदिन बढ़ रहा था।
पा पत्नीय मंजय (जयमेन) और विजय नाम के दो चारण मुनियों को इस बात में भारी सन्देह उत्पन्न हो गया था कि मन्यु के बाद जीव किमी दूसरी पर्याय में जन्म लेता है या नहीं। वर्द्धमान के जन्म के कुछ समय बाद उन चारण मुनियों ने जब वर्द्धमान तीर्थकर को देखा, उसी समय उनका वह सन्देह दूर हो गया। अतएव उन्होंने भक्ति में उनका नाम मन्मति रक्वा' । उनका शरीर अत्यन्त रूपवान और सर्वलक्षणों से भूपित था। वे जन्म-ममय के दम अनिदायों में सम्पन्न थे। एक दिन इन्द्र की सभा में देवों में यह चर्चा चल रही थी कि इस समय सबसे अधिक शक्तिशाली शुरवीर वर्द्धमान हैं। यह सुनकर 'मंगम' नाम का एक देव उनकी परीक्षा करने के लिये पाया। पाते ही उसने देखा कि देदीप्यमान आकार के धारक बालक वर्द्धमान समवयस्क अनेक बालक राजकमारों के माथ एक वृक्ष पर चढे हा क्रीड़ा करने में तत्पर हैं। यह देख संगम देव इन्हें डरावने की इच्छा से एक बड़े सांप
१. (क) सजयम्पार्थमंदेहे मजाने विजयम्य च ।
जन्मानन्तरमेवनमभ्येत्यालोकमात्रतः ॥२८२ तत्संदेहे गते नाभ्यां चारणाभ्यां म्वभक्तितः । प्रस्त्वेप मन्मतिर्देवो भावीति ममुदाहृतः ॥ २८३
-उत्तर पुराण पर्व ७४ (ख) निवृत्तो जयसेनाभ्रचारिणा विजयेन च । नन्वेष मन्मतिर्देव इत्युक्तः प्रमदादसौ॥२६
-त्रिषष्ठि स्मृति शास्त्र
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैगग्य और दीक्षा
का रूप धारण कर उस वृक्ष की जड़ से लेकर स्कन्ध तक लिपट गया । सब बालक उसे देखकर भय से काप उठे और शीघ्र ही डालियों पर से नीचे कूद कर भागने लगे। परन्तु राजकुमार वर्द्धमान के हृदय में जग भी भय का संचार न हया । वे उसके विशाल फण पर चढ़कर उममे क्रीडा करने लगे। मर्प का रूप धारण करने वाला सगम देव उनकी वीरता और निर्भयता को देखकर विम्मित हुया पोर अपना असली रूप प्रकट कर उन्हे नमस्कार किया, स्तुति की और उनका नाम 'महावीर' रक्खा ।
महाकवि धनजय ने नाममाला में भगवान महावीर के मन्मति, अतिवीर, महावीर, अन्त्यकाश्यप, नाथान्वय और वर्द्धमान नामो का उल्लेख किया है और बतलाया है कि इस समय उन्ही का शासन प्रचलित है।
भगवान महावीर का गोत्र काश्यप था। उनके तेज पुज में वैशाली का गज्य-शासन चमक उठा था। उस समय वैशाली और कुण्डपुर की शोभा द्विगुणित हो गई थी और वह इन्द्रपुरी मे कम नहीं थी।
• वैराग्य और दीक्षा
भगवान महावीर का बाल्य-जीवन उत्तरोत्तर युवावस्था में परिणत होता गया। इस अवस्था में भी उनका चित्त भोगो की अोर नही था। यद्यपि उन्हे भोग और उपभोग की वस्तुओं की कमी नही थी, किन्तु उनके अन्तर्मानस में उनके प्रति कोई आकर्पण नही था। वे जल मे कमलवन उनमे निम्पह रहते थे। वे उस काल में होने वाली विपम परिस्थिति में परिचित थे। गज्यकार्य में भी उनका मन नहीं लगता था। राजा सिद्धार्थ ओर माता त्रिशला उन्हे गहस्थ-मार्ग को अपनाने की प्रेरणा करते थे और चाहते थे कि वर्द्धमान का चित्त किमी तरह राज्य-कार्य के संचालन की ओर हो । एक दिन राजा सिद्धार्थ मोर माता त्रिगला ने महावीर को वैवाहिक सम्बन्ध करने के लिए प्रेरित किया। लिग देश का राजा जितशत्रु, जिनके माथ राजा सिद्धार्थ की छोटी बहिन यशोदा का विवाह हामा था, अपनी पुत्री यशोदया के साथ कुमार वर्तमान का विवाह सम्बन्ध करना चाहता था। परन्तु कुमार वर्द्ध
१. (अ) उत्तर पगण पर्व ७८ श्लोक २८८ से २६५ (मा) वीर. शूरोध नेन्युक्ति मुगगामिन्द्रसंसदि ।
श्रुत्वा सङ्गमकोऽन्ये गगतम्त परीक्षितुम् ॥२७॥ दृष्ट्वा क्रीडन्तमुद्यानेऽयमाम्ढो नृपात्मजः । काकपक्षधरै माध मवयोभिर्महाफरणी ॥२८।। भूत्वा वेष्टिताभाम्कन्धादग्थात्तद्भयतोऽग्विलाः । विटपिभ्यो निपत्याग राजपत्रा पलायताः ॥२६ वीरोऽस्थादारा भीष्म मात्रक बदरीरमत् ।' ततः प्रीतो महावीर इत्याम्यां तम्य सव्यधात् ॥३०
त्रिपप्ठि स्मृति शास्त्रम् पृ. १५४ २. सन्मति: महतिवीर: महावीरोऽन्त्यक:श्यपः । नाथान्वयः वर्धमानः यत्तीर्थ मिह साम्प्रतम् ।।
-धनजय नाममाला
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २
मान ने विवाह करने से सर्वथा इनकार कर दिया और विरक्त होकर तप में स्थित हो गये।' इससे राजा जितशत्रु का मनोरथ पूर्ण न हो सका। महावीर के विवाह सम्बन्ध में श्वेताम्बरों की मान्यता इस प्रकार है :
श्वेताम्बर सम्प्रदाय में महावीर के विवाह सम्बन्ध में दो मान्यतायें पाई जाती हैं - विवाहित और अविवाहित। कल्पमूत्र और आवश्यक भाप्य की विवाहित मान्यता है और समवायांग सूत्र, ठाणांगसूत्र, पउमचरिउ तथा प्रावश्यक निर्यक्तिकार द्वितीय भद्रबाह की अविवाहित मान्यता है। यथा-"एगणवीसं तित्थयरा गारवास मज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराप्रो अणगारियं पव्वइया।" (समवायांग मूत्र १६ पृ० ३५)
इस मूत्र में १६ तथंकरों का घर में रह कर और भोग भोगकर दीक्षित होना बतलाया गया है। इसमें म्पष्ट है कि शेष पांच तीर्थङ्कर कुमार अवस्था में ही दीक्षित हुए हैं। इसी से टीकाकार अभयदेव मुरि ने अपनी वृत्ति में 'शेपास्तु पचकुमारभाव एवेत्याह च' वाक्य के साथ 'वारं अरिट्टनेमि' नाम की दो गाथाएं उद्धन की हैं
वीरं रिट्टनेमि पास मल्लि च वासुपुज्जं च। ए ए मोत्तण जिणे अवसेसा पासि रायाणो ।।२२१ रायकुलेसु वि जाया विसुद्धवंसेसु वि खत्ति कुलेसु । न य इच्छियाभिसेया कुमारवासंमि पच्वइया ॥२२२।।
- आवश्यक नियुक्ति पत्र १३६ इन गाथाओं में बतलाया गया है कि वीर, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, मल्लि और वासुपूज्य इन पाँचों को छोड़कर शेप १६ तीर्थङ्कर गजा हुए थे । ये पांचों तीर्थकर विशुद्ध वंशों, क्षत्रिय कुलों और राजकुलों में उत्पन्न होने पर भी राज्याभिषेक रहित कुमार अवस्था में ही दीक्षित हए थे।
आवश्यक निर्यक्ति की २२६ वी गाथा में उक्त पांच तीर्थकरों को 'पढमवए पव्वइया' वाक्य द्वारा प्रथम अवस्था (कुमार काल) में दीक्षित होना बतलाया है। उक्त निर्यक्ति की निम्न गाथा में इस विषय को और भी स्पष्ट किया गया है :
गामायारा विसया निसेविया ते कुमारवज्जे हि ।
गामागराइए सय केसि (स) विहारो भवे कस्स ।२५५ आगमोदय समिति में प्रकाशित आवश्यक नियुक्ति की मलयगिरि टीका में महावीर का नाम छपने से
म स्पष्ट रूप से बतलाया है कि पाँच कूमार तीर्थङ्करा का छाड़ कर शष न भोग भोगे हैं। कुमार का अर्थ अविवाहित अवस्था में है। परन्तु कल्पसूत्र की समरवीर राजा की पुत्री यशोदा से विवाह सम्बन्ध होने, उसमे प्रियदर्शना नाम की लड़की के उत्पन्न होने और उसका विवाह जमालि के साथ करने की मान्यता का मूलाधार क्या है यह कुछ मालूम नहीं होता, और न महावीर के दीक्षित होने से पूर्व एवं पश्चात् यशोदा के शेष १ (अ) भवान्न कि श्रेणिक वेत्ति भूपति नपेन्द्रमिद्धार्थकनीयसीपतिम् ।
इमं गिद्ध जितशत्रमाख्यया प्रतापवन्तं जितशत्रुमण्डलम् ॥६॥ जिनेन्द्रवीरस्य समुद्भवोत्सवे तदागतः कुण्डपुर सुहृत्परः । सुपूजितः कुण्डपुरस्य भूभृता नृपोऽप्रमाखण्डलतुल्यविक्रमः ॥७॥ यशोदयाया सुतया यशोदया पवित्रया वीरविवाहमंगलम् । अनेककन्यापरिवारयारुहत्समीक्षित तुगमनोरथं तदा ॥८॥ स्थिते ऽथ नाथे तपसि स्वयंभूवि प्रजातकैवल्यविशाललोचने । जगद्विभूत्यै विहरत्यपि क्षिति क्षिति विहाय स्थितवांस्तपस्ययम् ॥६॥
-हरिवंश पुराण, जिनसेनाचार्य, पर्व ६६ (प्रा) प्राचार्य यतिवृषभ ने तिलोय पण्पत्ती' को 'वीर परितुनेमि' नामक गाथा में वासुपूज्य, मल्लि, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के साथ वर्द्धमान को भी पांच बालयति तीर्थंकरों में गणना की है, जिन्होंने कुमार अवस्था में ही दीक्षा ग्रहण को थी। इस सम्बन्ध में दिगम्बर सम्प्रदाय की एक ही मान्यता है।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
बैराग्य और दीक्षा
जीवन अथवा उसकी मृत्यु आदि के सम्बन्ध मे ही कोई उल्लेख श्वेताम्बरीय साहित्य में उपलब्ध होता है, जिससे यह कल्पना भी निष्प्राण एवं निराधार जान पडती है कि यशोदा अल्पजीवी थी, और वह भगवान महावीर के दीक्षित होने से पूर्व ही दिवगत हो चुकी थी। अत उमको मृत्यु के बाद भगवान महावीर ब्रह्मचारी रहने से ब्रह्मचारी के रूप में प्रसिद्ध हो गये थे।
कुमार वर्द्धमान अपना प्रात्म-विकास करते हुए जगत का कल्याण करना चाहते थे। इसी कारण उन्हे सासारिक भोग और उपभोग अरुचिकर प्रतीत होते थे। वे राज्य-वैभव में पले पोर रह रहे थे, किन्तु वे जल मे कमलवत रहते हा उमे एक कारागृह हो समझ रहे थे। उनका अन्त करण सामारिक भोगाकाक्षाओ से विरक्त अोर लोक-कल्याण की भावना मे प्रोत-प्रोत था । अत विवाह-मम्बन्ध की चर्चा होने पर उमे अस्वीकार करना समुचित ही था। कुमार वर्तमान स्वभावत ही वैराग्यगील थे। उनका अन्त.करण प्रशान्त और दया मे भरपूर था, वे दीन-दुखियो के दुखो का अन्न करना चाहते थे। इस समय उनकी अवस्था २८ वर्ष ७ माह और १२ दिन की हो चको थो।' प्रत आत्मोन्कर्प की भावना निरन्तर बढ रहो थो, जो अन्तिम ध्येय की माधिका ही नहीं, किन्तु उसके मूर्त रूप होने का सच्चा प्रतीक थी। अत भगवान महावीर ने दादश भावनायो वा चिन्तन करते हुए समार का अनित्य एव अगरणादिरूप अनुभव किया। उन्हे सासारिक वैभव की अस्थिरता एव विनश्वरता का स्वरूप प्रतिभामित हो रहा था और अन्त करण को वत्ति उसमे उदामीन हो रही थी। अत उन्होने राज्य-विभूति को छोड कर जिन-दोक्षा लेने का दृढ सकल्प किया। उनकी लोकोपकारी इस भावना का लोकान्तिक देवो ने अभिनन्दन किया। भगवान महावीर चन्द्रप्रभा नाम की शिविका (पालकी) मे बैठ कर नगर में बाहर निकले और ज्ञात खण्ड नाम के वन मे मार्गशिर कृष्णा दशमी के दिन अपगह मे जबकि चन्द्रमा हस्तोत्तरा नक्षत्र के मध्य में स्थित था, पाठोपवाम से दीक्षा ग्रहण की। व मिद्ध परमेष्ठियो को नमस्कार कर अगोक वक्ष के नीचे शिलामन पर उत्तर दिशा की ओर मुख कर विराजमान.हए । सर्व वाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर-बहमुत्य वस्त्राभूपणो को उतार कर फक दिया और पच मुष्टियो में अपने केशो का लौच कर डाला। इस तरह भगवान महावीर ने दिगम्बर मुद्रा धारण की और प्रात्मध्यान मे तन्मय हो गए। दीक्षा लेते ही उन्हे मन.पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। उपवास की परिसमाप्ति पर जब वे पारणा के लिए वन से निकले और विद्याधरो के नगर के ममान सुशोभित कुलग्राम की नगरी (वर्तमान करि ग्राम) में पहुंचे, वहाँ कुल नाम के राजा ने भक्तिभाव में उनके दर्शन किये, तीन प्रदक्षिणाएं दी, ओर चरणो मे सिर झका कर नमस्कार किया, उनकी पूजा की और मन, वचन काय की शुद्धिपूर्वक नवधाभक्ति से परमान्न (वीर) का आहार दिया। दान के प्रानुषङ्गिक फलस्वरूप उस राजा के घर पंचाश्चर्यो की वर्षा हुई । आहार लेकर वर्द्धमान पुन तप मे स्थित हो गए और आत्म-साधना के लिये कठोर तप का आचरण करने लगे। वे निर्जन एवं दुरूह बनो मे विहार
१ मणवयत्तगणहमतुलं देवक्य सेविऊण वामाई।
अट्टाबीस सन य मामे दिवमे य गारसय ।। प्राभिरिणबोहियबुद्धो छ?ण य मग्गामीसबहुलाए। दसमीए गिक्वतो सुरमहिदो रिणक्खमणे पुज्जो ।।
-जयधवला भा०१पृ० ७८ २ नानाविधरूपचिता विचित्रकूटोच्छिता मरिणविभूषाम् ।
चन्द्रप्रभाख्य शिविकामारुह्य पुगद्विनिष्क्रान्त ।८॥ मार्गशिरकृष्णदशमी हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते सोमे। षष्ठेन त्वपराण्हे भवतेन जिन प्रवव्राज ॥६॥
-निर्वाण भक्ति पूज्यपाद ३. देखो उत्तर पुरण पर्व ७४ श्लोक ३१८ से ३२१
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहासभाग २
करके एकान्त स्थान में निर्भय हो योग-साधना करते थे। वे तीन दिन से अधिक एक स्थान पर नहीं ठहरते थे। किन्तु वर्षा ऋतु को विताने के लिए वे चार महीने एक स्थान पर अवश्य ठहरते थे और मौनपूर्वक तप का अनुप्ठान करते थे । वे अट्ठाईस मूलगुणों का बड़ी दृढ़ता से पालन करते थे। इस तपस्वी जीवन में महावीर ने अनेक देशों, नगगें और ग्रामों आदि विविध स्थानों में विहार कर तप द्वारा प्रात्म-शोधन किया। वे इन्द्रियजयी कषायों के रस को सुखाने के लिए निरन्तर प्रयत्न करते थे। ध्यान में स्थित हो आत्मतत्व का चिन्तन करते थे। वे ध्यान में इस तरह स्थित होते थे जैसे कोई पापाण-मूर्ति स्थित हो। वे हलन-चलन से रहित निष्कम्प मूर्ति हो जाते थे।
केवलज्ञान
भगवान महावीर ने अपने साधु-जीवन में अनशनादि द्वादश कठोर दुर्धर एव दुप्कर तपों का अनुष्ठान किया। भयानक हिस्र जीवों से भरी हई अटवी में विहार किया। डास-मच्छर, शीत, उष्ण और वर्षादिजन्य घोर कप्टों को महा । माथ ही, उपमर्ग-परिपहो को सहन किया परन्तु दूसरों के प्रति अपने चित्त में जरा भी विकति को स्थान नही दिया। यह महावीर की महानता और सहनशीलता का उच्च आदर्श है। उन्होंने बारह वर्ष पर्यन्त मौनपूर्वक कठोर तपश्चर्या की। श्रमण महावीर शत्रु-मित्र, मुख-दुग्व, प्रगमा-निन्दा, लोह-काचन और जीवनमरणादि में सम भाव को-मोह क्षोभ से रहित वीतराग भाव को-अवलम्बन किये हये थे।। वे स्व-पर कल्पना रूप अहंकार ममकारात्मक विकल्पों को जीत चुके थे और निर्भय होकर मिह के समान ग्राम-नगरादि में स्वच्छन्द विचरते थे । महावीर अपने माधु-जीवन में वर्षा ऋतु को छोड़कर तीन दिन से अधिक एक स्थान पर नही ठहरे। उनके मौनी-साध जीवन में भी जनता को विशेष लाभ पहुंचा था। अनेकों को अभयदान मिला, अनेकों का उद्धार हया और अनेक को पथ-प्रदर्शन मिला। भगवान महावीर ने श्रमण अवस्था में थावस्ती, कौशाम्वी, वाराणसी. राजगह, नालन्दा, वैशाली आदि नगगें तथा राढ़ आदि देशों में विहार किया और अपनी योग-साधना में निष्ठता प्राप्त की। कौशाम्बी में तो चन्दना की बेड़ो टूट गई। उसने नवधाभक्ति से उन्हें जो आहार दिया, उसमे उसने सातिशय पुण्य का मचय किया। उसे सेठानी की कैद से छुटकारा मिला, दुःख का अवसान हुआ।
यद्यपि यमण महावीर के मूनि-जीवन में होने वाले उपसर्गो का दिगम्बर साहित्य में श्वेताम्बर परम्परा के साहित्य के ममान उल्लेख उपलब्ध नहीं होता, किन्तु पांचवी शताब्दी के प्राचार्य यतिवृपभ रचित तिलोय पण्णत्ती के चतुर्थाधिकार गत १६२० नम्बर की गाथा के निम्न-सत्तम तेवीसतिम तित्थयराणं च उवसग्गो' वाक्य में सातवे, तेईसवं और अन्तिम तीर्थकर महावीर के सोपसर्ग होने का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इससे महावीर के सोपसर्ग जीवन का स्पष्ट आभाम मिल जाता है। भले ही उनमें कुछ अतिशयोक्ति में काम लिया गया हो; परन्तु श्रमण महावीर के सोपसर्ग माधु जीवन से इनकार नही किया जा सकता। उत्तर पूराण में महावीर के सोपसर्ग जीवन की घटना का उल्लेख मिलता है। उसमें लिखा है कि-किसी समय भगवान महावीर भ्रमण करते हा उज्जैनी की प्रतिमुक्तक स्मशान भूमि में प्रतिमा-योग ध्यान से विराजमान थे। उन्हें देख कर महादेव नाम के रुद्र ने अपनी दुष्टता में उनके धैर्य की परीक्षा लेनी चाही। अतः उसने रात्रि के समय अनेक बडे बडे वंतालों का रूप बनाकर उपसर्ग किया। वे तीक्ष्ण चमड़ा छील कर एक दूसरे के उदर में प्रवेश करना चाहते थे।
१. सम-सत्तु-बन्धु वग्गो सम-सुह-दुक्खो पसंस-रिणद-समो। सम-लोट-कंचरणो पुरण जीविद-मरणे समो समणो॥
-प्रवचनसार ३.४१
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलज्ञान
वे खोले हुए मुखो से अत्यन्त भयकर दीखते थे । इनके अतिरिक्त सर्प, हाथी, मिह, अग्नि और वायु के साथ भीलों की सेना बनाकर उपसर्ग किया। इस तरह पाप का अर्जन करने में निपूण उ म रुद्र ने अपनी विद्या के प्रभाव मे भीषण उपसर्ग किये किन्तु वह उन्हे ध्यान से विचलित करने में समर्थ न हो मका। अन्त में उसने उनके महति और महावीर नाम रखकर स्तुति की ओर अपने स्थान को चला गया ।'
श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्राचागङ्ग निर्यक्ति में वर्द्धमान को छोड़ कर शेप २३ नोर्थवगे के तप कर्म को निरुपसर्ग बतलाया है। अन्य श्वेताम्बरीय ग्रन्था में भी महावीर के उपसर्ग की अनेक घटनाए उल्लिखित मिलती है, जिनमे स्पष्ट है कि महावीर को अपने माध-जीवन में अनेक उपसर्ग और परीपहो का सामना करना पड़ा, परन्तु वे उनमे रचमात्र भी विचलित नहीं हुए, प्रत्युत प्रान्ममहिणता मे उनके प्रान्मप्रभाव मे हा अभिवृद्धि हुई प्रोर लोगों ने उनके अमित माहम और प्रर्य की सराहना की।
महावीर अपने माध-जोवन मे पच ममितिया के माथ मन-वचन-कायरूप तीन गुप्तियो को जीतनेउन्हे वश में करने और पचेन्द्रियो को उनक विपयो मे निरोध करने तथा कपाय-चक्र को कुशन मल्ल क समान मल-मल कर निष्प्राण एव रम रहित बनाने अथवा कपाया के रस को मुखाने, उनकी शक्ति का निर्बल करते हए क्षीण करने का उपक्रम करने हेतू, दर्शन-ज्ञान-चारित्र को स्थिरता से ममता एव मयत जीवन व्यतीत करते हए समस्त परद्रव्यो के विकल्पो से शून्य विशुद्ध प्रात्म स्वरूप में निम्न न वनि से अवगाहन करते थे । श्रमण महावीर को इस तरह ग्राम, खेट, कर्वट, अोर वन मटम्बादि अनेक स्थाना में मानपूर्वक उग्राग्र तपश्चरणा का अनुष्ठान एव आचरण करते हए बारह वर्ष, पाच महीने और पन्द्रह दिन का समय व्यनोत हो गया। उन्हें इन बारह वर्षों के समय में बारह चातुर्मामो में चार चार महीने एक एक स्थान पर रहना पड़ा, परन्तु अपनी मोन वृत्ति के कारण उन्होने कभी किसी से सभाषण तक नहीं किया और न किमी को उपदेशादि द्वारा हो तुप्ट किया । उपसर्ग और परीपहो के कठिन अवसरो पर भी समभाव का प्राथय लिया । महावीर का साध-जीवन कष्टमहिप्ण और
१ देखो, उत्तर पुगण पर्व ७४ श्लोक ३३१ से ३३६ २. सम्वेमि तवो कम्म निस्वमग्ग तु वणियं जिणाग । नवर न बढमारणम्स मोवमग्ग मुगणेयव ।।२७६।।
__ आचागग नियुक्ति ग्राम पुर खेट कट मटबघोगाकरान्प्रविजहार ।
उस्तपोविधानादशवर्षाण्यम रपूज्य ॥१०॥ निर्वाणभक्ति (क) श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे आमतौर पर नीर्थंकरो के मौनपूर्वक ताश्चरण का विधान नहीं है किन्तु उनके यहाँ जहा तही वर्षावाम में चौमामा बिनाने और छाम्य अवस्था में प्रदेशादि म्वय देने अथवा यक्षादि के द्वारा दिलाने का उल्लेख पाया जाता है। परन्तु प्राचाराङ्ग सूत्र के टीकाकार गीलाक ने माधिक बारह वर्ष तक मौनपूर्वक तपश्चरण करन का दिगम्बर परम्परा के समान ही विधान किया है । वे वाक्य इस प्रकार है .
"नानाविधाभितपतो घोरान परीषहोपसर्गानपि सहमानो महासत्वतया म्लेच्छानप्युपशमन नयन द्वादशवर्षाणि साधिकानि छदमस्थो मौनव्रती तपश्चचार।"
-(प्राचाराग सूत्रवृत्ति पृ० २७३) प्राचार्य शीलाक के इस उल्लेख पर मे श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे भी तीर्थकर महावीर के मौनपूर्वक तपश्चरण का विधान होने मे छदमस्थ अवस्था मे उपदेशादि की कल्पना निरर्थक जान पड़ती है। धवलाटीका मे महावीर के तपश्चरण का काल बारह वर्ष साढे पाच महीना बतलाया है
गमइय छदुमत्थत्त बारसवासाणि पच मासेय । पण्णारस दिरणाणि य तिरयण सुद्धो महावीरो॥
-धवला मे उद्धत प्राचीन गाथा
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
૪
सयम की निर्दोष चर्या से देदीप्यमान रहा है ।
इस तरह महावीर अन्तर्बाह्य तपों के अनुष्ठान द्वारा आत्म-शुद्धि करते हुए जृम्भिक ' ग्राम के समीप आये, और ऋजुकूला नदी के किनारे शाल वृक्ष के नीचे बैठ गये। वैशाख शुक्ला दशमी को तीसरे पहर के समय जब वे एक शिला पर पष्ठोपवास से युक्त होकर क्षपक श्र ेणी पर प्रारूढ थे, उस समय चन्द्रमा हस्तोत्तर नक्षत्र के मध्य में स्थित था । भगवान महावीर ने ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा ज्ञानावरणादि घाति-कर्म-मल को दग्ध किया और स्वाभाविक आत्मगुणों का विकास किया और केवलज्ञान या पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया । जिस समय भगवान महावीर ने मोह कर्म का विनाश किया, उसके अनन्तर वे केवलज्ञान, केवल दर्शन और अनन्तवीर्य युक्त होकर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गए तथा वे सयोगी जिन कहलाये । ऐसा नियम है कि मयोगी जिन प्रति समय असख्यात गुणित श्रेणी से कर्म प्रदेशाग्र की निर्जरा करते हुए । धर्म रूप तीर्थ- प्रवर्तन के लिये यथोचित धर्म-क्षेत्र में महाविभूति के साथ ) विहार करते हैं ।
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
केवलज्ञान होने पर उन्हें समार के सभी पदार्थ युगपत् ( एक साथ) प्रतिभासित होने लगे और इस तरह भगवान महावीर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होकर अहिसा की पूर्ण प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए । उनके समीप जाति विरोधी जीव भी अपना वैर-विरोध छोडकर शान्त हो जाते थे। उनकी अहिसा विश्वशान्ति और वास्तविक
१. जमुई या ज भक ग्राम वज्रभूमि मे है। जो राजगिर में लगभग ३० मील और भरिया से सवासौ मील के लगभग दूरी पर स्थित है । ऋजुकूला नदी का संस्कृत नाम 'ऋष्यकूला' है। इसी जृम्भक ग्राम के दक्षिण में लगभग चार-पाच मील की दूरी पर 'केवली' नाम का एक गाव है। इस ग्राम के पास बहने वाली नदी का नाम अजन है । सभव है, उक्त केवली ग्राम भगवान महावीर के केवलज्ञान का स्थान हो । वैशाख शुक्ला दशमी के दिन वहाँ मेला भरता है, जो भगवान महावीर के केवलज्ञान की तिथि है । जयधवला मे जम्भक ग्राम के बाहर का निवर्ती प्रदेश महावीर के केवलज्ञान का स्थान बतलाया है। जैसा कि— वइमाह् जोण्हपत्रख दममीए उजुकूलगादी तीरे जभियगामिम्स वाहि छट्टोवबामेण सिलावट्टे श्रादावेतेण श्रवर हे पाद छायाए केवलरणामुपाइद ।' ( जयधव० पु० १ ० ७६ ) २. (अ) वमाह सुमी माघा रिक्वम्मि वीरगाहम्स । ऋजु लगदीतीरे अवरहे केवल रगां || तिलो० प० (प्रा) ऋजुकूलायास्तीरे गालद्र ुमसश्रिने शिलापट्टे ।
अपरा पष्ठेनारिथतस्य खलु जू भिका ग्रामे ॥ वैशाखमिनदशम्या हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते चन्द्रे ॥ नि० भ० (द) उजुकूल रणदीतीरे जभियगामे वह मिलावट्टे ।
गादात्रेने वरण्हे पाद छायाए ॥
माह जोहपक्वे दममीए खवगमेढिमारुढो ।
हंत घाइकम्मं केवलग्गाण समावण्णो ॥ ( जय घ० पृ० १ पृ० ८० )
(ई) हरिवशपुराण २।५७-५६ ।
( उ ) उत्तर पुराण पर्व ७४ श्लोक ३४८ से ३५२
३ तो अतर केवलगाण-दमण वीरियजुतो जिणो केवली सव्वण्हू सव्वदरिसी भवदि सजोगिजिरणो त्ति भइ । श्रसंखेज्ज गुरगए सेढीए पदेसग्ग गिज्जरे मारगो विहरदित्ति ।
प्रकट है:
कमाय पा० चुणि सुत्त १५७१, १५७२ पृ० ८६६
भगवान महावीर की सर्वज्ञता और सर्वदशित्व की चर्चा उस समय लोक में विश्रुत थी। यह बात बौद्ध त्रिपिटकों से
देखो, मज्झिमनिकाय के चूल दुक्ख बखन्ध सुत्तन्त पृ० ५६ तथा म० नि० के चूल सकुलु दायी सुत्तन्त पृ० ३१८ ४. महिमा प्रतिष्ठाया तत्सन्निधो वैरत्यागः ।
- पातंजलि योगसूत्रम् ३५
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलज्ञान
कम
स्वतंत्रता की प्रतीक है। इसीलिये प्राचार्य समन्तभद्र ने उसे परम ब्रह्म कहा है।।
केवलज्ञान होने पर इन्द्रादिकदेव उनके केवलज्ञान का कल्याणक मनाने के लिये आये और उन्होने भगवान महावीर के केवलज्ञान कल्याणक की पूजा को । परन्तु उस समय उनकी दिव्यध्वनि नही खिरो-उनका धर्मोपदेश नहीं हुआ।
धर्मोपदेश न होने का कारण-क्षायोपमिक ज्ञान के नष्ट हो जाने पर अनन्त रूप कवलज्ञान के उत्पन्न होने पर नी प्रकार के पदार्था से गभित दिव्यध्वनि सूत्रार्थ का प्रतिपादन करती है। किन्तु भगवान महावीर
केवलज्ञान होने के पश्चात् ६६ दिन तक गणधर क अभाव में धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन नही हया। उनकी वाणी नही खिरी।
" सौधर्म इन्द्र ने गणधर को तत्काल उपस्थित क्यो नही किया? टम प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि काल लधि के बिना सौधर्म इन्द्र गणधर को कैसे उपस्थित कर मकता था। उस समय उममे गणधर को उपस्थित करने की सामर्थ नही थी, क्याकि जिसने जिनके पादमूल में महाव्रत स्वीकार किया है ऐसे व्यक्ति को छोडकर अन्य के निमित्त से दिव्यध्वनि नही खिरती। ऐमा उसका स्वभाव है ।
सौधर्म इन्द्र को जब यह ज्ञात हुआ कि गणधर के अभाव मे धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन नही हसा, तब उसने उपयुक्त पात्र के अन्वेषण करने का प्रयत्न किया। उसका ध्यान इन्द्रभूति की ओर गया और वह तत्काल वद्ध ब्राह्मण का वेष बनाकर इन्द्रभूति के पास पहुँचा । अभिवादन के पश्चात् बोला-विद्वन् | मेरे गुरु ने मुझे एक गाथा सिग्वाई थी. उस गाथा का अर्थ मेरी समझ में अच्छी तरह से नही पा रहा है। मेरे गुरु इम समय मौन धारण किये जाने प्रत कृपाकर आप ही इसका अर्थ समझा दीजिये। उत्तर मे इन्द्रभूति ने कहा-मै तुम्हे गाथा का अर्थ इस शर्त पर समझा सकता है कि उस गाथा का अर्थ समझ जाने पर तुम मेरे शिष्य बन जाओगे। देवराज ने इन्द्रभति की शर्त सहर्ष स्वीकार कर ली और उसने इन्द्रभति के सामने गाथा पढी।
पंचेव प्रस्थिकाया छज्जीवणिकाया महव्वया पंच । प्रट्ठय पवयणमादा सहेउमो बंध-मोक्खो य॥
-धवला. पु० ६ पृ० १२६ १. अहिसा भूताना जगति विदित ब्रह्मपरम ।
न सा तत्रारम्भोऽम्त्यणरपि च यत्राथमविधी। ततम्तत्मिद्धयर्थ परम करणो ग्रथमुभयं, भवानेवाऽत्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरत.।
-वृहत्स्वयभूस्तोत्र २. श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे ऐसी मान्यता है कि जू भक ग्राम की ऋजुकूला नदी के किनारे जब भगवान महावीर को अदालनात मा. तब देवता गणो ने आकर उनकी पूजा की। ज्ञान की महिमा की। देवताओं ने ममवसरण की रचना की, किन्त प्रथम देशना का परिणाम विरति-ग्रहग की दृष्टि मे शून्य रहा । प्रथम ममत्रमरण में भगवान महावीर की वाणी नही विगे। इसलिए उम दिन धर्मतीर्थ का प्रवर्तन न हो सका। आवश्यक नियुक्ति गाथा २३८ के अनुमार केवलज्ञान उत्पन्न होने पर महावीर रात्रि में ही मध्यमा के महामेन वन नामक उद्यान में चले गए। टीकाकार मलयगिरि के अनुसार ऋजुकला मे १२ योजन दूर मध्यमा नगरी के महामेन वन मे आये और वहाँ मोमिल ब्राह्मण के यज्ञ मे आये हुए ११ उपाध्यायो को उनके शिष्यो के साथ दीक्षित किया। वे महावीर के ११ गणधर हुए।
३. केवलणाणे समुप्पण्णे वि तत्थ तित्यागुप्पत्ती दो। दिव्वमुणीए किमट्ठ तत्थापउत्ती? 'गणिदाभावादो।
मोहम्मिदेण तवरणे चेव गणिदो किण्ण होइदो' काललद्धीए विरणा असहायम्स देविदम्स तड्ढोयणसत्तीए प्रभावादो। सगपादमूलम्मि पडिवण्णमहन्वय मोत्तूण अण्णमुद्दिसिय दिब्वभूणी किण्ण पयदे साहावियादो। रग च सहावो परपज्जणियोगारुहो, प्रववत्थावत्तीदो।
-धवला. पु० थपृ० १२१
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २
इन्द्रभूति गाथा को सुनते तथा पढ़ते ही असमंजस में पड़ गया। उसकी समझ में नहीं पाया कि पांच अस्तिकाय, पट जीवनिकाय और अष्ट प्रवचन मात्राएं कौन-सी हैं ? 'छज्जीवणिकाया' पद से वह और भी विस्मित हा, जीवों के छह निकाय कौन से है ? क्योंकि जीव के अस्तित्व के सम्बन्ध में उसका मन पहले से ही गंकाशील बना हा था। इन्द्रभूति ने अपने विचार प्रवाह को रोकते हुए उस आगन्तुक से कहा-'तुम मुझे अपने गुरु के पास ले चलो, उनके सामने ही मै इस गाथा का अर्थ समझाऊँगा। इन्द्र अपने अभीप्ट अर्थ को सिद्ध होता देख बड़ा प्रसन्न हुआ और वह इन्द्रभूति को उसके भाइयों और उनके पाँच-पाँच सौ शिष्यों को साथ लेकर महावीर के समवसरण में पहुंचा।
वीर-शासन
छयासठ दिन तक मौन मे विहार करते हुए वर्द्धमान जिनेन्द्र गजगृह के प्रसिद्ध भूधर विपुलगिरि पर पधारे । जिस तरह मूर्य उदयाचल पर प्रारूढ़ होता है, उसी प्रकार वर्द्धमान जिनेन्द्र भव्य लोगों को प्रबुद्ध करने के लिए विपूल लक्ष्मी के धारक विपुलाचल पर आरूढ हुए' । वर्द्धमान जिनेन्द्र के आगमन का वत्तान्त अवगत कर मूर-अमूरादि मपरिकर पधारे और उन्होंने एक योजन विस्तार वाले समवसरण की रचना की, जो कोटों द्वारों. गोपूर्ण, अष्टमंगल द्रव्यों, ध्वजाओं, मानस्तम्भों. स्तूपों, महावनों, वापिकाओं, कमल समूहों और लता गहों से अलंकत था और जिसमें बारह प्रकोप्ठ या विभाग बने हुए थे। समवसरण की देवोपूनोत रचना अत्यन्त सम्मोहक और प्रभावक थी। उमकी महिमा अद्भुत थी। समवसरण की यह खास विशेषता थी कि उस समवसरण सभा में देव विद्याधर, मनुष्य और तिर्यचादि पशु सभी जीव अपने-अपने विभाग में शान्तभाव में बैठे हुए थे और भगवान महावीर' उसमें आठ प्रातिहार्यो और चौतीम अतिशयों में संयुक्त विराजमान थे । उनकी निविकार प्रशान्त मुद्रा प्राकतिक आदर्शरूप की जनक थी। वे अहिमा की पूर्ण प्रतिष्ठा को पाकर परमब्रह्म परमात्मा बन गए थे। अतः उनकी अहिंसा को पूर्ण प्रतिष्ठा के प्रभाव मे जाति-विरोधी जीवों का परम्पर में कपायरूप विष धुल गया था। उनकी मोह-क्षोभ रहित वीतराग मुद्रा अत्यन्त प्रभावक थी। इसी से विरोधी जीवो पर उमका अमित प्रभाव अकित था। जनता ने जाति विरोधी जीवों का विपूलगिरि पर एकत्र मिलाप देखा, उसमें देव और मनुष्यों के अतिरिक्त सिंह-हिरण, सर्प-नकूल, और चूहा-बिल्ली आदि विरोधी जीव भी शान्तभाव मे बैठे थे। उन्हें देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा । वे बार-बार कहने लगे कि यह सब उस क्षीणमोही विगतकल्मप, योगीन्द्र महावीर का ही प्रभाव है। जैसा कि सस्कृत के निम्न प्राचीन पद्य से स्पष्ट है :--
सारंगी सिंहशाबं स्पशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं। मार्जारी हंसबालं प्रणयपरवशाकेकिकान्ता भजंगीम। वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जन्तवोऽन्ये त्यजन्ति,
धित्वा साम्यंकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ।। १. षष्टि दिवमान भूपो मौनेन विहग्न विभुः ।।
अाजगाम जगत्ल्यात जिनो गजगह पुरम् ।। ६१ प्रारोह र्गािर तत्र विपुल विपुलश्रियम् ।
प्रबोधार्थ म लोकाना भानुमानुदय यथा ।। ६२ ॥ हरिवंश पु० २ । ६१, ६२ २. प्रातिहार्ययुतोऽप्टाभिश्चनुत्रिगन्महाद्भुत ।
तत्र देववृ तोऽभामोज्जिनश्चन्द्र इव ग्रहैः ॥ हरिवंश पुराण २ । १६७
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीर शासन
समवसरण की महत्ता और प्रभुता को देखकर ऐसा कौन व्यक्ति होगा, जो प्रभावित हए बिना न रहता। उनका छत्रत्रय तीन लोक की प्रभुता को व्यक्त कर रहा था। सौधर्म और ईशान इन्द्र चमर ढोल रहे थे, और
द्र जय-जय शब्दों का उच्चारण कर रहे थे। फिर भी भगवान वर्द्धमान उस विभूति से चार अंगुल ऊपर अन्त रिक्ष में विराजमान थे। वे उस विभूति से अत्यन्त निस्पृह दिखाई दे रहे थे। उनकी यह निस्पृहत्ता प्रात्म-बोध और वैराग्य की जनक थी।
इन्द्रभूति ने भाइयों और शिष्यों के साथ समवसरण की महत्ता का अवलोकन किया। उसे अपनी विद्या का बड़ा अभिमान था। वह अपने सामने किसी दूसरे को विद्वान मानने के लिए तैयार न था। किन्तु जब वह समवसरण में प्रविष्ट हुआ, तब मानम्तम्भ देखते ही उसका सब अभिमान गल गया और मन मार्दव भावना से ओतप्रोत हो गया। मन में भगवान के प्रति आदर भाव जागृत हुआ । और आन्तरिक विशुद्धि के साथ वह समवसरण के भीतर प्रविष्ट हया। उसने दिव्यात्मा महावीर को देखते ही भक्ति से नमस्कार किया, तीन प्रदक्षिणाएं दीं, उस समय उसका अन्तःकरण विशुद्धि से भर रहा था । आन्तरिक वैराग्य भावना ने उसे प्रेरित किया, और उसने पाँच मटिठयों से अपने केगों का लोंच किया और वस्त्राभपण के त्यागपूर्वक अपने भाइयों और पाँच-पाँच सौ शिष्यों के साथ संयम धारण किया' -यथा जात दिगम्बर मुद्रा धारण को और वह गौतम गोत्री इन्द्रभूति भगवान महावीर का प्रथम गणधर बना, और अग्निभूति वायुभूति भी गणधर पद से अलवृत हुए। दीक्षा लेते ही इन्द्रभूति मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययरूप ज्ञानचतप्टय मे भूपित हा। उनका जीव-विपयक सन्देह भी दूर हो गया, और तपोबल से उन्हे अनेक ऋद्धियां (विशेप शक्तियाँ) प्राप्त हुई। वे अणिमादि सप्त ऋद्धिसम्पन्न मप्त भय रहित, पचेन्द्रियविजयी, परीपह सहिष्ण, और पट जीव निकाय के सरक्षक थे। वे प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानयोग रूप चार वेदों में अथवा साम, ऋक, यजू और अथर्व वेदादि में पारगत तथा विशुद्ध शील से सम्पन्न थे। भावथतरूप पर्याय से बुद्धि की परिपक्वता को प्राप्त इन्द्रभूति गणधर ने एक मुहर्त में बारह अंग और चौदह पूों की रचना की। जैसा कि तिलोय पण्णत्ती की निम्न गाथानों से प्रकट है :
'विमले गोदमगोत्ते जादेण इंदभूदि णामेण । चउवेदपारगेणं सिस्मेण विमुद्धमीलेण ।। भावसुदपज्जयेहि परिणदमयिणा अवाग्मंगाणं ।
चोद्दस पुव्वाण तहा एक्कमुहुनेण विरचिणा विहिदो ।। -तिलो० प० १७८-७९
इन्द्रभूति को भगवान महावीर के सान्निध्य से तथा विशुद्धि और तपोबल में ऐमी अपूर्व सामर्थ्य प्राप्त हई, जिससे उन्हें मर्वार्थसिद्धि के देवों से भी अनन्तगुणा बल प्राप्त था, जो एक मुहूर्त में बारह अगों के अर्थ और द्वादशांगरूप ग्रन्थों के स्मरण तथा पाठ करने में समर्थ थे, और अमृताम्रव आदि ऋद्धियों के बल से हस्तपुट में गिरे हुए सब पाहारों को वे अमत रूप से परिणमाने में समर्थ थे तथा महातप गुण से कल्प वृक्ष के समान, एवं अक्षीण महानस लब्धि के बल से अपने हाथों में गिरे हए आहारों की अक्षयता के उत्पादक थे अघोरतपऋद्धि के माहात्म्य से जीवों के मन, वचन और कायगत समस्त कष्टों को दूर करने वाले, सम्पूर्ण विद्यानों के द्वारा जिनके चरण सेवित थे। आकाश चारण गुण से सब जीव समूहों की रक्षा करने वाले, वचन एवं मन से समस्त पदार्थों के सम्पादन करने में समर्थथे, अणिमादि अाठ गुणों के द्वारा सब देव समूहों को जीतने वाले, और परोपदेश के बिना अक्षर अनक्षर रूप सब भाषाओं में कुशल गणधर देव ग्रन्थकर्ता है । ऐसी दिव्य शक्तियों के धारक गणधर इन्द्रभूति भगवान महावीर के प्रथम गणधर बने। और उनके दोनों भाई भी गणधर पद से अलंकृत हुए। श्वेताम्बरीय आवश्यक निर्यक्ति में भी सभी गणधरों को द्वादश अंग और चौदह पूर्वो का धारक बतलाया है, भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे, जिनका परिचय प्रागे दिया गया है।
१. प्रत्येक सहिताः सर्वे शिष्याणा पञ्चभिःशतः ।
त्यक्ताम्बरादिसम्बन्धाः संयम प्रतिपेदिरे ।। (हरिवंश पु० २०६९) २. धवला पु०६ पृ० १२८
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म वा प्राचीन इतिहास - भाग २
मगधनरेश बिम्बसार (श्रेणिक) ने वनपाल से जब यह सुना कि विपुलाचल पर भगवान महावीर का समवसरण आया है, तब उसने सिहासन से उठकर सात पैड चलकर भगवान को परोक्ष नमस्कार किया । और नगर में महावीर के दर्शन को जाने के लिए डोंड़ी पिटवाई। वह स्वयं वैभव के तथा अपनी रानी चेलना के साथ विपुलाचल के समीप आया । तब समवसरण के दृष्टिगोचर होते ही समस्त वैभव को छोड़कर रानी के साथ समवसरण में प्रविष्ट हो गया । श्रेणिक ने भगवान की वदना कर तीन प्रदक्षिणाएं दीं, ग्रौर गदगद हो भक्तिभाव से उनकी स्तुति की और स्तवन करते हुए कहा कि - 'हे नाथ ! मुझ अज्ञानी ने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के संचय में आरंभादि द्वारा घार पाप किये है। और तो क्या मुझ मिथ्यादृष्टि पापी ने मुनिराज का वध करने में बड़ा श्रानन्द माना था, उन पर मैने बहुत उपनर्ग किया था, जिससे मैंने नरक ले जाने वाले नरकायु कर्म का बन्ध किया, जां छूट नही सकता। आपकी वीतराग मुद्रा का दर्शन कर आज मेरे दोनों नेत्र सफल हो गए। अव मुझे विश्वास हो गया है कि मैं इस संसार समुद्र से पार हो जाऊंगा । हे भगवन् ! आपके दर्शन में मुझे अत्यन्त शान्ति मिली है । आपके दर्शन मे मुझे ऐसी सामर्थ्य प्राप्त हो, जो मैं इस दुस्तर भवसागर से पार हो सकूँ । इस तरह वह भगवान महावीर का स्तवन कर मनुष्यों के कोठे में बैठ गया, और उपदेशामृत का पान किया। विम्बसार भगवान के असाधारण व्यक्तित्व से प्रभावित ही नहीं हुआ; किन्तु उसने उन्हें लोक का अकारण बन्धु समझा । उसका हृदय आनन्द से छलछला रहा था । ऐसा आनन्द और शान्ति उसे अपने जीवन में कभी प्राप्त नही हुई थी। उनके दर्शन से उसके हृदय में जो विशुद्धि और प्रसन्नता बढ़ी, उसका कारण केवल वीतराग प्रभु का दर्शन है।
उसी दिन वैशाली के राजा चटक की पुत्री चन्दना ने दीक्षा ली और वह प्रायिकाओं को प्रमुख गणिनी हुई। उस समय अनेक राजाओं, राजपुत्रों तथा सामान्य जनों ने महावीर की देशना से प्रभावित होकर यथाजात मुद्रा धारण की। अनेकों ने श्रावकादि के व्रत धारण किये। राजा श्रेणिक के अक्रूर, वारिपण, अभयकुमार और मेघकुमार आदि पुत्रों ने राज वैभव का परित्याग कर दीक्षा लो और तपश्चरण द्वारा ग्रात्म-साधना की और उनकी माताओं ने तथा अन्तःपुर की स्त्रियों ने सम्यग्दर्शन, शील, दान, प्रोषध और पूजन का नियम लेकर त्रिजगद्गुरु बर्द्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार किया और व्रनादि का अनुष्ठान कर जीवन सफल बनाया ।
१८
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को प्रातःकाल सूर्योदय के समय अभिजित नक्षत्र, और रुद्र मुहूर्त में भगवान महावीर की प्रथम धर्मदेशना हुई । वह वर्ष का प्रथम मास प्रथम पक्ष और युग की यादि का प्रथम दिवस था, जिसमें भगवान महावीर के सर्वोदय तीर्थ की धारा प्रवाहित हुई । भगवान महावीर ने इस पावन तिथि में समस्त संशयी की छेदक, दुन्दुभि शब्द के समान गम्भीर और एक योजन तक विस्तृत होने वाली दिव्य ध्वनि के द्वारा शासन की परम्परा चलाने के लिए उपदेश दिया । महावीर का यह धर्मोपदेश एक योजन के भीतर दूर या समीप
१. सुता चंद्रकराजस्व कुमारी चन्दना तदा । धर्तिकाम्बरसवीता जातार्याणा पुर.सरी ॥
हरिवश पु० २- ७० २. वासम्म पढम माम मावा गामम्मि बहुलपडिवाए । अभिजीक्वतम्मि य उप्पत्ती धम्मनित्थम्स || मावबहुले पाडिवरुद्दमुहुत्ते महोदयं रविरगो । अभिजम्म पढमजोए जुगम्म आदी इमम्स पुढं ||
-तिलो० प० १-६६, ७०
३. स दिव्यध्वनिना विश्वसंशयच्छेदिना जिनः । दुन्दुभिध्वनिधीरे योजनान्तरयायिना | श्रावणम्या सिते पक्ष नक्षत्रेऽभिजिति प्रभुः । प्रतिपर्धाह्न पूर्वाहे शासनार्थं मुदाहरत् ।।
- हरिवंश पु० २।६०-६१
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीर शासन
१६
बैठे हुए देव-देवांगनाओं, मनुष्य, स्त्रियों, तिर्यचों तथा नाना देश सम्बन्धी संज्ञी जीवों की अक्षर अनक्षर रूप अठारह महा भाषा और सात सौ लघुभाषाओं में परिणत हुआ था। तालु, ओष्ठ, दन्त, और कण्ठ के हलन चलन रूप व्यापार से रहित, तथा न्यूनाधिकता से रहित मधुर, मनोहर और विशद रूप भाषा के अतिशयों से युक्त एक ही समय में भव्य जीवो को प्रानन्दकारक उपदेश हुआ । उससे समस्त जीवो का समय दूर हो गया, क्योंकि भगवान महावीर रागद्वेष और भय से रहित थे। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पवासी देवों के द्वारा तथा नारायण, बलभद्र, विद्याधर, चक्रवर्ती, मनुष्य, तिर्यच और अन्य ऋषि महर्षियो के द्वारा जिनके चरण पूजित है ऐसे भगवान महावीर अर्थागम के कर्ता हुए और गणधर इन्द्रभूति ग्रन्थ कर्ता हुए ।
महावीर ने अपनी देशना में बताया कि घृणा पाप से करनी चाहिए, पापी जीव में नही । यदि उस पर घृणा की गई तो फिर उसका उत्थान होना कठिन है। उस पर तो दयाभाव रखकर उसकी भूल सुझाकर प्रेम भाव से उसके उत्थान का प्रयत्न करना ही श्रेयस्कर है। वीरशासन में शूद्रों और स्त्रियों को अपनी योग्यतानुसार आत्मसाधन का अधिकार मिला। महावीर ने अपने सघ में सबसे पहले स्त्रियों को दीक्षित किया और चन्दना उन सब
यिका की गणिनी वनी । महावीर के शासन की महत्ता का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय के बडे-बडे राजा गण, युवराज, मंत्री, मेट, माहवार आदि सभी ने अपने-अपने वैभव का जीर्ण तृण के समान परि त्याग किया और महावीर के सघ में दीक्षित हुए तथा ऋषिगिरि पर कठोर तपश्चर्या द्वारा आत्म-साधना कर मुक्ति के पात्र बने । उनमे राजा उद्दायन आदि का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है । राजा उद्दायन की रानी प्रभावती, चेटक की पुत्री ज्येष्ठा, और राजा उदयन की माता मृगावती तथा ग्रन्य नारियाँ भी दीक्षा लेकर ग्रात्म-हित की साधिका हुई । उस समय महावीर के मघ में चौदह हजार मुनि, चन्दनादि बत्तीस हजार आर्यिकाए, एक लाख श्रावक, और तीन लाख श्राविकाएं, श्रमन्यात देव देवियाँ तथा सख्यात तियंचों की अवस्थिति थी । महावीर का यह शामन सर्वोदयतीर्थ के रूप में लोक में प्रसिद्ध हुआ । यह शासन ममार के समस्त प्राणियों को समार-समुद्र मे तारने के लिए घाट अथवा मार्ग स्वरूप है, उसका आश्रय लेकर ससार के सभी जीव श्रात्म-विकास कर सकते है । यह सबके उदय, अभ्युदय, उत्कर्ष एवं उन्नति में अथवा ग्रात्मा के पूर्ण विकास में सहायक है। यह शासनतीर्थ ससार के सभी प्राणियों की उन्नति का द्योतक है।
महावीर के इस शामनतीर्थ में एकान्त के किसी कदाग्रह को स्थान नही है। इसमें सभी एकान्त के विषय प्रवाह को पचाने की शक्ति है- क्षमता है। यह शामन स्याद्वाद के समुन्नत सिद्धान्त से अलकृत है, इसमें ममता और उदारता का रस भरा हुआ है। वस्तुतत्त्व में एकान्त की कल्पना स्व-पर के वंर का कारण है, उससे न अपना ही हित होता है और न दूसरे का ही हो सकता है। वह तो सर्वथा एकान्त के आग्रह मे अनुरक्त हुग्रा वस्तु तत्त्व से दूर रहता है ।
महावीर का यह शासन अहिसा अथवा दया से ओत-प्रोत है। उसके प्राचार-व्यवहार में दूसरों को दुःखोत्पादन की अभिलाषा रूप अमंत्री भावना का प्रवेश भी नही है । पाच इन्द्रियों के दमन के लिए इसमें सयम का विधान किया गया है, इसमें प्रेम और वात्सत्य की शिक्षा दी गई है, यह मानवता का सच्चा हामी है । अपने विपक्षियों के प्रति जिसमें रागद्वेष की तरंग नही उठती है, जो नहिष्णु तथा क्षमाशाल है ऐसा यह वीरशासन ही सर्वोदय तीर्थ है । उसी में विश्व बन्धुत्व की लोककल्याणकारी भावना अन्तर्निहित है। भगवान महावीर के सिद्धांत गम्भीर और समुदार है, वे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और मध्यस्थ की भावना से श्रोत-प्रोत है। उनसे मानव जीवन के विकास का खास सम्बन्ध है। उनके नाम है अहिसा अनेकान्त या स्याद्वाद, स्वतन्त्रता और अपरिग्रह। ये सभी सिद्धान्त बडे ही मूल्यवान है क्योंकि उनका मूल अहिसा है ।
इस तरह भगवान महावीर ने ३० वर्ष के लगभग अर्थात् २६ वर्ष ५ महीने और २० दिन के केवली जीवन में काशी, कोशल, वत्स, चपा, पाचाल, मगध, राजगृह, वैशाली, ग्रग, बंग, कलिग, ताम्रलिप्ति, सौराष्ट्र, मिथिला,
१ देखो, तिलोय पण्णत्ती १।६० से ६४ तक गाथाए ।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास- भाग २ मथुरा, नालंदा, पुण्ड्रवर्धन, कोशाम्बी, अयोध्या, पुरिमतालपुर, उज्जैनी, मल्लदेश, दशाण, केकयदेश, कोलागसन्निवेश, किरात, श्रावस्ती, कुमारगिरि, और नेपाल आदि विविध देशों और नगरों में विहार कर कल्याणकारी सन्मार्ग का उपदेश दिया। असख्य प्राणियों के अज्ञान-अन्धकार को दूर कर उन्हें यथार्थ वस्तुस्थिति का बोध कराया। आत्मविश्वास बढाया, कदाग्रह दूर किया। अन्याय अत्याचार को राका, पतिता को उठाया, हिसा का विरोध किया, उनके बहमों को दूर भगाया और उन्हे सयम की शिक्षा देकर आत्मोत्कर्ष के मार्ग पर लगाया तथा उनकी अन्धश्रद्धा को समीचीन बनाया। दया, दम, त्याग और समाधि का स्वरूप बतलाते हए यज्ञादि क्रियाकाण्डों में होने वाली भारी हिसा को विनष्ट किया-यज्ञों के वास्तविक स्वरूप और उनके रहस्य को समझाया, जिससे विलविलाट करते हुए पशु-कुल को अभयदान मिला । जन समूह को अपनी भूले ज्ञात हुई, और वे सत्पथ के अनुगामी बने ।
भगवान महावीर का निर्वाण
इस तरह विहार करते हुए भगवान महावीर पावा नगर के मनोहर उद्यान में आये और तालाब के मध्य एक महामणिमय शिलातल पर स्थित होकर दो दिन पूर्व विहार से रहित हो कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के व्यतीत होने पर स्वातियाग में तृतीय शुक्लध्यान समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाति में निग्त हो मन-वचन-कायरूप योगत्रय का निरोध कर चतुर्थ शुक्लध्यान व्युपरतत्रियानिवृत्ति में स्थित होकर अवशिष्ट अघाति कर्मचतुष्टय का विनाश कर अमावस्या के प्रातःकाल अकेले भगवान महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए' । किन्तु उत्तर पुराण में एक हजार मुनियों के साथ मुक्त होना लिखा है। १. (क) पच्छा पावागायरे कनियमामे किण्ह चोद्दमिए। मादीए रत्तीए मेमग्य छत्त निव्वाप्रो ।।
-जयध० भा० १ पृ० ८१ (ख) कत्तिय किण्हे चोद्दमि पच्चमे मादिगामगाग्वत्ते । पावाग रणयगए एक्को बीग्मगे मिद्धा ।।
(निलो० ५० ४-१००८) (ग) कनियमामकिण्हाकावचौदमदिवम च केबलणाणेग मह एत्य गमिय गिव्वदो। अमावामीण परिरिणवारण पूजा
सपलविदेहि कया। --धव० पु०६ पृ० १२५ २. (घ) कमात्यावापुर प्राय मनोहरबनान्तरं ।
बहुना मग्मा मध्ये महामग्गिशिलानले ॥५०६॥ स्थित्वा दिनद्वय वीतबिहागे वृद्धनिर्जरः। कृष्णकातिकपक्षम्य चतुर्दया निशात्यये ॥५१०॥ स्वातियोगे तृतीयद्ध शुक्लध्यानपरायणः । कृतत्रियोगमगेध ममुच्छिन्न क्रिय श्रितः ॥५११।। हत घाति चतुष्क: मन्न शरीगे गुणात्मकः । गन्ना मुनि महस्ररण निर्वाग सर्ववाञ्छितम् ।।५१२।।
-उत्तर पुराण पर्व ७६, श्लोक ५० से ५१२ पनवनदीपिकाकुल विविध द्रुमखण्डमण्डिते रम्ये । पावा नगरोद्याने व्युत्सर्गरण स्थितः स मुनिः ।।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर का निर्वाण
उसी समय गौतम इन्द्रभूति को केवलज्ञान को प्राप्ति हुई।
भगवान महावीर के निर्वाण महोत्सव के ममय चागें निकायों के देवों ने विधिवत उनके शरीर की पूजा की। उसी समय सुर और असुरों के द्वारा जलाई हुई दीपकों की पक्ति से पावानगरी का आकाश सब ओर से जगमगा उठा। लिच्छिवि गण, मल्लगणों आदि के अनेक राजाओं ने और राजा बिम्बसार (थेणिक) ने भगवान के निर्वाण कल्याणक की पूजा की। उसी समय से भगवान के निर्वाण कल्याणक की भक्ति मे युक्त, समार के प्राणि भारतवर्ष में प्रतिवर्ष आदरपूर्वक दीपमालिका द्वारा भगवान की पूजा करते हैं । उसी दिन में भारतवर्ष में दीपावलि पर्व सोत्साह मनाया जाता है । यह महोत्सव अढाई हजार वर्ष से सारे भारतवर्ष में मनाया जाता है । वीर-निर्वाण सम्वत्
भगवान महावीर का निर्वाण ईसवी सन् के ५२७ वर्ष पूर्व हुआ है और महात्मा बुद्ध का परिनिर्वाण महावीर के निर्वाण से लगभग १७ वर्ष पूर्व अर्थात् ईसवी सन् के ५४४ वर्ष पूर्व में हुआ है। सिहल आदि देशों में बुद्ध के निर्वाण का यही काल माना जाता है । वीर निर्वाण सवत् के विवाद पर प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान स्व० ५० जुगलकिशोर मुख्तार ने अनेक ग्रन्थों के प्रमाण देकर यह प्रमाणित किया कि प्रचलित विक्रम संवत् राजा विक्रम को मृत्यु का सवत् है, जो वीर निर्वाण सवत् से ४७० वर्प वाद प्रारम्भ होता है। मुनि कल्याण विजय ने अपने वीर निर्वाण संवत और जैन काल गणना' नाम के निबन्ध में भी सप्रमाण यहा विवेचन किया है।
कानिककृपाग्यान्ते स्वाता निहत्य कमरज. । अवशेष मम्प्रापद्व्यजगमरमक्षय मौग्यम् ।।
(निर्वाण भ० १६, १७) (च) कृत्वा योगनिरोधमुज्झिन्मम पाठेन तम्मिन्बने ।
व्युत्मर्गेगग निरम्य निर्मलमचिः कर्माप्यशेषागि मः ।। स्थित्वेन्द्रावपि कातिकामितचतुर्दश्या निशान्ने स्थिती । म्वाती मन्मनिगममाद भगवान्मिद्धिमिश्रियम् ।।
(वर्धमान चरित, अमगकृत प० ४८४ १. जिनेन्द्रवीरोऽपि विबोव्य मन्तत समन्ततो भव्यसमूहमन्नतिम् । प्रपद्य पावा नगगे गरीयमी मनोहरोद्यानवने नदीयके ।। चतुर्थका लेऽर्धचतुर्थमार्कविहीनताविश्चनुरब्दशेषके । म कातिके म्वानिपु कृष्णभूतमुप्रभातमन्ध्याममये म्वभावत. ॥ अघानिक गिग निकद्वयोगको विधय घानीन्धनवद्विबन्धन । विबन्धनस्थानमवाप गङ्कगे निग्नरायोरुमुग्गनुबन्धनम् ।। म पञ्चकल्याणमहामहेश्वर: प्रमिद्धनिर्वाग्ग महे चतुर्विधः । गरीरपूजाविधिना विधानतः मुर. समभ्ययंत सिद्धशामनः ।। ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया सुगमुरैः दीपितया प्रदीप्तया। तदा स्म पावानगरी ममन्ततः प्रदीपिताकाशनला प्रकाशते ।। तथैव च श्रेणिकपूर्वभूभुजः प्रकृत्य कल्याणमहं सहप्नजाः । प्रजग्मुरिन्द्राश्च सुरैयंयायथ प्रयाचमाना जिनबोधिमथिनः ।। ततस्तु लोकः प्रतिवर्षमादरात्प्रसिद्ध दीपालिकयात्र भारते । समुद्यतः पूजयितु जिनेश्वरं जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ।।
-हरिवंशपुराण ७६-१५ से २१
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
महाकवि वीर ने सं० १०७६ में समाप्त । र जंबूस्वामिचरित की निम्न गाथा में वीर निर्वाण काल और विक्रम काल के वर्षों का अन्तर ४७० वर्ष बतलाया है। यथा :
वरिसाण सय चउक्कं सत्तरि जुत्त जिणेद वीरस्स ।
णिव्वाणा उववण्णो विक्कमकालस्स उत्पत्ती ।। इसमे स्पष्ट है कि वीर निर्वाण काल से ६०५ वर्ष और ५ महीने बाद होने वाले शक राजा अथवा शक काल को विक्रम राजा या विक्रम काल कैसे कहा जा सकता है।
वीर निर्वाण सवत की प्रचलित मान्यता में दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में परस्पर कोई मतभेद नही है। दोनो ही वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शक शालिवाहन की उत्पत्ति मानते है। दूसरे विक्रम राजा शक नही, शकारि था-शत्र था। यह बात वामन शिवराम आप्टे (V. S. Apte) के प्रसिद्ध कोष में भी इसे specially applied to Salivahan जैसे शब्दो द्वारा शालिवाहन राजा तथा उसके सवत् (cra) का वाचक बतलाया है। इस कारण विक्रम राजा 'शक' नही, किन्तु शकों का शत्र था । ऐसी स्थिति में उसे शक बतलाना या 'शक' शब्द का अर्थ शक गजा न करके विक्रम राजा करना किमी भूल का परिणाम है।
भगवान महावीर के निर्वाण के बाद केलियो और श्रुतधर आचार्यों की परम्परा का उल्लेख करते हुए उनका काल ६८३ वर्ष बतलाया है। इस ६८३ वर्ष के काल मे से ७० वर्ष ७ महीने घटा देने पर ६०५ वर्ष ५ महीने का काल अगिप्ट रहता है। वही महावीर के निर्वाण दिवस मे शक काल की आदि-शक स० की प्रवत्ति तक का काल मध्यवर्ती काल है-महावीर के निर्वाण दिवस से ६०५ वर्ष ५ महीने के बाद शक सवत् का प्रारम्भ हा है और तलाया है कि छहसौ वर्ष पाच महीने के काल में शक काल को-शक सवत की वर्षादि संख्या कोजोड़ देने से महावीर के निर्वाण काल का परिमाण या जाता है :
'सब्ब काल समासो तेयासोदीए अहिय छस्सदमेतो (६८३) पुणो एत्थ सत्तमासाहिय सत्तहत्तरिवासेस (७७-७) अवणिदेसु पंचमासाहियपंचत्तरछस्सदवासाणि (६०५-५) हवंति, एसो वीरजिणिंदणिब्वाणगद दिवसादो जाव सगकालस्स प्रादि होदि तावदिय कालो। कुदो? एदम्हि काले सगणरिदकालस्स पक्खित्ते वड़ामाणजिणणिव्वुद कालागमणादो। -(धवला० पु० ६ पृ० १३१-२)
प्राचार्य वीरमेन ने धवला टीका में वीर निर्वाण सवत् को मालूम करने की विधि बतलाते हुए प्रमाण रूप से जो प्राचीन गाथा उद्धत की है वह इस प्रकार है :
पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति वाससया।
सगकालेण य सहिया थावेयव्वो तदो रासी॥ इस गाथा मे बतलाया है कि गक काल की मख्या के साथ यदि ६०५ वर्ष ५ महीने जोड़ दिये जावे तो वीर जिनेन्द्र के निर्वाणकाल की मंग्या आ जाती है। इस गाथा का पूर्वार्ध, वीर निर्वाण से शक काल (संवत्) की उत्पत्ति के समय को सूचित करता है। श्वेताम्बरो के तित्थोगाली पइन्नय की निम्न गाथा का पूर्वाध भी, वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महीन वाद शक गजा का उत्पन्न होना बतलाता है।
पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति वाससया।
परिणिन्वुप्रस्सऽरहितो उप्पन्नो सगो राया ।। ६२३ इस गाथा में भी ६०५ वर्प ५ महीने बाद शक राजा का उत्पन्न होना लिखा है। इससे दोनो सम्प्रदायों में निर्वाण समय की एकरूपता पाई जाती है। इसका समर्थन विचार श्रेणि मे उद्धन श्लोक से भी होता है :
श्रीवीरनिवृतेर्वषः षड्भिः पंचोत्तरः शतैः ।
शाकसवत्सरस्येषा प्रवत्तिभरते ऽभवत ॥ ऊपर के इस कथन से स्पष्ट है कि प्रचलित वीर निर्वाण सवत ठीक है। उसमें कोई गलती नहीं है। और वि० स० ४७० विक्रमादित्य की मृत्यु का सवत् है। मुनि कल्याण विजय आदि ने भी प्रचलित वीर निर्वाण संवत् को ही ठीक माना है।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर के ग्यारह गणधर
इन्द्रभूति आदि भगवान महावार के ग्यारह गणधर हुये। ये सभी गणधर तप्त दीप्त आदि तप ऋद्धि धारक तथा चार प्रकार को बुद्धि ऋद्धि, वि क्रया ऋद्धि, अक्षाण ऋद्धि, मोपधि ऋद्धि, रस ऋद्धि प्रोर बल ऋद्धि से सम्पन्न थे। उनका नाम पोर परिचय यथाक्रम नीचे दिया जाता है :
प्राप्तसप्तद्धिसम्पद्धिः समस्तश्रुतपारगः । गणेन्द्ररिन्द्रभूत्याद्यरेकादशभिरान्वितः ॥४० इन्द्रभूतिरिति प्रोक्तः प्रथमो गणधारिणाम् । अग्निभूतिद्वितीयश्च वायुभूतिस्तृतीयकः ॥४१॥ शुचिदत्तस्तुरीयस्तु सुधर्मः पञ्चमस्ततः । षष्ठो माण्डव्य इत्युक्तो मौर्यपुत्रस्तु सत्तमः ॥४२।। अष्टमोऽकम्पनाल्यातिरचलो नवमो मतः । मेदार्यो दशमोऽन्त्यस्तु प्रभासः सर्वएव ते ॥४३॥ तप्तदीनादितपसः सुचतुर्बुद्धि विक्रियाः। प्रक्षीणौषधिलब्धीशाः सद्रसद्धिबलद्धयः ।।४।।
-हरिवंश पुराण ३।४०-४४ इन ग्यारह गणधरों की मब मिलाकर गण संख्या (शिय संख्या) चोदह हज़ार थी। इन चोदह हजार शिप्यों में से तीन सौ पूर्व के धारी, नौ सी विक्रिया ऋद्धि के धारक, तेरहमी अवधिज्ञानी, मातसौ केवलज्ञानी, पांचसौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञान के धारक, चार मो परवादियों को जीतने वाले वादी, और नो हजार नौ सौ शिक्षक थे। ये सब साधु यात्म-शोधन तथा ध्यान में संलग्न रहते थे और कर्मशृङ्खला को तोड़ने वाली प्रान्म-सामर्थ्य को बढ़ा रहे थे। वीर शासन के सिद्धान्तों को जीवन में उतार रहे थे। उनमें कुछ आत्म-शुद्धि के लक्ष्य को प्राप्त करने का उपक्रम कर रहे थे। इन विद्वान् ओर मुमुक्षु गिप्यों में महावीर का शासन चमक रहा था। गण के नायक गणधरों का सक्षिप्त परिचय नीचे दिया जाता है :
इन्द्रभूति-के पिता का नाम वसुभूति था, जो अर्थसम्पन्न विद्वान और अपने गांव का मुखिया था और गोवर ग्राम का निवासी था। इनको जाति ब्राह्मण और गोत्र गौतम था । वमुभूति की दो स्त्रियाँ थी। पृथ्वी प्रोर केशरी। इनमें इन्द्रभूति को माता का नाम पृथ्वी देवी था। इन्द्रभूति का जन्म ईस्वी पूर्व ६०७ में हुआ था। यह व्याकरण, काव्य, कोप, छन्द, अलकार, ज्योतिष, सामुद्रिक, वैद्यक अोर वेद वेदांगादि चोदह विद्याओं में पारंगत था।' गौतम इन्द्रभूति की विद्वत्ता की धाक लोक में प्रसिद्ध थी। इसके ५०० शिष्य थे, जो अनेक विद्यानों में पारंगत थे । गौतम को अपनी विद्या का बड़ा अभिमान था। अपने से भिन्न दूसरे विद्वानों को वह हेय समझता था।
सौधर्म इन्द्र की प्रेरणा से इन्द्रभूति अपने भाइयों और अपने तथा उनके पाँच-पाँच सौ शिष्यों के साथ विपुलाचल पर महावीर के समवसरण में प्राया। समवसरण में प्रविष्ट होते हो उसने समवसरण के वैभव
१. देखो, हरिवंश पुराण, सर्ग ३ श्लोक में ४५ से ४६ पृ० २७
(भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित) २. विमले गोदमगोत्ते जादेणं इंदभूदिणामेणं । चउवेदपारगेणं सिस्सेण विसुद्धसीलेण ॥
-तिलो०प०१-७८
२३
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
के साथ मानस्तम्भको देखा। उसके देखते ही उसका मान गलित हो गया। उसने वर्द्धमान विशुद्धि से संयुक्त भगवान महावीर का-असंख्यात भवों में अजित महान कर्मों को नष्ट करने वाले जिनदेव का-दर्शन कर तीन प्रदक्षिणायें दी, और पाँच अंगों द्वारा भूमिस्पर्शपूर्वक वन्दना करके हृदय में जिन भगवान का ध्यान किया। इन्द्रभूति का विद्या सम्बन्धी सब अभिमान चला गया, और अन्तःमानस अत्यन्त निर्मल हो गया। हृदय में विनय और विशुद्धि का उद्रेक बढ़ा, और वैराग्य की तरङ्गों ने उन्हें झकझोर डाला। इन्द्रभूति ने तत्काल वस्त्रादि ग्रंथों का परित्याग किया और पंच मुष्टि से केशों का लोच किया और दिगम्बर दीक्षा धारण की। उस समय उन की अवस्था पचास वर्ष के लगभग थी उन्होंने पच महाव्रतों का अनुष्ठान किया, पांच समितियों का प्राचरण किया, और रागद्वेप रहित हो तीन गुप्तियों से सम्पन्न, निःशल्य, चार कपायों से रहित, पंचेन्द्रियों के विषयों से विरक्त. तथा मन-वचन-काय रूप त्रिदण्डों को भग्न करने वाले, पट निकाय जीवों के संरक्षक, सप्तभय रहित, अष्टम वजित, दीप्त, तप्त और अणिमादि वैक्रियिक लब्धियों से सम्पन्न, पाणिपात्र में दी गई खीर को अमतरूप से परिवर्तित करने और उसे अक्षय बनाने में समर्थ, क्षधादि वाईस परिपहों के विजेता, जिन्हें प्राहार और स्थान के विषय में अक्षीण ऋद्धि प्राप्त थी तपोबल से विपुलमति मनःपर्ययज्ञान के धारक और सर्वावधि अवधिज्ञान से अगेप पुदगल द्रव्य का साक्षात् करने वाले ऋद्धि सम्पन्न प्रमुख गणधर पद से अलंकृत हए।
यह घटना ग्रापाढी पूणिमा के दिन घटित हुई, इसी से उम गुरु पूमिमा' कहते हैं। उसके पश्चात श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन ब्राह्म मुहूर्त में भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि खिरी और गौतम गणधर ने उसे दादा रूप से निबद्ध किया।
केवलज्ञान मे विभूपित भगवान महावीर द्वारा कहे गये अर्थ को, उसी काल में और उसी क्षेत्र में पशमविशेष में उत्पन्न हए चार प्रकार के निर्मल ज्ञान में युक्त, वर्ण में ब्राह्मण, गौतम गोत्री, सम्पूर्ण दःथतियों में पारंगत. जीव-अजीव विपयक सन्देह को दूर करने के लिये श्री वर्द्धमान के पाद मूल में उपस्थित इन्द्रति ने धारण किया। अनन्तर भावतरूप पर्याय मे परिणत उस इन्द्रभूति ने वर्द्धमान जिन के तीर्थ में श्रावणमास के कृष्ण पक्ष में, युग के ग्रादि में, प्रतिपदा के पूर्व दिन में द्वादशांग थुत की रचना एक मुहूर्त में की। अतः भावथत
१. मानम्नभ तमालोक्य मान नत्याज गौतमः ।
निज प्रशांभया यन बिम्मित भूवनत्रयम् ॥ --गौतम चरित्र ४-६६ २. ततो जनेश्वरी दीक्षा भ्रातृभ्या जग्रेह मह । शिष्यः पचगतः मार्द्ध ब्राह्मणकुलमभवः ।।
-गौतम च०४-१०१ ३. महावीर भामियत्यो तम्मि बनम्मि तत्थ काले य ।
खायोत्रमविढिदचउरमलमहि पुष्पोण ।। लोपालोयाण तहा जीवाजीवाण विविविमामु । मन्देहग्गामात्य उबगदमिग्बिीरचलण मुलगा विमले गोदमगोने जादेण इन्दभूदिग्गामेण । च उवेदपारगेण भिम्मंग विमुद्धमीलंग ॥ भावमृदपज्जयहि परिगणदमडग्गा अ वाग्मगाण । चोद्दमपुब्बाग नहा एक्कमुहलेण विरचणा विहिदो ।।
-तिलो० ५० १७६-७६ 'पुगो तेरिणदभूदिग्गा भावमुद-पज्जय-परिणदेग वारहगाण चोदस-व्वाणं च ग्रन्थारण मेक्केण चेव मुहत्तेण कमेणग्यणा कदा। तदो भावमुदम्म मत्थपदाण च नित्थयगे कत्ता । तित्थयगदो सुद-पज्जागरण गोदमो परिणदो त्ति दव्व-सुदरस गोदमो कत्ता ।
-धवला० पु०१पृ० ६४-६५
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर के ग्यारह गणधर
२५
और अर्थपदों के कर्ता तीर्थकर हैं। तीर्थकर के निमित्त से गौतम गणधर श्रत पदार्थ में परिणत हए। अतएव द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम गणधर हैं । इन्द्रभूति ने दोनों प्रकार का श्र तज्ञान लोहाचार्य (मुधर्म स्वामी ) को दिया।
__ जिस दिन (कार्तिक कृष्णा अमावस्या के प्रातःकाल) भगवान महावीर का निर्वाण हुआ, उसी दिन गौतम इन्द्रभूति को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। उन्होंने केवली पर्याय में बारह वर्ष पर्यन्त विविध देशो में विहार कर धर्मोपदेश के द्वारा भव्य जीवों का कल्याण किया-बीर शासन का लोक में प्रचार किया। और ईस्वी पूर्व ५१५ में राजगृह के विपुलगिरि से निर्वाण प्राप्त किया।
अग्निभूति-(द्वितीय गणधर)
यह इन्द्रभूति गौतम का मंझला भाई था। पिता का नाम वमुभूति और माता का नाम पृथ्वीदेवी था। वह भी अपने ज्येष्ठ भ्राता इन्द्रभूति के समान ही व्याकरण, छन्द, ज्योतिप, अलकार, दर्शन और वेद वेदांग आदि चौदह विद्यानों में कुशल था। वह ४७ वर्ष की वय में अपने पाँच मो गिप्यों के साथ भगवान महावीर के समवसरण में दीक्षित हया था और बारह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में त्रयादश प्रकार के चारित्र का अनुष्ठान करते हए अपने गण का पालन किया । पश्चात घाति कर्म का नाग कर केवलज्ञान प्राप्त किया ओर १६ वर्ष केवलो पर्याय में रह कर महावीर के जीवन काल में ही लगभग ७४ वर्ष की अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया। वायुभूति-(तृतीय गणधर)
यह इन्द्रभूति गौतम का छोटा भाई था । इसकी माता का नाम केशरी और पिता का नाम वही वसुभूति था। यह वेद वेदांगादि चतर्दश विद्याओं का पारगामी विद्वान था और व्याकरण छन्दादि समस्त विपयों में निष्णात था। वायुभूति के भी ५०० शिप्य थे। यह भी अपने दोनों भाइयों, उनके शिष्यों तथा अपने शिष्यों के साथ विपुलगिरि पर महावीर के समवसरण में दीक्षित हुया ओर उनका नोसग गणधर बना। उस समय इन की अवस्था ४२ वर्प के लगभग थी। इन्होंने १० वर्ष का जीवन प्रात्म-माधना में व्यतीत किया। पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त कर १८ वर्ष तक केवली जोवन में विहार करते रहे और भगवान महावीर के निर्वाण में दो वर्ष पूर्व हो ७० वर्ष की अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया।
प्रार्य व्यक्त या शुचिदत्त-(चतुर्थ गणधर)
भगवान महावीर के चौथे गणधर का नाम प्रार्य व्यक्त या चिदत्त था। यह मगध देशस्थ सवाहन नामक नगर के राजा थे, इनका नाम सुप्रतिप्ठ था, इनको पटरानी का नाम रुक्मणि था, इनमे मुधर्म नाम का एक पुत्र हुआ था, जो कुशाग्र बुद्धि था, विद्यानों के परिज्ञान में थप्ठ, समस्त शास्त्रों का ज्ञाता और कलाओं का धारक था । सज्जनों के मन को आनन्ददायक और शत्रुपक्ष के कुमारों को भय उत्पन्न करने वाला था। एक दिन वह विशुद्धमति सुप्रतिप्ठ गजा अपनी पत्नी और पुत्र के माथ भव-समुद्र-सतारक भगवान महावीर के समवसरण में गया और उनकी दिव्य-ध्वनि सुन कर सांसारिक देह-भागों में विरक्त हो दिगम्बर मुनि हो गया और भगवान महावीर का चतुर्थ गणधर हुआ और तपश्चरण का अनुष्ठान कर केवलज्ञान प्राप्त कर १. गत्वा विपुलशब्दादिगिगै प्राप्म्यामि निवृतिम् ।
-उत्तर पु० ७६-५१७ २. अह एत्थ जि वर मगहाविमाए, मुर रमरिग माम वामिय दिमा। जिनमदिरमडियधरणियले, इन्दीवर-रप-कय मुर्गह जले । सवाहणु नामु अत्थि नयर, नायरविलामहामियग्वयरु ।।
+
+ सो जाउ पुत्तु जण जाणिय हे, नरनाहें रुप्पिणी राणियहे । सउहम्म नामु विज्जा पवरु नीसेससत्थ विण्णाण घर ।
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
महावीर के जीवन काल में ही मुक्ति को प्राप्त हुआ।
श्वेताम्बर परम्परानुसार आर्य व्यक्त कोल्लाग सन्निवेश के भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम वारुणी और पिता का नाम धनमित्र था। इनके मन में यह सन्देह था कि 'ब्रह्म के अतिरिक्त सारा संसार मिथ्या है। भगवान महावीर के समवसरण में उनकी दिव्य वाणी से समाधान पाकर अपने पाँच सो शिष्यों के साथ पचास वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की। बारह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में आत्म-साधना कर केवलज्ञान प्राप्त किया। १८ वर्ष तक केवली रहकर महावीर के जीवन काल में अस्सी वर्ष की अवस्था में मुक्ति पथ के पथिक बनेकर्म बन्धन से मुक्त हुए। सुधर्मस्वामी-(पंचम गणधर)
सूधर्म स्वामी मगधदेशस्थ संवाहन नगर के राजा सूप्रतिष्ठ और रानी रुक्मणि का पूत्र था। वह कुशाग्र बुद्धि, विद्याओं के परिज्ञान में ज्येप्ठ, समस्त शास्त्रों का ज्ञाता और कलाओं का धारक था और सज्जनों के मन को आनन्द देने वाला एवं शत्रु पक्ष के राजकुमारों को भय उत्पन्न करने वाला था। एक दिन राजा सूप्रतिष्ठ सपरिवार भव-समुद्र-मतारक भगवान महावीर के समवसरण में गया, और उनकी दिव्य ध्वनि सुनकर देहभोगों से विरक्त हो दिगम्बर मूनि हो गया और भगवान का चतुर्थ गणधर हआ।
कुमार ने जब देखा कि पिता ने राज्य विभूति का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रा धारण कर ली, तब सुधर्म ने भी अपने जनक की राज्य मम्पदा का परित्याग कर शाश्वत सुख की साधक दीक्षा अंगीकार की और वह महावीर का पंचम गणधर बना और तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना में तत्पर हुआ। एक दिन वह मुनि संघ के साथ विहार करता हुआ राजगृह के एक उद्यान में पहुंचा। वहाँ जम्बूस्वामी ने उन्हें देख कर नमस्कार किया और फिर उन्ही की ओर देखने लगा। उसके मन में उनके प्रति अनुराग हुआ। जम्बू कुमार ने सुधर्म स्वामी मे उसका कारण पूछा, तब उन्होंने बतलाया कि 'मैं वही भवदत्त का जीव हूँ, जो राजा वज्रदन्त का सागरचन्द्र नाम का पूत्र था, और मुनि होकर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुआ था और तुम भवदेव के जीव हो, जो महापद्म राजा के शिवकमार नाम के पुत्र थे ओर पिता के मोह से दीक्षा न लेकर घर में ही पाणिपात्र में प्राशक आहार लिया करते थे। वहाँ से जलकान्त विमान में विद्युन्माली नामक देव हुआ, जो चार देवियों से युक्त था। अब वहाँ से अर्हदास वणिक का पूत्र हा है। यही परस्पर के स्नेह का कारण है।
गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ने एक मुहूर्त में द्वादशांग का अवधारण कर बारह अंग रूप ग्रन्थों की रचना की और अपने गुणों के समान सुधर्माचार्य को उसका व्याख्यान किया।
मुधर्म स्वामी का अपर नाम लोहाचार्य भी था । धवला टीका में सुधर्म के स्थान पर लोहाचार्य का उल्लेख किया गया है।
सज्जग मग नयगाणंदयउ, लाइय पडिबक्व कुमार हरु । एकहि दिणे मुप्पइट्ठ निवइ, मकलनु मनदगु सुद्धमइ । गउ वदण भत्तिए भवतरण, मिग्विीरजिणंद ममोमरण । रिणमुरणे वि पग्मेट्ठिहि दिव्व झुरिग, पवज्ज लेविहुउ परम मुरिण । गणहर चउत्थु तव-वियतणु, मिद्धवहु निमेमिय विमलमणु ॥
-जंबू सामिचरिउ पृ० १५०-१५१ १. प्राचार्य रविपेग ने पद्मचरित के ४१ वे पद्य में 'सुधर्म धारिणी भवम्' द्वारा उन्हें धारिणी का पुत्र प्रकट
किया है।
२. तेण गोदमेण दुवि हमवि सुदणाणं लोहज्जस्स संचारिदं ।
-धवला० पु०१पृ० ६५
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर के ग्यारह गणधर
मुनि पद्मनन्दि ने भी जम्बूदीपपण्णत्ती में सुधर्म का नाम स्पष्ट रूप से लोहाचार्य बतलाया है, जैसा कि उसकी निम्न गाथा से स्पष्ट है:
तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण । गणधर सुधम्मणा खलु जम्बूणामस्स णिद्दिट्ठो॥
(जबू०प०१-१०) इससे सुधर्म का नाम लोहाचार्य निश्चित है। जब ईम्बी पूर्व ५१५ में इन्द्रभूति गौतम का निर्वाण हुआ, उसी दिन सूधर्म स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। मुधर्म स्वामी ने ३० वर्ष गणधर अवस्था में रहकर अपने मात्मा का विकास किया और संघ मचालन किया, तथा जैन धर्म के प्रचार एव प्रसार में सहयोग प्रदान किया। मधर्म स्वामी ने ३० वर्ष के मुनि जीवन में जो कार्य किया है, सहस्रो को जैनधर्म में दीक्षित किया, उसका यद्यपि कोई विवरण उपलब्ध नही है। किन्तु उनके मुनि जीवन को एक घटना का उल्लेख निम्न प्रकार उपलब्ध होता है।
एक समय मुधर्माचार्य समघ विहार करते हुए उड़ देश के धर्मपूर नगर में पाये और उपवन में ठहरे। वहाँ के राजा का नाम 'यम' था। उसकी अनेक रानियाँ थी। उनमें धनवती नाम की रानी मे गर्दभ नाम का पूत्र और कोणिका नाम की पुत्री उत्पन्न हई थी। अन्य गनियों में पाच मो पूत्र उत्पन्न हए थे। ये पाँच मो पूत्र परस्पर में प्रेमी, धर्मात्मा और ससार से उदासीन रहते थे। राजमत्री का नाम दीर्घ था, जो बहुत बुद्धिमान और राजनीतिज्ञ था।
सुधर्माचार्य का प्रागमन जानकर, तथा नगर-निवामियों को पूजा की सामग्री लेकर उनकी पूजा-वन्दना को जाते देखकर राजा भी अपने पाण्डित्य के अभिमान में मुनियो की निन्दा करते हुए उनके पास गया। मुनि-निन्दा और ज्ञान के अभिमान मे उसके ऐसे तीव्र कर्म का उदय पाया कि उसकी सब बुद्धि नष्ट हो गई। उसे अपनी यह दशा देखकर बड़ा आश्चर्य और खेद हुमा । उसने उनकी तीन प्रदक्षिणा दी और नमस्कार कर उनसे धर्मोपदेश मना। उससे उसे बहत कुछ शान्ति मिली। उसने अपने पाच मौ पुत्री के साथ गर्दभ को राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली और तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना करने लगा। उनके पुत्र भी प्रात्म-साधना में सलग्न होकर कठोर तप का आचरण करने लगे।
___ इस तरह सुधर्माचार्य ने सहस्रों को दीक्षा दी, उन्हे सन्मार्ग में लगाया, और महावीर-शासन का प्रचार किया।
अन्त में सुधर्मस्वामी ने अपना सब संघभार जम्बस्वामी को सौंप दिया और घातिकर्मों का विनाश कर केवली (पर्णज्ञानी) बने । उन्होंने बारह वर्ष पर्यन्त विविध देशों में विहार कर जनता का कल्याण किया-महावीर के सर्वोदय तीर्थ का प्रचार किया। अन्त में ईस्वी पूर्व ५०३ में सौ वर्ष की अवस्था में विपूलाचल से निर्वाण प्राप्त किया।
श्वेताम्बर परम्परानुसार पांचवे गणधर सुधर्म का परिचय निम्न प्रकार है :
पचम गणधर सधर्मा 'कोल्लाग' सन्निवेश के अग्नि वैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम भहिला और पिता का नाम धम्मिल था। इन्होंने भी जन्मान्तर विषयक अपने सन्देह को मिटाकर भगवान महावीर के चरणों में पांच सौ छात्रों के साथ दीक्षा ग्रहण की। ये भगवान महावीर के उत्तराधिकारी हए, और महावीर निर्वाण के बीस वर्ष बाद तक संघ की सेवा करते रहे । अन्य सभी गणधरों ने इन्हे दीर्घ जीवी समझ कर अपने-अपने गण सम्हलवाए। इनकी प्रायु सौ वर्ष के लगभग थी। ५० वर्ष की वय में दीक्षा ली और ४२ वर्ष छद्मस्थ पर्याय में
१- मन्निव तिदिने लब्धा सुधर्मः श्रुतपारगः ।। लोकालोकावलोककालोकमन्त्यविलोचनम् ॥
.-उत्तर पु०,७६३५१७-५१८
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८
और ८ वर्ष केवली रूप में धर्म का प्रचार कर शत वर्ष की आयु में राजगृह नगर से मुक्त हुए । '
माण्डव्य - (छठवें गणधर )
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
यह मौर्य सन्निवेश के वशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम धनदेव और माता का नाम विजया था । इन्होंने भी इन्द्रभूति की तरह अपने ३५० छात्रों के साथ तिरेपन वर्ष को अवस्था में महावीर के समक्ष मुनि दीक्षा अंगीकार की । चौदह वर्ष तक आत्मसाधना के मार्ग में रहकर ६७ वर्ष की अवस्था में केवलज्ञान प्राप्त किया । लगभग १६ वर्ष केवली जीवन में रहकर भगवान महावीर के जीवन समय में ही मुक्त हुए ।
मौर्य पुत्र - ( सातवे गणधर )
सातवे गणधर मीयं पुत्र हैं, जो मौर्य सन्निवेश के निवासी थे। इनका गोत्र काश्यप था। इनके पिता का नाम मोर्य और माता का नाम विजया देवी था। देव और देवलोक सम्बन्धी शंका की निवृत्ति के परिणामस्वरूप लगभग पैसठ वर्ष की अवस्था में अपने ३५० छात्रों के साथ जिनेश्वरी दीक्षा अंगीकार की । कुछ वर्ष उद्मस्थ अवस्था में बिताकर ७६ वर्ष की वय में केवल ज्ञान प्राप्त किया । १६ वर्ष केवली पर्याय में रहकर महावीर के जीवन काल में ही मुक्त हुए ।
कम्पित- ( श्रठवें गणधर )
आठवें गणधर का नाम अकम्पित था । यह मिथिला नगर के निवासी गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम देव और माता का नाम जयन्ती था । इन्हें नरक ओर नारकीय जीवों के सम्बन्ध में सन्देह था । अपने सराय की निवृत्ति के कारण ४८ वर्ष की अवस्था में अपने तीन सौ शिष्यों के साथ महावीर के चरणों में दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण की । तपश्चरणादि द्वारा छद्मस्थ जीवन बिताकर, केवलज्ञान प्राप्त कर, २१ वर्ष पर्यन्त केवली पर्याय में रहकर राजगृह से मुक्ति प्राप्त की।
प्रचलभ्राता - (नौव गणधर )
भगवान महावीर के नौवें गणधर का नाम अचल भ्राता था । जो हारीय गोत्रीय ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम वसु और माता का नाम नन्दादेवी था । पुण्य-पाप-सम्बन्धी अपनी जिज्ञासा की निवृत्ति के बाद उन्होंने अपने तीन सौ शिष्यों के साथ छयालीस वर्ष की अवस्था में भगवान महावीर के सन्मुख दिगम्बर दीक्षा ली और कठोर साधना करते हुए उन्होंने केवल बांधि प्राप्त की। लगभग बहत्तर वर्ष की अवस्था में विपुलाचल से निर्वाण प्राप्त किया । मेतार्य- - ( दसवें गणधर )
दशवे गणधर का नाम मतार्य है। ये वन्स देशान्तर्गत तुगिक सन्निवेश के निवासी थे। इनका गोत्र कौडिन्य था। इनके पिता का नाम दत्त और माता का नाम वरुणा था । पुनर्जन्म के सम्बन्ध में इनके मन में सशय था । किन्तु भगवान महावीर के उपदेश में उसका समाधान हो गया। निश्शंक होने पर इन्होंने छत्तीस वर्ष की अवस्था में भगवान महावीर के समक्ष अपने तीन सौ शिष्यों के साथ द्विविध परिग्रह का परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा ले ली । तपश्चरण द्वारा कठोर साधना करते हुए घाति चतुष्टय का विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और लगभग बासठ वर्ष की अवस्था में राजगृह से मुक्ति प्राप्त की ।
प्रभास - ( ग्यारहवें गणधर )
ग्यारहवे गणधर का नाम ' प्रभास' था । ये राजगृह के निवासी थे। इनका गोत्र कौडिन्य था । इनके
१. मोक्ष ते महावीरे सुधर्मागणभृद्वरः ।
छथी द्वादशाब्दानि तस्थौ तीर्थप्रवर्तयन् ॥ ततश्च द्वानवत्यब्दी प्रान्ते सम्प्राप्तकेवलः । अष्टाब्दी विजहारोव भव्यसत्वान् प्रबोधयत् ॥ प्राप्ते निर्वाण समये पूर्ण वर्ष शतायुषा । सुधर्म स्वामिना स्थापि जम्बूस्वामी गणाधिपः ||
- परिशिष्ट पर्व ४-५७, ५८, ५६
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर के ग्यारह गणधर
२६
पिता का नाम बल और माता का नाम अतिभद्रा था। इनको मोक्ष के सम्बन्ध में शंका थो । भगवान महावीर द्वारा उसका समाधान हो जाने पर उन्हीं के समक्ष उन्होंने दिगम्बर मुद्रा धारण की। आठ वर्ष तक कठोर तपश्चरण द्वारा आत्म-शोधन किया और घाति चतुष्टय का विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। कुछ वर्ष केवलो पर्याय में रहकर अविनाशी पद प्राप्त किया।
यम मुनि
उड़ देश में धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहाँ के राजा का नाम 'यम' था। राजा बड़ा गन् और शास्त्रज्ञ था। उसकी धनवती रानी से गदभ नाम का एक पुत्र ओर कोणिका नाम को पुत्रो उत्पन्न हु अतिरिक्त और भी रानियाँ थी। जिनमे पाँच सौ पुत्र उत्पन्न हए थे। वे पाँच सो भाई परस्पर में प्रेमी और धर्मात्मा थे । संसार से उदासीन रहा करते थे। राजा का दीर्घ नाम का एक मंत्री था जो लोक शास्त्र और राजनीति का पंडित था। एक दिन किसी नैमित्तिक ने राजा से कहा कि कुमारी कोणिका का जो पति होगा वह सारी पृथ्वी का भोक्ता होगा। यह सुनकर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ। वह पुत्री की बड़े यत्न से रक्षा करने लगा। उसने उसके लिए एक सुन्दर तलघर बनवा दिया, जिससे उसे छोटे-मोटे बलवान राजा न देख सकें।
एक समय सुधर्माचार्य विहार करते हुए पांच सौ मुनियों के संघ सहित धर्मपुर में पधारे, और नगर के बाहर उपवन में ठहरे। उनका एकमात्र लक्ष्य ससार के जीवों का हित करना था। नगर निवासियों को उनकी पूजा, वन्दना के लिये पूजन सामग्री को लेकर जाते हुए देखकर राजा भी अपने पाण्डित्य के अभिमान में मुनियों की निन्दा करते हए उनके पास गया। मुनि निन्दा और ज्ञान का अभिमान करने से उसी समय उसके ऐसे तीव्र पाप कर्म का उदय पाया कि उसकी बुद्धि नष्ट हो गई, और वह महामूर्ख बन गया। नीति में भी कहा है कि कूल, जाति, बल, ऋद्धि, ऐश्वर्य, शरीर, तप, पूजा प्रतिष्ठा और ज्ञानादि का मद नही करना चाहिये, क्योंकि इनका अभिमान बड़ा दुःखदायी होता है।
__राजा को अपनी यह दशा देखकर बड़ा आश्चर्य और खेद हुआ। उसने अपने कृत कर्मों का बड़ा पश्चात्ताप किया। मुनिराज को भक्ति पूर्वक नमस्कार किया, और उनकी तीन प्रदक्षिणाएं दीं। और उसने उनका भक्तिपर्वक उपदेश सूना । उसस उसे कुछ शान्ति मिली। उसका प्रभाव राजा पर पड़ा, परिणामस्वरूप राजा का चित्त देह-भोगों से विरक्त हो गया। वे उसी समय गर्दभ नाम के पुत्र को राज्य देकर अपने अन्य पाँच सौ पत्रों के साथ, जो बाल अवस्था से वैरागी थे, मुनि हो गए।
मूनि अवस्था में सबने शास्त्रों का खूब अभ्यास किया। पाश्चर्य है कि पाँच सौ पत्र तो खब विद्वान बन गए। किन्तु यम मूनि को पंच नमस्कार मत्र का उच्चारण करना तक नहीं पाया। अपनी यह दशा देखकर वे बड़े शर्मिन्दा और दुखी हुए। उन्होंने वहाँ रहना उचित न समझ अपने गुरु से तीर्थ यात्रा करने की प्राज्ञा ले ली, और अकेले ही वहाँ से निकल पड़े।
एक दिन यात्रा में यम मुनि अकेले ही स्वच्छन्द हो मार्ग में जा रहे थे। उन्होंने गमन करते हुए एक रथ १. एतस्मिन् सकले नष्टे गर्वहीनो नराधिपः । मुनिपार्श्व स सम्प्राप्य भक्तिहृष्टतनूरुहः ॥१४॥ पाहय गर्दभाभिख्यं पुत्र प्राप्तं स भूपतिः । राज्यपट्ट बबन्धास्य समस्तनपसाक्षिकम् ॥१५॥ शतः पंचभिरायुक्तः स्वपुत्राणांप नषैः सह । अन्यः सुधर्मसामीप्ये राजेन्द्रः स तपोऽग्रहीत् ॥१६॥ एवं प्रजिते तस्मिस्तत्पुत्रा नप्तंकुञ्जराः । ग्रन्थार्थपारगाः सर्वे बभूवुः स्वल्पकालतः ॥१७॥
-हरिषेण कथा कोश, कथा ६१, पृ० १३२
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
देखा जिसमें गधे जुते हुए थे और उस पर एक आदमी बैठा हुआ था। गधे उसे हरे धान के खेत की ओर ले जा रहे थे। रास्ते में मुनि को जाते हुए देख कर रथ में बैठे हुए मनुष्य ने उन्हें पकड़ लिया, और उन्हें वह कप्ट पहुंचाने लगा। मुनि के ज्ञान का कुछ क्षयोपशम हो जाने से उन्होंने एक खण्ड गाथा पढ़ी-कहसि पुण णिक्खेवसिरे गहहा जवं पेच्छसि खादिमिति' । रे गधो, कष्ट उठानोगे तो तुम जो भी चोहो खा सकोगे।
एक दिन कुछ बालक खेल रहे थे, देवयोग से कोणिका भी वहीं पहुंच गई। उसे देखकर वे बालक डरे । उस समय कोणिका को देखकर यम मुनि ने एक और खण्ड गाथा बनाकर पढी
'अण्णत्थ कि पलोवह तुम्हे पण बुद्धि या छिद्दे अच्छई कोणिआ इति । दूसरी ओर क्या देखते हो? तुम्हारी पत्थर सरीखी कठोर बुद्धि को छेदने वाली कोणिका तो है ।
एक अन्य दिन यम मुनि ने एक मेंढक को एक कमल पत्र की आड़ में छुपे हए सर्प की ओर आते हए देखा। देखकर वे मेढक से बोले-'अम्हादो णत्थि भयं दोहादो दीसदे भयं तुम्हेति'। –मेरे आत्मा को किसी से भय नहीं है, किन्तु भय है तुम्हें।
यम मुनि ने जो कुछ थोड़ा-सा ज्ञान सम्पादन कर पाया, वह उक्त तीन खण्ड गाथात्मक ही था। वे उन्हीं का स्वाध्याय करते, इसके अतिरिक्त उन्हें कुछ नही आता था। किन्तु उनका अन्तर्मानस पवित्र था। वे यथाजात मुद्रा के धारक थे, तपश्चरण करते और अनेक तीर्थों की यात्रा करते हए वे धर्मपुर आए। वे शहर के बाहर एक बगीचे में कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हो ध्यान करने लगे। उनके आने का समाचार उनके पत्र गर्दभ और राजमंत्री दीर्घ को ज्ञात हुआ। उन्होंने समझा कि ये हमसे पुनः राज्य लेने के लिये आये हैं। अतएव वे दोनों मुनि को मारने का विचार कर आधी रात के समय वन में आए और तलवार खींच कर उनके पीछे खड़े हो गए। मूनिवर ने निम्न गाथा पढ़ी-धिक राज्यं घिङ् मूर्खत्वं कातरत्वं च धिक्तराम् । निस्पृहाच्च मुनेर्यन शंका राज्येऽभवत्तयोः॥ –ोसे राज्य को, ऐसी मूर्खता और ऐसे डरपोकपने को धिक्कार है, जिससे एक निस्पृह और संसारत्यागी मुनि के द्वारा राज्य के छीने जाने का उन्हें भय हुआ। यद्यपि गर्दभ और दीर्घ दोनों मुनि की हत्या करने को आए थे, परन्तु उनकी उन्हें मारने की हिम्मत न पड़ी। उसी समय मुनि ने अपनी स्वाध्याय की पहली गाथा पढ़ी। उसे सुनकर गर्दभ ने मंत्री से कहा-जान पड़ता है मुनि ने हम दोनों को देख दिया है। पश्चात् मुनि ने दूसरी खण्ड गाथा पढ़ी, नहीं जी, मनिराज राज्य लेने नही आए हैं। मेरा वैसा समझना भ्रम था अज्ञान था। मेरी बहिन कोणिका के प्रेम ववेकछ कहने को आये जान पड़ते हैं । अनंतर मुनिराज ने तीसरी गाथा भी पढ़ी। उसका अर्थ गर्दभ ने यह समझा कि मंत्री दीर्घ बड़ा दुष्ट है, मुझे मारना चाहता है। अतएव भ्रमवश ही पिता जी मुझे सावधान करने आये हैं। थोड़ी देर में उनका मब सन्देह दूर हो गया। उन्होंने अपने हृदय की सब दुष्टता छोड़कर बड़ी भक्ति के साथ उन मुनिराज को प्रणाम किया और धर्म का उपदेश सुना। उपदेश सुनकर वे दोनों बहुत प्रसन्न हुए, और श्रावक के व्रतों को ग्रहण कर अपने स्थान को लौट गए।
यमधर मूनि निर्मल चारित्र का पालन करते हए अपने परिणामों को वैराग्य से सरावोर करने लगे। उनकी निस्पृह वृत्ति, पवित्र संयम का आचरण, और तपश्चरण की निष्ठता, एकाग्रता दिन-पर-दिन बढ़ रही थी। उन्हें तपश्चरण के प्रभाव से सप्त ऋद्धियाँ प्राप्त हुई। वे भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट सम्यकज्ञान की आराधना में तत्पर हए । लब्धि संयुक्त वे मुनि अन्य पाँच सौ मुनियों के साथ कुमारगिरि के शिखर से देवलोक को प्राप्त हए। जैसा कि कथा कोश के निम्नपद्यों से स्पष्ट है
१. यमयोगी परिप्राप्य गुरुमामीप्यमादगत् । घोरं तपश्चकारेदं विविद्धि समन्वितः ।।५।। पादानुमारिणी बुद्धिः कोप्ठबुद्धिस्तथैव च । मंभिन्नश्रोत्रिकाद्या हि बुद्धयः परिकीर्तिताः ।।५।। उग्रं तपम्तथा दीप्तं तपम्तप्तं महातपः । घोगदीनि विजानन्तु तपांसीमानि कोविदः ॥६०॥
-हरिषेण कथाकोष पृ० १३३
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तिम केवली जम्बूस्वामी
एताभिर्ल न्धिभिर्युक्तः श्रामण्यं परिपाल्य च । धर्मादिनगरासन्ने कुमारगिरिमस्तके || ६७॥ शतैः पञ्चभिरायुक्तो मुनीनां धर्मशालिनाम् । श्राराधनां समाराध्य यमः साधुदिवं ययौ ॥ ६८ ॥
३१
अन्तिम केवली जम्बूस्वामी
I
मगध देश के राजगृह नगर में श्रद्दास नाम का सेठ रहता था । उसकी पत्नी का नाम जिनमती या जिनदासी था, जो रूप लावण्य- संयुक्त और पतिव्रता थी। दोनों ही जैनधर्म के संपालक और धर्मनिष्ठ श्रावक थे । सेठ अद्दास के पिता का नाम धनदत्त और माता का नाम गोत्रवती था। इनके दो पुत्र थे श्रद्दास और जिनदास । इनमें अर्हद्दास धर्मात्मा था और जिनदास कुसंगति के कारण द्यूतादि दुर्व्यसनों का शिकार हो गया था । वह एक दिन जुए में छत्तीस सहस्र मुद्राए हार गया। घर से मुद्राए लाकर देने का वचन देने पर भी छल नाम के एक जुआरी ने जिनदास के पेट में कटार मार दी। उसकी सूचना मिलने पर श्रद्दास उसे अपने घर ले आया, और उचित उपचार करने पर भी वह उसे बचा न सका । उसने अर्हद्दास से कहा कि मैंने जीवन में धर्म से विपरीत बुरे कर्म किये है, उनका मुझे पश्चात्ताप है । परलोक सुधारने के लिये कुछ धर्म का स्वरूप बतलाइये । तब श्रद्दास ने उसे धार्मिक उपदेश दिया और पचनमस्कार मंत्र सुनाया, जिसमे वह यक्ष योनि में उत्पन्न हुआ । जब उसने यह सुना कि अर्हद्दास सेठ के गृह में अन्तिम केवलो जम्बूस्वामी का जन्म होगा, तो वह अपने वंश की प्रशंसा सुनकर हर्ष से नाच उठा ।
विद्युन्माली देव का जीव ब्रह्म स्वर्ग से चयकर जब जिनमती के गर्भ में आया तब जिनमती ने पांच शुभ स्वप्न देखे – हाथी, सरोवर, चावलों का खेत, धूम रहित अग्नि, और जामुन के फल । नौ महीने बाद ६०७ ई० पूर्व में जम्बूस्वामी का जन्म हुआ और उसका नाम जम्बूकुमार रक्खा गया। जम्बूकुमार दूज के चन्द्र के समान प्रतिदिन बढ़ता गया । वह स्वभावतः सौम्य, सुन्दर, मिष्टभाषी, भद्र, दयालु और वैराग्यप्रिय था । बाल श्रवस्था में उसने समस्त विद्यानों की शिक्षा पाई थी। उसके गुणों की सुरभि चारों तरफ फैलने लगी। वह कामदेव के समान सुन्दर रूप का धारक था । उसे देखकर नगर की नारियाँ अपनी सुध-बुध खो बैठती थीं और काम वाण से पीड़ित हो जाती थी। किन्तु कुमार पर उसका कोई प्रभाव अ ंकित नही होता था, क्योंकि उसका इन्द्रिय विषयों में कोई राग नही था और युवावस्था में भी वह निर्विकार था । उसके आत्म- प्रदेशों में वैराग्य रस का उभार जो हो रहा था । वह वज्रवृषभनाराच सहनन का धारी और चरम शरीरी था और जैन धर्म का संपालक था ।
जीवन- घटनाएं
एक बार राजा श्रेणिक का बड़ा हाथी कोलाहल से भयभीत होकर सांकल तोड़कर क्रोधयुक्त हो वन में घूमने लगा । उसके कपोलों से मद कर रहा था जिस पर भ्रमर गुंजार कर रहे थे। वह नील पर्वत के समान • से काला था और अपने दांतों से पृथ्वी को कुरेदता हुआ सूंड़ से पानी फेंकता था। वह जिधर जाता वृक्षों को जड़मूल उखाड़ देता था। उस वन में आम, जामुन, नारंगी, केला, ताल-तमाल, अशोक, कदंब, सल्लकी साल, नीबू, खजूर, नारियल, और अनार आदि के सुन्दर पेड़ लगे हुए थे । कुछ पौधे खुशबूदार फूलों के समूह से लदे हुए थे, जिनकी महक से वह वन सुरभित हो रहा था। उसमें अनेक प्रकार के फल-फूल और मेवों वाले बहुमूल्य पेड़ थे। उस वन की शोभा देखते ही बनती थी। वह मोरणियों के शब्दों से गुंजायमान था और कोयलों की मधुर ध्वनि से मुखरित हो
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ रहा था। जनता हाथी की भयंकरता से प्राकुलित हो रही थी। बड़े-बड़े योद्धा भी उसे वांधने का साहस नहीं कर सके। किन्तु जम्बूकुमार ने अचिन्त्य साहस और बल से उस पर सवार होकर उस उन्मत्त हाथी को क्षणमात्र में वश में कर लिया। अतएव जनता में जम्बूकुमार के साहस की प्रशंसा होने लगी। लोग कहने लगे-धन्य है कुमार का अदभत बल, जिसने देखते-देखते क्षणमात्र में भयानक हाथी को वश में कर लिया। यह सब उसके पुण्य का माहात्म्य है, इसलिये वह महापुरुषों द्वारा पूज्य है । पुण्य से ही सम्पदा, सुग्व सामग्री और विजय मिलती है।
जम्बूकुमार ने केरल के युद्ध में जो वीरता दिखलाई वह अद्वितीय थी। रत्नशेखर मे युद्ध करते हुए जम्बूकुमार ने उसको बांध लिया। युद्ध कितना भयंकर होता है इसे योद्धा अच्छी तरह से जानते है। कहाँ रत्नशेवर की बडी भारी सेना और कहो अकेला जम्बूकूमार। किन्तु जम्बूकुमार ने अपने बुद्धि कौशल और आत्मबल से शत्रु पर अपनी वीरता का सिक्का जमा लिया, बन्दो हुए. केरल नरेश को बन्धन से मुक्त किया; उसको सुपुत्री विलासवती का विम्बसार के साथ विवाह करा दिया; और केरल नरेश मगाक तथा रत्न शेखर में परस्पर मेल करा दिया। इन सब घटनाओ मे जम्बूकूमार की महानता का पता चलता है।
जम्बूकुमार जब केरल से वापिस लोट कर पा रहा था, तब उसे विपुलाचल पर सुधर्म गणधर के आने का पता चला । वह उनके समीप गया, और नमस्कार कर थोड़ी देर एकटक दृष्टि में उनकी ओर देखता रहा। जम्बकुमार का उनके प्रति आकर्षण बढ़ रहा था। पर उसे यह स्मरण न हो सका कि मेरा इनके प्रति इतना आकर्षण क्यो है ? क्या मैने इन्हे कही देखा है, इस अनूगग का क्या कारण है ? तब उसने समीप में जाकर पुनः नमस्कार किया और उनसे अपने अनुराग का कारण पूछा। तब उन्होने बतलाया कि पूर्व जन्मों में मैं और तुम दोनों भाईभाई थे । हम दोनों में परस्पर बड़ा अनुराग था। मेरा नाम भवदत्त और तुम्हारा नाम भवदेव था। सागरसेन या सागरचन्द्र पुण्डरीकिणी नगरी में चारण मुनियों से अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुन कर देह-भोगों से विरक्त हो मुनि हो गया और त्रयोदश प्रकार के चारित्र का अनुष्ठान करते हुए भाई के सम्बोधनार्थ वीतशोका नगरी में पधारे । वहाँ भवदेव का जीव चन्द्रवती का शिवकुमार नामक पुत्र हुआ था । शिवकुमार ने महलों के ऊपर से मुनियों को देखा, उससे उसे पर्वजन्म का स्मरण हो आया और देहभोगों से उसके मन में विरक्तता का भाव उत्पन्न हना। उससे राजप्रासाद में कोलाहल मच गया। शिवकुमार ने माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मांगी। पिता ने बहुत
पा, पार कहा-तप और व्रता का अनुष्ठान घर म भी हो सकता है। दीक्षा लन की आवश्यकता नही है। पिता के अनुरोधवश कुमार ने तरुणी जनों के मध्य में रहते हए भी विरक्त भाव में ब्रह्मचर्य व्रत का अनुष्ठान किया। इस असिधारा व्रत का पालन करते हा शिवकुमार दूसरों के यहाँ पाणिपात्र में प्राशुक आहार करता था । प्राय के अन्त में ब्रह्म स्वर्ग में विद्य न्माली देव हुआ। मैं भी उसी स्वर्ग में गया । वहाँ से चयकर मैं सुधर्म हुआ हूँ और तुम जम्बूकुमार नाम के पुत्र हुए। यही तुम्हारा मेरे प्रति स्नेह का कारण है।
जम्बूकुमार ने मुधर्म स्वामी का उपदेश मुना, उससे उसके हृदय में वैराग्य का प्रवाह उमड़ आया, और उसने सुधर्माचार्य मे दीक्षा देने के लिए निवेदन किया। तब उन्होंने कहा कि जम्बूकुमार ! तुम अपने मातापिता मे आज्ञा लेकर ग्रामो, तब दीक्षा दी जाएगी। कुटुम्बियों ने भी अनुरोध किया, और कहा कि कुमार ! अभी दीक्षा न लो। कुछ समय बाद ले लेना । अतः जम्बू कुमार घर वापिस आ गया। माता-पिता ने उसे विवाह के बंधन में बाँधने का प्रयत्न किया। तब जम्बकुमार ने विवाह कराने से इनकार कर दिया। सेठ प्रहदास ने अपने मित्र सेठों के घर यह सन्देश भिजवा दिया कि जम्बूकुमार विवाह कराने से इनकार करता है। अतः आप अपनी पुत्रियों का सम्बन्ध अन्यत्र कर सकते हैं। उनकी पुत्रियों ने कहा कि विवाह तो उन्हीं से होगा, अन्यथा हम कुमारी रहेंगी। वे एक रात्रि हमें दे, उसके बाद उन्हें दीक्षा लेने से कोई नहीं रोकेगा। अत: विवाह हुआ। विवाह के पश्चात् जम्बूकुमार घर आया और रात्रि में स्त्रियों के मध्य में बैठकर चर्चा होने लगी। बहुएं अनुरागवर्धक अनेक प्रश्नोत्तरों और कथा कहानियों, दृष्टान्तों द्वारा जम्बूकुमार को निरुत्तर करने या रिझाने में समर्थ न हो सकीं। उन्होंने शृङ्गार परक हाव-भाव रूप चेप्टानों का अवलम्बन भी लिया, किन्तु जम्बूकुमार पर वे प्रभाव डालने में सर्वथा असमर्थ रहीं। विद्युत चोर अपने साथियों के साथ जिनदास के घर चोरी करने पाया, पौर छिपकर खड़ा
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तिम केवलो जम्बूस्वामी होगया। वहां जम्बूकुमार और उनकी स्त्रियों की वार्ता हो रही थी। विद्युतचोर बड़ी देर से उनके आख्यानों को सुन रहा था, उसे उसमें रस आने से और जागृति रहने से वह चोरी तो नहीं कर सका, पर वह उनकी बातों में तन्मय हो गया। विद्युतचोर ने भी अनेक दृष्टान्तों और कथानकों द्वारा कुमार को समझाने का यत्न किया, पर विद्युतचोर की वकालत भी उन्हें विषयपाश में न फैमा सको। उल्टा जम्बकुमार का प्रभाव विद्यतचोर और उसके साथियों पर पडा। अतः विद्यतचोर भी अपने साथियों के साथ चोर कर्म का परित्याग कर दीक्षा लेने के लिये तत्पर हो गया। जम्बू कुमार तो दीक्षा लेने के लिये पहले से ही उत्सुक था। जम्बूकुमार की जिन-दीक्षा
जम्बूकुमार ने अपने विवाह की इस रात्रि में अपनी उन चार पत्नियों को बुद्धिवल से जीत लिया। उनकी शृंगारपरक हाव-भाव चेप्टानों, कथानकों, उपकथानकों आदि का जम्ब कुमार पर कोई प्रभाव अंकित नहीं हमा, उन्होंने राग भरी दृष्टि से उनकी ओर झांका तक भी नहीं। उनकी वैगग्य भरी सौम्य दृष्टि का प्रभाव उन पर पड़ा। विद्य तचोर और उसके साथी सब सोचते कि देखो, कुमार पर देवांगनाओं के सदृश अत्यन्त सुन्दर इन नव युवतियों का और धन वैभव का कोई प्रभाव नही है, ऐसी विभूति को छोड़कर यह दीक्षा ले रहा है। हम लोग तो जिदगी भर पाप कर्म करते रहे, और उसी के लिये यहाँ आये थे; किन्तु कुमार का जिन-दीक्षा लेने का दढ़ निश्चय देखकर हमारा विचार बदल गया और हम सब भी दीक्षा लेकर प्रात्म-साधना करेंगे । हमारे इस निश्चय को अब कोई टालने के लिये समर्थ नहीं है। इस प्रकार के विचार विनिमय में ही सब रात्रि चली गयी, और प्रातः काल हो गया।
सेठ अर्हदास ने प्रातःकाल राजभवन में जाकर सम्राट से निवेदन किया कि जम्बकुमार की चारों नवोढा पत्नियां भी उसे गहस्थ के बंधन में न बाँध सकी और वे दीक्षा लेने वन में जा रहे हैं। सम्राट ने कहा-अच्छा उनको जलस के रूप में सूधर्म स्वामी के पास ले चलने की व्यवस्था की जाय ।
जलस में दन्दभि बाजे बज रहे थे. हाथी, घोडे, ऊंट, और पैदल जनता सभी उसमें शामिल थे। बीच में एक सजी हुई पालकी में ज़म्बू कुमार बैठे हुए थे। उनके शरीर पर बहुमूल्य वस्त्राभूपण थे। उनके सिर पर मुकुट बधा हा था, जिसे सम्राट बिम्बसार ने बांधा था। पालकी को नगर के सम्भ्रांत नागरिक उठाए हुए थे। जनता उत्साह के साथ भगवान महावीर की जय, मुवधर्म स्वामी की जय और जम्बस्वामी की जय बोल रही थी।
शः नगर के सभी प्रधान मार्गो से घमता हा आगे बढता जा रहा था। मार्ग में सभी गवाक्ष और छते नर-नारियों से भर गई। सब ओर से उनके ऊपर पुष्प बरसाये जा रहे थे। जिस समय जुलूस अर्हदास सेठ के मकान की ओर प्राया, तब जम्बूकुमार की माता जिनमती मोहवश दौड़ती हुई पालकी के पास आई । वह मुख से हा पुत्र ! हा पुत्र ! कहकर एकदम मूच्छित हो गई । शीतोपचार से जब वह होश में आई तो आंसू बहाती हुई गद्गद् हो कहने लगी
हे पुत्र ! एक बार तू मुझ प्रभागिनी माता की ओर तो देख। यह कहकर वह पुनः मूच्छित हो गई। अपनी सास को मृच्छित हुआ देख जम्बूकुमार की चारों बहुएँ भी अत्यन्त शोकसन्तप्त होकर रुदन करती हुई बोलीं
हे नाथ ! हे कामदेव ! हम सबको अनाथ बनाकर आप कहाँ जा रहे हैं ? जिस तरह चन्द्रमा के बिना रात्रि की शोभा नहीं, कमल के बिना सरोवर की शोभा नहीं, उसी तरह आपके बिना हमारा जीवन भी निरर्थक है। हे कृपानाथ ! आप प्रसन्न हों और थोड़े समय गृहस्थ अवस्था में रहकर बाद में उसका परित्याग कर दीक्षा ले लें। जम्बकूमार की पत्नियाँ इस प्रकार कह ही रहीं थी कि चन्दनादि के उपचार से माता जिनमती को दबारा होश आ गया। वह होश में आकर रो-रोकर जम्बूकुमार से कहने लगी
हे पूत्र ! कहाँ तो तेरा केले के पत्ते के समान कोमल शरीर और कहाँ वह असिधारा के समान कठोर जिन दीक्षा! तपश्चरण कितना कठिन है। नग्न शरीर, डाँस-मच्छर, झंझावात, वर्षा, ठण्ड, गर्मी, आदि की अनेक असह्य बाधायें कैसे सहन करेगा? हे बालक ! तू इस ऊबड़-खाबड़ कठोर भूमि में कैसे शयन करेगा और भुजाओं को
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
लटकाए हुए तू किस तरह रात्रि भर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान करेगा, और उपसर्ग परिषह की भीषण स्थितियों में अपने को कैसे निश्चल रख सकेगा।
किन्तु सुदृढ़ संकल्पी जम्बूकुमार माता को रोती-बिलखती देखकर बोले-हे माता ! तू शोक को छोड़कर कायरपने का परित्याग कर । तुझे अपने मन में यह सोचना चाहिएक यह संसार अनित्य और अशरण है । हे माता! मैने अनेक जन्मों में इन्द्रिय-विषयों के सुख का अनेक बार उपभोग किया और उन्हें जठन के समान छोड़ा। ऐसे अतृप्तकारी विषय सुखो की ओर भला माता ! मै कैसे जा सकता हूँ। तुझे तो प्रसन्न होना चाहिए कि तेरा पुत्र ससार के बधनों को काटकर परमार्थ के मार्ग पर अग्रसर हो रहा है।
__इस तरह जम्बू कुमार अपनी माता को सम्बोधित कर पालकी में बैठकर आगे बढ़े और राजगृह के सभी मार्गो से घूमकर नगर के बाहर उपवन में पहुंचे।
उपवन में एक वृक्ष के नीचे मनियों के परिकर सहित महातपोधन सुधर्म स्वामी बैठे हुए थे । जम्बूकुमार पालकी से उतरकर उनके समीप गए। उन्हे नमरकार किया, तीन प्रदक्षिणाएं दी। फिर उनके सामने हाथ जोड़कर नतमस्तक हो बड़े आदर से खड़े हो यह प्रार्थना की
हे दयासागर ! सम्यक् चारित्र के धारक हे मुनिपुंगव ! मैं जन्म मरण रूप दुःखों से भरे हुए कुयोनिरूपा समुद्र के प्रावों में डूब रहा हूं। कृपा कर आप मेरा उद्धार करे । आप मुझे संसार के दुःखों की विनाशक, कर्म क्षय करने वाली दैगम्बरी दीक्षा प्रदान करें। जिससे मै प्रात्म-साधना द्वारा स्वात्म-निधि को प्राप्त कर सक।
सुधर्म स्वामी ने कहा-अच्छा मैं तुझे अभी दीक्षित करता हूं।
यह सुनते ही जम्बूकुमार का हृदय कमल खिल उठा, उन्होंन गुरु के सम्मुख अपने शरीर से सभी प्राभूषण उतार दिये। कुमार ने अपने मुकुट के आगे लटकने वाली माला को इस तरह दूर किया मानों उन्होंने कामदेव के बाणों को ही बलपूर्वक दूर किया हो। उन्होंने रत्नमय मुकुट को भी इस तरह उतारा मानों उन्होंने मोह रूप राजा को जीत लिया हो। पश्चात् हार आदि आभूषणों और रत्नमय अँगूठी को भी उतार दिया और अपने शरीर से वस्त्रों को इस तरह उतारा मानों चतुर पुरुष ने माया के पटलों को ही फेक दिया हो । समस्त वस्त्राभूषणों का परित्याग कर जम्बूकुमार ने पंचमठियों से केशों का लोच कर डाला। और 'ओं नमः' मत्र का उच्चारण कर गुरु-प्राज्ञा से अट्ठाईस मूल गुणों को धारण किया'-पंचमहाव्रत, पंचसमिति, पचेद्रियनिरोध, छह आवश्यक, केशलोंच, अचेलक (नग्न) प्रस्नान, भूशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन-खड़े होकर आहार लेना और दिन में एक बार भोजन इन २८ मूल गुणों का पालन करना प्रारम्भ किया।
जम्बूकुमार ने यह दीक्षा लगभग २५-२६ वर्ष की अवस्था में ग्रहण की होगी। दीक्षा के पश्चात् जम्ब कुमार ने आवश्यक कार्यों के अतिरिक्त ध्यान और अध्ययन में अपना उपयोग लगाया और सुधर्मस्वामी के पास समस्त श्रुत का अध्ययन किया तथा अनशनादि अन्तर्वाह्य दोनों तपों का अनुष्ठान किया। प्राचाराङ्ग के अनूसा र मूनिचर्या का निदोष पालन करते हए साम्यभाव को प्राप्त करने का उद्यम किया। कषाय-विष का शोषण करते हुए उसे इतना कमजोर एवं अशक्त बना दिया, जिससे वह आत्मध्यानादि में बाधक न हो सके। वे मुनि जम्बूकुमार निस्पृह वृत्ति से मुनि धर्म का पालन करते थे। उसमें प्रमाद नहीं आने देते थे; क्योंकि प्रमाद करने वाला साधु छेदोपस्थापक होता है।
१. पच महव्वगाइ समिदीनो पचजिणवरुद्दिट्ठा ।
पचेदियरोहो छप्पिय आवासया लोचो।। अच्चेलक माहाणं विदिमयणमदंतधसणं चेव । ठिदि भोयणेय भत्तं मूलगुणा अट्ठवीसा दु॥
-मूलाचार १, २, ३ २. तेमु पमतो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ।
-प्रवचनसार ३-४
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तिम केवली जम्बू स्वामी
मनि अवस्था में एक दिन जम्बूकुमार आहार के लिये राजगृह नगर में गए, और वहाँ जिनदास सेठ ने नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया। निर्दोष पाहार देने के कारण सेठ के प्रांगन में दानातिशय से पंचाश्चर्य हुए। पाहार लेकर मुनिराज उपवन में आ गए, और ज्ञान-ध्यान में तत्पर हो गए। इन्द्रिय विकारों को जीतने के लिए वे कभी उपवास रखते, और कभी रस का परित्याग करते थे। जम्बूकुमार जितने सुकुमार थे, वे उतने ही सहिष्ण साहसी. धैर्यवान और विवेकी थे। उनकी शान्त मुद्रा और आत्म-तेज देखकर सभी आश्चर्य करते थे। वे यथाजात मदा के धारी तो थे ही, साथ ही मन-वचन और काय को वश में करने के लिए गप्तियों का अवलम्बन लेते थे। ध्यान और अध्ययन में प्रवृत्ति होने के कारण वे द्वादशांग के पारगामी श्रुतकेवली हो गए और सूधर्मस्वामी केवलज्ञानी हो गए। अब सब संघ का भार जम्बू स्वामी वहन करने लगे। बारह वर्ष बाद सूधर्म स्वामी का विपलाचल से निर्वाण हो गया और जम्बू स्वामी को घानि कर्म के प्रभाव से केवलज्ञान प्राप्त हो गया। जम्ब स्वामी ने केवली अवस्था में ३८ वर्ष तक विविध देशों और नगरों में विहार कर वीर शासन का प्रचार व प्रसार किया। अन्त में विपूलाचल से ७५ वर्ष की वय में शुक्ल ध्यान द्वारा कर्म कलंक को दग्ध कर अविनाशी पद प्राप्त किया।
जम्बकुमार के दीक्षा लेने के बाद उनके माता-पिता और चारों पत्नियों ने भी दीक्षा लेकर तपचरण किया, और अपने परिणामानुसार उच्च गति प्राप्त की।
विद्यतचर ने भी अपने पांच सौ साथियों के साथ चौर कर्म का परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा ले ली और तपश्चरण द्वारा प्रात्म-शुद्धि करने लगे। वे मुनियों के त्रयोदश प्रकार के चारित्र के धारक तथा पांच समितियों में प्रवत्ति करते थे। तीन गुप्तियों का भी पालन करते थे, इस तरह वे मुनि प्राचाराङ्ग (मूलाचार) के अनुसार प्रवृत्ति करते हुए अपने शिप्यों के साथ ताम्रलिप्त नगरी में आए। वे नगर के बाहर उद्यान में विराजे। उस समय दिन प्रस्त हो रहा था, तब दुर्गा देवी ने भक्ति से विद्युतचर से कहा कि यहां पांच दिन तक मेरी पूजा होगी उसमें रौद्र भूत सम्प्रदाय आमन्त्रित है, वह तुम्हें असह्य उपसर्ग करेगा। अतएव जब तक यात्रा है तब तक इस पुरी को छोड़कर अन्यत्र चले जाइए। यह कह कर वह चली गई। यतिवर विद्युतचर ने मुनियों से कहा-अच्छा हो प्राप लोग इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र चले जायं। तब उन्होंने कहा-रात्रि व्यतीत हो जाय, तब हम चले जावेंगे। रात्रि में गमन करना मुनियों के लिये वर्जित है। उपसर्ग से डरने वालों को क्या लाभ हो सकता है ? उपसर्ग सहन करना साधुओं के लिए श्रेयस्कर है। अतः सव साधु मौनपूर्वक ध्यान में स्थित हो गए। रात्रि में भयंकर भूतों ने असह्म उपसर्ग किया। बड़े-बड़े डांस मच्छरों को बाधा हुई। शगेर को कष्ट देने वाले घोर उपसर्ग हए, जिन्हें सूनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ऐसा होने पर वे सब साध स्थिर न रह सके और ध्यान छोड़कर दिवंगत हुए। किन्तु विद्युतचर अदीन मन से घोर उपसर्ग सहते हुए भी बड़े धैर्य के साथ मेरुवत स्वरूप में
१. वारह वामाणि केवलि विहारेण विहरिय लोहज्ज भडारए रिणब्बूदे सने जंबू भडारओ केवलणाणसंताणहरो जादो। अत्तीसवम्साणि केवलिविहारेण विहरिय जंबू भडागा परिणिन्वुदे संते केवलणाण संताणम्स वोच्छेदो जादो भरह खेत्तम्मि ।
-(धवला पु० ६ पृ० १३०) २. विउलइरि सिहरि कम्मट्ठचत्तु, सिद्धालय सासय सोक्खं पत्तु ।।
-जंबूसामिचरिउ १०-२४ पृ० २१५ ३. घत्ता-अह सवरणसंघसंजुउ पवरु, एयारसंगधरु विज्जुचरु ।
विहरंतु तवेण विराइयउ, पुरि तामलित्ति संपाइयउ ।। नयराउ नियडे रिसिसंघे थक्के, अत्थवणहो ठुक्कए सूरचक्के । मह माया तामकंकालिधारि, कंचायणि नामें भद्दमारि । पाहासइ सत्रिणय दिवसपंच, महुजत्त हवेसइ सप्पवंच । आमंतियभूयावलिरउद्द, उवसग्गु करेसइ तुम्ह खुद्द । इय कज्जे अण्ण हि किहिम ताम, पुरि मेल्ल वि गच्छहु जत्त जाम । गय एम कहे वि तो जइवरेण, मुरिण भणिय एम विज्जुच्चरेण ।। -जम्बू स्वामी चरिउ पृ० २१६
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
निश्चल रहे और अनित्यादि भावनाओं का दृढ़ता से मनन करते हुए शरीर से भिन्न निजात्म तत्त्वका, चैतन्य टंकोत्कीर्ण और ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाले आत्म तत्व का चिन्तवन करते हुए, शारीरिक बाधाओं की ओर ध्यान न देते हुए, निर्भय हो चार प्रकार का सन्यास धारण कर व्रत रूपी खड्ग से मोह शत्रु का नाश कर आराधना में स्थित रहे और निर्वाण प्राप्त किया ।" अन्य साधुओं ने भी परिणामानुसार यथा योग्य स्थान प्राप्त किए । इससे स्पष्ट है कि ताम्रलिप्त नगरी विद्युतचर का निर्वाण स्थल है और उनके साथी साधुनों का समाधि स्थल है। ऐसी स्थिति में मथरा जम्बू स्वामी ओर विद्युच्चर का निर्वाण स्थल नही
सकता ।
मथुरा जम्बूस्वामी का निर्वाण स्थल नहीं है
मथुरा एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। इस नगर मे जैन, वैष्णव और वौद्धादि भारतीय धर्मो का प्राचीन काल से घनिष्ट सम्बन्ध रहा है । यह यदुवंशी कृष्ण की लीला भूमि रहा है । कुषाण काल में यहाँ कई बौद्ध विहार थे । उत्तरापथ में यह जैन संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा है। महावीरकालीन जनपदों, प्रमुख राज्यों और राजधानियों में इसकी गणना रही है । दक्षिण के जैनाचार्यों ने दक्षिण मथुरा से भेद प्रकट करने के लिए इसे उत्तर मथुरा नाम से उल्लेखित किया है । निशीथ चूर्णी की एक गाथा में- "उत्तरावहे धम्मचक्कं मथुराए देव णिम्मिमो भूभो।" वाक्य में मथुरा के देव निर्मित स्तूप का उल्लेख किया है । २३वे तीर्थकर पार्श्वनाथ का यहाँ विहार हुआ और उनकी स्मृति में उक्त स्तूप बनवाया गया था। सम्भवतः सातवीं आठवी शताब्दी ई० पूर्व उस देवनिर्मित स्तूप को ईंटों से ढक दिया गया था। मथुरा के कंकाली टीले से जैन पुरातत्त्व की महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई है। उसमें अनेक कलाकृतियाँ मह्त्वपूर्ण हैं । यहाँ दिगम्बर जैनों के ५१४ स्तूप रहे हैं, जिनका जीर्णोद्धार साहू कराया था, जो बादशाह अकबर की टकसाल का अध्यक्ष था, और कृष्णामगल चौधरी का मंत्री भी था। उसने द्रव्य खर्च करके सं० १६३१ में उनकी प्रतिष्ठा पाण्डे राजमल्ल से करवाई थी। इन सब कारणों से मथुरा जैन संस्कृति का मौलिक स्थान रहा है। पर वह क्या जम्बूस्वामी का निर्वाण स्थान था ? उस पर यहाँ विचार किया जाता है—
महराये प्रति वीरं पासं तहेव वंदामि ।
जम्बु मुणिदो वंदे णिव्वुई पत्तो वि जम्बूवणगहणे ॥
दशभक्त्यादि संग्रह में प्रकाशित प्राकृत निर्वाण भक्ति के अनन्तर कुछ पद्य और भी दिये हुए हैं, जो प्रक्षिप्त है और बाद को उसमें संग्रहीत कर लिये गए हैं। उनमें से उक्त तृतीय पद्य में मथुरा और प्रहिक्षेत्र में भगवान महावीर और पार्श्वनाथ की वन्दना करने के पश्चात् जम्बू नाम के गहन वन में अन्तिम केवली जम्बू स्वामी
१. ताम्रलिप्त पुरस्यास्य समीपे परिधोरणम् । तस्थौ पश्चिम दिग्भागे नक्त प्रतिमया मुनि ॥ एव स्थिते मुनौ तत्र रात्रौ देवतया तया । एषा देशोत्सर्गोऽय विहितः क्रूरचित्तया । नाना देशोपसर्ग तं सहित्वा मेरुनिश्चल: । समाधानान्निर्वाणमगमद्रुतम् ॥
विद्युच्चर:
- हरिषेण कथाकोश कथा १३८
२. 'सावष्टम्भमष्टान्ही मथुरायाचक्रचरण परिभ्रमय्यार्हत्प्रतिबिम्बाङ्कित मेक स्तूपं तत्रा तिष्ठियत् । श्रतएवाद्यापि तत्तीर्थं
- उपासकाध्ययन प्रे० ६३
देवनिर्मिताख्यया प्रथते ।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
मथुरा जम्बू स्वामी का निर्वारण-स्थल नहीं है।
३७
के निर्वाण का उल्लेख किया गया है । परन्तु जम्बू वन किस देश का वन है यह पद्य पर से कुछ भी फलित नहीं होता। मालूम होता है, जम्बू स्वामी ने जिस वन में या स्थान में ध्यानाग्नि द्वारा अवशिष्ट प्रघाति कर्मों को भस्म कर कृतकृत्यता प्राप्त की, सम्भवतः उसी वन को जम्बू वन नाम से उल्लिखित करना विवक्षित रहा है। पर यह विचारणीय है कि उक्त स्थान किस नगर या ग्राम के पास है और उसका मथुरा से क्या सम्बन्ध है ? इस सम्बन्ध में कोई महत्त्व के प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं जो मथुरा को सिद्धक्षेत्र सिद्ध कर सकें ।
मथुरा
मथुरा के समीप ही चौरासी नाम का स्थान है, जहाँ पर एक विशाल जैन मन्दिर बना हुआ है। जिसे के सेठ मनीराम ने बनवाया था, और उसमें इस समय अजितनाथ तीर्थकर की ग्वालियर में प्रतिष्ठित मनोज्ञ मूर्ति परन्तु अन्वेषण करने पर भी जम्बू विराजमान है । इसी स्थान को जम्बू स्वामी का निर्वाण स्थान कहा जाता स्वामी के चौरासी पर निर्वाण प्राप्त करने का कोई प्रामाणिक उल्लेख अभी तक मेरे देखने में नहीं आया है । मालूम नहीं, इस कल्पना का आधार क्या है ?
डा० हीरालाल जी एम० ए० डी० लिट् ने अपनी पुस्तक 'जैन इतिहास की पूर्व पीठिका और हमारा अभ्युत्थान' के पृ० ८० में संयुक्त प्रान्त का परिचय कराते हुए जम्बू स्वामी की निर्वाण भूमि उक्त चौरासी स्थान पर बतलाई है । उनकी इस मान्यता का कारण भी प्रचलित मान्यता जान पड़ती है क्योंकि उसमें किसी प्रमाण बिशेष का उल्लेख नहीं है ।
मथुरा जैनियों का प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है । कंकाली टीले के उत्खनन में जो महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हुई है, उससे उसकी महत्ता का स्पष्ट बोध होता है। इसमें किसी को विवाद नहीं है किन्तु वह जम्बू स्वामी का निर्वाण क्षेत्र है यह कोरी निराधार कल्पना है ।
दूसरे विद्युतचर और उनके साथियों का भी देवलोक प्राप्ति का स्थल नहीं हैं। क्योंकि विद्युतचर और उनके ५०० साथी मुनियों पर होने वाले उपसर्ग का स्थल ताम्रलिप्ति बतलाया गया है, जो जैन संस्कृति और व्यापार का महत्वपूर्ण केन्द्र था । जब ताम्रलिप्ति नगरी समुद्र में विलीन हो गई तब नगरी के विनाश के साथ जैनियों की साँस्कृतिक सम्पत्ति भी विनष्ट हो गई। इस कारण उनकी स्मृति के लिये मथुरा को चुना गया हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं ।
जम्बूस्वामी चरित के कर्ता कवि राजमल्ल ( १६३२) ने स्वयं जम्बूस्वामी का निर्वाण विपुलाचल से माना है । वीर कवि (१०७६) ने भी विपुलाचल से ही उनके निर्वाण प्राप्त करने का उल्लेख किया है । इन उल्लेखों के प्रकाश में मथुरा को जम्बू स्वामी की निर्वाण भूमि नहीं माना जा सकता । हाँ, अन्य कोई प्राचीन प्रमाण उपलब्ध हो तो उस पर विचार किया जा सकता है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मथुरा जम्बू स्वामी का निर्वाण क्षेत्र माना जाता है ।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीय परिच्छेद
१. द्वादशांग श्रुत और श्रुतकेवली २. विष्णुनन्दि ३. नन्दिमित्र ४. अपराजित ५. गोवर्द्धन ६. भद्र बाहु ७. संघ-भेद ८. जैन संघ-परिचय
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वादशांग श्रुत और श्रुतकेवली श्रुतावरण कर्म के क्षयोपशय होने पर जो सुना जाय वह श्रु त है। यह श्रु तज्ञान अमृत के समान हितकारी है. और विषय-वेदना से संतप्त प्राणि के लिये परम औषधि है, जन्म मरण स्प व्याधि का नाशक तथा सम्पूर्ण दुःखों का क्षय करने वाला है। जैसा कि प्राचार्य कुन्दकुन्द के दर्शन पाहुड की निम्न गाथा से प्रकट है :
जिण वयण मोसहमिणं विसय-सुहं विरमणं अमिदभूयं ।
जर-मरण-वाहि-हरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥ समस्त द्रव्य और पर्यायों के जानने की अपेक्षा श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों समान हैं, किन्तु उनमें अन्तर इतना ही है कि केवलज्ञान ज्ञेयों को प्रत्यक्ष रूप से जानता है, और श्रुतज्ञान परोक्ष रूप से जानता है। जैसा कि गोम्मटमार की निम्न गाथा से स्पष्ट है :
सुद केवलं च णाणं दोण वि सरिसाणि होति बोहादो। सुदणाणं तु परोक्खं पच्चक्खं केवलं गाणं ॥
गोम्मटसार जीव काण्ड गाथा ३६८ केवलज्ञान और स्याद्वादमय श्रुतज्ञान समस्त पदार्थो का समान रूप से प्रकाशक है। दोनों में प्रत्यक्ष परोक्ष का अन्तर है।
वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी अर्हत तीर्थकर के मुखारविन्द से सुना हुआ ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। तीर्थकर अपने दिव्य ज्ञान द्वारा पदार्थो का साक्षात्कार करके वीजपदों द्वारा उपदेश देते हैं। उस श्रुत के दो भेद हैं, द्रव्यथ त और भावथत । गणधर उन बीजपदों का और उनके अर्थ का अवधारण करके उन व्याख्यान करते है । यही द्रव्य थु त कहलाता है । प्राप्त की उपदेशरूप द्वादशांग वाणी को द्रव्य श्रुत कहा जाता है । और उससे होने वाले ज्ञान को भावश्रुत कहते है। जिस तरह पुरुष के शरीर में दो हाथ, दो पैर, दो जाँघ, दो उरु, एक पीठ, एक उदर, एक छाती, और एक मस्तक ये बारह अंग होते हैं, उसी प्रकार श्रुत- ज्ञान रूप पुरुष के भी बारह अंग है । द्रव्य श्रुत के दो भेद है, अंग प्रविष्ट और अंग वाह्य ।
. अंग प्रविष्ट श्रुत के बारह भेद हैं । १. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३. स्थानांग ४. समवायांग, ५ व्याख्या प्रज्ञप्ति, ६. ज्ञातृ धर्मकथा, ७. उपासकाध्ययनॉग, ८. अन्तः कृतदशांग, ६. अनुत्तरोपपादिक, १०. प्रश्नव्याकरणांग, ११. विपाकसूत्राग, और १२. दृप्टिवादांग। प्राचारांग-इसमें अठारह हजार पदों के द्वारा मुनियों के प्राचार का वर्णन किया गया है ।
कधं चरे कधं चिटु कधमासे कधं सये।
कधं भुजेज्ज भासेज्ज कधं पावं ण बज्झई ।। १. श्रतावरणक्षयोपशमाद्यन्तरङ्गवहिरङ्गमन्निधाने सति श्रूयते म्मेतिश्रुतम्
(-तत्त्वा० वा. १-६, २ पृ० ४४ ज्ञानपीठ संस्करण) २. स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्व प्रकाशने । भेद: साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्तवन्यतमं भवेत् ।।
-प्राप्त मीमांसा १०५
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
जवंचरे जदं चिटू जदमासे जदं सये।
जदं भुजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झई ।।(मूला० १०-१२१) मुनियों को कैसे चलना चाहिए, कैसे खड़े होना और बैठना चाहिए। कसे सोना चाहिए, कैसे भोजन करना चाहिए, और कैसे बात-चीन करना चाहिये, और कैसे पाप बन्ध नही होता है ? इस तरह गण घर के प्रश्नां के अनुसार साधु को यत्न से चलना चाहिये, यत्न पूर्वक खड़े रहना चाहिए, यत्न से बैठना चाहिये, यत्न पूर्वक शयन करना चाहिए, यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिए, और यत्न से सम्भाषण करना चाहिये। इस तरह यत्न पूर्वक आचरण करने से पाप कर्म का बन्ध नहीं होता है । इस अंग में पांच महाव्रत, पाँच समिति, तोन गुप्ति, और पंच प्राचारों आदि का वर्णन किया गया है।
सूत्रकृतांग - छत्तीस हजार पदों के द्वारा ज्ञान विनय, प्रज्ञापना, कल्प, प्रकल्प, छेदोपस्थापना आदि व्यवहार धर्म की क्रियाओं का वर्णन करता है। साथ ही स्वसिद्धान्त और पर सिद्धान्त का भी कथन करता है।
___ स्थानांग-वयालीस हजार पदों द्वारा एक मे लेकर उत्तरोत्तर एक एक अधिक स्थानों का निरूपण करता है। उसका उदाहरण-यह जीव द्रव्य अपने चैतन्य धर्म को अपेक्षा एक है। ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का है । कर्मफलचेतना, कर्म चेतना और ज्ञान चेतना की अपेक्षा तीन प्रकार का है। अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की अपेक्षा तीन भेद रूप है। चार गतियों में भ्रमण करने वाला होने से चार भेद वाला है। प्रोदयिक आदि पाँच भावों से युक्त होने के कारण पांच भेद हैं। भवान्तर में जाते समय पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण ऊपर और नीचे इस तरह छह अप कर्म से युक्त होने से छ: दिशाओं में गमन करने के कारण छह प्रकार का है। अस्ति, नास्ति आदि सात अंगों से युक्त होने के कारण सात भेद रूप हैं । ज्ञानावरणादि कर्मा के प्रास्त्रव से युक्त होने की अपेक्षा आठ प्रकार का है। जीव अजीवादि नो पदार्थ रूप परिण मन होने के कारण नौ प्रकार का है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येक वनस्पति कायिक, साधारण वनस्पति कायिक, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति तथा पंचेन्द्रिय जाति के भेद से दस प्रकार का है।
चौथा समवायांग-एक लाख चौसठ हजार पदों के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों के समवाय का वर्णन करता है। वह समवाय चार प्रकार का है । द्रव्य, क्षेत्र काल ओर भाव । द्रव्य समवाय की अपेक्षा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश समान है। क्षेत्र समवाय की अपेक्षा प्रथम नरक के प्रथम पटल का सीमन्तकविल, मनुप्य लोक, प्रथम स्वर्ग के प्रथम पटल का ऋजुविमान और सिद्ध क्षेत्र इन सबका विस्तार समान है। काल की अपेक्षा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल समान हैं। दोनों का प्रमाण दस कोडा कोडि सागर है। भाव की अपेक्षा क्षायिक सभ्यक्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और यथाख्यात चारित्र समान हैं। इस प्रकार समानता की अपेक्षा जीवादि पदार्थों के समवाय का कथन समवायांग में किया गया है।
पाँचवा व्याख्या प्रज्ञप्ति अंग-दो लाख अट्ठाईस हजार पदों के द्वारा 'क्या जीव है अथवा नही है इत्यादि रूप में साठ हजार प्रश्नों का व्याख्यान करता है। ज्ञातृधर्मकया नाम का छठा अंग पांच लाख छप्पन हजार पदों के द्वारा तीर्थकरों की धर्म देशना का, सन्देह को प्राप्ति गणधरदेव के सन्देह को दूर करने की विधि का नथा अनेक प्रकार की कथा उपकथाओं का वर्णन करता है।
सातवाँ उपासकाध्ययनांग-ग्यारह लाख सत्तर हजार पदों के द्वारा थाबकों के प्राचार का वर्णन करता है । अन्तकृद्दशांग नाम का पाठवां अग तेईस लाख अट्ठाईस हजार पदों के द्वारा एक-एक तीर्थकर के तीर्थ में दारुण उपसर्गों को सहन कर निर्वाण को प्राप्त हए दस-दस अन्तकृत कंवलियों का कथन करता है।
अनुत्तरोपपादिक दशा-नाम का नौवां अग वानवे लाख चालीस हजार पदों के द्वारा एक-एक तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहन कर विराजमान पांच अनुत्तर विमानों में जन्मे हुए दस-दस मुनियों का वर्णन करता है। जैसे वर्धमान तीर्थकर के तीर्थ में ऋपिदास-धन्य- सुनक्षत्र-कार्तिक-नन्द-नन्दन- शालिभद्र
१. विजय वैजयन्त जयंतापराजितसर्वार्थ सिद्धास्यानि पंचानुत्तराणि । तत्त्वा० वा० पृ० ५१
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३
द्वादशांग श्रुत और श्रुतकेवली अभय-वारिषेण और चिलात पुत्र इन दशमुनियों ने दारुण उपसर्गों को जीता है और अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए।
प्रश्न व्याकरण-नामक दसवां अंग तिरानवे लाख सोलह हजार पदों के द्वारा आक्षेप-प्रत्याक्षेप पूर्वक कपूर्ण प्रश्नों का समाधान करता है । अथवा प्राक्षेपणी विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदनी इन चार कथानों का वर्णन करता है। जो एकान्त दप्टियों का निराकरण करके छः द्रव्य और नौ पदार्थों का निरूपण करती है उसे प्राक्षेपणी कथा कहते हैं। जिसमें पहले पर सिद्धान्त के द्वारा स्वमिद्धान्त में दोष बतलाकर पीछे पर समय का खण्डन करके स्वसिद्धान्त की स्थापना की जाती है उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं। पूण्य के फल का वर्णन करने वाली कथा को संवेदनी कथा कहते हैं। पाप के फल का वर्णन करने वाली कथा निवेदनी कहलाती है। प्रश्न व्याकरण अग प्रश्न के अनुसार नष्ट, चिन्ता लाभ, अलाभ, सुख, दुखः, जीवित, मरण, जय, पराजय का भी वर्णन करता है।
विपाकसूत्र-नाम का ग्यारहवां अंग एक करोड़ चौरासी लाख पदों द्वारा पूण्य-पाप रूप विवादों काप्रच्छे बुरे कर्मों के पलों का वर्णन करता है। इन समस्त ग्यारह अंगों के पदों का जोड़ चार करोड़, पन्द्रह लाख दो हजार है (४१५०२००० है ।)
बारहवां अंग दृष्टि प्रवाद है। इसमें तीन सौ मठ मतों का-क्रियावादियों, प्रक्रियावादियों अज्ञान दप्टियों और वनयिक दृष्टियों का वर्णन और निराकरण किया गया है। दप्टिवाद के पांच अधिकार हैंपरिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्व और चूलिका । उनमें से परिकर्म के पाँच भेद हैं-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीपसमुद्रप्राप्त, और व्याख्याप्रज्ञप्ति । चन्द्रप्रज्ञप्ति नामक परिकर्म छत्तीस लाख पाँच हजार पदों के द्वारा चन्द्रमा की प्रायू, परिवार, ऋद्धि, गति और चन्द्रबिम्ब को ऊँचाई आदि का वर्णन करता है। सूर्यप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म पाँच लाख तीन हजार पदों के द्वारा सूर्य की प्रायु, भोग, उपभोग, परिवार, ऋद्धि, गति, और सूर्यबिम्ब की ऊंचाई, दिन की हानि वृद्धि, किरणों का प्रमाण और प्रकाश आदि का वर्णन करना है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति नाम का परिकम तीन लाख पच्चीस हजार पदों के द्वारा जम्बूद्वीप की भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के मनुप्य और तिर्यञ्चों का तथा पर्वत, हृद, नदी, वेदिका, क्षेत्र, आवास, अकृत्रिम जिनालय आदि का वर्णन करता है। द्वीपसमूद्रप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म वावन लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा उद्धारपत्य के प्रमाण से द्वीप और समुद्रों के प्रमाण का तथा द्वीप-सागर के अन्तर्भूत अन्य अनेक बातों का वर्णन करता है। व्याख्या प्रज्ञप्ति नाम का परिकम चौरासी लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य का तथा भव्य और अभव्य जीवों का वर्णन करता है।
दप्टिवाद अग का सूत्र नाम का अर्थाधिकार अठासी लाख पदों के द्वारा जीव प्रबन्धक है, अवलेपक है, अकर्ता है, अभोक्ता है, निर्गण है, व्यापक है, अणुप्रमाण है, नास्ति स्वरूप है, अस्तिस्वरूप है, पृथिवी प्रादि पंचभतों से जीव उत्पन्न हआ है, चेतना रहित है, ज्ञान के बिना भी सचेतन है, नित्य ही है, अनित्य ही है, इत्यादिरूप से क्रियावाद, अत्रियावाद अज्ञानवाद, ज्ञानवाद और वैनयिकवाद आदि तीन सौ सठ मतों का वर्णन पूर्वपक्षरूप से करता है।
प्रथमानयोग-नाम का तीसरा अर्थाधिकार पांच हजार पदों के द्वारा चौबीस तीर्थकर, वारह चक्रर्वी, नौ प्रतिनारायण के पुराणों का तथा जिनदेव विद्याधर, चक्रवर्ती, चारणऋद्धिधारी मुनि और राजा आदि के वंशों का वर्णन करता है।
चलिका के पांच भेद हैं-जलगता, थलगता, मायागता, रूपगता, और आकाशगता । जलगता चलिका दो करोड नौ लाख नवासी हजार दो सौ पदों के द्वारा जल में गमन तथा जल स्तम्भन के कारण भूत मंत्र-तंत्र तपश्चर्या
१. अनुतरेम्बोपपादिका अनुत्तगैपपादिका :-ऋपिदास-धन्य-मुनक्षत्र-कार्तिक-नन्द-नन्दन-शालिभद्रअभय-वारिषेण-चिलातपुत्र इत्येते दश वर्धमानतीर्थकरतीर्थे । एवं वृषभादीनां त्रयोविंशतेस्ती वन्येऽन्ये च दश दशानगाग दश दश दारुणानुपसर्गानिजित्य विजयाद्यनुत्तरेषूत्पन्न इत्येवमनुत्तरीपपादिकाः दशास्या वर्ण्यन्त इत्यनुत्तरोपपादिक दशा।
-तत्त्वा० वा० पृ०७३
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
प्रादि का वर्णन करती है। थलगता चूलिका उतने ही पदों के द्वारा पृथिवी, के भीतर से गमन करने के कारणभूत मंत्र-तंत्र पोर तपश्चर्या का तथा वस्तुविद्या और भूमि सम्बन्धी अन्य शुभाशुभ कारणों का वर्णन करती है। मायागता चूलिका उतने ही पदों के द्वारा मायारूप इन्द्रजाल के कारणभूत मत्रतत्र और तपश्चरण का वर्णन करती है। रूपगता चूलिका उतने ही पदों के द्वारा सिंह, घोड़ा, हरिण आदि का आकार धारण करने के कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्चरण आदि का वर्णन करती है। तथा उसमें चित्रकर्म, काप्ठकर्म, लेप्यकर्म आदि का भी वर्णन रहता है। आकाशगता चलिका उतने ही पदों के द्वारा आकाश में गमन करने के कारणभूत मंत्र तत्र तपश्चरण आदि का वर्णन करती है। इन पांचों चलिकाओं के पदों का जोड़ दस करोड़, उनचास लाख छयालीस हजार है। पूर्व नामक अर्थाधिकार के चौदह भेद हैं-उत्पादपूर्व, अग्रायणीपूर्व, वीर्यानुप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामधेय, विद्यानुप्रवाद, कल्याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकविन्दुसार।
उत्पादपूर्व एक करोड़ पदों के द्वारा जीव, काल पुद्गल आदि द्रव्यों के उत्पाद, व्यय, और ध्रोव्य का वर्णन करता है । अग्रायणीपूर्व छयानवे लाख पदों के द्वारा सात सौ सुनय और दुर्नयों का तथा छह द्रव्य, नौ पदार्थ और पांच अस्तिकायों का वर्णन करता है। वीर्यानुप्रवाद नाम का पूर्व-सत्तर लाख पदों के द्वारा प्रात्म वीर्य, परवीर्य उभयवीर्य, क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य, भववीर्य तपवीर्य का वर्णन करता है । अस्ति नास्तिप्रवादपूर्व-साठ लाख पदों के द्वारा स्वरूप चतुष्टय की अपेक्षा सब द्रव्यों के अस्तित्व का वर्णन करता है। जैसे स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, और स्वभाव की अपेक्षा जीव कथंचित् सत्स्वरूप है। परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा जीव कथंचित् नास्ति स्वरूप है । स्वचतुष्टय और परचतुष्टय की एक साथ विवक्षा होने पर जीव कथंचित् अवक्तव्य स्वरूप है। स्वद्रव्यादिचतुष्टय और परद्रव्यादिचतुष्टय की क्रम से विवक्षा होने पर जोव कथंचित् अस्ति नास्तिरूप है। इसी तरह अन्य अजीवादि का भी कथन कर लेना चाहिये।
ज्ञान प्रवादपूर्व-एक कम एक करोड़ पदों के द्वारा मतिज्ञान आदि पांच ज्ञानों का तथा कुमति ज्ञान प्रादि तीन अज्ञानों का वर्णन करता हैं । सत्यप्रवाद नाम का पूर्व एक करोड़ छह पदों के द्वारा दस प्रकार के सत्य वचन अनेक प्रकार के असत्य वचन, और बारह प्रकार की भाषाओं आदि का वर्णन करता है। प्रात्मप्रवादपूर्व छव्वीस करोड़ पदों के द्वारा जीव-विषयक दुर्नयों का निराकरण करके जीव द्रव्य की सिद्धि करता है-जीव है, उत्पाद व्यय-ध्रौव्य रूप त्रिलक्षण से युक्त है, शरीर के बराबर है, स्व-पर प्रकाशक है, सूक्ष्म है, अमूर्त है, व्यवहारनय कर्मफल का और निश्चयनय से अपने स्वरूप का भोक्ता है, व्यवहारनय से शुभाशुभकर्मो का और निश्चयनय से अपने चैतन्य भावों का कर्ता है । अनादिकाल से बन्धनबद्ध है, ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला है, ऊर्ध्व गमन स्वभाव है, इत्यादि रूप मे जीव का वर्णन करता है। कुछ प्राचार्यो का मत है कि प्रात्मप्रवादपूर्व सब द्रव्यों के आत्मा अर्थात् स्वरूप का कथन करता है।
कर्म प्रवादपूर्व-एक करोड़ अस्सी लाख पदों के द्वारा आठों कर्मों का वर्णन करता है । प्रत्याख्यानपूर्व चौरासी लाख पदों के द्वारा प्रत्याख्यान अर्थात् सावद्य वस्तु त्याग का, उपवास की विधि और उसकी भावना रूप पाँचसमिति तीन गुप्ति आदि का वर्णन करता है। विद्यानुप्रवाद पूर्व एक करोड़ दशलाख पदों के द्वारा सात सौ अल्प विद्याओं का, पाँच सौ महाविद्याओं का और उन विद्यानों की साधक विधि का और उनके फल का एवं आकाश, भौम, अंग, स्वर स्वप्न, लक्षण, व्यंजन, चिह्न इन आठ महानिमित्तों का वर्णन करता है।
कल्याणवाद पूर्व छव्वीस करोड़ पदों के द्वारा सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह नक्षत्र और तारागणों के चार क्षेत्र, उपपाद स्थान, गति, विपरीत गति और उनके फलों का तथा तीर्थङ्कर, बलदेव, वासदेव और चक्रवर्ती आदि के गर्भावतार आदि कल्याणकों का वर्णन करता है। प्राणावाय पूर्व तेरह करोड़ पदों के द्वारा अष्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म (शरीर आदि की रक्षा के लिये किये गए भस्मलेपन, सूत्रबन्धन आदि कर्म) जांगुलि प्रथम (विषविद्या) और स्वासोच्छ्वास के भेदों का विस्तार से वर्णन करता है।
क्रियाविशाल पूर्व नौ करोड़ पदों के द्वारा वहत्तर कलाओं का, स्त्री सम्बन्धी चौंसठ गुणों का, शिल्पकला का, काव्य-सम्बन्धी गुण-दोष का और छन्दशास्त्र का वर्णन करता है । लोक बिन्दुसार पूर्व बारह करोड़ पचास लाख
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वादशांग सूत्र और श्रुतकेवली
४५
पदों के द्वारा पाठ प्रकार के व्यवहारों का, चार प्रकार के बीजों का, मोक्ष को ले जाने वाली क्रिया का और मोक्ष के सुखों का वर्णन करता है। मङ्ग बाह्यश्रुत
अंगबाह्य श्रुतज्ञान के चौदह भेद हैं-सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प व्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका ।
सामायिक नाम का अङ्ग बाह्य, नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छह भेदों के द्वारा समताभाव के विधान का वर्णन करता है । चतुर्विशतिस्तव-उस काल सम्बन्धी चौबीस तीर्थकरों की वन्दना का विधान और उसके फल का वर्णन करता है । वन्दना नाम का अङ्गबाह्य एक-तीर्थकर और उस एक तीर्थकर के जिनालय सम्बन्धी वन्दना का निर्दोप रूप से वर्णन करता है। जिसके द्वारा प्रमाद से लगे हुए दोषों का निराकरण किया जाता है उसे प्रतिक्रमण कहते हैं। वह देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ईर्यापथिक और प्रोत्तमाथिक के भेद से सात प्रकार का है। प्रतिक्रमण नाम का अङ्ग बाह्य दुषमादिकाल और छह संहननों में से किसी एक संहनन से युक्त स्थिर तथा अस्थिर स्वभाव वाले पुरुषों का आश्रय लेकर इन सात प्रकार के प्रतिक्रमणों का वर्णन करता है। वैनयिक नामक अंग बाह्य ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तप विनय और उपचार विनय इन पांच प्रकार विनयों का वर्णन करता है।
कृतिकर्म-नामक अंग बाह्य, अरहंत, सिद्ध, प्राचार्य उपाध्याय और साधु की पूजा विधि का कथन करता है। दश वैकालिक अनग साधनों के प्राचार और भिक्षाटन का वर्णन करता है। उत्तराध्ययन चार प्रकार के उपसर्ग और बाईस परीषहों के सहने के विधान का और उनके सहन करने के फल का तथा इस प्रश्न का यह उत्तर होता है इसका वर्णन करता है। ऋषियों के करने योग्य जो व्यवहार हैं उनके स्वलित हो जाने पर जो प्रायश्चित्त होता है उन सबका वर्णन कल्प व्यवहार करता है । साधुओं के और असाधुओं के जो व्यवहार करने योग्य हैं और जो व्यवहार करने योग्य नही हैं-प्रकरणीय हैं। उन सब का द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर कल्प्पाकल्प्य कथन करता है। दीक्षा ग्रहण, शिक्षा, आत्म संस्कार, सल्लेखना और उत्तम स्थापना रूप आराधना को प्राप्त हुए साधनों के जो करने योग्य है, उसका द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर महाकल्प्य कथन करता है। पूण्डरीक अग बाह्य भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, कल्पवासी, और वैमानिक सम्बन्धी देव, इन्द्र, सामानिक, आदि में उत्पत्ति के कारण भूत दान, पूजा, शील, तप, उपवास, सम्यक्त्व और अकाम निर्जरा का तथा उनके उपपाद स्थान और भवनों का वर्णन करता है । महापुण्डरीक उन्ही भवनवासो आदि देवों और देवियों में उत्पत्ति के कारणभूत तप और उपवास आदि का वर्णन करता है । निपिद्धिका-अनेक प्रकार की प्रायश्चित्त विधि का वर्णन करता है।
भगवान महावीर के मोक्ष जाने के बाद तीन अनुबद्ध केवली और पांच श्रुत केवली हुए हैं। इनमें भद्र बाह अन्तिम थ त केवली थे। उस समय तक यह अंगथत अपने मूलरूप में चला पाया है। इसके पश्चात् बुद्धि बल और धारणा शक्ति के क्षीण होते जाने मे तथा अंग श्रत को पुस्तकारूढ़ किये जाने की परिपाटी न होने से क्रमशः वह विच्छिन्न होता गया । इस इरह एक ओर जहाँ अग थुन का अभाव होता जा रहा था, वहाँ दूसरी ओर श्रुत परम्परा को अवच्छिन्न बनाये रखने के लिये और उसका सीधा सम्बन्ध भगवान महावीर की वाणी से बनाये रखने के लिए भी प्रयत्न होते रहे हैं । अंग थु त के बाद दूसरा स्थान अंग बाह्य श्रत को मिलता है। इनके भेदों का संक्षिप्त परिचय पहले लिख आये हैं।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांच श्रुत केवली
१. विष्णुनन्दि (प्रथम श्रुत केवली)
जम्बूस्वामी ने केवली होने से पहले विष्णुनन्दि आदि प्राचार्यो को द्वादशांग का व्याख्यान किया । और केवली होकर अडतीम वर्ष पर्यन्त जिन शासन का उद्योत किया। अन्तिम केवली जम्ब स्वामी के पर सकल सिद्धान्त के ज्ञाता विष्णु प्राचार्य हुए। जो चतुर्दश पूर्वधारी और प्रथम श्रु त केवली थे । तप के अनुष्ठान से जिनका शरीर कृश हो गया था। अोर क्रोध, मान, माया और लोभादि चारों कपाएँ जिनकी उपसमित हो गई थी। जो ज्ञान-ध्यान और तप में निष्ठ रहते हुए भी मघ का निर्वहन करते थे। आप में संघ के संचालन की अपूर्व शक्ति थी । आपके तप और तेज का प्रभाव भी उसमें सहायक था । आपकी निर्मलता और सौम्यतादि गुण स्पर्धा की वस्तु थे। साधनों के निग्रह-अनुग्रह में प्रवीण, कठोर तपस्वी थे । मघस्थ मुनियों पर प्रापका प्रभाव उन्हे अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होने देता था। आपकी प्रशान्त मुद्रा और हंस मुख साधु संघ पर अपना प्रभाव अकित किये हुए था। पापने वीस वर्ष तक विभिन्न देशों में ससघ विहार कर धर्मोपदेश द्वारा जगत का कल्याण किया। और अन्त में नन्दिमित्र को द्वादशागथ त और सघ का सव भार समर्पण कर देव लोक प्राप्त किया। २. नन्दिमित्र-(द्वितीय श्रुत केवली)
___महामुनि नन्दिमित्र कठोर नपश्चरण द्वारा आत्म-साधना में संलग्न रहते थे। ध्यान और अध्ययन दोनों कार्यों में अपना समय व्यतीत करते थे। वे समागत उपसर्ग और परिषहों से नही घबराते थे। प्रत्युत अपने प्रात्मध्यान में अत्यन्त सलग्न हो जाते थे। संघ में वे अपने सौम्यादि गुणों के कारण महत्ता को प्राप्त थे।
प्राचार्य विष्णुनन्दि के दिवगत होने से पूर्व द्वादशांग का व्याख्यान नन्दिमित्र को किया था और संघ का कूल भार आपको सौप दिया था। नन्दिमित्र चतुर्दश पूर्वधर श्रु तकेवली हुए। आपने २० वर्ष तक संघ सहित विविध देशो तथा नगरों में विहार कर वीर शासन का प्रचार किया। और जनता को धर्मोपदेश द्वारा कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया । अन्त में आपने अपना सघ भार अपराजिताचार्य को मौंपकर देव लोक प्राप्त किया। ३. प्राचार्य अपराजित (तृतीय श्रुत केवली)
आचार्य अपराजित ने तपश्चरण द्वारा जो आत्म-शोधन किया, उससे कपायमल का उपशम हो गया। अापकी सौम्य प्रकृति और मिष्ट सभापण संघ में अपनी खासविशेपता, रखता था । ध्यान, अध्ययन और अध्यापन ही आप के सम्बल थे। यद्यपि आप गरीर मे दुर्बल थे, किन्तु प्रात्मवल बढ़ा हुआ था। वे पंच प्राचारों का स्वयं आचरण करते थे, और अन्य माधुनो मे कराते थे। निग्रह और अनुग्रह में चतुर थे । नन्दिमित्राचार्य ने देवलोक प्राप्त करने से पूर्व ही मघ का सव भार अपराजित को सौप दिया था। पश्चात् वे दिवंगत हुए। प्राचार्य अपराजिन वाद करने में अत्यन्त निपुण थे, कोई उनमे विजय नही पा सकता था। अतएव वे सार्थक नाम के धारक थे। और द्वादशांग के वेत्ता थु न केवली थे । मघ का सब भार वहन करते हुए उन्होंने सघ सहित विविध देशों, नगरों, और ग्रामों में विहार कर धर्मोपदेश द्वारा जनता का कल्याण और वीर शासन के प्रचार एव प्रसार में अपना पूर्ण सहयोग प्रदान किया । अन्त में आपने अपना सब सघ भार गोवर्द्धनाचार्य को सौप कर दिवगत हुए। ४. गोवर्द्धनाचार्य (चतुर्दश पूर्वधर) चतुर्थश्रुतकेवली
यह अपराजित श्रुतकेवली के शिप्य थे। अन्तर्वाह्य ग्रन्थि के परित्यागी, महातपस्वी और चतुर्दश पूर्वधर, तथा अष्टांग महा निमित्त के वेत्ता थे। वे एक समय ससंघ विहार करते हुए ऊर्जयन्तगिरि या रेवतक पर्वत के १. विष्णु प्राग्यो मयल मितिनो उवममिय चउकसायो णदिमित्ताइग्यिास समिप्पय दुवालसगो देवलोअ गदो।
-जय धवला पु० १ पृ० ८५
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांच श्रुतकेवली
भगवान नेमिनाथ जिनकी स्तुति वंदनादि कर विहार करते हुए देवकोट्ट नगर में आए। जो पोड्रवर्धन देश में स्थित था। वहां उन्होंने मार्ग में कुछ बालकों को गोलियों से खेलते हुए देखा, उन बालकों में एक बालक तेजस्वी और प्रखर बुद्धि का था । उसने एक के ऊपर एक इस तरह चौदह गोलियां चढ़ा दी, उसे देख आचार्य श्री ने निमित्त ज्ञान से जान लिया कि यही बालक चतुर्दश पूर्वधर ( अन्तिम श्रुतकेवली ) होगा। उन्होंने उसका नाम और पिता का नामादि पूछा, बालक ने अपना नाम भद्रबाहु और पिता का नाम सोमशर्मा बतलाया । आचार्य श्री ने पूछा, वत्स, तुम हमें अपने पिता के घर ले जा सकते हो, वह बालक तत्काल उन्हें अपने घर ले गया । सोमशर्मा ने आचार्य महाराज को देखकर विनय से नमस्कार कर उच्चासन पर बैठाया। प्राचार्य श्री ने कहा कि तुम अपने इस पुत्र को मुझे विद्या पढ़ाने के लिए दे दीजिए। सोम शर्मा ने उनकी बात स्वीकार कर बालक का आचार्य श्री के साथ भेज दिया | गोवर्द्धनाचार्य ने भद्रबाहु को अनेक विद्याएं सिखाई। और उसे निपुण विद्वान बना दिया। और कहा कि अब तुम विद्वान हो गए हो। अपने माता-पिता के पास जाओ । भद्रबाहु अपने पिता के पास गया, उसे विद्वान देखकर वे हर्षित हुए। भद्रबाहु उनको आज्ञा लेकर पुनः संघ में आ गया। ओर गुरु महाराज से वैगम्बरी दाक्षा ग्रहण कर तपश्चरण करना प्रारम्भ किया । आचार्य श्री ने भद्रबाहु को द्वादशांग का वेत्ता श्रुतकेवली बना दिया । और संघ का सब भार भद्रबाहु को सौंप दिया । गोवर्द्धनाचार्य ने स्वयं ग्रात्म-साधना करते हुए अन्त में समाधि पूर्वक देवलोक प्राप्त किया ।
भद्रबाहु श्रुतवली के स्वर्गवास के पश्चात् भरतक्षेत्र में श्रुतज्ञान रूप पूर्णचन्द्र अस्तमित हो गया । किन्तु उस समय ग्यारह अंगों और विद्यानुवाद पर्यन्त दृष्टिवाद अंग के भी धारक विशाखाचार्य हुए। उनके बाद कालदोष से आगे के चार पूर्वो के धारक भी व्युच्छिन्न हो गए ।
४७
प्रस्तुत विशाखाचार्य प्रचार आदि ग्यारह अंगों के और उत्पादपूर्वादि दश पूर्वो के धारक हुए। तथा प्रत्याख्यान प्राणवाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार इन चार पूर्वो के एक देश धारक हुए । इन्हा को अध्यक्षता बारह हजार मुनियों का संघ भद्रबाहु के निर्देश से पाण्यादि देश की ओर गया था। और बारह वर्ष बाद दुर्भिक्ष की समाप्ति के बाद पुनः वापिस आ गया था ।
५. भद्रबाहु पंचम श्रुतकेवली
अन्तिम केवली जम्बू स्वामी के निर्वाण के बाद दिगम्बर- श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों की गुर्वावलियां भिन्न-भिन्न हो जाती है । किन्तु श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय वे गंगा-यमुना के समान पुनः मिल जाती हैं। तथा भद्रबाहु श्रुतवली के स्वर्गवास के पश्चात् जैन परम्परा स्थायी रूप से दो विभिन्न श्रोतों में प्रवाहित होने लगती है । अतएव भद्रबाहु नकेवली दोनों ही परम्पराओं में मान्य हैं ।
१ गोवर्धनश्चत मावा चतुर्दशपूर्विग्गाम् । निर्मलीकृतसर्वाशो ज्ञानचन्द्रकरोत्करै ।। ६ ऊर्जयन्त गिरि नेमि स्तोतुकामो महातपा: । विहरन् वरि प्राप कोटीनगर मुद्दश्वजम् । १० भद्रबाहुकुमार च स दृष्टवा नगरे पुन: । उप कुर्वाण ताश्चतुर्दशवट्टकान् ।। ११ पूर्वोक्तपूर्वणा मध्ये पञ्चमः श्रुतकेवली | समम्नपूर्वधारी च हरिषेण कथा० पृ० ३१७ २ नानाविध तनः कृत्वा गोवर्धन गुरु स्तदा । सुरलोक जगामाशु देवीगीत मनोहरम् ॥ २२
गणभाजनः ।।१२।।
हरिषेण कथा० पृ० ३१७
१
वर विसाहारियो तक्काले आयागदीग मेक्कारसम्हमगारणमुप्पायपुव्वाईण दसहं पुवाण च पच्चक्खाणपाणवाय - किरिया विशाल लोगबिदुसार पुव्वारगमेगदेमाण च धारम्रो जादो ।
जयधवना पु० १० ८५
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ भद्रबाहरग्रिमः समग्रबुद्धिसम्पदा, सु शब्द सिद्धशासनं सुशब्द-बन्ध-सुन्दरम् । इख-वृत्त-सिद्धिरन्नबद्ध कर्मभित्तपो,
वृद्धि-वधिन-प्रकीतिरुद्दधे महधिक : ।। यो भद्रबाहु श्रुतकेवलीना मुनीश्वराणामिह पश्चिमोऽपि । अपश्चिमोऽभूद्विदुषां विनेता, सर्वश्रुतार्थप्रतिपादनेन ॥
श्रवण बेलगोल शिला० १०८ पण्डवर्धन देश में देवकोट नाम का एक नगर था. जिसका प्राचीन नाम 'कोटिपर' था। इस नगर में मोम शर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सोमश्री था, उससे भद्रबाहु का जन्म हुआ था। वालक स्वभाव से ही होनहार और कुशाग्रबुद्धि था। उसका क्षयोपशम और धारणा शक्ति प्रबल थी। प्राकृति सौम्य और सन्दर थी। वाणी मधर और स्पष्ट थी। एक दिन वह बालक नगर के बाहर अन्य बालकों के साथ गंटों (गोलियों) मे खेल रहा था। खेलते-खेलते उसने चौदह गोलियों को एक पर एक पंक्तिबद्ध खड़ा कर दिया। ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार) के भगवान नेमिनाथ की यात्रा से वापिस आते हए चतुर्थ श्रतकेवली गोवर्धन स्वामी संघ सहित कोटि ग्राम पहुंचे। उन्होंने बालक भद्रबाहु को देखकर जान लिया कि यही बालक थोड़े दिनों में अन्तिम श्रुतकेवली और घोर तपश्वी होगा। अतः उन्होंने उस बालक से पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है, और तुम किसके पुत्र हो। तब भद्रबाहु ने कहा कि मैं सोमशर्मा का पुत्र हूं। और मेरा नाम भद्रबाहु है। प्राचार्य श्री ने कहा, क्या तुम चलकर अपने पिता का घर बतला सकते हो? बालक तत्काल प्राचार्य थो को अपने पिता के घर ले गया। प्राचार्यश्री को देखकर सोम शर्मा ने भक्ति पूर्वक उनकी वन्दना की। और बैठने के लिए उच्चासन दिया। प्राचार्य श्री ने सोम शर्मा से कहा कि आप अपना बालक हमारे साथ पढ़ने के लिए भेज दीजिए । सोम शर्मा ने प्राचार्यश्री से निवेदन किया कि बालक को आप खुशी से ले जाइए। और पढाइए। माता-पिता की प्राज्ञा से प्राचार्यश्री ने बालक को अपने संरक्षण में ले लिया। और उसे सर्व विद्यायें पढाई। कुछ ही वर्गों में भद्रबाह सब विद्यानों में निप्णात हो गया। तब गोवर्द्धनाचार्य ने उसे अपने माता-पिता के पास भेज दिया। माता-पिता उमे सर्व विद्या सम्पन्न देखकर अत्यन्त हपित हए। भद्रबाह ने माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मागी, और वह माता-पिता की आज्ञा लेकर अपने गुरु के पाम वापिस आ गया। निष्णात बुद्धि भद्रबाहुं ने महा वैराग्य सम्पन्न होकर यथा समय जिन दीक्षा ले ली। और दिगम्बर साधु बनकर आत्म-माधना में तत्पर हो गया।
___ एक दिन योगी भद्रवाहु प्रात काल कायोत्सर्ग में लीन थे कि भक्तिवश देव असुर और मनुष्यों से पजित हए। गोवर्द्धनाचार्य ने उन्हें अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित कर, संघ का सब भार भद्रबाहु को सौप कर निःशल्य हो गए। और कुछ समय बाद गोवर्द्धन स्वामी का स्वर्गवास हो गया। गुरु के स्वर्गवास के पश्चात् भद्रबाहु सिद्धि सम्पन्न मुनि पुगव हुए । कठोर तपस्वी और प्रात्म-ध्यानी हुए। और मघ का सब भार वहन करने में निपुण थे। वे चतुर्दश पूर्वधर और अप्टाग महानिमित्त के पारगामी श्रुतकेवली थे। अपने सघ के साथ उन्होंने अनेक देशों में विहार धर्मोपदेश द्वारा जनता का महान् कल्याण किया।
भद्रबाह श्रतवली यत्र-तत्र देशों में अपने विशाल संघ के साथ विहार करते हए उज्जैन पधारे, और सिप्रा नदी के किनारे उपवन मे टहरे । वहा सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने उनकी वन्दना की, जो उस समय प्रातीय उप राजधानी में ठहरा हुआ था ! एक दिन भद्रबाहु आहार के लिए नगरी में गए। वे एक मकान के प्रागन में प्रविष्ठ हुए। जिसमें कोई मनुष्य नही था; किन्तु पालना में झूलते हुए एक बालक ने कहा, मुने ! तुम यहा से शीघ्र चले जाओ, चले जानो। तब भद्रबाह ने अपने निमित्तज्ञान से जाना कि यहा बारह वर्ष का भारी दुभिक्ष पड़ने वाला है। बारह वर्ष तक वर्षा न होने से अन्नादि उत्पन्न न होगे। और धन-धान्य से समृद्ध यह देश शून्य हो जाएगा पौर भूख के कारण मनुष्य-मनुष्य को खा जाएगा। यह देश राजा, मनुष्य और तस्करादि से विहीन हो जाएगा। ऐसा जानकर पाहार लिए बिना लौट पाए और जिन मदिर में प्राकर आवश्यक क्रियाएं सम्पन्न की। पौर अप
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
YE
पांच श्रुत केवली राण्ह काल में समस्त संघ में घोषणा की कि यहाँ बारह वर्ष का घोर दुभिक्ष होने वाला है। प्रतः सब संघ को समुद्र के समीप दक्षिण देश में जाना चाहिए।
सम्राट् चन्द्रगुप्त ने रात्रि में सोते हुए सोलह स्वप्न देखे । वह प्राचार्य भद्रवाहु से उनका फल पूछने पौर धर्मोपदेश सुनने के लिये उनके पास आया और उन्हें नमस्कार कर उनसे धर्मोपदेश सुना, अपने स्वप्नों का फल पछा। तब उन्होंने बतलाया कि तुम्हारे स्वप्नों का फल अनिष्ट संसूचक है। यहाँ बारह वर्ष का घोर दुर्भिक्ष पड़ने वाला है, उससे जन-धन की बड़ी हानि होगी। चन्द्रगुप्त ने यह सुनकर और पुत्र को राज्य देकर भद्रबाहु से जिन-दीक्षा ले लो' । जैसा कि तिलोयपण्णती को निम्न गाथा से स्पष्ट है -
मउडधरेसु चरिमो जिणदिक्ख धरदि चन्द्रगुत्तो य ।
तत्तो मउडधरा पध्वजं व गेण्हति ।। --तिलो०प०४-१४८१
भद्रबाह वहाँ से समंघ चलकर श्रवणबेलगोल तक आये। भद्रबाह ने कहा-मेरा आयुष्य अल्प है, अतः मैं यहीं रहेंगा, और संघ को निर्देश दिया कि वह विशाखाचार्य के नेतृत्व में आगे चला जाये। भद्रबाह श्रतकेवली होने के साथ अष्टांग महानिमित्त के भी पारगामा थे, उन्हें दक्षिण देश में जैनधर्म के प्रचार की बात ज्ञात थी, तभी उन्होंने बारह हजार साधुओं के विशाल संघ को दक्षिण की ओर जाने की अनुमति दी।
भद्रबाह ने सब संघ को दक्षिण के पाण्डयादि देशों की ओर भेजा, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि वहां जैन साधुओं के प्राचार का पूर्ण निर्वाह हो जायगा। उस समय दक्षिण भारत में जनधर्म पहले से प्रचलित था। यदि जैनधर्म का प्रसार वहाँ न होता, तो इतने बड़े संघ का निर्वाह वहाँ किसी तरह भी नहीं हो सकता था। इससे स्पष्ट है कि वहाँ जैनधर्म प्रचलित था । लंका में भी ईसवी पूर्व चतुर्थ शताब्दी में जैनधर्म का प्रच साधनों ने भी वहाँ जैनधर्म का प्रचार किया। तमिल प्रदेश के प्राचीनतम शिलालेख मदुरा और रामनाड जिले से प्राप्त हए हैं जो अशोक के स्तम्भों में उत्कीर्ण लिपि में है। उनका काल ई० पूर्व तीसरी शताब्दी का अन्त और दूसरी शताब्दी का प्रारभ माना गया है। उनका सावधानी से अवलोकन करने पर 'पल्ली', 'मदुराई' जैसे कुछ तमिल शब्द पहचानने में आते हैं । उस पर विद्वानों के दो मत हैं। प्रथम के अनुसार उन शिलालेखों को भापा तमिल है, जो अपने प्राचीनतम अविकसित रूपों में पाई जाती है। और दूसरे मत के अनुसार उनकी भाषा पंशाची प्राकृत है जो पाण्ड्य देश में प्रचलित थी। जिन स्थानों से उक्त शिला लेख प्राप्त हुए है, उनके निस्ट जैन मन्दिरों के भग्नावशेप और जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ पाई जाती हैं, जिन पर सर्प का फण या तीन छत्र अंकित हैं ।२
बौद्ध ग्रन्थ' महावंश की रचना लंका के राजा धंतुमेणु (४६१-४७६ ई.) के समय हुई थी। उसमें ५४३ ई० पूर्व से लेकर ३०१ ई० के काल का वर्णन है। ४३० ई० पूर्व के लगभग पाण्डुगाभय राजा के राज्यकाल में अनुराधापुर में राजधानी परिवर्तित हुई थी। महावंश में इस नगर की अनेक नई इमारतों का वर्णन है। उनमें से एक इमारत निग्रन्थों के लिये थी, उसका नाम गिरि था और उसमें वहत से निर्ग्रन्थ रहते थे। राजा ने निर्ग्रन्थों के लिये एक मन्दिर भी वनवाया था। इससे स्पष्ट है कि लंका में ईसा पूर्व ५वीं शती के लगभग जैनधर्म का प्रवेश हा होगा।
१. भद्रबाहुवचः श्रत्वा चन्द्रगुप्तो नरश्वरः ।
अम्यैव योगिनः पाश्व दधौ जैनेश्वर तपः ।। चन्द्रगुप्त मुनिः शीघ्र प्रथमो दशपूविणाम् । सर्वसंघाधिपो जानो विसपाचार्य संज्ञकः ॥-हरिषेण कथाकोश १३१ (क) - रिमो मउड धरीमो रणरवइणा चन्द्रगुत्तणामाए।
पचमहव्वयगहिया अर्वार रिक्वा (य) वोच्छिण्णा ॥ श्रुतम्कन्ध ब्र० हेमचन्द्र (ख)-तदीयशिप्योऽजनि चन्द्रगुप्तः समग्रशीलानतदेववृद्धः ।
विवेश यस्तीव्रतपः प्रभाव-प्रभूत-कीर्ति बनान्तराणि ॥ - श्रवणवेलगोल शि० १ पृ० २१० २. स्टडीज इन माउथ इण्डियन जैनिज्म पृ० ३२ आदि ३. देखें, जैनिज्म इन साउथ इण्डिया, १० ३१
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
__ भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त वही रह गए। चन्द्रगिरि पर्वत के शिलालेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त का दीक्षा नाम 'प्रभाचन्द्र' था, वे भद्रबाह के साथ कटवा पर ठहर गए, और उन्होंने वही समाधिमरण किया। भद्रबाह की समाधि का भगवती आराधना की निम्न गाथा में उल्लेख है
प्रोमोदरिये घोराए भहबाहय संकिलिट्रमदी।
घोराए तिगिच्छाए पडिवण्णो उत्तमं ठाणं ।। १५४४ इस गाथा मे बतलाया गया है कि भद्रबाहु ने अवमोदर्य द्वारा न्यून भोजन की घोर वेदना सहकर उत्तमार्थ की प्राप्ति की । चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु की खूब सेवा की । भद्रबाहु के दिवगत होने के बाद श्रुतकेवली का प्रभाव हो गया', क्योंकि वे अन्तिम श्रुतकेबली थे।
___ दिगम्बर परम्पग में भद्रबाहु के जन्मादि का परिचय हरिषेण कथाकोष, श्रीचन्द्र कथाकोष और भद्रबाहु चरित प्रादि में मिलता है; और भद्रबाहु के बाद उनकी शिष्य परम्परा अग-पूर्वादि के पाठियों के साथ चलती है, जिसका परिचय आगे दिया जायगा।
श्वेताम्बर परम्परा में कल्पमूत्र, आवश्यकसूत्र, नन्दिसूत्र, ऋषिमंडलसूत्र और हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व में भद्रबाहु की जानकारी मिलती है । कल्पसूत्र की स्थविरावली में उनके चार शिष्यों का उल्लेख मिलता है। पर वे चारों ही स्वर्गवासी हो गए। अतएव भद्रबाहु की शिप्य परम्परा आगे न बढ़ सकी। किन्तु उक्त परम्परा भद्रबाह के गुरुभाई सभूति विजय के शिष्य स्थूलभद्र से आगे बढ़ी। वहाँ स्थलभद्र को अन्तिम श्रतकेवली माना गया है । महावीर के निर्वाण से १७०वें वर्ष में भद्रबाहु का स्वर्गवास हुआ है और स्थूलभद्र का स्वर्गवास वीर निर्वाण सं० १५७ से २५७ तक अर्थात् ईस्वी पूर्व २७० में या उसके कुछ पूर्व हुआ।
दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु का पट्टकाल २६ वर्ष माना जाता है । जबकि श्वेताम्बर परम्परा में पट्टकाल १४ वर्ष बतलाया है। तथा व्यवहार मूत्र, छेदसूत्रादि ग्रन्थ भद्रबाहु श्रुतकेवली द्वारा रचित कहे जाते है।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार भद्रबाहु का स्वर्गवास वीर नि० सवत् के १६२वे वर्ष अर्थात ३६५ ई० पूर्व माना जाता है। दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु थुनकेवली द्वारा रचित साहित्य नही मिलता। इसमें पाठ वर्ष का अन्तर विचारणीय है।
वीर निर्वाण के बाद की श्रत परम्परा तिलोयपण्णत्ती में भगवान महावीर के बाद के इतिहास की बहुत सामग्री मिलती है, उसमें से यहाँ श्रुत परंपरा दी जा रही है।
जिस दिन भगवान महावीर ने मुक्ति पद प्राप्त किया, उसी दिन गौतम गणधर को परमज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त हया । इन्द्रभूति के सिद्ध होने पर मुधर्म स्वामी केवली हुए। उनके कृत कर्मों का नाश कर चुकने पर जम्बू स्वामी केवली हए। उनके बाद कोई अनुबद्ध केवली नही हुआ। इन तीनों का धर्म प्रवर्तनकाल वासठ वर्ष है।
केवलज्ञानियों में अन्तिम श्रीधर हए, जो कुण्डलगिरि से मुक्त हए और चारण ऋषियों में अन्तिम सुपावचन्द्र हुए। प्रज्ञा श्रमणों में अन्तिम वइर जस या वज्रयश, और अवधिज्ञानियों में अन्तिम श्रुत, विनय एवं सुशीलादि से सम्पन्न श्री नामक ऋषि हुए । मुकुटधर राजाओं में अन्तिम चन्द्रगुप्त ने जिन दीक्षा धारण की । इसके बाद मुकुटधरों में किसी ने प्रव्रज्या या दीक्षा धारण नहीं की।
नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पांच श्रनकेवली द्वादश अंगों के धारण करनेवाले हुए। इनका एकत्र काल सौ वर्ष है। पंचम काल में इनके बाद में कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ।
भद्रवाहु श्रुतकेवली के जीवन के अन्तिम समय के निर्देश से विशाखाचार्य सघस्थ साधुओं को दक्षिणापथ की ओर ले गये । और भद्रबाह ने स्वयं भी नव दीक्षित चन्द्रगुप्त मुनि के साथ कटवप्र गिरि पर समाधि धारण की।
-जयध० पु० १ पृ० ८५
१. तदो भद्रबाहु मग्गगते सयल मुदणाणम्स वोच्छेदो जादो। २. मर्वपूर्वधरोऽथासीत्स्थूलभद्रो महामुनिः ।
न्यवेशि चाचार्यपदे श्रीमता भद्रबाहुना ।।१११॥
-परिशिष्ट पर्व, सर्ग ६, पृ०६०
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
सघभेद
प्रस्तुत विशाखाचार्य श्राचारांगादि ग्यारह अंगों के तथा उत्पाद पूर्व आदि दश पूर्वो के ज्ञाता और प्रत्याख्यान पूर्व प्राणवाय, त्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार इन चार पूर्वो के एकदेश धारक हुए । इन्ही विशाखाचार्य के प्रदेश व निर्देश मे बारह हजार मुनियों ने दक्षिण देश में वीर शासन का प्रचार प्रसार करते में विहार किया और अपनी साधुचर्या का निर्दोष रूप से अनुष्ठान किया ।
हुए पांड्य देशों विशाखाचार्य, प्रोप्टिल्ल, क्षत्रिय, जय मेन, नाग सेन, सिद्धार्थ, धृतिमेन, विजय, बुद्धिल्ल, गगदेव और सुधर्म (धर्मसेन) ये ग्यारह आचार्य दशपूर्व के धारी हुए । परम्परा से प्राप्त इन सबका काल १८३ वर्ष है । धर्मसेन के स्वर्ग वासी होने पर पूर्वो का विच्छेद हो गया। किन्तु इतनी विशेषता है कि नक्षत्र, जयपाल, पाण्ड, ध्रुवसेन और कंस ये पाच आचार्य ग्यारह अग और चौदह पूर्वो के एकदेशधारक हुए। इनका एकत्र परिमाण २२० वर्ष है । मेरी राय में यह काल अधिक जान पड़ता है। एकादश अगधारी कमाचार्य के दिवगत हो जाने पर भरतक्षेत्र का कोई भी आचार्यं ग्यारह अगधारी नही रहा । किन्तु उस काल में पुरुष परम्परा क्रम से सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य आचारांग के धारी और शेप ग्रेग पूर्वो के एकदेश धारक हुए | "
संघ-भेद
भगवान महावीर के संघ की अविच्छिन्न परम्परा भद्रबाहु श्रुतकेवली के समय तक रही। इसमें किसी को भी विवाद नही है । किन्तु दिगम्बर श्वेताम्बर पट्टावलियाँ जम्बू स्वामी के समय से भिन्न भिन्न मिलती हैं । यद्यपि faraर सम्प्रदाय में श्रुत परम्परा ६८३ वर्ष तक अविच्छिन्न धारा में प्रवाहित रही है । अस्तु
श्रुत केवली भद्रबाहु अपने जीवन के अन्तिम समय में जब वे समघ उज्जैनी में पधारे और सिप्रानदी के किनारे उपवन में ठहरे, उस समय उन्हें वहाँ वर्षादि के न होने से द्वादशवर्षीय भीषण दुर्भिक्ष के पडने का निश्चय हुआ। तब भद्रबाहु के निर्देशानुसार सघ दक्षिण के चोल पाण्ड्यादि देशों की ओर गया । चन्द्रगुप्त ने भी १६ स्वप्न देवे, जिनका फल उन्होंने भद्रबाहु से पूछा, उन स्वप्नों का फल भो शुभ नही था । क्र एव चन्द्रगुप्त मौर्य भद्रवाहु से दीक्षा लेकर उन्ही के साथ दक्षिण की ओर विहार कर गए। इस दुर्भिक्ष का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा भी करती है और साधु सघ के समुद्र के समीप जाकर बिखर जाने की बात भी स्वीकृत करती है । भद्रबाहु सघ के साथ
१
५१
२
३.
४.
ग्रा
विमाहारियों वाले प्रायारादीण मेक्कारसहमगागमुपयपूव्वाण दमन्ह पुव्वाण पच्चकवारण पाणवाय किरिया विसाल लो विन्दुसार पृथ्वारा मंगदेमाण च धारी जादा ( जय धवला पु० १५०८५ )
पढमी सुभगामी जमभट्टो तह य हादि जसवाह | तुरिमोय लोहगामो दे ग्रावार अगधग ॥ मेमेककरमगाण चोवारणमेदगधरा । एक्कमय अट्ठारसवासजूद तारण परिमाग ।। ते अदीदेसु तदा आचारधरा ग होति भरहम्मि ।
गोदमणिपदी वागाण छम्मदारिग तेमीदी ॥ - निलो० ४ गाथा १४६० मे १४८२ धम्मनणेभयवनं सग्ग गदं भारहवामे दमण्ड पुव्वाण बोच्छेदो जादो। गवरि गाक्वत्ताइरियो जमपाला पाड़ बसेलो कमाइयो चेदि पचजरगी जहाकमेरा एक्वारमगधारिणो चोदमण्ह पुण्वारणमे गदेमधारिणां जादा । देसि वालो वीमुत्तर वि मदवासमेता २२० । ज घ० पु० १ ० ८३
एक्कारसगधारए कमाइरिए सग्ग गदे एत्थ भरवले ते गात्थि कोइवि एक्कारमगधारय ।
देखो वही पृ० ८६
जयध० पु० १ पृ० ८६
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
दक्षिण को ओर चलते चलते जब वे कलवप्पू या कटवप्र गिरि पर पहुंचे, तब उन्हें अपनी आयु के अन्त समय का आभास हुआ, तब उन्होंने सघ को विशाखाचार्य के नेतृत्व में आगे जाने का निर्देश किया, और वे वहीं रह गए। चन्द्रगुप्त भी उन्हीं के साथ रहा। भद्रबाहु ने समाधि ले ली और उसी पर्वत की गुफा में समभावों से दिवंगत हुए।
ने जिनका दीक्षा नाम प्रभाचन्द्र लेख में उल्लिखित है. उन्होंने भद्रवाह को वैयावत्य की, और उनके निर्देशानुसार ही सब कार्य सम्पन्न किये। किन्तु जो साधु थावकों के अनुरोधवश उत्तर भारत में ही रह गए थे, उन्हें दुभिक्ष की भीपणपरिस्थितिवश वस्त्रादि को स्वीकार करना पड़ा, और मुनि-प्राचार के विरुद्ध प्रवृत्ति करनी पड़ी। यह शिथिल प्रवत्ति ही आगे जाकर संघभेद में सहायक होती हई श्वेताम्बर सघ की उत्पत्ति का कारण बनी।
जब बारह वर्ष का दुभिक्ष समाप्त हुआ और लोक में सुभिक्ष हो गया, तब जो सघ दक्षिण की ओर गया था, वह विशाखाचार्य के साथ दक्षिणापथ से मध्यदेश में लौटकर पाया। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भद्रबाह उस समय नेपाल की तराई में थे, और वह १२ वर्ष की तपस्या विशेष में निरत थे । महाप्राण नामक ध्यान में सलग्न थे। साध सघ ने उन्हें पटना बुलाया, किन्तु वे नही आये, जिससे उन्हें संघ बाह्य करने को धमकी दी गई और किसी तरह उन्हें पढ़ाने के लिये राजी कर लिया गया । स्थूलभद्र ने उन्हीं से पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया।
यदि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के इस कथन को सत्य मान लिया जाय तो भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय को अपनो परम्परा स्थूलभद्र से माननी होगी। दूसरे भद्रबाहु का पटना वाचना में सम्मिलित न होना, ये दोनों बातें उस समय जैन सघ में किसी बड़े भारी विस्फोट की ओर सकत करती है। और भद्रबाह के वाचना में शामिल न होने से वह समस्त जैन सघ को न होकर एकान्तिक कही जायगी। वह प्राचार-विचार शैथिल्य वाले उन कुछ साधनों की होगी। अत: उसे अखिल जैन सघ का प्रतिनिधित्व प्राप्त नही हो सकता। यहाँ यह भी विचारणीय है कि जब भद्रबाह के काल में प्रथम वाचना पटना में हुई, तब उसी समय श्रृत को पुस्तकारूढ़ कर सरक्षित क्यों नहीं किया गया ? घटनाऋम से ज्ञात होता है कि उस समय आचार-विचार गंथिल्य वाले सघ के भीतर बड़ा मत-भेद रहा होगा। एक दल कहता होगा कि संघ-भेद की स्थिति में अग साहित्य में परिवर्तन इप्ट नही है। यदि उस समय श्वेताम्बर अग साहित्य संकलित कर पुस्तकारूढ़ किया जाता तो सभव है उसका वर्तमान रूप कुछ और ही होता।
दक्षिण से जब सघ लौट कर आया, तब उन्होंने यहाँ रह जाने वाले साधुनों के शिथिलाचार को देख कर बहुत दुःख व्यक्त किया, उन्हें समझाया और कहा कि आप लोगों को दुर्भिक्ष की परिस्थितिवश जा विपरीत पाचरण करना पड़ा, अव उसका परित्याग कर दीजिये और प्रायश्चित्त लेकर वीर शासन के प्राचार का यथार्थ रूप में पालन कीजिये, जिमने जैन श्रमणों की महत्ता बरावर बनी रहे। किन्तु प्राचार और विचार शैथिल्य वाले उन साधनों ने इसे स्वीकार नही किया; क्योंकि मध्यम मार्ग में जो मुख-सुविधा उन्हें १२ वर्ष तक दुर्भिक्ष के समय मिली, वह उन्हें कठोर मार्ग का आचरण करने मे कैसे मिल सकती थी। दूसरे उस समय देश में बौद्धों के मध्यम मार्ग का प्रचार एवं प्रसार हो रहा था-वे वस्त्र-पात्रादि के साथ बौद्ध धर्म का अनुमरण कर रहे थे। उसका प्रभाव भी उन पर पड़ा होगा ऐसा लगता है। प्राचार और वैचारिक शिथिलता ने उन्हें मध्यम मार्ग में रहने के लिए वाध्य किया। यदि उन्हें वस्त्र-पात्रादि रखने का कदाग्रह न होता, तो वे प्रायश्चित्त लेकर अपने पूर्ववर्ती मुनि धर्म पर आरूढ़ हो जाते । पर गैथिल्य प्रवत्ति के संयोजक स्थलभद्र जैसे साध उस मार्ग को कैसे स्वीकार कर सकते थे? ये दोनों ही साधन संघ-भेद-परम्परा के जनक है। प्राचार शैथिल्य ने साधुओं को वस्त्र और पात्र आदि रखने के लिये विवश किया और विचार शैथिल्य ने अपने अनुकल सैद्धान्तिक विचारों में क्रान्ति लाने में सहयोग दिया। वे उसे पुष्ट करने के लिए ठोस आधार ढ ढ़ने का प्रयत्न करने लगे, क्योंकि शिथिलाचार को पुष्ट करने के लिए उन्हें उसकी महती प्रावश्यकता थी। इसीलिए उन्होंने खूब सोच-विचार के साथ बौद्धों के अनुसरण पर पाटलिपुत्र (पटना)
१. देखो, परिशिष्ट पर्व सर्ग लोक ७२ से ११० १०८६
२. सचेल दल के भीतर तीव्र मदभेद की बात प्रज्ञाचक्ष पं० मुखलाल जी भी स्वीकार करते हैं। मथुरा के बाद वलभी में पुनः श्रुत संस्कार हुआ, जिसमें स्थविर या सचेल दल का रहा महा मतभेद भी नाम शेष हो गया ।
-तत्त्वार्थ सूत्र प्रस्तावना पृ०३०
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
सघ-भेद
५३
मथुरा और वलभी में वाचनाए कराई। जिसका उद्देश्य आगमों द्वारा वस्त्र और पात्र को पुष्ट करना रहा है । श्वेताम्बरीय वर्तमान आगम तृतीय वाचना का फल है, जो वलभी में वीरात् ६८० (सन् ४५३ ई०) में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में हुई, और उसमे विच्छिन्न होने से अवशिष्ट रहे त्रुटित अत्रुटित, भ्रष्ट परिवर्तित और परिवद्धि तथा स्वमति से कल्पित श्रागमो को अपनी इच्छानुसार पुस्तकारूढ किया गया। ये वाचनाए बौद्ध परम्परा की संगीतियों का अनुकरण करती है ।
पुस्तकारूढ़ किये जान वाल श्रागम साहित्य मे वस्त्र और पात्र रखने के जगह-जगह उल्लेख पाये जाते है । सचल परम्परा की स्थिति का कायम करने के लिए ये सब उल्लेख सहायक एव पुष्टिकारक है । इनमे मध्यम मार्ग की स्थिति को बल मिला है। तीर्थकरो की दीक्षा में भी इन्द्र द्वारा 'देवदृष्य' वस्त्र देने की कल्पना की गई है, और आदिनाथ तथा अन्तिम तीर्थकर का धर्म अचेलक बतलाते हुए भी देव दूव्य वस्त्र को कधे पर लटकाने की कल्पना गढ़ी गई है और शेष २२ तीर्थकरो का धर्म सचेल और अचल बतलाया गया है ।
चाराग सूत्र की टीका मे आचार्य शीलाक ने अपनी ओर से प्रचलता को जिनकल्प का और सचेलता को स्थविर कल्प का आधार बतलाया है। चुनाच श्वेताम्बरीय आचारांग मे यहा तक विकार आ गया है कि वहाँ पिण्ड एपणा साथ पात्र एपणा और वस्त्र एपणा को भी जोड़ा गया है, जिससे यह साफ ध्वनित होता है कि मूल निर्ग्रन्थ आचार मे द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष के कई शताब्दी बाद वस्त्र और पात्र एपणा की कल्पना कर उन्हें एपणा समिति के स्वरूप मे जोड़ दिया है। गणधर इन्द्रभृति रचित आचाराग मे इनका होना सम्भव नही है। मूल आचाराग को रचना इन सब कल्पनाओ से पूर्व की है, जिसमे यथाजातमुद्रा का वर्णन था ।
पार्श्वनाथ की परम्परा को सचेल बतलाने के लिए केशी-गोतम सवाद की कल्पना की गई है और उसे महावीर तीथंकर काल के १६वं वर्ष मे बतलाया है। यहाँ यह विचारने की बात है कि निर्ग्रन्थ तीर्थकर महावीर अपने शासन के विरुद्ध वस्त्रादि की कल्पना को अपने गणधर द्वारा कैसे मान्य कर सकते थे ? फिर उस समय के साधुत्रों को नग्न रहने की क्या श्रावश्यकता थी और उस समय साधन को वस्त्रादि रहित निर्ग्रन्थ दीक्षा क्यों दी जाती रही । इतना ही नहीं किन्तु सवस्त्र मुक्ति, स्त्री मुक्ति प्रर केवलभुक्ति आदि की मान्यता सूचक कथन भी लिखे गये। आर १६वे तीर्थकर मल्लिनाथ को स्त्री तीर्थकर बनलाया गया । 'मल्लि' शब्द के साथ नाथ शब्द का प्रयोग भी किया जाता है, जो उचित प्रतीत नही होता । अस्तु,
अपरिवर्तनीय ही होते है ।
यह बात सुनिश्चित है कि मूल सिद्धान्तों में कोई परिवर्तन नही होता - नग्नता चूंकि मूलभूत सिद्धांत है, अतः उसमे परिवर्तन सम्भव नहीं ।
इतना ही नही किन्तु विशेषावश्यक के कर्ता जिनदास गणि क्षमाश्रमण ने तो जिनकल्प के उच्छेद की भी घोषणा कर दी। ये सब बात वस्त्रादि की कट्टरता की सूचक है, और मघ-भेद की खाई को चौड़ा करने वाली है ।
१ जैसा कि समय सुन्दरगरण के समाचारी शतक से स्पष्ट है - ' श्रीदर्वाद्ध गणि क्षमाश्रमरणेन श्रीवीरात् श्रशीत्यधिक नव कवर्गे जातेन द्वादशवर्षीयदुभिक्षवशात् बहुतरमाधुव्यापत्यौ च जाताया भविष्यद् भव्यलोकोपकाराय श्रुत भक्त च श्रीमघाग्रहान् मृतावशिष्टताकालीन सर्वसाधून वलभ्यामाकार्य मुन्तखाद् विच्छिन्नावशिष्टान् न्यूनाधिकान् त्रुटिता- त्रुटितान् श्रागमालोकान् अनुक्रमेण स्वमत्या सकलय्य पुस्तकारूढान् कृता । ततो मूलतो गणधर भाषितानामपि तत्सकलनानन्तर सर्वेषामपि श्रागमान् कर्ता श्रीदेवधरण क्षमाश्रमण एव जात ।" - समयसुन्दर गरिण रचित सामाचारी शत के
२ आचलक्को धम्मो पुरिमम्स य पच्छिमम्स जिरगम्स ।
मज्झिमगाण जिणाण होइ सचेलो अचेलो य ॥ पचाशक
३ मरणपरमोहि-पुलाए, आहारय खवग उवसमे कप्पे ॥
सजतिय केवलि सिज्झरणा य जबुम्मि बुच्छिण्णा ॥ - विशेषावश्यक भाष्य २५६३
इस घोषणा के सम्बन्ध मे प० बेचरदास जी ने लिखा है - "गाथा मे लिखा है कि जम्बू के समय मे दस बाते विच्छेद हो
गई । इस प्रकार का उल्लेख तो वही कर सकता है जो जम्बूग्वामी के बाद हुआ हो। यह वान मै विचारक पाठकों से पूछता हूँ कि
जम्बू स्वामी के बाद कौन-सा २५वा तीर्थंकर हुआ है जिसका वचन रूप यह उल्लेख उल्लेख हमारे कुलगुरुओ ने पवित्र तीर्थंकरो के नाम पर चढा दिये है।"
माना जाय ? यह एक नही किन्तु ऐसे सम्याबद्ध — जैन सा० वि० थवा थयेली हानि पृ० १०३
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
यहाँ एक बात अवश्य विचारणीय है और वह यह कि महावीर की बीज पद रूप वाणी को इन्द्रभूति गौतम द्वादशांग सूत्रों में ग्रथित किया। और उसका व्याख्यान उन्होंने सुधर्म स्वामी को किया, जो समान बुद्धि के धारक थे । द्वादशांग की यह रचना भ० महावीर के जीवन काल में और उसके बाद गणधर और साधु परम्परा में कण्ठस्थ रही, उस समय उनमें वस्त्र पात्रादि पोपक कोई सूत्र या वाक्य नहीं थे। क्योंकि महावीर की परम्परा के सभी शिष्य - प्रशिष्यादि अन्तर्बाह्य परिग्रह के त्यागी नग्न दिगम्बर थे । वे सब उसी यथाजात मुद्रा में विहार करते थे । महावीर के निर्वाण के पश्चात् जब इन्द्रभूति केवल ज्ञानी हुए तब उन्होंने उस सब विरासत को सुधर्म स्वामी को सौंपा, जो यथाजात मुद्रा के धारक थे । इन्द्रभूति के निर्वाण के बाद सुधर्म स्वामी केवली हुए । उन्होंने वीर शासन की उस विरासत या धरोहर को जम्बूस्वामी को सौंपा, जो दिगम्बर मुद्रा के धारक थे। और जम्बू स्वामी के केवली और निर्वाण होने पर वह विरासत ५ श्रुतके वलियों में रही । तथा उन्होंने अन्य श्राचार्यों को द्वादशांग की प्ररूपणा की । चार श्रुतके वलियों तक वह विरासत अविच्छिन्न रही - उस समय में कोई भेदजनक घटना न घटी। किन्तु अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय द्वादशवर्षीय भीषण दुर्भिक्ष के कारण परिस्थितिवश उत्तर भारत में रहने वाले साधुत्रों को मूल परम्परा के विरुद्ध आचरण करना पड़ा, उससे उन्हें मोह हो गया, वह उन्हें सुखकर प्रतीत हुई, इसलिए सुभिक्ष होने पर भी उन्होंने छोड़ना न चाहा । जिन्होंने छोड़ दिया उन्होंने प्रायश्चित्त लेकर पूर्व श्रमण परम्परा को अपना लिया, वे साधु अवश्य धन्यवाद के पात्र हैं । किंतु अधिकांश साधुओं ने आचार-विचार की शिथिलता को जो मध्यम मार्ग की जनक थी, अपना लिया, और कदाग्रहवश उसे छोड़ना न चाहा। उन्हीं के आचार-विचार की शिथिलता से संघ भेद पनपता हुआ संघर्ष का कारण बना। इस तरह महावीर का निर्मल शासन दो भेदों में विभाजित हुआ । उसके बाद साधु परम्परा में बराबर शिथिलता बढ़ती ही रही और आज उसकी भीषणता पहले से भी अधिक बढ़ गयी है । दिगम्बर श्वेताम्बर संघ में भी अनेक संघ गण-गच्छादि के कारण अनेक संघ बनते-बिगड़ते रहे । आज भी इन दोनों सम्प्रदायों में संघ-गण- गच्छादि की विभिन्नता कटुता का कारण बनी हुई है । और उसके कारण सम्प्रदायों में वात्सल्य का भी अभाव हो गया है । अपने-अपने संघ के विभिन्न गण- गच्छादि में भी वैसा वात्सल्य दृष्टिगोचर नहीं होता । इसमें कलिकाल के स्वभाव के साथ कलुषाशय वाले व्यक्तियों का सद्भाव भी एक कारण है । जैनसेड - परिचय
૪
इन्द्रनन्दि के श्रुतावतारानुसार पुण्ड्रवर्धन पुरवासी प्राचार्य अहंवली प्रत्येक पांच वर्षो के अन्त में सौ योजन में बसने वाले मुनियों को युग प्रतिक्रमण के लिए बुलाते थे। एक समय उन्होंने ऐसे प्रतिक्रमण के अवसर पर समागत मुनियों से पूछा- क्या सब आ गए। मुनियों ने उत्तर दिया- हां, हम सब अपने संघ के साथ आ गये। इस उत्तर को सुनकर उन्हें लगा कि जैनधर्म व गण पक्षपात के साथ ही रह सकेगा । अतः उन्होंने संघों की रचना की। जो मुनि गुफा से आये थे उनमें से किसी को 'नन्दि' नाम दिया, और उनको 'वीर' जो अशोकवाट से आये थे । उनमें से कुछ को 'अपराजित' और कुछ को 'देव' नाम दिया। जो पंचस्तूप निवास थे उनमें से कुछ को 'मेन' नाम दिया और कुछ को 'भद्र'। जो शाल्मलि वृक्ष मूल से आये थे, उनमें से किन्हीं को 'गुणधर' और किन्हीं को 'गुप्त' । जो खण्डकेसरवृक्ष के मूल से आये थे उनमें से कुछ को 'सिंह' नाम दिया और किन्हीं को 'चन्द्र' । इन्द्रनन्दि ने अपने इस कथन की पुष्टि में एक प्राचीन गाथा भी उद्धृत की है :
"आयातो नन्दिवीरौ प्रकटगिरिगुहावासतोऽशोकवाटावाश्चान्योऽपरादिजित इति यतयो सेन- भद्राह्वयौ च । पञ्चस्तूप्यात्सगुप्तौ गुणधरवृषभः शाल्मलीवृक्षमूलात्, निर्यातौ सिचन्द्र प्रथितगुणगणौ केसरात्खण्डपूर्वात् ।। ६६
श्राचार्य देवसेन ने दर्शनसार में श्वेताम्बर, यापनीय, द्रविड़, काष्ठा संघ, और माथुर संघ इन पांचों संघों को जैनाभास बतलाया है ।
१. देखो, इन्द्रनन्द श्रुनावतार श्लोक ६१ से ६५ तक
२. दर्शनसार
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
सघ-भेद
५५ भट्टारक इन्द्रनन्दि ने अपने नीतिसार मे अहंबली आचार्य द्वारा सघ निर्माण का उल्लेख किया है। उन मघो के नाम सिह, सघ, नन्दि सघ, सेन मघ और देव सघ बतलाये है। और यह भी लिखा है कि इनमें काई भेद नही है। इसमे भी निम्न मघो को जैनाभास बतलाया है। उनको सख्या पाच है-गोपुच्छिक, श्वताम्बर, द्रविड़, यापनीय और नि: पिच्छ । इन्द्रनन्दि ने कही भी काप्ठासघ को जैनाभास नही बतलाया।
भगवान महावीर का सघ, जो उनके समय और उनके बाद निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ के रूप में प्रसिद्ध था, भद्रबाह श्रतकेवली के समय दक्षिण भारत में गया था। वह निग्रन्थ महाश्रमण संघ ही था। वह निग्रंन्थ संघ ही बाद मे मूल सघ के नाम से लोक मे प्रसिद्ध हुआ। इसी महाश्रमण संघ का दूसरा भेद श्वेताम्बर महाश्रमण संघ के नाम से ख्यात हुआ।
कछ समय बाद यही निर्ग्रन्थ मूल संघ विचार-भेद के कारण अनेक अतभेदो में विभक्त हो गया। यापनीय सघ, कर्चकसघ, द्रविडसघ, काष्ठासघ ओर माथुरसंघ आदि के नामाने विभक्त होता गया, पर गण-गच्छ भेद भी अनेक होते गये। किन्तु मल सघ इन विषम परिस्थितिया मे भी अपने अस्तित्व का कायम रखते हए, प्रोर राज्यादि के सरक्षण के अभाव मे, तथा शैवादि मतो के अाक्रमण आदि के समय भी अपन अस्तित्व के रखन म समर्थ रहा है। अन्तर्भद केवल निग्रन्थ महाश्रमण संघ मे ही नही हुए किन्तु श्वेतपट महाश्रमण संघ भी अपने अनेक अन्तर्भदा में विभक्त हना विद्यमान है। वीर शासन सघ के दा भेदो मे विभक्त होने के समय जो स्थिति बनो वह अपने मन्तभैदा के कारण और भी दुर्बल हो गया, किन्तु अपनी मूल स्थिति को कायम रखने में समर्थ रहा । मूलसंघ
मल सघ कब कायम हया और उसे किसने कहाँ प्रतिष्ठित किया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नही मिला। अर्हदबलि द्वारा स्थापित सघो में मलमंघ का कोई उल्लेख नहीं मिलता। सिह, नन्दि, मेन ओर देव इन सघो को किसी ने जैनाभास नही बतलाया। ये सघ मलमव के ही अन्तर्गत है। इस कारण ये मलमघ नाम से उल्लेखित किये गये है।
मलसघ का सबसे प्रथम उल्लेख 'नोण मगल' के दान पत्र में पाया जाता है, जो जैन शि०स० भा०२१० ६०-६१ मे मुद्रित है । यह शक म०३४७ (वि० स० ४८२) मन ४२५ के लगभग का है। जिसे विजयकोति के लिये उरनर के जिन मन्दिरो को कोणि वर्मा ने प्रदान किया था। दूसरा उल्लेख पाल्नम (कोल्हापुर) में मिले शक स० ४११ (वि०म० ५१६) के दान पत्र में मिलता है, जिसमें मलमघ काकोपल आम्नाय के मिहनन्दि मुनि को अलक्तक नगर के जैन मन्दिर के लिए कुछ ग्राम दान मे दिये है। दानदाता थे पुलकेशी प्रथम के सामन्त मामियार। इन्होने जैन मदिरो की प्रतिष्ठा कराई थी, और गगराजा माधव द्वितीय तथा प्रविनीत ने कुछ और ग्रामादि
कोण्डकुन्दान्वय का उल्लख वदन गुप्पे के लेख न० ५४ भा० ४ पृ० २८ मे पाया जाता है। जो शक स० ७३० सन् ८०८ का है और उत्तरवर्ती अनेक लखो मे मिलता है। कौण्डकुन्दान्वय का उल्लेख मर्करा के ताम्रपत्र में पाया जाता है, जिसका समय शक स० ३८८ है, पर उसे सन्देह की कोटि म गिना जाता है। इसमें कोण्डकुन्दान्वय के साथ देशीयगण का उल्लख मिलता है। कुन्दकुन्द का वास्तविक नाम पद्मनन्दि था। किन्तु कोण्डकुन्द स्थान से सम्बद्ध हान के कारण व कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए।
____शिलालेख सग्रह के दूसरे भाग में प्रकाशित ६० और ६४ नम्बर के लेखो में मूलसघ के वीरदेव और चन्द्रनन्दि नामक दो आचार्यों के नाम उल्लिखित है।
मूलसघ में अनेक बहुश्रुत ताकिकशिरोमणि योगीश विद्वान आचार्य हुए है जिन्होने वीर शासन को लोक में चमकाया। उनमें कुछ नाम प्रमुख है-कुन्दकुन्द, उमास्वाति (गृद्धपिच्छाचार्य) बलाकपिच्छ, समन्तभद्र, देवन पात्रकेसरी, सुमतिदेव, श्रीदत्त, अकलक देव, ओर विद्यानन्द आदि।
१ नीतिसार श्लोक ६-७, तत्त्वानुशासनादि सग्रह पृ० ५८ २ देखो, जैन लेख स० भाग २, ५० ५५ और ६०
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ इस संघ के अन्तर्गत सात गणों के नाम मिलते हैं— देवगण, सेनगण, देशोगण, सूरस्थ गण, बलात्कारगण, क्राणूरगण और निगमान्वय । इन गणों का नामकरण मुनियों के नामान्त शब्दों से, तथा प्रान्त श्रौर स्थान विशेष के कारण हुए है।
देवगण – इनमें देवगण सबसे प्राचीन है। इस गण का अस्तित्व लक्ष्मेश्वर से प्राप्त चार लेखों में ( १११, ११३, ११४ और १५६ ) से, तथा कडवन्ति से प्राप्त ११वी शताब्दी के एक लेख १६३ मे मालूम होता है। इसके पश्चात् अन्य लेखों में इसका उल्लेख नही मिलता । इसका देवगण नाम कैसे पड़ा, यह तत्कालीन लेखों से कुछ ज्ञात नही होता । सभव है देवान्त नाम होने मे देवगण सज्ञा प्राप्त हुई हो। जैसे उदयदेव, ( ११३ ) लाभदेव, जयदेव, विजयदेव श्रङ्कदेव, महीदेव और अकलकदेव आदि। कुछ विद्वान् अकलकदेव को इस गण का प्रतिष्ठापक मानते है । मेनगण - यह गण भी प्राचीन है । यद्यपि इसका सबसे पहला उल्लेख मूलगुण्ड से प्राप्त लेख न० १३७ ( सन् २०३ ) में हुआ है । पर उत्तरपुराण के रचयिता गुणभद्र ने अपने गुरु जिनमेन और दादा गुरु वीरसेन को सेनान्वय का विद्वान माना है। किन्तु वीरमेन जिनमेन ने अपनी धवला जयधवला टीका में अपने वश को पंचस्तूपान्वय लिखा है । पचस्तूपान्वय ईसा की ५वी शताब्दी में होने वाले निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के साधुओ का एक सघ था। यह बात पहाड़पुर जि० राजशाही, बगाल से प्राप्त एक लेख मे जानी जाती है । पचास्तूपान्वय का सेनान्वय के रूप सबसे पहला उल्लेख संभवतः गुणभद्र ने उत्तरपुराण में किया है। इसमे यह कहा जा सकता है कि जिनसेन इस गच्छ के प्रथम प्राचार्य थे । इसके बाद के किसी प्राचार्य ने पंचस्तूपान्वय का उल्लेख नही किया ।
सेनगण तीन उपभेदों में विभक्त हुआ । पोगरी या होगिरी गच्छ, पुस्तकगच्छ और चन्द्रकपाट । पोगरीकच्छ का प्रथम उल्लेख' शक स० ८१५ सन् ८०३ (वि० स० ६५० ) के लेख में 'मूलसंघ सेनान्वय' पोगरीगण के प्राचार्य विजयसेन के शिष्य कनकसेन को ग्रामदान देने का उल्लेख है ।
५६
देशी गण - कोण्डकुन्दान्वय के साथ प्रयुक्त होने वाले देशीयगण का मूलमघ के साथ प्रयोग सन् ८६० ई० के एक लेख में पाया जाता है। जो पहले ताम्रपत्र के रूप में था और बहुत समय बाद मुनि मेघचन्द्र विद्यदेव के शिष्य वीरनन्दी मुनि ने कुछ लोगो के श्राग्रह से पापाणोत्कीर्ण कराया था । मेघचन्द्र त्रैविद्य देव और वीरनन्दी की गुरु परम्परा का उल्लेख लेख न० ४१ में पाया जाता है। अनेक शिलालेखो में देसिय, देशिक, देसिंग और देशीय आदि नामों से इस गण का उल्लेख मिलता है । देशिय शब्द देश शब्द से बना है, देश का सामान्य अर्थ प्रान्त होता है । दक्षिण भारत में कन्नड़ प्रान्त के उस भू-भाग को, जोकि पश्चिमी घाट के उच्च भूमिभाग ( बालाघाट ) और गोदावरी नदी के बीच में है, देश नाम में कहा जाता था । वहाँ के निवासी ब्राह्मण अब भी देशस्थ कहलाते हैं। इस गण के आदिम ग्राचार्यों के नाम के साथ 'भट्टारक' पद जुडा हुआ है। हवी शताब्दी के अनेक लेखो में मुनियो की उपाधि भट्टार या भट्टारक दी गई है । पश्चाद्वर्ती लेखों में इस गण के प्राचार्यों की उपाधि सिद्धान्तदेव, द्धान्तिक या विद्य पाई जाती है। शिलालेखों के अवलोकन से जाना जाता है कि कर्नाटक प्रान्त के कई स्थानों में इस गण के अनेक केन्द्र थे । उनमें नगोगे ( चिकनसोगे ) प्रमुख था । यहाँ के प्राचार्यों से ही आगे चलकर इस गण के हनसोगे बलिया गच्छ का उद्भव हुआ है । गच्छ का अर्थ शाखा या बलि होता है । कन्नड़ शब्द बलय या लग का अर्थ परिवार होता है ।
चिक हनसोगे के शिलालेखो मे ज्ञात होता है कि वहाँ इस गण की अनेक वसदिया (मंदिर) थीं, जिन्हें चंगात्व नरेशो द्वारा सरक्षण प्राप्न था । देशीगण का प्रमुख गच्छ पुस्तकगच्छ है । इसका उल्लेख अधिकांश लेखो में मिलता है । नमोवलि पुस्तकगच्छ का ही एक उपभेद है। इस गण की एक शाखा का नाम 'इंगुलेश्वर बलि' है । जिसके आचार्य गण प्राय: कोल्हापुर के आस-पास रहते थे ।
१ जैनलेख स० भा० ४ लेख न० ६१ पृ० ३६ ।
२.
देखो, जैन शिलालेख स० भा० ४ लेख न० ६४ । ३. जैन लेख स० भा० ४ ले० न० ६१ पू० ३६ ।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-सघ परिचय
सूरस्थमम-मूलसघ का एक गण सूरस्थ नाम से प्रसिद्ध है। लेख न० १८५, २३४, २६६,३१८, ४६० और ५४१ से ज्ञात होता है कि इन लेखो मे सूरस्त, सुराष्ट्र प्रथवा सूरस्थ नाम से उल्लेख है। इनमें अन्वय सौर गच्छ प्रादि का कोई उल्लेख नही है । इसका सूरस्थ नाम कैसे पडा, इसका इतिवृत्त ज्ञात नही । इस गण का पहला उल्लेख नं. १८५ मे है जिसमें मूलसंघ को वडान्वय ने युक्त लिखा है। जान पडता है, सूरस्थगण पहले मूलसघ के सेनगण से सम्बन्धित था। अथवा उस संघ के साधगण मूल सघ सूरस्थ गण मे मम्मिलित रहे हो। इस गण के ११वी सदी के पूर्वार्ध से लेकर १३वी शताब्दी तक के लेख है। लेख न० २६६ मे जो शक स० १०४६ का है, सूरस्थगण के विद्वानों का उल्लेख दिया है । अनन्तवीर्य, बालचन्द्र, प्रभाचन्द्र, कल्नेले यदेव (गमचन्द्र) अष्टो पवामि हेमनन्दि, विनयनन्दि, एकवीर और उनके सधर्मा पल्ल पडित (अभिमानदानिक)। इसमे हेमनन्दि मुनीश्वर को गद्धान्तपारग ओर सूरस्थगण भास्कर बतलाया है।' ओर पल्ल पडित की बडी प्रशमा की है। हेमनन्द के शिप्य विनयनन्दि थे।
बलात्कारगण-का उल्लेख लेख न० २०८ (सन् १०७५) के लगभग मिलता है, जिसमे इस गण के चित्रकूटाम्नाय के मुनि मुनिचन्द्र और उनके शिष्य अनन्तीनि का उल्लेख है। लेख न० २२७ (सन् १०८७ ई.) मे इस गण के कतिपय मनियो की परम्पग दी गई है। उनके नाम इस प्रकार हे-नयनन्दि, श्रीधर, श्रीधर के चन्द्रकीति, श्रतकोति ओर वामपूज्य। चन्द्रकीति के नेमिचन्द्र और वासुपूज्य के पद्मप्रभ । लेख के अन्त में इस गण का नाम बलात्कारगण दिया गया है।
इस गण का नाम वलात्कार गण कब और कैसे पडा, इसका कोई इनिवृत्त मेरे देखने मे नही पाया। डा. गुलाबचन्द चोधरी ने जैन शिलालेख स० तीसरे भाग की प्रस्तावना के पृ०६२ पर लिखा है कि नाम माम्य का देखते हा यापनियों के बलहारि या वलगार गण मे निकला है। क्योकि दक्षिणापथ के नन्दि सघ में 'बलिहारि या बलगार गण के नाम पाए जाते है, किन्तु उत्तरापथ के नन्दि सघ में सरस्वती गच्छ ओर बलात्कार गण ये दो ही नाम मिलते है। 'बलगार' शब्द स्थान विशेप का द्योतक है। लगता है बलगार नामक स्थान से निकलने के कारण 'बलगार' नाम ख्यात हा होगा। 'बलगार' नाम का एक ग्राम भी दक्षिण भारत में है। बलगार गण का पहला उल्लेख सन् १०७१ का है। इसमे मूलसघ नन्दिमघ का बलगार गण ऐमा नाम दिया है। इसमें वर्धमान महावादी विद्यानन्द उनके गुरुबन्धु ताकिकार्क माणिक्यनन्दि-गुणकीति-विमलचन्द्र-गुणचन्द गण्ड विमुक्त उनके गुरु वन्धु अभयनन्दि का नामोल्लख है। अोर क्रम न० १५५ मे अभयनन्दि-सकलचन्द-गण्ड विमुक्त त्रिभुवनचन्द्र । इनमे गुणकीति और त्रिभुवनचन्द्र को मिले दानो का वर्णन हे । किन्तु बलात्कार शब्द स्थानवाचो नही है प्रत्युत जबरदस्ती क्रियानो मे अनुरक्त होने या लगने आदि के कारण इसका नाम बलात्कार हुअा जान पडता है। १४वी १५वी शताब्दी के विद्वान भट्टारक पद्मनन्दी, जो भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्ट पर प्रतिष्ठिन हुए थे और जो इस गण के नायक थे, सरस्वती की पापाण मूर्ति को बलात्कार से मत्र शक्ति द्वारा बुलवाया था, इस कारण उसे बलात्कार कहा जाता है, और गच्छ 'सारस्वत' नाम से ख्यात हमा है। परन्तु यह बात भी जी को नही लगती, क्योकि यह घटना अर्वाचीन है। ये पद्मनन्दि विक्रम की १४-१५वी शताब्दी के विद्वान है और बलात्कार गण
१. तन्मोखो (२) विबुधाधीशो हेमनन्दि मुनीश्वरः । राद्धान्त-पारगो जातस्सूरम्थ-गण-भास्कर ।
-जन ले० स० भा०२ पृ० ४०० २. देखो, मिडियावल जैनिज्म पृ० ३२७ ३. पद्मनदी गुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी।
पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती।। ऊर्जयन्तगिरौ तेन गच्छः सरस्वतोऽभवत् ।
अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्री पद्मनन्दिने ॥२ ४. जैन लेख स० भा० ४ ले० १५४, १५५, ५० १०२, पृ. १११
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ का उल्लेख वि० स०१०८७ (सन् १०३०) में श्रीनन्दो के शिष्य श्रीचन्द्र ने किया है। श्रीनन्दी का समय श्रीचन्द्र से २० वर्ष पूर्व माना जाय तो सन् १०१० में बलात्कार गण का उल्लेख हुआ है। ऐसी स्थिति में उक्त पद्मनन्दि को बलात्कारगण का सस्थापक नही माना जा सकता। क्योंकि यह घटना चार सौ-पांच सौ वर्ष पूर्व की है। बलात्कार गण में अनेक विद्वान भट्टारक हुए हैं और उनके पट्ट भी अनेक स्थानों पर रहे हैं। इस कारण बलात्कार गण का विस्तार अधिक रहा है। इस गण के भट्टारकों ने जैनधर्म की सेवा भी की है। महाराष्ट्र में मलखेड का पीठ बलात्कारगण का केन्द्र था। उसकी दो शाखाएं कारंजा और लातूर में स्थापित हुई थी। सूरत में भी बलात्कार गण की गद्दी थी। ग्वालियर और सोनागिरि माथुर गच्छ और बलात्कारगण के केन्द्र थे और हिसार माथुर गच्छ का प्रधान पीठ था।
बलात्कारगण के साथ सरस्वती गच्छ का उल्लेख चौदहवी सदी से मिलता है। यह लेख शक स० १२७७ मन्मथ संवत्सर का है। इसमें कुन्दकुन्दान्वय, सरस्वती गच्छ, बलात्कारगण, मूलसघ के अमरकोति प्राचार्य के शिष्य, माघनन्दि व्रती के शिप्य भोगराज द्वारा शांतिनाथ की मूर्ति की स्थापना का उल्लेख है।
जैन शिलालेख स० भा० ४ पृ० २८८ पर क्रम न० ४०३, ४०४ और पृ० ३०५ में क्र. ४३४ न० के लेखों में कुन्दकुन्दान्वय की परम्परा में राजा हरिहर के समय इरुग दण्ड नायक द्वारा जिन मन्दिर के निर्माण का उल्लेख है। मूल सघ बलात्कारगण के भट्टारक धर्मभूषण के उपदेश में इम्मडि बुक्क मंत्री द्वारा कुन्दन बोलु नगर में कून्थनाथ का चैत्यालय बनवाये जाने का उल्लेख है। और मूलसंघ बलात्कारगण सरस्वती गच्छ के वर्धमान भट्रारक की प्रार्थना पर राजा देवराय द्वारा वरांग नामक ग्राम नेमिनाथ मंदिर को दिये जाने का उल्लेख है।
क्राणूरगण-इस गण के तीन उपभेदों का उल्लेख मिलता है-तिन्त्रिणी गच्छ, मेपपाषाण गच्छ और पूस्तक गच्छ। इम गण का पहला उल्लेख दसवीं शताब्दी के लेख (जैन शि० म० भा०४ क्रमाक नं०५६) में मिलता है। तथा १४वी शताब्दी के अन्त तक के उल्लेख उपलब्ध होते है । मूल संघ के देशिय गण और क्राणर गण की अपनी वसदियां (मन्दिर) होती थी। दडिग में प्राप्त एक लेख में लिखा है कि होयसल मेनापति मरियाने
रत ने दडिगणकेरे स्थान में पाच वसदियां बनवायी थीं उनमें चार वसदियां देशियगण के लिये और एक क्राणुर गण के लिए। १४वी शताब्दी के बाद काणरगण का प्रभाव बलात्कारगण के प्रभावक भट्टारकों के समय प्रभावहीन हो गया।
___कल्लूर गुड्ड के लेख' में क्राणूरगण के प्राचार्या की वंशावली निम्न प्रकार दी है-दक्षिण देशवासी, गङ्गजानों के कुल क ममुद्धारक श्री मुलसघ के नाथ सिहन्दि नाम के मुनि थे। उसके पश्चात् अहंद्वल्याचार्य, बेटददाम नन्दि भट्रारक, बालचन्द्र भट्टारक, मेघचन्द्र विद्यदेव, गुणचन्द्र, पण्डित देव । इनके बाद शब्दब्रह्म. गणनन्दिदेव हए। इनके बाद महान नाकिक एवं वादी प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव हए, जो मूलसघ कोण्डकुन्डान्वय क्राणग्गण तथा मेषपाषाण गच्छ के थे। उनके शिप्य माघनन्दि सिद्धान्तदेव, और उनके शिष्य प्रभाचन्द्र हए। इनके सधर्मा अनन्त वीर्य मुनि, मुनिचन्द्र मुनि, उनके शिष्य श्रुतकीति, उनके शिप्य कनकनन्दि विद्य हुए, जिन्हें राजाओं के दरबार में त्रिभुवन-मल्ल-वादिगज कहा जाता था इनके सधर्मा माधवचन्द्र, उनके शिष्य बालचन्द्र विद्य थे।
क्राणरगण की तिन्त्रिणी गच्छ की प्राचार्य परम्परा का उल्लेख लेख न० ३१३, ३७७, ३८६, ४०८ और ४३१ में आया है। रामणन्दि, पद्मणन्दि, मुनिचन्द्र मुनिचन्द्र, के भानुकोति और कुलभूपण (४३१ ले०) भानुकोति के नयकीति और कुलभूषण के सकलचन्द्र हए।
यापनीय संघ-की स्थापना दर्शन सार के कर्ता देवसेन मूरि के कथनानुसार वि० स० २०५ में श्री कलश नाम के श्वेताम्बर साधु ने की थी। अर्थात् यह सघ श्वेताम्बर-दिगम्बर भेद की उत्पत्ति से लगभग ७० वर्ष
१. जैन एण्टीक्वेरी भा० ६, अक २ १० ६६ न० ५८ २. जैन शि० ले० सं० भा० २ १० ४१६ ३. कल्लाणे वरणयरे दुण्णिमए पचउत्तरे जादे । जावणिय संघभावो मिरिकलसादो हु मेवडदो।
-दनसार २६
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन- सघ - परिचय
५६
बाद को उत्पन्न हुआ है। इससे यह तो निश्चित है कि यह संघ, संघ भेद के पश्चात् स्थापित हुआ था । यह सघ दक्षिण भारत की देन है, क्योकि जो साधु भगवान महावीर के कठोर शासन का पालन करते थे, दिगम्बर साधुओं के समान नग्न रहते थे, मयूर पिच्छी रखते थे, पाणिपात्र (हाथ) में भोजन करते थे, और नग्न मूर्तियों के पूजक थे । किन्तु श्वेताम्बरों के समान स्त्रियो वा उसी भव से मुक्ति मानते थे । सवत्र मुक्ति ओर केवलिभुक्ति ( कवलाहार ) भी स्वीकार करते थे। शेताम्बर मान्य आगमों को मानते थे, और वन्दना करने वालों को 'धर्मलाभ' देते थे । यद्यपि इनके द्वारा मान्य आगमों में कुछ पाठ भेद थे । यह सम्प्रदाय दिगम्बर श्वेताम्बरो के बीच की एक कड़ी था । इस संघ में अनेक प्रभावशाली विद्वान आचार्य हुए है । उन विद्वानों में शिवार्य, अपराजित, पाल्य कीर्ति ( शाकटायन ) महावीर और स्वयंभू आदि प्रमुख है । सभवतः पउमचरिय के कर्ता विमलसूरि भी यापनीय थे ।
यह सम्प्रदाय राज्य मान्य था । कदम्ब, चालुक्य, गंग, राष्ट्रकूटर आर रट्ट वंश के राजाओं ने इस सघ के साधुओं को अनेकों भृमिदान दिये थे । कदम्बवश के लेख न० ६६, १०० और १०५ से ज्ञात होता है ि उम वंश के प्रारम्भिक राजाओ के काल में यह संघ वडा ही प्रभावक था । कदम्ब नरेश मृगेश वर्मा (सन् ४७०४६०) ने पलासिका स्थान में इस संघ को और अन्य दूसरे मघो - निर्ग्रन्थ और कूर्चकों के साथ भूमिदान द्वारा सत्कृत किया था । इस राजा के पुत्र रविवर्मा ने इस मघ के प्रमुख आचार्य कुमारदत्त को 'पुरुम्बैटक' गाव दान में दिया था । ( १०० ) । इसी वंश की दूसरी शाखा के युवराज देवशर्मा ने भी यापनीय सघ को कुछ क्षेत्रों का दान देकर सम्मानित किया था ।
रट्ट नरेशों के लेखो से इस सम्प्रदाय के दो नये गणों का पता चलता है। कारेयगण ओर कन्डूरगण का । लेख न० १३० से विदित होता है कि रट्ट वश के प्रथम नरेश पृथ्वीराय के गुरु इन्द्रकीति ( गुणकार्ति ) के शिष्य मैलापतीर्थ कारेय गण क थं । कारयगण निश्चित रूप से यापनाय था । यह जैन एण्टाक्वरो से ज्ञात होता है । १८२ न० के लेख में भी कारेयगण का उल्लेख है। इस सम्प्रदाय के कण्डूरगण का उल्लेख रट्ट राजाओं के लेख न० १६० और २०५ से जाना जाता है । लेख न० १६० म यापनीय संघ के कन्डुरगण की गुरुपरम्परा निम्न प्रकार प्राप्त होती है: - देवचन्द्र, देवसिह, रविचन्द्र, अर्हन्दि, शुभचन्द्र, मौनिदेव और प्रभाचन्द्र । लेख न० २०५ में कण्डूरगण के रविचन्द्र और अर्हन्दि का उल्लेख है ।
यापनीय सघ ने दक्षिण भारत के जैनधर्म के इतिहास में महत्वपूर्ण भाग लिया था । इस संघ का प्रभुत्व कर्नाटक के उत्तरीय प्रदेश में होने का अनुमान किया गया है। कारण कि कर्नाटक प्रदेश के शिलालेखों में यापनियों के सम्बन्ध में अनेक उल्लेख पाए जाते है। जबकि अन्य प्रदेशों के लेखों में उनका अभाव है। इस मघ ने कर्नाटक प्रदेश में जन्म लेकर धीरे-धीरे अपनी शक्ति को बढ़ाया। और कर्नाटक के अनेक प्रदेशों में राजकीय तथा जनता का संरक्षण प्राप्त किया । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कर्नाटक के दक्षिणी भाग में, जिसमें मैसूर भी शामिल है, शिलालेखों में भी यापनियों का उल्लेख विरल है। श्रवण बेल्गोल के लेखों में यापनियों का एक भी उल्लेख नही मिलता । अन्वेषणों के परिणाम स्वरूप जान पडता है कि हन्तिकेरी, कलभावी, सौदन्ति, बेलगांव, बीजापुर, धारवाड़ और कोल्हापुर आदि प्रदेशों के कुछ स्थानों में यापनियों का जोर रहा है ।
कर्नाटक के समान तमिल प्रान्त में भी यापनीय सम्प्रदाय का प्रचार रहा है ऐसा लेख नं० १४३-१४४ से ज्ञात होता है । लेख न० १४३ में यापनीय सम्प्रदाय के नन्दि गच्छ ( सघ) के कोटि मडुवगण का उल्लेख है और उसके प्राचार्यो - जिननन्दि, दिवाकर, श्रीमन्दिरदेव का नाम दिया गया है । श्रीमन्दिरदेव कटकाभरणजिनालय के अधिष्ठाता थे। उस जिनालय के लिये पूर्वीय चालुक्य वंश के अम्मराज द्वितीय
ने
सेनापति ( कटकराज ) दुर्गराज की
१. कदम्बवशी राजाओ के दान पत्र, जनहितैषी भाग १४ अंक ७-८ । २. इ० ए० १२ पृ० १३-१६ में राष्ट्र कूटराजा प्रभूत वर्ष का दान पत्र ३. जैन एण्टीक्वेरी भाग ६ अंक २०६८, ६९ में अकित दो लेख – (५३-५५)।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
प्रार्थना पर उक्त सघ के लिये मलिमपुण्डि नाम का एक गांव दान में दिया था। श्री मन्दिरदेव यापनीय संघ, कोटि मडुव या मडुवगण और नन्दिगच्छ के जिननन्दि के प्रशिष्य और दिवाकरनन्दि के शिष्य थे। उसी राजा के दूसरे लेख नं० १४४ में अड़कलिगच्छ बलहारिगण के प्राचार्यो की पक्ति सकलचन्द्र, अय्यपोटि, अर्हनन्दि । नन्दि मुनि को अम्मराज द्वितीय ने सर्वलोकाश्रय जिनालय की भोजनशाला की मरम्मत कराने के लिये अत्तलिपाण्डु प्रान्त के कलुचुम्बरू नाम का गाव दान में दिया था । यद्यपि इस लेख में स्पष्ट रूप से यापनीय संघ का उल्लेख नहीं है । किन्तु अडुकलि गच्छ और बलिहारिगण का उल्लेख अन्यत्र न मिलने से वे यापनीय सम्प्रदाय के थे ।
यापनीय मघ के अन्तर्गत नन्दिसघ एक महत्वपूर्ण शाखा थी, जो मूलमघ के नन्दिमध से भिन्न थी । यह नन्दि संघ कई गावों में विभाजित था। जान पड़ता है सघ व्यवस्था की दृष्टि से उसे कई भेदो में वांट दिया गया था। उनमे कनकापल मम्भूत वृक्षमूलगण (१०६) श्री मूलमूलगा ( १२१ ) और पुन्नागवृक्ष मूलगण ( १२४ ) इनमें पुन्नागवृक्ष मूलगण प्रधान था और वह उसकी प्रसिद्ध शाखा रूप में ख्यात था। गणों के नाम कतिपय वृक्षां के नाम से सम्बन्धित है । सन् १९०८ के २५०व लेख से ज्ञात होता है कि उक्त पुन्नागवृक्ष मूलगण का मूलसंघ के अन्तर्गत पाते है । ऐसा जान पड़ता है कि वह बाद में मूलमघ म अन्तर्भुक्त हो गया है। शिलालेखा म निर्दिष्ट बहुत साध् इसी गण से सम्बद्ध थे। इसके अतिरिक्त यापनियों के भी अनेक गण थे। दो लेखा (७० श्रोर १३१ ) मे कुमुदिगण का उल्लेख मिलता है। इनमें से पहला लेख नवी गतो का हे और दूसरा १०४५ ई० का है । दोनों में जिनालय के निर्माण का उल्लेख है । इस सत्र विवरण से यापनीयमघ की ख्याति ओर महत्ता का स्पष्ट बोध होता है । यह सघ हवी १० वी शताब्दी तक सत्रिय रहा जान पड़ता है। पर बाद में उसका प्रभाव क्षीण होने लगा । इस संघ के मुनियों में कीर्ति नामान्त र नन्दि नामान्त नाम अधिक पाये जाने है, विजयकीर्ति, अर्ककीर्ति, कुमारकीति, पाल्यकीति प्रादि, चन्द्रनन्दि, कुमारनन्दि, कीर्तिनन्दि, सिद्धनन्दि, अर्हनन्द आदि । किन्तु यह मंध जिस उद्देश्य को लेकर बना वह अपने उस मिशन में सफल नहीं हो सका। और अन्त में अपनी हीन स्थिति में दिगम्बर संघ के अन्दर अन्तर्भवित हो गया जान पड़ता है ।
बेलगाव 'दोड्डवस्ति' नाम के जैन मन्दिर की श्री नेमिनाथ की मूर्ति के नीचे एक खडित लेख है, जिसमे ज्ञात होता है कि उक्त मंदिर यापनीय संघ के किसी पारिसय्या नामक व्यक्ति ने शक ९३५ सन् १०१३ (वि सं. १०७०) में बनवाया था और उक्त मंदिर की यापनीयो द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा इस समय दिगम्बरियो द्वारा पूजी जाती है'। यापनियो का साहित्य भी दिगम्बर सम्प्रदाय मे अन्तर्भुक्त हो गया ।
द्राविड़ संघ - द्राविड देश में रहने वाले जैन समुदाय का नाम द्राविड सघ है । लेखो में इसे द्रविड, द्रविड, द्रविण द्रमिल, द्रविल, द्राविड आदि नामो से उल्लेखित किया गया है। द्रविड़ देश वर्तमान में आन्ध्र श्री मद्रास प्रान्त का कुछ हिस्सा है। इसे तमिल देश में भी होना कहा जाता है । इस देश में जैन धर्म के पहुचने का काल बहुत प्राचीन है । इस देश में साधुओ का जरूर कोई प्राचीन संघ रहा होगा । आचार्य देवमेन ने दर्शनमार में द्राविड संघ की स्थापना पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्द के द्वारा दक्षिण मथुरा मे वि० स० ५२६ में हुई लिखा है । वज्ज्रनन्दि के सम्बन्ध में लिखा है कि उस दुष्ट ने कछार खेत वसदि और वाणिज्य मे जीविका करते हुए शीतल जल से स्नान कर प्रचुर पाप का सचय किया । किन्तु शिलालेखो में इस सघ के अनेक प्रतिष्ठित आचार्यों के नाम मिलते है । अतः देवमेन के उक्त कथन में सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक है । मन्दिर बनवाने और खेती बाड़ी करने के कारण इस संघ को दर्शन सार में जैनाभास कहा गया है। वादिराज भी द्राविड सघ के थे। उनकी गुरु परम्परा मठाधीशों की परम्परा
१. देखो, जैनदर्शन वर्ष ४ श्रक ७
२. मिरिपुज्जपादमीसो दाविडमघम्म कारगो दुट्टो । नामेण वज्जणदी पाहुडवेदी महासत्थो ।। २५
पञ्चस छब्बीसे विक्कमराया नरपतम्म ।
दक्खिर महराजादो दाविडसधो महामोहो || २६
कच्छ खेत्त वसहि वाणिज्ज कारिऊरण जीवन्तो । हंता सीयल गीरे पावं पउर च संवेदि || २७ ( दर्शनसार)
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-संघ-परिचय
थी। वे मन्दिर बनवाते थे, उनका जीर्णोद्धार कराते थे, मुनियों के प्राहार की व्यवस्था करते थे। इन्हीं वादिराज के समसामयिक मल्लिपेण थे । इनके मंत्र-तत्र विषयक ग्रन्थों में मारण-उच्चाटन, वशीकरण, मोहन, स्तम्भन आदि के अनेक प्रयोग निहित हैं। ज्वालामालिनी कल्प के कर्ता इन्द्रनन्दियोगीन्द्र भी द्राविड़ संघ के थे। इस ग्रन्थ की उत्थानिका में लिखा है कि दक्षिण के मलय देश के हेमग्राम में द्राविडसघ के अधिपति हेलाचार्य थे । उनकी शिप्या को ब्रह्मराक्षस लग गया था। उसकी पीड़ा दूर करने के लिये हलाचार्य ने ज्वाला मालिनी की मेवा की थी। देवी ने उपस्थित होकर पूछा-क्या चाहते हो ! मुनि ने कहा- मुझे कुछ नही चाहिये, मेरी गिप्या को ग्रह मुक्त कर दो। देवी के मंत्र से शिप्या स्वस्थ हो गई । फिर देवा के आदेश ने हेलाचार्य ने ज्वालिनोमन का रचना को।
इस संघ के अधिकांश लेख होयमन नरेशों के हैं। इस मंघ के प्राचार्यों ने पद्मावतो देवो की पूजा, प्रतिष्ठा में बड़ा योगदान किया था। इस संघ के प्रायः सभी साधु बदियों में रहते थे । दान में प्राप्त जागीर आदि का प्रबन्ध करते थे।
चल ग्राम के वमिरे देवमन्दिर में शक मं०१०४७ का एक शिलालेख है जिममें द्राविड संघीय इन्हीं वादिराज के वंशज श्रीपालयोगीश्वर को होय्यसल वश के विण वर्द्धन पोय्यमल देव ने वतियों या जैन मन्दिरों के जीर्णोद्धारार्थ और ऋपियों के आहार-दान के लिये शल्य नामक ग्राम दान में दिया' । वि० सं०११४५ के दुवकण्ड के शिलालेख में कछवाहा वश के राजा विक्रममिह ने पूजन मम्कार, कालान्तर में टूटे फटे की मरम्मत के लिये कछ जमीन, वापिका सहित एक बगीचा ओर मुनि जनो के शरीराभ्यंजन (तैल मर्दन) के लिये दो करघटिकाएं दी ये सव बाते भी चैत्यवास के प्राचार का उद्भावन करती हैं।
कर्चकसंघ-कर्नाटक प्रान्त में ईसा की पाचवों शताब्दी या उसके पहले जैनियों का एक सम्प्रदाय कूर्चक नाम से ख्यात था। जिसका अस्तित्व तथा कूर्चक नाम कदम्बवंशी राजाओं क लेखों (65-66) से ज्ञात होता है। यह साधनो का ऐसा सम्प्रदाय था, जो दाड़ी मूछ रखता था। उसके माथ यापनीय और श्वेतपट संघ का नामोल्लेख है। प्राचीन काल में जटाधारी और नग्न आदि अनेक प्रकार के अर्जन साधु थे। इसी तरह जैनियों में भी ऐसे साधनों का सम्प्रदाय था जो दाड़ा मूछ रग्वने के कारण कुचक कहलाता था।
गौड़ संघ-गोड़ सघ का उल्लेख एक ही लेख में मिलता है। इस सम्बन्ध में अन्य लेख देखने में नहीं प्राया। गौड़ सघ के प्राचार्य सोमदेव के लिये चालुक्य राजा बद्दिग द्वारा शुभधाम जिनालय के बनवाने का उल्लेख है।
(रि० इ० ए० १९४६-७ क्र-१५८)
काष्ठासंघ-माथुरगच्छ
देवमेन ने दर्शनसार में काष्ठासंघ की उत्पत्ति दक्षिण प्रान्त में, प्राचार्य जिनमेन के सतीर्थ विनयमेन के शिप्य कुमारमेन द्वारा जो नन्दि तट में रहते थे वि० सं० ७५३ में हुई बतलाई है । और कहा है कि उन्होंने कर्कश केश अर्थात गौ को पंछ की पीछी ग्रहण करके सारे वागड़देश में उन्मार्ग चलाया। किन्तु काप्ठासंघ के संस्थापक कुमारसेन का समय म०७५३ बतलाया है । वह संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि विनयमेन के लघु गुरु बन्ध जिनमेन ने 'जयधवला' टीका शक स०७५६ सन् ८३७ में बनाकर समाप्त की है । अत: उसे विक्रम मवत् न मानकर शक संवत मानने से संगति ठीक बैठ जाती है। और उसके दो सौ वर्ष बाद अर्थात् वि० संवत ६५३ के लगभग मथरा में माथरों के गुरु गमसेन ने नि:पिच्छिक रहने का उपदेश दिया और कहा कि न मयूरपिच्छी रखने की आवश्यकता है और न गोपिच्छी की।
सभी संघों, गणों और गच्छों के नाम प्रायः देशों या नगरों के नाम पर पड़े हैं। जैसे मथुरा से माथुरसंघ, काष्ठा नाम के स्थान से काष्ठासंघ।
बुलाकीदास ने अपने वचन कोश में उमास्वामी के पट्टाधिकारी लोहाचार्य द्वारा काष्ठासंघ की स्थापना १. जन शिलालेख सग्रह भाग ४६३ न का लेख २. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह प्रथम भाग तथा धवला पु. १ प्रस्तावना प० ३५-३६
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
अग्रोहा नगर में की थी ऐसा लिखा है। पर इसका कोई प्राचीन उल्लेख मेरे अवलोकन में नहीं पाया। किन्तु १९वीं २०वी शताब्दी के लेखों में लोहाचार्य के अन्वय का उल्लेख मिलता है। ऐसी स्थिति में बुलाकीदास का लिखना विश्वसनीय नही जान पड़ता। काठ की प्रतिमा के पूजन से काष्ठासघ नाम पड़ा, यह कल्पना तो निराधार है ही, काठ की प्रतिमा के पूजन का निषेध भी मेरे देखने मे नही पाया।
काष्ठा नाम का स्थान दिल्ली के उत्तर में जमूना नदी के किनारे बसा था। जिस पर नागवंशियों की टांक शाखा का राज्य था। १८वी शताब्दी में 'मदन पारिजात' नाम का निबन्ध यही लिखा गया था। काष्ठासंघ की पावली में भी लोहाचार्य का नाम है । ऐसी प्रसिद्धि है कि लोहाचार्य ने ही अग्रवालों को दि जैन धर्म में दीक्षित किया था। अग्रवालों का उल्लेख करने वाले लेखों में काष्ठासंघ और लोहाचार्यान्वय का निर्देश है।
इस सघ के आचार्य अमितगति द्वितीय ने अपनी जो गुरु परम्परा दी है, उसमें देवसेन, अमितगति प्रथम, नेमिपेण, माधवसेन और अमितगति द्वितीय है। अमितगति द्वितीय ने अपनी रचनाएं सं०१०५० मे १०७३ तक बनाई हैं। इसी मंघ के अन्तर्गत अमरकीति ने जो गृरु परम्परा दी है वह इन्ही अमितगति से शुरू की है, अमितगति, शान्तिषण, अमरमेन, श्रीषण, चन्द्रकीति, अमरकोति । अमरकीति को रचनाएं म० १२४४ मे १२४७ तक की उपलब्ध है। इन्हीं अमरकीतिक शिप्य इन्द्रनन्दि ने श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र के योग शास्त्र की टीका शक म० ११८० वि० स० १३१५ में बनाकर समाप्त की थी। इममे स्पष्ट है कि काप्टामघ के माथुग्मंघ की यह परम्पग १०५० मे १३१५ तक चलती रही है। उसके बाद इसी परम्परा में उदयचन्द्र, बालचन्द्र और विनयचन्द्र हए। इन्होने अपनी रचनाओ द्वारा अपभ्रश साहित्य को वद्धिगत किया है। उदयचन्द्र ने गहम्थ अवस्था में सुगन्ध दशमी कथा की रचना लगभग ११५० ई. में की थी। उसके बाद वे मुनि हो गए थे।
काठामघ में नन्दितट, माथर, वागड़ और लाल बागड ये चार गच्छ प्रसिद्ध थे। जैसा कि भट्रारक सुरेन्द्रकीति की पट्टावली में स्पष्ट है । ये चारों नाम स्थानों और प्रदेशों के नामों पर रक्ये गए है । कुमारसेन नन्दि
और राममेन माथर मघ के, जिमका विकास मथुरा में हुआ है। वागड़ में वागड़गच्छ, और लाट गुजरात और बागड मे लाल बागड़गच्छ । लाट और बागड़ बहुत समय तक एक ही राजवश के प्राधीन रहे है।
माथुर सघ को जैनाभास, जीव रक्षा के लिये किसी तरह की पीछी न रखने के कारण कहा गया है। आचार्य अमितगति द्वितीय के ग्रन्थो से ऐसा कोई भी भेद नजर नहीं आता जिससे उन्हें जैनाभास कहा जाय। दर्शनसार की रचना वि०म० ६६० में हुई है।
नन्दितट गच्छ-इसमें अनेक विद्वान आचार्य और भट्टारक हए है। राममेन नरमिह जाति के सस्थापक कहे गये है। इनके शिप्य नेमिसेन ने भट्टपूरा जाति की स्थापना की है। भीमसेन के शिष्य सोमकीर्ति ने सवत १५३२ में वीरमेन गुरु के साथ शीतलनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा का। सोमकीति ने स०१५२६-१५३१ और १५३६ में प्रद्यम्नचरित, सप्तव्यसन कथा और यशोधरचरित की रचना की। सं० १५४० में एक मूर्ति की प्रतिष्ठा की। और सुलतान फिरोजशाह के राज्यकाल में पावागढ़ में पद्मावती की सहायता से आकाश गमन का चमत्कार दिख लाया। इनके बाद अन्य अनेक भट्टारक हए, जिन्होने जैनधर्म की सेवा की।
माथुर गच्छ-इस गच्छ में अनेक ग्रन्थकर्ता विद्वान हुए है। इस गच्छ के अनेक विद्वानों का उल्लेख ऊपर दिया जा चका है। नमिषण के शिष्य अमितगति प्रथम ने योगसार की रचना की। माधवसेन के शिष्य अमितगति
१. देखो, पभोमा का स० १८८१ मन् १८२४ का लेग्व, जैन लेख स० भा० ३ पृ० ५७६-५८० । तथा नया मन्दिर धर्मपूग के जैन मूति लेख, अनेकान्त वर्ष १६. किरण ३ । लेख नं० १०, ११, १२ मे लोहाचार्याम्नाय का उल्लेख है।
२. काष्ठामधे भुविख्यातो जानन्ति नृसुरामुगः । तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षितौ ।। श्री नन्दिनट सज्ञा च माथुरो बागडाभिधः । लाल-बागड़-इत्येके विख्याताः क्षितिमण्डले ॥
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
जन-मघ-परिचय
द्वितीय ने सुभाषित रत्नसदोह धर्मपरीक्षा, पचसग्रह, तत्व भावना, उपासकाचार, द्वात्रिशतिका और आराधना ग्रन्थ की रचना की ।
इस सघ के दूसरे आचार्य छत्रसेन थे, जिन्होंने स० ११६६ में परमार राजा विजयराज के राज्यकाल में
मन्दिर बनवाया। गुणभद्र न म० १२२६ में विजाल्या के पाश्वनाथ मन्दिर की विस्तृत प्रशस्ति लिग्यो । इस परम्परा के अन्य अनेक भट्टारको ने ग्वालियर किले में मूर्ति निर्माण और यशःकोति, मलय कीति, गुणभद्र और रइधू आदि ने अनेक ग्रन्थो की रचना की। इनमे यश कीति के गुरु गुणकीति बहुत प्रभावशाली थे जिन्होने राजा डूगर्गसह आदि को जैनधर्म का श्रद्धाशील बनाया। इन तामर वश के गामको क समय जहा जेन धर्म का विस्तार ओर प्रभाव रहा, वहाँ जैनधर्म का प्रभाव भी जनता पर रहा।
बागडगच्छ-लाडबागड
बागड का कोई स्वतन्त्र उल्लेख प्राप्त नही हआ। लाड गूजगत और बागड़ दोनो मिलकर लाइवागड गच्छ हना। इसका सम्कृत नामलाटवर्गट है। जयमेन (१०५५) ने इसका सम्बन्ध भगवान महावीर के गणधर मेतार्य के साथ जोडा है। इससे पह मघ १०वी शताब्दी में भी पूर्व का जान पड़ता है । इसका प्रभाव गुजरात ओर बागड प्रदेश में रहा है। किन्तु बाद में मालवा और धाग और उसके आम-पाम के प्रदेशो मे अकित रहा है । लाट वागड और पून्नाट मघा की एकता का आभास ले० न० ६३१ मे प्रतीत होता है। और लाड बागड गच्छ के कवि पामो के उल्लेख मे उसकी पुष्टि होती है। पुन्नाट मघ के आचार्य जिनमेन ने शक सं० ७०५ में वर्धमान पुर के पार्श्वनाथ तथा दोस्तटिका के शान्तिनाथ मन्दिर में रह कर हरिवश पुराण की रचना की थी। सभव है दक्षिण के माननीय नन्दि सघ तथा पुन्नागवृक्ष मूलगण को अकंकोति ने अपना संघ बतलाया है । इससे लगता है कि पुन्नाग वृक्षमूलगण पुन्नाट का ही रूपान्तर हो । पुन्नाट मध के प्राचार्य हरिपण ने सम्वत् ६८६ मे वर्धमान पुर में बृहत्कथा कोष की रचना की है। श्रीचन्द्र ने लाडवागड मंघ का उल्लख किया है। महामन ने भी अपने का लाडबागड़ सघ का विद्वान सूचित किया है । प्रद्युम्न चरित में इन्होन जयमेन, गुणाकर सेन, महामन के नामोल्लेख से अपनी गुरु परम्परा दी है।
स० ११४५ के दूबकुण्ड के लेख में विजयकीति ने देवमेन कुलभूपण दुर्लभमेन, अम्बरमेन आदि वादियों के विजेता शान्तिषण और विजयकीर्ति के नाम दिये है । इसमे यह सघ भा प्रभावक रहा है।
शिलालेख, मति लेख, ताम्र पत्र और प्रशस्तियो पर मे ओर भी मघ, गण-गच्छादि का पता चल सकता है। इस परिचय द्वारा दि० जैनाचार्यां के गण-गच्छादि पर सक्षिप्त प्रकाश पड़ता है। आगे जिन आचार्यों, विद्वानों और भट्टारको आदि का परिचय दिया जायगा, वे सब प्राचार्य इन्ही मघों ओर गण-गच्छों के थे।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्याय २
ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी से लेकर ईसा की चतुर्थ शताब्दी तक के विद्वान् प्राचार्य
प्राचार्य दौलामस (धृतिसेन) मुनि कल्याण प्राचार्य गुणधर अर्हबली धरसेन म.घनन्दी सैद्धान्तिक पुष्पदन्त भूतवली भद्रबाहु (द्वितीय) कुन्दकुन्दाचार्य गुणवीर पण्डित उमास्वाति समन्तभद्र शिवार्य
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचार्य दौलामस (धृतिसेन) और मुनि कल्याण ईसवी पूर्व ३२६ सन् के नवम्बर महीने में सिकन्दर (Alerandcr) ने अटक के निकट सिन्धु नदी को पार किया और वह तक्षशिला में आकर ठहरा। उस समय तक्षशिला का राजा अम्भि था। उसने सिकन्दर से बिना युद्ध किये ही उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। उसी की सहायता से सिकन्दर की सेना ने सिन्धु नदी को पार किया और तक्षशिला में पहुंच कर अपनी थकान उतारी। उस समय सिकन्दर ने दिगम्बर जैन श्रमणों (मुनियों) के उच्च चरित्र, तपस्वी जीवन, उन्नत ज्ञान प्रोर कठोर साधना के सम्बन्ध में अनेक लोगों से प्रशंसा सुनी थी। इसमें उसके मन में दिगम्बर जैन मुनियों के दर्शन करने की प्रबल आकांक्षा थी। जब उसे यह ज्ञात हुआ कि नगर के बाहर अनेक नग्न जैन मुनि एकान्त में तपस्या कर रहे हैं, तब उसने अपने एक अमात्य प्रोनेसीक्रेटस (Oncsicrates) को आदेश दिया कि तुम जाओ और एक जिम्नोसाफिस्ट (Gyninosophyst) दिगम्बर जैन मुनि को आदर सहित लिवा, लाओ।
प्रोनेसीक्रेट्स वहाँ गया, जहाँ जंगल में जेन मुन तपस्या कर रहे थे। वह जैन संघ के आवार्य के पास पहुँचा और कहा-आचार्य ! आपको बधाई है, आपको परमेश्वर का पुत्र सम्राट् सिकन्दर, जो सब मनुष्यों का
जा है, अपने पास वलाता है। यदि आप उसका निमन्त्रण स्वीकार करके उसके पास चलेंगे तो वह आपको बहुत पारितोषिक देगा और यदि आप निमन्त्रण अस्वीकार करके उसके पास नहीं जायंगे तो सिर काट लेगा।
उस समय श्रमण साधु संघ के प्राचार्य दौलामस (Daulamus) (सम्भवतः धृतिमेन) सूखी घास पर लेटे हुए थे। उन्होंने लेटे हुए ही सिकन्दर के अमात्य की बात सुनी और मुस्कराते हुए बोले-सबसे श्रेष्ठ राजा बलात् किसी की हानि नही करता। वह प्रकाश, जीवन, जल, मानव शरीर और आत्मा का बनाने वाला नहीं है, और न इनका संहारक है। सिकन्दर देवता नहीं है, क्योंकि उसकी एक दिन मृत्यु अवश्य होगी। वह जो पारितोपिक देना चाहता है वे सभी पदार्थ मेरे लिये निरर्थक है। मैं तो घास पर सोता है। ऐसी कोई वस्तु अपने पास नहीं रखता जिसकी रक्षा की मुझे चिन्ता करनी पड़े, जिसके कारण अपनी शांति की नींद भंग करनी पड़े। यदि मेरे पास सुवर्ण या अन्य कोई सम्पत्ति होती तो मै ऐसी निश्चिन्त नींद न ले पाता । पृथ्वी मुझे आवश्यक पदार्थ प्रदान करती है, जैसे बच्चे को उसकी माता सुख देती है। मैं जहाँ कहीं जाता हूँ वहाँ मुझे अपनी उदर-पूर्ति के लिये कमी नहीं । आवश्यकतानुसार सब कुछ (भोजन) मुझे मिल ही जाता है, कभी नहीं भी मिलता तो मैं उसकी कुछ चिन्ता नहीं करता। यदि सिकन्दर मेरा सिर काट डालेगा, तो वह मेरी आत्मा को तो नष्ट नहीं कर सकता। सिकन्दर अपनी धमकी से उनको भयभीत करे जिन्हें सुवर्ण, धन आदि की इच्छा हो, या जो मृत्यु से डरते हों। सिकन्दर के ये दोनों अस्त्र-आर्थिक लोभ-लालच तथा मृत्यु-भय हमारे लिये शक्तिहीन हैं-व्यर्थ हैं। क्योंकि हम न सुवर्ण (सोना) चाहते हैं और न मृत्यु से डरते हैं । इसलिए जात्रो और सिकन्दर से कह दो कि दौलामस को तुम्हारी किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है । अतः वह (दौलामस )तुम्हारे पास नहीं आवेगा। यदि सिकन्दर मुझपे कोई वस्तु चाहता है तो वह हमारे समान बन जावे।
मोनेसीक्रेट्स ने सारी बातें सम्राट् से कहीं। सिकन्दर ने सोचा-जो सिकन्दर से भी नहीं डरता, वह महान् है, उसके मन में प्राचार्य दौलामस के दर्शनों की उत्सुकता जागृत हुई। उसने जाकर आचार्य महाराज के दर्शन किये। वह जैन मुनियों के आचार-विचार, ज्ञान और तपस्या से बड़ा प्रभावित हुआ। उसने अपने देश में ऐसे
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ किमी माध को ले जाकर ज्ञान प्रचार करने का निश्चय किया। वह कल्याण (Klas) मुनि से मिला और उनसे यूनान चलने की प्रार्थना की। मुनि कल्याण प्राचार्य दोलामम के संघ के एक शिप्य साधु थे। उन्होंने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। परन्तु आचार्य महोदय को कल्याण का यूनान जाना सम्भवत: पसन्द न था।
जब मिकन्दर तक्षशिला से अपनी सेना के साथ गूनान को लौटा, तब कल्याण मुनि भी उसके साथ विहार कर रहे थे। मुनि कल्याण ने एक दिन मार्ग में ही सिकन्दर को मृत्यु की भविष्यवाणी को
के वचनों के अनुसार ही वैवीलौन पहुंचने पर ई० पू० ३२३ में अपगण्ह वेला में सिकन्दर की मृत्यु हो गई। मृत्यु से पहले सिकन्दर ने मुनि महाराज के दर्शन किये और उनसे उपदेश सुना । सम्राट् की इच्छानुसार यूनानी कल्याण मुनि को आदर के साथ यूनान ले गये । कुछ वर्षों तक उन्होंने यूनानियों को उपदेश देकर धर्म-प्रचार किया। अन्त में उन्होंने समाधिमरण किया। उनका शव राजकीय सम्मान के साथ चिता पर रख कर जलाया गया। कहते है, उनके पाषाण चरण एथेन्स में किसी प्रसिद्ध स्थान पर बने हुए है।
उस समय तक्षशिला में अनेक दिगम्बर मूनि रहते थे। इस बात की पूप्टि अनेक इतिहास ग्रन्थों से होती है। सिकन्दर ने जब अोनेसीक्रेट्स को दिगम्बर मुनियों के पास भेजा, उमका कहना है कि उसने तक्षशिला में २० स्टैडीज दूरी पर १५ व्यक्तियों को विभिन्न मुद्राओं में खड़े हुए, बैठे हुए या लेटे हुए देखा, जो बिल्कुल नग्न थे। वे शाम तक इन आसनों से नही हिलते थे। शाम के समय शहर में आ जाते थे। सूर्य का ताप सहना सबसे कठिन कार्य है। परन्तु आतापन योग का अभ्यास करने वाले मुनिजन इसको शान्ति के साथ सहन करते थे। परिषह-सहिष्णु बन कर ही मुनिजन कर्मक्षय के योग्य आत्म-शक्ति को सचित करते थे।
-Plutarch-A.I-P.71
-(प्लूटार्च, एंशियैण्ट इंडिया पृ०७१) प्राचार्य गुणधर--
जेणिह कसायपाहुडमणेय-णयमुज्जलं अणंतत्थं । गाहाहि विवरियं तं गुणहर-भट्टारयं वंदे ।
जयधवलायां वीर सेनः वे अपने समय के विशिष्ट ज्ञानी विद्वान् थे। वे पांचवें ज्ञानप्रवाद पूर्व स्थित दशमवस्तु के तीसरे पेज्जदोस पाहुड के पारगामी थे। उन्हे पेज्जदोस पाहुइ के अतिरिक्त महाकम्मपयडि पाहुड का भी ज्ञान था। उक्त पाहुड से सम्बन्ध रखने वाले विभक्ति, बन्ध, संक्रमण और उदय उदीरणा जैसे पृथक् अधिकार दिये हैं। इनका महाकम्म पयडि पाहुड के चौवीस अनुयोग द्वारों से क्रमशः छठे, दशवे और बारहवें अनुयोग द्वारों से सम्बन्ध है। महाकर्म प्रकृति पाहुड
वां अल्प बहुत्व अनुयोगद्वार भी कसाय पाहुड के अधिकारों में व्याप्त है। इससे स्पष्ट है कि गुणधर महाकर्म प्रकृति के भी ज्ञाता थे।
इन्होंने अंगज्ञान का दिन-प्रतिदिन लोप होते देखकर थतविच्छेद के भय से और प्रवचन वात्सल्य से प्रेरित होकर १८० गाथा मूत्रों में उसका उपसहार किया और उस विषय को स्पष्ट करने के लिए ५३ विवरण गाथाओं का भी निर्माण किया। प्रतः ५३ विवरण गाथानों सहित उसकी संख्या २३३ गाथाओं के परिमाण को लिये हो गई । प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम पेज्जदोस पाहुड है। पेज्ज का अर्थ राग और दोस का अर्थ द्वेष राग-द्वेप-मोह का विवेचन करने के लिये कर्मों की विभिन्न स्थितियों का चित्रण किया गया है। राग-द्वेष क्रोध, मान, माया और लोभादिक दोपों की उत्पत्ति, स्थिति, तज्जनित कर्मबन्ध और उनके फलानुभवन के साथसाथ उन रागादि दोषों को उपशम करने-दबाने, उनकी शक्ति घटाने, क्षीण करने - प्रात्मा में से उनके अस्तित्व को मिटा देने, नृतन बंध रोकने और पूर्व में संचित कषाय मल चक्र को क्षीण करने-उसका रस सुखाने-और प्रात्मा के शुद्ध एवं सहज विमल प्रकषाय भाव को प्राप्त करने का सुन्दर विवेचन किया गया है । मोह कर्म प्रात्मा का सबसे प्रबल शत्र है, राग-द्वेषादिक दोष मोह कर्म की ही पर्याय है। कर्म किस स्थिति में और किस कारण से प्रात्मा के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं, उनके सम्बन्ध से प्रात्मा में कैसे सम्मिश्रण होता है और उनमें किस
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुणधर
६७
तरह फलदान की शक्ति उत्पन्न होती है और कर्म कितने समय तक आत्मा के साथ सलग्न रहते है प्रादि का विस्तृत और स्पष्ट विवेचन किया गया है।
ग्रन्थ सोलह अधिकारों में विभक्त है- १. पेज्जदोस विभक्ति - इस अधिकार में संसार में परिभ्रमण का कारण कर्म बन्ध वतलाया है और उस कर्मबन्ध का कारण है राग-द्वेष । रागद्वेप का ही दूसरा नाम कपाय है। इसके स्वरूप और भेद-प्रभेदों का इसमें विस्तार पूर्वक कथन किया गया है ।
२. स्थिति विभक्ति - प्रथम अधिकार में प्रकृति विभक्त, स्थिति विभक्त आदि छह अवान्तर अधिकार बतलाये हैं । उनमें प्रकृति विभवित का वर्णन प्रथम अधिकार में दिया है । और कर्मप्रकृति का स्वरूप, कारण एवं भेद-प्रभेदों का इसमें वर्णन है ।
३. प्रनुभाग विभक्ति - कर्मो की फल-दान-शक्ति का प्रतिपादन इस अधिकार में किया गया है। इसमें प्रदेश, क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्तक ये तीन अवान्तर अधिकार है।
४. बन्ध अधिकार जीव के मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कपाय और योग के निमित्त मे पुद्गल परमाणुओं का कर्मरूप से परिणमन होकर जीव के प्रदेशों के साथ एकक्षेत्र रूप मे बधने को बंध कहते है । इस अधिकार में कर्मबन्ध का निरूपण किया गया है।
५. संक्रम अधिकार-बधे हुए कर्मो का यथासम्भव अपने अवान्तर भेदों में संक्रान्त या परिवर्तित होने को संक्रम कहते हैं । बन्ध के समान मक्रम के भी चार अवान्तर अधिकार है। प्रकृति सक्रम, स्थिति संक्रम, अनुभाग संक्रम और प्रदेश संक्रम ।
६, वेदक अधिकार मोहनीय कर्म के फलानुभवन का वर्णन इस अधिकार में किया गया है । कर्म अपना फल उदय और उदीरणा से भी देते है। स्थिति के अनुसार निश्चित समय पर कर्म के फल देने को उदय कहते हैं । और उपाय विशेष से अममय में ही निश्चित समय के पूर्व फल देने को उदीरणा कहते हैं । यथा- प्रान का समय पर पक कर स्वयं गिरना उदय है, और पकने से पूर्व ही उसे तोड़कर पाल आदि में पका देना उदीरणा है । उदय और उदीरणाका अनेक अनुयोग द्वारों से विवेचन किया गया है।
७. उपयोग अधिकार - जीव के क्रोध, मान, मायादि रूप परिणामों के होने को उपयोग कहते हैं । इस अधिकार में क्रोधादि चारों कपायों के उपयोग का वर्णन किया गया है। और बतलाया गया है कि एक जीव के एक कपाय का उदय कितने काल तक रहता है । कपाय और जीव के सम्बन्धो का विभिन्न दृष्टिकोणों से विवेचन किया है ।
८. चतुःस्थान अधिकार इस अधिकार में शक्ति की अपेक्षा कपायों का वर्णन किया गया है। क्रोध चार प्रकार का है- पापाण रेखा के समान । जिस तरह पाषाण पर खीची गयी रेखा बहुत समय के बाद मिटती है, उसी प्रकार जो क्रोध तीव्र रूप में अधिक समय तक रहने वाला हो, वह पापाण रेखा के तुल्य है । यही क्रोध कालान्तर में शत्रुता के रूप में परिणत हो जाता है। पृथ्वी, धूली और जल रेखाये उत्तरात्तर कम समय में मिटती हैं । इस प्रकार शोध भी उत्तरोतर कम समय तक रहता है तथा उसकी शक्ति में भी तारतम्य निहित रहता है । उसी तरह अन्य कपाय का भी निरूपण किया गया है ।
६. व्यंजन अधिकार व्यंजन शब्द का अर्थ 'पर्यायवाची शब्दों का निरूपण करना है । इस अधिकार में क्रोध के पर्यायवाची रोप, प्रक्षमा, कलह, विवाद, कोप, संज्वलन, द्वेष, भंभा, वृद्धि और क्रोध ये दश शब्द हैं । गुस्सा को क्रोध या कोप कहते है । क्रोध के प्रवेश को रोष, शान्ति के प्रभाव को अक्षमा, स्व औौर पर दोनों को जलावेसन्ताप उत्पन्न करे उसे सज्वलन, दूसरे से लड़ने को कलह, पाप, अपयश और शत्रुता की वृद्धि करने को वृद्धि; अत्यन्त संक्लेश परिणाम को झझा, ग्रान्तरिक प्रीति या कलुपता को द्वेष, एवं स्पर्धा या संघर्ष को विवाद कहा है। मान के मान, मद, दर्प स्तम्भ और परिभन श्रादि । माया के माया, निकृति वंचना, सातियोग और अनुजुता आदि, लोभ के लोभ, राग, निदान प्रयग, मूर्च्छा आदि । कपाय के विविध नामों द्वारा अनेक ज्ञातव्य बातों पर या प्रकाश पड़ता है ।
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
१०. दर्शन मोहोपशमना अधिकार- दर्शन मोहनीय कर्म जीव को अपने स्वरूप का दर्शन, साक्षात्कार या यथार्थ प्रतीति से रोकता है । अतः उसके उपशम होने पर कुछ समय के लिये उसकी शक्ति के दब जाने पर जीव अपने वास्तविक ज्ञान दर्शन स्वरूप का अनुभव करता है जिसमे उसे वचनातीत मानन्द की उपलब्धि होती है । इस अधिकार में दर्शनमोह को उपशम करने की प्रक्रिया वर्णित है।
११. दर्शनमोह क्षपणा अधिकार - दर्शनमोह का उपशम होने पर भी कुछ समय के पश्चात् उसका उदय माने से जीवात्मा श्रात्मदर्शन से वंचित हो जाता है । आत्म साक्षात्कार सदा बना रहे, इसके लिये दर्शनमोह का क्षय करना आवश्यक है | दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ कर्मभूमि में उत्पन्न मनुष्य ही कर सकता है किन्तु उसको पूर्णता चारों गतियों में हो सकती है। प्रस्तुत प्रधिकार में दर्शनमोह के क्षय करने की प्रक्रिया का वर्णन है ।
६८
१२. संयमासंयम लब्धि अधिकार -- श्रात्मस्वरूप के साक्षात्कार के पश्चात् जीव मिथ्यात्व रूपी कीचड़ से निकल जाता है और विषय-वासना रूपी पंक में पुनः लिप्त न हो इस कारण देश संयम का पालन करने लगता है । इस अधिकार में देश संयम की प्राप्ति, सम्भावना और उसकी विघ्न-बाधामों का वर्णन किया गया है। आत्मशोधन के मार्ग में अग्रसर होने के लिए इस अधिकार की उपयोगिता अधिक है । संयमासंयमलब्धि के कारण हो जीव व्रतादि के धारण करने में समर्थ होता है।
१३. संयमलब्धि अधिकार - प्रात्मा की प्रवृत्ति हिंसा, असत्य, चौर्य, प्रब्रह्म और परिग्रह से हट कर अहिंसा, सत्य आदि व्रतों के अनुष्ठान में संलग्न हो सके। क्योंकि ग्रात्मोत्थान का साधन संयम ही है। इसका विवेचन प्रस्तुत अधिकार में किया गया है।
१४. चारित्र मोहोपशमना अधिकार- इसमें चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम का विधान बतलाते हुए उपशम, संक्रमण और उदीरणादि भेद-प्रभेदों का कथन किया गया है।
१५. चारित्र मोहक्षपणा अधिकार - चारित्र मोहनीय कर्म की प्रवृत्तियों का क्षय क्रम, क्षय की प्रक्रिया में होने वाले स्थितिबन्ध और सभी तत्त्वों का विवेचन किया गया है।
" इस कषाय पाहुड पर प्राचार्य यतिवृषभ ने छः हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्रों की रचना की। जो कषाय पाहुड सुत्त के साथ वीर शासन संघ कलकत्ता से प्रकाशित हो चुके हैं। इस ग्रन्थ पर और भी अनेक टीकाएं रही हैं, किन्तु वे इस समय उपलब्ध नहीं हैं। हाँ, वीरसेन जिनसेन द्वारा लिखित जयधवला टीका प्राप्त है, जो शक संवत् ७५६, सन् ८३७ में रची गई है और जिसका प्रकाशन भा० दि० जैन संघ मथुरा से हो रहा है। समय विचार
प्राचार्यप्रवर गुणधर ने अपनी गुरु-परम्परा का कोई उल्लेख नहीं दिया और न ग्रन्थ का रचना काल ही दिया है। अन्य किसी पट्टावली आदि से भी गुणधर की गुरु-परम्परा का बोध नहीं होता। ग्रर्हवली या गुप्तिगुप्त द्वारा स्थापित संघों में एक संघ का नाम गुणधर संघ होने से गुणधर का समय अर्हवली से पूर्ववर्ती है, क्योंकि प्रबली को गुणधर की उस परम्परा का ज्ञान नहीं था। प्राकृत पट्टावली में अर्हवली का समय वीर - निर्वाण संवत् ५६५ सन् ३८ है । धरसेनाचार्य तो अर्हवली के समसामयिक हैं, क्योंकि युग प्रतिक्रमण के समय दो सुयोग्य विद्वान् साधुओं को जो ग्रहण-धारण में समर्थ थे धरसेन के पास भेजा था । यदि अर्हद्बली को गुणधर की गुरुपरम्परा का ज्ञान होता तो वे अपने शिष्यों से उसका उल्लेख अवश्य करते । अधिक समय बीत जाने के कारण उनकी परम्परा का ज्ञान नहीं रहा, पर उनके प्रति बहुमान अवश्य रहा । किन्तु गुणधर की परम्परा को पर्याप्त यश अर्जन करने पर ही 'गुणधरसंघ' संज्ञा प्राप्त हुई होगी। यदि उस यश अर्जन का काल सौ वर्ष माना जाय तो गुणधर का समय ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दि सिद्ध होता है ।
श्रहंद्बलीइनका दूसरा नाम गुप्तिगुप्त भी था ।" ये अंग पूर्वो के बाद हुए हैं। ये पूर्व देश में स्थित पुण्ड्रवर्धनपुर के निवासी और
एकदेशपाठी और आरातीय प्राचार्यों के अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता, संघ के
१. श्रीमानशेषनग्नायक वन्दिनांघ्रि श्रीगुप्तिगुप्त इति विश्रुत नामधेयाः ॥ नन्दि संघ पट्टावली
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
अहंबली
निग्रह अनुग्रह करने में समर्थ प्राचार्य थे । । उम समय पुण्डवर्धन नगर के जैन श्रमण बड़े तपस्वी, विद्वान और संघ नायक के रूप में प्रसिद्ध थे। उम ममय पध में प्रोक विद्वान ताम्वो विद्यमान थे, जो ध्यान और अध्ययन प्रादि में तत्पर रहते थे। इनके ममय तक मूल दिगम्बर परम्परा में प्रायः मघ-भेद प्रकट रूप में नही हुया था। उस समय प्रान्घ्र देश में स्थित वेण्णा नदी के किनारे बसे हा वेण्णा नगर में पचवर्षीय युग प्रतिक्रमण के समय एक बड़ा यति सम्मेलन हुना था, जिसमें सो योजन तक क मुनि गण ससघ सम्मिलित हुए थे। उस समय चन्द्रगुहानिवासी प्राचार्य धरमेन ने अपनी आयु अल्प जान ग्रन्थ-व्युच्छित्ति के भय से एक पत्र ब्रह्मचारी के हाथ उक्त सम्मेलन में भेजा था, जिसे पढ़ कर प्राचार्य अर्हद्बली ने ग्रहण धारण में समर्थ दो मुनियों को धरसेनाचार्य के पास भेजा था जो अग्रायणी पूर्व स्थित पंचम वस्तुगत चतुर्थ महाकर्म प्रकृति प्राभृतज्ञ थे, और वृद्ध तपस्वो थे । अग पूर्वो का एक देश ज्ञान उन्हें प्राचार्य परम्परा से प्राप्त हुया था। सम्भवतः अहंदवली उन मुनियों के दीक्षा-गुरु रहे हों। प्राचार्य धरसेन ने उन दोनों मुनियों को शुभ वार और शुभ नक्षत्र में ग्रन्थ का पढ़ाना प्रारम्भ किया था। विविध संघों की स्थापना
प्राचार्य अहंदवली ने उक्त सम्मेलन में समागत साधुओं से-पूछा आप सब लोग आ गये। तब उन्होंने कहा-हम अपने-अपने सघ सहित आ गए। उन साधुओं की भावनाओं से पक्षपात एव आग्रह की नोति जानकर, 'नन्दि', 'वीर', 'अपराजित', 'देव', 'पंचस्तूप', 'सेन', 'भद्र', 'गुणधर', 'गुप्त', 'सिह' और 'चन्द्र' आदि नामो से भिन्न-भिन्न सघ स्थापित किये। जिससे उनमें एकता तथा अपनत्व को भावना, धर्मवात्सल्य और प्रभावना का अभिवद्धि बनी रहे । इससे अहंबली मुनि-मंघ-प्रवर्तक, कहे जाते है। वे पचाचार के स्वय पालक थे। अहंबली से पूर्व सम्भवतः संघों के विविध नाम नहीं थे। विविध सघों की स्थापना अर्हद्बली के समय से हुई है। उनसे पूर्व वह जैन निर्ग्रन्थ सघ के नाम मे विश्रुत था।
प्राकृत पट्टावलो के अनुसार इनका समय वीर निर्वाण संवत् ५६५ (वि० सं० ६५) ईश्वी सन् ३८ हैं। और यह काल २८ वर्ष बतलाया है।
__यहाँ यह बात खास तोर मे विचारणीय है कि प्राचार्य अर्हद्वली को धरसेन और गुणधर की गुरु परम्परा का ज्ञान न था, किन्तु उनके प्रति हृदय में बहुमान अवश्य था। सम्भव है, उनकी कृति 'कमायपाहड' उस समय विद्यमान थी। इमीमे उन्होने 'गुणधर' नाम का सघ भी कायम किया था। गुणधर का समय ईसा की प्रथम शताब्दी का पूर्वार्ध जान पड़ता है।
तिलोयपण्णत्ती और धवलादि ग्रन्थों में जो श्रुत परम्परा दी है, वह लोहार्य तक है। उनमें अर्हबलि, धरसेन, माघनन्दि और पुष्पदन्त भूतबली का उल्लेख नहीं है। इनके अनुसार इनका समय लोहार्य के वाद पड़ता है।
- -- - - - - -- - -- - -- --- --- १. गर्वाङ्ग पूर्व देशक देशवित्पूर्व देश मध्यगते ।
श्री पुण्डबर्धनपुरे मुनिरजनि नतोऽहंबल्याख्यः ।। ८५ म चतत्प्रसारगणा धारणा विशुद्धाति सत्कियो युक्तः । अष्टांग निमित्तज्ञः मघानुग्रह निग्रह समर्थ: ।। ८६
-इन्द्रनदि श्रतावतार आस्त मवत्मरपञ्चकावमान युग प्रतिक्रमणम् । कुर्वन्योजन शतमात्रवति मुनिजनसमाजस्य ॥ ८७ अथ सोऽयदा युगान्ते कुर्वन् भगवान्युगप्रतिक्रमणम् ।। मुनिजनवृन्दमपच्छत्कि मर्वेऽप्यागता यत: ।। ८८
-इन्द्रनदि श्रुतावतार ३. क्योकि श्रवण बेलगोल के शिलालेख १०५ मे पुष्पदन्त और भूतबलि को स्पष्ट रूप से मभभेदकर्ता अहंदवली
के शिष्य कहा है। ४. इन्द्रनन्दि थुनावतार-६१ श्लोक से ६६ श्लोक तक के पद्य-इन्द्रनन्दि श्रुतावतार ।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०
जन धर्म का प्राचीन इतिहास -भाग २ प्राचार्य धरसेन
पसियउ महु धरसेणो पर-वाइ-गमोह-दाण-वरसीहो।
सिद्धनामिय-सायर-तरंग-संधाय-धोय-मणो।। मुनि पंगव धरसेन सौराष्ट्र (गुजरात काठियावाड़) देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा के निवासी, अष्टांग महानिमित्त के पारगामी विद्वान थे। उन्हे अग और पूर्वो का एकदेश ज्ञान प्राचार्य परम्परा से प्राप्त हुआ था।' प्राचार्य धरसेन अग्रायणी पूर्व स्थित पचम वस्तु गत चतुर्थ महाकर्म प्रकृति प्राभृत के ज्ञाता थे। उन्होंने प्रवचन वात्सल्य से प्रेरित हो अग-श्रुत के विच्छेद हो जाने के भय से किसी ब्रह्मचारी के हाथ एक लेख दक्षिणापथ के प्राचार्यों के पास भेजा। लेख में लिखे गए धरसेनाचार्य के वचनो को भली भा। समझ कर उन्होंने ग्रहणधारण में समर्थ, देश-कुल जाति से शुद्ध अोर निर्मल विनय से विभूषित, समस्त कलाओं में पारगत दो साधुओं को प्रान्घ्र देश में बहने वाली वेणा नदी के तट से भेजा।
मार्ग में उन दोनों साधनों के पाते समय, जो कुन्द के पुष्प, चन्द्रमा और गस के समान सफेद वर्ण वाले हैं, समस्त लक्षणों से परिपूर्ण है, जिन्होंने प्राचार्य धरसेन की तीन प्रदक्षिणा दी है, और जिनके अग नम्रीभूत होकर प्राचार्य के चरणों में पड़ गए है ऐसे दो बैलों को धरमेन भट्टारक ने रात्रि के पिछ ने भाग में स्वप्न में देखा। इस प्रकार के स्वप्न को देख कर सन्तुष्ट हा धरमेनाचार्य ने 'थत देवता जयवन्त हो' ऐसा वाक्य उच्चारण किया।
उमी दिन दक्षिणा पथ से भजे हा दोनो साध धरसेनाचार्य को प्राप्त हए। धरसेनाचार्य की पाद वन्दना आदि कृति कर्म करके तथा दो दिन बिता कर तीसरे दिन उन दोनों साधनों ने धरसेनाचार्य से निवेदन किया कि इस कार्य मे हम दोनो आपके पादमूल को प्राप्त हा है। उन दोनों साधनो के इस प्रकार निवेदन करने पर 'अच्छा है, कल्याण हो, इस प्रकार कह कर धरमेनाचार्य ने उन दोनों साधुओं को आश्वासन दिया।
धरमेनाचार्य ने उनकी परीक्षा ली, एक को अधिकाक्षरी और दूसरे को होनाक्षरी विद्या बता कर उन्हें षष्ठोपवास मे सिद्ध करने को कहा। जब विद्या सिद्ध हई तो एक बड़े दांतों वाली और दूसरी कानी देवी के रूप में प्रकट हई। उन्हें देख कर चतर साधकों ने मन्त्रों की टि को जानकर अक्षरों की कमी-वेशी को दूर कर साधना की तो फिर देवियाँ अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हुई।
उक्त दोनों मुनियों ने धरसेन के समक्ष विद्या-सिद्धि सम्बन्धी सव वृत्तान्त निवेदन किया, तब धरमेनाचार्य ने कहा - बहुत अच्छा। इस प्रकार सन्तुष्ट हुए धरमेन भट्टारक ने गुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वार में ग्रन्थ का
भ किया। धरमेन का अध्यापन कार्य प्रापाढ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के पूर्वाह काल में समाप्त हुआ । अतएव सन्तुष्ट हुए भूत जाति के व्यन्तर देवों ने उन दोनों में एक की पुप्पावली से तथा शख और तूर्य जाति
१ नदो मोम वागगर्दशो प्रादपिपग्मगा पागच्छमागो धग्मंगाग्यि सपत्तो।
-धवला० पु० ११० ६७ । २. मोरट्ठ-विमा-गिग्गियर-पट्टगा चदहा-ठिाण अट्टग-महानिमिन-पारा गा गथ-वोच्होदो हो हदिनि जात-भारण
पवयण-वच्छलेग दक्विगावहारियाग महिमा मिलिगाण लेहो पमिदो। लेहाव्य-धरमेग-वयगगमवधाग्यि ते हि वि आदगि हि वे मा गहगग-धारण-ममत्या धवलामलबहविह-विगग-बिहमियगा मीलमालाहग गुर पेर गासणतित्ता देम-कुल-जाद-मुद्धा मयलकला-पाग्य निक्वत्ता बुच्छ्यिाग्यिा अध विमय-वेगगायदादो पेमिदा।
(धवला० पु. १ पृ०६७) उज्जिते गिरि मिहरे धग्मेणो धरः वय-ममिदिगुनी । चदगुहाट रिगवासी वियह नमु गमहु पय जुयल ।। ८१ अग्गायगीय गणाम पचम वत्युगद कम्मपाहदया। पर्यादिदिश्रण भागो जाणनि पदेसबधो वि ।। ८२
(श्रत वध ब्रह्महेमचन्द्र) इन्द्र नन्दिश्रुतावतार श्लोक १०३, १०४
(ख)
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
माघनन्दि
७१
के वाद्यविशेष के नाद से बड़ी भारी पूजा की। उसे देख कर धरमेन भट्टारक ने उनका भूतबलि नाम रक्खा । और जिनको भूतों ने पूजा को प्रोर अग्त व्यस्त दन्तपक्ति को दूर कर उनके दांत ममान कर दिये, अतः धरसेन भट्टारक ने दूसरे का नाम पूष्पदन्त रक्खा । पश्चात दूसरे दिन वहां से उन दोनों ने गुरु की आज्ञा से चल कर प्रकलेश्वर (गुजरात) में वकाल बिताया।'
धरसेनाचार्य ने दोनों गिप्यों को इस कारण जल्दी वापिस भेज दिया, जिससे उन्हें गुरु के दिवंगत होने पर दुःख न हो। कुछ ममय पश्चात उन्होंने माम्य भाव मे शरीर का परित्याग कर दिया।
प्राचार्य धरसेन की एकमात्र कृति 'योनि पाहड' है, जिसमें मन्त्र-तन्त्रादि शक्तियों का वर्णन है। यह ग्रन्थ मेरे देखने में नहीं आया। कहा जाता है कि वह रिसर्च इन्स्टिट्यूट पूना के शास्त्र भण्डार में मोजद है।
माघनन्दि सिद्धान्ती-नन्दि संघ को पट्टावली में अहंबला के बाद माघनन्दि का उल्लेख किया है और उनका काल २१ वर्ष बतलाया है। जम्बूद्वीप पण्णत्तो के कर्ता पद्मनन्दी ने माघनन्दि का उल्लेख करते हए बतलाया है कि वे गग-द्वप पोर मोह से रहित, श्रुतसागर के पारगामी, मतिप्रगल्भ, तप और सयम से सम्पन्न, लोक में प्रसिद्ध थे। श्रुतमागर पारगामी पद से उन माघनन्दि का उल्लेख ज्ञात होता है जो सिद्धान्तवेदी थे। इनके सम्बन्ध में एक कथानक भी प्रचलित है। कहा जाता है कि माघरन्दि मुनि एक बार चर्या के लिये नगर में गए थे। वहाँ एक कुम्हार की कन्या ने इनसे प्रेम प्रगट किया और वे उसी के साथ रहने लगे। कालान्तर में एक बार संघ में किसी सैद्धान्तिक विपय पर मतभेद उपस्थित हुआ और जब किसी से उसका समाधान नही हो सका, तब सघनायक ने आज्ञा दी कि इसका समाधान माघनन्दि के पास जाकर किया जाय । अतएव साधु माघनन्दि के पास पहुंचे और
ज्ञान की व्यवस्था मांगी। तब माघनन्दि ने पूछा 'क्या संघ मुझे अब भी यह सत्कार देता है ? मुनियों ने उत्तर दिया-आपके श्रुतज्ञान का सदैव प्रादर होगा।' यह सुनकर माघनन्दि को पुनः वैराग्य हो गया और वे अपने सुरक्षित रखे हुए पीछी कमंडलु लेकर संघ में आ मिले और प्रायश्चित किया।
माघनन्दि ने अपने कुम्हार जीवन के समय कच्चे घड़ों पर थाप देते समय गाते हुए एक ऐतिहासिक स्तुति बनाई थी, जो अनेकान्त में प्रकाशित हो चुकी है। पर वह इन्ही माधनन्दि की कृति है, इसके जानने का कोई प्रामाणिक साधन देखने में नहीं पाया । शिला लेख नं० १२६ में बिना किसी गुरु शिष्य सम्बन्ध के माघनन्दि को प्रसिद्ध सिद्धान्तवेदी कहा है। यथा
नमो नम्रजनानन्दस्यन्दिने माघनन्दिने ।
जगत्प्रसिद्ध सिद्धान्तवेदिने चित्प्रभेदिने । माघनन्दि नाम के और भी सैद्धान्तिक विद्वान हए हैं। पर वे इनमे पश्चाद्वर्ती हैं, जिनका परिचय प्रागे दिया जायेगा। प्रस्तुत माघनन्दि के शिष्य 'जिनचन्द्र' बतलाए गए हैं। पर उनका कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता।
पुष्पदन्त और भूतबली—ये दोनों अर्हबली के शिष्य थे।" दक्षिण भारत के प्रान्ध्र देश के वेणातट नगर में युग प्रतिक्रमण के समय एक बड़ा मुनि सम्मेलन हुआ था। उस समय सौराष्ट्र देश के गिरिनगर (वर्तमान जूनागढ़) में स्थित चन्द्रगुहा निवासी प्राचार्य धरसेन ने जो अग्रायणी पूर्व के पंचम वस्तु गत चतुर्थ महाकर्म प्रकृति प्राभूत के
१. पुणो तद्दिवसे चेव पेमिदा मंतो 'गुरु-वयरण मलंधगिज्ज' इचितिऊणागदेहि अंकुलेमर वग्मिाकालो को। जोगं
समाणीय जिणवालिय दट्ठण पुप्फयंताइग्यिो वणवास-विसय गदो। भूदबलि-भडारो वि दमिलदेसं गदो। २. 'जोणि पाहुडे भणिद-मंत-तंत सत्तीयो पोग्गलाणभागो त्ति धेतव्वो'
-अनेकान्त वर्ष २ जुलाई ३. यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्याख्येनापि शिष्यद्वितीयेन रेजे। फल प्रदानाय जगज्जननां प्राप्तोऽङ्गभ्यामिव कल्पभूजः ।।
-जैन शिलालेख सं० भा० १ लेख १०५
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
ज्ञाता थे। वे उस समय के साधनों में बहुश्रुत विद्वान तथा अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता थे। उन्होंने प्रवचन वात्सल्य एवं श्रुतविच्छेद के भय से एक लेखपत्र वेण्यातट नगर के मुनि सम्मेलन में दक्षिणा पथ के प्राचार्यों के पास भेजा। जिसमे देश, कुल, जाति से विशुद्ध, शब्द अर्थ के ग्रहण-धारण में समर्थ, विनयी दो विद्वान साधुओं को भेजने की प्रेरणा की गयी। संघ ने पत्र पढ़कर दो योग्य साधनों को उनके पास भेजा।' इस सम्मेलन में ही सर्वप्रथम निर्ग्रन्थ दिगम्बर सघ में नन्दि, सेन, सिह, भद्र, गणधर, पंचस्तृप आदि उपसघ उत्पन्न हए थे। और उनके कर्ता अर्हदबली थे। यह सम्मेलन सभवतः सन् ६६ ई० पू० में हया था। उन विद्वानों के आने पर प्राचार्य धरमेन ने उनकी परीक्षा कर 'महा कर्म प्रकृति प्राभृत' नाम के ग्रन्थ को शुभ तिथि शुभ नक्षत्र और शुभ वार में पढ़ाना प्रारम्भ किया अर उसे क्रम से व्याख्यान करते हुए आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी के पूर्वाह काल में समाप्त किया। विनयपूर्वक ग्रन्थ समाप्त होने से सन्तुष्ट हुए भूत जाति के व्यतर देवों ने उन दोनों में से एक की पूप्पावली तथा गख और तर्य जाति के वाद्य विशेप के नाद से व्याप्त बड़ी पूजा की। उसे देखकर प्राचार्य धरसेन ने उनका भूतबलि नाम रक्खा । और दूसरे की अस्त-व्यस्त दन्त पंक्ति को दूर किया, अतएव उनका नाम पुष्पदन्त ग्वा ।
ये दोनों ही विद्वान गुरु की आज्ञा से चलकर उन्होंने अकलेश्वर (गुजरात) में वर्षा काल बिताया। वर्षा योग को समाप्त कर और जिनपालित को लेकर पुष्पदन्त तो उसके साथ वनवास देश को गये। और भूतबलि भट्टारक मिल देश को चले गए। पदचात् पुष्पदन्ताचार्य ने जिनपालत को दीक्षा देकर व स प्रपणा गभित सत्प्ररूपणा के सूत्र बनाकर और जिनपालित को पढाकर, पश्चात् उन्हे भूतबलि प्राचार्य के पास भेजा। उन्होंने जिनपालित के पास वीसप्ररूपणान्तर्गत सत्प्ररूपणा के सूत्र देखे और पापदन्त को अत्पायू जानकार महाकर्म प्रकृति प्राभृत के विच्छेद होने के भय से द्रव्य प्रमाणानुगम से लेकर जीवस्थान, क्षुद्रक बन्ध, बन्ध स्वामित्वविचय, वेदना, वर्गणा और महावन्ध रूप षट् खण्डागम की रचना की। ये दोनों ही आचार्य राग-द्वेप-मोह मे रहित हो जिन वाणी के प्रचार में लगे रहे। इन्द्रनन्दि और ब्रह्म हेमचन्द्र के श्रु तावसार से ज्ञात होता है कि जब षट्खण्डागम की रचना पूर्ण हुई, तब चर्तु विध मघ सहित पुष्पदन्त भूतबलि प्राचार्य ने ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को ग्रथगज की बड़ी भक्तिपूर्वक पूजा की। उसी समय से श्रुतपंचमी पर्व लोक में प्रचलित हुआ।
षट खण्डागम की महत्ता इसलिये भी है कि उसका सीधा सम्बन्ध द्वादशांग वाणी से है। क्योंकि अग्रायणी पूर्व के पांचवे अधिकार के चतुर्थ दरतु प्रात का नाम महाक मप्रकृति प्राभत है, उससे पट खण्डागम की रचना हुई है। जैसा कि धवला पुस्तक ६ पृष्ठ १३४ के निम्न वाक्यों से प्रकट है :-अग्गेणियस्स पूवम्स पंचमम्स वत्थुस्स चउत्थो पाहडो कम्म पयड़ीणाम । अतएव द्वादशांग वाणी से उसका सम्बन्ध स्पष्ट ही है।
षट् खण्डागम परिचय
१ जीवस्थान में गुणस्थान और मार्गणा स्थानों का प्राश्रय लेकर सत्, सख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, - - १. सीट विमयगिरिगणयर, पट्टगण-चदगृहा-ट्टिएगग महाणिमित्तपागाण गथ-वोच्छेदो हो दित्ति जात भएगा पवयण बच्छ.
लेगा दक्षिणावहाइग्यिाण महिमाए मिलियाण लेहो पेसिदो। लहट्टिय-धरमेगा बयगगमवधाग्यि तेहि वि आइगिहि वे साह गहराग-धारमा ममत्था धवलामल-बहुविहविरणय विमियगा मीलमालाहग गुरुपेसगासणनित्ता देम कुल जाट मुद्वा मालकला पाग्या निक्खुनाच्छयाइग्यिा अन्धविमयवेणायडादो पेमिदा ।
-धव० पु०१ पृ०६७ भूदबलि भयव दा जिणवालिद पामे दिट्ठवीमदि मुत्तेग अप्पाउओ कि अवगय जिग्गा वालिदेरण महाकम्मपयडि पाहुइम्स वोच्छेदो होहदिति समुप्पण्ण-बुद्धि गगा पुरणो दव्वपमागगाणुगमादि काऊण गथग्चगणी कदा।
-धवला० पुस्तक १ पृ० ७१ ३. ज्येष्ठ मितपक्ष पञ्चम्या चतुर्वर्ण्यमघममवेतः । तत्पुस्तकोपकरणळधात् क्रिया पूर्वक पूजाम् ।
श्रतपंचमीति तेन प्रख्याति तिथिग्यिं पगमाप । अद्यापि येन तस्यां श्रुतपूजा कुर्वते जनाः ।। इंद्र० श्रु०१४३, १४४ । ब्रह्महेमचन्द्र श्रुतम्कन्ध गा० ८६, ८७
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुष्पदन्न और भूनबलि भाव और अल्प बहुत्व इन पाठ अनुयोगद्वारो मे से तथा प्रकृति समुत्कीर्तन, स्थान समुत्कीर्तन, तीन महादण्डक, जधन्य स्थिति, उत्कृष्ट स्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति प्रो र गति प्रागति इन नो चूलिकाओ द्वारा संसारी जीव की विविध अवस्थानों का वर्णन किया गया है।
खुद्दाबन्ध- इस द्वितीयखण्ड मे बन्धक जीवो की प्ररूपणा स्वामित्वादि ग्यारह अनुयोगो द्वारा गति आदि मार्गणा स्थानो में की गई है और अन्त मे ग्यारह अनुयोग द्वारा चूलिका रूप 'महादण्डक' दिया गया है।
बन्ध स्वामित्व-नामक तृतीय खण्ड मे बन्ध के स्वामियो का विचार होने ने इस का नाम बन्ध स्वामित्व दिया गया है । इसने गुणस्थानो और मार्गणा स्थानों के द्वाग सभी कर्म प्रकृतियो के बन्धक स्वामियों का विस्तार से विचार किया गया है। किम जीव के कितना प्रकृतियो का बध कहा तक होता है, किमके नही होता है, कितनी प्रकृतियाँ किम-किम गुणस्थान में व्यूच्छिन्न होती हे, स्वोदय बन्ध रूप कृतियाँ कितनी है ओर परोदय बन्ध रूप कितनी है। इत्यादि कर्म सम्बन्धी विपयो का बन्धक जीव की अपेक्षा में कथन किया गया है।
वेदना-महाकर्म प्रकृति प्राभृत के २४ अनुयोगद्वारा मे मे जिन छह अनुयोगद्वारो का कथन भूतबलि आचार्य ने किया है उसम पहल का नाम कति और दृमरे का नाम वेदना है। वेदना का इस खण्ड में विस्तार से विवेचन किया गया है।
वर्गणा - इम वर्गणा खण्ड में स्पर्श कर्म और प्रति अनुयोग द्वारो के साथ छठे बन्धन अनयोग द्वार के अन्तर्गत बन्धनीय का अवलम्बन कर पुद्गल वर्गणाओ का कथन किया गया है, इस कारण इस दिया है।
इन पाँच खडो के अतिरिक्त भूतबलि आचार्य ने महाबन्ध नाम के छठवं खण्ड में प्रकृति बन्ध, स्थितिबंध अनुभाग बंध और प्रदेशवध रूप चार प्रकार के बध के विधान का विस्तार के साथ कथन किया है जिसका प्रमाण ब्रह्म हेमचन्द ने चालीस हजार श्लोक प्रमाण बतलाया है। और पांच खण्डो का प्रमाण छह हजार श्लोक प्रमाण सत्र ग्रन्थ है। पट खण्टागम महत्वपूर्ण प्रागम ग्रन्थ है। उसका उत्तरवर्ती ग्रन्थकारो और ग्रन्थों पर प्रभाव अकित है । सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिकादि ग्रन्थो मे उसका अनुकरण देखा जाता है। पुष्पदन्त भूतबलि कौन थे?
नहवाण, नहपान और नरवाहन आदि नाम मिलते है। नहपान वमिदेश में स्थित वसुन्धरा नगरी का क्षहरात वश का प्रसिद्ध शासक था। इसकी रानी का नाम सरूपा था। नहपान अपने समय का एक वीर ओर पराक्रमी शासक था और वह धर्मनिष्ठ तथा प्रजा का सपालक था। नहपान के अपने तथा जामाता उषभदत्त या ऋपभदत्त और मत्रो अयम के अनेक शिलालेख मिलते है, जो वर्ष ४१ मे ४६ तक के है। नहपान के राज्य पर ईस्वी सन् ६१ के लगभग गोतमी पुत्र शातकर्णी ने भृगुकच्छ पर आक्रमण किया था। घोर युद्ध के बाद नहपान पगजित हो गया और युद्ध में उसका सर्वस्व विनष्ट हो गया। उसने सधि कर ली। - -
- - - - - १-जुनार के अभिलेख में नहान की अन्तिम तिथि ४६ का उल्लेख है । यह शक मवत् की तिथि है। इसमे स्पष्ट है कि वह शक स०४६-७८ -१२४ ईम्बी में गज्य करता था। मके बाद उसके राज्य पर गौतम पुत्र शातकर्णी ने घोर युद्ध के बाद अधिकार कर लिया था। शातकर्णी का एक लेख उपके गज्य के १८वे व वा मिना है। यह १०६ ईम्वी के लगभग सिहासन पर बैठा होगा। दूमग लेख नामिक म २४वे वर्ष का मिला है।
-देखो, प्राचीन भारत पा गजनीतिक तथा मास्कृतिक इतिहास १० ५२६ नामिक के दो अभिलेखो से स्पष्ट है कि उमने (गौतमी पुत्र गातकर्णी ने) छहगतवश को पगजित कर अपने वश का राज्य स्थापित किया था। जो गल पम्भी-मुद्राभाण्ड-मे भी इस कपन की पुष्टि होती है। इस भाण्ड मे तेरह हजार मुद्राए है जिन पर नहपान और गौतमी पुत्र दोनो के नाम अकित है। इममे स्पाट हे कि नहपान को पराजित करने के पश्चात् उसने उसकी मुद्राओ पर अपना नाम अकित करने के बाद फिर से उन्हे प्रसारित किया।
-देखो प्राचीन भारत का राजनैतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास प०५२७
ज
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
सातवाहन ने इस विजय के उपलक्ष्य में नहपान के सिक्कों को प्राप्त कर और उन पर अपने नाम की मुहर अंकित कर राज्य में चालू किया। वह उस समय वहाँ श्राया हुआ था । उसमें नहपान ने अपने मित्र मगध नरेश को मुनि रूप में देखकर और उनके उपदेश से प्रेरित हो अपने जमाता ऋषभदत्त को राज्यभार सौंप कर अपने राज्य श्रेष्ठि सुबुद्धि के साथ मुनि दीक्षा ले ली। इन दोनों साधुनों ने संघ में रहकर तपश्चरण तथा आवश्यकादि क्रियाओं के अतिरिक्त ध्यान अध्ययन द्वारा ज्ञान का अच्छा अर्जन किया, यह अत्यन्त विनयी विद्वान और ग्रहण धारण में समर्थ थे । इन दोनों साधुत्रों को प्राचार्य धरसेन के पास गिरि नगर भेजा गया था । आचार्य धरसेन ने इनकी परीक्षा कर महाकर्मप्रकृति प्राभृति पढ़ाया था । इनमें एक का नाम भूतबलि और दूसरे का नाम पुष्पदन्त रक्खा गया था । उनका दीक्षा नाम क्या था, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता ।
७४
नरवाहन या नहपान राजा भूतिबलि हुआ । और राजश्रेष्ठि सुबुद्धि पुष्पदन्त के नाम से ख्यात हुए । बिबुध श्रीधर के श्रुतावतार में इनका उल्लेख है । और नरवाहन को भूतबलि प्रौर सुबुद्धि सेठ को पुष्पदन्त बतलाया गया है ।
कुन्दकुन्दाचाय
भारतीय जैन श्रमण परम्परा में मुनिपुंगव कुन्दकुन्दाचार्य का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है । वे उस परम्परा के प्रवर्तक प्राचार्य नहीं थे । किन्तु उन्होंने आध्यात्मिक योग शक्ति का विकास कर अध्यात्मविद्या की उस अवच्छिन्न धारा को जन्म दिया था। जिसकी निष्ठा एवं अनुभूति आत्मानन्द की जनक थी और जिसके कारण भारतीय श्रमणपरम्परा का यश लोक में विश्रुत हुआ था ।
श्रमण-कुल-कमल- दिवाकर प्राचार्य कुन्दकुन्द जैन संघ परम्परा के प्रधान विद्वान एवं महर्षि थे । वे बड़े भारी तपस्वी थे । क्षमाशील और जैनागम के रहस्य के विशिष्ट ज्ञाता थे । वे मुनि पुंगव रत्नत्रय से विशिष्ट मौर संयम निष्ठ थे । उनकी श्रात्म-साधना कठोर होते हुए भी दुःख निवृत्ति रूप सुखमार्ग की निदर्शक थी। वे श्रहंकार ममकार रूप कल्मष-भावना से रहित तो थे ही। साथ ही, उनका व्यक्तित्व असाधारण था । उनकी प्रशान्त एवं यथाजात मुद्रा तथा सौम्य प्राकृति देखने से परम शान्ति का अनुभव होता था । वे श्रात्म-साधना में कभी प्रमादी नहीं होते थे । किन्तु मोक्षमार्ग की वे साक्षात् प्रतिमूर्ति थे । वास्तव में कुन्दकुन्द श्रमण ऋषियों में अग्रणी थे । यही कारण है कि - 'मंगलं भगवान वीरो' इत्यादि पद्य में निहित 'मंगलं कुन्दकुन्दार्यो' वाक्य के द्वारा मंगल कार्यों में आपका प्रतिदिन स्मरण किया जाता है ।
कुन्दकुन्द का दीक्षा नाम पद्मनन्दी था' । वे कौण्डकुण्डपुर के निवासी थे २ । गुण्टकल रेलवे स्टेशन से दक्षिण की ओर लगभग चार मील पर कौण्ड कुण्डल नाम का स्थान है, जो अनन्तपुर जिले के गुटी तालुके में स्थित है । शिलालेख में उसका प्राचीन नाम 'कौण्डकुन्दे' मिलता है। यहाँ के निवासी इसे प्राज भी कौण्डकुन्दि कहते हैं । संभव है कुन्दकुन्द का यही जन्म स्थान रहा हो । अतः उस स्थान कारण उनको प्रसिद्धि कौण्डकुन्दाचार्य के नाम से हुई थी । जो बाद में कुन्दकुन्द इस श्रुति मधुर नाम में परिणत हो गया था। और उनका संघ मूलसंघ और 'कुन्दकुन्दाचार्य' के नाम से लोक में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ । और ग्राज भी वह उसी नाम से प्रचार में भा रहा है ।
१. तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः । श्रीकोण्डकुन्दादि मुनीश्वराख्यस्संयमादुदगत चारगद्धि ॥
(क) श्री पद्मनन्दीत्यनवद्य नामा ह्याचार्य शब्दोत्तरकोण्डकुन्दः ||
२.
देखो इंद्रनन्दि श्रुतावतार
जैनिज्म इन साउथ इंडिया
३.
- जैन लेख सं० भा० १ पृ० २४
- जैन लेख सं० भा० १ पृ० ३४
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुन्दकुन्दाचार्य
७५
वे मूलसंघ के द्वितीय नेता थे । यद्यपि उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने संघ का कोई उल्लेख नहीं किया । किन्तु उत्तरवर्ती प्राचार्यो ने अपनी गुरु परम्परा के रूप में या अन्य प्रकार से उनकी पवित्र कृतियों की मौलिकता के कारण या अपने संघ को 'मूलसंघ' श्रौर अपनी परम्परा को 'कुन्दकुन्दान्वय' सूचित किया है। वे ऐसा करने में अपना गौरव समझते थे । क्योंकि आचार्य कुन्दकुन्द ने भगवान जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट समीचीन मार्ग का अनुपम उपदेश दिया था । साथ ही, उसे अपने जीवन में उतारकर भरत क्षेत्र में श्रुत की प्रतिष्ठा की थी । उन्होंने आत्मानुभूति के द्वारा केवलियों द्वारा प्रदर्शित ग्रात्ममार्ग का उद्भावन किया था, जिसे जनता भूल रही थी । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन श्रमणों में प्रधान थे । आपकी प्राध्यात्मिक कृतियां अपनी सानी नहीं रखतीं और वे दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से आदरणीय मानी जाती हैं । उनकी आत्मा कितनी विमल थी, और उन्होंने कल्मष परिणति पर किस प्रकार विजय पाई थी, यह उनके तपस्वी जीवन से सहज ही ज्ञात हो जाता है ।
अटल नियम पालक
मुनि पुंगव कुन्दकुन्द जैन थे और अनशनादि बारह प्रकार के प्रवचनसार में जैन श्रमणों के मूलगुण
श्रमण परम्परा के लिये आवश्यकीय मूलगुण और उत्तर गुणों का पालन करते अन्तर्बाह्य तपों का अनुष्ठान करते हुए तपस्वियों में प्रधान महर्षि थे । उन्होंने इस प्रकार बतलाये हैं
वद समिदिदियरोधो लोचावस्सय मचेलमण्हाणं । खिदिरायणमदंतवणं ठिदिभोयण-मेगभतं च ॥ एवं खलु मूलगुणा समणारां जिणवरेहिं पष्णसं । तेसु
पमत्तो समणो छेदोवद्वावगो होदि । ( ३-७-८ )
पांच महाव्रत, पांच समिति, पांचइन्द्रियों का निरोध, केशलोंच, पट् आवश्यक क्रियाएं, अचेलक्य (नग्नता ) अस्नान, क्षितिशयन, श्रदन्त-धावन, स्थिति भोजन और एक भुक्ति ( एकासन) ये जैन श्रमणों में अट्ठाईस मूलगुण जिनेन्द्र भगवान ने कहे हैं। जो साधु उनके आचरण में प्रमादी हाता है वह छेदोपस्थापक कहलाता है ।"
ग्रामों नगरों में ससंघ भ्रमण
वे यथाजात रूपधारी महाश्रमण अनेक ग्रामों, नगरों में समंध भ्रमण करते थे, और अनेक राजाओं, महाराजाओं, महात्माओं, राजथं ष्टियों, श्रावक-श्राविकाओं और मुनियों के समूह मे सदा अभिवन्दित थे, परन्तु उनका किसी पर अनुराग और किसी पर विद्वेष न था । विकारी कारणों के रहने पर भी उनका चित्त कभी विकृत नहीं होता था, वे समदर्शी श्रमण जब गुप्ति रूप प्रवृत्ति में असमर्थ हो जाते थे, तब समिति में सावधानी से प्रवृत्त होते थे । क्योंकि उस समय भी वे अपने उपयोग की स्थिरता के कारण शुद्धोपयोग रूप संयम के संरक्षक थे, इसलिये समिति रूप प्रवृत्ति में सावधान साधु के बाह्य में कदाचित् किसी दूसरे जीव का घात हो जाने पर भी वह प्रमत्तयोग के प्रभाव में हिंसक नहीं कहलाता, क्योंकि शुभोपयोग प्रवृत्ति सयम का घात करने वाली अन्तरंग हिंसा ही है, उससे ही बन्ध होता है, कोरी द्रव्यहसा हिसा नही कहलाती, किन्तु प्रयत्नाचार रूप प्रवृत्ति करने वाला साधु रागादि भाव के कारण षटकाय के जीवों का विराधक होता है । परन्तु जो अपनी प्रवृत्ति में सावधान हैं- रागादिभाव से उनकी प्रवृत्ति अनुरंजित नहीं है, तब उसकी हलन चलनादि क्रियाओं से जीव की विराधना होने पर भी वह हिंसक नहीं कहलाता - वह जल में कमल की तरह उस कर्मबन्धन से निर्लेप रहता है- शुद्धोपयोग रूप अहिंसक भावना के बल
१. वन्द्यो वनुनुविन कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्दप्रभाप्रग्यि - कीर्ति विभूषिताशः । यश्चारु चारण-कराम्बुज चञ्चरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ॥
— जैन लेख सं० भा० १ पृ० १०२
२. यही मूलगुण मूलाचार मे भी बतलाए गए है। जो लोक में आचारंग रूप में प्रसिद्ध है ।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
से उसका अन्तःकरण विमल एव सर्वथा अक्षण्ण बना रहता है।
___ इस तरह महामुनि कुन्दकुन्द नगर से बाह्य उद्यानो, दुर्गम अटवियों, सघन वनों, तरु कोटरों, नदी पुलिनों गिरि शिखरों, पार्वतीय कन्दरानी में तथा श्मशान भूमियो (मरघटो) में निवास करते थे। जहां अनेक हिंसक जाति-विरोधी जीवों का निवास रहता था। शीत उष्ण डांस, मच्छर आदि की अनेक असह्य वेदनामों को सहते हुए
चिदानन्द स्वरूप से जरा भी विचलित नहीं होते थे । आवश्यक क्रियाओं में प्रवृत्त होते हुए भी वे महामुनि अपने ज्ञान दर्शन चारित्र रूप आत्म-गुणी में स्थिर रहने के लिये एकान्त प्राशुक स्थानों में आत्म समाधि के द्वारा उस निजानन्द रूप परमपीयूष का पान करते हुए प्रात्म-विभोर हो उठते थे। परन्तु जब समाधि को छोड़कर ससारस्थ जीवों के दु:खों ओर उनकी उच्च नीच प्रवृत्तियों का विचार करते, उसी समय उनके हृदय में एक प्रकार की टीस एव वेदना उत्पन्न होती थी, अथवा दया का स्रोत बाहर निकलता था। चारण ऋद्धि और विदेह गमन
इस तरह सम्यक तप के अनुष्ठान से आचार्य कुन्दकुन्द को चारण ऋद्धि की प्राप्ति हो गई थी जिसके फलस्वरूप वे पृथ्वी से चार प्रगुल ऊपर अन्तरिक्ष में चला करते थे।
प्राचार्य देवसेन के 'दर्शनसार' से मालूम होता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द विदेह क्षेत्र में सीमधर स्वामी के सवारण में गए थे और वहां जाकर उन्होंने दिव्य ध्वनि द्वारा आत्मतत्व रूपी सुधारस का साक्षात पान किया था। और वहां से लौटकर उन्होंने मुनिजनों के हित का मार्ग बतलाया था।
" श्रवण बेलगोला के शिलालेखों में तो यह भी ज्ञात होता है कि उन्होंने चरणऋद्धि की प्राप्ति के साथ, भरत क्षेत्र में श्रतकी प्रतिष्ठा की थी-उन्होंने उसे समुन्नत बनाया था। इसमें कोई सन्देह नही कि जब तपश्चरण की महत्ता से प्रात्मा से निगड कर्म का बन्धन भी नष्ट हो जाता है तब उसके प्रभाव से यदि उन्हें चारणऋद्धि प्राप्त हो गई तो इसमें प्राश्चर्य की कोई बात नहीं है। क्योंकि कुन्दकुन्द महामुनिराज थे, अत: उन जैसे प्रसाधारण पति के सम्बन्ध में जिस घटना का उल्लेख किया गया है उममें सन्देह का कोई कारण नहीं है। और देवसेनाचार्य के उल्लेख से इतना तो स्पष्ट ही है कि विक्रम स० ६६० में उनके सम्बन्ध में उक्त घटना प्रचलित थी। अध्यात्मवाद और प्रात्मा का त्रैविध्य
अध्यात्मवाद वह निर्विकल्प रसायन है । जिसके सेवन अथवा पान से आत्मा अपने स्वानुभवरूप आत्मरज में लीन हो जाता है, और जो आत्म सुधारस की निर्मल धारा का जनक है। जिसकी प्राप्ति से आत्मा उस आत्मा नन्द में निमग्न हो जाता है, जिसके लिये वह चिरकाल से उत्कटित हो रहा था। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्रात्मानुभव की उस विमल सरिता में निमग्न होकर भी, ससारी जीवों की उस आत्मरस शून्य अनात्मरूप मिथ्या परिणति का
१. मुण्णहरे ना हि? उज्जागे तह गमाग वामे वा।
गिरि-गृह गिरिमिहरे वा भीमवणे अहव वमिने वा ।। -बोध प्राभूत रजाभिरपष्टतमत्वमन्नर्बाह्य ऽपि मव्यंजयितु यतीगः । ग्ज: पद भूमितल विहाय चचार मन्ये चतुरगुल सः ।।
-श्रवण बेलगोल लेग्य नं० १०५ ३. जह उमगंदिगाहो मीमधग्मामि-दिव्यगणागणेरण । गा वि बोहा नो ममग्णा कहं मुमग्ग पयाणति ।।
-दर्शनमार ४. वंद्यो वि नुमुं वि न कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्दप्रभा प्रर्णायकीर्ति विभूषिताशः । यश्चारुच्चारण-कराम्बुजचंचरीकचके श्रुतम्य भग्ते प्रयतः प्रतिष्ठामः ।।
-श्रवण लेख नं० ५४
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुन्दकुन्दाचार्य
परिज्ञान किया। साथ ही, चाह-दाहरूप-दुःख-दावानल मे झलमित प्रात्मा का अवलोकन कर उनका चित्त परम करुणा से प्रार्द्र हो गया और उनके समुद्धार की कल्याणकारी पावन भागा ने जोर पकडा । मत. उन्होंने ग्व पर के भेद विज्ञानरूप आत्मानुभव के बल में उम आत्मतत्व का रहस्य समझाने एव प्रात्म-स्वरूप का बोध कराने के लिये 'सारत्रय' जैसी महत्वपूर्ण कृतियों का निर्माण किया। और उनमें जीव पार अजीव के मयोग सम्बन्ध में होने वाली विविध परिणतियो का-कर्मादय से प्राप्त विचित्र अवस्थानो का - उल्नेम्व किया और बतलाया कि: -
हे आत्मन् ! पर द्रव्य के सयोग से होने वालो परिणतिया तेरी नही है । पोर न तू उनका कर्ता हर्ता है। ये सव राग-द्वेप-मोह रूप विभाव परिणति का फल है। तेरा स्वभाव ज्ञाता द्रष्टा है, पर मे आत्म कल्पना करना तेरा स्वभाव नहीं है । त सच्चिदानन्द है, अपने उस निजानन्द स्वरूप का भोक्ता बन, उस आत्म स्वरूप का भाक्ता बनन के लिये तुझे अपने स्वरूप का परिज्ञान होना आवश्यक है। तभी तेरा अनादि कालीन मिथ्या वासना में छुटकारा हो सकता है।
इस प्रात्मा की तीन अवस्थाए अथवा परिणतिया है बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । इनमे में यह प्रात्मा प्रथम अवस्था में इतना रोगी हो गया है कि यह अनादिसे अपनी ज्ञान दर्शनादिम्प यात्मनिधि का भूल रहा है और अचेतन (जड़) शरीरादि पर वस्नुमा में अपने प्रात्मम्बम्प की कल्पना करता हुआ चतुर्गनिरूप मंसार में परिभ्रमणकर असह्य एव घोर वेदना का अनुभव कर रहा है, वह दुःख नहीं महा जाता, किन्तु अपने द्वाग उपाजित कर्म का फल भोगे बिना नही छट मकता, इसीसे उसे विलाप करता हुआ सहता है । जीव की यह प्रथम अवस्था ही ससार दुःख की जनक है, यही वह अज्ञान धारा है जिससे छटकाग मिलते ही ग्रान्मा अपने स्वरूप का अनुभव करने में समर्थ हो जाता है। प्रात्मा की यह दूसरी अवस्था है जिगे अन्तरात्मा कहते है, वह जात्मज्ञानी होता हैउसे स्व स्वरूप और पररूप का अनुभव होता है । वह स्व-पर के भेद-विज्ञान द्वारा भृली हई उम प्रात्म-निधि का दर्शन पाकर निर्मल आत्म-ममाधि के रस में तन्मय हो जाता है आर मददृष्टि के विमल प्रकाश द्वारा मोक्षमार्ग का पथिक बन जाता है, और अन्तिम परमात्म अवस्था की साधना में तन्मय हुआ अवसर पाकर उस कर्म-शृखला को नष्ट कर देता है- प्रात्म-समाधि रूप चित्त की एकाग्र परिणति स्वरूप ध्यानाग्नि से उसे भरमकर अपनी अनन्त चतुष्टयरूप मात्मनिधि को पा लेता है।
प्राचार्य कुन्दकुन्द की देन
प्राचार्य कुन्दकुन्द ने जिस आत्मा के वैविध्य की कल्पना को है और उसके स्वरूप का निदर्शन करते हुए उसकी महत्ता एव उसके अन्तिम लक्ष्य प्राप्ति की जो सूचना की है उसके अनुसार प्रवृत्ति करने वाला व्यक्ति अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। प्राचार्य कुन्दकुन्द की उस देन को उनके वाद के प्राचार्या ने अपने-अपने ग्रन्थो में प्रात्मा के वैविध्य की चर्चा की है और बहिरात्म अवस्था को छोड़कर तथा अन्तरात्मा बनकर परमात्म अवस्था के साधन का उल्लेख किया है।
इस तरह भारतीय श्रमण परम्परा ने भारत को उस अध्यात्म विद्या का अनुपम आर्दश दिया है। इसीमे श्रमण परम्परा की अनेक महत्वपूर्ण बाते वैदिक परम्परा के ग्रन्थो में पाई जाती है। और वैदिक परम्परा की अनेक रूढि सम्मत बाते श्रमण परम्परा के प्राचार-विचार में समाई हई दृष्टिगोचर होती है। क्योकि दोनों सस्कृतियों के समसामायिक होने के नाते एक दूसरी परम्परा के प्राचार-विचारो का परस्पर में आदान-प्रदान हुअा है। यही कारण है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्रायः समान अथवा उससे मिलते जुलते रूप में प्रात्मा के वैविध्य की कल्पना का वह रूप कठोपनिषद के निम्न पद्य में पाया जाता है जिसमें आत्मा के ज्ञानात्मा महदात्मा और शातात्मा ये, तीन भेद किये गये है।
यच्छेद्वाःड. मनसी प्राजस्तद्यच्छेज्ज्ञानमात्मनि । ज्ञानमात्मनि महति नियच्छे तद्यच्छेच्छान्त प्रात्मनि ।।
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ छान्दयोग उपनिषद में जो प्रात्म-भेदों का उल्लेख किया गया है । उसके आधार पर डायसन ने भी प्रात्मा के तीन भेद किये हैं। शरीरात्मा, जीवात्मा और परमात्मा। इस तरह यह प्रात्म त्रैविध्य की चर्चा अपनी महत्ता को लिये हुए है। रचनाएँ
प्राचार्य कुन्दकुन्द की निम्न कृतिय उपलब्ध हैं। पचास्तिकाय प्राभृत, समयसार प्राभृत, प्रवचनसार प्राभूत, नियमसार, अष्टपाहुड- (दसणपाहुड, चरित्त पाहुड, सुत्त पाहुड, बोध पाहुड, भाव पाहुइ, मोक्व पाहुड, सील पाहुड, लिङ्ग पाहुड)- वारस अणुवेक्खा और भत्तिसंगहो।
इन रचनाओं को दो भागों में बांटा जा सकता है। प्रथम भाग में पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, और समयसार आते हैं । और दूसरे भाग में अन्य अष्ट प्राभृत प्रादि ।
___ इनमें प्रथम भाग कुन्दकुन्दाचार्य के जैनतत्त्वज्ञान-विषयक प्रौढ़ पाण्डित्य को लिये हुए हैं। और दूसरा भाग सरल एवं उपदेश प्रधान, आचार मूलक तत्त्व चिन्तन की धारा को लिये हा है। कुन्दकुन्दाचार्य की शैली गम्भीर और सरस है, किन्तु विपय का प्रतिपादन सरलता से किया है। व्यवहार ओर निश्चय म.क्षमार्ग का कथन करते हुए दोनों का सामंजस्य बैठाया है। स्व समय पर समय का वर्णन करते हुए बतलाया है कि जिसके हृदय में अरहंत आदि विषयक अणुमात्र भी अनुराग विद्यमान है वह समस्त आगम का धारी होकर भी स्व-समय को नहीं जानता है।
पंचास्तिकाय-इस ग्रन्थ का नाम पंचास्तिकाय प्राभृत है, क्योंकि इसमें मुख्यतया जीय, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश रूप पांच अस्तिकाय द्रव्यों का वर्णन है। क्योंकि यह अण अर्थात प्रदेशों की अपेक्षा महान हैबहुप्रदेशी है, इसी से इन्हे अस्तिकाय कहा है। ये समस्त द्रव्य लोक में प्रविष्ट होकर स्थित हैं, फिर भी अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं।
इस ग्रन्थ में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने ग्रन्थ के आदि में 'समय' कहने की प्रतिज्ञा की है, और जीव, पुद्गल, धर्म-अधर्म आकाश के समवाय को समय कहा है। इन पांचों द्रव्यों को पंचास्तिकाय कहा है। इन्हीं का इस ग्रन्थ में विशेष कथन किया गया है। सत्ता का स्वरूप बतला कर द्रव्य का लक्षण दिया है, और द्रव्य पर्याय और गुण का पारस्परिक सम्बन्ध बतलाते हुए सप्त भङ्ग के नामों का निर्देश किया है। काल द्रव्य के साथ पांच अस्तिकाय मिला कर द्रव्य छह होती है। पट् द्रव्य कथन के पश्चात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चरित्र को मोक्ष मार्ग बतलाते हए सम्यग्दर्शन के प्रसंग मे सप्त तत्वों का कथन किया है । ग्रन्थ के अन्त में निश्चय मोक्षमार्ग का बड़ी सुन्दरता से स्वरूप बतलाया है।
इस ग्रन्थ पर दो संस्कृत टीकाएं उपलब्ध हैं। जिनमें एक के कर्ता आचार्य अमृतचन्द्र हैं। और दूसरी के कर्ता जयसेन । अमृतचन्द्र की टीकानुसार गाथाओं की संख्या १७ है । और जयसेन की टीका के अनुसार १८१ है ।
प्रवचनसार-यह ग्रन्थ महाराष्ट्रीय प्राकृत भाषा का मौलिक ग्रन्थ है। इसमें २७५ गाथाएं हैं। और वे तीन श्रतस्कन्धों में विभाजित हैं। प्रथम श्रतस्कन्ध में ज्ञान की चर्चा ६२ गाथाओं में अंकित है। दूसरे श्रुतस्कन्ध में जेय तत्व की चर्चा १०८ गाथाओं में पूर्ण हुई है। और तीसरे श्रुतस्कन्ध में ७५ गाथाओं द्वारा चारित्र तत्व का कथन किया गया है।
प्राचार्य कुन्दकुन्द की यह कृति बड़ी ही महत्वपूर्ण है। यह कृति उनकी तत्वज्ञता, दार्शनिकता और प्राचार की प्रवणता में प्रोत-प्रोत है। इसके अध्ययन से उनकी विद्वत्ता, ताकिकता और प्राचार निष्ठा का यथार्थ रूप दृष्टिगोचर होता हैं । इसमें जैन तत्व ज्ञान का यथार्थ रूप बहुत ही सुन्दरता से प्रतिपादित है ।
ग्रन्थ के प्रथम श्रुतस्कन्ध में इन्द्रिजन्य ज्ञान और इन्द्रिय जन्य सुख को हेय बतलाते हुए प्रतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रिय सुख को उपादेय बतलाया है । और अतीन्द्रिय ज्ञान तथा प्रतीन्द्रिय सुख की सिद्धि करते हुए हृदयग्राही युक्तियों से प्रात्मा की सर्वज्ञता को सिद्ध किया गया है। दूसरे श्रुतस्कन्ध में द्रव्यों की चर्चा की है, वह पंचास्तिकाय
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुन्दकुन्दाचार्य
७६ की चर्चा से मौलिक और विशिष्ट है। इसमें द्रव्य के सत उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक और गुण पर्यायात्मक रूप लक्षणों का प्रतिपादन तथा समन्वय, प्रात्मा के कर्तृत्वाकर्तत्व का विचार तथा कालाण अप्रदेशित्व का महत्वपूर्ण कथन किया गया है । तृतीय श्रुतस्कन्ध में चारित्र का वर्णन किया है। प्रात्मा की मोहादिजन्य विकारों से रहित परिणति चारित्र है, वही चारित्र धर्म है। चारित्र रूप धर्म से परिणत आत्मा यदि शुद्धोपयोग से युक्त है तो वह निर्वाण सुख को पा लेता है । निर्वाण मुख अतीन्द्रिय है। वह कर्मक्षय के प्रभाव से मिलता है । प्रात्मोत्थ है, विषयों से रहित
पम है, और अनन्त है, उसका कभी विनाश नहीं होता। किन्तु इन्द्रिय जन्य सांसारिक सुख पराधीन है, बाधा सहित है-उसमें क्षुधा-तृपादि की बाधाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। वह विषम है और बन्ध का कारण है।
ग्रन्थ में श्रमणों के प्राचार को महत्वपूर्ण बतलाया गया है। श्रमण का स्वरूप बतलाते हए कहा गया है कि-जिसके शत्रु और मित्र एक ममान हैं । सुख और दुःख में समान है, प्रशंसा और विकारों में समान है, लोह और कंचन में समान है । जो जीवन और मरण में समता-समान भाव वाला है, वही श्रमण है। मोह से रहित आत्मा के सम्यक स्वरूप को प्राप्त हुआ जीव यदि गग और द्वेष का परित्याग करता है तो वह शुद्धात्मा को प्राप्त करता है। आज तक जितने अरहत हए हैं वे भी इसी विधि से कर्मों को नष्ट कर निर्वाण को प्राप्त हए हैं।
समय प्राभृत
इस ग्रन्थ पर प्राचार्य अमृतचन्द्र की 'तत्वप्रदीपिका' टीका और जयसेन की तात्पर्यवत्ति, और बालचन्द्र अध्यात्मीकी टीकाएँ उपलब्ध है, जिनमें ग्रन्थ के दिव्य सन्दर्भ का सुन्दर विवेचन किया गया है।
इस ग्रन्थ का नाम समय प्राभूत है। इसमें शुद्ध प्रात्मतत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। इसके विषय का प्रतिपादक ग्रन्थ अखिल वाङमय में दूमग नहीं है । इसमें सबसे पहले सिद्धों को नमस्कार किया गया है, जो पदार्थों को एक साथ जाने अथवा गुण पर्याय रूप परिणमन करे वह समय है। समय के दो भेद हैं-स्वसमय और परसमय । जो जीव अपने दर्शन ज्ञान चारित्र रूप स्वभाव में स्थित हो वह स्व समय है। और जो पुद्गल कर्मों की दशा को अपनी दशा माने हए है वह परसमय है। तीसरी गाथा में बतलाया है कि एकत्व विभक्त वस्तु ही लोक में सन्दर होती है। प्रतः जीव के बन्ध की कथा से विसंवाद उत्पन्न होता है। काम भोग सम्बन्धी बन्ध की कथा तो सब लोगों की सुनी हुई है, परिचय में आई है अतएव अनुभूत है किन्तु बन्ध से भिन्न प्रात्मा का एकत्व न कभी सुना, न कभी परिचय में पाया है और न अनुभूत ही है । अतः वह सुलभ नही है। उसी एकत्व विभक्त आत्मा का कथन निश्चय नय और व्यवहारनय से किया गया है। किन्तु निश्चयनय भूताथ, और व्यवहारनय अभूताथ है। इस बात को प्राचार्य महोदय ने उदाहरण देकर समझाया है।
ग्रन्थ दश अधिकारों में विभाजित है-१. पूर्व रंग, २. जीवाजीवाधिकार, ३. कर्तृ कर्माधिकार, ४. पुण्य पापाधिकार, ५. प्रास्रवाधिकार, ६. संवाराधिकार, ७. निर्जराधिकार, ८. बन्धाधिकार, 8. मोक्षाधिकार, १०. और सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार।
समय प्रामत की १३ वी गाथा में बतलाया है कि भूतार्थनय से जाने गये जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष सम्यक्त्व है । अतएव भूतार्थनय से ही इनका विवेचन ग्रन्थ में किया गया है।
जीवा जीवाधिकार में जीव-अजीव के भेद को दिखलाते हुए दोनों के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन किया है। और बतलाया है कि जीव के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श नहीं हैं और न वह शब्द रूप ही है। उसका लक्षण चेतना उसका प्राकार भी नियत नहीं है। और इन्द्रियादिक से उसका ग्रहण नहीं होता। किन्तु प्रात्मा को न जानने वाले प्रात्मा से भिन्न परभावों को भी संयोग सम्बन्ध के कारण आत्मा समझ लेते हैं। कोई राग-द्वेष को कोई कर्म को. कोई कर्म फल को, शरीर को और कोई अध्यवसानादि रूप भावों को जीव कहते हैं। पर ये सब जीव नहीं हैं। क्योंकि ये सब कर्म रूप पुदगल द्रव्य के निमित्त से होने वाले भाव हैं। अत: वे पुद्गल द्रव्य रूप हैं। जीव स्थानों और गुण स्थानों प्रादि को जीव कहा गया है वह व्यवहार से कहा गया है। क्योंकि व्यवहार का प्राश्रय लिये बिना परमार्थ का कथन करना शक्य नहीं है। प्रतएव इन सब आगन्तुक भावों से ममत्व बुद्धि का परित्याग कर
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग२
ज्ञानी ऐमा मानता है कि मैं एक उपयोग मात्र ज्ञान दर्शन रूप हूं। इनके अतिरिक्त अन्य परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है।
दूसरे कर्तृ कर्माधिकार में बतलाया है कि यद्यपि जीव और अजीव दोनो द्रव्य स्वतन्त्र है। तो भी जीव के परिणामो का निमित्त पाकर पुदगल कर्म वर्गणा स्वय कर्म रूप परिणत हो जाती हैं। ओर पूदगल कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव भी पारणमन करता है। तो भी जीव और पुदगल का परस्पर में कर्ता कर्मपना नही है। कारण कि जीव पुद्गल कर्म के किसी गुण का उत्पादक नही है और न पुद्गल जीव के किसी गुण का उत्पादक है । केवल अन्योन्य निमित्त से दोनों का परिणमन होता है। अतएव जीव मदा स्वकीय भावां का कर्ता है। वह कर्मकृत भावों का कर्ता नही है। किन्तु निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध के कारण वहारनय से जीव का पुदगल कर्मो का, और पदगल को जीव के भावो का कर्ता कहा जाता है। परन्तु निश्चयनय से जीव न पुद्गल कर्मो का कर्ता है और न भोता है। अब रह जाते है मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, योग, मोह और काधादि उपाधि भाव, सो इन्हें कुन्दकुन्दाचार्य ने जीव-अजीव रूप दो प्रकार का बतलाया है।
आत्मा जब अज्ञानादि रूप परिणमन करता है, तब राग-द्वष रूप भावो को करता है और उन भावों का स्वयकर्ता होता है। पर अज्ञानादि रूप भाव पुद्गल कर्मो के निमित्त के विना नही होते। किन्तु अज्ञानी जीव परके और प्रात्मा के भेद को न जानता हुया क्रोध को अपना मानता है, इसी से वह अज्ञानी अपने चैतन्य विकार रूप परिणाम का कर्ता होता है । और क्रोधादि उसके कर्म होते है। किन्तु जो जीव इस भेद को न जान कर क्रोधादि मे प्रात्मभाव नहीं करता, वह पर द्रव्य का कर्ता भी नही होता।
तीसरे पृण्य-पापाधिकार में पाप की तरह पुण्य को भी हेय बतलाते हए लिखा है कि सोने की बेडी भी बांधती है और लोहे की वेडी भी बाधती है। अत: शुभ-अशुभ रूप दोनों ही कर्म बन्धक है। इसलिये उनका परित्याग करना ही श्रेयस्कर है। जिस तरह कोई पुरुष खोटी पादत वाले मनग्य को जानकर उसके साथ संसर्ग और राग करना छोड देता है। उसी तरह अपने स्वभाव में लीन पुरुष कर्म प्रकृतियों के शील स्वभाव को कुत्सित जानकर उनका मंसर्ग छोड़ देता है उनसे दूर रहने लगता है। रागी जीव कर्म बांधता है और विरागी कर्मों से छट जाता है । अत: शुभ-अशुभ कर्म में राग मत करो-राग का परित्याग करना आवश्यक है।
अधिकार में बतलाया है कि जीव के राग-द्वेष और मोहरूप भाव, प्रास्रव भाव हैं। उनका निमित्त पाकर पीदगलिक कर्माण वर्गणाओं का जीव में प्रास्रव होता है। रागादि अज्ञानमय परिणाम हैं। अज्ञानमय परिणाम प्रज्ञानी के होते है। और ज्ञानी के ज्ञानमय परिणाम होते हैं। ज्ञानमय परिणाम होने में अज्ञानमय परिणाम रुक जाते हैं । इसलिये ज्ञानी जीव के कर्मों का आस्रव नहीं होता। अतएव बंध भी नही होता ।
पांचवे अधिकार में संवर तत्व का प्रतिपादन है। रागादि भावों के निरोध का नाम संवर है। रागादि भावों का निरोध हो जाने पर कर्मों का आना रुक जाता है। संवर का मूल कारण भेद विज्ञान है। उपयोग ज्ञान स्वरूप है, और क्रोधादि भाव जड़ है। इस कारण उपयोग में क्रोधादिभाव और कर्म नोकर्म नहीं हैं। और न श्रोधादि भावों में तथा कर्म नोकर्म में उपयोग है। इस तरह इनमें परमार्थ मे अत्यन्त भेद है। इस भेद तथा रहस्य को समझना ही भेद विज्ञान है । भेद विज्ञान से ही शुद्ध प्रात्मा की उपलब्धि होती है । और शुद्धात्मा की प्राप्ति से ही
नों का प्रभाव होता है। और अध्यवसानों का प्रभाव होने से प्रास्रव का निरोध होता है। मानव के निरोध से कर्मों का निरोध होता है। और कर्म के अभाव में नो कर्मों का निरोध होता है और नो कर्मों के निगेध से संसार का निरोध हो जाता है।
छठे निर्जरा अधिकार में बतलाया है कि सम्यग्दृष्टि जीव, इंद्रियों के द्वारा चेतन और अचेतन द्रव्यों का उपभोग करता है वह निर्जरा का कारण है । क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव के ज्ञान और नैराग्य की अद्भुत सामर्थ्य होती
१. रनो बधादि कम्म मुचदि जीवो विगग मंपण्णो ।
रोमो जिगोवदेमी, तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥१५०
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुन्दकुन्दाचार्य
है। जिस तरह वैद्य विष खाकर भी नहीं मरता, उसी तरह ज्ञानी भी पूदगल कर्मों के उदय को भोगता है। किन्तु कर्मों से नहीं बंधता क्योंकि वह जानता है कि यह राग पुदगल कर्म का है। मेरे अनुभव में जो रागरूप प्रास्वाद होता है वह उसके विपाक का परिणाम एव पल है। वह मेग निजभाव नही है। मैं तो गुद्ध ज्ञायक भाव रूप है। अतएव सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञायक स्वभाव रूप आत्मा को जानता हुमा कर्म के उदय को कर्म के उदय का विपाक जानकर उसका परित्याग कर देता है।
७वे बन्धाधिकार में बन्ध का कथन करते हा बतलाया है कि आत्मा और पौद्गलिक कर्म दोनों ही स्वतन्त्र द्रव्य हैं। दोनों में चेतन अचेतन की अपेक्षा पूर्व और पश्चिम जैसा अन्तर है। फिर भी इनका अनादिकाल से मयोग बन रहा है। जिस तरह चुम्बक में लोहा ग्वीचने और लोहे में खिचने की योग्यता है । उसी प्रकार प्रात्मा में कर्मरूप पूदगलों को खीचन की प्रार कर्मरूप पुद्गल में खिचने को योग्यता है। अपनी-अपनी योग्यतानुसार दोनों का एक क्षेत्रावगाह हो रहा है। इसी एक क्षेत्रावगाह को बन्ध कहते है । प्राचार्य महोदय ने एक दृष्टान्त द्वारा बन्ध का कारण स्पष्ट किया है। जैसे कोई मल्ल शरीर में तेल लगा कर धल भरी भूमि में खड़ा होकर शस्त्रों से व्यायाम करता है। केले आदि के पेड़ो को काटता है तो उसका शरीर धलि मे लिप्त हो जाता है। यहां उसके शरीर में जो तेल लगा हैसचिक्कणता है उसी के कारण उसका शरीर धूल से लिप्त हना है। इसी प्रकार अज्ञानी जीव इद्रिय विषयों में रागादि करता हया को म वधता है, स। उसके उपयोग में जा रागभाव है वह कर्मबन्ध का कारण है। परन्तु जो ज्ञानी ज्ञानस्वरूप में मग्न रहता है, वह कमी से नहीं बधता ।
आठवे मोक्षाधिकार में बतलाया है कि जैसे कोई पूरुप चिरकाल से बन्धन में पड़ा हुप्रा है और वह इस बात को जानता है कि मै इतने समय से बधा हुआ पड़ा हूँ। किन्तु उस बन्धन को काटने का प्रयत्न नहीं करता, तो वह कभी बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता । उसी तरह कर्म बन्धन के स्वरूप को जानने मात्र मे कर्म से छुटकाग नहीं होता। परन्तु जो पुम्प गगादि को दूर कर शुद्ध होता है वही मोक्ष प्राप्त करता है। जो कर्मबन्धन के स्वभाव पौर प्रात्म स्वभाव को जानकर बन्ध में विरक्त होता है वही कर्मो से मुक्त होता है। प्रान्मा प्रोर बन्ध के स्वभाव को भिन्न भिन्न जानकर बन्ध को छोड़ना और आत्मा को ग्रहण करना ही मोक्ष का उपाय है । यहाँ यह प्रश्न होता है कि प्रात्मा को कैसे ग्रहण करे, इसका उत्तर देते हए प्राचार्य ने कहा है कि प्रज्ञा (भेद विज्ञान) द्वारा जो चैतन्यात्मा है वही मै हूं । गेप अन्य सब भाव मुझमे पर है-वे मेरे नहीं है । इत्यादि कथन किया गया है।
___ सर्व विशुद्धि अधिकार मे एक तरह से उन्ही पूर्वोक्त बातों का कथन किया गया है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र का विषय शुद्ध आत्म तत्त्व है । वह शुद्ध आत्मतत्त्व सर्वविशुद्धज्ञान का स्वरूप है। न वह किसी का कार्य है, और न किसी का कारण है, उसका पर द्रव्य के साथ कोई सम्बन्ध नही है। इमो विचार मात्मा और परद्रव्य में कर्ता कर्मभाव भी नही है। अतएव प्रात्मा पर द्रव्य का भोक्ता भी नही है। अज्ञानी जीव प्रज्ञानवश ही प्रात्मा को परद्रव्य का कर्ता भोक्ता मानता है।
इस ग्रन्थ पर प्राचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति, जयसेन की तात्पर्यवृत्ति और वालचन्द्र अध्यात्मी की टीकाए उपलब्ध हैं।
नियमसार-प्रस्तुत ग्रन्थ में १८७ गाथाएं हैं। जिन्हे टीकाकार मलधारि पद्मप्रभदेव ने १२ अधिकारों में विभक्त किया है। किन्तु यह विभाग ग्रन्थ के अनुरूप नही है । ग्रन्थकार ने इसमें उन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रूप श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया है और प्राप्त आगम का स्वरूप बतलाकर तत्त्वों का कथन किया है, पश्चात् छह द्रव्यों और पंचास्तिकाय का कथन है। व्यवहारनय से पाच महाव्रत, पांच समिति, और तीन गप्ति यह व्यवहार चारित्र है। आगे निश्चयनय के दृष्टिकोण से प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, कायोत्सर्ग, सामायिक और परम भक्ति इन छह आवश्यकों का वर्णन किया है और बतलाया है कि निश्चयनय से सर्वज्ञ केवल प्रात्मा को जानता है, और व्यवहारनय से सबको जानता है। इसी प्रसग में दर्शन और ज्ञान की महत्वपूर्ण चर्चा दी है। रचना महत्वपूर्ण और उपयोगी है।
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
दंसण पाहुड-इसमें सम्यग्दर्शन का स्वरूप और महत्व ३६ गाथाओं द्वारा बतलाया गया है। दूसरी गाथा में बताया है कि धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है । अतः सम्यग्दर्शन से हीन पुरुष वन्दना करने के योग्य नहीं है । तीसरी गाथा में कहा है कि जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है, वह भ्रप्ट ही है, उसे मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। सम्यग्दर्शन से रहित प्राणी लाखों करोड़ों वर्षों तक घोर तप करें तो भी उन्हें बोधि लाभ नहीं होता। इत्यादि अनेक तरह से सम्यग्दर्शन का स्वरूप और उसकी महत्ता बतलाई गई है।
चरित्त पाहड-इसमें ४४ गाथाओं द्वारा चारित्र का प्रतिपादन किया गया है। चारित्र के दो भेद हैं-सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण। निःशंकित प्रादि पाठ गुणों से विशिष्ट निर्दोष सम्यक्त्व के पालन करने को सम्यक्त्वा चरण चारित्र कहते हैं। संयमाचरण दो प्रकार का है-सागार और अनगार । सागाराचरण के भेद से ग्यारह प्रतिमाओं के नाम गिनाये हैं। तथा पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को सागार संयमाचरण बतलाया है । पांच अणुव्रत प्रसिद्ध ही हैं, दिशा विदिशा का प्रमाण, अनर्थ दण्ड त्याग ओर भोगोपभोग परिमाण ये तोन गुणव्रत, सामायिक, प्रोषध, अतिथि पूजा और सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत बतलाये हैं। किन्तु तत्त्वार्थ मूत्र में भोगोपभोग परिमाण को शिक्षाव्रतों में गिनाया है और सल्लेखना को अलग रक्खा है। तथा देश विरति नाम का एक गुणव्रत बतलाया है।
__अनगार धर्म का कथन करते हुए पांच इंद्रियों का वश करना, पंच महाव्रत धारण करना, पांच समिति और तीन गुप्तियों का पालन करना अनगाराचरण है । अहिंसादि व्रतों की पांच पांच भावनाएं बतलाई हैं।
सुत्त पाहुड-इसमें २६ गाथाए हैं जिसमें सूत्र की परिभाषा बताते हुए कहा है कि जो प्ररहंत के द्वारा अर्थरूप से भाषित और गणधर द्वारा कथित हो, उसे सूत्र कहते हैं। सूत्र में जो कुछ कहा गया है उसे प्राचार्य परम्परा द्वारा प्रवर्तित मार्ग से जानना चाहिए । जैसे सूत्र (धागे ) से रहित सुई खो जाती है, वैसे ही सूत्र को (आगम को) न जानने वाला मनुष्य भी नष्ट हो जाता है। उत्कृष्ट चारित्र का पालन करने वाला भी मुनि यदि स्वच्छन्द विचरण करने लगता है तो वह मिथ्यात्व में गिर जाता है। गाथा १० में बतलाया गया है कि नग्न रहना और करपुट में भोजन करना यही एक मोक्षमार्ग है । शेष सब अमार्ग हैं। आगे बतलाया है कि जिस साधु के बाल के अग्रभाग के बराबर भी परिग्रह नहीं है, और पाणिपात्र में भोजन करता है, वही साधु है। इस पाहुड में स्त्री प्रव्रज्या और साधनों के वस्त्र धारण करने का निषेध किया गया है।
बोध पाहड में ६२ गाथाओं द्वारा प्रायतन, चैत्यग्रह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा, ज्ञान, देव, तीर्थ, अर्हन्त और प्रवज्या का स्वरूप बतलाया है। अंतिम गाथाओं में कुन्दकुन्द ने अपने को भद्रेबाहु का शिष्य प्रकट किया है।
भाव पाहुड में १६३ गाथाओं द्वारा भाव की महत्ता बतलाते हुए भाव को ही गुण दोषों का कारण बतलाया है और लिखा है कि भाव की विशुद्धि के लिये ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है । जिसका अंतःकरण शुद्ध नहीं है उसका बाह्य त्याग व्यर्थ है। करोड़ों वर्ष पर्यन्त तपस्या करने पर भी भाव रहित को मुक्ति प्राप्त नहीं होती। भाव से ही लिंगी होता है द्रव्य से नहीं। अतः भाव को धारण करना आवश्यक है। भव्यसेन ग्यारह अंग चौदह पूर्वो को पढ़कर भी भाव से मुनि न हो सका। किन्तु शिवभूति ने भाव विशुद्धि के कारण 'तुष मास' शब्द का उच्चारण करते करते केवलज्ञान प्राप्त किया। जो शरीरादि बाह्य परिग्रहों को और माया कषायआदि अन्तरंग परिग्रहों को छोड़कर प्रात्मा में लीन होता है वह लिंगी साधु है। यह पूरा पाहुड ग्रन्थ सदुपदेशों से भरा हुपा है।
मोक्ख पाहुड की गाथा संख्या १०६ है । जिसमें प्रात्म द्रव्य का महत्व बतलाते हुए प्रात्मा के तीन भेदों की-परमात्मा, अंतरात्मा और बहिरात्मा की-चर्चा करते हुए बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के उपाय से परमात्मा के ध्यान की बात कही गई है। पर द्रव्य में रत जीव कर्मों से बंधता है और परद्रव्यसे विरत जीव कर्मों से छूटता है। संक्षेप में बन्ध पोर मोक्ष का यह जिनोपदेश है। इस तरह इस प्राभृत में मोक्ष के कारण रूप से परमात्मा के
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुन्दकुन्दाचाय
ध्यान की श्रावश्यकता और महत्ता बतलाई है। इन छह प्राभृतों पर ब्रह्म श्रुतसागर की संस्कृत टीका है, जो प्रकाशित हो चुकी है।
सील पाहुड - इसमें ४० गाथाएं हैं जिसके द्वारा शील का महत्व बतलाया गया है और लिखा है कि शील का ज्ञान के साथ कोई विरोध नहीं है । परन्तु शील के बिना विषय-वासना से ज्ञान नष्ट हो जाता है। जो ज्ञान को पाकर भी विषयों में रत रहते हैं वे चतुर्गतियों में भटकते हैं और जो ज्ञान को पाकर विषयों से विरक्त रहते हैं, वे भव-भ्रमण को काट डालते हैं ।
८३
बारसाणुपेक्खा (द्वादशानुप्रक्षा ) – इसमें ११ गाथाओं द्वारा वैराग्योत्पादक द्वादश अनुप्रेक्षाओं का बहुत ही सुन्दर वर्णन हुआ है । वस्तु स्वरूप के बार-बार चिन्तन का नाम अनुप्रक्षा है। उनके नामों का क्रम इस प्रकार है :
—
प्रद्ध वमसरण मेग तमण्णसंसार लोगमसुचितं । श्रासव संवर णिज्जरधम्मं वोहिं च चितेज्जो ॥
अध्रुव, शरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, प्रशुचित्व, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि । तत्वार्थ सूत्रकार ने अनुप्र ेक्षाओं के क्रम कुछ परिवर्तन किया है। अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्या स्रव संवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभ धर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रक्षाः ।
आचार्य कुन्दकुन्द ने इन बारह भावनाओं के चिन्तन द्वारा श्रमणों के वैराग्य भाव को सुदृढ़ किया है। देवनन्दी ( पूज्यपाद) की सर्वार्थसिद्धि के दूसरे अध्याय के 'संसारिणो मुक्ताश्च' की टीका में वारस अनुप्रक्षा की पांच गाथाएं उद्धृत की हैं ।
रयणसार भी कुन्दकुन्दाचार्य की कृति कही जाती है, परन्तु उस रचना में एकरूपता नहीं। -गाथाओं की ऐसी स्थिति में जब तक उसकी जांच द्वारा मूलगाथाओं की सूचक प्रक्षिप्त गाथाओं का निर्णय नहीं हो जाता, तब तक
क्रम संख्या भी बढ़ी हुई है, अनेक गाथाएं प्रक्षिप्त हैं । संख्या निश्चित नही हो जाती और गण गच्छादि की उसे कुन्दकुन्दाचार्य की कृति नहीं माना जा सकता ।
अब रही मूलाचार और थिरुकुरल के रचयिता की बात, सो मूलाचार को कुन्दकुन्दाचार्य की कृति कहना या मानना अभी तक विवादास्पद बना हुआ है । यद्यपि मूलाचार में कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों की अनेक गाथाएं भी पाई जाती हैं और उसका पांचवीं शताब्दी के 'तिलोय पण्णत्ति' ग्रन्थ में उल्लेख होने से वह रचना पुरातन है । परन्तु उसका कर्ता वसुनन्दि ने 'वट्टर' सूचित किया है । यद्यपि वट्टकेराचार्य का कोई अन्य उल्लेख प्राप्त नहीं है, और न उनको गुरु परम्परादि का कोई उल्लेख उपलब्ध ही है । ग्रन्थ में 'संघवट्टओ' जैसे शब्दों का उल्लेख है, जिसका अर्थ संघ का उपकार करने वाला टीकाकार ने किया है। उसे कुन्दकुन्दाचार्य की कृति मानने के लिए कुछ ठोस प्रमाणों की आवश्यकता है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह मूलसंघ की परम्परा का ग्रन्थ है ।
थिरुक्कुरल – जैन रचना है, यह निश्चित है । परन्तु वह कुन्दकुन्दाचार्य की कृति है, और कुन्दकुन्दाचार्य का दूसरा नाम 'एलाचार्य' था, इसे प्रमाणित करने के लिये अन्य प्राचीन प्रमाणों की आवश्यकता है। उसके प्रमाणित होने पर थिरुकुरल को कुन्दकुन्द की रचना मानने में कोई संकोच नहीं हो सकता । स्व० प्रो० चक्रवर्ती ने इस दिशा में जो शोध-खोज की है, वह अनुकरणीय है । अन्य विद्वानों को इस पर विचार कर अन्तिम निर्णय करना श्रावश्यक है | बहुत सम्भव है कि वह कुन्दकुन्दाचार्य की ही रचना हो ।
भक्ति संग्रह प्राकृत भाषा की कुछ भक्तियाँ भी कुन्दकुन्दाचार्य की कृति मानी जाती हैं। भक्तियों के टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य ने लिखा है कि- 'संस्कृता सर्वा भक्तयः पादपूज्य स्वामिकृताः प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः ।' अर्थात संस्कृत
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ की सब भक्तियाँ पूज्यपाद की बनाई हुई हैं और प्राकृत की सब भक्तियाँ कुन्दकुन्दाचार्य कृत हैं। दोनों भक्तियों पर प्रभाचन्द्राचार्य को टीकाएं हैं। कून्दकून्दाचार्य की आठ भक्तियां है जिनके नाम इस प्रकार हैं।
सिद्धभक्ति २ श्र त भक्ति, ३ चारित्रभक्ति, ४ योगि (अनगार) भक्ति, ५ प्राचार्य भक्ति, ६ निर्वाण भक्ति, ७ पचगुरु (परमेष्ठि) भक्ति, ८ थोस्मामि थुदि (तीर्थकर भक्ति)।
सिद्ध भक्ति-इसमें १२ गाथाओं द्वारा सिद्धों के गुणों, भेदों, सुख, स्थान, आकृति, सिद्धि के मार्ग तथा क्रम का उल्लेख करते हुए अति भक्तिभाव से उनकी वन्दना को गई है।
श्रतभक्ति एकादश गाथात्मक इस भक्ति में जैन श्रु त के प्राचारांगादि द्वादश अगों का भेद-प्रभेद-सहित उल्लेख करके उन्हें नमस्कार किया गया है। साथ ही, १४ पूर्वो में से प्रत्येक कीवस्तु सख्या ओर प्रत्येक वस्तु के पाहुडों (प्राभृतों) की संख्या भी दी है।
चारित्र भक्ति-दश अनूप्टप पद्यों में श्री वर्धमान प्रणीत सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहार विद्धि. सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात नाम के पांच चारित्रों, अहिसादि २८ मूलगुणों, दशधर्मो, त्रिगुप्तियों, सकल शीलों, परिषहजयों और उत्तर गुणों का उल्लेख करके उनकी सिद्धि और सिद्धि फल (मुक्ति सुख) का कामना की है।
योगी (अनगार) भक्ति-यह भक्ति पाठ २३ गाथात्मक है। इसमें जैन साधुओं के आदर्श जीवन और उनकी चर्या का सून्दर अकन किया गया है। उन योगियों को अनेक अवस्थाओं, ऋद्धियों, सिद्धियों तथा गुणों का उल्लेख करते हुए उन्हें भक्तिभाव से नमस्कार किया गया है। और उनके विशेषण रूप, गुणों का-दो दोसविप्पमूवक तिदंडविरत. तिसल्लपरिसुद्ध, चउदसगंथपरिसुद्ध, चउदसपुवपगब्भ और चउदसमलविवज्जिद-वाक्यों द्वारा उल्लेख किया है, जिससे इस भक्तिपाठ की महना का पता चलता है।
आचार्य भक्ति-इसमें दस गाथाओं द्वारा प्राचार्य परमेष्ठी के खास गणों का उल्लेख करते हए उन्हें नमस्कार किया गया है।
निर्वाण भक्ति-२७ गाथात्मक इस भक्ति में निर्वाण को प्राप्त हुए तीर्थकरों तथा दूसरे पूतात्म पुरुपों के नामों का उन स्थानों के नाम सहित स्मरण तथा वन्दना की गई है जहाँ से उन्होंने निर्वाण पद की प्राप्ति को है। इस भक्ति पाठ में कितनी ही ऐतिहासिक और पौराणिक बातों एव अनुभूतियों की जानकारी मिलती है।
पंचगर (परमेष्ठि) भक्ति-इसमें मृग्विणी छन्द के छह पद्यों में अर्हत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु ऐमे पाँच पुरुपों का-परमेष्ठियों का- स्तोत्र और उसका फल दिया है पोर पंच परमेष्ठियों के नाम देकर उन्हें नमस्कार करके उनमे भव-भव में मुख की प्रार्थना की गई है।
थोस्सामि थुदि (तीर्थकर भक्ति)- यह 'थोम्सामि' पद से प्रारम्भ होने वाली प्रप्ट गाथात्मक स्तुति है जिसे 'तित्थयर भत्ति' कहते हैं। इसमें वृपभादि-वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति तीर्थकरों की उनके नामोल्लेख पूर्वक वन्दना की गई है।
___प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी कोई गुरु परम्परा नहीं दी और न अपने ग्रन्थों में उनके नामादि का तथा राजादि का उल्लेख ही किया है। किन्तु बोध पाहुड की ६१ नं० की गाथा में अपने को भद्रबाहु का शिष्य सूचित किया है । और ६२ न० की गाथा में भद्रबाहु श्रुत केवली का परिचय देते हुए उन्हें अपना गमक गुरु बतलाया है
और लिखा है कि-जिनेन्द्र भगवान महावीर ने अर्थ रूप से जो कथन किया है वह भाषा सत्रों में शब्द विकार के प्राप्त हना है-अनेक प्रकार से गूंथा गया है। भद्रबाह के मुझ शिप्य ने उसको उसी रूप से जाना है और कथन किया है । दूसरी गाथा में बताया है कि-बारह अंगों और चौदह पूर्वो के विपुल विस्तार के वेत्ता गमक गुरु भगवान श्र तज्ञानी थ तकेवली भद्रबाहु जयवन्त हों।
सद्दवियागे हुओ भामामुत्तेमु जं जिणे कहियं । सो वह कहियं णायं सीसेणय भद्दबाहुस्स ॥६१ वारसअगवियाणं चउदस मुवंग विउल वित्थरणं । सुयणाणी भद्दबाहु गमयगुरु भयवओ जयओ॥६२
माना।
१.
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुन्दकुन्दाचार्य
ये दोनों गाथाएं परस्पर सम्बद्ध हैं। पहली गाथा में कुन्दकुन्द ने अपने को जिस भद्रबाहु का शिष्य कहा है, दूसरी गाथा में उन्हीं का जयकार किया है और वे भद्रबाहु श्रुत केवली ही हैं। इसका समर्थन समय प्राभृत की प्रथम गाथा' से भी होता है। उन्होंने उस गाथा के उत्तरार्ध में कहा है कि -श्र त केवली के द्वारा प्रतिपादित समय प्राभूत को कहूंगा। यह श्रुतकेवली भद्रबाहु के सिवाय दूसरे नहीं हो सकते । श्रवणबेलगोल के अनेक शिलालेखों में यह बात अंकित है कि- अपने शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ भद्रबाहु वहा पधारे थे, और वहीं उनका स्वर्गवास हा था। इस घटना को अनेक ऐतिहासिक विद्वान तथ्यरूप में मानते हैं। अतः कुन्दकुन्द के द्वारा उनका अपने गुरु रूप में स्मरण किया जाना उक्त घटना की सत्यता को प्रमाणित करता है। किन्तु कुन्दकुन्द भद्रबाहु के समकालोन नहीं जान पड़ते, क्योंकि अगज्ञानिया की परम्परा में उनका नाम नहीं है। किन्तु वे उनकी परम्परा में हए अवश्य हैं । पर इतना स्पष्ट है कि भद्रबाहु श्रुतकेवली दक्षिण भारत में गए थे, और वहाँ उनके शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा जन धर्म का प्रसार हुआ था। अत: कुन्दकुन्द ने उन्हें गमक गुरु के रूप में स्मरण किया है। वे उनके साक्षात शिप्य नहीं थे। परम्परा शिप्य अवश्य थे। उनका समय छह सौ तिरासी वर्ष की कालगणना के भीतर हो पाता है।
मूलसंघ और कुन्दकुन्दान्वय
भगवान महावीर के समय में जैन साध सम्प्रदाय निर्ग्रन्थ' सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध था। इसो कारण बौद्ध त्रिपिटकों में महावीर को 'निगंठ नाटपुत्त लिखा मिलता है। अशोक के शिलालेखों में भी 'निगंठ' शब्द से उस का निर्देश किया गया है।
कुन्दकुन्दाचार्य मूलमंघ के ग्रादि प्रवर्तक माने जाते हैं । कुन्दकुन्दान्वय का सम्बन्ध भी इन्हीं से कहा गया है । वस्तुतः कौण्डकुण्डपुर से निकले मुनिवंश को कुन्दकुन्दान्वय कहा गया है । कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख शक सं० ३८८ के मर्करा के ताम्रपत्र में पाया जाता है। मकरा का ताम्र पत्र गिलालख नं०६४ में बिल्कुल मिलता है। शिलालेख नं०६४ वे में कोणि वर्मा ने जिम मूलसंघ के प्रमुख चन्द्रनन्दि प्राचार्य को भूमिदान दिया है उसी को दान देने का उल्लेख मकरा के दान पत्र में भी है। किन्तु इसमें चन्द्रनन्दि की गुरु परम्परा भी दी है और उन्हें देशीगण कुन्दकुन्दान्वय का बतलाया है। लेख न०६४ का अनुमानित समय ईसा की ५ वी शताब्दी का प्रथम चरण है पौर मर्करा के ताम्रपत्र में अकित समय के अनुसार उसका समय ई० सन् ४६६ होता है। कांगणि बमां के पत्र दविनीत का समय ४८०६० से ५२० ई० के मध्य बैठता है। अतः ताम्रपत्र क अकित समय में कांगणि वर्मा वर्तमान था, जिसने चन्द्रनन्दि को दान दिया। चन्द्रनन्दि की गुरु परम्परा में गुणचन्द्र, अभयनन्दि, शीलभद्र, जयनन्द गुण नन्दि, चन्द्रनन्दि आदि का नामोल्लेख है। इसमें नन्द्यन्त नाम अधिक पाथ जाते है।
मलमघ की परम्परा भी प्राचीन हे। मूलाचार का नाम निर्देश प्राचार्य यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति में है। तिलोयपण्णत्ति ईसा की ५ वी शताब्दी के अन्तिम चरण में निप्पन्न हो चुका था । अतः मूनाचार चतुर्थ शताब्दी से पूर्व रचा गया होगा। मूलाचार मूलसघ से सम्बद्ध है। प्राचार्य कुन्दकुन्द का कर्नाटक प्रान्त के साधुनों पर बहत वड़ा प्रभाव था।
कुन्दकुन्द का समय
नन्दिसंघ की पट्टावली में लिखा है कि कुन्दकुन्द वि० सं० ४६ में प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। ४४ वर्ष की अवस्था में उन्हें आचार्य पद मिला । ५१ वर्ष १० महीने तक वे उस पद पर प्रतिष्ठित रहे । उनको कुल आयु
वर्ष १० महीने और १५ दिन की थी।
१. वंदित्त सव्वसिद्ध धवमचलमणोवयं गई पत्ते ।
वोच्छामि समयपाहुड मिणमो मुयकेवली भरिणयं ॥१ २. शिलालेख सं० भा० १ लेख नं० १, १७, १८, ४०, ५४, १०८
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ प्रो० हानले द्वारा सम्पादित नन्दिसंघ की पट्टावलियों के आधार से प्रो० चक्रवर्ती ने पंचास्तिकाय की प्रस्तावना में कुन्दकुन्द को पहली शताब्दी का विद्वान माना है।
__ कुन्दकुन्दाचार्य के समय के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने विचार किया है। उन सबके विचारों पर प्रवचनसार की विस्तृत प्रस्तावना में विचार किया गया है। अन्त में डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय ने जो निष्कर्ष निकाला है, उसे नीचे दिया जाता है :
वे लिखते हैं-'कन्टकन्ट के समय के सम्बन्ध में की गई इस लम्बी चर्चा के प्रकाश में जिसमें हमने उपलब्ध परम्पराओं की पूरी तरह से छानबीन करने तथा बिभिन्न दृष्टिकोणों मे समस्या का मूल्य प्रांकने के पश्चात् केवल संभावनाओं को समझने का प्रयत्न किया है-हमने देखा कि परम्परा उनका समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध और ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी का पूर्वार्ध बतलाती है । कुन्दकुन्द से पूर्व पट् खण्डागम की समाप्ति की सम्भावना उन्हें ईसा की दूसरी शताब्दी के मध्य के पश्चात् रखती है। मर्करा के ताम्रपत्र में उनको अन्तिम कालावधि तीसरी शताब्दी का मध्य होना चाहिए। चचित मर्यादाओं के प्रकाश में ये सम्भावनाएं-कि कुन्दकुन्द पल्लव वंशी राजा शिवस्कन्द के समकालीन थे और यदि कुछ और निश्चित आधारों पर यह प्रमाणित हो जाय कि वही एलाचार्य थे तो उन्होंने कुरल को रचा था, सूचित करती है कि ऊपर बतलाये गए विस्तृत प्रमाणों के प्रकाश में कुन्दकुन्द के समय की मर्यादा ईसा की प्रथम दो शताब्दियां होनी चाहिए। उपलब्ध सामग्री के इस विस्तृत पर्यवेक्षण के पश्चात् मैं विश्वास करता हूँ कि कुन्दकुन्द का समय ईस्वी सन् का प्रारम्भ है ॥ (प्रवचन० प्र० पृ० २२)
इससे स्पष्ट है कि आचार्य कुन्दकुन्द ईसा की प्रथम शताब्दी के प्रारम्भ के विद्वान हैं । गुणवीर पंडित
यह कलन्देके वाचानन्द मुनि के शिष्य थे। इन्होंने मलयपुर के नेमिनाथ मन्दिर में बैठकर 'नेमिनाथम्' नामक विशाल तमिल व्याकरण ग्रन्थ की रचना की थी। ग्रन्थ के प्रारम्भ के पद्यों में बतलाया है कि जल-प्रवाह के द्वारा मलयपूर जैन मन्दिर के विनाश होने के पूर्व यह ग्रन्थ रचा गया था। यह ग्रन्थ प्रसिद्ध वेणवा छंद में है। मदुरा के तमिल संगम के अधिकारियों ने इसे शेन तमिल नाम के पत्र में पुरातन टीका के साथ छपाया था। गुणवीर पण्डित का समय ईसा की प्रथम शताब्दी है। इसी से इनकी यह रचना ईस्वी सन् के प्रारम्भ काल की कही जाती है।
तोलकप्पिय
यह तमिल भाषा के व्याकरण का वेत्ता और रचयिता था। यह प्रसिद्ध वैयाकरण था। इसके रचे हुए व्याकरण का नाम तोल कप्पिय है। यह जैनधर्म का अनुयायी था।
इन्द के संस्कृत व्याकरण में तोलकप्पिय का निर्देश है। इन्द्र का समय ३५० ई० पूर्व है। अत: प्राचीन व्याकरण तोलकप्पिय के समय की उत्तरावधि ३५० ई० पूर्व निश्चित होती है । मदुरा तमिल की पत्रिका की 'सेनतोमल' (जि० १८, १९१६-२०५० ३३६) में श्री एस वैयापुरिपिल्ले का एक लेख प्रकाशित हम उन्होंने लिखा था कि-'तोलकप्पिय जैनधर्मानुयायी था और इस सम्बन्ध में उनकी मुख्य दलील (युक्ति) यह थी कि तोलकप्पिय के समकालीन पनयारनार ने तोलकप्पिय को महान और प्रख्यात 'पडिमई' लिखा है। पडिमइ प्राकृत भाषा के 'पडिमा' शब्द से बनाया गया है । पडिमा (प्रतिमा) एक जैन शब्द है, जो जैनाचार के नियमो का सूचक है। श्री पिल्ले ने तोल कप्पियम के सत्रों का उद्धरण देकर लिखा है कि मरवियल विभाग में घास ओर वक्ष के
१. मेकडोनल-हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर पृ०११ २. स्टेडीज सा० इ० जैनिज्म प० ३६
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
उमास्वाति (गृद्धपिच्छाचार्य
८७ समान जीवों को एकेन्द्रिय, घोंघे के समान जीवों को दो इन्द्रिय, चींटी के समान जीवों को तीन इन्द्रिय, केकड़े के समान जीवों को चौइन्द्रिय और बड़े प्राणियों के समान जीवों को पंचेन्द्रिय बताया है तथा मनुष्य के समान अन्य जीवों का यह विभाग अन्य दर्शनों में नहीं पाया जाता। अतः यह तमिल व्याकरण ग्रन्थ एक प्रामाणिक जैन विद्वान की कृति है।
उमास्वाति (गृद्धपिच्छाचार्य) मूलसंघ की पट्टावली में कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उमास्वामि (ति) चालीस वर्ष ८ दिन तक नन्दिसंघ के पट्ट पर रहे। श्रवणवेलगोल के ६५व शिलालेख में लिखा है
तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पपनन्दि प्रथमाभिधानः । श्री कुन्दकुन्दादिमुनीश्वराख्यः सत्संयमादुद्गतचारणद्धिः ।।५ प्रभूदुमास्वाति मुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छः । तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी॥६
अर्थात् जिनचन्द्रस्वामी के जगत प्रसिद्ध अन्वय में 'पद्मनन्दी' प्रथम इस नाम को धारण करने वाले श्री कुन्दकुन्द नाम के मुनिराज हुए। जिन्हें सत्संयम के प्रभाव से चारणऋद्धि प्राप्त हुई थी। उन्हीं कुन्दकुन्द के अन्वय में उमास्वाति मुनिराज हए, जो गद्धपिच्छाचार्य नाम से प्रसिद्ध थे उस समय गद्धपिच्छाचार्य के समान समस्त पदार्थों को जानने वाला कोई दूसरा विद्वान नही था।
श्रवणबेलगोल के २५८ वे शिलालेख में भी यही बात कही गई है। उनके वंशरूपी प्रसिद्ध खान से अनेक मुनिरूपरत्नों की माला प्रकट हुई । उसी मुनिरत्नमाला के बीच में मणि के समान कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्ध प्रोजस्वी प्राचार्य हए। उन्हीं के पवित्र वश में समस्त पदार्थो के ज्ञाता उमास्वामि मूनि हए, जिन्होंने जिनागम को सूत्ररूप में ग्रथित किया। यह प्राणियों की रक्षा में अत्यन्त सावधान थे। अतएव उन्होंने मयूरपिच्छ के गिर जाने पर गद्धपिच्छों को धारण किया था। उसी समय से विद्वान लोग उन्हें गद्धपिच्छाचार्य कहने लगे। और गद्धपिच्छाचार्य उनका उपनाम रूढ़ हो गया। वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता को गृद्धपिच्छाचार्य लिखा है । प्राचार्य विद्यानन्द ने भी अपने श्लोक वार्तिक में उनका उल्लेख किया है।
प्राचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में जो वर्णन किया है वह अत्यन्त मार्मिक है :
"मुनिपरिषण्मध्ये सन्निषष्णं मूर्तमिव मोक्षमार्गमवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागम कुशलं परहित प्रतिपादनककार्यमार्य निषेव्यं निर्ग्रन्थाचार्यवर्यम्।"
१. तदीयवंशा करतः प्रमिद्धादभूददोषा यति रत्नमाला । बभौ यदन्तर्मणिवन्मुनीन्द्र : स कुन्दकुन्दोदितचण्डदण्डः ।।१० अभूदुमास्वाति मुनिः पवित्र वशे तदीये सकलार्थवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन ॥११ स प्राणिसंरक्षणेऽवधानो बभार योगी किल गृद्ध पिच्छान् । तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छम् ॥१२
२. तह गडपिच्छाइरियप्पयासिद तच्चत्थसुत्त वि-"वर्तना परिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य ।" (धवला. ५०४ पृ० ३१६)
३. "एतेन गुद्धपिच्छाचार्य पर्यन्त मुनिसूत्रेण व्यभिचारिता निरस्ता प्रकृत सूत्रे"। तत्त्वार्थ श्लो० वा०प०६
-
-
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनधर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
मुनिराज सभा के मध्य में विराजमान थे जो बिना वचन बोले अपने शरीर से ही मानो मूर्तिधारी मोक्ष मार्ग का निरूपण कर रहे थे । युक्ति और प्रागम में कुशल थे, परहित का निरूपण करना ही जिनका एक कार्य था, तथा उत्तमोत्तम श्रार्य पुरुष जिनकी सेवा करते थे, ऐसे दिगम्बराचार्य गृद्धपिच्छाचार्य थे ।
मैसूर प्रान्त के नगरताल्लुक के ४६ व शिलालेख में लिखा है
८५
करता हूँ ।
तत्वार्थ सूत्रकर्तारमुमास्वाति मुनीश्वरम् । श्रुतवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम् ।'
मैं तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता, गुणों के मन्दिर एवं श्रुतकेवली के तुल्य श्री उमास्वाति मुनिराज को नमस्कार
तत्वार्थ सूत्र की मूल प्रतियों के अन्त में प्राप्त होने वाले निम्न पद्य में तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता, गृद्धपिच्छोपलक्षित उमास्वामिया उमास्वाति मुनिराज की वन्दना की गई है ।
'तस्वार्थ सूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम् ।
वन्दे गणीन्द्र संजात मुमास्वामि ( ति ) मुनीश्वरम् ।।
इस तरह उमास्वाति प्राचार्य, उमास्वामी और गृद्धपिच्छाचार्य नाम से भी लोक में प्रसिद्ध रहे हैं । महा कवि पम्प ( ४१ ) ई० ने अपने आदि पुराण में उमास्वाति को 'श्रार्यनुत गृध्द्रपिच्छाचार्य' लिखा है । इसी तरह चामुण्डराय (वि० सं० १०३५ ) ने अपने त्रिपष्टिलक्षण पुराण में तत्त्वार्थ सूत्रकर्ता को गृद्धपिच्छाचार्य लिखा है ' । आचार्य वादिराज (शक संo १४७ - वि० स० १०८२ ) ने अपने पार्श्वनाथचरित में प्राचार्य गृद्धपिच्छ का निम्न शब्दों में उल्लेख किया है :
तुच्छ गुणसंपातं गृद्धपिच्छं नतोऽस्मि तम् । पक्षी कुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः ||
मैं उन गृद्धपिच्छ को नमस्कार करता हूं, जो महान् गुणों के आकर है, जो निर्वाण को उड़कर पहुँचने की इच्छा रखने वाले भव्यों के लिए पंखों का काम देते है । अन्य अनेक उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता का गृद्धपिच्छाचार्य रूप से उल्लेख किया है ।
श्रवणबेलगोल के १०५ वे शिलालेख में लिखा है कि- आचार्य उमास्वाति ख्याति प्राप्त विद्वान थे । यतियों के अधिपति उमास्वाति ने तस्वार्थ सूत्र को प्रकट किया है, जो मोक्षमार्ग में उद्यत हुए प्रजाजनों के लिए उत्कृष्ट पाथेय का काम देता है। जिनका दूसरा नाम गृद्धविच्छ है । उनके एक शिष्य बलाकपिच्छ थे, जिनके सूक्ति-रत्न मुक्त्यंगना के मोहन करने के लिए श्राभूषणों का काम देते है ३ ।
इन सब उल्लेखों से स्पष्ट है कि उनका गृद्धमिच्छार्य नाम बहुत प्रसिद्ध था । वे जिनागम के पारगामी विद्वान थे । इसी से तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलक और विद्यानन्द आदि मुनियों ने बड़े ही श्रद्धापूर्ण शब्दों में इनका उल्लेख किया है।
1
१. वसुमतिगे नेगले तत्त्वार्थ सूत्रम वेटदगृद्धपिच्छाचार्या ।
जमदि- दिगन्नममुद्रिमिजिनशासनदमतिमेय प्रकटसिदर ॥३
२. विक्रम की १३ वी शताब्दी के विद्वान बालचन्द मुनि ने तस्वार्थ सूत्र की कनड़ी टीका में उमास्वाति नाम के साथ गृद्धपिच्छाचार्य का भी नाम दिया है।
३. श्रीमानुमाम्वातिरयं यतीशस्तत्त्वार्थ सूत्रं प्रकटीचकार । यन्मुक्तिमार्गाचरोद्यतानां पाथेयमर्घ्यं भवति प्रजानाम् ।।१५ तस्यैव शिष्योऽजनि गृद्धपिच्छ द्वितीय संज्ञम्य बलाक पिच्छः । यत्सूक्तिरत्नानि भवन्ति लोके मुक्त्यंगनामोहनमण्डनानि ।। १६
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
उमास्वाति (गृद्धपिच्छाचार्य)
रचना
गृद्ध पिच्छाचार्य की इस रचना का नाम 'तत्त्वार्थसूत्र' है। प्रस्तुत ग्रन्थ दश अध्यायों में विभाजित है। इसमें जीवादि सप्ततत्त्वों का विवेचन किया गया है। जैन साहित्य में यह संस्कृतभाषा का एक मौलिक पाद्य सूत्र ग्रन्थ है । इसके पहले संस्कृतभाषा में जन साहित्य की रचना हई है, इसका कोई आधार नहीं मिलता। यह एक लघुकाय सूत्र ग्रन्थ होते हुए भी उसमें प्रमेयो का बड़ी सुन्दरता से कथन किया गया है। रचना प्रौढ़ और गम्भीर है। इसमें जैनवाङ्मय का रहस्य अन्तनिहित है। इस कारण यह ग्रन्थ जैन परम्परा में समानरूप से मान्य है। दार्शनिक जगत में तो यह प्रसिद्ध हुआ ही है; किन्तु आध्यात्मिक जगत में इसका समादर कम नहीं है । हिन्दुओं में जिस तरह गीता का, मुसलमानों में कुरान का, और ईसाइयों में बाइबिल का जो महत्त्व है वही महत्व जैन परम्परा में तत्त्वार्थ सूत्र को प्राप्त है।
ग्रन्थ के दश अध्यायों में से प्रथम के चार अध्यायों में जीव तत्त्व का, पांचवें अध्याय में अजीव तत्त्व का, छठवें और सातवें अध्याय में प्रास्रवतत्त्व का, आठवें अध्याय में बन्धतत्त्व का, नवमें अध्याय में संवर और निर्जरा का और दशवें अध्याय में मोक्षतत्त्व का वर्णन किया गया है। तत्त्वार्थ सूत्र का निम्न मंगल पद्य सूत्रकार की कृति है। इसका निर्देश प्राचार्य विद्यानन्द ने किया है।
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुण लब्धये ।। अन्य कुछ विद्वान इमे सूत्रकार की कृति नही मानते । उसमें यह हेतु देते हैं कि पूज्यपाद ने उसकी टीका नहीं की, अतएव वह पद्य सत्रकार की कृति नहीं है, किन्तु यह कोई नियामक नहीं है कि टीकाकार मगल पद्य की भी टीका करे ही करे। टीकाकार की मर्जी है कि वह मंगल पद्य की टीका करे या न करे, इसके लिए टीकाकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है । फिर इस मंगल पद्य में वही विपय वणित है जो तत्त्वार्थ सूत्र के दश अध्यायों में चर्चित है। मोक्षमार्ग का नेतृत्त्व, विश्वतत्त्व का ज्ञान, और कर्म के विनाश का उल्लेख है। इससे मंगल पद्य सूत्रकार की कृति जान पड़ता है।
प्राचार्य विद्यानन्द ने स्पष्ट रूप से 'स्वामिमीमांसितम, वाक्य द्वारा समन्तभद्र की प्राप्तमीमांसा का उल्लेख किया है । अतएव विद्यानन्द की दृष्टि में उक्त पद्य सूत्रकार का ही है। तत्त्वार्थ सूत्र की महिमा प्रसिद्ध है :
दशाध्याये परिच्छन्ने तत्वार्थं पठते सति ।
फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुंगवः ।। दशाध्याय प्रमाण तत्वार्थसूत्र का पाठ और अनुगम न करने पर मुनि पुगवों ने एक उपवास का फल बतलाया है। एक उपवास करने पर कर्म की जितनी निर्जरा होती है, उतनी निर्जरा अर्थ समझते हए तत्वार्थ सत्र के पाठ करने से होती है। इसी कारण से दिगम्बर सम्प्रदाय में तो प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को स्त्रियाँ और पुरुष उसका पाठ करते और सुनते है । दश लक्षण पर्व के दिनों में इसके एक एक अध्याय पर प्रतिदिन प्रवचन होते. हैं और जनता इन्हें बड़ी श्रद्धा के साथ श्रवण करती है। इसकी महत्ता इससे भी ज्ञात होती है कि दोनों सम्प्रदायों में इस सूत्र ग्रन्थ पर महत्वपूर्ण टीका-टिप्पणी लिखे गए हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय में इस पर गन्धहस्ति महाभाष्य, तत्वार्थवृत्ति, सर्वार्थसिद्धि, तत्वार्थराजवार्तिक, तत्वार्थश्लोकवातिक तत्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरी) और भास्करनन्दि की सुखबोधवृत्ति आदि अनेक टीका ग्रन्थ लिखे गए हैं । दशवीं शताब्दी के प्राचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त तत्त्वार्थ सूत्र का संस्कृत पद्यानुवाद किया है। श्रवण बेलगोल के शिलालेख से ज्ञात होता है कि शिवकोटि ने भी तत्वार्थसूत्र की कोई टीका लिखी है, जैसा कि शिलालेख के निम्न पद्य से स्पष्ट है।
"शिष्यो तदीयो शिवकोटिसूरिस्तपोलतालम्बन देहयष्टिः । 'संसारवाराकरपोतमेतत्तत्वार्थसूत्रं तदलंचकार ॥"
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
यद्यपि यह टीका अनुपलब्ध है इस कारण इसके सम्बन्ध में कुछ लिखना सम्भव नहीं है, परन्तु यह पद्य उस टीका पर से लिया गया जान पड़ता है।
___ वर्तमान में तत्त्वार्थ सूत्र के दो पाठ प्रचलित हैं-एक सर्वार्थसिद्धिमान्य दिगम्बर सूत्रपाठ, और दूसरा भाष्यमान्य श्वेताम्बर सूत्रपाठ । श्वेताम्बर सम्प्रदाय तत्त्वार्थाधिगम भाष्य को स्वोपज्ञ मानती है, पर उस पर विचार करने से उसकी स्वोपज्ञता नहीं बनती। क्योंकि मूलसूत्र और भाष्य एक कर्ता ही की कृति नहीं मालूम होते । तत्त्वार्थ सूत्र प्राचीन है और भाष्य अर्वाचीन है, भाष्य लिखते समय सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ था। इसके लिए प्रथम अध्याय के २०वें सूत्र की टीका दृष्टव्य है । कहा जाता है कि मूलसूत्र और उसका भाष्य ये दोनों विल्कुल श्वेताम्बरोय श्रुत के अनुकूल हैं, अतएव सूत्रकार उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परा के विद्वान हैं। पर ऐसा नहीं है, भाष्यकार श्वेताम्बर विद्वान हैं, किन्तु सूत्रकार दिगम्बर विद्वान हैं। यह तत्त्वार्थ सूत्र के कतिपय मूलसूत्रों पर से स्पष्ट है, वे दिगम्बर परम्परा सम्मत है, श्वेताम्वर परम्परा सम्मत नहीं हैं। उदाहरण स्वरूप सोलहकारण भावनाओं वाला सूत्र, और २२ परीषहों का कथन करने वाले सूत्र में 'नाग्न्य' शब्द ।।
यदि भाष्यकार और सूत्रकार एक होते तो भाष्य का मूल सूत्रों के साथ विरोध, मतभेद, अर्थभेद, तथा अर्थ की असंगति न होती, और न भाप्य का आगम से विरोध ही होता किन्तु भाप्य में अर्थ की असंगति और आगम से विरोध देखा जाता है । ऐसी स्थिति में वह मूल सूत्रकार की कृति कैसे हो सकता है ? सूत्र और भाष्य का पागम से भी विरोध उपलब्ध होता है । श्वेताम्वरीय उत्तराध्ययन के २८वें अध्ययन में मोक्षमार्ग का वर्णन करते हुए उसके चार कारण बतलाये हैं, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । जब कि तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के पहले सूत्र में तीन कारण दर्शन, ज्ञान और चारित्र बतलाये हैं। श्वेताम्बरीय आगम में सत् आदि अनुयोग द्वारों की संख्या मानी है । जब कि भाप्य में पाठ अनुयोग द्वारों का उल्लेख है ।
श्वेताम्बरीय सूत्र पाठ के दूसरे अध्याय में 'निर्वत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्' नाम का जो १७वां सूत्र है, उसके भाष्य में उपकरण बाह्याभ्यान्तरं इस वाक्य के द्वारा उपकरण के वाह्य और अभ्यन्तर ऐसे दो भेद बाह्य किये गये हैं । परन्तु श्वे० आगम में उपकरण के ये दो भेदनहीं माने गये हैं। इसी से सिद्धसेन गणी अपनी टीका में लिखते हैंमागमे तु नास्ति कश्चिदन्तर्बहिर्भेद उपकरणस्येत्याचार्यस्यैव कुतोऽपि सम्प्रदाय इति ।" आगम में उपकरण का कोई अन्तर्बाह्य भेद नहीं है। प्राचार्य का ही कहीं से कोई सम्प्रदाय है। भाष्यकार ने किसी मान्यता पर से उसे अंगीकृत किया है। उपकरण के इन दोनों भेदों का उल्लेख पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि २-१७ की वृत्ति में किया है।
कार ने उक्त दोनों भेद सर्वार्थसिद्धि से लिये हैं। इससे भी भाष्यकार पूज्यपाद के बाद के विद्वान हैं।
जब मूलसूत्रकार और भाप्यकार जुदे जुदे विद्वान हैं तब उनका समय एक कैसे हो सकता है ? साथ ही सूत्रकार प्राचीन और भाष्यकार अर्वाचीन ठहरते हैं । अतः भाप्य को स्वोपज्ञता संभव नहीं है। समय
वत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता उमास्वाति (गृद्धपिच्छाचार्य) चूंकि कुन्दकुन्दान्वय में हुए हैं, इनके तत्त्वार्थसूत्र के मंगल पद्य को लेकर विद्यानन्द के अनुसार स्वामी समन्तभद्र ने आप्त की मीमांसा की है। समन्तभद्राचार्य का समय विक्रम की द्वितीय शताब्दी माना जाय तो उमास्वाति उनसे पूर्व दूसरी शताब्दी के विद्वान होने चाहिये। शिलालेखानुसारं इनके शिष्य का नाम बलाकपिच्छ था। श्वेताम्बरीय मान्य विद्वान पं० सुखलाल जी ने उमास्वाति का समय त
प्रस्तावना में विक्रम की तीसरी-चौथी शताब्दी बतलाया है । यह समय भाष्य को स्वोपज्ञता को दृष्टि में रखकर बतलाया गया है।
१. से कि तं अपगमे ? नव बिहे पण्णत्ते । अनुयोग द्वार सूत्र ८०
२. सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन कालः अन्तरभावः अल्पबहुत्व मित्येतैश्च सद्भ, तपद प्ररूपणादिभिरष्टाभिरनुयोगद्वारः सर्वभावानां (तत्त्वानां) विकल्पशो विस्तराधिगमो भवति ।"
३. श्वेताम्बर तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य की जांच नाम का लेख । अनेकान्त वर्ष ५ कि० ३-४ पृ. १०७, कि०५ पृ. १७३
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
बलाकपिच्छ बलाकपिच्छ कौण्ड कुन्दान्वयी गृद्धपिच्छाचार्य (उमास्वाति) के शिष्य थे। ये बड़े विद्वान तपस्वी थे। उनकी कीर्ति भवनत्रय में व्याप्त थी। उनके गुणनन्दी नाम के शिष्य थे, जो चारित्र चक्रेश्वर और तर्क व्याकरणादि शास्त्रों में निपुण थे। इनका समय संभवतः दूसरी-तीसरी शताब्दी है।
दूसरी सदी के प्राचार्य
ल्लंगोवाडिगल यह चेर राजकुमार शेंगोट्टवन का भाई था और जैनधर्म का अनुयायी था पर इसका भाई शेंगोट्टवन शवधर्म अनुयायी था। इसकी रचना तमिल भाषा का प्रसिद्ध ग्रन्थ शिलप्पदि कारम्' है । उस समय वहाँ धार्मिक सहन शीलता थी और राजघरानों तक में जैनधर्म का प्रवेश हो चुका था। इस ग्रन्थ का रचना काल ईसा की दूसरी शताब्दी है । इस ग्रन्थ में तथा मणिमेखले में तत्कालीन द्रविड़ संस्कृति का स्पष्ट चित्र देखा जा सकता है।
इस काव्य में जैन आचार विचारों के तथा जैन विद्या केन्द्रों के उल्लेख मे पाठकों के मन पर निस्सन्देह प्रभाव पड़े विना नहीं रहता, कि द्रविड़ों का बहुभाग उस समय जैन धर्म को अपनाये हए था। शिलप्पादि कारभ की कथा बड़ी रोचक मार्मिक और ऐतिहासिक है। शिलप्पदिकारम की प्रमुख पात्रा कौन्ती एक जैन साध्वी है, और जैन धर्म की संपालिका है, जिन देव और उनके सिद्धान्तों पर उसकी बड़ी प्रास्था है, वह एक स्थान पर कहती है :
जिसने राग, द्वेप और मोह को जीत लिया है, मेरे कर्ण उसके अतिरिक्त अन्य किसी का भी उपदेश नहीं सूनना चाहते, मेरी जिह्वा काम जेता भगवान के १ हजार पाठ १००८ नामों के सिवाय अन्य कुछ भी कहना नहीं चाहती । मेरी आंखें उस स्वयम्भू के चरण युगल के सिवा अन्य कुछ नहीं देखना चाहतीं। मेरे दोनों हाथ अर्हन्त के सिवा किसी अन्य के अभिवादन में कभी नहीं जुड़ सकते । मेरा मस्तक फूलों के ऊपर चलने वाले अर्हन्त के सिवाय अन्य कोई फल धारण नहीं कर सकता । मेरा मन अर्हन्त भगवान के वचनों के सिवा अन्य किसी में भी नहीं रमता।
कर्ता ने अन्य धर्मों के सम्बन्ध में भी अच्छा कहा है । यद्यपि ग्रन्थ में विविध संस्कृतियों और धर्मों का चित्रण है. किन्त उसका पक्षपात जैनधर्म की प्रोर है । ग्रन्थ में अहिंसादि सिद्धान्तों की अच्छी विवेचना की है। कर्ता का दृष्टिकोण उदार और शैली सुन्दर है । इस कारण यह ग्रन्थ सभी को रुचिकर है।
१. श्री गद्धपिच्छमुनिपस्य बलाकपिच्छः शिष्योऽजनिष्ट भवनत्रयवतिकीर्ति । चारित्रचञ्चुरखिलावनिपाल मौलि-मालाशिलीमुखविराजितपादपद्यः ।
-जनलेख सं०भाग १ पृ०७२
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचायं समन्तभद्र
जीवन-परिचय
प्राचार्य समन्तभद्र विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के प्रसिद्ध तार्किक विद्वान थे। वे असाधारण विद्या के धनी थे, और उनमें कवित्व एव वाग्मित्वादि शक्तियाँ विकास की चरमावस्था को प्राप्त हो गई थीं। समन्तभद्र का जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। वे एक क्षत्रिय राजपुत्र थे। उनके पिता फणिमण्डलान्तर्गत उरगपुर के राजा थे। उनका जन्म नाम शान्तिवर्मा था। उन्होंने कहां और किसके द्वारा शिक्षा पाई, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता । उनको कृतियों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनकी जैनधर्म में बड़ी श्रद्धा थी, और उनका उसके प्रति भारी अनुराग था। वे उसका प्रचार करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने राज्य वैभव के मोह का परित्याग कर गुरु से जन दीक्षा ले ली, और तपश्चरण द्वारा आत्मशक्ति को बढ़ाया। समन्तभद्र का मुनि जीवन महान् तपस्वी का जीवन था। वे हिसादि पंच महाव्रतों का पालन करते थे और ईर्या-भाषा-पिणादि पांच समितियों द्वारा उन्हे पुष्ट करते थे। पंच-इन्द्रियों के निग्रह में सदा तत्पर, मन-वचन-कायरूप गुप्तित्रय के पालन में धीर, और सामायिकादि पडावश्यक क्रियाओं के अनुष्ठान में सदा सावधान रहते थे और इस बातका सदा ध्यान रखते थे कि मेरी दैनिकचर्या या कपायभाव के उदय से कभी किसी जीव को कष्ट न पहुँच जाय । अथवा प्रमादवश कोई बाधा न उत्पन्न हो जाय । इस कारण वे दिन में पदमदित मार्ग से चलते थे । चलते समय वे अपनी दष्टि को इधर उधर नही घुमाते थे ; किन्तु उनकी दृष्टि मदा मार्गशोधन में अग्रसर रहती थी। वे रात्रि में गमन नहीं करते थे और निद्रामें भी वे इतनी सावधानो रग्वते थे कि जब कभी कर्वट बदलना ही आवश्यक होता तो पीछी से परिमार्जित करके ही बदलते थे। तथा पीछी, कमंडलु और पुस्तकादि वस्तुओं को देख-भालकर उठाते रखते थे, एव मल-मूत्रादि भी प्राशक भूमि में ही क्षेपण करते थे। वे उपसर्ग परिपहों को साम्यभाव से सहते हुए भी कभी चित्त में दिलगीर या खेदित नहीं होते थे। उनका भापण हित-मित और प्रिय होता था। वे भ्रामरी वृत्ति से ऊनोदर आहार लेते थे । पर उसे जीवन-यात्रा का मात्र अवलम्वन (सहारा) समझते थे और ज्ञान-ध्यान एव संयम की वृद्धि और शारीरिक स्थिति का सहायक मानते थे । स्वाद के लिए उन्होंने कभी आहार नहीं लिया। इस तरह वे मूलाचार (आचारांग) में प्रतिपादित चर्या के अनुसार व्रतों का अनुष्ठान करते थे। अट्ठाईस मूलगुणों और उत्तरगुणों का पालन करते हुए उनकी विराधना न हो, इसका सदा ध्यान रखते थे। भस्मकव्याधि और उसका शमन
___ मुनिचर्या का निर्दोष पालन करते हुए भी कर्मोदयवश उन्हें भस्मक व्याधि हो गई। उसके होने पर भी वे कभी अपनी चर्या से चलायमान नहीं हुए। जब जठराग्नि की तीव्रता भोजन का तिरस्कार करती हुई उसे क्षणमात्र में भस्म करने लगी; क्योंकि वह भोजन सीमित और नीरस होता था, उससे जठराग्नि की तृप्ति होना सभव नही था। उसके लिये तो गुरु, स्निग्ध, शीतल और मधुर अन्नपान जबतक यथेष्ट परिमाण में न मिले, तो वह जठराग्नि शरीर के रक्त-मांसादि धातुओं को भस्म कर देती है। शरीर में दौर्बल्य हो जाता है, तृषा, दाह और मूर्छादिक अन्य अनेक बाधाएं उत्पन्न हो जाती हैं। बढ़ती हुई क्षुधा के कारण उन्हें असह्य वेदना होने लगी, कहा भी है'क्षुधा समा नास्ति शरीर वेदना' भूख को बड़ी वेदना होती है। समन्तभद्र ने जब यह अनुभव किया कि रोग इस तरह शान्त नहीं होता, किन्तु दुर्बलता निरन्तर बढ़ती जा रही है, अतः मुनि पद को स्थिर रखते हुए इस रोग का प्रतीकार होना संभव नहीं है, दुर्बलता के कारण जब आवश्यक क्रियाओं में भी बाधा पड़ने लगी, तब उन्होंने गुरु जी से भस्मक व्याधि का उल्लेख करते हुए निवेदन किया कि--भगवन् ! इस रोग के रहते हुए निर्दोष चर्या का पालन करना अब प्रशक्य हो गया है । अतः मुझे समाधिमरण की प्राज्ञा दीजिए । परन्तु गुरु बड़े विद्वान, तपस्वी, धीर-वीर
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य समन्तभद्र
एवं साहसी थे। वे समन्तभद्र की जीवनचर्या से अच्छी तरह परिचित थे, निमित्त ज्ञानी थे, और यह भी जानते थे कि समन्तभद्र अल्पायु नहीं हैं ! और भविष्य में इनसे जनधर्म का विशेष प्रचार एवं प्रभाव होने की संभावना है। ऐसा सोचकर उन्होंने समन्तभद्र को आदेश दिया कि समन्तभद्र ! तुम समाधिमरण के सर्वथा अयोग्य हो। इस वेष को छोड़कर पहले भस्मक व्याधि को शान्त करो। जब व्याधि शान्त हो जाय, तब प्रायश्चित्त लेकर मुनि पद ले लेना। समन्तभद्र ! तुम्हारे द्वारा जनधर्म का अच्छ। प्रचार होगा। गुरु आज्ञा से समन्तभद्र ने मुनि जीवन तो छोड़ दिया, किन्तु उसका परित्याग करने में उन्हे जो कष्ट और खेद हुआ वह वचन अगोचर है क्योंकि उन्हें मुनि जोवन से अनुराग हो गया था। वे उसे छोड़ना नही चाहते थे अतः उसे छोड़ने में दु:ख होना स्वाभाविक है, पर गुरु की प्राज्ञा का उलंघन करना समुचित नही है ऐसा सोचकर मुनिवेष का परित्याग कर दिया।
पद छोड़ने के बाद वे शरीर का भस्म से आच्छादित कर, और संघ को अभिवादन कर एक वीर योद्धा की तरह 'मणुवकहल्ली से चले गये और काञ्चो (काजी वरम) पहुंचे। उन्होंने वहां के राजा को आशीर्वाद दिया। राजा उनकी इस भद्राकृति को देख कर विस्मित हुए, और उसने उन्हें शिव समझकर प्रणाम किया। राजकीय शिवमन्दिर में जो भोग लगता था, उससे उनकी भस्मक व्याधि शान्त हो गई। राजा ने समन्तभद्र से शिवपिण्डी को प्रणाम करने का आग्रह किया। तब समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र की रचना की, और पाठवं तीर्थकर की स्तुति करते हुए चन्द्रप्रभ भगवान की वदना को । उसी समय पिण्डो फटकर उसमें से चन्द्रप्रभ भगवान की मूर्ति प्रकट हुई। और उससे राजा और प्रजा में जैनधर्म का प्रभाव अकित हुआ।
भस्मक व्याधि के शान्त होने पर ममन्तभद्र प्रायश्चित लेकर पुनः मुनि पद में स्थित हो गए। उन्होंने वीर शासन का उद्योत करने के लिए विविध देशों में विहार किया।
वाद-विजय
स्वामी समन्तभद्र के असाधारण गुणों का प्रभाव तथा लोकहित की भावना से धर्मप्रचार के लिए देशाटन का कितना ही इतिवृत्त ज्ञात होता है। उसमे यह भी जान पड़ता है कि वे जहाँ जाते थे, वहाँ के विद्वान उनको वाद घोषणाओं और उनके तात्विक भापणों को चुपचाप सुन लेते थे। पर उनका विरोध नहीं करते थे। इससे उनके महान् व्यक्तित्व का कितना ही दिग्दर्शन हो जाता है। जिन स्थानों पर उन्होंने वाद किया, उनका उल्लेख श्रवण बेल्गोल के शिलालेख के निम्न पद्य में पाया जाता है :
"पूर्व पाटलिपुत्र मध्य नगरे मेरी मया ताडिता, पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये काञ्चीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं
वादार्थो विचराम्यहं नरपते शार्दूल विक्रीडितम् ॥" प्राचार्य समन्तभद्र ने करहाटक पहुंचने से पहले जिन देशों तथा नगरों में वाद के लिए विहार किया था उनमें पाटलिपुत्र, मालवा, सिन्धु, ठक्क (पंजाब) देश, कांचीपुर (कांजीवरम्) और विदिशा (भिलसा) ये प्रधान देश तथा जनपद थे, जहाँ उन्होंने वाद-भेरी वजाई थी।
"कांच्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनु लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः, पुण्डोंडे शाक्यभिक्षः दशपुर नगरे मिष्टभोजी परिवाट वाराणस्यामभूवं शशधरधवलः पाण्डुरागस्तपस्वी, राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैन निम्रन्थवादी ॥"
१. रणामें समंतभद्दु वि मुरिंणदु, अइणिम्मलु णं पुण्णमहिचंदु । जिउ रजिउ रायारुद्द कोडि, जिरणथत्ति-मित्तिमिव पिडिफोडि ।।
-चंदप्पहचरिउ प्रशस्ति
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २
१४
समन्तभद्र जहाँ जिस भेष में पहुँचे उसका उल्लेख इस पद्य में किया गया है। साथ में यह भी व्यक्त कर दिया है कि मैं जैन निर्ग्रन्थ वादी हूँ। हे राजन् ! जिसकी शक्ति हो सामने प्राकर वाद करे। प्राचार्य समन्तभद्र के वचनों की यह खास विशेषता थी कि उनके वचन स्याद्वाद न्याय की तुला में नपे
समन्तभद्र स्वयं परीक्षा प्रधानी थे, प्राचार्य विद्यानन्द ने उन्हें 'परिवेक्षण' परीक्षा नेत्र से सबको
है। वे दूसरों को भी परीक्षा प्रधानी बनने का उपदेश देते थे। उनकी वाणी का यह जबर्दस्त प्रभाव था कि कठोर भाषण करने वाले भी उनके समक्ष मृदुभाषी बन जाते थे। महान व्यक्तित्व
प्राचार्य समन्तभद्र के असाधारण व्यक्तित्व के विषय में पंचायती मन्दिर दिल्ली के एक जीर्ण-शीर्ण गुच्छक में स्वयम्भू स्तोत्र के अन्त में पाये जाने वाले पद्य में दश विशेषणों का उल्लेख किया गया है :
प्राचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं । वैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मांत्रिकस्तांत्रिकोऽहं । राजन्नस्यां जलधिवलया मेखलायामिलायाम ।
प्राज्ञासिद्धिः किमिति बहुना सिद्ध सारस्वतोऽहम् ॥ इस पद्य के सभी विशेषण महत्वपूर्ण हैं। किन्तु इनमें प्राज्ञासिद्ध और सिद्ध सारस्वत ये दो विशेषण समन्तभद्र के असाधारण व्यक्तित्व के द्योतक हैं । वे स्वयं राजा को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे राजन् ! मैं इस समुद्र वलया पृथ्वी पर आज्ञा सिद्ध हूँ-जो आदेश देता हूँ वही होता है। और अधिक क्या कहूं मैं सिद्ध सारस्वत हूँ-सरस्वती मुझे सिद्ध है । सरस्वती की सिद्धि में ही वादशक्ति का रहस्य सन्निहित है।
गुण-गौरव
___ स्वामी समन्तभद्र को प्राद्य स्तुतिकार होने का गौरव भी प्राप्त है। श्वेताम्बरीय प्राचार्य मलयगिरि ने 'अावश्यक सूत्र' की टीका में 'आद्यस्तुतिकारोऽप्याह-वाक्य के साथ स्वयंभूस्तोत्रका 'नयास्तव स्यात्पदसत्यलाञ्छन (ज्छिता) इमे' नाम का श्लोक उद्धृत किया है ।
प्राचार्य समन्तभद्र के सम्बन्ध में उत्तरवर्ती प्राचार्यों, कवियों, विद्वानों ने और शिलालेखों में उनके यश का खुला गान किया गया है।
आचार्य जिनसेन ने उन्हें कवियों को उत्पन्न करने वाला विधाता (ब्रह्मा) बतलाया है, और लिखा है कि उनके वज्रपातरूपी वचन से कुमतिरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गये थे।'
कवि वादीभसिह सूरि ने समन्तभद्र मुनीश्वर का जयघोष करते हुए उन्हें सरस्वती की स्वच्छन्द विहार भूमि बतलाया है। और लिखा है कि उनके वचनरूपी वज्रनिपात से प्रतिपक्षी सिद्धान्तरूप पर्वतों की चोटियाँ खण्ड-खण्ड हो गई थी। समन्तभद्र के प्रागे प्रतिपक्षी सिद्धान्तों का कोई गौरव नहीं रह गया था। प्राचार्य जिनसेन ने समन्तभद्र के वचनों को वीर भगवान के वचनों के समान बतलाया है।
१. नमः समन्तभद्राय महते कवि वेधसे ।
यद्वचो वचपातेन निभिन्ना कुमताद्रयः ॥ २. सरस्वती-स्वर-विहारभूमयः समन्तभद्र प्रमुखा मुनीश्वराः । जयन्ति वाग्वन-निपात-पारित-प्रतीप गद्धान्त महीध्रकोटयः ।।
-गद्यचिन्तामणि ३. वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज भते ॥
-हरिवंश पुराण
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य समन्तभद्र
शक संवत् १०५६ के एक शिलालेख में तो यहां तक लिखा है कि स्वामो समन्तभद्र वर्द्धमान स्वामी के तीर्थ की सहस्रगुणी वृद्धि करते हुए उदय को प्राप्त हुए।'
वीरनन्दि आचार्य ने 'चन्द्रप्रभ चरित्र' में लिखा है कि-गुणों से-पूत के धागों से गूथो गई निर्मल गोल मोतियों से युक्त अोर उत्तम पुरुषां के कण्ठ का विभूषण वनो हुई हारयष्टि को-श्रेष्ठ मोतियों को माला को-प्राप्त कर लेना उतना कठिन नहीं है जितना कठिन समन्तभद्र को भारतो (वाणी) को पा लेना कठिन है, क्योंकि वह वाणी निर्मलवृत्त (चारित्र) रूपो मुक्ताफलों से युक्त है और बड़े बड़े मुनि पुंगवों-आचार्यों ने अपने कण्ठ का आभूषण बनाया है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है:
गुणाविन्ता निर्मलवृत्त मौक्तिका नरोत्तमैः कण्ठ विभूषणी कृता।
न हारयष्टिः परमेव दुर्लभा समन्तभद्रादि भवा च भारती॥ इस तरह समन्तभद्र की वाणी को जिन्होंने हृदयगम किया है वे उसको गभोरता ओर गरुता से वाकिफ़ हैं।
आचार्य समन्तभद्र की भारती (वाणी) कितनी महत्वपूर्ण है इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है। स्वामी समन्तभद्र ने अपनी लोकोपकारिणी वाणी से जैनमार्ग को सब ओर से कल्याणकारी बनाने का प्रयत्न किया है । जिन्होंने उनकी भारती का अध्ययन और मनन किया है वे उसके महत्व से परिचित हैं। उनका वाणो में उपेय और उपाय दोनों तत्त्वों का कथन अकित है ज पूर्व पक्ष का निराकरण करने में समर्थ है, जिसमें सप्तभंगों और सप्तनयों द्वारा जीवादि तत्त्वों का परिज्ञान कराया गया है और जिसमें पागम द्वारा वस्तु धर्मों को सिद्ध किया गया है, जिसके प्रभाव से पात्रकेशरी जैसे ब्राह्मण विद्वान जैनधर्म की शरण में आकर प्रभावशाली प्राचार्य बनें, जो अकलंक और विद्यानन्द जैसे मूनि पगवों के भाष्य और टीकाग्रन्थ से अलंकृत है वह समन्तभद्र वाणो सभी के द्वारा अभिनन्दन नीय, वन्दनीय और स्मरणीय है।
कृतियाँ
___इस समय प्राचार्य समन्तभद्र की ५ कृतियाँ उपलब्ध हैं। देवागम (आप्तमीमांसा) स्वयंभूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, जिन शतक (स्तुतिविद्या) और रत्नकरण्डश्रावकाचार । इनके अतिरिक्त जीवसिद्धि नाम को कृति का उल्लेख तो मिलता है पर वह अभी तक कहीं से उपलब्ध नहीं हुई । यहाँ उपलल्ध कृतियों का परिचय दिया जाता है।
देवागम-जिस तरह आदिनाथ स्तोत्र और पाश्र्वनाथ स्तात्र 'भक्तमर और कल्याणमन्दिर' जैसे शब्दों से प्रारम्भ होने के कारण भक्तामर और कल्याण मन्दिर नाम से उल्लेखित 'भक्तामर' और कल्याण" मन्दिर' कहा जाता है। उसी तरह यह ग्रन्थ भी 'देवागम' शब्दों से प्रारम्भ होने के कारण देवागम कहा जाने लगा। इसका दसरा नाम आप्तमीमांसा है। ग्रन्थ में दश परिच्छेद और ११४ कारिकाएँ हैं । ग्रन्थकार ने वीर जिन की परीक्षा कर उन्हें सर्वज्ञ और आप्त बतलाया है, तथा युक्तिशास्त्र विरोधी वाकहेतु के द्वारा प्राप्त की परीक्षा की गई है-अर्थात जिनके वचन यूक्ति और शास्त्र से अविरोधि पाये गये उन्हें ही प्राप्त बतलाया है। और जिनके वचन यक्ति और शास्त्र के विराधी पाये गये और जिनके वचन बाधित हैं, उन्हें प्राप्त नहीं बतलाया। साथ में यह भी बतलाया कि हे भगवन् ! आपके शासनामृत से बाह्य जो सर्वथा एकान्तवादी हैं, वे प्राप्त नहीं हैं, किन्तु आप्त के अभिमान से १. देखो बेलूरताल्लुके का शिलालेख नं० १७, जो सौम्यनाथ के मन्दिर की छत के एक पत्थर पर उत्कीर्ण है।
-स्वामी समन्तभद्र पृ० ४६ २. जैनवर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्रं समन्तात्मुहुः ।
-मल्लिषेण प्रशस्ति ३. जीव सिद्धि विधायीह कृतयुक्त्यनु शासनम् । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते ॥
-हरिवंश पुराण १-३०
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ दग्ध हैं। क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित इष्ट तत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है। इस कारण भगवान प्राप ही निर्दोष हैं। पश्चात उन एकान्तवादों की-भावकान्त, अभावकान्त, उभयकान्त, प्रवाच्यतैकान्त, द्वैतैकान्त, प्रवर्तकान्त, पृथक्त्वकान्त, नित्यकान्त, प्रनित्यकान्त, क्षणिककान्त, देवकान्त, पौरुषकान्त, प्रादि की समीक्षा की गई है। और बतलाया है कि इन एकान्तों के कारण लोक परलोक, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, धर्म अधर्म, देव पुरुषार्थ प्रादि की व्यवस्था नहीं बन सकती। प्राचार्य महोदय ने एकान्त वादियों को-जो सर्वथा एक रूप मान्यता के प्राग्रह में अनुरक्त है। उन्हे स्व-पर-बैरी बतलाया है। वे एकान्त पक्षपाती होने के कारण स्व-पर वैरी है। क्योकि उनके मत में शुभ अशुभ कर्मो, लोक परलोक आदि की व्यवस्था नही बन सकती। कारण वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। उसमें अनन्त धर्म गुण स्वभाव मौजूद है । वह उनमें से एक ही धर्म को मानता है। अतएव अनेकान्त दष्टि ही सम्यग्दृष्टि है। और एकान्तदृष्टि मिथ्यादृष्टि है। इनकी सिद्धि स्याद्वाद से होती है। स्याद्वाद का कथन करते हए बतलाया है कि स्याद्वाद के विना उपादेय तत्त्वों की व्यवस्था भी नहीं बनती। क्योंकि स्याद्वाद सप्तभंग पौर नयों की अपेक्षा लिये रहता है। सापेक्ष और निरपेक्ष नयों का सम्बन्ध बतलाते हुए कहा है कि निरपेक्ष नय मिथ्या और सापेक्ष नय सम्यक् हैं और वस्तुतत्व की सिद्धि मे सहायक होते है। इस सबके विवेचन से ग्रन्थ की महत्ता का सहज ही बोध हो जाता है। ग्रन्थकार ने लिखा है कि यह ग्रन्थ हिताभिलाषी भव्य जीवों के लिये सम्यक और मिथ्या उपदेश के अर्थ विशेष की प्रतिपत्ति के लिये रचा गया है।
इस ग्रन्थ पर भट्टाकलक देव ने 'प्रष्टशती' नाम का भाप्य लिखा है जो पाठ सौ श्लोक प्रमाण है। और विद्यानदाचार्य ने 'अष्ट सहस्री' नाम की एक बड़ी टीका लिखी है, जो आज भी गूढ है जिसके रहस्य को थोडे ही व्यक्ति जानते है, जिसे देवागमालकृति तथा प्राप्त मीमासालंकृति भी कहा जाता है । देवागमालकृति में प्रा. विद्यानन्द ने अप्टशती को पूरा आत्मसात् कर लिया है। अष्टसहस्री पर एक सस्कृत टीका यशोविजय नामक श्वेताम्बरीय विद्वान की है और कि सरकृत टिप्पणी भी अभिनव समन्तभद्र कृत है चौथी टीका देवागमवृत्ति है, जिसके कर्ता प्राचार्य वसनन्दि है। प० जयचन्द जी छावड़ा जयपुर ने भी इसकी हिन्दी टीका लिखी है, जो अनन्तकीति ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है । प० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भी देवागम की टीका लिखी है, जो वीर सेवा मन्दिर ट्रम्ट से प्रकाशित है।
स्वयंभूस्तोत्र-प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'स्वयभूस्तोत्र' या 'चतुर्विशति जिन स्तुति' है जिस तरह कल्याण मन्दिर एकीभाव, भक्तामर और सिद्धिप्रिय स्तोत्रों के समान प्रारभिक शब्द की दृष्टि से स्वयभूस्तोत्र भी सुघठित है। इसमें वषभादि चतुर्विशति तीर्थकरो की स्तुति की गई है। दूसरों के उपदेश के बिना ही जिन्होने स्वय मोक्षमार्ग को जानकर और उसका अनुष्ठान कर अनन्तचतुष्टय स्वरूप-अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तमुख और अनन्त वीर्यरूप प्रात्म विकास को प्राप्त किया है उन्हे स्वयभू: कहते है। वृषभादि वीर पर्यन्त चतुविशति तीर्थकर अनन्त चतप्टयादि रूप आत्म-विकास को प्राप्त हुए है, अत स्वयम पद के स्वामी है । अतएव यह स्वयंभू स्तोत्र सार्थक सज्ञा को प्राप्त है।
प्रस्तुत ग्रन्थ समन्तभद्र भारती का एक प्रमुख अग है। रचना अपूर्व और हृदयहारिणी है। यद्यपि यह ग्रन्थ स्तोत्र की पद्धति को लिये हुए है इस कारण वह भक्तियोग की प्रधानता से प्रोत-प्रोत है। गुणानुराग को
१. स त्वमेवाऽसि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् ।
अविरोधो यदिष्ट ते प्रसिद्धन न बध्यते ॥ त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । प्राप्ताभिमान दग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥ -प्राप्तमीमांसा ६-७ २. 'एकान्नग्रह स्तंषु नाथ | स्व-पर-वैरिषु, देवागम का०८ ३. इनीयामाप्तमीमांसा विहिताहितमिच्छता । सम्यग्मिथ्योपदेशार्थ-विशेष-प्रतिपत्तये ।। -देवागम का० ११४
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य समन्तभद्र
६७
भक्ति कहते हैं। जब तक मानव का अहंकार नही मरता तब तक उसकी विकास भूमि तैयार नहीं होती। पहले से यदि कुछ विकास होता भी है तो वह अहकार प्राते हो विष्ट हो जाता है, कहा भी है- "किया कराया सब गया जब आया हुंकार' । इस लोकोक्ति के अनुसार वह दूषित हो जाता है । भक्तियोग मे जहां ग्रहकार मरता है वहां विनय का विकास होता है। इसी कारण विकास मार्ग में सबमे प्रथम भक्तियोग को अपनाया गया है। आचार्य समन्तभद्र विकास को प्राप्त शुद्धात्माओं के प्रति कितने विनम्र और उनके गुणों में कितने अनुरक्त थे, यह उनके स्तुति ग्रन्थों से स्पष्ट है । उन्होंने स्वयं स्तुति विद्या में अपने विकास का प्रधान श्रेय भक्तियोग को दिया है। और भगवान जिनेन्द्र के स्तवन को भव-वन को भस्म करने वाली अग्नि बतलाया है। और उनके स्मरण को दुख समुद्र से पार करने वाली नौका लिखा है। उनके भजन को लोह से पारस मणि के स्पर्श समान कहा है । विद्यमान गुणों की अल्पता का उल्लंघन करके उन्हें बढ़ा चढ़ा कर कहना लोक में स्तुति कही जाती है । किन्तु समन्तभद्राचार्य की स्तुति लोक स्तुति जैसी नही है । उसका रूप जिनेद्र के अनन्त गुणों में से कुछ गुणों का अपनी अनुसार आशिक कीर्तन करना है । जिनेद्र के पुण्य गुणों का स्मरण एवं कीर्तन आत्मा की पाप परिणति को छुड़ाकर उसे पवित्र करता है और ग्रात्म विकास में सहायक होता है फिर भी यह कोरा स्तुति ग्रन्थ नही है । इसमें स्तुति के बहाने जैनागम का सार एवं तत्वज्ञान कूट कूट कर भरा हुआ है। टीकाकार प्रभाचन्द्र ने - ' निः शेष जिनोक्त धर्म विपयः और 'स्तवोयमसम' विशेषणों द्वारा इस स्तवन को अद्वितीय बतलाया समन्तभद्र स्वामी का यह स्तोत्र ग्रन्थ अपूर्व है । उसमें निहित वस्तु तत्त्व स्व-पर के विवेक कराने में सक्षम हैं ।
यद्यपि पूजा स्तुति से जिनदेव का कोई प्रयोजन नही है, क्योंकि वे वीतराग हैं- राग द्वेषादि मे रहित हैं । अतः किसी की भक्ति पूजा से वे प्रसन्न नहीं होते, किन्तु सच्चिदानन्दमय होने से वे सदा प्रसन्न स्वरूप हैं । निन्दा मे भी उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है; क्योंकि वे वैर रहित हैं। तो भी उनके पुण्य गुणों के स्मरण से पाप दूर भाग जाते हैं और पूजक या स्तुति कर्ता की आत्मा में पवित्रता का संचार होता है । प्राचार्य महोदय ने इसे और भी स्पष्ट किया है :
स्तुति के समय उस स्थान पर स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो फल की प्राप्ति भी चाहे सीधी होती हो या न हो परन्तु आत्म-साधन में तत्पर साधु स्रोता की विवेक के साथ भक्ति भाव पूर्वक की गई स्तुति कुशल परिणाम की - पुण्य प्रसाधक पवित्र शुभभावों की - कारण जरूर होती है और वह कुशल परिणाम श्रेय फल का दाता है । जब जगत में स्वाधीनता से श्रेयोमार्ग इतना सुलभ है, तब सर्वदा अभिपूज्य हे नमि-जिन ! ऐसा कोन विद्वान अथवा विवेकी जन है, जो आपकी स्तुति न करें ? अर्थात् अवश्य ही करेगा ।
स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा,
भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः ।
किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायस-पथे,
स्तुयान्नत्वा विद्वानसततमभिपूज्यं नमिजिनम् ।। ११६
इन चतुविशति तीर्थकरों के स्तवनों में गुणकीर्तनादि के साथ कुछ ऐसी बातों का अथवा घटनाओं का भी उल्लेख मिलता है जो इतिहास तथा पुराण मे सम्बन्ध रखती हैं । और स्वामी समन्तभद्र की लेखनी से प्रसूत होने के ।" स्वयभृस्तोत्रटीका
भवतीति स्वयंभूः
१. "स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमव बुध्ध अनुष्ठाय वाऽनन्त चतुष्टयतया २. याथात्म्यमुल्ल घगुणोदयाऽऽय्य, लोके स्तुति र्भ रिगुणोदधेस्ते । अरिष्ठमप्यशमशक्नुवन्तो वक्त जिन ! त्वाँ किमिव स्तुयाम ||
- युक्त्यनु शामन २
३. न पूजयार्थस्त्वपि वीतरागे न निन्दया नाथ ! विवान्त वैरे । तथापि ते पुण्यगुणम्मृतिनं पुनातु चित्त दुरिताञ जनेभ्यः ॥
— स्वयंभू स्तोत्र ५७
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
कारण उनका अपना खास महत्त्व है। जब भगवान पार्श्वनाथ पर केवल ज्ञान होने से पूर्व कमठ के जोव सम्बर नामक देव ने उपसर्ग किया था और धरणेन्द्र पद्मावती ने उन की संरक्षा का प्रयत्न किया था, तब उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुया । और वह संवर देव भी काल लब्धि पाकर शान्त हो गया और उसने सम्यकत्व की विशुद्धता प्राप्त कर ली। प्राचार्य महोदय ने भगवान पार्श्वनाथ के कैवल्य जीवन की उस महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख किया है-जब भगवान पार्श्वनाथ को विधुत कल्मष और शमोपदेश ईश्वर के रूप में देखकर वे वनवासी तपस्वी भी शरण में प्राप्त हए थे, जो अपने श्रमको-पचाग्नि साधनादि रूप प्रयास को-विफल समझ गए थे, और भगवान जैसे विधत कल्मष घातिकर्म चतूप्टयरूप पाप से रहित ईश्वर होने की इच्छा रखते थे, उन तपस्वियों की संख्या सात सौ बतलाई गई है१ । यथा :
यमीश्वर वीक्ष्यविधूत-कल्मषं तपाधनास्तेऽपि तथा बभूषवः ।
वनौकसः स्वश्रम-वन्ध्यबुद्धयः शमोपदेश शरणं प्रपेदिरे ॥४ इस तरह यह स्तोत्र ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण कृति है, इसमें स्तवन के साथ दार्शनिकता का पूट भी अकित है।
स्तुतिविद्या
इस ग्रन्थ का मूल नाम 'स्तुतिविद्या' है, जैसा कि प्रथम मगल पद्य में प्रयुक्त हुए 'स्तुति विद्यां प्रसाधये' प्रतिज्ञा वाक्य से ज्ञात होता है । यह शब्दालकार प्रधान काव्य ग्रन्थ है । इसमे चित्रालंकार के अनेक रूपों को दिया गया है, उन्हें देखकर आचार्य महोदय के अगाध काव्यकौशल का सहज ही भान हो जाता है। इस ग्रन्थ के कवि नाम गर्भचक्रवाले 'गत्वैक स्तुतमेव' ११६ वे पद्य के सातवे वलय में 'शान्तिवर्मकृतं' और चौथे वलय में 'जिनस्तुतिशतं, निकलता है। ग्रन्थ में कई तरह के चक्रवृत्त दिये हैं। आचार्य ने अपने इस ग्रन्थ को 'समस्त गुणगणोपेता' और सर्वालंकार भूषिता' बतलाया है। यह ग्रन्थ इतना गूढ़ है कि बिना संस्कृत टीका के लगाना प्रायः अशक्य है। इसी से टीकाकार ने 'योगिनामपि दुष्करा' विशेषण दिया है और उसे योगियों के लिए भी दुष्कर बतलाया है। आचार्य महोदय ने ग्रन्थ रचना का उद्देश्य प्रथम पद्य में 'भागमां जये' वाक्य द्वारा पापो को जीतना बतलाया है। इससे इस ग्रन्थ की महत्ता का सहज ही पता चल जाता है।
वास्तव में पापों को कैसे जीता जाता है, यह बडा ही रहस्यपूर्ण विषय है। इस विषय में यहां इतना लिखना ही पर्याप्त होगा कि जिन तीर्थकरों को स्तुति की गई है-वे सब पापविजेता हुए है। उन्होंने काम-क्रोधादि पाप प्रकृतियों पर पूर्ण विजय प्राप्त की है. उनके चिन्तन, वन्दन और अराधन से अथवा पवित्रहृदय-मन्दिर में विराजमान होने से पाप खड़े नही रह सकते । पापों के बन्धन उसी प्रकार ढीले पड़ जाते है जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष पर मोर के पाने मे उसमे लिपटे हुए भजगों (सर्पो) के बन्धन ढीले पड़ जाते है। वे अपने विजेता से घबराकर अन्यत्र भाग जाने की वात सोचने लगते है । अथवा उन पुण्य पुरुषों के ध्यानादिक से आत्मा का वह निष्पाप वीतराग शद्ध स्वरूप सामने आ जाता है। उस शुद्धस्वरूप के सामने आते ही प्रात्मा में अपनी उस भली हई निजनिधि का स्मरण हो जाता है और उसकी प्राप्ति के लिए अनुराग जाग्रत हो जाता है, तब पाप परिणति सहज ही छूट जाती है। अतः
१. प्रापत्सम्यक्त्व शुद्धि च दृष्ट्वा तद्वनवासिनः । तापसास्त्यक्तमिथ्यात्वाः शताना सप्त सयमम् ।।
-उत्तर पुराण ७३-१४६ २. हृदयतिनि त्वयि विभो ! शिथलीभवन्ति, जन्तोः क्षरणेण निविडा अपि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजगममया इव मध्यभाग= मभ्यागते वन शिखण्डिनि चन्दनस्य ।।
-कल्याण मन्दिर स्तोत्र
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य समन्तभद्र जिन पवित्रात्माओं में वह शुद्ध स्वरूप पूर्णतः विकसित हुआ है, उनकी उपासना करता हुआ भव्य जीव अपने में उस शुद्ध स्वरूप को विकसित करनके लिए उसी तरह समर्थ होता है, जिस तरह तैलादिविभूषित वत्ती दीपक की उपासना करती हुई उसमें तन्मय हो जाती है-वह स्वय दीपक बनकर जगमगा उठती है। यह सब उस भक्तितयोग का ही माहात्म्य है।
भक्त के दो रूप है सकामाभक्ति और निष्कामाभक्ति। सकामा भक्ति संसार के ऐहिक फलों की वाछा को लिए हए होती है । वह ससार तक ही सीमित रखती है। यद्यपि वर्तमान में उसमें कितना ही विकार आगया है । लोग उस व्यक्ति के मौलिक रहस्य को भूलगए है, और जिनेन्द्र मुद्रा के समक्ष लौकिक एव सासारिक कार्यो की याचना करने लगे है । वहा अज्ञजन भक्ति के गुणानुगग मे च्यूत होकर ससार के लौकिक कार्यों की प्राप्ति के लिये भक्ति करते देखे जाते है। किन्तु निष्कामाभक्ति में किसी प्रकार की चाह या अभिलापा नही होती, वह अत्यन्त विशुद्ध परिणामों की जनक है। उससे कर्म निर्जरा होता है, और आत्मा उसमे अपनी स्वात्मस्थिति को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है । अत निष्कामा भक्ति भव-समुद्र से पार उतारने में निमित्त होती है।
शुभाशुभ भावो की तरतमता और कपायादि परिणामो की तीव्रता मन्दतादि के कारण कर्म प्रकृतियों में बराबर संक्रमण होता रहता है। जिस समय कर्म प्रकृतियो के उदय की प्रवलता होतो है उस समय प्रायः उनके अनुरूप ही कार्य सम्पन्न होता है। फिर भी वीतरागदेव की उपासना के समय उनके पुण्यगुणो का प्रेम पूर्वक स्मरण और चिन्तन उनमें अनुगग बढाने मे शुभपरिणामों की उत्पत्ति होती है जिससे पाप परिणति छूटती है ओर पुण्य परिणति उसका स्थान ले लेती है, इससे पाप प्रकृतियों का रस सूख जाता है और पुण्य प्रकृतियो का रस बढ़ जाता है । पुण्य प्रकृतियो के रस में अभिवृद्धि होने से अन्तरायकर्म जो मूल पाप प्रकृति है और हमारे दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न करती है-- उन्हें नहीं होने देती- वह भग्नरस होकर निर्बल हो जाती है, फिर वह हमारे इप्ट कार्यो में बाधा पहुचाने में समर्थ नही होती । तव हमारे लोकिक कार्य अनायास ही सिद्ध हो जाते है। जैसा कि तत्वार्थश्लोकवार्तिक मे उद्धत निम्न पद्य से स्पष्ट है :
"नेष्ट विहन्तुं शुभभाव-भग्न-रस प्रकर्षः प्रभुरन्तरायः।
तत्कामचारेण गुणानुरागन्नुत्यादिरिष्टार्थ कदा दादेः॥" अतएव वीतरागदेव की निर्दोप भक्ति अमित फल को देने वाली है इसमें कोई बाधा नही आती।
यह ग्रन्थ भी समन्तभद्र भारती का अगरूप है। इसमें वपभादि चतूविशति तीर्थकरो को–अलकृत भाषा में कलात्मक स्तुति की गई है। इसका शब्द विन्यास अलकार को विशेषता को लिये हुए है। कही इलोक के एक चरण को उलटकर रख देने में दूसरा चरण बन जाता है। और पूर्वार्ध को उलटकर रखदेने मे उन गर्ध. प्रोर समचे श्लोक को उलट कर रखने से दुमरा श्लोक बन जाता है। ऐसा होने पर भी उनका अर्थ भिन्न-भिन्न है, इस ग्रन्थ के अनेक पद्य ऐसे है, जो एक से अधिक अलकारो को लिये हुए है। और कुछ ऐसे भी पद्य हे, जो दो-दो अक्षरों से वने हैं-दो व्यजनाक्षरो मे ही जिनके शरीर की सृष्टि हुई है । स्तुतिविद्या का १४वा पद्य ऐसा है जिसका प्रत्येक पाद निम्न प्रकार के एक एक अक्षर से बना है।
येया याया यये याय नानानना ननानन ।
ममा ममा ममा मामिता तती तिततीतितः॥ यह ग्रन्थ कितना महत्वपूर्ण है यह टीकाकार के–'घन-कठिन-घाति कर्मेन्धन दहन समर्था', वाक्य से जाना जाता है जिसमें घने कठोर घातिया कर्मरूपी ईन्धन को भस्म करने वाली समर्थ अग्नि बतलाया है।
युक्त्यनुशासन
प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम युक्त्यनुशासन है। यह ६४ पद्यों की एक महत्वपूर्ण दार्शनिक कृति है। यद्यपि प्राचार्य समन्तभद्र ने ग्रन्थ के आदि और अन्त के पद्यों में युक्त्यनुशासन का कोई नामोल्लेख नहीं किया, किन्तु
१. देखो, ५१, ५२ और ५५वॉ पद्य ।
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
उनमें स्पष्ट रूप से वीर जिन स्तवन की प्रतिज्ञा और उसी की परिसमाप्ति का उल्लेख है। इस कारण ग्रन्थ का प्रथम नाम 'वीर जिन स्तोत्र' है।
आचार्य समन्तभद्र ने स्वयं ४८वं पद्य में 'युक्त्यनुशासन' पद का प्रयोग कर उसकी सार्थकता प्रदर्शित कर दी है और बतलाया है कि युक्त्यनुशासन शास्त्र प्रत्यक्ष और प्रागम सविरुद्ध अथ का प्रतिपादक है। "दष्टाऽऽगमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते ।" अथवा जो युक्ति प्रत्यक्ष और पागम के विरुद्ध नहीं है, उस वस्तु की व्यवस्था करने वाले शासन का नाम युक्त्यनुशासन है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वस्तुतत्त्व का जो कथन प्रत्यक्ष और आगम से विरुद्ध है वह युक्त्यनुशासन नहीं हो सकता। साध्याविनाभावो साधन से होने वाले साध्यार्थ का कथन युक्त्यनुशासन है।
इस परिभाषा को वे उदाहरण द्वारा पुष्ट करते हुए कहते हैं कि वास्तव में वस्तुस्वरूप स्थिति, उत्पत्ति और विनाश इन तीनों को प्रति समय लिए हुए ही व्यवस्थित होता है । इस उदाहरण में जिस तरह वस्तुतत्त्व उत्पादादि त्रयात्मक युक्ति द्वारा सिद्ध किया गया है, उसी तरह वीरशासन में सम्पूर्ण अर्थ समूह प्रत्यक्ष और पागम प्रविरोधी युक्तियों से प्रसिद्ध है।'
पुन्नाट संघी जिनसेन ने 'हरिवंश पुराण' में बतलाया है कि प्राचार्य समन्तभद्र ने 'जीवसिद्धि' नामक ग्रन्थ बनाकर युक्त्यनुशासन की रचना की है। चनाचे टीकाकार आचार्य विद्यानन्द ने भी ग्रन्थ का नाम युक्त्यनुशासन बतलाया है।
ग्रन्थ में दार्शनिक दृष्टि से जो वस्तु तत्व चर्चित हुआ है वह बड़ा हो गम्भीर और तात्त्विक है। इसमें स्तवन प्रणाली से ६४ पद्यों द्वारा स्वमत-परमत के गुण दोषों का सूत्र रूप से बड़ा मार्मिक वर्णन दिया है । और प्रत्येक विषय का निरूपण प्रबल युक्तियों द्वारा किया गया है।
प्राचार्य समन्तभद्र ने 'युक्तिशास्त्राऽविरोधि वाक्त्व' हेतु से देवागम में आपकी परीक्षा की है, और जिनके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोध रूप है उन्हें ही प्राप्त बतलाया है और शेष का प्राप्त होना बाधित ठहराया है । और बतलाया है कि आपके शासनामृत से बाह्य जो सर्वथा एकान्तवादी हैं वे प्राप्त नहीं हैं किन्तु प्राप्तभिमान से दग्ध हैं; क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित इष्टतत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाण से वावित है।
ग्रन्थ में भगवान महावीर की महानता को प्रदर्शित करते हुए बतलाया है कि-'वे अतुलित शान्ति के साथ
१. 'स्तुति गोचरत्त्वं निनीषवः स्मो वयमद्यवीर ।।
'स्तुतिः शक्त्याश्रेयः पदमधिगतस्त्वं जिन ! मया, महावीरो वीरो दुरितपरसेनाभि विजये ॥६४॥ २. "अन्यथानुपपन्नत्त्वं नियमनिश्चयलक्षणात् माधनात्साध्यार्थ प्ररूपणं युक्त्यनुशासनमिति'
-युक्त्यनुशासन टीका पृ० १२२ ३. युक्त्यनुशासन प्रस्तावना पृ०२ ४. 'जीवमिद्धि विधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् ।
-हरिवंश पुगण ५. 'जीयात् ममन्नभद्रस्य स्तोत्रं युक्तयनुशासनम् ।' (१) 'म्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपते :रम्य निःशेषतः' । (२) "श्रीमद्वीरजिनेश्वरामलगुणस्तोत्रं परीक्षेक्षणः । साक्षात्म्वामिममन्तभद्रगुरुभिस्तन्वं समीक्ष्या खिलम् ।
प्रोक्त युक्नयनु शासनं विजयभिःम्यादादमार्गानुगः ।।" (४) ६. त्वनमताऽमृतबाह्यानां सर्वथैकान्त-वादिनाम् । प्राप्ताभिमानन्दग्धानां स्वेष्टं दृप्टेन बाध्यते ।।
-देवागम का० ७
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य समन्तभद्र
शुद्धि और शक्ति की पराका को-चरमसीमा को प्राप्त हुए हैं । और शान्ति सुखस्वरूप हैं-आप में ज्ञानावरण दर्शनावरण रूप कर्ममल के क्षय से अनुपम ज्ञान दर्शन का तथा अन्तगय कर्म के प्रभाव मे अनन्त वीर्य का प्राविर्भाव हुआ है । और मोहनीय कर्म के विनाश मे अनुपम सुम्व को प्राप्त है। आप ब्रह्म पथ के- मोक्षमार्ग के नेता हैं। और महान है। आप का मत-अनेकात्मक शासन-दमा-दम-त्याग और समाधि की निष्ठा को लिये हए है - ओत-प्रोत है। नयों और प्रमाणो द्वारा सम्यक वस्तू तत्त्व को मुनिश्चत करने वाला है, और सभी एकान्त वादियों द्वारा अबाध्य है । इस कारण वह अद्वितीय है२ । इतना ही नही किन्तु वीर के इस शासन को 'सर्वोदय तीर्थ बतलाया है - जो सबके उदय-उत्कर्ष एवं प्रात्मा के पूर्ण विकास में सहायक है, जिसे पाकर जीव समार समुद्र से पार हो जाते है । वही सर्वोदय तीर्थ' है, जो सामान्य-विशेप, द्रव्य पर्याय विधि-निषेध और एकत्व अनेवत्वादि सम्पूर्ण धर्मो को अपनाएहा है, मुख्य गोड़ की व्यवस्था से सुव्यवस्थित है, सब दृग्वों का अन्त करने अविनाशी है, वही सर्वोदय तीर्थ कहे जाने के योग्य है; क्योकि उमसे समस्त जीवों को भवसागर से तरने का समीचीन मार्ग मिलता है।
वीर के इस शासन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस शासन से यथेप्ट द्वेष रखने वाला मानव भी यदि समदृष्टि हुआ उपपत्ति चक्षु से - मात्सर्य के त्याग पूर्वक समाधान की दृष्टि से-वीरशासन का अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मान शृग खडित हो जाता है—सर्वथा एकान्त रूप मिथ्या आग्रह छट जाता है, वह अभद्र (मिथ्याप्टि) होता हुआ भी सब ओर से भद्ररूप एव सम्यग्दृष्टि बन जाता है । जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पद्य से प्रकट है:
काम द्विषन्नप्युपपत्ति चक्षुः समीक्ष्यतां ते समदृष्टि रिष्टम् । त्वयि ध्रुव खण्डित-मान शृङ्गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ।।६२
ग्रन्थ सभो एकान्त वादियो के मत की युक्ति पूर्ण समीक्षा की गई है, किन्तु समीक्षा करते हुए भी उनके प्रति विद्वेष की रचमात्र भी भावना नही रही है। और न वीर भगवान के प्रति उनकी रागात्मिका प्रवत्ति ही रही है।
ग्रन्थ में संवेदनाद्वैत, अद्वैतवाद, शन्यवाद आदि वादों और चार्वाक के एकान्त सिद्धान्त का खंडन करते हए विधि, निषेध और प्रवक्तव्यता रूप सप्तभगों का विवेचन किया है, तथा मानस अहिसा की परिपूर्णता के लिये विचारों का वस्तुस्थिति के आधार मे यथार्थ सामजस्य करने वाले अनेकान्तदर्शन का मौलिक विचार किया गया है। साथ ही वीर शासन की महत्ता पर प्रकाश डाला है।
ग्रन्थ निर्माण के उद्देश्य को अभिव्यक्त करते हुए प्राचार्य कहते है कि हे भगवान् ! यह स्तोत्र आपके प्रति रागभाव से नही रचा गया है। क्योंकि आप ने भव-पाश का छेदन कर दिया है। और दूसरों के प्रति द्वप भाव से भी नही रचा गया है ; क्योकि हम तो दुर्ग णो की कथा के अभ्यास को खलता समझते है। उसप्रकार का अभ्यास न होने से वह खलता भी हम में नहीं है । तब फिर इस रचना का उद्देश्य क्या है ? उद्देश्य यही है कि लोग न्यायअन्याय को पहचानना चाहते है और प्रत पदार्थ के गुण दोषो के जानने की इच्छा है उनके लिये यह स्तोत्र हिता
७ "त्व शुद्धिशक्त्यो रुदयस्काष्ठा तुला (तीना जिन शान्तिरूपाम् ।
अवापिथ ब्रह्मपथम्य नेता, महानितीयत्प्रतिवक्तुमीशाः" ।। ४ ८ दवा-दम-त्याग-समाधि-विष्ट नय-प्रमाण प्रकृताऊज सार्थम् । प्रघष्य मन्यरखिल-प्रवाद जिन ! त्वदीय मत मद्वितीयम् । ६
–युक्त्यनुशासन ६. सर्वान्नवत्त गणमुख्यकल्प सन्निशून्य च मिथोन पेक्षम् । सर्वापदामन्तकर निरन्त सर्वोदय वीमद तवैव ।। ६२
-युक्त्यनुशासन
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
न्वेषण के उपाय स्वरूप आपकी गुण कथा के साथ कहा गया है जैसा कि उसके नष्ट है :न रागान्नः स्तोत्र' भवति भव-पासच्छविमुनी, न चान्येषु वादपगुणकथाऽभ्यास-खलता । किमु न्यायान्याय प्रकृत-गुणदोषज्ञ मनसां हितान्वेषोपायस्तवगुण-कथा-संग-गदितः ।।६३
इस तरह इस ग्रन्थ की महत्ता धीर गंभीरता का कुछ आभास मिल जाता है। किन्तु ग्रन्थ का पूर्ण अध्ययन किये बिना उसका मर्म समझ में नहीं आ सकता ।
जैन प्राचीन इतिहास - भाग २
रत्नकरण्ड श्रावकाचार - इस ग्रन्थ में श्रावकों को लक्ष्य करके समीचीन धर्म का उपदेश दिया गया है। जो कमों का विनाशक और ससारी जीवों को संसार के दुःखों से निकाल कर उत्तम गुण में स्थापित करने वाला है, वह धर्म रत्नत्रय स्वरूप है- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप है। और दर्शनादिक को जो प्रतिकूल या विपरीत स्थिति है वह सम्यक् न होकर मिथ्या है अतएव यह अधर्म है, और संसार परिभ्रमण का कारण है ।
आचार्य समन्तभद्र ने इस उपासकाध्ययन ग्रंथ में श्रावकों के द्वारा अनुष्ठान करने योग्य धर्म का व्यवस्थित एवं हृदयग्राही वर्णन किया है। जो आत्मा को समुन्नत तथा स्वाधीन बनाने में समर्थ है । ग्रन्थ की भाषा प्राञ्जल मधुर प्रौढ़ और अर्थ गौरव को लिये हुए है। यह ग्रन्थ धर्मरत्न का छोटा सा पिटारा ही है। इस कारण इसका रत्नकरण्ड नाम सार्थक है और समीचीन धर्म की देशना को लिये हुए होने के कारण समीचीन धपशास्त्र है । उसका प्रत्येक स्त्री पुरुष को अध्ययन या मनन करना आवश्यक है और तदनुकूल आचरण तो कल्याण का कर्ता है हो । समन्तभद्र से पहले श्रावक धर्म का इतना सुन्दर ओर व्यवस्थित वर्णन करने वाला दूसरा कोई ग्रन्थ उपलब्ध नही है और पश्चात्वर्ती ग्रन्थकारों में भी इस तरह का धावकाचार दृष्टि गोचर नहीं होता। वे प्रायः उनके अनुकरण रूप है । यद्यपि परवर्ती विद्वानो के द्वारा रचे हुए श्रावकाचार विषयक ग्रन्थ अवश्य हैं, पर इसके समकक्ष का अन्य कोई ग्रन्थ देखने में नहीं माया प्रस्तुत ग्रन्थ सात अध्यायों में विभक्त है, जिसको श्लोक संख्या १५० टेढ़सी है । प्रत्येक अध्याय में दिये हुए वर्णन का संक्षिप्तसार इस प्रकार है:
प्रथम अध्याय में सच्च प्राप्त बागम और तपोभूत का त्रिमूढता रहित, अष्ट मदहीन और आठ अंग सहित श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया है। इन सबके स्वरूप का कथन करने हुए बतलाया है कि अगहीन सम्यग्दर्शन जन्म सन्तति का विनाश करने में समर्थ नहीं होता। शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय, आशा और लोभ से कुलिगियों को प्रणाम और विनय भी नही करता ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन मुख्यतया उपासनीय है। सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में वटिया के समान है उसके बिना ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलोदय उसी तरह नहीं हो पाते, जिस तरह बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति आदि नहीं होती। समन्तभद्राचार्य ने सम्यग्दर्शन को महत्ता का जो उल्लेख किया है, वह उसके गौरव का द्योतक है।
दूसरे अधिकार में सम्यग्ज्ञान का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए उसके विषयभूत चारों अनुयांगों का सामान्य
कथन दिया है।
तीसरे अधिकार में सम्यक् चारित्र धारण करने की पात्रता का वर्णन करते हुए हिंसादि पाप प्रणालिकाों से विरति को चारित्र बतलाया है। और वह चारित्र सकल और विकल के भेद मे दो प्रकार का है, सकल चारित्र मुनियों के और विकल चारित्र गृहस्थों के होता है, जो अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत रूप है ।
चतुर्थ अधिकार में दिखत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाण व्रत इन तीन गुण व्रतों का मनर्थदण्ड व्रत के पांच भेदों का और उनके पांच-पांच प्रतिचारों का वर्णन किया है।
पांचवे अधिकार में ४ शिक्षाव्रतों का और उनके
अतिचारों का वर्णन किया गया है। सामायिक के समय
गृहस्थ को लोपसृष्ट मुनि की उपमा दी है।
छठे अधिकार में सल्लेखना का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए उसके पांच प्रतिचारों का वर्णन दिया है।
A
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य समन्तभद्र
१०३
सातवें अधिकार में श्रावक के उन ग्यारह पदों का-प्रतिमाओं का स्वरूप दिया है और बतलाया है कि उत्तरोत्तर प्रतिमाओं के गुणपूर्वकपूर्व की प्रतिमाओं के सम्पूर्ण गुणों लिये हुए हैं।
__इस तरह इस ग्रन्थ में थावक के अनुष्ठान करने योग्य समीचीन धर्म का विधिवत कथन दिया हुआ है। यह ग्रन्थ भी समन्तभद्र भारती के अन्य ग्रन्थों के समान ही प्रामाणिक है और मनन करने के समन्त भद्र की उपलब्ध सभी कृतियां महत्वपूर्ण और अपने अपने वैशिष्टय को लिये हुए हैं। समय
प्राचार्य समन्तभद्र के समय के सम्बन्ध में स्व० पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने अनेक प्रमाणों के साथ विचार किया है और उनका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी का पूर्वार्ध बतलाया है' । वे तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति (गद्धपिच्छाचार्य) के बाद किसी समय हुए हैं। गृद्धपिच्छाचार्य विक्रम की दूसरी शताब्दी के आचार्य माने जाते हैं। समन्तभद्र उन्हीं के बाद और देवनन्दी (पूज्यवाद )से बहुत पूर्ववर्ती हैं । वे सम्भवतः विक्रम को दूसरो शताब्दी के विद्वान होने चाहिये। कोंगणि वंश के प्रथम राजा, जो गंग वश के संस्थापक सिंहनन्द्याचार्य से भी पूर्ववर्ती हैं। कोंगणिवर्मा का एक प्राचीन शिलालेख शक स०२५ का उपलब्ध है। उससे ज्ञात होता है कि कोंगणि वर्मा वि० सं० १६० (ई. सन १०३) में राज्याशासन पर प्रारूढ़ हए थे। अतः प्रायः वही समय प्राचार्य सिंहनन्दी का है। समन्तभद्र उससे पहले हए हैं। क्योंकि मल्लिपेण प्रशस्ति में सिहनन्दि से पूर्व समन्तभद्र का स्मरण किया गया है। अत: उनका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी का पूर्वार्ध ही है जो मुख्तार साहब ने निश्चित किया है । वह प्रायः ठीक है। सिंहनन्दि
मूलसंघ कून्दकून्दाचार्य काणगण और मेष पाषाण गच्छ के विद्वान थे। वे दक्षिण देश के निवासी थे। मिदेश्वर मन्दिर के शिलालेख में उन्हें दक्षिण देशवाशी और गंगमही मण्डल का समुद्धारक बतलाया है। जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट हैं
दक्षिण-देश-निवासी गंगमही-मण्डलिक-कुल-समुद्ध रणः ।
श्रीमलसंघनाथो नाम्नः श्रीसिहनन्दिमुनिः ।। मूनि सिंहनन्दि गंगवंश के संस्थापक के रूप में स्मृत किये जाते हैं । सिंहनन्दि ने गंगराजा को जो सहायता दी उसके परिणामस्वरूप गंगराजाओं ने जैनधर्म को बराबर संरक्षण दिया। गंग राजवंश दक्षिण भारत का प्रमुख राज्य रहा है। चौथी शताब्दी से १२वीं शताब्दी तक के शिलालेखों से प्रमाणित है कि गंगवंश के शासकों ने जैन मन्दिरों का निर्माण कराया, जन मूर्तियां प्रतिष्ठित कराई । जैन साधुओं के निवास के लिए गुफाएँ निर्माण करायीं और जैनाचार्यों को दान दिया।
कल्लू रगुड के शिलालेख में बतलाया हैं कि पद्मनाभ राजा के ऊपर उज्जैन के राजा महीपाल ने आक्रमण किया। तब उसने दडिग और माधव नाम के दो पुत्रों को दक्षिण की ओर भेज दिया। वे यात्रा करते हुए 'पेरूर' नाम के सुन्दर स्थान में पहुंचे। उन्होने वहीं अपना पड़ाव डाल दिया और तालाब के निकट चैत्यालय को देखकर उसकी तीन प्रदक्षिणा दी। वहीं उन्होंने प्राचार्य सिंहनन्दि को देखा, और उनकी वन्दना कर अपने पाने का कारण बतलाया। उसे सुनकर सिंहनन्दि ने उन्हें हस्तावलम्ब दिया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर देवी पद्मावती प्रकट हुई और उसने उन्हें तलवार और राज्य प्रदान किया।
जब उन्होंने सम्पूर्ण राज्य पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया तब प्राचार्य सिंहनन्दि ने उन्हें इस प्रकार शिक्षा दी-'यदि तुम अपने वचन को पूरा न करोगे, या जिन शासन को सहाय्य न दोगे, दूसरों की स्त्रियों का यदि अप
१. देखो, जैनासाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पृ०६६७ २. शिलालेख का आद्य अंश इस प्रकार है :
"स्वस्ति श्रीमत्कोंगणिवर्म धर्भमहाधिगज प्रथम गंगस्य दत्तं शक वर्ष गतेषु पंचविंशति २५नेय शुभ क्रितुसंवत्सरसु फाल्गुग शुद्ध पंचमी शनि रोहिरिण....."
-देखो, नजन गूढ़ ताल्लुके (मैसूर) के शिलालेख नं० ११०, सन् १८६४ (E. C. III)
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
१०४
हरण करोगे, मद्य-मांस मध का सेवन करोगे या नीचों की सगति में रहोगे, आवश्यकता होने पर भी दूसरों को अपना धन नही दोगे, और यदि युद्ध के मैदान में पीठ दिखायोगे तो तुम्हारा वश नष्ट हो जायगा।' उक्त शिलालेख में सिहनन्दि के द्वारा दिये गए राज्य का विस्तार भी लिखा है। उच्च नन्दिगिरि उनका किला था, कुवलाल राजधानी थी, ६६ हजार देशो पर आधिपत्य था । निर्दोष जिनदेव उनके देवता थे। युद्ध में विजय ही उनका साथी था। जैन मत उनका धर्म था । और दडिग तथा माधव वडी शान के साथ पृथ्वी का शामन करते थे।
ईस्वी सन ११२६ के शिलालेख में लिखा है कि सिहनन्दि मुनि ने अपने शिष्यो को अहन भगवान की ध्यानरूपी वह तीक्ष्ण तलवार भी कृपा करके प्रदान की थी, जो घाति कर्मरूपी शत्रुसैन्य की पर्वतमाला को काट डालती है। यदि ऐसा न होता तो देवी के प्रवेश मार्ग को रोकने वाले पत्थर के स्तम्भ को माधव अपनी तलवार के एक ही वार से कैसे काट डालता
११७६ ई. के एक शिलालेख में भी सिहनन्दि के द्वारा गणराज्य की स्थापना का निर्देश है। सिहनन्टि का समय ईसा को द्वितीय शताब्दी है।
आचार्य शिवकोटि (शिवार्य)
प्राचार्य शिवकोटि या शिवार्य अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। इन्होंने अपनी कृति आगधना की अन्तिम प्रशस्ति मे अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है। वे दोनो गाथाएं इस प्रकार है
प्रज्जजिणणदि गणि सव्वगत्तगणि प्रज्जमित्तणंदीणं । प्रवगमियपादमूले सम्म सुत्तं च प्रत्थं च ॥२१६५।। पुव्वायरियणिबद्धा उव जीवित्ता इमा स सत्तीए।
प्राराधणा सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रइदा ॥२१६६।। इन दोनों गाथाओं मे बतलाया है कि-'आर्य जिननन्दिगणी, आर्य मित्रन दिगणी के चरणो के निक प्रकार सत्र और अर्थ को समझ करके तथा पूर्वाचार्यो द्वारा निबद्ध हई आराधनाओं के कथन का उपयोग करके पाणितलभोजी-करतल पर लेकर भोजन करने वाले-शिवार्य ने यह आराधना ग्रन्थ अपनी शक्ति के अनुसार रचा है।
इम प्रशस्ति में प्रार्य जिननन्दिगणी प्रादि जिन तीन गुरुनों का नामोल्लेख किया है वे कौन हैं और कब हा है। उनकी गुरुपरम्परा और गण-गच्छादि क्या है ? इत्यादि बातों के जानने का कोई साधन उपलब्ध नही है। डॉ दितीय गाथा मे प्रयुक्त हा ग्रन्थकार के पाणिदलभोइणा' इस विशेषण पद में इतनी बात स्पष्ट हो जाती है कि प्राचार्य शिवकोटि ने इस ग्रन्थ की रचना उस समय की जब जैनमध दिगम्बर श्वेताम्बर दो विभागों में विभक्त हो चका था। उसी भेद को प्रदर्शित करने के लिए ग्रन्थकर्ता ने उक्त विशेषण पद का लगाना उचित समझा है। फलतः वे उक्त भेद से सम्भवत: सौ-डेढ़सौ वर्ष बाद हुए हों। क्योंकि आराधना ग्रन्थ में प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की कुछ गाथा ज्यों के त्यों रूप में पाई जाती है उसके एक दो उदाहरण नीचे दिये जाते है -
दंसणभट्टाभट्टा सणभट्टस्स पत्थि णिव्वाणं ।
सिझंति चरियभट्टा वेसणभट्टा ण सिझति ॥ आराधना की नं०७३८ पर पाई जाने वाली यह गाथा कुन्दकुन्द के दर्शनप्राभृत की तीसरी गाथा है । इसी तरह कुन्दकुन्द के नियमसार की दो गाथाएँ ६६, ७० माराधना में ११८७, ११८८ नम्बरों पर तथा चरित्र पाहड की ३६वी गाथा आराधना में १२११ पर पाई जाती है। और वारस अणुवेक्खा को दूसरी गाथा आराधना में १७१५ पर ज्यों के त्यों रूप में उपलब्ध होती है। इनके अतिरिक्त कुछ गाथाएँ ऐसी भी हैं जो थोड़े से पाठभेद या परिवर्तनादि के साथ उपलब्ध होती हैं । ऐसी गाथानों का एक नमूना इस प्रकार है
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य शिवकोटि (शिवार्य)
१०५
जं अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्स कोडोहि । तं पाणी तिहिगुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥
-प्रवचनसार ३१३८ जं अण्णाणी कम्म खबेदि भवसयसहस्सकोहि । तं णाणी तिहिगुत्तो खवेदि अन्तो मुहत्तेण ॥
-प्रारा० १०८ इसी तरह चारित्र प्राभृत की गाथा नं० ३१, ३२, ३३, ३५, आराधना में कुछ परिवर्तन तथा पाठ भेद के साथ गाथा नं० ११८४, १२०६, १२०७, १२१०, १८२४ उक्त स्थिति में उपलब्ध होती हैं। इससे स्पष्ट है कि पाराधना के कर्ता शिवार्य कन्दकन्दाचार्य के बहुत बाद हुए हैं। इतना ही नही किन्तु शिवकोटि के सामने समन्तभद्र के ग्रन्थ भी रहे हैं। क्योंकि इस ग्रन्थ में बहत
स्वयंभू स्तोत्र के कुछ पद्यो के भाव को अनुवादित किया गया है। संस्कृत टीकाकार ने भी उसके समर्थन में स्वयंभू स्तोत्र के वाक्यों को उद्धृत करके बतलाया है :जह जह में जइ भोगे तह तह भोगेसु वड्ढदे तण्हा।
भ० प्रा० गा० १२६२ 'तृष्णाचिषः परिवहन्ति न शान्तिरासामिष्टेन्द्रियार्थ विभवः परिवृद्धिरेव ॥"
-बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, ८२ बाहिरकरणविसुद्धो अन्भंतर करणसोधणत्थाए। "
भ० प्रा० गा०१३४८ बाह्य तपः परमदुश्चरमाचरस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिबृहणार्थम् ।,
-बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, ८३ इसमे भी स्पष्ट है कि शिवार्य समन्तभद्र के बाद किसी समय हुए हैं । और पूज्यपाद-देवनन्दी से पूर्ववर्ती हैं, क्योंकि पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में तत्त्वार्थसूत्र के वें अध्याय के २२वें सूत्र की टीका करते हुए पाराधना की ५६२ नं० की निम्न गाथा उद्धृत की है :
प्राकंपिय अणुमाणि य जं दिळं बादरं च सुहमं च । छण्णं सद्दा उलयं बहुजणप्रवत्त तस्सेवी ॥
(८१४-८१५) का ॥ इसके अतिरिक्त निम्न दो गाथानों का भाव भी अध्याय ६ सूत्र ६ की टीका में लिया है
सहसाणाभोगियदुप्पमज्जिद अपच्चवेक्खणिक्खेवे । देहो व दुप्पउत्तो तहोवकरणं च णिव्यित्ति ।। संजोयण मं वकरणाणं च तहा पाणभोयणाणं च ।
दुट्ठ णिसिट्ठा मणवचकाया भेदाणिसग्गस्स ।। "निक्षपश्चतुर्विधः अप्रत्यनिक्षेपाधिकरणं, दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरणं सहसानिक्षेपाधिकरणमनाभोगनिक्षपाधिकरणं चेति । संयोगो द्विविधः-भक्तपानसंयोगाधिरणमुपकरणसंयोगाधिकरणं चेति । निसर्गस्त्रिविधः काय निसर्गाधिकरणं, वाडिनसर्गाधिकरणं मनोनिसर्गाधिकरणं चेति ।
सर्वा० सि०अ० ६ सूत्र की टीका इस सब तुलना पर से शिवार्य या शिवकोटि के रचना काल पर अच्छा प्रकाश पड़ता है और वे समन्तभद्र और पूज्यपाद के मध्यवर्ती किसी समय हुए हैं । इनका समय देवनन्दी (पूज्यपाद) से पूर्ववर्ती है। प्राराधना
प्रस्तुत ग्रन्थ में २१७० के लगभग गाथाएं हैं जिनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक्
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
तप रूप चार पाराधनाओं का कथन किया गया है । आराधना के कथन के साथ अनेक दृष्टान्तों द्वारा उस विषय को स्त्रप्ट करने का प्रयत्न किया गया है । मरण के भेद-प्रभेदों का अच्छा वर्णन किया है और समाधि मरण करनेवाले क्षपक की परिचर्या में लगनेवाले साधुओं की संख्या ४४ बतलाई गई है। १६२१ नम्बर की गाथा से १८६१ नं० को २७० गाथाओं द्वारा आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार ध्यानों का विस्तृत वर्णन किया गया है । ग्रन्थ में कुछ ऐसी प्राचीन गाथाएं मिलती हैं, जिनका उल्लेख श्वेताम्बरीय आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रन्थों में पाया जाता है। परन्तु यह अवश्य विचारणीय है कि आवश्यक नियुक्ति प्रादि ग्रन्थ छठवीं शताब्दी में लिखे गए हैं । आवश्यक नियुक्ति को मुनिपुण्यविजयजी छठवी शताब्दी का मानते हैं। परन्तु भगवती आराधना उसके कई शताब्दी पूर्व की रचना है। जाति दस ग्रन्थ में स्त्री मक्ति और कवलाहार आदि की मान्यता का उल्लेख नहीं है, तो भी दशस्थिति कल्पवाली गाथा के कारण प्रेमीजी ने पाराधना के कर्ता को यापनीय सम्प्रदाय का बतलाया है। लगता है, कल्पवाली गाथाएं दोनों सम्प्रदायों में पूर्व परम्परा से आई हैं । वे श्वेताम्बरीय ग्रन्थों से ली गई यह कल्पना समुचित नहीं है। यह ग्रन्थ बड़ा लोकप्रिय रहा है । इस पर अनेक टीका-टिप्पण लिखे गये हैं। इस ग्रन्थ पर विजयोदया और मूलाराधना टीका के अतिरिक्त एक प्राकृत टीका और छोटे-छोटे टिप्पण भी रहे हैं, जिनसे उसकी महत्ता का स्पष्ट भान होता है। अपराजित सूरि या श्रीविजय द्वारा रचित संस्कृत टीका प्रकाशित हो चुकी है। जिसमें गाथाओं के अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए अन्य अनेक उपयोगी वस्तुओं पर विचार किया गया है । आचार्य शिवकोटि ने इस ग्रंथ की रचना पूर्वाचार्यों के सूत्रानुसार की है । श्रीचन्द्र और जयनन्दी ने भी इस पर टिप्पण लिखे हैं। आराधना पञ्जिका और भावार्थ-दीपिका टीका, पं० शिवाजी लाल की भी उपलब्ध है, जो संवत १८१८ की जेठ सुदी १३ गुरुवार को समाप्त हुई है । संस्कृत पाराधना प्राचार्य अमितगति द्वितीय ने लिखी है, जो संस्कृत के पद्यों में अनुवाद रूप में है।
ग्रन्थ के अन्त में बालपण्डित मरण का कथन करते हुए, देशव्रती श्रावक के व्रतों का भी कुछ विधान २०७६ से २०८३ तक की ५ गाथाओं में पाया जाता है।
समन्तभद्र का शिष्यत्व श्रवण बेलगोल के शिलालेख नं० १०५ में जो शक सं० १०५० (वि० सं० ११८५) का लिखा हुआ है, शिवकोटि को समन्तभद्र का शिष्य और तत्त्वार्थ सूत्र की टीका का कर्ता घोपित किया है । यथा--
तस्यैव शिष्यः शिवकोटिसूरिस्तपोलतालम्बनदेहयष्टिः ।
संसारवाराकरपोतमेतत्तत्वार्थसत्रं तदलंचकार ॥ प्रभाचन्द्र के पाराधना कथाकोश और देवचन्द्र कृत 'राजावलीकथे' में शिवकोटि को समन्तभद्र का शिप्य कहा गया है। विक्रान्त कौरव नाटक के कर्ता आचार्य हस्तिमल्ल ने भी, जो विक्रम की १४वीं शताब्दी में हुए हैं अपने निम्न श्लोक में समन्तभद्र के दो शिष्यों का उल्लेख किया है । एक शिवकोटि, दूसरे शिवायन :
शिष्यौ तदीयौ शिवकोटिनामा शिवायनः शास्त्रविदां वरेण्यो।
कृत्स्नश्रुतं श्रीगुरुपादमूले ह्यधीतवन्तौ भवतः कृतार्थी । उक्त आराधना ग्रंथ के कर्ता ने समन्तभद्र का कोई उल्लेख नहीं किया। चूकि समन्तभद्र का दीक्षा नाम अज्ञात है, इस कारण इस सम्बन्ध में कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता । समन्तभद्र शिवकोटि के गुरु हैं इस विषय का कोई स्पष्ट प्रमाण मिल जाय तो यह समस्या हल हो सकती है। ग्रंथकार द्वारा उल्लिखित गुरुनों के नामों में जिननन्दि का नाम पाया है। यदि जिननन्दि समन्तभद्र का दीक्षा नाम हो तो उस हालत में शिवकोटि समन्तभद्र के शिष्य हो सकते हैं। पर इसमें सन्देह नहीं कि शिवकोटि समन्तभद्र के शिष्य जरूर थे और वे सम्भवतः काञ्ची के राजा थे-बनारस के नहीं । वे यही हैं या अन्य कोई, यह विचारणीय और अन्वेषणीय है।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिद्धसेन
१०७
सिद्धसेन सिद्धसेन की गणना दर्शन प्रभावक आचार्यों में की जाती है। वे अपने समय के विशिष्ट विद्वान, वादी और कवि थे और तर्क शास्त्र में अत्यन्त निपूण थे। दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में इनकी मान्यता है। उपलब्ध साहित्य में सिद्धसेन का सबसे प्रथम उल्लेख प्राचार्य अकलंक देव के तत्त्वार्थवार्तिक में पाया जाता है । अकलंक देव ने उसमें इति शब्द के अनेक अर्थों का प्रतिपादन करते हुए इति शब्द का एक अर्थ शब्द प्रादुर्भाव भी किया है । उसके उदाहरण में श्रीदत्त' और सिद्धसेन का नामोल्लेख किया है। क्वचिच्छब्द प्रादुर्भाव वर्तते इति श्रीदत्तमिति सिद्धसनमिति ।'२ इनमें श्रीदत्त को प्राचार्य विद्यानन्द ने वेसठ वादियों का विजेता और जल्पनिर्णय' नामक ग्रन्थ का कर्ता बतलाया है। प्रस्तुत सिद्धसेन वही प्रसिद्ध सिद्धसेन जान पड़ते हैं, जिनका उल्लेख पूज्यपाद (देवनन्दी) ने जैनेन्द्र व्याकरण में किया है और जिनका प्रभाव अकलंक देव की कृतियों पर परिलक्षित होता है।
दिगम्बर परम्परा के धवला-जयधवला जैसे टीका ग्रन्थों में 'सन्मति सूत्र' के अनेक पद्य उद्धत हैं। सिद्धसेन विलक्षण प्रतिभा के धनी थे । इमी से उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों द्वारा उनका स्मरण किया गया है। हरिवंशपुराण के कर्ता पून्नाटसंघीय जिनमेन ने अपने पूर्ववर्ती विद्वानों का स्मरण करते हुए पहले समन्तभद्र का और उसके बाद सिद्धसेन का स्मरण किया है। जान पड़ता है कि उन्होंने ऐतिहासिक क्रमानुसार प्राचार्यों का स्मरण किया है। सिद्धसेन के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि
जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः ।
बोधयन्ति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्त्तयः॥ -जिनका ज्ञान जगत में सर्वत्र प्रसिद्ध है उन सिद्धसेन की निर्मल सूक्तियाँ ऋषभदेव जिनेन्द्र की सूक्तियों के समान सज्जनों की बुद्धि को प्रबुद्ध करती हैं । इससे पहले जिनसेन ने समन्तभद्र के स्मरण में उनके वचनों को वीर भगवान के वचन तुल्य बतलाया है । पश्चात् सिद्धसेन की सूक्तियों को ऋषभदेव के तुल्य बतलाकर उनके प्रति समन्तभद्र से भी अधिक पादर प्रगट किया है। किन्तु उनकी किसी रचना विशेप का कोई उल्लेख नहीं किया। परन्तु भगवज्जिनसेन ने अपने महापुराण में उनके 'सन्मति सूत्र' का जरूर संकेत किया है। जैसा कि उनके निम्न पद्य से प्रगट है:
प्रवादिकरियूथानां केसरी-नयकेसरः ।
सिद्धसेनकविर्जीयाद्विकल्पनखरांकुरः।। -वे सिद्धसेन कवि जयवन्त हों, जो प्रवादीरूपी हस्तियों के यूथ (झुण्ड) के लिए सिंह के समान हैं। नय जिसके केसर (गर्दन के बाल) हैं, और विकल्प पैने नाखन हैं।
सिद्धसेन का सन्मति सूत्र तर्क प्रधान ग्रन्थ है। इसमें तीन काण्ड या अध्याय हैं। उनमें से प्रथम काण्ड में अनेकान्तवाद की देन नय और सप्त भंगी का मुख्य कथन है। दूसरे काण्ड में दर्शन और ज्ञान की चर्चा है, इसी में केवलज्ञान और केवलदर्शन का अभेद स्थापित किया गया है और तीसरे काण्ड में पर्याय और गुण में अभेद की नई स्थापना की गई है। इस तरह यह ग्रन्थ एक महत्वपूर्ण दार्शनिक कृति है । आगम का अवलम्बन होते हुए भी तर्क को प्रश्रय दिया गया है। क्योंकि तर्कवाद में विकल्प जाल की ही प्रमुखता होती है, जिसमें प्रतिवादी को परास्त किया जाता है। सन्मति सूत्र का प्रथम काण्ड जहाँ सिद्धसेन रूपी सिंह के नयकेसरत्व का बोधक है, वहाँ दूसरा काण्ड उनका विकल्प रूपी पैने नखों का अवभासक है । केवली के दर्शन और ज्ञान में अभेद सिद्ध करने के लिए उन्होंने जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, प्रतिपक्षी भी उनका लोहा माने बिना नहीं रह सकता। ऊपर के इस विवेचन से स्पष्ट है कि
१. द्विप्रकारं जगी जल्पं तत्व प्रातिभगोचरम् ।
त्रिषष्ठेवादिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ।। (तत्त्वा० श्लो० पृ० २८०) २. देखो, तत्वार्थ वार्तिक १-१३ पृ० ५७ ।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
भगवज्जिनसेन ने सन्मति सूत्र का अध्ययन करके ही सिद्धसेनरूपी सिंह के स्वरूप का साक्षात् परिचय प्राप्त किया था जिसका चित्रण उनके स्मरण पद्य में पाया जाता है।
वीरसेन जिनसेन ने धवला-जयधवला टीका में नयों का निरूपण करते हुए सन्मतिसूत्र को गाथानों को प्रमाण रूप में उद्धत किया है और पागम प्रमाण के रूप में मान्य किया है। सन्मति सूत्र के दूसरे काण्ड में जीव के प्रधान लक्षण ज्ञान और दर्शन का विस्तृत विवेचन किया है, और ज्ञान वर्शन के योगपद्य और क्रमशः दोनों पक्षों को अनुचित बतलाकर लिखा है कि केवल ज्ञानी के दर्शन और ज्ञान में कोई भेद नहीं है। अतः उनके एक साय या क्रमशः होने का प्रश्न ही नहीं उठता। दिगम्बर परम्परा में केवल ज्ञानी के ज्ञान और दर्शन प्रतिक्षण युगपद माने गये है। और श्वेताम्बर परम्परा में उनका उपयोग क्रमशः माना है। सिद्धसेन ने दोनों पक्षों को न मानकर अभेदवाद को स्थापित किया है। केवल ज्ञान और केवल दर्शन के अभेदवाद की स्थापना की गई है, इसी से जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में उसकी कड़ी आलोचना की है। उसी तरह अभेदवाद की मान्यता युगपदवादी दिगम्बर परम्परा के भी प्रतिकूल है। इसीलिए प्राचार्य वीरसेन ने भी उसे मान्य नहीं किया है।
अकलंकदेव के ग्रन्थों पर प्रभाव सिद्धसेन ने सन्मति तर्क में गुण और पर्याय में अभेद की स्थापना की है। उन्होंने पर्याय से गुण को भिन्न नहीं माना है । अकलंकदेव ने तत्वार्थवार्तिक के पाँचवें अध्याय के 'गुणपर्ययवद्रव्यम्' (५-३७ पृ. ५१) सूत्र के भाष्य में उक्त चर्चा का समाधान तीन प्रकार से किया है। पहले तो आगम प्रमाण को देकर गुण की सत्ता सिद्ध की है।
एव पर्यायाः इति वा निर्देशः' समास करके गुण को पर्याय से अभिन्न बतलाया हैं। सिद्धसेनाचार्य की यही मान्यता है । इस पर यह शंका की गई कि यदि गुण ही पर्याय है तो केवल गुणवद् द्रव्यं या पर्यायवत् द्रव्यं कहना चाहिए था । गुण पर्ययवत् द्रव्य का लक्षण क्यों कहा? इसके उत्तर में यह समाधान दिया है कि जनेतर मत में गणों को द्रव्य से भिन्न माना गया है। प्रतः उसकी निवृत्ति के लिए दोनों का ग्रहण करके द्रव्य के परिवर्तन को पर्याय कहा गया है. उसी के भेद गण हैं। गण भिन्न जातीय नहीं हैं। इस विवेचन में प्रकलंकदेव ने सिद्धसेन के मत को मान्य किया है। इससे सिद्धसेन का अकलंक पर प्रभाव स्पष्ट है । अकलंकदेव ने लघीयस्त्रय की ६७ वीं कारिका में सन्मति सूत्र की १-३ गाथा का संस्कृतीकरण किया है :
तित्थयरवयण संगह विसेस पत्थार मूल वागरणी।
दव्वटियो य पज्जवणमो य सेसा वियप्पासि ॥ १-३ ततः तीर्थकर वचन संग्रह विशेष मूल व्याकरणौ द्रव्य पर्यायाथिको निश्चेतव्यो। (लघीयस्त्रय स्व. व. श्लोक ६७) तथा तत्त्वार्थ वार्तिक पृ.८७ में सन्मति की) 'पण्णवणिज्जाभावा' नाम की गाथा उद्धत की है और इसी में सिद्धसेन के अनेक मन्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है।
समय प्रस्तुत सिद्धसेन सन्मतिसूत्र और कुछ द्वात्रिंशतिकाओं के कर्ता थे। वे पूज्यपाद (देवनन्दी) हरिभद्र ७५०-८०० ई० जिनदासगणी महत्तर और जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण से भी पूर्ववर्ती हैं। पूज्यपाद ने जैनेद्र व्याकरण में वेत्तेः सिद्धसेनस्य', वाक्य में सिद्धसेन के मत विशेष का उल्लेख किया है । उनके मतानुसार 'विद्' धातु' के 'र' का पागम होता है भले ही वह सकर्मक हो। उनकी नौमी द्वात्रिंशतिका के २२खें पद्य के 'विद्रते:' वाक्य में 'र' प्रागम वाला प्रयोग पाया जाता है। अन्य वैयाकरण 'सम' उपसर्गपूर्वक प्रकर्मक 'विद्' धातु के 'र' का पागम स्वीकार करते हैं। परन्तु सिद्धसेन ने सकर्मक 'विद्' धातु का प्रयोग बतलाया है। देवनन्दी ने 'तत्त्वार्थवत्ति में सातवें अध्याय के १३वे सत्र की टीका में-वियोजयति चासूभिर्नच वधेन संयुज्यते' पद्यांश को जो तीसरी द्वात्रिशतिका के १६वें पद्य
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिद्धसेन
१०६ का प्रथम चरण है। उद्धृत किया है इससे स्पष्ट है कि सिद्धसेन पूज्यपाद से भी पूर्ववर्ती हैं । पूज्यपाद का समय ईसा की ५वीं शताब्दी है। प्रतः सिद्धमेन ईसा की ५वी शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान जान पड़ते हैं।
डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय ने सिद्धसेन के न्यायावतार का सम्पादन किया है। उन्होंने उसके प्राक्कथन पृ. XXU में लिखा है कि-'यह बहुत संभव है कि यह सिद्धमेन गुप्त काल के विद्वान् हों। चन्द्रगुप्त द्वितीय जो विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध है, और जिसका समय ३७६ से ४१४ ई० है, यही समय सिद्धसेन दिवाकर का होना संभव है। डा० सा० ने इन्हें यापनीय सम्प्रदाय का विद्वान बतलाया है। न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन इनसे भिन्न और बाद के विद्वान हैं, और वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्वान हैं। इनका समय सातवीं शताब्दी है।
१. वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते शिव च न परोपमर्दपुरुष स्मृतेविद्यते । वधाय नयमभ्युपैति च परान्न निघ्नन्नपि । त्वयाय मति दुर्गम. प्रथम हेतुरुद्योतितः ॥ १६
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाँचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य गुहनन्दि
प्रकलंक नाम के अन्य विद्वान तुम्बुलुराचार्य
रविषेणाचार्य वीरदेव
शामकुण्डाचार्य चन्द्रनन्दि
वावननन्दि मुनि श्रीदत्त, श्रीदत्त
इन्द्रगुरु यशोभद्र
देवसेन देवनन्दि(पूज्यपाद)
बलदेवगुरु प्रार्यमा और नागहस्ति
उग्रसेन गुरु मुनि सर्वनन्दि
गुणसेन मुनि यतिवृषभ
नागसेन गुरु सिद्धन्दि
सिंहनन्दि गुरु चितकाचार्य
गुणदेवसूरि वज्रनन्दि
गुणकीति नागसेन गुरु
तेलमोलिदेवर (तोलामोलित्तेरव) स्वामि कुमार
चन्द्रनन्दि जोइन्दु(योगीन्द्रेव)
जयदेव पंडित पात्रकेशरी
विजयकोति अनन्तवीर्य वृद्ध
विमलचन्द्राचार्य मानतुंगाचार्य
कोतिनन्दि जटासिंहनन्दि
विशेषवादि शुभनन्दी-रविनन्दि
चन्द्रसेन महाकवि धनंजय
प्रार्यनन्दि सुमतिदेव(सन्मति)
एलाचार्य सुमतिदेव (द्वितीय)
कुमारनन्दि
उदयदेव कविपरमेश्वर(कविपरमेष्ठी)
सिद्धान्त कोति काणभिक्षु
एलवाचार्य चउमुह (चतुर्म ख)
चन्द्रनन्दि प्रकलंक देव
रविकीति
कुमारसेन
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुहनन्दि
ये पंचस्तूपान्वय के प्रसिद्ध विद्वान थे। पंचस्तूपान्वय की स्थापना अर्हबली ने की थी जो पुण्ड्रवर्धन के निवासी थे । पुण्ड्रवर्धन जैन परम्परा का केन्द्र रहा है। अत: गुहनन्दि का समय गुप्तकालीन ताम्रशासन से पूर्ववर्ती है। उक्त ताम्रशासन के अनुसार गुप्त वर्ष १५६ (सन् ४७८-७९) में एक ब्राह्मण नाथशर्मा और उसकी भार्या राम्नी द्वारा बटगोहाली ग्राम में पंचस्तूपान्वय निकाय के निर्ग्रन्थ (श्रमण) आचार्य गुहनन्दी के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा अधिष्ठित विहार में भगवान अर्हन्तों (जैन तीर्थकरों) की पूजा सामग्री (गन्ध-धूप) आदि के निर्वाहार्थ तथा निर्ग्रन्थाचार्य गुहनन्दि के विहार में एक विश्राम स्थान निर्माण करने के लिए यह भूमि सदा के लिए इस विहार के अधिष्ठाता बनारस के पंचस्तूप निकाय संघ के प्राचार्य गुहनन्दि के शिष्य-प्रशिप्यों को प्रदान की गई थी। इससे गुहनन्दि का समय संभवतः ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी होना चाहिये ।
तुम्बुलूराचार्य यह तुम्बुलूर नामक सुन्दर ग्राम के निवासी थे। ये तुम्बुलूर ग्राम के वासी होने के कारण तुम्बुलू राचार्य कहलाये । जैसे कुन्दकुन्दपुर में रहने के कारण पद्मनन्दि आचार्य कुन्दकुन्द नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्होंने षट्खण्डागम के प्रथम पांच खण्डो पर 'चूड़ामणि' नाम की एक टीका लिखी थी, जिसका प्रमाण चौरासी हजार श्लोक प्रमाण बतलाया गया है । छठवें खण्ड को छोड़कर दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर एक महती व्याख्या कनड़ी भाषा में बनाई थी। इनके अतिरिक्त छठवें खण्ड पर सात हजार प्रमाण पञ्जिका' लिखी । इन दोनों रचनाओं का प्रमाण ६१ हजार श्लोक प्रमाण हो जाता है । महाधवल का जो परिचय धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थों के 'प्रशस्ति संग्रह' में दिया गया है, उसमें पंजिका रूप विवरण का उल्लेख पाया जाता है यथा
___वोच्छामि संतकम्मे पंचियरूवेण विवरणं सुमहत्थं ।।..."पुणो तेंहितो सेसहारसणियोगद्दाराणि संतकम्मे सव्वाणि परविदाणि । तो वि तस्सइगंभीरत्तादो, प्रत्य विसम पदाणमत्थे थोसद्धमेण पंचिय-हवेण भणिस्सामो।
तुम्बुलूराचार्य के समय के सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक इतिवृत्त नहीं मिलता, जिससे उनका निश्चित समय बताया जा सके। डा० हीरालाल जी ने धवला के प्रथम भाग की प्रस्तावना में इनका समय चौथी शताब्दी बतलाया है। जब तक उनके समय के सम्बन्ध में कोई प्राचीन प्रमाण उपलब्ध नहीं होता, तब तक डा० हीरालाल जी द्वारा मान्य समय ही मानना उचित है।
वीरदेव
वीरदेव मूलसंघ के विद्वान प्राचार्य थे जो सिद्धान्त शास्त्र में प्रवीण थे । इनके उपदेश से गंग वंश के राजा माधव वर्मा ने अपने राज्य के १३वें वर्ष में फाल्गुण सुदि पंचमी को मूलसंघ द्वारा प्रतिष्ठापित जिनालय को 'कुमारपुर' नाम का एक गाँव दान में दिया था यह ताम्र लेख गुप्त काल से पूर्व संभवतः ई० सन् ३७० का है। प्रस्तुत वीरदेव के राजगृह की सोनभण्डार गुफा के लेख में उत्कीर्ण वरदेव के साथ एकत्व की संभावना हो सकती है।'
११२
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहाम-भाग २
चन्द्र नन्दि ये मलसंघ के विद्वान थे। इन्हें परमार्हत उपाध्याय विजयकीति की सम्मति मे चन्द्रनन्दि आदि द्वारा प्रतिष्ठापित उरनूर के जैन मन्दिर के लिये माधववर्म के पुत्र कोंगुणि वर्म धर्म महाराजाधिराज (अविनीत) ने, जो जैनधर्म का अनुयायी था और कलियुगो युधिष्ठिर कहलाता था । अपने कल्याण के लिये अपने बढ़ते हुए राज्य के प्रथम वर्ष की फाल्गुन सुदी पचमी को-कोरिवुन्द देश में 'वेन्नेलकरनि' नाम का गांव प्रदान किया था। और पेरूर एवा नियडिगल-जिनालय को वाह्य चगी का चौथाई कापिण दिया था। यह लेख गुप्त काल में पूर्ववर्ती है और नोणमगल (लक्कर परगना) में ध्वस्त जैन वस्ति के ताम्र पत्रों पर अकित है, जो जमीन में मिले है। लेख समय रहित है। राईस सा० इमे ४२५ ईस्वी का मानते है ।'
श्रीदत्त
श्रीदत्त नाम के दो विद्वान प्राचार्यों का नामोल्लेख मिलता है । एक श्रीदत्त वे है जिनका नाम चार भागतीय प्राचार्या में से एक है । वे बड़े भारी विद्वान् और तपस्वी थे। आचार्य देवनन्दि की तत्त्वार्थ वृत्ति के अनुसार भगवान महावीर के साक्षात्शिप्य गणधर और श्रुतके वलियो के वाद अंग-पूर्वादि के पाठी जो प्राचार्य हुए हैं, और जिन्होंने दशवकालिकादि सूत्र उपनिवद्ध किये वे पारातीय कहलाते हैं। विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हदत्त ये चार पागतीय आचार्य दा है। इन्हे इन्द्रनन्दि ने अग-पूर्वधारी बतलाया है। इन चारों में से श्रीदत्त को छोड कर अन्य तीन का भी यही परिचय जानना चाहिये । वे सब अग-पूर्वधारी थे।
दूसरे श्रीदत्त दसरे श्रीदत्त वे है जो दार्शनिक विद्वान के रूप में लोक प्रसिद्ध रहे है। वे दीप्तिमान तपस्वी और त्रेसठ वादियों के विजेता थे।
देवनन्दि ने जनेन्द्र व्याकरण के 'श्रीदत्तरय स्त्रियाम' (१।४।३४) सूत्र में श्रीदत्त का स्मरण किया है। इस सत्र में श्रीदत्त के मत का उल्लेख किया है, और बतलाया है कि श्रीदत्त प्राचार्य के मत से गुणहेतूक पञ्चमी विभक्ति होती है । परन्तु यह कार्य स्त्रीलिङ्ग में नहीं होता। अस्तु,
१. देखो, जन ले खमंग्रह भा० २ लेख नं० ६० पू० ५५ २. देवो मर्कग का ताम्र पत्र, जैन लेख संग्रह भाग २ पृ० ६०१ ३. आरातीयः पनगचायः कालदोषात्संक्षिप्तायर्बल शिष्यानुग्रहार्थ दशवकालिकाद्युपनिबद्धं तत्प्रमारणअर्थतस्य देवेदमिति क्षीरार्णव जल घट गृहीतमिव ।
(तत्त्वा० वृ० अ०१ मूत्र २०) ४. विनयधरः श्रीदत्तः शिवदत्तो ऽन्योऽर्हदत्त नामते ।
आरातीयाः यतयः ततोऽभवन्नङ्गपूर्वधराः ।। २४ -इन्द्रनन्दि श्रुतावतार २४
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ प्राचार्य अकलंकदेव ने अपने तत्त्वार्थ वार्तिक पृ० ५७ में शब्द प्रादुर्भाव अर्थ में इति शब्द के प्रयोग की चर्चा के प्रसङ्ग में 'इति श्रीदत्तम्' का उल्लेख किया है। इससे ज्ञात होता है कि ये कोई शब्द शास्त्र निष्णात प्राचार्य थे, और उनका समय पूज्यपाद (देवनन्दि) से पूर्ववर्ती है।
जिनसेनाचार्य ने आदि पुराण में उनका स्मरण करते हुए उन्हें तपः श्रीदीप्त मूर्ति और वादिरूपी गजों का प्रभेदक सिंह बतलाया है । इससे वे बड़े दार्शनिक और किसी दार्शनिक ग्रन्थ के कर्ता रहे हैं।'
आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक में उन्हें वेसठवादियों का विजेता कहा है और उनके 'जल्प निर्णय' नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है। जैसा कि उनके निम्न पद्य से प्रकट है।
द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्त्वप्रातिभगोचरम् ॥ त्रिषष्ठे,दिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ॥४५
-तत्त्वा० श्लो० वा०प०२८० जल्प निर्णय ग्रन्थ जय-पराजय की व्यवस्था का निर्णायक जान पड़ता है। अकलंक देव के सिद्धि विनिश्चय के जल्पसिद्धि प्रकरण आदि में संभवतः उसका उपयोग किया गया हो।
अक्षपाद गौतम के 'न्याय सूत्र' में जिन सोलह पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष माना गया है, उनमें वाद, जल्प और वितण्डा भी है । वादी को प्रतिवादी के मध्य होने वाले शास्त्रार्थ को वाद कहते हैं। जल्प और वितंडा भी उसी के प्रकार हैं। प्राचार्य श्रीदत्त ने उसमें से जल्प का निर्णय करने के लिए जल्प निर्णय ग्रन्थ रचा होगा। चूंकि श्रीदत्त ने वेसठ वादियों को जोता था, इस कारण वे वाद शाखा के निष्णात पंडित थे। वे बड़े भारी तपस्वी और दर्शन शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे।
प्रभयनन्दि की महावृत्ति से सूचित होता है कि श्रीदत्त अत्यन्त प्रसिद्ध वैयाकरण थे जो लोक में प्रमाण माना जाता है। 'इति श्रीदत्तम्' यह प्रयोग 'इति पाणिनि' के सदृश लोकप्रसिद्ध था। इसी प्रकार-तच्छी दत्तम्' अहो श्रीदत्त' आदि प्रयोग भी श्रीदत्त की लोकप्रियता और प्रामाणिकता को अभिव्यक्त करते हैं सूत्र ।३।३।७६ पर 'तेन योक्तम् के उदाहरण में अभयनन्दी ने श्रीदत्त विरचित सूत्र ग्रन्थ को श्रीदत्तीयम्' कहा है। इससे स्पष्ट है कि श्रीदत्त का बनाया कोई ग्रन्थ अवश्य था? । बहत संभव है कि प्राचार्य जिनसेन और देवनन्दी द्वारा उल्लिखित श्रीदत्त एक ही हो और यह भी हो सकता है कि भिन्न हों। आदि पुराणकार ने चूंकि श्रीदत्त को तपः श्रीदीप्त मूर्ति और वादिरूपगज गणों का प्रभेदक सिंह बतलाया है। इससे श्रीदत्त दार्शनिक विद्वान जान पड़ते हैं।
यशोभद्र ये प्रखर तार्किक विद्वान् थे। उनके सभा में पहुंचते ही वादियों का गर्व खर्व हो जाता था। आचार्य देवनन्दी ने भी अपने जैनेन्द्र व्याकरण में 'क्ववृषिमजां यशोभद्रस्य ।। ३४' सत्र में यशोभद्र का उल्लेख किया है। इनकी किसी भी कृति का उल्लेख हमारे देखने में नहीं पाया। देवनन्दी द्वारा जैनेन्द्र व्याकरण में उल्लेखित और जिनसेन द्वारा स्मृत यशोभद्र दोनों एक ही हैं, तो इनका समय ईसा की ५वी, तथा वि० की छठी शताब्दी या उससे कुछ पूर्ववर्ती जान पड़ता है।
१. श्रीदत्ताय नमस्तस्मै तपः श्रीदीप्तमूर्तये ।
कण्ठीरवायितं येन प्रवादीभप्रभेदने ॥ ४५ २. विदुष्विरणीषु संसत्सु यस्य नामापि कीर्तितम् । निखर्वयति तद्गवं यशोभद्रः स पातु नः ॥ आदि पु०१,४६
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
११५
देवनंदि (पूज्यपाद) भारतीय जैन परम्परा में जो लब्धप्रतिष्ठ ग्रन्थकार हुए हैं, उनमें आचार्य पूज्यपाद (देवनन्दि) का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है। इन्हें विद्वत्ता और प्रतिभा का समान रूप से वरदान प्राप्त था। जैन परम्परा में स्वामी समन्तभद्र और सन्मति के कर्ता सिद्धसेन के बाद पूज्यपाद या देवनन्द को ही महत्ता प्राप्त है। आपकी अमर कृतियों का प्रभाव दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही परम्परागों में समान रूप से दिखाई देता है। इस कारण उत्तरवर्ती विद्वान इतिहासज्ञों और साहित्यकारों ने इनकी महत्ता और विद्वत्ता को स्वीकार किया है और उनके चरणों में श्रद्धा-सुमन समर्पित किये हैं।
आचार्य देवनन्दि अपने समय के प्रसिद्ध तपस्वी मुनिपुंगव थे। वे साहित्य जगत के प्रकाशमान सूर्य थे जिनके आलोक से समस्त वाङ्मय आलोकित रहेगा। इनका दीक्षा नाम देवनन्दि था । बुद्धि की प्रखरता के कारण वे जिनेन्द्र बुद्धि कहलाये, और देवों द्वारा उनके चरण युगल पूजे गए थे, इस कारण वे लोक में पूज्यपाद नाम से ख्यात थे। जैसा कि श्रवणबेलगोल के शिलालेख (नं० ४०) के निम्न पद्य से स्पष्ट है :
यो देवनन्दि प्रथिमाभिधानो बुद्धया महत्या स जिनेन्द्र बुद्धिः।
श्री पूज्यपादोजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम् ॥ नन्दि संघ की पट्टावली में भी देवनन्दि का दूसरा नाम पूज्यपाद बतलाया है । ये व्याकरण, काव्य सिद्धान्त, वैद्यक. और छन्द आदि विविध विषयों के मर्मज्ञ विद्वान थे। जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता के नाम से ही इनकी प्रसिद्धि है । ये मूलसंघान्तर्गत नन्दिसंघ के प्रधान आचार्य थे। वादिराज ने भी उनका स्मरण किया है। आदि पुराण के कर्ता जिनसेन इनकी स्तुति करते हुए कहते हैं :
"कवीनां तीर्थकृदेवः कि तरां तत्र वर्ण्यते ।
विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थ यस्य वचोमयम् ॥" -जो कवियों में तीर्थकर के समान थे और जिनका वचन रूपी तीर्थ विद्वानों के वचन मल को धोने वाला है। उन देवनन्दि प्राचार्य की स्तुति करने में कौन समर्थ है ?
देवनन्दि ने जिस तरह अपनी कृतियों द्वारा मोक्षमार्ग का प्रकाश किया है, उसी प्रकार उन्होंने शब्द शास्त्र पर भी अपनी रचनाएं लोक में भेंट की हैं, और शरीर शास्त्र जैसे लौकिक विषय पर भी अपनी रचना प्रदान की हैं । इसी से प्राचार्य शुभचन्द्र भी ज्ञानार्णव में उनके गुणों का उद्भावन करते हुए कहते है :
प्रपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाञ्चित्तसम्भवम् ।
कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥१-१५ । -जिनकी शास्त्र पद्धति प्राणियों के शरीर, वचन और चित्त के सभी प्रकार के मैल को दूर करने में समर्थ है, उन देवनन्दी को मैं प्रणाम करता हूँ।
प्राचार्य गुणनन्दि ने जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रों का प्राश्रय लेकर जैनेन्द्र प्रक्रिया की रचना की है वे उनका गुणगान करते हुए कहते हैं
१. अचिन्त्य महिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा।
शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भितः ॥ पार्श्वनाथ चरित
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् ।।
यदेवात्र तदन्यत्र यन्नात्रास्ति न तत्क्वचित् ॥ जिन्होंने लक्षण शास्त्र की रचना की, मैं उन पूज्यपाद आचार्य को प्रणाम करता है। इसीसे उनके लक्षण शास्त्र की महत्ता स्पष्ट है कि जो इसमें है वही अन्यत्र है और जो इसमें नही है वह अन्यत्र भी नही है । इनके सिवाय उत्तरवर्ती धनंजय, वादिराज, और पद्मप्रभ आदि अनेक विद्वानों ने उनका स्तवन कर उनकी गुण परम्परा को जीवित रक्खा है । इससे पूज्यपाद की महत्ता का सहज ही भान हो जाता है। इनके पूज्यपाद और जिनेन्द्र बुद्धि इन नामों की सार्थकता व्यक्त करने वाले शिला वाक्यों को देखिये
श्रीपूज्यपादोद्धृत धर्मराज्यस्ततः सुराधीश्वर पूज्यपादः । यदीयवैदुष्य गुणानिदानों वदन्ति शास्त्राणि तदुद्धतानि ।। धृत विश्व बुद्धिरयमत्रयोगिभिः कृत्कृत्यभावमनुविभ्रदुच्चकैः ।
जिनवद् बभूव यदनगचापहृत्स जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधुणितः ।। ये दोनों श्लोक शक सं० १३५५ में उत्कीर्ण शिलालेख के है जिनमें बतलाया गया है कि प्राचार्य पूज्यपाद ने धर्मराज का उद्धार किया था। इससे आपके चरण इन्द्रो द्वारा पूजे गए थे। इसी कारण आप पूज्यपाद नाम से सम्बोधित किये जाने लगे। आपके विद्या विशिष्ट गुणों को आज भी आपके द्वारा उद्धार पाये हुए-रचे हुए - शास्त्र बतला रहे हैं। प्राप जिनेन्द्र के समान विश्व बुद्धि के धारक-समस्त शास्त्र-विषयो में पारगत थे, कृतकृत्य थे और कामदेव को जीतने वाले थे । इसीलिये योगी जन उन्हें 'जिनेन्द्र बुद्धि' नाम मे सम्बोधित करते थे।
___ आप नन्दि संघ के प्रधान प्राचार्य थे । महान दार्शनिक, अद्वितीय वैयाकरण अपूर्व वैद्य, धुरंधर कवि बहुत बड़े तपस्वी, सातिशय योगी और पूज्य महात्मा थे।
जीवन-परिचय-आप कर्नाटक देश के निवासी और ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। पूज्यपाद चरित और राजावली कथे नामक ग्रंथ में आपके पिता का नाम माधव भट्ट और माता का नाम श्रीदेवी दिया है। आपका जन्म कोले नाम के ग्राम में हुआ था।
___ जीवन-घटना-आपके जीवन की अनेक घटनाएँ है-(१) विदेहगमन (२) घोर तपारणादि के कारण प्रांखों की ज्योति का नष्ट हो जाना तथा शान्ताष्टक के निर्माण और एकाग्रता पूर्वक उसका पाठ करने से उसकी पूनः सम्प्राप्ति । (३) देवतानो द्वारा चरणों का पूजा जाना, (४) प्रौषधि ऋद्धि की उपलब्धि (५) पाद स्पृष्ट जल के प्रभाव से लोहे का सुवर्ण में परिणत हो जाना । इस सबके विचार का यहाँ अवसर नहीं है। यह विशेष अनुसन्धान के साथ योग की शक्ति की विशेषता और महत्ता से सम्बन्धित है। साथ में अडोल श्रद्धा भी उसमे कारण है।
आपकी निम्न रचनाएं हैं-तत्त्वार्थ वृत्ति (सर्वार्थ सिद्धि) समाधितत्र, इष्टोपदेश, दश भक्ति, जैनेन्द्र व्याकरण, वैद्यक शास्त्र, छन्द ग्रंथ, शान्त्यप्टक, सारसग्रह और जैनाभिषेक।
तत्त्वार्थ वृत्ति-उपलब्ध जैन साहित्य में गृद्ध पिच्छाचार्य के तत्त्वार्थ सूत्र पर लिखी गई यह प्रथम टीका है। पूज्यपाद ने प्रत्येक अध्याय के अन्त में समाप्ति सूचक जो पुष्पिका दी है। उसमें इसका नाम सर्वार्थ सिद्धि बतलाते हुए इसे वृत्ति ग्रन्थ रूप से स्वीकार किया है । जैसा कि टीका प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है :
१. शक संवत् १३५५ के निम्न शिला वाक्य में औषधऋद्धि, और विदेह के जिन दर्शन में शरीर की पवित्रता तथा उनके पादधीत जल के स्पर्श के प्रभाव मे लोहे के सुवर्ण होने का उल्लेख किया गया है :
श्री पूज्यपादमुनिग्प्रतिमौषद्धिः जीयाद्विदेहजिनदर्शनपूतगात्र. ।
यत्पादधौतजलसंम्पर्य प्रभावात्कालायशं किल तदा कनकीचकार ।। १७ २. इति सर्वार्थ सिद्धि मज्ञकायां तत्त्वार्थवृत्ती प्रथमोऽध्यायः समाप्त. ।
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
११७
स्वर्गापवर्गसुखमाप्तु मनोभिरायः जैनेन्द्र शासनवरामृतसारभूता।
सर्वार्थसिद्धिरिति सद्भिरुपात्त नामा तत्त्वार्थ वृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या ।। जो स्वर्ग और मोक्ष-सुख के इच्छुक है, वे जिनेन्द्र शासन रूपी उत्कृष्ट अमृत में सारभूत ओर सज्जन पुरुषों द्वारा रखे गये सर्वार्थसिद्धि इस नाम से प्रख्यात इस तत्त्वार्थ वृत्ति को निरन्तर मन पूर्वक धारण करं। वे उसकी महत्ता बतलाते हुए कहते हैं :
तत्त्वार्थवत्तिमुदितां विदितार्थतत्त्वा : अण्वन्ति ये परिपठन्ति च धर्मभक्त्या।
हस्ते कृतं परमसिद्धिसुखामृतं तैर्मामरेश्वरसुखेषु किमस्ति वाच्यम् ।। सब पदार्थो के जानकार जो इस तत्त्वार्थ वृत्ति को धर्म भक्ति से सुनते हैं, और पढ़ते हैं मानो उन्होंने परम सिद्ध सुख रूपी अमत को अपने हाथ में ही कर लिया है। फिर उन्हें चक्रवर्ती और इन्द्र के सुख के विषय में तो कहना ही क्या है ? इस कारण इस वृत्ति का नाम 'सर्वार्थसिद्धि' मार्थक है। रचना शैली
चुकि सूत्र का विषय तत्त्वार्थ है, अत वृत्तिकार ने जीव, अजीव, प्रास्रव, बंध संवर निर्जरा ओर मोक्ष रूप सात तत्त्वों का महत्त्वपूर्ण विवेचन किया है। टीकाकार ने इसे वृत्ति कहा है। जिसमें सूत्रों के पदों का प्राश्रय लेकर प्रत्येक पद की विवेचना की जाती है उसे वत्ति कहते हैं। वृत्ति का यह लक्षण सर्वार्थ सिद्धि में संघटित है। इस में सूत्र के प्रायः सभी पदों का व्याख्यान किया गया है। उदाहरण के लिये प्रथम अध्याय के दूसरे सूत्र में 'तत्त्वार्थ' पद रखा है। इसका विशद विवेचन दर्शनान्तरों का निर्देश करते हुए किया है । इससे पूज्यपाद की रचना शैली का सहज ही प्राभाम हो जाता है। उन्होंने सूत्रगत प्रत्येक पद का विचार किया है और सत्रपाठ में जब प्रागम से विरोध दिखाई देता है, वहां सूत्र पाठ की रक्षा करते हुए उन्होंने उसकी सङ्गति विठलाने का प्रयत्न किया है। टोका में उनकी कुशलता का सर्वत्र दर्शन होता है। पूज्यपाद एक प्रामाणिक टीकाकार हैं। उनकी शैली गतिशील एवं प्रवाहयुक्त है। वृत्तिकार ने वृत्ति लिखते समय भाषा सौष्ठव का बराबर ध्यान रखा है, और पागम परम्परा का भी पूरा निर्वाह किया है। प्रथम अध्याय के सातवें आठवें सूत्र की वृत्ति लिखते हुए उन्होंने षट्खण्डागम के सूत्रों का संस्कृत अनुवाद दे दिया है। इससे स्पष्ट है कि आचार्य देवनंदि पट्खण्डागम के अभ्यासी थे, उसके रहस्य से परिचित थे। इस कारण उसमें विशिष्ट कथन किया गया है। वे बहुश्रत विद्वान थे। उन्होंने वस्ततत्त्व का दढ़ना से प्रतिपादन करने का साहस किया है। उनकी शैली विशद् अोर विषय स्पर्शी है। वत्ति लिखते समय जो छोटे-बड़े पाठ भेद मिले। उनकी उन्होंने यथास्थान चर्चा की है, और उनका उल्लेख किया है।
कि पूज्यपाद के सामने कुछ टीका ग्रन्थ अवश्य थे। इसी से उन्होंने अपरेषां क्षिप्रनि:सत इति पाठः" का उल्लेख करते हए बतलाया है कि अन्य अचार्यों के मत से क्षिप्र के बाद अनिःसृत के स्थान पर निःसत पाठ है।
देवनन्दि ने तत्त्वार्थसूत्र की बहुमूल्य टीका बनाकर पाठकों को ज्ञान की विपुल सामग्री प्रस्तुत की है।
समाधितन्त्र-दूसरी कृति समाधि तंत्र है । इसकी श्लोक संख्या १०५ है, श्रवण वेलगोल के ४०वें शिलालेख में इसका नाम समाधि शतक दिया है । यह एक प्राध्यात्मिक ग्रन्थ है । इसमें अध्यात्म विषय का बड़ी ही सुन्दरता से प्रतिपादन किया गया है। अध्यात्म से गढ़ विषय का इतना सरल और सरस कथन सूत्ररूप में करना प्रपनी खास विशेषता रखता है। विषय के प्रतिपादन की शैली सुन्दर और हृदयग्राहिणी है। भाषा सौष्ठव देखते ही बनता है। पद्य रचना प्रसादादि गुणों से विशिष्ट है। जान पड़ता है, देवनन्दी ने अध्यात्म शास दोहन करके जो अमृत निकाला, वह इसमें भरा हुआ है। इसके अध्ययन से चित्त प्रसन्न हो जाता है और उससे अपनी भूल का बोध होता चला जाता है। ग्रन्थकार ने स्वयं लिखा है कि मैंने इसका निर्माण आगम, युक्ति और अन्तःकरण की एकाग्रता द्वारा सम्पन्न स्वानुभव के द्वारा किया है जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है :
17.सत
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
श्रुतेन लिगेन यथात्मशक्ति समाहितान्तःकरणेन सम्यक् ।।
समीक्ष्य कैवल्य सुखस्पृहाणां विविक्तमात्मानमथाभिधास्ये ।। ग्रन्थ का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट जान पड़ता है कि कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों को आत्मसात करके इसकी रचना की है। यहां नमूने के तौर पर दो पद्यों की तुलना नीचे दी जा रही है :
तिपयारो सो प्रप्पा परमंतर बाहिरो हु देहीणं । तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवाएण चयदि बहिरप्पा ।। मोक्ष प्रा० बहिरन्तः परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिष । उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद् बहिस्त्यजेत् ॥ समाधितत्र णियभावंण वि मंच परभावं व गिण्हये केइं। जाणदि पस्सदि सव्वं सोहं इदि चितएणाणी॥८७ नियमसार यदग्राह्यन गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति ।
जानाति सर्वथा सर्व तत्स्व संवेद्यमस्म्यहम् ।। १३० समाधितंत्र ग्रन्थ के पढ़ने से ऐसा लगता है कि उन्होंने इस ग्रन्य की रचना उस समय को, जब उनको दृष्टि बाह्य से हटकर अन्तर्मुखी हो गई थी।
तीसरी रचना इष्टोपदेश है । यह ५१ पद्यों का छोटा सा लघ काय ग्रन्थ है, जो आध्यात्मिक रस से सरावोर है। इस ग्रन्थ पर पं० प्रवर आशाघर जी की एक संस्कृत टीका है, जो प्रकाशित हो चुकी है। यह भी अध्यात्म की अनुपम कृति है, और कठ करने के योग्य है। इन ग्रन्थों के निर्माण करते समय ग्रन्थकर्ता को एक मात्र यही दृष्टि रही है कि संसारी आत्मा अपने स्वरूप को कैसे पहचाने, तथा देहादि पर पदार्थों से अपनत्व का परित्याग कर आत्म-कार्यों में सावधान रहे।
दशभक्ति-प्रभाचन्द्र ने क्रियाकलाप की टीका में-'संस्कृताः सर्वाभक्तयः पूज्यपाद स्वामी कृताः प्राकृतास्न कन्दकन्दाचार्य कृताः' संस्कृत की सभी भक्तियों को पूज्यपाद की बतलाया है। इनमें सिद्ध भक्तिपद्यों की बड़ी ही महत्त्वपूर्ण कृति है। उसमें सिद्धि, सिद्धि का मार्ग और सिद्धि को प्राप्त होने वाले प्रात्मा का रोचक कथन दिया हआ है। इसी तरह श्रुत भक्ति, चारित्र भक्ति, योगि भक्ति, प्राचार्य भक्ति और निर्वाण भक्ति तथा नन्दीश्वर भक्ति का संस्कृत पद्यो में स्वरूप दिया हुआ है। इन सभी भक्तियों की रचना प्रौढ़ है।
जैनेन्द्र व्याकरण-आचार्य पूज्यपाद की यह मौलिक कृति है। यह पांच अध्यायों में विभक्त है। इसकी सत्र संख्या तीन हजार के लगभग है। इसका सबसे पहला सूत्र 'सिद्धिरने कान्तात्' है। इसमें बतलाया है कि शब्दों की सिद्धि और ज्ञप्ति अनेकान्त के आश्रय से होती है। क्योकि शब्द अस्तित्व-नास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व, और विशेषण-विशेष धर्म को लिये हुए होते हैं।
इसमें भूतबलि श्रीदत्त, यशोभद्र, प्रभाचन्द्र, समन्तभद्र और सिद्धसेन नाम के छह आचार्यों के मतों का उल्लेख किया गया है।
___ "राद्भूतबले: ३, ४, ८३ । प्राचार्य श्रीदत्त मत का प्रतिपादन करने वाला सूत्र-"गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम, १, ४, ३४ । प्राचार्य यशोभद्र के प्रतिपादक सूत्र है-'कृवृषिमृ यशोभद्रस्य।' है, २, १, १२ । और प्रभाचन्द्र के प्रतिपादक सूत्र है- 'रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य, ४, ३, १८० । प्राचार्य समन्तभद्र के मत को अभिव्यक्ति करने वाला सत्र-'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य, ५, ४, १४० । सिद्धसेन के मत का प्रतिपादक सत्र-'वेत्रः सिद्धसेनस्य ।
१,७,इन उल्लेखो से स्पष्ट है कि ये सब ग्रन्थ प्रोर ग्रन्थकार प्राचार्य पूज्यपाद से पूर्ववर्ती हैं। जैनेन्द्र व्याकरण की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं जिनके कारण उसका स्वतन्त्र स्थान है । जैनेन्द्र व्याकरण का असली सूत्र पाठ पाचार्य प्रभयनन्दि कृत महावृत्ति में उपलब्ध होता है । जैन साहित्य और इतिहास में इसकी विशेषतामों का उल्लेख किया गया है।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
११६ जैनेन्द्र और शब्दावतार न्यास-शिमोगा जिले के नगर तहसील के ४६ में शिलालेख में इस बात का उल्लेख है कि प्राचार्य पूज्यपाद ने अपने उक्त व्याकरण पर 'जैनेन्द्र' नामक न्यास लिखा था और दूसरा पाणिनि व्याकरण पर 'शब्दावतार' नाम का न्यास लिखा था। यथा
न्यासं जैनेन्द्र संज्ञं सकल बुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो । न्यासं शब्दावतारं मनुजतिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा ।। यस्तत्त्वार्थस्य टोकां व्यरचदिहतां भात्यसौ पूज्यपाद
स्वामी भूपाल वन्द्यः स्वपहितवचः पूर्णदृग्बोध वृत्तः ॥ ये दोनों ग्रंथ अभी उपलब्ध हए हैं। ग्रन्थ भंडारों में इनके अन्वेषण करने की जरूरत है।
शान्त्यष्टक-क्रिया कलाप ग्रन्थ में संग्रहीत है। इस पर पं० प्रभाचन्द्र की संस्कृत टीका भी है। कहा जाता है कि पूज्यपाद की दप्टि तिमिराच्छन्न हो गई थी, उसे दूर करने के लिये उन्होंने 'शान्त्यष्टक' की रचना की हो। क्योंकि उसके एक पद्य में ,दृष्टि प्रसन्नां कुरु' वाक्य आता है।
सार संग्रह-प्राचार्य पूज्यपाद ने 'सार संग्रह' नाम के ग्रन्थ की रचना की है। जैसा कि धवला टीका के निम्न वाक्य से स्पष्ट है :
"सार संग्रहेऽप्युक्त पूज्यपादैः अनन्त पर्यात्मकस्यवस्तुनोऽन्यतम पर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्य प्रयोगो नय इति ।"
सर्वार्थ सिद्धि में पूज्यपाद ने जो नय का लक्षण दिया है उससे इसमें बहुत कुछ समानता है । चिकित्सा शास्त्र की रचना पूज्यपाद ने की हो, इसके उरलेख तो मिलते है ; पर वह मूल ग्रन्थ अभी तक
। उग्रदित्याचार्य ने अपने कल्याण कारक वैद्यक ग्रन्थ में उसका उल्लेख निम्न शब्दों में किया है 'पूज्यपादेन भाषितः, शालाक्यं पूज्यपाद प्रकटितमधिकम् ।'
___ प्राचार्य शुभचन्द्र ने अपने 'ज्ञानार्णव' में उसका उल्लेख किया है और बतलाया है कि-जिनके वचन प्राणियों के काय, वाक्य और मन सम्बन्धी दोषों को दूर कर देते हैं उन देवनन्दी को नमस्कार है। इसमें पूज्यपाद के तीन ग्रन्थों का उल्लेख संनिहित है :-वाग्दोषों को दूर करने वाला जैनेन्द्र व्याकरण, और चित्त दोषों को दूर करने वाला प्रापका मुख्य ग्रन्थ 'समाधितंत्र' है। तथा काय दोषों को दूर करने वाला किसी वैद्यक ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जो इस समय अनुपलब्ध है। 'अपाकुर्वन्ति यद्वाच: कायवाक् चित्त संभवम् । कलंक मंगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥' यह वैद्यक ग्रन्थ अभी अनुपलब्ध है। शिमोगा नगर ताल्लुका के ४६वें शिलालेख में भी उन्हें मनुष्य समाज का हितैषी और वैद्यक शास्त्र का रचयिता बतलाया है।
जैनाभिषेक-श्रवण वेलगोल के शक सं० १०८५ के ४० नवम्बर के एक पद्य में अन्य ग्रन्थों के उल्लेख के साथ अभिषेक पाठ का उल्लेख किया है।
छन्द ग्रंथ-प्राचार्य पूज्यपाद ने छन्द ग्रन्थ की रचना भी की थी। छन्दोऽनुशासन के कर्ता जयकीति ने पूज्यपाद के छन्द ग्रन्थ का उल्लेख किया।
समय
आचार्य पूज्यपाद के समय के सम्बन्ध में कोई विवाद नही है; क्योंकि पूज्यपाद के उत्तरवर्ती प्राचार्य जिन भद्रगणि क्षमाश्रमण (वि० सं० ६६६) ने विशेषावश्यक में सर्वार्थसिद्धि के वाक्यों को अपनाया है, जैसा कि उसकी तलना पर से स्पष्ट है। इससे स्पष्ट है कि पूज्यपाद सं०६६६ से पूर्व हैं। अकलंकदेव ने भी सर्वार्थ सिद्धि को वातिकादि के रूप में 'तत्त्वार्थ वार्तिक' में अपनाया है।
तुलना
१. देवो छन्दोनुशासन, जयकीर्ति २. सर्वार्थ सिद्धि अ० ११० १५ में धारणा मति ज्ञान का लक्षण निम्न रूप में दिया है :
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
पूज्यपाद के ग्रन्थों पर समन्तभद्र का प्रभाव स्पष्ट है । और जैनेन्द्र व्याकरण में पूज्यपाद ने 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' सूत्र द्वारा उनका उल्लेख भी किया है। पूज्यपाद ने तत्त्वार्थवृत्ति में सिद्धसेन की द्वात्रिंशिका के निम्न पद्यांश को उद्धत किया है-"वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते"
सन्मति में सूत्र और कुछ द्वात्रिंशतिकानों के कर्ता सिद्धमेन का समय चौथी-पांचवीं शताब्दी है अतएव पूज्यपाद भी इसी समय के विद्वान् हैं।
पूज्यपाद गंगवंशीय राजा अविनीति (वि० सं० ५२३) के पुत्र दुविनीति (वि० सं० ५३८) के शिक्षा गुरु थे। अवनीत के पुत्र दुविनीत ने शब्दावतार नामक ग्रन्थ की रचना की थी। प्रेमीजी ने लिखा है-शिमोगा जिले की नगर तहसील के शिलालेख में देवनन्दी को पाणिनीय व्याकरण पर शब्दावतार न्यास का कर्ता लिखा है। इससे अनुमान होता है कि दुविनीत के गुरु पूज्यपाद ने वह ग्रंथ रचकर अपने शिष्य के नाम से प्रचारित किया था। दुविनीत का राज्य काल सन् ४८० ई० से ५२० ई. के मध्य का माना जाता है। इससे पूज्यपाद ५वीं के उत्तरार्द्ध और छठी के पूर्वार्द्ध के विद्वान् ठहरते हैं।
पूज्यपाद के एक विद्वान् शिष्य वज्रनन्दि ने वि० सं० ५२६ (४६६ ई.) में द्रविड़ संघ की स्थापना की थी। इससे भी पूज्यपाद का उक्त समय निश्चित होता है।
व्याकरण में ग्रन्थकार प्राचीन उदाहरणों के साथ स्व-समयकालिक घटनाओं का भी निर्देश करते हैं । जैसे 'अदहदमोघवर्षोऽरातीन् शाकटायन (४/३/२०८) 'अरुणत् सिद्धराजोऽवन्तीम् हैम (५/२/८) इसी तरह जैनेन्द्र व्याकरण का 'अरुणन्मेहेन्द्रो मथुराम्' (२/२/६२) इसका अर्थ है महेन्द्र द्वारा मथुरा का विजय। यह महेन्द्र गुप्तवंशी कुमार गुप्त है। इनका पूरा नाम महेन्द्र कुमार है। जैनेन्द्र के 'विनापि निमित्तं पूर्वोत्तर पदयो ; त्वं वक्त व्यम्' (४/१/१३६) अथवा पदेषु पदैक देशान' नियम के अनुसार उसी को महेन्द्र अथवा कुमार कहते हैं। उसके
'अवेस्तस्य कालान्तरेऽविम्मरणकारणम् ।' विशेषावश्यक भाष्य में इन्ही शब्दों को दुहराते हुए कहा हैकालंतरं च जं पुणरणसरणं धारणासाउ ।। गा० २६१ चाक्षु इन्द्रिय को अप्राप्यकारी बतलाते हुए सर्वार्थ सिद्धि अ० १ सूत्र १६ में कहा है-'मनोवद् प्राप्यकारीति' विशेषावश्यक भाष्य में उसे निम्न शब्दो में व्यक्त किया है। 'लोयणमपत्तविषयं मणोव्व ।।" गाथा २०६ सर्वार्थ सिद्धि अ० १ सूत्र २० में यह शंका की गई है कि प्रथम मम्यकत्व की उत्पत्ति के समय दोनों ज्ञानों की उत्पत्ति एक साथ होती है अतएव श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है । यह नहीं कहा जा सकता। आह-प्रथम सम्यक्त्वोत्पत्तौ युगपज्ज्ञान परिणामान्मति पूर्वकत्व श्रुतस्यनोत्पद्यत इति ।' इसके प्रकाश में विशेषावश्यक की निम्न गाथा को देग्वियेणाणाण्णाणिय सम कालाई जनो मटमुआट। तो न सुयं मइ पुव्वं महणाणे वा मुयन्नाणं ।। गा० १०७ १. देखो, मर्वार्थमिद्धि समन्तभद्र पर प्रभाव शीर्षक लेख अनेकान्त वर्ष-५ पृ० ३४५ २. श्रीमकोंकण महाराजाधिराजम्याविनीत नाम्नः पुत्रेण शब्दावतारकारेण देवभारती
निबद्ध बहत्कथेन किगताजनीय पंचदश सर्ग टीकाकारेण दुविनीतिनामधेयेन३. मिरि पूज्यपाद मीमो दाविड संघम्स काग्गो दुट्ठो।
णामेण वज्जगदी पाहडवेदी महासत्तो।। पंचसये छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तम्स । दक्खिण महुराजादो दाविडसंघा महामोहो।
-दर्शनसार
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाचवी शताब्दी से आठवी शताब्दो तक के आचार्य
१२१
सिक्कों पर महेन्द्र, महेन्द्रसिह, महेन्द्र वर्मा, महेन्द्र कुमार आदि नाम उपलब्ध होते है ।
तिब्बतीय ग्रन्थ चन्द्र गर्भ सूत्र में लिखा है-"भवनो पल्हिका शकुनो (कुशना) ने मिलकर तीन लाख सेना से महेन्द्र के राज्य पर आक्रमण किया। गगा के उत्तर क प्रदेश जोत लिये। महेन्द्रमेन के युवा कुमार ने दो लाख सेना लेकर उस पर आक्रमण किया पार विजय प्राप्त का। लोटने पर पिता ने उसका अभिषेक कर दिया । इसमे मालम होता है कि पूज्यपाद ने इसी घटना का उल्लेख किया है। उसने गगा के आस-पास का प्रदेश जीतकर मथरा को अपना केन्द्र बनाया था। कुमार गुप्त का राज्य काल वि० स० ४७० मे ५१२ (सन् ४१३ से ४४५ ई० है। अत यही समय पूज्यपाद का होना चाहिए।
प० युधिष्ठिर जी का यह मत ठाक नहीं है, क्योकि 'अरुणत् महेन्द्रो मथुराम्' यह वाक्य पूज्यपाद का नहीं है किन्तु महावृत्तिकार अभयनन्दि का हे । टलिये यह तर्क प्रमाणित नही हा सकता।
आयमंक्ष और नागहस्ति प्रापंमक्ष और नागहस्ति-- इन दोनो प्राचार्यों की गुरु परम्परा और गण-गच्छादि का कोई उल्लेख नहीं मिलता। ये दोनो प्राचार्य यति वपन के गुरु थे। प्राचार्य वीरसेन जिनमेन ने धवला जयधवला टीका में दोनो गुरुओं का एक साथ उल्लेख किया है। इस कारण दोनो का अस्तित्व काल एक समय होना चाहिये, भले ही उनमें ज्येष्ठत्व कनिप्ठत्व हो। इन दोनों प्राचार्यो के सिद्धान्त-विषयक उपदेशों में कुछ सूक्ष्म मत भेद भी रहा है। जो वीरसेनाचार्य को उनके ग्रथों अथवा गुरु परम्परा से ज्ञात था जिनका उल्लेख धवला जयधवला टीका में पाया जाता है और जिसे पवाइज्जमाण अपवाइज्जमाण या दक्षिण प्रतिपत्ति और उत्तर प्रतिपत्ति के नाम से उल्लेखित किया है।' धवला जयधवला में उन्हें 'क्षमाश्रमण' और 'महावाचक' भी लिखा है, जो उनकी महत्ता के द्योतक है।
श्वेताम्बरीय पट्टावलियो मे अज्जमगु और अज्ज नाग हत्थी का उल्लेख मिलता है । नन्दि सूत्र की पट्टावली में अज्जमगु को नमस्कार करते हुए लिखा है :
भणगं करगं झरगं पभावगं णाणदंसणगुणाणं ।
वंदामि अज्जमंगु सुयसायरपारगं धीरं ॥२८ सूत्रों का कथन करने वाले, उनमें कहे गए प्राचार के मपालक, ज्ञान प्रोर दर्शन गुणों के प्रभावक, तथाथतसमुद्र के पारगामी धीर प्राचार्य मग को नमस्कार करता हूँ।
इसी प्रकार नागहस्ति का स्मरण करते हुए लिखा है :
१. भूमि का जैनेन्द्र महावृत्ति पृ०८ २. प० भगवद्दन का भारतवर्ष का इतिहास म० २००३ पृ० ३५४ ३. जो अज्जमखु सीसो अतेवामी वि णागहत्थिम्म। -जयधवला भा० १ १०४
४: सव्वाइग्यि-सम्मदो चिरकालभवोच्छिण्णसंपदायकमेणागच्छमारणो जो शिष्यपरम्पगए पवाःज्जदेसो पवाजतो वएसोत्ति भण्णदे । अथवा अज्जमवुभयवताणमुवएसो एत्थाऽपवाइज्जमाणो णाम । गागइत्थि ग्वग्णाणमुवासो पवा ज्जतवात्ति घेतव्यो।
-(जयधवला प्रस्तावना टि० पृ० ४३ ५. "कम्मठिदित्ति अणिपोगद्दारेहि भण्णमाणे वे उवएमा होति जहण्णमुक्कस्म ट्ठिदीण पगारण पम्वणा कम्मलिदि पम्वपत्ति रणागह त्य खमाममणा भणति । अज्ज मखु खमासमणा पुण कम्मट्ठिदि परूवेणेन्ति भरणति । एव दोहि उवामे हि कम्मदिदि परूपणा कायव्या।"-"एत्थ दुवे उवाएसा ..."महावाचयाणमज्जमखु खवरणाणमुवएसेण लोगपूरिदे आउग ममाण गणामा गोदवेदणीयाण टिठदि संतकम्म ठवेदि । महावाचयाण णागहत्थि खवणाण मुवएसेण लोगे पूरिदे णामा-गोद वेदरणीयाण टिठाद मत कम्म अंतो मुहुत्त पमाणं होदि ।
-धवला टीका
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग-२ बडउ वायगवंसो जस वंसो प्रज्जणागहत्थीणं ।
वागरण करण भंगिय कम्म पयडी पहाणाणं ॥३० इसमें बताया है कि व्याकरण, करण चतुर्भगी आदि के निरूपक शास्त्र तथा कर्म प्रकृति में प्रधान प्रार्य नागहस्ती का यशस्वी वाचक वंश वृद्धि को प्राप्त हो ।
नन्दि सूत्र में आर्य मंगु के पश्चात् आर्य नन्दिल का स्मरण किया है और उसके पश्चात् नागहस्ति का। नन्दिसूत्र चूर्णी और हारिभद्रीय वृत्ति में भी यही क्रम पाया जाता है। दोनों में आर्य मंगु का शिष्य आर्य नन्दिल पौर आर्य नन्दिल का शिष्य नागहस्ती बतलाया है।
"मार्य मंगु शिष्य आर्य नन्दिल क्षपणं शिरसावंदे।
...'मार्य नन्दिल क्षपण शिष्याणां प्रार्य नागहस्तिोणं ॥ इससे प्रार्य मंगु के प्रशिष्य प्रार्य नागहस्ति थे, ऐसा प्रमाणित होता है । नागहस्ति को कर्म प्रकृति में प्रधान बताया है और वाचकवंश की वृद्धि की कामना की गई है।
श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में आर्य मंगु की एक कथा मिलती है। उसमें लिखा है कि वे मथुरा में जाकर भ्रष्ट हो गये थे। नागहस्तिी को वाचक वंश का प्रस्थापक भी बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि वे वाचक थे, इस कारण उनके शिष्य वाचक कहलाये। इन सब बातों पर विचार करने से यह सभाव्य लगता है कि श्वेताम्बर परम्परा के आर्य मंग और महावाचक नागहस्ती और धवला जय धवला के महावाचक आर्य मक्ष और महावाचक नागहस्ति एक हों। प्रार्य मंगु का समय तपागच्छपट्टावली पृ० ४७ में वीरनिर्वाण से ४६७ वर्ष और सिरि दुसमाकलसमणसंघथयं की अवरि पृ० १६ में वीर नि० ६२०-६८६ बतलाया है। किन्तु दोनों का एक समय किसी भी श्वेताम्बर पदावली में उपलब्ध नहीं होता। किन्तु दिगम्बर परम्परा में दोनों को यतिवृषभ का गुरु बतलाया है।
मथरा के लेख नं० ५४ प्रौर ५५ के प्रार्य घस्तु हस्त तथा हस्ति हस्ति तो काल की दृष्टि से पट्टावली के १६ वें पट्टधर नागहस्ती जान पड़ते हैं । लेखों के ज्ञान समय से पट्टावली में दिये गये समय के साथ कोई विरोध नहीं पाता। लेखों के कुषाण संवत् ५४ और ५५ (वीर नि० सं० ६५७ और ६५९) पट्टावली में दिये गए नागहस्ती के समय वीर नि० सं०६२०-६० के अन्तर्गत प्रा जाते हैं। अर्थात् नाग हस्ती ६५६, ४७०-१८६ वि०सं० में विद्यमान थे। उसी समय के लगभग षट्खण्डागम की रचना हुई है । उस समय कर्म प्रकृति प्राभूत मौजूद था। उसी के लोप के भय से धरसेनाचार्य ने पुष्पदन्त भूतबलि को पढ़ाया था। अतः लेखगत यह समकालीनता पाश्चर्यजनक है।
यह बात खास तौर से उल्लेखनीय है कि लेख नं० ५४ में प्रार्य नागहस्ति धस्तु हस्ति और मंगहस्ति का तथा लेख नं०५५ में नागहस्ति (हस्त हस्ति) और माघ हस्ति का एक साथ उल्लेख है। माघहस्ति सभवत: मंगू मंख या मंक्ष का नामान्तर हो, और शिल्पी की असावधानी से ऐसा उत्कीर्ण हो गया हो। दोनों लेखों में दोनों का एक साथ उल्लेख होना अपना खास महत्व रखता है।
पर इससे यतिवृषभ को और पहले का विद्वान मानना होगा। तब इस समय के साथ उनकी संगति ठीक बैठ सकेगी। यतिवषभ का वर्तमान समय ५वीं शताब्दी तो तिलोयपण्णत्ती के कारण है। प्राचीन तिलोयपण्णत्ती के मिल जाने पर उस पर विचार किया जा सकता है।
मुनि सर्वनन्दी (प्राकृतलोक विभाग के कर्ता) मुनि सर्वनन्दी विक्रम को छठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान् थे । और प्राकृत भाषा के अच्छे विद्वान थे। उनकी एक मात्र कृति 'लोकविभाग का उल्लेख तिलोयपण्णत्ती में पाया जाता है। परन्तु निश्चय पूर्वक यह कहना कठिन है कि जिस लोक विभाग का उल्लेख तिलोयपण्णत्ती कार' ने किया है वह इन्ही सवनन्दी का रचना है । सिहसरि ने इसका संस्कृत में अनुवाद किया है। उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्य से ज्ञात होता है कि सर्वनन्दी ने उसे शक
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
१२३
सं० ३८० (वि० सं० ५१५) में कांची नरेश सिंहवर्मा के २२वें संवत्सर में, जब उत्तराषाढ़ नक्षत्र में शनैश्चर, वृषभ में वृहस्पति, और उत्तरा फाल्गनि में चन्द्रमा अवस्थित था, तथा शुक्ल पक्ष था। पाणराष्ट्र के पाटलिक ग्राम में पूराकाल में सर्वनन्दि ने लोक विभाग की रचना की थी। सिंह वर्मा पल्लव वंश के राजा थे। और कॉची उनकी राजधानी थी। संस्कृत लोक विभाग के वे प्रशस्ति पद्य इस प्रकार है :
वैश्वे स्थिते रविसुते वृषभे च जीवे । राजोत्तरेषु सितपक्ष मुपेत्य चन्द्रे । ग्रामे च पाटलिक नामनि पाणराष्ट्र, शास्त्र पुरालिखितवान्मुनि सर्वनन्दी। संवत्सरेतु द्वाविशे काञ्चीश-सिह वर्मणः
प्रशीत्यग्रेशकाब्दानां सिद्धमेतच्छत त्रये ॥४॥ तिलोयपण्णत्ती में 'लोक विभागाइरिया' वाक्य के साथ सर्वनन्दी के अभिमत का उल्लेख किया गया है।
आचार्य यतिवृषभ यह आर्य मंच के शिष्य और नागहस्ति क्षमाश्रमण के अन्तेवासी थे ।' उक्त दोनों प्राचार्यों को कसाय पाहुड की गाथा आचार्य परम्परा से प्राती हुई प्राप्त हुई थीं। और जिनका उन्हें अच्छा परिज्ञान था। यतिवृषभ ने उक्त दोनों गुरुपों के समीप गुणधराचार्य के कसाय पाहड सूत को उन गाथाओं का अध्ययन किया, और वह उनके रहस्य से परिचित हो गया था। अतएव उसने उन सूत्र गाथाओं का सम्यक अर्थ अवधारण करके उन पर सर्वप्रथम छह हजार चणि-सूत्रों की रचना को । प्राचार्य वीरसेन ने उन्हें 'वृति सूत्र' का कर्ता बतलाया है। और उन से वर भी चाहा है। जिनकी रचना संक्षिप्त हो और जिनमें सूत्र के समस्त अर्थों का संग्रह किया गया हो, सूत्रों के ऐसे विवरण को वृत्ति सूत्र कहते हैं।
चूणि-सूत्रों के अध्ययन करने से जहां आचार्य यति वृषभ के अगाध पाण्डित्य और विशाल आगम ज्ञान का का पता चलता है। वहां उनकी स्पष्टवादिता का भी बोध होता है। चारित्र मोह क्षपणा अधिकार में क्षपक की प्ररूपणा करते हुए यव मध्य की प्ररूपणा करना आवश्यक था। पर वहां यव मध्य प्ररूपणा करने का उन्हें ध्यान नहीं रहा, किन्तु प्रकरण की समाप्ति पर चर्णिकार लिखते हैं-"जब मज्झं कायव्वं, विस्तरिदं लिहिदू (स. ९७६, प०८४०)। यहां पर यव मध्य की प्ररूपणा करना चाहिए थी। किन्तु पहले क्षपण-प्रायोग्य प्ररूपणा के अवसर में हम लिखना भूल गए । यह प्राचार्य यति वृषभ की स्पष्टवादिता और वीतराग वृत्ति का निर्देशन है।
-
--
१. जो अज्ज मंख मीमो अंतवागी वि रणागहत्यिस्स । जय ध० पु० १ १०४
२. पुगो तायो चेव मुत्त गाहाओ आइग्यि परंपराग पागच्छमारणीओ अज्जमखू णागहत्थीणं पत्ताओ। पुरणो तेसि दोण्हं पिपाद भूने असीदिसद गाहाणं गुणहरमुहक मलविणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवसहभडारएण पवयरणवच्छलेण चुणि सुत्तं कयं ।'-(जय० पु०१ पृ०८८)
३. "पार्वे तयोर्डयोग्प्यधीत्य सूत्राणि तानि यतिवृषभः ।
यतिवृषभनामधेयो बभूवशास्त्रार्थनिपुणमतिः ।। तेन ततो यतिपतिना तद गाथा वृत्ति सूत्ररूपेण ।
रचितानि षट् सहवग्रन्थान्यथचूगिगसूत्राणि ।" -इन्द्रनन्दि श्रुतावतार-१५५, १५६ ४. 'मो वित्ति सुत्त कत्ता जइवमहा में बरं देऊ ॥' -(जय० ध० पु०१ पृ० ४) ५. सुत्तम्पेव विवरणाए सवित्त सदरयणाए संगहिय मुत्तासे सत्थाए वित्ति सुत्तववएसादो ।। जयधवला अ० ५० ५२
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग - २
जय धवलाकार प्राचार्य यतिवृषभ के वचनों को राग-द्वेष-मोह का अभाव होने से प्रमाण मानते हैं । यति वृषभ की वीतरागता और उनके वचनों के भगवान महावीर की दिव्यध्वनि के साथ एकरसता ' बतलाने से यह स्पष्ट है कि प्राचार्य परम्परा में यतिवृषभ के व्यक्तित्व के प्रति कितना समादर और महान प्रतिष्ठा का बोध होता है।
१२४
आचार्य यति वृषभ विशेषावश्यक के कर्ता जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण और पूज्यपाद से पूर्ववर्ती है । क्यों कि उन्होंने यतिवृषभ के प्रादेसकसाय विषयक मत का उल्लेख किया है। चूर्णि सूत्रकार ने लिखा है कि- 'आदेस कसाण जहा चित्त कम्मे लिहिदो कोहो रूसिदो तिवलिद णिडालो भिउडि काऊण ।' यह कसाय पाहुड के पेज्जदोस वित्ती नामक प्रथम अधिकार का ५६वाँ सूत्र है । इसमें बताया है कि क्रोध के कारण जिसकी भृकुटि चढ़ी हुई है और ललाट पर तीन वली पड़ी हुई हैं, ऐसे क्रोधी मनुष्य का चित्र में लिखित प्रकार आदेशकषाय है । किन्तु विशेषावश्यक भाष्यकार कहते हैं कि अन्तरंग में कषाय का उदय न होने पर भी नाटक आदि में केवल अभिनय के लिये जो कृत्रिम क्रोध प्रकट करते हुए क्रोधी पुरुष का स्वांग धारण किया जाता है, वह आदेश कषाय है । इस तरह से प्रदेश कषाय का स्वरूप बतलाते हुए भाष्यकार कसाय पाहुडचूर्णि में निर्दिष्ट स्वरूप का 'केई' शब्द द्वारा उल्लेख करते हैं
प्रासो कसानो कइयव कय भिउडि भंगुराकारो । केई चित्ता गइश्रो ठवणा णत्थंतरो सोऽयं ॥ २६८१
इसमें बताया है कि - कितने ही प्राचार्य क्रोधी के चित्रादि गत आकार को प्रदेशकषाय कहते हैं, परन्तु यह स्थापना कषाय से भिन्न नहीं है, इसलिये नाटकादि नकली क्रोधी के स्वांग को ही आदेशकषाय मानना चाहिये ।
श्राचार्य यतिवृषभ का पूज्यपाद (देवनन्दी) से पूर्ववर्तित्व होने का कारण यह है कि पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में एक मत विशेष का उल्लेख किया है।
'श्रथवा एषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादशभागा न दत्ता ।'
( सर्वा० सि० १ पृ० ३७, पाद टिप्पण ) जिन आचार्यों के मत से सासादन गुण स्थानवर्ती जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता है, उनके मत की अपेक्षा वारह वेद चौदह भाग स्पर्शन क्षेत्र नहीं कहा गया है।
सासादन गुण स्थानवर्ती जीव यदि मरण करता है तो वह एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता, किन्तु नियम से देव होता है जैसा कि यतिवृषभ के निम्न चूर्णिसूत्र से स्पष्ट है
:
श्रासाणं पुण गदो जदि मरदि, ण सक्को णिरयर्गदं तिरिक्खर्गाद मणुसगदि वा गंतु । णियमा देव गदि गच्छदि । (कसा० अधि० १४ सूत्र १४४ पृ० ७२७ ) आचार्य यतिवृषभ के इस मत का उल्लेख नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने लब्धिसार-क्षपणासार की निम्न गाथा में किया है :
:
जदि मरदि सासणो सो णिरय-तिरिक्खं परं ण गच्छेदि । णियमा देवं गच्छदि जइवसह मुणिदवयणेणं ॥
इस कथन से स्पष्ट है कि यतिवृषभ पूज्यपाद के पूर्ववर्ती हैं। पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दिने वि० सं० ५२६ में द्रविड संघ की स्थापना की थी । अतः यतिवृषभ का समय ५२६ से पूर्ववर्ती है । अर्थात् वे ५वीं शताब्दी के विद्वान है ।
१. एदम्हादो विउलगिरिमत्थयत्थं वड्ढमाण दिवायरादो विणिग्गमिय गोदमलोहज्जजम्बुमामियादिआइरियपरंपराए प्रागंतू गुणहराइरियं पाविय गाहासरूवेण परिणमिय अज्जमंखू नागहत्थीहिंतो जावसह मुह णिमिय चुण्णिमुत्तायारेण परिणददिव्वणि किरणादो णव्वदे । - जय धव० भा० १ प्रस्ता० टि० पृ० ४६
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
१२५ यतिवृषभ की दूसरी रचना 'तिलोयपण्णत्तो' है। इसके अन्त में दो गाथाएं निम्न प्रकार पाई जाती है। जिनवर-वृषभ को, गुणों में श्रेष्ठ गणधर-वृषभ को, तथा परिषहों को सहन करने वाले और धर्मसूत्रों के पाठकों में श्रेष्ठ ऐसे यतिवृषभ को नमस्कार करो। चणिस्वरूप और पट्करणस्व रूप का जितना प्रमाण है त्रिलोकप्रज्ञप्ति का उतना ही, आठ हजार श्लोक प्रमाण है।
पणमह जिणवर वसहं गणहर वसह तहेव गुणहर वसह । दहण परिसवसहं जदिवसहं धम्मसुत्त पाढर बसह ।। चुणि सरूवत्थ करण सरूव पमाण होइ कि जत्त ।
प्रट्रसहस्म पमाण तिलोयपण्णांत्तणामाए ॥८१ इससे स्पष्ट है कि तिलोयपण्णत्ति के कर्ता और चूणि सूत्रों के कर्ता प्रस्तुत यतिवृपभ ही है। जिनका उल्लेख इन्द्रनन्दि ने किया है।
तिलोयपण्णत्ति एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, उसमें महावीर के बाद के इतिहास की बहुत सो सामग्री दो हुई है जो काल गणना (श्रुत परम्परा-राजवश गणना) दी है वह प्रामाणिक है । उसे यहा संक्षेप में दिया जाता है, पश्चाद्वर्ती ग्रन्थकारों ने उसका अनुसरण किया है।
___ जिस दिन भगवान महावीर का निर्वाण (मोक्ष) हुअा, उमो दिन गौतम गणधर को केवलज्ञान हुआ, मोर उनके सिद्ध होने पर सुधर्मस्वामी केवलो हुए। उनके मुक्त होने पर जबूस्वामी कंवलो हुए। जंबूस्वामा कं मोक्ष जाने के बाद कोई अनुबद्ध केवली नही हुअा। इनका धर्मप्रवर्तन काल ६२ वर्ष है।
केवलज्ञानियों में अतिम श्रीधर हए, जो कुण्डलगिरि मे मुक्त हाए। अोर चारण ऋपियों में अन्तिम सूपावचन्द्र हए। प्रज्ञाश्रमणों में अन्तिम वइरजस या वज्रयश, और अवधिज्ञानियों में अन्तिम श्री नामक ऋषि और मुकुटधर राजाओं में अन्तिम चन्द्रगुप्त ने जिन दीक्षा ली। इसके बाद कोई मुकुटधर राजा ने दीक्षा ग्रहण नहीं की।
नन्दि (विष्णु नन्दि) नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पाच चौदह पूर्वी और बारह अंगों के धारण करने वाले हुए। इनका समय सौ वर्प है। इनके वाद ओर काई श्रुत केवलो नहीं हुआ।
विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिमेन, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और सुधर्म (धर्मसेन) ये ग्यारह अंग और दश पूर्व के धारी हुए। परम्परा से प्राप्त इन सबका काल १८३ वर्ष है।
नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्र वसेन, प्रोर कस ये पांच प्राचायं ग्यारह अग के धारी हुए, इनका काल २२० वर्ष होता है । इनके बाद भरत क्षेत्र में कोई अगों का धारक नही हमा।
सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये प्राचाराग के धारक हुए। इनके अतिरिक्त शेष ग्यारह अग चौदह पूर्व के एक देश धारक थे। इनके पश्चात् भरत क्षेत्र में काई प्राचारांगधारी नहीं हुमा।
राज्यकाल गणना का भी उल्लेख किया है। यद्यपि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती में कुछ प्रश प्रक्षिप्त है। जिसके लिये उसकी प्राचीन प्रतियों का अन्वेषण आवश्यक है। फिर भी उपलब्ध सस्करण की प्टि काल ५वीं शताब्दी का मानने में कोई हानि नहीं है। विषय वर्णन को दष्टि से ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी ह। यतिवषभ के सामने कितना ही प्राचीन साहित्य रहा है, जो अब अनुपलब्ध है।
सिद्धनन्दी यह मूलसंघ कनकोपल संभूत वृक्ष मूलगुणान्वय के विद्वान् थे। जैसा कि शिलालेख के निम्न पद्य से प्रकट है :
कनकोपलसम्भूत वृक्षमूलगुणान्वये । भूतस्स समग्र राद्धान्तः सिद्धिनन्दि मुनीश्वरः ।।
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
इनके प्रथम शिष्य का नाम चिकार्य था । जिनके नागदेव और जिननन्दि आदि पांच सौ ५०० शिष्य थे । पुलकेशी ( प्रथम ) चालुक्य के सामन्त सामियार थे, जो कुहण्डी जिले का शासक था, उसने अलक्तक नगर में, जो उस जिले के ७०० सात सौ गांवों के समूहों में एक प्रधान नगर था, एक जिन मन्दिर बनवाया, और राजा की आज्ञा लेकर विभव संवत्सर में जबकि शक वर्ष ४११ (वि० सं० ५४६) व्यतीत हो चुका था वैशाख महीने की पूर्णिमा के दिन चन्द्र ग्रहण के अवसर पर कुछ जमीन और गांव प्रदान किये ।
सिद्धिनन्दि का उल्लेख शाकटायन व्याकरण के सूत्र पाठ में मिलता है । इससे यह यापनीय सम्प्रदाय के विद्वान जान पड़ते है ।
१२६
पुलकेशी प्रथम के शक सं० ४११ के दानपात्र में सिद्धिनन्दि का उल्लेख है ।" प्रतएव इनका समय शक सं० ४११ सन् ४८८ तथा विक्रम सं० ५४६ है ।
चितकाचार्य
।
यह मूल संघ कनकोपलाम्नाय के विद्वान प्राचार्य सिद्धनन्दि मुनीश्वर के प्रथम शिष्य थे। यह उक्त आम्नाय में बहुत प्रसिद्ध थे। और नागदेव चितकाचार्य द्वारा दीक्षित थे । अर्थात् नितकाचार्य उनके दीक्षा गुरु थे 1 नागदेव के गुरु जिननन्दि थे जैसा कि अल्तम शिलालेख के निम्न पद्यों से जाना जाता है :तस्यासीत् प्रथम शिष्यो देवताविनुतक्रमः । शिष्यैः पञ्चशतं युक्तश्चितकाचार्यदीक्षितः ॥ नागदेव गुरोरिशष्यः प्रभूतगुणवारिधिः । समस्तशास्त्र सम्बोधी जिननन्दि प्रकीर्तितः ॥
(जैन लेख सं० भा० २ पृ० ७७ )
सिद्धिनन्दि मुनिराज का समय ईसा की ५वीं सदी ४८८ ई० है । अतः चितकाचार्य का समय भी ईसा की पांचवीं और विक्रम की छठी शताब्दी का पूर्वार्ध होना चाहिए ।
वजूनन्दि
नन्दि- देवनन्दि ( पूज्यपाद) के शिष्य थे। बड़े विद्वान थे। इन्होंने दर्शनसार के अनुसार मं० ५२६ में द्रविड़ संघ की स्थापना की थी। देवमेन ने दर्शनसार में उन्हें जैनाभास बतलाया है और लिखा है कि--" उसने स्वत, वसति ( जैन मन्दिर) और वाणिज्य मे जीविका निर्वाह करते हुए और शीतल जल से स्नान करते प्रचुर पाप का संग्रह किया ।"२
कछार,
हुए
मल्लिपेण प्रशस्ति में वज्रनन्दि के 'नवस्तोत्र' नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया गया है, जिसमें सारे ग्रहत्प्रवचन को अन्तर्भुक्त किया गया है और जिसकी रचना शैली बहुत सुन्दर है :
१. देखो, इं० ए० जि० ७ पृष्ठ० २०५ १७ तथा जैन लेख संग्रह भाग २ अल्तेम का लेख नं० १०६ पृ० ८५ २. सिरिपुज्जपाद मीमो दाविडमंघस्स कारगो दुट्ठो ।
णामेण वज्जणदी पाहुडवेदी महासत्तो ॥
पंचमये छवीमे विक्कमरायम्स मरण पत्तस्स ।
दक्oिण महरा - जादो दाविड सघो महामोहो || दर्शनमार
अर्थात विक्रम राजा के ५२६ वर्ष बीतने पर द्राविड सघ की स्थापना की ।
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी मे आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
१२७
नवस्तोत्रं तत्र प्रसरति कवीन्द्राः कथमपि प्रमाणं वज्रादौ रचयत परन्निदिनि मुनी नवस्तोत्र येन व्यरचि सकलाहतप्रवचन
प्रपंचान्तर्भाव प्रवणवर सन्दर्भ सुभगम् ॥११॥ पुन्नाट संघी जिनसेन ने हरिवंश पुराण में वज्रसूरि की स्तुति करते हुए लिखा है
वज्रसूरे विचारण्यः सहेत्वोर्बन्धमोक्षयोः ।
प्रमाणं धर्मशास्त्राणं प्रवक्तृणामिवोक्तयः॥३॥ अर्थात् वज्रसूरि को सहेतुक बन्ध-मोक्ष की विचारणा में धर्मशास्त्रों के प्रवक्ताओं की---गणधरदेवों की उक्तियों के समान प्रमाणभूत है। इससे स्पष्ट है कि उनके किसी ऐसे ग्रन्थ की प्रोर संकेत है जिसमें बन्ध मोक्ष उनके कारण राग-द्वेष तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादि की चर्चा है । महाकवि धवल ने भी अपने हरिवंश पराण में लिखा है कि
बज्जसूरि सुपसिद्धउ मुणिवरु, जेण पमाणगंथु किउ चंगउ । वज्रसूरि नाम के सुप्रसिद्ध मुनिवर हुए जिन्होंने सुन्दर प्रमाण ग्रन्थ बन.या। वज्रनन्दी और वज्रमूरि दोनों विद्वान यदि एक हैं तो नवस्तोत्र के अतिरिक्त उनका कोई प्रमाण ग्रन्थ भी होगा। जिनमेन तो उन्हें गणघर देवों के समान प्रामाणिक मानते हैं। और देवसेन ने उन्हें जैनाभास बतलाया है।'
नागसेन गुरु नागसेन गुरु-ऋषभसेन के शिष्य थे। जिन्होंने सन्यास विधि से श्रवण बेलगोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर देह त्याग किया था। जिसका श्रवण बेलगोल के शिलालेख नं० २४ (३४) में उल्लेख है। और उसमें महत्व के सात विशेषणों के साथ उनकी स्तुति को लिये हुए निम्न श्लोक दिया हुआ है :
नागसेनमनघं गुणाधिकं नाग नामकजितारि मंडलं ।
राज्यपूज्यममलश्रियास्पदं कामदं हतमदं नमयाम्यहं । इस शिलालेख का समय शक सं०६२२ (वि० सं० ७५७) सन् ७०० के लगभग अनुमान किया गया है, परन्तु उसका कोई आधार नहीं दिया।
स्वामी कुमार स्वामी कुमार ने अपना कोई परिचय प्रस्तुत नहीं किया। किन्तु कार्तिकेयानुप्रेक्षा की अन्तिम ४८६ नं० की गाथा में वसू पूज्यसूत-वासु पूज्य, मल्लि और अन्त के तीन नेमि, पाश्वं प्रौर वर्द्धमान ऐसे पाँच कमार श्रमण तीर्थकरों की वन्दना की गई है। जिन्होंने कूमारावस्था में ही जिन दीक्षा लेकर तपश्चरण किया है और जो तीन लोक के प्रधान स्वामी है। इससे यह बात निश्चित होती है कि प्रस्तुत ग्रन्थाकार कुमार श्रमण थे, बाल ब्रह्मचारी थे । और उन्होंने बाल्यावस्था में ही जिन दीक्षा लेकर तपश्चरण किया है। इसी से उन्होंने अपने को विशेष रूप में इष्ट पांच कूमार तीर्थकरों की स्तुति की है।
स्वामि-शब्द का व्यवहार दक्षिण देश में अधिक प्रचलित है और वह व्यक्ति विशेषों के साथ उनकी प्रतिष्ठा का द्योतक होता है। कुमारसेन कुमार नन्दी और कुमार स्वामी जैसे नामधारी आचार्य दक्षिण देश में हुए
१. देखो, दर्शनसार गाथा २७
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
जैन धर्म का प्रचीन इतिहास-भाग २
हैं । दक्षिण देश में प्राचीन समय से क्षेत्रपाल की पूजा का प्रचार रहा है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा को गाथा नं० २५ में 'क्षेत्रपाल' का स्पष्ट नामोल्लेख है और उगके विषय में फैली हई रक्षा सम्बन्धो मिथ्या धारणा का प्रतिषेध किया है। इससे लगता है कि ग्रन्थकार कुमार स्वामी दक्षिण देश के विद्वान थे। डा० ए० एन० उपाध्ये का यह अनुमान सही प्रतीत होता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में ४८६ गाथाओं में द्वादश भावनाओं का मून्दर विवेचन किया गया है। भावनाओं का क्रम गद्धपिच्छाचार्य के तत्त्वार्थ सूत्रानुसार ही है। जैसा कि दोनों के उद्धरण गे स्पष्ट है :
प्रद्धवमसरणमेगत्रमण्ण-संसार-लोगमसुचित्तं । पासव-सवर-णिज्जर-धम्मं वोहि च चितेज्जो॥
-वारस अणुवेक्खा अनित्याऽशरण - ससारकत्वाऽन्यत्वाऽशुच्याऽऽस्रव-संवर-निर्जरा-लोक-बोधिदुर्लभ-धर्मस्याख्यातत्त्वानुचिन्तन मनुप्रेक्षाः। - तत्त्वार्थ सूत्र ६-७
प्रद्धव प्रसरण भणिया संसारामेगण्ण मसूइत्तं ।
आसव-संवरणामा णिज्जर लोयाण पेहाम्रो॥ भावनायों का यह म-भूलाचार, भगवती आराधना और वारम अणवेक्मा में एक ही क्रम पाया जाता है । जव कि तत्त्वार्थ मूत्र और कातिके यानु प्रेक्षा का क्रम उनसे भिन्न एक रूप है। दूसरे भावनाओं के वर्णन के साथ श्रावकाचार का भी सून्दर वर्णन किया है। इससे स्वामी कूमार उमास्वाति (गद्रपिच्छचार्य) के बाद के विद्वान होने चाहिये।
इय जाणिऊण भावह दल्लह-धम्माण भावणा। णिच्चं मण-वयण-काय-सुद्धी एदा दस दोय भणिया है।
जोइन्दु
जोइन्द (योगीन्द्र देव)-यह अध्यात्मवादी कवि थे। उनकी कृतियों में आत्मानुभूति का रस है। यह अपभ्रश भाषा के विद्वान थे। जोइन्दु का संस्कृत रूपान्तर गलत रूप में योगीन्द्र प्रचलित हैं। किन्तु योगसार में 'जोगिचन्द्र' नाम का उल्लेख है :
संसारह भय-भीयएण, जोगिचन्द मुणिएण ।
प्रप्पा संबोहणकया दोहा इक्क-मणेण ॥१०॥ डा० ए० एन० उपाध्ये के अनुसार 'योगेन्दु' पाठ है, जो योगिचन्द्र का समानार्थक है । यह अध्यात्म रस के रसज्ञ थे। प्राकृत-संस्कृत के विद्वान न होते हुए भी उनकी रचना सरल अपभ्रंश में है। जोइन्दु की निम्न रचनाय उपलब्ध है। परमात्मप्रकाश, योगसार, निजात्माष्टक और अमृताशीति । ये सभी रचनाये अध्यात्मवाद के गूढ़ रहस्य से युक्त हैं।
परमात्म प्रकाश-इस ग्रन्थ में टीकाकार ब्रह्मदेव के अनुसार ३४५ पद्य हैं। दो अधिकार हैं, उनमें पांच प्राकृत गाथाएं, एक स्रग्धरा, एक मालिनी, और एक चतुप्पदिका है। यद्यपि परमात्मप्रकाश में दोहे का कोई उल्लेख नही है। किन्तु योगसार में दोहा शब्द का उल्लेख मिलता है । दोहे में दोनों पक्तियाँ समान होती हैं और प्रत्येक पंक्ति में दो चरण होते हैं। प्रथम चरण में १३ और दूसरे में ११ मात्रायें होती हैं। विरहांक और हेमचन्द्र के अनुसार दोहे में १४ और १२ मात्राएं होती हैं; किन्तु परमात्म प्रकाश के दोहों म दीर्घ उच्चारण करने पर भी प्रथम चरण में १३ मात्राएं पाई जाती हैं और दूसरे में ग्यारह ।
ग्रन्थ के प्रथम अधिकार में पंच परमेष्ठियों को नमस्कार करने के बाद प्रात्मा के तीन भेदों का.-बहि
१. दो पाया भण्णड दुनिहड, विग्हाँक
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवी शताब्दी से आठवीं शताब्दी के आचार्य
१२६ रात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का स्वरूप बतलाया गया है। प्रात्मा के विद्य की यह चर्चा प्राचार्य कून्दकून्द के ग्रन्थों, और पूज्यपाद देवनन्दी के ग्रन्थों से ली गई है। और उनका विस्तृत स्वरूप भी दिया है। बहिरात्मा अवस्था को छोड़ कर अन्तरात्मा होकर परमात्मा होने की प्रेरणा की है। परमात्मा के सकल-विकल भेदों का स्वरूप ३४ दोहों में दिया गया है। जीव के स्वशरीर प्रमाण होने की चर्चा, द्रव्य-गुण, पर्याय, कर्म, निश्चय नय सम्यक्त्व और मिथ्यात्वादि का वर्णन किया गया है।
दूसरे अधिकार में मोक्ष का स्वरूप मोक्ष का फल, मोक्ष मार्ग, अभेद रत्नत्रय, समभाव पुण्य-पाप की समानता और परम समाधि का कथन दिया हुआ है। परमात्म प्रकाश के दोहा अत्यन्त सुन्दर, रमणीय और शुद्ध स्वरूप के निरूपक हैं, उनके पढ़ने में मन रम जाता है, क्योंकि वे सरस और भावपूर्ण हैं।
रहस्यवाद-मुनि जोगचन्द ने आध्यात्मिक गूढ़वाद और नैतिक उपदेशों को सहज ढंग में व्यक्त किया है। उन्होंने अपने पद्यों में योगियों को अनेक बार सम्बोधित किया है, और गृह निवास को पाप निवास भी बतलाया है। परमात्म प्रकाश के दोहों में गूढ़ वादियों के सदश कहीं अस्पष्टता का प्राभास नहीं होता। उन्होंने पंचेन्द्रियों को जीतने और विषयों से पराङ्ग मुख रहने, अथवा उनका त्याग कर आत्म-साधना करने का स्पष्ट संकेत किया है। मानव देह पाकर जिन्होंने जीवन को विषय-कषायों में लगाया, और काम-कोधादि विभाव भावों का परित्याग न कर, वीतराग परम आनन्द रूप अमृत पाकर भी अनशनादि तप का अनुष्ठान नहीं किया, वे प्रात्मघाती हैं, क्योंकि ध्यान की गति महा विषम है। चित्तरूपी बन्दर के चंचल होने से शुद्धात्मा में स्थिरता प्राप्त नहीं हो सकती, और ध्यान की स्थिरता के अभाव में तो कर्म कलंक का विनाश नहीं होता। तब शुद्धात्मा की प्राप्ति कैसे हो सकती है ?
योगीन्द्र देव जैन गूढवादी हैं, उनकी विशाल दृष्टि ने ग्रन्थ में विशालता ला दी है, अतएव उनका कथन साम्प्रदायिक व्यामोह से अलिप्त है। उनमें बौद्धिक सहन-शीलता कम नहीं है। वेदान्त में आत्मा को सर्वगत माना है, और मीमांसक मुक्तावस्था में ज्ञान नहीं मानते । बौद्धों का कहना है कि वहां शून्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। योगीन्द्र देव इन मतभेदों से पाकुलित नहीं होते। क्योंकि उन्होंने अध्यात्म के प्रकाश में नयों की सहायता से शांकिक जाल का भेदन किया है और परमात्मस्वरूप की निश्चित रूप-रेखा स्वीकृत की है, वह मौलिक है। वे परमात्मा को जिन, ब्रह्म, शान्त, शिव और बुद्ध आदि संज्ञायें देते हैं । उन्होंने परमात्मस्वरूप के प्रकाशित करने का यथेष्ट उद्यम किया है। और अन्त में मोक्ष और मोक्ष का फल बतलाया है। वस्तु के स्वरूप वर्णन में उनकी दृष्टि विमल रही है। उनके दो चार दोहों का भी प्रास्वाद कीजिये, वे सुन्दर भावपूर्ण और सरस हैं ।
जो समभाव-परिट्ठियहं जो इहं कोई पुरेइ ।
परमाणंदु जणंतु फुड सो परमप्पु हवेई ॥१-३५ जो योगी समभाव में जीवन-मरण-लाभ-अलाभ सुख-दुख, शत्र और मित्रादि में समरूप परिणत है, और परम आनन्द को प्रकट करता है वही परमात्मा है।
भवतणु-भोय-विरत्त-मणु जो अप्पा झाएह ।
तासु गुरुक्की वेल्लड़ी संसारिणी तुझे इ॥१--३२ जो जीव संसार, शरीर, भोगों से विरक्त मन हुआ शुद्धात्मा का चिन्तवन करता है उसको संसार रूपी मोटी बेल नाश को प्राप्त हो जाती है।
कम्म-णिबद्ध वि जोइया देह वसंतु वि जोजि।
होइ ण सयलु कया वि फुड मुणि परमप्पउ सो जि ॥१-३६।। हे योगी ! यद्यपि प्रात्मा कर्मों से सम्बद्ध है, और देह में रहता भी है परन्तु फिर भी वह कभी देह रूप नहीं होता, उसी को तू परमात्मा जान ।
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
देह - विभिष्णउ णाणमउ जो परमप्पु थिए ।
परम समाधि - परिट्टियउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥१ – १४ ॥
जो पुरुष परमात्मा को देह से भिन्न ज्ञानमय जानता है, वही समाधि में स्थित हुआ पंडित है - प्रन्तरात्मा
विवेकी है !
जित् ण इंदिय- सुह-दुहइँ जित्थु ण मण-वावारु |
सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ झण्ण परि श्रवहारु ॥ १ - २८ ॥
जिस शुद्ध आत्म-स्वभाव में इन्द्रिय जनित सुख-दुख नहीं हैं, और जिसमें संकल्प - विकल्प रूप मन का व्यापार नहीं है, है जीव ! उसे तू आत्मा मान, और अन्य विभावों का परित्याग कर ।
इस तरह परमात्म प्रकाश के सभी दोहा आत्म स्वरूप के सम्बोधक तथा परमात्मा स्वरूप के निर्देशक हैं । इनके मनन और चिन्तन से आत्मा आनन्द को प्राप्त होता है ।
योगसार - में १०८ दोहा हैं जिनमें अध्यात्म दृष्टि से आत्मस्वरूप का सुन्दर विवेचन किया गया है। दोहा सरस और सरल हैं । और वस्तु स्वरूप के निर्देशक हैं। यथा
प्राउ गलइ गवि मण, गलइ गवि साहु गलेइ ।
मोह फुरइ नवि प्रप्यहिउ इम संसार भमेइ ॥ ४९
युगल जाती है, पर मन नही गलता और न आशा ही गलती, मोह स्फुरित होता है, पर श्रात्महित का स्फुरण नहीं होता - इस तरह जीव संसार में भ्रमण किया करता है ।
धंध पडियउ समलु जगि नवि श्रप्पा हु मुणंति । तहि कारण ए जीव फुडु णहु निव्वाण लहंति ॥५
संसार के सभी जीव धंधे में फंसे हुए हैं, इस कारण वे अपनी प्रात्मा को नहीं पहिचानते । श्रतएव वे निर्वाण को नहीं पा सकते । इस तरह योगसार ग्रन्थ भी आत्म सम्बोधक है। इसका अध्ययन करने से आत्मा अपने स्वरूप की ओर सन्मुख हो जाता है ।
अमृताशीति - यह एक उपदेश प्रद रचना । इसमें विभिन्न छन्दों के ८२ पद्य हैं। उनमें जैन धर्म के अनेक विषयों की चर्चा की गई है । यथापि पद्मप्रभमलधारि देव ने नियमसार की टीका में योगीन्द्रदेव के नाम से जो पद्य उद्धृत किया है, वह अमृताशीति में नहीं मिलता। अतएव पं० नाथूराम जी प्रेमी का अनुमान है कि वह पद्य उनके अध्यात्मसन्दोह ग्रन्थ का होगा ।
निजात्माष्टक - यह माठ पद्यात्मक एक स्तोत्र है। इसकी भाषा प्राकृत है जिनमें सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप बतलाया गया है । पर किसी भी पद्य में रचयिता का नाम नहीं है। ऐसी स्थिति में इसे योगीन्द्र देव की रचना कैसे माना जा सकता है। इस सम्बन्ध अन्य प्रमाणों की आवश्यकता है। इसका कहीं अन्यत्र उल्लेख भी मेरे अवलोकन में नहीं श्राया । सम्भव है वह इन्हीं की रचना हो, अथवा अन्य किसी की ।
योगेन्दु का समय
योगेन्दु के परमात्म प्रकाश पर ब्रह्मदेव और बालचन्द की टीकायें उपलब्ध हैं । बालचन्द्र की टीका पर ब्रह्मदेव का प्रभाव है, इस कारण बालचन्द्र ब्रह्मदेव के बाद के विद्वान हैं । ब्रह्मदेव का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का उपान्त्य है । जयसेन भी उनसे बाद के विद्वान हैं, क्योंकि जयसेन ने उनकी वह द्रव्य संग्रह की टीका का उल्लेख किया है । पं० कैलाशचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री राजा भोज के समय द्रव्यसंग्रह की टीका का वर्तमान होना मानते हैं, जो १२ शताब्दी का प्रारम्भ है ।
योगेन्दु ने परमात्म प्रकाश में प्राचार्य कुन्दकुन्द और पूज्यपाद ( ईसा की ५वीं सदी) के विचारों को निबद्ध किया है। अतएव उनका समय ईसा की छठी शताब्दी हो सकता है। डा० ए० एन० उपाध्ये ने अपनी परमात्म प्रकाश की प्रस्तावना में जोइन्दु का समय ईसा की छठी शताब्दी माना है; क्योंकि गुणे ने चण्ड के
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवी शताब्दी से आठवी शताब्दी के आचार्य
१३१
व्याकरण के व्यवस्थित रूप का समय ईसा की छठी शताब्दी के बाद. ईसा की सातवी शताब्दी के लगभग रखा जा सकता है ऐसा लिखा है । चण्ड के प्राकृत लक्षण में योगेन्दु का एक दोहा उद्धृत है
काल लहेविणु जोइया जिम जिम मोहु गलेइ।
तिम तिम दसणु लहइ जो णिय में प्रप्पु मुणेइ॥ इस कारण योगेन्दु का समय छठी शताब्दी मानना उपयक्त है। सम्भव है वे छठी के उपान्त्य समय और सातवी के प्रारम्भ समय के विद्वान हों।
पात्रकेसरी पात्रकेसरी-एक ब्राह्मण विद्वान थे, जो अहिच्छत्र' के निवासी थे। यह वेद वेदाग आदि में अत्यन्त निपूण थे। उनके पाच सो विद्वान शिष्य थे, जो अवनिपाल राजा के राज्य कार्य में सहायता करते थे। उन्हें अपने कुल का (ब्राह्मणत्व का) बड़ा अभिमान था। पात्र केसरी प्रातः पीर सायकाल सन्ध्या वन्दनादि नित्य कर्म करते थे और राज्य कार्य को जाते समय कौतुहल वश वहाँ के पार्श्वनाथ दि० मन्दिर में उनकी प्रशान्त मुद्रा का दर्शन करके जाया करते थे।
१. अहिच्छत्र फिसी ममा एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर था। उस पर अनेक वशो के राजाओ ने शासन किगा है। इसके प्राचीन इतिवृत्त पर दृष्टि डालने से इसकी महत्ता का महज ही भान हो जाता है। यह उत्तर पांचाल की गजधानी रहा है। इसका प्राचीन नाम 'सपावती' था, और वह कुरु जागल देश की राजधानी के रूप में प्रगिढ़ था। जब भगवान पार्श्वनाथ यहाँ आये और किमी उच्च शिना पधानाय थे। उस समय कमठ का जीव मवर देवविमान मे कही जा रहा था। उसका विमान इकाइक रुक गया, उमने नीचे उतर कर देखा तो पार्श्वनाथ दिग्वाई पडे । उन्हे देखते ही उमका पूर्व भव का वैर स्मृत हो उठा। पूर्व वैर स्मृत होते ही उसने क्षमाशील पार्श्वनाथ पर घोर उपमग किया, उतनी अधिक वर्षा की कि पानी पार्श्वनाथ की ग्रीवा तक पहुच गया, किन्तु फिर भी पार्श्वनाथ अपने ध्यान से विचलित नही हुए। तभी घरगेन्द्र का आमन कम्पायमान हुआ और उसने अवधिज्ञान में पार्श्वनाथ पर भयानक उसमर्ग होता जानकर तत्काल धरगोन्द्र पद्मावती महित आकर और उन्हे ऊपर उठाकर उनके सिर पर फरण का छत्र तान दिया। उपमर्ग दूर होते ही उन्हे केवलज्ञान प्राप्त हो गया। पाचात् उस मम्बरदेव ने भी उनकी शरण में सम्यकत्व प्राप्त किया और अपमान सौ नास्त्रियों ने भी जिनदीक्षा लेकर आत्म कल्याण किया। उसी समय में यह स्थान अहिच्छत्र नाम से मात हा है। वहा गजा वमुपाल ने महत्र कूट चैत्यालय का निर्माण कराया था। और पार्श्वनाथ को एक सुन्दर सातिशय प्रतिमा की निर्माण कराया था। यह दिगम्बर जैनियो का तीय स्थान है। यहा की खुदाई मे पुरातत्व की मामग्नी भी उपलब्ध हुयी है।
-देवो, उत्तर पाचाल की राजधानी अहिच्छत्र अनेकान्त वर्ष २४ किरण ६ २ (क) विप्रवशाग्नग्गी मूरि पवित्र: पात्रकेमरी। म जीयाज्जिन-पादाब्ज-सेवनकमधुव्रतः ।।
-सुदर्शन चरित्र भूभृत्पदानुवर्ती सन् राजसेवा पगङ्मुखः । सयतोऽपि च मोक्षार्थी भात्यमी पात्रकेमगे।
-नगरतालुका का शिलालेख (ख) निवामे सारसम्पत्ते देशे थी मगधाभिधे ।
अहिच्छत्रे जगचित्र नागर नगरे वरे ॥१८ पुण्यादवनिपालाग्यो गजा गज कलान्वितः । प्रान्तं गज्यं करोत्युच्च विप्रैः पञ्चशतव्रतः ॥१६ विप्रास्ते वेद वेदाङ्ग पारगा: कुलगविताः । कृत्वा सन्ध्या वन्दना द्वये सन्ध्या च निरन्तरम् ।।२० (आराधना कथाकोष)
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
एक दिन उस मन्दिर में चारित्र भूषण नाम के मुनि भगवान पार्श्वनाथ के सन्मुख 'देवागम स्तोत्र' का पाठ कर रहे थे । पात्र केसरी सन्ध्या वन्दनादि कार्य सम्पन्न कर जब वे पार्श्वनाथ मन्दिर में पाए, तब उन्होंने मुनि से पूछा कि आप अभी जिस स्तवन का पाठ कर रहे थे, क्या आप उसका अर्थ भी जानते हैं ? तब मुनि ने कहा मैं इसका अर्थ नहीं जानता । तब पात्र केसरी ने कहा, माप इस स्तोत्र का एक बार पाठ करें। मुनिवर ने पाठ पुनः धीरे-धीरे पढ़ कर सुनाया। पात्र केसरी की धारणा शक्ति बड़ी विलक्षण थी। उन्हें एक बार सुन कर ही स्तोत्रादि कंठस्थ हो जाया करते थे। अतः उन्हें देवागम स्तोत्र कंठस्थ हो गया। वे उसका अर्थ विचारने लगे। उससे प्रतीत हुआ कि भगवान ने जीवादिक पदार्थों का जो स्वरूप कहा है, वह सत्य है । पर अनुमान के सम्बन्ध में उन्हें कुछ सन्देह हुना। वे घर पर सोच ही रहे थे कि पद्मावती देवी का पासन कम्पायमान हया । वह वहां आई और उसने पात्र केसरी से कहा कि प्रापको जैन धर्म के सम्बन्ध में कुछ सन्देह है । आप इसकी चिन्ता न करे। कल प्रापको सब ज्ञात हो जावेगा। वहाँ से पद्मावती देवी पार्श्वनाथ के मन्दिर में गई, और पार्श्वनाथ की मूर्ति के फण पर निम्न श्लोक अंकित किया।
"प्रन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । प्रातः काल जब पात्र केसरी ने पार्श्वनाथ मन्दिर में प्रवेश किया तब वहाँ उन्हें फण पर प्रकित वह श्लोक दिखाई दिया। उन्होंने उसे पढ़ कर उस पर गहरा विचार किया, उसी समय उनको शंका निवृत्त हो गई। और संसार के पदार्थों से उनकी उदासीनता बढ़ गई। उन्होंने विचार किया कि प्रात्महित का साधन वीतराग मद्रा से ही हो सकता है। और वही प्रात्मा का सच्चा स्वरूप है। जैनधर्म में पात्र केसरी की प्रास्था अत्यधिक हो गई। और उन्होंने दिगम्बर मुद्रा धारण कर ली। प्रात्म-साधना करते हुए उन्होंने विभिन्न देशों में विहार किया और जैनधर्म की प्रभावना की।
पात्रकेसरी दर्शन शास्त्र के प्रोढ़ विद्वान थे। उनको दो कृतियों का उल्लेख मिलता है। उनमें पहला ग्रन्थ 'त्रिलक्षण कदर्थन' है । जिसे उन्होंने बौद्धाचार्य दिङ्गनाग द्वारा प्रस्थापित अनुमान-विषयक हेतु के रूप्यात्मक लक्षण का खण्डन करने के लिए बनाया था, इससे हेतु के त्रैमप्य का निरसन हो जाता है। हेतू पक्ष में हो या सपक्ष में हो और विपक्ष में न हो, ये तीन लक्षण बौद्धों ने माने थे । इनके स्थान में 'अन्यथानुपपन्नत्व'-की दूसरे किसी प्रकार से उपपत्ति न होना-यह एक ही लक्षण प्राचार्य ने स्थिर किया। इसकी मुख्यकारिका उन्हें पद्मावती देवा से प्राप्त हुई थी ऐसी माख्यायिका है । बोद्धाचार्य शान्तरक्षित ने तत्त्व संग्रह (१३६४-७६) में इस कारिका के साथ कुछ अन्यकारिकायें भी पात्रस्वामी के नाम से उद्धत की हैं। किन्तु मूलग्रंथ 'त्रिलक्षणकदर्थन इस समय अनुपलब्ध है। पर यह ग्रन्थ बौद्ध विद्वान शान्तिरक्षित और कमलशील के समय उपलब्ध था। और अकलंक देवादि के समय भी रहा था । तत्त्व संग्रहकार शान्तिरक्षित ने पृष्ठ ४०४ में खण्डन करने का प्रयत्न किया है। पात्रकेसरी ने उक्त 'त्रिलक्षणकदर्थन' में हेतु के रूप्य का युक्ति पुरस्सर खण्डन किया था इस कारण यह ग्रंथ एक महत्त्वपूर्ण कृति था।
आपकी दूसरी कृति ५० श्लोकों को लिए हुए एक बहुत छोटी-सी रचना है, जिसका नाम 'जिनेन्द्र गुण संस्तुति' है, और जिसका अपर नाम पात्रकेसरी स्तोत्र प्रसिद्ध है। जो स्तुति ग्रन्थ होते हुए भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें वेद का पुरुष कृत होना, जीव का पुनर्जन्म, सर्वज्ञ का अस्तित्व, जीव का कर्तृत्व, क्षणिकवाद निरसन, ईश्वर का निरसन, मुक्ति का स्वरूप, तथा मुनि का सम्पूर्ण अपरिग्रह व्रत इन दश प्रमुख विषयों का विवेचन दार्शनिक दृष्टि से किया गया है । और अर्हन्त के गुणों को अनेक युक्तियों से पुष्ट किया गया है। इस पर एक अज्ञात कर्तृक संस्कृत टीका भी है।
इससे स्पष्ट है कि प्राचार्य पात्रकेसरी अपने समय के बहुत बड़े विद्वान थे। शिलालेखों में समति या सन्मति देव से पहले पात्रस्वामी का नाम प्राता है। उनका सबसे पुरातन उल्लेख बौद्धाचार्य शान्तिरक्षित का समय (ई०७०५-७६३) है। और कर्णगोमी का समय ७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और ८वीं का पूर्षि है। अतः पात्रस्वामी का समय बौद्धाचार्य दिग्नाग (ई० ४२५) के बाद और शान्ति रक्षित के मध्य होना चाहिए। प्रर्थात
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
१३३
पात्रस्वामी ईसा की छठी शताब्दी के उत्तरार्ध और ७वीं शताब्दी के पूर्वार्घ के विद्वान होना चाहिए।
अनन्तवीर्य अनन्तवीर्य (अतिवृद्ध)--इनका उल्लेख अकलंक देव ने तत्त्वार्थवार्तिक पृष्ठ १५४ में वैक्रियिक और आहारक शरीर में भेद बतलाते हए किया है,-पोर बतलाया है कि-'वैक्रियिक शरीर का क्वचित प्रतिघात भो देखा जाता है। इसके समर्थन में उन्होंने अनन्तवीर्य यति के द्वारा इन्द्र को शक्ति का प्रतिघात करने की घटना का उल्लेख किया है(अनन्त वीर्य यतिना चेन्द्र-वीर्यस्य प्रतिघात श्रुतेः स प्रतिघात सामर्थ्य वैक्रियिकम् ।
(तत्त्वा० वा० पृ० १५४) सम्भवतः इनका समय छठवी-सातवी शताब्दी हो; क्योंकि प्रस्तुत अनन्तवीर्य अकलक देव से तो पूर्ववर्ती हैं ही। अकलंक देव का समय पं० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य ने सिद्धि-विनिश्चय की प्रस्तावना में ई० ७२० से ७८० वि० सं०८३७ सिद्ध किया है।
(देखो, उक्त प्रस्तावना)
मानतुंगाचार्य मानतुगाचार्य-अपने समय के सुयोग्य विद्वान थे। प्रभावक चरित में इनके सम्बन्ध में लिखा है कि यह काशी देश के निवासो पोर धनदेव के पुत्र थे । पहले इन्होंने दिगम्बर मुनि से दीक्षा ली थी, और इनका नाम चारुकीर्ति महाकीर्ति रखा गया । अनन्तर एक श्वेताम्बर सम्प्रदाय को अनुयायिनी श्राविका ने उनके कमण्डल के जल में त्रस जीव बतलाये, जिससे उन्हे दिगम्बर चर्या से विरक्ति हो गया और जितसिह नामक श्वेताम्बराचार्य के निकट दीक्षित होकर श्वेताम्बर साधु हो गए । और उसी अवस्था में भक्तामर की रचना की।
प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने क्रियाकलाप की टीका के अन्तर्गत भक्तामर स्तोत्र टीकाको उत्थानिका में ति
मानतग नाभा सिताम्बरो महाकविः निर्गन्थाचार्यवयरपनीतमहाव्याधि प्रतिपन्न निर्ग्रन्थ मार्गो भगवन कि क्रियतामितिवाणो भगवता परमात्मनो गुणगण स्तोत्र विधीयतामित्यादिष्टः भक्तामरेत्यादि ।"२
__ इसमें कहा गया है कि-मानतुग श्वेताम्बर महाकवि थे। एक दिगम्बराचार्य ने उनको व्याधि से मुक्त कर दिया, इससे उन्होंने दिगम्बर मार्ग ग्रहण कर लिया और पूछा-भगवन् ! अब क्या करूं ? प्राचार्य ने प्राज्ञा दी कि परमात्मा के गुणों का स्तोत्र बनायो, फलतः आदेशानुसार भक्तामर स्तोत्र का प्रणयन किया गया।
इस तरह परस्पर में विरोधी आख्यान उपलब्ध होते हैं । यह विरोध सम्प्रदाय व्यामोह का ही परिणाम है, वस्तुतः मानतुग दोनों ही सम्प्रदायों द्वारा मान्य हैं। इनके समय-सम्बन्ध में भी दो विचार धाराएँ प्रचलित हैं-भोजकालोन और हर्षकालोन । किन्तु ऐतिहासिक विद्वान मानतुंग को स्थिति हर्षवर्धन के समय की मानते हैं । डा० ए० बी० कोथ ने मानतुग को वाण कवि के समकालीन अनुमान किया है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ विद्वान प० नाथूराम प्रेमी ने भा मानतुंग को हर्षकालीन माना है। इस सब कथन पर से भक्तामर' स्तोत्र ७वीं शताब्दी की रचना है।५
१. प्रभावक चरित, सिधी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद तथा कलकत्ता सन् १९४० मानतुग सूरि चरितम् पृ० ११२-११७। २. क्रिया कलार सं० पन्नालाल सोनी दि० जैन सरस्वती भवन झालरापाटन,
वि० स० १६६३ भक्तामर-स्तोत्र की उत्थानिका। ३. ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर, लन्दन १९४१ पृ० २१४-१५ । ४. भक्तामर स्तोत्र, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १९१६ पृ० १२। ५. देवो, म्मारिका, भारतीय जैन माहित्य संमद १६६५ ई०, मानतुग शीर्षक डा० नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य का निबन्ध ।
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ मानतुंग सूरि की दो रचनाएं उपलब्ध हैं। भक्तामरस्तोत्र और भयहर स्तोत्र । इनमें से प्रथम रचना संस्कृत के वसन्त तिलका छन्द में रची गई है । इस स्तोत्र में उसका आदि पद 'भक्तामर' होने से इसका यह नाम
हो गया है। इसी तरह कल्याण मन्दिर पोर विषापहार स्तोत्र भी अपने उक्त आदि पद के कारण कल्याण मन्दिर और विषापहार नामों से ख्यात हैं। भक्तामर स्तोत्र में ४८ पद्य हैं। प्रत्येक पद्य में काव्यत्व रहने के कारण ये ४८ पद्य काव्य कहलाते हैं। किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ४४ पद्य ही माने जाते हैं। इसका कारण यह है कि अशोक वक्ष, सिंहासन, छत्रत्रय गौर तमर इन चार प्रातिहायर्या के बोधक पद्यों को तो ग्रहण कर लिया है। किन्तु पप्पवप्टि, भामण्डल, दुन्दुभि और दिव्यध्वनि इन चार प्रतिहार्यों के ज्ञापक पद्यों को निकाल दिया है। किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय की कुछ पाण्डुलिपियों में श्वेताम्बर मम्प्रदाय द्वारा निष्कासित और प्रतिहार्य सम्बोधक चार नये पद्य और जोड़ दिये हैं। इस कारण पद्यों की कुल संख्या ५२ हो गई है। जो ठीक नही है। वास्तव में इस स्तोत्र में ४८ ही पद्य हैं, जो मुद्रित और हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में मिलते हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय में भक्तामर स्तोत्र के पठन-पाठन का खूब प्रचार है। इस स्तवन में आदि ब्रह्मा आदिनाथ को स्तुति की गई है। इसीलिए इसका नाम आदिनाथ स्तोत्र प्रचलित है।
कवि अपनी नम्रता दिखाते हुये कहता है कि-'हे प्रभो ! अल्पज्ञ ओर बहुश्रु तज्ञ विद्वानों द्वारा हंसी का पात्र होने पर ही तुम्हारी भक्ति ही मुझे मुखर बनाती है। वसन्त में कोकिल स्वयं नहीं बोलना चाहती, प्रत्युत आम्रमंजरी ही उसे बलात् कृजने का निमन्त्रण देती है यथा
अल्प श्रुतं श्रुतवतां परिहासघाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ।
यत्को फिलः किल मधौ मधुरं विरौति तच्चारुचूतकलिकानिकरक हेतुः ।। ६ प्रागे मानतुगाचार्य कहते हैं-कि हे जगत के भूषण ! हे जीवों के नाथ ! आपके यथार्थ गुणों से प्रापका स्तवन करते हये भक्त यदि आपके समान हो जाय तो इसमें कोई पाश्चर्य नहीं है ऐसा होना ही चाहिये। स्वामी का यह कर्तव्य है कि वह अपने सेवक को समान बना ले। नहीं तो उस स्वामी से क्या लाभ है जो अपने ग्राश्रितों को अपने वैभव में अपने समान नहीं बना लेता।
___ कवि अपने आराध्य देव की जितेन्द्रियता का चित्रण करते हुए कहता है कि-प्रलयकाल की वायु से बड़ेकोपर्वत चलायमान हो जाते हैं पर सुमेरु पर्वत जरा भी चलायमान नहीं होता। इसी प्रकार देवांगनाओं के सून्दर
लावण्यको देखकर ऋपि-मूनि देव-दानव प्रादि के चित्त चलायमान हो जाते हैं, पर आपका चित्त रंचमात्र भी विकार यक्त नहीं होता। अतः आप इन्द्रियविजयी होने से महान वोर हैं।
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर्नीतं मनागपि मनो न विका
कल्पान्तकालमरुता चलिता चलेन कि मन्दराद्रिशिखरंचलितं कदाचित ।। १५ कवि आराध्य देव का महत्व ख्यापित करते हए कहता है कि जो आपके इस स्तोत्र का पाठ करता है उसके मत्त हाथी, सिह, वनाग्नि, साँप, युद्ध, समुद्र, जलोदर और बंधन प्रादि से उत्पन्न हुया भय नष्ट हो जाता है मापके भक्त को वध बन्धन जन्य कष्ट नही सहन करना पड़ता। बड़ी से बड़ी बेड़ियां ओर विपत्तियां भी नष्ट हो जाती हैं।
मत्त द्वि पेन्द्रमृगराज दवानलाहि संग्राम वारिधि महोदर बन्धनोत्थम् ।
तस्याशुनाशमुपयाति भयंभियेव यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥ ४७ इम स्तोत्र की रचना इतनी लोकप्रिय रही है कि उसके प्रत्येक पद्य के प्राद्य या अन्तिम चरण को लेकर समस्या पूात्मक स्त्रोत रचे जाते रहे हैं । इस स्तोत्र की महत्ता के सम्बन्ध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं । और अनेक
१. नात्यद्भुतं भवन भूषण ! भृननाथ ! भृतगुण विभवन्तमभिष्टुवन्तः ।
तल्या भवन्ति भवतोननु तेन कि वा, भूत्याश्रितं यदह नात्मसमं करोति ॥
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी के आचार्य
१३५ पद्यानुवाद हिन्दी में रचे गये हैं। संस्कृत में भी पद्यानुवाद तथा अनेक टीकाएं रची गई हैं। यह प्राचीन महत्त्वपूर्ण स्तोत्र है।
__कल्याण मन्दिर स्तोत्र अोर भक्तामर स्तोत्र इन दोनों स्तोत्रों का तुलनात्मक अध्ययन करने से कल्याण मन्दिर की अपेक्षा भक्तमर स्तोत्र में कल्पनामों का नवीनीकरण और चमत्कारात्मक शैली पाई जाती है। भक्तामर स्तोत्र में बतलाया है कि-सूर्य तो दूर रहा, जब उसकी प्रभा ही तालावी में कमलों को विकसित कर देती है उसी प्रकार हे प्रभो ! आपका यह स्त
पके नाम का कथन ही समस्त पापों को दूर कर देता है। जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पाट है :
प्रास्तां तवस्तवनमस्तसमस्तदोष, त्वत्संकथापि जगतां दरतानि हन्ति
दूरे सहस्त्र किरणः कुरते, प्रभव पद्माकरेषु जलजानि विकासभाजि ॥ कल्याण मन्दिर स्तोत्र में बीजरूप उक्त कल्पना का विस्तार पाया जाता है। कवि कहता है कि जब निदाघ (ग्रीष्मकाल) में कमल मे युक्त तालाब की सरसवायू ही तीव्र प्रातार से संतप्त पथिकों की गर्मी से रक्षा करती है, तब जलाशय की वात ही क्या? इसी तरह जव आपका नाम ही संसार के ताप को दूर कर सकता है तब आपके स्तवन की सामर्थ्य का क्या कहना ?
प्रास्तामचिन्त्यमहिमा जिनसंस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति ।
तीवातपोपहतकान्थजनान्निदाधे प्रीणाति पद्यसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७
संभव है कवि ने इसे सामने रखकर कल्याण मन्दिर की रचना की हो। यदि यह कल्पना ठोक है तो कल्याण मन्दिर इसके बाद की रचना होगी।
मानतुग की दूसरी रचना 'भयहर' स्तोत्र है । जो प्राकृत भाषा के २१ पद्यों में रचा गया है और जिसमें भगवान पार्श्वनाथ का स्तवन किया गया है । डा० विण्टरनित्स ने इमका समय ईसा की तीसरी शताब्दी माना है। परन्तु मुनि चतुर विजय ने इनका समय विक्रम की सातवी सदी बनलाया है।
ब्रह्मचारी रायमल्ल कृत 'भक्तामरवृत्ति' में लिखा है कि मानतुंग ने ४८ सांकलों को तो तोड़कर जैन धर्म की प्रभावना की। तथा राजा भोज को जैन धर्म का श्रद्धालु बनाया। दूसरी कथा भट्टारक विश्वभूषण के भक्तामर चरित में है। इसमें भोज, भत हरि, शुभ्रचन्द्र, कालिदास, धनजय, वररुचि और मानतुग को समकालीन लिखा है। जो ऐतिहासिक दृष्टि से चिन्तनीय है ।
मानत्ग को श्वेताम्बर आख्यानों में पहले दिगम्बर और बाद में श्वेताम्बर बतलाया है। इसी परम्परा के आधार पर दिगम्बर लेखकान पहले उन्ह श्वताम्बर और बाद में दिगम्बर लिखा है। चरित भी १४वीं शताब्दी से पूर्व का मेरे देखने में नहीं पाया। ऐसी स्थिति में इस विषय पर विशेप अनुसन्धान की आवश्यकता है। जिससे उसका सही निर्णय किया जा सके। क्योंकि स्तोत्र पुराना और गम्भीर अर्थ का द्योतक है, पर सातवीं शताब्दी का समय 'भयहर स्तोत्र' के कारण बतलाया गया जान पड़ता है।
१ History of Indian Literature Vol II Po. 549 २. जैन स्तोत्र सन्दोह, द्वितीय भाग की प्रस्तावना पृ० १३ ३. सका अनुवाद पं. उदयलाल काशलीलाल द्वारा प्रकाशित हो चुका है। ४ यह कथा पं. नाथूराम जी प्रेमी द्वारा बम्बई मे १९१६ में प्रकाशित भक्तामर स्तोत्र की भूमिका में लिखी है
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
जटासिंह नन्दी सिंह नन्दी नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं। उनमें वे सिंहनन्दो सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। जिनका उल्लेख बाद के शिलालेखों में मिलता है और जिनका कर्नाटक की इतिहास परम्परा के साथ घनिष्ट सम्बन्ध पाया जाता है । जिन्होंने ईसा की दूसरी शताब्दी में गंगवश की नींव डालने में दो प्रनाथ राजकुमारों की सहायता की थी।
___ एक सिंहनन्दि की समाधि का उल्लेख श्रवण वेलगोल के शिलालेख में उत्कीर्ण है, जो शक सं०६२२ ई. सन ७०० के लगभग हए हैं। पर इन दो सिंहनन्दियों और अन्य पश्चाद्वर्ती सिंह नन्दियों से प्रस्तुत सिंहनन्दी भिन्न विद्वान ही जान पड़ते हैं । क्योंकि उनके साथ 'जटा' विशेषण लगा होने के कारण वे इनसे बिल्कुल जुदे हैं । यह कर्नाटक के आदिवासी थे। पर वे कर्नाटक में किस प्रान्त के अधिवासी थे। यह कुछ ज्ञात नहीं हआ। प्राचार्य जिनसेन ने उनका स्मरण करते हुए लिखा है कि जिनकी जटारूप प्रबल युक्तिपूर्ण वृत्तियां-टीकायें काव्यों के अनुचिन्तन में ऐसी शोभायमान होती थीं, मानों हमें उन काव्यों का अर्थ ही बतला रही हों। ऐसे वे जटासिंह नन्दी प्राचार्य हम लोगों की रक्षा करें।' आदिपुराणकार ने उनका केवल स्मरण ही नहीं किया किन्तु उनके वरांगचरित से भी कुछ सामग्री ली है।
जिस प्रकार उत्तम स्त्री अपने हस्त-मुख पाद आदि अंगों के द्वारा अपने आपके विषय में अनुसरण उत्पन्न करती रहती है उसी प्रकार वरांगचरित की अर्थपूर्ण वाणी भी अपने समस्त छन्द, अलंकार रीति आदि अंगों से अपने आपके विषय में किस मनुष्य के गाढ़ अनुराग को उत्पन्न नहीं करती।
कवि की एकमात्र कृति वरांगचरित उपलब्ध है,, कर्ता ने उसे चतुर्वर्ग समन्वित सरल शब्द और अर्थ गुम्फित धर्म कथा कहा है।
यह एक सुन्दर काव्य-ग्रन्थ है, ग्रन्थ में ३१ सर्ग हैं और श्लोकों की संख्या १८०५ है। (रचना प्रसाद गुण से युक्त है इस काव्य में तीर्थकर नेमिनाथ तथा कृष्ण के समकालिक 'वरांगनामक पुण्य पुरुष की कथा का अंकन किया गया है। काव्य में नगर, ऋतु, उत्सव, क्रीड़ा, रति, विप्रलम्भ, विवाह, जन्म, राज्याभिषेक युद्ध, विजय आदि का वर्णन महाकाव्य के समान किया है। कथा का नायक धीरोदत्त है। तत्त्व निरूपण और जैन सिद्धान्त के विभिन्न विषयों का प्रतिपादन इतना अधिक किया गया है कि उससे पाठक का मन ऊब जाता है। कवि ने काव्य को सर्वाग सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है। रस और अलंकारों की पुट ने उसे अत्यन्त सरस बना दिया है। कवि ने तेरहवें सर्ग में बीभत्स रस का और चोदहवें सर्ग में वीर रस का सुन्दर एव सांगोपांग वर्णन किया है। २३वें सर्ग में जिन मन्दिर और जिन बिम्ब निर्माण, पूजा और प्रतिमा स्थापना, पूजा का फल और दानादि का वर्णन किया है। २५वें, २६वे सर्ग का मुख्य कथा से कोई सम्बन्ध नहीं है । कवि पर अश्वघोष की रचनाओं का प्रभाव-सा दृष्टिगोचर होता है। वरांगचरित में दक्षिण भारत की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति का अच्छा चित्रण किया गया है। और जनेतर देवी-देवताओं, वेदों के याज्ञिक धर्म की और पुरोहितों के विधि विधान की खुब खबर ली है। राजाओं पर उनका क्रोध कुछ प्रभाव अंकित नहीं करता। जैन मंदिरों, मूर्तियों और जैन महोत्सवों का भी अच्छा चित्रण किया है।
इस काव्य में वसन्ततिलका, पुष्पित ग्रा, प्रहर्षिणी, मालिनी, भुजंगप्रयात, वंशस्थ, अनुष्टुप, माल
१. काव्यानुचिन्तने यस्य जटाः प्रबलवृत्तयः ।
अर्थात् रमानुवदन्तीय जटाचार्यः स नोऽवदात् ।। (आदि पु० १-५०) २. वरांगणेव सर्वाङ्गर्वगङ्ग चरितार्थवाक । कस्यनोत्पादयेद गाढमनुराग स्वगोचरम् ॥
हरिवंशपुराण १-३५ ३. काव्यके प्रत्येक सर्ग की पुष्पिका-इति धर्म कथोद्देशे चतुर्वर्ग समन्विते, स्फुट शब्दार्थ संदर्भ वरांग चरिताश्रिते।
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी के आचार्य
१३७
भारिणी, और द्र तविलम्बित आदि छन्दों का प्रयोग किया है। कवि को उपजाति छन्द अधिक प्रिय रहा है। इस काव्य के प्रारम्भिक तीन सर्ग बहत ही सरम हैं।
रचना स्थल और रचना काल
निजाम स्टेट का कोप्पल ग्राम जिसे कोपण भी कहा जाता है, जैन संस्कृति का केन्द्र था। मध्यकालीन भारत के जैनों में इसकी अच्छी ख्याति थी। और आज भी यह स्थान पुरातत्त्वविदों का स्नेहभाजन बना हया है। इसके निकट पल्लन को गुण्डु नाम का पहाड़ी पर अशोक के शिलालेख के समीप में दो पद चिन्ह अंकित हैं। उनके नीचे पुरानी कनडी भाषा में दो लाइन का एक शिलालेख है। जिसमें लिखा है कि 'चावय्य ने जटासिंह नन्द्याचार्य के पदचिन्हों को तैयार कराया था।' किमी महान व्यक्ति की स्मृति में उस स्थान पर जहां किसी साधु वगैरह ने समाधिमरण किया हो। पद चिन्ह स्थापित करने का रिवाज जैनियों में प्रचलित है।
कुवलय माला के कर्ता उद्योतन सृरि (७७८ ई०) ने और पुन्नाट संघी जिनमेन (शक सं० १०५) ने वि० सं०८४० के जटिल कवि का और उनके ग्रन्थ का उल्लेख किया है। ६७८ ई० में चामुण्डराय ने भी उल्लेख किया है। और ईसा की ११वीं शताब्दी के कवि धविल ने जटिल मनि और वरांगचरित का उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त पम्प (९४१ ई०) ने, नयमेन (१११२ ई०) पार्श्व पंडित (१२०५ ई०) जनाचार्य (१२०६ ई०), गणवर्म (१२३० ई.) पूष्पदन्त पुराण के कर्ता कमलभव (१२३५ ई०) और महावल (१२४५) ई० आदि ग्रन्थकारों ने अपने अपने ग्रन्थों में जटिल कवि और वराँगचरित का उल्लेख किया है इससे कवि की महत्ता का सहज ही पता चल जाता है। साथ ही इन सब उल्लेखों में उनके समय पर भी प्रकाश पड़ता है।
डा० ए०एन० उपाध्याय ने वरांगचरित की प्रस्तावना में जटासिंह नन्दि का समय ईसा की सातवीं शताब्दी का अन्त निर्धारित किया है, क्योंकि शकसं० ७०५ में हरिवंश पुराणकार ने उसका उल्लेख किया है।
शुभनन्दी-रविनन्दी
शभनन्दी-रविनन्दी नामक दोनों मूनि अन्यन्न तीक्ष्ण बुद्धि मूनि और सिद्धांत शास्त्र के परिज्ञानी थे। बप्पदेव गरु ने समस्त सिद्धान्त का विशेष रूप गे अध्ययन किया था। यह व्याख्यान भीमरथि और कृष्ण मेख नदियों के वीच प्रदेश उत्कलिका ग्राम के समीप मगणवल्ली ग्राम में हना था। भीमरथि कृष्णानदो की शाखा है और इनके बीच का प्रदेश अव वेलगांव व धारवाड कहलाता है। वहीं बप्पदेव गुरु का सिद्धान्त अध्ययन हया होगा। इस अध्ययन के पश्चात उन्होंने महाबंध को छोड़ कर शेष पांच खंण्डों पर व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम की टीका लिखी। पश्चात उन्होंने छठे खण्ड को सक्षिप्त व्याख्या भी लिखी। वीरसेनाचार्य ने बप्पदेव की व्याख्या प्रज्ञप्ति को देखकर
१. जटामिह नन्दि आनार्य रदव
चावायं माडिसिदो। हैदगबाद आरबयोलाजिकल सीरीज मं० १२ (मन् १९३५) में सी. आर कृष्णन चारलू लिखित कोपवल्ल के कन्नड़ शिलालेख ।
२. एवं व्याख्यान क्रममवाप्तवान् परमगुरु परम्परया।
आगच्छन् सिद्धान्तो द्विविधोग्यति निशितबुद्धिभ्याम् । १७१ शुभ-रवि-नन्दि मुनिभ्यां भीमरथि-कृष्णमेखयोः सरितोः । मध्यमविषयेग्मणीयो कलिकायाम सामीप्य ॥१७२
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ हो धवलाटीका का लिखना प्रारम्भ किया था। जयधवला कार ने एक स्थान पर बप्पदेव का नाम लेकर अपने और उनके मध्य के मतभेद को बतलाया है :
चुण्णि सुत्तम्मि बप्पदेवा इरिय लिहिदुच्चारणाए अंतोमुहृत्त मिदि भणिदो। अम्हेहि लिहिंदुच्चारणाए पुण जहण्ण एगसमयो, उ० संखेज्जा समयात्ति परूविदो (जयध० १८५)
धवला में व्याख्या प्रज्ञप्ति के दो उल्लेख निम्न प्रकार से उपलब्ध होते हैं। "लोगोवाद वियाह पण्णत्ति वयणादो" टीकाकार ने इस अवतरण से अपने अभिमत को पुष्ट किया है । धवला १४३
एक स्थान पर धवलाकार ने उससे अपने मत का विरोध दिखलाया है
एदेण वियाह पण्णत्ति सुत्तेण सह कधं ण विरोहो? ण एवम्हादो तस्स पुधसुदस्स मायरियमेएण भेदमा वण्णस्स एयत्ताभावादो॥"
(धवला ८०८) इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि बप्पदेव और उनकी टीका व्याख्या प्रज्ञप्ति का अस्तित्व स्पष्ट है। ठीका की भाषा प्राकृत थी। बप्पदेव ने अपने समय का कोई उल्लेख नहीं किया। खेद है कि ग्रन्थ अनुपलब्ध है। फिर भी अनमान से डा० हीरालाल जी ने बप्पदेव का समय विक्रम की छठवीं शताब्दी बतलाया है। धवलाटीका से तो वह पूर्ववर्ती है ही। संभव है, वह सातवीं शताब्दी की रचना हो।
महाकवि धनंजय महाकवि धनंजय-वासुदेव और श्रीदेवी के पुत्र थे। उनके गुरु का नाम दशरथ था। ये दशरूपक के लेखक से भिन्न हैं । ये गृहस्थ कवि थे। इनकी कविता में वैशिष्ट्य है। द्विसन्धान काव्य बनाने के कारण ये द्विसन्धान कवि कहलाते हैं। इस द्विसन्धान काव्य को राघव पाण्डवीय काव्य भी कहा जाता है क्योंकि इसमें रामायण और महाभारत की दो कथाओं का कथन निहित है।
भोज (११वीं शती ईसवी के मध्य) के अनुसार द्विसन्धान उभयालंकार के कारण होता है । यह तीन प्रकार का है-वाक्य प्रकरण तथा प्रबन्ध । प्रथम वाक्यगत श्लेष है, द्वितीय अनेकार्थ स्थिति है, तीसरा राघव पाण्डवीय की तरह पूरा काव्य दो कथाओं का कहने वाला है।
विख्यात मगणवल्ली ग्रामेऽथ विशेष रूपेण । श्रुत्वा तयोश्च पार्वे तमशेषं बप्पदेवगुरुः । १७३ अपनीय महाबन्धं षटग्वण्डाच्छेष पंच खंडे तु। व्याख्या प्रति च षष्ठं खंडं च ततः मंक्षिप्य ।। १७४ पणां खंडानामिति निष्पन्नानां तथा कपायाख्यप्राभतकम्य च षष्ठि सहस्रग्रन्थप्रमाणयुताम् ॥१७५ व्यालिख प्राकृतभाषारूपां सम्यक्त्वपुगतन व्याख्याम्।
अष्टमहस्र नथां व्याख्यां पञ्चाधिकां महाबन्धे ।।१७६ २. देखो, षट्खंडागम धवला. पु. १ प्रस्तावना पृ० ५३ ३. नीत्वा यो गुरुणादिशो दशरथे नोपात्तवान्नन्दनः ।
श्रीदेव्या वसुदेवतः प्रतिजगन्यायस्य मार्ग स्थितः । तस्य स्थायि धनंजयम्य कृतितः प्रादुप्य दुच्चर्यशो, गाम्भीर्यादि गुणापनोदविधिनेवाम्भो निधील्लङघते ॥१४६।।
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी के आचार्य
१३६
धनंजय कविका द्विसन्धान काव्य संस्कृत साहित्य में उपलब्ध द्विसन्धान काव्यों में प्राचीन और महत्वपूर्ण काव्य है। इसके प्रत्येक पद्य दो अर्थों को प्रस्तुत करते हैं। पहला अर्थ रामायण से सम्बद्ध है और दूसरा अर्थ महाभारत से । इसी कारण इसे राघव पाण्डवीय भी कहा जाता है। ग्रन्थ में १८ सर्ग और पाठ सौ श्लोक हैं। यह इन्द्रवजा, उपजाति, द्रुतविलम्बित, पुष्पिताग्रा, मालिनी, मन्दाक्रान्ता, रथोद्धता, वसन्ततिलका और शिखरिणी आदि विविध छन्दों में रचा गया है। ग्रन्थगत कथानक संक्षिप्त और सुरु चिपूर्ण है। इस ग्रन्थ पर दो टीकाएँ उपलब्ध हैं जिनमें एक का नाम 'पदकौमुदी' है जिसके कर्ता नेमिचन्द्र हैं, जो पद्मनन्दि के प्रशिष्य और विनयचन्द्र के शिष्य थे। दूसरी टीका राघव पाण्डवीय प्रकाशिका है, जिसके कर्ता परवादि घरदृ रामभट्ट के पुत्र कवि देवर हैं। दोनों टीकाएँ आरा जैन सिद्धान्त भवन में मौजूद हैं।
काव्य मीमांसा के कर्ता राजशेखर ने धनंजय कवि की बडी प्रशंसा की हैं। राजशेखर प्रतिहार राजा महेन्द्रपाल के उपाध्याय थे।
वादिराज ने १०२५ ई० में लिखे गये अपने पार्श्वनाथ चरित्र में धनंजय तथा एक से अधिक सन्धान में उनकी प्रवीणता का उल्लेख किया है :
अनेक भेदसंधाना खनन्तो हृदये मुहुः।
बाणा धनंजयोन्मुक्ताः कर्णस्येव प्रियाः कथम् ॥ कवि की दूसरी कृति 'धनंजय' नाममाला नाम का छोटा-सा दो सौ पद्यों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द कोष है ' इसके साथ में ४६ पद्यों की एक अनेकार्थ नाममाला भी जुड़ी हुई है। कोष में १७०० शब्दों के अर्थ दिये गये हैं। इस छोटे से कोष में संस्कृत भाषा की आवश्यक पदावली का चयन किया गया है। कोष की सबसे बडी विशेषता शब्द से शब्दान्तर बनाने की प्रक्रिया है जो अन्यत्र देखने में नहीं आई। जैसे पृथ्वी के आगे 'धर' शब्द जोड़ देने से पर्वत के नाम हो जाते हैं। और राजा के नामों के आगे 'रुह' शब्द जोड़ने मे वृक्ष के नाम हो जाते हैं। इस पर अमरकीति विद्य का नाम माला भाष्य है, जो भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है।
इनकी तीसरी कृति 'विषापहार स्तोत्र' है जो ३६ इन्द्रवजा वृत्तों का स्तुति ग्रन्थ है। इसमें आदि ब्रह्या अषभदेव का स्तवन किया गया है। यह स्तवन अपनी प्रौढता, गम्भीरता और अनठी उक्तियों के लिये प्रसिद्ध है। इस पर अनेक संस्कृत टीकाएं मिलती हैं, जिनमें सोलहवों शताब्दी के विद्वान पार्श्वनाथ के पुत्र नागचन्द्र की है, दूसरी टीका चन्द्रकीर्ति की है।
___ अगाधताब्धेः स यतः पयोधिमेरोश्च तुङ्गाः प्रकृतिः स यत्र ।
द्यावा पृथिव्योः पृथुता तथैव, व्यापत्वदीया भुवनान्तराणि ।। इस पद्य में कवि ने ऋषभ देव की गम्भीरता समुद्र के समान, उन्नत प्रकृति मेरु के समान और विशालता अाकाश-पृथ्वी के समान बतलाकर उनकी लोकोत्तर महिमा का चित्रण किया है ।
१६वें पद्य में कवि ने भगवान की तुङ्ग प्रकृति का बड़ा सुन्दर चित्रण किया है । और आराध्य देव के औदार्य का विश्लेषण करते हए कवि कहता है कि हे प्रभो! आप भक्तों को सभी पदार्थ प्रदान करते हैं। उदार चित्तवाले दरिद्र मनुष्य से भी जो फल प्राप्त होता है, वह सम्पत्ति शाली कृपण धनाढ्यों से नहीं । क्योंकि पानी से शून्य
१. द्विसन्धाने निपुणता सतां चके धनंजयः । यया जातं फलं तस्य सतां चक्र धनंजयः ।।
-राजशेखर २. कवेर्धनं जयस्येयं सत्कवीनां शिरोमणेः ।
प्रमाण नाममालेति श्लोकानामहि शतद्वयम् ।।२०२॥
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
रहने पर भी पर्वत से नदियाँ प्रवाहित होती हैं । परन्तु जल से लबालब भरे हुए समुद्र से एक भो नदी नहीं निकलती तुंगात् फलं यत्तदवचनाच्च, प्राप्यं समृद्धान्न धनेश्वरादेः । निरम्भसोऽप्युच्चतमादिवाद्रे नॅकाऽपि निर्यात धुनी पयोधेः ॥ १९ ॥
इस तरह स्तुति कर कवि दीनता से वर की याचना नहीं करता। क्योंकि भगवान उपेक्षक हैं, राग द्वेष से रहित हैं । वृक्ष का आश्रय करने वालों को स्वयं छाया प्राप्त होती है । छाया की याचना करने से क्या लाभ । यदि देने की आप की इच्छा ही हो तो मैं आपसे यही चाहता हूँ कि आप में मेरो भक्ति बनी रहे। मुझे विश्वास है कि आप इतनी कृपा अवश्य करेंगे; क्योंकि विद्वान पुरुष अपने प्राश्रितों को इच्छात्रों को पूर्ण करते ही हैं ।
समय
इति स्तुतिं देव विधाय देन्याद्वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि । छायातरु संश्रयतः स्वतः स्यात्कश्छायया याचितयात्मलाभः ॥ ३८ ॥ प्रथास्ति दित्सा यदि वोपरोधस्त्वय्यैव सक्तां दिश भक्तिबुद्धिम् । करिष्यते देव तथा कृपां मे को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरिः || ३६ ||
नाममाला के अन्त में एक पद्य मिलता है जिसमें प्रकलंक देव का प्रमाण शास्त्र, पूज्यपाद या देवनन्दि का लक्षण शास्त्र (व्याकरण) और धनंजय कवि का काव्य द्विसन्धान, ये तीन अपश्चिम रत्न हैं। यह श्लोक धनंजय द्वारा रचा नहीं जान पड़ता ।
उससे इसकी महत्ता का भान होता है। चूँकि राजशेखर प्रतीहार राजा महेन्द्रपाल देव के उपाध्याय थे | महेन्द्रपाल का समय वि० सं० ६६० के लगभग है । अतः धनंजय ९६० से पूर्ववर्ती हैं । वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका शक सं० ७३८ में समाप्त की है । उसकी जिल्द, ६ पृ० १४ में इति शब्द की व्याख्या में धनंजय की अनेकार्थ नाममाला का ३८वां पद्य उद्धृत किया है
ता वेवम्प्रकारादी व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादुर्भावे समाप्ते च इति शब्दं विदुर्बुधाः ।।
इससे धनंजय कवि का समय ८०० ईसवी निर्धारित किया जा सकता है।
सुमति (सन्मति )
सुमतिदेव ( सन्मति ) अपने समय के प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य थे । आठवीं शताब्दी के बौद्ध विद्वान शान्तरक्षित ने 'तत्त्वसंग्रह' में 'स्याद्वादपरीक्षा ( कारिका १२६२ प्रादि) और वहिरर्थ परीक्षा (कारिका १९४० आदि) में सुमति नामक दिगम्बराचार्य के मत की समालोचना की है । इनके दो ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है । वादिराज सूरि ने पार्श्वनाथ चरित के प्रारम्भ में कवियों का स्मरण करते हुए लिखा है कि
नमः सन्मतये तस्मै भवकूपनिपातिनाम् ।
सन्मति विवृता येन सुखधाम प्रवेशिनी ॥ २२॥
उन सन्मति (आचार्य और भगवान महावीर ) को नमस्कार हो जिन्होंने भवकूप में पड़े हुए लोगों के लिये सुखधाम में पहुंचाने वाली सन्मति को विवृत किया - सन्मति की वृत्ति या टीका ख
दूसरा उल्लेख श्रवण वेल्गोल की मल्लिषेण प्रशस्ति में 'सुमति देव' नामक विद्वान का उल्लेख है जिन्होंने 'सुमति सप्तक' नाम का ग्रन्थ बनाया था
"सुमति देव ममं स्तुतयेन वस्सुमतिसप्तकमाप्तनयाकृतं । परिहृता पथतत्त्वपथाथिनां सुमति कोटिविर्वातिभवतिहृत् ।।"
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाचवी शताब्दी म आठवी शताब्दी तक के आचार्य
१४१ ये सुमति और सन्मति एक ही है। वादिराज ने 'सन्मति' की टीका के कर्ता का नाम 'सुमति' के स्थान में सन्मति इस कारण दिया होगा क्योंकि यह नाम उन्हे आकर्षक लगा होगा।
तत्त्व सग्रह के टीकाकार कमलशील ने पृ० ३८२ मे निम्न पक्तिया दी है :
__"तत्र सुमतिः कुमारिलाद्यभिमतालोचनामात्र प्रत्यक्ष विचारणार्थमाह"--सुमति देव ने कुमारिल के पालोचना मात्र प्रत्यक्ष का निराकरण किया है। इससे सुमति देव का समय कुमारिल क बाद होना चाहिये। डा० भट्टाचार्य ने सुमति का समय सन् ७२० के आस-पास का निर्धारित किया है।
कर्कराज सुवर्ण के दान पत्र (तामपत्र) मे मल्लवादी के शिष्य सुमति अोर सुमति के शिष्य अपराजित का उल्लेख है, जो मूलसघ के मेनान्वय के थे। शक स० ७४३ (वि० स० ८७८) मे अपराजित को नवसारी की
न सस्था के लिये यह दान दिया गया था। सभव है यही सुमति सन्मति-टीका के कर्ता हो ऐसा प्रेमी जी ने जैन साहित्य और हिास के पृष्ठ ८१६ मे लिखा है। पर मेरी राय में अपराजित के गुरू सुमति देव से शान्तरक्षित द्वारा आलोचित समति देव भिन्न ही है। क्याकि शान्त रक्षित का समय सन् ७०५ मे ७६२ तक माना जाता है। इन्होने सन ७४३ मे तिव्वत की यात्रा की थी। इसके पूर्व ही वे अपना तत्त्व मग्रह बना चके होगे। यदि यह विचार सही है तो दोनो सुमति देव एक नहीं हो सकते। तत्त्व सग्रह में उल्लिखित सुमति पूर्ववर्ती है और अपराजित के गुरु सुमति देव का समय सन् ८५३ के लगभग होता है।
सुमति देव सुमति देव-यह मूल सघ सेनान्वय के विद्वान मल्लवादि के शिष्य थे। सुमति देव के शिष्य अपराजित थे। जिन्हे शक स० ७४३ (वि० स० ८८७) मे नवमारी जि० मूरत के जैन मन्दिर के लिये एक जमीन दान की गई थी। अतएव सुमति देव का समय अपराजित के समय मे २५ वर्ष कम, वि० स० ८५३ होना चाहिये । अर्थात प्रस्तूत सुमति देव हवी शताब्दी के विद्वान जान पडते है।
कुमारसेन इनका स्मरण पुन्नाटमंघीय जिनमेन ने (शक स० ७०५ ई० ७८३) हरिवंशपुराण में निम्न शब्दो में किया है।
प्राकुपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम् ।
गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम् ।। चन्द्रोदय के रचयिता प्रभाचन्द्र के पाप गुरू थे। आपका निर्मल सुयश समुद्रान्त विचरण करता था। चामुण्डराय पूराण के १५वे पद्य मे भी इनका स्मरण किया गया है। डा० ए० एन उपाध्याय ने लिखा है कि ये मल गुण्ड नामक स्थान पर आत्म त्याग को स्वीकार करके कोपणाद्रि पर ध्यानस्थ हो गये तथा समाधि पूर्वक मरण किया।
शाचार्य विद्यानन्द ने अपनी अष्ट सहस्त्री की अन्तिम प्रशस्ति के दूसरे पद्य में अष्टसहस्त्री को कष्ट सहस्त्री बतलाते हए कूमार सेन की उक्तियों से अष्ट सहस्त्री को प्रवर्धमान बतलाया है । इसमे स्पष्ट है कि कमार
१. कष्ट सहस्त्री सिद्धा साप्ट सहस्रीयमत्र मे पुण्यात् ।
शश्वदभीष्ट सहस्त्री कुमारसनोक्ति वर्धमानार्था ॥२॥
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
सेन विद्यानन्द से भी पूर्ववर्ती हैं । संभवतः उनका कोई दार्शनिक ग्रंथ रहा है जिसकी उक्तियों से उन्होंने उक्त ग्रंथ को वर्धमान बतलाया है। मल्लिषेण प्रशस्ति में अकलंक से पहले और सुमति देव के बाद कुमार सेन का उल्लेख किया गया है
उदेत्य सम्यग्दिशि दक्षिणस्यां कुमारसेनो मनिरस्तमापत् ।
तत्रैव चित्र जगदेकभानोंस्तिष्ठत्यसो तस्य तथा प्रकाशः॥१४॥ डा० महेन्द्र कुमार जी ने कुमार सेन का समय ई० ७२०-से ८०० तक बतलाया है। चूंकि कुमारसेन का स्मरण पुन्नाट संघीय जिनसेन ने किया है जिनका समय शक सं० ७०५ ई० सन् ७८३ है। इससे कुमारसेन सन् ७८३ से पूर्ववर्ती हैं।
कवि परमेश्वर (कवि परमेष्ठी) प्राचार्य जिन मेन ने इन्हें (कवि परमेश्वर को) कवियों द्वारा पूज्य तथा कवि परमेश्वर प्रकट करते हुए उन्हें शब्द और अर्थ के संग्रह रूप (वागर्थसंग्रह) पुराण का कर्ता बतलाया है। और जिनसेन के शिष्य गणभद्र ने उक्त वागर्थसंग्रह पुराण को गद्यकथामात्र, सभी छन्द और अलंकार का लक्ष्य, सूक्ष्म अर्थ और गढ़ पद रचना वाला बतलाया है । चामुण्डराय ने अपने पुराण में कवि परमेश्वर के अनेक पद्य उद्धत किये हैं जिससे डा० ए.
ध्ये म. ए. डीलिट कोल्हापूर ने उसे गद्य-पद्यमय चम्प हान का अनुमान किया है । यह अनुमान प्रायः ठीक जान पड़ता है। जिनसेन और गुणभद्र ने उसका प्राथय जरूर लिया होगा। कवि परमेश्वर का मादि पंप. अभिनव पंप, नयसेन, अग्गल देव और कमलभव आदि अनेक विद्वानों ने आदर के साथ स्मरण किया है, जिससे वे बड़े विद्वान जान पड़ते हैं । परन्तु उनकी गुरु परम्परा ओर गण-गच्छादि का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ । इस
निश्चित समय बतलाना शक्य नहीं है, किन्तु इतना अवश्य है कि वे आदि पुराणकार जिनसेन से पूर्ववर्ती हैं। संभवत: उनका समय वि०की ८वीं शताब्दी जान पड़ता है।
काणभिक्षु काभिक्ष-कथालंकारात्मक ग्रन्थ के रचयिता थे। प्राचार्य जिनसेन ने इनके ग्रन्थ का उल्लेख करते हए लिखा है कि-धर्मरूप मूत्र में पिरोये हुए जिनके मनोहर वचन रूप निर्मल मणि कथा शास्त्र के अलकार बन गये। उन काणभिक्षु की जय हो।
"धमंसूत्रानुगा हृद्या यस्य वाड.मणयोऽमलाः। कथालंकारतां भेजुः काणभिक्ष जयत्यसौ ।।" (प्रादि पुराण १-५-५१)
१. स पूज्यः कविभिलौके कवीना परमेश्वरः।
वागर्थमंग्रह कृत्स्नं पुराणं यः समग्रहीत् ।।आदि पु० १,६० २. कविपरमेश्वर निदिन गद्यकथामातृकं पुरोश्चरितम् । सकलच्छन्दोलंकृति लक्ष्यं सूक्ष्मार्थगूढ पद रचनम् ।।
-उत्तर पुराण प्रश० १७१ ३. देखो, जैनसिद्धान्त भास्कर भा. १३ किरण २
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
इससे स्पष्ट जाना जाता है कि काणभिक्षु ने किसी कथा ग्रन्थ अथवा पुराण की रचना की थी। खेद है कि वह अपूर्व ग्रन्थ इस समय अनुपलब्ध है।
इनकी गुरु परम्परा भी अज्ञात है । इनका समय जिनसेनाचार्य से पूर्ववर्ती है, क्योंकि उन्होंने इनका स्मरण किया है। गंगराज के महामात्य चामुंडराय ने भी अपने पुराण में इनका स्मरण किया है। काणभिक्षु कथा ग्रन्थ के कर्ता हैं। इनका समय बि० की वो शताब्दो होना चाहिये ।
चउमुह (चतुर्मुख)
ये अपभ्रंश भाषा के प्रसिद्ध कवि थे। इनकी तीन कृतियां थी, पउमचरिउ, रिटणेमिचरिउ और पंचमी चरिउ । परन्तु खेद हैं कि उनमें से एक भी कृति उपलब्ध नहीं है । अपभ्रंश भाषा के कवि धवल ने अपने हरिवंश पुराण में, जो अभी अप्रकाशित है, चउमुह की 'हरि पाण्डवानां कथा' का उल्लेख किया है :
हरिपंडवांण कहा चउमुह-वासेहि भासियं जम्हा।।
तहविरंयमि लोयपिया जेण ण णासेइ सणं पउरं ।। इस पद्य में 'चउमुह वासेहि' (चतुर्मुखव्या) पद श्लिस्ट है। पउमचरिउ के प्रारम्भ के चौथे पद्य में कहा है कि स्वयंभू की जलक्रीड़ा वर्णन में, और चतु मुख देव को गोग्रह कथा वर्णन में आज भी कोई कवि नहीं पा सकता। हरिवंश में गो ग्रह कथा का वर्णन है।' स्वयंभू छन्द में चउमुह के पद्य उदाहरण म्वरूप उद्धत हैं। उनमें से ४, २, ६, ८३, १९२ पद्यों से ज्ञात होता है; कि उनका पउमचरिउ भी उनके सामने रहा होगा। क्योंकि उसमें रामकथा के वर्णन का प्रसंग है। इसके अतिरिक्त हरिवंश और पंचमीचरिउ वे दोनों कृतियां भी चउमह की थी। किन्तु वे अब उपलब्ध नहीं हैं। कवि का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है। यह स्वयभूदेव से पहले हए हैं। क्योंकि स्वयंभू और त्रिभुवन स्वयंभू ने उनकी रचना का उल्लेख किया है। हरिपेण (वि० सं० १०४४) ने अपनी धर्म परीक्षा में, और वीर कवि ने (१०७६) जम्बूस्वामी चरित में चउमुह का स्मरण किया है। अतः वे स्वयंभू, त्रिभुवन स्वयंभू आदि से पूर्ववर्ती हैं। उनका समय वही आठवीं शताब्दी है, जिसका ऊपर निर्देश किया गया है।
अकलङ्कदेव इत्थं समस्त मतवादि करीन्द्रदर्पमुन्मूल यन्नमलमानदृढ़प्रहारः। स्याद्वादकेसरसटाशततीवमूर्तिः पञ्चाननो जयत्यकलङ्कदेवः ॥
-न्या० कु० पृ० ६०४ मेनाशेषकुतर्क विभ्रमतमो निर्मूलमुन्मीलितम्, स्फारागाध कुनीति सार्थ सरितो निःशेषतः शोषिताः । स्याद्वादा प्रतिमप्रभूतकिरणः व्याप्तं जगत् सर्वतः, स श्रीमानकलङ्कभानुरसमो जीयाज्जिनेन्द्रः प्रभुः ।।
-न्या० कु. पृ० ४७२ तर्कभूवल्ल्भो देवः स जयत्यकलङ्क धीः ।। जगद् द्रव्यमुषो येन दण्डिताः शाक्यवस्यवः ॥
-वादिराज पा० च०
१. चउमुह एव च गोग्गह कहाए । १लमचरिउ, स्वयम्भूदेव ।
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अकलंकदेव प्रतिभा सम्पन्न महान् वादी, ग्रन्थकार और युगप्रवर्तक विद्वान् प्राचार्य थे। शिलालेखों में उनका गुणगान उनके निर्मल व्यक्तित्व का संद्योतक है । शिलावाक्यों में उन्हें तर्कभूवल्लभ, महधिक, समस्तवादिकरीन्द्र दर्पोन्मूलक, अकलङ्कधी, बौद्ध बुद्धि वैधव्यदीक्षागुरु, स्याद्वादकेसरसटा शततीव्रमूर्तिपञ्चानन, अशेष कुतर्क विभ्रमतयो निर्मू लोन्मूलक, अकलंङ्कभानु, अचिन्त्य महिमा, और सकल तार्किकचक्र चूड़ामणि मरीचि मेचकित नखकिरण आदि महान् विशेषणों से विभूषित किया है । यह जैन न्याय या दर्शन के उन प्रतिष्ठापक विद्वानों में से हैं। जिन्होंने दार्शनिक क्रान्ति के समय समन्तभद्र और सिद्धसेन के वांङ्मय से प्राप्त भूमिका या आगम की परिभाषानों को दार्शनिक रूप देकर अकलंक न्याय का प्रतिष्ठापन किया है। ये जैन दर्शन के तलदष्टा और भारतीय दर्शनों के प्रकाण्ड पंडित थे। बौद्ध साहित्य में धर्मकीर्ति का जो महत्त्व में अकलंकदेव का उससे कम महत्व नहीं है। दार्शनिक युग में विभिन्न धर्म संस्थापकों ने अपने अपने धर्म का समद्योत किया है। बौद्ध विद्वान धर्मकीति, भट्ट कुमारिल्ल, प्रभाकर मिश्र, उद्मोतकर और व्योमशिव प्रादि दार्शनिक विद्वानों का लोक में जो विशिष्ट स्थान था, वही स्थान जैन सम्प्रदाय में अकलंक देव का था। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। इसी से अनेक कविया ने अपने ग्रन्थों में उनका जयघोष किया अकलंकदेव का कोई पुरातन एवं प्रामाणिक जीवन-परिचय उपलब्ध नहीं है और न उनके समकालीन तथा अतिनिकट उत्तरवर्ती लेखकों के ग्रन्थों में अंकित मिलता है।
जीवन परिचय
मान्यखेट नगर के राजा शुभतुग के पुरुषोत्तम नाम का मंत्री था। उसके दो पुत्र थे-एक अकलंक और दसरा निकलंक । एक बार अष्टान्हिका पर्व में माता-पिता के साथ वे दोनों भाई जैन गुरु रविगुप्त के पास गए। माता-पिता ने उक्त पर्व में ब्रह्मचर्य व्रत लिया और अपने वालकों को भी दिलाया। जब वे युवा हुए तब अपने पराने ब्रह्मचर्य व्रत को यावज्जीवन व्रत मानकर उन्होंने विवाह नहीं करवाया। पिता ने समझाया कि वह प्रतिज्ञा तो पर्व के लिए थी। पर वे कुमार अपनी बात पर दृढ़ रहे और उन्होंने आजन्म ब्रह्मचारी रह कर अपना समय शास्त्राभ्यास में लगाया । अकलंक एक सन्धि और निकलंक द्वि सन्धि थे उनकी बुद्धि इतनी प्रखर थी कि अकलंक को एक बार सनने मात्र से स्मरण हो जाता था और उसो पाठ को दो बार सुनने से निकलंक को स्मरण हो जाता था। उस समय जैन धर्म पर होने वाले बौद्धों के आक्षेपों से उनका चित्त विचलित हो रहा था और वे इसके प्रतीकारार्थ बौद्र शास्त्रों का अध्ययन करने के लिये बाहर निकल पड़े। वे अपना धर्म छिपा कर एक बौद्धमठ में विद्याध्ययन करने लगे। एक दिन गुरु जी को दिग्नाग के अनेकान्त खण्डन के पूर्वपक्ष का कुछ पाठ अशुद्ध होने के कारण नहीं लग रहा था। उस दिन पाठ बन्द कर दिया गया। रात्रि को अकलंक ने वह पाठ शुद्ध कर दिया। दसरे दिन जब गुरु ने शुद्ध पाठ देखा तो उन्हें सन्देह हो गया कि कोई जन यहां छिप कर पढ़ रहा है। इसी की खोज के सिलसिले में एक दिन गुरु ने जैनमूर्ति को लाँघने की सब शिष्यों को आज्ञा दी। प्रकलंक देव मूति पर एक धागा डाल कर उसे लांघ गये और इस संकट से बच गये। एक रात्रि में गुरु ने अचानक कांसे के बर्तनों से भरे बोरे को छत से गिराया। सभी शिष्य उस भीषण आवाज से जाग गये और अपने इष्टदेव का स्मरण करने लगे। इस समय अकलंक के मुख से 'णमो अरहताणं' आदि पंच नमस्कार मंत्र निकल पड़ा। बस फिर क्या था, दोनों भाई पकड़ लिये गये । दोनों भाई मठ की ऊपरी मंजिल में कैद कर दिये गये। तब दोनों भाई एक छाते की सहायता से कूद कर भाग निकले ज्ञात होने पर राजाज्ञा से उन्हें पकड़ने दो अर गये । सैनिकों को प्राते देखकर छोटे भाई निकलंक ने बड़े भाई से प्रार्थना की कि आप एक सन्धि और महान विद्वान हैं। आपसे जिन शासन की महती प्रभावना होगी । अतः प्राप निकटवर्ती तालाब में छिप कर अपने प्राण बचाइये, शीघ्रता कीजिए, समय नहीं है। वे हत्यारे हमें पकड़ने के लिए शीघ्र ही पीछे आ रहे हैं। आखिर दुःखी चित्त से
१. यह परिचय ब्र० नेमिदत्त के कथाकोश से लिया गया है।
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवी शताब्दी तक के आचार्य
१४५
अकलंक ने तालाब में छिपकर अपने प्राणों की रक्षा की। निकलंक आगे भागे। वहीं एक धोबी ने निकलंक को भागते देखा । वह भी पीछे प्राते हुए घुड़सवारों को देख किसी अज्ञात भय की आशंका से निकलक के साथ ही भागने लगा। घुड़सवारों ने आकर दोनों को तलवार के घाट उतार कर अपनी रक्त पिपासा शान्त की ।
“अकलंक वहां से चल कर कलिंग देश के रत्न संचयपुर में पहुंचे। वहाँ के राजा हिमशीतल की रानी मदन सुन्दरी ने अष्टान्हिका पर्व के दिनों में जैन रथ यात्रा निकलवाने का विचार किया। किन्तु बौद्धगुरु संघ श्री के बहकाने में ग्राकर राजा ने रथ यात्रा निकालने की यह शर्त रखी कि यदि कोई जैनगुरु बौद्ध गुरु को शास्त्रार्थ में हरादे तब ही जैन रथ यात्रा निकल सकती है। इससे रानी बड़ी चिन्तित हुई और धर्म में विशेष रूप से संलग्न हुई । कलंक देव वहां आये और राजा हिमशीतल की सभा में बौद्ध विद्वान से शास्त्रार्थ हुआ । संघश्री बीच में परदा डालकर उसके पीछे बैठकर शास्त्रार्थ करता था। शास्त्रार्थ करते हुए छह महीने बीत गये, पर किसी की हारजीत नहीं हो पाई। एक दिन रात्रि के समय चक्रेश्वरी देवी ने अकलंक को इसका रहस्य बताया वि परदे के पीछे घट में स्थापित तारादेवी शास्त्रार्थ करती है । तुम उसमे प्रातःकाल कहे गये वाक्यों को दुबारा पूछना, इतने से ही उसकी पराजय हो जायेगी। अगले दिन अकलंक ने चक्रेश्वरी देवी की सम्मति के अनुसार प्रातः कहे गये वाक्यों को फिर दुहराने को कहा तो उत्तर नहीं मिला। उन्होंने तुरन्त परदा खींच कर घड़े को पैर की ठोकर में फोड़ डाला ।' इससे जैनधर्म की विजय हुई और रानी के द्वारा संकल्पित रथयात्रा धूमधाम से निकाली गयी ।" उस समय जैन धर्म की महती प्रभावना हुई । जनता के हृदय में जैनधर्म के प्रति आस्था बढ़ी और रानी का दृढ़ संकल्प पूरा हुआ ।
कथा कोश में राजा शुभतुरंग की राजधानी मान्यवेट और अकलंक देव को उसके मन्त्री पुरुषोत्तम का पुत्र बतलाया है तथा राजा हिमशीतल की सभा में बौद्धों को शास्त्रार्थ में पराजित करने का भी उल्लेख किया है। राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज प्रथम की उपाधि शुभतुरंग' थी। उसका समर्थन शिलालेखों में उत्कीर्ण प्रशस्तियों से भी होता है । शुभ गदन्तिदुर्ग के चाचा थे। युवावस्था में दन्तिदुर्ग की मृत्यु हो जाने के वाद वे राज्याधिरूढ़ हुए 'थे 1 दन्तिदुर्ग का ही नाम साहसतुरंग था । इसने कांची, केरल, चोल ओर पाण्ड्य देश के राजाओं को तथा राजा हर्ष और वज्रट को जीतने वाली कर्णाटक की सेना को हराया था । कर्णाटक की सेना का अर्थ चालुक्यों की सेना से है। क्योंकि चालुक्य राज पुलकेशी द्वितीय ने देष वंशी राजा हर्प को जीता था । "
किया है।
'भारत के प्राचीन राजवंश ग्रन्थ में दन्तिदुर्ग की उपाधियों में 'माहसतुरंग' उपाधि का भी उल्लेख डा० ए० वी० सातार ने रामेश्वर मन्दिर के स्तम्भ लेख से सिद्ध किया है कि साहसतुरंग दन्तिदुर्ग का
१. मलिषेण प्रशस्त के निम्न पद्य में भी राजा हि शीतल की सभा में शास्त्रार्थ के समय घडे फोड़ने की बात का समर्थन होता है : - मल्लिपेण प्रशस्तिका का समय शक स० १०५० (सन् १९२८) है ।
"नाहङ्कारवशीकृतेन मनमा न द्वेषिणा केवलं,
नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्य बुद्धया मया ।
राज्ञः श्री हिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनी,
tatara कलान्विजित्य सुगत : (मघट :) पादेन विस्फोटितः || २३ ||
." श्रीकृष्ण राजस्य शुभतुङ्ग तुरंग तुरग प्रवृद्ध रेण्वर्धरुद्ध रविकिरणम्" - ए० इ० ३ पृ० १०६
२
३. कांचीश केरलनराधिपचोलपाण्डेय श्री हर्षवाट विभेव विधानदक्षम् 1
कर्णाटकं बलमनन्त मजेयरथ्यं भृत्यः कियदभरपि यः सहसा जिगाय ||
- शामन गढ ( कोल्हापुर) का शक सं० ६७५ का दानपत्र, इ० ए० भा० ११ पृष्ठ १११
४. देखो एहोल का शिलालेख । ५. भाग 3 पृ० २६ ।
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
नाम था।' उसने चालुक्य रूपी समुद्र का मथन कर उसकी लक्ष्मी को चिरकाल तक अपने कुल की कान्ता बनाया था, जैसा कि लेख के निम्न वाक्यों से प्रकट हैं :
तत्रान्वयेऽप्यभवदेकपतिः [१] थिव्याम् । श्री दन्ति दुर्ग इतिदुर्धर बाहुवीर्यो। चालुक्य सिन्धुमथनोद्भव राजलक्ष्मीम्, यः संबभार चिरमात्मकुलैककान्ताम् ॥५॥
तस्मिन् साहसतुंग नाम्नि नृपतौ स्वः सुन्दरी प्राथिते ।। मल्लिषेण प्रशस्ति से भी साहसतुग और हिमशोतल की सभा में हुए शास्त्रार्थ का समर्थन होता है । इस कथन से कथाकोश मोर मल्लिषणप्रशस्ति की भी प्रामाणिकता सिद्ध होती है।
प्रकलङ्क देव का व्यक्तित्व
__इसमें सन्देह नहीं कि अकलकदेव का व्यक्तित्व महान था। शिला वाक्यों और ग्रन्थोल्लेखों के अनुसार समकालीन प्रौर परवर्ती प्राचार्यों पर उनका प्रभाव प्रकित है । वे अपने समय के युगनिर्माता महापुरुष थे । वे अनेक शास्त्रार्थों के विजेता कवि और वाग्मी थे। और थे घटवाद के विस्फोटक सभा चतुर पंडित । बौद्धों के साथ होने वाले प्रसिद्ध शास्त्रार्थ में, जो घटावतीर्ण तारादेवी के साथ छह महीने तक किया गया था। उसकी विजय इतनी महान थी कि प्रकलंक जैसे वाचंयमी के मुख से निरवद्य विद्या के विभव को उदघोषित करा सकी। प्रशस्ति के वे पद्य इस प्रकार है :
चूणि-यस्येदमात्मनोऽनन्यसामान्य निरवद्य विद्या विभवोपवर्णनमाकर्ण्यते ।
राजन् साहसतुंग सन्ति बहवः श्वेतातपत्रा नृपाः, किन्तु त्वत्सदृशारणे विजयिनः त्यागोन्नता दुलभाः। तद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो।
नाना शास्त्र विचार चातुरषियः काले कलो मद्विधाः॥२१॥ (पूर्वमुख)
राजन् सर्वारिवर्प प्रविदलन पटुस्त्वं यथात्र प्रसिद्धस्तद्वत्ल्यातोऽहमस्या भुवि निखिल-मदोत्पाटनः पण्डितानाम् । नोचेदेषोऽहमेते तव सदसि सदासन्ति सन्तो महानतो। वक्तुं यस्यास्ति शक्तिः स वदतु विदिताशेष-शास्त्रो यदि स्यात् ॥२२॥ नाहंकार-वशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं, नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यतिजने कारुण्यबुद्धया मया। राज्ञः श्री हिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो,
बौद्धौघान्सकलान्विजित्य स गतः (स घटः) पादेन विस्फोटितः ॥२३॥ इन पद्यों में प्रकलंक देव की निरवद्य विद्या का विभव प्रकट करते हुए बतलाया है कि-हे साहसतुंग राजन् ! श्वेत आतपत्र (छत्र) वाले राजा बहुत हैं, परन्तु तुम्हारे सदृश रण विजयो और त्यागोन्नत राजा दुर्लभ हैं । उसी तरह अनेक विद्वान हैं; पर कलिकाल में मेरे समान नाना शास्त्रों के विचारों में चतुर बुद्धि वाले कवि वादीश्वर और वाग्मी विद्वान् नहीं हैं।
१. देखो; जर्नल आफ वम्बई हि० सो० भाग ६ १० 29-'दी एज आफ गुरु अक लङ्क' तथा सिद्धि विनिश्चय की प्रस्तावना पृ०४६ ।
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
१४७ जिस तरह सर्व शत्रुनों के मान मर्दन में पाप प्रसिद्ध हैं, उसी तरह इस पृथ्वी मंडल में, मैं पंडितों के समस्त मद को नष्ट करने में प्रसिद्ध हूं। यदि ऐसा न हो तो, यह मैं हूं और आपकी सभा में सदा रहने वाले पंडित हैं । इनमें जिसकी शक्ति हो वह निखिल शास्त्रवेत्ता मेरे सामने बोले ।
मैंने अहंकार के वश अथवा मन के द्वेष से ऐसा नही कहा। किन्तु नैरात्म्यवाद के कारण मनुष्यों के विनाश को जानकर लोगों पर करुणा बुद्धि से मैंने कहा है।
राजा हिमशीतल की सभा में मैंने विदग्धात्मा बौद्धों को जीत कर पादसे घड़े का विस्फोटन किया है।
यह वह समय था, जब बौद्धविद्वान धर्मकीर्ति के शिष्यों का समुदाय भारतीय दर्शन के रंग मंच पर छाया हुना था । उसके नैरात्म्य वाद के नारों से प्रात्मदर्शन हिल उठा था। उस समय से प्रकलंकदेव ने भारतीय दर्शन की हिलती हुई दीवालों को थामा और इसी प्रयत्न में अकलङ्क न्याय का जन्म हुआ।
प्रकलङ्क देव के टीका ग्रन्थ और उनकी मौलिक कृतियां उनके गहनतत्त्व विचार, उनकी सूक्ष्म तर्क प्रवणता और स्वतत्त्व निष्ठा का पग पग पर दर्शन कराती है। कृतियाँ गूढ़ और गंभीर प्रर्थ की द्योतक हैं। प्रकलंकने धर्म कीति की परिहास और अश्लील कटक्तियों का उत्तर भी बड़े मजे से दिया है।
___ अकलक देव बाल ब्रह्मचारी और निर्ग्रन्थ तपस्वी थे। उनके मन में अपने प्यारे भाई के बलिदान की आग बराबर जल रही थी। इससे भी अधिक उनके मानस में बौद्धों के क्रान्तिकारी सिद्धान्तों के प्रचार से और प्रात्मवाद के लुप्त हो जाने से उथल-पुथल मची हुई थी। शिलालेख में उन्हें महधिक लिखा है। इस तरह उनका व्यक्तित्व महान और चरित्र सम्पन्न था। उनकी अकलंक प्रभा से जैन शासन पालोकित हना है, और होता रहेगा। तत्त्वार्थ राज वार्तिक के 'लघुहव्यनृपतिवरतनयः' पद्य के 'वरतनयः' से अकलंक के लघु भ्राता होने की सूचना मिलती है। प्रकलंक देव का समय
अकलंक देव यतिवृषभ, श्रीदत्त, सिद्धसेन, देवनन्दी, पात्र केसरी और सुमति देव के बाद हुए हैं। उन्होंने यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति ' के प्रथम अधिकार को दो गाथानों का सस्कृतिकरण कर उन्हें लघीयस्त्रय में शामिल
। यतिवषभ का समय ईसा की ५वी सदी है। श्रीदत्त का उल्लेख देवनन्दी ने किया है। अकलंक देव ने प्रवचन प्रवेश के पृष्ठ २३ में सिद्धसेन के 'सन्मतिसूत्र की निम्नगाथा का संस्कृत रूपान्तर किया है :
तित्थयर वयणसंगह विसेसपत्थारमूलवागरणी।
दव्वटिनो य पज्जवणमो य सेसा वियप्पासि ॥१-३ "ततः तीर्थकर वचन संग्रह विशेष प्रस्तार मूलव्याकारिणौद्रव्यपर्यायाथिको निश्चेतव्यो ।"
लघीयस्त्रयस्वो० वृ० श्लोक ६७ आपने देवनन्दी की तत्त्वार्थवृत्ति ( सर्वार्थसिद्धि ) की पंक्तियों को दार्तिक बनाकर तत्त्वार्थवार्तिक की रचना की है। देवनन्दी का समय ईसा की ५वीं शताब्दी है। अकलंक ने पात्र केसरी के 'त्रिलक्षणकदर्थन' की 'अन्य थानुपपन्नत्वं" कारिका को न्यायविनिश्चय के मूल में शामिल कर लिया है। इनका समय ईसा की सातवीं शताब्दी है।
सुमति देव का उल्लेख शान्ति रक्षित के तत्त्वसंग्रह की पंजिका में पाया जाता है। पंजिका के कर्ता कमलशील हैं, जो नालन्दा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थे। शान्तिरक्षित का समय सन् ७०५ से ७६२ माना जाता है। सन् ७४३ में शान्तिरक्षित ने तिब्बत की यात्रा की थी। उससे पहले ही उन्होंने तत्त्व संग्रह की रचना की है। कमलशील शान्तिरक्षित के समकालीन जान पड़ते हैं। इन उल्लेखों से 'प्रकलंक का समय ईसा की ७वीं शताब्दी से बाद का जान पड़ता है।
१ जीयात् समन्तभद्रस्य देवागमनः संज्ञिनः । स्तोत्रस्य भाष्यं कृतवानकलङ्को महधिक: जैन लेख संग्रह भा०३ ले नं०६६७ पृ० ५१८
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
- डा. महेन्द्र कुमार जी ने अकलंक का समय ईसाक वीं शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध करते हए जो साधक प्रमाण दिये हैं। उन्हें यहां दिया जाता है:
१-दन्तिदुर्ग द्वितीय, उपनाम साहस तुगकी सभा में अकलंक का अपने मुख से हिमशीतल की सभा में हुए शास्त्रार्थ की बात कहना ।' दन्तिदुर्गका राज्य काल ई० ७४५ से ७५५ है, और उसी का नाम साहस तुंग था। यह रामेश्वर मन्दिर के स्तम्भलेख से सिद्ध हो गया है।
२-प्रभाचन्द के कथाकोश में अकलंक को कृष्णज के मंत्री पुरुषोत्तम का पुत्र बताना । कृष्ण का राज्य काल ई० ७५६ से ७७५ तक है।
३-अकलंक चरित में अकलंक के शक सं० ७०० (ई० ७७८) में बौद्धों के साथ हुए महान वाद का उल्लेख होना।
४-प्रकलंक के ग्रन्थों में निम्नलिखित प्राचार्यों के ग्रन्थों का उल्लेख या प्रभाव होना । भर्तृहरि (ई०४ थी ५वीं सदी) कुमारिल (ई० ७ वी का पूर्वार्ध), धर्मकीर्ति (ई० ६२० से ६६०), जयराशि भट्ट (ई०७वीं सदी), प्रज्ञाकर गुप्त (ई०६६० से ५२०), धर्माकरदत्त (अचंट) (ई०६८० से ७२०), शान्तभद्र (ई०७००) धर्मोत्तर (ई० ७००) कर्णगोमि (ई० ८वीं सदी), शांत रक्षित (ई० ७०५ से ७६२) ।
५-कविवर धनंजय के द्वारा नाममाला में 'प्रमाणमकलंकस्य' लिखकर अकलंक का स्मरण किया जाना। धनंजय की नाम माला का अवतरण धवला टीका में है। अत: धनंजय का समय ई० ८१० है ।
६-जिनसेन के गुरु वीरसेन की धवलाटीका (ई०८१६) में तत्त्वार्थ वार्तिक के उद्धारण होना।
७-आदि पुराण में जिनसेन द्वारा उनका स्मरण किया जाना। जिनसेन का समय ई०७६० से ८१३ है ।
-हरिवंश पुराण के कर्ता पुन्नाट संघीय जिनसेन के द्वारा वीरसेन की कोति को 'अकलंक' कहा जाना।
६-विद्यानन्द आचार्य द्वारा अकलंक की अष्टशती पर अष्ट सहस्री टोका का लिखा जाना । विद्यानन्द का समय ई० ७७५-८४० है।
१०-शिलालेखों में अकलंक का स्मरण सुमति के बाद आना' १ गुजरात के कर्क सुवर्णका मल्लवादि के प्रशिष्य और सुमति के शिष्य अपराजित को दिये गए दान का एक ताम्रपत्र शक, सं०७४३ ई०८२१ का मिला है।
तत्त्वसंग्रह 3 में सुमतिदेव दिगम्बर के मत का उल्लेख पाता है । तत्त्वसंग्रह पंजिका ८ में बताया है कि सुमति कूमारिल के पालोचना मात्र प्रत्यक्ष का निराकरण करते हैं । अत: सुमति का समय कुमारिल के बाद होना चाहिये। डा. भट्टाचार्य ने सुमति का समय ई०७२० के पास पास निधारित किया है। यदि ताम्रपत्र ही तत्त्वसग्रहकार द्वारा उल्लिखित सुमति है तो इनके समय को संगति बैठानी होगी; क्योंकि ताम्रपत्र के अनुसार सुमति के शिप्य अपराजित ई०८२१ में हुए हैं और इस तरह गुरु शिष्य के समय में १०० वर्ष का अन्तर होता है। प्रो० दलसुख मालवणिया ने इसका समाधान इस प्रकार किया है। कि-सुमति की ग्रन्थ रचना का समय ई.
१. सिद्धि विनश्चय प्र० पृष्ठ ४६ । २. वही प. ४६ । ३. वही पृ. ११ । ४. वही पृष्ठ ४१-३६ ।
५. वहीं पृ० ४६ । ६. जैन सा. इ० पृष्ठ १११ । ७. वही पृ०३७ ।
८. प्रस्तावना पृ० ३८। ६. हरिवंश पुराण १-३६ । १०. वही पृ. ३६ ।
११. वही प्र० पृ० ३८। १२. धर्मोत्तर प्रस्तावना पृ० ५५ । १३. तत्त्व सं० पृ० ३७६, ३८२, ३८३, ३८६, ४६६ ।। १४. "तत्र सुमतिः कुमारिलाद्याघभिमता लोचनामात्रप्रत्यक्ष विचारणर्थमाह" तत्त्व सं० पं० पृष्ठ ३७६ । १५. तत्त्व सं० प्रस्ता पृ०६२। १६. धर्मोत्तर प्रस्ताव पृ० ५५ ।
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से पाठवी शताब्दी तक के आचार्य
१४६
७५० के पास-पास माना जाय तो पूर्वोक्त असंगति नही होगी। शान्ति रक्षित ने तिब्बत जाने से पूर्व ही तत्त्व संग्रह की रचना की है। अतएव वह ई० ७४५ के पूर्व रचा गया होगा, क्योंकि शान्त रक्षित ने तिब्बत जाकर ई० ७४६ में विहार की स्थापना की थी। सुमति को यदि शान्ति रक्षित का समवयस्क मान लिया जाय तो उनको भी उतरावधि ई० ७६२ के पास-पास होगी। ऐसी स्थिति में सुमति के शिष्य अपराजित को सत्ता ई०८२१ में होना असम्भव नहीं है।" यह समाधान सयुक्तिक है। ऐसी दशा में सूमति से २३ प्राचार्यों के बाद होने वाले अकलंक का समय ई०८ वीं का उत्तरार्ध ही सिद्ध होता है।
इस तरह विप्रतिपत्तियों के निराकरण श्चित साधक प्रमाणों के आधार से अकलंक देव का समय ई० ७२० से ७८० सिद्ध होता है । प्रकलङ्क के ग्रन्थ
अकलंक देव की उपाधि 'भट्ट' थी। इसी से वे भट्ट कहलाते थे। उनको निम्न कृतिया उपलब्ध हैं-१ तत्त्वार्थवातिक सभाप्य, २ अप्टशती, ३ लघीयस्त्रय सविवृत्ति, ४ न्यायविश्चिय सवृत्ति, ५ सिद्धिविनिश्चय, ६ प्रमाण संग्रह स्वोपज्ञ।
१-तत्त्वार्थवातिक सभाष्य-प्रस्तुत ग्रन्थ गृध्द्रपिच्छाचार्य के तत्त्वार्थ सूत्र के ३५५ सूत्रों में सरलतम २७ सूत्रों को छोड़ कर शेष ३२८ सूत्रों पर गद्यवार्तिकों को रचना की गई है, जिनका संख्या दा हजार छह सो सत्तर है। इन वार्तिकों द्वारा सूत्रकार के सूत्रों पर संभावित विप्रतिपत्तियों का निराकरण कर ग्रन्थकार के सूत्रों के मर्म का उद्घाटन किया है । यह वार्तिक शैली पर लिखा गया प्रथम भाष्य ग्रन्थ है । इसमें जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों का सांगोपांग विवेचन ऊहापोह पूर्वक किया गया है। इसमें वार्तिक जदे हैं और उनकी व्याख्या भी जुदी है । इस व्याख्या का भाष्य रूप से उल्लेख किया गया है । ग्रन्थ की पुष्पिकाओं में इसका नाम तत्त्वार्थवातिक व्याख्यानालकार दिया गया है । देवन्दी (पूज्यपाद) की तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थ सिद्धि) का बहुभाग इसमें मलवातिक रूप में समाविष्ट हो गया है।
अकलंक देव के इस भाप्य ग्रन्थ को भाषा अत्यन्त सरल है। जब कि अन्य प्रष्ट शतो, न्यायविनिश्चय, प्रमाण संग्रहादि ग्रन्थों की सस्कृत भाषा अत्यन्त क्लिष्ट है। यदि अष्टशती पर अष्ट सहस्रो टोका न होती तो उसका अर्थ समझना अत्यन्त कठिन होता । प्रस्तुत भाग्य में द्वादशांग के निरूपण में क्रियावादी प्रक्रियावादी और आज्ञानिक प्रादि में जिन साकल्य, वाकल, कुथुमि, कठ माध्यन्दिन, मोद, पप्पलाद, गाग्यं मोद्गल्यायन, प्राश्वलायन, आदि ऋषियों के नाम दिये है। वे सब ऋग्वेदादि के शाखाऋषि है। इस वार्तिक भाष्य के अनेक स्थलों में षट्खण्डागम के सूत्र और महाबन्ध के वाक्य उद्धृत किये गये है ओर उनमे सति बैठाई गई है। यह एक ऐसा आकरग्रन्थ है जिसमें सैद्धान्तिक, भौगोलिक और दार्शनिक सभी चर्चाए यथास्थान मिलती हैं। ग्रन्थ में सर्वत्र अनेकान्त दष्टि का प्रयोग होने से ऐसा जान पड़ता है, जैसे सैद्धान्तिक तत्त्व प्ररोहों की रक्षा के लिये अनेकान्त को वाड ही लगाई गई हो, सर्वत्र भेदाभेद, नित्यानित्यत्व और एकानेकत्व के समर्थन का क्रम अनेकान्त प्रक्रिया से युक्त दृष्टिगोचर होता है । स्वरूप चतुष्टय के ग्यारह बारह प्रकार, सकलादेश विकलादेश का विस्तृत प्रयोग तथा सप्त भंगीका विशद और विविध विवेचन इसी ग्रन्थ में अपनी विशिष्ट शैली से मिलता है।
योनिप्राभूत, व्याख्याप्रज्ञप्ति, व्याख्याप्रज्ञप्ति दण्डक आदि का उसमें उल्लेख किया गया है। जिससे स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि अकलंक देव विद्याके क्षेत्र में अधिक से अधिक सग्राहक भी थे। तत्त्वार्थाधि गम नामक भाष्य भी अकलंक देव के सामने रहा है। और भी कई टीका ग्रन्थ सामने रहे हैं।
ग्रन्थ में दिग्नाग के प्रत्यक्ष लक्षण-कल्पनापोढ़ का खण्डन है पर धर्मकीतिकृत 'अभ्रान्त" पद विशिष्ट प्रत्यक्ष का लक्षण नहीं । यद्यपि धर्मकीर्ति की 'सन्तानान्तर सिद्धि' का आद्यश्लोक बुद्धिपूर्वा क्रिया' उद्धत
१. धवलाटीका, न्याय कुमुद पृ० ६४६
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
है फिर भी ऐसा जान पड़ता है जैसे तत्वार्थ वार्तिक की रचना के समय धर्मकीति के प्रत्य प्रकरण प्रकलंक देव के अध्ययन में उस समय तक न आये हों। इसी कारण यह ग्रन्थ उनका प्रथम ग्रन्थ जान पड़ता है । यह अच्छे वैय्याकरण भी थे। सूत्रों में शब्दों की सार्थकता तथा व्युत्पत्ति करने में उनके इस रूप के खूब दर्शन होते हैं। यद्यपि वे सर्वत्र पूज्यपाद के जैनेन्द्र व्याकरण का उद्धरण देते हैं । परन्तु पाणिनि और पतंजलि के भाष्य को भी भूले नहीं हैं। भूगोल और खगोल के विवेचन में तिलोय पण्णत्ती उनके सामने रही है। दोनों में कितना ही कथन समान मिलता है । वास्तव में यह भाप्य तत्त्वार्थसूत्र की उपलब्ध टीकाओं में मूर्धन्य और आकर ग्रन्थ है । अकलंक देव की प्रज्ञा के इसमें विशिष्ट दर्शन होते हैं । इस भाष्य में जनेतर ग्रन्थों के अनेक उद्धरण मिलते हैं । इससे उसकी महत्ता का सहज ही अनुभव हो जाता है । तत्त्वार्थसूत्र पर ऐसा अन्य कोई दूसरा भाष्य उपलब्ध नहीं है
प्रष्टशती
___ यह प्राचार्य समन्तभद्र कृत 'प्राप्त मीमांसा' अपरनाम' 'देवागम स्तोत्र' की संक्षिप्त वृत्ति है। जैन दर्शन में प्राप्तमीमांसा का विशिष्ट गौरवपूर्ण स्थान हैं। इसमें अनेकान्त और सप्तभंगी का अच्छा विवेचन है। इसका प्रमाण ८०० श्लोक जितना है इसी से इसे अष्टशती कहा जाता है। इस अप्टशती पर आचार्य विद्यानन्द की 'प्रष्ट सहस्री' नाम की टोका है। जो सुवर्ण में मणिवत् आगे-पोछे के व्याख्या वाक्यों में अष्टशती को जड़ती चली जाती है। विद्यानन्द ने स्वयं अपनी उस अष्टशतो भिन अष्ट सहस्त्रों में लिखा है कि यह प्रष्ट-सहस्री कष्ट सहस्री से बनपाई है। जैसा कि उनके वाक्य से स्पष्ट है :
'श्रोतव्या अण्ट सहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानः ।
इसमें मूल आप्तमीमांसा में आये हुए सदेकान्त असदेकान्त, भेदकान्त, अभेदकान्त, नित्यकान्त, क्षणिकैकान्त आदि एकान्तों की आलोचना करते हुए पुण्य-पाप बन्ध को चर्चा की है। इन सब एकान्तों की आलोचना में प्रष्टशती में उन-उन एकान्तवादियों के मन्तव्य पूर्वपक्ष में साधार दिये है । और आज्ञा प्रधानियों के देवागम और माकाशगमन प्रादि के द्वारा प्राप्त के महत्व ख्यापन की प्रणाली की आलोचना कर प्राप्तमीमांसा के आधार से वीतराग सर्वज्ञ को प्राप्त सिद्ध किया है, और यूक्ति से आगम अविरोधी वचन वाला बतलाया है। इसी कथन में अन्य आप्तों के एकान्तवाद की चर्चा भी निहित है । और अन्त में प्रमाण और नय की चर्चा की है। लघीयस्त्रय सविवृत्ति
यह छोटे-छोटे तीन प्रकरणों का संग्रह है। इस ग्रन्थ में तीन प्रवेश हैं । प्रमाण प्रवेश, नय प्रवेश और प्रवचन प्रवेश । इसमें कुल ७८ मूल कारिकाएं हैं । अकलंक देव ने लघीस्त्रय पर एक विवृत्ति लिखो है। यह विवृत्ति कारिकाओं की व्याख्या रूप न होकर उसमें सूचित विषयों की पूरक है । उन्होंने यह विवृत्ति कारिकाओं के साथ ही लिखी है क्योंकि वे जो पदार्थ कहना चाहते हैं उसके अमुक अंश को श्लोक में कहकर शेष को विवृत्ति में कहते हैं। अत: उसका न म वृत्ति न होकर विवत्ति - विशेष विवरण ही उपयुक्त है । विषय की दृष्टि से पद्य और गद्य मिल कर ही ग्रन्थ की अखण्डता बनाते हैं।
लघीस्त्रय में छह परिच्छेद हैं, जिनमें चर्चित मुख्य विषय निम्न प्रकार हैं।
प्रथम परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान की प्रमाणता, प्रत्यक्ष परोक्ष के लक्षण, प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और मुख्य दो भेद, सांव्यवहारिक के इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष भेद, और मुख्य के प्रवग्रहादि भेद, पूर्व पूर्वज्ञानी की प्रमाणता आदि का विवेचन है।
द्वितीय परिच्छेद में द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु की प्रमेयरूपता, नित्यकान्त पौर क्षणिककान्त में अर्थक्रिया का प्रभाव प्रादि प्रमेय सम्बन्धी चर्चा है।
ततीय परिच्छेद में मति स्मृति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोध आदि का शब्द योजना से पूर्व प्रवस्था में, तथा शब्द योजना के बाद श्रुतव्यपदेश, स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमान का परोक्षत्व, प्रत्यभिज्ञान में उपमान
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवी शताब्दी तक के आचार्य
१५१
का अन्तर्भाव, कारण पूर्वचर और उत्तरचर हेतुप्रों का समर्थन, अदृश्यानुपलब्धि से भी प्रभाव को सिद्धि और विकल्प बुद्धि की वास्तविकता प्रादि परोक्ष प्रमाण सम्बन्धी विषयों की चर्चा है।
चौथे परिच्छेद में ज्ञान की ऐकान्तिक प्रमाणता या अप्रमाणता का निषेध करके प्रमाणाभास का स्वरूप, श्रत की प्रमाणता, और पागम प्रमाण आदि विषयों का विचार किया गया है।
पांचवें परिच्छेद में नय दुर्नय के लक्षण, नयों के द्रव्याथिक पर्यायाथिक आदि भेद, और नगमादि नयों में अर्थनय शब्दनय प्रादि के विभाग का विवेचन है।
छठे परिच्छेद में प्रमाण और नय का विचार करते हए अर्थ और आलोक की ज्ञान कारणता का खंडन तथा सकलादेश विकलादेश का विचार और प्रमाण नयादि का निरूपण किया गया है।
इस तरह यह ग्रन्थ अकलंक देव की पहली मौलिक दार्शनिक कृति है।
न्यायविनिश्चय सवृत्ति
प्रस्तुत ग्रन्थ में ४८० श्लोक हैं । और तीन परिच्छेद है- प्रत्यक्ष, अनुमान, और प्रवचन । सम्भव है, अकलंक देव ने इस पर भी कोई चूणि या वृति लिखी होगी । डा. महेन्द्र कुमार जी ने उसके प्राप्त करने का प्रयत्न किया था, किन्तु खेद है कि वह उपलब्ध नहीं हुई ।
प्रथम परिच्छेद में प्रत्यक्ष का लक्षण लिख कर प्रत्यक्ष के दो भेद इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के लक्षणादि का विवेचन किया गया है। धर्मकीति सम्मत प्रत्यक्ष लक्षण की समालोचना, तथा बौद्धकल्पित स्वसवेदनयोगि मानस प्रत्यक्ष का निराकरण करते हए सांख्य और नैयायिक सम्मत प्रत्यक्ष लक्षण का निराकरण किया गया है।
दूसरे परिच्छेद में अनुमान का लक्षण, साध्य-साध्याभास और साधन साधनाभास के लक्षण, हेतु के रूप्य का खंडन करते हुए अन्यथानुपपत्ति का समर्थन, प्रसिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चितकर हेत्वाभासों आदि का विवेचन किया गया है। और अनुमान से सम्बन्धित विषयों का कथन किया गया है।
तीसरे प्रवचन प्रस्ताव में प्रवचन का स्वरूप, सुगत के प्राप्तत्व का निराकरण, सुगत के करुणावत्व तथा चतुरार्थ प्रतिपादकत्व का परिहास, पागम के अपौरुषेयत्व का खण्डन, सर्वज्ञत्व समर्थन, मोक्ष और सतभंगी का निरूपण, स्याद्वाद में दिये जाने वाले संशयादि दोषों का परिहार, स्मृति प्रत्यभिज्ञान आदि का प्रामाण्य और प्रमाण के फलादि विषयों का कथन किया गया है।
इस ग्रन्थ पर प्राचार्य वादिराज का विस्तत विवरण उपलब्ध है, जो न्याय विनिश्चय विवरण के नाम से प्रसिद्ध है, और जो भारतीय ज्ञानपीठ काशी से दो भागों में प्रकाशित हो चुका है। वादिराज ने उसके रचना काल का उल्लेख नहीं किया। वादिराज का परिचय अन्यत्र दिया है। उनका समय शक सं० ६४७ (सन् १०२५) है।
सिद्धिविनिश्चय-अकलंकदेव की यह महत्वपूर्ण कृति है। इसमें १२ प्रस्ताव हैं जिनमें प्रमाणनय और निक्षेप का विवेचन किया गया है। उनके नाम इस प्रकार हैं-१. प्रत्यक्षसिद्धि (२) सविकल्पसिद्धि (३) प्रमाणान्तर सिद्धि (४) जीवसिद्धि (५) जल्पसिद्धि (६) हेतुलक्षण सिद्धि (७) शास्त्रसिद्धि (८) सर्वज्ञसिद्धि (8) शब्दसिद्धि (१०) अर्थनयसिद्धि (११) शब्दनयसिद्धि (१२) और निक्षेपसिद्धि । इन प्रस्तावों के नामों से उनके विषयों का परिज्ञान हो जाता है। डा. महेन्द्र कुमार जी ने क्रमिक विकास की दृष्टि से इन्हें चार विभागों में बांटा है(१) प्रमाण मीमांसा, (२) प्रमेय मीमांसा, (३) नय मीमांसा और (४) निक्षेप मीमांसा ।
प्रमाण मीमांसा-इसमें प्रमाण और उसके भेद-प्रभेदों का तथा प्रत्यक्ष सिद्धि, सविकल्प सिद्धि, सर्वज्ञसिद्धि प्रमाणान्तर सिद्धि, और हेतु लक्षण सिद्धि, इनमें प्रतिपादित प्रमाण सम्बन्धी विषयों का सार दिया गया है। और दर्शनान्तरीय ग्रन्थों में माने जाने वाले प्रमाण की मीमांसा की गई है।
प्रमेय मीमांसा-इसमें जीवसिद्धि और शब्द सिद्धि में प्रतिपादित प्रमेय सम्बन्धी सामान्य स्वरूप का कथन किया गया है । जैन परम्परा में प्रमेय-द्रव्यों के दो भेद हैं--चेतनद्रव्य और अचेतन द्रव्य । चेतनद्रव्य आत्मा या जीव है उसका लक्षण ज्ञाता दृष्टा है । पौर प्रचेतन द्रव्य पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के भेद से पांचप्रकार के हैं ।
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
पुद्गल द्रव्य-रूप-रस, गन्ध और स्पर्श वाले परमाणु पुद्गल द्रव्य है । वे अनन्त हैं । पुद्गल परमाणु जब स्कन्ध बनते है तब उनका रासायनिक बन्ध हो जाता है। उस स्कन्ध में जितने पूदगल परमाण सम्बद्ध हैं उन सबका एक जैसा परिणमन हो जाता है। प्रोर उसी परिणमन के अनुसार स्कन्ध में रूप विशेष और रस विशेष का व्यवहार होता है । समस्त जगत इन्ही पुद्गल परमाणुओं से निर्मित हुआ । प्रति समय कोई न कोई परिणमन करने का उनका स्वभाव है । पुद्गल शब्द का अर्थ ही पूरण और गलन है।
धर्म द्रव्य-यह एक लोकव्यापी अमूर्त द्रव्य है जो गमनशील जीव और पुद्गलों की गति में सहायक होता है । यह प्रेरक निमित्त नहीं किन्तु उदासीन निमित्त है।
अधर्म द्रव्य-यह एक लोक व्यापी अमूर्त द्रव्य है जो स्थितिशील जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक होता है । यह भी उदासीन निमित्त है।
प्राकाश द्रव्य-यह एक अनन्त अमूर्त द्रव्य है, जिसमें समस्त द्रव्यों का प्रवगाह होता है। द्रव्यों के प्रवस्थान की अपेक्षा इसके दो भेद है । जहाँ तक जीवादिक पाये जाये वह लोकाकाश है और जहां केवल आकाश ही प्राकाश है वह प्रालोकाकाश है।।
काल द्रब्य-लोकाकाश व्यापी असंख्य कालाण द्रव्य है, जो स्वयं तो परिणमन करते ही हैं किन्तु अन्य द्रव्यों के परिणमन में भी निमित्त होते हैं। घड़ी, घण्टा दिन आदि काल व्यवहार इन्हीं के निमित्त से होता है।
जीव द्रव्य-उपयोग रूप है, अमूर्त है, कर्ता है, और भोक्ता है, स्वदेह परिमाण है समारी पोर मिद्धि हो जाता है। स्वभाव से ऊर्ध्वगमनशील है। जीव का स्वभाव चैतन्य है, वही चैतन्य ज्ञान प्रोर दर्गन अवस्थाओं में परिणत होता है । जीव को सभी जीववादी अमूर्त मानते है । जीव के दो भेद है ससारी ओर मुक्त । किन्तु जैन परम्परा में संसारी रावस्था में सदा कर्म पुद्गलों से बधे रहने के कारण उसे व्यवहार दृष्टि से मूर्त माना जाता है। संसारी अवस्था में जब उसकी वैभाविक शक्ति का विकार परिणमन होता है तब आत्मा को कथंचित मूर्त भी माना गया है । उसे स्वयं कर्ता और भोक्ता भी माना है। जे व अनादि काल से कर्म पुद्गलों से बद्ध चला आ रहा है । इसी कारण वह कथचित् मूर्त है । और कर्मानुमार प्राप्त छोटे-बड़े शरीर के अनुसार संकोच और विकास करके उस शरीर के प्रमाण आकार वाला होता है । वह स्वभावतः अमूर्त द्रव्य है और पुद्गल मे भिन्न है। और वासनाओं के कारण संसार अवस्था में विकृत हो रहा है। अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र प्रादि प्रयत्नों से धीरेधीरे शूद्ध होकर कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है। उस समय उसका आकार अन्तिम शरीर जेसा ही रह जाता है; क्योकि जीव के प्रदेशों में सकोच और विकास दोनों ही कम के सम्बन्ध से होते थे। जब कर्मबन्धन छट गया तब जीव के प्रदेशो के फैलने का कोई कारण नही रहता । अत: वह अन्तिम शरीर से कुछ न्यून आकारवाला रह जाता है।
नय मीमांसा-में नय के स्वरूप का कथन करते हए, उसके भेद-प्रभेदों की चर्चा की गई है। अनेकान्तात्मक वस्तु के एक-एक अंश को विषम करने वाले अभिप्राय विशेष प्रमाण को सन्तान हैं, उनमें यदि पर अपेक्षा है तो वे सुनय है । अन्यथा दुर्नय । अनेकात्मक वस्तु के अमुक अश को मुख्य भाव से ग्रहण करके भो अन्य अंशों का निराकरण नहीं करता किन्तु उसके प्रति तटस्थभाव रखता है। जैसे पिता की सम्पत्ति में उसके सभी पुत्रों का समान हक होता है । सपूत वही कहा जाता है, जो अपने भाइयों के हक को ईमानदारी से स्वीकार करता
हड़पने की चेष्टा नही करता। किन्तु उनके साथ सद्भाव रखता है। उसी तरह अनन्त धर्मात्मक वस्तु में सभी नयों का समान अधिकार है, उनमें सुनय वही कहा जायेगा, जो अपने अंश को मुख्य रूप से ग्रहण करके भी अन्य के अशों का गौण करे, पर उनका निराकरण न करे, उनकी अपेक्षा को ओर उनके अस्तित्व को स्वीकार करता है। किन्तु जो दूसरे का निराकरण करता है, और अपना ही अधिकार जमाता है वह कूपूत की तरह दुर्नय कहलाता है । इसी से प्राचार्य समन्तभद्र ने निरपेक्ष नय को मिथ्या और सापेक्ष नय को सम्यक बतलायाया है।
१. निरपेक्ष, नयामिथ्या मापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत्।
आप्तमीमांसा श्लोक १८
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
१५३ जिस तरह पट के ताना और बाना दोनों ही अलग-अलग निरपेक्ष रह कर शीत निवारण नहीं कर सकते । किन्तु जब ताना बाना सापेक्ष होकर पट का रूप धारण कर लेते हैं, तब वे दात के निवारण में समर्थ हो जाते है उसी तरह नियतवादों का आग्रह रखने वा परसार निरपेक्ष नय सम्यक्तत्व को नहीं पा सकते। किन्त
गयां यदि एक सूत्र में न पिरोई गई हों, पीर न परस्पर घटक हों, तो वे रत्नावली नहीं कहला सकतीं। जिस तरह एक सूत्र में पिरोई गई मणियां रत्नावली हार बन जाती हैं। उसी तरह सभी नय सापेक्ष होकर सम्यकपने को प्राप्त हो जाते हैं।
निक्षेप मीमांसा–में निक्षेप का स्वरूप और उसके भेदों का विचार किया गया है। निक्षेप के चार भेद हैं, नाम स्थापना, द्रव्य और भाव । उनका प्रयोजन अप्रकृत का निराकरण, प्रकृत का निरूपण, सशय का विनाश
और तत्त्वार्थ के निश्चय करने में निक्षेप की सार्थकता है।' अनन्त धर्मात्मक वस्तु को व्यवहार में लाने के लिये निक्षेप का प्रयोजन अावश्यक है। गूण रहित वस्तु में व्यवहार के लिए अपनी इच्छा से की गई संज्ञा नाम है। काट कर्म, पूस्तकर्म, चित्र कर्म और अक्षनिक्षप में यह वही है इस प्रकार स्थापित करने को स्थापना कहते हैं। जो गणों द्वारा प्राप्त किया जायेगा या प्राप्त होगा वह द्रव्य है जैसे राजपुत्र को राजा कहना । भविष्यत् पर्याय की योग्यता या अतीत-पर्याय के निमित्त से होने वाले व्यवहार का प्राधार द्रव्य निक्षेप हे। जैगे जिसका गज्य चला गया, उसे वर्तमान में राजा कहना अथवा युवराज को अभी राजा कहना। वर्तमान पर्याय विशिष्ट द्रव्य में तत्पर्याय मलक का व्यवहार का प्राधार भाव निक्षेप है।
इस सब संक्षिप्त कथन से ग्रन्थ की महत्ता का आभास मिल जाता है । इस तरह अकलंक देव की कृतियां जैन शासन की महत्वपूर्ण और मूल्यवान कृतियां हैं।
प्रमाण संग्रह-इस ग्रन्थ का जैसा नाम है तदनुसार उसमें प्रमाणों, युक्तियों का संग्रह है। इस ग्रन्थ की भाषा और विषय दोनों ही जटिल और दुरूह हैं। यह लघीस्त्रय और न्यायविनिश्चय से कठिन है। ग्रन्थ प्रमेय बहल है। लगता है इसकी रचना न्याय विनिश्चय के बाद की गई है, क्योंकि इसके कई प्रस्तावों के अन्त में न्याय विनिश्चय की अनेक कारिकाएं विना किसी उपक्रम वाक्य के पाई जाती हैं । इस ग्रन्थ की नोमि कारिका में प्रयक्त'प्रकलंक महीयसाम्' वाक्य तो अकलंक देव का सूचक है ही, किन्तु इसकी प्रौढ़ शैली भी इसे अकलंक देव की अन्तिम कृति बतलाती है, कारण कि इसकी विचारधारा गहन हो गई है । जान पड़ता है इसमें उन्होंने अपने अव. शिप्ट विचारों को रखने का प्रयास किया है। इसमें हेतुओं को उपलब्धि अनुपलब्धि ग्रादि अनेक भेदों का विस्तत विवेचन किया गया है। जान पड़ता हे इस पर प्राचार्य अनन्तवीयं कृत प्रमाण संग्रहालंकार नाम को कोई का रही है जिसका उल्लेख अनन्तवीर्य ने स्वयं किया है।
प्रमाण संग्रह में प्रस्ताव और साढ़े सतासी ८७३ कारिकाएं हैं। इस पर अकलंक देव ने कारिकामा अतिरिक्त पूरक वृत्ति भी लिखी है। इस तरह गद्य-पद्यमय इस ग्रंथ का प्रमाण लगभग अप्टशतो के बराबर हो हो जाता है। प्रथम प्रस्ताव में ६ कारिकायें हैं। जिनमें प्रत्यक्ष का लक्षण श्रुत का प्रत्यक्ष अनुमान चोर आगमपूर्वक, प्रौर प्रमाण का फल आदि का निरूपण है। दूसरे प्रस्ताव में भी कारिकाय हैं, जिनमें परीक्ष के भेट स्मति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क आदि का निरूपण है।
तीसरे प्रस्ताव में १० कारिकानों द्वारा अनुमान के अवयव, साध्य साधन साध्याभास का लक्षण, सदसदेकान्त में साध्य प्रयोग की असम्भवता, सामान्य विशेषात्मक वस्तु को साध्यता और उसमें दिये जाने वाले संशयानि पाठ दोषों के निराकरण प्रादि का कथन है।
१. अवगयरिणवारणठं पयदस्य परूवणा रिण मित्त च । संशयविणासण? तच्चत्थवधारणट्ट च ।।
-धवला० पु०१पृ० ३१ । २. सिद्धि विनिश्चय टीका पृ०८, १०, १३० आदि
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास बाप-२
चौथे प्रस्ताव में साड़े ग्यारहकानों द्वारा त्रिरूप का निराकरण, अन्यथा नुपपत्तिरूप हेतु का समर्थन, पौर हेतु के उपलब्धि अनुपलब्धि आदि भेदों का विवेचन तथा कारण, पूर्वचर, उत्तरचर, पौर सहचर हेतुमों समर्थन
पांचवें प्रस्ताव में साड़े दशकारिकामों में विरुद्धादि हेत्वाभासों का निरूपण किया गया है।
छठे प्रस्ताव में १२३ कारिकारों द्वारा वाद का लक्षण, जय-पराजय व्यवस्था का स्वरूप, जाति का लक्षण प्रादि वाद सम्बन्धि कथन दिया है। और अन्त में धर्मकीर्ति प्रादि द्वारा प्रतिवादियों के प्रति जाब्यादि अपशब्दों के प्रयोग का सबल उत्तर दिया है।
सातवें प्रस्ताव में १० कारिकाओं में प्रवचन का लक्षण, सर्वज्ञता का समर्थन, अपौरुषेयत्व का खंडन, तत्त्वज्ञान चारित्र की मोक्ष हेतुता प्रादि प्रवचन सम्बन्धी विषयों का विवेचन किया है।
पाठवे प्रस्ताव में १३ कारिकाओं में सप्तभंगी का निरूपण और नेगमादिनयों का कथन है।
नौवे प्रस्ताव में २ कारिकाओं द्वारा प्रमाण नय और निक्षेप का उपसंहार किया गया है। इस तरह यह ग्रंथ अपनी खास विशेषता रखता है। स्व० न्यायाचार्य पं. महेन्द्र कुमार जी ने प्रकलंक देव की इस महत्वपूर्ण कृतिका सम्पादन कर जैन संस्कृति का बड़ा उपकार किया है। यह ग्रंथ प्रकलंक ग्रन्थत्रय में प्रकाशित है। इस तरह मकलक देव की सभी कृतियाँ महत्वपूर्ण हैं। और अकलंक की यह जैन न्याय को अपूर्व देन है।
अकलङ्क नाम के अन्य विद्वान प्रकलंक नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं । जैन साहित्य में प्रकलंक नाम के अनेक विद्वानों का उल्लेख मिलता है। उनका यहां संक्षिप्त परिचय दिया जाता है:
प्रकलंकचन्द्र - नन्दि संघ-सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण, मोर कुन्दकुन्दान्वय की पट्टावली के ७३वें गुरु, वर्द्धमान की कीर्ति के पश्चात् और ललित कीतिके पूर्व उल्लिखित उक्त पट्टावली के अनुसार इनका समय ११९६१२०० ईस्वी है। -(ग्वालियर पट्टान्तर्गत)
अकलङ्क विद्य-मूलसंघ देशीयगण पुस्तक गच्छ कोण्ड कुन्दान्वय के कोल्हापुरीय माघनन्दि के प्रशिष्य, देवकीति, (जिनका वास ११६३ ई० में हमा) के शिष्य, शुभचन्द्र विद्यदेव और गण्डविमुक्तवादि च मुख
विद्य के सधर्मा, माणिक्य भंडारि मरियाने, महाप्रधान दण्डनायक भरत पौर श्रीकरण हैग्गडे बूचिमय्य के गरुवादि वज्रांकुश प्रकलंक विद्य थे। इनका समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है।
प्रककलं पण्डित-इनका उल्लेख श्रवण बेलगोलस्थ चन्द्रगिरि शिलालेख नं० १६६ में, जो ईस्वी सन १०९८ में उत्कीर्ण हुमा है पाया जाता है।
कब-इन्होंने दविड संघ नन्द्यान्वय के वादिराज मुनि के शिष्य महामण्डलाचार्य राजगुरु पुष्पसेन मनि के साथ शक सं० ११७८ (सन् १२५६) में हुम्मच में समाधि मरण किया था। यह सम्भवतः मुनि पूषासन के सधर्मा थे। और इनके शिष्य गुणसेन सैद्धान्तिक थे।
प्रकलंकमुनिप-नन्दिसंच-बलात्कारगण के जयकीर्ति के शिष्य, चन्द्रप्रभ के सघर्मा, विजयकीति. पाल्यनीति विमलकीति, श्रीपालकीर्ति और मार्यिका चन्द्रमती के गुरु थे। संगीतपुरपरेश मालुक्देवराय इनका भक्त था । बंकापुर में इन्होंने नृप मादन एल्लप के मदोन्मत्त प्रधान गजेन्द्र को अपने स्पोक्ल से शान्त किया था। इसका स्वर्गवास शक सं० १४१७ (सन् १५३५ ई०) में हुआ था।
१. श्रवण बेलगोल शि० न० (६४) पृ० २८, न्याय कुमुदचन्द भा.१ प्रस्ता० पृ० २५ । २. श्रवण वेलगोल शि० न० १६६ पृ. ३०६ । ३. एपीमाफिया, काटिका, ८, नागर (४४) ४. प्रशस्ति संग्रह आरा पृ० १२६, १३० ।
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाँचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक आचार्य
१५५ अकलंक देव-मूलसंघ देशोयगण पुस्तकगच्छ कुन्द-कुन्दान्वय में श्रवण बेल्गोल मठ के चारुकीर्ति पंडित को शिष्य परम्परा में उत्पन्न तथा संगीतपुर (हाइहल्लि दक्षिणी कनाराजिला) के मठाधीश भट्ठारक थे। यह कर्णाटक शब्दानुशासन के कर्ता भट्टाकलंक देव के गुरु, और सम्भवतया प्रकलंक मुनिप के प्रशिष्य थे। इनका समय सन् १५५०-७५ ई० के लगभग है।
(देखो अंग्रेजी जैन गजट १९२३ ई० पृ० २१७) प्रकलंकदेव (भटाकलंक देव)-यह मलसंघ देशीगण के विद्वान सधापूर के भद्रारक, विजय नरेश पतिराय (१५८६-१६१५ ई०) से समाढत तथा कर्णाटक शब्दानुशासन नामक प्रसिद्ध कनड़ी व्यकरण और मंजरी मकरन्द शोमकृत संवत्सर शक सं० १५२६ सन १६०४ ई० में समाप्त किया) के रचयिता थे।
राय बहादुर मार नरसिंहाचार्य के कथनानुसार यह विभिन्न सम्प्रदायों के न्यायशास्त्र में निष्णात थे।-एक निपूण टीकाकार तथा संस्कृत और कन्नड उभय भाषाओं के व्याकरण के महा पण्डित थे। तत्कालीन अनेक राजारों की सभाम्रों में बाद में विजय प्राप्त कर जैनधर्म को महतो प्रभावना को थी। राजाबली कथं के कर्ता देवचन्न के अनुसार इन्होंने सुधापुर में ही विविवज्ञान-विज्ञान को शिक्षा प्राप्त की थी। यह छह भाषाओं में कविता कर सकते थे। यह कर्णाटक शब्दानुशासन की रचना द्वारा लोकप्रिय थे। इनका समय विक्रम की १७वी शताब्दी का अन्तिम चरण (१६७२) है। (देखो, पार० नरसिहाचार्य कर्णाटक शब्दानुशासन की भूमिका, कर्णाटक विचारते, और राजावलि कथे ।)
अकलंक मुनिप-देशीगण पुस्तकगच्छ के कनकगिरि (कार्कल) के भट्टारक थे। शक सं० १७३५ (वि० सं०१८७०) सन् १८१३ ई० में इन्होंने समाधिमरण किया था।
(एपि० कर्णाटिका ४ चामराजनगर १४६और १५०) प्रकाशंक देव-इन्हें प्रकलंक प्रतिष्ठा पाठ या प्रतिष्ठाकल्प के रचयिता कहा जाता है। इस ग्रन्थ में हवों शताब्दी से लेकर सोमसेन के त्रिवर्णाचार (उपलब्ध प्राचीनतम प्रति) १७०२ ई० के उल्लेख या उद्धरण आदि पाये जाते हैं । प्रतः इनका समय १८वीं शताब्दी का पूर्वार्ध हो सकता है।
__(प्रशस्ति स० पारा पृ० १६५,१६८, १८०।) प्रकलंक-'परमागमसार' नामक कन्नड़ ग्रन्थ के रचयिता।
(देखो, जैन सि० भ० पारा की ग्रन्थ सूची पृ०१८) अकलंक-चैत्यवन्दनादि प्रतिक्रमण सूत्र, साध श्राद्ध प्रतिक्रमण और पदपर्याय मंजरी आदि के कर्ता ।
न्याय कुमुदचन्द प्रस्तावना पृ०५०
परवादिमल्ल यह अपने समय के बहुत बड़े विद्वान थे। इनकी गुरु परम्परा ज्ञात नहीं हुई। पर यह परवादिमल्ल के रूप में प्रसिद्ध थे। मल्लिषेण प्रशास्ति में पत्रवादी विमलचन्द्र और इन्द्रनन्दि के वर्णन के पश्चात घटवाद घटा कोटि. कोविंद परवादि मल्लदेव का स्तवन किया गया है। और राजा शुभतुग की सभा में उन्ही के मुख से अपने नाम की सार्थकता इस प्रकार बतलाई गई है ;
घट-बाद-घटा-कोटि-कोविदः कोविदा प्रबाक: परवाविमल्ल-देवो देव एव न संशयः।।२९ येनेयमात्मनामधेर्यानरुक्तिरुक्तानाम पृष्ठवन्तं कृष्णराज प्रति । गहीत पक्षः दितरः परः स्यात् तद्वादिनस्ते पर वादिनः स्युः।
तेषां ही मल्लः परवादिमल्लः तन्नाम मन्नाम वदन्ति सन्तः ॥२६ इस उल्लेख पर से स्पष्ट है कि ईसा की १२वीं शताब्दी के प्रारम्भ में परवादिमल्ल की गणना महानवादी और प्राचीन माचार्यों में की जाती थी। परन्तु उस समय लोग उनके मूल नाम को भूल चुके थे। परवादीमल्ल प्रकलंक देव की परम्प रा के विद्वान जान पड़ते हैं।
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
परवादिमल्ल के समकालीन राजा, जिसकी सभा में उन्होंने अपने नाम की सार्थकता प्रकट की थी, राष्ट्रकट राजा कृष्णराज प्रथम शुभतुग (७५७-७७३) था । संभव है इन्हीं परवादिमल ने धर्मोत्तर कृत न्यायविन्दु टिप्पण पर टीका लिखी हो। अतएव इन परवादि मल्ल प्रथम का समय ७७० ये ८०० के लगभग हो सकता है।
यह प्रशस्ति मल्लिपण मुनि के शक सं० १०५० (सन् ११२८) में उनके शरीर त्याग करने की स्मृति में उत्कीर्ण की गई थी। उक्त प्रशस्ति मे अकलक का साहसतुग की सभा में वादियों को अपने नाम के अर्थ का करना इस बात का साक्षी है क प्रशस्तिकार इन दो राजाओं को पृथक समझते थे। इस प्रशस्ति में अनेक प्राचीन प्राचार्यों के नामों का उल्लेख किया गया है। महावादी समन्तभद्र, महाध्यानी सिंहनन्दि, षण्मासवादी वक्रग्रीव, नवस्त्रोतकारी वज्रनन्दि, विलक्षणकदर्थन के कर्ता पात्रकेसरी गुरु, सुमति सप्तक के रचयिता सुमतिदेव, महाप्रभावशाली कमारमेन, मुनि श्रेष्ठ चिन्तामणि, दण्डि कवि द्वारा स्मत कवि चड़ामणि श्री वर्धदेव, और सप्ततिवाद विजेता महेश्वर मुनि के बाद घटावतीर्ण तारादेवी के विजेता अकलंक देव का स्तवन किया गया है। इससे इस प्रशस्ति की महत्ता स्पप्ट है।
रविषणाचार्य रविषेणाचार्य-ने अपने सघ पार गण-गच्छादि का कोई उल्लेख नही किया। परन्तु सेनान्त नाम होने से वे सेनसब के विद्वान जान पड़ते है। इन्होंने अपना गुरु परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार प्रकट किया है :
प्रासोदिन्द्रगुरो दिवाकर यतिः शिष्योऽस्य चाहन्मुनि
स्तस्माल्लक्ष्मणसेन सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम् ॥ इन्द्र गुरु के दिवाकर यति, दिवाकर यति के अर्हन्मुनि, अर्हन्मुनि के लक्ष्मणसेन, ओर लक्ष्मणसेन के शिष्य रविषेण थे। इसके सिवाय इन्होंने अपना कं ३ परिचय नही दिया। और न यही सूचित किया कि वे किस प्रान्त के निवासी थे। इनके मातापिता कौन थे, का गृहस्थ जीवन कैसा रहा? और मूनिजीवन कब धारण किया और उसमें क्या कुछ कार्य किया। इसका क ई उलेल्ख उपलब्ध नहीं होता। आपकी एक मात्र कृति पद्म चरित या बलभद्र चरित्र है। जो संस्कृत भाषा का एक सुन्दर चरित्र ग्रन्थ है। इसमें १२३ पर्व हैं जिनकी श्लोक संख्या बीस हजार के लगभग है।
ग्रन्थ में वोसर्व तीर्थकर मूनिमुव्रत के तीर्थ में होने वाले बलभद्र या राम का चरित वर्णित है। मर्यादा रुषोत्तम रामचन्द्र इतने अधिक लोक प्रिय हए हैं कि उनका वर्णन भारतीय साहित्य में ही नहीं किन्तु भारत से बाहर के साहित्य में भी पाया जाता है। और संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश आदि प्राचीन भाषाओं में और प्रान्तीयभापायों में भी उनका जीवन-परिचय निबद्ध मिलता है।
आचार्य रविण ने लिखा है कि तीर्थकर वर्द्धमानने पद्म मूनि का जो चरित कहा था वही इन्द्रभूतिगणधर ने धारिणी पुत्र सुधर्मको कहा, और सुधर्म ने जंबू स्वामी से कहा । ओर वही प्राचार्य परम्परा से पाता हमा उत्तर वाग्मी और श्रेप्ट वक्ता कीर्तिधर प्राचार्य को प्राप्त हुआ। उनके लिखे हुए चरित्र को पाकर रविषेण ने यह प्रयत्न किया है। इतना ही नहीं किन्तु अन्तिम १२३वे पर्व के १६६वे श्लोक में उन्होंने इसी प्रकार उल्लेख किया
१. वर्द्धमान जिनेन्द्रोक्तः मोऽयमों गणेश्वरम । इन्द्रभूति परिप्राप्त मुध : धारिगी भवम् ।।४१ प्रभव क्रमतः कीर्ति ततोऽनुत्तर वाग्मिनम् । लिखत नम्य सम्प्राप्य रवेयंत्लोऽयमुदगतः ॥४२॥
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
१५७
निर्दिष्टं सकलमतेन भुवनः श्रीवद्धमानेन यत् । तत्त्वं वासव भूतिना निगदितं जम्बोः प्रशिष्यस्य च । शिष्येणोत्तर वाग्मिना प्रकटितं पपस्य बत्तं मुनेः ।
श्रेयः साधु समाधि वृद्धि करणं सर्वोत्तमं मङ्गलम् ॥१६६ अपभ्रंश भाषा के कवि स्वयंभूने पद्म चरित के प्राधार से "कित्तिहरेण अनुत्तरवाएं" वाक्य के साथ अनुत्तर वाग्मी श्रेष्ठ वक्ता कीर्तिधर का उल्लेख किया है। परन्तु प्रेमी जी ने इसका कोई उल्लेख नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि रविषेण ने पद्ममुनि का चरित कीर्तिधर नाम के प्राचार्य के द्वारा लिखित किसी ग्रन्थ पर से ले लिया है और उसी के अनुसार इसकी रचना की गई है। पर कीर्तिधर आचार्य का अन्य कोई उल्लेख इस समय उपलब्ध नहीं है । और न अन्यत्र से उसका समर्थन होता है । जान पड़ता है उनका यह ग्रन्थ विनष्ट हो गया है । इस तरह बहुत सा प्राचीन साहित्य सदा के लिये लुप्त हो गया है।
__यहां यह अवश्य विचारणीय है कि विमल सूरि के 'पउमचरित्र' के साथ रविषेण की इस रचना का बहत कुछ साम्य अनेक स्थलों पर दिखाई देता है । इधर पउमचरिय का वह रचना काल भी संदिग्ध है। वह उस काल की रचना नहीं है । प्रशस्ति में जो परम्परा दी गई है उसका भी समर्थन अन्यत्र से नहीं हो रहा है । ग्रन्थ की भाषा और रचना शैली को देखते हुए वह उस काल की रचना नहीं जान पड़ती। उस समय महाराष्ट्रीय प्राकृत का इतना प्रांजल रूप साहित्यिक रचना में उपलब्ध नहीं होता। और ग्रन्थ के प्रत्येक उद्देश्य के अन्त में गारिणी शरभ आदि छन्दों का, गोति में यमक और प्रत्येक सर्गान्त में विमल शब्द का प्रयोग भी इसको अर्वाचीनता का ही द्योतक है । इस सम्बन्ध में अभी मोर गहरा विचार करने तथा अन्य प्रमाणों के अन्वेषण करने की आवश्यकता है। पर कुवलय माला (वि० सं० ८३५ के लगभग) में दोनों का उल्लेख होने से यह निश्चित है कि पउमचरित पौर पद्मवरित दोनों हो उससे पूर्व को रचना हैं इससे पूर्व का अन्य कोई उल्लेख मेरे देखने में ही वह महावीर निर्वाण से ५३० (वि० सं०६०) की रचना नहीं हो सकती।
पुन्नाट संघी जिनसेन (शक सं० ७०५) ने रविषेण और उनके पद्मचरित का उल्लेख किया है।
पद्मचरित एक संस्कृत पद्मबद्ध चरित काव्य है। इसमें महाकाव्य के सभी लक्षण मौजुद हैं। ग्रन्थ की पर्व संख्या १२३ है। इसमें पाठवें बलभद्र राम, और पाठवें नारायण लक्ष्मण, भरत सीता, जनक, अंजना पवनंजय, भामंडल, हनुमान, और राक्षसवंशी रावण, विभीषण और सुग्रीवादिक का परिचय अंकित किया गया है
और प्रसंगवश अनेक कथानक संकलित हैं। राम कथा के अनेक रूप हैं । जैन ग्रन्थों में इसके दो रूप मिलते हैं । ग्रन्थ में सीता के प्रादर्श को सुन्दर झांको प्रस्तुत की गई है । और राम के जीवन की महत्ता का दिग्दर्शन कराया गया
१. पंचेवयवाससया दुसमाए तीसवरिस संजुत्ता। वीरे सिद्धमुवगए तओ निबद्धं इमं चरियं ।।१०३
-पउम चरिय प्रशस्ति २. देखो, पउमचरिउ का अन्तः परीक्षण, अनेकान्त वर्ष ५ किरण १०-११ पृ० ३३७ ३. जारसियं विमलको विमलंको तारिसं लहइ अत्थं ।
अमयमइयं च सरसं सरसं चिय पाइग्रं जस्स ॥ जेहि कए रमणिज्जे वरंगपउमाणचरियवित्थारे । कहव ण सलाह णिज्जे ते कइयो जडिय-रविसेणो ।
-कुवलप्रमाला ४. कृतपद्योदयो द्योता प्रत्यहं परिवर्तिता। मतः काव्यमयी लोकेरवे रिव रवेः प्रिया ।।३४
-हरिवंश पुराण १-३४
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ है। रूप सौन्दर्य के चित्रण में कवि ने कमाल कर दिखाया है । ग्रन्थ में चरित के साथ वन, पर्वत, नदियों और ऋतु आदि के प्राकृतिक दृश्यों, जन्म विवाहादि सामाजिक उत्सवों, शृंगारादि रसों, हाव-भाव विलासों तथा सम्पत्ति विपत्ति में सुख-दुखों के उतार चढ़ाव का हृदयमाही चित्रण किया गया है। धार्मिक उपदेशों का यथास्थान वर्णन दिया हया है। प्रसंगानुसार अनेक रोचक कथामों को जोड़कर ग्रन्थ को"पाकर्षक और रुचि पूर्ण बनाने का प्रयत्न किया गया है। प्रत्यकर्ता ने प्राणियों के कर्मफलों को दिखलाने में अधिक रसलिया है। क्योंकि उनके सामने नैतिकता का शुष्क प्रादर्श नहीं था।
छन्दों कि दृष्टि से ग्रन्थ में आर्या, वसन्ततिलका, मन्दाक्रान्ता, द्रसविलम्बित, रयोखता, शिखरिणी, दोषक वंशस्थ, उपजाति, पृथ्वी, उपेन्द्रवधा स्रग्धरा, इन्द्रवणा, भुजंगप्रयात, वियोगिनी, पुषिताना, तोटक, विद्युन्माला हरिणी, चतुष्पंदिका और पार्यगीति भादि छन्दों का उपयोग किया गया है। इस सब विवेचन से पारित की महत्ता का सहज अनुभव हो जाता है।
रविषेणाचार्य ने पप्रचरित का निर्माण भगवान महावीर के निर्वाण से १२०३ वर्ष छह महीने व्यतीत होने पर वि० सं०७३४ (सन् ६०ई०) के लग-जग किया है। जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्य से स्पष्ट है :
द्विशतान्यधिक संमांसहन समातीतचतुर्ववर्यालय जिन भास्कर वर्द्धमान सिद्धे चरितं भयमुनरिव निवडामा१८५
__ शामनाचार्य शामकं डाचार्य-अपने समय के बड़े विद्वान थे। इन्होंने पद्धति रूप टीका का निर्माण किया था। यह टीका षटखंडागम के छठवें खण्ड को छोड़कर आदि के पांच खंडों पर तथा दूसरे सिद्धान्तमन्य कषाय-प्राभूत पर थी। यह टीका पद्धति रूप थी । वृत्ति सूत्र के विषम पदों के भंजन को-विश्लेषणात्मक विवरण को-पद्धति कहते हैं-"वित्ति सत्तविसम--पदभंजियाए विवरणाए पंजियाववएसादो सुत्त विनि विवरणाए पद्धई ववएसादो-" (जय ध० प्रस्ता० पं. १२ टि.) इससे जान पड़ता है कि शामकुण्डाचार्य के सम्मुख कोई वृत्ति सूत्र रहे हैं। जिनकी उन्होंने पद्धति लिखी थी । संभव है कि शामकुण्डाचार्य के समक्ष यतिवृषभाचार्य कृत वृत्ति सूत्र ही रहे हों, जिन पर बारह हजार श्लोक प्रमाण पद्धति रची हो । इन्द्र नन्दि ने श्रुतावतार में उसका उल्लेख किया है :
काले ततः कियत्मपि गते पुनः शामकुण्डसंज्ञेन । प्राचार्येण ज्ञात्वा द्विमेव मप्यागमः कात्यात् ॥१६२ द्वादश गुणित सहस्र ग्रन्थ सिद्धान्तयोरुभयो ।
षष्ठेन विना खण्डेन पृथु महाबन्ध संजेन ॥१६३ शामकूण्डाचार्य का समय संभवतः सातवीं शताब्दी हो, इस विषय में निश्चयतः कुछ नहीं कहा जा सकता।
बावननन्दि मुनि यह तमिल व्याकरणों-तोलकापियम, प्रगत्तियम् तथा प्रविनयम् नामक व्याकरण ग्रन्थों के ज्ञाता ही नहीं थे किन्तु संस्कृत व्याकरण जैनेन्द्र में भी प्रवीन थे। इन्होंने शिव गंग नाम के सामन्त के अनुरोध पर 'मन्नू लू' नाम के व्याकरण की रचना की थी। यह ग्रन्थ सबसे अधिक प्रचलित है, इस अंच पर अनेक टीकाए हैं। उनमें मुख्य टीका मल्लिनाथ की है। यह ग्रंथ स्कूल और कालेजों में पाठ्य क्रम के रूप में निर्धारित है। जैनेन्द्र व्याकरण के ज्ञाता होने के कारण इनका समय पूज्यपाद के बाद होना चाहिये । प्रात् यह ईसा की सातवीं शताब्दी के विद्वान हैं।
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं-बाताब्दी से आठवी शताब्दी तक के आचार्य
२५६
इन्द्र गुरु यह दिवाकर यति के शिष्य थे। पद्मचरित के कर्ता रविषेण भी इन्हीं की परम्परा में हुए हैं। रविषेण ने पद्यचरित की रचना वीर नि० संबत १२०३ सन् ६४७ में की है अतः इन्द्र गुरु का समय ईसा की ७वीं सदी का पूर्वार्ध होना चाहिये।
देवसेन इस नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें प्रथम देवसेन वे हैं, जिनका उल्लेख शक सं० २२ सन
(वि० सं०७५७) केचन्द्रगिरि पर्वत के एक शिलालेख में पाया जाता है। महामनि देवसेन व्रतपाल कर स्वर्गवासी हुए।
(जैन लेख सं० भा० १लेख नं० ३२ (११३)
बलदेव गुरु यह कित्तर में वेल्लाद के धर्ममेन गुरु के शिष्य थे। इन्होंने सन्यासव्रत का पालन कर शरीर का परित्याग किया था, यह लेख लगभग शक सं०६२२ सन् ७०० का है। अतः इनका समय सातवीं शताब्दी का अन्तिम चरण
(जैन लेख सं० भा०१ लेख नं०७ (२४) पृ०४)
उग्रसेन गुरु यह मलनर के निगुरु के शिष्य थे। इन्होंने एक महीने का सन्यास व्रत लेकर समताभाव से शरीर का परित्याग किया था। लेख का समय शक सं०६२२ सन् ७०० है। प्रतः इनका समय ईसा की सातवीं शताब्दी का अन्तिम चरण है।
(जैन लेख संग्रह भा० १ पृ० ४)
गुणसेन मुनि ये प्रगलि के भांति गुरु के शिष्य गुणसेन ने वृताचरण कर स्वर्गवासी हुए। यह लेख शक सं० ६२२ सन् ७०० ईस्वी का है।
(जैन लेख संग्र० भा० १ पृ० ४)
नागसेमगुरु यह ऋषभसेन गरु के शिष्य थे। इन्होंने संन्यास-विधि से शरीर का परित्याग कर देवलोक प्राप्त किया। लेख का समय लगभग शक सं०६२२ सन् ७०० है।
(जैन लेख सं० भा. १ पृ. ६)
सिंहनन्दिगुरु
यह वेट्टमुरु के शिष्य थे। इन्होंने भी सन्यास विधि से शरीर का परित्याग किया था। यह लेख भी शक ०.६२२,सन ७०० का उत्कीर्ण किया हुआ है। अतः सिंहनन्दि गुरु ईसा की सातवीं शताब्दी के विद्वान है।
(जैत लेख सं०.१पृ०७)
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
गुणदेव सूरि
ये शास्त्र वेदी थे । बड़े तपस्वी और कष्ट सहिष्णु थे । इन्होंने कलवप्प पर्वत के शिखर पर समाधिमरण पूर्वक आराधनाओं का प्राराधन कर देह त्याग किया था। इनका समय अनुमानत: लगभग शक स० ६२२ सन् ७०० है । ( - जैन लेख सं० भा० १ ले. १६० पृ० ३०८ )
१६०
इन्होंने चन्द्रगिरि पर देहोत्सर्ग किया था । यह शिलालेख शक सं० ६२२ सन् ७०० ई० का है । जैन लेख संभा० १ ले० ३० (१०५) पृ. १३
गुण कीर्ति
तेल मोलि देवर ( तोलांमोलित्तेरव)
तेल मोलि देवर (तोला मोलि तेरव) - ये तमिल भाषा के कवि थे । इन्होंने 'चूड़ामणि' नाम का एक तमिल जैन ग्रन्थ राजा सेकत (६५०ई०) के राज्य काल में उनके पिता राजा मार वर्म्मन प्रवेतीचूलमान की स्मृति में बनाया था ।
यह एक लघु काव्य ग्रन्थ है, इसकी रचना शैली 'जीवक चिन्तामणि' के ढंग की है। तमिलनाड में पुरातन समय से भावी बातों की सूचना देने वाले ज्योतिषयों की एक जाति रही है, जिसे 'नादन' कहते हैं । इसमें भविष्यवक्ता का प्रभाव, वधू द्वारा वर का चुनाव । युद्ध में वीरों के प्राचरण, बहुविवाह की प्रथा प्रादि का वर्णन है । इसकी कथा भू-लोक और स्वर्ग लोक दोनों से सम्बन्ध रखती है । प्रजापति राजा की दो पत्नियाँ थीं, दोनों से उसके दो पुत्र हुए । एक का नाम विजयंत, जो गौर वर्ण था। दूसरे का नाम तिविट्टन था, जो कृष्ण वर्ण था । दोनों बालक प्रत्यन्त सुन्दर थे। एक दिन भविष्यवक्ता ने आकर कहा कि तिवट्टन का विवाह स्वर्ग लोक की एक अप्सरा से होगा । उसी समय प्रप्सराम्रों की रानी को भी अपनी कन्या के विवाह के सम्बन्ध में ऐसा ही स्वप्न हुआ । अन्त में दोनों का विवाह सम्पन्न हो गया । इसमें तिविट्टन की कथा और अप्सरा की कन्या के साथ विवाह आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है । और कथा के अन्त में राजा का राज्य परित्याग कर सन्यासी होने का उल्लेख है । साथ में जैन धर्म के सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है । कवि का समय भी ६५० ईस्वी है ।
चन्द्रनन्दि:- शिष्य कुमारनन्दि का उल्लेख श्री पुरुष के दान-पत्र में सन् ७७६ (वि० सं० ८३३) का उत्कीर्ण किया हुआ है । और जो श्रीपुर के चन्द्रनन्दि का समय ईसा की क्ष्वीं शताब्दी का मध्यकाल सुनिश्चित है ।
क्रिक
चन्द्रनन्दि
पाया जाता है, जो शक सं०६७८ जिनालय को दिया गया था । इससे
जयदेव पंडित
जयदेव पंडित - मूलसंधान्वय देवगण शाखा के रामदेवाचार्य के शिष्य थे। इनके शिष्य विजयदेव पंडिताचार्य को शंख वस्ति के घवल जिनालय के लिए शक सं० ६५६ (वि० सं० ७६१ ) में विजय संवत्सर द्वितीय में माघ पूर्णिमा को कुछ भूमि पश्चिमी चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय ने दी थी ।
जैन लेख सं० भा० २ लेख नं० ११५
विजयको-मुनि
यापनीय नन्दिसंघ पुंनागवृक्ष मूलगण के विद्वानों की परम्परा में कूविलाचार्य के शिष्य थे। इनके शिष्य
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
१६१
अर्ककीर्ति को शक सं०७३५ (सन् ८१३) में जेठ महीने के शक्ल पक्ष की दशमी चन्द्रवार के दिन शिलाग्राम के जिनेन्द्र भवन को जाल मंगल नाम का गांव उक्त अर्ककीति को दान में दिया गया था। अतः विजयकीति का समय ईसा की ८वीं शताब्दी है।
(जैन लेख सं० भा०२ पृ० १३७)
विमलचंद्राचार्य मूलसंघ के नन्दिसंघान्वय में एरेगित्तू नामक गण में और पुलिकल गच्छ में चन्द्रनन्दि गुरु हुए। इनके शिष्य मुनि कुमारनन्दि थे, जो विद्वानों में अग्रणी थे। इन कुमारनन्दि के शिष्य जिनवाणी द्वारा अपनी कोति को अर्जन करने वाले कीर्तिनन्द्याचार्य हुए। कीर्तिनन्द्याचार्य के प्रिय शिष्य विमल चन्द्राचार्य हुए। जो शिष्यजनों के मिथ्याज्ञानान्धकार के विनाश करने के लिए सूर्य के समान थे। महर्षि विमलचन्द्र के धर्मोपदेश से निर्गुन्द्र युवराज जिनका पहला लाम 'दुण्डु' था और जो बाणकुलके नाशक थे। इनके पुत्र पृथिवी निर्गुन्द्रराज हए । इनका पहला नाम परभगूल था इनकी पत्नी का नाम कुन्दाच्चि था। जो सगर कुलतिलक मरुवर्मा की पुत्री थी, और इनकी माता पल्लवाधिराज की प्रिय पुत्री थी जो मरुवर्मा की पत्नी थी । कुन्दाच्चि ने श्रीपुर की उत्तर दिशा में लोकतिलक नाम का जिनमन्दिर बनवाया था। उसकी मरमत नई वृद्धि, देवपूजा और दान धर्म आदि की प्रवत्ति के लिये पृथिवी निर्गुन्द्रराज के कहने से महाराजाधिराज परमेश्वर श्री जसहितदेव ने निर्गुन्द्र देश में आने वाले पोन्नल्लि ग्राम का दान सब करों और बाधाओं से मुक्त करके दिया । लेख में इस गांव की सीमा दी हुई है। चूंकि यह लेख शक सं०६९८ सन् ७७६ ई० में उत्कीर्ण किया गया था। अतः विमल चन्द्राचार्य का समय ७७६ ईस्वी है।
(जैन लेख संग्रह भा० २ पृ० १०६) इस लेख में विमल चन्द्राचार्य की गुरु परम्परा का उल्लेख दिया हुआ है । जिनके नाम ऊपर दिये हुए हैं ।
कोतिनन्दि-यह विमल चन्द्राचार्य के गुरु थे। इनका समय उक्त लेखानुसार सन् ७५६ होना चाहिए।
विशेषवादि यह अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। इसी से जिनसेन और वादिराज ने उनका स्मरण किया है। पुन्नाटसंघी जिनसेन ने हरिवंशपुराण में उनका स्मरण निम्न रूप में किया है :
योऽशेषोक्ति विशेषेषु विशेषः पद्यगद्ययोः ।
विशेषवादिता तस्य विशेषत्रयवादिनः॥३७ जो गद्य पद्य सम्बन्धी समस्त विशिष्ट उक्तियों के विषय में विशेष-तिलकरूप हैं, तथा जो विशेषत्रय (ग्रंथ विशेष) का निरूपण करने वाले हैं। ऐसे विशेषवादी कवि का विशेष वादीपना सर्वत्र प्रसिद्ध है।
शाकटायन ने अपने एक सूत्र में कहा है कि-'उप विशेषवादिनं कवयः । (१३१०४) सारे कवि विशेष वादि से नीचे हैं। प्राचार्यवादिराज ने भी पार्श्वनाथचरित में उनके 'विशेषाभ्युदय' काव्य की प्रशंसा की है १ जो गद्य पद्य मय महाकाव्य के रूप में प्रसिद्ध होगा । शाकटायन यापनीय संघ के विद्वान थे प्रेमीजी ने विशेषवादी को यापनीय लिखा है । इनका समय शक सं० ७०५ (वी० सं० ८४०) सन् ७८३से पूर्ववर्ती है । संभवत: विशेषवादी पाठवीं शताब्दी के विद्वान हों।
१. विशेष वादिगीगुम्फश्रवणासवतबुद्धयः । अक्लेशादधि गच्छन्ति विशेषाभ्युदयं बुधाः ।।
-वादिराज पार्श्वनाथ चरित
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
चंद्रसेन यह पंच स्तूपान्वय के विद्वान मुनि थे । यह वीरसेन के दादा गुरु और आर्यनन्दि के गुरु थे । इनका समय ईसा की ८वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है।
प्रार्यनंदि यह पंच स्तुपान्वय के विद्वान थे और वीरसेन के दीक्षा गुरु थे। और चन्द्रसेन के शिष्य थे ।१ इनका समय भी ईसा की ८वीं शताब्दी होना चाहिए।
एलाचाय एलाचार्य किस अन्वय या गण-गच्छ के विद्वान आचार्य थे, यह कुछ ज्ञात नहीं होता। सिद्धान्त शास्त्रों के विशेष ज्ञाता विद्वान थे, और महान तपस्वी थे । और चित्रकूटपुर (चित्तौड़) के निवासी थे। इन्हीं से वीरसेन ने सकल सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन किया था। इसी कारण एलाचार्य वीरसेन के विद्या गुरु थे। वीरसेन ने इनसे षट् खण्डा गम और कसायपाहुड का परिज्ञान कर धवला और जय धवला टीकाओं का निर्माण किया। वीरसेनाचार्य ने धवला टीका प्रशस्ति में एलाचार्य का निम्न शब्दों में उल्लेख किया है :
जस्स पसाएण मए सिद्धत मिदं हि अहिलहदं।
महुसो एलाइरियो पसियउ वर वीरसेणस्स ॥१॥ वीरसेनाचार्य ने अपनी धवलाटीका शक सं० ७३८ सन् ८११ में बनाकर समाप्त की। अतः इन एलाचार्य का समय सन् ७७५ से ८०० के मध्य होना चाहिए।
कुमारनन्दी ये अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। आचार्य विद्यानन्द ने प्रमाण परीक्षा में इनका उल्लेख किया है। तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक पृ० २८० में कुमारनन्दि के वादन्याय का उल्लेख किया है :
__ कुमारनन्दिनश्चाहुदिन्याय विचक्षणाः । पत्र परीक्षा के पृष्ठ ३ में-'कुमारनन्दिभट्टारके रपिस्ववादन्याये निगदितत्त्वात्" लिखकर निम्न कारि काएं उद्धृत की हैं
"प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु पुनर्यथा। प्रतिज्ञा प्रोच्यते तज्ज्ञ : तथोदाहरणादिकम् ॥१ न चैवं साधनस्यक लक्षणत्वं विरुध्यते । हेतुलक्षणतापायादन्यांशस्य तथोदितम् ॥२
१. अज्जज्जणंदि सिम्सेरणज्जुब-कम्मस्स चंदमेणम्स। तह णत्तुर्वण पंचत्युहण्यं भाणुणा मुणिणा॥
-धवला प्रशस्ति २. काले गते कित्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी।
श्रीमानेलाचार्या बभूब सिद्धान्ततत्वज्ञः ॥ १७७ तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः । उपरितम निबन्धनाद्यधिकारानष्ट च लिलेख ॥१७८
-इन्द्रनन्दि श्रुतावता
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
अन्यथानुपपत्येक लक्षणं लिङ्ग मङ्यते।
प्रयोग परिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः ॥३ ये कारिकाएं कुमारनन्दि के वादन्याय की हैं। खेद है कि यह ग्रन्थ अप्राप्य है । इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि कुमारनन्दि का वादन्याय नाम का कोई महत्वपूर्ण तर्क ग्रन्थ प्रसिद्ध रहा है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कुमारनन्दि भट्टारक विद्यानन्द से पूर्ववर्ती है। और पात्रकेसरी से बाद के जान पड़ते हैं क्योंकि वादन्याय के उक्त पद्य में हेतु के अन्यथानुपपत्येक लक्षण का उल्लेख है ।
गंगवंश के पृथ्वीकोंगणि महाराज के एक दानपत्र में जो शकसं० ६९८ ई० सन् ७७६ में उत्कीर्ण हुआ है, उसमें मूलसंघ के नन्दिसंघस्थित चन्द्र-नन्दि को दिये गए दान का उल्लेख है। उसमें कुमारनन्दि की गुरु परम्परा दी है। यह प्रकलङ्क देव के पास-पास के विद्वान हैं, क्योंकि इनके वादन्याय पर सिद्धि विनिश्चय के जल्पसिद्धि प्रकरण का प्रभाव है।
उदयदेव यह मूल संधान्वयी देवगणशाखा के विद्वान थे। इन्हें 'निरवद्य पंडित' भी कहते थे। यह प्राचार्य पूज्यपादके शिष्य थे। इन्हें शक सं० ६५१ सन् ७५६ (वि० सं० ७८६) के फाल्गुन महीने को पूर्णिमा के दिन नेरूरगांव से प्राप्त ताम्रपत्र के अनुसार महाराजाधिराज विजयादित्य ने अपने राज्य के ३४ वे वर्ष में जब कि उसका विजय स्कान्धावार रक्तपूर नगर में था पलिकर नगर की दक्षिण सीमा पर बसे हए कर्दम गांव का दान' अपने पिता के पुरोहित उदयदेव पंडित को, जो पूज्यपादके शिष्य थे, पुलिकर नगर में स्थित शङ्ख जिनेन्द्र मन्दिर के हितार्थ दिया था।
सिद्धान्तकोति कन्दान्वय नन्दि संघ के विद्वान थे। जो सिद्धान्तवादी थे और वादिजनों से वन्द्यनीय थे। नया हुम्मच के राजा जिनदत्तराय के गुरु थे । जिनका समय सन् ७३० बतलाया गया है । (जैन लेख सं० भा०३ पृ० ५१८)
एलवाचार्य कौण्ड कुन्दान्वय के भट्टारक कुमारनन्दि के शिष्य थे। इनके शिष्य वर्धमान गुरु थे जिन्हें सन ०७ में 'वदणे गुप्पे' ग्राम श्री विजय जिनालय के लिए दिया गया था । अतएव इनका समय भी वही अर्थात सन २००से ८२० तक हो सकता है।
१. विद्यनन्द ने इस पद्य को "तथा चाभ्याधायि कुमारनन्दि भट्टारकः" वाक्य के साथ उद्धत किया है। २. देखो, जन लेख संग्रह भा० २ लेख न० १२१ पृ० १०६ ३. "एक पञ्चाशदुत्तर षट्छतेषु शकवर्षेस्वातीतेषु प्रवर्तमान विजय-राज्य मंवत्सरे चतुस्त्रिशे वर्तमाने श्री -रक्तपूरमधिवसति-विजय-स्कन्धावोर फाल्गुनमासे पौर्णमास्याम्" दिया हआ है।
(-इ. ए. ७ प्र० ११ नं. ३६ द्वितीयभाग) ४. श्री कुन्द-कुन्दान्वय-नन्दि-संघे योगीश-राज्येन मता......।
जाता महान्तो जित-वादि-पक्षा: चारित्र वेपागुणरत्न भूषाः ।) सिद्धान्तीति जिनदत्तराय प्रणत पादो जयतीद्ध योगः । सिद्धान्तवादी जिन वादी वन्द्यः ।।
जैनलेख सं० भा. ३ पृ. ५१८
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्याय ३
विजय देव पंडिताचार्य महासेन (सुलोचनाकथा के कर्ता) सर्वनन्दि कविलाचार्य वादीसिंह प्रकीति वीरसेन (धवलाटीका के कर्ता) जयसेन अमितसेन कोतिषण श्रीपालदेव जिनसेनाचार्य (पुन्नाट संघी) जिनसेनाचार्य दशरथगुरु गुणभद्राचार्य लोकसेन शाकटायन (पाल्य कीति) उग्रदित्याचार्य महावीराचार्य अपराजितगुरु श्रीदेव स्वयंभूकवि प्रभयनन्दि अनन्तवीर्य देवेन्द्रसैद्धान्तिक कलधौत नन्दि सिद्धभूषण सर्वनन्दि
हवीं और १०वीं शताब्दी के प्राचार्य
गुरुकीतिमुनीश्वर इन्द्रकीति अपराजितसूरि (श्री विजय) अमितगति प्रथम विनयसेन अमृतचन्द्र ठक्कुर. रामसेन इन्द्रनन्दि (ज्वालामालिनी ग्रन्थ के कर्ता) गुरुदास बाहुबलि देव कनकसेन सर्वनन्दि भट्टारक नागवर्म प्रथम नागवर्म द्वितीय प्राचार्य महासेन प्रादिपंप कवि पौन्न, महाकवि रन्न
गुणन्दि
यशोदेव नेमिदेवाचार्य महेन्द्र देव सोमदेव,
काल योगीश कवि प्रसग विमलचन्द्र मुनीन्द्र महामुनि वक्रग्रीव
हेलाचार्य
१६५
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
प्राचार्य विद्यानन्द प्रार्यनन्दी जयकोति बप्पनन्दी बन्धुषेण एलाचार्य गुणचन्द्र पंडित अनंत कोति अनन्तकीति नामके अन्य विद्वान मौनिभट्टारक हरिषेण भरतसेन हरिषेण कवि हरिषेण अनन्तवीर्य देवसेन (भट्टारक) देवसेन
तोरणाचार्य चन्द्रदेवाचार्य आर्यसेन कुमारसेन कनकसेन प्रजितसेनाचार्य नागनन्दी जयसेन गोल्लाचार्य अनन्तवीर्य अनन्तवीर्य इन्द्रनन्दी प्रथम वासवनन्दी विचन्द्र रामसिंह पनकोति
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
विजयदेव पंडिताचार्य विजयदेव पण्डिताचार्य मूलसंघान्वय देवगण के विद्वान रामदेवाचार्य के प्रशिष्य और जयदेव पंडित के किया। इन्हें पश्चिमी चालक्य विक्रमादित्य द्वितीय ने शक सं०५६ (वि० सं०७६१) में द्वितीय विजयर संवत्सर में माघ पूर्णिमा के दिन पुलिकनगर के शंखतीर्थवस्ति के तथा धवल जिनालय का जीर्णेद्धार करने और जिनपूजा वृद्धि के लिये दान दिया।
देखो, जैन लेख सं० भा०२ पृ० १०४
महासेन--(सुलोचना कथा के दर्ता) सुलोचना कथा के कर्ता महासेन का कोई परिचय उपलब्ध नहीं है। और न उनकी पावन कृति सुलोचना नाम की कथा ही उपलब्ध है। हरिवंश पुराणकार (शक सं० ७०५) ने ग्रन्थ की उत्थानिका में महासेन की सुलोचना कथा का उल्लेख किया है, और बतलाया है कि 'शीलरूप अलंकार धारण करने वाली, सुनेत्रा और मधुरा वनिता के समान महासेन की सुलोचना-कथा की प्रशंसा किसने नहीं की।
महासेनस्य मधुरा शीलालंकारधारिणी।
कथा न वणिता केन वनितेव सुलोचना ॥ कुवलय माला के कर्ता उद्योतन सूरि (शक सं० ७००) ने भी सुलोचना कथा का निम्न शब्दों में उल्लेख किया है :
सण्णिहिय जिणवरिया धम्मकहा बंधदिक्खय रिया।
कहिया जेण सु कहिया सुलोयणा समवसरणं व ॥३९ जिसने समवसरण जैसी सुकथिता सुलोचना कथा कही। जिस तरह समवसरण में जिनेन्द्र स्थित रहते हैं और धर्म कथा सुनकर राजा लोग दीक्षित होते हैं, उसी तरह सुलोचना कथा में भी जिनेन्द्र सन्निहित हैं और उसमें राजा ने दीक्षा ले ली है।
हरिवंश पुराण के कर्ता धवल कवि ने भी सुलोचना कथा का 'मुणि महसेणु-सुलोयण जेण' वाक्यों के साथ उल्लेख किया है। इन सब उल्लेखों से सुलोचना कथा की महत्ता स्पष्ट है । यह किस भाषा में रची गई, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह कथा शक सं० ७०५ (वि० सं० ८३५) से पूर्वरची गई है। उस समय उसका अस्तित्व था, पर बाद में कब विलुप्त हुई, इसका कोई स्पष्ट निर्देश प्राप्त नहीं है । संभव है, यह किसी ग्रन्थ भण्डार में हो।
सर्वनन्दि सर्वनन्दि भट्टारक शिवनन्दि सैद्धान्तिक के शिष्य थे। प्रस्तुत सर्वनन्दि देवको शक सं० १०६ (८७१ A.D) में पश्चिमी गंगवंशीय सत्य वाक्य कोंगुनी वर्मन की ओर से एक दान दिया गया।
___Ep. c. Coorg Inscriptions (Edi 1914) No. 2 विलियूर का यह शिलालेख (Biliur Stone Inscription) का समय शक सं० ८०६ (सन् ८८७) ईस्वी का है । सत्य वाक्य कोंगुनी वर्मन (पश्चिमी गंग राचमल प्रथम) ने विलियूर के १२ छोटे गांव hamlets शिवनन्दि
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
भट्टारक के शिष्य सर्वनन्दि को पेन्ने कडंग (Pannekadonga) के सिद्धान्त सत्यवाक्य जिन मन्दिर के लिये दिये थे।
जैन लेख सं० भा. २ पृ. १५४
कूविलाचार्य मह यापनीय नन्दि संघ पुन्नाग वृक्ष मूलगणशाखा के विद्वान थे। जो व्रत, समिति, गुप्ति में दृढ़ थे और मुनिवृन्दों के द्वारा वंदित थे । इनके शिष्य विजयकीर्ति थे, और विजयकोर्ति के शिष्य अर्ककीर्ति थे । शक सं० ७२५ सन् ८०३ (वि० सं० ८७० ) के राजप्रभूत वर्ण ने (गोविन्द तृतीय ने) जब वे मयूर खण्डी के अपने विजयी विश्राम स्थल में ठहरे हुए थे। चाकिराज की प्रार्थना से 'जालमंगल' नाम का गांव मुनि अर्ककीर्ति को शिलाग्राम में स्थित जिनेन्द्र भवन के लिये दिया था।
देखो, जैन लेख सं० भा. २ नं० १ पृ० २३१
वादीसिंह वादीभसिंह कवि का मूल नाम नहीं है किन्तु एक उपाधि है, जो वादियों के विजेता होने के कारण उन्हें प्राप्त हुई थी। उपाधि के कारण ही उन्हें वादीभसिंह कहा जाने लगा। मूल नाम कुछ और ही होना चाहिये। वादीभसिंह का स्मरण जिनसेनाचार्य (ई. ८३८) ने अपने आदिपुराण में किया है और उन्हें उत्कृष्ट कोटि का कवि, वाग्मी और गमक बतलाया है यथा
कवित्वस्य परासीमा वाग्मितस्य परं पदम् ।
गमकत्वस्य पर्यन्तो वादिसिंहोऽच्यते न कैः॥ पार्श्वनाथ चरित के कर्ता वादिराजसूरि (ई० १०२५) ने भी वादिसिंह का उल्लेख किया है और उन्हें स्यावाद की गर्जना करने वाला तथा दिग्नाग और धर्मकीर्ति के अभिमान को चूर-चूर करने वाला बतलाया है।
स्याद्वाद गिरिमाश्रित्य वादिसिहोस्य गजिते।
विङनागस्य मबध्वंसे कोतिभंगों न दुर्घटः॥ इन उल्लेखों से वादीभसिंह एक प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान ज्ञात होते हैं । उनको स्याद्वादसिद्धि उनके दार्शनिक होने को पुष्ट करती है । पर आदिपुराणकार ने उन्हें कवि और वाग्मी भी बतलाया है। इससे उनकी कोई काव्य कृति भी होनी चाहिये।
गद्य चिन्तामणि के प्रशस्ति पद्य में उन्होंने अपने गुरु का नाम पुष्पसेन बतलाया है, और लिखा है कि उनकी शक्ति से ही मेरे जैसा स्वभाव से मूढ़ बुद्धि मनुष्य वादीभसिंह, श्रेष्ठ मुनिपने को प्राप्त हो सका।
श्री पुष्पसेन मुनि नाथ इति प्रतीतो, दिव्यो मनुर्ह दि सदा मम संविष्यात । यच्छक्तितः प्रकृति मूढमतिर्जनोऽपि
वादीसिंह मुनि पुङ्गवतामुपैति ॥ मल्लिषेण प्रशस्ति में मुनि पुष्पसेन को अकलंक का सधर्मा गुरुभाई लिखा है, और उसी में वादीभिह उपाधि से युक्त एक प्राचार्य प्रजितसेन का भी उल्लेख किया है।
-मल्लिषेण प्रशस्ति
१. श्री पुष्पषेण मुनिरेव पद महिम्नो देवः स यस्य समभूत स महान सधर्मा ।
श्री विभ्रमस्य भवनं ननु पद्ममेव, पुष्येषु मित्रमिह यस्य सहस्रधामा । २. सकलभुवनपालानम्रमूर्धावबद्धस्फुरितमुकुटचूडालीढपादारविन्दः ।
यदवदखिलवादीभेन्द्रकुम्भप्रभेदीगणभदजितसेनो भाति वादीभसिंह, ॥
-शिलालेख ५४, पद्य ५७
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
गद्य चिन्तामणि के अन्तिम दो पद्यों से स्पष्ट है कि उनका नाम प्रोडयदेव था और वे वादो रूपो हाथियों को जीतने के लिये सिंह के समान थे। उनके द्वारा रचा गया गद्य चिन्तामणि ग्रन्थ सभा का भूषण स्वरूप था। प्रोडय देव वादीभसिंह पद के धारक थे। यद्यपि वादीभसिह के जन्म स्थान का कोई उल्लेख नहीं मिलता तो भी प्रोडय देव नाम से पं० के ० भुजबली शास्त्री ने अनुमान लगाया है कि वे उन्हें तमिल प्रदेश के निवासी थे और बी. शेषगिरिराव एम. ए. ने कलिंग के गंजाम जिले के आस-पासका निवासी होना सूचित किया है। गंजाम जिला मद्रास के एकदम उत्तर में है और जिसे अब उड़ीमा में जाड़ दिया गया है। वहां राज्य के सरदारों की ओडेय और गोडेय नाम की दो जातियां हैं, जिनमें पारम्परिक सम्बन्ध भी है । अतएव उनकी राय में वादीभसिंह जन्मतः प्रोडेय या उड़िया सरदार होंगे।
समय
चूंकि मल्लिपेण प्रशस्ति में मुनि पुणमेन को अकलंक का सधर्मा लिग्वा है, और वादीभसिंह ने उन्हें अपना गुरु बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि वादीभमिह अकलंक के उत्तरवर्तीविद्वान है। अकलंक के न्याय विनिश्चयादि ग्रन्थों का भी स्याद्वादसिद्धि पर प्रभाव है। अतएव उन्हें अकलक देव के उत्तरवर्ती मानने में कोई हानि नहीं है।
गद्य चिन्तामणि की प्रस्तावना में पं० पन्नालाल जी ने लिखा है कि गद्य चिन्तामणि के कुछ स्थल बाणभद्र के हर्ष चरित के वर्णन के अनुरूप है। वादीसिह की गद्य चिन्तामणि में जीवंधर के विद्यागुरु द्वारा जो उपदेश दिया गया, वह बाण की कादम्बरी के शुकनासोपेदेश मे प्रभावित है-इससे वादीसिह बाणभट्ट के उत्तर वर्ती हैं।
स्याद्वाद सिद्धि के छठे प्रकरण की १६ वीं कारिका में भट्ट और प्रभाकर का उल्लेख है और उनके अभि मत भावना नियोग रूप वेद वाक्यार्य का निर्देश किया गया है। वादीसिह ने कुमारिल्ल के श्लोक वानिक से कई कारिकाएं उद्धत कर उनकी आलोचना की है। उनका समय ईसा की सातवीं शताब्दी माना जाता है। इससे वादीभसिंह का समय ईसा की ८ वी शताब्दी का अन्त और ६ वी का पूर्वार्ध जान पड़ना है। इस समय के मानने में कोई बाधा नहीं पाती। विशेप के लिये स्याद्वासिद्धि की प्रस्तावना देखनी चाहिये ।
रचनाएं
वादीभसिह अपने समय के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान प्राचार्य थे। उनके कवित्व और गमकत्वादिको प्रशंसा भागवज्जिन सेन ने की है। वादीभसिंह उनकी उपाधि थी, वे ताकिक विद्वान रे। उनकी तीन रचनाए प्रसिद्ध हैंस्याद्वादसिद्धि, क्षत्रचूड़ामणि और गद्य चिन्तामणि।
स्याद्वाद सिद्धि-यद्यपि यह ग्रन्थ अपूर्ण है फिर भी ग्रन्थ में १४ अधिकारों द्वारा अनुष्टुप छन्दों में प्रतिपाद्य विषय का अच्छा निरूपण किया गया है ।-जीवसिद्धि, फलभोक्तृत्वाभावसिद्धि, युगपदनेकान्त सिद्धि ऋमानेकान्त सिद्धि, भोक्तृत्वाभावसिद्धि, सर्वज्ञाभावसिद्धि, जगत्कर्तृत्वाभावसिद्धि, अर्हत्सर्वज्ञ सिद्धि, अर्थापत्ति प्रामाण्यसिद्धि, बेद पौरपयत्वमिद्धि, परतः प्रामाण्य सिद्धि, प्रभाव प्रमाणदूपणसिद्धि, तर्क प्रामाण्य सिद्धि, और गुणगणी अभेदसिद्धि । इनके बाद अन्तिम प्रकरण की साड़े छह कारिकाएँ पाई जातो है। इससे स्पष्ट जान पडता है कि ग्रन्थ अपूर्ण है। इस प्रकरण की अपूर्णता के कारण कोई पुष्पिका वाक्य भी उपलब्ध नहीं होता। जैसा कि अन्य प्रकरणों में पप्पिका वाक्य उपलब्ध हैं यथा-"इति श्रीमद्वादीसिहसूरि विरचितायां स्यावाद सिटौ चार्ज प्रति जीव सिद्धिः।"
क्षत्रचूडामणि—यह उच्च कोटि का नीति काव्य ग्रन्थ है । भारतीय काव्य साहित्य में इस प्रकार का महत्व
१. जैन माहित्य और इतिहास दूसगसं० पृ० ३२४ । २. देखो, स्याद्वाद गिद्धिकी प्रस्तावना पृ० १९-२०
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
पूर्ण नीति काव्य ग्रन्थ अन्यत्र देखने में नहीं पाया। इसकी सरस सूक्तियां और उपदेश हृदय-स्पी हैं। यह पद्यात्मक सन्दर रचना है। इसमें महाकवि वादीभसिंह ने क्षत्रियों के चडामणि महाराज जीवंधर के पावन चरित्र का प्रत्यन्त रोचक ढंग से वर्णन किया है । कुमार जीवधर भगवान महावीर के समकालोन थे। उन्होंने शत्रु से अपने पिता का राज्य वापिस ले लिया और उसका उचित रीति से पालन कर अन्त में ससार, के देह, भोगों से विरक्त हो भगवान महावीर के सम्मुख दीक्षा लेकर तपश्चरण द्वारा प्रात्म-शुद्धि कर अविनाशी पद प्राप्त किया। ग्रंथ का कथानक आकर्षक और भाषा सरल संस्कृत है। ग्रन्थ प्रकाशित है।
गद्य चिन्तामणि-क्षत्रचडामणि और गद्यचिन्तामणि का कथानक एक और कथा नायक पात्र भी वही है । सर्ग या लम्ब भी दोनों के ग्यारह-ग्यारह हैं। घटना सादृश्य भी दोनों का मिलता-जुलता है। गद्यचिन्तामणि गद्य काव्य है । भाषा प्रौढ़ और कठिन है। इसके काव्य पथ में पदों की सुन्दरता, श्रवणीय शब्दों की कथासार, चित्ताकर्षक विस्मयकारी कल्पनाए, हृदय में प्रसन्नोत्पादिक धर्मोपदेश, धर्मसे अविरुद्ध नीतियाँ, एवं रस और अलंकारों की पुटने उसमें चार चांद लगा दिये हैं। प्रकृति वर्णन सरस और सुन्दर है । कथानक में सादृश्य होते हए भी पाठक को वह नवीन सा लगता है और कवि की अद्भुत कल्पनाए पाठक के चित्त में विस्मय उत्पन्न कर देती है। गद्य काव्यों की श्रृंखला में गद्यचिन्तामणि का महत्व पूर्ण स्थान है।
अर्ककीर्ति यह यापनीय नन्दिसंघ पुनांग वृक्ष मूलगण के विद्वान थे । इनके गुरु का नाम विजय कीति और प्रगुरु का नाम कु बिलाचार्य था जो व्रत समिति गुप्ति गुप्त मुनि वृन्दों से वदित थे, और श्री कीर्त्याचार्य के अन्वय में हुए थे। अमोघ वर्ष (प्रथम) के पिता प्रभूत वर्ष या गोविन्द तृतीय का जो दान पत्र कडंब (मैसूर) में मिला है, वह शक सं०७३५ सन् ८१२ का है। जिसमें शक संवत ७३५ व्यतीत हो जाने पर ज्येष्ठ शुक्ला दशमी पुष्य नक्षत्र चन्द्रवार के दिन अर्ककीति मुनि के लिये जालमंगल नाम का एक ग्राम मान्यपुर ग्राम के शिलाग्राम नाम के जिनेन्द्र भवन के लिये दान में दिया था। क्योंकि मुनि अर्ककीति ने जिले के शासक विमलादित्य को शनैश्चर की पीड़ा से उन्मुक्त किया था। (जैन लेख सं० भाग २ पृ० १३७)
बोरसेन
वीरसेन–मूल संघ के 'पंचस्तूपान्वय' के विद्वान थे। यह पंचस्तूपान्वय बाद में सेनान्वय या सेन-संघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है । वीरसेन ने अपने वश को 'पचस्तूपान्वय' ही लिखा है। प्राचार्य वीरसेन चन्द्रसेन के प्रशिप्य और आर्यनन्दी के शिष्य थे' । उनके विद्या गुरु एलाचार्य और दीक्षा गुरु आर्यनन्दी थे। प्राचार्यवीरसेन
-धवला प्रशस्ति
१ अज्जज्जणदि सिस्सेणुज्जुव-कम्मम्स चंदमेणस्य ।
नह णत्तवेण पंचत्थूहण्यं भाणणा मुणिणा ॥४ यग्नपोदीप्त किरणभव्याम्भोजानि बोधयन् । व्यद्योतिष्ठ मुनीनेनः पञ्चस्तूपान्वयाम्बरे ।। २० प्रशिष्यश्चन्द्रसेनम्य यः शिष्योऽप्यायनन्दिनाम् । कुलं गणं च सन्तानं स्वगुणरुदजिज्वलत् ।। २१
-जय धवला प्रशस्ति
२ पचस्तूपान्वय की दिगम्बर परम्पग बहुत प्राचीन है। आचार्य हरिषेण कथाकोश में वर मुनि के कथा के निम्न पद्य में मथुरा में पंचम्तूपो के बनाने जाने का उल्लेख किया है
महाराजन निर्माणन् रवचितान् मणिनाम् कैः ।
पंञ्चस्तूपान्विधाया समुच्चजिनवेश्मनाम् ।। आचार्य वीरसेन ने धवला टीका में और उनके प्रधान शिष्य जिनसेन ने जयधवला टीका प्रशस्ति में पंचस्तूपान्वय के
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
१७१
ने अपने को गणित, ज्योतिष, न्याय, व्याकरण और प्रमाण शास्त्रों में निपुण, तथा सिद्धान्त एवं छन्द शास्त्र का ज्ञाता बतलाया है ।
-
प्राचार्य जिनसेन ने उन्हें वादि मुख्य, लोकवित, वाग्मी, और कवि के अतिरिक्त श्रुतकेवली के तुल्य बतलाया है और लिखा है कि - 'उनकी सर्वार्थगामिनी प्रज्ञा को देख कर बुद्धिमानों को सर्वज्ञ को सत्ता में कोई शंका न ही रही थी ।
५
सिद्धान्त का उन्हें तलस्पर्शी पाण्डित्य प्राप्त था । सिद्धान्त समुद्र के जल धोई हुई अपनी शुद्ध बुद्धि से वे प्रत्येक बुद्धों के साथ स्पर्धा करते थे । पुन्नाट संघीय जिनसेन ने उन्हें कवियों का चक्रवर्ती और निर्दोष कीर्ति वाला बतलाया है । जिनसेन के शिष्य गुणभद्रने तमाम वादियों को त्रस्त करने वाला और उनके शरीर को ज्ञान और चारित्र की सामग्री से बना हुआ कह है। इससे स्पष्ट है कि वीरसेन अपने समय के महान विद्वान थे । उन्होंने चित्रकूट में जाकर एलाचार्य से सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन किया था । पश्चात् वे गुरु की अनुज्ञा प्राप्त कर वाट ग्राम आये, और वहां मानतेन्द्र द्वारा बनवाये हुए जिनालय में ठहरे । वहां उन्हें बप्पदेव की व्याख्या प्रज्ञप्ति नाम की टीका प्राप्त हुई। इस टीका के अध्ययन से वीरसेन ने यह अनुभव किया कि इसमें सिद्धान्त के अनेक विषयों का विवेचन स्खलित है-छूट गया है और अनेक स्थलों पर सैद्धान्तिक विषयों का स्फोटन अपेक्षित है । छठे खण्ड पर कोई टीका नहीं लिखी गई । अतएव एक वृहत्टीका के निर्माण की आवश्यकता ऐसा विचार कर उन्होंने धवला और जय धवला टीका लिखी ।
७
धवला टीका - यह षट् खण्डागम के प्राद्य पांच खण्डों की सबसे महत्वपूर्ण टीका है । टीका प्रमेय बहुल है । टीका होने पर भी यह एक स्वतंत्र सिद्धान्त ग्रंथ है इसमें टीका की शैलीगत विशेषताएं है ही, पर विषय विवेचन
चन्द्रसेन और आर्यनन्दी नाम के दो आचारों का नामोल्नेव किया है, जो आचार्य वीरमेन के गुरु- प्रगुरु थे । इन दोनों उल्लेखों से स्पष्ट है कि पंचस्तूपान्वय की परम्परा उस समय चल रही थी, और वह बहुत प्राचीन काल से प्रसार में आ रही थी । पंचस्तूपान्वय के संस्थापक अदबनी थे, जिन्होंने युग प्रतिक्रमणों के समन पण नदी के किनारे विविधि संघों की स्थापना की थी । पंचस्तूप
काय के आचार्य गुहनन्दी का उल्लेख पहाड़पुर के ताम्रपत्र में पाया जाता है। जिसमें गुप्त संवत् १५६ मन् ४७८ में नाथ शर्मा ब्राह्मण के द्वारा गुनन्दी के बिहार में अर्हन्तों की पूजा के लिए ग्रामों और अर्शफियों के देने का उल्लेख है । (एपिग्राफिया इंडिका भा २० पेज ५६ )
१. सिद्धान्त छंद - जोइसु - वायरण प्रमाण सत्थरिणउए ।
- धवला प्रशस्ति
२. लोकवित्त्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयं । वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचम्पतेरपि ।। ५६
-प्रादि
पुराण
३. यस्य नैसर्गिककी प्रज्ञां दृष्टवा सर्वार्थगामिनी । जाताः सर्वज्ञसम्दावे निरारेका मनीषिणः ॥
४. प्रसिद्धसिद्ध सिद्धान्तवाधिवार्धीतशुद्धधीः ।
सार्द्धं प्रत्येक बुद्धयः स्पर्धते धीद्धबुद्धिभिः । जयध० प्र० २३
५. जितात्मपरलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः ।
- जय धवला प्र० २१
वीरसेन गुरुः कीर्तिरकलंका बभासते ।। ३६ हरिवंश पु०
६. तत्रवित्रासिता शेष प्रवादि मदवारणः ।
वीरसेनाग्ररणी वीरसेन भट्टारको बभौ ।। ३
ज्ञानचारित्र सामग्नी मग्रहीदिवविग्रहम् ।। ४ ।। उत्तर पुराण प्र०
७. आगत्य चित्रकूटात्ततः सभगवान्गुरोरनुज्ञानात् ।
वाटग्रामे चात्राऽऽनतेन्द्र कृत जिनगहे स्थित्वा ।। १७६ ( इन्द्रनन्दि श्रुता ० )
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग - २
की दृष्टि से यह टीका अत्यधिक महत्वपूर्ण है । इसमें वस्तुतत्त्व का ममं प्रश्नोत्तरां के साथ उद्घाटित किया गया है। और अनेक प्रचीन उद्धरणों द्वारा उसे पुष्ट किया गया है। जिससे पाठक षट् खण्डागम के रहस्य से सहज ही परिचित हो जाते हैं । प्राचार्य वीरसेन ने इस टीका में अनेक सांस्कृतिक उपकरणों का समावेश किया है । निमित्त, ज्योति और न्यायशास्त्र की अगणित सूक्ष्म वातों का यथा स्थान कथन किया है। टीका में दक्षिण प्रतिपत्ति और उत्तर प्रतिपत्तिरूप दो मान्यताओं का भी उल्लेख किया है। टीका की प्राकृत भाषा प्रौढ़, मुहावरेदार और विषय के अनुसार संस्कृत की तर्क शैली से प्रभावित है । प्राकृत गद्य का निखरा हुमा स्वच्छ रूप वर्तमान है । सन्धि और समास का यथा स्थान प्रयोग हुआ है और दार्शनिक शैली में गम्भीर विषयों को प्रस्तुत किया गया है। टीका में केवल षट्खण्डागम के सूत्रों का ही मर्म उद्घाटित नही किया, किन्तु कर्म सिद्धान्त का भी विस्तृत विवेचन किया गया है । और प्रसंगवश दर्शन शास्त्र को मोलिक मान्यताओं का भी समावेश निहित है ।
लांक के स्वरूप विवेचन में नये दृष्टिकोण को स्थापित किया है । अपने समय तक प्रचलित वर्तुलाकार लोक की प्रमाण प्ररूपणा करके उस मान्यता का खण्डन किया है; क्यों कि इस प्रक्रिया से सात राजू घन प्रमाणक्षेत्र प्राप्त नही होता । अतएव उसे आयतचतुरस्त्राकार होने की स्थापना की है और स्वयंभूरमण समुद्र की बाह्यवेदिका से परे भी असंख्यात योजन विस्तृत पृथ्वी का अस्तित्व सिद्ध किया है ।
सम्यक्त्व के स्वरूप का विशेष विवेचन किया गया है । सम्यक्त्वोन्मुख जीव के परिणामों की बढ़ती हुई विशुद्धि और उसके द्वारा शुभ प्रकृतिया का बन्धविच्छेद, सत्वविच्छेद और उदय विच्छेद का कथन किया है । और जीव के सम्यक्त्वोन्मुख होने पर बधयाग्य कर्म प्रकृतियों का निरूपण किया है ।
माचार्य वारसन गणित शास्त्र के विशिष्ट विद्वान थे । इसलिए उन्होंने वृत्त, व्यास, परिधि, सूचीव्यास, घन, अर्द्धच्छेद घातांक, वलय व्यास और चाप आदि गणित की अनेक प्रक्रियाओं का महत्वपूर्व विवेचन किया है । गणित शास्त्र की दृष्टि से यह टीका बड़ो महत्वपूर्ण है ।
उन्होंने ज्यों
और निमित्त सम्बन्धा प्राचीन मान्यताओं का स्पष्ट विवेचन किया है। इसके अतिरिक्त नक्षत्रों के नाम, गुण, भाव, ऋतु, अयन ओर पक्ष प्रादि का विवेचन भी अंकित है। नय, निपेक्ष, और प्रमाण आदि की परिभाषाएं तथा दर्शन के सिद्धान्तों का विभिन्न दृष्टियों से कथन किया है ।
टीका में अनेक ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का भी उल्लेख किया गया है । और अनेक प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरणों से टीका को पुष्ट किया गया है। इसमे श्राचयं वीरसेन के बहुश्रुत विद्वान होने के प्रमाण मिलते है ।
सिद्धभूपद्धति - टीका - प्राचार्य गुणभद्र ने उत्तर पुराण की प्रशस्ति में इस टीका का उल्लेख किया है और बतलाया है कि सिद्धभूपद्धति ग्रन्थ पद-पद पर विषम था, वह वीरसेन की टीका से भिक्षुत्रों के लिये अत्यन्त सुगम हो गया ।" यह ग्रन्थ प्रप्राप्य है ।
वीरसेन के जिनसेन के अतिरिक्त दशरथ ओर विनयसेन दो शिष्य और थे । और भी शिष्य होंगे, पर उनका परिचय या उल्लेख उपलब्ध नही होता ।
वीरसेन ने जयधवला टीका कषाय प्राभृत के प्रथम स्कन्ध की चार विभक्तियों पर बीस हजार श्लोक प्रमाण बनाई थी । उसी समय उनका स्वर्गवास हो गया । और उसका अवशिष्ट भाग उनके शिष्य जिनसेन ने पूरा किया।
रचना काल
आचार्य वीरसेन ने अपनी यह धवला टीका विक्रमांक शक ७३८ कार्तिक शुक्ला १३ सन् ८१६ बुधवार के दिन प्रातः काल में समाप्त की थी। उस समय जगतुगदेव राज्य से रिक्त हो गये थे, और अमोघवर्ष प्रथम राज्य
१. सिद्धभूपद्धतिर्यस्य टीकां संवीक्ष्य भिक्षुभिः । टीक्यते हेलयान्येषा विषमापि पदे पदे ।।
- उत्तरपुगरण प्रश०
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी दसवीं शताब्दी के आचार्य
सिहासन पर आरूढ हो राज्य मचालन कर रहे थे । जेमा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्यो से प्रकट है
अठतीसम्हि सतसए क्किम रायं किए सु-सगणामे । वासे सुतेरसीए भाणु बलग्गे ६वल पक्खे ।। ६ ।। जगतुंदेव-रज्जे रियाम्ह कुंभम्हि राहुणा कोण। सूरे तुलाए सते गुम्हि कुल विल्लए हाते ॥ ७ ॥ चाम्हि तरणिवुत्ते सिध सुक्क मि मीणे चम्मि । कत्तिय मासे एसा टीका ह समाणि या धवला ॥८॥
जयसेन जयसेन-बड़े तपस्वी, प्रशान्तमूर्ति, शास्त्रन ओर पनि जनो मे अग्रणी थे । हरिवश पुराण के कर्ता पून्नाट सघी जिनसेन ने शत वर्ष जीवी मतमेव के गुम जय पेन का उलवकिया है और उन्हें सद्गुरु, इन्द्रिय व्यापार विजयी, कर्मप्रकृतिरूप पागम के धारक प्रगिद्ध वेयारण, प्रभावशाला और सम्पूर्ण शास्त्र समुद्र के पारगामी बतलाया है २ जिससे वे महान योगी, तपस्वी और प्रभावशाली प्राचार्य जान पडते हैं। साथ ही कर्मप्रकृतिरूप आगमके धारक होने के कारण सम्भवत व किगी कर्मगन्य ने प्रणेता भी रहे हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। परन्तु उनके द्वारा किसी ग्रन्थ के रचे जाने का कोई प्रामाक उलाय हमारे देवों में नही आया। उन उभय जिन सेनो द्वारा स्मृत प्रस्तुत जयमेन एकही व्यक्ति जान पड़ते है। हरिया पुर" क कर्ता ने जो पानी गुरु परम्परा दी है उससे स्पष्ट है कि उनके शतव जीवा अमिनगे। ३ यार ािय कीतियण का समय यदि २५–२५ वर्ष का मान लिया जाय जो बहुत ही कम र हरिवश के रचनाकाल नक ग० ७०५ (वि म८८०) से कम किया जाय तो शक म.६५५ वि. म०७६० के लगभग जयमेन का समय हो सकता है । अर्थात् जयसेन विक्रमी की आठवी शताब्दीके विद्वान आचार्य थे।
अमितसेन प्रमितसेन-पून्नाट संघ के अग्रगी प्राचार्य थे। यह कर्मप्रकृति श्रत के धारक इन्द्रिय जया जयसेनाचार्य के शिष्य थे। प्रसिद्ध वैयाकरण अोर पसारा गाली विद्वान । गमरन सिद्धानम्मी मागः के पारगामीथे। जैन शासन से वात्सल्य रखने वाले, परग ताम्वी थे। उन्होंने शास्त्र दान द्वारा पृथ्वी में वदान्यता--दानशीलता -प्रकट की थी। वे शतवर्ष जीवा थे। इन्होन जैन शागन की बटी मेवा की थी। इस परिचय पर में उनकी महत्ता का सहजही बोध हो जाता है। जया कि हरिवश पूगण के निम्न पद्यो में प्रकट है:
"प्रसिद्धवैयाकरणप्रभाववानशेषराद्वान्तसमद्रपारगः ॥३० तदीय शिष्यो ऽमितसेन सद्गुरुः पवित्र पुन्नाट गणामणी गणी। जिनेन्द्र सच्छासनवत्सलात्मना तपोभृता वर्षशताधि जोविना ॥ ३१
सशास्त्र दानेन वदान्यतामुना वदान्य मूख्येन भुविप्रकाशिता।" रोसा जान पडता है कि मभवतः पुन्नाट देश के कारण इनका सघ भी पुन्नाट नाम से प्रसिद्ध हुआ है। यह उस मघ के विशिष्ट विद्वान थे। और व अपन मघ के साथ प्राये है।। मभवत: जिनसेन उनसे परिचित हो. इसी
१. जन्मभूमि स्तपो लक्ष्म्या थतप्रशमयोनिधिः ।
जयसेन गुरु पातु बुधवन्दा प्रगगी. मन ।। आदिपुगग १,५६ २ दधार कर्म प्रकृति च ति व यो जिताक्षवत्तिर्जयमेन मदगर ।
प्रसिद्धर्वयाकरणप्रभाववानशेपगद्वान्नमम पारग ।। ३० ३ तदीय शिष्यो ऽमितमेन मदगुरुः पवित्र प.नाट गगानगी गगी। जिनेन्द्रसच्छामनवमलात्मना तपोभता वर्ष शताधिजीविना ।। ३१-हरिवशपगगग
-
-
-
--
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ से वे उनका उक्त परिचय दे सके हैं। वे जिनसेन से संभवत: ३०-४० वर्ष ज्येष्ठ रहे हों। इनका समय विक्रम की ८वीं शताब्दी का उपान्त्यभाग, तथा हवी का पूर्वार्ध होना चाहिए। क्योंकि कीर्तिषेण के शिष्य जिनसेन ने अपना हरिवंश पुराण शक स०७०५ (वि. सं.८४० में समाप्त किया था। चूंकि अमितसेन और कीर्तिपेण दोनों ही जयसेनाचार्य के शिष्य थे।
कोतिषण कोतिषण-यह पुन्नाट संघ के प्राचार्य जयसेन के शिष्य थे। और शतवर्ष जीवी अमितसेन गरु के ज्येष्ठ गरुभाई थे। और महान तपस्वी और विद्वान थे। शान्त परिणामी थे। उग्र तपश्चरण से सब दिशाओं में इनकी कीर्ति विश्रुत हो गई थी।' इन्हीं के शिष्य हरिवश पुराण के कर्ता जिनसेन थे। जिनसेनाचार्य ने अपना हरिवंश पुराण शक मं०७०५ (वि. सं. ८४०) में समाप्त किया था। इनके समय की अवधि २०वर्ष की मान लें, तो इनका समय विक्रम की हवीं शताब्दी का पूर्वार्ध होगा
श्रीपाल देव यह पंचस्तूपान्वयी वीरसेन के शिप्य थे। बड़े भारी सैद्धान्तिक विद्वान थे। जिनसेनाचार्य ने आदि पुराण में श्रीपाल का स्मरण किया है साथ में भट्टाकलक और पात्रकेसरी का। जिनसन ने अपनो जयधवला टीका इनों श्रीपाल द्वारा संपादित अथवा पापक बतलाया है। इनका समय विक्रम की वीं शताब्दी है। पद्मसेन और देवसेन भी इन्हीं के समय कालीन थे।
जिनसेनाचार्य (पुन्नासंघी) जिनसेना–प्रस्तुन पुन्नाट संघ के विद्वान प्राचार्य थे। इनके दादागुरु का नाम, जयसेन था, जो प्रखण्ड मर्यादा के धारक, पद खण्डागमरूप सिद्धान्त के ज्ञाता, कर्म प्रकृति रूप श्रति के धारक, इन्द्रियों की वत्ति को जीतने वाले जयसेन गुरु थ । इनके शिप्य अमितसेन गुरु थे । जो प्रसिद्ध वैयाकरण, प्रभावशाली समस्त सिद्धान्त रूपी सागर के पारगामी, पुन्नाटगण के अग्रण। आचार्य थ । ओर जिनशासन के स्नेही, परमतपस्वी, तथा शतवर्ष जीवी थे। और शास्त्र दान द्वारा जिन्हनि पृथ्वी में वदान्यता-दानशीलता-प्रकट की थी। इनके अग्रज धर्म बन्ध कतिपेण मनि थे। जो बहुत ही शान्त और बुद्धिमान थे । और जो अपनी तपोमयी कीर्ति को समस्त
प्रसारित कर रहे थे । इन्हीं कोतिपण के शिप्य प्रस्तुत जिनसेन थे । जैसा कि प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है :
"प्रखण्ड षट् खण्डमखण्डतस्थितिः समस्तसिद्धान्तमधत्तयोऽर्थतः॥२९ दधार कर्म प्रकृति च श्रुतिं च यो जिताक्षवृत्तिजयसेनसद्गुरुः । प्रसिद्ध वैयाकरणप्रभाववानशेषराद्धान्तसमुद्रपारगः ॥३० तदीय शिष्यो ऽमितसेन सद्गुरुः पवित्र पुन्नाटगणाग्रणी गणी। जिनेन्द्र सच्छासन वत्सलात्मना तपोभृता वर्षशताधि जीविना ॥३१ सुशास्त्र दानेन वदान्यतामुना वदान्यमुख्येन भुवि प्रकाशिता। यदग्रजो धर्मसहोदरः शमी समग्रधीधर्म इवात्तविग्रहः ॥ ३२ तपोमयीं कीतिमशेषदिक्षु यः क्षिपन् बभौ कीर्तित कोतिषणकः । तदनशिष्येण शिवाग्रसौख्यभागरिष्टनेमीश्वरभक्तिभाविना ॥
स्वशक्ति भाजा जिनसेनसूरिणा धियाल्पयोक्ता हरिवंशपद्धतिः ॥३३॥ पुन्नाट कर्नाटक का प्राचीन नाम है । हरिषेण कथा कोश में लिखा है कि-भद्रबाहु स्वामी के निर्देशानुसार १. तपोमयीं कीर्तिमशेषदिक्षु यः क्षिपन्वभो कीर्तित कीतिषेणकः। -हरिवंश० प्र० २. टीका श्री जय चिन्हितो रुधवला मूत्रार्थ सद्योतिनी। स्थेया दारविचन्द्र मुज्ज्वलतपः श्रीपालमपालिता। -जयधवल । पृ० ४३
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्थ
१७५
उनका समस्त संघ चन्द्रगुप्त या विशाखाचार्य के नेतृत्व में दक्षिणापथ के पून्नाट देश में गया ।' प्रतएव दक्षिणापथ का यह पुन्नाट कर्णाटक ही है। कन्नड साहित्य में भी पून्नाट राज्य के उल्लेख मिलते हैं। भूगोलवेत्ता टालेमी ने 'पौन्नट' नाम से इसका उल्लेख किया है। इस देश के मुनि मघ का नाम 'पुन्नाट' सघ था। संधों के नाम प्रायः देशों और अन्य स्थानों के नामों से पड़े हैं।
श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० १९४ में, जो शक सवत ६२२ के लगभग का है एक 'कित्तर' नाम के संघका उल्लेख है। कित्तर पुन्नाट की राजधानी थी, जो इम ममय मैमूर के 'हैग्गडे वन्कोटे ताल्लुके में हैं।
जिनसेनाचार्य की एक मात्रकृति 'हरिवश पुगण' हे । इसमें हग्विण की एक शाखा यादव कुल और उसमें उत्पन्न हए दो शलाका पुरुषों का चरित्र विशेष रूप में वर्णित है। बाईसव तीर्थकर नेमिनाथ और दूसरे नव में नारायण श्रीकृष्ण का । ये दोनों परम्पर में चचेरे भाई । जिनमें से एक ने अपने विवाह के अवसर पर पशुओं की रक्षा का निमित्त पाकर सन्यास ले लिया था। और दूसरे ने कोरब-पाण्डव-युद्ध में अपना बल-कौशल दिखलाया। एक ने आध्यात्मिक उत्कर्ष का आदर्श उपस्थित किया तो दूसरे ने नातिक लीला का दृश्य । एक ने निवृत्ति परायण मार्ग को प्रशस्त किया तो दूसरे ने प्रवृत्ति को प्रश्रय दिया। इस तरह हरिवशपुराण में महा भारत का कथानक सम्मिलित पाया जाता है।
ग्रन्थ का कथाभाग अत्यन्त रोचक है। भगगन नेमिनाथ के वैर ग्य का वर्णन पढ़कर प्रत्येक मानवका हृदय सांसारिक मोह-ममता से विमुख हो जाता है। और जूल या राजीमतो के परित्याग पर पाठकों के नेत्रों से जहां सहानुभूति की प्रथधाग प्रवाहित होती है वहा उसके आदर्श सतीत्व पर जन मानस में उसके प्रति अगाध श्रद्धा उत्पन्न होती है।
प्राचार्य जिनसेन ने ग्रन्थ के छयासठ सर्गों में नेमिनाथ और कृष्ण के चरित के साथ प्रसंगवश धार्मिक सिद्धान्तों का सुन्दर वर्णन किया है। लोक का वर्णन अोर शलाका पुरुषों का चरित प्राचार्य यतिवृषभ की तिलोय पण्णत्ती से अनुप्राणित है। प्रसगवश कवि ने महाकाव्यों के विपय वर्णनानुसार ग्राम, नगर, देश, पत्तन. खेट. मटन पर्वत, नदी अरण्य आदि के कथन के साथ शृंगारादि रसों और उपमादि अलकारों, ऋतु व्यावर्णनों, और सन्दर सुभाषितों से भूषित किया है। रचना प्रौढ़, भाषा प्रांजल और प्रसादादि गुणों से अलंकृत है।
___ ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के आदि में अपने से पूर्ववर्ती अनेक विद्धानों का स्मरण किया है। कुछ विद्वानों की रचनाओं का भी उल्लेख किया है। जिन विद्वानो का स्मरण किया है उनके नाम इस प्रकार है:
(१) समन्तभद्र (२) सिद्धमेन (३) देवनन्दी, (४) वज्रसूरि (५) महासेन (६) रविषेण (७) जटासिंह नन्दि, (८) शान्तिपेण, (६) विशेषवादि (१०) कुमारमेन (११) वीरसेन, और १२ जिनसेन इन सब विद्वानों के परिचय यथास्थान दिया गया है, पाठक वहां देखे । इसी कारण उसे यहाँ नही लिखा।
ग्रन्थकर्ता की प्रविच्छिन्न गुरुपरम्परा
हरिवंश पुराण के अन्तिम छयासठव सर्ग में भगवान महावीर से लेकर लोहाचार्य तक की वही प्राचार्य परम्परा दी है जो तिलोय पण्णत्ती धवला जयधवला और श्रुतावतार आदि ग्रन्थों में मिलती है। ६२ वर्ष में तीन केवली गौतम गणधर, सुधर्म स्वामी और जम्बू, १०० वर्ष में पांच श्रुत केवली- विष्णु (नदि), नन्दि मित्र अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाह, १८३ वर्ग में ग्यारह अग दश पूर्व के पाठी-विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयसेन सिद्धार्थ सेन, धतिसेन, विजयमेन, बुद्धिल्ल गगदेव, धर्मसेन,-२२० वर्ष में पांच ग्यारह अगधारी-नक्षत्र, जयपाल पाण्ड, ध्रवसेन और कंस, और फिर ११८ वर्ष में-सुभद्र जयभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य ये चार प्राचारांगधारी हए। वीर निर्वाण से ६८३ वर्ष बाद तक की श्रुताचार्य परम्परा के बाद निम्न परम्परा चली
विनयधर, श्र तिगुप्त, ऋषिगुप्त, शिवगुप्त, (जिन्होंने अपने गुणों से अहंद्वलि पद प्राप्त किया), मन्दरार्य
१. अनेन सह संघो ऽपि समस्तो गुरु वाक्यतः।
दक्षिणापथ देशस्थ पन्नाट विषयं ययौ ।-हरिषेण कथा कोश
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनधर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
मित्रवीर्य. बलदेव, बलमित्र, सिंहबल, वीरविन, पद्ममेन, व्याघ्रहस्ति, नागहम्ति, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपमेन, धरमेन, धर्ममेन, मिहसेन, नन्दिपेण, ईश्वरमेन, नन्दिोण, अभयमेन, सिद्धमेन, अभयमेन, भीमसेन, जिनसेन शान्तिपेण, जयगेन, अमितमेन, (पुन्नाट गण के अगवा और पता जीवी) इनके बड़े गुरुभाई कीर्तिषेण, और उनके शिप्य जिनमेन थे।
ग्रन्थ का रचना स्थल
हग्विश पुराण की रचना का प्रारम्भ वर्द्धनानपुर में हुअा और ममाप्नि दोस्तटिका के शान्तिनाथ जिनालय में हुई। यह वर्द्धमानपुर सौराष्ट्र का 'बढवाण' जान पड़ता है। क्योकि उक्त पुराण ग्रन्थ की प्रशस्ति में बतलाई गई भौगोलिक स्थित मे उन कल्पना को बल मिलता है।
हरिवश पुराण की प्रशस्ति के ५० ओर ५२ वरलोक में बताया है। कि शकमवत् ७०५ में, जब कि उत्तर दिगा की इन्द्रायुध, दक्षिण दिशा की करण का पुत्र श्रीवल्लभ पूर्व वा अवन्तिराज वन्मगज और पश्चिम की सोरों के अधिमडल मौगप्ट की वीर जयवराह रक्षा करता था। उग समय अोक कल्याणों मे अथवा सूवर्ण से बढने वाली विपुल लक्ष्मी से सम्पन्न वर्धमानपुर के पाव जिनालय में जो नन्नराजवमति के नाम से प्रसिद्ध था, कर्कराज के इन्द्र, ध्र ब, कृष्ण और नन्नराज चार पुत्र थे । हरिवग का नन्नगज वमन इन्ही नन्नराज के नामरो होगी। यह ग्रन्थ पहले प्रारम्भ किया गया, पश्चात् दोरटिका को प्रजा द्वारा उत्पादित प्रकृष्ट पूजा से युक्त वहा के शान्ति जिनेन्द्र शान्ति गृह में रचा गया।
वढबाण मे गिरि नगर को जाते हा मार्ग में 'दोचटिनान पाम्यान मिलता है। प्राचीन गर्जर-कान्य सग्रह (गायकवाड सीरीज) में श्रमलुकृत चर्चरिका प्रकाशित हुई। उसने एक यात्री को गिरनार यात्रा का वर्णन है। वह यात्री मर्वप्रथम वढवाण पहुंचता है, फिर कमी रंन डलाई, सहा जगपुर, गगिलपुर पहुंचता है और लखमीधरु को छोड़कर फिर विपम दोत्तड पहुचकर बहुतसी नदिया पार पहाडा को पार करता हुमा करि वदियाल पहुचता है। रिवदियाल ओर अनन्तपुर में जाकर उग डालता है, बाद में भालण विश्राम करता है, वहा से ऊंचा गिरनार पर्वत दिखने लगता है। यह विपम दोटि ही दोस्तटि का है।
वर्धमानपुर (बढवाण) को जिस प्रकार जिनमेनाचार्य ने अनेक कल्याणको के कारण विपुलश्री से सम्पन्न लिखा है उसी प्रकार हरिपेण ने भी 'कथा कोश' में उसे 'कार्तस्वगपूर्णजिनाधिवास' लिखा है। कार्तस्वर और कल्याण दोनों ही स्वर्ण के दाचक इसमे मिद्धता है कि वह नगर अत्यधिक श्री सम्पन्न था, और उसकी समृद्धि जिनसन से लेकर हरिपेण तक १८८ वर्ष के लम्बे अन्नगल में भी जक्षण्ण बनी रही। हरिपेण ने अपने कथाकोश की रचना भी इमी वर्द्धमानपुर (बढवाण) में शक म०८५३ (वि०स०६८८) में पूर्ण की थी।
जिनसेन यद्यपि पुन्नाट (कर्नाटक) संघ के थे। तो भी विहार प्रिय होने से उनका सोराष्ट्र की अोर पागमन होना युक्ति सिद्ध है। गिद्ध क्षेन गिरनार पर्वत क. वन्दना के अभिप्राय गे पुन्नाट सघ के मुनियों ने इस प्रोर विचार किया हो, यह कोई प्राचां की बात नही । जिनान ने अपनी गुरु परम्पग में पमित सेन को पून्नाटगण के अग्रणी पार गतवर्ष जीवी लिया। इस मा प्रतारा होता क यह सब यमितमन के नेतृत्व में कर्नाटक से
१. माकप्रद गतेयु मा ।गु दिश ज्चाने पनग, पातीन्द्रायुधनाम्नि कारण टपजे श्री वा दानाम् । पूर्वा श्रीमदवन्तिभूति नगे वत्म.दि : जे डाग, सौगरणामधिगण्टल युने पोरे वागहे ऽवनि ॥५२ कल्यागः परिवर्धमार्ग: श्रीव मान रे, श्री पालय नन्नग वमती पर्याप्नशेष पुग। पश्चाद्दो गटिका प्रजाप्रनित प्राज्याचं नावर्जन, शान्नेः शान्तगृह जिनम्य रचितो वंशो हरीणामयम् ॥५३
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी - दशवीं शताब्दी के आचार्य
उत्तर भारत की ओर आया होगा । और गिरिनार क्षेत्र के नेमिजिन की वन्दना के निमित्त सौराष्ट्र (काठियावाड़) में गया होगा । जिनसेन ने गिननाब को सिंहवाहिनी या ग्रम्वा देवो का उल्लेख किया है और उसे विघ्नों को नाश करने वाली बतलाया है ।
प्रशस्तिगत वर्द्धमानपुर के चारों दिशाओं के राजाओं का वर्णन निम्न प्रकार :
इंद्रायुध
स्व० होराचन्द्र जो प्रोझा ने लिखा है कि उन्द्रायन और चन्द्रायुध किस वंश के थे, यह ज्ञात नहीं हुमा । परन्तु संभव है वे राठोड़ हो । स्व० चिन्तामण विनायक वंद्य के अनुसार इन्द्रायुध भण्डिकुल का था ओर उक्तवंश को वर्म वंश भी कहने थे। इसके पुत्र चक्रायुध को परास्त कर प्रतिहार वर्ग राजा वत्मराज के पुत्र नागभट द्वितीय ने जिसका कि राज्य काल विन्सन्ट स्मिथ के अनुसार वि० सं० ८५७-८८२ है । कन्नौज का साम्राज्य उसमे छीना था । वढवाण के उत्तर में मारवाड़ का प्रदेश पड़ा इससे स्पष्ट है कि कन्नोज से लेकर मारवाड़ तक इन्द्रायुध का राज्य फैला हुआ था ।
श्रीवल्लभ
दक्षिण के राष्ट्रकूट वंश के राजा कृष्ण ( प्रथम ) का पुत्र था। इसका प्रसिद्ध नाम गोविन्द (द्वितीय) था । कावी में मिले हुए ताम्रपट में इसे गोविन्द न लिखकर वल्लभ हो लिखा है, अतएव इस विषय में सन्देह नही रहा कि यह गाविन्द (द्वितीय) हो था और वर्धमानपुर का दक्षिण दिशा में उस का राज्य था । कावो भी वढवाण के प्रायः दक्षिण में है । शक स० ६७२ (वि० स० ८२७) का उसका एक ताम्रपत्र मिला है ।
१७७
प्रतिभूभृत् वत्सराज
यह प्रतिहार वंश का राजा था और उस नागावलाक या नागभट (द्वितीय) का पिता था। जिसने चक्रायुध को परास्त किया था । वत्सराज ने गोड़ और बंगाल के राजाओं को जीता था और उनमे दो श्वेतछत्र छोन लिए थे । आगे इन्ही छत्रों को राष्ट्रकूट गोविन्द (द्वितीय) या श्रीवल्लभ के भाई ध्रुवराज ने चढ़ाई करके उससे छीन लिया था । और उसे मारवाड़ की अगम्य रेतीली भूमि की ओर भागने को विवश किया था ।
ओझा जी ने लिखा है कि उक्त वत्सराज ने मालवा के राजा पर चढ़ाई की ओर मालव राज को बचाने के लिए ध्रुवराज उस पर चढ़ दाड़ा। शक स०७०५ में ता मालवा वत्सराज के ही अधिकार में था क्यों कि ध्रुवराज का राज्यारोहण काल शक म० ७०७ के लगभग अनुमान किया गया है। उसके पहने ७०५ में ता गोविन्द (द्वितीय) श्री वल्लभ ही राजा था और इसलिये उसके बाद ही ध्रुवराज की उक्त चढ़ाई हुई होगी ।
उद्योतन सूरि ने अपनी कुवलयमाला जावालिपुर (जालोर मारवाड़) में तब समाप्त की थी जब शक सं० ७०० के समाप्त होने में एक दिन बाकी था। उस समय वहा वत्सराज का राज्य था अर्थात् हरिवंश की रचना
१. गृहीन चक्र प्रतिचक्र देवता तथार्जयन्तालय सिंह वाहिनी ।
शिवाय यरिमन्तिह सन्निधीमते क्वातन्त्र विघ्नाः प्रभवन्ति गावनं ॥ ४४
२. देखो, सी. पी. वैद्य का 'हिन्दूभारत का उत्कर्ष' पृ० १७५
३. म०मि० ओझा जी के अनुसार नागभट का समय वि० सं० ८७२ मे ८६० तक है।
४. इण्डियन एण्टिक्वेरी: जिल्द ५ पृ० १४६ ।
५. एपिग्राफिमा हण्डिका जिल्द ६, पृ० २७६
६. सग काले वोली वरिमाण मएहि सतह गएहि । एक दिणेणू गोहि रइया अबरह बेलाए ।
परभद्रभिउडी भगो पणईयण रोहिणी कला चंद्रो । सिरिवच्छ रायणामो गरहत्थी पत्थिवो जइआ ॥
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
१७८
के समय (शक सं० ७०५ में) तो ( उत्तर दिशा का) मारवाड़ इन्द्रायुध के प्राधीन था और ( पूर्वका ) मालवा वत्सराज के अधिकार में था । परन्तु इसके ५ वर्ष पहले (शक सं० ७००) में वत्सराज मारवाड़ का अधिकारी था इससे अनुमान होता है कि उसने मारवाड़ से ही आकर मालवा पर अधिकार किया होगा और उसके बाद ध्रुवराज की चढ़ाई होने पर वह फिर मारवाड़ की ओर भाग गया होगा । शक सं० ७०५ में वह प्रवन्ति या मालवा का शासक होगा । अवन्ति बढ़वाण की पूर्व दिशा में है ही । परन्तु यह पता नहीं लगता कि उस समय श्रवन्ति का राजा कौन था, जिसकी सहायता के लिए राष्ट्रकूट ध्रुवराज दौड़ा था । ध्रुवराज (श० सं० ७०७ ) के लग-भग गद्दी पर आरूढ़ हुआ था । इन सब बातों से हरिवंश की रचना के समय उत्तर में इन्द्रायुध, दक्षिण में श्री वल्लभ और पूर्व में वत्सराज का राज्य होना ठीक मालूम होता है ।
वीर जयवराह
यह पश्चिम में सौरों के अधिमण्डल का राजा था। सौरों के अधिमण्डल का अर्थ हम सौराष्ट्र ही समझते हैं जो काठियावाड़ के दक्षिण में है । सौर लोगों का सोसौर राष्ट्र या सौराष्ट्र । सौ राष्ट्र से बढ़वाण और उसने पश्चिम की ओर का प्रदेश ही ग्रन्थकर्ता को अभीष्ट है
यह राजा किस वंश का था, इसका ठीक पता नहीं चलता । प्रेमीजीका अनुमान है कि यह चालुक्य वंश का कोई राजा होगा और उसके नाम के साथ वराह शब्द का प्रयोग उसी तरह होता होगा, जिस तरह कि कीर्ति वर्मा (द्वितीय) के साथ 'महावराह' का, राष्ट्रकूटों से पहले चौलुक्य सार्वभौम राजा थे । और काठियावाड़ पर भी उनका अधिकार था। उनसे यह सार्वभौमत्व शक सं० ६७५ के लगभग राष्ट्रकूटों ने ही छीन लिया था । इसलिए बहुत संभव है कि हरिवंश की रचना के समय सौराष्ट्र पर चौलुक्य वंश की किसी शाखा का अधिकार हो और उसी को जयवराह लिखा हो । संभवतः पूरा नाम जयसिंह हो और वराह विशेषण |
प्रतिहार राजा महीपाल के समय का एक दान पत्र हड्डाला गांव ( काठियावाड़) से शक सं० ८३६ का मिला है। उससे मालूम होता है कि उस समय बढ़वाण में धरणी वराह का अधिकार था, जो चावड़ा वंश का था और प्रतिहारों का करद राजा था। इससे एक संभावना यह भी हो सकती है कि उक्त धरणी वराह का ही कोई ४-६ पीढ़ी पहले का पूर्वज उक्त जयवराह हो ।
प्राचार्य जिनसेन ने हरिवंश पुराण की रचना शक सं० ७०५ ( वि० सं० ८४० ) में की है। उसके बाद कितने वर्ष तक वे अपने जीवन से इस भूतल को अलंकृत करते रहे, यह कुछ ज्ञात नहीं होता ।
जिनसेनाचार्य
पंचस्तूपान्वयी वीरसेन के प्रमुख शिष्य थे। जिनसेन विशाल बुद्धि के धारक कवि, विद्वान और वाग्मी थे । इसी से आचार्य गुणभद्र ने लिखा है कि जिस प्रकार हिमाचल से गंगा का सकलज्ञ से ( सर्वज्ञ से) दिव्य ध्वनि का और उदयाचल से भास्कर का उदय होता है उसी प्रकार वीरसेन से जिनसेन उदय को प्राप्त हुए हैं जिनसेन वीरसेन के वास्तविक उत्तराधिकारी थे। जय धवला प्रशस्ति में उन्होंने अपना परिचय बड़े ही सुन्दर ढंग से दिया है। प्रोर लिखा है कि- 'वे प्रविद्धकर्ण थे- कर्णवेध संस्कार से पहले ही वे दीक्षित हो गए । मौर बाद में उनका कर्णवेध संस्कार ज्ञान शलाका से हुआ था । वे शरीर से दुबले पतले थे, परन्तु तप गुण से कृश नहीं थे । शारी
वे
1
१. अभवदिवहिमाद्र देवसिन्धु प्रवाहो, ध्वनिरिव सकलज्ञात्सर्वशास्त्रकमूर्तिः । उदयगिरि तटाद्वा भास्करो भासमानो, मुनिरनुजिनसेना वीरसेनादमुष्यात् ॥
२. तस्य शिष्योभवच्छ्रीमान जिनसेनः समिद्धधीः ।
afaaraft यत्कर्णो विद्धो ज्ञानशलाकया ।। २२ - जयधव० प्र०
- उत्तर पुराण प्रशस्ति
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
१७६ रिक दुर्बलता सच्ची कृशता नहीं है, जो गुणों से कृश होता है वास्तव में वही कृश है, जिन्होंने न तो कापालिका (सांख्य शास्त्र और पक्ष में तैरने का घड़ा) को ग्रहण किया और न अधिक चिन्तन किया, फिर भी अध्यात्म विद्या रूप सागर के पार पहंच गये। वे बड़े साहसी, गुरु भक्त और विनयी थे। और बाल्यावस्था से ही जीवन पर्यन्त प्रखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत के धारक थे । वे न तो अधिक सुन्दर थे, और न बहत चतूर, फिर भी अनन्य शरण होकर सरस्वती ने उनकी सेवा की थी । स्वाभाविक मद्ता और सिद्धान्त मर्मज्ञता गुण उनके जीवन सहचर थे। उनकी गंभीर और भावपूर्ण सूक्तियां बड़ी ही सुन्दर और रसोली हैं। कविता सरस और अलंकारों के विचित्र आभषणों से अलंकृत है। वाल्यावस्था से ही उन्होन ज्ञान की सतत आराधना में जीवन बिताया था। सैद्धान्तिक रहस्यों के मर्मज्ञ तो वे थे ही, किन्तु उनका निर्मल यश लोक में सर्वत्र विश्रुत था। वे उच्कोटि के कवि थे, कविता रसीली और मधुर थी।
आपकी इस समय तीन कृतियां उपलब्ध हैं । पाश्र्वाभ्युदयकाव्य, आदि पुराण और जयधवला टीका, जिसे उन्होंने अपने गुरु वीरसेनाचार्य के स्वर्गवास के बाद बना कर पूर्ण की थी।
पाश्र्वाभ्युदय काव्य-यह अपने टग का एक ही अद्वितीय समस्या पूर्तिक खण्ड काव्य है । दीक्षा धारण करने के पश्चात् भगवान पार्श्वनाथ प्रतिमायोग में विराजमान हैं पूर्व भव का वेरी कमठ का जीव शंवर नामक ज्योतिष्कदेव अवधि ज्ञान से अपने शत्रु का परिज्ञान कर नाना प्रकार के उपसर्ग करता है । परन्तु पार्श्वनाथ अपने ध्यान से रंचमात्र भी विचलित नहीं होते। उनके घोर उपसर्ग को दूर करने के लिये धरणेन्द्र और पद्मावती पाते हैं। शम्बर भय-भीत हो भागने की चेष्टा करता है किन्तु धरणेन्द्र उसे रोकते हैं और उसके पूर्व कृत्यों को याद दिलाते हैं। उपसर्ग दूर होते ही भगवान पार्श्वनाथ को केवलज्ञान हो जाता है। इन्द्रादिक देव केवलज्ञान की पूजा करते हैं। शंवरपाश्वनाथ के धर्य, साजन्य, सहिष्णुता, और अपार शक्ति से प्रभावित होकर स्वयं वैर भाव का परित्याग कर उनकी शरण में पहुंचता है और पश्चाताप करता हुआ अपने अपराध को क्षमा याचना करता है, वह जिनधर्म ग्रहण करता है, देव पुष्पवृष्टि करते हैं, कवि ने काव्य में 'पापापाये प्रथम मुदितं कारणं भक्तिरेव' जैसी सूक्तियों की भी संयोजना की है । इसीसे कथावस्तु को अभिव्यंजना पाश्र्वाभ्युदय में की गई है । शृंगार रस से प्रोत-प्रोत मेघदूत को शान्त रस में परिवर्तित कर दिया है । साहित्यिक दृष्टि से यह काव्य बहुत ही सुन्दर और काव्य गुणों से मंडित है । इसमें चार सर्ग हैं। उनमें से प्रथम सर्ग में ११८ पद्य, दूसरे में भी ११८, तीसरे में ५७, और चीथे में ७१ पद्य हैं। काव्य में कुल मिलाकर ३६४ मन्दाक्रान्ता पद्य हैं। काव्य में (कमठ) यक्ष के रूप में कल्पित है। कविता अत्यन्त प्रौढ और चमत्कार पूर्ण है। मेघदूत के अन्तिम चरण को लेकर तो अनेक काव्य लिखे गये। परन्त सारे मेघदूत को वेष्टित करने वाला यह एक ही काव्य ग्रन्थ है। इस काव्य की महत्ता उस समय और अधिक बढ़ जाती है जब पार्श्वनाथ चरित की कथा और मेघदूत के विरही यक्ष को कथा में परस्पर में भारी असमानता है। ऐसी कठिनाई होते हए भी काव्य सरस और सुन्दर बन पड़ा है। इस काव्य की रचना जिनसेन ने अपने सधर्मा गरू भाई विनयसेन की प्रेरणा से की थी।
१. यः कृशोपिशरीरेण न कृशोभूतपोगुणः । न कृशत्व हि शारीरं गुणैरेव कृशः कृशः ॥२७ यो न गृहीत्कापलिकान्नाप्यचिन्तयदंजसा । तथाप्यध्यात्मविद्याब्धेः पारं पारमशिश्रियत् ॥२८
-जयधव० प्रश० २. यो नाति सुन्दराकारो न चातिचतुरो मुनिः।
तथाप्यनन्य शरणा यं सरस्वत्युपाचरत् ॥२५-जयध० न० ३. श्री वीरसेन मुनिपादपयोजनभृग, श्रीमानभूद्विनयसेन मुनिगरीयान् । तच्चोदितेन जिनसेनमुनीश्वरेण, काव्यं व्यधायि परिवेष्टित मेघदूतम् ।।
-पार्वाभ्युदय
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
इस काव्य पर योगिराट पंडिताचार्य नाम के किसी विद्वान को एक संस्कृत टीका है। जो संभवतः १५वी शताब्दी के अन्तिम चरण का विद्वान था। टीका में जगह जगह 'रत्नगाला' नामक कोष के प्रमाण दिये हैं। रत्नमाला का कर्ता इरुगदण्डनाथ विजय नगर नरेश हरिहरराय के समय शक मं. १३२१ (वि. सं. १४५६) के लगभग हुप्रा है। अतः पण्डिताचार्य उसके बाद के विद्वान होना चाहिये । काव्य के प्रत्येक सर्ग के अन्त में जिनसेन को अमोघवर्ष का गुरु बतलाया गया है।
पुन्नाट संघीय जिनसेन ने शक सं. ७०५, (सन् ७८३) में पाश्र्वाभ्युदय काव्य का हरिवंशपुराण के निम्न पद्य में उल्लेख किया है :
याऽमिताभ्युदये पार्वे जिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः ।
स्वामिनो जिनसेनस्य कीति संकीर्तयत्यसौ ॥ अतः पाश्र्वाभ्युदय काव्य शक सं० ७०५ (वि० स० ८४०) से पूर्व रचा गया है । अर्थात् शक सं० ७०० में इसकी रचना हुई है।
प्रादिपुराण-प्राचार्य जिनसेन ने त्रेसठशाला का पुरुपों के चरित्र लिखने की इच्छा से 'महापुराण' का पारम्भ किया था। किन्तु बीच में ही स्वर्गवास हो जाने के कारण उनकी वह अभिलाषा पूरी नहीं हो सकी। और महापुराण अधूरा ही रह गया। जिसे उनके शिष्य गुणभद्र ने पूरा किया। महापुराण के दो भाग हैं । प्रादि पुराण और उत्तर पुराण । प्रादि पुराण में जैनियों के प्रथम तीर्थकर आदि नाथ या ऋषभ देव का चरित वर्णित है । और उत्तर पुराण में अवशिष्ट २३ तीर्थकरी ओर शलाका पुरुषों का। आदि पुराण में ४७ पर्व और बारह हजार श्लोक है। इनमें जिनसेन ४२ पर्व पूरे और ४३ वे पर्व के ३ श्लोक ही बना सके थे कि उनका स्वर्गवास हो गया। तब शेष चार पर्वो के १६२० श्लोक उनके शिप्य गुणभद्र के बनाये हरा हैं।
आदि पुराण उच्च दर्जे का संस्कृत महाकाव्य है। प्राचार्य गुणभद्र ने उसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है कि-'यह सारे छन्दों और अलंकरों को लक्ष्य में रखकर लिखा गया है। इसको रचना सूक्ष्म अर्थ और गढ़ पद वाली है। उसमें बड़े बड़े विस्तृत वर्णन हैं जिनके अध्ययन से सब शास्त्रों का साक्षात् हो जाता है। इसके सामने दसरे काव्य नहीं ठहर सकते, यह पव्य है, और व्युत्पन्न बुद्धिवालों के द्वारा ग्रहण करने योग्य है और कवियों के मिथ्या अभिमान को दलित करने काला है, अतिशय ललित है।
जिनसेन का यह आदि पुराण सुभाषतों का भंडार है । जिस तरह समुद्र बहुमूल्य रत्नों का उत्पत्ति स्थान है, उसी तरह यह पुराण सूक्त रत्नों का भंडार है, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं ऐसे सुभाषित इसमें सुलभ हैं। और स्थान स्थान से इच्छानुसार संग्रह किये जा सकते हैं।
प्राचार्य जिनसेन ने प्रादि पुराण की उत्थानिका में अपने से पूर्ववर्ती अनेक प्रसिद्ध कवियों और विद्वानो का अनेक विशेषणों के साथ स्मरण किया है । १. सिद्धसेन २. समन्तभद्र ३. श्रीदत्त ४. प्रभाचन्द्र ५. शिवकोटि ६. जराचार्य ७. काणभिक्ष. देव (देवनन्दि) ६. भट्टाकलंक १०. श्रीपाल ११. पात्र केशरी १२. वादिसिंह १३. वीर सेन १४. जयसेन १५. कवि परमेश्वर । इन सब विद्वानों का परिचय यथा स्थान दिया गया है।
जयघवलाटीका
कसाय प्राभत के प्रथम स्कन्ध की चारों विभक्तियों पर 'जयघवला नाम की बीस हजार श्लोक प्रमाण सीका लिख कर प्राचार्य वीरसेन का स्वर्गवास हो गया। अतः उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने अवशिष्ट भाग पर
२. 'सकलच्छंदोलंकृति लक्ष्यं सूक्ष्मार्थ गूढपदरचनम् ॥१७ 'व्यावर्णनोरुमारं साक्षात्कृतसर्वशास्त्रमद्भरावम् ।
आहस्तितान्य काव्यं श्रव्यं व्यत्पन्नमतिभिगदेयम् ॥१८ 'जिनसेन भगवतोक्तं मिथ्याकवि दर्पदलनमति ललितम् ।।१६
-उत्तर पुराण प्रशस्ति
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
१८१ चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे शक संवत ७५६ में पूरा किया। यह टीका वीरसेन स्वामी की शैली में मणि-प्रवाल (सस्कृत मिथित प्राकृत) भाषा में लिखी गई है । टीका की भाषा प्रावाहपूर्ण है। टीकाकार ने स्वयं ही शंकाएं उठा कर विविध विपयो का स्पष्टीकरण किया है।
प्राचार्य जिनसेन ने कसाय प्राभत की जयधवला टीका में चणिमूत्र और उच्चारणा आदि के द्वारा वस्तु तत्त्व का यथार्थ विवेचन किया है । कपाय के उपशम और क्षपणा का सुन्दर, सरस एव हृदयग्राही विवेचन किया गया है। मोह के दर्शन मोहनीय और चरित्र मोहनीय रूप दो भेद है । उनपे दर्शन माहनीयके भेद राग, द्वेष मोहरूप त्रिपटि का तथा चारित्र मोहनीय के मूलतः कपाय अोर नो कषायों में विभाजन किया है। ये कषाये राग-द्वेष में विभाजित होकर एक मोह कर्म की राग-द्वेष मोहरूप त्रिरूपताका बोध कराती हैं । प्रात्मा इन सबकी शक्ति को उपशमाने या क्षीण करने का उपक्रम करता है । उन की शक्ति का निर्बल करने के लिये ध्यानादि का अनुष्ठान करता है। और ग्रन्थ में कषायों के रस को सुखाने, निर्जीर्ण करने आदि का विस्तृत कथन दिया है। जिसका परिणाम घाति कर्म क्षय रूप कैवल्य की प्राप्ति है। उसमे आत्मा कर्म के मोहजन्य सम्कार के प्रभाव से हलका हो जाता है। पश्चात वह योग निरोधादि द्वारा अघाति रूप कर्म-कालिमा का अन्त कर स्वात्म लब्धि का पथिक बन जाता है। प्रोर जन्म मरणादि से रहित अनन्तकाल तक आत्म-सुख में निमग्न रहता है। यह टीका प्रमेय बहुल और सैद्धान्तिक चर्चा से प्रोत-प्रोत है । इसका अध्ययन और मनन करना श्रेयरकर है।
इस सब विवेचन पर मे जयधवला टीका की महत्ता का बोध सहज ही हो जाता है, और उसमे जिनसेनाचार्य की प्रज्ञा एवं प्रतिभा का अच्छा प्राभास मिल जाता है। आचार्य जिनमेन ने जयधवला टीका में श्रीपाल. पदान और देवमेन नामके तीन विद्वानों का उल्लेख किया है । संभवतः ये उनके सधर्मा या गुरु भाई थे। श्रीपाल को तो उन्होंने जयधवला का संपालक कहा है।
समय
जिनसेन अपनी अविद्धकर्ण बाल्य अवस्था में ही वीर सेन के चरणों में आ गए थे। वीरसेन ही उनके विद्या गुरु और दीक्षा गुरु थे।
उन्ही की शिक्षा द्वारा तपस्वी और विद्वान आचार्य बने । उन्ही के पादमूल में उनके जीवन का अधिकाश भाग व्यतीन हपा है । इमी से उन्होंने अपने गुरु का बहुत ही आदरपूर्ण शब्दों में स्मरण किया है। वीर सेन ने अपनी धवला टोका शक स० ७३८ सन् ८१६ में समाप्त को है। पीर जय धवला टीका की समाप्ति उसमे २१ वर्ष बाद शक सवत ७५६ (सन् ८३७) में गर्जग्नरेन्द्र अमोघवर्ष के राज्य काल में वाट ग्राम हुई है । च कि
१. प्रायः प्राकृत भारत्या क्वचित्संस्कृमिथया। मणि-प्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽयंग्रन्थ विम्नरः ॥३२
-(जधवला प्रान) २. ते नित्योज्वलपदमसेनगरमा: श्रीदेवमेनाचिताः । भासन्ते रविचन्द्रभासि मुतपा श्रीपाल मत्कीर्तयः ॥३६
-जय धवला प्रगति । ३. इतिश्री वीर सेनीया टोका सूत्रार्थ-दशिनी।
वाट ग्राम पुरे श्रीमद् गुर्जरार्यानुपालिते ।। ६ फाल्गुणे मासि पूर्वान्हे दशम्या शुक्लपक्षक । प्रवर्धमान-पूजोरु-नन्दीश्वर- महोत्सवे ॥७ अमोघवर्ष राजेन्द्र-राज्य प्राज्य गुणोदया। निष्ठिना प्रचय यायादाकल्पान्तमनल्पिका ॥८-(जयधवला प्रशरित)।
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पाश्र्वाभ्युदय काव्य का उल्लेख शकसं० ७०५ में हरिवंश में पुन्नाट संधी जिनसेनने किया है । और लिखा है कि भगवान पार्श्व नाथ के गुणों की स्तुति उनको कीर्तिका सक र्तन करती है । इससे स्पष्ट है कि जिनसेन ने शक सं० ७०५ से पूर्व ही ग्रन्थ रचना शुरू कर दी थी। अत: उक्त पाश्र्वाभ्यूदय काव्य शक सं.७०० के लगभग की रचना है, क्य शक सं०७०५ में उसका उल्लेख मिलता है। इस रचना के समय जिनसेन की प्राय कम से कम १५ और २० वर्ष के मध्य रही होगी। पाश्र्वाभ्युदय काव्य की रचना से ५६ वर्षबाद उन्होंने जयधवला को शक सं० ७५६ सन् ८३७ में पूर्ण किया है। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि प्राचार्य जिनसेन ने शक सं० ७०० से ७३८ के मध्यवत समय में क्या कार्य किया । इस सम्बन्ध में यह विचारणीय है कि जब गुरु वीरसेन ने धवला और जयधवला टोका बनाई, तब उसमें उन्होंने अपने गरु को अवश्य सहयोग दिया होगा। और यदि उन्होंने उस काल में अन्य किसी ग्रन्थ की रचना की होती तो वे उसका उल्लेख अवश्य करते ।
उसके बाद उन्होंने आदि पुराण की रचना को है । और वे महापुराण की रचना करते हुए बीच में ही स्वर्गवासी हो गए । उनके इस अधूरे पुराण को उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने पूर्ण किया है । आदि पुराण के दश हजार श्लोंकी रचना करने में ५.६ वर्ष का समय लग जाना अधिक नहीं है । इससे जिनसेना चार्य दीर्घ जीवी थे। और उनका स्वर्गवास ५० वर्ष की अवस्था में हना होगा।
दशरथ गुरु ___ दशरथ गुरु-पंचस्तूपान्वयी वोरमेन के शिष्य थे, और जैन सेनाचार्य के सधर्मा बन्धु–गुरुभाई थे। जो बडे विद्वान थे—जिस तरह सूर्य अपनी निर्मल किरणों से संसार के पदार्था को प्रकाशित करता है। उसी प्रकार वे भी अपने वचन रूपी किरणों से समस्त जगत को प्रकाशमान करते थे। जिनसेनाचार्य का जो समय है, वही दशरथ गुरु का है, जिनसेनाचार्य ने अपनी जयधवला टीका शक सं० ७५६ (सन् ८३७) में पूर्ण की है। अतएव दशरथगुरु का समय भी सन् ८०० से ८३७ होना चाहिये।
गुणभद्राचार्य गुण भद्र-मूलसंघ सेनान्वय के विद्वान थे । और पचस्तूपान्वय के विद्वान आचार्य जिनसेन के सधर्मा (गुरुभाई) दशरथ गुरु के शिष्य थे । सिद्धान्त शास्त्र रूपी समुद्र के परिगामी होने से जिनकी बुद्धि अतिशय प्रगल्भ तथा देदीप्यमान (तीक्ष्ण) थी, जो अनेक नय और प्रमाण के ज्ञान में निपुण, अगणित गुणों से विभूषित, समस्त जगत में प्रसिद्ध थे । जो तपोलक्ष्मो से भूषित थे। उत्कृष्ट ज्ञान से युक्त, पक्षोपवासी, तपस्वी तथा भावलिंगी
१. यामिताभ्युदये पार्श्व जिनेन्द्रगुण नंस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनम्य कति समीर्तयत्वसौ ।।१०
-हग्विशपगरण २. दशरथगुरुरामीत्तस्य धीमान्सधर्मा
शशिन इव दिनेशो विश्वलोकचक्षः । निखिलमिद मदीपि व्यापितद्वाङ्मयूखैः । प्रकटितनिजभाव निर्मलधर्ममारे : ॥१२
-उत्तर पुगण प्रशस्ति ३. प्रत्यक्षीकृत लक्ष्य लक्षण विधि विश्वोपविद्यां गतः । सिद्धान्ताअबवसानयान जनित प्रागल्म्भा वृद्धीद्धधी; । नानानूननयप्रमाणनिपुणोऽगण्ये गुणभूषित :। शिष्यः श्रीगुणभद्रसूरिरनयोगमीज्जगद्विश्रुतः ।।
-उत्त० पु० प्रशस्ति १४
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
१८३ मुनिराज थे । राष्टकूट राजा अमोघवर्ष ने गुणभद्राचार्य को अपने द्वितीय पुत्र कृष्ण का शिक्षक नियुक्त किया था। इन्होंने जिनसेनाचार्य के दिवंगत हो जाने पर उनके अपूर्ण आदि पुराण को १६२० श्लोकों की रचना कर उसे परा किया था। उसके बाद उन्होने आठ हजार श्लोक प्रमाण 'उत्तर पुराण' की रचना की। उसकी रचना में गणभदाचार्य ने कवि परमेष्ठी के 'वागर्थ सग्रह' पुराण का आश्रय लिया था।
उत्तर पुराण में द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ से लेकर २३ तीर्थकरों, ११ चक्रवर्ती, नव नारायण, नव बलभद्र और प्रतिनारायण तथा जीवंधर स्वामी आदि विशिष्ट महापुरुषो के कथानक दिये हए हैं। इस पुराण को कवि ने संभवत: बंकापुर में समाप्त किया था। प्रस्तुत बकापर अपने पिता वोर बंकेय के नाम से लोकादित्य द्वारा स्थापित किया गया। प्रपितामह मुकुल के वश को विकसित करने वाले सूर्य के प्रताप के साथ जिसका प्रताप सर्वत्र फैल रहा था, और जिसने प्रसिद्ध शत्रुरूपी अंधकार नष्ट कर दिया था, जो चेल्ल पताका वाला था जिसकी पताका में मयूर का चिन्ह था । चेलध्वज का अनुज था और चेल्ल केतन बंकेय का पुत्र था, जैनधर्म की वृद्धि करने वाला, चन्द्रमा के समान उज्वल यश का धारक लोका दित्य बंकापुर में वनवास देश का शासन करहा था।
उस समय बंकापुर वनवासि प्रान्तकी राजधानी था। और अनेक विशाल जिन मन्दिरों से सुशोभित था। यह नपतुगका सामन्त था, और वीर योद्धा था। इसने गगराज राजमल को युद्ध में पराजित कर बन्दी बनाया था। इस विजयोपलक्ष्य में भरी सभा में वीर बकेय को नृपतुग द्वारा अभीष्ट वर मांगने की प्राज्ञा हुई। तब जिनभक्त बकेय ने गदगद हो नपतुग से यह प्रार्थना की, कि अब मेरी कोई लौकिक कामना नहीं है। यदि आप देना ही चाहें तो कोलनर में मेरे द्वारा निर्मित जिनमंदिर के लिये पूजादि कार्य संचालनार्थ एक भूदान प्रदान कर सकते है। उन्होंने वैसा ही किया। बकेय का पत्नी विजयादेवी बड़ी विदूपी थी। इसने सस्कृत में काव्य रचना की है । इनका पूत्र लोकादित्य भी अपने पिताके समान ही वीर और पराक्रमी था। लोकादित्य शत्र रूपी अन्धकार को मिटाने वाला एक ख्याति प्राप्त शासक था। लोकादित्य पर गुणभद्राचार्य का पर्याप्त प्रभाव था। लोकादित्य जैन धर्म का प्रेमी था, और समूचा वनवासि प्रान्त लोकादित्य के वस में था।
प्राचार्य जिनसेन की इच्छा महापुराण को विशाल ग्रन्थ बनाने की थी। परन्तु दिवंगत हो जाने से वे उसे पूर्ण नहीं कर सके । ग्रन्थ का जो भाग जिनसेन के कथन से अवशिष्ट रह गया था, उसे निर्मल बुद्धि के धारक गुण भद्रसूरि ने हीनकाल के अनुरोध से तथा भारी विस्तार के भय से संक्षेप में ही संग्रहीत किया है।
उत्तर पुराण को यदि गुणभद्राचार्य प्रादि पुराण के सदृश विस्तृत बनाते तो महापुराण एक उत्कृष्ट कोटि का महाभारत जैसा एक विशाल ग्रन्थ होता। किन्तु आयु काय आदि की स्थिति को देखते हुए वे उसे जल्दी पूर्ण करना चाहते थे। इसी से उसमें बहुत से कथन मौलिक और विस्तृत नही हो पाये हैं, और कितने ही कथानकों से मुख मोड़ना पड़ा है । कुछ कथानकों में वह विशदता भी शीघ्रता के कारण नहीं लासके हैं। फिर भी उनका उक्त प्रयत्न महान और प्रशंसनीय है।
१. तस्सय सिम्सो गुणव गुणभद्दो दिव्वणारण परिपुण्णी।
पक्खोववाम मंडी महातवो भालिगो व ॥ -दर्शनसार २. देखो, डा० अल्तेकर का गष्ट्रकूटाज और उनका समय पृ० ३. चेल्लपताके चेल्लध्वजानुजे चेल्लकेतनतनूजे । जैनेन्द्रधर्मवृद्धे विधायिनिविधुवीध्र पृथु यशसि ।।
-उत्त० पु० प्रशस्ति ३३ ४. "सरस्वती व कर्णाटी विजयांका जयत्यमौ ।
या वक्ष्मा गिरां वासः कालिदासादनन्तरम् ।।' ५. अति विम्तर भीरुत्वादवशिष्ट सङ गहीत ममलधिया। गुणभद्र सूरिणेदं–प्रहीणकालानुरोधेन ॥
-उत्तर० पु० प्रश० २०
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
जिन सेनाचार्य को यह विश्वास हो गया कि अब मेरा जीवन समाप्त होने वाला है और मैं महापुराण को पूरा नहीं कर सकूंगा । तब उन्होंने अपने सबसे योग्य शिष्यां को बुलाया और उनसे कहा कि सामने जो यह सूखा वृक्ष खड़ा है, इसका काव्यवाणी में वर्णन करो । गुरु वाक्य सुनकर उनमें से एक शिष्य ने कहा 'शुष्क काष्ठ तिष्ठत्यग्रे' । फिर दूसरे शिष्य ने कहा- "नीरसतरुरिह विलसति पुरतः " । गुरु को द्वितीय वाक्य सरस ज्ञात हुआ । अतः उन्होंने उसे श्राज्ञा दी कि 'तुम महापुराण को पूरा करो । गुणभद्र ने गुरु प्राज्ञा को स्वीकार कर महापुराण को पूरा किया।
१८४
श्राचार्य गुणभद्र ने लिखा है कि इस ग्रन्थ का पूर्वार्ध ही रसावह है, उत्तरार्ध में तो ज्यों-त्यों करके ही रस की प्राप्ति होगी । गन्ने के प्रारम्भ का भाग ही स्वादिष्ट होता है ऊपर का नहीं । यदि मेरे वचन सरस या सुस्वादु हों तो इसे गुरु का माहात्म्य ही समझना चाहिये। यह वृक्षोंका स्वभाव है कि उनके फल मीठे होते हैं । वचन हृदय से निकलते हैं और हृदय में मेरे गुरु विराजमान हैं। वे वहां से उनका सस्कार करेगे हो । इसमें मुझे परिश्रम न करना पड़ेगा । गुरुकृपा से मेरी रचना संस्कार की हुई होगी। जिनसेन के अनुयायी पुराण मार्ग के प्रथम से ससार समुद्र के पार होना चाहते हैं फिर मेरे लिये पुराण सागर के पार पहुचना क्या कठिन है ।
उत्तर पुराण का रचना काल
श्राचार्य गुणभद्र ने उत्तर पुराण में उसका कोई रचना काल नहीं दिया । उनको प्रशस्ति २७ वें पद्य तक समाप्त हो जाती है। पांच-छह श्लोकों में ग्रन्थ का माहात्म्य वर्णन करने के अनन्तर २७ व पद्य में बनाया है कि भव्यजनों को इसे सुनना चाहिये, व्याख्यान करना चाहिये, चिन्तवन करना चाहिये, पूजना चाहिये, और भक्तजनों को इसकी प्रतिलिपियाँ लिखना लिखाना चाहिये । यहीं गुणभद्राचार्य का वक्तव्य समाप्त हो जाता है । जान पड़ता है उन्होंने उसका रचनाकाल नहीं दिया । उनका समय शक सं० ८२० से पूर्ववर्ती है । उस समय अकाल वर्ष के सामन्त लोकादित्य बंकापुर राजधानी से सारे वनवास देशका शासन कर रहे थे। तब शक सं० ८२० पिंगल नाम के संवत्सर में पंचमी (श्रावण वदी ५) बुधवार के दिन भव्य जीवों ने उत्तर पुराण की पूजा की थी । गुणभद्राचार्य के शिष्य मुनि लोकसेन ने उत्तरपुराण की रचना करते समय अपने गुरु को 'सहायता की ।
श्रात्मानुशासन में २६६ श्लोक । जिनमें आत्मा के अनुशासन का सुन्दर विवेचन किया गया है । यह गुणभद्राचार्य की स्वतंत्र कृति है । इसमें सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तपरूप चार आराधनाओं का स्वरूप सरल रीति से दिया है । ग्रन्थ चर्चित विपय उपयोगो और स्व-पर-सम्बोधक है । ग्रंथ मनन करने योग्य है । इस पर पंडित प्रभाचन्द्र की एक संस्कृत टीका है जो संक्षिप्त और सरल है । ग्रन्थ हिन्दी और संस्कृत टीका के साथ जीवराज ग्रंथमाला शोलापुर से प्रकाशित हो चुका है। इसमें अनुष्टुप सहित आर्या, शिखरिणी, हरिणी, मालिनी, पृथ्वी, मन्द्राक्रान्ता वंशस्थ, उपेन्द्रा, रथोद्धता, गीति, वसन्ततिलका, स्त्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित ओर
१. इक्षो रिवाम्य पूर्वाद्धं मेवाभावि रसावहम् । यथातथास्तु निष्पत्तिरिति प्रारभ्यते गया || १४ २. गुरुरणामेव माहात्म्यं यदपि स्वादु मद्वचः । तरूणा हि स्वभावोऽसौ यत्फलं स्वाद जायते ।। १७
३. निर्यान्ति हृदयाद्वाचो हृदि मे गुरव स्थिताः ।
ते तत्र संस्कारिष्यन्ते तन्न मेऽत्र परिश्रमः ॥१८ ४. पुराणं मार्गमासाद्य जिनमेनानुगा ध्रुवम् ।
भवान्धेः पारमिच्छन्ति पुराणस्य किमु ते ॥ १e ५. शकनृप कालाभ्यन्तर विंशत्यधिकाष्ट शतमिताब्दान्ते । मंगलमहार्थ कारिणि पिंगल नामिनि समम्त जन सुखदे || ३५
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी और दशवी शगब्दी के आचार्य
१८५
वेताली आदि उन्दो का उपयोग किया गया। वविना प्रशाना। प्रागग्मय अतकार सहित हे, उममें मुभापितो की कमी नही हे । प्रार कान्य । गणो मे गाने ।
जिनदत्तचरित-भी उनकी ति बालाया जाना है। वर गरका का काव्य गन्ध ।। जिसमें जिनदत्त का जीवन परिचय प्रक्ति है। सार जो माणिक चन्द्र गन्धमाता में मल रूप प्रमाणित चर है।
शाकटायन शाकटायन (पाल्यकोति)-यापनीय मघ के आचार्यये। गापन य संघ का मायागरात कल दिगम्बरो से मिलता था। वनग्न रहन पर ध्यताम्बर प्रागम को सादर कदपट से देखते ।।दाकटापन यति। ने तो स्त्रीमक्ति पार के बलभक्ति नाम दो प्रकरण भी लिख है। जो प्रकाशित सानो । नक। बाविक नाम पाल्यकीति था। परन्न शाकगगन व्याकरण के कर्ता होने के कारण गाकटायन नाम से एमि होगा। वादि गजम् रिने अपने पार्श्वनाथ चरित में उनका निम्न दाब्दो स्मरण किया
कतरत्या तस्य सा शक्तिः पाल्यकीर्तमहौजसः ।
श्रीपद भरण यस्य शाब्दिकान्कुरले जनान ।। इमने बताया कि उम महातेजस्वी पाल्यकान का शकिा का क्या नणन किया जाय, जिमका श्रा' पद श्रवण ही लोगों को शाब्दिक या व्याकरण कर देता है। शपटापन को तालिटोय 'प्राचार्य लिखा है । जिगवा गर्थ
त
य होना ।पाणिनि ५-३-६७क अनुसार देशीय शब्द तुत्यता का वाचक । चिन्तामाटाताकता यावारता उता 'गकलज्ञान साम्राज्य पदमाप्तवान् कहा।
शाकटायन की 'नमोघवत्ति नाम की एक बापज्ञटीका हे । उसका प्रारम्भ भीममा ज्याति 'अादि मगलाचरण में होता है। वादिगज मुनि ने इसी गगलाचरण । के 'श्री' पद को लक्ष्य करणे यह बाग हहै कि पात्यकीति (शाकटायन) के व्याकरण प्रारम्भ करने पर लाग वैयाकरण हो जाते है।
इसका नाम शब्दानुगागन हे । शाकटायन नाम बाद को प्रतित हुआ है।
शाक्टायन की अमाघवृत्ति मे, आवश्यक, छेद सूत्र, नियुक्ति कालिक सूत्र प्रादि ग्रन्थो का उल्लेग किया है। उससे जान पटता है कि यापनं.य सघमे श्वेताम्बर ग्रन्थाके पठन-पाठन का प्रचार था। पराजित सरि ने तो दशवकालिक पर टीका भी लिखी थी।
अमाधवत्ति भ 'उपमवगप्त व्याख्यातार' क का शाकटायन ते सर्व प्राचा िो गवा बडा व्याग्याना बतलाया है। सभव हे ये सर्वगप्त मनि वही हो जिनके चरणो में बैठकर साराधना का शिवाय ने सत्र प्रार को अच्छी तरह समझा था।
शाकटायन या पाल्यकीति की तीन ग्ननाए उपलब्ध है । शब्दानुगामन का मूल पाठ, उसकी अमाघवत्ति और स्त्रीमुक्ति वलिभक्ति प्रकरण । राजशेखर ने अपनी काव्यमीमासा ने पाल्यकीति के मतका उल्नख करते हए लिखा है कि- 'यथा तथा वास्तु वस्तूनो रूप वक्त प्रकृतिविरोपायनात रसपत्ता । तथा च यमर्थ रक्त स्तोति त विरक्तो विनिन्दति मध्यस्थस्तु तत्रादास्ते इति पाल्यकीनि ।” दसग ज्ञात हाता है कि पात्यकोति को प्रार भी कोई रचना रही है।
शाकटायन के शब्दानुशासन पर सात टीकाएँ लिखी गई - १ अमोघवृति, स्वय पाल्यकीनि द्वारा २ शाकटायन न्यास-प्रभाचन्द्र कृत न्यास ३ चिन्तामणिटीका यक्ष वर्माकृत' १ तम्याति महती वृत्ति महृत्येय लघीयमी। मम्पूर्ण लक्षणावृतिर्वक्ष्यते यक्षवर्मग्णा ।।
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
४. मणि प्रकाशिका - चिन्तामणि को प्रकाशित करने वाली टीका, जिसके कर्ता जितसेन हैं ।
५. प्रक्रिया संग्रह — इसके कर्ता ग्रभयचन्द्र है ।
६. शाकटायन टीका - वादिपर्वतवत्र भावसेन त्रैविद्यदेवकृत । इनकी एक कृति विश्व तत्त्व प्रकाश नाम की है य: ग्रंथ प्रकाशित हो चुका है ।
७. रूपसिद्धि दयापाल मुनि कृत । यह द्रविड़ संघ के विद्वान थे। इनके गुरु का नाम मतिसागर था ।
'ख्याते दृश्ये' सूत्र की जो अमोघवृत्ति दी है, उसमें निम्न उदाहरण दिया है - " प्रदहदमोघवर्षाऽरातीनअमोघवर्ष ने शत्रुनों को जला दिया। इस उदाहरण में ग्रन्थ कर्ता ने अमोघवर्ष ( प्रथम ) की अपने शत्रुनों पर विजय पाने की जिस घटना का उल्लेख किया है। ठीक उसी का जिक्र शक सं० ८३२ (वि० सं० ६६७ ) के एक राष्ट्रकूट शिलालेख में निम्न शब्दों में किया है- 'भूपालान् कण्टकाभान वेष्टयित्वा ददाह । इसका अर्थ भी वही है - प्रमो वर्ष ने उन कांटे जैसे राजाओं को घेरा श्रौर जला दिया जो उससे एकाएक विरुद्ध हो गये थे । यद्यपि उक्त शिलालेख अमोघवर्ष के बहुत पीछे लिखा गया था, इस कारण इसमें परोक्षार्थ वाली 'ददाह' क्रिया दी है । यह उसके समक्ष की घटना है ।
बाग्मुरा के दानपत्र में जो शक सं० ७८६ ( वि० सं० २४) का लिखा हुआ है इस घटनाका उल्लेख है - उसका सारांश यह है कि गुजरात के मालिक राजा एकाएक बिगड़कर खड़े हुए और उन्होंने अमोघवर्ष के विरुद्ध हथियार उठाये, तब उसने उन पर चढ़ाई कर दी और उन्हें तहस-नहस कर डाला । इस युद्ध में ध्रुव घायल होकर मारा गया ।
अमोघवर्ष शक सं० ७३६ ( वि० स० ७७१) में सिंहासनारूढ़ हुए थे । और यह दानपत्र शक सं० ८२४ ) का है । अत: गिद्ध है कि अमोघवृत्ति शक मं० ७३६ से ७८६ सन् ८१४ से ८६७ तक के मध्य किसी समय रची गई है । और यही समय पाल्यकीर्ति या शाकटायन का है ।
उग्रदित्याचार्य
उग्रदित्याचार्य - श्रीनन्दी मुनि के शिष्य थे । उग्रदित्याचार्य ने इन्हीं से ज्ञान प्राप्त करके उन्हीं की प्राज्ञा से कल्याणकारक नामक वैद्यक ग्रन्थ की रचना की है।
यह श्रीनन्द मुनि के शिष्य थे । उग्रदित्याचार्य ने श्रीनन्दि से ज्ञान प्राप्त किया था । उग्रदित्याचार्य ने नृपतुङ्गवल्लभराज के दरवार में मांस भक्षण का समर्थन करने वाले विद्वानों के समक्ष मांस की निष्फलता को सिद्ध करन के लिए कल्याणकारक नाम के वैद्यक ग्रंथ की रचना की है । नृपतंग (अमोघवर्ष) राष्ट्रकूटवंश के राजा थे । उन्हीं के राज्यकाल के रामगिरि पर्वत के जिनालय में बैठकर ग्रन्थ बनाया था । ग्रथ में दशरथ गुरु का भी उल्लेख है जो वीरमेनाचार्य के शिष्य थे। इसमें भी उग्रदित्याचार्य का समय 8 वीं शताब्दी का अन्तिम चरण जान पड़ता है । प्रशस्ति में उल्लिखित विष्णुराज परमेश्वर का कोई पता नहीं चलता । कि वे किस वंश के और कहां के राजा थ ।
ग्रन्थ में २५ अधिकार हैं- और श्लोक संख्या पांच हजार बतलाई जाती है । स्वास्थ्य संरक्षक, गर्भोत्पत्ति विचार, स्वास्थ्य रक्षाधिकार-सूत्रवर्णन, धन्यादि, गुण, गुणविचार, अन्नपान विधि वर्णन, रसायन विधि, व्याधि समुद्देश, वात व्याधि चिकित्सा, पित्तव्याधि-चिकित्सा, श्लेष्म व्याधि चिकित्सा, महाव्याधि चिकित्सा, क्षुद्ररोग चिकित्सा, बालग्रह भूतमन्त्राधिकार, सर्पविप चिकित्सा शास्त्रसंग्रह - तत्रयुक्ति कर्म चिकित्सा, भैषज्य कर्मापद्रव चिकित्सा, सव पधकर्म व्याप चिकित्सा, रसायन सिद्ध्यधिकार, नानाविध कल्पाधिकार | ग्रन्थ आयुर्वेद का है । जीसीला पुरम प्रकाशित हो चुका है, पर वह इस समय मेरे सामने नही है चिकित्सा शास्त्र का अच्छा ग्रन्थ है ।
२. एपि ग्राफिआ इंडिका जिल्द १ पृ० ५४ ३. इण्डियन एण्टिक्वेरी जि० १२ पृ० १८१
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी और दशवी शताब्दी के आचार्य
१८७
महावीराचार्य (गणितसार के कर्ता) महावीराचार्य-राष्ट्रकूट वंशी राजा अमोघवर्ष (प्रथम) के समकालीन थे। उन्होंने अपने गणितमार के प्रारम्भ में अमोघवर्ष के दीक्षा लेकर तपस्वी बन जाने पर उनके तपस्वी जीवन का उल्लेख किया है। प्रथम पदा में अमोघवर्ष को प्राणी रूपी सस्य समूह का सन्तुष्ट, निरोनि न निरवग्रह करने वाला प्रारम्बाट हितेपी बतनागा है। यहां गजा के ईति निवारण अोर अनावृष्टिरूप विपत्ति के निवारण के साथ-साथ सब प्राणिया के प्रति अभय पौर राग-द्वेष रहित उपेक्षा वत्ति का उल्लेख है। स्वेष्ट हितेतिणा वाक्य गे मष्ट है कि ते यात्म कल्याण गयण हो गए थे। दूसरे पद्य में उनके पापरूपी शत्रुओं का उनकी चित्तवृति रूप तपोज्वाना में भस्म होने का उख है। राजा अपने शत्रयों को क्रोधाग्नि में भम्म करता है, उन्हों। काम क्रोधादि अन्तरग गरयों को कपाय रहित चित्तवत्ति से नष्ट कर दिया था। अतएव वे प्रवन्ध्य कोप हो गए थे। तोगरे पद्य में उनके समस्त जगत को वशी. भूत करने, किन्तु स्वयं किमी के वशीभूत न होने मे अपूर्व मकरध्वज कहा है। चौथे पद्य में उनको एक पिकाभजन' पदवी की सार्थकता सिद्ध की है। राजमंडल को वश करने के अतिरिक्त यहां पाटन नपन्या वद्धि-द्वारा ससार चक्र परिभ्रमण का क्षय करने का उल्लेख है। पाचवं पद्य में उनकी विद्या प्राप्ति र मर्यादाम्रो का वज्रवेदिका द्वारा उनकी ज्ञानवृद्धि और महानता के प्रनिगालन का उल्लेख अवित किया गया 'रत्न गर्न' विगण से उनके दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप रत्नत्रय का भाव प्रकट किया है। उनमें 'पयाग्यान चारित्र के जलधि' विशेपण द्वारा उनके पूर्ण मुनि पोर उत्कृष्ट ध्यानी होने का स्पष्ट मकेत है। क्या कि यथाख्यान चाल जैन सिद्धान्त को विशिष्ट मज्ञा है, जो मूनि सफल चारित्र द्वारा भावविशुद्ध में कपाया का उपशमत गाक्षाण कर देता है वह यथाख्यात चारित्र का धारी होता है । अन्तिम पद्य में उनके एकान्त को छोड़कर स्याद्वादन्याय का अवलम्बन लेने का स्पष्ट उल्लेख है । ऐसे नृपतुग के शासन की वृद्धि की प्राशा को गई है।
प्रीणितः प्राणिसस्यौधो निरीति निवग्रहः । श्रीमतामोघवर्षेण येन स्वेष्ट हितैषिणा ॥१ पापरूपाः परा यस्य चित्तवृत्तिहविर्भ जि । भस्मसाद्धावमीयस्तेऽवनध्यकोपोऽभवत्ततः ॥२ वशीकुर्वन् जगत्सर्व स्वयं नानु वशः परैः। नाभिभूतः प्रभुस्तस्मादपूर्वमकरध्वजः ॥३ यो विक्रमक्रमाक्रांतचकिचकृतक्रियः । चक्रिकाभजनो नाम्ना चक्रिका भजनोऽजसा ॥४ यो विद्यानद्यधिष्ठानों मर्यादावनवेदिकः । रत्नगर्भो यथाख्यातचारित्रजलधिमहान् ।।५ विध्वस्तकान्तपक्षस्य स्याद्वादन्यायवाग्निः ।
देवस्य नपतं गस्य वर्वतां तस्य शासनम् ॥६ महावीराचार्य ने ग्रन्थ '. प्रारम्भ में गणित की प्रगसा करते हए लिखा है कि लकिका, वदिक योन सामायिक जो जो व्यापार है उन सब में गणित सख्यान का उपयोग है। काम शास्त्र, अपंगास्त्र, गान्धव शास्त्र. नाटय शास्त्र, पाकशास्त्र, आयुर्वेदिक और वस्तु विद्या एवछन्द अनकार, काव्य तक व्याकरण यादि कनायो समस्त गुणों में गणित अत्यन्त उपयोगी है। सूर्य आदि ग्रहो की गति को शान करने, ग्रहण में ग्रहों गति, प्रश्न अर्थात दिक देश काल को जानने तथा चन्द्रमा के परिलेख में, द्वीपो गमुद्र', और पर्वता का सख्या, व्यारा और परिधि पाताल लोक, मध्यलोक ज्योतिर्लोक, स्वर्ग नरक, थेणिवद्ध भवनों, सगाभवनों ओर गम्दाकार मन्दिरको प्रमाण गणित की सहायता से ही जाने जा सकते है। प्राणियों के सस्थान, उनकी आयु, यात्रा प्रोर सहिता आदि से सम्बन्ध रखने वाले सभी विषय गणित से ही ज्ञात होते हैं।
ग्रन्थकार ने लिखा है कि तीर्थकर और उनकी शिप्य प्रशिप्यादि की प्रसिद्ध गुरु परम्परा गे माये हा
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास -भाग २
सख्यान रूपी गमुद्र में से रत्न की । रह, पापाण गे काचन को भांति अथवा शुक्तियों से मुक्ता फल को तरह सार निकाल कर अपना शक्ति अनुगाः गणित गार गनः क करता हूं। जो लघु होते हुए अनल्पार्थक ।।
गणित सार मग्राम चं.वीमत: पल्या का उल्लेख करते हुए उनके नाम इस प्रकार दिये है, एक, दश, शत सहस्र, दशगम, लक्ष, दालक्ष वोटि, ददाकोटि, शतकोटि, अर्बद, खर्व, पन महापन, क्षाणी,महाक्षाणी, गग्य, महाराष क्षित, माक्षात, क्षाम, महाक्षीम। अंकों के लिये शब्दो का भी प्रयोग किया है, जमे तान के लिये रत्न, छह के लि. द्रव्य, भात . लि नत्त्व, पन्नग और भय, आठ के लिये कर्म, तनु अोर भद, ना के लिय गो पदार्थ यादि।
लघत्तम समापवर्तक के विपय में अनुसन्धान करने वालों में महावीराचार्य विद्वाना में प्रथम गणितज्ञ थे, जिन्होंने लाघवार्थ निरुद्ध, लघत्तम समापवर्तन की कल्पना की। महावीराचार्य ने निरुद्ध की परिभाषा इस प्रकार की है- 'छेदों के महत्तम गमापवक और उमगे भाग देने पर प्राप्त लब्धियो का गुणनफल निरुद्ध कहलाता है। इस तरह यह ग्रप गणित क ोक विटोगताओ को लिये हुए है। भारतीय गणितज्ञ विद्वानों ने उसकी प्रशसा करते हा लिखा: - दा० अवधगनारायण गिह न धवला टीका का भूमिका में लिखा है कि महावीराचार्य का गणितसार सम्रह गथ सामान्यरूप ब्रह्य गुप्त श्रीधराचार्य, भास्कर तथा अन्य हिन्दू गणतज्ञो के ग्रयों के समान हाते हुए र बहतमा वाला उनसे पूर्णन आगे है।
गणितसार अभिन्न गणक, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, धन, घन-मूल, छिन्न, समच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागानुवन्ध, भागमातृ जाति, जगगिक, मप्तराशिक, नवराशिक, भाण्ड, प्रतिभाण्ड, व्यवहार, मिथक व्यवहार भाव्यकव्यवहार, एक पत्रीकरण, श्रणीव्यवहार, खानव्यवहार, चितिव्यवहार, छाया व्यवहार आदि गणितों का विवेचन किया है। रेखागणित, बीजगणित, और पाटी गणित की दृष्टि से यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। इस पर एक सस्कृत टीका भी उपलब्ध है।
इनकी दो कृतिया प्रारह ज्योतिनिनिधि, भौर जातक तिलक ।
गोविन्दराज की उत्तरभारत को विजय का काल-सन् ८०६ से ८०८ तक सिद्ध होता हैं। जब वे सन् ८१४-८१५ में सिंहासनारूढ हुए, तब उनकी अवस्था छह वर्ष की थी । और जब ८७७ के लग-भग राज्य कार्य का परित्याग किया. नव उनकी आयु ७० वर्ष से कुछ कम ही जान पड़ती है। उम ममय तक जिनमेनाचार्य और गणभद्र का स्वर्गवास हो चका होगा, इसी कारण उनकी प्रशस्तियों में अमोघवर्ष के मुनि जीवन का उल्लेख नहीं हो सका। उससे लगता कि महावीरचार्य ने अपना गणितमार मग्रह दीक्षा ली के उपरान्त भनि जीवन केगीवर किमी समय रचा होगा। अतः महावीराचार्य का समय ईसवी मन की हवा सदी है। ग्रन्थ का नया एडीसन जीवर राज ग्रन्थमाला शोलापुर रो प्रकाशित हो चुका है।
अपराजित गुरु मलमघम्थ नन गन के मालवादि गुरु के प्रशिष्य और सुमति पूज्यपाद के शिष्य थे। इन्ह नवसारी जि० सूरत के नागमानित जनालय के लिये 'हिरण्य योगा' नाम का खेत दान में दिया था। इनका समय शक सं०७४३ मन् ८२१ जोर '२० म०८७८ है । क्योकि इन्हें वह दान उक्त मंवत् में प्राप्त हुआ था। __ --(ए.पग्राफिया इडका जि० २१ पृ० १३३) (इण्डियन एण्टिक्वेरी वा० २१ पृ०१३३)
लोकसेन (गुणभद्राचार्य के प्रमुख शिष्य) लोकमेन गणवार्य के शिष्यों प्रमुख गिप्य थे। लोक मेन की प्रशस्ति २८ व पद्य प्रारम्भ हो जाती है। उन्ह'गरुका दिन सहायता दे कर राजननों द्वारा बहुत मान्यता प्राप्त की थी। उस समय राष्ट्रकट नरेश अकाल
पृथ्वी का पालन कर रहे थे। उनके पास हाथियों की बहत बड़ी सेना थी, जिन्होंने अपने मद मे गगा के 1 Altchal, Thek Sitra kutis and their times P. 71-72 २. विदिा मन यत्रो लोकमेनो मुनीश कविरविकवृत्तस्तग्य शिप्येप मुख्य. । मतनगिह पुगगगे प्राय माहाग्य मुच्च-गुरुविनय मनपीन्मान्यता स्वम्य सद्धिः ॥२८, उ०७०प्र०
-
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशर्वी शताब्दी के आचार्य
१८६
पानी को भी कड़ा कर दिया था । उसका राज्य उत्तर में गगा के तट तक रहच गया था। लाकमेन को प्रशस्ति के अनुसार उस समय वही सम्राट था। उन समय बापुर जन-धन मान नगर था, उम वनवाग देश को राजधानी बनने का भी गारव प्राप्त हे लोकरीन वकार के नियामो थे । यर जिम स्लिा।।लाकान ने उत्तर पुराण की अपनी प्रशस्ति के १५ व पद्य में गणभद्राचार्य की स्तुति करते हुए लिखा है ।क- । गणद्राचार्य जयवन रहे, जो समस्त योगियो के द्वारा वन्दन य है, मब श्रेष्ठ कादया | अग्रगाह, जात्र.यों के द्वारा वन्दना करने योग्य है, जिन्होंने मदन के विलास का जी- लिया है, जिनका कानि: ।। पनाका समस्न दिशा प्रा 7 फटग रहा है। जा पापरूपी वृक्ष का काटने के लिये कठार के समान है, और समस्त गजामा के द्वारा वन्दनीय ।'
लोकसेन ने यह प्रशस्ति महामगलकारी पिगल नामक टाक सवत धावग वदि चमोतुरुवार के दिन, पूर्वा फाल्गणी स्थित सिहलग्न भ, जबकि बुध पातानक्षत्र का, यानिमिथुन रा , नगल धनु राशि का, राह तुला राशि का, सूर्य कर्क राशि का स्योर वहस्पात वाराश पर था तब यह उत्तर पुराण पूग हया --यह ग्रन्थ समाप्ति की तिथि नही किन्तु उमा पूजा महात्नव मनाया गय।पा। मम पद्य 'T यः ज्ञात नहीं होता कि गुणभद्राचार्य उस रामय जीवित थे। सभवत. उस समय उनना दव लोकना चका था। उस समय बकापुर अकाल वर्ष का सामन्त लोकादित्य वनवास दस पर शामन कर रहा था, जि. जधानी बकापुर यं। इन। पिता का नाम बकय या बकगज था। उसी के नाम पर उक्त नगर वगाया गया था। इनमा ध्वजा प. चाल का चिन्ह था। इनके पिता और भाई भी चेयजये। लोकगेन ने उन्- जनार्म का न कर पाला मसन यशस्बा बतया है । चक लोक सेन ने अपनी प्रशस्ति शक स. ८० (मन् ८६८) मेखिी है, प्रत उनका समयमा क, नवमी शताब्दी अन्तिम चरण है।
श्रीदेव श्री देव कमलभद्र के शिष्य थे। उन्होंने स० ६१६ अाश्विन शुक्ला १८ वृहस्पतिवार के दिन लच्छगिरी (देवगढ) मे स्तम्भ स्थापित किया। देवगढ़ का पुराना नाम लच्छािर है।
जैन शिलालेख स० भा०२ पृ० १५०
स्यम्भू कवि स्वयम्भ--का जन्म ब्राह्मण कुल में दया , परन नेन धर्म प: ग्रा . जाकार ।, उसकी उस पर पूरी निष्ठा एव भक्ति थी। कवि के पिता का नाम मारत दर पर माता का नाम नमन। या । कविन स्वय
१ बग्यान ग मतगजा निजमद मोग्विनी मगमा ।
गाद्न वारि कलकित वट मुर पीत्वा तृष २६.३०प्र० २. जमालवर्षभूग ने पायापलामिम् ३. सजपनि गुणभद्र. गर्मयोगीन्द्र पास: । वाग'मा म म बा ।
जिन गदनविलामा दिचलनीत - काग्नुठार सर्वभूपात ।। । १२ ४. शकट। कालापतर्गत्राधिकाटामिनासान मगलमहार्थकारण गिन नार्मा । गम जनगर दे ।।२५ श्री पञ्चम्या वुधार्गयुजि मा मनिचारे नुधागे पूर्वाया मिहलग्न धनुपि स गति य तलावाम् । मूब शुमा कुलीर गांवव गु.] 1 नित भाव । प्राप्नज्य मर्वमार जगात पिम - पुष्पमालगणम् ॥३६
-उ० ४० प्र० ५. देवो, उत्तरपुराण . ० ४, ५ ६ (३२ से ३४) ६. पटमिरणी गव्म सभूग, भारुप दव अणुनये । पउमच० ११०२
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
जन धर्म का प्राचीन इतिहास -- भगा: अपने छन्द ग्रन्थ में मारुत देव का उल्लेख किया है। बहुत संभव है कि वे कवि के पिता ही हों। पुत्र द्वारा पिता को कृतिका उल्लिखित होना कोई आश्चर्य की बात नही है।
कवि को तोन पत्निया थी। आदित्य देवी जिसने अयोध्या काड लिपि किया था। दूसरी प्रामिअव्वा (अमनाम्बा) जिसने पउमचारय के विद्याधर काण्ड की २० संधियां लिखवाई थी। और तास पवित्र गर्भ से त्रिभुवन स्वयभू जमा प्रतिभासम्पन्न पुत्र उत्पन्न हुया था, जो अपने पिता के समान हा विद्वान और कवि था। इसके सिवाय अन्य पुत्रादिक का कोई उल्लेख नहा मिलता। किम जान पड़ता है कि स्वयंभू के अन्य पूत्र भी थे । क्याकि स्वयभू ने पउम चारउ की प्रशस्ति के शाटवे पद्य में तिहुयण स्वयभू लहुतण उ, वाक्य द्वारा त्रिभुवन स्वयभू को लघु पुत्र कहा, लघु पुत्र कहने से अन्य पुत्रों के होने का भी सोन मिलता है। विभवनने अनेक जगह अपने पिता के सम्बन्ध म बहुत सी बात कही है । उनी स्पष्ट ज्ञात होता है कि स्वयभूक कई पुत्र प्रार शिप्य थे। अन्य पूत्र तो धन के पीछे दाड़, किन्तु त्रिभुवन का पिता को साहित्यिक बिरामत मिली । कविवर स्वयम् शरीर से दुबले-पतले और उन्नत थे, उनका नाक चपटी और दान विरल ।
कवि स्वयंभू कोशल देश के निवासी थे। जिन्हें उत्तरगय भारत के आ-मण के समय राष्ट्रकूट राजा ध्रुव का मत्री रयडा धनंजय मान्य वेट ले गया था। राजा ध्रव का राज्यकाल वि० म. ८३७ से ८५१ तक रहा है ।
धनजय, धवलइया पार वदइया ये तीनों हा पिता पुत्रादि के रूप में सम्बद्ध जान पहले है। उनका कवि के ग्रन्थ निर्माण में सहायक रहना श्रुत भक्ति का परिचायक है।
समय
कवि ने ग्रन्थ में अपना काई समय नहीं दिया है, परन्तु पनचरित के कर्ता रविपण का स्मरण जरूर किया है। प्राचार्य रविपण ने पद्मचरित को वीर निर्वाण स० १२०३ वि० सं०७३३ में बनाकर समाप्त किया है। अत: व वि० स० ७३३ के बाद किमो समय हुए है। श्रद्धय पं० नाथगम जी प्रमीने लिखा है कि-स्त्रयभूने रिट्रणेमि चरित में हरिवश पूराण के कर्ता पुन्नाट सधी जिनमेन का उल्लेख नहीं किया, हो सकता है कि उक्त उल्लेख किसी कारण छट गया हो, या उन्हें लिखना स्वय याद न रहा हो । रितुणभिचारउ का ध्यान गे समीक्षण करने पर या अन्य सामग्री से अनुसन्धान करने पर यह स्पष्ट जरूर हो जायगा कि ग्रन्थकती ने उसको रचना में उसका उपयोग किया या नही । भट्टारक यशः कातिके उद्धार काल में पूर्व की कोई प्रति १५ वी शताब्दी को लिखो हई कहीं मिल जाय तो उस समस्या का हल शोघ्र हो सकता है।
स्वयभू के पुत्र त्रिभवन स्वयंभू ने 'रिटणे मिचरिउ' की १०४ वा मधि में प्राकृत-मस्कृत और अपभ्रश के ७० कलग-भग पूर्ववर्ता कविया के नाम गिनाय हे । उनमें जिन मनाचार्य पार गुणभद्राचाय का भी नामाल्नख किया है। उनका उल्लेख निम्न प्रकार है :
दविल, पचाल, गयन्द, ईश्वर, गाल, कठाभरण, मोहाकलस (मोहकलश) लोलुय (लोलुक) बन्धुदत्त, हरिदत्त, दाल, वाण, पिगल, कलमियक, कुलचन्द्र, मदनादर, गाड, श्रीमघात, महाकवि तु ग, चारुदत, रुद्दड (रुद्रट) जि. कविल अहिमान, गुणानुराग, दुग्गह, ईसान, इद्रक, वस्त्रादन, णारायण, महट्ट, साहप्प, कातिरण, पल्लवकित्ति गणद्ध, गणश, भासड, पिशुन, गोबिन्द, याल (बनात) विसयड, णाग, पण्डणत्त, मुग्राव, पनलि, वीरसेन मल्लिपण मधुकर चतुरानन (च उमुख) सघसेन, यकुय, वर्द्धमान सिद्धसन, जाव या जीवदव, दयोरिद, मेघाल, विलालिय, पुण्डरीक, वसुदेव, भी उय, प्रहरीक, दृढ़मति, गृहत्थि भावक्ष, यक्ष, द्रोण, पणभद्र, श्रीदत्त धर्मगन, जिनसेन,
१. मनो वि जगोमोहइ णित्ताग विदन दव्य मनाण। तिहुवरण मंयभूणा पुणू गहिय मृगाःत्त-मनागा ॥
-अन्तिमनग ३, ७, 6 और १० २. अदनााण पईहर गले छिब्बर गासे पविग्लदते ।। १० च०१० २४ ३. हिन्दी काव्यधारा पृ० २३
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवी शताब्दी के आचार्य
१६१ दिनकर, णाग, धर्म, गणभद्र, कुशल, स्वयंभदेव, वीरवदक, सर्वनन्दि, कलिकाभद्र, णागदेव और भवनंदि।
_इन कवियो में जैन जनतर प्राकृत गस्कृत और अपभ्रशभापकं कवि शामिन । जैसे गोविद, मल्लिपेण, चतुरानन, संघसेन वर्द्धमान, गिद्धगंन श्रीदत्त, धर्मगेन, जिनगेन, जिनदत्त, गणभद्र, स्वयभूदेव, सर्वनन्दि, नाग देव और भवनन्दि आदि जन कवि प्रतीन होते हैं। संभव है, इनमें पोर जी चार पाच नाम हों। क्योंकि उनका ग्रंथ परिचयादि के बिना ठीक परिज्ञान नहीं होता। इगसे यह भी स्पष्ट है कि उनसे पूर्व अनेक कवि अपभ्रश के भी हो गये हैं।
इन में उल्लिखित गणभद्राचार्य राष्ट्रकट गजा कृष्ण द्वितीय के शिक्षक थे। गणभद्र का समय विक्रम की १० वीं शताब्दी का पूर्वाध है । हो सकता है कि स्वयभ गणभद्र के गमय नहीं रहे हो, किन्तु त्रिभुवन स्वयभू तो मौजद थे। इसी गे उन्होंने उनका नाममाग्य किया है। जिनमेन ने अपना हरिबा पूगण शक मं० ७०५ वि. सं. ८४० में बनाकर ममाप्त किया है । स्वयंभू ने जब अपना ग्रन्थ बनाया, उम ममय गणभद्र नहीं हागे । किन्तु हरिवंश पुराण के कर्ता के ममय तक वे अवश्य रहे होगे । अतः रिटमिर्चार उ के रचियता स्वयभू देव के समय की पूर्वावधि वि० से ८०० और उनरावधि वि० ग.१०० मानने में काई बाधा नही जान पड़ता। अतएव स्वयंभू विक्रम का ६ वीं शताब्दी के विद्वान होने चाहिये। यदि रयडा धनजय की बात स्वीकृत की जाय, तो राष्ट्रकूट ध्रव का राज्य काल वि. स८३७ स० ८५.१ नक रहा। इससे भी ग्वयभ देव का समय विक्रम की हवी शताब्दो का मध्य काल सुनिश्चित होता है । इमगे स्वयदेव पुनाट मघीय जिनसेन का प्रायः समकालीन जान पड़ते हैं।
कन्नड़ कवि जयकीनिने 'छदोनुगासन' नाम का ग्रन्थ बनाया है, उसकी हस्तलिखित प्रति म० ११६२ की जैसलमेर के शास्त्र भडार में सुरक्षित है। यह ग्रथ एच डी० वेलकर द्वारा सम्पादित हो चुका है। .इस ग्रन्थ में कविने स्वयंभूछन्द के 'नन्दिनी' छन्द का उल्लेख किया है। कवि जय कौतिका समय विक्रम को दशवों शताब्दी का पर्वार्ध या नौवी शताब्दी का उपान्त्य होना चाहिये। क्योंकि दशवीं शताब्दी के कवि असग ने जयकोति का उल्लेख किया है। इससे भी स्वयंभू का समय हवी शताब्दी पाता है। रचनाएँ
कवि स्वयंभू-त्रिभुवन स्वयंभू की तीन रचनाएं उपलब्ध हैं। पउम चरिउ, रिटणेमिचरिउ और स्वयंभू छन्द । इनमें पउमचरिउ या गमकथा बहत ही सुन्दर कृति है। इसमें 80 सन्धिया है, जो पांचकाण्डो में विभक्त हैं। विद्याधर काण्ड में २०, अयोध्याकाण्ड में २२, सुन्दर काण्ड में १४, और उत्तरकाण्ड में १३ सन्धियां हैं। जिनमें स्वयंभू देव रचित ८३ सन्धियां है। शेप उनके पुत्र त्रिभुवन स्त्रयभू द्वारा रची गई हैं। ग्रन्थ में प्रारम्भिक पीठिका के अनन्तर जम्बद्वीप की स्थिति, कुलकरी की उत्पत्ति, अयोध्या में ऋपभदेव की उत्पत्ति तथा जीवन परिचय, लंका में देवताओं और विद्याधरों के वश का वर्णन, अयोध्या में राजा दशरथ और राम-लक्ष्मण आदि की उत्पत्ति, बाल्यावस्था, जनक की पुत्री सीता से विवाह, गम-लक्ष्मण-सीता का वनवास, संबूक मरण, सीताहरण, रावण मे रामलक्ष्मण का युद्ध, गुग्रीव आदि गे राम का मिलाप, लक्ष्मण के शक्ति का लगना और उपचार आदि । विभीषण का राम से मिलना, रावण मरण, लंका विजय, विभीपण को राज्य प्राप्ति, राम-सीता-मिलन, अयोध्या को प्रस्थान भरत दीक्षा, व तपश्चरण, सीता का लोकापवाद से निर्वासन, लव-कुश उत्पत्ति, सीता की अग्नि परीक्षा दीक्षा और तपश्चरण, लक्ष्मण मरण, राम का शोकाकुल होना, और प्रवुद्ध होने पर दीक्षा लेकर तपश्चरण करके कैवल्य प्राप्ति ओर निर्वाण लाभ, आदिका सविस्तर कथन दिया हुआ है।
इस ग्रन्थ में राम कथा का वहो रूप दिया है, जो विमलसूरि के पउम-चरिउ में प्रोर रविषेण के पद्मचरित में पाया जाता है। ग्रन्थ में रामकथा के उन सभी अंगों को चर्चा की गई है जिनका कथन एक महाकाव्य में मावश्यक होता है । इस दष्टि मे पउमचरिउ को महाकाव्य कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। ग्रन्थ में कोई दुरूहता नहीं हैं. वह सरल और काव्य-सोन्दर्य की अनुपम छटा को लिये हुए हैं। समूचावर्णन काव्यात्मक-सौन्दर्य और सरसता से प्रोत प्रोत है, पढ़ते हुए छोड़ने को जी नहीं चाहता ।
कविता की शैली जहां कथा-सूत्र को लेकर आगे बढती है और वहां वह सरलता तथा स्वाभाविकता का
१. जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० २, प्रस्तावना पृ० ४६ ।
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९२
जैन धर्म का प्राचीन : निहाम-भाग २
निर्वाह करती है। किन्तु जहा कवि प्रकृति का चित्रण करने लगता है, वहाक एक अलंकन सविधान का प्राश्रय कर ऊनी उड़ाा भरता है। मांदारा की उपमा द्रष्टव्य है-गोदावरा नद. वसुधारूपा नायिका की वकित फेनावली के वलय में अलकृत दाहिनी बारहो हा। जिसे उमो वक्षम्याप' पुस्ताहार धारण करने वाले पति के गले में डाल रक्वा है।
कवि की कुछ पक्तिया वसुधा की रोम-राजि मद जान पड़ती है।
युद्ध में लक्ष्मण के शक्ति लगने पर अयोध्या के अन्न पुर में स्त्रियो का विलाप कितना करुण है 'दुःग्यातुर होक: मभी गेने लगे, मान। गर्वत्रनाक हो पर दिया हा । भूत्वना हाथ उठा-उठा कर रोने लगे, मानों कमलवन हिमवन मे विक्षित हा उठा हो। राम को मना लामान्य नाग के गान गा लगी, सुन्दरी उमिला हतप्रभ हो रोने लगी, सुमित्रा व्याकुल हो उठो, गेनोह मित्रा ने मर्म जमों को ला दिया किना है कि कारुण्य पूर्ण काव्यकथा मे काम के प्रामु नो प्रा जाते । भरत पोर राम का विला किसे विलिन नहीं करता। इमा तरह रावण की मत्यु होने पर विभाग गोर मन्दोदरी के विलापका वर्णन वल पाठको नेत्रों को ही सिक्त नहीं करता, प्रत्युत गवण-मन्दोदरी और विनापण के उदान भावों का स्मरण कराता है। मो नगद अजना सुन्दरी के वियोग में पवन जय का विलाप चित्रगमी पगार का विचलिन दिये बिना नही रहता।
ग्रन्थ में ऋतभा का कथानो नंगगिक ही है, किन्तु प्रकृति के सान्दर्य का विवन भी अपूर्व हुमा है। नारी चित्रण गप्ट कट नारी का चित्र वडा ही सुन्दर है।
कवि ने गम और संना के रूप में पप और नारी का रमणीय तथा स्थानाविक चित्रण किया है। पूरुण और नारी के सम्बन्धों जेया मात्त और याथा तथ्य चित्रण सोना को अग्नि परीक्षा के समय दर्लभ है ग्रन्थ में सीना के ग्रमित धर्म, माहम और उदात्त गणो का वर्णन नारो की महत्ता का द्योतक है, उसके सतीत्व की प्राभा ने नारी के कलंक को धादिया है।
ग्रन्थ का कथा भाग कितना चित्राकर्पक है, इसे बतलाने की आवश्यकता नही है। सहस्रार्जुन की जल क्रीड़ा का वर्णन अद्वितीय हे । युद्ध के वर्णन में भी कवि ने अपनी कुशलता का परिचय दिया है जिसे पढ़ते ही सैनिकों के प्रयाण की पगध्वनि कानों मे गूजने लगती है और शब्द योजना तो उसके उत्साह की सवर्धक हे ही'।
१ फेरणावनि वकिय व नयालकिर, गा महि वह अहे तग्गिया।
जागिहि भनार हो मोनि-हानी, बांह पमाग्यि दाहिग्गिा ॥" पउमचरिउ २. "सत्यवि गागाविह कामगा, ण महिक । वह अहि गेम-गई ।" वही। ३. "दुक् वा उरु गेट मधनु गोर, ण चणिवि चर्चा पवि भरिउ माउ ।
गेत्र भिच्च गु समुद्दात्य, रण कमल-सद् हिम-पवा त्य ।। गेवइ आग इव गम नगरिग, केकय दाय तर मूत्र-- गग रिग । गेवः मुसह विच्छाप जय, गरः मुमिन मोमिनि-मा: ।। हा पन पर । केहि गमोनि, कि मत्तिा वच्छ केलं हमि । हा पुत्त । मर गुभ जो हओमि, दबंग केण विच्छो ओमि । पत्ता- बनिए लारण-मागिए, मयत लोउ गेवा विउ ।
कामगार काय कहाए जिह, कोण अमुमुआवियउ॥" - पउमचरिउ, मधि ६६-१३ ४. देखो, पउम रितु मधि ६७३-४, मंधि ६६, १०-१२ ५. देगो, पउमचरिउ .६,८-११, ७६,२-३ । ६. देखो मघि १४,६ ७. केवि जसलुद्ध, सण्णद्ध कोह । के वि मुमित्त-पुत्त, मुकलत्त-चत्त-मोह ।
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी और दशवी शताब्दी के आचार्य
१९३ दूसरा ग्रन्थ 'रिटणेमिचरिउ' हे जिम में ११२ सधिया ओर १६३७ कवक है । इनमें ६ मन्धिया स्वयभू द्वाग रची गई हैं गेप १. सन्धियो स्वयभू के पुत्र त्रिभवन स्वयम की बनाई हुई है। किन्तु अन्तिम कुछ सन्धिया खण्डित हो जाने के कारण भट्टारक यश कीति ने अपने गुरु गणकीति के सहाय से गोपाचल के समीप स्थित कुमार नगर के पणियार चैत्यालय म उसका समद्धार किया था और परिणाम स्वरूप उन्होन उक्त स्थानों में अपना नाम भी अकित कर दिया। ग्रन्थ में चार काण्ड है, यादव, कुरु, युद्ध पार उत्तर काण्ड ।
प्रथम काण्ड मे १३ सन्धियाँ हैं। जिनमे कृष्ण जन्म, बाललाला, विवाहकथा, प्रद्युम्न ग्रादि की कथाएँ और भगवान नेमिनाथ के जन्म की कथा दी हुई है। ये समुदविजय के पुत्र अोर कृष्ण के चचेरे भाई थे। दूसरे काण्ड मे १६ मन्धिया है, जिनमें कोरव-पाण्न्वी के जन्म, बाल्यकान, शिक्षा प्रादि का कथन, परम्पर का वैमनस्य, युधिष्ठिर का द्यत नीडा मे पगजित होना, दापदी का चीर हरण, तथा पाठवा क बारत वर्ष के वनवास आदि का विस्तृत वर्णन है।
तृतीय वाण्ट मे ६० सन्धियाँ है। कोरव-पाण्डवो के युद्ध वर्णन मे पावो की निजय और कोरवोंकी पराजय प्रादि का सुन्दर चित्रण किया गया है। प्रोर उत्तर काण्ड को २० मन्धिया म कृष्ण के गनिगो के भवातर, गाकुमार का निर्वाण, द्वीपायनमुनि द्वारा द्वारिकादाह, कृष्णनिधन, बलभद्रशाक, हलधर दीक्षा, जरत्कुमार का राज्यलाभ, पाण्डवो का गृहवाम, मोह परित्याग, दीक्षा, नपश्चरण पार उपसर्ग गहन तथा उनके भवातर आदि का कथन, भगवान नेमिनाथ के निर्वाण के बाद ७७ वी मधि के पश्चात् दिया हया है। रिटगामिचरिउ की मधि पुप्पि कानो में स्वयभू को धवलइया का आथित, और त्रिभवन स्वयंभू को वन्दइया का आथित बतलाया है।
मत्स्य देश के राजा विराट के माले काचक ने द्रोपदी का सबके मामने अपमान किया। कवि कल्पना द्वारा उसे मूर्तिमान बना दता है।
यमदूत की तरह कीचकने दोपदी का केश-पाश पकड कर ग्वीचा मोर उसे लातमागे। यह देखकर राजा युधिष्ठिर मूछित हो गए। भीमर प क मारे वक्ष की ओर देखने लगे कि उगे किस तरह मारे। किन्तु युधिष्ठिर ने पर के अगूठ से उन्हें मना कर दिया। उधर पूर की नारिय। व्याकुल हो कहा लगी कि इस दग्ध शरीर का धिक्कार है, इसने ऐसा जघन्य कार्य क्या किया? कलीन नारियो का तो अव मरण ही हो गया, जहा राजा ही दुराचार करता हो, वहा सामान्य जन क्या करेंगे?
सो तेण विलक्खी हवाएण, अणुलग्गे जिह जम दूयएण। विहुरे हि धरे विचलणेहि हय, पेक्वतहं रायहं मुच्छ गय । मणि रोस पट्टिय वल्लभहो, किर देह दिद्व तरु पल्लव हो । मरु मारमि मच्छु स-मेहुणउं, पटवमि कयंत हो पाहुणउ । तो तव-सुएण प्रारुट्टएण, विणिवारिउ चलण गुट्ठएण। प्रोसारिउ विप्रोयरु सणियउ, परवर णारिउ जादणियउ । धि-धि दण्ड सरीर काइकिउ, कूलजायह-जायहं मरणथिउ । र्जाह पउ दुच्चारिउ समायरइ, नहि जण तम्मण्णु काई करइ ॥
-सधि २८-७ ग्रन्थ मे वीर, शृगार, करुण और शान्त रसो का मुख्य रूप से कथन है । वीर रस के साथ शृगार रस की अभिव्यक्ति अपभ्रश काव्यो मे ही दष्टिगोचर होती है। अलकारो में उपमा पार श्लेष का प्रयोग किया गया है।
केवि णीमरतिवीर, अधरव तुगधीर । सायरलव अपमागग, क जरब्य दिण्णणारण । के मरिव्य उद्वकेम, चत्त सव्व-जीविगस । केवि मामि-भत्ति-वत, मच्छिगग्गि-पज्जलत के वि आहवे अभग, कु कुम पसाहि अग। (पउमचरिउ ५७-२
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
इसी संधि के १५वे कडवक में द्रोपदी के अपमान से क्रुद्ध भीम का और कीचक का परस्पर बाहु युद्ध का वर्णन भी सजीव हुआ है :
१६४
रण में कुशल भीम और कीचक दोनों एक दूसरे से भिड़ गए। दोनों ही हजारों युवा हाथियों के समान बलवाले थे। दोनों ही पर्वत के बड़े शिखर के समान लम्बे थे। दोनों ही मेघ के समान गर्जना वाले थे। दोनों ने ही अपने अपने प्रोंठ काट रखे थे, उनके मुख क्रोध से तमतमा रहे थे । नेत्र गुजा ( चिरमटी घ घची) के समान लाल हो गए थे। दोनों के वक्षस्थल प्रकाश के समान विशाल और दोनो के भुजदण्ड परिधि के समान प्रचड थे' ।
कवि ने शरीर की असारता का दिग्दर्शन करते हुए लिखा है कि मानव का यह शरीर कितना घिनावना और शिरानों स्नायुओं से वधा हुआ अस्थियों का एक ढाचा या पोट्टल मात्र है । जो माया और मदरूपी कचरे से सड़ रहा है, मल प ज है, कृमिकीटों से भरा हुआ है, पवित्र गव वाले पदार्थ भी इससे दुर्गन्धित हो जाते हैं, मास र रुधिर से पूर्ण चर्म वृक्ष से घिरा हुआ है - चमड़े की चादर ढका हुआ है, दुर्गन्ध कारक आता की यह पोटली और पक्षियों का भोजन है। कलुपता से भरपूर इस शरीर का कोई भी अंग चंगा नही है । चमड़ी उतार देन पर यह दुष्प्रेक्ष्य हो जाता है, जल बिन्दु तथा सुरधनु के समान अस्थिर और विनश्वर है । ऐसे घृणित शरीर से कौन ज्ञानी राग करेगा ? यह विचार ही ज्ञानी के लिये वैराग्यवर्धक है ।
तीसरी कृति स्वयंभू छन्द ग्रन्थ है, जो प्रकाशित हो चुका है और जिसका सम्पादन एच. डी. वेलकर ने किया है । त्रिभुवन स्वयंभू ने उन्हे, 'छन्द चूड़ामणि' कहा है। इससे वे छन्द विशेषज्ञ थे, इसका सहज ही आभास हो जाता है । इस ग्रंथ में प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के छन्दों का स्वरूप मय उदाहरणों के दिया गया है। इसके अन्तिम अध्याय में गाहा, अडिल्ल, और पद्धडिया आदि स्वोपज्ञ छन्दों के उदाहरण दिये है । उनमें जिनदेव की स्तुति है । ग्रन्थ के अन्त कोई परिचयात्मक प्रशस्ति नही है । इस ग्रन्थ का सबसे पुरातन उल्लेख जयकीर्ति ने अपने छन्दोनुशासन में किया है। जिसमें स्वयभू के नन्दिनी छन्द का उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि स्वयंभू के छन्द ग्रन्थ का १०वी शताब्दी में प्रचार हो गया था । जयकीति का समय वित्रम की दशमी शताब्दी है । जयकीर्ति कन्नड प्रान्त के निवासी और दिगम्बर जैन धर्म के अनुयायी थे । स्वयभू छन्द ग्रन्थ में अपने ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थ कर्ताओ के भी उदाहरण दिये है । ' वम्मह तिलअ' के उदाहरण में ( ६ – ४२ में ) पउमचरिउ की ६५वी सन्धि का पहला पद्य दिया है'। 'रणावली' के उदाहरण में (६-७४) में ७७वी सन्धि के १३वे कडवक का अन्तिम पद्य है । इस तरह यह छद ग्रन्थ महत्वपूर्ण है ।
त्रिभुवनस्वयंभू ने, जो स्वयंभू का लघुपुत्र था उसने अपने पिता के पउमचरिउ, हरिवशपुराण और पंचमी चरित को सम्हाला था, उनका समय १० वी शताब्दी का पूर्वार्ध है । इसका अलग परिचय नही लिखा । स्वयभू देव ने 'पंचमीचरिउ' ग्रन्थ भी बनाया था । किन्तु वह अनुपलब्ध है । पउमचरिउ में लिखा है कि
१ तो भिडिवि परोधयरण कुमल, विष्णिवि गायगाय महस्स-बल । विणि वि गिरि त ग सिंग मिहर, विष्णिवि जल हरव गहिर गिर । विणि विट्टो रुद्द वयण, विष्णि वि गजाहल सम-णयरग । विणि वि हयल रुि वच्छथल, विष्णु वि परिहोम - भुज- जुगल | २. देखो, रिट्ठाणे मिचरिउ ५४ - ११
३ तुम्ह पअ कमलमूले अम्ह जिग दुक्ख भावतवियाइ ।
दुरु ढल्लियाई जिरणवर ज जारणमु त करेज्जासु ॥ ३८
- जिणरणामे छिदेवि मोहजाल, उप्पज्जइ देवल्लमामि सालु । जिणरणामे कम्मर हिलेवि, मोक्यग्गे पइसिअ सुह लहेवि ॥ ४४
४. जयकीर्ति ने अपने छन्द ग्रन्थ में स्वयभू के नन्दिनी छन्द का उल्लेख किया है । तथा पद्म पद्मनिधिजंतो जरी, स्वयभुदेवेश मते तु नन्दिनी ||२२||
- रिट्ठमिचरिउ २८ - १५
ती
५. हणवंत रणे परिवेद्विज्जई गिसियरेहि । णं गयणयले बालदिवायरु जलहरेहि ||
६. सुरवर डामरु विणु दट्ठ जाम जगकयइ । अण्णु कहि महु चुक्कइ एवणाइ सिहि जंपइ ।।
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी दशवी शताब्दी के आचार्य
१६५ यदि स्वयंभू देव के लघुपुत्र त्रिभुवन न हाते तो उनके पद्धडियाबद्ध पंचमी चरित' को कोन संभारता? इससे स्पष्ट है कि स्वयभू ने पचमी चरित की रचना की थी।
स्वयंभू व्याकरण-स्वयभदेव ने स्वयंभू छन्द के समान अपभ्रश का व्याकरण भी बनाया था। पउमचरिउ के एक पद्य में लिखा है कि अपभ्रश रूप मतवाला हाथी तब तक ही स्वच्छन्दता में भ्रमण करता है जब तक कि उस पर स्वयभू व्याकरण रूप अंकुश नही पड़ता । इसमें उनके व्याकरण ग्रथ बनाये जाने का रपष्ट निर्देश है, पर खेद है कि वह अनुपलब्ध है।
अभयनन्दि अभयनन्दि- व्याकरण शास्त्र के निष्णात विद्वान थे। इनका व्याकरण-विषयक ज्ञान केवल जैनेन्द्र व्याकरण तक ही सीमित नहीं था, किन्तु पाणिनीय व्याकरण और पतर्जाल महाभाप्य में भी उनकी अप्रत्याहत गति थी। अभयनन्दि की एक मात्र कृति 'महावृत्ति ह, जो जैनेन्द्र व्याकरण की सबगे बड़ी टीका है। महावृत्ति के स्थल उनके व्याकरण विषयक अभूत पूर्व पाण्डित्य का निदर्शन कराते है। यथा-राह सूत्र की व्याख्या मे 'प्रवितप्य' प्रयोग की सिद्धि क सम्बन्ध में जा विचार किया है वह अन्यत्र नहीं मिलता।
महत्ता -- अभयनन्दि कृत महावृत्ति का परिमाण बारह हजार श्लोक जितना है । यद्यपि महावृत्ति कारने काशिका का उपयोग किया है, किन्तु दोनों की तुलना करने से ज्ञात होता है कि अभय नन्दि ने जा उदाहरण दिये है। वे काशिका में उपलब्ध नहीं होत । जंगे-१।४।१५ वे उदाहरण में अनुशालिभद्रम् आढ्याः । 'अनुसमन्तभद्र ताकिका:'४।१।१६ के उदाहरण म 'उपसिह नन्दिन कवय.' । 'उपसिद्धसेन वयाकरणा.' । सब वेयाकरण सिद्धसेन से हीन है। १।३।१० के उदाहरण में 'पा कुमार यशः समन्तभद्रस्य' वाक्यो द्वारा समन्तभद्र, सिहनन्दि और मिद्धमेन का नामोल्लेख है।
महावृत्ति के सूत्र ३।२।५५ की टीका में एक स्थल पर अकलङ्क देव के तत्त्वार्थवातिक का उल्लेख किया है। अत: अभयनन्दी का समय प्रकलक देव के बहत बाद का जान पडता है।
यच्छब्द लक्षणमवज पारमन्य, रव्यक्तमुक्तिमभिधानविधीदरिद्रैः ।
तत्सर्वलोकहृदयप्रियचारुवाक्य र्व्यक्ती करोत्यभयनन्दिमुनिः समस्तम् ॥ कठिनता से पार पाने योग्य जिस शब्द लक्षण को दरिद्रो ने व्याख्या करने मे स्पष्ट नही किया। उस सम्पूर्ण शब्द लक्षण को अभयनन्दि मुनि सबके हृदयो को प्रिय लगने वाले सुन्दर वाक्यो से स्पष्ट करता है।
इस श्लोक के पूर्वार्ध से स्पाट जान पड़ता है कि अभयनन्दि से पूर्व जेनेन्द्र व्याकरण पर अनेक वृत्तियाँ बन चकी थी। जिनमे सूत्रो की पूर्ण ओर स्पष्ट व्याम्या नहीं थी। इसमे महावृत्ति की महत्ता का स्पष्ट वाध होता है।
अभयनन्दी ने अपने समय का कोई उल्लेख नही किया और किस राजा के गज्यकाल में ग्रन्थ का निर्माण हुअा, इसका भी उत्लेख नहीं किया। अत अभयनन्दी का समय विवादास्पद है। डाक्टर वेल्वेक्कर ने अपने 'सिस्टम आफ सस्कृत ग्रामर' में अभयनन्दी का समय सन ७५० (वि० सं०८०७) माना है । पर महावृत्ति का अध्ययन करने से महावत्ति का रचनाकाल हवी शताब्दी ज्ञात होता है।
अनन्तवीर्य अनन्तवीर्य-रविभद्र पादोपजीवी थे। इनकी एक मात्र कृति 'सिद्धि विनिश्चय' टीका है । यह अकलङ्क वाङ्मय के पडित थे। और उनके विवेचक और मर्मज्ञ थे। प्रभाचन्द्र ने इनकी उक्तियों मे अकलङ्क देवके दुरवगाह ग्रन्थो का अच्छा प्रभ्यास और विवेचन किया था। प्राचार्य अनन्तवीर्य की सिद्धि विनिश्चय टीका बड़ी ही महत्वपूर्ण है, उसमें दर्शनान्तरीय मतों की विस्तृत आलोचना की गई है। टीका में धर्मकीति, अर्चट, धर्मोत्तर और प्रज्ञाकर गृत ग्रादि प्रसिद्ध विद्वानों के मतों के अवतरण उद्धत किये है। इनके अतिरिक्त अनन्तवीर्य टीका में 'ऊहो मति निबन्धनः' वाक्य उद्धत किया है। विद्यानन्द के तत्त्वार्थश्लोक वानिक पृष्ट १६६ में यह वाक्य इस रूप में उपलब्ध है:
'समारोपच्छि दूहोऽत्र मानं मतिनिबन्धनः' (तत्त्वा० श्लो०१-१३-६० ७. जाण हुअ छन्द चुडामणिस्म तिहुअरणसयंभ लहु तगाउ । तो पद्धडिया कव्व सिरि पचमि को समारेउ ।
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
अतः विद्यानन्द (ई०८४०) का अवतरण लेने वाले तथा विद्यानन्द के उत्तरवर्ती अनन्तवीर्य के स्वतःप्रामाण्य भंग का उल्लेख करने वाले अनन्तवीयं का समय ईसा की हवी का उत्तरार्ध या १०वी का पूर्व भाग होना चाहिये।
अनन्तवीर्य ने अपनी टीका के प० २४६ में कर्मबन्ध के प्रकरण में 'तदुक्त वाक्य के साथ निम्न श्लोक उद्धृत किया है :
एषोऽहं ममकर्मशर्महरतेतद्वन्धनान्यास्रवैः, ते क्रोधादिवशाः प्रमादजनिताः क्रोधादयस्तेऽवतात् । मिथ्याज्ञान कृतात्ततोऽस्मि सततं सम्यकत्ववान सुखतः,
दक्षः क्षीणकषाययोगतपसां कतै ति मक्तो यतिः ।। यह श्लोक यशस्तिलकचम्पू के उत्तरार्ध पृ० २४६ में पाया जाता है इसी भाव का एक श्लोक गुणभद्राचार्य के प्रात्मानुशासन में भी उपलब्ध होता है।
प्रस्त्यात्मास्तिमितादिबन्धनगतः तदबन्धनान्यास्त्रवैः, ते क्रोधादिकृताः प्रमादजनिताः क्रोधादयस्तेऽवतात। मिथ्यात्वोपचितात् स एव समलः कालादिलब्धौ क्वचित,
सम्यक्त्ववतदक्षताकलुषतायोगैः क्रमान्मुच्यते ॥२४१ इन दोनों श्लोकों के बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव ही नहीं किन्तु शब्द रचना भी मिलती जुलती है।
इसमे अनन्तवीर्य का ममय सोमदेव के बाद शक सं०८८१ सन् ६५६ ई. के पास-पास होना चाहिये। हम्मच के शिलालेख में अनन्तवीर्य को वादिराज के दादा गुरु श्रीपाल विद्यदेव का सधर्मा लिखा है । वादिराज के दादा गुरु का समय ५० वर्ष मान लिया जाय तो अनन्तवीर्य की स्थिति ९७५ ई. के पास-पास
__ इस समय का समर्थन शान्तिमूरि (ई० सन् ६६३-१०४७) और वादिराज (१०१५ ई०) के द्वारा किये अनन्तवीर्य के उल्लेखों से हो जाता है। प्रभाचन्द्र अनन्तवीर्य की उक्तियों को मुन सकते हैं।
__डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ने के० वी० पाठक की आलोचना करते हुए अनन्तवीर्य का समय ईसा की ८वीं सदी का पूर्वार्ध बतलाया है । परन्तु वह डा० महेन्द्र कुमार जी को मान्य नहीं है, उनका कहना है कि -अनन्तवीर्य की समयावधि सन् ९५० से १६० तक निश्चित होती है।
देवेन्द्र सैद्धान्तिक देवेन्द्रसैद्धान्तिक-मूल संध, देशीयगण पुस्तक गच्छ और कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान त्रैकालयोगी के शिष्य थे५ । इनके विद्यागरु गुणनन्दी थे। जिनके तीन सौ शिष्य थे। उनमें ७२ शिप्य उत्प्कृट कोटि के विद्वान और व्याख्यान पट थे। उनमें प्रसिद्ध मुनि देवेन्द्र थे, जो नय-प्रमाण में निपुण थे। यह चतुर्म ख देव के नाम से भी प्रसिद्ध थे. क्योंकि इन्होंने चारों दिशाओं की ओर मुख करके आठ-पाठ उपवास किये थे। यह बंकापुर के प्राचार्यों के अधिनायक थे।
१. जैन लेख म. भ०३ पृ० ७२, २. न्याय कुमुद्रचन्द्र पृ० ७६, ३. जैन दर्शन वर्ष ४ अंक: ४. सिद्धिविनिश्चय प्रस्तावना पृ०८७ ५. श्री मूलमघ-देशीयगण-पुस्तक गच्छतः ।
जातन्त्रकाल योगीग: क्षीगब्बेग्वि कौस्तुभः ।।३५ नच्चारित्र वधू पुत्रः श्री देवेन्द्र मुनीश्वरः । सिद्धान्तिकाग्रणोस्तम्मै बंकेयो (यामदान्म) दा ।।३६ -जन० ले०सं०भा० २१०१४५ ६. नच्छिष्याम्पिगनाविवेकनिधयशास्त्राब्धि पारङ्गता -
म्तेष-कृप्टनमा द्विसप्ततिमिताम्सिद्धान्नशास्त्रार्थक--. व्याख्याने पटवी विचित्र चरिताग्नेगु प्रमिद्धो मुनिः; नानानूननय-प्नमागा निपुणो देवेन्द्र मद्धान्तिकः ।।८ -जैन लेग्व मं० भा० १५० ७२ ७. बकापुर मुनीन्द्रोऽभूद देवेन्द्रो रुन्द्र मद्गुणः। सिद्धान्ताद्यागमार्थ ज्ञो मज्ञानादि गुणान्वितः ।।--जैन लेख सं० भा०२ १०११६
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवी शताब्दी आचार्य
१६७ शक सं० ७८२ सन् ८६० के ताम्रपत्र से ज्ञाता है कि अमोध वर्ष प्रथम ने अपने राज्य के ५२वें वर्ष में मान्य खेट में जैनाचार्य देवेन्द्र को दान दिया था। अमोघवर्ष ने यह दान अपने अधोनस्थ राज कर्म चारी बडूय की महत्वपूर्व सेवा के उपलक्ष्य में कोलनर में वङ्कय द्वारा स्थापित जिनमन्दिर के लिये देवेन्द्र मूनि को तलेयूर नाम का पूरा गांव और दूसरे गावों की कुछ जमीन प्रदान की थी। यह दान शक स० ७८२ (सन् ८६०- वि० सं० ६१७) में दिया गया था। इससे देवेन्द्र सैद्धान्तिक का समय ईसा की नवमी और विक्रम की दशमी शताब्दी के
ध है। इनके शिष्य कलधौतनन्दी थे । जिनका परिचय नीचे दिया गया है।
कलधौतनन्दि
कलधौतनन्दि-मूलसंघ देशीय गण पुस्तक गच्छ के विद्वान गुणनन्दि के प्रशिष्य और देवेन्द्र सैद्धान्तिक के शिष्य थे। बडे भारी सैद्धान्तिक और पचाक्षरूप उन्नत गज के कं भस्थल को फाड़कर मूक्ताफल प्राप्त करने वाले केशरी सिंह थे। विद्वानों के द्वारा स्तूत और वाक्य रूपी कामिनी के वल्लभ थे।
चंकि देवेन्द्र सैद्धान्तिक को राष्ट्रकट राजा अमोध वर्ष प्रथम ने बङ्कय द्वारा स्थापित जिनालय के लिये 'कोलनर' में 'तलेयूर' नामका ग्राम और दूसरे ग्रामों की कुछ जमीन प्रदान की थी। यह लेख शक सं०७५२ सन ८६० (वि० सं०६१७) का लिखा हया है। अतः कलधौतनन्दि का समय भी ईसा की नवमी (वि. की १०) शताब्दी हो सकता है। (जैन लेख सं० भा०२ पृ० १४१)
वृषभनन्दी सिद्धभूषण सैद्धान्तिक मुनि का उल्लेख प्रायश्चित्तके एक संस्कृत 'ग्रंथ जीतसारसमुच्चय, की प्रशस्ति में किया गया है। इन्हें मान्यखेट में मज कन्दकन्दाचार्य 'नामांकित' जीतोपदेशिका' नाम का ग्रन्थ प्राप्त हआ था।
और जो संभरी स्थान में चले गये थे। ही मुनिराज ने उसकी व्याख्या वृषभनन्दी को की थी तब वषभनन्दी, जो नन्दनन्दी के शिष्य, और रूक्षाचार्य के प्रशिप्य थे। जीतसार समुच्चय ग्रन्थ की रचना संस्कृत पद्यों में की थी। और हर्षनन्दी ने सुन्दर अक्षरों में लिखा था। वृपभनन्दी का यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है, इसमें प्रायश्चिन्त का कथन किया गया है। इसका प्रकाशन होना चाहिये। यह अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार में मौजूद है। इससे इनका समय नवमी शताब्दी जान पड़ता है।
तच्छिप्यः कलधीतनन्दिमूनिपम्सद्धान्तचक्रेश्वरः, पागवारपरीतधारिरिग कूलव्याप्तोकीर्तीश्वर । पञ्चाक्षोन्मदकुम्भिदलन प्रोन्मुक्त मुन्ना फल - प्रांश प्राञ्चित केसरी बुधनुतो वाक्कामिनी वल्लभ ॥१०
-जन लेख सं० भा० १ पृ० ७२ 5. मान्याखेटे मजूषेक्षी सैद्धान्त मिद्धभूषणः । मुजीर्णा पुस्तिका जैनी प्रार्थ्याप्प मंभरी गतः ॥३४ श्री कोड कुन्दनामाका जीतोपदेशदीपिका । व्याख्याता मदहितार्थेन मयाप्युक्ता यथार्थत ॥३५ सद्गुरोः सदुपशेन कृता वृपभनन्दिना । जीतादिमार संक्षेपो नद्याद्या चदुनारकं ३६ ३. देखो, अनेकान्तवर्ष १४ कि०११०२७ मे प्रगने माहित्य की खोज लेख ।
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
सर्वनन्दि भट्टारक सर्वनन्दि भट्टारक-कुन्दकुन्दान्वय के एक चट्ट गद भट्टारक (मिट्टी के पात्र धारी) के शिष्य श्री सर्वनन्दि भट्रारक ने इस (कोप्पल) नामक स्थान में निवास कर यहां के नगरवासी लोगों को अनेक उपदेश दिए और बहुत समय तक कठोर तपश्चरण कर सन्यास विधि से शरीर का परित्याग किया। यह सर्वनन्दि सब पापों की शान्ति करें। यह लेख शक सं०८०३ सन् ८८१ (वि० सं० ६३८) का है। अतः इन सर्वनन्दि का समय ईसा की हवीं और विक्रम की दशमी शताब्दी का पूर्वार्ध है।
(Jainism in Sauth India P. 523)
प्राचार्य विद्यानन्द विद्यानन्द-अपने समय के प्रसिद्ध तार्किक विद्वान थे। आपका जैन ताविक विद्वानों में विशिष्ट स्थान भोपापकी कृतियां आपके अतूलतलस्पर्शी पाण्डित्य और सर्वतोमखी प्रतिभा का पद-पद पर अनभव कराती हैं। प्रापकी प्रष्ट सहस्री और तत्त्वार्थ श्लोकवातिकादि कृतियों से जहां आपके विशाल वैदूप्य का पता चलता है वहां उनकी महत्ता और गंभीरता का भी परिज्ञान होता है। आपकी कृतियां अपना सानी नहीं रखतीं। जैन दर्शन उन कृतियों से गौरवान्वित है। जैन परम्परा में विद्यानन्द नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। परन्तु प्रस्तुत विद्यानन्द उन सब से ज्येष्ठ, प्रसिद्ध और प्राचीन बहश्रत विद्वान हैं । यद्यपि उन्होंने अपनी कृतियों में जीवन घटना और समयादि का कोई उल्लेख नहीं किया, फिर भी अन्य सूत्रों से उनके समय का परिज्ञान हो जाता है।
आचार्य विद्यानन्द का जन्म ब्राह्मण कुल में हया था। वे जन्म से होनहार और प्रतिभाशाली थ । अतएव उन्होंने वैशेषिक, न्याय मीमांसा, वेदान्त आदि वैदिक दर्शनों का अच्छा अभ्यास किया था, और बोद्धदर्शन के मन्तव्यों में विशेषतया दिग्नाग, धर्मकीति और प्रज्ञाकर प्रादि प्रसिद्ध बोद्ध विद्वानों के दार्शनिक ग्रन्थों का भा परिचय प्राप्त किया। इस तरह वे दर्शन शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान बने । और जैन सिद्धान्त के ग्रन्थों के भी वे विशिष्ट अभ्यासी थे। जान पड़ता है विद्यानन्द उस समय के वाद-विवाद में भी सम्मिलित हए हों तो कोई आश्चर्य नहीं। हो सकता है उन्हें जैन और बौद्ध विद्वानों के मध्य होने वाले शास्त्रार्थों को देखने या भाग लेने का अवसर भी प्राप्त हना हो। वे अपने समय के निष्णात तार्किक विद्वान थे। अोर तार्किक विद्वानों में उनका ऊंचा स्थान था। उन्होंने जैन धर्म कब धारण किया, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। पर वे जैन धर्म के केवल विशिष्ट विद्वान ही नहीं थे; किन्तु जैनाचार के संपालक मुनि पुंगव भी थे। उनकी कृतियाँ उनके अतुल तलस्पर्शी पांडित्य का पद-पद पर बोध कराती हैं। जैन परम्परा में विद्यानन्द नाम के अनेक विद्वान प्राचार्य और भद्रारक हो गये हैं। पर आपका उन सब में महत्वपूर्ण स्थान है। विद्यानन्द प्रसिद्ध वैयाकरण, श्रेष्ठ कवि, अद्वितीयवादि, महान सैद्धान्तिक, महान ताकिक, सक्षम प्रज्ञ और जिन शासन के सच्चे भक्त थे। आपकी रचनाओं पर गद्धपिच्छाचार्य, स्वामी समन्तभद्र, श्रीदत्त, सिद्धसेन, पात्रस्वामी भट्टाकलंकदेव और कुमारनन्दि भट्टारक आदि पूर्ववर्ती विद्वानों की रचनाओं का प्रभाव दष्टिगोचर होता है। आप की दो तरह की रचनाएँ प्राप्त होती हैं। टीकात्मक और स्वतंत्र ।
आपका कोई जीवन परिचय नहीं मिलता। और न आपके जीवन से सम्बन्धित घटनाओं का ही कोई उल्लेख उपलब्ध होता है। प्रापने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। जिनके नाम इस प्रकार है :
१. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, २. अष्टमहस्री (देवागमालंकार, और युक्त्यनुशासनालकार ये तीन टीका ग्रन्थ है। और विद्यानन्द महोदय, प्राप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासन परीक्षा, और श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र, ये सब उनकी स्वतन्त्र कृतियां हैं।
तत्वार्थ इलोकवातिक-यह गुद्धपिच्छाचार्य के तत्त्वार्थ सत्र पर विशाल टीका है। जिसके पद्य वार्तिकों पर उन्होंने स्वयं गद्य में भाष्य अथवा व्याख्यान लिखा है। यह अपने विषय की प्रमेय बहुल टीका है। प्राचार्य विद्यानन्द ने इस रचना द्वारा कुमारिल और धर्मकीति जैसे प्रसिद्ध ताकिक विद्वानों के जैनदर्शन पर किये गए
१. विद्यानन्द नाम के अन्य विद्वानों का यथा स्थान परिचय दिया गया है, पाठक उनका वहां अवलोकन करें।
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
१६६
माक्षेपों का सबल उत्तर दिया है। और जैनदर्शन के गौरव को उन्नत किया है-बढाया है। भारतीय दर्शन साहित्य में ऐसा एक भी ग्रंथ दिखाई नहीं देता, जो इसकी समता कर सके। इस ग्रंथ में कितनी ही चर्चाएं अपर्व हैं। और वस्तु तत्त्व का विवेचन बड़ी सुन्दरता से दिया हुआ है। इसके आधुनिक सम्पादित शुद्ध संस्करण की आवश्यकता है। क्योंकि सन् १९१८ में प्रकाशित संस्करण अनुपलब्ध है, फिर वह अशुद्ध और त्रुटिपूर्ण है।
प्रष्टसहस्री-(देवागमालंकार)-यह प्राचार्य समन्तभद्र के देवागम पर लिखी गई विस्तृत और महत्वपूर्ण टीका है। देवागम पर लिखी गई अकलंक देव की दुरूह और दुरवगाह अष्टशती विवरण (देवागमभाष्य) को अन्तः प्रविष्ट करते हए उसकी प्रत्येक कारिका का व्याख्यान किया गया है। विद्यानन्द यदि अष्टशती के दुरूह और जटिल पद-वाक्यों के गूढ रहस्य का उद्भावन न करते तो विद्वानों की उसमें गति होना संभव नहीं था। उन्होंने अष्टसहस्री में कितने ही नये विचार और विस्तृत चर्चाए दी हुई हैं, जिनसे पाठक उसके महत्व का सहज ही अनुमान कर सकते हैं। विद्यानन्द ने स्वयं लिखा है कि हजार शास्त्रों को सुनने से क्या, अकेली अष्ट सहस्त्री को सुन लीजिये उसी से समस्त सिद्धांतों का परिज्ञान हो जायगा । उन्होंने कुमारमेन को उक्तियों से प्रष्ट सहस्री को वर्धमान भी बतलाया है । और कष्टसहस्री भी मूचित किया है।
इस पर लघ समन्तभद्र ने 'अष्टमहस्री विपम पद तात्पर्य टीका' और श्वेताम्बरीय विद्वान यशोविजय ने 'अष्टसहस्री तात्पर्यविवरण' नाम की टोकाए लिखी हैं। चूंकि देवागम में दश परिच्छेद हैं। अतः अष्टसहस्री में दश परिच्छेद दिये हुए हैं।
युक्त्यनुशासनालंकार-यह आचार्य समन्तभद्र का महत्वपूर्ण और गंभीर स्तोत्र ग्रंथ है। उन्होंने प्राप्तमीमांसा के बाद इसकी रचना की है। प्राप्तमीमांसा में अन्तिम तीर्थकर महावीर की परीक्षा की गई है। और परीक्षा के बाद उनकी स्तुति की गई है। इसमें कुल ६४ पद्य हैं। प्रत्येक पद्य दुरूह और गम्भीर अर्थ को लिये हए है। उस पर विद्यानन्द की 'युक्त्यनुशासनालंकार टीका है। जो पद्यों के भावों का उद्घाटन करती हई दार्शनिक चर्चा से प्रोत-प्रोत है। इस ग्रन्थ का पं० जूगलकिशोर जी मुख्तार ने बड़े परिश्रम से हिन्दी अनुवाद किया है, जिससे ग्रन्थ का अध्ययन सबके लिये सुलभ हो गया है। दूसरी हिन्दी टीका पं० मूलचन्द्र जी शास्त्री महावीर जी ने की है, जो प्रकाशित हो चुकी है।
विद्यानन्द महोदय-प्राचार्य विद्यानन्द की यह महत्वपूर्ण प्रथम कृति थी। प्राचार्य विद्यानन्द ने स्वयं श्लोकवार्तिकादि ग्रन्थों में उसका उल्लेख अनेक स्थलों पर किया है। खेद है कि विद्यानन्द की यह बहमूल्य कृति अनव है। श्वेताम्बरीय विद्वान वादिदेव सूरि ने 'स्याद्वादरत्नाकर में उसका उल्लेख निम्न वाक्यों में किया है
"महोदये च-'कालान्तराविस्मरणकारणं हि धारणामिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रतीयते इति वदन विद्यानन्दः) संस्कार धारणयो रेकार्थ्यमचकथत्" । (स्याद्वादरत्नाकर पृ० ३४६) । उनकी इस मौलिक स्वतंत्र रचना का अन्वेषण होना आवश्यक है।
प्राप्तपरीक्षा-आप्तमीमांसा की तरह प्राचार्य विद्यानन्द ने प्राप्तपरीक्षा में तत्त्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण गत मोक्षमार्ग नेतृत्व, कर्मभूभृद्भतृव और विश्वतत्त्व ज्ञातृत्त्व इन तीन गुण विशिष्ट प्राप्त का समर्थन करते हुए अन्ययोग व्यवच्छेद से ईश्वर, कपिल, बुद्ध और ब्रह्म की परीक्षा पूर्वक अर्हन्त जिन को प्राप्त निश्चित किया है। ग्रन्थ में १२४ कारिकाए हैं। और उन पर विद्यानन्द स्वामी की प्राप्तपरीक्षालं कृति' नाम की स्वोपज्ञटीका है। ग्रन्थ की भाषा सरल और विशद है। कारिकाए सरल हैं। और टीका की भाषा सरल सुगम बोधक है। इसमें वस्त तत्त्व का अच्छा प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रन्थ पं० दरबारी लाल जी न्यायाचार्य द्वारा अनुवादित सम्पादित होकर वीर सेवामन्दिर से प्रकाशित हो चुका है।
प्रमाणपरीक्षा-यह विद्यानन्द की तीसरी स्वतंत्र कृति है। इसमें प्रमाण का सम्यग्ज्ञानत्व लक्षण करके उसके भेद-प्रभेदों का विषय तथा फल और हेतुओं की सुसम्बद्ध प्रामाणिक और विस्तृत चर्चा सरल संस्कृत गद्य में
१. कष्ट-सहस्री सिद्धा साऽष्ट सहस्रीयमत्र मे पुष्यात् ।
शश्वदभीष्ट-सहस्री कुमारसेनोक्ति वर्धमानार्था ।।
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
२००
की गई है। ग्रन्थ आधुनिक सम्पादन की वाट जोह रहा है।
पत्र-परीक्षा-इसमें दर्शनान्तरीय पत्र लक्षणों की समालोचना पूर्वक जैन दृष्टि से पत्र का सुन्दर लक्षण किया है। प्रतिज्ञा और हेतु को अनुमानाङ्ग प्रतिपादित किया है।
__सत्य शासन-परीक्षा-इसमें पुरुषाद्वैत आदि १२ शासना की परीक्षा की प्रतिज्ञा की गई है। किन्तु : शासनों की परीक्षा पूरी और प्रभाकर शासन की अधूरी परीक्षा उपलब्ध होती है। यह ग्रंथ डा० गोकुलचन्द जी के सम्पादकत्व में भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित हो चका है।
श्री पुरपार्श्वनाथ स्तोत्र-यह ३० पद्यात्मक स्तोत्र ग्रन्थ है। जिसमें श्रीपुर' के पार्श्वनाथ का स्तवन किया गया है। इसमें विद्यानन्द ने स्रग्धरा, शार्दूल विक्रीडित, शिखरिणी और मन्दा कान्ता छन्दों का प्रयोग किया है। इस स्तोत्र में समन्तभद्राचार्य के देवागमादिक स्तोत्र जैसी ताकिक शैली को अपनाया गया है। और कपिलादिक में अनाप्तता बतलाकर पार्श्वनाथ में प्राप्त पना सिद्ध किया गया है, और उनके वीतरागत्व, सर्वज्ञत्व और मोक्षमार्गप्रणेतत्व इन प्रसाधारण गुणों की स्तुति की गई है। रूपकालंकार की योजना करते हुए प्राराध्य देव को प्रशंसा की गई है।
यथा शरण्यं नाथाऽर्हन भव-भव भवारण्य-विगति-च्युता नामस्माकं निरवर-वर कारुण्य-निलयः। यतो गण्यात्पुण्याच्चिरतरमपेक्ष्यं तव पदं, परिप्राप्ता भक्त्या वयमचल-लक्ष्मीगृहमिदम् ॥२६
हे नाथ ! हे अर्हन् ! आप संसाररूपी वन में भटकने वाले हम संसारी प्राणियों के लिये शरण हों, आप हमें अपना आश्रय प्रदान कर संसार परिभ्रमण से मुक्त करें, क्योंकि आप पूर्णतया करुणानिधान हैं । हम चिरकाल से आप के पदों की अपेक्षा कर रहे हैं। प्राज बड़े पुण्योदय से मोक्ष लक्ष्मी के स्थान भूत पाप के चरणों की भक्ति प्राप्त हई है।
स्तोत्र में भाषा का प्रवाह और उदात्त शैली मन को अपनी पोर प्राकृष्ट करती है। यह स्तोत्र पं० दरबारी लाल जी की हिन्दी टीका के साथ वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित हो चुका है ? प्राचार्य विद्यानन्द का समय
प्राचार्य विद्यानन्द ने अष्टसहस्री के प्रशस्ति पत्र में कुमारसेन की उक्तियों से उसे प्रवर्धमान बतलाया है। इससे विद्यानन्द कुमारसेन के उत्तरवर्ती हैं। कुमार सेन का समय ७८३ से पूर्ववर्ती है। क्योंकि कुमारसेन का स्मरण पुन्नाटसंघी जिनसेन (शक सं० ७०५-सन् ७८३) ने हरिवंश पुराण में किया है । इससे कुमारसेन वि० सं० ८४० से पूर्ववर्ती हैं। उस समय उनका यश वर्धमान होगा। अत: विद्यानन्द का समय सन् ७७५ से ८४० प्रमाणित होता है। प्राचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक की अन्तिम प्रशस्ति में निम्न पद्य दिया है :--
'जीयात्सज्जनताऽऽश्रयः शिव-सुधा धारावधान-प्रभुः, ध्वस्त-ध्वान्त-ततिः समुन्नतगतिस्तीव-प्रतापान्वितः । प्रो ज्योतिरिवावगाहनकृतानन्तस्थितिर्मानतः,
सन्मार्गस्त्रितयात्मकोऽखिलमलः-प्रज्वालन-प्रक्षमः ॥'३० इस पद्य में विद्यानन्द ने जहां मोक्षमार्ग का जयकार किया है। वहां उन्होंने अपने समय के गंगनरेश शिवमार द्वितीय का भी यशोगान किया है। शिवमार द्वितीय पश्चिमी गंगवंशी श्रीपूरुष नरेश का उत्तराधिकारी और उसका पुत्र था, जो ई० सन् ८१० के लगभग राज्य का अधिकारी हुया था। इसने श्रवण बेलगोल की छोटी
१. प्रस्तुत श्रीपुर धारवाड जिले का शिरूर नाम ही श्रीपुर हो। क्योंकि शक सं०६६८ (ई. सन ७७६) में पश्चिमी गंगवंशी राजा श्री पुरुष के द्वारा श्रीपुर के जैन मन्दिर के लिये दिये जाने वाले दान का उल्लेख करने वाला एक ताम्रपत्र मिला है।
-(जन सि० भा० भा० ४ कि०३ पृ १५८) वर्जेस और हण्टर आदि अनेक पाश्चात्य लेखकों ने वेसिंग जिले के सिरपुर' को प्रसिद्ध तीर्थ बतलाया है । और पार्श्वनाथ के प्राचीन मन्दिर होने की सूचना की है। संभव है इसी नगर के पार्श्वनाथ की स्तुति विद्यानन्द ने की हो। और महाराष्ट्र देश का श्रीपर नगर जहाँ के अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ का मन्दिर भिन्न ही हो। जिसके कुएं के जल में एलग राय (श्रीपाल) का कुष्ट रोग दूर हआ था। इस सम्बन्ध में अन्वेषण करने की आवश्यकता है।
२. देखो हरिवंश पुराण १-३८
"
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी और दशवी शताब्दी के आचार्य
२०१ पहाड़ी पर एक वसदि बनवाई थी, जिसका नाम 'शिवमारनवसदि' था। चन्द्रनाथ स्वामी की वदि के निकट एक चट्टान पर कनड़ी में 'शिवमारन वसदि' इतना लेख उत्कीर्ण है जिसका समय सन् ८१० माना जाता है। प्रस्तुत शिवमार द्वितीय अपने पिता श्रीपूरुप की तरह जैन धर्म का समर्थक था। वह समर्थक ही नही किन्तु उसके एक ताम्रपत्र सप्रमाणित होता है कि वह स्वय जैन था ।
शिवमार का भतीजा विजयादित्य का पुत्र राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम शिवमार के राज्य का उत्तराधिकारी हुआ था। और वह सन् ८१६ के लगभग गद्दी पर बैठा था। विद्यानन्द ने अपने ग्रन्थों में सत्यवाक्याधिप का उल्लेख किया है।
स्थेयाज्जात जयध्वजाप्रतिनिधिः प्रोद्भूतभूरिप्रभुः, प्रध्वस्तारिवल-दुर्नय-द्विषदिभिः सन्नीति-सामर्थ्यतः । सन्मार्ग स्त्रिविधः कुमार्गमथनोर्हन् वीरनाथः श्रिये, शश्वत्संस्तुतिगोचरोऽनघधियणं श्रीसत्यवाक्याधिपः ॥१
प्रोक्तं युक्त्यनुशासन विजयिभिः स्याद्वादमार्गानुगविद्यानन्द बुधरलंकृतमिद श्रीमत्यवाक्याधिपः ।।।
-युक्त्यनुशासनालंकार प्रशस्ति। जयन्ति निर्जताशेष सर्वथकान्तनीतयः। सत्यवाक्याधिपाः शश्वविद्यानन्दा जिनेश्वरः ।।
-प्रमाण परीक्षा मंगल पद्य विद्यानन्दः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्या
प्राप्त परीक्षा १२३ इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि आचार्य विद्यानन्द की रचनाय ८१० मे ८४० के मध्य रची गई है। इन्हीं सब प्राधारो से प० दरबारीलाल जी कोठिया ने भी विद्यानन्द का समय ई. सन् ७७५ से ८४० तक का निश्चित किया है। इससे प्राचार्य विद्यानन्द का समय ईसा की नवमी शताब्दी सुनिश्चित हो जाता है।
प्रज्जनन्दि (आर्यनन्दि) तमिल प्रदेश में अज्जनन्दि नाम के प्रभावशाली प्राचार्य हो गए है। उनका व्यक्तित्व महान था। सातवी शताब्दी के उतरार्ध में तमिल प्रदेश में जैन धर्म के अनुयायियों के विरुद्ध एक भयानक वातावरण उठा। परिणाम स्वरूप वहाँ जैन धर्म का प्रभाव क्षीण हो गया और उसके सम्मान को ठेस पहंची, मे विपम समय में प्रार्थनन्टि मागे पाये। उन्होने समस्त तमिल प्रदेश में भ्रमण कर जैन धर्म के प्रभाव को पुनः स्थापित करने के लिये जगह-जगह जैन तीर्थकरो की मतियां अकित कराई। इसमे प्रज्जनन्दि के साहम और विक्रम का पता चलता है। उन्हें इस कार्य के सम्पन्न कराने में कितने कष्ट उठाने पड़े होगे, यह भुक्तभोगी ही जानता है। परन्तु उनकी आत्मा में जैन धर्म की क्षीणता को देखकर जो टीस उत्पन्न हई उसीके परिणामस्वरूप उन्होंने यह कार्य सम्पन्न कराया। उनका यह कार्य ८वी हवी शताब्दी का है। उनका कार्यक्षेत्र मदुरा, और त्रावणकोर आदिका स्थान रहा है।
आर्यनन्दि ने उत्तर प्रारकाट जिले के वल्लीमले की और मदुरा जिले के अन्नमले, ऐवरमले, अलगरमले,
१. जैन लेख संग्रह भा० १ पृ० ३२७ २. दक्षिण भारत में जैन धर्म पृ० ८१ ३ गंग वंश में कुछ राजाओं की उपाधि 'मत्य वाक्य थी। इस उपाधि के धारक ई० सन १५ के बाद प्रथम सत्य वाक्य, दूसरा ८७० से १०७, तीसरा सत्य वाक्य ६२०, और चौथा ९७७,
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
करुगाल्लक्कुडी ओर उत्तम पाल्यम को चट्टानों पर जैन मूर्तियों का निर्माण करवाया। दक्षिण को प्रोर तिलेवेल्लो जिल के इरुवाड़ी (Eruvadi) स्थान में मूर्तियों का निर्माण कराया।
त्रावणकोर राज्य के चितराल नामक स्थान के समीप तिरुच्चाणटु (Tiruchchanattu) नामकी पहाड़ी पर भी चट्टान काट कर जैन मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई है।
आर्यनन्दिका यह कार्य महत्वपूर्ण, तथा जैनधर्म को प्रसिद्ध के लिए था। इनका समय ८-९वीं शताब्दी है ।
गुणकीति मुनीश्वर मुनि गुणकीति मेलाप तीर्थ कारेयगण के विद्वान मूल भट्टारक के शिष्य थे। और जो अत्यन्त गुणी थे।
श्रीमन्मैलापतीर्थस्य गणे कारेय नामनि । बभूवोग्रतपोयुक्तः मूलभट्टारको गणी।। तच्छिष्यो गुणवान्सूरि गुणकीति मुनीश्वरः । तस्याप्यासी (सींद्रि) द्रकोतिस्वामी काममदापहः॥
-जैन लेख सं० भा०२ पृ० १५२ सौदत्ती का यह शिलालेख शक सं० ७६७ सन् ८७५ ईसवी का है । अतः गुणकीति का समय ईसा की नवमी शताब्दी है । इनके शिष्य इन्द्रकीति थे ।
इन्द्रकोति इन्द्रकीति मेलाप तीर्थ कारेयगण के विद्वान गुणकीर्ति के शिष्य थे, जो काम के मद को दूर करने वाले थे। पाडली और हन्निकरि के शिलालेखों से स्पष्ट होता है कि कारेयगण यापनीयसंघ एक गण था। और सौटती नवमी शताब्दी में यापनीय संघ का एक प्रमुख केन्द्र था।
महासामन्त पृथ्वीराय राष्ट्रकट नरेश कृष्ण तृतीय का महा सामन्त था। और इन्द्रकीति का शिष्य था। उसने एक जिनालय का निर्माण कराकर उसे भूमि प्रदान की थी। इन इन्द्रकीति के पूर्वज भी कारेय गण के थे।
सौदत्ती का यह लेख शक सं०७६७ सन् ८७५ ईस्वी का है, जो वहां के एक छोटे मन्दिर की बायीं मोर दीवाल में जड़े हुए पाषाण पर से लिया गया है। इससे इनका समय ईसा की नवमी शताब्दी है । इनके गुरु गुणकीर्ति का समय भी ईसा की नवमी सदी है।
अपराजितसूरि (श्री विजय) अपराजित सरि-यह यापनीय संघ के विद्वान थे। चन्द्रनन्दि महाकर्म प्रकृत्याचार्य के प्रशिष्य और बलदेव मरि के शिप्य थे। यह पारातीय प्राचार्यों के चूड़ामणि थे। जिन शासन का उद्धार करने में धीर वीर तथा यशस्वी
इन्हें नागनन्दि गणि के चरणों की सेवा से ज्ञान प्राप्त हया था। और श्रीनन्दी गणी को प्रेरणा से इन्होंने शिवार्य की भगवती आराधना की 'विजयोदया' नाम की टीका लिखी थी। इनका अपर नाम श्री विजय या विजयाचार्य था। पंडित पाशाधर जी ने इनका 'श्री विजय' नाम से ही उल्लेख किया है । भगवती आराधना को ११६७ नवर की गाथा की टीका में 'दशवकालिक पर 'विजयोदया टीका लिखने का उल्लेख किया है-"दशवकालिक टीकायां 'श्री विजयोदयायाँ प्रपंचिता उद्रगमादि दोषा, इति नेह प्रतन्यते ।" आराधना की टीका का नाम भी 'श्री विजयोदया' दिया है। टीका में अचेलकत्व का समर्थन किया गया है। और श्वेताम्बरीय उत्तराध्ययनादि ग्रन्थों के
१. जैन लेख सं० भा० २ लेख न० १३० पृ० १५२ २. एतच्च श्री विजयाचार्य विरचित संस्कृत मूलाराधना टीकायां सुस्थित सूत्र विस्तरतः समर्थितं । अनगार धर्मामृत
टीका पृ. ६७३)।
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवी और दसवी शताब्दी के आचार्य
२०३
क प्रमाण भी दिये है । यह यापनीय संघ के आचार्य थे। इस सघ के सभी प्राचार्य नग्न रहते थे, किन्तु श्वेताम्बरीय आगम ग्रन्थों को मानते थे ओर सवस्त्र मुक्ति और केवल भुक्ति को मानते थे । इस संघ के शाकटायन व्याकरण के कर्त्ता पाल्यकीर्ति ने स्त्री मुक्ति और केवल भुक्ति नाम के दा प्रकरण लिखे है, जो मुद्रित हो चुके है।
टीका में एक स्थान पर भूत और भविष्यत् काल के सभी जिन अचेलक है। मेरु आदि पर्वतों की प्रतिए और तीर्थकर मार्गानुयायी गणधर तथा उनके शिष्य भी उसी तरह अचलक है । इस तरह अचेलता सिद्ध हुई । जिनका शरीर वस्त्र से परिवेष्टित है वे व्युत्मृष्ट, प्रलम्ब भुज और निश्चल जिनके सदृश नही हो सकते । १ दशववैकालिक पर टीका लिखने के कारण 'आरातीय चूडामणि' कहलाते थे ।
समय
ऊपर जो गुरु परम्परा दी है वे सब प्राचार्य यापनीय सघ के जान पडते है । अपराजित सूरि ने लिखा है कि- "चन्द्रनन्दि महाकर्म प्रकृत्याचार्य शिष्येण प्रातीयसूरि चलामणिना नागनन्दगणि-पाद-पद्मोपसेवाजातमतिबलेन बलदेव सृरिशिष्येण जिनशामनोद्धरणधीरेण लब्धयशःप्रमरेणापराजितसूरिणा श्रीनन्दिगणिनावचोदितेन रचिता । "
जो उपलब्ध हुआ है वह श्री पुरुष का दानपत्र है, जो रूप से विमलचन्द्र, कीर्तिनन्दी, कुमारनन्दी और चन्द्र88 ) | बहुत सम्भव है कि टीकाकार ने इन्ही चन्द्रनदि
चन्द्रनन्दी का सबसे पुराना उल्लेख अभी तक 'गोवर्पय' को ई० सन् ७७६ मे दिया गया था । इसमें गुरु नन्दी नाम के चार आचार्यो का उल्लेख हे (S J. pt III, अपने को प्रशिष्य लिखा हो । यदि ऐसा है तो टीका बनने का समय वि० स० ५३३ अर्थात् विक्रम की हवी शताब्दी तक पहुच जाता है | चन्द्रनन्दी का नाम 'कर्मप्रकृति' भी दिया है और 'कर्म और कर्म प्रकृति का वेलूर के १७ वं शिलालेख में अकलक देव श्रोर चन्द्रकीति के बाद होना बतलाया है । ओर उनके बाद विमलचन्द्र
उल्लेख किया है । इसने भी उक्त समय का समर्थन होता है । वलदेव सृरि का प्राचीन उल्लेख श्रवण बेल्गोल के दो शिलालेखो में न० ७ और १५ में पाया जाता है। जिनका समय क्रमशः ६२२ और ५७२ शक संवत् के लगइससे भी उक्त भग अनुमान किया गया है। बहुत सम्भव है कि यही बलदेव सृरि टीकाकार के गुरु रहे हो । समय की पुष्टि होती है । इनके अतिरिक्त टीकाकार ने नागनन्दी को अपना गुरु बतलाया है । वे नागनन्दी वही जान पडते है, जो असग के गुरु थे । अत अपराजित सूरि का समय विक्रम की नवमी का उपान्त्य हो सकता है ।
टीका
आराधना की यह टीका अनेक विशेषताओं को लिये हुए हे। न० ११६ की टीका करते हुए 'उसकी व्याख्या में सयमहीन तप कार्यकारी नहा । इसकी पुष्टि करते हुए मुनि श्रावक के मूल गुणों तथा उत्तर गुणां और आवश्यकादि कर्मों के अनुष्ठान विधानादि का विस्तार के साथ वर्णन दिया है। उसका एक लघु अश इस प्रकार है
' तद् द्विविध मूलगुणप्रत्यान्यान उत्तरगुणप्रत्याख्यान । नत्र सयताना जीवितार्वाधिक मूलगुणप्रत्याख्यान । सयतासयताना अणुव्रतानि मूलगुण व्यपदेशभॉजि भवन्ति । नेपा द्विविध प्रत्याख्यान अल्पकालिक, जीवितावधिक चेति । पक्ष-मास - पण्मासादि रूपेण भविष्यत्काल सार्वाधिक कृत्वा तत्र स्थल हिमानृतन्तेयाब्रह्मपरिग्रहान्न चरिष्यामि । इति प्रत्याख्यानमल्प वालकम् । आमरणमर्वाध कृत्वा न करिष्यामि । स्थूल हिमादीनि इति प्रत्याख्यान
१. 'तीकराचरित च गुग्गा - महनन वन समग्रा मुक्तिमार्ग प्रकाशापन पराजिता सर्वे एवाचे नाभूनाभविष्यतश्च । यथा मेर्वादि पर्वत गता प्रतिमारतीर्थकर मार्गानुयायिनश्च गणधरा इति ते यचेनातिच्छिष्याश्च तथैवेति सिद्धमचेल त्वम । चेल परि भ० आ० टी० प० ६११ वेष्टितागोन जिनमशः व्युत्मृष्ट प्रलम्बभुजो निश्चलो जिन प्रतिरूपता धत्तं ।।"
२. देखो, अनकान्त वर्ष २ कि० ८ पृ० ४३७ ।
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
जीवितावधिकं च । उत्तर गण प्रत्याख्यान मयंतासंयतयोरपि अल्पकालिकं जीविता वधिकं वा।"
अर्थात वह प्रत्याख्यान दो प्रकार का है, मूलगण प्रत्याख्यान और उत्तरगण प्रत्याख्यान । उनमें से संयमी मुनियों के मूलगुण प्रत्याख्यान जीवन पर्यन्त के लिए होता है । सयतासयत पचम गुणस्थानवर्ती श्रावक के अणुव्रतों को मूल गुण कहते है । गृहस्थों के मूलगणों का प्रत्याख्यान अल्पकालिक अोर सर्वकालिक दोनों प्रकार का होता है। पक्ष, महीना, छह महीन इत्यादि रूप से भविष्यत्काल की मर्यादा करके जो स्थल हिमा, असत्य, चोरी, मैथुन सेवन और परिग्रह रूप पच पापो को मै नही करूगा, ऐसा संकल्प कर उनका जो त्याग करता है वह जीवितावधिक प्रत्याख्यान है। उत्तर गुण प्रत्याख्यान तो मुनि और गृहस्थ दोनों ही जीवन पर्यन्त तथा अल्पकाल के लिए कर सकते है।
गाथा न० ५ की टीका में 'सिद्ध प्राभृन' का उल्लेख किया है ।' ७५३ की गाथा की व्याख्या करते हुए 'नमस्कारपाहुड' ग्रन्थ का उल्लेख किया है।
अपराजित सूरि ने अपनी टीका में देवनन्दी (पूज्य पाद) की सर्वार्थसिद्धि तथा अकलंकदेव के तत्त्वार्थ वातिकका भी उपयोग किया है। और उनकी अनेक पक्तियों को उद्धत किया है।
अमितगति प्रथम प्रमितगति-माथर संध के विद्वान देवसेन के शिष्य थे। जिन्हें विध्वस्त कामदेव, विपूलशमभूत, कान्तकीति और श्रत समुद्र का पारगामी सुभाषित रत्न सन्दोह की प्रशस्ति में बतलाया गया है। प्रोर इनके शिष्य प्रथम अमितगति योगी को अगेष शास्त्रों का ज्ञाता, महावतों-समितियों के धारकों में अग्रणी, क्रोध रहित, मनिमान्य और बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों का त्यागी बतलाया है, जैसा कि-'त्यक्तनि:शेष संग: । वाक्य मे प्रकट है :
"विज्ञाताशेषशास्त्रो व्रत समितिभूतामग्रणीरस्तकोपः ।
श्रीमान्मान्यो मुनीनाममितगति यतिस्त्यक्तनिशेषसंगः ॥" इस तरह अमित गति द्वितीय ने उनका बहुत गुण गान किया है, उन्हें अलंघ्य महिमालय, विमलसत्ववान रत्नधी, गुणमणि पयोनिधि, बतलाया है। साथ ही धर्म परीक्षा' में 'भासिताखिल पदार्थ समूह :निर्मलः, तथा अाराधना में 'शम-यम-निलयः, प्रदलितमदनः, पदनतसूरि जैसे विशेपणों के साथ स्मरण किया है। जो उनके व्यक्तित्व की महत्ता को प्रकट करते है। इससे वे ज्ञान और चारित्र की एक असाधारण मूर्ति थे। उनका व्यक्तित्व महान था और अनेक प्राचार्यों से पूजित-नमस्कृत एव महामान्य थे। उन्होंने अशेप शास्त्रों का अध्ययन किया था, और उन्होने जो अनुभव प्राप्त किया था, उसी का सार रूप ग्रन्थ योगमार प्राभूत' है। उनकी यह रचना संक्षिप्त, सरस और गम्भीर अर्थ की प्रतिपादक है। 'चू कि अमित गति द्वितीय का रचना समय स० १०५० से १०७३ है। अमित गति प्रथम इनसे दो पीढ़ी पहले है। अतः उसमें से ५० वर्ष कम कर देने पर उनका समय विक्रम की ११ वी शताब्दी का प्रथम चरण जान पड़ता है।
- - - १. मिद्ध प्राभूतगदित म्वरूप सिद्धज्ञानमागमभावमिद्धः ॥ (गाथा ५) २. 'नमस्कार प्राभत नामास्ति ग्रन्थः यत्र नय प्रमाणादि निक्षेपादि मुखन नमस्कागं निरूप्यते । (गाथा ७५३) ३. देवा अनेकान्न वर्ष २ किरण ८ १० ४३७ । ४. "आशीविध्वस्त.-कन्तो विपुलशमभृतः श्रीमत: क्लान्तकीतिः । मरेर्या तम्य पार श्रुतलिलनिधेर्देवमनम्य शिष्यः' ।।
-मुभा० स०६१५ ५. "भामिनाविलपदार्थ ममूहो निर्मलोमतगतिगणनाथः ।
वासरो दिनमणे रिव तम्माज्जायतेस्मकमलाकर बोधी ॥३" ६. "जिन समयोनि महनीयोगुगामरिण जलधेम्तदनुमतियः ।
शमयम निलयो.मितगति सूरिः प्रदलितमदनो पदनतमूरिः ॥"
--
-
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
आपकी एकमात्र कृति 'योगसार' है । जो नो अधिकारों में विभक्त हे जीवाधिकार अजीवाधिकार, स्वाधिकार, बन्धाधिकार, संत्रराधिकार, निर्जराधिकार, मोक्षाधिकार, चारित्राधिकार और चूलिकाधिकार । इन अधिकारों में योग और योग से सम्बन्ध रखने वाले आवश्यक विषयों का सुन्दर प्रतिपादन किया गया है । ग्रन्थ अध्यातम रस से सरावोर है। उसके पढ़ने पर नई अनुभूतिया सामने याती है । ग्रन्थ आत्मा को समझने और उसके समुद्धार में कितना उपयोगी है। इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं, ग्रन्थ का अध्ययन करने से यह स्वयं समझ में आ जाता है । ग्रंथ की भाषा सरल संस्कृत है । पद्य गम्भीर अर्थ का लिए हुए हैं। उक्तियों और उपमानों तथा उदाहरणादि द्वारा विषय को स्पष्ट और बोधगम्य बना दिया है । ग्रन्थ पर कुन्द कुन्दाचार्य के अध्यात्म-ग्रन्थों का पूर्ण प्रभाव है ।
अन्तिम अधिकार में भोग का स्वरूप दिया है और समार को आत्मा का महान् रोग बतलाया है, और उससे छूट जाने पर मुक्तात्मा जैसो स्वाभाविक स्थिति हो जाती है । भोग ममार से सच्चा वैराग्य कब बनता है । और निर्वाण प्राप्त करने के लिये क्या कुछ कर्तव्य है इसका सक्षिप्न निर्देश है । ग्रन्थ का अध्ययन और मनन जीवन की सफलता का द्योतक है। ग्रंथ महत्वपूर्ण है ।
विनयसेन
८ के लेख
विनयसेन - मूलमंत्र सेनान्वय पोगरयगण या होगरिगच्छ के विद्वान थे । जेन शि० स० भा० नं ० ६१, जो शक म० ८१५ (मन् ८६३) वि०म० ९५० के इस प्रथम लेख में इन्हें ग्राम दान देने का उल्लेख है । प्राचार्य अमृतचन्द्र ठक्कुर
सो जय अमियचंदो णिम्मल-वय-तव-समाहि-संजुत्तो । जो सारतयणिउणो विज्जा-गुण-संठियो धीरो ॥१ जस्स य पसत्य वयणं णिकलकं श्रमियगुणेण संजुत्तं । भव्वाणं सुह-कंदं सो सूरि जयउ श्रमियचंदुप्ति ॥ २ जेण विणिम्मिय वित्ति सारत्तयस्स सयलगुणभरिया । जो भव्याणं सुहिदा ससमय पर समय-वियाणया सयला ॥ ३
२०५
आचार्य मृत चन्द्रसूरि ने अपनी गुरु परम्परा और गण- गच्छादिका कोई उल्लेख नहीं किया। वे निलप व्यक्ति थे । उन्होंने अपने ग्रंथों में अपने नाम के अतिरिक्त कोई भी वाक्य ग्रात्म प्रणसा-परक नही लिखा । किन्तु उन्होंने यहाँ तक लिखा है कि वर्षों से पद बन गये, पदों से वाक्य बन गए और वाक्यों से यह ग्रथ बन गया। इसमें हमारा कुछ भी कर्तृत्व नही है ।
आचार्य अमृत चन्द्र विक्रम की दावी दाताब्दी के अध्यात्म रगज्ञ विशिष्ट विद्वान थे। संस्कृत और प्राकृत भाषा पर उनका असाधारण अधिकार था। उन्होंने शताब्दियों से विस्मृत कुन्दकुन्दाचार्य की महत्ता एवं प्रभुता को पुनरुज्जीवित किया है। उन्होंने निश्चय नय के प्रधान ग्रन्थों की टोका लिखते हुए भी अनेकान्त दृष्टि को नहीं भुलाया है । समयसारादि टीका ग्रन्थों के प्रारम्भ में लिखा है कि — जो अनन्त धर्मों से शुद्ध आत्मा के स्वरूप का अवलोकन करती है वह अनेकान्तरूप मूर्ति नित्य ही प्रकाशमान हो ।
अनन्त धर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । श्रनेकान्तमयी मूर्ति नित्यमेव प्रकाशताम् ॥
इसी तरह प्रवचनसार टीका के प्रारंभ में लिखा है कि जिसने मोह रूप अन्धकार के समूह को अनायास ही लुप्त कर दिया है, जो जगत तत्व को प्रकाशित कर रहा है ऐसा यह अनेकान्तरूप तेज जयवन्त रहे ।
१ वर्ण: कृतानि चित्रः पदः कृतानि वाक्यानि ।
वाक्यैः कृतं पवित्रं शास्त्रमिद न पुनरस्माभिः ॥
- पुरुषा०मि० २२६
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
हेलोल्लुप्तं महामोहतमस्तोमं जयत्यदः ।
प्रकाशयज्जगत्तत्त्वमनेकान्तमयं मह ॥ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में तो उसे परमागम का बीज अथवा प्राण वतलाया है, और जन्मान्ध मनुष्यों के हस्ति विधान का निषेध कर समस्त नय विलासों के विरोध को नष्ट करने वाले अनेकान्त को नमस्कार किया है। टीकात्रों के
में भी उन्होंने स्याद्वाद को और उसको दप्टि को स्पष्ट करते हए तत्त्व का निरूपण किया है। इससे उनकी अनेकान्त दृष्टि का महत्व प्रतिभापित होता है।
इनकी कुन्दकुन्दाचार्य के प्राभूतत्रय-समयसार-प्रवचनसार अोर पंचास्ति काय-इन तीनों ग्रन्थों की टीकाएं बडी मार्मिक और हृदय स्पर्शी और उनको हार्दको प्रकट करने वाली हैं। समयासार की टीका में तो उसके अन्तः रहस्य का केवल उद्घाटन ही नहीं किया गया किन्तु उस पर समयानुसार-कलश की रचना कर वस्ततः उस पर कलशारोहण भी किया है । अध्यात्म के जिस बीज को प्राचार्य कुन्दकुन्द ने बोया, और उसे पल्लवित, पूष्पित एवं फलित करने का श्रेय आचार्य अमृत चन्द्र को ही प्राप्त है। टोकाओं का अध्ययन कर अध्यात्म रसिक विद्वान दात तले अंगुली दबाकर रह जाते हैं । टीकात्रों की भाषा प्रौढ़, प्रभावशाली अोर गतिशील है । और विषय की स्पष्ट विवेचक हैं। अध्यात्म दृष्टि से लिखी गई ये टीकाएं म्वसमय परसमय को बोधक है ; और अध्येता के लिए महत्वपूर्ण विषयों की परिचायक हैं इनमें निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से वस्तु तत्व का विचार किया गया है सम्यग्दृष्टि जीव वस्तुतत्व का परिज्ञान करने के लिए दोनों नयों का अवलम्बन लेता है परन्तु श्रद्ध में वह प्रशद्ध नय के पालम्बन को हेय समझता है, यही कारण है कि वस्तु तत्व का यथार्थ परिज्ञान होने पर अगद्ध नय का पालम्बन स्वयं छूट जाता है इसी से कुन्दकुन्दाचार्य ने उभय नयों के पालम्बन से वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन किया है।
- अापकी इन तीनों टीकामों के अतिरिक्त आपकी दो कृतियां और भी हैं। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ओर तत्त्वार्थसार । इन दोनों में भी उनके वैशिष्टय की स्पष्ट छाप है।
पुरुषार्थ सिद्धयुपाय २२६ श्लोकों का प्रसादगुणोपेत एक स्वतंत्र ग्रन्थ है । इसका-दूसरा नाम जिन वचन रहस्य कोश है । ग्रन्थ के नाम से ही उसका विषय स्पष्ट है इसमें श्रावक धर्म के वर्णन के साथ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्याकचरित्र का सुन्दर कथन दिया हुआ है । जहां इस ग्रथ के नाम में वैशिष्ट्य है वहां पाद्यन्त में भी वैशिष्टय है। नथ के प्रादि में निश्चय नय और व्यवहार नय की चर्चा है तो अन्त में रत्नत्रय को मोक्ष का उपाय बतलाया गया है यह कथन श्रावकाचारों में हैं । पुण्यासवको शुभोपयोग का अपराध बतलाना अमृतचन्द्र को वाणी को विशेषता है।
विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान पं० प्राशाधर जी ने अनगार धर्मामृत को टीका में प्राचार्य अमृतचन्द्र का ठक्कूर विशेषण के साथ उल्लेख किया है-'एतदनुसारेणव ठक्कुरोऽपीदमपाठीत्-लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । (पृ० १६०) एतच्च विस्तरेण ठक्कुरामृनचन्द्रसूरि विरचित समयसारटीकायां द्रष्टव्यम्। पृ०५८८)।
ठक्कर या ठाकर शब्द का प्रयोग जागीरदारों और ओहदेदारों के लिये तो व्यवहृत होना था। किन्त कर' शब्द गोत्र का भी वाची है। आज भी जैसवाल आदि जातियों के गोत्रों में प्रयुक्त देखा जाता है।
तत्त्वार्थसार-गृद्धपिच्छाचार्य के तत्त्वार्थसूत्र के मार को लिए हुए होने पर भी अपना वैशिष्ट्य रखता है। यह २२६ श्लोकों की रचना होते हुए भी, प्रसाद गुणोपित एक स्वतंत्र ग्रंथ है । जिसमें सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का सुन्दर कथन किया है। तत्त्वार्थसार नाम से भी यह ध्वनित होता है कि इसमें तत्त्वार्थ सूत्र प्रतिपादित तत्त्वों का ही सार संगृहीत है । तत्त्वार्थ राजवातिकादि में प्रतिपादित कितनी ही विशिष्ट बातों का इसमें संकलन किया गया है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने इसे मोक्षमार्ग का प्रकाश करने वाला एक प्रमुख दीपक बतलाया है । क्योंकि इसमें युक्ति पागम से सुनिश्चित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का स्वरूप
१. अथ तत्त्वार्थसारोऽयं मोक्ष मार्गकदीपक ।
-तत्वार्थमार २
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवीं और दशवीं शताब्दी के आचार्य
२०७
प्रतिपादित किया है । तथा सम्यग्दर्शन का स्वरूप बतलाते हुए सप्त तत्त्वों का विशद वर्णन किया है । तत्त्वार्थ सूत्र का पद्य में अनुवाद होते हुए भी एक स्वतंत्र ग्रंथ जैसा प्रतीत होता है । कहीं-कहीं तो ऐसा जान पड़ता है कि अमृतचन्द्राचार्य ने गद्य के स्थान में पद्य का रूप दिया है और कितने ही स्थानों पर उन्होंने नवीन तत्त्वों का संयोजन भी किया है और उसके लिए उन्हें अकलंक देव के तत्त्वार्थं वार्तिक का सर्वाधिक आश्रय लेना पड़ा है । उसके वार्तिकों को श्लोक रूप में निबद्ध करके तत्त्वार्थसार के महत्व को वृद्धिगत किया है ।
समय
पट्टावली में अमृतचन्द्र के पट्टारोहण का समय वि० सं० ६६२ दिया है । वह प्रायः ठीक है । क्योंकि धर्मरत्नाकर के कर्ता जयसेन ने, जो लाडवागड संघ के विद्वान थे । उन्होंने अमृतचन्द्रसूरि के पुरुषार्थसिद्धयुपाय के ५६ पद्य उद्धृत किये है। जयमेन ने अपना यह ग्रंथ वि० सं० १०५५ में बनाकर समाप्त किया है ।" अतः आचार्य अमृतचन्द्र सं० १०५५ से पूर्ववर्ती है। मुख्तार सा० ने लिखा है कि प्रमित गति प्रथम के योगसार प्राभृत पर भी अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसार तथा समयसारादि टीकाओं का प्रभाव परिलक्षित होता है । जिनका समय अमित गति द्वितीय से कोई ४०-५० वर्ष पूर्व का जान पड़ता है। ऐसी स्थिति में अमृतचन्द्रसूरि का समयविक्रम की १० वीं शताब्दी का तृतीय चरण है। पं. नाथूराम प्रेमी और डा० ए एन. उपाध्ये अमृतचन्द्र का समय १२वीं मानते थे, पर वह मुझे नही रुचा । फलतः मैने अपने लेख में अमृतचन्द्र के समय को दशवीं शताब्दी का बतलाया, तब से सभी उनका समय १०वीं शताब्दी मानने लगे हैं ।
रामसेन
रामसेन नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं । उनमें प्रस्तुत रामसेन सबसे भिन्न हैं । ग्रन्थ प्रशस्ति में राम सेन ने अपना संक्षिप्त परिचय पांच गुरुओं के नामोल्लेख के साथ दिया है उससे रामसेन के सम्बन्ध में स्पष्ट परिचय तो ज्ञात नहीं होता । ब्रह्मश्रुतसागर ने रामसेन को 'प्रथमाङ्गपूर्व भागज्ञाः' लिखा है जिससे वे अंगपूर्वी के एक देश ज्ञाता जान पड़ते हैं। उनका संघ-गण-गच्छ क्या था और उनके शिष्य-प्रशिष्यादि कौन थे । उन्होंने तत्त्वानुशासन के सिवाय अन्य किन ग्रन्थों की रचना की इसका कोई भी उल्लेख नहीं मिलता । ग्रन्थ प्रशस्तियों पट्टावलियों और शिलालेखादि में भी ऐसा कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता, जिससे उनके सम्बन्ध में विचार किया जा सके और यह ज्ञात हो सके कि नागसेन के शिष्य राममेन की शिष्य परम्परा क्या और कहां थी । रामसेन ने नागसेन को अपना दीक्षा गुरु लिखा है, वे पट्ट गुरु नही थे। उन्होंने अपने चार गुरुयों के नामोल्लेख के साथ दीक्षा गुरु में नाग
१. वाग्गेन्द्रियव्योमसोम - मिते मंवत्सरे शुभे । ( १०५५) सन्थोऽयं सिद्धतां यातः मवली करहाटके ।।
-धर्म रत्नाकर प्रशस्ति
२. देखो, अनेकान्त वर्ष ८ कि ४-५ में अमृतचन्द्र सूरि का समय शीर्षक लेख ( पृ १७३ )
३. सेनगा के राममेन पंडितदेव को, जिन्हें सं० ११३४ की पौष शुक्ला ७ को उत्तरायण संक्रान्ति के दिन चालुक्य वंशीय त्रिभुवनमल्ल के समय गंग पेर्मानडि जिनालय के लिए राजधानी बनगावे में दान दिया गया ।
- भ० सम्प्रदाय पृ० ७
दूसरे रामसेन वे हैं जो नरसिंह पुरा जाति के प्रबोधक एवं संस्थापक थे । तीमरे रामसेन निष्पिच्छ माथुर संघ के संस्थापक ।
इन तीनों राममेनों में से तत्त्वानुशासन के कर्ता रामसेन भिन्न हैं ।
४. देखो, सुत्त पाहुडटीका गाथा २
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
२०८
सेन का नामोल्लेख किया है नागमेन नाम के भी कई विद्वान आचार्य हो गये है ।"
उन सब में वे नागरीन चामुण्डराय के साक्षात् गुरु ग्रजितमेन के प्रगुरु थे । अर्थात् प्रजितसेन के गुरु आर्य सेन (श्रार्यनन्दी) के गुरु थे। और जिनका चामुण्डराय पुराण मे प्राचार्य कुमारमेन के बाद उल्लेख है । चामुण्डराय ने अपने पुराण का निर्माण शक स० ६०० (वि० स० १०३५) में किया है । अतएव नागसेन का समय वि० सं० १००० से कुछ पहले का समझना चाहिए यह नागमेन रामगंन के दीक्षा गुरु हो सकते है । अन्य नागमेन नही । प्रस्तुत राममेन काष्ठा सघ नन्दीनटगच्छ और विद्यागण के प्राचार्य थे। क्योंकि नन्दीतटगच्छ को गुर्वावली में उन्हें 'प्रतिबोधन पण्डित बतलाया है।" नरसिह पुरा जाति के सस्थापक भी थे । अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान तपस्वी प्राचार्य रहे है ।
रामसेन ने प्रशस्ति में अपने चार विद्या गुरुत्रों के नामों का उल्लेख किया है "श्री वीरचन्द्र-शुभदेवमहेन्द्रदेवाः शास्त्राय यस्य गुरवो विजयामरश्च" वीरचन्द्र, शुभदेव, महेन्द्रदेव और विजयदेव | पर इनका अन्य परिचय कहीं से भी उपलब्ध नही होता। हां, महेन्द्र देव का परिचय अवश्य प्राप्त होता है । ये महेन्द्रदेव वही ज्ञान होते है जो नेमिदेव के शिष्य और सोमदेव के बड़े गुरुभाई थे । नेमिदेव के बहुत से शिष्य थे, उनमें से एक शतक शिष्यों के अवरज (अनुज) और एक शतक के पूर्वज सोमदेव थे। ऐसा परभनी के ताम्र शासन (दान पत्र ) से जान पड़ता है । इनमें महेन्द्रदेव प्रमुख विद्वान थे। उन्हें नीतिवाक्यामृत की प्रशस्ति में 'वादीन्द्रकालानल श्रीमन्महेन्द्र
१. नागमेन नाम के ५ विद्वानों का उल्लेख मिलता है—१ वे नागमेन जो दशपूर्व के पाठी थे और जिनका समय विक्रम स० से २५० वर्ष पूर्व है ।
२रे वे नागमेन जो ऋषभसेन के गुरु के शिष्य थे, जिन्होंने सन्यास विधि से श्रवण बेल्गोल के शिलालेख न० (१४) ३४ के अनुसार देवलोक प्राप्त किया था शिलालेख मे ७ विशेषणों के साथ उनकी स्तुति की गई है। शिलालेख का समय शक स० ६२२ (वि० मं० ७५७ ) के लगभग अनुमान किया गया है, पर उसका कोई आधार नहीं बतलाया ।
३रे नागमेन वे हे जो चामुण्डराय के साक्षात् गुरु अजितमेन के प्रगुरु अर्थात् अजितमेन के गुरु आर्यमेन (आर्य नन्दी) के गुरु थे। जिनका चामुण्डराय पुराण में आचार्य कुमारमेन के बाद उल्लेख किया गया है। चामुण्डराय पुराण का निर्माण शक सं० ६०० सन् १७८ (विस० १०३५) में हुआ है। इससे यह नागमेन १० वी शताब्दी के विद्वान जान पड़ते है ।
४थे नागमेन वे हैं जिन्हें रागी अक्कादेवी ने गोगादवेडग जिनालय के लिए सन् १०४७ (वि० स० ११०४ ) में भूमिदान दिया था । यह मूलमंघमेनगण तथा हेगरि (पोगरि) गच्छ के विद्वान आचार्य थे ।
(देखो, जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० १०६ )
५ नागसेन वे हैं, जो नन्दीतट गच्छ की गुर्वावन्नि के अनुसार गगसेन के उत्तरवर्ती और सिद्धान्तमेन तथा गोपसेन के पूर्ववर्ती हुए है। जिनका समय १०वी शताब्दी का मध्य जान पड़ता है ।
२ देखो, पी. वी. देसाई का जैनिज्म इन साउथ इडिया पृ० १३४-३७
३ गममेनोऽतिविदितः प्रतिबोधन पडित ।
स्थापितायेत सज्जानिर्नामिहाभिधा भुवि ॥ २४ ॥ ४. श्री गौड मने मुनिमान् कीर्तिन्नाम्ना यशोदेव इति प्रजज्ञे । बभूव यस्य तपःप्रभावात्ममागमः शामनदेवताभिः ॥१५ शिष्योऽभवनम्य महद्धिभाजः स्याद्वादरत्नाकर पारदृश्वा । श्री नेमिदेवः परवादि दर्पद्रुमावलीच्छेद- कुठारनेमिः ॥१६ तस्मात्तपः श्रियोभत ल्लोकाना हृदयगमाः ।
गुर्वावली काष्ठासंघ नंदीतटगच्छ, अनेकान्त वर्ष १५ किरण ५
बभूवुः बहवः शिष्या रत्नानीव तदाकरात् ॥१७
तेषा शतस्यावरजः शतस्य तथा भवत्पूर्वज एवं धीमान् ।
श्री सोमदेवम्तपमः श्रुतस्य स्थानं यशोधाम गुणोतिश्रीः || १८ ||
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवी शताब्दी के आचार्य देवभट्टारकानुजेन' वाक्य द्वारा महेन्द्र देव का उक्त विशेषण दिया है जिससे वे वादियों के विजेता थे। बहुत सम्भव है कि प्रस्तुत महेन्द्रदेव उनके विद्यागुरु रहे हों । अन्य तोन गुरुया के सम्बन्ध में कुछ ज्ञात नहीं होता। सभव है उस समय के साधु संघ में उक्त नाम के तीन विद्वान भी रामसेन के गुरु रहे हो।
रचना-प्रस्तुत तत्त्वानुशासन ग्रन्थ २५८ सस्कृत पद्यों का महत्वपूर्ण रचना है। इसमें अध्यात्म विषय का प्रतिपादन सुन्दर है वह भाष। ओर विषय दाना हा दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । ग्रन्थ को भाषा जहाँ सरलप्राजल एवं सहज वोध गम्य है, वहां वह विषय प्रतिपादनकी कुशलता को लिये हुए है। ग्रन्थ कारने अध्यात्मजैसे नीरस कठोर और दुर्बोध विषय को इतना सरल एव मुगम बना दिया है कि पाठक का मन कभी ऊब नही सकता। उसमें अध्यात्म रस की फुट जो अकित है। ग्रन्थ में स्वानुभूति से अनुप्राणित रामसेन को काव्य शक्ति चमक उठी है वह अपने विषय की एक सुन्दर व्यस्थित कृति है। जिससे पाठक का हृदय प्रात्म-विभोर हो उठता है । ग्रन्थ में हेय और उपादेय तत्त्व का स्वरूप बतलाते हए बन्ध और बन्ध के हेतों को हेय तथा मोक्ष और मोक्ष के कारणों को उपादेय बतलाया है। कर्म बन्ध के कारण मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र को हेय और दुरगति एवं दःख वाहेत बतलाया है क्योंकि उनमे मोह-या ममकार तथा अहंकार की उत्पत्ति आदि संसार दु:ख के कारणों का संचय होता है इसीसे ऐसा कहा है। और सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र को उपादेय और सुख का कारण बतलाया। क्योकि इन तीनो को धर्म बतलाया है।' आत्मा का मोह क्षोभ से रहित परिणाम धर्म है । और इन तीनों की एकता मोक्ष का मार्ग है। इसी से इन्हें उपादेय कहा है।
कर्म बन्ध की निवृत्ति के लिये ध्यान की प्रावश्यकता बतलाते हुए ध्यान, ध्यान की सामग्री और उसके भेदों आदि का सुन्दर स्वरूप निर्दिष्ट किया है। एकाग्रचित्त से पंच परमेष्ठियों के स्वरूप का चिन्तन स्वाध्याय है आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जो अरहंत को द्रव्यत्व गुणत्व और पर्यायत्व के द्वारा जानता है वह प्रात्मा को जानता है और उसका मोह क्षीण हो जाता है। स्वाध्याय से ध्यान का अभ्यास करे अोर स्वाध्याय से ध्यान का. क्योंकि ध्यान और स्वाध्याय मे परमात्मा का प्रकाश होता है (तत्त्वा०(८१) । ध्यान का विशद विवेचन करते हुये ध्यान की महत्ता और उसका फल बतलाया है ध्यान को निर्जरा का हेतु और संवर का कारण बतलाया है। ध्यान की स्थिरता के लिये मन और इन्द्रियों का दमन पावश्यक है। इन्द्रिय की प्रवृत्ति में मन ही कारण है। मन की सामर्थ्य से इन्द्रियां अपना कार्य करती है, अतएव मन का जोतना जरूरी है । ज्ञान वैराग्य रूप रज्ज (रस्सी) से उन्मार्गगामी इन्द्रिय रूप अश्वों (घोड़ों) को वश में किया जाता है, क्योंकि इन्द्रियोंका असंयम आपत्ति का कारण है और उनका जीतना या वश में करना सम्पदा का मार्ग है । अतएव उनका नियमन जरूरी है। मन का व्यापार नष्ट होने पर इन्द्रियों को प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है। जिस तरह वृक्ष की जड़ के विनष्ट होने पर पत्ते भी नप्ट हो जाते हैं। मन को जीतने के लिये स्वाध्याय में प्रवृत्त होना चाहिए। और अनुत्प्रेक्षामों (भावनामों) का चिन्तवन करना चाहिए। इससे मन को स्थिर करने में सहायता मिलती है। इस तरह यह अपने विषय को महत्व पूर्ण कृति हैं, इसका मनन करने से आत्मज्ञान की वृद्धि होती है। स्वाध्याय प्रेमियों के लिये अत्यन्त उपयोगी है।
१. सदृष्टि ज्ञान वृत्तानिधर्म धर्मेश्वगः विदुः ।
रत्नकरण्ड थावकाचार २. तद् ध्यान निर्जरा-हेतु सवरम्य च कारणम् ( तत्त्वानुशासन ५६ ३. इन्द्रिायणा प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मनः प्रभुः ।
मनएव जयेत्तस्माज्जिते तस्मिन् जितेन्द्रियः ॥७६।।तत्त्वानु० ४. ज्ञान-वैराग्य-रज्जुभ्यां नित्यमुत्पथवर्तिनः :
जित चित्तेन शक्यन्ते धतु मिन्द्रियवाजिनः ।। तत्वा० ७७ ५. रट्टे मणवावारे विसएसुण जति इंदिया सव्वे ।
छिण्णे तरुम्स मूले कत्तो पुण पल्लवा हुसि ।। ६६आराधनासार
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
रचना काल
रामसेन ने अपने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया और न उसके रचना स्थान प्रादि का ही उल्लेख किया है इससे ग्रन्थ के रचना काल पर प्रकाश डालने के लिये कठिनाई उपस्थित होती है । ग्रन्थोल्लेखों, प्रशस्तियों शिलालेखों और ताम्रपत्रादि में भी ऐसा कोई उल्लेख उपलब्ध नही होता । जिससे ग्रन्थ के रचना काल पर प्रकाश पड़ता । अतएव अन्य साधन सामग्री पर से रचना काल पर विचार किया जाता है ।
जिनसेनाचार्य के शिष्य गुणभद्राचार्य द्वारा रचित उत्तरपुराण के ६४वें पर्व में भगवान कुन्थुनाथ के चरित को समाप्त करते हुए निम्न पद्य दिया है: -
देह ज्योतिषि यस्य शक्र सहिताः सर्वेपि मग्नाः सुराः । ज्ञान ज्योतिषि पंच तत्त्व सहितं मग्नं नभश्चाखिलम् । लक्ष्मी धाम दधद्विधूत विततध्वावन्तः सधामद्वयपंथानं कथयत्वनन्तगुणभृत् कुन्युर्भवान्तस्य वः ॥५५
इस पद्य के साथ तत्त्वानुशासन के अन्तिम निम्न पद्य का अवलोकन कीजिए:-- देहज्योतिषि यस्य मज्जति जगत् दुग्धाम्बुराशाविव ज्ञानज्योतिषि च स्फुटत्यतितरामो भूर्भुवः स्वस्त्रयी । शब्द- ज्योतिषि यस्य दर्पण इव स्वार्थश्चकासन्त्यमी । स श्रीमानमराचितो जिनपतिज्योतिस्त्रयायाऽस्तु नः ॥ २५६
इस पद्य में उत्तर पुराण के पद्य से जहां महत्व की विशेषता का दर्शन होता है वहां उसके प्रांशिक अनुसरण का भी पता चलता है और यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि तत्त्वानुशासनका रके सामने अथवा उनकी स्मृति में उक्त पथ को रचते समय उत्तर पुराण का उक्त पद्य रहा है। इसी तरह का अनुसरण तत्त्वानुशासन के १४८ पद्य में गुणभद्राचार्य रचित ग्रात्मानुशासन के २४३ वे पद्य का भी देखा जाता है। दोनों पद्य इस प्रकार है:
मामन्यमन्यं मां मत्वा भ्रान्तो भ्रान्तौ भवार्णवे । नान्योऽह महमेवाऽह मन्योऽन्योन्योऽह मस्ति न ॥
नान्योऽस्मि नाहमस्त्यन्यो नाऽन्यास्या ऽहं न मे परः । अन्यस्त्वन्योऽह मेवाsह मन्योऽन्यस्याऽह मेव मे ।। १४८
आत्मानुशासन
तत्त्वानुशासन
१
इससे स्पष्ट है कि रामसेन के सामने गुणभद्राचार्य का आत्मानुशासन भी रहा है। प्राचार्य गुणभद्र का समय विक्रम की १०वीं शताब्दी का पूर्वार्ध पाया जाता है; क्योंकि उत्तर पुराण की अन्तिम प्रशस्ति के २८ पद्य से ३७ वें पद्य तक गुणभद्राचार्य के प्रमुख शिष्य लोकमेन कृत प्रशस्ति में उसका समय शक सं० ८२०, सन् ८३८ ( वि० सं० ६५५ ) दिया है, यह उसके रचना काल का समय नही है किन्तु उत्तर पुराण के पूजोत्सव का काल है, जैसा कि उसके निम्न वाक्य- "भव्यः वर्यैः प्राप्तेज्यं सर्वसारं जगति विजयते पुण्यमेतत्पुराणम्" --से जाना जाता है । पूजोत्सव का यह समय रचना काल से अधिक बाद का मालूम नहीं होता । यदि उसमें से पांच वर्ष का समय ग्रन्थ की लिपि आदि का निकाल दिया जाय तो शक सं० ८१५ ( वि० सं० १५० ) के लगभग उत्तर पुराण का रचना काल निश्चित होता है। इस तरह तत्त्वानुशासन के निर्माण समय की पूर्व सीमा वि० सं० ५० स्थिर हो जाती है । इससे पूर्व की वह रचना नहीं है । किन्तु दशवीं शताब्दी के अन्तिम चरण की जान पड़ती है । जयसेन के धर्मरत्नाकर के 'सामायिक प्रतिमा-प्रपंचन' नामक १५वें अवसर में तत्त्वानुशासन के निम्न पद्य को अपने ग्रन्थ का अंग बनाया गया है, जो तत्त्वानुशासन का १०७वां पद्य हैः
१. शकन्टपकालाभ्यन्तर विशत्यिधिकाष्ट शतमिताब्दान्ते ।
मङ्गल महार्थकारिणि पिङ्गलनामनि समस्तजन सुखदे ||३५|| - उत्तर पुराण प्रश ०
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
२११ प्रकारादि हकारान्ता मंत्राः परमशक्तयः ।
स्वमंडलगताः ध्येया लोकद्वयफलप्रदाः॥ धर्म रत्नाकर का रचना काल स० १०५५ है ।' अतः तत्त्वानुशासन इससे पूर्ववर्ती रचना है:प्राचार्य अमितगति द्विनोय के उपासकाचार में एक पद्य निम्न प्रकार पाया जाता है:
अभ्यस्यमानं बहुधास्थिरत्वं यथति दुर्बोध मयीह शास्त्रम्। शूनं तथा ध्यान मपीतिमत्वा ध्यानं सदाभ्यस्तु मोक्तु कामः ॥
उपासकाचार १०-१११ ध्यान विषय की प्रेरणा करने वाला यह पद्य तत्त्वानुशासन के निम्न पद्य से प्रभावित तथा अनुसरण को लिये हुए है:
यथाभ्यासेन शास्त्राणि स्थिराणि स्युर्महान्त्यपि ।
तथा ध्यानमपि स्थैर्य लभतेऽभ्यास वर्तिनाम् ।।८८ इन. अमितगति द्वितीय के दादा गुरु अमितगति ( प्रथम ) द्वारा रचित योगसार प्राभूत १६ वें अधिकार में एक पद्य निम्न प्रकार से उपलब्ध होता है।
येन येनैव भावेन युज्यते यंत्रवाहकः।
तन्मयस्तत्रतत्रापि विश्वरुपो मणियथा ॥५१ यह पद्य तत्त्वानुशासन के १६१ पद्य के साथ साद श्य रखता है:
येन भावेन यद्रपं ध्यायत्यात्मान मात्मवित् ।
तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा ॥१६॥ अमितगति प्रथम का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का प्रथम चरण है। द्रव्य संग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेव ने तत्त्वानुशासन से (८३-८४) ये दो पद्य ग्रन्थ के नामोल्लेख के साथ उद्धत किये हैं। ब्रह्मदेव का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १२वीं का पूर्वार्ध है। इससे स्पष्ट है कि रामसेन अमितगति प्रथम और ब्रह्मदेव ११ वीं शताब्दी से पूर्ववर्ती हैं।
__ तत्त्वानुशासन पर आचार्य अमृतचन्द्र के ग्रन्थों का साहित्यिक अनुसरण एवं प्रभाव परिलक्षित है। तत्त्वार्थसार के ७ वें व पद्यों का तत्त्वानुशासन के ४-५ पद्यों पर स्पष्ट प्रभाव है और साहित्यिक अनुसरण है। इससे तत्त्वानुशासन की रचना अमृतचन्द्राचार्य के बाद हुई है। सप्न तत्त्वों में हेयोपादेय का विभाग करने वाले वे पद्य इस प्रकार हैं:
उपादेय तया जीवो जीवोहेयतयोदितः । हेयस्यास्मिन्नुपादान हेतुत्त्वेनाऽ स्त्रवः स्मृतः ॥७ संवरो निर्जरा हेय-हान-हेतु-तयोदितौ । हेय-प्रहाणरूपेण मोक्षो जीवस्य दशितः ॥ तत्त्वार्थसार बन्धो निवन्धनं चास्य हेयमित्युपदर्शितम् । हेयस्याऽ शेष दुःखस्य यस्माद् बीजमिदं द्वयम् ।। ४ मोक्षस्तत्कारणं चैतदुपादेय मुदाहृतम् ।
उपादेयं सुखं यस्मादस्मादाविर्भविष्यति ॥ तत्त्वानुशासन । निश्चय और व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग के दो भेदों का प्ररूपक तथा उनमें साध्य-साध्यनता-विषयक पद्य भी साहित्यिक अनुसरण को लिये हुए पाया जाता है ।
१. बाणेन्द्रिय व्योम सोम-मिते सवत्सरे शुभे । (१०५५)
अन्योऽय सिद्धता यातिः सबलीकरहाटके ।। -धर्मग्लाकर प्रश०
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
आचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की १० वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। पट्टावली में उनके पट्टारोहण का समय जो वि० सं० ६६२ दिया है, वह ठीक जान पड़ता है; क्योंकि सं० १०५५ में बनकर समाप्त हुए 'धर्मरत्नाकर' में अमृतचन्द्राचार्य के पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय से ६० पद्य के लगभग उद्धृत पाये जाते हैं।' इससे अमृतचन्द्र सं० १०५५ से पूर्ववर्ती हैं। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अमृतचन्द्र का समय १० वीं शताब्दी तृतीय चरण बतलाया है मोर रामसेन का १० वीं शताब्दी का चतुर्थ चरण है ।
२१२
इन्द्रनन्दी ( ज्वालामालिनी ग्रन्थ के कर्ता)
प्रस्तुत इन्द्रनन्दी योगीन्द्र वे हैं जो मंत्र शास्त्र के विशिष्ट विद्वान थे । यह वासवनन्दी के प्रशिष्य और बप्पनन्दी के शिष्य थे । इन्होंने हेलाचार्य द्वारा उदित हुए अर्थ को लेकर 'ज्वालिनी कल्प' नाम के मंत्र शास्त्र की रचना की है । इस ग्रन्थ में मन्त्रि, ग्रह, मुद्रा, मण्डल, कटु, तेल, वश्यमंत्र, तन्त्र, वपनविधि, नीराजनविधि और साधन विधि नाम के दस अधिकारों द्वारा मंत्र शास्त्र विषय का महत्व का कथन दिया हुआ है । इस ग्रन्थ की प्राद्य प्रशस्ति के २२वें पद्य में ग्रन्थ रचना का पूरा इतिवृत्त दिया हुआ है । और बतलाया है कि देवी के प्रदेश से 'ज्वालिनीमत, नाम का ग्रन्थ हेलाचार्य ने बनाया था । उनके शिष्य गंगमुनि, नीलग्रीव और वीजाब हुए । आर्यिका क्षांतिरसव्वा और विरुवट्ट नाम का क्षुल्लक हुआ । इस तरह गुरु परिपाटी और अविच्छिन्न सम्प्रदाय से प्राया हुआ उसे कन्दर्प ने जाना और उसने गुणनन्दी नामक मुनि के लिये व्याख्यान किया, और उपदेश दिया । उनके समीप उन दोनों ने उस शास्त्र को न्यतः और अर्थतः इन्द्रनन्दी मुनि के प्रति भले प्रकार कहा । तब इन्द्रनन्दि ने पहले क्लिष्ट प्राक्तन शास्त्र को हृदय धारण कर ललित आर्या और गीतादिक में हेलाचार्य के उक्त अर्थ को ग्रन्थ परिवर्तन के साथ सम्पूर्ण जगत को विस्मय करने वाला जनहितकर ग्रन्थ रचा । अतएव प्रस्तुत इन्द्रनन्दी विक्रम की दशवीं शताब्दी के उपान्त्य समय के विद्वान हैं। क्योंकि इन्होंने ज्वालामालिनी कल्प की रचना शक सं० ८६१ सन् ६३६ ( वि० सं० ६६६ में बनाकर समाप्त किया था।
गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने इन्द्रनंदि का गुरु रूप से स्मरण किया है । ये इन्द्रनंदि वही जान पड़ते हैं । जिनके दीक्षा गुरु बप्पनन्दी और मंत्रशास्त्र गुरु गुणनन्दी और सिद्धान्त शास्त्र गुरु श्रभयनंदी हो
१. अनेकान्त वर्ष ८ किरण ४-५ में प्रकाशित अमृतचन्द्र सूरिका समय पृ० १७३
२. यद् वृत्तं दुरितारिसन्यहनने चण्डासि धारायितम् चित्तं यस्य शरत्सरत्सलिलवत्स्वच्छं सदाशीतलम् । कीर्तिः शारद कौमुदी शशिभूतो ज्योत्स्नेव यस्याऽमला स श्री वासवनन्दि सन्मुनिपतिः शिष्यस्तदीयो भवेत् ||२|| शिष्यस्तस्य महात्मा चतुरनुयोगेषु चतुरमति विभवः । श्री प्रदिगुरु रिति बुधमधुपनिषेवित्पदाब्जः ॥ ३ लोके यस्य प्रसादाद्जनि मुनिजनस्तत्पुराणार्थवेदी । यस्याशास्तंभ मूर्धन्यति विमलयशः श्री विताना निबद्धः । कालास्तायेन पौराणिक कविवृषभ । द्योतितास्तत्पुराणव्यख्यानाद् बप्पणंदि प्रथितगुण-गणस्तस्य किं वर्ण्यतेऽत्र ॥ २
३. अष्टशतस्यैकपष्ठि प्रमारणशकवत्सरेष्वतीतेषु । श्रीमान्यखेट कंटके पर्व ण्यक्षय तृतीयायाम् ॥ शतदलसहित चतुःशत परिमाणग्रन्थ रचनयायुक्तम् श्रीकृष्णराज राज्ये समाप्तमेतन्मत देव्याः ||
देखो ज्वालामालिनी कल्प कारंजाभंडार प्रशस्ति । जैन साहित्य संशोधक खण्ड २ अंक ३, पृ० १४-१५६
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
२१३ जाते हैं। यदि यह कल्पना ठीक है तो नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के गरु इन्द्रनंदी का ठीक पता चल जाता है। समय की दृष्टि से भी नेमिचन्द्र और इन्द्रनंदी का सामंजस्य बैठ जाता है । इन्द्रनंदी ने इस ग्रन्थ की रचना मान्यखेट (मलखेडा) के कटक में राजा श्रीकृष्ण के राज्यकाल में शक संवत ८६१ (सन् ६३६) में की थी।
गुरुदास गुरुवास-यह कौण्ड कुन्दान्वयी श्रीनंदनंदी के शिप्य और श्रीनंदीगुरु के चरण कमलों के भ्रमर थे, जिन्हें जीत शास्त्र (प्रायश्चित्य शास्त्र) में विदग्ध और सिद्धान्तज्ञ बतलाया है । वे गुरुदास के पूर्ववर्ती बड़े गुरु भाई के रूप में हुए हैं। वृषभनंदी गुरुदास से भी उत्तरवर्ती हैं। गुरुदास को तीक्ष्णमती और सरस्वतीसूनु लिखा है। वे बड़े भारी विद्वान और ग्रंथकर्ता थे । वृषभनंदी ने जीतसार समुच्चय में लिखा है कि
श्रीनंदनन्दिवत्सः श्रीनंदिगुरुपदाब्ज-षट्चरणः ।
श्रीगुरुदासोनंद्या तीक्ष्णमतिः श्री सरस्वती सूनुः ॥ इनके द्वारा बनाया हुआ चूलिका सहित प्रायश्चित ग्रंथ अपूर्व रचना है। गुरुदास ने अपना कोई समय नहीं दिया । परन्तु जान पड़ता है कि गुरुदास विक्रम की दशवीं शताब्दी के उपान्त्य समय और ११वीं शताब्दो के पूर्वार्ध के विद्वान हैं।
बाहुबलिदेव यह व्याकरण शास्त्र के विद्वान प्राचार्य थे। उस समय रविचन्द्र स्वामी, अर्हनंदी, शुभचन्द्र भट्टारक देव, मौनीदेव, और प्रभाचंद्र नाम के मुनिगण विद्यमान थे। शाका ६०२ (वि० सं० १०३७) में राजा शान्तिवर्मा ने प्राचार्य बाहुबलिदेव के चरणों में सुगंधवर्ती (सौन्दत्ति) के जैन मंदिरों के लिये १५० एक सौपचास मत्तर भूमि प्रदान की थी।
भुवनैक मल्ल चालुक्य वंशीय सत्याश्रय के राज्य में लट्टलूरपुर के महामण्डलेश्वर कातिवीर्य द्वि० सेन प्रथम के पुत्र थे। उस समय रविचंद्र स्वामी और अर्हनन्दी मौजूद थे।
कनकसेन यह कुमारसेन के प्रशिप्य और वीरसेन के शिष्य थे। इन्हें श्रीकृष्ण वल्लभ के सामन्त विनयाम्बूधि के प्रदेश धवल में मूल्लगुन्द नगर के जिन मंदिर के लिये, जिसे चदार्य के पुत्र चिकार्य ने बनवाया था। अरसार्य ने दान दिया था। इस दान का उल्लेख सेनवंश के मूलगुन्द के शक सं० ८२४ (वि० सं० ६५६) के लेख में हुआ है। जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रगट है
शकनृपकालेष्टशते चतुरुत्तरविशदुत्तरे संप्रगते । दुंदुभिनामनि वर्षे प्रवर्तमाने जनानुरागोत्कर्षे ॥
सर्वनन्दि भट्टारक यह कुन्दकुन्द आम्नाय के विद्वान थे। इनके समय का एक शिलालेख मिला है जिसमें कुन्दकुन्दमाम्नाय के (मिटी के पात्र धारी ) भट्टारक के शिष्य सर्वनन्दि भट्टारकने कोप्पल के पहाड़ पर निवासकर वहां के लोगों को अनेक उपदेश दिये । और बहुत समय तक कठोर तपश्चरण कर सन्यास विधि से शरीर का परित्याग किया। पर शिलालेख शक सं०८०३ (वि० सं०६३८) का है। इससे ये विक्रम की दशवीं शताब्दी के प्राचार्य थे।
१. (See Indian Antiquary V. IV p. 279-80) २. जैन लेख सं० भा० २ पृ० १५८-६ ३. (See Jainism in South India p. 424
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग - २
नागवर्म प्रथम
नागवर्म नाम के दो कवि हो गए है। एक छन्दोम्बुनिधि और कादम्बरी का रचयिता और दूसरा काव्यावलोकन, वस्तु कोश और कर्नाटकभाषा भूषणादि ग्रन्थों का कर्ता ।
1
इनमें प्रथम नागवर्म वेंगीदेशके बेंगीपुर नगर के रहने वाले कौंडिय्य गोत्रीय बेन्नामय्य ब्राह्मण का पुत्र था । इसकी माता का नाम पोलकव्ये था। इसने अपने गुरु का नाम श्रजितसेनाचार्य बतलाया है । रक्कसगंगराज जिसने ईसवी सन् ६८४ से ६६६ तक राज्य किया है और जो गंगवंशीय महाराज राचमल्ल का भाई था, इसका पोषक था । चामुंडराय की भी इस पर कृपा रहती थी । कवि होकर भी यह बड़ा वीर और युद्ध विद्या में चतुर था। कनड़ी में इस समय छन्द शास्त्र के जितने ग्रन्थ प्राप्य हैं उनमें इसका 'छन्दोम्बुनिधि' सबसे प्राचीन माना जाता है । यह ग्रन्थ कवि ने अपनी स्त्री को उद्देश्य करके लिखा है । इसका दूसरा ग्रन्थ बाणभट्ट के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ' कादम्बरी' का सुन्दर पद्यमय अनुवाद है । पर ग्रन्थों के मंगलाचरण में न जाने शिवादि की स्तुति क्यों की है ?
इसका समय ईसा की १०वीं शताब्दी है ।
२१४
नागवद्वितीय
नागव दूसरा - यह जातिका ब्राह्मण था । इसके पिता का नामदामोदर था । यह चालुक्य नरेश जगदेक मल्लका सेनापति और जन्न कवि का गुरु था । कनड़ी साहित्य में इसकी 'कवितागुणोदय' के नाम से ख्यात है । अभिनव शर्ववर्म, कविकर्णपूर और कविता गुणोदय ये उसकी उपाधियाँ थी । वाणिवल्लभ, जन्न, साल्व यादि कवियों ने इसकी स्तुति की है। इसके बनाये हुए काव्यावलोकन कर्णानाटक भाषा भूषण, और वस्तु कोश ये तीन ग्रन्थ हैं । इसमें पांच अध्याय हैं। पहले भाग में कनड़ी का व्याकरण है । नृपतुंग ( अमोघवर्ष) के अलंकार शास्त्र की अपेक्षा यह विस्तृत है । कर्णाटक भाषा भूषण संस्कृत में भाषा का उत्कृष्ट व्याकरण है । मूलसूत्र और वृत्ति संस्कृत में है ।
उदाहण कड़ी में । उपलब्ध कनड़ी व्याकरणों में- जो कि संस्कृत सूत्रों में है - यह सबसे पहला और उत्तम व्याकरण है । इसी को आदर्श मान कर सन् १६०४ में भट्टाकलंक (द्वितीय) ने कनड़ी का शब्दानुशासन नामका विशाल व्याकरण संस्कृत में बनाया है । यह व्याकरण मैसूर सरकार की ओर से छप चुका है । वस्तु कोश कनड़ी में प्रयुक्त होने वाले संस्कृत शब्दों का अर्थ बतलाने वाला पद्यमय निघण्टु या कोश है । वररुचि, हलायुध, शाश्वत, अमरसिंह आदि के ग्रन्थ देखकर इसकी रचना की गई है । इसका समय ११३६ ई० से ११४९ ईस्वी है ।
प्राचार्य महासेन
यह लाड़ बागड संघ के पूर्णचन्द्र, प्राचार्य जयसेन के प्रशिष्य और गुणाकर सेनसूरि के शिष्य थे । प्राचार्य महासेन सिद्धान्तज्ञ, वादी, वाग्मी और कवि थे, तथा शब्दरूपी ब्रह्म के विचित्र धाम थे । यशस्वियों द्वारा मान्य और सज्जनों में अग्रणी एवं पाप रहित थे और परमार वंशी राजा मुंज के द्वारा पूजित थे। ये सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की सीमा स्वरूप थे, और भव्यरूपी कमलों को विकसित करने वाले बान्धव थे - सूर्य थे । तथा सिन्धुराज के महामात्यपर्पट द्वारा जिनके चरण कमल पूजित थे उन्हीं के अनुरोध से कवि ने प्रद्युम्न चरित की रचना की है । और राजा के अनुचर विवेकवान मधन ने इसे लिखकर कोविद जनों को
१. तच्छिष्यो विदिता ग्विलोरुसमयो वादी च वाग्मी कविः शब्दब्रह्मविचित्रधामयशसां मान्यां सतामग्ररणीः । श्रासीत् श्री महासेनसूरिरनघः श्रीमुरं जगजाचितः ॥ सीमा दर्शनबोधप्रत्ततपसां भव्याब्जनीवान्धवः ||३
२. श्री सिन्धुराजस्य महत्तमेन श्री पर्पटेनाचितपादपद्मः ।
चकार तेनाभिहितः प्रबन्धं स पावनं निष्ठित मङ्गजम्य ॥ प्रद्य ुम्न चरित प्रशारित
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
२१५
दिया।
आपकी कृति 'प्रद्युम्न चरित' नामक महाकाव्य है। जिसके प्रयेत्क सर्ग की पुष्पि का में-'श्रीसिन्धुराज सत्क महामहत्तम श्री पर्पट गुरोः पंडित श्रीमहासेनाचार्यस्य कृते । वाक्य उल्लिखित मिलता है जिससे स्पष्ट है कि पर्पट महासेन के शिष्य थे। और जैन धर्म के संपालक थे। यह एक सुन्दर काव्य-ग्रन्थ है। इस में १४ सर्ग हैं, जिनमें श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न कुमार का जीवन परिचय अंकित किया गया है, जो कामदेव थे। जिसे कवि ने ससारविच्छेदक बतलाया है। इसकी कथा वस्तु का आधार स्रोत हरिवंश पुराण है। हरिवंश पुराण में यह चरित ४७वें सग के २०वें पद्य से ४८वें सर्ग के ३१वें पद्य तक पाया जाता है। काव्य का 'कथा भाग बड़ा ही सुंदर रस और अलकारों से अलंकृत है । इस ग्रन्थ में उपजाति, वंशस्थ शार्दूलविक्रीडित, रथोद्धता, प्रहर्षिणी, द्रुतविलम्बित, पृथ्वी, अनुष्टुभ, उपेन्द्रवज्रा, हरिणी, स्वागता, मालिनी, ललिता, शालिनी, और वसन्ततिलका आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है । कथा का नायक पौराणिक व्यक्ति है परन्तु उसका जीवन अत्यन्त पावन रहा है।
कवि महासेन ने ग्रंथ में रचना काल नहीं दिया,किन्तु शिलालेखों आदि पर से मूज और सिन्धल का काल निश्चित है। राजा मंज के दो दानपत्र वि० सं० १०३१ और १०३६ के मिले हैं। सं० १०५० और सं० १०५४ के मध्य किसी समय तैलपदेव ने मंज का वध किया था। इन्हीं राजा मुंज के समय १०५० में अमितगति द्वितीय ने अपना सुभाषितरत्नसन्दोह समाप्त किया था। अतः यही समय आचार्य महासेन का होना चाहिए। यह ईसा की १०वीं शताब्दी के प्राचार्य हैं।
आदि पंप इनका जन्म सन् ०२ में ब्राह्मण कुलमें हुआ था। पिता का नाम अभिरामदेवराय था। जो पहले वेदानुयायी था और बाद को वह जैनधर्म का उपासक हो गया था। यह पूलिगेरी चालुक्य राजा अरिकेशरी का दरबारी कवि और सेनापति था। और कनड़ी भाषा का श्रेष्ठ कवि समझा जाता था। इसकी दो कृतियां उपलब्ध हैं। एक आदि पुराण और दूसरा भारतचम्पू । आदि पुराण गद्य-पद्यमय चम्पू है, जिसे कवि ने ३६ वर्ष की अवस्था में तीन महीने में बनाकर समाप्त किया था। ग्रन्थ में १६ परिच्छेद या अध्याय हैं। इस ग्रन्थ का गद्य ललित, हृदयंगम, गंभीराशय और भावपूर्ण है और पद्य मोती की लड़ियों के समान है। भाषा शैली सर्वोत्कृष्ट है। इस र समन्तभद्र, कवि परमेष्ठी, पूज्यपाद, गृद्धपिच्छाचार्य, जटाचार्य, श्रुत कीर्ति, मलधारि, सिद्धान्त मुनीश्वर, देवेन्द्र मुनि, जयनंदि मुनि और अकलंक देव का उल्लेख किया है।
कवि की दूसरी कृति भारतचम्पू है जिसे कवि ने छह महीने में बनाकर पूर्ण किया था। इसमें १४ प्राश्वास हैं। जिसमें पाण्डवों के जन्म से लेकर कौरवों के वध तक की घटना अंकित है। और राज्याभिषेक हो चकने पर ग्रन्थ समाप्त किया गया है। यह ग्रन्थ कनड़ी साहित्य में वे जोड है इसमें कवि को आश्रय देने वाले राजा अरिकेसरी का पर्जन के साथ साम्य दिखलाया गया है। इस ग्रन्थ की रचना से प्रसन्न होकर अरिकेसरी ने कवि को बच्चे सासिर' प्रान्त का 'धर्मपूर नाम का एक ग्राम भेंटस्वरूप दिया था। कवि ने यह ग्रन्थ शक सं० ८६३ सन १४१ और वि० सं०६६८) में बनाकर समाप्त किया था। अतः कवि दशवीं शताब्दी के विद्वान है।
कवि पौन्न पौन्न कनड़ी भाषा का प्रसिद्ध कवि हुआ है। कवि चक्रवर्ती, उभयचक्रवर्ती, सर्वदेव कवीन्द्र और सौजन्य कुन्दांकुर आदि इसकी उपाधियां थीं। इसके गुरु का नाम इन्द्रनंदि था। कन्नड़ साहित्य में पम्प, पौन्न और रन्न ने
३. श्री भूयतेरनुचरो मघनो विवेकी शृगार भावधनसागररागसारं । काव्यं विचित्र परमादभूतवर्ण-गुम्फं संलेख्य कोविद जनाय ददौ मुवृत्तं ॥६
वही प्रशस्ति
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
२९६
साधारण ख्याति पाई है। पौन्न तो बाण की बराबरी करते हैं। नयसेन ने अपने धर्मामृत के ३६ वें पद्य के निम्न वाक्य द्वारा 'प्रसगन देसि पोन्नत महोत्तन तिवेत्त वेडगुं,, - प्रसग और पौन्न का नामोल्लेख किया है । पौन्न ने स्वयं शान्तिनाथ पुराण (६५० ई०) में कन्नड़ कविता में अपने को — 'कन्नडक वितेयोल श्रसगम्, वाक्य द्वारा असग के समान होना बतलाया है। राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय ने जिसका दूसरा नाम अकालवर्ष था। इनका राज्य काल शक सं० ८६७ से ८९४, (सन् ६४५ से ६७२) तक था । इसे उभयकवि चक्रवर्ती का सम्मान सूचक पद प्रदान किया था, ऐसा जन्न के यशोधर चरित्र से जो ईस्वी सन् १२०६ में बना है मालूम होता है दुर्गसिंह (सन् १९४५ )
एक पद्य से भी इसका साक्ष्य मिलता है । इसके बनाये हुए शान्तिनाथ पुराण और जिनाक्षर माला ये दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं । शान्तिनाथ पुराण, जिसमें सोलहवें तीर्थकर का जीवन वृत्त अंकित है । गद्य-पद्य मय चम्पूकाव्य है । इसके बारह प्रश्वास हैं । इस ग्रन्थ को कवि पुराण चूड़ामणि भी कहते हैं। इसकी विता बहुत ही सुन्दर है ।
वेंगी देश के कम्मेनाडिका पंगनूर नामक गांव के रहने वाले कौंडिन्य गोत्रोद्भव नागमय्य नामक, जैन ब्राह्मण के मल्लय और पुन्निमय्य नाम के दो पुत्र थे जो बाद में तलपदेव के सेनापति हो गये थे । अपने गुरु जिनचन्द्र देव के प्रति परोक्ष विनय प्रगट करने के लिए कवि पौन्न से शांतिनाथ पुराण बनाने का अनुरोध किया था। उन्हीं के अनुरोध से इस ग्रन्थ की रचना हुई है ऐसा ग्रन्थ प्रशस्ति पर से ज्ञात होता है ।
जिनाक्षर माला छोटी-सी स्तवनात्मक कविता है । जो वर्णानुक्रम से बनाई गई है । शान्तिनाथ पुराण के अन्त के एक पद्य से मालूम होता है कि इस कवि के बनाये हुए दो ग्रन्थ और हैं। एक राम कथा या भुवनं क रामाभ्युदय और दूसरा गतवाद । यह दूसरा ग्रन्थ संस्कृत में है । कोई-कोई विद्वान इनका बनाया हुआ अलंकार ग्रन्थ भी बतलाते हैं परन्तु ये तीनों ग्रन्थ अनुपलब्ध है । प्रजितपुराण के एक पद्य से ज्ञात होता है कि पम्प, पौन्न और रन्न तीनों कवि कन्नड़ साहित्य के रत्न हैं । पौन्न कवि की उत्तरवर्ती जैन-जैनेतर कवियों ने बहुत प्रशंसा की है। पार्श्व पण्डित ( ई० सन् १२०६ ), नयसेन (१११२), नागवर्म (१९४५) रुद्रभट्ट (१९८०) केशिराज (१२६०) मधुर (१३८०) आदि । इन कवियों के कन्नड़ी ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद होना श्रावश्यक है जिससे हिन्दी भाषी जनता भी उससे लाभ उठा सके। चूंकि कवि ने अपना शान्तिनाथ पुराण सन् ६५० ई० में बनाया था । श्रतः • कवि का समय १०वीं शताब्दी है ।
कवि रत्न
रन्न कवि का जन्म सन् ६४६ ईस्वी में 'मुदुबोल' नाम के ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम जिनवल्लभेन्द्र मौर माता का नाम अव्वलब्बे था । यह जैनधर्म के संपालक वैश्य (वनिया ) थे । प्रार्थिक स्थिति कमजार होने के कारण अपना जीवन निर्वाह चूड़ी बेच कर करते थे । इस कारण वे अपनी संतान की शिक्षा का उचित प्रबन्ध नहीं कर पाते थे । किन्तु रन्न जन्म से ही होनहार, सुभग चारित्रवान और उत्तम प्रकृतियों का धनी था । वह मेधावी और भाग्यशाली था । इसको देखते ही अनजान आगन्तुक भी अपनाने लग जाते थे । वह पड़ोसियों के लिये अत्यन्त प्रिय था । उसके माता-पिता का उस पर अपार प्रेम था । उसकी ग्रहण-धारण की शक्ति और प्रतिभा बाल्यकाल से ही आश्चर्य जनक थी। उसने बाल्यकाल में अपना समय अध्ययन में व्यतीत किया था । कुमार अवस्था में भी उसकी विशेष रुचि अध्ययन की ओर थी। आर्थिक परिस्थिति ठीक न होने पर भी उसने अपनी हिम्मत नहीं हारी । किन्तु वह दृढव्रती रह अपने उद्देश्य की पूर्ति करने के प्रयत्न में संलग्न रहता था ।
एक दिन वह घर से बंकापुर चला गया। उस समय बंकापुर विद्या का केन्द्र बना हुआ था। वहां कई विद्यालय थे, जिनमें शिक्षा दी जाती थी। वह अजितसेनाचार्य के पास पहुँचा, उनके दर्शन कर उसका मन हर्षित हुआ, उसने उन्हें नमस्कार किया । आचार्य ने पूछा तुम्हारा क्या नाम है और यहाँ किस लिये आये हो । उसने कहा, भगवन् ! मेरा नाम रन्न है और यहां विद्याध्ययन करने की इच्छा से आया हूँ । प्राचार्य ने उसकी रुचि विद्याध्ययन की देख उसकी सब व्यवस्था करा दी । रन्न मेधावी और परिश्रमी छात्र था, उसने बड़ी लगन से वहाँ सिद्धान्त
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवी-दसवी शताब्दी के आचार्य
२१७ काव्य, छन्द, अलंकार, कोश और महाकाव्यो का अध्ययन किया। विद्याध्ययन से उसकी बुद्धि शान पर रखे हुए रत्न के समान चमक उठी । प्रतिभा सम्पन्न विद्वान देखकर आनार्य के हर्ष का ठिकाना न रहा।
प्राचार्य ने गगराज के मंत्री चामुण्डराय से उसका परिचय कराया। भामुण्डाय गुणीजनों के प्राश्रय
उन्होने तीक्ष्ण बुद्धि और प्रतिभा सम्पन्न गुनक को पाकर उसकी सहायता की। वे इसके पोषक थे। अब कवि राज्य मान्य था और राजा की और में उगे मूर्वणदण्ड, चवंर, छत्र' हापी गके साथ चलते थे। इसकी कविरत्न, कविचक्रवर्ती, कविकजगकश और उभयभाषाकवि उपाधिया धी। पवि रन्न न अपनी काव्यकला, कोमल कल्पना, चारू चिन्ता प्रोरप्रस्फुटित प्रतिभा प्रौर प्रमाद गण यत्न गनी के कारण उनकी कालीन कन्नड विद्वानों पर प्रभता छा गई थी। इससे उसे असाधारण स्याति मिली। कवि की उस समय दापतिया उपलब्ध है। एक का नाम 'अजितपुराण, और दूसरी कृति का नाम माहस भीम विजय या गदायुद्ध है।
अजित पुराण में जेनियो के दूसरे तीर्थकर अजितनाथ वा जीवन परिचय १२ आश्वासों में अंकित है। यह गद्य पद्यमय चम्पू ग्रन्थ है जिसे काव्यरत्नपार पूराण तिलक भी कहते है। विनग ग्रन्थ की रचना शक स०६१५ (सन् ६६३ ई.) वि०म० १०५० मे बनाकर समाप्त की थी। कवि कहता है कि जम तरह मै इस ग्रन्थ की रचना मे 'वैश्यवशध्वज' कहलाया, उसी तरह आदिपुराण को रवना के कारण प१ 'ब्राह्मणवशध्वज' कहलाया था।
तैलपदेव (६७३-६६७) के दो मेनापति थे। मन्ना और पुण्यमय्य : नमे मे पुण्यमय्य तो अपने शत्रु गोविन्द के साथ लडकर कावेरी नदी के तट पर मारा गया। पोर मल्लग लिप: स्वर्गवासी होने के बाद पाहव मल्ल के राजा होने पर (सन् १९७ मे १००८ दस सौ पाठ) तक पुग्याधिकारी हुआ। इसकी प्रतिमब्बे नाम की एक सुन्दर कन्या थी, जो चालुक्य चक्रवर्ती के महामत्री दल्लिप के पुत्र नागदेव को विवाह भी। नागदेव बालकपन से बड़ा साहसी और पराक्रमी हुआ। अतएव चालुक्य नरेश पाहव मल्ल ने प्रसन्न होकर इसे अपना प्रधान सेनापति बनाया। यह अनेक युद्धो मे अपना पराक्रम दिखलाकर विजयी हुआ मोर अन्त को मारा गया। इसकी लघपत्नी गुडमब्बे तो इसके साथ सती हो गई, किन्तु अतिमव्ये अपने पुत्र अन्नगदेव की रक्षा करती हई व्रत निप्ठ होकर रहने लगी। इसकी जैनधर्म पर अगाध श्रद्धा थी। इसने सुवर्णमय और पत्नजटित एक हजार जिन प्रतिमाएं बनवाकर स्थापित की। ओर लाखो रुपयो का दान किया। इस दानशीला स्त्रीरत्न के सन्तोष के लिए कविरन्न ने उक्त अजितपुराण की रचना की थी। ऐसा उम ग्रन्थ की प्रशस्ति मे ज्ञात हाता है।
साहस भीमविजय या गदा युद्ध--यह दम पाश्वामों का गद्य-पद्यमय चम्पू प्रन्थ है। इसमें महाभारत की कथा का सिहावलोकन करते हुए चालुक्य नरेश आहब मल्ल का चरित्र लिखा है। प्रार अपने पोषक आहव मल्लदेव की भीमसेन के साथ तुलना की है। रचना विलक्षण और प्रामाद गुण को लिए डा। कर्नाटक कवि चरित के कर्ता ने लिखा है कि रन्न कवि की रचना प्रोढ ओर मरम है, पद्य प्रवाह रूप योर हृदयग्राही है। साहस भीम विजय को पढ़ना शुरू करके फिर छोड़ने को जी नहीं चाहता।
महाभारत युद्ध में कौरव-पाण्डवो की सैन्य शक्ति के क्षय के माथ दुर्योधन के सभी प्रात्मीयजनों के मारे जाने पर, तथा पाण्डवो के अभिमन्यु जैसे वीर युवक के स्वर्गवासी हो जाने पर, लोगो की यह धारणा हो गई थी कि दुर्योधन अकेला पाण्डवों को विजित नही कर सकता। यद्यपि वह वीर क्षत्रिय, महापराक्रमी, गुरुभवत, हठी, प्रति काराभिलापी, युद्ध प्रिय एव उदार है, तो भी उसने माता-पिता, भीम और सजय द्वारा उपस्थित सधि के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। वह उसी समय सगर्व सजय से कहता है कि ये सबल भजाएँ और मेरी प्रचइ गदा मौजूद है । अतएव मुझे
सहायता की आवश्यकता नही है। अधपिता धतराप्ट पाण्डवों को प्राधा राज्य देकर सधी करने को प्रार्थना करता है, माता गाधारी भी दीनता से उसका समर्थन करती है । तो भी उस पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
अन्त में दुर्योधन और भीम का भीषण गदायुद्ध होता है। उसमें भीम की गदा के प्रहार से दुर्योधन के उरु भग हो गए। जिससे वह मरणासन्न हो गया । उरुषों की असह्य पीडा को महता हुअा भी दुर्योधन पाडवो मे बदला लेने के लिए अश्वत्थामा से कहता है कि पाडवो को मार कर उनके मस्तक लाकर मुझे दिखलाओ जिससे मेरे प्राणशान्ति से निकल सके।
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
इसमें सन्देह नही कि दुर्योधन महा अभिमानी और ईर्षालु ओर कौरवों का पक्षपाती था। वह पांडवों को निर्दोप मानता हरा भी उनके प्रतिकार करने की भावना रखता था। फिर भी उसमें कुछ मानवोचित गुण भी थे, उनका सर्वथा भुलाया नहीं जा सकता। जब वह युद्ध स्थल में मारे गए अपन स्नेही ओर गुरुजनों आदि का देखता है तब वह उनक प्रति स्वाभाविक गरु भक्ति प्रकट करता हुआ स्नेहो जना क वियोग से खिन्न हाता है। ओर उनक विनाश में दुर्नय एव दुष्टता का कारण मानता हुआ पश्चाताप करता है। और भीष्म के चरणा में पड़ कर उनसे क्षमा मागता है । आगे शत्रुकुमारी में पराक्रमी बालक अभिमन्यु को देखता है तब उसके साहस पार वारता का मुक्त कंठ से प्रशसा करता हुआ दुर्योधन हाथ जोड़कर प्रार्थना करता है कि मुझे भी इसी प्रकार वार मरण प्राप्त हा।
रन्न कवि का 'गदायुद्ध' बहुत हा मार्मिक आर वस्तुतत्व का यथार्थरूप में चित्रण करता है। महाभारत में सर्वत्र भीम के साहस की प्रशसा मिलेगी। किन्तु रन्न कवि के गदायुद्ध म दुर्याधन क सामने भाम का साहस निस्तेज (फीका) हो जाता है अधिकाश ग्रन्थ कर्ताओं ने द्रोपदि के वस्त्रापहरण आदि अनुचित घटनाओं के कारण दर्योधन को कलकी आदि अपशब्दों में दोपी ठहराया है वह हठी होते हए भी उसमें उदारता आदि गुण अवश्य थे । भीम भो अभिमानो प्रतापी और साहसी था। उसकी गदा प्रहार से जर दुर्योधन के उरु भंग हो गए। उसकी असह्य पीड़ा से पीडित और रक्त आद्रित मरणासन्न दुर्योधन के मुकट को लात मारना किसी तरह भी उचित नही कहा जा सकता, वह भीम का अनुचित कार्य था । रन्न का दुर्योधन अन्ततक क्षात्र धर्म का पालन करता है। भीम में हसी आदि कुछ ऐसे दोप भी थे जिनके कारण महा प्रतापी नारायण कृष्ण भी पाण्डवों मे विरक्त हो गए थे। रन्न कवि का 'रन्न कन्द' नाम का एक छोटा-सा कविता ग्रन्थ भी है।
गुणनन्दि गुणनन्दि-नन्दि सघ देशीय गण के प्राचार्य दलाकपिच्छ के शिप्य थे। जो भव्यरूपी कमलों को विकसित करने वाले पद्म बन्ध थे। मुनियों के स्वामी देगीय गण में अग्रणीय, और गुणाकर तथा गणधर के समान थे। उनकी विद्वता और महत्ता का सहज ही अनुमान हो जाता है । जैसाकि कि निम्न पद्य मे प्रकट है:
बभूब भव्याम्बुजपद्मबन्धुः पतिर्मुनीनां गणभृत्समानः ।
__सदग्रणी देशगणाग्रगण्यो गुणाकरः श्रीगुणनन्दिनामा ॥ श्रवण बेल्गोल के ४७ व शिलालेख में बतलाया गया है कि गुणनन्दि प्राचार्य के तीन सौ ३०० शिष्य थे। उनमें ७२ सिद्धान्त शारत्र के नर्मज्ञ विद्वान थे। विबुधगुण नन्दि भी इन्ही के शिप्य थे। विबुधगणनन्दि के शिष्य अभय नन्दि थे उन शिष्यों में देवेन्द्र गेडान्तिक सबसे अधिक प्रसिद्ध थे।' इन देवेन्द्र सेद्धान्तिक के एक शिष्य कलधौतनन्दि या कनक नन्दि मिद्धान्तच कवना थे जिन्होंने इन्द्रनन्दि गुरु के पास सिद्धान्त शास्त्र का अध्ययन किया था और सत्व स्थान की रचना की थी। इस लेख के उत्कीर्ण होने का समय शक स० १०२६ सन् ११०७ है। किन्तु प्रस्तुत प्राचार्य का समय उक्त शिलालेख से है। वे दशवों शताब्दी के विद्वान थे।
यशोदेव यशोदेव-गौड संघ के मान्य मुनि थे। उग्र तप के प्रभाव से जिनका शासन देवता से समागम तछिटो गृगानन्दि पण्टिन निश्चारित्रचक्रेश्वरम्नर्क बनाकरणादि गाम्बनिपुरणस्माहित्य विद्यापतिः ! मिथ्यावादिमदान्धमिन्धरघटामंघट्टकण्ठीरवो, भय्याम्भोज दिवाकरो विजयता कन्दर्पदप्पापहः ।।७।। नच्छिप्पा स्त्रिशताविवेक निधयश्शास्त्राब्धिपारङ्गताम्तेषुत्कृष्टलगा द्विनप्नतिमिता सिद्धान्तशास्त्रार्थक -- व्याख्याने पटवो विचित्रचरितास्तेषु प्रसिद्धो मुनिः । नानानूननयप्रमाणनिपुणो देवेन्द्रसद्धान्तिकः ॥८
-जन लेख सं० भा० १ पृ० ५८-५८
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी दसवी शताब्दी के आचार्य
२१६
हना था। यह महान ऋद्धि के धारक थे। इन्ही के शिप्य नेमिदेव थे, जो स्याद्वाद समुद्र के उस पार तक देखने वाले
और परवादियों के दर्परूपी वृक्षों को छेदने के लिये कुठार थे। प्राचार्य सोमदेव ने नीतिवावयामत की प्रशस्ति में नेमिदेव को ५५ महावादियों को पराजित करने वाला बतलाया है। पोर यशस्तिलक की प्रशस्ति मे १३ महावादियों को जीतने वाला लिखा है। इनका समय सं०६७५ होना चाहिये।
नेमिदेवाचार्य नेमिदेवाचार्य-यह देव संघ के विद्वान यशादेव के शिष्य थे। बड़े भागे विद्वान ओर वाद विजेता थे। इन्हीं के शिष्य सोमदेव थे । सोमदेव ने अपने गुरु नेमिदेवाचार्य को नीनिवावावयामृत प्रशस्ति मे पचपन ( ५५ ) वादियों का विजेता बतलाया है। जैसा कि उसके निम्न प्रशस्ति वाक्य ने प्रकट :
'सकलताकिक चकचूडामणि चम्बित-चरणस्य पंच पंचामहावादि विजयोपाजित कीति मन्दाकिनी पवित्रित त्रिभुवनस्य, परम तपश्चरणरत्नोदन्वतः श्री मन्नेमिदेव भगवर:'।
- नीतिवाक्यामृत प्रशस्ति वे तार्किक चक्रचूड़ामणि, और सपाटाद रूप रत्नाकर के पारदर्गी Tथा परवादियों के दर्दा रूपी द्रुमावली को छेदने के लिये 'कुठाग्नेमि'-कुदाली को-धार थे।
सोमदेवाचार्य ने जब यशस्तिलक चम्पू बनाया, उस समय तक उ समिदेव नगनये वादियों को जीत लिया था। जैसाकि यशस्तिलक चम्प के निम्न पद्य में प्रकट है :
श्रीमान स्नि देवरापतिलको देवो यशःपूर्वकः । शिष्यस्तस्य बभव सद्गुणनिधिः श्रीनेमिदेवाहयः ।। तस्याश्चर्य तपः स्थितेस्त्रिनवते जैतर्गहावादिनां।
शिष्यो भूदिह सोमदेव यतिपस्तस्येव काव्य क्रमः (-यशस्तिलक चम्पू प्रशस्ति) इनके बहुत शिप्य थे। जिनमें से एक शतक शिष्यों के अपरज ( अनुज ) ग्रार शतक के पूर्वज सोमदेव थे, ऐसा परभणी के ताम्र पत्र से ज्ञात होता है।
इससे नेमिदेव की विद्वत्ता और महत्ता का सहज ही भान हो जाता है और यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि नेमिदेव उस समय के ताकिक विद्वानों में सर्वथष्ठ। ओर नीतिवाक्यामत और यशस्तिलक चन्पू की प्रशस्तियों से यह निश्चित होता है कि वे दोनों रचनायो के समय मौजदये। नकि यगस्तिलक की रचना गक स०८८१ (वि० सं० १०१६ ) में हुई है। अत. नेमिदेव उस समय जीवित थे। उन बाद वे पार कितने सगय नक जीवित रहे, यह कुछ ज्ञात नहीं होता । अतएव इनका समय विक्रम की १० नी ताब्दी का उपान्त्य भाग है।
महेन्द्र देव महेन्द्रदेव-देव संघ के आचार्य नेमिदेव के शिष्य थे यार सामदेवाचार्य, अनुज पार बड़ गुरु
- परभणी ताम्रपत्र
-वही
१. श्री गौढ़सघं मुनिमान्यकीतिनाग्ना यशोदेव इति प्रजज्ञे।
बभूब यस्योग्रतपः प्रभावात्रामागम. शासनदेवताभिः ।।१५ २. शिप्योभवत्तस्यमहडिभाजः स्याद्वादरलाकरपारदृश्या ।
श्रीनेमिदेवः परवादिदप्पंद्र मावलीच्छेद कुठारनेमिः ॥१६ तस्मात्तपःपश्रियो भत्तुल्लोकाना हृदयंगमाः । बभूवुर्वहवःशिष्या रत्नानीव नदाकरात् ॥१७॥ तेषा शतम्यावरजः शतस्य तपाभवत्यूर्वज एव धीमान् । श्री सोमदेवस्तपसः श्रुतस्य स्थान यशोधाम गुणोजितश्रीः ।।१८
-वही
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ भाई थे। सोमदेवाचार्य ने नीतिवाक्यामत की प्रशस्ति में महेन्द्रदेव भट्रारक का अपने को अनूज लिखा है और उन्हें 'वादीन्द्रकलानल बतलाया है। वे उन महेन्द्र देव से गिन्न नही है, जिनका उल्लेख रामसेन (तत्त्वानुशासन के कर्ता ) ने अपने शास्त्र गुरुयों में किया है । परभणी के ताम्रशासन से ज्ञात होता है कि प्रस्तुत महेन्द्रदेव नेमिदेव के बहुत मे शिप्यों में से एक थे। जिनमें एक शतक शिष्यों के अवरज (अनुज) और एक शतक शिष्यो के पूर्वज सोमदेव थे। चूंकि यह ताम्रशासन यस्तिलक चम्पू की रचना मे सात वर्ष बाद शक सं० ८८८ के व्यतीत होने पर वैशाख की पूर्णिमा को लिखा गया है अतः इन महेन्द्रदेव का समय शक सं०८७० से ८८८ तक सुनिश्चित है अर्थात् महेन्द्रदेव सन् ६४८ से १६६ ई. के अर्थात् ईमा की १०वी शताब्दी के मध्यवर्ती विद्वान हैं।
कन्नौज के राजा महेन्द्रपाल प्रथम या द्वितीय ने सोमदेव के गुरु नेमिदेव से दीक्षा ग्रहण की थी; अथवा सोमदेव महेन्द्रपाल राजा का कोटुम्विक दृष्टि से छोटा भाई था, यह कोरी कल्पना जान पड़ती है। क्योंकि महेन्द्र पाल का 'वादीन्द्र कालानल' विशेपण भी उनके राजत्व का द्योतक नही है। प्रत्युत नीतिवाक्यामत के टीकाकार ने उन्हें शिव भक्त के रूप में उल्लेखित किया है। तत्त्वानुशासन के कर्ता रामसेन ने अपने विद्याशास्त्री गुरुत्रों में जिन महेन्द्र देव का नामोल्लेख है, वे सोमदेव के बड़े गुरु भाई ही जान पड़ते है।
सोमदेव देवसंघ के प्राचार्य यशोदेव के प्रगिप्य और नेमिदेवाचार्य के शिष्य थे। जो तेरानवे वादियों के विजेता थे । देवसंघ लोक में प्रसिद्ध है। इसकी स्थापना ग्राचार्य अर्हवली ने की थी। इस संघ में अनेक विद्वान हो गए हैं। यह अकलंक और देवनन्दि (पूज्यपाद) इसी संघ के मान्य विद्वान थे। यशोदेव, नेमिदेव और महेन्द्रदेव आदि देवान्त नाम इसी देव संघ के द्योतक हैं। नीतिवाक्यामृत प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि सोमदेव महेन्द्रदेव के लघु भ्राता थे। और स्याहादाचलसिंह, तार्किक चक्रवर्ती, वादीभपंञ्चानन, बाक्कल्लोलपयोनिघि, तथा कविकुलराज, उनकी उपाधियां थीं। परभणी ताम्रपत्र में सोमदेव को 'गौड़संघ' का विद्वान लिखा है। अोझा जी के अनुसार प्राचीन काल में गौड़नाम के दो देश थे । पश्चिमी बंगाल और उत्तरी कोशल-अवधका एक भाग, कन्नौज साम्राज्य, का अधिकार भी गौड़पर रहा है।
सोमदेव का मस्कृत भाषा पर विशेप अधिकार था। न्याय, व्याकरण, काव्य, छन्द, धर्म, आचार और राजनीति के वे प्रकाण्ड पंडित थे। महाकवि धर्म शास्त्रज्ञ और प्रसिद्ध दार्शनिक थे। सोमदेव की ग्याति उनके गद्य-पद्यात्मक काव्य यशस्तिलक और राजनीति की पुस्तक नीतवाक्यामृत से है। यदि इनमें से नीति वाक्यामृत को छोड़ भी दिया जाय तो भी अकेला यशस्तिलक ग्रन्थ ही उनके वैदुष्य के परिचय के लिये पर्याप्त है। उसमें उनके वैदुष्य के अपूर्व रूप दिखाई देते है। सस्कृत की गद्य-पद्य रचना पर उनका पूर्ण प्रभत्व है। जैन सिद्धान्तों के अधिकारी विद्वान होते हए भी वे इतर दर्शनों के दक्ष समालाचक हैं। राजनीति के तो वे गंभीर विद्वान हैं ही, इस तरह उनकी दोनों प्रसिद्ध रचनाएं परस्पर में एक दूसरे की पूरक हैं।
नीतिवाक्यामृत की प्रशस्ति का निम्न पद्य इस प्रकार है:
"सकल समयतकं नाकलको ऽसि वादि, न भवसि समयोक्तौ हंस सिद्धान्तदेवः । न वचन विलासे पूज्यपादो ऽसि तत्त्वं । वदसि कथमिदानी सोमदेवेन सार्धम् ॥'
१. नम्मात्तपः श्रियो भर्ता (तु ) लॊकानां हृदयंगमाः।
बभवबहवःशिया रत्नानीव तदाकरात् ॥१७ नेपां शतम्यावरजः शतम्य तया भवत्पूर्वज एव धीमान् ।
श्री सोमदेवतपसः श्रुतस्य स्थान यशोधाम गुणोज्जितश्रीः॥१८ २. श्री मानस्नि म देवसघ निको देवोयशः पूर्वकः । शिष्यस्तस्य बभूव सद्गुणनिधिः श्रीनेमिदेवाहयः ।
तम्याश्चर्यतपः स्थितस्त्रिनवतेर्जेतुमहावादिनां, शिष्योऽभूदिह सोमदेव इति यस्तम्यष काव्यक्रमः ॥
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी दसवी शताब्दी के आचार्य
२२१ यह पद्य एक वादी के प्रति कहा गया है कि तुम समस्त दर्शनो के तर्क में अकलंक देव नही हो, और न प्रागमिक उक्तियो मे हस सिद्धान्त देव हो, न वचन विलास मे पूज्यपाद हो, तब तुम कहो इस समय सोमदेव के साथ कैसे याद कर सकते हो?
उसी प्रशस्ति के अन्तिम पद्य में कहा गया है कि सोमदेव की वाणी वादिरूपी मदोन्मत्त गजो के लिये सिहनाद के तुल्य है । वाद काल में वृहस्पति भी उनके सन्मुख नही ठहर सकता' ।
सोमदेव ने अपने व्यवहार के सम्बन्ध मे लिखा है कि मै छोटो के साथ अनुग्रह, वराबरी वालो के साथ सजनता और बडो के साथ महान आदर का वर्ताव करता है। इस विषय मे मेरा चरित्र बड़ा ही उदार है। परन्तु जो मुझे ऐठ दिखाता है, उसके लिये, गर्वरूपी पर्वत को विध्वस करने वाल मेरे वज्र वचन कालस्वरूप हो जाते है।
"अल्पेऽनुग्रह धीः समे सुजनता मान्ये महानादरः, सिद्धान्तो ऽय मुदात्त चित्त चरिते श्री सोमदेवे मयि । यः स्पर्धेत तथापि दर्पदुढ़ता प्रौढिप्रगाढाग्रह
स्तस्या वितगर्वपर्वतपविर्मद्वाक्कृतान्तायते ॥" आचार्य सोमदेव ने यशस्तिलक की उत्थानिका में कहा है कि जैसे गाय घाम खाकर दूध देती है वैसे ही, जन्म से शुष्क तर्क का अभ्याग करने वालो मेरी बुद्धि मे काव्य धारा निमृत हुई है। उसमे स्पष्ट है कि सामदेव ने अपना विद्याभ्यास तर्क से प्रारम्भ किया था और तर्क ही उनका वास्तविक व्यवसाय था। उनकी तार्किक चक्रवर्ती और वादीभ पचानन आदि उपाधियाँ भी मका समर्थन करती है। यशस्तिलक चम्पू मे ज्ञात होता है कि मामदेव का अध्ययन विशाल था। और उस समय में उपलब्ध न्याय, नोति, काव्य, दर्शन, व्याकरण आदि साहित्य में वे परिचित थे।
यद्यपि सोमदेवाचार्य ने अनेक ग्रन्थो की रचना की है, यशस्तिलक चरपू, नौनिवाक्यामृत, अध्यात्मतरगिणी (ध्यान विधि ) युक्ति चिन्तामणि, त्रिवर्ग महेन्द्रमातलि सजल्प, पण्णवति प्रकरण, स्याद्वादोपनिपत आर सुभापित ग्रन्थ। इन रचनायो मे से इस समय प्रारम्भ के तीन ग्रन्थ ही उपलब्ध है। शेप ग्रन्था का केवल नामोल्लेख ही मिलता है । नीतिवाक्यामृत को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि सोमदेनाचार्य ने 'पण्णवति' प्रकरण, युक्ति चिन्तामणि सूत्र, महेन्द्रमातलिसजल्प और यशोधरचरित की रचना के बाद ही नोतिवाक्यामृत की रचना को ग
यशस्तिलक चम्पू-यशस्तिलक चम्पू के पाच आश्वासो मे गद्य-पद्य में राजा यगोधर की कथा का चित्रण किया गया है। राजा यशोधर की कथा बड़ी ही करुणा जनक है।रिमा के परिणाग का बडा ही सुन्दर अकन किया गया है। आटे के मुर्गा मुर्गी बनाकर मारने से अनेक जन्मो मे जो घोर कप्ट भोगने पडे, जिनको मूनने मे रोगटे खडे हो जाते है। प्राचार्य सोमदेव ने यशोधर ओर चन्द्रमति के चरित्र का यथार्थ नित्रग किया। प्रोर अवशिष्ट तीन प्राश्वासो मे उपासकाध्ययन का कथन किया गया है-श्रावक धर्म का प्रतिपादन है। इनमें ४६ कल्प है जिनके नाम भिन्न भिन्न है। प्रथम कल्प का नाम 'समस्तसमयसिद्धान्तावबोधन है। जिसमें सभी दर्शनो की समीक्षा की गई है। दूसरे कल्प का नाम 'आप्तस्वरूप मीमारान' है, जिसमे प्राप्त की मामासा करते हए उनके देवत्व का निरसन किया है। तीसरे का नाम 'पागमपदार्थ परीक्षण' है-जिसमे पहले देव की परीक्षा करने के बाद उनके वचनो को परीक्षा करने का निर्देश किया गया है। चौथे कल्प का नाम 'मूढतोन्मथन' है जिसमे मूढताम्रो का कथन किया गया है। इसीतरह अन्य कल्पो का विवेचन किया गया है। इससे स्पष्ट है कि सोमदेव का उपासकाध्ययन कई दृष्टियो से महत्वपूर्ण है । और प्रसगवश जैनधर्म के सिद्धान्तो का विस्तार के साथ प्रतिपादन किया गया है ।
१ दन्धि बोधविध सिन्धुमिहनादे, वादि द्विपोद्दलनदुर्धरवाग्विवादे ।
श्री मोम देवमुनिपे वचना रसाले, वागीश्वरोऽपि पुरतोऽरित न वादकाले ।। २. परभणी ताम्रपत्र मे उन्हे सुभाषितो का कर्ता भी लिखा है।
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २
यस्तिलक में आपकी नैसगिक एवं निखरी हुई काव्य प्रतिभा का पद-पद पर अनुभव होता है । ये महा कवि थे आर काव्य कला पर पूरा अधिकार रखते थे । यशस्तिलक में जहा उनकी काव्य-कला का निदर्शन होता है वहा तीसरे अध्याय या पाश्वास में राजनीति का, और ग्रंथ के अन्त में धर्माचार्य एव दानिक होने का परिचय मिलता है।
इस ग्रन्थ पर ब्रह्म श्रुतसागर की संस्कृत टीका है। पर वह पूर्वार्ध पर ही है, उत्तरार्ध पर नही है ।
प्राचार्य सोमदेव ने शक सवत ८८१ (६५०ई०) में मिद्धार्थ सवत्सर में चत्र मास की मदनत्रयोदशी के दिन, जब कृष्णराज देव (तृतीय) पाण्डेय, मिहल, चोल ग्रोर चेर आदि राजाओ को जीत कर मेल्पाटी में शासन कर रहे थे। वहा मान्य पेट में यगम्तिलक नही रचा गया: किन्त काणराज के सामन्त चाक्य वा रिकेसरी के ज्येष्ठ पुत्र वागराज की राजधानी गगधाग मे रचना की थी। और उसी सिद्धार्थ रावत्मर में पापदन्त ने महाराण की रचना का प्रारम्भ किया था। पुष्पदन्त ने महापुराण की उत्थानिका में लिखा है कि-सिद्धार्थ सवत्सर मे, जव चोलगज का सिर, जिम पर देशो का जदा ऊपर की ग्रोरवधा हमामा, काट कर नाजाधिराज तुडिग (कृष्णराज ततीय) मंपाडि (मेलपार्टी) नगर में वर्तमान में प्रसिद्ध नामवान पुगण का कहता है।
नीतिवाक्यामत-राजनीति का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह गम्कृत साहित्य का अनुपम रत्न है।म का प्रधान विषय राजनीति है। राजा र राज्य शासन गे सम्बन्ध रखने वाली सभी आवश्यक वाता का सम्: विवेचन किया गया है । ग्रन्थ गद्य सूत्री में निबद्ध है । ग्रन्थ की प्रतिपादन गली प्रभावशालिनी पार गंभीर है। आचार्य रामदेव ने डा० राघवन के अनुसार इस ग्रन्थ की रचना कन्नाज के प्रतिहार राजा महेन्द्रपाल द्वितीय की प्ररणा से की थी। इनका एक शिलालेख वि. स. १००३ का प्राप्त हुआ है और दूसरा वि० स०१००५ का उनके उत्तराधिकारी देवपालका । यशस्तिलक के 'कान्यकु-ज महोदय' श्रार महेन्द्रामर मान्य धी' वाक्य भी इसकी पुष्टि करो । नीतिवाक्यामृत में उसकी रचना का स्थान पार समय नही दिया। इस ग्रन्थ पर कनड़ी भापा के कवि नमिनाथ का टीका है, जो किसी राजा के सन्धि विग्रहिक मत्री थे। उन्होंने मेघनन्द्र विद्यदेव और वोग्नन्दि का रमरण किया है। नेमिनाथ ने यह टीका वीरनन्दि की आज्ञा से लिखी है। मेघचन्द्र का स्वर्गवास शक स० १०७ (वि० स० ११७२) में हुआ था। और वीरनन्दि ने प्राचारसार की कनडी टीका शकमपत १०७ (वि०म० १२११) मलिखी थी। अत: नेमिनाथ १२वी शताब्दी के अन्त और तेरह्वी के प्रारम्भ में हए है।
तीसग ग्रन्य 'ध्यान विधि' या मध्यात्मनगिणी, जिसके लोक गाना चालीम है। हममें ध्यान और उसके भेद आदि का वर्णन दिया है। टम पर अध्यात्मतगणी नाम को एक सात टीका: । जिमके कर्ता मुनि गणधर कोनि है । जिसे उन्होंने यह टीका वि०म०११८र में चेत्र नुवना नमी रविवार के दिन गजगत के चालुक्य वशीय गजा जयसिह या सिद्धराज जयसिह के राज्य काल में बनाकर समाप्त की है। जमा कि उसकी प्रगस्ति के निम्न पद्यों में प्रकट है:
१. गानाकानातीतसवमरे वाटनगीधित प गतेप यान (८८१) गिदार्थ गवत्सगनगन चन माग मदन गोदल्या पाण्ड्य-मिहन-चोर चेग्मभनीन्मगेगी-माध्यम पापी प्रवधमान गयाभावे श्रीकृष्णगनदेवे मान पादपद्गो जीविनः समधिगत पञ्चमहाशब्दगहासमानाधिपतेश्चातस्य कुल जन्मन. मागन्तयामरणे श्रीमदग्विसरिण प्रथम पुत्रस्य श्रीगवदाग राजम्य लक्ष्मी-प्रवर्धमानवमधागा गगगधागया विनिर्मापिमिद यानि ।
- यशस्तिलन प्रशरित २. ज कहमि पुगगु पसिद्धणामु, सिद्धत्थ वरिमि भुबग्गाहिगम् ।
उब्बद्ध जूड भूभगभीम, तोटेपिग चोन्ही तण उमीम् । भवणेनकरायु गयाहिराउ, जहि अच्छा तुटिगु महागाभाउ । त दीरण दिव्य धरण गाय पयर, महि परिभमनु मेपाटि गायर ।।
-महापुराण उत्थानिका
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी दसवी शताब्दी के आचार्य
एकादश शताकोणे नवाशीत्युत्तरे परे। संवत्सरे शुभे योगे पुष्यनक्षत्रसंज्ञके ॥ चैत्रमासे सिते पक्षेऽथ पंचम्यां रवो दिने । सिद्धा सिद्धप्रदाटका गणभृत्कीतिविपश्चितः ॥ निस्त्रशजिताराती विजयश्री विराजान ।
जर्यासह देव सौराज्ये सज्जनानन्ददायिना ।। जर्यासह रेव का राज्य स० ११५०म ११६६ तक वहा रहा है । अत: गणधर कीति के उक्त समय में कोई वाधा नहीं पाती।
हैदरावाद के परभनी नामक स्थान से एक ताम्रपत्र प्राप्त हना है जो यशस्तिलक की रचना मे सात वर्ष पश्चात गोमदेव को दिया गया था। उममे चालुक्य सामन्तो की तगावली दीई है, जो टम प्रकार है:
युद्धगल १ अरकेशरी, नर्गमह (भद्रदेव) मल नाटुग १, युद्ध मत्ल अरिकेगर्ग नरसिह २ (भद्रदेव), अग्रिकेशरी :, वड़िग २ (वाद्यग) और अरिकेशरी । गी गड्डिग द्वितीय या वाद्यग वे गज्यकाल १५६ ई. में सोमदेव ने अपना काव्य रचा था।
इमी ताम्रपत्र में वाद्यग के पुत्र अरिकेसरी चतुर्थ शक सं० ८८८ (६६६ ई०) में गभधाम नामक जिनालय जीर्णोद्धार्थ मोमदेव को एक गाव देने का उल्लेख है। यह जिनालय लेबल पाटक नम की गजधाना में वाद्यग ने बनवाया था।
इससे स्पष्ट है कि उस समय (९६६ ई०) में सोमदेव गभधाम जिनालय के व्यवस्थापक थे । और अपनी साहित्यिक प्रवत्ति में मलग्न थे, क्योंकि इम ताम्रपत्र में सोमदेव की यशोधर चरित के माथ-साथ 'स्याद्वादोपनिषत' नामक ग्रन्थ का भी रचयिता लिग्वा है।
शोधाड नं० २२ में डा० ज्योतिप्रसाद जी ने सोमदेव सम्बन्धी एक शिलालेख का परिचय दिया है। प्रस्तगत निजामराज्य के करीम नगर जिले में स्थित 'लमूलवाड' नामक स्थान में एक पापाणखण्ड प्राप्त हया है। जिसमें संस्कृत के दो पद्य है। जिनमें लिखा है कि लम्बुल पाटक के चालुक्य वशी नरेश वद्दिगने गौड़ सघ के प्राचार्य
देश से (अथवा उनके हितार्थ) उक्त नगर में एक जिनालय का निर्माण कराया था। अभिलेख में सूचित किया है कि यह गजा वढिग सपादलक्ष (सवालाग्य) देश के शामक युद्धमल्ल की पाचवी पीढ़ी में हरा था। यह वही शुभ धाम जिनालय है जिसके संरक्षण के लिए चालुक्य नरेश अरिकेसरी ने शक स ८८८ (सन ई) में अपने गरु सोमदेव की एक ताम्र शासन अपित किया था। यह लेख महत्वपूर्ण है इसमे शुभधाम जिनालय के स्थल का पता चल जाता है । संभव है वहां खुदाई करने पर पीर भी अदप प्राप्त हो जाय । मूल शिलालेख के वे पद्य भी प्रकाशित होना चाहिए।
काल योगीश मलसघ, देशीयगण और पुस्तक गच्छ के विद्वान थे। यह गोल्लाचार्य के विद्वान् शिप्य थे। इन्होंने किसी ब्रह्म गक्षस को अपना शिष्य बना लिया था। उनके स्मरण मात्र में भृतप्रत भाग जाते थे। इन्होंने करज के तेल को घत रूप में परिवर्तित कर दिया था। यह बड़े प्रभावशाली थे।
इनका समय-१०वीं का अन्त और ११वीं शताब्दी का प्रारम्भ होना चाहिए। - - - -
१."(ले) बल पटकनामधेय निजगजधान्यां निजपितुः श्री मद्वन्गग्य शभधाम जिनालयाग्य बस (ते ) खण्डस्फटित नवमधाकर्म बलि निवेद्यार्थं शकाब्देष्वप्टाशीत्यधिकेष्वप्टशतेपुगतेष""" ते श्रीमदरिकेसरिणा""श्रीसोमदेवसरये""""बनिकट पुलनामा ग्रामः'''''दत्तः।"
-यगस्तिलक. दण्डि० क० ५० ५ २. "विरचिता यशोधरचरितस्य कर्ता स्याद्वादोप निषदः कवि (वयि) ता।"
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
कवि असग जीवन-परिचय-कवि असग दशवी शताब्दी के विद्वान थे । उनके पिता का नाम 'पटुमति' था, जो धर्मात्मा और मुनि चरणों का भक्त या, पार शुद्ध सम्यक्त्व से युक्त श्रावक था। ओर माता का नाम 'वैरित्ति' था, जो शुद्ध सम्यक्त्व मे विभूपित थी । असग इन्ही का पुत्र था। इनके गुरु का नाम नागनन्दो था, जो शब्द समयार्णव के पारगामी अर्थात व्याकरण काव्य और जेन शास्त्रो के ज्ञाता थे । असग के मित्र का नाम जिनाप्य था । यह भी जैन धर्म में अनुरक्त ग्वीर, परलोक भीक एव द्विजातिनाथ (ब्राह्मण) होने पर भी पक्षपात रहित था ?
कवि अमग ने भावकोति मुनि के पादमूल में मौद्गल्य पर्वत पर रहकर और श्रावक के व्रतों का विधिक अनुष्ठान कर ममता रहित होकर विद्याध्ययन करने का उल्लेख किया है। और बाद को चोल देश में जनतोपकारी गजा श्रीनाथ के गज्य को पाकर और वहा की वरला नगरी में रहकर जिनोपदिष्ट आठ ग्रन्थो की रचना करने का उल्लेख किया गया है। परन्तु उन आठ ग्रन्थो के नामों की कोई सूचना नही की गई। कवि ने वर्धमान मरिन, की रचना वि० स०६१० (ई० सन:५३ में की है। पौन्न कवि ने अपने शान्तिनाथ पुराण में ९५० ई० में अपने को प्रसग के नमान 'कन्नड कवितेयोल असगम, बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि असग कवि के वर्धमान चरित की रचना सन ६५०ई० से पूर्व में हो चुकी थी, और वह प्रचार में आ गया था । अतएव वीरचरित की रचना शक स०६१० नहीं हो सकती। वह विक्रम स० ६१० की रचना निश्चत है।
कवि की दो कृतियाँ उपलब्ध है वर्धमान चारत और शान्तिनाथ चरित । कवि ने वर्धमान चरित्र प्रार्यनन्दी की प्रेरणा मे बनाया था। अन्तिम तीर्थकर भगवान वर्धमान (महावीर) का चरित अकित किया गया है। चरित्र चित्रण में कवि में कुशल है और उसे कवि ने सस्कृत के प्रसिद्ध विविध छन्दों- उपजाति, वसन्ततिलका, शिखरिणी. वंशस्थ, शालिनी, अनुप्टप मन्दाक्रान्ता, शादलविक्रीडित, स्वागता, प्रहर्षिणी, हरिणि, और स्रग्धरा आदि वत्तों
कया है। ग्रन्थ १८ सर्गों में पूर्ण हमा है। कवि ने चरित को जन प्रिय बनाने के लिये शान्तादि रसों और उपमा, उत्प्रेक्षादि अलंकारों को पुट देकर रमणीय, सरस और चमत्कार पूर्ण बना दिया है। ग्रन्थ में महा काव्यत्व के सभी अगो की योजना की गई है । महवीर का जीवन परिचय उनके पूर्व भवों से संयोजित है। उससे उनके जीवन विकास का क्रम भी सम्बद्ध है। यद्यपि वर्धमान का जीवन-परिचय गुणभद्राचार्य के उत्तर पुराण के ७४वें पर्व से लिया गया है, परन्तु उसे काव्योचित बनाने के लिये उनमें कुछ काट-छांट भी की गई है। किन्तु पूर्व कथानक को ज्यों का त्यो रहने दिया है, कवि ने पुरवा और मरीचि के आख्यान को छोड़ दिया है। और श्वेनातपत्त नगरी के राजा नन्दिवर्धन के पुत्र जन्मोत्सव से कथानक गुरु किया है। ग्रन्थ में घटनाओं का पूर्वा पर क्रम निर्धारण, उनका पररपर सम्बन्ध, और उपाख्यानों का यथा स्थान संयोजन मौलिक रूप में घटित हुआ है। कवि को उसमें सफलता भी मिली है। कृति पर पूर्ववर्ती कवियो के चरित्रो का उस पर प्रभाव होना सहज है। इस महाकाव्य की शैली कवि
१. मवत्सरे दशनवोत्तर वर्षयुक्ने (६१०) भावादिकीनिमुनिनायकपादमूले ।।
मौद्गल्य पर्वत निवास ब्रतम्थमपत्सच्छावक प्रजनिते सतिनिर्ममत्वे ॥१०५ विद्या गया प्रपठितेत्यसगाह्वकेन श्रीनाथराज्यमखिल-गनतोपकारि। प्रापे च चौडविपये बग्लानगर्या ग्रन्थाटक च ममकारि जिनोपदिष्ट ॥१०६
--जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह भा० १, प्र० १०७-८ २. "मुनिचरगारजोभिः सर्वदा भूतधात्र्याप्रति समयलग्नः पावनीभूतमूर्धा ।
उपगम इव मूर्तः शुद्ध समम्यक्त्वयुक्तः पटुमतिरिति नाम्ना विश्रुतः श्रावकोऽभूत् ॥" "वैरेति रित्यनुपमा भवि तस्य भार्या सम्यक्त्व शुद्धिरिव मूर्तिमती पराभूत् ।"२४४ पुत्रम्तयोग्सग इत्यवदात्तकीयोगसीन्मनीषिनिवहप्रमुखस्य शिष्यः । चद्राश शभ्रयशमो भुवि नाग नद्याचार्यग्य शब्द समयार्णव पारगस्य ॥२४५ तम्यऽभव भव्य जनम्य मेव्यः सखा जिनाप्यो जिनधर्मसक्तः । ख्यातोऽपि गौर्यात्परलोकभीरु द्विजातिनाथोऽपि विपक्षपातः ॥२४६।।
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी दसवी शताब्दी के आचार्य
भारवि के किरातार्जुनीय में प्रायः मिलती- जलती है । रचना सुन्दर तथा पठनीय है। ग्रन्थ का आधुनिक सम्पादित सरकरण प्रकाशित होना जरूरी है।
दूसरी रचना शान्तिनाथ चरित है जिसमें सोलहवें तीर्थकर शान्तिनाथ का जीवन परिचय अंकित किया गया है । यह ग्रन्थ सोलह मर्गो में विभक्त है। यह ग्रन्थ वर्धमान चरित के बाद बनाया गया है। इस ग्रन्थ पर एक संस्कृत टिप्पणी भी उपलब्ध है । परन्तु मूल और टिप्पण दोनों ही अभी तक अप्रकाशित है । शेष ग्रन्थों का अन्वेषण होना चाहिए ।
विमलचन्द्र मुनीन्द्र
विमलचन्द्र मुनीन्द्र- द- महापण्डल, गुरुओं के गुरु और वादियों का मद भजन करने वाले थे। चूणि मे उनके द्वारा राजा शत्रु भयकर के सभा द्वार पर लगाये गये वादपत्र चलज के नोक निम्न प्रकार है.पत्रं शत्रु भर्यङ्करोरु- भवन-द्वारे सदासञ्चरन् - नाना राज- करीन्द्र-वृन्द-तुरग व्राताकुले स्थापितम । शैवापाशुपतास्तथागतसुतान्का पालिका पिला-नुद्दिश्योद्धत-चेतसा विमलचन्द्राशाम्बरेणादरात् ॥ २६
इनका समय संभवत: विक्रम की १०वी का उत्तरार्ध और ग्यारहवी का पूर्वार्ध सुनिश्चित है ।
महामुनि वक्रग्रीव
यह बड़े भारी
से यह किसी वाद में छहमास पर्यन्त केवल 'ग्रंथ' शब्द की व्याख्या करते रहे। इससे उनकी विद्वत्ता के सहज ही अनुभव हो जाता है। जैसा कि मल्लिपेण प्रशस्ति के निम्न पद्य से स्पष्ट है :
वक्रग्रीव - महामुने - देश- शत-ग्रीवोऽप्यहीन्द्रो यथा - जातं स्तोतुमल वचोबलमसौ कि भग्न वाग्मि व्रजं । योऽसौ शासन देवता - वहुमतोही वक्त्र- वादि-ग्रहग्रीवोऽस्मिन्नथ- शब्द - वाच्य मवदद् मासान्समासेन षट् ॥ १०
२२५
चूंकि मलिषेण प्रति उत्कीर्ण होने का समय शक स० १०५० सन् १९२८ ई० है । वक्ग्रीव मुनि उसमे पूर्व हुए है । अतः इनका समय सभवतः ईसा को दमत्री- ग्यारहवी सदी हा सकता है ।
लाचार्य
लाचार्य - यह द्रविड संघ के अधिपति और द्रविडगण के मुनियों में मुख्य थे । और जिनमार्ग की त्रियाओं का विधिपूर्वक पालन करते थे । पच महाव्रत पंच समिति और तीन गुप्तियों से संरक्षित थे— उनका विधि पूर्वक आचरण करते थे। यह मलयदेश में स्थित 'हेम' ग्राम के निवासी थे । एक वार उनकी शिष्या कमी को, जो समस्त शास्त्रज्ञ और श्रुत देवी के समान विदुषी थी। उसे कर्मवश ब्रह्म राक्षम लग गया । उसकी पीड़ा
१ विमलचन्द्र - मुनीन्द्र गुरोर्गुरु प्रशमिताखिल वादिमद पद । यदि यथावदत्रयन पण्डितेन तदान्वयवदिप्यत वाविभोः ॥ २५ २. द्रविगरण समयमुगो जिनपति मार्गोपचितक्रियापूर्णः । व्रत समितिगुनगुनाचार्यो मुनिर्जयति ।। १६ ३. दक्षिणदेशे मलये हेम ग्रामे मुनि महात्मासीत् । हेलाचार्योनाग्ना द्रविडगरगाधीश्वरो धीमान् ।। तच्छिष्या कमलश्रीः श्रुतदेवी वा समस्त शास्त्रज्ञा । सा ब्रह्मराक्षमेन गृहिता रौद्रेण कर्मवशात् ॥
- ( ज्वालामालिनी कल्प प्रशस्ति)
- ( ज्वालामालिनी कल्प प्रशस्ति || ५ | ६ |
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ को देखकर हेलाचार्य नीलगिरि' के शिखर पर गए। वहां उन्होंने 'ज्वालामालिनी' देवी की विधि की विधि पूर्वक साधना की। सात दिन में देवी ने उपस्थित होकर पूछा कि क्या चाहते हो? तब मुनि ने कहा, मैं कुछ नहीं चाहता। सिर्फ कमलथी को ग्रह मुक्त कर दीजिये। तब देवी ने एक लोहे के पत्र पर एक मंत्र लिखकर दिया और उसकी विधि बतला दी। इससे उनकी शिप्या ग्रह मुक्त हो गई। फिर देवी के आदेश से उन्होंने 'ज्वालिनीमत' नामक ग्रन्थ की रचना की।
पोन्नर की कनकगिरि पहाड़ी पर बने आदिनाथ के विशाल जिनालय में जैन तीर्थर और अन्य देवताओं की मूर्तियाँ हैं। उनमें एक मूर्ति ज्वालामालिनी देवी की है। उसके पाठ हाथ हैं दाहिनी पार के हाथों में मंडल अभय, गदा और त्रिशूल है । तथा बाई ओर के हाथों में शंख, ढाल, कृपाण और पुस्तक है। मूर्ति की प्राकृति हिन्दनों की महाकाली से मिलती जुलती है। पोन्नर मे लगभग तीन मील दूर 'नीलगिरि' नामक पहाड़ी है, उस पर हेलाचार्य की मूर्ति अंकित है।
हेलाचार्य से वह जान उनके शिष्य प्रशिप्य गंग मुनि, नीलग्रीव, बीजाव, शान्तिरसव्वा प्रायिका, और विरुव क्षुल्लक को प्राप्त हुना। वह क्रमागत गुरु परिपाटी मे कन्दर्प ने जाना और उसने गुणनन्दि मुनि के लिए व्याख्यान किया। इन दोनों ने उस शास्त्र का ग्रन्थ और अर्थतः इन्द्रनन्दि के प्रति कहा। तब इन्द्रनन्दि ने उस कठिन ग्रन्थ को अपने मन में अवधारण करके ललित आर्या और गीतादि छन्दों में ग्रन्थ परिवर्तन (भाषा परिवर्तनादि) के साथ रचा। संभवत: हेलाचार्य का यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में रचा गया था, इसी से इन्द्रनन्दी ने उसे भाषा परिवर्तनादि से संस्कृत भाषा में बनाया। जिसकी श्लोक संख्या का प्रमाण साढ़े चार सौ श्लोक बतलाया गया है।
कवि ने इस ग्रन्थ की रचना राष्ट्र कूट नरेश कृष्ण तृतीय की संरक्षता में शक सं०८६१ (ई०सन् ६३६) में की। इसमे हेलाचार्य का समय यदि उनके शिप्य शिष्यादि के समय क्रम में से कम से कम एक शताब्दी और पच्चीस वर्ष पूर्व माना जाय, जो अधिक नहीं है तो हेलाचार्य के ग्रन्थ का रचना काल शक सं० ७३६ (ई० सन् ८१४) हो सकता है।
कवि हरिषेण मेवाड देश में विविध कलाओं में पारंगत हरि नाम के एक महानुभाव थे, जो उजपुर के धक्कडवंशज थे। इनके एक धर्मात्मा पूत्र था, जिसका नाम गोवड्ढण (गोवर्धन) था उसकी पत्नी का नाम गुणवती था, जो जैनधर्म में प्रगाढ श्रद्धा रखती थी। इन दोनों के हरिषेण नाम का एक पुत्र हुआ, जो विद्वान कवि के रूप में प्रसिद्धि को पात हाया। उसने किसी कार्यवश चित्रकूट (चितौड़) छोड़ दिया, और वह अचलपुर चला गया। उसने वहां छन्द और अलंकार शास्त्र का अध्ययन किया। इसके गुरु बुध सिद्धसेन थे। जैसा कि ११वीं संधि के २५ वें कडवक के घने 'सिद्धसेण पय दहि' वाक्य से सूचित होता है। हरिषेण ने इनकी सहायता से धर्मपरीक्षा नामकी रचना की। जो जयराम की प्राकृत गाथाबद्ध पूर्ववनी धर्मपरीक्षा का पद्धडिया छन्द में अनुवाद मात्र है। कवि ने इसे वि० सं० १०४४ (सन् १८७) में बनाकर समाप्त की थी।
प्रस्तत ग्रन्थ में ११ सन्धिया और २३८ कडवक हैं। सन्धि की प्रत्येक पुष्पिका में धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चार पुरुषार्थो का निरूपण करने के लिये हरिषेण ने इस ग्रन्थ की रचना की है। जैसा कि निम्न संधिवाक्य से प्रकट है
इय धम्मपरिक्खाए चउवग्गहिटियाए बुह हरिसेणकयाए एयारसमो संधि सम्मत्तो।
कर्ता ने ग्रन्थ रचना का कारण निर्दिष्ट करते हुए बतलाया है कि एक बार मेरे ध्यान में पाया कि यदि कोई प्राकर्षक पद्य रचना नहीं की जाती है तो इस मानवीय बुद्धि का होना बेकार है। और यह भी संभव है कि
१. See Jainism in South India p. 47 २. विकम णिय पग्वित्तिय कालए, गणएवरिस सहसचउतालए।
इय उप्पण्ण भवियजरण सहयरु डंभरहिय धम्मासयसायरु ॥ -जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा० २, २३ टि.
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवम शवीं शताब्दी के आचार्य
२२७
इस दिशा में एक मध्यम बुद्धि का आदमी उसी तरह उपहासास्पद होगा, जिस तरह संग्राम भूमि से भागे हुए कायर पुरुष का होता है । कवि ने अपनी छन्द और अलंकार-सम्बन्धो कमजारा को जानते हुए भी जैनधर्म के अनुराग और और सिद्धसेन के प्रसाद से रचना कर ही डाली ।
afa ने अपने से पूर्ववर्ती तीन कवियों का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि चतुर्मुख का मुख सरस्वती का प्रवास मन्दिर था । और स्वयंभू-लोक प्रलोक के जानने वाले महान् देवता थे । तथा पुष्पदन्त अलोकिक पुरुष थे । जिनका साथ सरस्वती कभी नहीं छोड़ती थी । कवि अपनी लघुता व्यक्त करते हुए कहता है कि में इनकी तुलना में अत्यन्त मन्द बुद्धि हूं । पुष्पदन्त ने भी चतुर्मुख और स्वयंभू का उल्लेख किया है। पुप्पदन्त ने अपना महापुराण ९६५ ई० में पूर्ण किया है ।
जयकीर्ति
कवि कन्नड प्रान्त के निवासी थे। इनकी एकमात्र कृति छन्दोनुगासन है, जिसमें वैदिक छन्दों को छोड़कर आठ अध्यायों में विविध छन्दों का वर्णन किया गया है। ग्रन्थ के अन्तिम दो अध्यायों में कन्नड़ छन्दों का विवेचन दिया हुआ है । ग्रन्थ की रचना पद्यात्मक है जिसमें अनुष्टुभ, आर्या श्रीर स्कन्ध छन्दों का लक्षण पूरी तरह या आंशिक रूप में उसी छन्द में दिया है । यह ग्रन्थ छन्दों के विकास की दृष्टि से केदारभट्ट के वृत्तरत्नाकर और हेमचन्द्र के छन्दोऽनुशासन के मध्य की रचना कहा जा सकता है । ग्रन्थ के अन्त में माण्डव्य, पिङ्गल, जनाश्रय, सेतव, पूज्यपाद और जयदेव को पूर्वाचार्यों के रूप में स्मरण किया है । किन्तु छन्दोनुशासन के अर्धसम वृत्ताधिकार में पाल्यक और स्वयंभू देव के मत से सुनन्दिनी और नन्दिनी छन्द के लक्षण भी प्रस्तुत किये हैं ।
"जतौ जरौ शंखनिधिस्तु तौ जरौ, श्री पाल्यकीर्तोश मते सुनन्दिनी ॥ २१ तौ त्रौ तथा पद्म पद्मनिधिर्जतो जरौ, स्वयम्भुदेवेशमते तु नन्दिनी ।। " २२
इससे इनका समय ईसाकी १०वीं शताब्दी से पूर्व होना चाहिए। क्योंकि वि० की दशवीं शताब्दी के आचार्य असगने इनका उल्लेख किया है । कवि असगने अपना 'वर्धमान चरित' म० ६१० में बनाकर समाप्त किया है।
छन्दोनुशासन की यह प्रति सं० १९९२ की लिखी हुई है । ओर जैसलमेर के भण्डार में मोजूद है । जयकीर्ति का यह छन्दोनुशासन डा० एच० डी० वैलंकर द्वारा सम्पादित होकर जयदामन ग्रन्थ के साथ प्रकाशित हो चुका है । देखो मि० गोविन्द पैका Jaikirti in the Kannada quarterly Prabudha Karnatak Vol 28 No. 3 Jan. 1942 Mysore College Mysore Bombay University Journal 1847.
बप्पन दी प्रशिष्य थे । संभव है ज्वालामालिनी कल्प के कर्ता ने अपना उक्त ग्रन्थ शक म० ८६१ सन् ६३९ (वि० सं० ६) में समाप्त किया है । इन्द्रनन्दी ने प्रशस्ति में बप्पनन्दी को पुराण विपण में अधिक ख्याति प्राप्त करनेवाला लिखा है । और उन्हें पुराणार्थ वेदी बतलाया है । ( देखा, ज्वालामालिनी कल्प प्रशस्ति पद्य ४ )
वासवनन्दी के शिष्य थे । ओर इन्द्रनन्दी प्रथम के इन्द्रनन्दी इन्हीं बप्पनन्दो से दीक्षित हो। क्योंकि इन्द्रनन्दी
बन्धुषेण
प्राचार्य बन्धुषेण - (यापनीय संघ के आचार्य) थे, जो निमित्तज्ञान में पारगत थे। और दामकीर्ति के ज्येष्ठ पुत्र जयकीर्ति के गुरु थे । (जेन लेख सं० भा०२ पृ० ७५
एलाचार्य
सूरस्त गणके विद्वान, रविचन्द्र के प्रशिष्य और रविनन्दी आचार्य के शिष्य थे । जो तप के अनुष्ठान में तत्पर रहते थे, और बड़े विद्वान थे । तथा कोगल देश के निवासा थे। उन्हें गंगवशीय राजा मारसिंह (द्वितीय) नं
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
२२८
अपनी माता कल्नब्बे द्वारा निर्मित जिनमन्दिर के लिए 'कादलूर' नाम का एक गाव शक संवत् ८८४ सन् ६६२ मे पौषवदी ६ मगलवार के दिन दान दिया था, जब वे मेल्पाटि के स्कन्धावार में थे ।
(देखो, कालूर का ताम्रशासन, जेन ले० स० भा० ५ पृ. २०)
गुणचन्द्र पंडित
गुणचन्द्र पंडित कुन्दकुन्दान्वय देशीयगण के महेन्द्र पण्डित के प्रशिष्य ओर वीरनन्दि पडित के शिष्य थे । इन्हे राष्ट्रकूट सम्राट् अकाल वर्ष कृष्णराजदेव (तृतीय) के सामन्त गग वशाय कुतथ्य पेमाड राना पद्मव्यरसि द्वारा निर्मित दानशाला के लिए नमयर मारसिघय्य न एक तालाब अर्पित किया था । यह लेख शक स० ८७३ सन् ६५० पौष शुक्ला १० मी रविवार को दिया गया था।
( जैन लेख स० भा० ४ पृ० ५३)
अनन्तकीति
अनन्तकीति अपने समय के यशस्वी तार्किक हो गये है । लघ सर्वज्ञसिद्धि के अन्त में उन्होंने लिखा है समस्तभुवन व्यापि यशसानन्तकीर्तिना ।
कृतेय सुज्ज्वला सिद्धिर्धर्मज्ञस्य निरर्गला ||
इनके बनाये हुए लघु सर्वज्ञसिद्धि और वृहत्सर्वज्ञसिद्धि नाम के दो ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके है। उनमें कोई प्रशस्ति आदि नही है जिसमे उनकी गुरु परम्परा ओर समयादि का पता लग सके ।
न्याय विनिश्चय के टीकाकार वादिराजसूरि ने अपने पार्श्वनाथ चरित में ग्रनन्तकीर्ति का स्मरण निम्न पद्य में किया है :
श्रात्मनैवाद्वितीयेन जीवसिद्धि निबध्नता ।
अनन्तकीर्तिना मुक्ति रात्रिमार्गेव लक्ष्यते ।।
इससे स्पष्ट है कि अनन्तकोति ने 'जीवसिद्धि' नाम के ग्रथ का प्रणयन किया था। अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चय टीका के पृ० २३४ के प्रमाण विचार प्रकरण में प्राचार्य अनन्तकीर्ति के 'स्वतः प्रमाणभङ्ग' प्रकरण का • उल्लेख निम्न प्रकार किया है:
" शेष मुक्तवत् प्रनंतकोतिकृतेः स्वतः प्रामाणयभङ्गादवसेय मेतत् । "
अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चय टीका पृ० ७०८ के सर्वज्ञमिद्धि प्रकरण में - 'अनुपदेशालिङ्गा व्यभिचारिनष्टमुप्टयाद्युपदेशान्यथानुपपत्तेः' हेतु का प्रयोग किया है जो अनन्तकीर्ति की लघु और वृहत्सर्वज्ञमिद्धि ( पृ० १०१) का मूल हेतु है । इसमें स्पष्ट है कि अनन्तकीति अनन्तवीर्य से पूर्ववर्ती है । सिद्धि विनिश्चय के टीकाकार श्रनन्तवीर्य का समय डा० महेन्द्रकुमार जी ने सन् ६५६ ई० के बाद और ई० १०२५ से पहले किसी समय हुए बनाया है। ये वही ज्ञात होते हैं जा वादिराज के दादागुरु श्रीपाल के सधर्मा रूप मे उल्लिखित है ।
प्राचार्य शान्तिमू। - ने जैन तर्कवार्तिवृत्ति 'पृ० ७७ मे स्वप्नविज्ञान यत् स्पष्ट मुत्पद्यते इत्यनन्तीत्यदिय" लिखकर स्वप्न ज्ञान की मानस प्रत्यक्ष मानने वाले अनन्तकीर्ति आचार्य का मत दिया है। यह मत वृहत्सर्वज्ञसिद्धि के कर्ता अनन्तकीर्ति का ही है । उन्होने लिखा है " तथा स्वप्नज्ञाने चानक्षजेऽपिवैशद्यमुपलभ्यते" बृहत्सर्वज्ञसिद्ध पृ० १५१ । शान्तिसूरि का समय ई० ६६३ से ११४७ के मध्य माना गया है'। इससे भी अनन्तकोनिका समय ०६६३ से पूर्ववर्ती है ।
प्रमेय कमलमार्तण्ड और न्यायकुमुद के कर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र का समय सन् १८० से १०६५ ६० है । उन्होंने न्यायमुकुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड के सर्वज्ञसिद्धि प्रकरणों में अनन्तकीर्ति की वृहत्सर्वज्ञसिद्धि का पूरा-पूरा शब्दानुसरण किया है । इसमे भी अन्तकीर्ति प्रभाचन्द्र से पूर्ववर्ती है ।
१. जैन तर्कवार्तिक प्रस्तावना पृ० १४१
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमीदशवी शताब्दी के आचार्य
२२६ सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार अनन्तवीर्य ने (पृ० २३४) में प्रामाण्यविचार प्रकरण में प्राचार्य अनन्तकीति के 'स्वतः प्रमाण भङ्ग' ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जो उस समय अनुपलब्ध है।
अतः इन अनन्तकीर्ति का ममय सन् ८५० से १८० से पूर्ववर्ती हे। अर्थात् वे ईमा की १०वीं शताब्दी के वद्विान हैं।
अनन्तकोति (नाम के अन्य विद्वान) जैन शिलालेख सग्रह प्रथम भाग में चन्द्रगिरि पर्वत के महानवमी मडप के एक शिलालेख में मूलमघ देशीगण पूस्तक गच्छीय मेघचन्द्र विद्य के प्राणाय पार वीरनन्दी विद्य के शिप्य अनन्तकीति का स्याद्वाद रहस्यवाद निपूण के रूप में उल्लेख मिलता है। यह गिलालेख शक रा० १२६५ मन १३१३ई. का है। इसमे उनका परम्परा के रामचन्द्र के शिप्य शुभचन्द्र के उक्त तिथि में किए गए देवलोक का वर्णन है। अतएव इन अनन्तकीति का समय ईसा की १२वी शताब्दी जान पड़ता है, क्योकि इनके दादागुरु (मेघचन्द्र) का स्वर्गवास ई० सन् १११५ में हो गया था। मेघचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्र के दिवगत होने की तिथि शक म. १०६८ (मन् ११४६) आश्विन शुक्ला दगमी दी गई है। उसमें मेघचन्द्र के दो गिप्यो का प्रभाचन्द्र अोर वीर नदी का उल्लख है। अस्तु, प्रस्तुत अनन्तकाति ईसा की १२वी सदी के विद्वान है।
अनन्तकोतिभट्टारक बान्धव नगर की शान्तिनाथ बम द ई. सन् १२०७ में बनाई गई थी, जब कपदम्ब वंश के किग ब्रह्म का राज्य था। यह वसदि उस समय क्राणर गण तन्त्रिणिगच्छ के अनन्तनोति भट्टारक के अधिकार मे थी' । अतएव इनका समय ईसा की १३वी सदी है। जैन शिलालेख म० भाग ३ १०२३२ होसल वीर बल्लाल देव के २३ वे वर्ष (सन् १२१२) के लगभग के लेग में जक्कले के समाधिमग्ण का वर्णन है। उसमें जक्कले के उपदेष्टा गम के रूप में अनन्तकीति का उल्लेख है। प्रस्तुत अनन्तकीर्ति बान्धव नगर की शान्तिनाथ वदि के अधिकारी अनन्त कीति से अभिन्न है, क्योंकि दोनों का समय लगभग एक है।
प्रान्तकोति अनन्तकीति काठासघ माथुरान्वय के पूर्णचन्द्र थे। अोर मुनि प्रश्नमेन के पट्टधर थे। इनके शिष्य एवं पट्टधर भट्टारक क्षेमकीन थे । उनका समय विक्रम की १८वी शताब्दी है।
__ मौनि भट्टारक
यह पन्नाट सघ के पूर्ण चन्द्र थे, पोर सम्पूर्ण राद्धान्त रूप बनन किरणों से भव्य रूप कुमुदो को विकसित करने वाले थे, जमा कि हरिपेण कथा काश के प्रशस्ति पद्य मे प्रकट है।
यो बोधको भव्यकूमहतीनां नि:शेषराद्धान्तवचोमयूखः।
पुन्नाटसघांवरसन्निवासी श्रीमौनिभट्टारक पूर्णचन्द्रः॥ हरिपेण ने कथा कोश का रचना नाल शक म० ८५३ वतलागा, कथा कोश के कर्ता मोनिभटारक से चतर्थ
प्रतः रिर्पण के शक म०८/३म से ६० वर्ष कम करन पर शक म० ७९३हा। उसमें ७८ जोडने पर समय सन् ८७१ हुए अर्थात् विक्रम को वो शताब्दो इन का समय हाता है। उनक शिष्य हरिपेण थे।
श्रीहरिषेण हरिषेण पुन्नाट सघ के विद्वान मोनिभट्टारक क शिष्य थे । जो अपने समय के बड़े भारी विद्वान तपस्वी थे । गणनिधि और जनता द्वारा अभिवन्द्य थे । उक्त कथा कोग के रचना काल में से ४० वर्ष कम करने
१. मिडियावल जैनिज्म पृ. २०१ २. सारागमाहित मतिविदुपा प्रपूज्यो नानातपो विधिविधान को विनेय । तस्या भवद् गुणनिधि निताभिवद्य श्री शब्द पूर्व पद को हरिपेण मज्ञः ।।५
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
२३०
पर शक सं८१३ सन् ८९१ होता है, यह नवमी शताब्दी के अन्तिम चरण के विद्वान जान पड़ते हैं ।
भरतसेन
भरतसेन पुन्नाट संघ के विद्वान मीनिभट्टारक के प्रशिष्य और हरिषेण के शिष्य थे । भरतसेन के शिष्य का नाम भी हरिषेण था । उसने कथा कोश की प्रशस्ति में अपने गुरु भरतसेन को छन्द, अलंकार, काव्य-नाटक शास्त्रों का ज्ञाता, काव्य का कर्ता, व्याकरणज्ञ, तर्क निपुण, तत्त्वार्थ वेदी, नाना शास्त्रों में विचक्षण, बुधगणां द्वारा सेव्य और विशुद्ध, विचार वाला बतलाया है। जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट हैं:
छन्दो लंकृति काव्यनाटकचणः काव्यस्य कर्ता सतो, वेत्ता व्याकरणस्य तर्क निपुणस्तत्वार्थवेदी परं । नाना शास्त्र विचक्षणो बुधगणैः सेव्यो विशुद्धाशयः । सेनान्तोभरतादिरत्रपरमः शिष्यः बभूवक्षितौ ॥ ६ ॥
- हरिषेण कथा कोश प्रशस्ति
इससे मालूम होता है कि इन्होंने किसी काव्य ग्रन्थ की रचना की थी, किन्तु दैवयोग से वह अप्राप्य है । उसके नामादि की सूचना भी नहीं मिलती। हरिषेण ने अपना कथा कोश शक सं० ८५३ सन् १३१ में समाप्त किया है । उसमें से कम से कम बीस वर्ष कम करने पर सन् ६११ भरतसेन का समय हो सकता है अर्थात् वे दशवीं शताब्दी के प्रारम्भ के विद्वान थे ।
हरिषेण ( कथाकोश के कर्त्ता )
हरिषेण नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं। उनसे प्रस्तुत हरिषेण भिन्न हैं । ये हरिषेण पुन्नाट संघ के विद्वान थे। इन्होंने हरिवंश पुराण की रचना से १४८ वर्ष बाद उसी बढ़वाण या वर्द्ध मानपुर में कथाकोष की रचना की थी । ग्रन्थ प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु परम्परा इस इस प्रकार दी है- मौनिभट्टारक, हरिषेण, भरतसेन और हरिषेण । हरिषेण ने अपने गुरु भरतसेन को छन्द अलंकार, काव्य-नाटक- शास्त्रों का ज्ञाता, काव्य का कर्त्ता, व्याकरणज्ञ, तर्क निपुण, तत्त्वार्थवेदी, और नाना शास्त्र विचक्षण बतलाया है। इससे हरिषेण के गुरु बड़े भारी विद्वान जान पड़ते हैं ।
इस कथाकोश में छोटी बड़ी १५७ कथाएं संस्कृत पद्यों में लिखी गई हैं । उनमें कुछ कथाएँ, चाणक्य, शकटाल, भद्रबाहु, वररुचि, स्वामी कार्तिकेय, श्रेणिक बिम्बसार, आदि की कथाएँ ऐतिहासिक पुरुषों से सम्बन्ध रखती हैं । परन्तु अकलंक समन्तभद्र और पात्र केशरी आदि की कथायें इसमें नहीं हैं। जो प्रभाचन्द्र गद्य कथाकोश में पाई जाती हैं। उसका कारण यह है कि हरिपेण के सामने कथाओं को रचते समय शिवार्य की आराधना सामने रही है, उसमें जिनका उदाहरण संकेत रूप में गाथाओं में उपलब्ध है, उनका नामोल्लेख आदि गाथाओं में किया गया है, उनकी कथा हरिषेण ने लिखी हैं। कुछ कथायें ऐसी भी हैं जिनका उल्लेख उसमें नहीं है किन्तु अन्यत्र मिलता है, वे भी इसमें सम्मिलित दिखती हैं। हरिषेण ने प्रशस्ति के आठवें श्लोक में 'प्राराधनोद्धृतः वाक्य द्वारा उसकी स्वयं सूचना कर दी है । तुलना करने से भी उक्त कथन की पुष्टि होती है ।
इस ग्रन्थ की रचना वर्धमानपुर में हुई है, कवि ने उसका वर्णन करते हुए उसे है, जिनके पास बहुत सोना था, वह ऐसे लोगों से आवाद था। वहां जैन मन्दिरों का समूह बने हुए थे, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है । -
जनालया व्रातविराजतान्ते चन्द्रावदातद्युति सौधजाले । कार्तस्वरा पूर्ण जनाधिवासे श्री वर्धमानाख्यपुरे वसन्सः ॥४
बड़ा समृद्धनगर बतलाया था, और सुन्दर महल
वर्धमानपुर की नन्न राज वसति में या उसके किसी वंशधर के बनवाए हुए जैन मन्दिर में हरिवंशपुराण रचा गया था। यह कोई राष्ट्रकूट वंश के राजपुरुष जान पड़ते हैं ।
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
२३१
प्रस्तुत कथाकोश की रचना उक्त वर्धमानपुर में उस समय की गई, जबकि वहां पर विनायकपाल नामका राजा राज्य करता था। उसका राज्य इन्द्र के जैसा विशाल था।' यह विनायकपाल प्रतिहारवंश का राजा जान पड़ता है जिसके साम्राज्य की राजधानी कन्नौज थी। उस समय प्रतिहारों के अधिकार में केवल राजपूताने का ही अधिकांश भाग नही था, किन्तु गजरात, काठियावाड़, मध्य भारत और उत्तर में सतलज से लेकर विहार तक का प्रदेश था । यह महाराजाधिराज महेन्द्रपाल का पुत्र था ओर अपने भाइयों महीपाल और भोज (द्वितीय) के बाद गद्दी पर बैठा था । कथाकोश की रचना मे लगभग एक वर्ष पूर्व का वि० सं० १५५ का इसका दान पत्र भी मिला है।
काठियावाड़ के हड्डाला गांव में विनायकपाल के बड़े भाई महीपाल के समय का भी शक स० ८३६ (वि० सं० ६७१) का एक दानपत्र मिला है। जिससे मालूम होता है कि उस समय बढवाण में उसके सामन्त चापवशी धरणीवराह का अधिकार था। उसके १७ वर्ष बाद ही बढवाण में कथाकोश रचा गया है।
रचनाकाल
नवाष्ट नवकेष्वेषु स्थानेषु त्रिषु जायतः । विक्रमादित्य कालस्य परिमाणमिदं स्फुटम् ॥११ शतेष्ट सु विस्पष्टं पंचाशतत्र्यधिकेषु च ।
शक कालस्य सत्यस्य परिमाणमिदं भवेत् ।।१२ प्रस्तुत कथाकोश की रचना शक सं० ८५३ (वि० सं०६८८) में की गई है। अतः प्रस्तुत कवि हरिषेण ईसा की दशवीं शताब्दी के विद्वान हैं।
देवसेन (भट्टारक) भट्टारक देवसेन वाणराय (बाणवंशी किसी नरेश) के गुरु भवणन्दि भट्टारक के शिष्य थे। और जिनकी समाधि उनके मरण के उपरान्त बल्लीमलै (जिला अर्काट) में स्थापित की गई थी। प्रतिमा पर काल निर्देश रहित उक्त प्राशय का कन्नड़ शिलालेख अंकित है । मूर्ति लेख का काल ८-९ वीं शती के बाद का नहीं जान पड़ता।
-जैन शि०सं० भाग २ पृ० १३६ देवसेन नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं, जिनकी गरु परम्परा और समय भिन्न है। यहां दो-तीन देवसेनों का संक्षिप्त परिचय दिया जाता है; जो अन्वेषकों के लिये उपयोगी है।
देवसेन
देवमेन वे, जो पंचस्तपान्चयी वीरसेन स्वामी के शिष्य थे, और जिनसेन, पद्मसेन, श्रीपाल प्रादि के सधर्मा थे। जिनसेनाचार्य ने जयधवला टीका (प्रशस्ति श्लोक ३६) में पद्ममेन के साथ देवसेन का उल्लेख किया है। जिन सेनाचार्य ने अपनी जयधवला टीका शक सं० ७५६ (सन ८३७ ई.) में समाप्त की है। प्रतः लगभग यही समय इन देवसेन का होना चाहिये । प्रस्तुत देवसेन हवीं शताब्दी के विद्वान थे।
देवसेन (दर्शनसारादि के कर्ता) प्रस्तुत देवसेन अपने समय के अच्छे विद्वान थे। उन्होंने धारा नगरी के पार्श्वनाथ मन्दिर में रहते हुए संवत
-कथा० प्रश०
१. संवत्सरे चतुर्विशे वर्तमाने खगभिधे।
विनयादिक पालस्य राज्ये शक्रोपमान के ॥१३, २. इण्डियन एण्टिक्वेरी जि० १५, पृ० १४०-४१ ३. राजपूताने का इतिहास जि०१ पृ० १६३
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
860 माघ शुक्ला दशमी के दिन 'दर्शनमार की रचना की है।' दर्शनसार में अनेक मतों तथा संघो की उत्पत्ति आदि को प्रकट करने वाला अपने विपय का एक ही ग्रन्थ है। देवमेन ने पूर्वाचार्यकृत गाथाओं का संकलन कर उसे दर्शनसार का रूप दिया है। जो अनेक एतिहासिक घटनाओं की सूचनादि को लिए हए है। इसमें एकान्तादि प्रधान पांच मिथ्यामतों और द्रविड, यापनीय, काप्ठा, माथर और भिल्ल सघों की उत्पत्ति का कुछ इतिहास उनके सिद्धान्तों के उल्लेख पूर्वक दिया है । और द्रविड़ादि मघों को जैनाभास बतलाया गया है। देवमेन ने अपने गुरु का और गणगच्छादि की कोई उल्लेख नहीं किया। जिसमें उनके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डाला जाता। दर्शनसार में दी गई तिथियों का समय वियम की मृत्यु के अनुसार है। किन्तु वि० सं० के साथ उनका कोई सामंजस्य ठीक नहीं बैठना । अतः उन तिथिया का सशोधन करना प्रावश्यक है। यदि उन तिथिया को शक संवत् की मान लिया जाय तो समय सम्बन्धी वे सभी वाधाय वे दूर हो जाती हैं। जो उन्हें विक्रम सवत मानने के कारण उत्पन्न होती है और ऐतिहासिक श्रखलानों में क्रम सम्बद्धता बनी रहती है। प० नाथ राम जी प्रेमी ने दर्शनसार की समालोचना को है। दर्शनसार के अतिरिक्त देवमेन की निम्न रचनाएं और मानी जाती हैं। तत्त्वमार, आराधनासार और नयचक्र।
तत्त्वसार-७५ गाथात्मक एक लघ अध्यात्म ग्रन्थ है जिसमें स्वगत और परगत के भेद से तत्त्व का दो प्रकार से निरूपण किया है। और बतलाया है कि जिसके न क्रोध है न मान है, न माया है और न लोभ है, न शल्य है, न लेश्या है, जो जन्म-जरा और मरण से रहित है वही निरंजन आत्मा है।
"जस्स ण कोहो माणो माया लोहो ण सल्ल लेस्सायो।
जाइ जरा मरणं चि य णिरंजणो सो प्रहं भणियो।' जो कर्मफल को भोगता हुआ भी उसमें राग-द्वेप नही करता है वह सचित कर्म का विनाश करता है और वह नतन कर्म से भी नहीं बधता । अन्त में कवि ग्रन्थ का उपसहार करता हुआ कहता है कि
जो सदृष्टि देवसेन मुनि रचित तत्त्वसार को सुनता तथा उसकी भावना करता है, वह शाश्वत सुख को प्राप्त करता है।
प्राराधनासार--यह एक सौ पन्द्रह गाथात्मक ग्रन्थ है, जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र और तपरूप चार आराधनाओं के कथन का सार निश्चय और व्यवहार दोनों रूप मे दिया है। विपय विवेचन की शैली बडी सन्दर है। मरते समय आराधक कौन होता है ? इसका अच्छा कथन किया है और बतलाया है कि-जिस भव्य ने क्रोधादि कपायों को नष्ट कर दिया है, सम्यग्दृष्टि है और सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न है अन्तरग, बहिरंग परिग्रह का त्यागी है वह मरण समय पाराधक होता है । यथा
णिहय कसानो भव्वो सणवन्तो हणाणसंपण्णो।
दुविह परिग्गहचत्तो मरणे अाराहनो हवइ ॥१७ जो सांमारिक सुख मे विरक्त है । शरीरादि पर इष्ट वस्तुओं से प्रीतिरूप राग जिसका नष्ट हो गया है-- वैराग्य है, अथवा संसार शरीर भोगों से निर्वेद को प्राप्त है, परमोपशम को प्राप्त है जिसने अनन्तानुबंधिचतुष्टय, तीन मिथ्यात्व रूप मोहनीय कर्म की इन सात प्रकृतियों का उपशम है, और अन्तर बाह्यरूप विविध प्रकार के नयों में जिसका शरीर तप्त है, वह मरण समय में आराधक होता है, जो प्रात्म स्वभाव में निरत है, पर द्रव्य जनित परिग्रह रूप सूखरस से रहित है, राग-द्वेष का मथन करने वाला है, वह मरण समय में आराधक होता है, जैसा कि निम्न गाथाओं से स्पष्ट है :
१. रइयो दंसणमारो हारो भव्वाण णवसा नव ई।
सिरि पासणाह गेहे सुविसुद्ध माह मद्धदसमीए ॥५० गिरि देवमेण गणिणा धाराए संवसंतेण ।
-दर्शनसार
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवी शताब्दी के आचार्य
२३३
संसार सुहविरत्तो वेरग्गं परम उवसमं पत्तो। विविह तव तविय देहो मरणे पाराहनो एसो॥१८ अप्प सहावेणिरो वज्जिय परदव्वसंगसुक्खरसो।
णिम्महिय रायदोसो हवई पाराहनो मरणे ॥१६ मल्लेखना करने वाला भव्य यदि केवल वाह्य शरीर को ही कृश करता है किन्तु अान्तरिक कपायों का विनाश नहीं करता तो उसकी वह शरीर सल्लेखना निरर्थक है । इस कारण शरीर सल्लेखना के साथ प्रान्तरिक कषायो का दमन करना-उन्हे रस विहीन बनाना नितान्त आवश्यक है--अथवा उनकी शक्ति क्षीण कर अशक्त बनाना जरूरी है. जिसमे वे अपना कार्य करने में समर्थ न हो सक । क्योकि कपाय बलवान है, व अवसर पाते ही क्षपक के चित्त को संक्षभित कर सकती है, अतएव उनका जय करना श्रेयस्कर है, उनके संल्लखित होने पर मुनि का चित्त क्षभित नही हो सकता । अतएव साधु उत्तम धर्म को प्राप्त होता है।
ग्रन्थ में परिपह और उपसर्ग सहिष्ण मुनियों का नामोल्लेख भी किया है। समाधिमरण करने वाला क्षपक यह भावना करता है कि मेरे कोई व्याधि नही है, राग-द्वप हित मेरे ग्रात्मा का कभी मरण नही होता. क्योंकि व्याधि और मरण तो शरीर में होता है आत्मा का कोई मरण नही होता, शरीर जड़ है, आत्मा चैतन्य का पिण्ड है । अतः प्रात्मा में कोई,दुःख नही होता।
सल्लेहणा शरीरे बाहिरजोएहि जा कया मुणिणा।
सयला वि सा णिरत्था जाम कसाए ण सल्लिहदि ॥३५ इस तरह जो पुरुप चारो आगधनाओं का पाराधना करता है, और तपश्चरण द्वाग आत्मशुद्धि करता है. सर्व परिग्रह का परित्याग कर जि लग धारक होता है, तथा प्रात्मा का ध्यान करता है वह निश्चय से सिद्धि को (स्वात्मोपलब्धि को) प्राप्त करता है, इस तरह यह ग्रन्थ बड़ा सुन्दर और मनन करने योग्य है।
अन्त में कवि अपने अहकार का परिहार करता हुमा कहता है कि मेरे में कवित्व नही है, छन्दों का भी परिज्ञान नही है फिर भी मैं देवसेन अपनी भावना के निमित्त इस ग्रन्थ की (आराधनासार की) रचना कर रहा हूँ। यदि इसमें अज्ञतावश प्रवचन विरुद्ध कहा गया हो, तो मनीन्द्रजन उमका सशोधन कर ले।
इस ग्रन्थ पर एक सस्कृत टीका है, जिसके कत्ता काष्ठासघी मनि क्षेमकीति के शिष्य रत्नकोतिर कीति पडिताचार्य के नाम से विश्रत थे। टीका सरल, सुबोध और प्रमाद गण ने यूक्त्त है। और ग्रन्थ कर्ता के रहस्य को उद्घाटित करती हुई वस्तु तत्त्व की विवेचक है। मुल ग्रन्थ प्रोर टीका दोनो ही माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला मे प्रकाशित है।
नयचक्र-८७ गाथात्मक है, जिसे लघु नयचक्र भी कहा जाता है । यह नाम करण किसी बड़े नयचक्र को देखकर बाद में किया गया जान पड़ता है। समाप्ति वाक्य में इसे नयचक्र प्रकट किया है। अन्यत्र भी नयचक्र के नाम से इसका उल्लेख मिलता है ।
देवसेन ने नयचक्र में नयों का मूल रूप से सुन्दर वर्णन किया है। नयों के मूल दो भेद द्रव्याथिक पर्यायाथिक किये गए है और शेष सब सख्यात असंख्यात भेदो को इन्ही के भेद-प्रभेद बनलाया गया है २ । नयों के कथन
१. श्वेताम्बराचार्य यशोविजय ने 'द्रव्यगुणपर्याय रासो' में और भोज सागर ने 'द्रव्यानुयोग तर्कणा' मे भी देवर्मन के
नामोल्लेख पूर्वक लघु नयचक्र का उल्लेख किया है। २. णिच्छ य ववहारणया मलिमभेयागयाण सव्वाण । णिच्छय साहरणहेउ पज्जयदबत्थिय मुणह । दो चेबय मलणया भग्गियादव्वत्थ पज्जयत्थ गय।। अ सम्वा ते तब्भेया मुणेयव्वा ।।
.-नय चक्रसग्रह
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ का प्रारम्भ करते हुए लिखा है कि-जो नयदृष्टि से विहीन है उन्हे वस्तु स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती। औरति वस्तु स्वरूप की उपलब्धि नहीं है जो वस्तु स्वरूप को नही पहचानते--वे सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते । यथा
जो णयदिट्टि विहीणा ताण ण वत्थुसरुवउवलद्धि ।
वत्थुसहावविहूणा सम्मादिट्ठी कहं हुति ॥ ग्रन्थकार ने यह बड़े मर्म की बात कही है। इसपर ने ग्रन्थ के महत्व का स्पष्ट आभास मिल जाता है। ग्रन्थ के अन्त में कर्ता ने नयचक्र के विज्ञान को सकल शास्त्रों की शूद्धि करने वाला और दर्णय रूप अन्धकार के लिये मार्तण्ड बतलाते हए लिखा है कि यदि अज्ञान महोदधि को लीलामात्र मं तिरना चाहते हो तो नयचक्र को जानने के लिए अपनी बुद्धि लगायो-नयो का ज्ञान प्राप्त किा विना अज्ञान महासागर गे पार न हो सकोगे।
यहा यह वात विचारणीय है कि प्रस्तुत नयचक्र वह नयचक्र नही जिमका उल्लेख अकलंक देव ने न्यायविनिश्चय में और विद्यानन्द ने अपने तत्त्वार्थ दलोक वार्तिक के नय विवरण प्रकरण में निम्न पद्य द्वारा किया है:न्याय विनिश्चय के अन्त में लिखा है - इष्टं तत्त्वमपेक्षा तो नयानां नयचक्रतः ॥३-६१
संक्षेपेण नयास्तावद् व्याख्याताः सूत्र सूचिताः ।
तद्विशेषाः प्रपञ्चेन संचिन्त्या नयचक्रतः ।। इस पद्य में जिम नयचक्र के विशेप कथन को देखने की प्रेरणा की गई है वह यह नयचक्र नही है। एक बड़ा नयचक्र श्वेताम्बराचार्य मल्लवादि का प्रसिद्ध है जिसे द्वादशार नयचक्र कहा जाता है। और जिसका समय वि० सं० ४१४ माना जाता है । पर मल्लवादि ने मिद्धमेन के मन्मति पर टीका लिखी है जिसका निर्देश हरिभद्र ने किया है। और सिद्धसेन का समय पांचवी शताब्दी माना जाता है। वे गप्त काल के विद्वान है। अत: मल्लवादी का समय भी सिद्धमेन के बाद ही होना चाहिए। क्योकि जिनभद्र गणी क्षमा श्रमण ने अपने विशेषावश्यक भाष्य में सिद्धमेन और मल्लवादि के उपयोग के अभेद की चर्चा विस्तार में की है। उक्त विशेगावश्यक वल्लभी में वि० स०६६६ में समाप्त हुआ था। इससे मल्लवादी का समय छठी शताब्दी जान पड़ता है।
प्रस्तुत नयचक्र दर्शन सार के कर्ता की कृति मालम नही होता, वह किसी अन्य देवमेन द्वारा रचा गया होगा, उसके निम्न कारण है:
देवमेन ने अपने ग्रन्थों (दर्शनसार, आराधनासार और तत्त्वसार) में अपना नाम कर्तारूप में उल्लेखित किया है, किन्तु प्रस्तुत नयचक्र में कर्ता का नाम नही दिया है।
२. नयचक्र की गाथा न०४७ के प्रागे 'तदुच्यते' वाक्य के साथ दो पद्य अन्य ग्रन्थों से उद्धत किये हैं। उनमें एक गाथा 'प्रण गुरु देह पमाणो' नेमिचन्द्र के द्रव्य सग्रह की है। द्रव्य संग्रह का निर्माण दर्शनसार के बाद हा है, वह ११वी दाताब्दी की रचना है। "मी स्थिति में वह दर्शनमार के कर्ता देवमेन की कृति कैसे हो सकती है?
३. दर्शनमार के कर्ता के ग्रन्थों के नाग सागन्न पाये जाते है जमे दर्शनसार आराधनासार और तत्त्वसार गोम्भटसार के कर्ता नमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी अपने ग्रन्थो के नाम सारान्त रक्खे हैं। जैसे लब्धिसार, क्षप्पणामार, त्रिलोकमार आदि ।
नयचक्र नाम के अनेक ग्रन्थ है । द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र, श्रुतभवन दीपक नयचक्र और पालाप पद्धति । इनमें द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र के कर्ता देवमेन के शिप्य माइल्ल धवल है। इनका परिचय अलग से दिया गया है।
देवसेन श्रतभवन दीपक नयचक्र के कर्ता देवसेन है। इस नय चक्र में दो नयों का संग्रह है। प्रथम नयचक्र के मंगल पद्य में घातिया कर्मों के जीतने वाले श्री वर्धमान को नमस्कार करके पागम ज्ञान की सिद्धि के लिये नय के विस्तार को कहता हूं । यथा
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी - दशवी शताब्द प्राचार्य
२३५
वर्द्धमानमानम्य, जितघातिचतुष्टयं ।
श्री वक्ष्येह
नय विस्तारमागमज्ञानसिद्धये ॥
नय का लक्षण देते हुए लिया है- 'नानास्वभावेभ्यो व्यावृत्य एकस्मिन् स्वभावे वस्तु नयनीतिनयः ।' जो वस्तु को नाना स्वभावों से हटा कर एक स्वभाव में (विपय में) निश्चय कराता है वह नय है। एक गाथा उक्त च रूप से दी है, जो धवला टीका में भी उद्धत है.
यदिति णश्रो भणिदो बहूहिं गुणपज्जएहिं जं दव्व । परिणामसेत कालन्तरेसु श्रविणट्ट सवभाव ||
इसके बाद सप्त नयो का गद्य-पद्य में वर्णन किया गया है।
द्वितीय नयचत्र के मंगल पक्ष मे मोहरूपी अन्धकार को नष्ट करने
रूप श्री से युक्त
वर्द्धमान रूपी सूर्य को नमस्कार करके गाथा के अर्थ मे अनुरूप से परे द्वारा चक्र कहा जाता है :
श्रीवर्द्धमानार्कमानम्य मध्वान्तप्रभेदिनं । गाथार्थरयाविरोधेन नयचक्र मयोच्यते ॥
दूसर पद्य जिनपति मन (जैनमन) एक पृथ्वी है, उगमे समयसार नामक रत्नों का पहाड़ है, उसमे रत्न लेकर मोह के गाढ विभ्रम को नष्ट करने व दीप पत्र को कहा
जिनपत मतह्यां रत्नशैलादयापादिह हि समयसाराद्बुद्ध बुद्धया गृहीत्वा । प्रहृतघनाविनेोहं सुप्रमाणादि रत्न, पतन गुडीपं विद्वि व्यापनीयं ॥ २ प्रस्तुत नयचत्र 'श्रुतभवन दीपक नाम से ख्यात है जो देवमेन के गाए पत्रक का बोधक है । कर्ता के साथ भट्टारक विशेषण भी प्रा० नपचक के कर्ता से भिन्नता का सूचक है। यह नयचक तस्कृत गद्य-पद्य में रचा गया है । विषय विवेचन की दृष्टि और तर्कणा शैली सुन्दर है, जो व्योम पण्डित के प्रतिबाधन के लिये रचा गया है । जैसा कि उसके निम्न पुष्पिका के ' इति देवगेन भट्टारक विरचिते व्योम पनि प्रतिबोध के नयचके' वाक्य मे जाना जाता है । इसमें तीन अधिकार है । ग्रन्थ के शुरू समयसार की तीन गाथाको उद्धा करके कर्ता ने संस्कृत गद्य में उनकी व्याख्या करते हुए व्यवहार नय की प्रभूतार्थना र निनग तय को भूना पर अच्छा प्रकाश डाला है । ग्रन्थ व्यवस्थित र नयादि के स्वरूप का प्रतिपादक है। इसका सम्पादन क्षुल्लक मागर ने किया है । और वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने सोलापुर ने प्रकाशित किया है। सामग्री के समान रचना का समय निर्णय करना
कठिन है ।
आलाप पद्धति
आलाप पद्धति के कर्ता देवगेन बतलाये जाते है । परन्तु ग्रन्थ ने कही भी कर्तृत्व विपयक मकेत नही मिलता । इस कारण यह की गंगा के कर्ता देवमन की कृति नही मालूम होती । यद्यपि प्राकृत नय चक्र ोर आलाप पद्धति का विषय समान है । यालाप पद्धति नयचक्र पर लिखी गई है। जैसा कि उसके निम्न वाक्य से प्रकट है :
'अलाप पद्धतिर्वचन रचनानुक्रमेण नयचक्रस्योपरि उच्यते । फिर प्रश्न हुआ कि इसकी रचना कि लिये की गई है, तब उत्तर में कहा गया है कि द्रव्य लक्षण सिद्धि के लिये यार स्वभाव सिद्धि के लिये आलाप पद्धति की रचना की गई है। अब तक इसे दर्शनगार के कर्ता की कृति कहा जाता रहा है, पर इस सम्बन्ध में, अब तक कोई अन्वेषण नही किया गया, जिससे यह प्रमाणित हो सके कि यह दर्शनसार के कर्ता की कृति है या अन्य किसी देवसेन की ।
१. सा च किमर्थम् । द्रव्यलक्षण सिद्ध्यर्थं स्वभाव सिद्ध्यर्थ व जालापपद्धति
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
जन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
तोरणाचार्य यह कून्द कून्दान्वय के विद्वान थे। ओर शाल्मलो नामक ग्राम में प्राकर रहे थे। वहां उन्होंने लोगों का अज्ञान दूर किया था और जनता की सन्मार्ग में लगाया था। तथा अपने तेज से पृथ्वी मण्डल को प्रकाशित किया
। तोरणाचार्य के शिष्य पुष्पनन्दि थे। जो उक्त गण में अग्रणी थे। पुष्पनन्दि के शिष्य प्रभाचन्द्र थे, जिनके लिये यह वसति बनवाई गयी थी। उस समय राष्ट्रकूट वंशी राजा गोविन्द तृतीय का राज्य था। उसके राज्य के दो ताम्रपत्र मिले हैं।' एक शक सं० ७२४ का और दूसरा शक सं० ७१६ का। अतः इन प्रभाचन्द्र के दादा गुरु तोरणाचार्य का समय प्रभाचन्द्र से लगभग ४० वर्ष पूर्व माना जाय तो उनका समय शक सं०६७६ सन् ७५६ होना चाहिए। अर्थात् वे ईसा की पाठवी शताब्दी के विद्वान थे और विक्रम की हवीं शताब्दी के।
कुमारसेन भट्टारक भट्टारक कुमारसेन को शक सं० ८२२ (सन ९००) वि० सं० ६५७ में सत्यवाक्य कोंगणिवर्म धर्म महाराजाधिराज ने, जो कि कूवलाल नगर के स्वामी थे। और श्रीमत्पेर्मनडि ऐरेयप्पेरस ने सफेद चावल, मुक्तश्रम, घी सदा के लिये चुगी से मुक्तकर पेर्मनडिवसदि के लिए भट्टारक कुमारसेन को दिया था। इससे इन कुमारसेन का समय ईसा की नवमी और विक्रम की दशवीं शताब्दी है।
-जैन लेख सं० प्रा० २ पृ० १६०
कुमारसेन यह कुमारसेन वीरसेन के शिष्य थे, जो चन्द्रिकावाट के विद्वान थे। इन्होंने मूलगुण्ड में अपना स्थायी निवास बना लिया था। यह बड़े विद्वान थे। इनका समय १०वीं शताब्दी है।
रविकीति रविकीति अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान और जैनधर्म के संपालक थे। ऐहोल-अभिलेख बीजापुर जिले के हुगुण्ड तालुका के ऐहोल के मेगुटि नाम के जैन मन्दिर की ओर पूर्व की दीवाल पर अंकित है। लेख में १६
१. कोण्डकोन्दान्वयो दारो गणोऽभूभुवनस्तुतः । तदेतद विषय विख्यातं शाल्मली ग्राममावसन् । आसीद (१) तोरणाचार्य स्तपः फलपरिग्रहः । तत्रोपशम सभूत भावनापास्तकल्मपः ।। पण्डितः पुष्पनन्दीति बभूवभुवि विश्र नः । अन्तेवासी मुनेस्तस्य सकलश्चन्द्रमाटव ।। प्रति दिवस भवद्धि निरस्तदोपी व्यथत हृदयमलः । परिभूनचन्द्र बिम्बम्तच्छिप्योऽभूत प्रभाचन्द्रः ।।
-शक मं०७२४ का ताम्रपत्र आसीद तोरणाचार्यः कोण्डकुन्दान्वयोद्भवः । म चैतद् विषये श्रीमान शल्मलीग्राम माश्रितः । निराकृत तमोराति स्थापयन् सत्पथे जनान् । स्वतेजो द्योतिता क्षौणिश्चंडाचिग्वि यो बभौ । तस्याभूद् पुष्पनन्दीतु शिष्योविद्वान गणाग्रणीः । तच्छिष्यश्चप्रभाचन्द्रस्तस्येयं वमतिः कृता ।। -शक सं० ७१६ का ताम्रपत्र
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
२३७
पंक्तियाँ और ३७ श्लोक हैं । अन्तिम पंक्ति छोटी है जो बाद में जोड़ी गई है। यह लेख धर्म, सस्कृति और काव्य की दृष्टि से बड़े महत्व का है । और उपयोगी है । इस प्रशस्ति लेख के लेखक रविकीति है, जो सस्कृत भापा के अच्छे विद्वान और कवि थे। वे काव्य योजना में प्रवीण और प्रतिभाशाली थे। उन्होंने कविता के क्षेत्र में कालिदास
और भारवि की कीति प्राप्त की थी। इस लेख में हमें केवल रवि कीति की प्रतिभा का ही परिचय नही मिलता किन्तु उक्त दोनों कवियों के काल की अन्तिम सीमा भी सुनिश्चित हो जाती है। यह लेख शक स० ५५६ (सन् ६३४ ई०) सातवीं शताब्दी के दक्षिण भारत के राजनैतिक इतिहास पर अच्छा प्रकाश डालता है। रविकोति चालूक्य पूलकेशी सत्याश्रय (पश्चिमी चालुक्य पूलकेशो द्वितीय) के राज्य में थे। यह गजा उनका संरक्षक या पोपक था। पुलकेशी स्वयं शूरवीर, रण कुशल योद्धा था, प्रशस्ति में उसकं पगक्रम, युद्ध गचालन, साहम और सैनिकों की गतिविधियों का इतना सुन्दर और व्यवस्थित वर्णन दिया है जो देखते ही बनता है। मगलेश अपने भाई के पूत्र पुलकेशी से ईर्षा करता था-उसकी कीति से जलता था और अपने पुत्र को राजा बनाना चाहता था। पर न समान प्रतापी पुलकेशी के सामने उसकी शक्ति कु ठित हो गई-वह काम न पा सकी, और राज्यलक्ष्मी ने पुलकेशी को वरण किया।
पुलकेशी ने पाप्यायिक, गोविन्द, गंग, प्रलूप, मौर्य, लाट, मालव, गुर्जर, कलिग, कोसल, पल्लव, चोल, निन्यानवे हजार गांव वाले महाराष्ट्र, पिप्टपुर का दुर्ग, कुणालद्वीप, वनवामी अोर पश्चिम समुद्र की पुरी को जीत लिया था। और राजा हर्प वर्द्धन को रोक कर नर्मदा के किनारे अपना मेनिक केन्द्र स्थापित किया था।
प्रशस्ति में पुलकेशी के प्रताप और तेज का बहुत सुन्दर वर्णन दिया है और बतलाया है कि पुलकेशी ने अपनी सेना के कारण पल्लव राजाओं को इतना आतंकित और भयभीत कर दिया था, जिसमे वे अपनी राजधानी की चहार दीवारी के भीतर ही निवास करते थे-बाहर निकलने का उनका साहस नहीं होता था। चोल देश पर विजय प्राप्त करने के लिये उसने कावेरी नदी पार की तथा दक्षिण भारत के अन्य प्रदेशों को अपने आश्रित किया। रवि कीर्ति का समय शक सं० ५५६ (सन् ६३४) सातवी शताब्दी है।
चन्द्रदेवाचार्य चन्द्रदेव नन्दि राज्य के यशस्वी, प्रभावयुक्त, शील-सदाचार-सम्पन्न प्राचार्य कल्वप्प नामक ऋपि पर्वत पर व्रतपाल दिवगत हुए थे। यद्यपि यह लेग्व काल रहित है। इसमें गम्वत् का उल्लेख नही है फिर भी इमे लगभग शक सं० ६२२ का माना जाता है । जो सन् ७०० होता है । इनका समय विक्रम की ८वी शताब्दी होना चाहिए।
-जैन लेख सं० भा० १ पृ० १४ ले० ३४ (८४) दूसरे चन्द्रदेव को कल्याणी के प्रसिद्ध गवंश राजामल्लिकार्जुन ने शक सं० ११२७ रक्ताक्षि संवत्सर द्वितीय पौष सुदि बुधवार मकर संक्रान्ति के दिन उक्त गुरु चन्द्रदेव भट को जलधारा पूर्वक दान दिया गया था। इनका समय सन् १२०५ ई० है।
(जैन लेख स० भा ३ पृ० २६४)
प्रार्यसेन मूलसंघ वरमेनगण और पोगरि गच्छ के विद्वान आचार्य थे। और ब्रह्ममेन व्रतिप के शिष्य थे। जो अनेक राजाओं द्वारा सेवित थे। आर्यसेन के शिप्य महासेन थे। शिलालेख में महासेन मुनीन्द्र के छात्र चाकि
१. म विजयता रविकीति: कविताधित कालिदास भारवि कीतिः। --मेगति लेख २ श्रीमूलसंघे जिनधर्ममूले, गणाभिधाने वरसेन नाम्नि। गच्छषु तुच्छऽपि पोगर्य भिक्खे संस्तूपमानो मुनिग> मेनः ।। तस्यायसेनस्य मुनीश्वरस्य शिष्यो महामेन महा मुनीन्द्रः ।। -जैन लेख म० भा०२ पृ० २२८
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
राज वाणस वंश के तथा केतलदेवी के आफिसर थे। उन्होंने शांतिनाथ, पार्श्वनाथ तथा सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा बनवाई थीं, और पौन्नवाड़ वर्तमान होन्वाड में त्रिभुवन तिलक नामक चैत्यालय बनवाया ।' ओर उसके लिए कुछ जमीन तथा मकानात् शक स० ६७६ सन् १०५४ मे दान दिया था। अतः प्रायसेन का समय सन् १०२६ के लगभग हाना चाहिये।
-जैन शिलालेख भा०२१०२२८
आर्यनन्दी कवि प्रसग ने, जो नागनन्दी का शिप्य था। उसने आर्यनन्दी गुरु को प्रेरणा से वर्धमान पुराण की रचना की थी। कवि ने इसे सं०६१० में बनाकर समाप्त किया था। कवि का मिन जिनाप्य नाम का एक ब्राह्मण विद्वान था। वह पक्षपात रहित, जिनधर्म में अनुरवत, बहादर और परलोक भीरू था. उमर्क, व्याख्यान शीलता और पुण्य श्रद्धा को देखकर उक्त पुराण ग्रन्थ की रचना की है। आर्यनन्दि गुरु का समय विक्रम की १० वीं शताब्दी का प्रारम्भ है।
जयसेन यह लाड वागडसघ के पूर्णचन्द्र थे। शास्त्र समुद्र के पारगामी अोर तप के निवास थे। तथा स्त्री के कलारूपी वाणों मे नही भिदे थे-पूर्ण ब्रह्मचर्य गे प्रतिष्ठित थे। जैसा कि प्रद्युम्नचरित की प्रशस्ति के निम्न पद्य में प्रकट है :
श्रीलाटवर्गट नभस्तल पूर्णचन्द्रः शास्त्रार्गवान्तग सुधी तपसां निवासः ।
कान्ता कलावपि न यस्य शरीविभिन्नं, स्वान्तं बभब स मुनिर्जयसेन नामा ।। इनके शिप्य गुणाकरमेन सूरि थे और प्रशिष्य महामेन, जो मुञ्ज नरेश द्वारा पूजित थे। इन जयसेन का का समय विक्रम की दशवी शताब्दी है।
कनकसेन कनकसेन सेनान्वय मूलमघ पोगरीगण के सिद्धान्त भट्टारक पिनयमेन के शिष्य थे। शक सं०८१५ (सन् १ ) में निधियण्ण और बेदियण्ण नाम के दो वणिक पुत्रा ने (Sons of ainerchait from Srimangal ने नगडम (धर्मपूरी) मे एक जिनमदिर बनवाया। इनमें पहने को राजा गे 'मूलपल्लि' नाम का गाव दान में मिला। जिसे उसने कनकमेन भट्टारक को मन्दिर की सुव्यवस्था के लिये प्रदान किया।
(जैन लेख म० भा०४ पृ० ३६)
अजितसेनाचार्य आचार्य अजितसेन आर्यनेन के गिप्य थे। बड़े भारी विद्वान और तत्व चिन्तक थे । मूलगुण्ड के सन् १०५३ ई० के एक शिला लेखमे अजितसेन नट्टारक को 'चन्द्रिकावाटान्वयवारप्ट' बतलाया है। यह राजाओं से सम्मानित थे । गंगवंशी राजा मार्रासह पार राचमल्ल के गुरु थे। और इनके मत्री एव सेनापति चामुण्डराय के भी गुरु थे। इसी में गाम्मटसार के कर्ता प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने उन्हें ऋद्धि प्राप्त गणधर देवादि के समान गुणी और भुवन गुरु बतलाया है । जैसाकि उसका निम्न गाथा से प्रकट है :------ -- - ----- - - - - - - -- - -------- ---
१. तन्नि मत मुबग बुम्भुकमत्युदात्त, लोक-प्रनिविभ-बान्नरपानवाडे । ररम्यते परमशान्तिजिनन्द्रगेह, पार्श्वद्वयानुगतपाश्व॑सुपाश्र्वदासम् ।। महासनमुनेच्छात्र, चाङ्किगजन निर्मित । द्रष्टु कामाघसंहारि शान्तिनाथस्य बिम्बकम् ।। -जैन शि० ले० सं०१० २२६
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
प्रज्जज्जसेण गुणगण समूह संधारि-अजियसेण गुरु ।
भवणगुरु जस्स गुरु सो राप्रो गोम्मटो जयऊ ॥३३॥ यह अजितसेन अपने समय के प्रसिद्ध प्राचार्य थे।
चामुण्डराय का पुत्र जिनदेवन भी इनका शिप्य था। उसने सन् ६६५ ई० में श्रवणबेलगोल में एक जिन मन्दिर बनवाया था' । प्रस्तुत अजितमेनाचायं प्रसिद्ध कवि रन्न' भा गुरु थे।
गंगवंशी राजा मारसिह बड़ वार प्रोर जिनधर्म भक्त थे। इन्होंने राष्ट्रकट नरेश कृष्ण ततीय के लिये गर्जरदेश को विजय किया, विन्ध्यपर्वत की तली में रहने वाले किराता के समूह का जीता, मान्यखेट में कृष्णराज की सेना की रक्षा की, दन्द्रगज चतुर्थ का अभिषेक कराया। और भी अनेक राजानों को विजित किया। अनेक यद्ध जीते, और चेर, चोड, पाण्ड्य, पल्लव नरेशां को परास्त किया। जैन धर्म का पालन किया । अनेक जिनमन्दिर बनवाये और मन्दिरों को दान दिया। मार्गमह ने ६६१ ई० से ६७ ई० तक राज्य किया है। इनके धर्म महाराजाधिराज. गंगचडामणि, गंगविद्याधर, गगकन्दपं ओर गंगवज प्रादि विरुद पाये जाते है। और अन्त में राज्य का परित्याग कर अजितगेन गुरु के समीप सन् ६७४ ई० में बकापुर में समाधि पूर्वक शरीर का परित्याग किया।
अजित सेनाचार्य का समय ई० सन् ६६० (वि० स० १०१७) है । जितसेन के शिष्य कनकसेन द्वितीय थे।
नागनन्दी सूरस्थ गण के मुनि श्रीनन्दि भट्टारक के प्रशिप्य और विनयनन्दि सिद्धान्त भट्टारक के शिष्य थे। इनके पाद प्रक्षालन पूर्वक कुक्कनूर ३० में स्थित अपनी जागीर मे ३०० मन्तर प्रमाण कृप्य भूमि, कोपण में यादव वंश में समुत्पन्न महा सामन्त शङ्कर गण्डरस द्वारा निर्मापित जयधीर जिनालय को नित्य प्रति की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये दान में दी गई थी। यह लेख अकाल वर्ष कन्नरदेव (राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय) के राज्य में रक्ताक्षि संवत्सर एवं शक संवत् ८८७ सन् ६६४ ईस्वी में लिखा गया था। इससे नागनन्दी का समय सन् ९६४ है।
-जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० ४२६
गोल्लाचार्य मल संघान्तर्गत नन्दिगण से प्रमत देशीयगण के प्रसिद्ध आचार्य थे, और गोल्लाचार्य नाम से ख्यात थे। यह गृहस्थ अवस्था में पहले गोल्लदेश के अधिपति (गजा) थे। और नलचन्दिल नाम के राजवंश में उत्पन्न हा थे। उन्होंने किसी कारणवश संसार से भयभीत हो, राज्य का परित्याग कर जिनदीक्षा ले ली थी। और तपश्चरण द्वारा प्रात्म-साधना में तत्पर थे। वे श्रमण अवस्था में अच्छे तपस्वी, और शुद्धरत्नत्रय के धारक थे। सिद्धान्तशास्त्ररूपी समद्र की तरंगों के समूह से जिन्होंने पापों को धो डाला था। इनके शिष्य काल्य योगी थे। इनका समय संभवतः दशवीं शताब्दी है।
१. इत्याद्य द्ध मुनीन्द्रसन्ततिनिधी श्रीमूलमधे नतो।
जाते नन्दिगण-प्रभेदविलमद्देशीगणे विश्रते। गोल्लाचार्य इति प्रसिद्ध-मुनिपोऽभूद्गोल्लदेशाधिपः । पूर्व के न च हेतुना भवभिया दीक्षां गृहीतस्मुधी :।।
-जनलेखसंग्रह भा०१ ले० नं० ४० पृ० २५
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
अनन्तवीर्य (वृद्ध)सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार एक वृद्ध अनन्तवीर्य हुए हैं। सिद्धिविनिश्चय टीका के पृ० २७, ५७, १३५, ५३८) से ज्ञात होता है कि उनकी यह टीका रविभद्रपादोपजीवी अनंतवीर्य को प्राप्त थी, उन्होंने अपनी टीका में उसकी कुछ बातों का निरसन भी किया है । पर वे उसमे प्रभावित नही थे, और संभवत: वह उन्हें विशेष रुचिकर भी न थी। इसी से उन्होंने अपनी टीका का निर्माण किया। इससे इतना तो निश्चित है कि यह अनन्तवीर्य उनसे पूर्ववर्ती है। सभवतः इनका समय वि० की हवी शताब्दी का मध्यकाल हो सकता है।
अनन्तवीर्य इनका पेग्गर के कन्नड शिलालेख में वीरसेन सिद्धान्त देव के प्रशिप्य और गोणमेन पण्डित भट्रारक के शिप्य के रूप में उल्लेख है। ये श्री बेलगोल के निवासी थे। इन्हें बेहोरेगरे के राजा श्रीमत रक्कम ने पेरग्गदूर तथा नई खाई का दान किया था। यह दान लेख शक सं०८६९ (ई० मन् १७७) का लिखा हुआ है। अतः इनका समय ईसा की दसवीं शताब्दी है।
इन्द्रनन्दी प्रथम इनका उल्लेख ज्वाला मालिनी कल्प की प्रशस्ति में इन्द्रनन्दी (द्वितीय) ने किया है। इन्द्रादि देवों के द्वारा इनके चरण कमल पूजित थे। जिनमत रूपी जलधि (समुद्र) से पापलेप को धो डाला था। सिद्धान्त शास्त्र के जाता त्रिलोक रूपी कमल वन में विचग्न करने वाले यशस्वी राजहंस थे । इनका समय विक्रम की दशवी शताब्दी का पूर्वार्ध है।
वासवनन्दी यह इन्द्रनन्दी प्रथम के शिष्य थे। बड़े भारी विद्वान थे। जिनका चरित्र पाप रूपी शत्रु सैन्य का हनन करने के लिये तेज तलवार के समान था। और चित्तशरत्कालीन जल के समान स्वच्छ और शीतल था, जिनकी निर्मल कीति शरत्कालीन चन्द्रमाकी चादनी के समान प्रकाशमान थी। इनका समय भी विक्रम का दशवी शताब्दी का मध्य भाग होना चाहिये।
१. श्री बेलगोलनिवामिगलप्प श्री बीग्मेनसिद्धान्नदेवर वर शिष्ययर श्रीगोरगमेनपण्डितभट्टारकवर शिष्य श्रीमन अनन्तवीर्यगले....
-जन शिला० सं० भा० २ पृ० १६६ २. आसीदिन्द्रादिदेव स्तुतपदकमलश्रीन्द्रनदिमुनीन्द्रो ।
नित्योत्सप्पच्चरित्री जिनमतजलावर्घातपापोपलेपः । प्रज्ञानावामनोद्यत्प्रगुणगणभृतोत्कीर्णविस्तीर्ण सिद्धा
नाम्भोगशिस्त्रिलोक्याबुजवन विचरतसद्यशो राजहंस. ।। ३. यदवृत्तं दुरितारिसन्य हनने चण्डासिधारायितम् ।
चित्तं यस्य शरत्सरसलिलवत् म्वच्छं सदा शीतलम् । कीर्तिः शारदकौमुदी शशिभृतो ज्योत्स्नेव यस्याऽमला। स श्री वासवनंदिसन्मुनिपति. शिष्यस्तदीयो भवेत् ।।
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी दसवीं शताब्दी के आचार्य
२४१
रविचन्द्र.प्रस्तुत रविचन्द्र सूरस्थगण के एलाचार्य की गुरु परम्परा में हुए हैं। प्रभाचन्द योगोश, कल्नेलेदेव, रविचन्द्र मुनीश्वर रविनन्दि देव-एलाचार्य ।
गंग राजा मारसिंह (द्वितीय) के समय पीप कृष्ण ६ मंगलवार शक ८८४ दुन्दुभि संवत्सर, उत्तरायण संक्रान्ति के समय मेलपाटि के स्कन्धावार मे कोमल देश में स्थित कादलर' ग्राम एलाचार्य को दिये जाने का उल्लेख है। चूकि इस कन्नड शिलालेख का समय सन् ६६२ है ।' अतः यह रविचन्द्र दशवी शताब्दी के विद्वान हैं।
मुनि रामसिंह (दोहापाहुड के कर्ता) मुनि रामसिंह ने अपना कोई परिचय नहीं दिया, और न अपने गुरु का नामोल्लेख ही किया । ग्रन्थ में रचनाकाल भी नहीं दिया और न अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख ही किया दनको एकमात्र कृति 'दाहा पाहुइ' है। जिसमें २२२ दोहे हैं। जिनमें प्रात्म-सम्बोधक वस्तु तत्त्व का वर्णन किया गया है । दोहे भावपूर्ण और सरस हैं। चूंकि इस ग्रन्थ के कर्ता रामसिंह योगी हैं। उन्होंने २११ नं० के दोहे में 'रामीह मणि इम भणइ' वाक्य द्वारा अपने को उसका कर्ता सूचित किया है। डा० ए० एन० उपाध्ये ने लिखा है कि 'एक प्रति की सन्धि में भी उनका नाम मात्र आया है। प्रस्तुत रामसिंह योगीन्दु के बहुत ऋणी हैं । उन्होंने उनके परमात्म प्रकाश से बहुत कुछ लिया है।' रामसिंह रहस्यवाद के प्रेमी थे। इसी से उन्होंने प्राचीन ग्रन्थकारीक पद्यों का उपयोग किया है। वे जोइन्दु और हेमचन्द के मध्य हा रामसिंह का समय दसवीं शताब्दी है । क्योंकि ब्रह्मदेव ने परमात्म प्रकाश की टीका में उसके कई दोहे उद्धत किये हैं। ब्रह्मदेव का समय वि० की ११वीं शताब्दी है । अतः रामसिंह १० वीं शताब्दी के विद्वान होने चाहिये।
ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय अध्यात्म चिन्तन है। प्रात्मानुभूति और सदाचरण के बिना कर्मकाण्ड व्यर्थ है। सच्चा सुख, इन्द्रिय निग्रह और आत्मध्यान में हैं । मोक्षमार्ग के लिये विषयों का परित्याग करना आवश्यक है। बिना उसके देह में स्थित प्रात्मा को नहीं जाना जा सकता । ग्रन्थ में रहस्यवाद का भी संकेत मिलता है। कुछ दोहों का पास्वाद कीजिये।
हत्थ प्रहहं देवली बालहं णाहि पवेस् ।
संतुणिरंजणु तहि वसइ णिम्मल होइ गवेसु ॥४॥ साढे तीन हाथ का यह छोटा-सा शरीर रूपी मन्दिर है । मूर्ख लोगों का उसमें प्रवेश नहीं हो सकता. इसी में निरंजन (आत्मा) वास करता है, निर्मल होकर उसे खोज।
अप्पा बुझिउ णिच्च जइ केवलणाण सहाउ।
ता पर किज्जइ काइ वढ तण उप्पर अनुराउ ॥२२॥ जब केवल ज्ञान स्वभाव प्रात्मा का परिज्ञान हो गया, फिर यह जीव देहानुराग क्यों करता है ?
धंधइ पडियउ सयल जगु, कम्मई करइ प्रयाणु ।
मोक्खहं कारण एक्कु खणु ण वि चितइ अप्पाणु ॥ सारा संसार धन्धे में पड़ा हुआ है और प्रज्ञानवश कर्म करता है, किन्तु मोक्ष के लिए अपनी आत्मा का एक क्षण भी चिन्तन नहीं करता।
सप्पिं मुक्की कंचुलिय जं विसु तं ण मुएह ।
भोयहं भाउ ण परिहरइ लिंगग्गहणु करेइ ॥१५ जिस तरह सर्प कांचुली तो छोड़ देता है, पर विष नहीं छोड़ता। उसी तरह द्रव्य लिंगी मुनि वेष धारण कर लेता है किन्तु भोग-भाव का परिहार नहीं करता।
अप्पा मिल्लि वि जगतिलउ मूढ म झायहि अण्णु ।
जि मरगउ परिया णियउ तहु कि कच्चहु गण्णु ॥७२ १. (एन्युअलरिपोर्ट माफ साउथ इण्डियन एपिग्राफी सन् १९३४-५२३ पृ० ७)
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ जगतिलक प्रात्मा को छोड़कर हे मूढ ! अन्य किसी का ध्यान मत कर, जिसने आत्मज्ञान रूप माणिक्य पहिचान लिया, वह क्या कांच को कुछ गिनता है।
मढ़ा देह म रज्जियइ देह ण अप्पा होइ।
देहई भिण्णउ णाणमउ सो तहं प्रप्पा जोइ॥१०७।। हे मढ ! देह में गग मत कर, देह आत्मा नही है। देह से भिन्न जो ज्ञानमय है उस आत्मा को तूं देख ।
हलि सहिकाइ करईसो दप्पण, जहि पडिबिम्बु ण दोसइ अप्पणु ।
धंधवालु मो जगु पडिहासइ, घरि अच्छंतु ण घरवइ दीसइ ॥१२२ हे सखि ! भला उस दर्पण का क्या करे, जिसमें अपना प्रतिविम्ब नही दिखाई देता। मुझे यह जगत्लज्जावान प्रतिभासित होता है, जिस घर में रहते हए भी गहपति का दर्शन नही होता।
तित्थई तित्थ भमेहि वढ धोयउ चम्मु जलेण ।
एह मण किमधोएसि तहुं मइलउ पाव मलेण ॥१६३॥ हे मर्ख ! तुने तीर्थ मे तीर्थ भ्रमण किया और अपने चमड़े को जल से धो लिया, पर तू इस मन को, जो पाप रूपी मल से मलिन है, कैसे धोयगा।
अप्पा परहं ण मेलयउ पावागमणु ण भग्गु ।
तुस कंडं तहं कालु गउ तंदलु हत्थि ण लग्गु ॥१८५ न आत्मा और पर का मेल हुआ और न आवागमन भग हुआ। तुष कृटते हुए काल बीत गया किन्तु तन्दुल (चावल) हाथ न लगा।
पुण्णण होइ विहम्रो विहवेण मनो मएण मइ मोहो।
मइ मोहेण य णरयं तं पुण्णं अम्ह म होउ ।। पूण्य से विभव होता है, विभव से मद, और मद से मतिमोह, और मति मोह से नरक मिलता है। ऐसा पुण्य मुझे न हो।
इस तरह यह दोहा पाहुड बहुत सुन्दर कृति है । मनन करने योग्य है ।
पद्मकोति यह मेनसंघ के विद्वान चन्द्रसेन के शिष्य माधवसेन के प्रशिष्य और जिनसेन के शिष्य थे। अपभ्र श भाषा के विद्वान और कवि थे। इन्होने अपनी गुरु परम्परा में इनका उल्लेख किया है। इनकी एकमात्र कृति 'पासमाहचरिउ' है। जिसमे १८ सन्धिया और ३१५ कडवक हैं। जिनमें तेवीसवे तीर्थकर पार्श्वनाथ का जीवनपरिचय अकित किया गया है। कथानक प्राचार्य गुणभद्र के उत्तर पुराण के अनुसार है । ग्रन्थ में यान्त्रिक छन्दों के अतिरिक्त पज्झटिका, अलिल्लह, पादाकुलिक, मधुदार, स्रग्विणी, दीपक, सोमराजी, प्रामाणिका, समानिका और भुजंगप्रयात छन्दों का उपयोग किया गया है।
कवि ने पार्श्वनाथ के विवाह की चर्चा करते हए लिखा है कि पार्श्वनाथ ने तापसियों द्वारा जलाई हुई लकड़ी से सर्प युगल के निकलने पर उन्हें नमस्कार मंत्र दिया, जिससे वे दोनों धरणेन्द्र पौर पद्मावती हुए। इससे पार्श्वनाथ को वैराग्य हो गया। तीर्थकर स्वयं बुद्ध होते है उन्हें वैराग्य के लिए किसी के उपदेशादि की आवश्यकता नही होती। किन्तु बाह्य निमित्त उनके वैराग्योपादन में निमित्त अवश्य पड़ते हैं। श्वेताम्बरीय विद्वान हेमविजय
१. सुप्रसिद्ध महामइ णियमधर, थिउसेण सघु व्ह महिहि वर ।
तहि चदमेणु णामेण रिसी, वय-संजम-णियमइ जासु किसी। तहाँ मीसु महामइ गियमधारि, रणयवंतु गुणायरु बंभयारि । सिरि माहउसेण महाणुभाउ, जिणसेणु सीसु पुण तासु जाउ । तहो पुब्ब सणेहें पउमकित्ति, उप्पण्णू सीसु जिणु जासु चित्ति ।
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी-दशवी शताब्दी के आचार्य
२४३
गणी ने तो नेमिनाथ के भित्ति चित्रों को पार्श्वनाथ के वैराग्य का कारण लिखा है । दिगम्बर परम्परा में नाग घटना को वैराग्य का कारण लिखा है। इस मान्यता में कोई सैद्धान्तिक हानि नही है । वादिराज ने पार्श्वनाथ के वैराग्य को स्वाभाविक बतलाया है । पार्श्वनाथ ने विवाह नही कराया, उन्हे वैराग्य हो गया। मूल आगम समवायाग और कल्पसूत्र में भी पार्श्वनाथ के विवाह का वर्णन नही है। उन्हे बाल ब्रह्मचारी प्रकट किया है। किन्तु वाद के श्वेताम्बराचार्य शीलाक, देवभद्र और हेमचन्द्र ने उन्हे विवाहित बतलाया है । मचन्द्र ने १२ वे तीर्थकर वासुपूज्य को बालब्रह्मचारी प्रकट करते हुए पार्श्वनाथ को भी अविवाहित (ब्रह्मचारा) बतलाया है । आ० शीलाक ने उन्हे 'चउपन्न पुरिसचरिउ' में दारपरिग्रह करने और कुछ काल राज्य पालन कर दीक्षित होने का उल्लेख किया है । जबकि हेमचन्द्र ने बालब्रह्मचारी लिखा है । एक ही ग्रन्थकार अपने ग्रन्थ में एक स्थान पर पार्श्वनाथ को बाल ब्रह्मचारी लिखे और दूसरी जगह उन्हें विवाहित लिखे, इसे समुचित नहीं कहा जा सकता । दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थकारों ने - यतिवृषभ, गुणभद्र, पुष्पदन्त, वादिराज योर पार्श्वकीर्ति आदि ने उन्हें विवाहित हो लिखा है ।
पार्श्वनाथ के वैराग्य का कारण कुछ भी रहा हो, पर उनके वैराग्य को लोकान्तिक देवों ने पुष्ट किया । पार्श्वनाथ ने दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण किया। वे एक बार भ्रमण करते हुए उत्तर पंचाल देश की राजधानी अहिच्छत्रपुर के बाह्य उद्यान में पधारे। दोष रहित, वे मुनि कायात्सर्ग में स्थित हो गए, गिरीन्द्र के समान वे ध्यान में निश्चल थे । ध्यानानल द्वारा कर्म समूह को दग्ध करने का प्रयत्न करने लगे। उनके दोनों हाथ नीचे लटके हुए थे, उनकी दृष्टिनामाग्र थी, वे समभाव के धारक थे, उनका न किसी पर रोप था यार न किसी परनेह, वे मणिकचन को धूलि के समान, सुख, दुख, शत्रु मित्र को भी समानभाव मे देखते थे। जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है
तहि फासू जोउवि महिमएस, थिइ काश्रसग्गे विगय-दोसु । काल- पूरिउमणिमुदि, थिउ प्रविचल णावs गिरिवरद् । प्रलंबिय कर यलु भाणु दक्ख, णासा- सिहरि मुणवद्ध चक्ख । सम-सत्तु - मित्त-सम-रोस-तोस, कंचण-र्माण पेक्खइ धूलि सरिसु सम- सरिस पेक्खइ दुक्ख सोक्ख, वंदिउ णरवर पर गलइ मोक्ख ॥।
- पामणाहचरिउ ३४-३
कमठ का जीव जो यक्षेन्द्र हुआ था विमान द्वारा कही जा रहा था। वह विमान जब पार्श्वनाथ के ऊपर आया, तब रुक गया । विमान रुकने का उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, वह नीवे श्राया, तब उसने पार्श्वनाथ को ध्यानस्थ देखा, उन्हें देखते ही पूर्व भव के बेर के कारण उसने उन्हें ध्यान से विचलित करने का उपक्रम किया। परन्तु वे ध्यान में अविचल थे, उसमे वे जरा भी विचलित नहीं हुए । तब उसने रुट होकर पार्श्वनाथ पर घोर उपसर्ग किया । जब वे उससे भी विचलित नही हुए, तब उसने अत्यन्त रुष्ट होकर भयानक उपसर्ग किये, घनघोर वर्षा की।
२. दूत्थ पितृवचः पानोऽप्युल्लधयितु मनीश्वरः ।
भोग्यकर्म क्षपयितुमुदवाह प्रभावतीम || - त्रिपटिशनारा पुरपचरित्र पर्व लो० २१०
३. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरिन पर्व लोक १०२ पृ०३८ तथा
6
मल्लिनेंमिपावरति भाविनोऽपि त्रयोजिनाः ।
जकृतोद्वाहोऽकृतराज्यः प्राब्रजिष्यन्ति मुक्तये ।। त्रिपष्टिगलावा पुरप चरित पर्व ४ १०३ पृ० ३८ ४. ततो कुमारभावमग्गुवालिऊण किचिकाल कयदार परिग्गहो रायगिरि मणुवालिऊरग...।
५. घोरु भीमु उपसग्गु करत हो, मीयलु सतिल - गियरु वरिसत हो ।
बोलिउ मत्तह रत्तिरिणरतरु, तो विरण असुरहो मणुणिम्मच्छरु । जिह जिह मलिल पड घरण मुक्कउ तिह तिह वधि जिग्गिद हो टुक्कउ तो विग्ग चल चित्त तहो धीर हो, वालुवि क इ साहि सरीर हो । जलुलघिउ खधि जिरिगट हो, आमा चलिउ नाम घरगद हो ।
- चउपन्न पुरिमचरिउ पृ० १०४
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
उसने सात रात्रि तक निरन्तर वर्षा की। जिससे वर्षा का पानी पार्श्वनाथ के कंधो तक पहुंच गया। उसी समय धरणिद्र का पासन कम्पायमान हुआ, उसने भगवान पार्श्वनाथ का उपसर्ग जानकर उनकी रक्षा को।
उपसग दूर होते ही भगवान को केवलज्ञान हो गया ओर इन्द्रादिक देव केवलज्ञान कल्याणक की पूजा करने आये। कमठ के जीव उस संवरदेव ने अपने अपराध की क्षमा मांगी और वह उनकी शरण में पाया। उस समय जो अन्य तपस्वी थे वे भी सब पाश्र्वनाथ की शरण में आकर सम्यक्त्व को प्राप्त हुए।
प्रफुल्ल कुमार मोदी ने 'पासारउ' की प्रस्तावना में पद्मकीर्ति के इस ग्रंथ का रचना काल शक सं० REE बतलाया है। जबकि ग्रन्थकर्ता ने समय के साथ शक या विक्रम शब्द का प्रयोग नहीं किया, तब उसे शक संवत कैसे समझ लिया गया। दूसरे पद्मकीति ने अपनी जो गुरु परम्परा दी है उसमें चन्द्रसेन, माधवसेन, जिनसेन और पद्मकीर्ति का नामोल्लेख है। ग्रन्थ में कर्नाटक महाराष्ट्र भाषा के शब्दों का उल्लेख होने से उन्हें दाक्षिणात्यं मान कर शक संवत् की कल्पना कर डाली है।
हिरेआवली के लेख में चन्द्रप्रभ और माधवसेन का उल्लेख देखकर तथा चन्द्रप्रभ को चन्द्रसेन मान कर उनके समय का निश्चय किया है, जबकि उस लेख में माधवसेन के शिष्य जिनसेन का कोई उल्लेख नहीं है। ऐसी स्थिति में पद्मकीति के गुरु जिनसेन का कोई उल्लेख न होने पर भी उक्त चन्द्रप्रभ ही चन्द्रसेन और जिनसेन के प्रगुरु होंगे। यह कल्पना कुछ सगत नहो कही जा सकती, और न इस पर से यह फलित किया जा सकता है कि ग्रन्थकता पद्मकाति शक सं० ६६ के ग्रथकार है-इसके लिए किन्ही अन्य प्रामाणिक प्रमाणा की खाज आवश्यक है नये प्रमाणो के अन्वपण हान पर नय प्रमाण सामन प्रायग, उन पर से पद्म काति का समय विक्रम का दशवा या ग्यारहवीं शताब्दी निश्चित होगा।
अनन्तवीर्य अनन्तवीर्य-जिनका मटोल (बीजापुर बम्बई) के शिलालेख में निर्देश है। यह शिलालेख चालुक्य जयसिंह द्वितीय और जगदेकमल्ल प्रथम (ई० सन् १०२४) के समय का उपलब्ध हुआ है। इसमें कमल देव भट्टारक, विमुक्त वतीन्द्र सिद्धान्तदेव, प्रण्णिय भट्टारक, प्रभाचन्द्र और अनन्तवीर्य का क्रमश: उल्लेख है। ये अनन्तवीर्य समस्त शास्त्रों के विशेषकर जैनदर्शन के पारगामी थे । अनन्तवीर्य के शिष्य गुणकीति सिद्धान्त भट्टारक और देवकीति पण्डित थे। ये संभवतः यापनीय संघ और सरस्थगण के थे।
कनकसेन चंद्रिकावाट सेनान्वय के विद्वान वीरसेन के शिष्य थे। यह वोरसेन कुमारसेनाचार्य के संघ के साधुओं के गुरु थे। इनका समय पी० बी० देशाई ने ८९० ई. बतलाया है। और कूमारमेन का समय ८६० ई० निदिष्ट किया है. चिकार्य ने मूलगुण्ड में एक जैन मन्दिर बनवाया था। उसके पूत्र नागार्य के छोटे भाई अरसार्य ने, जो नीति और आगम में कुशल था, और दानादि कार्यों में उद्युक्त तथा सम्यक्त्वी था। उसने नगर के व्यापारियों की सम्मति से एक हजार पान के वृक्षों के खेत को मन्दिरों की सेवा के लिये कनकसेन को शक संवत्० ८२४ सन् १०३ ई० को अर्पित किया था। अतएव इन कनकसेन का समय ईसा की नौवीं शताब्दी का उपान्त्य और दशवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है।
-(जैन लेख संग्रह भा० २ पृ० १५८)
अर्हनन्दी अड्डकलिगच्छ और बलहारिगण के सिद्धान्त पार दृष्टा सकलचन्द्र सिद्धान्त मुनि के शिष्य अप्पपोटि
१. जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० १०५ २. जैनिज्म इन माउथ इंडिया, पी. वी. देशाई पृ० १३६
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमी दशवीं शताब्दी के आचार्य
२४५ मुनीन्द्र के शिष्य थे । इन्हें शक सं० ८६७ शुक्रवार के दिन (5 th December ६४५ A.D) पूर्वीय चालुक्य अम्मा द्वितीय या विजयादित्य षष्ठ का जो चालुक्य भीम द्वितीय वंगी (vengi) के राजा का पुत्र और उत्तराधिकारी था, और जिसने ई० सन् ६७० (वि० सं० १०२७) तक राज्य किया। यह राजा जैनियों का संरक्षक था। महिला चामकाम्ब की प्रेरणा से, जो पट्टवर्धक घराने की थी। और अर्हनन्दी की शिष्या थी, उस राजा ने कलु चुम्बरु नामका एक ग्राम सर्व लोकाश्रय जिनभवन के हितार्थ अर्हनन्दी के पाद प्रक्षालन पूर्वक प्रदान किया। इनका समय ईसा की १०वों शताब्दी है।
___ धर्मसेनाचार्य धर्मसेनाचार्य-यह चन्द्रिकावाट वंश के विद्वान थे। इनका आचार निर्मल था और इनकी बड़ी ख्याति थी । श्री ए. एफ. पार० हानले के द्वारा प्रकाश में लाई गई पट्टावलियों में से एक में चन्द्रिकपाट गच्छ का निर्देश काणूरगण और सिंहसंघ से सम्बन्धित था। जैसे हनसोग अन्वय का नाम हनसोग नामक स्थान से निसृत हुआ है। उसी तरह चन्द्रिकावाट भी संभव है किसी स्थान विशेष का नाम हो । देसाई महोदय का सुझाव है कि बीजापुर जिले के सिन्द की ताल्लुके में जो वर्तमान में चन्द्रकवट नामका गांव है, यह वही हो सकता है।
मूलगूण्ड से प्राप्त एक शिलालेख में लिखा है कि वीरसेन के शिष्य कनकसेन सूरि के कर कमलों में एक भेंट दी गई । वीरसेन चन्द्रिकावाट के सेनान्वय के कुमारमेन के मुख्य शिष्य थे । संभव है वे कुमारमेन वही हों, जिन्होंने मूलगुण्ड नामक स्थान पर समाधिपूर्वक मरण किया था। इनका समय ईसा की हवीं और विक्रम की १०वीं शताब्दी का पूर्वार्ध हो सकता है।
इन्द्रनन्दी (श्रु तावतार के कर्ता) प्रस्तुत इन्द्रनन्दी ने अपना परिचय और गुरु परम्परा का कोई उल्लेख नहीं किया। और न समय ही दिया। श्रतावतार के कर्ता रूप से इन्द्रनन्दी का कोई प्राचीन उल्लेख भी मेरे अवलोकन में नहीं पाया। ऐसी स्थिति में उनके समय-सम्बन्ध में विचार करने में बड़ी कठिनाई हो रही हैं।
उनकी एक मात्र कृति 'श्रतावतार' है, जो मूलरूप में माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से तत्त्वानु शासनादि संग्रह में प्रकाशित हो चुका है। जिसमें संस्कृत के एक सौ सतासी श्लोक हैं। उनमें वीर रूपी हिमाचल से श्रुतगंगा का जो निर्मल स्रोत वहा है वह अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु तक अवच्छिन्न धारा एक रूप में चली आयी। पश्चात द्वादशवर्षीय भिक्षादि के कारण मत-भेद रूपी चट्टान से टकराकर वह दो भागों में विभाजित होकर दिगम्बर-श्वेताम्बर नाम से प्रसिद्ध है। दिगम्बर सम्प्रदाय में जो थुतावतार लिखे गये, उनमें इन्द्र नन्दी का थ तावतार अधिक प्रसिद्ध है। इसमें दो सिद्धान्तागमों के अवतार की कथा दी गई है । जिनपर अन्त को धवला और जयधवला नामकी विस्तृत टीकाएं, जो ७२ हजार और ६० हजार श्लोक परिमाण में लिखी गई हैं, उनका परिचय दिया गया है। उसके बाद की परम्परा का कोई उल्लेख तक नहीं है। प्रस्तुत इन्द्रनन्दी विक्रम की १० वीं शताब्दी के विद्वान हैं । ऐसा मेरा अनुमान है । विद्वान् विचार करें।
१. अहुकलि-गच्छ-नामा, बलहारिगण प्रतीत विख्यात यशाः । सिद्धान्त पारदृश्वा प्रकटित गुण सकलचन्द्र सिद्धान्त मुनिः । तच्छिष्यो गुणवान् प्रभुरमित यशास्सुमति रप्पपोटि मुनीन्द्रः ।। तच्छिष्यार्हनन्द्यङ्कितवर मूनये चामेकाम्बा सुभक्त्या । श्रीमच्छी सर्वलोकाश्रय जिनभवनख्यात सन्त्रार्थमुच्च ॥ ब्वेङ्गिनाथाम्मराजे क्षितिभृतिकलुचुम्बरु सुग्राममिष्टं ।
सन्तुष्टा दापयित्वा बुधजन विनुतां यत्र जग्राह कीर्ति । -जैन लेख सं० भा० ३ कलुचुम्बरु लेख पृ० १८२ २. देखो चामुण्डराय पुराण पद्य १४
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्याय ४
११वीं और १२वीं शताब्दी के विद्वान् प्राचार्य अहनन्दि
पद्मसेनाचार्य धर्मसेनाचार्य
विमलसेन पंडित वादिराज
सागरसेन सैद्धान्तिक दिवाकरनन्दि सिद्धान्तदेव
इन्द्रसेन भट्टारक दुर्गदेव (रिष्टसमुच्चय के कर्ता)
प्राचार्य माणिक्यनन्दी महाकवि पुष्प दन्न
नयनन्दी कविडड्ढा (संस्कृत पंचसंग्रह के कर्ता,
प्रभाचन्द्र (प्रमेयकमलमार्तण्डकर्ता) पंडित प्रवचनप्तेन
वीरसेन (माथुरसंघ) शान्तिनाथ
देवसेन इन्द्र कीति
नेमिषेण गणसेन पंडित (नेयायिक और याकरण)
माधवसेन गोपनन्दी
शान्तिदेव
अमितगति (द्वितीय) वासवनन्दी
ब्रह्म हेमचन्द्र (श्रुतस्कन्ध के कर्ता) वीरनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्ती (चन्द्रप्रभचरित्र के कर्ता, पद्मनन्दि (तिन्त्रिणी गच्छ) नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती (गोम्नट सार के कर्ता) कनकसेन (द्वितीय) प्रार्यसेन
नरेन्द्रसेन प्रथम महासेन
नरेन्द्र सेन (द्वितीय) चामुण्डराय (चामुण्डराय पुराण के कर्ता)
जिनसेन महाकवि वीर (जम्बू स्वामीचरित्र के कर्ता)
नयसेन पानन्दी (जंबद्वीप पण्णत्ती के कर्ता)
मल्लिषेण कवि धवल (हरिवंश पुराण कर्ता)
श्रीकुमार कवि (आत्म प्रबोध के कर्ता) जयकीति (छन्दोनुशासन के कर्ता)
अङ्कदेव भट्टारक ब्रह्मसेन प्रतिप
गुणकीति सिद्धान्तदेव मुनि श्रीचन्द्र
देवकीति पंडित (अनन्तवीर्य शिप्य) केशिराज
गोवर्द्धन देव
वृषभनन्दी
२४६
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२४७
दामनन्दी (कुमार कीतिशिष्य) दामनन्दि भट्टारक दामनन्दा (मुनि पूर्णचन्द शिष्य) भूपाल कवि (चतुर्विशतिका के कर्ता दामराज कवि कान्ति (कवियत्री) प्राचार्य शुभचन्द्र (ज्ञानार्णव के कर्ता) इन्द्रकीति केशवनन्दि (मेघनन्दि शिष्य) कुलचन्द्र मुनि (परमानन्द सि० के शिष्य) कोतिवर्मा मुनिपद्मसिंह (गाणसार के कर्ता) पद्मनन्दि मलधारि श्रुतकीर्ति कवि धनपाल (भविष्यदत्त कथा) जयसेन (लाडवागडसंघ) वाग्भट (नेमिनिर्वाणकाव्य के कर्ता) हरिसिंह मुनि हंस सिद्धान्त देव हर्षनन्दी महा मुनि हेमसेन भावसेन (गोपसेन शिष्य) वीरसेन हरिचन्द्र (धर्मशर्माभ्युदय के कर्ता) ब्रह्मदेव (द्रव्यसंग्रह वृत्ति) त्रिभुवनचन्द्र रामसेन (मूलसंघ सेनगण) दयापालमुनि (रूपसिद्धि के कर्ता) जयसेन (धर्मरत्नाकर के कर्ता) बाहुबली प्राचार्य माधवचन्द विद्य (त्रिलोकसार के टीकाकार) पद्मनन्दि (पंचविंशतिका के कर्ता) पद्मप्रभमलधारिदेव (नियमसार वृत्ति कर्ता) दामनन्दि विद्य कुलचन्द्रमुनीन्द्र कुलचन्द मुनि (द्वितीय)
प्राचण्ण ब्रह्मशिव बालचन्द अध्यात्मी राजादित्य कीर्तिवर्मा बोप्पण पंडित वीरनन्दी (आचारसार के कर्ता) गणधाकोति (ध्यानविधि के टीकाकार) भट्टवोसरि (प्रायज्ञान तिलक के कर्ता) नागचन्द्र (अभिनव पम्प) गुणभद्र कर्णपार्य श्रुतकीति (पंच वस्तु के कर्ता) वृत्तिविलास छत्र सेन सं० ११६६ सागरनन्दी सिद्धान्तदेव पहनन्दि (माघनन्दि सि० देव के शिष्य) माइल्ल श्वल (नयचक्र कर्ता) कुमुदचन्द्र (कल्याण मंदिर स्तोत्रकर्ता) श्रीचन्द्र (कथाकोश कर्ता) चन्द्रकीति (श्रुत विन्दु के कर्ता) चन्द्रकीति नाम के दूसरे विद्वान चन्द्रकीति (त्रिभुवन कीति शिष्य) चन्द्रकीति (भ० श्रीभूषण शिष्य) माद्यनन्दि सिद्धान्तदेव देवकीति गण्ड विमक्त सिद्धान्तदेव (माघनन्दि सि० के शिष्य) मणिक्यनन्दी माधवचन्द मलधारि (अमृतचन्द्र द्वि० के गुरु) गुणभद्राचार्य (धन्यकुमार चरित के कर्ता) माधवचन्दवती (देवकीति शिष्य) माधवचन्द्र (शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव शिष्य) वसुनन्दि सैद्धान्तिक नरेन्द्र कीति विद्य त्रिभुवन मल्ल
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४०
मुनिकनकामर (करकण्डु चरिउ) कवि श्रीधर (पाश्र्वनाथ चरित्रकर्ता अमृतचन्द द्वितीय मल्लिषेण मलधारि लक्ष्मणदेव लघु अनन्त वीर्य (प्रमेय रत्नमालाकार) बालचन्द सिद्धान्तदेव प्रभाचन्द्र (मेघचन्द्र वैविध शिष्य) माधवसेन नाम के अन्य विद्वान वीरसेन पंडितदेव नरेन्द्रसेन (सिद्धान्तसार के कर्ता) कवि सिद्ध व सिंह (पज्जुण्णचरिउ के कर्ता) पद्मनन्दिवती (एकत्व सप्तति के कनडी टीकाकार) गिरिकोति (गोम्मटसार पंजिका के कर्ता)
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ मेघचन्द विद्यदेव शान्तिषेण अमरसेन श्रीषण नेमिचन्द्र श्रीधर (गणित सारकर्ता) वासवचन्द्र मुनीन्द्र देवेन्द्र मुनि नयकोति मुनि माणिक्यसेन पंडित महासेन पंडितदेव प्रभाचन्द्र (बालचन्द्र शिष्य) प्रभाचन्द्र (मेघचन्द्र विद्य शिष्य) प्रभाचन्द्र विद्य रामचन्द्र मुनि शिष्य
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
कनकनन्दी गोम्मट सार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने अपने एक गुरु का नाम कनकनन्दी लिखा है। और बतलाया है कि उन्होने इन्द्रनन्दी के पास सकल सिद्धान्त को सुनकर 'सत्वस्थान' की रचना की है यथा
वर इंदणंदी गुरुणो पासे सोऊण सयल सिद्धतं ।
सिरि कणयणंदी गुरुणा सत्तुट्ठाणं समुद्दिढें ।।। यह सत्वस्थान ग्रन्थ 'विस्तर सत्व विभगी' के नाम से आरा जैन सिद्धान्त भवन में मौजूद है। जिसके नोट मुन्तार थी जुगलकिशोर जी ने लिये थे। प्रेमी जी ने कनकनन्दी को भी अभयनन्दी का शिप्य बतलाया है जो ठीक नही जान पड़ता, क्योकि नेमिचन्द्र ने स्वय उन्हे इन्द्रनन्दी से सकल सिद्धान्त का ज्ञान करना लिखा है। इस कारण वे इन्द्रनन्दी के शिष्य थे। नेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार कर्मकाण्ड में उक्त सत्वस्थान की ३५८ से ३६७ वें तक ४० गाथाए दी है। जबकि पारा भवन की प्रति में४८ या ४६ गाथाएं पाई जाती है । गोम्मटसार मे वे पाठ गाथाए नही दी गई। इससे कनकनन्दी का समय भी १०वी शताब्दी का अन्तिम भाग और ग्यारहवी का प्रारम्भ हो सकता है । अन्त की गाथा मे कनकनन्दी का भी सिद्धान्त चक्रवर्ती होना पाया जाता है।
वादिराज वादिराज-द्रमिल या द्रविडसंघ के विद्वान थे। द्रविडसंघस्थ नन्दिसंघ की अरुंगल शाखा के प्राचार्य थे। अरुंगल किसी स्थान या ग्राम का नाम है उसकी मुनिपरम्परा अरुंगलान्वय नाम से प्रसिद्ध हुई । षट्तर्कषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति और जगदेकमल्ल इनकी उपाधियां हैं।
वादिराज श्रीपालदेव के प्रशिष्य, मतिसागर के शिप्य और रूपसिद्धि (शाकटायन व्याकरण की टीका) के कर्ता दयापाल मुनि के मतीर्थ तथा गुरुभाई थे । वादिराज उनका म्वय नाम नही हैं किन्तु एक पदवी है, किन्तु उसका प्रचार अधिक होने के कारण वह मूल नाम के रूप में प्रचलित हुई जान पड़ती है । मूल नाम कुछ और ही रहा होगा।
चौलुक्य नरेश जयसिह देव की सभा में इनका बड़ा सम्मान था । और प्रख्यात वादियों में इनकी गणना थी। मल्लिपेण' प्रशस्ति के अनुसार ये राजा जयसिह द्वारा पूजित थे (मिहमम> पीट बिगव ) और उन्हें महान् वादी,
१. देखो जैन माहित्य और इतिहास प० २६६ २. पुरातन जैन वाक्य सूची की प्रस्तावना पृ०७३ ३ हितपिणा यस्य नणामदत्तवाचा निबद्धा हितरूपमिद्धिः। वन्द्यो दयापाल मुनिः स वाचा सिद्धम्सताम्मूर्द्धनि यः प्रभावैः ।। यस्य श्री मतिमागगे गुरुग्मो चञ्चद्यशश्चन्द्र स्रः? श्रीमान्यस्य स वादिराज गणमत्स ब्रह्मचारी विभोः । एकोऽतीव कृती स एव हि दयापालवती यम्मनम्याम्तामन्य-परिग्रह-ग्रह कथा स्वे विग्नहं विग्रहः ॥ -मल्लि० प्र० जैनले. भा०११० १०८ ४. श्रीमत्मिह महीपतेः परिपदि प्रग्यात वादोन्नति
स्तर्क न्यायतमो पहोदयगिरि. सारस्वत. श्रीनिधिः । शिप्य श्रीमतिसागरस्य विदुषां पत्युस्तपः श्रीभृतां,
भत्त: सिहपुरेश्वरो विजयते स्याद्वादविद्या पतिः ॥ ५ न्याय वि०प्र० ५. मल्लिषेण प्रशस्ति शक सं० १०५० (वि० सं०११८५) में उत्कीर्ण की गई है।
२४६
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
विजेता और कवि प्रगट किया है।
जर्यासह (प्रथम) दक्षिण के चौलुक्य या सोलंकी वंश के राजा थे। इनके राज्य काल के ३० से अधिक शिलालेख और दान पत्र आदि मिल चुके हैं। जिनमें पहला लेख शक् सं० ६३८ का है और अन्तिम शक सं० ६६४ का। अतः ६३८ से ६६४ तक इनका राज्य काल निश्चित है। इनके शक सं० ६४५ पौषवदी दोइज के एक लेख में उन्हें भोजरूप कमल के लिये चन्द्र । राजेन्द्र चोल (परकेसरीवर्मा) रूप हाथी के लिये सिह, मालवे की सम्मिलित सेना को पराजित करने वाला और चेर-चोल राजानों को दण्ड देने वाला लिखा है।
वादिराज ने पार्श्वनाथ चरित की प्रशस्ति में अपने दादा गुरु श्रीपालदेव को "सिंहपुरैकमुख्य" लिखा है। और न्याय विनिश्चय की प्रशस्ति में अपने आपको भी "सिंहपुरेश्वर' प्रकट किया है। जिससे स्पष्ट है कि यह सिंहपुर के स्वामी थे-इन्हें सिंहपुर जागीर में मिला हुआ था।
शक सं० १०४७ में उत्कीर्ण श्रवण बेलगोल के ४९३ नम्बर के शिलालेख में वादिराज की ही शिप्य परम्परा के श्रीपाल विद्यदेव को जिन मन्दिरों के जीर्णोद्धार और ऋषियों को आहार दान के हेतु होय्सल राजा विष्णुवर्द्धन पोय्सल देव द्वारा 'शल्य' नाम का गांव दान स्वरूप देने का वर्णन है । और ४६५ नम्बर के शिलालेख में-जो शक सं० ११२२ में अंकित हुआ, उसमें षड्दर्शन के अध्येता श्रीपाल देव के स्वर्गवास हो जाने पर उनके शिप्य वादिराज (द्वितीय) ने 'परवदिमल्ल-जिनालय' बनवाया और उनके पूजन तथा मुनियों के प्राहारदानार्थ कल भमि का दान दिया । इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि वादिराज की शिप्य परम्परा मठाधीशों की परम्परा थी। जिसमें दान लेने और देने की व्यवस्था थी। वे स्वयं दान लेते थे, जिन मन्दिर निर्माण कराते थे, उनका जीर्णोद्धार कराते थे और अन्य मुनियों के पाहार दानादि की व्यवस्था भी करते थे। वे राज दरबारों में जाते थे, और वादविवाद में विजय प्राप्त करते थे।
देवसेन ने दर्शनसार में लिखा है कि द्रविड संघ के मनि, कच्छ, खेत वसति (मन्दिर) और वाणिज्य से आजीविका करते थे । तथा शीतल जल से स्नान करते थे । इसी कारण उसमें द्राविड संघ को जैनाभास कहा गया है।
वादिराज ने पार्श्वनाथ चरित सिंहचक्रेश्वर या चौलुक्य चक्रवर्ती जयसिंह देव की राजधानी में रहते हुए शक सं० ६४७ की कार्तिक सुदी ३ को बनाया था । जयसिंह देव उस समय राज्य कर रहे थे। उस समय यह राजधानी लक्ष्मी का निवास और सरस्वती देवी की जन्म भूमि थी।
यशोधर चरित के तृतीय सर्ग के ८५ वें पद्य में और चौथे सर्ग के उपान्त्य पद्य में महाराजा जयसिह का उल्लेख किया है। जिससे यशोधर चरित की रचना भी जयसिंह के समय में हुई है।
१. त्रैलोक्य दीपिका वाणी द्वाभ्यामेवोदगादिह । जिनराजत एकस्मादेकस्माद्वादिगजतः ॥५० अरुद्धाम्बर मिन्दु-बिम्ब-रचितीत्सुक्यां सदा यद्यश-छत्रं वाक चमरी जराजिरुचयोऽभ्यर्ग च यत्कर्णयोः , सेव्यःसिह समय॑-पीठ-विभवः सर्वप्रवादि प्रजा-दत्तोचर्जयकार-सार-महिमा श्रीवादिराजो विदाम् ।।
-४१ मल्लिपेरण प्रशस्ति पृ० १०८ २. इम साधु परम्परा में वादिराज और श्रीपाल देव नाम के कई विद्वान हो गए है। ये वादिराज द्वितीय है, जो गग
नरेश राचमल्ल चतुर्थ या सत्यवाक्य के गुरु थे। ३. कच्छं खेत्तं वसदि वाणिज्जं कारिऊण जीवंतो। __ण्हतो सीयलणीरे पावं पउरं स संजेदि ॥२६॥ ४. शाकाब्दे नगवाधिरन्ध्रगणने संवत्सरेक्रोधने, मासे कार्तिकनाम्निबुद्धिमहिते शुद्ध तृतीयादिने । सिहे याति जयादि के वसुमतींजनीकथेयं मया, निष्पत्तिं गमिता सती भवतु वः कल्याण निष्पत्तिये ।
पा० च० प्र० ५. 'व्यातन्वज्जयसिंहता रणमुखे दीर्घ दधौ धारिणीम् । ६. 'रणमुख जयसिंहो राज्यलक्ष्मी बभार ।
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
वादिराज सूरि की निम्न पांच कृतियाँ उपलब्ध हैं, जिनका संक्षित परिचय निम्न प्रकार हैपार्श्वनाथ चरित - यह १२ सर्गात्मक काव्य है, जो माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो चुका है । इसमें अनेक पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख है ।
यशोधर चरित - यह चार सर्गात्मक एक छोटा-सा खण्ड काव्य है । जिसके पद्यों की संख्या २६६ है । और जिसे तंजौर के स्व० टी० एस० कुप्पुस्वामी शास्त्री ने प्रकाशित किया था ।
एकीभावस्तोत्र - यह पच्चीस श्लोकों का सुन्दर स्तवन है, और जो एकीभावं गत इव मया से प्रारंभ हुआ है । स्तोत्र भक्ति के रस से भरा हुआ है और नित्य पठनीय है।
न्याय विनिश्चय विवरण - यह अकलंक देव के 'न्याय विनिश्चय' का भाष्य है । जैन न्याय के प्रसिद्ध ग्रन्थों में इसकी गणना है । इसकी श्लोक संख्या बीस हजार है । यह पं० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य के द्वारा सम्पादित होकर भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित हो चुका है ।
प्रत्यक्ष, परोक्ष श्रौर
प्रमाण निर्णय - यह प्रमाण शास्त्र का लघुकाय स्वतंत्र ग्रन्थ है । इसमें प्रमाण, आगम नाम के चार अध्याय हैं । माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से मूल रूप में प्रकाशित हो चुका है ।
अध्यात्माष्टक - यह प्राठ पद्यों का स्तोत्र है, माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित है । पर निश्चयतः यह कहना शक्य नही है कि यह रचना इन्हीं वादिराज की है या अन्य की ।
त्रैलोक्यदीपिका - नाम का एक ग्रन्थ भी वादिराज का होना चाहिये। जिसका उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति के - ' त्रैलोक्य - दीपिका वाणी' पद से ज्ञात होता है। श्रद्धेय प्रेमी जी ने अपने वादिराज वाले लेख में लिखा है कि स्वर्गीय सेठ माणिकचन्द्र जी के संग्रह में " त्रैलोक्य दीपिका" नामका का एक अपूर्ण ग्रन्थ है । जिसके आदि के दस और अन्त के ५८ वं पत्र से आगे के पत्र नहीं। संभव है यही वादिराज की रचना हो ।
२५१
दिवाकरनन्दी सिद्धान्तदेव
यह भट्टारक चन्द्रकीति के प्रधान शिष्य थे । सिद्धान्तशास्त्र के अच्छे विद्वान् थे और वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन करने में निपुण थे । इन्होंने तत्त्वार्थ सूत्र की कन्नड़ भाषा में ऐसी वृत्ति बनाई थी, जो मूर्खो, बालकों तथा विद्वानों के अवबोध कराने वाली थी। इनके एक गृहस्थ शिष्य पट्टणस्वामो नोकय्यसेट्टि थे इन्होंने एक तीर्थद् सदि (मन्दिर) का निर्माण कराया था और वीर सान्तर के ज्येष्ठ पुत्र तैलह देव ने, जो भुजबल -सान्तर नाम से ख्यात थे। राजा होकर उन्होंने पट्टणस्वामी की वसदि के लिये दान दिया था ।
दिवाकर नन्दी को सिद्धान्त रत्नाकर कहा जाता था। इनके शिष्य मुनिसकलचन्द्र थे । इस लेख में काल नहीं दिया । यह लेख हुम्मच में सूले वस्ती के सामने के मानस्तम्भ पर उत्कीर्ण है । इसका समय १०७७ ई० के लगभग बतलाया गया है' ।
हुम्मच के एक दूसरे १६७ नं० के लेख में, जिसमें पट्टण स्वामि नोकय्य सेट्टि के द्वारा निर्मित पट्टण स्वामि जिनालय को शक वर्ष ८४ (सन् १०६२) के शुभकृत संवत्सर में कार्तिक सुदि पंचमी आदित्यवार को सर्ववाधा रहित दान दिया । वीरसान्तर देव को सोने के सौ गद्याणभेंट करने पर मोलकेरे का दान मिला। माहुर में उसने प्रतिमा को रत्नों से मड़ दिया और उसके पास सोना, चांदी, मूगा आदि रत्नों की और पंच धातु की प्रतिमाएँ विराजमान की । पट्टण स्वामि नोकय्यसेट्टि ने शान्तगेरे, मोलकेरे, पट्टणस्वामिगेरे और कुक्कुड वल्लि के तले विण्डे गेरे ये सब तालाब बनवाये, और सौ गद्याण देकर उगुरे नदी का सौलंग के पागिमगल तालाब में प्रवेश कराया । यह लेख दिवाकर नन्दि के शिष्य सकलचंद पण्डित देव के गृहस्थ शिष्य मल्लिनाथ ने लिखा था ' ।
त्रैलोक्यमल्ल वीर सान्तर देव जैन धर्म का श्रद्धालु राजा था। क्योंकि इसने पोम्बुर्च में बहुत से जिनमन्दिर बनवाये थे । इसकी धर्म पत्नी चामल देवी ने नोकियब्बे वसदि के सामने 'मकरतोरण' बनवाया था । और
१. देखो (जैन लेख सं० भाग, २ पृ० २७७-२८१ ) २. जैन लेख सं० भा० २ पृ० २३७ - २४१ )
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ बल्लिगावे में चामेश्वर नाम का मन्दिर बनवाया था और ब्राह्मणों का दान दिया था।
-जैन लेख सं० भा २ पृ० २४१-२४५) लेख नं० १९८
दुर्गदेव दुर्गदेव-यह संयमसेन के शिष्य थे, जिनकी बुद्धि षट्दर्शनों के अभ्यास से तर्कमय हो गई थी, जो पंचांग तथा शब्द शास्त्र में कुशल थे, समस्त राजनीति में निपुण थे। वादि गजों के लिये सिंह थे, और सिद्धान्त समुद्र के पार को पहुँचे हुए थे। उन्हीं की आज्ञा से यह ग्रन्थ 'मरण करण्डिका' आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों का उपयोग करके 'रिष्ट सचमुच्चय' ग्रन्थ तीन दिन में रचा गया है । और जो विक्रम संवत् १०८६ की श्रावण शुक्ला एकादशी को मूल नक्षत्र के समय श्री निवास राजा के राज्य काल में कुम्भनगर के शान्तिनाथ मन्दिर में समाप्त हुआ है। ने को देसजई (देशयति) बतलाया है । इससे वे अष्ट मूल गुणसहित श्रावक के बार
ों से भूषित अथवा क्षुल्लक साधु के रूप में प्रतिष्ठित हुए जान पड़ते हैं। इन्होंने अपने गुरुओं में संयमसेन और माधवचन्द्र का नामोल्लेख किया है । पर उनके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश नहीं डाला।
यह ग्रन्थ मृत्यु विज्ञान से सम्बन्ध रखता है । इसमें २६१ प्राकृत गाथाओं में अनेक पिण्डस्थ, पदस्थादि - तथा रूपस्थादि चिन्हों-लक्षणों, घटनाओं एवं निमित्तों के द्वारा मृत्यु को पहले जान लेने की कला का निर्देश है।
__ इनकी दूसरी रचना अर्ध काण्ड है, जो १४४ गाथाओं में निबद्ध है, और जो वस्तुओं की मन्दी-तेजी जानने के विज्ञान को लिए हुए एक अच्छा महत्व का ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ मेरे पास था, डॉ० नेमिचन्द्र ज्योतिपप्राचार्य ने मगाया था। वह उनके पास से कहीं खो गया । अतः भण्डारों में उसकी खोज करनी चाहिए।
तीसरी रचना 'मन्त्र महोदधि' का उल्लेख वहत टिप्पणि का में-'मन्त्र महोदधि प्रा० दिगंबर श्री दुर्गदेव कृत गा० ३६" रूप से मिलता है
महाकवि पुष्पदन्त कवि पुष्पदन्त अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् कवि थे। उन्होंने उत्तरपुराण के अन्त में अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है,-सिद्धि विलासिनी के मनोहर दूत, मुग्धादेवी के शरीर से संभूत, निर्धनों और धनियों को एक दष्टि से देखने वाले, सारे जीवों के अकारणमित्र, शब्द सलिल से जिनका काव्य-स्रोत बढ़ा हुआ है, केशव के पत्र, काश्यप गोत्री, सरस्वती विलासी, सूने पड़े हुए घरों और देव कुलिकाओं में रहने वाले, कलि के प्रवल पापपटलों से रहित, वे घरबार, पुत्र-कलत्रहीन, नदियों वापिकाओं और सरोवरों में स्नान करने वाले, पुराने वस्त्र और बल्कल पहिनने वाले, धूल-धूसरित अंग, दुर्जनों के संग से दूर रहने वाले, जमीन पर सोने वाले और अपने ही हाथों को प्रोढ़ने वाले, पण्डित-पण्डित मरण की प्रतीक्षा करने वाले मान्यखेट नगरवासी, मनमें अरहंतदेव का ध्यान
१. जो छद्दसण-तक्क-तक्किय यमं पंचंग सद्दागर्म । जोगी सेसमहीस नीति कुमलो वाइब्भ कंठीरवो। जो सिद्धंत मपारती (णी) रसुणिही तीरे वि पारंगओ, सो देवो सिरि संजमाइ मुरिणवो आमी इह भूतले ॥२५७ संजामो इह तस्म चारु चरियो पारणं बुधोयं मई, सीसो देस जई संवोहण परो वीसेरण-बुद्धागमो। णामेणं सिरि दुगदेव-विइओ वागीसरा यन्नओ, तेरणेदं रदयं विमुद्ध मइणा सत्थं महत्थं फुडं ॥२५८ X X
X संवच्छर इग महसे बोलीणं णवय सीइ-संजुत्ते (१०८६) सावण-सुक्के यारसि दियहम्मि मूल रिक्वम्मि ॥२६० सिरि कुभायर रदए लच्छिरिणवास-रिणवइ-रज्जम्मि । सिरि संतिणाह भवणे मुशिभवियस्स उभे रम्मे (?) ॥२६१
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२५३
करने वाले, भरतमन्त्री द्वारा सम्मानित, अपने काव्य प्रबन्ध से लोगो को पुलकित करने वाले, धो डाला है पापरूप कीचड़ जिसने ऐसे अभिमान मेरु पुष्पदन्त ने जिनभक्ति पूर्वक क्राधन नवन्मर मे महापुराण की रचना की
पुष्पदन्त के पिता का नाम केशवभट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था । यह काश्यप गोत्री ब्राह्मण थे । इनका शरीर अत्यन्त कृश ( दुबला-पतला ) और वर्ण सांवला था। यह पहले शेव मतानुयायी थे । किन्तु बाद में किसी दिगंबर विद्वान् के सानिध्य से जैनधर्म का पालन करने लगे थे । वे जैनधर्म के बड़े श्रद्धालु ओर अपनी काव्य कला से भव्यों के चित्त को अनुरजित करने वाले थे । जैनधर्म के सिद्धान्तों और ब्राह्मण धर्म के सिद्धान्तों के विशिष्ट विद्वान थे । प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के महापण्डित थे। इनका अपभ्रंश भाषा पर असाधारण अधिकार था। उनकी कृतियां उनके विशिष्ट विद्वान् होने की स्पष्ट सूचना करती है। कविवर बड़े स्वाभिमानी और उग्र प्रकृति के धारक थे। इस कारण वे अभिमान मेरु, कहलाते थे। अभिमान मेरु अभिमान चिन्ह' काव्य रत्नाकर" कवि-कुल- तिलक और मरस्वती निलय तथा कवि पिशाच' आदि उनकी उपाधिया थी। जिनका उपयोग उन्होंने अपने ग्रन्थों में स्वय किया है। इससे उनके व्यक्तित्व और प्रतिष्ठा का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। सरस्वती के विलासी और स्वाभाविक काव्य-कला के प्रेमी थे। इनकी काव्य-शक्ति अपूर्व श्रौर आश्चर्यजनक थी । वे निम्संग थे, उनकी निस्संगता का परिचय महामात्य भरत के प्रति कहे गए निम्न वाक्यों से स्पष्ट हो जाता है । वे मन्त्री भरत से कहते है कि मैं धन को तिनके के समान गिनता हूं । मै उमे नही लेता । मैं तो केवल अकारण प्रेम का भूखा हूं। और इसी से तुम्हारे महल में हूं। मेरी कविता तो जिनचरणों की भक्ति से ही स्कुरायमान होती है, जीविका निर्वाह के ख्याल से नहीं ।
1
1
पुष्पदन्त बड़े भारी साम्राज्य के महामात्य भरत द्वारा सम्मानित थे । भरत राष्ट्रकूट राजाओं के अन्तिम सम्राट् कृष्ण तृतीय के महामात्य थे । कवि ने उन्हें 'महयत्त वंसधय वह गही लिखा है। भरत मानवता के हामी, विद्वानों के प्रेमी और कवि के प्राश्रय दाता थे । वे उनके पुनीत व्यवहार मे उनके महलों में निवास करते थे । यह सब उनकी धर्म वत्सलता का प्रभाव है जो उक्त कवि से महापुराण जैमा महान् ग्रन्थ निर्माण कराने में समर्थ हो सके । भरत मन्त्री के दिवंगत हो जाने के बाद भी कवि उनके सुपुत्र नन्न के महल में भी रहे और नागकुमार चरित यशोधर चरित की रचना की। उत्तर पुराण के संक्षिप्त परिचय पर मे ज्ञात होता है कि वे बड़े निस्पृह और अलिप्त थे, और देह-भोगों से सदा उदासीन रहते थे । कवि के उच्चतम जीवन णो से उनकी निर्मल भद्र प्रकृति, निस्सगता और अलिप्तता का वह चित्रपट हृदय पटल पर अकित हुए बिना नहीं रहता। उनकी इस किचन वृत्ति का महा मान्य भरत पर भी प्रभाव पड़ा है। देहभोगी की प्रलिप्तना उनके जीवन की महत्ता का सबसे बड़ा सबूत है । यद्यपि वे साधु नही थे, किन्तु उनकी निरीह भावना इस वानकी सद्योतक है कि उनका जीवन एक माधु से कम भी नही था वे स्पष्टवादी थे और अह्कार की भीषणता मे सदा दूर रहते थे, परन्तु स्वाभिमान का परित्याग करना उन्हें किसी तरह भी इष्ट नही था। इतना ही नहीं किन्तु वे अपमान से मृत्यु को अधिक श्रेष्ठ समझते थे । कवि का समय
१. देखो, उत्तर पुराण प्रशस्ति
२. कसरण मरीरं मुकुरुवे मुद्धावि गभ मभूवे ।' उत्तर पु० प्रशस्ति
३. (क) न सुरगेवि भणइ अहिमागमेर ।' महापु० म० १-३-१२
(ग्व)
हो मदिरि णिवसतु सतु, अहिमाण मे गुग्गुगण महतु ॥ - नाग कु० च० १, २, २
४. वय संजुत्ति उत्त मसत्ति वियलिय मकि अहिगारक || जसहरच० ५-३१
५. भो भो केसव तरह गावसर रुह मुह बब्ब रयण रयणायक । ६. त मुवि भरहे वृत्त ताव, यो ककुलतिलय विमुक्तगाव ७. जिरण चरण कमल भत्तिल्लएरण, ता जपिट कव्व सरल एरण । ८. धण तरणममु मज्दन, रण तं गहण, गोहु पिकारिमु उच्छमि ।
देवि सुअ सुदरिगहि तेण हउ लिए तुहार ए अच्च्छमि ॥ २०, उत्तरपु० C. मज्भुकइतणु जिरण पय भत्तिहे, पमरइ उ गिय जीविय वित्तिहे— उत्तरपु०
महा पु० १-८-१ महापू० १,८,८
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
विक्रम की दशवी दाताब्दी का अन्तिम भाग और ११वी शताब्दी का पूर्वार्ध है । क्योंकि उन्होंने अपना महापुराण सिद्धार्थ सवत्सर शक सं८८१ में प्रारम्भ किया था। उस समय मेलपाटी या मेलाडि में कृष्णराज मौजूद थे। तब पुष्पदन्त मेलपाटी में महामात्य भरत से मिले और उनके अतिथि हुए और उन्होंने उसी वर्ष में महापुराण शुरु कर उसे शक सं० ८८७ (सन् ६६५) वि० सं० १०२२ में समाप्त किया ।
समय विचार
महाकवि पुष्पदन्त वरार प्रान्त के निवासी थे । क्यों कि उनकी रचना में महाराष्ट्र भाषा के अनेक शब्द पाये जाते है। जिनका उपयोग उसी देश में होता है। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने लिखा है कि ग० वा० तगारे एम.ए. बी. टी. नाम के विद्वान् ने पुष्पदन्त को मराठी भाषा का महाकवि लिखा है। प्रोर उनकी रचनाओं में से ऐसे बहुत से शब्द चुनकर बतलायें हैं, जो प्राचीन मराठी भाषा से मिलते जुलते हैं । मार्कण्डेय ने अपने 'प्राकृत सर्वस्व ' में अपभ्रंश भाषा के नागर, उपनागर और ब्राचट तीन भेद किये है। इनमें ब्राचट को लाट (गुजरात) और विदर्भ ( वरार) की भाषा बतलाया है। इससे पुष्पदत्त के ग्रन्थों की भाषा वाचट होनी चाहिये ।
पुष्पदन्त के समकालीन राष्ट्रकूटवंश के राजा कृष्ण तृतीय है । कवि पुष्पदन्त ने स्वयं अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ के समय तीसरे कडवक में कृष्ण राज तृतीय का मेलपाटी में रहने का उल्लेख किया है ओर उसे चोड देश के राजा का शिर तोड़ने वाला लिखा है
उवद्ध जूड् भूभंगभीसु तोडे प्पिणु चोडहो तणउसीसु । भुक्कराम रायाहिराउ, जहिश्रच्छइ तुडिंगु महाणुभाउ । तं दणदिण्णधण कणय पयर, महि परि भमंतु मेपाडिण्यरु ||
वे महाप्रतापी सार्वभौम रजा थे। इनके पूर्वजों का साम्राज्य उत्तर में नर्वदा नदी से लेकर दक्षिण में मैसूर तक फैला हुआ था। जिसमें सारा गुजरात, मराठी म० प्र० और निजाम राज्य शामिल था । मालवा और बुन्देलखण्ड भी उनके प्रभाव क्षेत्र में थे। इस विस्तृत साम्राज्य को कृष्ण तृतीय ने और भी अधिक बढ़ाया और दक्षिण का सारा अन्तरीप भी अपने अधिकार में कर लिया था। उन्होंने लगभग ३० वर्ष राज्य किया है । वे शक म० ८६१ के आस-पास गद्दी पर बैठे होंगे। वे कुमार अवस्था में अपने पिता के जीते जी राज्य कार्य संभालने लगे थे । पुष्पदन्तशक सं०८८१ में इन्हीं के राज्य में मेलपाटी पहुचे थे ग्रार से राजा कृष्ण की मृत्यु के बाद भी वहां रहे है । क्योंकि धारा नरेश हर्षदेव ने खोट्टिग देव की राज्यलक्ष्मी को लूट लिया था। धनपाल ने अपनी 'पायलच्छी नाम माला' में लिखा है कि वि० सं० १०२९ में मालव नरेन्द्र ने मान्यवेट को लूटा इसका समर्थन उदयपुर ( ग्वालियर) के शिलालेख में अकित परमार राजाओं की प्रशस्ति से भी होता है । मेलपाटी के लूटे जाने पर पुष्पदन्त को भी उसका बड़ा खेद हुआ ओर उन्होंने भी उसका उल्लेख निम्न पद्य में किया है
दीनानाथ धनं सदाबहुजनं प्रोत्फुल्लवल्लीवनं । मान्यखेटपुरं पुरदरपुरी लीलाहरं सुन्दरम् । धारानाथ नरेन्द्र कोप-शिखिना दग्धंविदग्ध प्रियं ।
वेदानों वर्सातकरिष्यति पुनः श्री पुष्पदन्तः कविः ॥
शक सं० ८६४ में मान्यखेट के लूट लिये जाने के बाद भी पुष्पदन्त वहां रहे हैं । कवि का जसहचरिउ उस समय समाप्त हुआ जब मान्य सेट लूटा जा चुका था । इससे स्पष्ट है कि शक मं०८८१ से ८७४ तक १३ वर्ष
१. उक्कुरड - उकिरडा (घूग), गजोल्लिय - गांजलेले (दुखी), चिक्विल्ल - चिखल (कीचड़ ), तुप्प - तूप (घी), फेड फेडणे (लौटाना । बोक्कड़ - बोकड (बकरा ) आदि, देखो सहयाद्रि मासिक पत्र अप्रैल १९४१ का भक, पृ० २५३, ५६ । २. विक्कमकालम्स गए अउरगतीमुत्तरे सहग्गम्मि । मानवर्णारद धाडीए लूडिए मण्णबेडम्मि ॥ २७६ ३. 'श्री हर्षदेव इति खोट्टिगदेव लक्ष्मी, जग्राह यो युधिनगादसमप्रतापः || |
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२५५
कवि मान्यखेट में रहे, उसके बाद वे कितने वर्ष तक जीवित रहे, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। पर मान्यखेट की लूट से कोई १५ वर्ष के लगभग सं० १०४४ में बुध हरिपेण ने अपनी धर्म परीक्षा बनाई । उसमें पुष्पदन्त का उल्लेख किया है । उस समय पुष्पदन्त काफी प्रसिद्ध हो चुके थे। इसी से उन्होंने लिखा है कि- पुष्पदन्त जैसे मनुष्य थोड़े ही हैं उन्हें सरस्वती देवी कभी नही छोड़नी - सदा साथ रहती है'।
कवि ने ग्रन्थ में धवल - जयधवल ग्रन्थ का उल्लेख किया है। जिनसेनाचार्य ने अपने गुरुवीरसेन द्वारा अधूरी छोड़ी हुई जयधवला टीका को शक मं० ७५६ में राष्ट्रकूट राजा अमोघ वर्ष प्रथम के राज्य समय समाप्त की थी । अतः पुष्पदन्त उक्त संवत् के बाद हुए हैं। और हरिषेण ने अपनी धर्म परीक्षा वि० सं० १०४४ शक सं० ६०६ में समाप्त की है कवि ने अपने ग्रन्थों में डिग, शुभग, वल्लभ नरेन्द्र चोर कव्हराय नाम से कृष्णराज (तृतीय) का उल्लेख किया है । मान्यखेट को अमोघ व प्रथम ने शक गं० ७३७ में प्रतिष्ठित किया था । पुष्पदन्त ने मान्यवेट नगरी को कृष्णराज की हाथ की तलवाररूपी जलवाहनी से दर्गम ओर जिसके धवल ग्रहों के शिखर मेधावली से टकराने वाले लिखा है। इस सब विदेचन पर पुष्पदन्त का समय शक सं० ८५० से ८९४ मे बाद तक रहा प्रतीत होता है अर्थात् वे ईसा की दशवी और विक्रम की ११वी शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान् है ।
रचनाएं
कवि पुष्पदन्त की तीन रचनाएं मेरे सामने - महापुराण, नागकुमार चरित्र और जसहर चरिउ । महापुराण - दो खण्डों में विभाजित है- प्रादिपुराण और उत्तरपुराण आदिपुराण में ३७ संधियां हैं i जिनमें आदि ब्रह्मा ऋषिभदेव का चरित वर्णित है । ओर उत्तरपुराण की ६५ सन्धियों में अवशिष्ट तेईस तीर्थकरों, १२ चक्रवर्तीयों, नवनारायण, नव प्रतितायण और बलभद्राद्रि त्रेसठ शलाका पुरुषों का कथानक दिया हुआ है। जिसमें रामायण और महाभारत की कथाएं भी संक्षिप्त में ग्रा जाती हैं। दोनों भागों की कुल सन्धियां एक सौ दो हैं, जिनकी अनुमानिक श्लोक संख्या बीस हजार से कम नहीं है । महापुरुषों का कथानक अत्यन्त विशाल है और अनेक जन्मों की अवान्तर कथाओं के कारण और भी विस्तृत हो गया है। इससे कथा सूत्र को समझने एवं ग्रहण करने में कठिनता का अनुभव होता है । कथानक विशाल और विशृंखल होने पर भी बीच-बीच में दिये हुए काव्यमय सरस एवं सुन्दर प्राख्यानों से वह हृदय ग्राह्य हो गया है। जनपदों, नगरों श्रौर ग्रामों का वर्णन सुन्दर हुआ है । कवि ने मानव जीवन के साथ सम्बद्ध उपमानों का प्रयोग कर वर्णनों को अत्यन्त सजीव बना दिया है । रस और अलंकार योजना के साथ पद व्यंजना भी सुन्दर वन पड़ी है साथ ही अनेक सुभाषितों वाग्धाराओं से ग्रन्थ रोचक तथा सरस बन गया है । ग्रन्थों में देशी भाषा के ऐसे अनेक शब्द प्रयुक्त हुए हैं जिनका प्रयोग वर्तमान हिन्दी में भी प्रचलित है । कवि ने यह ग्रन्थ सिद्धार्थ संवत् में शुरू किया और क्रोधन संवत्सर की प्राषाढ़ शुक्ला दशमी के दिन शक संवत् ८८७ (वि० सं० १०२२) में समाप्त किया। उक्त ग्रन्थ राष्ट्रकूट वंश के अन्तिम सम्राट कृष्ण तृतीय के महामात्य भारत के अनुरोध से बना है । ग्रन्थ की संधि पुष्पकाओं के स्वतंत्र संस्कृतपद्यों में भरत प्रशंसा और मंगल कामना की गई है ।
महामात्य भरत सव कलाओं और विद्याओं में कुशल थे, प्राकृत कवियों की रचनाओं पर मुग्ध थे । उन्होंने सरस्वती रूपी सुरभिका दूध जो पिया था । लक्ष्मी उन्हें चाहती थी, वे सत्य प्रतिज्ञ और निर्मत्सर थे
१. पुष्परांत गवि मारण बुच्चर, जो सरमइए क्यावि र मुच्चइ ॥ धर्मं परीक्षा प्रशम्ति
२. जेट्टा विउ सुत्तउ सीह के सांतेहुए सिंह को किसने जगाया ।
मा भंगुवर मरगा जीविउ - अपमानित होकर जीने से मत्यु भली है ।
को तं सइ गिडालs लिहियउगस्तक पर लिखे को कौन मेंट सकता है ।
३. कप्पड = कपड़ा, अवसें = अवश्य हट्ट हाट (बाजार ) तोदे थोंद (उदर) लीह - रेखा (लोक), चंग - अच्छा, डरभय, डाल – शोखा, लुक्क लुकना (छिपना) आदि अनेक शब्द हैं जिन पर विचार करने से हिन्दीके विकास का पता चलता है।
४. कोहण संच्छर आसाढ दहमइ दियहि चंद रूढ |
- उत्तर पुराण प्रशस्ति ।
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ युद्धों का बोझ ढोते-ढोते उनके कन्धे घिस गये थे, उन्होंने अनेक युद्ध किये थे ।' वे कृष्णराज के सेनापति और दान मत्री भी थे।
वे कवियों के लिये कामधेनू, दीन-दुखियों की प्राशा पूरी करने वाले, चारों ओर प्रसिद्ध, परस्त्री पराङ्मुख, सच्चरित्र उन्नतमति और मुजनो के उद्धारक थे । उनका रंग सावला था, उनकी भुजाए हाथी की सूड के समान थीं, अङ्ग सुडील नेत्र सुन्दर और वे सदा प्रसन्न मुख रहते थे । भरत बहुत ही उदार अोर दानी थे । भरत ने पुष्पदन्त से महापुराणकी रचना कराकर अपनी कोति को चिरस्थायी बनाया।
णाय कुमार चरिउ (नाग कुमार चरित)-यह एक छोटा मा खण्ड काव्य है। इसमें हसन्धियाँ हैं। जिनमे पचमी व्रत के उपवास का फल बतलाने वाला नाग कुमार का चरित अकित किया गया है, रचना सुन्दर-प्रोढ़
और हृदय-द्रावक है और उसे कवि ने चित्रित कर कण्ठ का भूपण बना दिया है। ग्रन्थ में तात्कालिक सामाजिक परिस्थिति का भी वर्णन है। ग्रन्थ की रचना भरत मन्त्री के पुत्र नन्न की प्रेरणा से हुई है।
नन्न को यशोधर चरित में 'वल्लभ नरेन्द्र ग्रह महत्तर-वल्लभ नरेन्द्र का गृह मन्त्री लिखा है। नन्न अपने पिता के सुयोग्य उत्तराधिकारी थे ओर वे कवि का अपने पिता के समान पादर करते थे। वे प्रकृति से सौम्य थे, उनकी कीति सारे लोक मे फैली हुई थी। उन्होने जिन मन्दिर बनवाए थे। वे जिन चरणों के भ्रमर थे, और जिनपूजा में निरत रहते थे, जिन शामन के उद्धारक थे, मुनियों को दान देते थे, पापरहित थे, बाहरी और भीतरी शत्रयों को जीतने वाले थे, दयावान् दीनों के शरण राजलक्ष्मी के क्रीड़ा सरोवर, सरस्वती के निवास, पोर तमाम विद्वानों के साथ विद्या-विनोद में निरत एव शुद्ध हृदय थे।"
....... गीमसकला विण्णाणकुसलु । पायपकट कव्वरमावउद्ध-मपीय मगसइ मुरहि दुद्ध ।।
कमलच्छु अमच्छरु सच्चमधु, रगगभर धुर धरणग्घट्ठवध । २ सोय श्री भरतः कलक रहितः कान्त. सवृत्तः शुचिः ।
सज्ज्योतिर्मणिराकरो प्लुतइवानयॊ गुरगर्भासते। वशो येन पवित्रतामिह महामात्याह्वयः प्राप्तवान् । श्रीमद्वल्लभराज शक्तिकटके यश्चाभवन्नायकः ॥ प्र० श्लो० ४६ ह हो भद्र प्रचण्डानि पति भवने त्याग सख्यान कर्ता, कोय श्यामः प्रधानः प्रवरकरिकगकारबाहुः प्रसन्नः । धन्यः प्रालय पिण्डोपमधवलयशो धौनधात्रीतलान्तः । ख्यातो बन्धुः कवीनां भरत इति कथं पान्य जानामि नो त्वम् ।। प्र० श्लो०१५ ३. सविलाम विलासिणि हियहथेरण मुपसिद्ध महाकइ कामधेण । काणीणदीगपरिपूरियासु जसपसरपमाहिय दसदिसासु । पर रमणि परम्मुहु सुद्धसीलु उण्णयमइ-मुयणुद्धरणलीलु ॥ ४. श्यामरुचि नयन मुभगं लावण्य प्रायमंगमादाय ।
भरतच्छलेन सम्प्रति कामः कामाकृतिमुपेतः ॥ प्र० श्लो० २० ५. मुहतुगभवणवावार भार रिणव्यहम्ण वीरधवलस्स ।
कोडिल्लगोत्तणहससहरस्स पयईए सोमस्स ॥१ कुद व्यागब्भ समुन्भवम्म सिरि भरत भट्टतणयस्स । जम पसर भरिय भुवणोयरम्स जिणचरण कमल भसलस्य ॥२ अणवरय रइय वरजिणहरम्म जिणभवणपूय रिणरयस्स । जिण मासणायमुद्धारणम्स मुरिणदिपणदारणस्स ॥३ नागकु० प्र०
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२५७ पुष्पदन्त ने एक प्रशस्ति पद्य में नन्न को उनके पुत्रों के साथ प्रसन्न रहने का आशीर्वाद दिया है । पर उनके नामों का उल्लेख नहीं किया।
जसहरचरिउ-यह भी एक खण्ड काव्य है, जिसकी चार सन्धियों में राजा यशोधर और उनकी माता चन्द्रमती का कथानक दिया हुआ है। जो सुन्दर और चित्ताकर्षक है। राजा यशोधर का यह चरित इतना लोकप्रिय
अनेक विद्वानों ने संस्कृत अपभ्रंश और हिन्दी भाषा में अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। सोमदेव, वादिराज, वासवसेन सकलकीर्ति, श्रुतसागर, पद्मनाभ, माणिक्यदेव, पूर्णदेव, कविरइध, सोमकीति, विश्वभूषण और क्षमाकल्याण प्रादि अनेक दिगम्बर, श्वेताम्बर विद्वानों ने ग्रन्थ लिखे हैं। इस ग्रन्थ में सं० १३६५ में कुछ कथन, राउल ओर कौल का प्रसंग, विवाह और भवांतर पानीपत के वोसल साहु के अनुरोध से कन्हड के पुत्र गन्धर्व ने बनाकर शामिल किया था।
यह ग्रन्थ भी भरत के पुत्र और वल्लभनरेन्द्र के गृहमन्त्री के लिये उन्हीं के महल में रहते हुए लिखा गया था। इसी से कवि ने प्रत्येक संधि के अन्त में 'णण्ण कण्णाभरण' विशेषण दिया है। इस ग्रन्थ में युद्ध और लट के समय मान्यखेट की जो दुर्दशा हो गई थी-वहाँ दुप्काल पड़ा था, लोग भूखों मर रहे थे, जगह-जगह नर कंकाल पड़े हुए थे, यह लूट शक सं० ८६४ । वि० सं० १०२६ में हुई थी। कवि ने उस समय मान्यखेट की दुर्दशा का चित्रण किया है। जान पड़ता है कवि उस समय नन्न के ही महल में रहते थे।
कवि डड्ढा
कवि डडढा-संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान और कवि थे। यह चित्तौड़ के निवासी थे। इनके पिता नाम श्रीपाल था । इनकी जाति प्राग्वाट (पोरवाड़) थी। यह पोरवाड़ जाति के वणिक थे।२।।
इनकी एक मात्र कृति संस्कृत पंचसंग्रह है, जो प्राकृत पंचसंग्रह की गाथानों का अनुवाद है।
माथर संघ के प्राचार्य अमित गति ने वि० सं० १०७३ में संस्कृत पंचसंग्रह की रचना की है। दोनों पंच. संग्रहों का तुलनात्मक अध्ययन करने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि दोनों में अत्यधिक समानता है। अमितगतिने डडढा के पंचसंग्रह को सामने रखकर अपना पंचसंग्रह बनाया है। अमितगति के पंचसंग्रह में ऐसे भी पद्य उपलब्ध होते हैं जिसमें थोड़ा-सा शब्द परिवर्तन मात्र पाया जाता है । कुछ ऐस भी पाये जाते हैं जिनका रूपान्तरित होने पर भी भावार्थ वही है । उसमें कोई अन्तर नहीं आता।
अमितगति के पंचसंग्रह से डड्ढा के पंचसग्रह में कुछ वैशिष्टय भी पाया जाता है । डडढा के पंच संगर में जहां प्राकृत गाथाओं का अनुवाद मात्र है वहां अमितगति के पंचसंग्रह में अनावश्यक अतिरिक्त कथन भी उप लब्ध होता है।
कई स्थलों पर अमितगति के पंचसंग्रह की अपेक्षा डड्ढा के पंचसंग्रह की रचना अधिक सुन्दर हुई है। डड्ढा की रचना प्राकृत मूलगाथाओं के अधिक समीप है । वह पद्यानुवाद मूलानुगामी है।
कलि मल कलंक परिवज्जियस्स जिय दुविह बइरिणियस्स । कारुण्णकंदणव जलहरस्स दीण जण सरणस्स ॥४ णिवलच्छी कीला सरवरस्स वाएमरि णिवासस्स । गिणस्सेसविउस विज्जाविणोय रिणरयस्स सुद्ध हिययस्स ॥५-नांगकुमार चरित प्रशस्ति १. स श्रीमान्निह भूतले सह सुनिन्नाभिधो नन्दतात् -यशोधर०२ २. श्री चित्रकूट वास्तव्य प्राग्वाटवणिजा कृते ।
श्रीपाल सुत डड्ढेण स्फुटः प्रकृति संग्रहः ।। ३. वचनहेतुभी: रूपः सर्वेन्द्रियभयाव है।
जुगुप्सामिश्च बीभत्स नैव क्षायिकहक चलेत् ॥२२३
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
समय-अमितगति ने अपना पंचसंग्रह वि० सं० १०७३ में बनाकर समाप्त किया है, अतः डड्ढा की रचना उससे पूर्ववर्ती है । डड्ढा ने अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसार का उद्धरण दिया है । आचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की दशवीं शताब्दी है । अतः डढ्ढा अमृतचन्द्र के बाद के विद्वान् हैं। चूकि डड्ढा के पंचसंग्रह का एक पद्यर जयसेन के धर्मरत्नाकर में उध्दृत पाया जाता है। धर्मरत्नाकर का रचना काल सं० १०५५ हैं। अत: डड्ढा का पंचसंग्रह १०५५ से पहले बना है। इससे वह विक्रम की ११ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध की रचना है। ब्रह्मदेव की द्रव्य संग्रह की गाथा ४२ की टीका प० १७७ में डड्ढा के पंचसंग्रह के २२६ और २३० नम्बर के पद्य पाये जाते हैं। इससे पंचसंग्रह में द्रव्य संग्रह की टीका से पहले बन चुका था।
पंडित प्रवचनसेन पंडित प्रवचनसेन-इनका उल्लेख लाडबागडगण और बलात्कारगण के विद्वान् श्रीनन्द्याचार्य सत्कवि के शिप्य थे श्रीचन्द्र मुनि ने पंडित प्रवचनसेन से पद्मचरित सुनकर उसका टिप्पण धारा नगरी में सं० १०८७ में बनाया था। इससे स्पष्ट है कि पंडित प्रवचनसेन उस समय धारा में ही निवास करते थे। इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी है । इन्होंने किन ग्रन्थों की रचना की यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका।
शान्तिनाथ शान्तिनाथ-इसके पिता गोविन्दराज, भाईकन्नपार्य और गुरु वर्धमान व्रती थे। जिनमताम्भोजिनी राजहंस, सरस्वती मुख मुकर, सहज कवि, चतुर कवि, निस्सहाय कवि प्रादि इनके विरुद हैं। शक सं०६९० के गिरिपुर के १३६ व शिलालेख से ज्ञात होता है कि यह भुवनैकमल्ल (१०६८-१०७६ तक) पराजित लक्ष्म नपति का मंत्री था। इसके उपदेश से लक्ष्य नृपति ने बलिग्राम में शान्तिनाथ भगवान का मन्दिर बनवाया था। इस लेख में कवि के 'सुकुमार चरित' ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है । कवि का समय भी सन् १०६८ से १०७६ तक सुनिश्चित है।
इन्द्रकीति इन्द्रकीति-कौण्डकन्दान्वय देशी गण के प्राचार्य थे। इनकी अनेक उपाधियाँ थीं। को गलिवंजिवेल्लारी के शक सं०९७७ सन् १०५५ (वि० सं० १११२) के लेख में, जो चालुक्य सम्राट त्रैलोक्य मल्ल के राज्य काल का है। इस मन्दिर का निर्माण गंगवंश के राजा दुविनीत ने किया था। लेख के समय प्राचार्य इन्द्रकीति ने मन्दिर को कुछ दान दिया था। (-इण्डियन एण्टीक्वेरी ५५ सन् १९२६ पृ०७४)
गुणसेन पंडितदेव प्रस्तुत गुणसेन पंडित द्रविल गण के नन्दिसंघ तथा महामरुङ्गलाम्नाय के गुरु पुष्पसेन व्रतीन्द्र के शिष्य थे। पागम रूपी अमृत के गहरे समुद्र थे । व्याकरण आगम और तर्क में निपुण थे। यह मुल्लूर के निवासी थे। और पोयसल के गुरु थे। पोय्सलाचारि के पुत्र माणिक-पोय्सलाचारि ने यह वसदि बनवाई। और शक वर्ष ९८४ शुभकृत संवत्सर में फाल्गुन शुद्ध पंचमी बधवार रोहिणी नक्षत्र में भगवान की प्रतिष्ठा की। तथा तिरुनन्दीवर के काल में दान देकर गुणसेन पंडितदेव को सौंप दिया। लेख चूकि शक सं० ९८४ सन् १०६२ ई० का है। इन्होंने सन् १०५० के लगभग धर्म के तौर पर 'नागकूप' नाम का एक कुवा मुल्लूर ग्राम के वास्ते खुदवाया था (एपि.ग्रा. इंडिका कूर्ग इनकृप्सन्स नं. ४२) (लेख नं० २०२ पृष्ठ २८४)
शक सं०६८० (१०५८ ई०) में मुल्लर का यह शिलालेख लिखा गया। इसमें लिखा है कि राजेन्द्र गाल्व ने उस वस्ति के लिये दान दिया जो उसके पिता ने बनवाई थी। राजाधिराज की माता पोच्चरसि ने गुणसेन को दान दिया। (कुर्गइन्स्कृप्सन्स १९१४ नं० ३५)
शक सं० ६८६ (१०६४ ई०) में मुल्लूर का यह शिला लेख उत्कीर्ण हुमा, जिसमें गुणसेन की मृत्यु का
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२५४
उल्लेख है । (कुर्ग इनकृप्सन्स सन् १९१४ नं० ३४
गोपनन्दी गोपनन्दि-यह मूलसंघ, देशिय गण और वक्रगच्छ के देवेन्द्र सिद्धान्त देव के समकालीन शिष्य थे। यह चतुर्मुखदेव इसलिये कहलाये, क्योंकि इन्होंने चारों दिशाओं की ओर मुख करके पाठ-पाठ दिन के उपवास किये थे। प्रस्तुत गोपनन्दी अद्वितीय कवि और नैयायिक थे, इनके सम्मुख कोई वादी नहीं ठहर सकता था। इन्होंने धूर्जीट जैसे विद्वान् की जिह्वा को भी बन्द कर दिया था । परम तपस्वी, वसुधैव कुटुम्ब, जैन-शासनाम्बर के पूर्णचन्द्र, सकलागमवेदी और गुणरत्न विभूपित थे । देशीय गण के अग्रणी थे और व्रतीन्द्र थे। इनके सधर्मा धाराधिप भोजराज द्वारा पूजित प्रभाचन्द्र थे । होयसल नरेश एरेयंग ने शक स० १०१५ सन् १०६३ (वि० सं० ११५०) में उक्त गोपनन्दी को जीर्णोद्धार आदि कार्यों के लिये दो ग्राम दान में दिये थे।
(वृषभनन्दी--जीतसार समुच्चय के कर्ता) यह नन्दनन्दी के वत्स और श्रीनन्दी के चरण कमलों के भ्रमर थे। गुरुदास भी उन्ही के शिप्य थे। जिन्हें तीक्ष्णमति और 'सरस्वतीसूनु' प्रकट किया है। जैसा कि ग्रन्थ प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है।
श्रीनन्दि नन्दिवत्सः श्रीनन्दी गुरुपदाज षटचरणः ।
श्रीगुरुदासो नंद्यात्तीक्ष्णमतिः श्री सरस्वतीसूनुः ॥५॥ वषभनन्दी ने उक्त नंद नंदी मुनिराज को शास्त्रार्थज्ञ, पंक धारी, तपांक सिद्धांतज्ञ, सेव्य ओर गणेश जैसे विशेषणों के साथ स्मृत किया है। इनके चार शिप्यों का उल्लेख मिलता है, परन्तु उनके एक प्रमुख शिष्य गुरुदासाचार्य भी थे। नन्दनन्दी के शिष्यों में अपने से पूर्ववर्ती दो गुरुभाइयों श्री कीति और श्री नन्दी का नामोल्लेख किया है। और अपने उत्तरवर्ती एक गुरु भाई हर्षनन्दी का अनजरूप में उल्लेख किया है। जिसने ग्रन्थ की सुन्दर प्रतिलिपि तैयार की थी। वृषभनन्दी ने कौण्डकुन्दाचार्य के जीतसार का सम्यक प्रकार अवधारण किया था, इसी कारण उन्होंने अपने को 'जीतसाराम्बुपायी' (जीतसार रूप अमृत का पान करने वाला) प्रकट किया है चार्य का यह ग्रन्थ जीर्ण-शीर्ण रूप में मान्यखेट में सिद्धान्तभूषण नाम के सैद्धान्तिक मुनिराज ने एक मंजूषा में देखा था। और प्रार्थना करके प्राप्त किया था, और उसे पाकर वे सभरी स्थान को चले गए थे। उन्होंने वृषभनन्दी के हितार्थ उसकी व्याख्या की थी, जिसका जीतसार समुच्चय में अनुसरण किया गया है।
प्रा० अभयनन्दी
प्रभयनन्दी विबधगणनन्दी के शिष्य थे। यह अपने समय के समस्त मुनियों के द्वारा मान्य विद्वान थे। इन्होंने जैनधर्म के विषय में परम्परागत प्रवर्णवादों-मिथ्या प्रवादों-को दूर किया था। इनके द्वारा जैन धर्म की बडी प्रभावना हई थी। ये समुद्र की भांति गंभीर एवं सूर्य की तरह तेजस्वी थे। अत्यन्त गुणी और मेधावी थे। भव्य जीवों के एक मात्र बन्धु तथा उद्बोधक थे। जैसा कि चन्द्रप्रभचरित प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है:
"मुनिजननुतपादः प्रास्तमिथ्याप्रवादः, सकलगुणसमृद्धस्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः। प्रभवद् प्रभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी, स्वमहिमजितसिन्धुभव्यलोककबन्धुः॥"
१.जन शिला लेख सं० भाग १ पृ० ११७ २. (एपि ग्राफिया कर्णाटिका जि० ५, ३. अनुज श्री हर्ष नदिना सुलिख्य जीतसार शास्त्रचमुज्वलोध तं ध्वाजापते (जीत ममुच्चयसार अजमेर भंडार प्रति)
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
इनके शिष्य वीर नन्दी थे, जो चन्द्रप्रभचरित के कर्त्ता हैं। इनके दूसरे शिष्य इन्द्रनन्दी भी थे । गोम्मटसार के कर्ता नेमिचचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी अभयनन्दी को अपना गुरु माना है और उन्हें नमस्कार किया है, णमिऊण अभयदि' 'अभयदि वच्छेण' जैसे वाक्यों द्वारा अभयनन्दि का स्पष्ट उल्लेख किया है । इनका समय विक्रम की दशवीं शताब्दी का उपान्त्य और ११वीं शताब्दी का प्रथम चरण है ।
२६०
वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती
वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती - नन्दिसंघ और देशीय गण के आचार्य थे । यह मुनि विबुध गुणनन्दि के प्रशिष्य और अभयनन्दि के शिष्य थे। जो मुनियों के द्वारा बन्दनीय थे । और जिन्होंने मिथ्याप्रवाद को विनष्ट किया था । सम्पूर्ण गुणों में समृद्ध थे, और भव्य लोगों के श्रद्वितीय बन्धु थे । इनके शिष्य वीरनन्दी भव्य जन रूपी कमलों को विकसित करने वाले, सूर्य के समान तेजस्वी, गुणों के धारक थे और जिन्होंने सम्पूर्ण वाङमय को अधीन कर लिया था। वे कुतर्कों को नाश करने वाले प्रख्यात कीर्ति थे ।
भव्याम्भोज विबोधनोद्यतमते भास्वत्समान त्विषः, शिष्यस्तस्य गुणाकरस्य सुधियः श्रीवीरनन्दीत्यभूत । स्वाधीनखिल वाड.मयस्य भुवनप्रख्यात कीर्तेः सता, संसत्सु व्यजयन्त यस्य जयिनो वाचः कुतर्काङ्क ुशा ॥४
एक गाथा में बतलाया गया है कि जिनके चरण प्रसाद से वीरनन्दी इन्द्रनन्दी शिष्य अनन्त संसार से पार हो गए उन अभयनन्दी गुरु को नमस्कार है । गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चन्द्रवर्ती ने भी इन्द्रनन्दि को अभयनन्दि श्रौर वीरनन्दी को अपना गुरु बतलाया है। अभयनन्दी के चार शिष्य थे । वीरनन्दी, इन्द्रनन्दि, कनकनन्दी और नेमिचन्द्र । नेमिचन्द्र ने अपने को स्वयं अभयनन्दि का शिष्य सूचित किया है । नेमिचन्द्र ने अभयनन्दी के साथ इन्द्रनन्दि गुरु को भी नमस्कार किया है और श्रुतसागर का पार करने वाला विद्वान् सूचित किया है ।
वीरनन्दी विशिष्ट दार्शनिक और प्रतिभा सम्पन्न कवि थे । आपकी एकमात्र कृति चन्द्रप्रभचरित काव्य है । इस ग्रन्थ की कथा वस्तु का आधार उत्तर पुराण है । वीर नन्दी ने उत्तर पुराण के अनुसार ही आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ के चरित्र का चित्रण किया है । यह ग्रन्थ १८ सर्गों में विभक्त है । जिसकी श्लोक संख्या १६९१ है । अन्तिम प्रशस्ति के ६ श्लोक उससे भिन्न हैं ।
यह काव्य शृंगार, वीर, बीभत्स, भयानक और शान्तादि रसों तथा उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अर्थान्तर न्यास और अतिशयोक्ति प्रादि अलंकारों से अनुस्यूत है । रचना सरस और प्रसाद गुण से भरपूर है ।
कृति में कवि ने उसके रचना काल श्रादि का कोई उल्लेख नहीं किया, इस कारण ग्रन्थ के रचना काल का निश्चित उल्लेख तो नहीं किया जा सकता । किन्तु प्राचार्य वादिराज ने अपने पार्श्वनाथ चरित में (शक संo १४७ सन् १०२५) में चन्द्रप्रभचरित और उसके रचयिता वीरनन्दी का स्मरण किया है। इससे स्पष्ट है कि सन् १०२५ (वि० सं० १०८२) से पूर्व चन्द्रप्रभचरित की रचना हो चुकी थी । अब यह विचारणीय है कि वह कितने पहले हुई होगी । वह वि० सं० १०२५ के लगभग की रचना जान पड़ती है । अर्थात् वे ११वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान् हैं ।
१. स तच्छिष्योज्येष्ठः शिशिर कर सोम्यः समभवत् ।
प्रविख्यातो नाम्ना बिबुधगुण नन्दीति भुवने ॥ चन्द्र प्रभचरित प्रशस्ति
२. जस्सय पाय पसाएण गंतसंसार जलहि मुत्तिष्णे । वीरिदंगंदि वच्छो णमामि तं प्रभयादि गुरु ।। - गो० क० ४३६ ३. इदिनेमिचंद मुरिणरणा अप्पसुदेरण भयरदि वच्छेण । रइयो तिलोयसारो खमंतु तं बहु सुदायरिया ॥ - त्रिलोकसार ४. गमिऊण अभयदि सुदसायर पारगिदं णंदि गुरु ।
वरवीरनंदिरणाहं पयडीरणं पच्चयं बोच्छं ॥ ७८५
५. चन्द्र प्रभासि सम्बद्धा रस पुष्ट मनः प्रिया । कुमद्वतीव नो धत्ते भारती वीरनन्दिनः ॥ ३०
- पार्श्वनाथ चरिते वादिराजः
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं औरबारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती प्रस्तुत नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती मूलसंघ देशीयगण के विद्वान अभयनन्दी के शिष्य थे । इन्होंने स्वयं अपने को प्रभयनन्दी का शिष्य सूचित किया है। अभयनन्दी उस समय के बड़े सैद्धान्तिक विद्वान थे। उनके वीरनन्दी, और इन्द्रनन्दी भी शिष्य थे। ये दोनों नेमिचन्द्र के ज्येष्ठ गरुभाई थे। इस कारण गुरु तुल्य मानकर नमस्कार किया है और उनका अपने को शिष्य भी बतलाया है । नेमिचन्द्र ने अपने एक गुरु कनकनंदी का उल्लेख किया है । और लिखा है कि उन्होंने इन्द्रनन्दी के पास से सकल सिद्धान्त को सुनकर 'सत्वस्थान' की रचना की है ।३ इस मत्वस्थान प्रकरण को उन्होंने गोम्मटसार कर्मकाण्ड के तीसरे सत्वस्थान अधिकार में प्रायः ज्यों का त्यों अपनाया है। यह ग्रन्थ 'विस्तरसत्वत्रिभंगी' नाम से जैन सिद्धान्त भवन आरा में विद्यमान है। मेरे संग्रह की तीन पत्रात्मक प्रति में इसका नाम 'विशेषसत्ता त्रिभंगी' दिया है । नेमिचन्द्र गंगवंशीय राजा राचमल्ल के प्रधान मन्त्री और सेनापति चामुण्डराय के समकालीन थे। यह अत्यन्त प्रभावशाली और सिद्धान्तशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् थे। इन्होंने गोम्मटसार की ३९७ गाथा में लिखा है कि जिस प्रकार चक्रवर्ती षट खण्ड पृथ्वी को अपने चक्र द्वारा प्राधीन करता है, उसी प्रकार मैंने अपने मति चक्र से पट खण्डागम को सिद्ध कर अपनी इस कृति में भर दिया है। । संभवत: इसी सफलता के कारण उन्हें सिद्धान्त चक्रवर्ती की उपाधि प्राप्त हुई हो। चामुण्डराय अजितसेनाचार्य के शिष्य थे। चामुण्डराय ने नेमिन्द्र का भी शिष्यत्व ग्रहण किया था। चामुण्डराय को प्रेरणा से नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार की रचना की थी। गोम्मट चामुण्डराय का घरुनाम था। जो मराठी तथा कन्नड़ो भाषा में प्रायः उत्तम, सन्दर, प्राकर्षक, एवं प्रसन्न करने वाला जैसे अर्थों में व्यवहृत होता है । और राय उनकी उपाधि थी। चामुण्डराय के इस 'गोम्मट' नाम के कारण ही उनके द्वारा बनवाई हई बाहबली की मूर्ति 'गोम्मटेश्वर' तथा 'गोम्मटदेव' जैसे नामों से प्रसिद्धि को प्राप्त हई है। उन्हीं के नाम की प्रधानता को लेकर ग्रन्थ का नाम 'गोम्मटसार' दिया गया है। जिनका अर्थ गोम्मट के लिये खीचा गया पूर्व के (षट् खण्डागम तथा धवलादि) ग्रन्थों का सार । इसी प्राशय को लेकर ग्रन्थ का 'गोम्मटसंग्रह सूत्र' नाम दिया गया है । जैसा कि कर्मकाण्ड की निम्न गाथा से प्रकट है
गोम्मट-संग्रहसत्तं गोम्मट सिहरूवरि गोम्मट जिणो य ।
गोम्मटरायविणिम्मिय-दक्खिण कुक्कुडजिणो जयउ॥९६८ इस गाथा में तीन कार्यों का उल्लेख करते हुए उन्हीं का जयघोषण किया गया है। इन्हीं तीन कार्यों में चामडराय की ख्याति है और वे हैं-१ गोम्मट संग्रह सूत्र २ गोम्मट जिन और दक्षिण कुक्कुटजिन । गोम्मटसंग्रह
गोम्मट के लिये किया गया सार रूप संग्रह ग्रंथ गोम्मटसार । गोम्मट जिन पद का अभिप्राय नेमिनाथ भगवान की उस एक हाथ प्रमाण इन्द्रनीलमणि की प्रतिमा से है जिसे गोम्मटराय ने बनवाकर गोम्मट-शिखरजन्दगिरि पर स्थित अपने मंदिर (वस्ति) में स्थापित किया था । और जिसके सम्बन्ध में यह कहा जाता है किन
१. इदि रणेमिचंद मुणिणाणप्पसु देग्गभयदि वच्छेण ।
रइयो तिलोयसागे खमंतु बहु सदाइरिया ॥ २. मिऊण अभयणंदि सद-सायर पारगिदणदिगुरु । वरवीरणंदिगगाहं पयडीणं पच्चय वोच्छं ॥७८५-गो० क०
णमह गुणरयणभूसरण सिद्धतामिय महद्धि भवभावं । वर वीरगंदिचंदं णिम्मलगुरण मिदणंदि गुरु ॥८७६ गो० क. वीरिंदणंदि बच्छेण प्पसदेणभयरणंदि सिस्सेण। दंसणचरित्तलद्धी सु सूयिया ऐमिचदेण ॥६४८ लब्धिसार ३. वर इदणंदि गुरुणो पासे सोऊण सयल सिद्धतं ।
सिरिकरणयणंदि गुरुणा सत्तट्ठाद्धं समुद्दिढें ॥३६६ गो० क. ४. जह चक्केरणय चक्की छक्खंड साहियं अविग्घेण ।
तह मइचक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्मं ॥३६७ गो० क. १. देखो, अनेकान्त वर्ष ४ किरण ३-४ में डा० ए. एन० उपाध्ये का 'गोम्पट' नामक लेख
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पहले चामुण्डराय -वस्ति में मौजूद थी। परन्तु बाद को मालूम नहीं कहां चली गई। उसके स्थान पर नेमिनाथ की एक-दूसरी पांच फुट की उन्नत प्रतिमा अन्यत्र से लाकर विराजमान कर दी गई है, जो अपने लेख पर से एचन के बनवाए हए मन्दिर की मालूम होती है। और 'दक्षिण कुक्कुटजिन' बाहुबली की प्रसिद्ध एवं विशाल उस मूर्ति का ही नामान्तर है। यह नाम अनुश्रुति अथवा कथानक को लिये हुए है । उसका तात्पर्य इतना ही है कि पोदनपुर में भरत चक्रवर्ती ने बाहुबली की उन्हीं की शरीराकृति जसो मूर्ति बनवाई थी, जो कुक्कुट सौ से व्याप्त हो जाने के कारण उसका दर्शन दुर्लभ हो गया था। उसो के अनुरूप यह मूर्ति दक्षिण में विन्ध्यगिरि पर स्थापित की गई है और उत्तर की उस मति से भिन्नता बतलाने के लिये हो इसे दक्षिण विशेषण दिया गया है। इससे यह बात स्पष्ट हो गई कि गोम्मट बाहबली का नाम न होकर चामुण्डराय का घरु नाम था। और उनके द्वारा निर्मित होने के कारण मति का नाम भी 'गोम्मटेश्वर या गोम्मट देव' प्रसिद्ध हो गया। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने चामुण्डराय द्वारा निर्मापित श्रवण वेलगोला में स्थित गोम्मट स्वामी बाहुबली की अद्भुत विशाल मूर्ति की प्रतिष्ठा चैत्र शुक्ला पंचमी रविवार २२ मा सन् १०२८ में की थी । यह मूति अपनी कलात्मकता और विशालता में अतुलनीय है । उसके दर्शन मात्र से प्रात्मा अपूर्व आनन्द को पाता है । मूर्ति अत्यन्त दर्शनीय है। रचना
प्राचार्य नेमिचन्द्र सि० चक्रवर्ती की निम्न कृतियां प्रकाशित हैं। गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार त्रिलोकसार।
गोम्मटसार-एक सैद्धान्तिक ग्रन्थ है, जिसमें जीवस्थान, क्षुद्रबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड, और वर्गणाखण्ड, इन पांच विषयों का वर्णन है। इस कारण इसका अपर नाम पंचसग्रह भी है । गोम्मटसार ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है। जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड ।
जीवकाण्ड में ७३३ गाथा है जिसमें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदहमार्गणा और उपयोग। इन बीस प्ररूपणामों द्वारा जीव की अनेक अवस्थाओं और भावों का वर्णन किया गया है। अभेदविवक्षा से इन बीस प्ररूपणाओं का अन्तर्भाव गुणस्थान और मार्गणा इन दो प्ररूपणाओं में हो जाता है क्योंकि मार्गणाओं में ही जीवसमास, पर्याप्ति,प्राण संज्ञा और उपयोग इनका अन्तर्भाव हो सकता है । इसलिये दो प्ररूपणएं कही हैं। किन्तु भेदविवक्षा से २० प्ररूपणाएं कही गई हैं।
कर्मकाण्ड-में ७२ गाथाएं हैं, जिनमें प्रकृति समूत्कीर्तन, बन्धोदय, सत्वाधिकार, सत्वस्थानभंग, त्रिचलिका यात समत्कीर्तन, प्रत्ययाधिकार, भावचूलिका और कर्म स्थिति रचना नामक नौ अधिकारों में कर्म की विभिन्न अवस्थामों का निरूपण किया गया है। - टीकाएं-गोम्मटसार ग्रन्थ पर छह टीकाएं उपलब्ध हैं। एक अभयचन्द्राचार्य की संस्कृतटीका 'मन्द
का जो जीवकाण्ड की ३८३ नं० की गाथा तक ही पाई जाती है, शेष भाग पर बनी या नहीं; इसका कोई निश्चय नहीं । दूसरी, केशववर्णी की, जो संस्कृत मिश्रित कनडी टीका जीवतत्त्व प्रबोधिका, जो दोनों काण्डों पर किनार को लिये हए है। इसमें मन्दप्रबोधिका का पूरा अनुसरण किया गया है। तीसरी, नेमिचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका जीवतत्त्व प्रदीपिका है, जो पिछली दोनों टीकाओं का गाढ़ अनुसरण करती है। चौथी, टीका प्राकृतभाषा को है जो अपर्ण है और अजमेर के भट्टारकीय भण्डार में अवस्थित है । पाँचवी पंजिका टीका है जिसका उल्लेख अभयचन्द्र को मन्द प्रबोधिका में निहित है। इस पंजिका की एक मात्र उपलब्ध प्रति मेरे संग्रह में है, जो सं० १५६० को
१. गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णाय मग्गणाओ य ।
उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भरिणदा ।।२।। २. 'अथवा सम्मूर्छन गर्भोपपादानाथित जन्म भवनीति गोम्मट पंचिका कागदीनामभिप्रायः।' गो० जी० मन्द्र प्रबोधिका टीका, गा०६३।
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवी और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२६३ लिखी हुई है । और जिसका प्रमाण पांच हजार श्लोक जितना है, जिसकी भाषा प्राकृत और संस्कृत मिश्रित है।' उसका मंगल और प्रतिज्ञा वाक्य इस प्रकार है--
पणमिय जिणिदचंदं गोमम्मट संगह समग्ग सुत्ताणं ।
केसिपि भणिस्सामो विवरणमण्णे समासिज्ज ।। तत्थ तावतेसि सुत्ताणमादिए मंगलटेंभणिस्स माणट्ठविसय पइण्णा करणळं च कमस्स सिद्धिमिच्चाइ गाहा सुत्तस्सत्थो उच्चणेण? विवरणं कहिस्सामो ॥
इस पंजिका के रचयिता गिरिकीति है । कर्ता ने अपनी गुरु परम्परा इस प्रकार दी है श्रुतिकीति, मेघचन्द्र, चन्द्रकीर्ति और गिरिकोति जैसा कि उसके पद्यों से प्रकट है:
सो जयउ वासपुज्जो सिवासु पुज्जासु पुज्ज-पय पउमो। पविमल वसु पुज्ज सूदो सुदकित्ति पिये-पियं वादि॥१ सदिय वि मेघचदप्पसाव खुद कित्तियरो। जो सो कित्ति भणिज्जइ परिपुज्जिय चंदकित्ति त्ति ॥२ जेणासेस वसंतिया सरमई ठाणंत रागोहणी । ज गाढं परिरुमिऊण मुहया सोजत मुद्दासई। जस्सापुत्वगुणप्पभूदरयणा लंकारसोहग्गिणा ।
जातासिरिगिरिकित्तिदेव जदिणा तेजसि गंथो करो ॥३॥ इस पंजिका प्रमाण पांच हजार श्लोक जितना बतलाया है । यह पंजिका प्रकाशन के योग्य है। और ठी टीका सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका है, जिसके कर्ता पण्डित प्रवर टोडरमल हैं यह टीका विशाल है, और ढुढारी भाषा हिन्दी में लिखी गई है।
लब्धिसार क्षपणासार-इसमें बतलाया गया है कि कर्मों को काटकर जीव कैसे मुक्ति प्राप्त कर सकता अथवा अपने शुद्ध स्वरूप में स्थिति हो सकता है । इसका प्रधान प्राधार कसाय पाहुड और उसकी जयधवला टीका है। इसमें तीन अधिकार हैं-दर्शनलब्धि, चारित्रलब्धि, और क्षायिक चारित्र । प्रथम अधिकार में पांचलब्धियों के स्वरूप आदि का वर्णन है, जिनके नाम है-क्षयोपशम, विशुद्धि देशना, प्रायोग्य और करण । इनमें से प्रथम चार लब्धियां सामान्य है, जो भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकार के जीवों के होती हैं। पाचवी करणलब्धि सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र की योग्यता रखने वाले भव्यजीवों के ही होती है। उसके तीन भेद हैं-अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । दूसरे अधिकार में चारित्रलब्धि का स्वरूप और चारित्र के भेदो उपभेदों आदि का संक्षिप्त कथन है । साथ ही उपशमश्रेणी पर चढ़ाने का विधान है। तीसरे अधिकार में चारित्र मोह की क्षपणा का संक्षिप्त विधान है, जिसका अन्तिम परिणाम मुक्ति या शुद्ध आत्मस्वरूप की उपलब्धि है। इस तरह यह ग्रंथ सक्षेप में
आत्मविकास की कु जी अथवा साधन-सामग्री को लिये हुए है। लब्धिसार की संस्कृत टीका नेमिचन्द्राचार्य की है। पं० टोडरमल्ल जी ने इसके दो अधिकारों की हिन्दी टीका उक्त संस्कृत टीका के अनुसार की है। तीसरे "क्षपण' अधिकार की गद्य संस्कृत टीका माधवचन्द्र विद्य देव की है, जिसे उन्होंने बाहुबली मत्री के लिये क्षुल्लकपुर में शक स०
३. पयडी सीलसहावो-प्रकृतिः शीलं स्वभावइत्येकार्थः स्वभावश्चस्वभाववंतमपेक्षते । तदविनाभावित्वात्तस्य । अतः कस्यायं स्वभावः कथ्यत इत्याह जीवगाणं, जीवकर्मणोः। कहमेत्थ अगमद्देण कम्मग्गहणं । कम्मण मरीरमेतव अंग सद्देण विवक्खिदत्तादो। कछ कम्म कलावस्सेव कम्मण सरीस्तादो य । अहवा अंग सद्देरण कम्माकम्म सरीराण गहणं । कम्मेणोकम्मेहिं पयोजणादो। जीवंगारणमिदि किमठ्ठ बुच्चदे । भावकम्म दव्वकम्म पोकम्मारणं पयडि परूपरणट्ठ।
-गो. क. पंजिका
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
११२५ (सन् १२०३, वि० सं० १२६०) में बनाकर समाप्त की है। पं० टोडरमल्ल जी ने इसी के अनुसार क्षपणासार की टीका की है। इसी से उन्होंने अपनी सम्यकज्ञान चन्द्रिका टीका को लब्धिसार क्षपणासार सहित गोम्मटसार की टीका बतलाई है।
त्रिलोकसार-यह करणानुयोग का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी गाथा संख्या १०१८ है। जिनमें कुछ गाथाएँ माधवचन्द्र विद्य की भी हैं। जो नेमिचन्द्राचार्य की सम्मति से शामिल की गई हैं । यह ग्रन्थ आचार्य यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ती से अनुप्राणित है। इसमें सामान्यलोक, भवन, व्यन्तर, ज्योतिप, वैमानिक, और नरक-तिर्यक, लोक ये अधिकार हैं । जम्बूदीप, लवणसमुद्र, मानुषक्षेत्र, भवनवासियों के रहने के स्थान, आवासभवन, प्रायु परिवार आदि
स्तृत वर्णन है । ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक, तारा एवं सूर्य चन्द्र के प्राय, विमान, गति, परिवार प्रादि का सांगोपांग वर्णन दिया है। त्रिलोक की रचना सम्बन्धी सभी जानकारी इससे प्राप्त की जा सकती है। इस पर नेमिचन्द्राचार्य के प्रधान शिष्य माधवचन्द्र विद्य की संस्कृत टीका है। गोम्मटसार की तरह इस ग्रंथ का निर्माण भी प्रधानतः चामडराय को लक्ष्य करके---उनके प्रति बोधनार्थ हा है ऐसा टीकाकार माधवचन्द्र ने टीका के प्रारम्भ में व्यक्त
संस्कृत टीका सहित यह ग्रन्थ मणिकचन्द्र ग्रन्थ माला से प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रन्थ की हिन्दी टीका पंडित टोडरमल्ल जी ने की है, जिसमें उसके गणित विषय को अच्छी तरह से उद्घाटित किया है।
आर्यसेन
प्रार्यसेन-मूलसंघ वरसेनगण और पोगरीगच्छ के आचार्य ब्रह्मसेन व्रतिप के शिष्य थे। जो अनेक राजाओं से सेवित थे। इनके शिप्य महासेन थे। जैसा कि शिलालेख के निम्न वाक्यों से प्रकट है:
श्रीमूलसंघे जिनधर्ममूले, गणाभिधाने वरसेन नाम्नि। गच्छेसु तुच्छेऽपि पोगर्यमिक्खे, सन्तूयमानो मुनिरार्यसेनः ॥ तस्यार्यसेनस्य मुनीश्वरस्य शिष्यो महासेन महामुनीन्द्रः।
सम्यक्त्वरत्नोज्वलितान्तरंगः संसारनीराकर सेतुभूत [:] ॥ इस शिलालेख में महासेन मुनीन्द्र के छात्र चांदिराज ने, जो वाणसवंश के तथा केतल देवी के प्रॉफिसर थे। उन्होंने पोन्नवाड (वर्तमान होन्वाड) में त्रिभुवन तिलक नाम का चैत्यालय बनवाया, और उसमें तीन वेदियों में शान्ति नाथ, पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ की तीन मूर्तियां बनवाकर प्रतिष्ठित की, और उसके लिये कुछ जमीन तथा मकानात शक सं०६७६ (सन् १०५४) जयसंवत्सर में वैशाख महीने की अमावस्या सोमवार के दिन दान दिया। इससे मार्यसेन का समय सन् १०५४ (वि० सं० ११११) सुनिश्चित है।
महासेन महासेन-मूलसंघ वरसेनगण और पोगरिगच्छ के प्राचार्य आर्यसेन के शिष्य थे । इनके गृहस्थ शिष्य चांदिराज ने, जो वाणसवंश में उत्पन्न हया था। उक्त चांदिराज ने त्रिभुवन तिलक नाम का चैत्यालय बनवाया. और उसमें शान्तिनाथ और पार्श्व-सुपार्श्व की मूर्तियां बनवाकर प्रतिष्ठित की, और उनकी पूजादि के लिये महासेन को दान दिया। यह लेख शक सं० ६७६ सन् १०५४ का है । अतः महासेन का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का मध्यकाल होना चाहिये।
१. अमुना माधक्चन्द्र दिय गणिना विद्य चककेशिना,
क्षपणासार मकारि बाहुबलि सन्मंत्रीश संज्ञप्तये । शककाले शरसूर्यचन्द्र गणिते (११२५) जाते पुरे क्षुल्लके शुभदे दु'दुभिवत्सरे विजयतामाचंन्द्रतारं भुवि ।।१६ -क्षपणासार गम प्रशस्ति २. जैन लेख सं० भ०२ पृ० २२७-२८) ३. जैन लेख संग्रह अ-२ १० २२७-२८)
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२६५
चामुण्डराय चामुण्डराय-ब्रह्म-क्षत्रिय वंश के वैश्य कुल में उत्पन्न हुए थे। शिलालेख में इन्हें 'ब्रह्मक्षत्रकुलोदयाचल शिरोभूषामणि' कहा गया है । यह गंगवशी राजा राचमल्ल के प्रधान मंत्री और सेनापति थे । राचमल्ल चतुर्थ का राज्यकाल शक सं०८६६ से १०६ (वि० सं० १०३१ से १०४१) तक सुनिश्चित है। ये गगवनमारसिंह के उत्तराधिकारी थे। चामुण्डराय इनके समय भी सेनापति रहे हैं। इनका धरु नाम 'गोम्मट' था प्रोर 'राय' राजा राचमल्ल द्वारा प्रदत्त पदवी थी। इस कारण इनका नाम गोम्मटराय भी था। बाहबलि की मूर्ति का नाम 'गोम्मट. जिन' और पंच संग्रह का नाम 'गोम्मट-संग्रह सूत्र' इन्हीं के नाम के कारण हुपा है क्योंकि चामुण्डराय के प्रश्न के अनसार ही धवलादि सिद्धान्तों पर से नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोम्मट सार की रचना की है।
मारसिंह और इनके उत्तराधिकारी पुत्र राचमल्ल का समय गंगवंश के लिए भयावह था: क्योंकि पश्चिमी चालक्य. नोलम्ब तथा पल्लव प्रादि गंग वश के शत्रु थे । चालुक्यों के खतरे के विनाश का श्रेय चामुण्डराय को है। श्रवणवेल्गोल के कगे ब्रह्मदेव स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख (६७४ ई०) में लिखा है कि इस प्रसिद्ध दर्गपर हए अाक्रमण ने विश्व को प्राश्चर्य में डाल दिया। चामुण्डराय ने अपने पुराण में इस बात को स्वीकार किया है कि इस विजय में ही उन्हें 'रणरंग सिह' की उपाधि प्राप्त हुई थी।
चामुण्डराय केवल महामात्य ही नही थे किन्तु वीर सेनानायक भी थे। इनके समान शूग्वीर और दढ स्वामी भक्त मत्री कर्नाटक के इतिहास मे अन्य नही हुआ । इन्होने अपने स्वामी के लिए अनेक युद्ध जीते थे। गोविन्दराज, वेकागज आदि अनेक राजानो को परास्त किया था। इसके उपलक्ष्य में उन्हें समग्र बोस तण्ड. रणरंगसिह, वैरिकूल-काल दण्ड, असहाय पराक्रम, प्रतिपक्ष राक्षस, भुज विक्रम और समर-परशराम आदि विरुद प्राप्त हुए थे । और कौनसी उपाधि किस युद्ध के जीतने पर मिली, इसका उल्लेख निम्न प्रकार है :
खडग युद्ध में वज्वलदेव को हराने पर उन्हें 'समरधुरंधर उपाधि प्राप्त हुई थी। नोलम्ब युद्ध में गोनर [ के मैदान में उन्होंने जो वीरता दिखलाई उसके उपलक्ष में 'वीर मार्तण्ड' की उपाधि मिली। उक्कांगी
राजादित्य से वीरता पूर्वक लड़ने के उपलक्ष में 'रणरंग सिह' उपाधि प्राप्त हुई। और वागेयूर वा (वामीकर) के किले में त्रिभवन वीर को मारने और गोविन्दराज को उसमें न घुमने देने के उपलक्ष में वैरीकल-काला उपाधि प्राप्त हुई। राजा काम के किले में राज वास, सिवर, कुणामिक प्रादि योद्धानों को परास्त करने के कारण उन्हें भज विक्रम' उपाधि से अलंकृत किया गया। अपने छोटे भाई नागवर्मा के घातक मुद्राचय को, जो चलदंक गंग और गंगर भट्ट के नाम से प्रसिद्ध था, मार डालने के उपलक्ष में 'समरपरशुराम' पद से विभपित किया गया। एक कबीले के मखिया को पराजित करने के उपलक्ष में 'प्रतिपक्ष-राक्षस' उपाधि मिली। और अनेक योद्धाओं को मारने के कारण उन्हें 'भटमारि' उपाधि प्राप्त हुई । धार्मिकता और नैतिकता की दृष्टि से भी उन्हें समय कर, सत्य युधिष्ठिर, पौर सुभट चूडामणि आदि उपाधियां प्राप्त हुई।
इन सब उपाधियों से ऐसा लगता है कि चामुण्डराय अपने समय का कितना प्रतापी और वीर सेनापति था। यह केवल वीर सेनापति ही नहीं था किन्तु अच्छा विद्वान् और कवि भी था। उनकी उपलब्धियां उनकी महत्ता और गौरव की संद्योतक हैं।
१. शिलालेख नं० १६५ जैन लेख सं० प्रथम भाग लेख नं० १०६ ।
२. श्रीमदप्रतिहतप्रभावस्याद्वादशासनगुहाभ्यन्तर निवासिप्रवादि मदांधसिधुर सिंहायमान सिंहनन्दि मनीन्द्राभिनन्दित गंगवंशललाम राज सर्वज्ञाद्यनेक गुणनामधेय भागधेय श्रीमद राजमल्ल देव महीवल्लभ महामात्यपदविराजमान रणरंग मल्लासहायपराक्रमगुणरत्नभूषण सम्यक्त्वरत्न निलयादिविविध गुणनामसमासादित कीर्तिकान्त श्रीमच्चामुंडराय भब्य पुण्डरीक ।
-मंद प्रबोधिकाटीका उत्थानिका वाक्य
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
उपलब्धियां
गोम्मट- संग्रह सुत्तं गोम्मट सिहरुवरि गोम्मट जिणो य ।
गोम्मटराय-विणिम्मिय-दक्खिण कुक्कूड जिणो जयउ॥९६८
इस गाथा में तीन कार्यो का उल्लेख है और उन्ही का जयघोष किया गया है। गोम्मट संग्रह सूत्र गोम्मट जिन और दक्षिण कुक्कुड जिन । गोम्मट जिन से भगवान नेमिनाथ की उस एक हाथ प्रमाण इन्द्रनील मणि की प्रतिमा से है, जिसे गाम्मट राय ने बनवा कर चन्द्रगिरि पर स्थित अपने मन्दिर में स्थापित किया था और दक्षिण कुक्कुड जिन से अभिप्राय बाहुबली की उस विशाल मूति से है जो पोदनपुर में भरत चक्रवर्ती ने बाहुबली की उन्हीं के शरीराकृति जैसी मूर्ति बनवाई थी, जो कुक्कुटसर्पो से व्याप्त होने के कारण दुर्लभ दर्शन हो गई थी। उसी के अनुरूप यह मूति विन्ध्यगिरि पर विराजमान की गई है। दक्षिण विशेपण उसकी भिन्नता का द्योतक है।
चामण्डराय की अमर कीर्ति का महत्व पूर्ण प्रतीक श्रवणबेलगोल में प्रतिष्ठापित जगद्विख्यात वाहुबलि की मूति है, जो ५७ फीट उन्नत और विशाल है । और जिसका निर्माण चामण्डगय ने कराया था। और जो धूप, वर्षा सर्दी गर्मी और प्रांधी की बाधाओं को सहते हुए भी अविचल स्थित है। मूर्ति शिल्पी की कल्पना का साकार रूप है। मति के नव आदि वैसे ही अंकिन है जैसे उनका आज ही निर्माण हया है। चामण्डराय ने बाहबली की मूर्ति की प्रतिष्ठा ई० १८१ में कराई थी। लगभग एक हजार वर्ष का समय व्यतीत हो जाने पर भी वह वैसी ही सुन्दर प्रतीत होती है वह दशवं आश्चर्य के रूप में उलिखित की जाती है। दर्शक को अग्विं उसे देखते ही प्रसन्नता से भर जाता है। बाहुबली की यह मूति ध्यानावस्थाको है, वे केवल ज्ञान होने से पूर्व जिम रूप में स्थित थे, वही लता वेले जो बाहुओं तक उत्कीणित है ओर नीचे मी का वामिया भो बनी हई है। उसी रूप को कलाकार ने अकित किया है । दर्गक मूति को देखकर तृप्त नही होता। उसकी भावना उसे बार-बार देखने की होती है । मूर्ति दर्शन से जो प्रात्म लाभ होता है वह उसे शब्दो द्वारा व्यक्त नहीं कर सकता। उसके अवलोकन से यह भावना अभिव्यक्त होती है कि अन्तिम समय में इस मूर्ति का दर्शन हो । चामण्डराय की यह ऐतिहासिक देन महान् पार अमर है। शिलालेख में चामुण्डराय द्वारा बनवाय जाने का उल्लेख है । और गोम्मट सग्रह सुत्त से अभिप्राय गोम्मटसार से है।
दूसरी उपलब्धि 'त्रिप्ठि शलाका पुरुप चरित' है। जिसे चामुण्डगय ने शक सं १०० ईस्वी सन् १७८ (वि० सं०१०३५) में बनाकर समाप्त किया था। इसमें चौबीस तीर्थकगें के चरित्र के साथ चक्रवर्ती आदि महापरुषों का पावन जीवन अंकित किया गया है । इसके प्रारम्भ में लिखा है कि इस चरित्र को पहले कचि भट्टारक तदनन्तर नन्दि मनीश्वर, तत्पश्चात् कवि परमेश्वर और तत्पश्चात् जिनमेन गुणभद्र स्वामी इस प्रकार परम्परा से कहते आये है, और उन्ही के अनुमार मैं भी कहता हूं। मंगलाचरण में गद्धपिच्छाचार्य मे लेकर अजितमेन पर्यन्त प्राचार्यो की स्तुति की है और अन्त में श्रत केवली दशपूर्वधर, एकादशांगधर, प्राचागंगधर, पूर्वाग देशवर के नाम कह कर अहंबली, माघनन्दि, भृतबलि पुष्पदन्त गुणधर शाम कुण्डाचार्य, तम्बू लूराचार्य, समन्तभद्र, शुभनन्दि विनन्दि, एलाचार्य, नागसेन, वीरसेन जिनमेन आदि का उल्लेख किया है। फिर अपने गुरु की स्तुति की है। यह पुराण प्रायः गद्यमय है, पद्य बहुत ही कम है। कनड़ी भाषा के उपलब्ध ग्रंथों में चामुण्डराय पुराण ही सबसे प्राचीन माना जाता है। चामण्डगय के गुरु का नाम अजितमेनाचार्य है, जो उस समय के बड़े भारी विद्वान थे। तपस्वी
और क्षमाशील थे। उनके अनेक शिष्य थे। वंकापुर में उन्होंने अनेक शिष्यों को शिक्षा दी। प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती पर भी उनका स्नेह था । चामुण्डराय के प्रग्नानुसार ही उन्होंने पंचसंग्रह (गोम्मटसार का रचना की थी। चामुण्डगय वीर और दानी थे ।) जैनधर्म के लिए उन्होंने जो कुछ किया, उससे भारतीय इतिहास में उन्हें अमर बना दिया है।
तीसरी उपलब्धि चारित्रसार या भावनासार है । जिसकी उन्होंने तत्त्वार्थ वार्तिक, राद्धांत सूत्र, महापुराण और प्राचार ग्रन्थों से सार लेकर रचना की है, जैसा कि उसके अन्तिम निम्न पद्यमे प्रकट है :
तत्वार्थराद्धांत महापुराणे स्वाचारशास्त्रेषु च विस्तरोक्तम् पाख्यात्समासादनुयोगवेदी चारित्रसारं रणरंगसिंहः ॥
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं-बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२६७
इसमें गृहस्थ ओर मुनियों के प्राचार का व्यवस्थित वर्णन है। उसका सकलन सम्बद्ध पौर सुन्दर है। कथन की सम्बद्धता हो उसकी प्रमाणिकता का मापदण्ड है, यह ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हो चुका है।
गोम्मटमार की देशी कर्णाटक वृनि भी इनकी बनाई हुई कही जातो हे पर वह अभी तक उपलब्ध नही
चिककवेट पर इनके द्वारा एक वदि बनाये जाने का उल्लेख मिलता है। इनके पुत्र का नाम जिनदेवण था, जो अजितसेनाचार्य का शिप्य था। जिनदेवण ने श्रवणवल्गोल में जिन मन्दिर का निर्माण कराया था। यह लेख शक स०६६२ (मन् १०४०) में उत्कीर्ण किया गया है।
महाकवि वीर ___ कवि वीर लाडवागड वश के गृहस्थ विद्वान् थे। उनके पिता का नाम देवदत्त था, जो अच्छे विद्वान् कवि थे । इनके पुत्र वीर कवि ने अपने पिता की चार कृतियों का उल्लेख किया है। पद्धडिया छन्द में वरागचरित, सरस चच्चारया बध मे शान्तिनाथ का महान यशोगान (शान्तिनाथ गस) विद्वत्सभा का मनोरजन करने वाली सद्धय वीर कथा, और अम्बादेवी का गग । खद है कि कवि देवदत्त की ये चारों रचनाएं उपलब्ध नहीं है । कवि मालवा के गुडखेड ग्राम के निवासी थे । गडखेड नाम का यह गाव मालवा में गिन्धवी नगरी के सन्निकट कही बसा हया था। पूर्व मालवा में जमूना से निकलने वाली एक छोटो नदी का नाम काली सिन्धु या मिन्ध नदी है । यह नदी प्राचीन दशार्ण क्षेत्र में जिमकी प्राचीन गजधानी विदिशा थी, में बहती हई पद्मावती नामक स्थान पर पाकर चर्मण्वती (चवल) नदी से भोपाल के निकट निकलने वाली पाग नदी में मिल जाती है । और आगे जाकर दोनो नदिया वतवा में गिर जाती है । इमी मिन्ध नदी के किनारे पर भोपाल के पूर्व और विदिशा मे उत्तर में सिन्धवी नगरी रही होगी। इस नगरी के माप ही कही गडखेड ग्राम बमा हना होगा। कवि देवदत्त का समय स० १०५० है । कवि का अम्बादेवी गम नाल और लय के साथ गाया जाता था। और जिन चरणों के समीप नृत्य किया जाता था, यह सम्यक्त्वरूपी महाभार की धरा के धारक थे।
कवि देवदत्त की सतुवा भार्या से विनय सम्पन्न वीर नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था। कवि के बुद्धिमान तीन छोटे महोदर भाई और भी थे। जो सीहल्ल, लक्षणाक और जसई नामो मे विख्यात थे । वीर कवि ने कहा और किसमे शिक्षा पाई. इसका कोई उल्लेख नहीं किया। कवि ने शब्द शास्त्र, छन्द शास्त्र, निघट, तर्क शास्त्र तथा प्राकृत काव्य मेतबंध का अध्ययन किया था, मिद्धान्त शात्रों के अध्ययन के साथ लोकिक शिक्षा में भी निपुणता प्राप्त की थी। केवल काव्य रचना उनके जीवन का व्यापार नही था किन्तु वह राज्य कार्य, अर्थ और काम की चर्चानों में भी सलग्न रहता था । व्यस्त जीवन रहने गे हो उसे जबूस्वामी चरित की रचना में एक वर्ष का समय लगा था। कवि की चार स्त्रियों थी। जिनवती, पं.मावती, लीलावती और जयादेवी। पहली पत्नी से नेमचन्द्र नाम का एक पुत्र भी
१ गिन ग्रहयं बनगो नदोल जनमेल्न पोगले मन्त्रि-चामुण्डन नन्दनोलवि माडिमिद जिन देवणनजितमन-मनिबर गृह ॥१
-जैनलेख सं० भा० १ पृ० १४६ १. सह अन्थि परम जिगण पयमरगा, गुलखेड विरिणगरउ सुहचरण । मिरिनाढवग्गु हि विमल जग, कइ देवयत्तु निम्बूढ कसु । बह भावह जे वरगचरिउ, पद्धडियाब उद्धरिउ । कविगूगगरम रनियविउमह, वित्थरिय सुद्दय वीर कह । चच्चग्यिबधि विग्इउ मग्मु, गाइज्जइ सतिउ तारजसु । नच्चिज्जर जिगणपय मेवाह, किउ गसउ अंबादेवाह । मम्मत्तमहाभरधुग्धरहो, तहो सरसददेवि लद्धवरहो।
-जबू सामिचरिउ १-४
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
था।' जो विनय गुण से सम्पन्न था। वीर कवि विद्वान् और कवि होने के साथ-साथ गुण-ग्राही, न्यायप्रिय और समुदार व्यक्ति था । वह साधुचरित पुरुषों के प्रति विनयी, अनुकम्पावान और धर्मनिष्ठ श्रावक होते हुए भी वह सच्चा वीर पुरुष था । कवि को समाज के विभिन्न वर्गो में जीवन-यापन करने के विविध साधनों का साक्षात अनुभव था । प्राचीन कवियों के प्रसिद्ध ग्रन्थों, अलंकार और काव्य लक्षणों का कवि को तल स्पर्शी ज्ञान था वह कालिदास और बाण की रचनाओं से प्रभावित था। उनकी गुण ग्राहकता का स्पष्ट उल्लेख ग्रन्थ की चतुर्थ सन्धि के अन्त में पाये जाने वाले निम्न पद्य से मिलता है :
गुणा णमुतिगुणं गुणिणो न सहंति परगुणे दट्ठे । वल्लहगुणा वि गणिणो विरला कइवीर - सारिच्छा ॥
गुण अथवा निर्गुण पुरुष गुणों को नहीं जानता और गुणीजन दूसरे के गुणों को भी नहीं देखते - उन्हें सह भी नही सकते, परन्तु वीर कवि के सदृश कवि विरले हैं, जो दूसरे के गुणों को समादर की दृष्टि से देखते हैं । वीर केवल कवि ही नही थे, किन्तु भक्ति रस के भी प्रेमी थे । उन्होंने मेघवन में पाषाण का एक विशाल जिन मन्दिर बनवाया था और उसी मेघवन पट्टण में वर्द्धमान जिनकी विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठा की थी । ग्रन्थ प्रशस्ति में कवि ने मन्दिर निर्माण और प्रतिमा प्रतिष्ठा के संवनादि का कोई उल्लेख नही किया । किन्तु इतना तो निश्चित ही है कि जबूसामिचरिउ की रचना से पूर्व मन्दिर निर्माण और प्रतिमा प्रतिष्ठादि का कार्य सम्पन्न हुआ है।
रचना
कवि की एक मात्र रचना 'जंबूसा मिचरिउ' है । इस ग्रन्थ का दूसरा नाम 'शृंगारवीर महाकाव्य ' है । इसमें अन्तिम केवली जंबू स्वामी के चरित्र का चित्रण किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना में कवि को एक वर्ष का समय लग गया था, क्योंकि कवि को राज्यादि कार्य के साथ धर्म, अर्थ और काम की गोष्ठी में भी समय लगाना पड़ता था, प्रतएव ग्रन्थ रचना के लिये अल्प समय मिल पाता था । ग्रन्थ ११ सन्धियों में विभाजित है । चरित्र चित्रण करते हुए कवि ने महाकाव्यों में रस और अलंकारों का सरस वर्णन करके ग्रन्थ को अत्यन्त आकर्षक और पठनीय बना दिया है । कथा पात्र भी उत्तम हैं जिनके जीवन-परिचय से ग्रन्थ की उपयोगिता की अभिवृद्धि हुई है । शृंगार
रस,
वीर रस, और शान्त रस का यत्र-तत्र विवेचन दिया हुआ है। कहीं-कही शृगार मूलक वीररस है । ग्रन्थ में
१. सुहसील सुद्धवसो जग्गरणी सिरि संतुआ भरिया || ६ ||
जस्स य पमण्ण वयरणा लहुग्गो सुमः सहोयरा निणि । सीहल्ल लक्खा जसइ नामेत्ति विक्वाया ||७|| जाया जस्स मणिट्ठा जिरणवइ पोमावइ पुगो बीया । लीलावइत्ति नइया पच्छिम भज्जा जयादेवी ||८|| पढमकलत्तं गरुहो सतारण कयत्त विडवि पागेहो । विराय गुणमणि निहारणो तरणओ तह नमिचंदो त्ति ॥ ॥ —जबू सामि च० अन्तिम प्रशस्ति
२. सो जयउ कई वीरां वीरजिरणदस्स कारिय जेण । पाहारणमय भवणं विरुद्दे से ग मेहवणे ॥ १० ॥ इत्थेवदिणे मेहवरण पट्टणे वड्ढमाण जिरणपडिमा । तेगा वि महाकरणा वीरेण
पर्याट्ठिया
पवरा ।। ४
- जंबू स्वामि च० प्रशस्ति
प्रयत्न करने पर भी 'मेघवन' का कोई विशेष परिचय उपलब्ध नही हुआ, परन्तु 'मेहवन' नाम का कोई स्थान विशेष रहा है जो उस समय धन-धान्यादि से सम्पन्न था।
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
पारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२६६ अलंकारों का चयन दो प्रकार का पाया जाता है, एक चमत्कारिक और दूसरा ग्वाभाविक । प्रथम का उदाहरण निम्न प्रकार है :
भारह-रण-भूमिव स-रहमीस हरि प्रज्जुण पउल सिंहडिदोस । गुरु प्रासत्थाम कलिंग चार गय गज्जिर ससर-महीससार । लंका नयरी व सरावणीय चंदणहि चार कलहावणीय ।
सपलास-सकंचण अक्ख अडढ सविहीसण-कइकुल फल रसड़ढ़। इन पद्यों में विन्ध्यावटी का वर्णन करते हए इलेप प्रयोग मे दो अर्थ ध्वनित होते है–स रह-रथ सहित और एक भयानक जीवन हरि-कृष्ण पीर सिह, अर्जुन और वक्ष नहल और नकुल जीव, शिखडि और मयुर आदि ।
स्वाभाविक विवेचन के लिये पांचवीं सन्धि मे शृगार मूलक वीर रस का उदाहरण निम्न प्रकार हैकेरल नरेश मगांक की पुत्री विलामवती को रत्नशेखर विहाधर गे सरक्षित करने के लिये जबूकमारले ही यट करने जाते हैं। पीछे मगध के शामक श्रेणिक या बिम्बमार की सेना भी सजधज के साथ युद्धस्थल में पहुंच जाती है. किन्तु जंबूकुमार अपनी निर्भय प्रकृति और अमाधारण धैर्य के साथ युद्ध करने को प्रोत्तेजन देने वाली वीरोक्तियाँ भी कहते हैं तथा अनेक उदात्त भावनाओं के साथ सैनिकों की पत्निया भी युद्ध में जाने के लिये उन्हें प्रेरित करती हैं। युद्ध का वर्णन भी कवि के शब्दों मं पढिये।
अक्क मियंक सक्क कंपावणु, हा मुय सीयहे कारणे रावणु। दलिय दप्प दप्पिय मइ मोहणु, कवणु अणत्थु पत्तु दोज्जोहणु। तुज्झु ण दोसु वइव किउ धावइ, अणउ करतु महावइ पावइ । जिह जिह दड करंविउ जंपइ, तिह तिह खेयरु रोसहि कंपइ। घद्र कंठ सिरजालु पलित्तउ, चंडगंड पासेय पसित्तउ। दट्ठा हरु गुंजज्जलु लोयणु, पुरु दुरंत णासउ भयावणु। पेक्खे वि पहु सरोसु सण्णामहि, वुत्तु वोहरु मंतिहि तामहि । अहो प्रहा हूय हूय सासस गिर, जंपइ चावि उद्दण्ड गभिउ किर। अण्णहो जीह एह कहो वग्गए, खयर वि सरिस गरेस हो अग्गए। भणइ कुमारु एह रइ लुद्धउ, वसण महण्णवि तुम्महि छुद्धउ ।
रोसन्ते रिउहियच्छु विणा सुणइ, कज्जाकज्ज बलाबलु ण मुणइ। प्रस्तुत ग्रन्थ की भापा प्रांजल, मुबोध, सरस और गम्भीर अर्थ को प्रतिपादक है, और इसमें पूष्पदन्तान महाकवियों के काव्य-ग्रन्थों की भाषा के समान ही प्रोढ़ता और अर्थ गौरव की छटा यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है।
जम्बूस्वामी अन्तिम केवली हैं। इसे दिगम्बर श्वेताम्बर दोनो ही मम्प्रदाय निविवाद रूप से मानते हैं और भगवान महावीर के निर्वाण में जम्बू स्वामी के निर्माण तक की परम्परा भी उभय सम्प्रदायों में प्राय एक-सी है किन्तु उसके बाद दोनों में मतभेद पाया जाता है। जम्बू स्वामी अपने समय के ऐतिहासिक महापुरुष हरा हैं। वे काम के असाधारण विजेता थे। उनके लोकोत्तर जीवन की झांकी ही चरित्रनिष्ठा का एक महान आदर्श रूप जगत को प्रदान करती है। उनके पवित्रतम उपदेश को पाकर ही विद्युच्चर जैसा महान चोर भी अपने चौर कर्मादि दुष्कर्मों का परित्याग कर अपने पांच सौ योद्धाओं के साथ महान तपस्वियों में अग्रणीय तपस्वी हो जाता है और व्यंतरादि कृत महान उपसर्गों को ससघ साम्यभाव से सहकर सहिष्णुता का एक महान आदर्श उपस्थित करता है।
उस समय मगध देश का राजा बिम्बसार या थेणिक था, उसकी राजधानी राजगह थी, जिसे वर्तमान में
१. देखो जैन ग्रन्थ प्रशस्ति मग्रह भा० २ का ५४ पृष्ठ का टिप्पण।
२. दिगम्बर जैन परम्परा मे जम्बू म्वामी के पश्चात् विष्णु नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाह ये पांच श्रतकेवली माने जाते है। किन्तु श्वेताम्बर परम्पग में प्रभव, शय्यभव, यशोभद्र, आर्यसभूतिविजय और भद्रबाहु इन पाच श्रतकेवलियो का नामोल्लेख पाया जाता है । इनमे भद्रबाहु को छोड़ कर चार नाम एक दूसरे में बिल्कुल भिन्न है।
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
लोग राजगिर के नाम से पुकारते हैं। ग्रन्थकर्ता ने मगधदेश और राजगह का वर्णन करते हए वहाँ के राजा श्रेणिक बिम्बसार के प्रतापादि का जो संक्षिप्त परिचय दिया है वह इस प्रकार है :
चंड भजदंड खडिय मंडलिय मंडली विसड्ढे । धारा खंडण भीयव्व जयसिरी वसइ जस्स खग्गंके ॥१॥ रे रे पलाह कायर मुहई पेक्खइ न संगरे सामी। इय जस्स पयावद्योसणाए विहडंति वइरिणो दूरे ॥२॥ जस्स रक्खिय गोमंडलस्स पुरुसुत्तमस्स पद्धाए।
के केसवा न जाया समरे गय पहरणा रिउणो ॥३॥ अर्थात् जिनके प्रचंड भजदंड के द्वारा प्रचंड माडलिक गजानों का समूह खंडित हो गया है। जिसने अपनी भजाओं के बल में मांडलिक गजाओं को जीत लिया है। और धाग खडन के भय मे ही मानो जयश्री जिसके खङ्गाङ्क में वसती है।
___राजा श्रेणिक मंग्राम में युद्ध मे संत्रम्त कायर पुरुषों का मुख नहीं देखते। रे, रे कायर पुरुपो ! भाग जाप्रो-इस प्रकार जिसके प्रताप वर्णन मे ही शत्र दूर भाग जाते हैं। गो मण्डल (गायों का समूह) जिम नरह पुरुषोत्तम विष्ण के द्वाग रक्षित रहता है। उसी तरह वह पथ्व मण्डल भी गुरुपों में उत्तम राजा थेणिक के द्वाग रक्षित रहता है, राजा श्रेणिक के समक्ष युद्ध में ऐसे कोन शत्र मुभट है, जो मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए, अथवा जिन्होंने केशव (विष्ण) के आगे प्रायुधरहित होकर आत्म-समर्पण नहीं किया।
इस ग्रन्थ का कथा भाग वहत ही सुन्दर, सरग तथा मनोरजक है, और कवि ने काव्योचित मभी गुणों का ध्यान रखते हुए उसे पटनीय बनाने का यत्न किया है । कथा का संक्षिप्त सार इस प्रकार है.:--
कथासार
जम्ब द्वीप के भरत क्षेत्र में मगध नाम का देश है, उसमें श्रेणिक (बिम्बमार) नामका राजा राज्य करता था। एक दिन राजा श्रेणिक अपनी सभा में बैठे हुए थे कि वनमाली ने विपुलाचलपर महावीर स्वामी के समवसरण पाने की सूचना दी। श्रेणिक मूनकर हपित हया और उसने मेना आदि वैभव के साथ भगवान का दर्शन करने के लिए प्रयाण किया। श्रेणिक ने ममवसरण में पहुंचने में पूर्व ही अपने रामम्न वैभव को छोड़कर पैदल ममवसरण में प्रवेश किया और वर्द्धमान भगवान को प्रणाम कर धर्मोपदेश सुना। इमो समय एक तेजस्वी देव अाकाश मार्ग में प्राता हुआ दिखाई दिया । गजा थेणिक द्वारा इस देव के विषय में पूछे जाने पर गोतम स्वामी ने बतलाया कि इसका नाम विद्युन्माली है और यह अपनी चार देवांगनाओं के साथ यहां वन्दना करने के लिये पाया है । यह आज से ७व दिन स्वर्ग मे चयकर मध्यलोक में उत्पन्न होकर उमी मनुष्यभव मे मोक्ष प्राप्त करेगा। राजा यणिक ने इस देव के विपय में विशेप जानने की इच्छा व्यक्त की, तब गौतम स्वामी ने कहा कि--इस देश में वर्द्धमान नामका एक नगर है। उसमें वेद घोष करने वाले, यज्ञ में पशुबलि देनेवाले, सोम पान करने वाले, परस्पर कटु वचनों का व्यवहार करने वाले, अनेक ब्राह्मण रहते थे। उनम अत्यन्त गुणज्ञ एक ब्राह्मण दम्पति श्रुतकण्ठ आयं वसु रहता था। उसकी पत्नी का नाम सोमशर्मा था। उममे दो पुत्र हुए थे। भवदत्त और भवदेव । जब दोनों की आयु क्रमशः १८ और १२ वर्ष हुई, तब आर्य वम् पूर्वोपाजित पापकर्म के फल स्वरूप कुष्ट रोग से पीड़ित हो गया और जीवन से निराश होकर चिता बनाकर अग्नि में जलमरा । सोमशर्मा भी अपने प्रिय विरह से दुःखित होकर चिता में प्रवेशकर परलोक वासिनी हो गई । कुछ दिन बीतने के पश्चात उस नगर में 'सुधर्म' नाम के मुनि का आगमन हुना। मुनि ने धर्म का उपदेश दिया, भवदत्त ने धर्म का स्वरूप शान्त भाव से रना, भवदत्त का मन ससार में अनुरक्त नहीं होता था। अतः उसने प्रारम्भ परिग्रह से रहित दिगम्बर मुनि बनने की अपनी अभिलाषा व्यक्त की और वह दिगम्बर भूनि हो गया । और द्वादशवर्ष तपश्चरण करने के बाद भवदत्त एक बार संघ के साथ अपने ग्राम के समीप चा। और अपने कनिष्ठ भ्राता भवदेव को संघ में दीक्षित करने के लिए उक्त वर्धमान ग्राम में
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवी और बायहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२७१
आया। उस समय भवदेव का दुर्मर्षण और नाग देवी की पुत्री नागवसु से विवाह हो गया था। भाई के प्रागमन का समाचार पाकर भवदेव उसमे मिलने पाया, आर स्नेहपूर्ण मिलने के पश्चात् उसे भोजन के लिये अपने घर मे ले जाना चाहता था, परन्तु भवदत्त भवदव को अपने सघ म ले गया और वहा मुनिवर मे साधु दीक्षा देने को कहा भवदेव अममजस म पड़ गया, क्यानि उसे घर म रहते हुए विषय-सुखो का आकर्षण जो था, किन्तु भाई का उस सदिच्छा का अपमान करने का उमे माहम न हुआ। प्रार उपायान्तर न देख प्रवृज्या (दीक्षा) लकर भाई के मनोरथ को पूर्ण किया, और मुनि होने के पश्चात १२ वप तक मध क साथ देश-विदेशो म भ्रमण करता रहा। किन्तु उमके मन में नागवम् के प्रतिगगभाव बना रहा । एक दिन अपने ग्राम क पास गे निकला। उगे विपय-चाह ने आकर्षित किया और वह अपनी स्त्री का ग्मग्ण व रता हया एक जिनालय मे पहंचा, वहा उमने एक अजिका का देगा, व्रतो के पालने मे अतिकृगगात्र, अग्थि पजर मात्र गप रहने मे भवदेव उन पहचान न मका । अत उसम उमने अपनी स्त्री के विषय मे कगल वार्ता पछी। शजित्रा ने मुनि के चिन क चलायमान देखकर उन्हे धर्म में स्थिर किया और कहा कि वह अापकी पत्नी दोह। पापक दीक्षा का गमाचार गलने पर मै भी दीक्षित हो गई थी। भवदेव पुनः छेदोपस्थापना पूर्वक मयम का अनुमान पर लगा। अन्न म दोनो का मरकर मनत्कुमार नामक स्वर्ग में देव हा पोर मात सागर की आ7 तक का वाग किया।
भवदत्त का जीव ग्वग में चयकर एण्टगेकिनो नगरी में वज्रदत्त राजा क घर सागरचन्द नाम का और भवदेव का जीव वीतगोवा नगरी क गजा महा पद्म च क्वीं का वनमाला रानी के शिव कुमार नाम का पुत्र हुग्रा । शिवकुमार का १०५ कन्या प्रागे विवाट हया, कराटा उनक अग रक्षक थे, जा उन्हें बाहर नहीं जाने देते थ। पुडण्रीकिनी नगरी म चारण मुनिया ग प्रपने पूर्व जन्म का पत्तान्न सुनकर मागर चन्द्र ने दह-भोगा से विरक्त हो मुनि दीक्षा लली। त्रयोदश प्रका• के चारित्र का अनुष्ठान करते हुए भाई को सम्बोधित करने वातगोका नगरी में पधारे। शिवकुमार ने अपने महला के ऊपर में मुनिया को देखा, उसे पूर्व जन्म का स्मरण हो पाया, उमके मन मे देह-भोगो से विरक्तता का भाव उत्पन्न हया, उमने गज प्रामाद में कोलाहल मच गया। ओर उसने अपने माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मागी। पिता ने बहुत समझाया और कहा कि घर में ही तप ओर व्रतो का अनुष्ठान हो सकता है। दीक्षा लेने की आवश्यता नही, पिता के अनुरोध वश कुमार ने तरणोजनो क मध्य म रहते हा भी विरक्त भाव गे नव प्रकार में ब्रह्मचर्य व्रत का अनुष्ठान किया। ग्रार दूमग मे भिक्षा लेकर तप का आचरण किया। ओर प्रायू के अन्त म वह विद्यन्माली नाम का देव दया। वहा दग मागर की प्रायु तक चार देवागनाम्रो क साथ सुख भोगता रहा । अव वही विद्यन्माली देव या आया था, जो मानव दिन मनुष्यरूप में अवतारित होगा । गजा थणिक ने विद्यन्माली की उन चार देवागनायो के विषय म पूछा । तब गौतम स्वामी ने बताया कि चम्पानगरी म मुग्मेन नाम के मेठ की चार स्त्रिया थी जिनके नाम जयभद्रा, सुभद्रा, धारिणी और यशोमती । वह मेठ पूर्व मचित पाप के उदय से कुष्ट रोग में पीडित होकर मर गया, उसकी चागे स्त्रिया अजिकाए हो गई और तप के प्रभाव मे वे स्वर्ग में विद्यन्मालो की चार देवियाहां।
पश्चात राजा थणिक ने विद्यच्चर के विषय म जानने की इच्छा व्यक्त की । तब गौतम स्वामी ने कहा कि मगध देश म हस्तिनापुर नामक नगर के गजा विसन्धर अोर श्रीमेना गनी का पुत्र विद्युच्चर नाम का था। वह सब विद्याओ और कलानो में पारगन था, एक चोर विद्या ही ऐमी रह गई थी जिसे उसने न सीखा था। राजा ने विद्यच्चर को बहुत समझाया, पर उसने चोरी करना न छोड़ा। वह अपने पिता के घर में ही पहच कर चोरी कर लता था और राजा को सुपप्त करक उमके कटिहार आदि आभूपण उतार लेता था। और विद्या बल से चोरी किया करता था। अब वह अपने राज्य को छोड़कर राजगृह नगर में आ गया, ओर वहा कामलता नामक वेश्या के साथ रमण करता हुआ समय व्यतीत करने लगा । गौतम गणधर ने बताया कि उक्त विद्युन्माली देव राजगृह नगर में अहंद्दास नाम के श्र प्ठि का पुत्र होगा, अोर उसी भव मे मोक्ष प्राप्त करेगा।
पद्मनन्दी (जम्बूद्वीपपण्णत्ती के कर्ता) पद्मनन्दी नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें प्रस्तुत पद्मनन्दि उनमे भिन्न जान पड़ते हैं । क्योंकि
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
उन्होंने जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में जो प्रशस्ति दी है, उसमे उनकी गुरुपम्परा निम्न प्रकार है :-अतः पद्मनन्दी वीरनंदि के प्रशिप्य और बलनन्दि के शिष्य थे। जम्बद्वीप प्रज्ञप्ति की प्रशस्ति में उन्होने अपने को गुण गणकलित त्रिदण्ड रहित, त्रिशल्य परिशुद्ध, विगारव रहित, सिद्धान्त पारगत, तप नियम योगयुक्त, ज्ञानदर्शन चरित्तोद्युक्त और प्रारम्भ रहित बतलाया है अपने गुरु वलनन्दि को सूत्रार्थ विचक्षण, मति प्रगल्भ, परपरिवाद निवृत्त, सर्वसग निःसंग (परिग्रहरहित) दर्शनज्ञान चारित्र मे सम्यक् अधिगत मन, पर तृप्ति निवृत्त मन, और विख्यात सूचित किया है।
और अपने दादा गुरु वीरनन्दि को पच महाव्रत शुद्ध, दर्शन शुद्ध , ज्ञान मयुक्न, सयम ता गुण महित, रागादि विजित, धीर, पचाचर समग्र, षट् जीव दयातत्पर, विगत मोह और हर्ष विषाद विहीन विशेषणो के साथ उल्लेखित किया है । और अपने शास्त्र गुरु श्री विजय को नाना नरपति पूजित, विगतभय, सग भग उन्मुक्त, सम्यग्दर्शन शुद्ध मयम तप-गील मम्पूर्ण, जिनवरवचन विनिर्गत, परमागम देशक, महासत्व, श्रीनिलय, गुणसहित और विख्यात विशेषणों मे प्रकट किया है । पद्मनन्दि ने श्री विजय गुरु के प्रमाद मे जम्बुद्वीपण्णत्ती को रचना माघनदि के शिष्य सकलचन्द और उनके शिष्य श्रीनन्दी के लिये की है।
इस ग्रन्थ में १३ अधिकार है जिनकी गाथा मख्या २४२७ पाई जाती है। ग्रन्थ का विषय मध्यलोक के मध्यवर्ती जम्बद्वीप का कालादि विभाग के माथ मुख्यता से वर्णन है। ओर वह वर्णन प्रायः जम्बुद्वीप के भरत,
रावत महाविदेह क्षेत्रो, हिमवान आदि पर्वतो, गगा सिन्ध्वादि नदियो, पद्म महापद्मादि द्रहो, लनणादि समुद्रो तथा अन्य वाह्य प्रदेशो, काल के उत्पमपिणी अवमर्पिणी आदि भेद-प्रभेदो, उनमे होने वाले परिवर्तनो ओर ज्योतिष पटलादि मे सम्बन्ध रखता है। साथ ही लोकिक-अलोकिक गणत, क्षत्रादि की पमाण और प्रमाणादि के कथनो को भी साथ में लिये हुए है। यह ग्रथ पुगतन भूगोल- खगोल का सक्षिप्त वर्णन करता है।
ग्रन्थ मे रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं है, इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि स० १५१८ से पूर्व की अभी तक उपलब्ध नही हुई। इससे इतना सुनिश्चत है कि ग्रन्थ उक्त स० १५१८ मे पूर्व का बना हुआ है । जम्बूद्वीपपण्णत्ती
१ तम्म य गुगण गण-कलिदो निदड रहियो तिमल्ल-परिसुद्धो। निरिणवि गारव रहिदो सिम्मो मिद्धत-गय-पागे ॥१६२ तव ग्गियम जोग-जुत्तो उवजूनी जागा-दगगा-चग्नेि।
आरभ करण-रहिदो गामेगा प उमणंदित्ती ॥१६३ २. नम्मेवय वर-सिम्पो सुनत्थ-वियम्वगो मइ-पगम्भो। पर-परिवाद-रिणयत्ता गिगस्मगो मव्वसगसु ॥१६० मम्मत-अभिगद-मरणो गाग्गे नह दसगे चरित्ते य। पर तंति-गिगयतमगो बलग्गदि गुरुत्ति विवाओ ॥१६१ ३ पच महब्वय-सुद्वो दसगण-सुदो य गाण-सजुत्तो।
मजम-नव-गुण-सहिदो गगादि-विवज्जिदो धीगे ॥१५८ पंचाचार-ममग्गो छज्जीव-दयावगे विगद-मोहो । हरिम-विमाय विहगो गामेगा वीरणदि त्ति ॥१५६
-जबूद्वीप प्रज्ञप्ति प्रशस्ति ४. गाणा-णरवइ-महिदो विगयभओ सगभगउम्मुक्को।
सम्मद्दसणमुद्धो सजम-तव-सीलसपूण्णो ॥१४३ जिणवर-वयण विणिग्गय-परमागमदेसओ महासत्तो। सिरिणिलओ गुणसहिओ सिरिविजयगुरु ति विक्खाओ ॥१४४
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्यगरहवीं औ बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२७३
और त्रिलोकसार की कुछ गाथाओं में सादृश्य पाया जाता है। उससे एक दूसरे के आदान-प्रदान की आशंका होती है। त्रिलोकसार की रचना विक्रम की ११वी शताब्दी के पूर्वार्ध की है। प्रशस्ति में वारा नगर का वर्णन करते हए उसे पारियात्र देश में स्थित बतलाया है हेमचन्द्र के अनुमार 'उत्तगेविन्ध्यात, पारियात्रः' वाक्य मे पारियात्र देश विन्ध्याचल के उत्तर में है। वह उस समय पुरकरणी वावडो, सुन्दर भवनों, नानाजनों से संकीर्ण और धन-धान्य से समाकल, जिन भवनों मे विभूपित, सम्यग्दृष्टि जनों और मूनि गणों के समूहों में मंडिन था। उसमें वारा नगर का प्रभ शक्ति भूपाल गज्य करता था, जो मम्यग्दर्शन मे गद्ध, कुन-त कर्म, शील सम्पन्न, अनवरत दान शील, शासन वत्सल, धीर, नाना गुण कलित, नरपति मपूजित कलाकुगल अोर नरोत्तम था । नन्दि संघ की पट्टावली में वारा नगर के भदारकों की गही का उल्लेख है। जिसमें वि० सं० ११४४ मे १००६ तक के १२ भट्टारकों के नाम दिये हैं। पद्मनन्दि की गुरु परम्परा उससे सम्बद्ध जान पड़ती है। राजपूनाने के इतिहास में गुहिलोत वशी राजा नरवाहन के पुत्र गालिवाहन के उत्तराधिकारी गक्ति कुमार का उल्लेख मिलता है। ग्रन्थ में उल्लिखित शक्ति कुमार वही जान पड़ता है। आटपूर (आहाड़) के गिलालेख में गुहदन (गृहिल) मे लेकर शक्ति कुमार तक की पूरी वशावली दी है। यह लेख वि० सं० १०३४ वैशाख शक्ला १ का लिग्वा हया है। अतः यही समय जम्बूद्वीपपण्णत्ती की रचना का निश्चित है । यह पद्मनन्दि वित्रम की ११वी शताब्दी के विद्वान् हैं।
इनकी दूसरी रचना 'धम्मग्मायण' है। यह ग्रन्थ भी इन्हीं का बतलाया जाता है। जो १६३ गाथाओं का ग्रन्थ है जो सरल एव सुबोध है। और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में सिद्धान्तमार के अन्तर्गत प्रकाशित हो चका है। इसमें धर्म की महिमा, धर्म-अधर्म के विवक प्रेरणा । परीक्षा करके धर्म ग्रहण करने की आवश्यकता, अधर्म का फल नरकादिके के दुख मर्वज्ञ प्रणीत धर्म की उपलब्धि न होने पर चतुर्गतिरूप ससार परिभ्रमण, मर्वजों की परीक्षा और सागार अनगार धर्म का मक्षिप्त परिचय वणित है।
कविधवल इनका जन्म विप्रकुल में हुआ था। इनके पिता का नाम सूर या मूरदेव था और माता का नाम केसाल देवी था, कवि धवल जिन चरणों में अनुरक्त और निर्ग्रन्थ ऋपियों का भक्त था। कुतीर्थ और कूधर्म से विरक्त था। इनके गुरु अंबगेण थे, जो अच्छे विद्वान और वक्ता थे। उन्होंने हरिवंश पुगण का जिस तरह व्याख्यान किया कवि ने उसको उसी तरह में निबद्ध किया। कवि ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया, अतएव रचना काल के निश्चय करने में कठिनाई प्रतीत हो रही है। कवि ने अपनी रचना में अपने मे पूर्ववर्ती अनेक कवियों का ओर उनकी रचनाओं का उल्लेख किया है ।
कवि चक्रवर्ती धीरमेन सम्यक्त्व युक्त प्रमाण ग्रन्थ विगेप के कर्ता, देवनन्दी (जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता) वज्रसूरि प्रमाण ग्रन्थ के कर्ता, महामेन का मुलोचना चरित, रविषेण का पद्म चरित, जिनमेन का हरिवश पुराण जटिल मुनि का परांगचरित, दिनकरमेन का अनगरित, पद्ममेन का पार्श्वनाथ चरित, अंबसेन की अमृताराधना धनदत्त का चन्द्रप्रभचरित, अनेक चरितग्रन्थों के रचयिता विा णमेन, सिहनन्दि की अनुप्रेक्षा, नरदेव का णमोकार मंत्र सिद्धमेन का भविक विनोद, रामनन्दी के अनेक कथानक, जिनरक्षित (जिनपालित) धवलादि ग्रन्थ प्रख्यापक, असग का वीर चरित, गोविन्द कवि (श्वे०) का सनत्कुमार चरित, गालिभद्र का जोवउद्योत, चतुर्मग्व, द्रोण, मेढ महाकवि का पउम चरिउ आदि विद्वानों और उनकी कृतियों का उल्लेख है । इन कवियों में असग ओर पद्ममेन ने अपने ग्रन्थों में रचना काल का उल्लेख किया है। आसग कवि का समय स० ६१० है, ओर पद्मसेन का समय वि०
.१ देनो जम्बूद्वीपणत्ती की प्रगति की १६५ मे १६८ तक की गाथाए । २. देखो जैन साहित्य और इतिहास (बम्बई १९५६ पृ० २५६-२६५) ३. मइ विप्प हो मूरहो रणंदगोण, केमल्लय उवरि तह संभवरण । जिणवरहो चरण अनुरत्तएण, रिणग्गंथहं रिमियहं भत्तएण।
कुतित्थ कुधम्म विरत्तएण, णामुञ्जलु पयडु वहंतएण ।। ४. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० २ पृ० ११
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
२७४
REE है। इससे स्पष्ट है कि धवल कवि का समय विक्रम की ११वीं सदी है अर्थात् असग कवि १०वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान जान पड़ते हैं ।
रचना
कवि की एक मात्र कृति हरिवंश पुराण है, जिसमें १२२ सन्धियां हैं, जिनमें २२वे तीर्थकर यदुवंशी भगवान नेमिनाथ की जीवन-गाथा श्रकित की गई है, साथ ही, महाभारत के पात्र कौरव र पाण्डव एव श्रीकृष्ण प्रादि महापुरुषों का जीवन चरित भी दिया हुआ है। जिसमे महाभारत का ऐतिहासिक परिचय सहज ही मिल जाता है। ग्रन्थ की रचना प्रधानतः अपभ्रंश भाषा के 'पज्झटिका और अलिल्लह' छन्द में हुई है । तथापि उसमें पद्धडिया सोरठा, घत्ता, जाति नागिनी, विलासिनी और सोमराजी आदि छन्दों का प्रयोग हुआ है । काव्य की दृष्टि से ग्रन्थ के कितने ही वर्णन सजीव हैं। रसों में शृंगार, वीर, करुण और शान्त रसों के अभिव्यजक अनेक स्थल दिये हुए हैं। श्री कृष्ण और कंस के युद्ध का वर्णन भी सजीव हुआ है ।
हरिवंश पु० संधि ६०, ४
'महाचंडचित्ता भडाछिण्णगत्ता, धनुबाण हत्था सकुंता समत्था । पहारंति सूराण भज्जति धीरा, सरोसा सतोसा सहामा सग्रामा ॥ प्रचण्ड योद्धाओं के गात्र टूक-टूक हो रहे हैं, और धनुष बाण हाथ में लिये हुए भाला चलाने में समर्थ सूर प्रहार कर रहे हैं, परन्तु क्रोध, सन्तोप, हास्य श्रीर आशा मे युक्त धीरवीर योद्धा विचलित नही हो रहे हैं। युद्ध की भीषणता मे युद्ध स्थल विषम हो रहा है, सैनिकों की मारो मारो की ध्वनि से अवर गूज रहा है-रथवाला रथवाले की ओर, अश्ववाला अश्ववाले की ओर, और गज, गज की ओर दोड़ रहा है, धानुष्क वाला धानुष्क की ओर झपट रहा वाद्य जोर से शब्द कर रहे हैं। घोड़े हिन हिना रहे हैं, और हाथी चिंघाड़ रहे है'। इस तरह युद्ध का सारा ही वर्णन सजीव है ।
शरीर की नश्वरता का वर्णन भी दृष्टव्य है :
सवल राज्य भी तत्क्षण नष्ट हो जाता है । अत्यधिक धन से क्या किया जाय ? राज्य भी धनादिक से हीन और बचे खुचे जन समूह अत्यधिक दीनता पूर्ण वर्तन करते हुए देखे जाते है। सुखी बान्धव, पुत्र, कलत्र मित्र सदा किसके बने रहते हैं, जैसे उत्पन्न होते हैं वैसे ही मेघवर्षा से जल के बुलबुलों के समान विनष्ट हो जाते हैं । और फिर चारों दिशाओं में अपने निवास स्थान को चले जाते हैं, जिस तरह पक्षी रात्रि में एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं और फिर चारों दिशाओं में अपने अपने निवास स्थान को चले जाते है, अथवा जिस प्रकार बहुत में पथिक (नदी पार करते हुए) नौका पर मिल जाते है फिर सब अपने अपने अभीष्ट स्थान को चले जाते है ।
इसी तरह इष्ट प्रियजनों का समागम थोड़े समय के लिये होता है । कभी धन आता है और कभी दारिद्र स्वप्न समान भोग आते और नष्ट हो जाते हैं, फिर भी अज्ञानी जन इनका गर्व करते हैं । जिस योवन के साथ जरा ( बुढ़ापे का सम्बन्ध है उससे किसको सन्तोष हो सकता है।
वलु रज्जु वि णासइ तक्खणेण कि किज्जइ बहुएण वि धणेण । रज्जु वि धणेण परिहीणु होइ, निविसेण विदीसह पयडुलोउ ।
१.
"हरण हा मारु मारु पभरतहि । दलिय धरति रेणु हि धायउ, पिसलुद्धउ लुद्धउ आयउ ।
X
X रह रह गयहु गय धाविउ, घाणुक्कहु घाणुक्कु परायउ । तुरतुरग कुखग्गविहस्थउ, असिवक्खरहु लग्गु भयचत्तउ । वहि गहिरतर हर्याहिसहि गुलु गुलतु गयवरबहुदीसहि ||
- संधि - १०
X
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२७५ सुहिबंधव-पुत्त-कलत्त-मित्त, णवि कासुवि दीसहि णिच्चहंत । जिम हुति भरंति प्रसेस तेम, बुब्बुव जलि घणि वरिसंति जेम । जिम सउणि मिलि वि तरुवर वसति, चाउद्दि सिणिय वसाणि जंति । जिम बहु पंथिय णावई चइंति, पुणुि णिय णिय वासहु ते वलंति । तिम इठ्ठ समागमु णिव्वडणु, धणुहोइ होइ दालिदु पुणु । धत्ता-सुविणासउ भोउ लहो वि पुणु, गव्वु करंति प्रयाण गर । संतोसु कवणु जोव्वण सियइ, जहिं अत्थइ अणुलग्गजरा।
. मधि-६१-७ ग्रन्थकार का जहां लोकिक वर्णन मजीव है, वहां वीर गम का शान्त रम में परिणत हो जाना भी चित्ताकर्षक है। ग्रन्थ पठनीय और प्रकाशन के योग्य है। इसकी प्रतिया कारजा, बडा तेगपंथी मन्दिर जयपुर पार दिल्ला के पंचायती मन्दिर में है, परन्तु दिल्ली की प्रति अपूर्ण है ।
जयकोति मूल मंघ देशीयगण होतगे गच्छ के विद्वान थे । जो पुस्तकान्वयरूपी कमल के लिये सूर्य के ममान थे । और अनेक उपवास और चान्द्रायण व्रत करने में प्रसिद्ध थे। रामस्वामी प्रदत्तदान के अधिकारा थ । चिक्कहनसोंगे का यह लेख यद्यपि काल निर्देश हित है । और शान्तीश्वर वर्माद के बाहर दरवाजे पर उन्कीणित है। सम्भवतः इनका पानुमानिक समय ११०० ई० के लगभग हो सकता है।
- (जैन लेख म० भा० २ पृ०३५७)
ब्रह्मसेन व्रतिप ब्रह्मसेन प्रतिप--मूल मघ, वरमेनगण और पोगरिगच्छ के विद्वान थे । इनके शिष्य प्रायसेन और प्रशिप्य महासेन थे । ब्रह्मसेन बड़े विद्वान तपस्वी थ । अनेक राजा उनके चरणों की पूजा करते थे। महामेन के शिष्य चाङ्कि राजने जो वाणसवश के थे, अोर केतल देवी के प्रांफिसर थे। उन्होंने शांतिनाथ, पार्श्वनाथ और सुपार्श्व तीर्थकर की वेदियों को पौन्नवार्ड में त्रिभवन तिलक नाम के चैत्यालय में बनवाया। उनके लिये शक सं९७६ (मन १०५४ ई.) में जमीन और मकान दान किये । इनका समय ईसा की ११वी शताब्दी है।
मुनिश्रीचन्द्र--- लाल बागड संघ और बलात्कारगण के प्राचार्य श्रीनन्दी के शिप्य थे। और धारा के निवासी थे। उन्होंने अपना पुराणसार वि० म०१०८० (मन् १०२३) में बनाकर समाप्त किया है । रविण के पद्मचारत को टीका को भी उन्होंने वि० स० १०८७ में धारा नगरी में राजा भोजदेव के राज्यकाल में बनाकर समाप्त किया है। तीसरी कृति महाकवि पुष्पदन्त के उत्तरपुराण का टिप्पण है, जिसे उन्होंने, सागरमेन नाम के सेद्धान्तिक विद्वान से महापुराण के विषम-पदों का विवरण जानकर और मूल टिप्पण का अवलोकन कर, वि० सं०
१. जैन लेख सं० भा०२पृ ० २२७ २. धागयापुरि भोजदेव नृपते गज्ये जयात्युच्चकैः ।
श्री मत्सागरमेनतो यतिपते ज्ञात्वा पुगणं महत् । मुक्त्यर्थं भवभीनिभीतजगता श्रीनन्दि शिष्यो बुधः । कुर्वे चारुपुराणमारममलं श्रीचन्द्रनामामुनिः ।। श्रीविक्रमादित्य संवत्सरे (अशीत्यधिकवर्षमहस्र पुगणसागभिधानं समाप्तं । -देखो पुरागसार प्रशस्ति ३. लालबागड श्री प्रवचनमेन पडितात्पमचरितस्मक! (नमाकर्ण्य ?) बलात्कारगरण श्रीनन्द्याचार्यसत्कविशिष्येण श्री
चन्द्रमुनिना श्रीमविक्रमादित्य सवत्सरे समाशील्यधिक वर्ष सहस्र श्रीमद्धारायां श्रीमतो राज्ये भोजदेवस्य ..."। एवमिदं पद्मचरित टिप्पणं श्रीचन्द्रमुनिकृतं समाप्तमिति ।
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
१०८० मे राजा भोज के राज्यकाल मे रचा है।' चाथो कृति शिवकोटि' को भगवती आराधना का वह टिप्पण है जिसका उल्लेख प० आशाधर जी ने अपन 'मूलाराधना दर्पण' में न० ५८६ गाथा की टीका करते हुए किया है । मुनि श्रीचन्द्र की ये सभी कृतियाँ धारा में ही रचा गई है। उक्त टीका प्रशस्तिया में मुनि श्रीचन्द्र न सागरसेन ओर प्रवचनसन नाम के दा सद्धान्तिक विद्वाना का उल्लख किया है जा धारा निवासी थ । इससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उस समय धारा में अनेक जन विद्वान पार मुनि निवास करते थ।
केशिवराजयह सूक्ति सुधाणंव के कर्ता मल्लिकाजुन का पुत्र ओर हायसालवशी राजा नरसिह के कटका पाध्याय सुमनावाण का दाहित्र पार जन्न कवि का भानजा है । इसक बनाय हुए चालपालक चरित्र सुभद्राहरण, प्रबोधचन्द्र, किरात पार शब्दमणि दर्पण य पाच ग्रन्थ है। परन्तु इनमें से केवल शब्दमणि दर्पण उपलब्ध है। यह कर्नाटक भाषा का सुप्रसिद्ध व्याकरण है । इसकी जाड़ का विस्तृत ओर स्पष्ट व्याकरण कनड़ी में दूसरा नहीं। इसकी रचना पद्यमया है। मार इस कारण कवि न स्वय हा इसकी वृत्ति लिख दी है। ग्रन्थ सन्धि, नाम, समास, तद्धित, पाख्यान, धातू, अपभ्रश, अव्यय और प्रयागसार इन आठ अध्यायो में विभक्त है। कवि का समय ई० सन् ६०६० है।
पनसेनाचार्ययह किस गण-गच्छ क प्राचार्य थे। यह कुछ ज्ञात नही हुआ। सवत् १०७६ मे पूष सुदी द्वादशी के दिन दवलाक का प्राप्त हुए। इनकी यह निषधिका रूप नगर (किशनगढ़ से) डढ़ मील दूर राजस्थान मे चित्रनन्दी द्वाराप्रतिष्ठित हुई था । इनका समय ईसा की दशवी पार विक्रम ११वी शताब्दी है।
विमलसेन पण्डितइनका गण-गच्छ पोर परिचय प्राप्त है । यह मेघसेनाचार्य के शिष्य थे। इनका स० १०७६ ज्येष्ठ सूदी १२ को स्वर्गवास हुआ था। इनकी स्मृति मे निपीधिका बनाई गई। जिन्होने पारधना की भावना द्वारा देवलोक प्राप्त हुआ था। यह निषिधिका राजस्थान के रूप नगर (किशनगढ़ से डेढ़ मील दूर) में बनी हुई है उसमें देवली के ऊपर एक तीर्थकर मूति प्रतिष्ठित है। इनका समय विक्रम की ११वी शताब्दी है ।
सागरसन सैद्धान्तिकयह प्राकृत सस्कृत भाषा और सिद्धान्त के विद्वान थ । प्रार धाग नगरी में निवास करतेथे । बलात्कार गण के विद्वान मुनि श्री नन्दि क शिप्य मुनि श्री चन्द्र न आपमे महाकवि पुप्पदन्त के महापुराण के विषम-पदो को जानकर प्रौर मल टिप्पण का अवलोकन कर राजा भोज देव के राजकाल में (स० १०८० मे) महापुराण का टिप्पण बनाया था' । इनकी गुरु परम्परा क्या है और उन्होंने क्या रचनाएं रची । इसके जानने का कोई साधन नही है। पर इनका समय विक्रम की ११वी शताब्दी का अन्तिम चरण है।
१. श्री विक्रमादित्य.सवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिक सहस्र महापुराण विषम पद विवरण मागग्मन सैद्धान्तात् परिज्ञाय मूल टिप्पणिवा चालोक्य कृत मिद समुच्चय टिप्पण अज्ञपातभीतन श्रीमद्ब लात्कारगण श्री नन्द्याचर्य सत्कविशिष्यण श्री चन्द्र मुनिना निजदोर्दण्डाभिभूरिपुराज विजयन. श्री भोजदेवस्य ।
-उत्तर पुराटिप्पण प्रशस्ति । २. “स०१०७६ पीप सुदी १२ श्री पद्मसेनाचार्य देवलोक गतः, । चित्रनन्दिना प्रतिप्ठेय ।
"१०३६ (७६) श्री पपसनाचार्य देवलोक गतः दवन्दिना प्रतिष्ठेय । ३. स. १०७६ ज्येष्ठ सुदी १२ मेघसेनाचार्यस्य तस्य शिष्य विमलसेन पडितेन (आ) राधना (भावना)' भावयित्वा
दिवंगतः (तस्यय निषिधिका) ४. 'श्री विक्रमादित्य-संवत्सर वर्षाणाशीत्यधिक सहस्र महापुगण-विषम पद विवरण सागरमेन सैद्धान्तात् परिज्ञाय मूल
टिप्परिणका चालाक्य कृतमिद समुच्चय टिप्पण अज्ञ पातभीतेन श्री मबलात्कारण श्री नद्याचार्य सन्कविशिष्यण। चन्द्र मुनिना निजदोर्दण्डाभिभूत रिपुराज्य विजयिनः श्री भाजदेवस्य ।"
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवी और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचाप
२७७
इन्द्रसेन भट्टारकविल (ड) संघ, मनगण, मालनृर अन्वय क भट्टारक मस्लिमन क प्रधान शिष्य थे इन्हें चालुक्य कुलभूषण राजा त्रिभुवनमल्ल देव की रानी जाकल दवा म, जा जेन धमपरायणा पार जिन पूजा में निरत रहता था पार इगुणिगे ग्राम का शासन करती थी। वह जन धमपरायणा गना तिक्क का पुत्रा था। उमक पनि चालुक्य कुलभूषण त्रिभुवनमल्लदेव थे। जो कल्याणपुर क शामक थ। उन्होन गना का जैन धर्म ग पगन्मुख करने का प्रतिज्ञा ले रक्खो थी। परन्तु वह अपने उस कार्य म सफल न हो सका।
एक दिन राना के साभाग्य स एक व्यापारा महुमाणिक्य दव का प्रतिमा लेकर पाया, पार रानी के मामने वह अपना विनयभाव दिखला रहा था कि उमी ममय राजा त्रिभवनमल्नदव या गया। उमन रानी ने कहा कि यह जिनमति अनुपम सुन्दर है, इम अपन प्राधान ग्राम में प्रतिष्ठित करा, तुम्हारे धर्मानुयायिया क लिये प्ररणाप्रद होगी तब राजा का प्राज्ञा स रानी ने मान का प्रतिष्ठा भी करा दा पार सुन्दर मन्दिर भी बनवा दिया। और उसकी व्यवस्था उक्त इन्द्रसेन भट्टारक का सापी। यह दान चालुक्य विक्रम क १८व गज्यवर्ष में सन् १०५४ म थामुख सवतसर के फाल्गुण सुदा १०मा सामवार के दिन समारोह पूर्वक भट्टारक जी क चरणा का पूजा करक सोपा गया था।' दान में २१ वृहत् मत्तर, प्रमाण कृप्य भूमि, १ बगीचा आर जन मन्दिर के समीप का एक घर दिया।
माणिक्यनन्दी माणिक्यनन्दी नन्दि मर क प्रमग्व प्राचार्य थ। ग्रार धाग नगग के निवामा । व व्याकरण पर सिद्धान्त के ज्ञाता हाने क माय दगन शास्त्र के तलदा टा विद्वान् । उम समय धारा नगरी विद्या का कन्द्र बना हई थी। बाहर क अनक विद्वान् वहा पाकर अपना विद्या का विकाम करत थे । वहा अनक विद्यापाठ थ जिनम छात्र रहकर विद्याध्ययन करक विद्वान बनन थे । अनक मारस्वत विद्वान् प्राचाय जन धर्म का विकास और प्रचार कार्य मे सलग्न रहत थे । उम समय धारा नगरा का प्रभु भोज देव था, जा राज्य कार्य का मचालन करते हा भी विद्या व्यसनी, कवि ार शास्त्र कर्ता था। वह विद्वाना का बड़ा आदर करता था। वहा के विद्या पीठ मे सिद्धान्त, दर्शन, व्याकरण, छन्द, अलकार पार काव्यादि विविध विषया क ग्रन्थों का पठन-पाठन होता था। सुदर्शन चरित के कर्ता नयनन्दी ने वहा की प्राचार्य परम्परा का उल्लेख किया है । मुनक्षत्र, पद्मनन्दी, विष्णुनन्दा, नन्दनन्दी, विश्वनन्दी, विशाखनन्दी, गणीगमनन्दी, माणिक्यनन्दी नयनन्दी, हरिसिह, श्रीकुमार, जिन्हे सरस्वती कमार भी कहा जाता था, प्रभाचन्द्र, ग्रार बालचन्द्र । दूसरी परम्परा लाड वागड गण क बलात्कारगण का थी। जिसमें सागरसन, प्रवचनमन, पार याचन्द्रादि ।वद्वाना का उल्लेख पाया जाना है।
माणिक्यनन्दी गणीरामनन्दी क शिप्य थे। जो भारतीय दर्शन क साथ जेन दर्शन क प्रकाण्ड पण्डित थे। इनके अनेक विद्या शिष्य थ । उनम नयनन्दा प्रथम विद्या शिष्य 4। जिन्हान स० ११०० मे धारा नरेश भोज क
१. (दग्या, गूलबर्गा जिल वा दान-पत्र) Jainism in south India P 406-407 २. जिणिदास वीररस तित्य मरत महाकुदकुदारणए एनसते ।
सुग्णवाहिहाणे तहा पामणदी, पुणा विण्डणी तया दिणदी। जिण्टु धम्म मुगमा विमुद्धा, कपाग। गंथा जयत पसिद्धा। भवबोहिपोआ महा विम्सणदी, समाजुत्तु सिद्ध तिआ विसहगदी। जिणिदागमाहामण एचित्ता, तवायार गिट्ठाए लद्धाए जुत्ता । गरिदा मरिह सा रणदवदी, हुओं तस्स सीमो गणी गमणदी। अमेसाण गधारण पारम्मि पत्ता, नवे अग वीभव्वगईव मित्तो। गुणावासभूओ सुतिल्लोकरणदी महापटिओ तस्म माणिकरणंची।
भजगप्पयाओ इमोणाम छदी। -(मुदसणचरिउ प्रशस्ति) ३.जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह भाग २ पृ २५
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
राज्य काल में 'मुदमणचरिउ' अोर सकल विधिविधान काव्य की रचना की थी। उन्होंने अपने विद्यागुरु माणिक्यनन्दी को महापण्डित ओर त्रविद्य बतलाते हुए, उन्हे प्रत्यक्ष परोक्षरूप जल मे भरे ओर नयरूप चंचल तरग समूह से गभीर उत्तम सप्तभगरूप कल्लोल माला से भूपित, जिनशासनरूप निर्मल सरोवर मे युक्त और पण्डितों का चडामणि प्रकट किया है। प्रोर 'सुदमण चरिउ' की पुग्पिका में माणिक्य नन्दी का विद्यरूप में उल्लेख किया है जैसा कि उसके निम्न पृप्पिका वाक्य से प्रकट है:--"पत्थ सुदमण चणि पचणमोकारफल पायसयरे माणिक्यनदी तइविज्जसीम णयणदिणा रइए अमेममुर मथन णवेविवइमाण जिगण तनो विमग्रो पट्टणं णयरपत्थिनो पव्वयं समोसरण संगयं महापुराण आउच्छण इमाण कयवण्णणो णाम पढमो सधि समत्ती ॥" ।
माणिक्यनदी ने भारतीय दर्शन गास्त्र और अकलक देव के ग्रथां का दोहनकर जो नवनीतामत निकाला, वह उनकी दार्शनिक प्रतिभा का मद्योतक है । वे जैन न्यायकं आद्य मूत्रकार है। उनकी एक मात्र कृति 'परीक्षा मुख, सूत्र है, जो न्यायमूत्र ग्रथा में अपना अमाधारण स्थान और महत्व रखता है।
परीक्षा मुख-यह जैन न्याय का आद्यमूत्र ग्रन्थ है ज। छह अध्याया विभक्त है और जिसके मूत्रों की कुल सख्या २०७ है । ये सब मूत्र मरस, गभीर प्रार अर्थ गोरव को लिए हुए है। भारतीय वाङ्मय में साख्य सूत्र, योगसूत्र, न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, मीमासकमूत्र और ब्रह्ममूत्र आदि दार्गनिकमूत्र ग्रन्थ प्राचीन है। किन्तु जैन न्याय को सूत्र बद्ध करने वाला कोई ग्रन्थ उस समय तक नही था। अत: प्राचार्य माणिक्यनन्दी ने उस कमी को दूर कर इस सूत्र ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में प्रमाण पार प्रमाणाभास का कथन किया गया है। अतः उनको यह कृति असाधारण पार अपूर्व है, ओर न्यायमूत्र ग्रथा मे अपना ग्वाम महत्व रखती है। किसी विषय में नाना यूक्तियों को प्रबलता ओर दुर्बलता का निश्चय करने के लिये जो विचार किया जाता है उसे परीक्षा कहते है। इस परीक्षामग्व के सूत्रों का आधार न्यायमूत्र आदि क माथ अकलक दव के लद्यास्त्रय, न्यार्यानिश्चय पोर प्रमाणसग्रह आदि है। इस सूत्र ग्रन्थ पर दिग्नाग के न्यायप्रवेश' और धर्म कीति के 'न्याय बिन्दु का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उत्तरवर्ती प्राचार्यो म बादिदेव मूरि के प्रमाण नय तत्त्वालोक अोर हेमचन्द्र की प्रमाण मीमामापर परीक्षामख अपना अमिट प्रभाव रखता है । जा अल्पाक्षरो वाला है, अदिग्ध, सारवान, गढ़ अर्थ का निर्णायक, निर्दोप तथा तथ्य रूप हो वह मूत्र कहलाता है। परीक्षामुग्व में सूत्र का उक्त लक्षण भलीभाति सटित है इस ग्रन्थ पर अनेक टीका ग्रन्थ लिखे गए है। उनमे इसकी महत्ता का स्पष्ट बोध होता है।
इस सूत्र ग्रन्थ पर माणिक्यनदी के शिप्य प्रमाचन्द्र ने १२ हजार श्लोक प्रमाण 'प्रमेय कमल मार्तण्ड' नाम की एक वृहत् टीका लिखी है । यह जैन न्याय शास्त्र का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसका नाम ही इस बात का समूचक है कि यह ग्रन्थ प्रमेय रूपी कमलो के लिये मार्तण्ड (सूर्य) के समान है । प्रभाचन्द्र ने यह टीका भोजदेव के ही राज्य में बनाकर समाप्त की थी।
दूसरी टीका प्रमेयरत्नमाला अनन्तवीर्य की कृति है, जिसे उन्होंने उदार चन्द्रिका (चादनी) की उपमा दी है और अपनी रचना प्रमेय रत्नमाला को प्रमेय कमल मार्तण्ड के सामने खद्यान (जुगन) के समान बतलाया है । यह लघ टीका मक्षिप्त और प्रसन्न रचना शैली में है। इस पर सागर में गागर वाली कहावत चरितार्थ होती है।
तीसरी टीका 'प्रमेय रत्नालकार' है, जो भट्टारक चारकीति द्वारा परीक्षामख के सूत्रों पर लिखी गई है। भट्टारक चारु कीर्ति श्रवण बेलगोला के निवासी थे। देशीगण में अग्रणी थे । ग्रन्थ की पुष्पिका में इन्होंने अपने
१. विरुद्ध नाना युक्ति प्राबल्य दौरबल्यावधारणाय प्रवर्तमाना विचार. परीक्षा। -(न्यायदीपिका)
लक्षितम्य लक्षण मुपयद्यत न वत्ति विचार. परीक्षा। -तकंसंग्रह पदकृत्य । २. दग्या, अनकान्त। ३. अल्पाक्षर मसदिग्ध सारवद् गूढीगण्यम् । निर्दोष हेतुमत्तथ्य सूत्र मूत्रविदो विदुः ।
-प्रमय रत्नमाला टि पण पृ. ४. प्रभन्दुवचनादारचन्द्रिका प्रसरनि । मादृशाः क्वनु गण्यन्त ज्योतिरिङ्गण सन्निभा.-प्रमेय रत्नमाला । ५. श्री चारुकीनिधुर्यस्सन्तनुते पण्डिनार्यमुनिवयं । व्याख्या प्रमेयरत्नालकाराख्या मुनीन्द्रसूत्राणाम् ।
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचा
२७६ को चारुकीति पण्डिताचार्य सूचित किया है। और ग्रन्थ के तीसरे श्लोक में गुरुमाणिक्य नन्दी मेरे हृदय में निरन्तर "हर्ष करे ऐसी आकाक्षा व्यक्त की है "हर्ष वर्षतु सन्तत हृदि गुरुमाणिक्यनन्दी मम ॥" परीक्षा मुख के समान इसमें भी छह परिच्छेद है। यह टीका प्रमेय रत्नमाला से आकार में बड़ी है। और इसमें कुछ ऐसे विषयो का भी प्रतिपादन है जो प्रमेयत्न माला में नही मिलते । यह रचना प्रमेय कमल मार्तण्ड प्रोर प्रमेय रत्नमाला के मध्य को कड़ी या सोपान है जिसके द्वारा न्यायशास्त्र के जिज्ञासु उस भवन पर आसानी से प्रारोहण कर सकते है। यह ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है, इसकी प्रति जैन सिद्धान्त भवन पारा में उपलब्ध है।
परीक्षा मुख के स्वापूर्वार्थ व्यवसायान्मक ज्ञान प्रमाण' मूत्र पर लिखो गई शान्ति वर्गों को स्वतंत्र कृति प्रमेय कठिका है। यह ग्रन्थ पाच स्तवको में विभक्त है। इसमें प्रमेय रत्नमालान्तर्गत कुछ विशिष्ट विषय' का प्रतिपादन किया गया है। इस कारण इसे परीक्षा मुख की टीका नही कहा जा सकता । ग्रथ अभी अप्रकाशित है। यह प्रति भी जैन सिद्धान्त भवन आग में मोजद है। माणिक्य नन्दी वि की ११वी सदी के विद्वान है।
नयनन्दी यह प्राचार्य कुन्दकुन्द को परम्परा में होने वाले लोक्यनन्दी के प्रशिप्य पोर माणिक्यनन्दी के प्रथम विद्या शिप्य थे । इन्होंने अपनी कृति सुदर्शन चरित की प्रगस्ति में जो गुम परम्परा दो है वह महत्वपूर्ण है। प्रस्तुत नयनन्दी गजा भोज के गज्यकाल में हा है। इन्होंने वही पर विद्याध्ययन कर ग्रन्थ रचना की है। इनके दीक्षा गरु कौन थे, और यह कहा के निवामी थे, उनका जीवन-परिचय क्या है ? यह कुछ ज्ञात नही होता । कवि काव्य शास्त्र में निष्णात थे, माथ ही प्राकृत, मस्कृत और अपभ्रग भापा के विशिष्ट विद्वान थे। छन्द शास्त्र के। कवि ने धाग नगरी के एक जन मदिर के महा विहार में बैठकर अपना 'मुदमण चार उ' परमारवगी राजा भोज देव, त्रिभुवन नारायण के राज्य में वि० १० ११०० में बना कर समाप्त किया था । उसके राज्यकाल के शिलालेख स०१०७७ से ११०४ तक के पाये जाते है। जिसका राज्य राजस्थान में चित्तोड़ मे लेकर दक्षिण में कोकण व गोदावरी तक विस्तृत था।
सुदंसणचरिउ' अपभ्रशभापा का एक खण्ड काव्य है, जो महाकाव्यों की श्रेणी में रखने योग्य है। जहा ग्रन्थका चरित भाग रोचक और आकर्षक है वहाँ वह मालकार काव्य-कला की दृष्टि से उच्चकोटि का है। कवि ने उसे निर्दोपोर मरस बनाने का पूरा प्रयत्न किया है। ग्रन्थकार ने स्वय लिखा है कि गमायण में गम अोर मीता का वियोग तथा गोक जन्य व्याकुलता के दर्शन होते है, अोर महा भारत में पाण्डव तथा धृतराष्ट्रादि कोरवो के परम्पर कलह एव मारकाट के दृश्य अकित मिलते है। तथा लोक शास्त्र में भी कौलिक, चोर, व्याध आदि की कहानियाँ सनने में पाती है, किन्तु इस सुदर्शन चरित में ऐमा एक भो दोष नही है, जमा कि उसके निम्न वाक्य में प्रकट है :
रामो सीय-विनोय-सोय-विहरं संपत्तु रामायण, जादं पाण्डव-धायर? सददं गोत्त कली-भारहे। डेडा-कोलिय-चोर-रज्ज-गिरदा आहासिदा सुद्दये,'
जो एक पि सदसणस्स चरिदे दोसं समूब्भासिदं। कवि ने काव्य के प्रादर्श को व्यक्त करते हुए लिखा है कि रस ग्रार अलकार से युक्त कवि की कविता में जो रस मिलता है वह न तरुणिजनों के विद्रम समान रक्त अधरी में, न पाम्रफल में, न ईख में, न अमन में, न हाला (मदिर।) में, न चन्दन में न चन्द्रमा में ही मिलता है ।
१. परीक्षामुग्वमूत्रम्याथं विवृण्महे।
इति श्री शान्तिवरिंग विर्गचताया प्रमेय कष्ठिकाया .... स्तवक २. णिव विक्कम काल हो ववगएम एयारह सवच्छर-मएमु, तहि केवलीचरिउ अमयच्छोगा । रणयनदी विरयउ वित्थरेण ।
-मुदमणचरिउ ३. यो संजाद तरुणि अहरे विद्दमारत्तसोहे, गो माहारे भमियभमरे गोव पु डिच्छू डटे।
यो पीयूसे हलेखिहिणे चन्दणे ऐवचन्दे, सालकारे मुकइभरिणदे ज रस होदि कव्वे ।।
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
प्रस्तुत ग्रन्थ में सूदर्शन के निष्कलंक चरित की गरिमा ने उसे और भी पावन एवं पठनीय बना दिया है। ग्रन्थ में १२ सन्धियों और २०७ कडवक हैं जिनमें सुदर्शन के जीवन परिचय को अकिन किया गया है। परन्तु कथा काव्य में कवि की कथन दौली, रम और अलंकारों की पुट, सरम कविता, गान्ति और वैराग्यरस तथा प्रसंगवश कला का अभिव्यंजन, नायिका के भेद, ऋतुओं का वर्णन और उनके बेष-भपा आदि का चित्रण, विविध छन्दों की भरमार, है वे ग्रन्थ में मात्रिक विपम मात्रिक लगभग १२ छन्दों का उल्लेख मय उदाहरणों के दिये गए हैं। इससे नयनन्दी छन्द शास्त्र के विशेष ज्ञाता जान पड़ते हैं। लोकोपयोगी सुभागित, अोर यथा स्थान धर्मोपदेशादि का विवेचन इस काव्य ग्रन्थ की अपनी विशेषता के निदर्शक हैं और कवि को ग्रान्तरिक भद्रता के द्योतक हैं। ग्रन्थ में पंच नमस्कार मंत्र का फल प्राप्त करने वाले सेठ सुदर्गन के चरित्र का 'चत्रण किया गया है।
कथावस्तु
चरित्र नायक यद्यपि वणिक श्रेष्ठी है तो भी उसका चरित्र अत्यन्त निर्मल तथा मेरुवत निश्चल है । उसका रूप-लावण्य इतना चित्ताकर्षक था कि उसके बाहर निकलते ही युवतिजनों का समूह उसे देखने के लिये उत्कंटित होकर मकानों की छतों द्वारा तथा झरोखों में इकट्ठा हो जाता था, वह कामदेव का कमनीय रूप जो था। साथ ही वह गुणज्ञ और अपनी प्रतिज्ञा के सम्यवपालन में अत्यन्त दढ़ था। धर्माचरण करने में तत्पर, सबमे मिष्ठभापी और मानव जीवन की महत्ता से परिचित था और था विपय विकारों में विहीन । ग्रन्थ का कथा भाग मन्दर और पाकपंक है। :
अंग देशके चंपापूर नगर में, जहां राजा धाड़ीवाहन राज्य करता था। वहा वमव सम्पन्न ऋपभदास सेठ का एक गोपालक (ग्वाला) था, जी गगा में गायो को पार कराते समय पानी के वेग में डूब कर मर गया था और मरते समय पंच नमस्कार, मंत्र की पागधना के फलस्वरूप उसी सेठ के यहा पुत्र हुआ था। उसका नाम सदर्शन रक्खा गया। सुदर्शन को उसके पिता ने सब प्रकार से मूशिक्षित एवं चतुर बना दिया, और उसका विवाह सागरदत्त सेठ की पुत्री मनोरमा मे कर दिया । अपने पिता की मृत्यु के बाद वह अपने कार्य का विधिवत् संचालन करने लगा। सुदर्शन के रूप की चारों ओर चर्चा थी, उसके रूपवान शरीर को देखकर उम नगर के राजा धाड़ी वाहन की रानी अभया उस पर आसक्त हो जाती है और उसे प्राप्त करने की अभिलापा मे अपनी चतुर पंडिता दासी को सेठ सुदर्शन के यहां भेजनी है, पंडिता दामी गनी की प्रतिज्ञा सुनकर रानी को पतिव्रत धर्म का अच्छा उपदेश करती है और सुदर्शन की चरित्र-निष्ठा को और भी मंकेत करती है, किन्तु अभया अपने विचारों में निश्चल रहती है और पडिता दासी को उक्त कार्य की पूर्ति के लिये खास तौर से प्रेरित करती है। पंडिता सुदर्शन के पास कई बार जाती है और निराश होकर लौट आती है, पर एक बार वह दामी किमी कपट-कला द्वारा सुदर्शन को राज महल में पहुंचा देती है । सुदर्शन के राज महल में पहुंच जाने पर भी अभया अपने कार्य में असफल रह जाती है-उसकी मनोकामना पूरी नहीं हो पाती। इससे उसके चित्त में प्रमह्य वेदना होती है और वह उममे अपने अपमान का बदला लेने पर उतारू हो जाती है, वह अपनी कूटिलता का माया जाल फैला कर अपना सुकोमल गरीर अपने ही नखों से रुधिरप्लावित कर डालती है और चिल्लाने लगती है कि दोड़ो लोगों मुझे बचाओ, सुदर्शन ने मेरे सतीत्व का अपहरण किया है, राजकर्मचारी मदर्शन को पकड़ लेते हैं और राजा अज्ञानता वश क्रोधित हो रानी के कहे अनुसार सूदर्शन को सूली पर चढाने का आदेश दे देता है। पर सुदर्गन अपने शीलवन की निष्ठा मे विजयी होता है-एक देव प्रकट होकर उसकी रक्षा करता है । राजा धाड़ीवाहन का उस व्यन्तर में युद्ध होता है और राजा पराजित होकर सुदर्शन की शरण में पहुंचता है, राजा घटना के रहस्य का ठीक हाल जान कर अपने कृत्य पर पश्चाताप करता है और सुदर्शन को राज्य देकर विरक्त होना चाहता है, परन्तु सुदर्शन संसार-भोगों से स्वयं ही विरक्त है, वह दिगम्बर दीक्षा लेकर तपश्चरण करता है राजा के लौटने से पूर्व ही अभया रानी ने आत्म घात कर लिया और मर कर पाटलिपुत्र नगर में व्यन्तरी हई । पंडिता भी पाटलिपुत्र भाग गई और वहां देवदत्ता गणिका के यहां रहने लगी।
मुनि सुदर्शन कठोरता से चारित्र का अनुष्ठान करने लगे । वे विहार करते हुए पाटलिपुत्र पहुँचे । उन्हें देख
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य
२८१
पंडिता ने देवदत्ता गणिका को उनका परिचय कराया। गणिका ने छल से उन्हें अपने गृह में प्रवेश कराकर कपाट बन्द कर दिये, गणिका ने मुनि को प्रलाभित करने की अनेक चेष्टाएँ की । अन्त में निराश हो उसने उन्हे श्मशान में जा डाला। वहां जब वे ध्यानस्थ थे, तभी एक देवांगना का विमान उनके ऊपर आकर रुक गया । देवांगना रुष्ट हुई । और मुनि को देख कर उसे अपने अभया रानी वाले पूर्व जन्म का स्मरण हो आया। उसने विक्रिया ऋद्धि से मुनि के चारों ओर घोर उपसर्ग किया, तो भी सुदर्शन मुनि ध्यान में स्थिर रहे । इसी बीच एक व्यन्तर ने आकर उस व्यन्तरी को ललकारा, उसे पराजित कर भगा दिया ।
कुछ समय पश्चात् सुदर्शन मुनि के चार घातिया कर्मों का नाश हो गया और उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ । देवादिक इन्द्रों ने उनकी स्तुति की, कुबेर ने समोसरण की रचना की। केवली के उपदेश को सुनकर व्यन्तरी को वैराग्य हो गया, उसने तथा नर-नारियों ने सम्यक्त्व को धारण किया । अवशिष्ट प्रघाति कर्मों का नाश कर सुदर्शन ने मुक्ति पद प्राप्त किया ।
कवि की दूसरी कृति 'सयल विहिविहाणकव्व' है, जो एक विशाल काव्य है जिसमें ५८ संधियां प्रसिद्ध हैं, परन्तु बीच की १६ सधियां उपलब्ध नही है । ग्रन्थ के त्रुटित होने के कारण जानने का कोई साधन नही है । प्रारम्भ की दो-तीन सधियों में ग्रन्थ के अवतरण प्रादि पर प्रकाश डालते हुए १२ वी से १५ वी सधि तक मिथ्यात्व के काल मिथ्यात्व और लोक मिथ्यात्व आदि अनेक मिथ्यात्वों का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए क्रिया वादि और अक्रियावादि भेदों का विवेचन किया है । परन्तु खेद है कि १५ वी सन्धि के पश्चात् ३२ वी सन्धि तक १६ सन्धियाँ आमेर भण्डार की प्रति में नही है । हो सकता है कि वे लिपि कर्ता को न मिली हों ।
ग्रन्थ की भाषा प्रौढ है और वह कवि के अपभ्रंश भाषा के साधिकारित्व को सूचित करती है । ग्रन्थान्त में सन्धिवाक्य पद्य में निबद्ध किये हैं ।
मुनिवरणयदि सष्णिद्धे पसिबद्धे, सयलविहि विहाणे एत्थ कव्वे सुभब्वे,
समवसरणसंसि सेणिए संपवेसो, भणिउ जण मणुज्जो एम संधी तिइज्जो ॥३॥
ग्रन्थ की ३२वी सन्धि में मद्य मांस-मधु के दोष और उदंबरादि पंच फलों के त्याग का विधान और फल बतलाया गया है । ३३ वी संधि में पच अणुव्रतों का कथन दिया हुआ है और ३६ वी संधि में अणुव्रतों की विशेषताएँ बतलाई गई हैं। और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों के श्राख्यान भी यथा स्थान दिये हुए हैं । ५६ वी संधि के अन्त में सल्लेखना ( समाधिमरण) का स्पष्ट विवेचन किया गया है और विधि में प्राचार्य समन्तभद्र की सल्लेखना विधि के कथन क्रम को अपनाया गया है। इसमे यह काव्य ग्रन्थ गृहस्थोपयोगी व्रतों का भी विधान करता है। इस दृष्टि से भी इस ग्रन्थ की उपयोगिता कम नही है ।
छन्द शास्त्र की दृष्टि से इस ग्रन्थ का अध्ययन और प्रकाशन आवश्यक है। क्योंकि ग्रन्थ में ३०-३५ छन्दों का उल्लेख किया गया है जिनके नामों का उल्लेख प्रशस्ति संग्रह की प्रस्तावना में किया गया है ।
ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति इतिहास की महत्वपूर्ण मामग्री प्रस्तुत करती है। उसमें कवि ने ग्रन्थ बनाने में प्रेरक हरिसिह मुनि का उल्लेख करते हुए अपने से पूर्ववर्ती जैन जैनेतर और कुछ सम सामयिक विद्वानों का भी उल्लेख किया है। जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सम-सामयिक विद्वानों में श्री चन्द्र, प्रभाचन्द्र और श्री कुमार का, जिन्हें सरस्वती कुमार भी कहते थे, नाम दिये हैं ।
ईश्वर
कविवर नयनन्दी ने राजा भोज, हरिसिंह, श्रादि के नामोल्लेख के साथ-साथ वच्छराज, और प्रभु का उल्लेख किया है और उन्हें विक्रमादित्य का मांडलिक प्रकट किया है। यथा
जहिं बच्छराउ पुण पुहइ वच्छु, हुतउ पुह ईसरु सूदवत्थु । एप्पिणु पत्थए हरियराउ, मंडलिउ विक्कमाइच्च जाउ ॥
संधि २ पत्र ८
इसी संधि में चलकर अंबाइय और कांचीपुर का उल्लेख किया है, कवि इस स्थान पर गये थे । इसके अनन्तर ही वल्लभराज का उल्लेख किया है, जिसने दुर्लभ जिन प्रतिमाओं का निर्माण कराया था, और जहां पर रामनन्दी, जयकीर्ति और महाकीर्ति प्रधान थे। जैसा कि ग्रन्थ की निम्न पक्तियों से प्रकट है।
-
१. जैन ग्रन्थ प्रशास्ति संग्रह भा० २ प्रम्यावना पृ० ५०
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
"अंबाइय कंचीपुर विरत्त, जहिं भमई भव्य भत्तिहि पसत्त । जहि बल्लहराएँ वल्लहेण, काराविउ कित्तणु दुल्लहेण । जिण पडिमालंकिउ गच्छ माण , णं केण वियंभिउ सुरविमाण । जहिं रामणंवि गुणमणि णिहाण जयकित्ति महाकित्ति वि पहाणु।
इय तिण्णि वि परमय-मई-मयंद-मिच्छत्त-विडविमोडण गई।' उक्त पद्यों में उल्लिखित रामनन्दी कौन है, और उनकी गुरु परम्परा क्या है और जयकीर्ति महाकोति से से इनका क्या सम्बन्ध है ? यह अज्ञात है। ये तीनों विद्वान भी नयनन्दी के समकालीन हैं। रामनन्दी प्राचार्य थे। इनके शिष्य बालचन्द ने कवि से सकलविधि-विधान बनाने का संकेत किया था। ऐतिहासिक दृष्टि से इन विद्वानों के सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक है। प्राकृत श्रुतस्कन्ध के कर्ता ब्रह्म हेमचन्द्र के गुरु भी रामनन्दी हैं। और माणिक्य नन्दी के गुरु भी रामनन्दी हैं। ये दोनों भिन्न-भिन्न विद्वान हैं या अभिन्न हैं, यह विचारणीय है।
प्रभाचन्द्र माणिक्यनन्दी के अन्य विद्या शिष्यों में प्रभाचन्द्र प्रमख रहे हैं। वे उनके 'परीक्षामख' नामक सूत्र-ग्रन्थ के कुशल टीकाकार भी हैं। दर्शन शास्त्र के अतिरिक्त वे सिद्धान्त के भी विद्वान थे। प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने उक्तधारा नगरी में रहते हुए केवल दर्शन शास्त्र का अध्ययन ही नहीं किया ; प्रत्युत धाराधिपभोज के द्वारा प्रतिष्ठा पाकर अपनी विद्वत्ता का विकास भी किया। साथ ही विशाल दार्शनिक ग्रन्थों के निर्माण के साथ अनेक ग्रन्थों की रचना की है। 'प्रमेय कमल मार्तण्ड' (परीक्षामुख टीका) नामक विशाल दार्शनिक ग्रन्थ सुप्रसिद्ध राजा भोज के राज्यकाल में ही रचा गया है । और 'न्याय कुमुदचन्द्र' (लघीयस्रय टीका) प्राराधना-गद्य कथाकोश पुष्पदन्त के महापुराण (आदिपुराण-उत्तरपुराण) पर टिप्पण-ग्रन्थ तत्त्वार्थ वृत्ति पद टिप्पण, शब्दाम्भोज भास्कर समाधि तंत्र टीका ये सब ग्रन्थ राजा जयसिंह देव के राज्य काल में रचे गये हैं। शेष ग्रन्थ प्रवचन सरोज भास्कर, पंचास्तिकायप्रदीप, प्रात्मानुशासन तिलक, क्रियाकलाप टीका, रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका, वृहत्स्वयंभूस्तोत्र टीका, तथा प्रतिक्रमणपाठ टीका, ये सब ग्रन्थ कब और किसके राज्यकाल में रचे गए हैं ये इन्हीं प्रभाचन्द्र की कृति है या अन्य की यह विचारणीय है। इनमें प्रवचन सरोजभास्कर और पंचास्तिकाय प्रदीप तो इन्हीं प्रभाचन्द्र की कृति हैं। शेष के सम्बन्ध में सप्रमाण निर्णय करने की जरूरत है कि वे इन्हीं की कृति हैं। या किसी अन्य प्रभाचन्द्र की।
ये प्रभाचंद्र वही ज्ञात होते हैं जिनका श्रवण वेल्गोल के शिलालेख नं० ४० के अनुसार मूलसंघान्तर्गत
दरूप देशोयगण के गोल्लाचार्य के शिष्य एक अविद्धकर्ण कौमारवती पद्मनन्दी सैद्धांतिक का उल्लेख है जो कर्णवेवसंस्कार होने से पूर्व ही दीक्षित हो गए थे। उनके शिष्य और कुलभूषण के सधर्मा एक प्रभाचन्द्र का उल्लेख पाया जाता है जिसमें कुलभूषण को चारित्रसागर और सिद्धान्त के पारगामी बतलाया गया है। और प्रभाचन्द्र को शब्दाम्भोरुह भास्कर तथा प्रथित तर्क-ग्रन्थकार प्रकट किया है। इस शिलालेख में मनि कलभषण की शिष्य परम्परा का भी उल्लेख निहित है।
प्रविद्ध कर्णादिक पद्मनन्दी सैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लोके। कौमारदेवव्रतिता प्रसिद्धिर्जीयात्तु सज्ज्ञाननिधिः सधीरः॥ तच्छिष्यः कुलभूषणाख्या यतिपश्चारित्रवारी निधिःसिद्धान्ताम्बुधि पारगो नतविनेयस्तत्सधर्मो महान । शब्दाम्भोरुह भास्करः प्रथित तर्क ग्रन्थकारः प्रभाचन्द्राख्या मुनिराज पंडितवरःश्रीकुन्दकुन्दान्वयः॥ तस्य श्री कुलभूषणाल्य सुमुनेश्शिष्यो विनेयस्तुतः
सवृत्तः कुलचन्द्रदेव मुनिपस्सिद्धान्तविद्यानिधिः ।। श्रवण वेल्गोल के ५५वें शिलालेख में मूलसंघ देशीयगण के देवेन्द्रसैद्धान्तिक के शिष्य, चतमख देवी शिष्य गोपनन्दी और इन्हीं गोपनन्दी के सधर्मा एक प्रभाचन्द्र का उल्लेख भी किया गया है, जो प्रभाचन्द्र धारा
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्प
२८३
धीश्वर राजा भोज द्वारा पूजित थे और न्याय रूप कमल समूह को विकसित करने वाले दिनमणि, और शब्द रूप अब्ज को प्रफुल्लित करने वाले रोदोमणि (भास्कर) सदृश थे। और पण्डित रूपी कमलों को विकसित करने वाले सर्य तथा रुद्रवादि दिग्गज विद्वानों को वश करने के लिय अकुश के समान थे तथा चतर्मुख देव के शिष्य थे।
दोनों ही शिलालेखों में उल्लिखित प्रभाचन्द्र एक ही विद्वान जान पड़ते है। हां, द्वितीय लेख (५५) में चतम खदेव का नाम नया जरूर है, पर यह सभव प्रतीत होता है कि प्रभाचन्द्र के दक्षिण देश से धारा में आने के पश्चात् देशीयगण के विद्वान चतुर्मुखदेव भी उनके गुरु रहे हो तो कोई आश्चर्य नही ; क्योंकि गुरु भी तो कई प्रकार के होते हैं--दीक्षा गुरु विद्या गुरु आदि । एक-एक विद्वान के कई-कई गुरु पार कई-कई शिष्य होते थे। अतएव चतुर्मुखदेव भी प्रभाचन्द्र के किसी विषय में गुरु रहे हों, और इसलिये व उन्हे समादर की दृष्टि से देखते हों, तो कोई आपत्ति की बात नही, अपने से बड़ों को आज भी पूज्य और आदरणीय माना जाता है।
अब रही समय की बात, सो ऊपर यह बतलाया जा चुका है कि प्रभाचन्द्र ने प्रमेय कमलमार्तण्ड को राजा भोज के राज्य काल मे रचा है। जिसका राज्य काल सवत १०७० मे १११० तक का बतलाया जाता है । उसके राज्य काल के दो दान पत्र संवत् १०७६ ओर १०७६ क मिल है।
आचार्य प्रभाचन्द्र ने देवनदी की तत्त्वार्थ वति के विपम-पदों का एक विवरणात्मक टिप्पण लिखा है। उसके प्रारम्भ में अमितगति के सस्कृत पंचसग्रह का निम्न पद्य उद्धत किया है
वर्गः शक्ति समूहोऽणोरणूनां वर्गणोदिता।
वर्गणानां समूहस्तु स्पर्धकं स्पर्धकापहैः ॥ अमितगति ने अपना यह पच मंग्रह मसूतिकापुर में, जो वर्तमान में 'मसीद विलौदा' ग्राम के नाम से प्रसिद्ध है, वि० सं १०७३ में बनाकर समाप्त किया है। अमितगति धाराधिप मज की सभा रत्न भी थे। इससे स्पष्ट है कि प्रभाचन्द्र ने अपना उक्त टिप्पण वि० संवत् १०७३ के बाद बनाया है। कितने दिन बाद बनाया है। यह बात अभी विचारणीय है।
न्याय विनिश्चय विवरण के कर्ता प्राचार्य वादिराज ने अपना पार्श्वनाथ चरित शक सं० १४७ (वि० सं० १०८२) में बनाकर समाप्त किया है। यदि राजा भोज के प्रारम्भिक राज्यकाल में प्रभाचन्द्र ने प्रमेय कमलमार्तण्ड बनाया होता, तो वादिराज उसका उल्लेख अवश्य ही करते । पर नही किया, इससे यह ज्ञात होता है कि उस समय तक प्रमेय कमलमार्तण्ड की रचना नही हुई थी। हॉ, सुदर्शन चरित के कर्ता मुनि नयनन्दी ने, जो माणिक्य नन्दी के प्रथम विद्याशिष्य थे और प्रभाचन्द्र के समकालीन गुरुभाई भी थे, अपना नचरित' वि० स० ११०० में बनाकर समाप्त किया था। उसके बाद 'सकल विधि विधान' नाम का काव्यग्रन्थ बनाया, जिसमें पूर्ववर्ती और समकालीन अनेक विद्वानों का उल्लेख करते हुए प्रभाचन्द्र का नामोल्लेख किया है परन्तु उसमें उनकी रचनामों का कोई उल्लेख नही है। इससे स्पष्ट है कि प्रमेय कमल मार्तण्ड को रचना सं०११०० के बाद किसी समय हई है और न्याय कूमूदचन्द्र स० १११२ के बाद की रचना है, क्योकि जयसिह राजा भोज (म० १११०) के बाद किसी समय उत्तराधिकारी हआ है। न्याय कुमुदचन्द्र जयसिह के राज्य में रचा गया है। इससे प्रभाचन्द्र का समय विक्रम की ११ वीं शताब्दो का उत्तरार्ध और १२ वा शताब्दी का पूर्वाध हाना चाहिये।
१ श्री वाराधिप-भोजराजमुकुट-प्रोतास्म-रश्मिच्छटा
च्छाया कूकूम-पक-लिप्त चरणाम्भो जात लक्ष्मीधवः न्यायाब्जाकरमण्डने दिनमगिश्शब्दाब्ज-रोदोमणि: स्थयात्पण्डित-पुण्डरीक-तरणि श्रीमान् प्रभाचन्द्रमा ॥१७॥ श्रीचतुर्मुखदेवाना शिष्योऽधृप्य: प्रवादिभिः । पण्डित श्रीप्रभाचन्द्रो रुद्रवादि-गंजाकुशः ।।१८।।
-जैन शिलालेख मंग्रह भा० ११० ११८ । २ त्रिसप्त्यधिकेऽब्दानां सहस्र शकविद्वष. । मसूतिका पुरे जात मिद शास्त्रं मनोरमम् । पचसंह-६
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
ईसा की १२वीं शताब्दी के विद्वान आ० मलयगिरि ने आवश्यक निर्युक्ति टीका ( पृ० ३७१A) में लघीयस्त्रय की एक कारिका का व्याख्यान करते हुए 'टीका कारके' नाम से न्याय कुमुद चन्द्र में किया गया उक्त कारिका का व्याख्यान भी उद्धत किया है । १२वीं शताब्दी के विद्वान देवभद्र ने न्यायावतार टीका टिप्पण ( पृ० २१,७६) में प्रभाचन्द्र और उनके न्याय कुमुदचन्द्र का नामोल्लेख किया है। अतः १२ वीं शताब्दी के इन विद्वानों के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि प्रभाचन्द्र १२ वी शताब्दी के पूर्वार्ध से आगे के विद्वान नहीं हो सकते ।
रचनाएं
२८४
आचार्य प्रभाचन्द्र की निम्न कृतियां प्रसिद्ध हैं - १ तत्त्वार्थ वृत्ति पद विवरण (सर्वार्थ सिद्धि के विषमपदों का टिप्पण । २ प्रवचन सरोज भास्कर ( प्रवचनसार टीका) ३ प्रमेय कमलमार्तण्ड ( परीक्षामुख व्याख्या) ४ न्याय कुमुदचन्द्र ( लघीयस्त्रय व्याख्या) ५ शब्दाम्भोज भास्कर ६ महापुराण टिप्पण ७ गद्य कथा कोश (आराधना कथा प्रबन्ध) ८ पंचास्तिकाय प्रदीप (पंचास्तिकाय टीका ) ६ क्रिया कलाप टीका १० रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका ११ समाधितंत्र टीका १२ ।
तत्त्वार्थ वृत्तिपद विवरण- यह तत्त्वार्थ वृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) के अप्रकट - विपमपदों का विवरण है । प्रभाचन्द्र ने इस विवरण में वृत्ति के कथन को पुष्ट करने के लिए अनेक ग्रन्थों के वाक्यों को उद्धृत किया है। उन ग्रन्थों में अनेक ग्रन्थ प्राचीन और पूर्ववर्ती हैं। और कुछ समसामयिक तथा उनसे कुछ वर्ष पहले के हैं। मूलाचार, भाव पाहुड, पंच संग्रह, सिद्धभक्ति, युक्त्यनु शासन, भगवती आराधना प्रष्टशती, गोम्मटसार जीव कांड, संस्कृत पंचसंग्रह और वसुनन्दि श्रावकाचार । इनमें संस्कृत पंच संग्रह के कर्ता श्रमितगति (द्वितीय) वि० सं० १०५० से १०७३ के विद्वान हैं । उनका पंच संग्रह १०७३ की रचना है। और वसुनन्दि का समय १२ वीं शताब्दी बतलाया जाता है। यदि 'पडिगहमुच्चठ्ठाणं' गाथा वसुनन्दि की है, पूर्ववर्ती अन्य की नहीं है तब यह विचारणीय है कि उक्त गाथा के रहते हुए उक्त विवरण भी १२ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में रचा गया है ।
प्रवचन सरोज भास्कर– प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार की टीका है। प्रभाचन्द्र की इस टीका का नाम 'प्रवचन सरोज भास्कर' है । ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन बम्बई की यह ५३ पत्रात्मक प्रति सं० १५५५ की लिखी हुई है, और जो गिरिपुर में लिखी गई थी। इस प्रति में आचार्य अमृतचन्द्र के द्वारा प्रवचनसार टीका में अव्याख्यात ३६ गाथाएं भी प्रवचन सरोजभास्कर में यथा स्थान व्याख्यात हैं । जयमेनीय टीका में प्रवचन सरोजभास्कर का अनुकरण किया गया है। प्रभाचन्द्र ने जब अवसर देखा तभी उन्होंने संक्षेप से दार्शनिक मुद्दों की चर्चा की है । टीका प्रति संक्षिप्त होते हुए भी विशद है। इसका पुष्पिका वाक्य निम्न प्रकार है :- "इति श्री प्रभाचन्द्र विरचिते प्रवचन सरोज भास्करे शुभोपयोगाधिकार समाप्त : ।"
प्रमेय कमल मार्तण्ड - यह माणिक्यनन्दी प्राचार्य के 'परीक्षामुख' नामक सूत्र ग्रन्थ की विस्तृत व्याख्या है | चूँकि परीक्षामुख सूत्र शुद्ध न्याय का ग्रन्थ है । अतः प्रमेयकमलमार्तण्ड का प्रतिपाद्य विषय भी न्यायशास्त्र से सम्बन्धित है | सन्मति टीकाकार अभयदेव सूरि और स्याद्वाद रत्नाकर के रचयिता वादिदेव सूरि ने इस ग्रंथ का विशेष अनुसरण किया है । स्याद्वाद रत्नाकर में तो प्रमेयकमलमार्तड के कर्ता का नाम निर्देश भी किया है । और स्त्रीमुक्ति तथा केवलभुक्ति के समर्थन में उसकी युक्तियों का खण्डन भी किया है । वादिदेव का जन्म वि० सं० ११४३ में और स्वर्गवास सं० १२२२ में हुआ था । वे सं० १९७४ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए थे । इसके बाद उन्होंने सं० १९७५ (मन् १९१८) लगभग स्याद्वाद रत्नाकर की रचना की होगी। स्याद्वाद रत्नाकर में प्रमेय कमल मार्तण्ड और न्याय कुमुदचन्द्र का न केवल शब्दार्थानुसरण ही किया गया है किन्तु कवलाहार समर्थन प्रकरण तथा प्रतिबिम्ब चर्चा में प्रभाचन्द्र और उनके प्रमेयकमलमार्तण्ड का नामोल्लेख करके खंडन किया है। प्रभाचन्द्र इनसे बहुत पूर्ववर्ती हैं। उनकी उत्तरावधि सन् १९०० ई० है प्रभाचन्द्र की यह टीका प्रमेय बहुल है । प्रमेय कमल मार्तण्ड की यह रचना धाराधीश भोज के राज्य काल में हुई है ।
न्याय कुमुदचन्द्र - अकलंक देव के लघीयस्त्रयकी टीका है। प्रवेश हैं -प्रमाण प्रवेश नयप्रवेश और प्रवचनप्रवेश । प्रथम प्रवेश में ४
मूल लघीयस्त्रय में ७८ कारिकाएं और तीन परिच्छेद हैं, दूसरे में एक और तीसरे में दो
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२८५
परिच्छेद हैं । इस तरह न्याय कुमुद में ७ परिक्छेद हैं। जिनमें प्रमाण नय, निक्षेप प्रोर प्रवचन प्रवेशरून प्रति पाद्य विषय का ऊहापोह के साथ विवेचन किया गया है । इनके अतिरिक्त तत्सम्बन्धि अवान्तर अनेक विषयों की पूर्व उत्तर पक्ष के रूप में चर्चा की गई है। न्याय कुमुद की भाषा ललित और प्रवाह निर्वाध है । दार्शनिक शैलो श्रीर भाषा सौष्ठव, सुखद है तथा साहित्य के मर्मज्ञ व्याख्याकार अनन्तवीर्य और विद्यानन्दी का अनुसरण करने का प्रयत्न किया गया है । इतने महान टीका ग्रन्थ का निर्माण करने पर भी प्रभाचन्द्र ने निम्न पद्य में अपनी लघुता ही प्रकट की है । और लिखा है कि न मुझमें वैसा ज्ञान ही हैं और न सरस्वती ने ही कोई वर प्रदान किया है । तथा इस ग्रन्थ के निर्माण में किसी में वाचनिक सहायता भी नहीं मिल सकी है।
बोधो में न तथा विधोऽस्ति न सरस्वत्या प्रदत्तो वरः । साहायञ्च न कस्यचिद्वचनतोऽप्यस्ति प्रबन्धोदये ||
प्रमेय कमलमार्तण्ड की रचना के बाद टीकाकार प्रभाचन्द्र के मानस में जो नवीन नवीन युक्तियां अवतरित हुई उनका इसमें निर्देश किया गया है। जहां द्विरुक्ति की संभावना हुई, वहां उनका निरूपण नहीं किया किन्तु प्रमेयकमलमार्तण्ड के अवलोकन करने का निर्देश कर दिया है। प्रभाचन्द्र ने अपने स्वतंत्र प्रबन्धों में बहुतसी मौलिक बातें बतलाई हैं, जैसे वैभाषिक सम्मत प्रतीत्य समुत्पाद का खंडन, प्रतिविम्व विचार तम और छाया द्रव्यत्व आदि अनेक प्रकरणों के नाम उल्लेखनीय हैं। न्याय कुमुद की रचना शैली प्रसन्न और मनोमुग्धकर है । प्रभाचन्द्र ने न्याय कुमुद की रचना धारा के जर्यासह देव के राज्य में की है । ( न्याय कु० प्रस्तावना)
शब्दाम्भोजभास्कर - श्रवणबेलगोल के शिला लेख नं० ४० (६४) में प्रभाचन्द्र के लिये शब्दाम्भोजभास्कर विशेषण दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि प्रमेय कमलमार्तण्ड और न्याय कुमुद जैसे प्रथित तर्क ग्रन्थों के कर्ता प्रभाचन्द्र ही शब्दाम्भोजभास्कर नामक जैनेन्द्र व्याकरण महान्यास के कर्ता हैं। यह न्यास जैनेन्द्र महावृत्ति के बहुत बाद बनाया गया है ।
समाप्तः ।
नमः श्री वर्धमानाय महते देवनन्दिने । प्रभाचन्द्राय गुरवे तस्मै चाभयनन्दिने ॥
इस पद्य में अभयनन्दि को नमस्कार किया गया है । शब्दाम्भोजभास्कर का पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है : इति प्रभाचन्द्र विरचिते शब्दाम्भोजभास्करे जैनेन्द्र व्याकरण महान्यासे तृतीयस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः
क्योंकि इसमें महावृत्ति कं शब्दों को आनुपूर्वी से लिया गया है। विशेष परिचय के लिये प्रमेय कमल मार्तण्ड की प्रस्तावना देखें ।
गद्य कथा कोश - यह कथा प्रबन्ध संस्कृत गद्य में रचा गया है, जिसमें = कथाएं हैं। उसके बाद समाप्ति सूचक पुष्पिका पायो जाती है । प्रभाचन्द्र कथाए बनाई हैं या और अधिक यह अभी निर्णय नहीं हुआ । हो सकता है कि लिपि कर्ता से गल्ती में पुष्पिका वाक्य लिखा गया हो, और बाद में कुछ कथाएं और लिखकर पुष्पिका वाक्य लिखा गया हो। ग्रन्थ सामने न होने से उसके सम्बन्ध में विशेष कुछ कहना संभव नहीं
महापुराण टिप्पण - प्रभाचन्द्र ने पुष्पदन्त के अपभ्रंश भाषा के महापुराण (प्रादि पुराण- उत्तर पुराण ) पर एक टिप्पण लिखा है । यह टिप्पण धारा के राजा जयसिंह के राज्य काल में लिखा गया है । पुष्पदन्त ने अपना महापुराण सन् ६६५ ई० में समाप्त किया था। प्रभाचन्द्र ने उसके बाद उस पर टिप्पण लिखा है । आदि पुराण टिप्पण में धारा और जयसिंह नरेश का कोई उल्लेख नही है । महापुराण के इस टिप्पण की श्लोक संख्या ३३०० बतलाई गई है। आदि पुराण की १६५०, और उत्तर पुराण की १३५० । प्रादि पुराण टिप्पण का आदि अन्त मंगल निम्न प्रकार है :
श्रादि मंगल - प्रणम्यवीरं विबुधेन्द्र संस्तुतं निरस्तदोषं वृषभं महोदयम् ।
पदार्थ संदिग्ध जनप्रबोधकम्, महापुराणस्य करोमि टिप्पणम् ॥
१ पुष्पदन्त ने महापुराण सिद्धार्थ संवत्सर ८८१ में महापुराण शुरू किया और ८८७ सन् ६६५ में समाप्त किया था ।
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८६
श्रन्त
समस्त सन्देहहरं मनोहरं प्रकृष्टपुण्यप्रभवम् जिनेश्वम् । कृतं पुराणे प्रथमे सुटिप्पणं मुखावबोधं निखिलार्थ दर्पणम् ॥
इति श्रीप्रभाचन्द्र विरचितमादिपुराण टिप्पणकम् पंचासश्लोक हीनं सहस्रद्वयपरिमाणं परिसमाप्ता ॥ उत्तर पुराण टिप्पण का अन्तिम पुष्पिका वाक्य निम्न प्रकार है।
श्री जर्यासह देव राज्ये श्रीमद्धारानिवासिनः परापरपरमेष्ठि प्रणामोपा जितामल पुण्य निराकृता खिल कलंकेन श्री प्रभाचन्द पंडितेन महापुराण टिप्पणके शतत्र्यधिक सहस्रत्रय परिमाणं कृति मिति । पाटोदी मन्दिर जयपुर प्रति क्रियाकलाप टीका - श्री पंडित प्रभाचन्द्र के द्वारा रची गई है। जैसा कि ऐ० पन्ना लाल सरस्वति भवन बम्बई की हस्त लिखित प्रति की अन्तिम प्रशस्ति से स्पष्ट है। :―
वन्दे मोहतमो विनाशनपटुस्त्रैलोक्य दीप प्रभुः । संसृतिसमन्वितस्य निखिल स्नेहस्य संशोषकः । सिद्धान्तादिसमस्तशास्त्र किरणः श्री पद्मर्नान्द प्रभुः । छियात्प्रकटार्थतां स्तुति पदं प्राप्तं प्रभाचन्द्रतः ॥
इस प्रशस्ति पद्य से स्पष्ट है कि क्रियाकलाप के टीकाकार पद्मनन्दि सैद्धान्तिक के शिष्य थे ।
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
इनके अतिरिक्त समाधितंत्र टीका, रत्नकरण्ड टीका, आत्मानुशासन तिलक टीका, स्वयंभू स्तोत्र टीका पंचास्तिकाय प्रदीप, प्रवचनसार टीका को प्रति टोडारायसिंह के नेमिनाथ मन्दिर में सं० १६०५ की लिखी हुई मौजूद है इसकी यह जाँच करना आवश्यक है यह टीका प्रवचन सरोज भास्कर से भिन्न है या वही है और समयसार वृत्ति की प्रति ६५ पत्रात्मक भट्टारकीय भंडार अजमेर में उपलब्ध है इन टीका ग्रन्थों में समाधितत्र टीका, रत्नकरण्ड टीका, और स्वयंभूस्तोत्र टीका, तो इन्हीं प्रभाचन्द्र की मानी हो जाती है । किन्तु शेष टीकाओं के सम्बन्ध में अन्वेषण कर यह निश्चय करना शेष है कि ये टीकाएं भी उन्हीं प्रभाचन्द्र की है । या अन्य किसी प्रभाचन्द्र की हैं।
वीरसेन
यह माथुर संघ के आचार्य थे, जो सिद्धान्त शास्त्रों के पारगामी विद्वान थे । आचार्यों में श्रेष्ठ थे । और माथुर संघ के व्रतियों में वरिष्ठ थे। कपाय के विनाश करने में प्रवीण थे। जैसा कि धर्मपरीक्षा प्रशस्ति के निम्न पद्य से स्पष्ट है:
सिद्धान्त पाथोनिधि पारगामी श्री वीरसेनोऽजनि सूरिवर्यः । श्री माथुराणां यमिनां वरिष्ठः कषाय विध्वंसविधौ परिष्टः ॥
वीरमेनाचार्य मे ५वी पीढ़ी में श्रमितगति द्वितीय हुए। इनका समय सं० १०५० से १०७३ है । प्रत्येक का काल २०-२० वर्ष माना जाय तो वीरसेन का समय श्रमितगति द्वितीय से १०० वर्ष पूर्व ठहरता है और वीरसेन के शिष्य देवसेन का समय दशवीं शताब्दी है । अतः वीरसेन का समय भी १०वीं शताब्दी होना चाहिये ।
देवसेन
प्रस्तुत देवसेन सिद्धान्त समुद्र के पारगामी विद्वान वीरसेन के शिष्य थे । जो उदयाचल रूप सूर्य के समान कार की प्रवृत्ति को नष्ट करने वाले, लोक में ज्ञान के प्रकाशक, सत्पुरुषों के प्रिय, तथा धीरता से जिन्होंने दोषों को नष्ट कर दिया है, ऐसे देवसेन नाम के आचार्य हुए' ।
१ ध्वस्ता शेष ध्वान्त वृत्तिर्मनस्वी तम्मात्सूरिर्देवमनो ऽजनिष्ट । लोकोद्योती पूर्व शैलादिवार्क: शिष्टा भीष्टः स्थेयसोऽपास्तदोषः ॥
- धर्म परीक्षा प्र०
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२८७ यह देवसेन माथुरसंघ के यतियों में अग्रणी थे। जिस प्रकार सूर्य पदार्थो को प्रकाशित करता है और प्रदोषा (रात्रि) को नष्ट करता है, कमलों को विकसित करता है, उसी प्रकार आचार्य देवसेन वस्तु स्वरूप को प्रकाशित करने और प्रकृष्ट दोषों से रहित हुए भव्य रूप कमलों को प्रमुदित करते थे। जैसा कि निम्न पद्य से स्पष्ट है :
श्री देवसेनोऽजनि माथुराणां गणी यतीनां विहित प्रमोदः ।
तत्त्वावभासी निहतप्रदोषः सरोरुहाणामिव तिग्मरश्मिः ॥ ____ इससे यह देवमेन माथुरसंघ के प्रभावशाली विद्वान थे । इनके शिष्य अमितगति प्रथम थे। जिन्होंने योगसार की रचना की है। इनका समय वि० को दशवी शताब्दी है। क्योंकि इनमे ५वी पीढ़ी में अमितगति द्वितीय हुए हैं, जिनका रचना काल सं० १०५० से १०७३ है। इसमें से चार पीढ़ी का ८० वर्ष समय कम करने से सं० ६६३ प्राता है । यही देवसेनका समय है।
नेमिषेण यह माथरसंघ के विद्वान अमितगति प्रथम के शिष्य थे। समस्त शास्त्रो के जानकार और शिष्यों में अग्रणी थे, तथा माथरमंघ के तिलक स्वरूप थे। जैसा कि सुभाषितरत्नसन्दोह को प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है :
तस्यज्ञात समस्त शास्त्र समयः शिष्यः सतामग्रणी: ।
श्रीमन्माथुरसंघसाधुतिलकः श्रीनेमिषेणो भवतः ॥ उक्त नेमिषेणाचार्य माथुरसम्प्रदाय रूप आकाश में प्रकाश करने वाले चन्द्रमा के समान, तथा अर्हन्त भाषित तत्वों में शंका के विनाशक और विद्वत्समूह रूप शिष्यों मे पूजित थे । जैसा कि श्रावकाचार के निम्न पद्य से स्पष्ट है
विद्वत्सम हाचित चित्र शिष्यः श्री नेमिषेणोऽजनि तस्य शिष्यः ।
श्री माथुरानूक नभः शशांकः सदा विधूताऽऽर्हत तत्त्व शंकः ॥ पाराधना प्रशस्ति में भी इन्हें सर्व शास्त्ररूपी जलराशिके पारको प्राप्त होने वाले, लोकके, अंधकार के विनाशक और शीतरश्मि के समान जनप्रिय बतलाया है।
सर्वशास्त्रजलराशिपारगो नेमिषेण मूनि नायकस्ततः।
सोजनिष्ट भवने तमोपहः शीतरश्मिरिव यो जन प्रियः॥ इनके शिष्य माधवसेन थे, जो अमितगति द्वितीय के गुरु थे । चुंकि अमितगति द्वितीय का समय सं० १०५० सं १०७३ तक सुनिश्चत है । इनका समय सं १०११ के लगभग होना चाहिये।
माधवसेन माधवसेन नामके अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें प्रस्तुत माधवसेन माथरसंघ के प्राचार्य नेमिषेण के शिष्य थे। मुनियों के स्वामी, माया के विनाशक और मदन को नष्ट करने वाले ब्रह्मचारी थे। और वृहस्पति के
१ एक माधवसेन भट्टारक मूनसंघ सेनगण और पोगग्गिच्छ के चन्द्रप्रभ सिद्धान्त देव के शिष्य थे । इन्होंने सन ११२४ ई० में पंच परमेष्ठी का स्मरण कर ममाधि मरण द्वारा शरीर का परित्याग किया था। (जैन लेख स० भा० २ १० ४३७)
दूसरे माधवसेन प्रतापसेन के पट्टधर थे । इनका समय विक्रम की १३ वी १४ वी शताब्दी है।
तीसरे माधवसेन वे हैं जिन्हें लोक्कियवसदि के लिये, देकररसने जम्बहल्लि को प्रदान किया था। यह लेख शक वर्ष ९८४ (सन् १०६२ ई०) का है। चौथे माधवसेन सूरि वे हैं जिनका स्मरण पद्मप्रभमलधारिदेव ने निम्न पद्य द्वारा किया है :
नमोऽस्तु ते मंयमबोधमूर्तये, स्मरेभक भरथलभेदनाय वै । विनेय पंकेरुहविकास भानवे, विराजते माधवसेनसूरये ।।
-(नियमसार टी० पृ० ६३)
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
समान चतुर थे । और इनकी बुद्धि तत्त्व विचार में प्रवीण थी। जैसाकि निम्न पद्य से स्पष्ट है:
माधवसेनोऽजनि मुनिनाथो ध्वसितमाया मदनकदर्थः ।
तस्य गरिष्ठो गुरुरिव शिष्यस्तत्त्वविचार प्रवणमनीषः ।। इन्हीं माधवनेन के शिष्य अमितगति द्वितीय हए जिन्होंने सं० १०५० से १०७३ तक अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का मध्य है।
शान्तिदेव इनका उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति में दयापाल के बाद ५१व पद्य में किया गया है। यह बड़े तपस्वी और अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। मल्लिषण प्रशस्ति के उक्त पद्य मे ज्ञात होता है कि इनके पवित्र चरण कमलों की पूजा होयसल नरेश विनयादित्य द्वितीय (सन् १०४७ से ११००ई०) करता था। लेख नं० २०० से भी इसका समर्थन होता है। यह विनयादित्य द्वितीय के गुरु थे। इस शिलालेख में जो शक सं० ६८४ (सन् १०६२ ई०) में १०४७ से सन् उत्कीर्ण किया गया है, उनके समाधिमरण द्वारा दिवंगत होने का उल्लेख है । इससे शान्ति देव का समय सन् १०६२ ई. तक है। अर्थात् यह ईसा को ११वी शताब्दी के विद्वान थे । नगर के व्यापारी संघ के लोगों ने अपने गुरु की स्मृति में यह स्मारक बनवाया है।
अमितगति (द्वितीय) अमितगति (द्वितीय)-यह माथर संघ के विद्वान नेमिपेण के प्रशिप्य और माधवसेन के शिष्य थे। यह ग्यारहवीं शताब्दी के अच्छे विद्वान और कवि थे। अापकी कविता सरल और वस्तूतत्त्व की विवेचक है।
कवि ने अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार बतलाई है । वीरसेन शिष्य देवमेन, अमितगति प्रथम, नेमिषेण और माधवसेन । यह अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। और वाक्यतिराज मंज की सभा के एक रत्न थे ।
मूज का एक दान पत्र वि० सं०१०३६ का प्राप्त हना है जिसे उनके प्रधान मंत्री रुद्रादित्य ने लिखा था। वि० सं० १०७८ में तैलंग देश के राजा तलिप द्वारा मुंज की मृत्यु हुई थी। और उनकी मृत्यु के बाद भोज का राज्याभिषेक हुआ।
अमितगति की निम्नकृतियाँ उपलब्ध हैं-सुभाषितरत्न सन्दोह, धर्मपरीक्षा, उपासकाचार (अमितगति श्रावकाचार) पंचसंग्रह, आराधना, तत्त्वभावना (सामायिक पाठ) और भावना द्वात्रिंशतिका । जिन्हें कवि ने वि० सं० १०५० से १०७३ के मध्य रचा था।
सुभाषितरत्न सन्दोह-यह स्वोपज्ञ सुभाषित ग्रन्थ है। इसमें सांसारिक विषय निराकरण, कोप-लोभनिराकरण, माया-अहंकार निराकरण, इन्द्रिय निग्रहोपदेश, स्त्री गुण-दोष विचार, सदसत्स्वरूप निरूपण, ज्ञान निरूपण, चारित्र निरूपण, जाति निरूपण, जरा निरूपण, मृत्य-सामान्य नित्यता । देवजरा-जीव-सम्बोधन, दुर्जनसज्जन-दान, मद्य-निषेध, मांसनिषेध, मधुनिषेध, कामनिषेध, वेश्यासंगनिषेध, द्यूतनिषेध, प्राप्तविवेचन, गुरु स्वरूप, धर्मनिरूपण, शोकनिरूपण, शौच, श्रावक धर्म और द्वादश तपश्चरण, ये बत्तीस प्रकरण है । श्रावक धर्मका निरूपण
१ देखो मल्लिषेण प्रशस्ति का ५१ वा पद्य २ सककालंगति-नाग-रन्ध्र-शुभकृत् मंवत्मरा षाढदोल् । सुकरं पौर्णमि-भौमवार मीसे दिलदा श्रवण"""। .."कदिन्दं वरे शान्तिदेवरमलर सन्यासनं गेटदु भक् । ति करं कै-वशमागे गेय्दू पडेदर निर्वाण-साम्राज्यम् ॥ जैन लेख सं० भा० २ १०२४५ ३ देखो, सुभाषितरत्न संदोह ग्रन्थ की प्रगस्ति । ४ देखो, विश्वेश्वरनाथ रेउ का 'गजा भोज । ५ विक्रमावासगदष्ट मुनि व्योमेन्दु (१०७८) संमिते । वर्षे मुझपदे भोज भूपः पट्टे निवेशितः ॥
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२८९ २१७ पद्यों में किया है । पूरे ग्रन्थ में ६२२ पद्य हैं यह ग्रन्थ वि० सं० १०५० में पोप सुदी पंचमी को समाप्त हमा है । जब यह ग्रन्थ समाप्त हुआ उस समय मुज राज्य करता था।
कवि ने अपने सुभापितों का उद्देश्य बतलाते हुए लिखा है कि
जनयति मुदमन्तव्यपाथो रहाणां, हरति तिमिरराशि या प्रभा भावनीव ।
कृत निखिल पदार्थ द्योतना भारतीद्धा, विवरतु धुत दोषा संहितां भारती वः॥
जिस तरह सूर्य की किरण अन्धकार का विनाशकर समस्त पदार्थो को प्रकाशित करती हैं और कमलों को विकसित करती है। उसी प्रकार ये सुभापित चेतन-प्रचंतन-विषयक अज्ञान को दूर कर भव्यजनों के चित्त को प्रसन्न करते है। कवि ने ज्ञान का महत्व बतलाते हुए लिखा है कि
ज्ञानं बिना नास्त्य हितान्निवृत्तिस्ततः प्रवृत्ति नं हिते जनानाम् ।
ततो न पूर्वाजितकर्मनाशस्ततो न सौख्यं लभतेऽप्यभीष्टम् ॥ ज्ञान के बिना मानव की अहित मे निवृत्ति नहीं होती, अहित को निवृत्ति न होने से हितकार्य में प्रवृत्ति नही होती । हित कार्य में प्रवृत्ति न होने से पूर्वोपाजित कर्म का विनाश नहीं होता और पूर्वोपार्जित कर्मका विनाश न हाने में अभीष्ट मोक्ष सुख की प्राप्ति नहीं होती।
इसी तरह वृद्धावग्था का चित्रण करते हुए लिखा है कि जब मनुष्य जरा (बुढ़ापा) से ग्रस्त हो जाता है नब उसका सम्पूर्ण रूप नष्ट भ्रष्ट होने लगता है। बोलने में थूक गिरता है, चलने में पैर टेढ़े हो जाते हैं। बुद्धि अपना काम नहीं करती। पत्नी भी मेवा-शुश्रूषा करना छोड़ देती है । और पुत्र भी आज्ञा नही मानता।
इस तरह यह ग्रथ सुन्दर मूक्तियों से विभूषित है। और कण्ठ करने योग्य है।
धर्म परीक्षा-संस्कृत साहित्य में अपने ढंग की कृति है। इसमें पुराणों की ऊट-पटांग कथाओं और मान्यताओं का मनोरंजक रूप में मजाक करते हुए उन्हे अविश्वासनीय बतलाया है । समूचा ग्रन्थ १६४५ श्लोकों में सुन्दर कथा के रूप में निबद्ध है। जिसे कवि ने दो महीने में बनाया था। हरिपेण की 'धर्म परीक्षा' विक्रम संवत १०४४ में बनी है। हरिषेण ने लिखा है कि उससे पहले जयराम की गाथाबद्ध धर्म परीक्षा थी। उसे मैंने पद्धडिया छन्द में किया है। बहुत सभव है कि इस पर हरिषेण की धर्म परीक्षा और हरिभद्र के धूर्ताख्यान का प्रभाव पड़ा हो । क्योंकि पात्रों के नामादि 'धर्मपरीक्षा' के समान हैं। इस कारण वह इसका प्राधार रही हो । तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । यह ग्रन्थ विक्रम स० १०७० में बनाकर समाप्त किया है।
पंचस ग्रह-यह प्राकृत पंचसंग्रह का अनुवाद है। इस पर डड्ढा के पचसग्रह का प्रभाव है, वह अमितगति के सामने मौजद था। इसमें कर्मबन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता प्रादि का वर्णन है। इसकी रचना कवि ने
१ समारूढे पूत त्रिदशवमति विक्रमनपे, महा वर्षाणा प्रभवतिहि पचाशदधिके । समाप्ते पचम्यामवति धरिणी मुंजनपतो। सिते पक्षे पौरे बुधहितमिदं शास्त्रमनघम् सुभाषित रत्न सन्दोह प्रशस्ति । २ गलति सकलरूपं लाला विमुञ्चति जल्पनं, म्वलति गमनं दन्तानाशं श्रयन्ति शरीरिणः । विरमति मतिनों शुश्रूषां करोति च गेहिनी। वपुषि जरसा ग्रस्ते वाक्यं तनोति न देहजः ॥२७६॥ ३ अमितगतिरिवेदं स्वस्थ मास द्वयेन ।
प्रथित विशदकीत्तिः काव्य मुद्भूत दोषम् ॥ ४ संवत्मराणां विगते सहस्त्रे स सप्ततौ विक्रमपार्थिवस्य ।
इदं निषिध्यान्यमतं समाप्त जैनेन्द्रधर्मामृतयुक्तिशास्त्रम् ।।
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
मसूतिकापुर में वि० सं० १०७३ में समाप्त की है।
उपाकासचार-प्राचार्य अमितगति द्वारा विरचित होने से इसका नाम अमितगति श्रावकाचार कहा जाने लगा है । कर्ताने स्वयं-'उपासकाचार विचारसारं संक्षेपतः शास्त्रमहं करिष्ये।' वाक्य द्वारा इसे उपासकाचार शास्त्र बतलाया है। उपलब्ध श्रावकाचारों में यह विशद, सुगम और विस्तृत है। इसकी श्लोक संख्या १३५२ है। इस श्रावकाचार की यह विशेषता है कि कवि ने प्रत्येक सर्ग या अध्याय के अन्तिम पद्य में अपना नाम दिया है। ग्रन्थ १५ परिच्छेदों में विभाजित है।
प्रथम परिच्छेद में संसार का स्वरूप बतलाते हुए धर्म की महत्ता को प्रकट किया है और बतलाया है कि इस लोक में जीवका साथी धर्म ही है, अन्य गह, पूत्री, स्त्री, मित्र, धन, स्वामो और सेवक, ये जीव के साथ नहीं जाते, कर्मोदय से इनका संयोग मिलता है। धर्म ही एक ऐसा पदार्थ है जो जोव के साथ परलोक में भी जाता है, अतः वही हितकारी है।
गृहांगजा पुत्रकलत्रमित्र स्वस्वामि भत्यादि पदार्थ वर्गे।
विहाय धर्म न शरीर भाजा मिहास्ति किचित्सहगामि पथ्यम् ॥६० धर्म से ही मानव जीवन की शोभा है, धर्म के प्रताप से इन्द्र, धरणेन्द्र चक्रवादिकी प्राप्त होती है। तीर्थकर पद भी धर्म से ही मिलता है। धर्म से ही आपदाओं का विनाश होता है । अतः धर्माचरण करना श्रेयस्कर है।
दूसरे परिच्छेद में मिथ्यात्व को हेय बतलाते हुए सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने की प्रेरणा की है और उसकी महत्ता का विवेचन किया है।
तीसरे परिच्छेद में सम्यग्दर्शन के विषय भूत जीवादिक पदार्थों का वर्णन किया है।
चौथे परिच्छेद में ७४ पद्यों द्वारा चार्वाक, विज्ञानाद्वैतवादी, ब्रह्मद्वैतवादी, सांख्य, नैयायिक, असर्वज्ञतावादी, मीमांसक और बौद्ध आदि अन्यमतों के अभिप्राय को दिखलाकर उनका निराकरण किया है।
पांचवें परिच्छेद में ७४ पद्यों द्वारा मद्य, मांस, मध, रात्रिभोजन और पंच उदंबर फलों के खाने के त्याग का वर्णन है। यथा
मद्य मांस-मधुरात्रिभोजनं क्षीरवृक्षफलवर्जनं विधा।
कुर्वते वत जिघृक्षया बुधास्तत्र पुष्यति निषेविते व्रतम् ।
द्य में रात्रि भोजन के साथ पांच उम्बर और तीन मकार का त्याग अवश्यक बतलाया है, क्योंकि उनके त्याग से व्रत पुष्ट होते हैं । किन्तु इन्हें मूलगुण नहीं बतलाया।
छठे परिच्छेद में १०० श्लोकों द्वारा श्रावक के बारह व्रतोंका-पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षा व्रतों का सून्दर वर्णन किया है । अहिंसा अणुव्रत का कथन करते हुए हिंसा के दो भेद किये हैं, एक आरम्भी हिंसा और उसरी अनारम्भी हिंसा । और लिखा है कि जो गह त्यागी मुनि हैं वे तो दोनों प्रकार की हिंसा नहीं करते। किन्तु जो गहस्थी है वह अनारम्भी हिंसा का तो परित्याग कर देता है, किन्तु प्रारम्भी हिंसा का त्याग नहीं कर सकता।
"हिंसा द्वधा प्रोक्ताऽऽरम्भानारम्भमेदतो वक्षः। गृहवासतो निवृत्तो धाऽपि त्रायते तांच ।।६ गृहवाससेवनरतो मन्दकषायः प्रतितारम्भः ।
प्रारम्भजां स हिंसां शक्नोति न रक्षितु नियतम् ॥७ जो इन व्रतों को सम्यक्त्व सहित धारण करता है वह अमर सम्पदा का उपोभग करता हुआ अन्त में अविनाशी सुख प्राप्त करता है।
१ त्रिसप्तत्यधिके ऽब्दानां सहस्त्रे शक विद्विषः । मसूतिका पुरे जात मिदं शास्त्रं मनोहरम् ॥
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२६१ सातवें परिच्छेद में ७६ श्लोकों में व्रतोंके अतिचारों के वर्णन के साथ थावक की ११ प्रतिमाओंकादर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्य त्याग, रात्रिभोजन त्याग, ब्रह्मचर्य, प्रारम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग रूप एकादश स्थानों का-कथन किया गया है।
पाठवें परिच्छेद में सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कोयोत्सर्ग रूप छह प्रावश्यकों का स्वरूप और उनके भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
हवें परिच्छेद में दान, पूजा, शील, उपवास, इन चारोंका स्वरूप बतलाते हुए इन्हें संसारवन को भस्म करने के लिये प्रग्नि के समान बतलाया है।
दशवें परिच्छेद में पात्र कुपात्र और अपात्र का कथन किया है। और कुपात्र-अपात्र को त्याग कर दान देने की प्रेरणा की है।
ग्यारहवें परिच्छेद में अभयदान, उसका फल और महत्ता का वर्णन निर्दिष्ट है।
वारहवें परिच्छेद में जिन पूजा का वर्णन किया है और पूर्वाचार्यो के अनुसार वचन और शरीर की क्रिया को रोकने का नाम द्रव्य पूजा और मन को रोककर जिन भक्ति में लगाने का नाम भाव पूजा कहा है । यथा
वचो विग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते ।
तत्र मानससंकोचो भावपूजा पूरातनः ।।१२ किन्तु अमितगति ने अपने मत से गन्ध पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और अक्षत से पूजा करने का नाम द्रव्य पूजा और जिनेन्द्र गुणों का चिन्तन करने का नाम भाव पूजा बतलाया है।
गन्धप्रसून सान्नाह दोपधूपाक्षतादिभिः । क्रियमाणाथवा ज्ञेया द्रव्यपूजा विधानतः ॥१३ व्यापकानां विशुद्धानां जिनानामनुरागतः ।
गुणानां यदनुध्यानं भावपूजेयमुच्यते ।।१४।। १३वें परिच्छेद में रत्नत्रय के धारक संयमीन की विनय का वर्णन है । और उनकी वैयावृत्य करने का विधान किया है।
चौदहवें परिच्छेद में वारह भावनाओं का वर्णन है।
पन्द्रहवें परिच्छेद में ११४ श्लोकों द्वारा ध्यान का और उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन किया है। इस तरह यह ग्रन्थ श्रावक धर्म का अच्छा वर्णन करता है।
पाराधना-यह शिवार्य की प्राकृत आराधना का पद्यबद्ध संस्कृत अनुवाद है जिसे कर्ताने चार महीने में पूरा किया था। प्रशस्ति में कवि ने देवसेन से लेकर अपने तक की गुरु परम्परा दी है, परन्तु समय और स्थान का कोई उल्लेख नहीं किया।
ग्रन्थ कर्ता ने भगवती पाराधना में पाराधना की स्तुति करते हुए एक वसुनन्दि योगी का उल्लेख किया है, जो उनसे पूर्ववर्ती ज्ञात होते हैं:
यः निःशेष परिग्रहेभदलने दुर्वारसिंहायते । या कज्ञानतमो घटाविघटने चन्द्रांशु रोचीयते। या चिन्तामणिरेव चिन्तितफलैः संयोजयंती जनान ।
सावः श्री वसुनन्दियोगि महिता पायात्सदाराधना। इससे वे एक योगी और महान् विद्वान ज्ञात होते हैं।
तत्त्वभावना-यह १२० पद्योंका छोटा सा प्रकरण है, इसे सामायिक पाठ भी कहा जाता है। यह प्रकरण ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी के अनुवाद के साथ सूरत से प्रकाशित हो चुका है । इसके अन्त में कवि ने लिखा है
१ दानं पूजा जिन शीलमुपवासश्चतुर्विषः ।
श्रावकाणां मतो धर्मः संसारारण्य पावकः ॥१॥
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
वृत्यवंश शतेनेति कुर्वता तत्वभावना । सद्योऽमितगतेरिष्टा निवृत्तिः क्रियते करे ।
'इति द्वितीय भावना समाप्ता' इससे यह कोई बड़ा ग्रन्थ होना चाहिये जिसका यह दूसरा अध्याय है।
भावना द्वात्रिंशतिका-यह ३२ पद्यों का एक छोटा-सा प्रकरण है। इसको कविता बड़ो सुन्दर और कोमल है। इसे पढ़ने से बड़ो शांति मिलती है । इसका हिन्दो अंग्रेजी भाषा में अनुवाद हो चुका है। बहुत से लोग इसे सामायिक के समय इसका पाठ करते हैं ।
ब्रह्म हेमचन्द्र हेमचन्द्र ने अपनी गुरु परम्परा और गण गच्छादिक का उल्लेख नहीं किया। उन्होंने प्राकृत भाषा में 'श्रतस्कन्ध' की ६४ गाथाओं में रचना की है। जिसे उन्होंने तिलग देश के के डनगर के चन्द्रप्रभ जिन मन्दिर : रामनन्दी सैद्धान्तिक के प्रसाद से देशयती हेमचन्द्रने बनाकर समाप्त किया था। ग्रन्थ में कोई रचना काल नही दिया। इस कारण ब्रह्म हेमचन्द्र कब हुए यह विचारणीय है।
एक रामनन्दी का उल्लेख नयनन्दो (वि० सं० ११००) के सुदर्शन चरित को प्रशस्तिमें पाया जाता है जिसमें वषभ नन्दी के बाद रामनन्दी का उल्लेख किया है। और सकल विधि विधान को प्रशनि कंचीपुर का उल्लेख करते हुए बल्लभराय द्वारा निर्मापित प्रतिमा का उल्लेख किया है और बताया है कि वहां गुणमणि निधान' रामनन्दी और जयकोति मोजूद थे। और प्राचार्य रामनन्दो के शिष्य बालचन्द ने सकल विधि विधान ग्रन्थ बनाने को प्रेरणा की थी। इस कारण ये रामनन्दी विक्रमकी ११वीं शताब्दी के प्राचार्य हैं।
नट पराण में आया है और उन्हें नमस्कार किया गया है। अग्गलदेवने उक्त पुराण शक सं० ११११ (वि० सं० १२४६) में बनाकर समाप्त किया है । अतः रामनन्दो सं० १२४६ से पूर्व वर्ती हैं। जहां तक संभव है प्रथम रामनन्दी के प्रसाद से ही हेमचन्द्र ने श्रुतस्कंध बनाया हो। यदि यह ठीक हो तो ब्रह्म हेमचन्द्र ११वीं शताब्दी के विद्वान हो सकते हैं।
श्रुतस्कन्ध में श्रुत का स्वरूप और अंग-पूर्वोके पदों का प्रमाण बतलाते हुए भगवान महावीर के बाद श्रत परम्परा किस तरह चली इसका विवरण दिया गया है। परम्परा वही है जिसका उल्लेख तिलोयपण्णत्ता धवला, जयधवला, इन्द्र नन्दि श्रुतावतार, और हरिवंश पुराण आदि में पाई जाती है ।
पद्मनन्दी पदमनन्दी-मलसंघ काणरगण तिन्त्रिणी गच्छ के सिद्धान्त चक्रवर पद्मनन्दो थे। उन्हें कदम्ब कल के कीति देव की पट्ट महिषी माललदेवी ने ब्रह्म जिनालय की दैनिक पूजा और मुनियों के आहार के लिये पद्मनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती के लिये पाद प्रक्षालन पूर्वक 'सिड्डणि वल्लिन' को प्राप्त कर दान दिया। यह लेख शक सं० १९७ सन् १०७५ का उत्कीर्ण किया हुआ है । इससे इन पद्मनन्दि का समय ईसाकी ११वी सदी का अन्तिम पाद है।
कनकसेन (द्वितीय) प्रस्तुत कनकसेन चन्द्रिकावाट सेनान्वय के विद्वान प्राचार्य अजितसेन के दीक्षित शिष्य थे। जो मान-मद
१ 'जहि रमणंदि गुण-मरिण-रिणहाणु । जयकित्ति महाकित्ति वि पहाणु ।'
जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० भा० २ १० २७ २ तहि णिए वि भव्वाहिणंदिग्णा, सूरिणा महागमणंदिणा, बालइंदु-सीसेण जंपियं; सयलविहि णिहाणं मणप्पियं ।
जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० भा० २ १० २७ ३ जैन लेख सं० भा० २ १० २६६-२७०
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्थारहवी और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२६३ से रहित, पापों के नाशक, महाव्रतके पालक पार मुनियों में श्रेष्ठ थे। जैसा कि नागकुमार चरित के निन्न पद्य से स्पष्ट है :
अजनि तस्य मुनेवर दीक्षितो, विगतमानमदो दुरितान्तकः ।
कनकसेनमुनि मुनिपुंगवो, वरचरित्रमहावतपालकः ।। वे जिनागम के वेदी, ससार रूप वन का उच्छेद करने वाल और कर्मेन्धन के जलाने में पटु थे । जैसा कि भैरव पद्मावती कल्पकी प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है :
जिन समयागमवेदी गुरुतर संसारकाननोच्छेदी।
कर्मेन्धनदहनपटुस्तच्छिष्यः कनकसेनगणिः ॥५६ इन कनकसेन के शिप्य जिनमेन थे ओर मतीर्थ थे नरेन्द्रसेन । मल्लिपण इन्ही जिन मेन के शिष्य थे। सतीर्थ होने के कारण मल्लिषेण ने नरेन्द्रसेन का गुरु रूप मे स्मरण किया है। च कि मल्लिपंण ने अपना महापुराण शक स० ६६६ (सन् १०४७ ई०) मे समाप्त किया है । अत. कनकमेन का समय दशवी शताब्दी का उपान्त्य है।
नरेन्द्रसेन (प्रथम) नरेन्द्रमेन नाम के अनेक विद्वान हा गए है। एक नरेन्द्रमेन अजितसेन के शिप्य कनकमेन द्वितीय (सन् १६० ई०) के शिप्य और जिनमेन के मधर्मा थे। वादिराज ने शक वर्ष ६४४ (सन् १०२५) मे इन्ही नरेन्द्रमेन का स्मरण किया है । क्योकि उसमे कनकगेन के साथ नरेन्द्र सेन का भी उल्लख है । देखो (न्याय विनिश्चय विवरण प्रशस्ति)
मल्लिपेण सूरिने जा जिनसेन के शिष्य थे। अपने गुरु भाई नरेन्द्र मेन को नागकमार चरित को प्रशस्ति में उज्ज्वल चरित्रवान, प्रख्यातकीति, पुण्य मति, तत्त्वज्ञ और कामविजयी बतलाया है जैसाकि नागकमार चरित की प्रशस्ति के निम्न पद्य मे प्रकट है :
तस्यानुजाश्चारु चरित्र वृत्तिः प्रख्यातकीति भुविपुण्यमूतिः ।
नरेन्द्रसेनो जितवादिसेनो विज्ञानतत्त्वो जितकामसूत्रः ॥४ जिनमेन के सधर्मा होने से मल्लिपंण ने इन्हे भी अपना गुरु माना है।
तच्छिष्यो विभदाग्रणीर्ग णनिधिः श्रीमल्लिषेणाहयः ।
संजातः सकलागमेषु निपुणो वाग्देवतालकृतिः ।। इन नरेन्द्र मेन का समय पी० बी० देसाई ने सन् १०२०ई० बनलाया है। इनके शिष्य नयसेन प्रथम थे। जिनका समय पी० बी० देसाई ने सन् १०५० ई. बतलाया है।
चालूक्य चक्रवति त्रैलोक्यमल्ल सोमेश्वर (सन् १०५३-१०६७) के शासन काल में उसके सन्धि विग्रहाधिकारी बेलदेव की प्रार्थनानुमार सिन्दकचरम ने मलगुन्द के जिन मन्दिर को भूमिदान देने का प्रस्ताव किया है। उसमें मुख्यतः बेलदेव क गुरु नयसेन अोर नयमेन के गुरु नरेन्द्रसेन का वर्णन दिया है ।
नरेन्द्रसेन द्वितीय-विद्यचक्रेश्वर प्रस्तुत नरेन्द्रसेन मूल मघ सेनान्वय चन्द्रकवाट अन्वय के इन्ही नयमेन के शिष्य थे । और व्याकरण शास्त्र के महान पडित थे। चालुक्य चक्रवर्ती भुवनेकमल्ल सोमेश्वर द्वितीय (मन् १०६८) से पूजित गुणचन्द्र देव ने नरेन्द्रसेन मुनि को 'विद्य' बतलाया है मूलगुन्द के मन् १०५३ के शिलालेख में नरेन्द्रसेन को व्याकरण का पडित बतलाते हए लिखा है कि-'चन्द्र, कातत्र, जैनेन्द्र शब्दानुशासन, पाणिनी, इन्द्र आदि व्याकरण ग्रथ नरेन्द्रसेन के लिये एक प्रक्षर के समान है। यथा--
१ Jainism in South India p 139 २ जैन लेख स० भा० ४ १० ११५ मे लक्ष्मेश्वर (मैसूर) का लेख १६५ ३ जैन लेख संग्रह भाग ४ पृ०६० मे मूल गुन्दका मन्० १०५३ का लेख
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
चान्द्र कातंत्र जैनेन्द्रं शब्दानुशासनं पाणिनीय मत्तेन्द्र नरेन्द्रसेन मुनीन्द्रगेऽकाक्षर पेरंगिषु मोगो ।
यह नरेन्द्रसेन व्याकरण शास्त्र के साथ न्याय (दर्शन) शास्त्र और काव्य शास्त्र के भी विद्वान थे। इसी से इनके शिष्य नयसेन ने अपने कन्नड़ ग्रन्थ धर्मामृत में अपने गुरु नरेन्द्रसेन का गुणगान करते हुए शास्त्रज्ञान के समुद्र और त्रैविद्य चक्रेश्वर बतलाया है। यथा
'श्रुतवाराशि नरेन्द्रसेनमुनिपं त्रैविद्यचक्रेश्वरम् ।
नरेन्द्रसेन ने अपने शिष्य नयसेन को व्याकरण और न्याय शास्त्र में निष्णात बनाया था । न्याय व्याकरण और काव्य शास्त्र में निपुण विद्वानों को ' त्रैविद्य' की उपाधि से अलंकृत किया जाता था ।
नयसेन ने अपने धर्माभृत का समाप्तिकाल अक्षर संख्या में प्रकट किया है- "गिरी शिखों मार्ग शशी संख्यय लावगमोदित सुत्तिरे शक काल मुन्नतिय नन्दन वत्सर दोल"। यहां गिरि शब्द का संकेतार्थ सात होने से शक वर्ष १०३७ होने पर भी नन्दन संवत्सर शक वर्ष १०३४ में आने से गिरि शब्द का संकेतार्थ ' ग्रहण किया गया है। इससे धर्मामृत का रचनाकाल शक वर्ष १०३४ सन् १९१२ निश्चित है । इससे नरेन्द्रसेनका समय २५ वर्ष पूर्व सन् १०८७ होना चाहिये । पी० बी० देसाई ने भी इन नरेन्द्रसेन द्वितीय का समय सन् १०८० बतलाया है ।
नरेन्द्रमेन की एकमात्र कृति 'प्रमाण प्रमेय कलिका' है। यह न्याय विषयक एक लघु सुन्दर कृति है । जो न्याय के अभ्यासियों के लिये बहुत उपयोगी है। इसमें प्रमाण और प्रमेय इन दो विषयों पर सरल संक्षिप्त और विशद रूप से चिन्तन किया गया है। भाषा शैली सरल एवं प्रवाह पूर्ण है । रचना में कहीं कहीं मुहावरों, न्याय वाक्यों और विशेष पदों का प्रयोग किया गया है । श्राचार्य नरेन्द्रसेन ने इस ग्रन्थ में प्रभाचन्द्र की पद्धतिका अनुसरण किया है । ग्रन्थ में रचना काल नहीं है, और न उनके शिष्य नयसेन ने ही उनकी कृति का उल्लेख ही किया है । उनकी अन्य कृतियां भी अन्वेषणीय हैं। इनका समय सन् १०६० से सन् १०८७ ई० होना संभव है ।
जिनसेन
जिनसेन मूलसंघ सेनगण के विद्वान थे और कनकसेन द्वितीयके जो जिनागम के वेदी और गुरुतर संसार कानन के उच्छेदक और कर्मेन्धन-दहन में पट्ट शिष्य थे। जिनमेन मुनीन्द्र, मद रहित सकल शिप्यों में प्रधान, काम के विनाशक और संसार समुद्र से तारने के लिये नौका के समान थे। जैसाकि नागकुमार चरित्र प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है
गतमयोऽजनितस्य महामुनेः प्रथितवान जिनसेन मुनीश्वरः । सकल शिष्यवरो हतमन्मथो भवमहोदधितारतरंडकः ॥
जिनका शरीर चारित्र से भूषित था । परिग्रह रहित - निसंग, दुष्ट कामदेव के विनाशक और भव्यरूप कमलों को विकसित करने के लिये सूर्य के समान थे। जैसा कि भैरव पद्मवती कल्प को प्रशस्ति से स्पष्ट हैचारित्र भूषिताङ्गो निःसंगो मथित दुर्जयानंग: । तच्छिष्यो जिनसेनो बभूव भव्याब्जद्यर्मा शुः ५६
कनकसेन द्वितीय का समय ६६० ईस्वी है । और जिनसेन का समय ईस्वी सन् १०२० है ।
नयसेन
नयसेन - मूल संघ - सेनान्वय-चन्द्रकवाट अन्वय के विद्वान थे और त्रैविद्यचक्रवर्ती नरेन्द्र सूरि के शिष्य थे । नरेन्द्रसेन अपने समय के बहुत प्रभावशाली विद्वान हुए हैं। चालुक्य वंशीय भुवनैकमल्ल (सन् १०६६ से १०७६)
१ अनेकान्त वर्ष २३ किरण १ पृ० ४१
२ जनिज्य इन साउथ इंडिया पृ० १३६
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२६५
तक उनकी सेवा करते थे। नरेन्द्रसेन व्याकरण और न्यायशास्त्र के बड़े विद्वान थे। और विविध उपाधियों से अलंकृत थे। ये मल्लिषेण के गुरु जिनसेन के सधर्मा थे इन्होंने नयसेन को पढ़ाकर अच्छा विद्वान बनाया था । इसी से नयसेन ने उनका बड़े आदर के साथ स्मरण किया है । मुलगद के शिलालेख (सन् १०५३) में नरेन्द्र सेन के शिष्य नयसेन को सभी व्याकरण ग्रन्थोंका ज्ञाता विद्वान बतलाया है
निनगर्ने बे नो शाकटाइन, मुनीश ताने शब्दानुशासन दोल पाणिनी, पाणिनीय दोलचन्द्र चान्द्रादोलतज्जिन । द्रन जैनेन्द्र दोला कुमार ने गंड कौमार वोलान्वररेंतेने पोन्नतन्नयसेन पंडितं रोलन्याधिवितोयोल ।।
वचन:-इतु समस्त शब्द शास्त्र पारगन्नय सेन पंडित देवर नयसेन को बनाई हई दो रचनाए उपलब्ध हैं। कर्णाट भाषा का व्याकरण और दूसरा ग्रन्थ धर्मामत । इसमें १४ पाश्वास हैं। इन आश्वामो में कवि ने सम्यग्दर्शन और उसके पाठ अग और पाच व्रतों को कथानों के माध्यम से श्रावका चार का विस्तृत कथन किया है। इस ग्रन्थ की भाषा कनड़ी है, जो बहुत ही सुन्दर, ललित और शुद्ध है। इसी से कवि की गणना कन्नड़ साहित्य के आकाश में देदीप्यमान ग्रन्थकारो में की गई है, और सौभाग्य से प्रायः वे सव कवि जैन है। पम्प, रन्न, पोन्न, साल्व, रत्नाकर, अग्गल और बन्धुवर्गी आदि सब कवि जैनधर्म के प्रेमी और श्रद्धालु थे। कन्नड साहित्य के भण्डार को इन्होंने समृद्ध किया है । इस समद्धि में नयसेन का बहुत बड़ा भाग रहा है। इनके ग्रन्थ में भाषा का सौष्ठव और उपमादि अलंकारों की छटा पद-पदपर देखने को मिलती है। भाषा में प्रवाह और प्रोज है। कथानक की शैली सरल और सजीव तथा रोचक है । यह सजीवता ही लेखक की अपनी विशेषता है।
ग्रन्थ में कर्ता ने धर्मामृत के आदि में अपने से पूर्ववर्ती निम्न विद्वानों का उल्लेख किया है जिनकी संख्या पचपन (५५) है-"अहंदबली, गणधर, प्रार्यमक्ष नागहस्ति, यतिवषभ, धरसेनाचार्य, भूतबली, पूष्पदन्त, कुन्दकुन्दाचार्य, जटासिंहनन्दि, कूचि भट्टारक, स्वामि समन्तभद्र, कवि परमेष्ठी, पूज्यपाद, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, सिद्धसेन श्रुतकीर्ति, प्रभाचन्द्र, बप्पदेव एलाचार्य, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, अजितसेनमुनि, सोमदेव पण्डित,त्रिभुवनदेव, नरेन्द्रसेन, नयसेन, शुभचन्द्र, सिद्धान्तदेव, रामनन्दि' सैद्धान्तिक (माघनन्दी) गुणचन्द्र पण्डित, विद्य नरेन्द्रसेन, वासुपूज्य सिद्धान्ती, पद्मनन्दी सैद्धान्तिक, मेघचन्द्र सैद्धान्तिक, माघनन्दी सैद्धान्तिक, प्रभाचन्द्र सैद्धान्तिक, अर्हनन्दी भट्टारक, श्रुतकीति, रामसिंह, वासुपूज्य भट्टारक, चारुसेन, कुक्कुटासन मलधारि, मेघचन्द्र विद्य रामसेनवती. कनकनन्दी मुनीन्द्र, प्रकलंक, असगकवि, पोन्नकवि, पम्पकवि, गजांकुशकवि,गुणवर्मा, रन्न कवि, ।
कवि नयसेन ने साधारण कथा को इतने सुन्दर ढंग से चित्रित किया है कि वह पढ़ते समय पाठक के मानस पर अपना प्रभाव अंकित किये बिना नहीं रहती। यही कारण है कि पश्चाद्वर्ती कवियों ने इसे सुकवि निकर पिक माकन्द, सुकवि जनमनः सरोराजहंस' आदि विशेषणों से भूषित किया है । ग्रन्थकर्ता ने अपने को 'मूलगुन्द' का निवासी बतलाया है । जो एक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। मूलगुन्द धारवाड जिले की गदग तहसील से १२ मील दक्षिण पश्चिम की ओर है। यहीं के जैन मन्दिर में बैठकर कवि ने कनड़ी भाषा में धर्मामृत की रचना की है। जो २४ अधिकारों में विभक्त है। यहाँ इस समय चार जैन मन्दिर हैं। यहा के मन्दिर में रहते हए मल्लिषेणाचार्य ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। और मैं जगत पूज्य-सुकवि-निकर-पिकमाकन्द हो गया है लिखा है। कवि ने ग्रंथ की रचना का समय अक्षरों में दिया है। उसमें 'गिरी' शब्द का संकेतार्थ सात होते हुए भी 'नन्दन संवत्सर शक वर्ष १०३४ में
१ मूल नथ के टिप्पण में रामनन्दि का नाम माघनन्दि दिया है। २ मूल गुददोलिदु महोज्ज्वल धर्मामृत मनतिमिद भव्या ।
बलि गिरि पदं धरित्री-तल पूज्यं सुकवि निकर पिकमाकन्दं ॥ -धर्मामृत १४-१६८ ३ 'गिरि शिखी वायु मार्गशशी संन्य योला वगमोदिवति सुत्तिरे शक काल मुन्नतिय नन्दन वत्सर दोल"
-धर्मामृत प्रशस्ति
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
आने से शक वर्ष १०३४ ग्रहण किया गया है । अर्थात् धर्मामृत की रचना ई० सन् १९१२ के लग भग हुई है। इस ग्रन्थ की हिन्दीटीका प्राचार्य देशभूषण ने की है ग्रंथ मूल और हिन्दी टीका सहित दो खण्डी में प्रकाशित हो चुका है । नयसेनके लिये शक संवत् ६७५ के विजय संवत्सर में सन् १०५३ में वेलदेव की प्रेरणा से सिन्दकुल के सरदार कचसर ने कुछ भूमि दान में दी थी। इससे ज्ञात होता है कि नयमेन दीर्घ जीवी थे। उसके बाद वे अपने जीवन से भूमंडल को कितने वर्ष और अलंकृत करते रहे, यह अन्वेषणीय है ।
मल्लिषेरण
मल्लिषेण - अजितसेन की शिष्य परम्परा में हुए हैं। अजितसेन के शिष्य कनकसेन' और कनकसेन के शिप्य जिनसेन और जिनसेन के शिष्य मल्लिपेण थे। इन्होंने जिनमेन के अनुज या सतीर्थ नरेन्द्रसेन का भी गुरु रूप से उल्लेख किया है वादिराज ने भी न्यायविनिश्चय को प्रशस्ति में कनकसेन और नरेन्द्रमेन का स्मरण किया है उ इससे वादिराज भी मल्लिषेण के समकालीन जान पड़ते हैं । और उनके द्वारा स्मृत कनकमेन और नरेन्द्रमेन भी वही ज्ञात होते हैं ।
मल्लिपेण वादिराज के समान मठपति ज्ञात होते हैं। क्योंकि इनके रचित मंत्र-तंत्र विषयक ग्रंथों में स्तम्भन, मारण, मोहन, वशीकरण और अंगनाकर्षण आदि के प्रयोग पाये जाते हैं। ये उभय भाषा कवि चक्रवर्ती (प्राकृत प्रौर संस्कृत भाषा के विद्वान ) कविशेखर, गारुड़ मत्रवादवेदी आदि पदवियों से अलंकृत थे । उन्होंने अपने को सकलागम में निपुण, लक्षणवेदी, और तर्कवेदी तथा मंत्रवाद में कुशल सूचित किया हे' । वे गृहस्थ शिष्यों के कल्याण के लिये मंत्र तंत्र और रोगोपचार की प्रवृत्ति भी करते थे। वे उच्च श्रेणी के कवि थे । भैरव पद्मावती कल्प के अनुसार उनके सामने संस्कृत प्राकृत का कोई कवि अपनी कविता का अभिमान नहीं कर सकता था । यद्यपि वे विविध विषयों के विद्वान होते हुए भी मंत्रवादी के रूप में ही उनकी विशेष ख्याति थी ।
यह विक्रम की ११ वीं शताब्दी के अन्त और १२ वीं शताब्दी के प्रारम्भ के विद्वान थे। क्योंकि इन्होंने अपना 'महापुराण' शक सं० ६६६ सन् १०४७ ( वि० सं० १९०४) में ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन मूलगुन्द नामक नगर के जैन मन्दिर में रह कर पूरा किया था । यह मूल गुन्द नगर धारवाड जिले की गदग तहसील में गदग
१ जैन लेख सं० भाग चार पृ० ६०
१ यह कनकमेन उन अजितमेनाचार्य के शिष्य थे जो गंगवंशीय नरेश राचमल्ल और उनके मंत्री एवं सेनापति - मुण्ड राय के गुरु थे। गोम्मटमार के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने उनका 'भुवनगुरु' नाम से उल्लेख किया है।
२ तस्यानुजश्चारु चरित्र वृत्तिः प्रख्यात कीर्तिर्भुवि पुण्यमूर्तिः । नरेन्द्रसनो जितवादिमेनां विज्ञाततत्त्वो जिनकामसूत्रः ॥
३ न्याय विनिश्चय प्रशस्ति श्लोक २ । जैन ग्रन्थ प्रशस्ति मं० भा० १५० २
४ 'प्राकृत मकुतोभय कवित्वधृता कविचक्रवर्तिना'
५ ' गारुड मंत्रवाद सकलागम लक्षरण तर्क वेदिना ।' ६ " भाषाद्वय कवितायां कवयो दर्प वहन्ति तावदिह । ना लोकयन्ति यावत्कविशेखर मल्लिषेण मुनिम् ॥" भैरव पद्मावती कल्प
७ तीर्थ श्री मूलगुन्द नाम्नि नगरे श्री जैनधर्मालये स्थित्वा श्री कविचक्रवर्तियतिपः श्री मल्लिषेरणाह्वयः । संक्षेपात्प्रथमानुयोग कथनं व्याख्यान्वितं शृण्वतो । भव्यानां दुरितापहं रचितवान्निःशेष विद्याम्बुधिः ॥ १ वर्षक गिताहीने सहस्र शक भूभुजः । सर्व जिद्वत्सरे ज्येष्ठे सशुक्ले पंचमी दिने ॥ २ ॥
- नागकुमार चरित्र प्र०
- महापुराण प्रशस्ति
- महापुराण प्रशस्ति ४
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२९७ से १२ मील दक्षिण-पश्चिम की ओर है। यहां के जैन मन्दिर में रहते हुए इन्होंने महापुराण की रचना की थी। उसका कवि ने तीर्थरूप में उल्लेख किया है। इस समय भी वहां चार जैन मन्दिर हैं। इन मन्दिरों में शक सं० ८२४, ८२५, ६७५, ११६७, १२७५ और १५६७ के शिलालेख अंकित हैं।
मूलगुण्ड के एक शिलालेख में प्राचार्य द्वारा सेनवंश के कनकसेन मुनिको नगर के व्यापारियों की सम्मति से एक हजार पान के वृक्षों का एक खेत मन्दिरों की सेवार्थ देने का उल्लेख है ।
एक मन्दिर के पीछे पहाड़ी चट्टान पर २५ फुट ऊँची एक जैन मूर्ति उत्कीर्ण की हुई है । संभव है मल्लिषेण मठ भी इसी स्थान पर रहा हो। मल्लिपेण के एक शिष्य इन्द्रसेन का समय सन् १०६४ है । मल्लिषेण का समय उससे एक पीढ़ी पूर्व है
__ आपकी निम्नलिखित छह रचनाएं उपलब्ध हैं, जिनका परिचय निम्न प्रकार हैं-महापुराण, नागकुमार, काव्य, भैरव पद्मावती कल्प, सरस्वती मंत्र कल्प, ज्वालिनी कल्प और काम चण्डाली कल्प।
१. महापुराण-यह संस्कृत के दो हजार श्लोकों का ग्रन्थ है। इसमें त्रेसठ शलाका पुरुषों को संक्षिप्त कथा दी है । रचना सुन्दर और प्रसादगुण से युक्त है। इस ग्रन्थ की एक प्रति कनड़ी लिपि में कोल्हापुर के लक्ष्मीसेन भटटारक के मठ में मौजद है। यह ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है।
२. नागकुमार काव्य-यह पांच सौ का छोटा-सा खण्ड काव्य है, जो ५०७ श्लोकों में पूर्ण हया है। इसके प्रारम्भ में लिखा है, कि जयदेवादि कवियों ने जो गद्य-पद्यमय कथा लिखी है, वह मन्दबुद्धियों के लिये विषम है । मैं मल्लिषेण विद्वज्जनों के मन को हरण करने वाली उसी कथा को प्रसिद्ध संस्कृत वाक्यों में पद्यबद्ध रचना करता हूं'५ । यह काव्य बहुत ही सरल और सुन्दर है ।
३.भैरवपद्मावती कल्प-यह चार सौ श्लोकों का मंत्र शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है इसमें दश अधिकार हैं। यह बंधूपेण की संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित हो चुका है।
४. सरस्वती पल्प-यह मंत्र शास्त्र का छोटा-सा ग्रन्थ है। इसके पद्यों की संख्या ७५ है यह भैरव पद्मावती कल्प के साथ प्रकाशित हो चुका है।
५. ज्वालामालिनी कल्प-इसकी सं० १५६२ की लिखी हुई एक १४ पत्रात्मक प्रति स्व० सेट माणिकचन्द्र जी के ग्रन्थ भण्डार में मौजूद है।
कामचण्डाली कल्प- इसकी प्रति से०प० दि. जैन सरस्वती भवन ब्यावर में मौजद है।
७. सज्जन चित्तवल्लभ-नाम का एक २५ पद्यात्मक संस्कृत ग्रन्थ है, जो हिन्दी पद्यानुवाद और हिन्दी टीका के साथ प्रकाशित हो चुका है, वह इन्हीं मल्लिपेण की रचना है या अन्य की है। यह विचारणीय है।
श्री कुमार कवि श्री कुमार कवि ने अपना कोई परिचय नहीं दिया। और न अपने गुरु का ही नामोल्लेख किया है। कवि की एक मात्र कृति 'पात्म प्रबोध' है । जो अपने विषय का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । और जिसे कवि ने अपने प्रात्मप्रबोधनार्थ रचा है, जैसा कि ग्रंथ के अन्तिम वाक्यों से प्रकट है :
"श्रीमत्कुमार कविनात्मविबोधनार्थमात्मप्रबोध इति शास्त्रमिदं व्यधायि"
१ देखो, बम्बई प्रान्त के प्राचीन जैन स्मारक पृ० १२० २ देखो, जन शिलालेख सं० भाग २ पृ० १५६ ३ देखो, बम्बई प्रान्त के प्राचीन जैन स्मारक पृ० १२०
४ "अंतु माडिसी श्रीमद्दमिलसंघवन वसंत समयहं सेनगण, मगणं नायकरूं मालनूरान्वय शिरशेखरमेनिसिद श्रीमन मल्लिषेण भट्टारकर प्रियाग्रशिष्यरूं तन्नन्वयद गुरुगलु मेनिसिद श्री मदीन्द्रसेन भट्टारकर्ग-विनयर्दिकर कमललंगलं मुगिदु ।
-देखो.सन् १०६४ कालेख
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कवि ने लिखा है कि यह मेरी प्रथम रचना है जैसाकि 'आत्म प्रबोधमधुना प्रथमं करोमि' वाक्यों से स्पष्ट है।
- श्री कुमार नामके दो विद्वानों का उल्लेख मिलता है । एक श्रीकुमार वे हैं जिनका उल्लेख नयनन्दि (११००)ने सकल विधि विधान काव्य के निम्न वाक्यों में किया है-"श्रीकूमार सरसइ कूमरु, कित्ति विलासिणि सेहरु।" और जिन्हें सरस्वती कुमार भी कहते थे । दूसरे श्री कुमार कवि वे हैं, जो कवि हस्ति मल्ल (१४ वीं सदी) के चार ज्येष्ठ भ्राताओं में से एक थे। इनमें नयनन्दि के समकालीन श्री कुमार प्रात्मप्रबोधके कर्ता जान पड़ते हैं।
इस ग्रंथकी दो हस्तलिखित प्रतियां १६ वीं शताब्दी की उपलब्ध हैं। सं०१५७२ की लिखी हई एक प्रति १४ पत्रात्मक जन मन्दिर लश्कर जयपुरक भडार में और दूसरा कामा में दोवान जी के मन्दिर के भडार में सं० १५४७ की लिखी हुई उपलब्ध है। प्रन्थ परिचय
प्रस्तुत ग्रंथमें संस्कृत के १४६ श्लोक हैं। ग्रंथ का विषय उसके नाम से स्पष्ट है। कवि ने आत्मा का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि संसार के प्रायः सभी जीव आत्मविमुख हैं, आत्मज्ञ पुरुष तो विरले होते हैं। जिन्हें
का बांध नहीं है उन्हें दूसरों को प्रात्मबोध कराने का अधिकार नहीं है, जिनम तरकर नदी को पार करने की क्षमता नहीं है, वह दूसरों को तरने का उपदेश कैसे दे सकता है ? उसका उपदेश तो वंचक ही समझा जावेगा।
प्रात्मप्रबोध विरहादविशुद्धबुद्धेरन्यप्रबोधनविधि प्रतिकोऽधिकारः ।
सामर्थ्यमस्ति तरितं सरितो न यस्य, तस्य प्रतारणपरा परतारणोक्तिः॥४ यदि दूसरों को प्रतिबोधन करने की इच्छा है, तो पहले स्वयं अपनी आत्मा को प्रबुद्ध कर। क्योंकि चाक्षष मनुष्य ही अन्धे को सुरक्षित मार्ग में ले जा सकता है, अन्धे को अन्धा नहीं। कवि यह भी कहता है कि जिनका मानस मिथ्यात्व से मढ है, जो मोह निद्रा में सदा सुप्त हैं, उनके लिये भी मेरा यह श्रम नहीं है; किन्त जिनकी मोह निद्रा शीघ्र नष्ट होने वाली है वही प्रात्मप्रबोध के अधिकारी हैं। उन्हीं के लिये यह ग्रन्थ रचा जाता है । यथा
मिथ्यात्व मूढ मनसः सततं सुषप्ता, ये जंतवो जगति तान्प्रति न श्र मो नः ।
येषां यियासु रचिरादिव मोहनिद्रा, ते योग्यतां दधति निश्चितमात्मबोधे ॥६ जिसके रहते हए शरीर पदार्थों के ग्रहण करने दान देने, आने-जाने सुनने-सुनाने, स्मरण करने दुःखादि के अनुभव करने में प्रवृत्त होता है, वही प्रात्मा है, आत्मा चेतन है, ज्ञाता दृष्टा है, और स्पर्शनादि इन्द्रियों के अगोचर है क्योंकि वह अतीन्द्रिय है अतएव उनसे प्रात्मा का ज्ञान नहीं होता। प्रात्मा नित्य है, अविनाशी गुणों का पिण्ड है, परिणमनशील है विद्वान लोगों द्वारा जाना मोर अनुभव किया जाता है, ज्ञान दर्शन स्वरूप उपयोगमय है, शरीर प्रमाण है, स्वपर का ज्ञाता है, कर्ता है, कम फल का भोक्ता मोर अनंत सुखों का भंडार है । उस आत्मा को सिद्ध करने वाले तीन प्रमाण हैं। प्रत्यक्ष पागम और मनुमान । प्रात्मा इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं है। क्योंकि वह प्रतीन्द्रिय है हां सकल प्रत्यक्ष द्वारा प्रात्मा जाना जा सकता है। या प्राप्त वचन रूप प्रागम से, और अनुमान से जाना जाता है। शरीर में जब तक पात्मा रहती है शरीर उस समय तक काम करता है हेयोपादेय कार्यों में प्रवृत्त होता है, सुख दुःखादि की अनुभूति करता है, किन्तु जब शरीर से प्रात्मा निकल जाता है तब वह निश्चेष्ट पड़ा रह जाता है। अत: यह अनुमान शान भी उसके जानने में साधक है। भगवान जिनेन्द्र ने आत्मा को ज्ञाता दृष्टा बतलाया है। प्रात्मा के चैतन्य स्वरूप को छोड़कर अन्य चेतन प्रचेतन पदार्थ प्रात्मा के नहीं है वे सब प्रात्मा मे भिन्न हैं।
१ देखो, राजस्थान जैन ग्रथ भंडार सूची भाग ५ पृ० १८३ २ नित्यो निरत्ययगुणः परिणामधाम, बुद्धो बुध गवबोधमयोपयोगः। ___ आत्मा वपुः प्रमितिरात्म परप्रमाता कर्ता स्वतोऽनुभविताऽय मनंतसौख्यः ॥६ ३ त्रेधा प्रमाण मिह साधकमस्ति यस्मात् प्रत्यक्ष माप्तवचनं च तथानमानं ॥१३
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६
ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान आचार्य
विद्या के दो प्रकार है अविद्या और अध्यात्म विद्या अविद्या संसार का कारण है, दु.खोत्पादिका है, मिथ्यादर्शन अज्ञान और असंयम से युक्त है। राग-द्वेष, ईर्षा, ग्रहकार ममकार सुख दुख प्रादि उसी अविद्या का परिवार है। अविद्या हेय है और विद्या उपादेय है । जो विद्या सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र मे भूपित है वह अध्यात्म विद्या है। उसके दो प्रकार हैं, स्वाध्याय ओर ध्यान । अपने आत्मस्वरूप का चिन्तवन करना अथवा ग्रात्म सम्बन्धि ज्ञान का नाम स्वाध्याय है । तथा इन्द्रिय व्यापार से रहित होकर केवल मन से आत्मा के स्वरूप का चिन्तवन करना अध्यात्म विद्या है ।
स्वाध्याय - मोक्षमार्ग में उपयुक्त श्रागमज्ञान का अभ्यास करना और आगम में विहित प्रात्म स्वरूप का बार-बार चिन्नवन करना स्वाध्याय है। इससे आत्मा विशिष्ट ज्ञानी होता है, और उसकी दृष्टि जैन वचन में ही रमती है, क्योंकि वे वचन वीतराग सर्वज्ञ रूप हिमाचल से विनिर्गत है, कर्म क्षय में कारण हैं। अतएव जो साधु विधिपूर्वक आगमका अभ्यासी है उसके मन-वचन-काय रूप गुप्ति त्रयका पालन होता है, माया मिथ्या निदान रूप शल्यत्रय का विनाश होता है, और समितियों का भने प्रकार पालन होता है । स्वाध्याय मे ग्रात्म-बोध होता है । और उसी से जगत्रय का बोध कराने वाले केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है । जब साधु का मन स्वाध्याय से थक जाता है, और आगमाभ्यास में मन नहीं रमता तब उसे ग्रात्म ध्यान में प्रवृत्त होना चाहिये । एकाग्र चिन्ता निरोध का नाम ध्यान हैं। ध्यान कर्म निर्जरा का कारण है । उसमे आत्मशक्ति में स्कृति उत्पन्न होती है। जब आत्मा अन्तर्बाह्य जल्पों से रहित होकर वस्तु स्वरूप के चिन्तन में निष्ठ होता है, तब वह अपने स्वकीय वैभव का प्राप्त करता है, उसमें उपसर्ग भार परियहाँ के सहने की सामर्थ्य अथवा जाग्रति होती है । कपायों की कल्पता विनष्ट हो जाती है वे क्षीण शक्ति हो जाती है उनका रस शुष्क हो जाता है । और वे अपने कार्य करने में असमर्थ हो जाती है । आत्म परिणति निर्मल होती है, आन्तरिक विशुद्धि बढ़ती है। ध्यान और समाधि में आत्म-शक्ति का सचय होता है, और वह कर्म के संक्षय में कारण होती है । अतएव जो साधु श्रार्तराद्रादि कुध्यानों का परित्याग कर धर्म
र शुक्ल ध्यान का प्राचरण करता है। उस समय उसका धर्म ध्यान ही शुक्ल ध्यान रूप परिणमन करने लगता है । और आत्मा अपने अनन्त गुणों के तेज से कर्मों के सुदृढ़ बन्धनों को तड़ातड़ तोड़ता हुआ स्वात्मोपलब्धि का पात्र बन जाता है । इस तरह यह ग्रंथ अध्यात्म विषय का महत्वपूर्ण है ।
समय
और न अपने गुरु का नामोल्लेख ही किया है। अतएव ऊपर श्रीकुमार नाम के दो विद्वानों का उल्लेख किया गया कर्ता हैं, क्योंकि स० १३०० में समाप्त होने वाली अनगार टीका करते हुए निम्न पद्य उद्धृत किया गया है, जो आत्म
कवि श्रीकुमार ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया। यह निश्चय करना बड़ा कठिन है कि वे कब हुए हैं। है । उनमें से प्रथम श्रीकुमार कवि ही इस ग्रन्थ के धर्मामृत की टीका के हवे अध्याय के ४३वं श्लोक की प्रबोध में ५१ नम्बर पर पाया जाता है: मनोबोधाधीनं विनय विनियुक्तं निजवपु-वंच: पाठायत्तं करणगण माधाय नियतम् । दधानः स्वाध्यायं कृत परिणति जैन वचने, करोत्यात्मा कर्मक्षयमति समाध्यन्तरमिदं ॥ ५१ ॥
इसमें बतलाया है कि – जिस स्वाध्याय में मन ज्ञान के ग्रहण-धारण में लीन रहता है, शरीर विनय संयुक्त रहता है, वचन पाठ के उच्चारण में लगा रहता है, और इन्द्रिय समूह नियंत्रित रहता है इस प्रकार सारी परिणति जिसमें जिनवाणी की ओर रहती है ऐसे स्वाध्याय को धारण करने वाला निश्चय ही कर्मो का क्षय करता है, अतएव स्वाध्याय भी समाधि का रूपान्तर है ।
इससे स्पष्ट है कि श्रीकुमार कवि स० १३०० से पूर्ववर्ती हैं, वे वाद के विद्वान नहीं हो सकते । श्रर नयनन्दि का समय सं० ११०० है, उन्होंने अपने समकालीन विद्वानों में श्री कुमार कवि का उल्लेख करते हुए उन्हें सरस्वती कुमार : भी बतलाया है। अतः श्री कुमार ११वीं शताब्दी के विद्वान हैं। वे उस समय सरस्वती कुमार
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
३००
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
नाम से ख्यात थे। यह उनकी प्रथम रचना है। उनकी अन्य रचनाओं का अन्वेषण होना आवश्यक है ।
अङ्कदेव भट्टारक प्रकदेव भट्टारक-देवगण और पाषाणान्वय के विद्वान् थे । इनके शिष्य महीदेव भट्टारक थे । इन महीदेव के गृहस्थ शिष्य महेन्द्र वोललुक ने मेलस चट्टान पर 'निरवद्य जिनालय' बनवाया था, और सन् १०६० ईस्वी के लगभग खचर कन्दर्पसेन मारकी कृपा को प्राप्त कर निरवद्य को 'मान्य' प्राप्त हया था। जिसे उसने जक्कि मान्य का नाम देकर उक्त जिनालय को दे दिया । और एडे मले हजार ने अपने धान्य के खेतों की फसल में से कुछ धान्य या चावल उक्त जिनालय को हमेशा के लिए दिया। और भी जिन लोगों ने दान दिया उनके नाम भी लेख में दिए गये हैं। इससे अंकदेव का समय ईसा की ११ वीं सदी है। जैन लेख सं० भा०२ पु०१६३ ।
गुणकीर्ति सिद्धान्त देव गुणकीति सिद्धान्तदेव अनन्तवीर्य के शिष्य थे। यह यापनीय संघ और सूरस्थ गण और चित्रकूट अन्वय के विद्वान थे। इनका समय ईसा की ११वीं शताब्दी है।
-(जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० १०५)
देवकोति पण्डित पण्डित देव कीर्ति भी अनन्तवीर्य के शिष्य थे। यह भी यापनीय संघ सूरस्थगण और चित्रकूट अन्वय के विद्वान् थे । इनका समय भी ईसा की ११वीं शताब्दी है । संभवतः ये दोनों सधर्मा हों।
- (जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० १०५)
गोवर्द्धन देव गोवर्द्धन देव यापनीय संघ कुमुदगण के ज्येष्ठ धर्मगुरु थे । इन्हीं गोवर्द्धन देव को सम्यक्त्वरत्नाकर चैत्यालय के लिए दिये गए दान का उल्लेख है। गोवर्द्धन के साथ ही अनन्तवीर्य का उल्लेख है । पर यह स्पष्ट नहीं है कि इनका गोवर्द्धन के साथ क्या सम्बन्ध था।
-जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ०१४२
दामनन्दि दामनन्दि कुमार कीति के शिष्य थे। ये दामनन्दि वे हो सकते हैं जिनका उल्लेख जैन शिलालेख संग्रह भाग ११० ५५ में चतुर्मखदेव के शिष्यों में है। धाराधिपति भोजराज की सभा के रत्न प्राचार्य प्रभाचन्द्र के ये सधर्मा थे और इन्होंने महावादि विष्णुभट्ट को हराया था । यह दामनन्दी प्रभाचन्द्राचार्य के सधर्मा गुरुभाई जान पड़ते हैं।
धाराधिप भोज का राज्यकाल सन् १०१८ से १०५३ माना जाता है। जबकि दामनन्दि का सन् १०४५ के शिलालेख में उल्लेख है। इस कारण वे भोज के राज्यकाल में रहने वाले प्रभाचन्द्र के सधर्मा दामनन्दि से अभिन्न हो सकते हैं। अत: दामनन्दि के गरु कुमारकीति के सहाध्यापक अनन्त वीर्य की स्थिति सन् १०४५ तक पहुंच जाती है । संभवतः यह दामनन्दी भट्टवोसरि के गुरु हों।
दामनन्दि भट्टारक दामनन्दि देशीगण पूस्तक गच्छ के विद्वान श्रीधरदेव के प्रशिष्य और एलाचार्य के शिष्य थे। चिकक हनसोगे का यह कन्नड़ लेख यद्यपि काल निर्देश से रहित है। संभवतः यह लेख सन् ११०० ईस्वी का है।
जैन लेख सं० भा० २ पृ० ३५८ लेख नं० २४१ ।
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
पारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३०१
दामनन्दी पनसोगे निवासी मुनियों में मनि के शिष्य दामनन्दि थे । यह लेख शक सं० १०२१ सन १०६६ का है, इनके शिष्य श्रीधराचार्य थे। इनका समय ईमा को ११वी सदी है। --जैन लेख स० भा०२ १०३५६
भूपाल कवि कवि ने अपने नामोल्लेख के सिवाय अपना कोई परिचय प्रस्तुत कवि भूपाल नही किया। और न उन्होंने यही सूचित किया कि यह जिन चतुर्विशतिका' स्तोत्र कहाँ और कब बनाया है ?
प्रस्तुत स्तोत्र में २६ पद्य है। जिनमें जिन दर्शन की महत्ता ख्यापित करते हुए जिन प्रतिमादर्शन को लौकिक और पारलौकिक अभ्युदयों का कारण बतलाया है :
श्री लीला यतनं महीकुलगृहं कीति प्रमोदास्पदं, वाग्देवी रति केतनं जयरमा क्रीडानिधानं महत । स स्यात्सर्व महोत्सवैक भवनं यः प्राथितार्थ प्रदं,
प्रातः पश्यति कल्पपादपदलच्छायं जिनांघ्रिद्वयम् ।।१।। जो मनुष्य प्रतिदिन प्रातःकाल के समय जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करता है, वह बहुत ही सम्पत्तिशाली होता है । पृथ्वी उसके वश में रहती है, उसकी कीर्ति सब ओर फैल जाती है, वह सदा प्रसन्न रहता है। उसे अनेक विद्याएँ प्राप्त हो जाती हैं, युद्ध में उसको विजय होती है, अधिक क्या उसे सब उत्सव प्राप्त होते हैं।
स्वामिन्नद्य विनिर्गतोऽस्मि जननी गर्भान्ध कपोदरा-- दद्योद्घाटित दृष्टि रश्मि फलवज्जन्मास्मि चाद्य स्फुटम् । त्बमद्राक्षमहं यदक्षयपदानन्दाय लोकत्रयी
नेन्नेन्दीवरकाननेन्दु ममतस्यन्दि प्रभाचन्द्रिकम् ॥३ हे भगवन् ! आज आपके दर्शन करने से मैं कृतार्थ हो गया और मैं ऐसा समझता हूं कि आज ही मेरे प्राध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ हो रहा है। मेरे ज्ञान नेत्र खुल गए है और में यह अनुभव कर रहा हूं कि विषय कषाय और अज्ञान के कारण अब तक मेरी शक्ति कुठित हो रही थी। मिथ्यात्व ने मेरी ज्ञान दृष्टि को अवरुद्ध कर दिया था। पर आज मेरा जन्म सफल हुआ है। जो व्यक्ति मंगलमय वस्तु का दर्शन करना चाहता है उसके लिये जिनदर्शन से बढ़कर अन्य कोई मांगलिक वस्तु नही हो सकती। प्रातःकाल मंगलमय वस्तु का अवलोकन करने से मन प्रसन्न रहता है, और उसमें कार्य करने को क्षमता बढ़ती है । क्योंकि देव दर्शन समस्त पापों का नाश करने वाला, स्वर्ग सूख को देने वाला और मोक्ष सुख की प्राप्ति में सहायक है। ध्यानस्थ वीतरागी की प्रतिमा के अवलोकन मात्रसे काम क्रोधादि विकार और हिंसादि पाप नष्ट हो जाते हैं, और प्रात्मोत्थान की प्रेरणा मिलती है। जिस प्रकार सछिद्र हाथ में रक्खा गया जल शनैः शनैः हाथ मे गिर जाता है, उसी प्रकार वीतराग प्रभु के दर्शन मात्र से राग-द्वेष-मोह की परिणति क्षीण होने लगती है। प्राचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि में सम्यक्त्व की उत्पत्ति के बाह्य साधनों में जिन प्रतिमादर्शन की गणना की है । भूपाल कवि ने वीतराग के मुख को त्रलोक्य मगलानकेतन बतलाया है।
इस स्तवन पर सबसे पुरानी टीका पं० आशाधर की है जिसे उन्होंने सागरचन्द के शिष्य विनय चन्द्र मुनि
१ दर्शन देवदेवस्य दर्शनं पापनाशनम् । दर्शन स्वर्गसोपान दर्शन मोक्ष साधनम् ।।
दर्शनेन जिनेन्द्राणां साधूनां वन्दनेन च । न चिरं तिष्ठते पाप छिद्रहस्ते यथोदकम् ।। दर्शन पाठ २ सर्वार्थ सिद्धि १-७, पृ० १२ शोलापुर एडीसन ३ अन्येन कि तदिह नाथ तवैव वक्त्रं त्रैलोक्य मङ्गलनिकेतनमीक्षणीयम् ॥१६
-जिन चतुर्विशतिका
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
के अनुरोध से बनाया था।' टीका सुन्दर है और पद्यों के अर्थ को प्रकट करने वाली है । भ. श्रीचन्द्र और नागचन्द्र मूरि को भी इस पर टीका बतलाई जाती है । पर वे इतनी विशद नही हैं, केवल शब्दार्थ प्रकट करने वाली है। प० प्राशाधर जी की इस टीका में स्पष्ट है कि भूपाल कवि को यह रचना उनसे पूर्व हो चुका था।
चतुर्विशति का दूसरा पद्य प्राचार्य गुणभद्र के उत्तरपुराण के पुष्पदन्त चरित्र में दिये हुए पद्य के साथ बहत साम्य रखता है उसमे ऐसा प्रतीत होता है कि भूपाल कवि ने उसे उत्तर पुराण से लिया हो। दोनों के पद्य नीचे दिये जाते है :
शान्तं वपुः श्रवरणहारिवचश्चरित्रं सर्वोपकारि तब देव ततो भवन्तम् । संसारमारवमहास्थल रुन्द्रसान्द्र च्छायामहीरुहमिमे सुविधि श्रयामः ॥६१
उत्तर पु० ५५ पृ०७० शान्तं वपुः श्रवणहारिवचश्चरित्र सर्वोपकारि तव देव ततः श्रु तज्ञाः। ससारमारवमहास्थल रुन्द्रसान्द्रच्छायामहीरुह भवन्तमुपाश्रयन्ते ।।
-जिन चतुर्विशति का २ इस पद्य में द्वितीय और चतुर्थ चरण बदले हुए हैं। वाकी पद्य ज्यों का त्यों मिलता है इससे स्पष्ट है कि भपाल कवि के सामने उत्तर पुराण रहा है। सुलोचना चरित्र के कर्ता कवि देवमेन ने अपने से पूर्ववर्ती क उल्लेख करते हुए पुप्पदन्त के नामोल्लेख के साथ भूपाल का भी नाम दिया है। पुप्फयंत भूपाल-पहाणहि । इससे यह ज्ञात होता है कि भूपाल कवि : वों शताब्दी के वाद और १३ वी शताब्दी से पूर्व हुए है । सम्भव है कवि ११ वी या १२ वी शताब्दी के पूवाधं के विद्वान हो । इम सम्बन्ध में और विशेष अनुसन्धान की आवश्यकता है।
दामराज कवि दामराज सार्वभौम त्रिभवनमल्ल नरेश (राज्यकाल ई० सन् १०७६ मे ११२६) का गंगपेरमानडीदेव नामक सामन्नराजा था। और उमका नोक्कय हेग्गडे नाम का मन्त्री था। पह ने यह कवि इसी मन्त्री का प्राथित था। परंत शिवमोग्ग तहसील में जो दशवां शिलालेख है, उसमें इसने अपने को 'सन्धि वैग्रहिक' मन्त्री लिखा है। इससे मालम होता है कि पीळ मे इसने उक्त पद प्राप्त कर लिया होगा। गगपेरमानडी देव ने बहत मे जिन मन्दिरों को ग्रामादि दान किये थे, और उनके शासन कवि दामराज मे लिखवाये थे। उक्त शासन लेखों के पद्यों से यह बात निःसंकोच कही जा सकती है कि वह उच्च श्रेणी का कवि था। यह ज्ञात नहीं हुमा कि इसने किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की है या नहीं। इसका समय सन् १०.५ के लगभग जान पड़ता है।
कन्ति कन्ति–यह स्त्री कवि थी। इसकी कविता बहुत ही मनोहारिणी होनी थी। देवचन्द कवि के एक लेख से मालूम होता है कि यह छन्द, अलकार, काव्य, कोश व्याकरणादि नाना ग्रन्थों में कुशल थी बाहूबल नामक कवि ने अपने नागकमार चरित के एक पद्य में इसकी बहुत प्रशमा की है और इसे 'अभिनव वाग्देवो' विशेपण दिया है। द्वार समद्र के बल्लाल राजा विप्ण वर्धन की सभा में अभिनवपप और कन्ति से विवाद हुमा था। अभिनवपप को दी हुई समस्या
की थी। अभिनवाप चाहता था कि कन्नि मेरी प्रशसा करे-उसको की हुई प्रशसा को वह अपने गोरव का कारण समझता था। परन्तु वह पप की प्रगसा नही करती थी। कहा जाता है कि अन्त में कन्ति ने पप को कविता की प्रशंसा करके उसे सन्तुष्ट कर दिया था।
१ 'उपशमइव मूर्ति पूनकीनि म तम्मान जयति विनयचन्द्रः सच्चकोरेक चन्द्रः । जगदमृतमगर्भा: शास्त्र मन्दर्भ गर्भाः शुचि चरित महिप्णीर्यस्य धिन्वन्ति वाचः ।"
-जिन चतुर्विशति का टीका प्रशस्ति
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
तारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३०३
प्राचार्य शुभचंद्र शुभचन्द्र नामक के अनेक विद्वान् हो गए है । प्रस्तुत शुभचन्द्र ने अपनी कोई गुरु परम्परा नही दी, और न ग्रन्थ का रचनाकाल ही दिया है। ग्रन्थ में समन्तभद्र, देवनन्दी (पूज्यपाद) अकलंकदेव ओर जिनसेनाचाय का स्मरण किया है। जिनमेन की स्तुति करते हुए उनके वचनों को विद्य वन्दित' बतलाया है।' विद्य एक उपाधि है जो सिद्धान्त चक्रवर्ती के समान सिद्धान्त शास्त्र के ज्ञाता विद्वानों को दी जाती थी। सिद्धान्त (पागम) व्याकरण और न्याय शास्त्र के ज्ञाता विद्वानों को विद्य उपाधि मे विभूपित किया जाता रहा है। शभचन्द्र ने जिनसेन के बाद अन्य किसी बाद के विद्वान का स्मरण नही किया । ग्रन्थ में ग्रादिपुराण का पद्य भी दिया हआ है।
कवि ने ग्रन्थ रचना का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए लिखा है कि संसार में जन्म ग्रहण करने से उत्पन्न हए दुनिवार क्लेशों के सन्ताप से पीड़ित मैं अपनी आत्मा को योगीश्वरों से सेवित ध्यानरूपी मार्ग में जोड़ता हूं। कवि ने अपना प्रयोजन संसार के दुखों को दूर करना बतलाया है :
भवप्रभवदर क्लेशसन्ताप पीड़ितम् ।
योजयाम्यहमात्मानं पथियोगीन्द्रसेविते ।। १८ ।। कविने लिखा है कि यह ग्रन्थ मैंने कविता के अभिमान या जगत में कीति विस्तार की इच्छा से नही बनाया किन्तु अपने ज्ञान की वृद्धि के लिए बनाया है : --
न कवित्वाभिमानेन न कीति प्रसरेच्छया।
कृतिः किन्तु मदीयेयं स्वा बोधायेव केवलम् ॥ १६ ॥ ज्ञानार्णव में ४२ प्रकरण है, जिनमें १२ भावना, पच महाव्रत और ध्यानादि का विस्तत कथन किया गया है। मद्रित ग्रन्थ बहत कुछ प्रशद्ध छपा है। ग्रन्थ में रचनाकाल न होने से ग्रन्थ के रचनाकाल के सम्बन्ध में अन्य साधनों से विचार किया जाता है। प्राचार्य शुभचन्द्र के इस ग्रन्थ पर पूज्यपाद के समाधितन्त्र और इष्टोपदेश का प्रभाव है। उनके अनेक पद्य ज्यों-के-त्यों रूप में और कुछ परिवर्तित रूप में पाये जाते हैं। ग्रन्थ अपने विषय का सम्बद्ध
और वस्तु तत्त्व का विवेचक है। स्वाध्याय प्रेमियों के लिये उपयोगी है। इसपर प्राचार्य अमृतचन्द्र अमित गति प्रथम और तत्त्वानुशासन तथा जिनसेन के आदि पुराण का प्रभाव परिलक्षित है। जैसा कि निम्न विचारणा से स्पष्ट है :विचारणा ज्ञानार्णव के १६वें प्रकरण के छठवे पद्य के बाद उक्त च रूप से निम्न पद्य पाया जाता है :
मिथ्यात्ववेदरागादोषादयोऽपि षट् चैव ।
चत्वारश्चकषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः ॥ यह पद्य प्राचार्य अमतचन्द्र के पुरुषार्थ सिद्धचुपाय का ११६वां पद्य है। इससे स्पष्ट है कि शुभचन्द्र अमतचन्द्र के बाद हुए है । अमृतचन्द्र का समय दशवी शताब्दी है।
ज्ञानार्णव मुद्रित प्रति के पृष्ठ ४३१वें पाचव पद्य के नीचे एक प्रार्या निम्न प्रकार दिया है-वह मल में शामिल हो गया है। किन्तु उसपर मूल के क्रम का नम्बर नहीं है । परन्तु सं० १६६६ का हस्त लिखित प्रति क पत्र ८६ पर इसे 'उक्त च' वाक्य के साथ दिया हुआ है।
१ जयन्ति जिनसेनस्य वाचास्त्रविद्यवन्दिता.'
योगिभिर्यत्सगासाद्य सवलितं नात्म निश्चये ॥१६ २ उक्त च-अकारादि हकारान्तं रेफमध्यं सबिन्दुकम्। तदेव परमं तत्त्वं यो जानाति स तत्त्व वित् ॥
आवि पुगण २१-२३९
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
शुचि गुणयोगाच्छुद्धं कषायरजः क्षयादुपशमाढा।
वेडर्यमणि शिखाइव सुनिममं निष्प्रकम्पं च ॥ यह पद्य रामसेन के तत्त्वानुशासन में निम्न रूप में उपलब्ध होता है
शुचि गुण योगाच्छुक्लं कषायरजः क्षयानुपशमाद्वा ॥
माणिक्य शिखा-वदिदं सनिर्मलं निष्प्रकम्पंच ॥२२२ इस पद्य में कोई अर्थ भेद नही है, थोड़ा सा शब्द भेद अवश्य है।
तत्वानुशासन के ४८व पद्य का पूर्वार्ध भी ज्ञानार्णव के २६वं प्रकरण के २६वें श्लोक के पूर्वार्ध से ज्यों के त्यों रूप में मिलता है यथा
"ध्यातारस्त्रिविधा ज्ञेयास्तेषां ध्यानान्यपि विधा" ज्ञाना०
"ध्यातारस्त्रिविधास्तस्मात्तेषां ध्यानान्यपि त्रिधा" । तत्त्वानु रामसेन का समय मुख्तार श्री जुगल किशोर जी ने १० वीं शताब्दी का चतुर्थचरण निश्चित किया है। अत: शुभचन्द्र उनके बाद के विद्वान हैं।
योगसार के कर्ता प्रमित गति प्रथम. जो प्राचार्य नेमिपेण के शिष्य थे। उनके योगसार के नी वें अधिकार का एक पद्य ज्ञानार्णव के ३६ वें प्रकरण के ४३ वें पद्य के बाद उक्त च रूप से पाया जाता है :
येन येन हि भावेन यज्यते यंत्रवाहकः । तेन्तन्मयतां याति विश्वरूपो मणिर्यथा ॥ ३६ ज्ञानार्णव येन ये नैव भावेन युज्यते यंत्रवाहकः । तन्मयस्तत्र तत्रापि विश्वस्पो मणिर्यथा ।
योगसार ६-५१ अमितगति प्रथम के योगसार का यह पन हेमचन्द्र के योग शास्त्र में भी ज्यों के त्यों रूप में पाया जाता है। यह ज्ञानार्णव में उक्तं च रूप में दिया है। किन्तु योग शास्त्र में वह मूल में शामिल कर लिया गया है। इसी तरह ज्ञानार्णव का यह पद्य-सोऽयं समरसी भावस्तदेकी करणं मतं। प्रात्मा यदपृथक्वेन लीयते परमात्मनि ॥ योग शास्त्र में पाया जाता है । इसका पूर्वार्ध-तत्त्वा नुशासन१३७ में पाया जाता है । चूकि ज्ञानार्णव का मूल पद्य है, वह तत्त्वानुशासन के साहित्यिक अनुसरण एवं प्रभाव से परिलक्षित है।
अमितगति द्वितीय ने अपना सुभाषितरत्न सन्दोह वि० सं० १०५० और संस्कृत पंच संग्रह १०७३ में बनाकर समाप्त किया है। इनसे दो पीढ़ी पूर्व अमितगति प्रथम हए है, जिनका समय ११ वीं शताब्दी का प्रथम चरण हैं। इससे स्पष्ट है कि ज्ञानार्णव के कर्ता शुभचन्द्र का समय सं० ११२५ से ११३० के मध्यवर्ती है। प्रर्थात वे विक्रम की १२ वीं शताब्दी के प्रथम चरण और ईसा की ११ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के विद्वान थे।
नियमसार की पद्मप्रमभलधारी देव की वत्ति में पष्ठ ७२ पर ज्ञानार्णव के ४२ वें प्रकरण का चौथा पद्य उद्धत है, जो शुक्लध्यान के स्वरूप का निर्देशक है :
निष्क्रिय करणातीतं ध्यानधारणजितम् ।
अन्तर्मुखं च यच्चित्त तच्छुक्ल मिति पठ्यते ॥४ पद्म प्रभमलधारि देव का स्वर्गवास शक सं० ११०७ सन् ११८५ के २४ फरवरी सोमवार के दिन हुआ है। नियमसार की वत्ति उससे पूर्व बन चकी थी। नियमसार की यह वृत्ति सन् १९८५ से पूर्व बनी है यदि उसका समय शक सं० ११०० मान लिया जाय तो सन् १९७८ में ज्ञानार्णव उनके सामने था। ज्ञानार्णव की रचना के बाद कम से कम १५-२० वर्ष उसके प्रचार-प्रसार में भी लगे हैं। ऐसी स्थिति में शुभचन्द्र के समय की उत्तरावधि पद्यप्रभ मलधारि देव का समय है।
यद्यपि १३ वीं शताब्दी के विद्वान पं० पाशाधर जी ने सं० १२८५ से पूर्व निर्मित इष्टोपदेश की टीका में ज्ञानार्णव के पद्य उक्तं च रूप से उद्धत किये हैं। और मूलाराधना (भगवती प्रा० की टीका) में गाथा १८५७ की टीका में ४२ वें प्रकरण के ४३ व पद्य से लेकर ५१ तक के पद्य 'उक्तं च ज्ञानार्णव' विस्तेरण' वाक्य के साथ उद्धत
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०५
ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य किये हैं, इससे इतना तो स्पष्ट है कि ईसा को १२वी और वि० को १३वीं शताब्दी में ज्ञानार्णव का खूब प्रचार हो गया था।
हेमचन्द्राचार्य ने अपना योग शास्त्र स० १२०७ में बनाया है। उससे पूर्व नहीं। जब कि ज्ञानार्णव उससे बहुत पहले बन चुका था। ऐसी स्थिति में योगशास्त्र के पद्यो का ज्ञानार्णवकार द्वारा उद्धत करने का कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। यद्यपि दोनों के पद्यों में बहुत कुछ साम्य है, उस साम्यता का कारण हेमचन्द्र के मामने योग विपयक अनेक ग्रन्थ वन चके थे। वे उनके सामने थे ज्ञानार्णव भी उनमें था। हेमचन्द्र को उनसे अवश्य साहाय्य मिला है। ज्ञानार्णव हेमचंद्र के सामने रहा है। ज्ञानार्णव में जनेतर ग्रन्थों में योग-विषयक जो पद्य लिये गये हैं। संभव है वे ग्रन्थ हेमचन्द्र को भी प्राप्त हा हों, और ज्ञानार्णव गे हेमचन्द्र ने भी सहयोग लिया हो तो क्या प्राश्चर्य?
पाटन के भंडार में ज्ञानार्णव की एक प्रति मं० १२८४ को लिखी हई प्रति मौजद है। जिसे जाहिणी प्रायिका ने किसी शुभचन्द्र योगी को प्रदान की थी। वह प्रति अन्य किसी प्रति में प्रतिलिपि की हई है। क्योंकि ज्ञानार्णव उसमे पूर्व बना हया था। और उममे बहत पहले प्रचार में आ गया था। ऐगी स्थिति में उम प्रति को ग्रन्थ रचना के आस-पाम समय की प्रति नहीं कहा जा सकता। और न उस पर से कोई निर्णय हा किया जा सकता है। हेमचन्द्र के ग्रन्थों पर अन्य साहित्यकारों के साहित्य का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित है। इससे इंकार नही किया जा सकता। दार्शनिक ग्रन्थों में प्रमाण मीमांसा के निग्रह स्थान के निरूपण और खण्डन के ममूने प्रकरण में और अनेकान में दिये ग्राट दोपों के परिहार प्रमंग में प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड का गब्दशः अनुसरण किया गया है। प्रमाण मीमांसा के प्रायः प्रत्येक प्रकरण पर प्रमेयरत्नमाला की शब्द रचना ने अपनी स्पष्ट छाप लगाई है। मी स्थिति में यह कहना किसी तरह भी शक्य नही है कि हेमचन्द्र ने ज्ञानार्णव से कुछ नही लिया।
इन्द्रकीति कुन्दकुन्दान्वय समह मुखमंडन देशीयगण के विद्वान थे। इनकी अनेक उपाधियां थीं-श्री मदमहच्चरण. सरसिहभंग, कोण्डकून्दान्वय समूह मुखमंडन, देशीयगण कुमुदवन, को कलिपुरेन्द्र, त्रैलोक्य मल्ल, सदासरसिकलहस, कविजनाचार्य, पण्डित मुखाम्बुम्ह चण्डमातण्ड सर्वशास्त्रज्ञ, कविकुमुदराज त्रैलोक्य मल्लेन्द्र कीतिहरि मूर्ति । इन विशेषणों से इन्द्र काति की महत्ता का स्पष्ट बोध होता है। गगराजा दुविनीत द्वारा निर्मापित मन्दिर को इन्द्र कीति ने कुछ दान दिया था।
यह शिलालेख कागलि जिला बेल्लारी ममूर का हे जिसका समय शक मं० ६७७ सन् १०५५ (वि० सं० १११२) है।
(इ० ५० ५५, १६२६ पृ०७४, इ० म० वेल्ला० १६६)
केशवनन्दि बलगारगण मेघनन्दि भट्टारक के शिष्य थे। उस समय समस्त भुवनाश्रय, श्रो पृथ्वी वल्लभ, महाराजाधिराज परमेश्वर, परम भट्टारक ओर मत्याश्रय कुल तिलक आदि अनेक उपाधियों के धारक त्रलाक्यमल्ल के प्रवर्द्धमान राज्य में वनवामीपुर में महामण्डलेश्वर चामुण्डरायरस वनवामी १२००० पर शामन कर रहा था. तब बलिलगावे गजधानी में शक सं० ६७० (सन् १०४८) सर्वधारी सम्बतसर ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशो आदित्यवार के दिन प्रप्टोपवासि भट्टारक को वसदि में पूजा करने के लिये, 'भेरुण्ड' दण्ड (माप) जिड्ड लिंगे-सत्तर में प्राप्त धान (चावल) के क्षेत्र का दान केशवनन्दि को दिया।
- जैन लेख सं०भा० २ पृ० २२१
कुलचन्द्रमुनि मूलसंघान्वय क्राणूरगण के परमानन्द सिद्धान्तदेव के शिष्य थे। भुवनैकमल्ल के मुपुत्र ने जिस समय उनका राज्य प्रवर्धमान था। ओर जो बंकापुर में निवास करते थे और उन पादपद्मोपजीवी चालक्य पेर्माडे भुवनैक वीर उदयादित्य शासन कर रहे थे। तव भुवनैक मल्ल ने शान्ति नाथ मन्दिर के लिये उक्त कलचन्द्र मनि को नागर खण्ड में भूमिदान दिया। चूंकि यह शिलालेख शक स०६६६ सन् १०७४ (वि० सं० ११३१) का है। अतः उक्त मुनि ईसा को ११वीं और विक्रम की १२वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान हैं।'
१. जैन लेख सं० भा० २ पृ० २६४-६५ ।
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
कोतिवर्मा यह मुनि देवचन्द का शिष्य था। यह देव चन्द संभवतः वह हैं जो राघवपाण्डवीय काव्य के कर्ता श्रतकीति विद्य देव के सम सामयिक थे (श्रव० लेख नं० ४०)। यह चालुक्य वंशीय (सोलंकी) त्रैलोक्य मल्ल का पुत्र था, इसने सन १०४४ से १०६८ तक राज्य किया है । इसके चार पुत्र थे, जयसिंह, विष्णु वर्द्धन, विजयादित्य और कीर्तिवर्मा। इनकी माता का नाम केतलदेवी था, जो जैन धर्म निष्ठा थी, वह जिन भक्ति से ओत-प्रोत थी. उसने भक्तिवश सैकडों जिन मन्दिर बनवाए थे। तथा जैनधर्म की प्रभावना के अनेक कार्य किये थे। उसके बनवाए हए जिन मन्दिरों के खण्डहर और उनमें प्राप्त शिलालेख उसका काति का स्मरण कराते हैं। कोतवमों के से इस समय केवल एक ही 'गोवैद्य' नाम का ग्रन्थ प्राप्त है, जिसमें पशुओं के विविध रोगों और उनकी चिकित्सा का वर्णन है। इस ग्रन्थ के एक पद्य में कवि ने अपने पापको कीर्तिचन्द्र, वरिकरिहरिकन्दर्पमति, सम्यक्त्वरत्नाकर, बुधभव्य बान्धव, कविताब्धिचन्द्र और कीर्तिविलास आदि विशेपणों से उल्लेखित किया है 'वैरिरिहरि' विशेषण से ज्ञात होता है कि वह एक वीर योद्धा था।
मुनि पद्मसिंह उन्होंने अपना कोई परिचय नहीं दिया। किन्तु अपने ग्रन्थ 'णाणसार' (ज्ञानसार) को अन्तिम गाथा में बताया है कि अपने मन के प्रतिबोधनार्थ और परमात्म स्वरूप की भावना के निमित्त श्रावणशुक्ला नवमी वि० सं०१०६६ सन १०२६ में अंबक नगर (अंबड नगर) में ग्रन्थ की रचना की है।
ग्रन्थ की गाथा संख्या ६३ है और उसे ७४ श्लोक परिमाण बतलाया गया है । ग्रन्थ में ध्यान विषय का कितना ही उपयोगी वर्णन है। ३६ वी गाथा में बतलाया है कि जिस प्रकार पाषाण में सुवर्ण और काप्ठ में अग्नि दोनों बिना प्रयोग के दिखाई नहीं पड़ते उसी प्रकार ध्यान के बिना प्रात्मा का दर्शन नहीं होता और इससे ध्यान का महात्म्य, एवं लक्ष्ण स्पष्ट जान पड़ता है। ग्रन्थ स्वपर-सम्बोधक है। ७वं पद्य में बतलाया है कि जिस तरह दाढ और नखरहित सिंह गजेन्द्रों का हनन करने में समर्थ नहीं होता। उसी तरह ध्यान के बिना योगी कर्म के क्षपण में समर्थ नहीं होता। अतः कर्मवन को दग्ध करने के लिए ध्यान की अत्यन्त आवश्यकता है, ध्यान एकान्त स्थान में ही संभव है, मन की चंचलता ध्यान में बाधक है । मुनि पद्मसिंह विक्रम की ११ वीं शताब्दी के विद्वान हैं।
पद्मनन्दि मलधारि मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तगच्छ और कौण्डकुन्दान्वय के विद्वान थे। उन्होंने पार्श्वनाथ की मूर्ति की स्थापना की थी। सन् १०८७ में जब चालुक्य सम्राट् त्रिभुवनमल्ल कल्याण मे राज्य कर रहे थे। उस समय चालुक्य विक्रम वर्ष प्रभव संवत्सर की पुण्य अमावस्या रविवार को उत्तरायण संक्रान्ति के अवसर पर पुण्डर के महामण्डलेश्वर अत्तरस ने तिकप्प दण्ड नायक को पार्श्वनाथ को पूजा के लिये भूमि,उद्यान और कुछ अन्य प्राय के साधनों का दान दिया था। अत: पपनन्दि मलधारि का समय सन् १०८७ (वि० सं० ११५४) है।३।
चन्द्रप्रभाचार्य-शक सं०६५ सन् १०७२ के एक स्तम्भ लेख में भाद्रपद कृष्णा ८ शनिवार के दिन चन्द्रप्रभाचार्य के स्वर्गवास का वर्णन है।
-जैन लेख सं० भा० ५ पृ०३२ श्रुतकीति-कुन्दकुन्दान्वय देशीगण के विद्वान आचार्य श्री कीर्ति के शिष्य थे। यह अपने समय के बडे विद्वान, शास्त्रार्थ विचारज्ञ, व्याख्यातत्व, और कवित्वादि गुणों में प्रसिद्ध थे। इनकी कीति जगत्त्रय में व्याप्त थी।
१. रिणयमण पडिवोहत्थं परमसरुवस्स भावण णिमितं ।
सिरि पउमसिंह मुणिरणा रिणम्मवियं णाणसारमिरणं ॥६१ सिरिविककमस्स काले दशसम छासी जुयंमि वहमाणे।
सावण सिय णवमीए अंवय एयरम्मि कयमेयं ।। ६२ २. परिमाणं च सिलोमा चउहत्तरि हंति णाणसारस्म । __ गाहाणं च तिसदी सुललिय बंघेण रइयारणं ॥६३ ३. रि० इ० ए० १९६०-६१ जैनलेख सं० भा० ५ पृ० ३४
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारसवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, और प्राचाय
३०७
वे सर्वज्ञशासन रूपी ग्राकाश के शरत्कालीन पूर्णमासी के चन्द्रमा थे । और वे तत्कालीन गांगेय और भोज देवादि समस्त नृप पु गवो मे पूजित थे । इनमें गंगेय देव तो कलचूरि नरेश ज्ञात होते है जो कोक्कल (द्वितीय) के पश्चात् सन् १०१६ के लगभग सिहासनारूढ हुए। और सन् १०३८ तक राज्य करते रहे है और भोज देव वही धारा के परमरावंशी राजा है, जिन्होने सन् १००० से सन् १०५५ (वि०स० १११२) तक मालवा का राज्य किया है । ओर जिनका गुजरात के सोलकी राजाओं में अनेक बार सघर्ष हुआ। इससे श्रुतकीर्ति का समय सन् १०८० से १०६५ तक हो सकता है । "
कवि धनपाल
कवि धनपाल 'धर्कट वश' नामक वैश्य कुल मे उत्पन्न हुआ था। इसके पिता का नाम माएसर और माता का नाम धनसिर ( धनश्री ) देवी था। प्रस्तुत धर्कट या धक्कड वंश प्राचीन है। यह वंश १०वी शताब्दी से १३वी शताब्दी तक बहुत प्रसिद्ध रहा है । और इस वश मे अनेक प्रतिष्ठित श्री सम्पन्न पुरुष और अनेक कवि हुए है । भविष्य दत्त कथा का कर्ता प्रस्तुत धनपाल पावन वश में उत्पन्न हुआ था । जिसका समय १० वी शताब्दी है । धर्म परीक्षा (स० १०४४) के कर्ता हरिषेण इसी वश मे उप्पन्न हुए थे । जम्बूस्वामी चरित्र के कर्ता वीर कवि (स० १०७६) के समय मालव देश में धक्कडवा के मघसूदन के पुत्र तक्वड श्रेष्ठी का उल्लेख मिलता है जिनकी प्रेरणा से जम्बू स्वामी चरित्र रचा गया है । स० १२८७ के देलवाडा के तेजपाल वाले शिला लेख में 'धर्कट' जाति का उल्लेख है । इससे इस वंश की महत्ता ग्रार प्रसिद्धि का महज ही बोध हो जाता है । धनपाल अपभ्रंश भाषा के अच्छे कवि थे और उन्हें सरस्वति का वर प्राप्त था जमा कि कवि के निम्न वाक्यों से "चितिय धणवालि वणिवरेण, सरसइ बहुलद्ध महावरेण । " - प्रकट है । कविका सम्प्रदाय दिगम्बर था । यह उनके - 'भजि विजेरण यिंदवरि लायउ ।' ( संधि ५-२० ) के वाक्य से प्रकट है। इतना ही नही किन्तु उन्होंने १६वे स्वर्ग के रूप में अच्युत स्वर्ग का नामोल्लेख किया है । यह दिगम्बर मान्यता है । प्राचार्य कुन्दकुन्द की मान्यतानुसार सल्लेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत स्वीकार किया है' । कवि के अप्ट मूल गुणो का कथन १० वी शताब्दी के प्राचार्य अमृतचन्द्र के पुरुषार्थ सिद्धय पाय के निम्नपद्य से प्रभावित है
मद्यं मांस क्षौद्रं पञ्चोदुम्बर फलानि यत्नेन । हिंसा व्युपरत कामं मोक्तव्यानि प्रथममेव ॥ ( ३-६१ ) 'महु मज्ज मंसु पंचवराइ, खज्जंति ण जम्मंतर सयाइ ॥
१. विद्वान्ममाना विचारचतुरानन । शिरश्चन्द्र कराकार कीर्तिव्याप्त जगत्रयः ||१३ व्याख्यातृ - कवित्वादि गुगाहरु मानस ।
सर्वज्ञशासनाकाश शरत्पार्वण चन्द्रमा ॥ १४ गागेय भोजदेवादि समस्त नृपपुङ्गवै ।
पूजितोत्कृष्टपादारविन्दो विध्वस्तकल्मषः ॥ १५ - श्रीचन्द्र कथाकोष प्रशस्ति- जैनग्र थ - प्रशस्ति स० भा० २ पृ० ७ २. धक्कड विंसि माएसर हो समुब्भविरण |
मिरि देवि एण विरइउ सम्म मभविण ॥ ( अन्तिम प्रशस्ति )
३ अह मालवम्मि धरण -करण दरसी, नयरी नामेण सिधु - वरिसी ।
तहि धक्कड वग्गे वश लिउ, महसूया गदर गुग्गारिणलउ ॥
गामेण सेट्ठि तक्खड़, वसई, जस पडढ़ जासु निहुरिण रमई | (जबू० प्रशस्ति)
४. मद्य मान मत्याग महोदुम्बर पञ्चकं । अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुतौ ॥ - ( उपासका० २१, २७० )
महु मज्जुनस विरई चत्ता ये पुण उबराण पचण्ह । अट्ठेदे मूलगुग्गाहर्वति फुड, देसविरयम्मि । ( - गा० ३५६ )
तत्रादौ श्रद्दधज्जैनी माज्ञा हिसानपासितुम् । मद्य मास-मधु त्युज्भेत् पचक्षीरी फलानि च । - सा० २–२
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
आचार्य अमृतचन्द्र की इस मान्यता को उत्तरवर्ती विद्वान प्राचार्यों ने (सोमदेव देवसेन, पं० श्राशाधर ने ) अपने ग्रन्थों में अपनाया है । इन सब प्रमाणों से ज्ञात होता है कि कवि धनपाल दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वान थे । भविष्यदत्त कथा
३०८
प्रस्तुत कथा अपभ्रंश भाषा की रचना है । प्रस्तुत कृति में ३४४ कडवक हैं। जिनमे श्रुत पंचमी के व्रत का महात्म्य बतलाते हुए उनके अनुष्ठान करने का निर्देश किया गया है। साथ ही भविष्यदत्त और कमलश्री के चरित्र-चित्रण द्वारा उस और भी स्पष्ट किया गया है । ग्रन्थ का कथा भाग तीन भागों में बाटा जा सकता है । चरित्र घटना बाहुल्ल होते हुए भी कथानक सुन्दर वन पड़े है । उनमें साधु-ग्रसाधु जीवन वाले व्यक्तियों का परिचय स्वाभाविक बन पड़ा है । कथानक म अलोकिक घटनाओं का समीकरण हुआ है, परन्तु वस्तु वर्णन में कवि के हृदय ने साथ दिया है । अतएव नगर, दशादिक भार प्राकृतिक वर्णन सरस हो सके है । ग्रन्थ में रस और अलंकारों के पुट नं उसे सुन्दर और सरस बना दिया है । ग्रन्थ में जहा श्रृगार, वीर और शान्तरस का वर्णन है वहाँ उपमा, उत्पक्षा, स्वभावोक्ति और विरोधाभास आदि अलकारों का प्रयोग भी दिखाई देता है । भाषा में लोकोक्तिया और वाग्धाराम्रा का प्रयाग भा मिलता है ।
यथा - किं घिउ होइ विरोलिए पाणिए पानी के विलौने से क्या घी हो सकता है । प्रण इच्छिइहोंति जिय दुक्खइ सहसा परिणर्वात तिह सोबखइ(३-१०-८) जैसे यदृच्छया दुख प्रात है बसे है। सहसा सुख भी प्रा जाते है । जोव्वण वियारसवस पसरि सो सूरउ सो पडियउ ।
चल मम्मण वयणुल्लावएहि जो परतिर्याह न खडियउ । वही शूर वीर है और वहा पंडित है, जो यावन के विपय विकारा के बढ़ने कामोद्दीपक वचनों से प्रभावित नहीं होता ।
( ३- १८- ६ )
पर स्त्रियों के चंचल
जहां जेणदत्तं तहातेण पत्तं इमं सुच्चए सिट्ठ लोएण वृत्तं । सुपायन्नवा कोहवा जत्त माली कहं सो नरो पावए तत्थसाली ।
जो जैसा देता हैं, वैसा ही पाता है । यह शिष्ट लोगों ने सच कहा है। जो माली कोदों वोवेगा वह शाली कहां से प्राप्त कर सकता है
इन सुभापतों और लोकोक्तियों से ग्रन्थ और भी सरस बन गया है ।
ग्रन्थका कथा भाग तीन भागों में वांटा जा सकता है । यथा
१. व्यापारी पुत्र भविष्यदत्त की संपत्ति का वर्णन, भविष्यदत्त, अपने सौतेले भाई बन्धुदत्त से दो बार धोखा खाकर अनेक कष्ट सहता है, किन्तु अन्त में उसे सफलता मिलती है ।
२ कुरूराज और तक्षशिला नरेशों में युद्ध होता है, भविष्य दत्त उसमें प्रमुख भाग लेता है, और उसमें विजयी होता है ।
३. भविष्यदत्त तथा उसके साथियों का पूर्व जन्म वर्णन ।
कथा का संक्षिप्त सार
भरत क्षेत्र के कुरुजांगल देश में गजपुर नाम का एक सुन्दर और समृद्ध नगर था। उस नगर का शासक भूपाल नाम का राजा था। उसी नगर में धनपाल नाम का नगर सेठ रहता था। वह अपने गुणों के कारण लोक में प्रसिद्ध था । उसका विवाह हरिबल नाम के मेठ को सुन्दर पुत्री कमलश्री से हुआ था । वह अत्यन्त रूपवती और गुणवती थी। बहुत दिनों तक उसके कोई सन्तान न हुई, प्रतएव वह चिन्तित रहती थी। एक दिन उसने अपनी चिन्ता का कारण मुनिवर से निवेदन किया । मुनिवर ने उत्तर में कहा, तेरे कुछ दिनों में विनयी, पराक्रमी और गुणवान पुत्र होगा। और कुछ समय बाद उसके भविष्यदत्त नाम का पुत्र हुआ। वह पढ़ लिखकर सब कलानों में निष्णात हो गया ।
धनपाल सुरूपा नाम की पुत्री से अपना दूसरा विवाह कर लेता है । उसके बन्धुदन्त नाम का पुत्र हुआ ।
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, और आचार्य
जब वह यूवा हुआ तब वहत उत्पाद मचाने लगा। नगर के मेठों ने मिलकर विचार किया कि यह यवतियों से छेड खानी करता है, अत: उसे कंचनपुर जाने के लिए तैयार करना चाहिए। मन्त्री जन व्यवसाय के निमित्त बन्धुदत्त को भेजने के लिये तैयार हो गये । और बन्ध दत्त को अपने माथियों के साथ कचनद्वीप जाते हा देखकर भविग्यदत्त भी अपनी माता के बार-बार रोके जाने पर भी उनके साथ हो लिया। जब मरूपा को पता चला तो बन्धदत्त को शिवा कर कहा कि तुम भविष्यदत्त को किसी तरह ममुद्र में छोड़ देना। जिसमे बन्धु-बान्धवों से उसका मिलाप न हो सके। परन्तु भविग्यदत्त की माता उगे उपदेश देती हुई कि परधन और परनारी को म्पर्ग न करने की शिक्षा देती है। पांचसौ वणिकों के माथ दोनों भाई जहाज में बैठकर चले । कई द्वीपान्तरों को पारकर उनका जहाज मदनाग द्वीपके ममद्र तट पर जा लगा। प्रमुख लोग जहाज मे उतर कर मदनाग पर्वत की गोभा देखने लगे। बन्धुदत्त धोखे से भविप्यदत्त को वहीं एना जगल में छोड़कर अपने साथियों के म थ-पाथ आगे चला जाता है। बेचारा भविष्यदत्त इधर-उधर भटकता हुआ उजड़ हुए एक गमद्ध नगर में पहुंचता है। और वह के जिनमन्दिर में चन्द्रप्रभ जिनकी पूजा करता है । उमी उजई नगर में वह एक सुन्दर यवती का देवना है। उमा से भविष्यदत्त को पता चलता है कि वह समृद्ध नगर अमुरो द्वारा उजाड़ा गया है। कुछ समय बाद वह असुर वहा पाता है और भविष्यदत्त का उस सुन्दरी से विवाह कर देता है।
इधर पुत्र के चिरकाल तक न लटने से कमल श्री मुक्ता नामकी आयिका मे उसके कल्याणार्थ थतपचमी व्रत' का अनुप्ठान करती है। उधर भविष्यदत्त भी मा का स्मरण होने में मपत्नीक ओर प्रचर सम्पत्ति के साथ घर लौटता है । लौटते हुए उनकी वन्ध दत्त गे भंट हो जाती है, जो अपने माथियो के माथ यात्रा में असफल हो विपत्ति दशा में था। भविा यदत्त उनका महर्ष स्वागत करता है, किन्तु वन्यदत्त को धोवे म वही छोड़कर उसकी पत्नी और प्रभूत धन राशिलेकर माथियों के साथ नौका में सवार हो वहा में चल देता है । मार्ग में उनकी नोका पुनः पथ भ्रष्ट हो जाती है। ओर वे जेम तमे गजपुर पहुंचते है। घर पहंचकर बन्धुदत्त भविष्यदत्त की पत्नी को अपनी भावी पत्नी घोपित करता है उनका विवाह निश्चित हो जाता है। कमलथी लोगों मे भविष्यदत्त के विषय में पूछती है, परन्तु कोई उसे स्पष्ट नहीं बतलाता। कमलथी मुनिराज मे पुत्र के सम्बन्ध में पूछती है। मुनिराज ने कहा तुम्हारा पुत्र जीविन है, वह यहां प्राकर आधा राज्य प्राप्त करेगा । एक महीने बाद भविष्यदत्त भी एक यक्ष की सहायता में गजपुर पहंचता है। और अपनी माता मे सब वृत्तान्त कहता है, माता को वह नागमुद्रिका देकर उसे भविप्यानुरूपा के पास भेजता है। तथा स्वयं अनेक प्रकार क रत्नादि लेकर राजा के पास जाता है, और उन्हें राजा को भेट करता है। भविग्यदन्त राजा को सव वृत्तान्न मुनाना है, परिजना के माथ वह राजसभा में जाता है और बन्धदत्त के विवाह पर आपत्ति प्रकट करता है । राजा धनवइ का बुलाता है। पार बन्धदत का रहस्य खुलने पर राजा क्रोधवश दोनों का कागवाम का दण्ड देता है। पर भविष्यदत्त धनवइ को छुड़वा दता है। राजा जय लक्ष्मी पार चन्द्रलेखा नाम की दो दापियों का भविष्यानुरूपा के पास भेजता है वे जा कर भविप्यानरूपा से कहती है। राजा ने भविष्यदत्त को देश मे निकालने का प्रादेश दिया है और वन्ध दत्त को सम्मान ! अतः अब तुम बन्धुदत्त के साथ रहो । किन्तु वह भविष्यदत्त में अपनी अनुरक्ति प्रकट करती है। धनवइ नव दम्पति को लेकर घर पाता है। कमल श्री व्रत का उद्यापन करती है, वह जैन संघ को जेवनार देती है, वह पिता के घर जाने को तैयार होती है। पर कंचन माला दासी के कहने पर मेठ कमलथी से क्षमा मांगता है। राजा सुमित्रा के साथ भविष्यदत्त का विवाह करने का प्रस्ताव करता है।
कुछ समय के बाद पांचाल नरेश चित्रांग का दूत राजा भूपाल के पास पाता है, ओर कर तथा अपनी कन्या सुमित्रा को देने का प्रस्ताव करता है । राजा असमन्जस में पड़ जाता है, भविष्यदत्त युद्ध के लिये तैयार होता है। और साहस तथा धैर्य के साथ पाचाल नरेश को बन्दी बना लेता है, राजा सुमित्रा का विवाह भविष्यदत्त के साथ करता है और राज्य भी सौप देता है।
कुछ दिनों बाद भविष्यानुरूपा के दोहला उत्पन्न होता है और वह तिलक द्वोप जाने की इच्छा करती भविष्यदत्त सपरिवार विमान में बैठ कर तिलक द्वीप पहुंचता है और वहा जिनमन्दिर में चन्द्रप्रभ जिनको सोत्साह पूजन करता है और चारण मुनि के दर्शन कर श्रावक धर्म का स्वरूप सुनता है। अपने मित्र मनोवेग के
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास- भाग २ पूर्व भव की कथा पूछता है, और सभी सकुशल गजपुर लौट पाते हैं । भविप्यदत्त बहुत दिनों तक राज्य करता है भविष्यानुरूपा के चार पुत्र उत्पन्न होते है-सुप्रभ, कनकप्रभ, सूर्यप्रभ ओर सोमप्रभ, तथा तारा सुतारा नाम को दो पुत्रियां उत्पन्न होती है । सुमित्रा से धरणेन्द्र नाम का पुत्र ओर तारा नाम की पुत्री उत्पन्न होती है।
कुछ समय बाद विमल बुद्धि मुनिराज गजपुर आते हैं । भविष्यदत्त सपरिवार उनका वन्दना के लिए जाता है, और उनसे अपने पूर्वभव जानकर देह भोगों से विरक्त हा, सुप्रभ को राज्य देकर दीक्षा ले लेता है। और तपश्चरण द्वारा वैमानिक देव होता है और अन्त में मुक्ति का पात्र बनता है। रचना काल
कवि धनपाल ने भविष्यदत्त कथा में रचना काल नहीं दिया, ओर न अपनी गुरु परम्परा ही दो है। इससे रचना काल के निर्णय करने में बड़ा कठिनाई हो रही है। ग्रन्थ को सबसे प्राचीन प्रतिलिपि स० १३६३ को उपलब्ध है, जैसा कि लिपि प्रशस्ति को निम्न पक्तियों में प्रकट है :--
संवच्छरे अक्किरा विक्कमेणं, ही एहि तेवदि तेरहसएणं । वरिस्सेय पूसेण सेयम्मि पक्खे: तिही वारसी सोमि रोहिणी रिक्खे।
सुहज्जोइमय रंगमो बुद्ध पत्तो इमो सुन्दरो सत्थु सुहदिणि समत्तो॥' यह शास्त्र मुसम्वतसर विक्रम तेरहसौ तेगनवे में पोस माम मुक्ल पक्ष द्वादशो सोमवार के दिन रोहिणी नक्षत्र में शुभ घड़ी शुभ दिन में लिख कर समाप्त हुअा। उस समय दिल्ली में मुहम्मदशाह विन तुगलक का राज्य था। इस ग्रन्थ प्रतिको लिवाकर देने वाले दिल्ली निवासी हिमपाल के पूत्र वाध साह थे। जिन्होंने अपनी कीर्ति के लिये अन्य अनेक शास्त्र उपशास्त्र लिखवाए थे । यह भविष्यदत कथा उन्होंने अपने लिये लिखवाई। इससे यह ग्रन्थ सं० १३६३ (सन् १३३६ ई०) मे बाद का नहीं हो सकता, किन्तु उससे पूर्व रचा गया है ।
डा० देवेन्द्र कुमार ने भूल से इस लिपि प्रशस्ति को जो अग्रवाल वंशो साहु वाधू ने लिखवाई थी। मूलग्रंथ कर्ता धनपाल की प्रशस्ति समझकर उसका रचना काल स० १३६३ (सन् १३३६ ई०) निश्चिय कर दिया। यह एक महान् भूल है, जिसे उन्होंने सुधारने का प्रयत्न नहीं किया।
जबकि डा० हर्मन जैकोबी ने इस ग्रथ का रचना काल दशवीं शताब्दी से पूर्व माना जा सकता लिखा है, श्री दलाल और गुणने भविसयत्त कहा की भूमिका में बतलाया है कि धनपाल की भविसयत्त कहा कि भाषा हेमचन्द से अधिक प्राचीन है। इसमे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ वि० १२ वीं शताब्दी मे पूर्व की रचना है। फिर भी डा० देवेन्द्र कुमार ने विक्रम सं० १२३० में रची जाने वाली विवध श्रीधर की भविसयत्त कहा से तुलना कर धनपाल की कथा को अर्वाचीन बतलाने का दुस्साहस किया है। जबकि स्वयं उसके भाषा साहित्य को शिथिल घटिया दर्जे का माना है, और लिखा है कि-"इन वर्णनों को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि काव्य कतित्व शक्ति से भरपूर है। पर कल्पनात्मक, बिम्बार्थ योजना और अलंकरणता तथा सौन्दर्यानुभूति की जो झलक हमें धनपाल की भविष्यदत्त कथा में लक्षित होती है, वह इस काव्य (विवध श्रीधर की कथा) में नही है।"
ववध श्रीधरकी भविष्यदत्त कथा की भाषा चलती हई प्रसाद गुण युक्त है।" (देखो भविसयत्त कहा तथा अपभ्रंश कथा काव्य प०१५८) जबकि धनपाल को भविसयत्त कहा की भाषा प्रौढ, अलंकरण और बिम्बार्थ योजना आदि को लिये हए है। भाषा प्रांजल और प्रसाद गण से युक्त है।
कवि धनपाल ने ग्रन्थ में अप्ट मूल गुणों को बतलाते हुए मद्य मांस अोर मधु के साथ पंच उदंबर फलोंके त्याग को प्रष्ट मूल गुण बतलाया है । यथा-महुमज्जु मंसु पंचुबराइं खज्जति ण जम्मंतरसयाई।
(भविसयत्त कहा १६-८) दशवीं शताब्दों से पूर्व अष्टमूल गुणों में पंच उदम्बर फलों का त्याग शामिल नहीं था, किन्तु पंचाणुव्रत
१ इहत्ते परते मुहायार हेउ, तिणे लिहिय सुअपंचमी णियहं हेउ । अनेकान्त वर्ष २२ किरण १ २ श्री दलाल और गुग्गे द्वारा सम्पादित गायकवाड ओरियन्टल मीरीज प्रथाक नं० २०, १९२३ ई० में प्रकाशित ।
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, और आचार्य
के साथ तीन मकार का त्याग परिगणित था, जैसा कि आचार्य समन्तभद्र के निम्न पद्य से प्रकट है :
मद्य मांस मधुत्यागः सहाणुव्रतपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुऍहिणां श्रमरणोत्तमाः ॥
_ -(रत्न करण्ड श्रावकाचार-४-६६) प्राचार्य जिनसेन के बाद अष्टमूल गुणों में पांच अणुव्रतों के स्थान पर पंच उदम्बर फलों के त्याग को शामिल किया गया है । दशवी शताब्दी के अमृतचन्द्राचार्य के पुरुषार्थ सिद्धचुपाय के निम्न पद्य में प्रप्टमूल गुणों में पंच उदम्बर फलों का त्याग बतलाया है :
मद्य मांसं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बर फलानि यत्नेन । हिंसा व्युपरतिकार्मोक्तव्यानि प्रथम मेव ॥
-पुरुषार्थसिद्धय पाय ३-६१ सोमदेवाचार्य (१०१६) के उपासकाध्ययन में अष्टमल गुणों में तीन मकारों (मद्य मांस मघ) के त्याग के साथ पंच उदम्बर फलों का त्याग भी बतलाया है और इनके उतरवर्ती विद्वान अमितगति देवसेन पद्मनन्दि प्रागाधर आदि ने भी स्वीकृत किया है। कवि धनपाल ने प्राचार्य अमृत चन्द म अष्टमूल गुणों को ग्रहण किया है यदि यह मान लिया जाय तो धनपाल का समय दगवी शताब्दी का अन्तिम चरण अथवा ग्यारहवीं शताब्दी प्रथम चरण हो सकता है। वे उसके बाद के ग्रन्थकार नही है।
जयसेन
यह लाड बागड मंघ के पूर्णचन्द्र थे। शास्त्र समुद्र के पारगामो पार तप के निवास थे। तथा स्त्रो को कला रूपी बाणों से नहीं भिदे थे—पूर्ण ब्रह्मचर्य से प्रतिष्ठित थे । जैसा कि महासेनाचार्य के निम्न पद्य से प्रकट है
श्री लाट वर्गटनभस्तलपूर्णचन्द्रः, शास्त्रार्णवान्तग सुधीस्तपसां निवासः ।
कान्ता कलावपि न यस्य शरैविभिन्न, स्वान्त बभूव स मुनिर्जयसेन नामा ।। इनके शिप्य गुणाकरसेन सूरि और प्रशिप्य महासन थे। महासेन को कृति प्रद्युम्नचरित्र प्रसिद्ध है। महासेन मज द्वारा पूजित थे। मुंज का समय विक्रम को ११वी शताब्दो का मध्यकाल है। इनके समय के दो दानपत्र सं० १०३१ और १०३६ के मिले हैं। सं० १०५० और १०५४ के मध्य किसी समय तैलदेव ने मंज का वध किया था। गुणाकर सेन और महासेन के ५० वर्ष कम कर दिये जाय तो जयमेन का समय १०वों शताब्दी हो सकता है।
वाग्भट (नेमिनिर्वाणकाव्य कर्ता)वाग्भट नामके अनेक विद्वान हो गये हैं। उनमें प्रस्तुत वाग्भट उनसे प्राचीन और भिन्न हैं। इन्होंने अपना परिचय 'नेमिनिर्वाण' काव्य के अन्तिम पद्य में दिया है।
१ मद्यमांम मधुत्यागः सहोदुग्दुम्बरपञ्चकैः ।
अष्टावेते गहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुतेः ॥ -उपासकाध्ययन २७० पृ० १२६
२ भारतीय साहित्य में वाग्भट नाम के अनेक विद्वानों के नाम मिलते है । एक 'वाग्भट अप्टाग हृदय' नामक वैद्य ग्रन्थ नका . जो सिन्ध देश के निवासी और सिंह गुप्त के पुत्र थे। जैमा कि अप्टाँग हृदय की कनड़ी लिपी की अन्त प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है :-यजन्मनः सुकृतिनः खलु सिन्धुदेशे यः पुत्रवन्त मकरोद भुवि सिह गुप्तम् । तेनोक्त मेतदुभयज्ञभिषग्वरेण स्थान समाप्तमिति ॥१॥ (देखो, मैसूर के पण्डित पमराज के पुस्तकालय की कनडी प्रति ।)
सोवाटिनेमिनिर्वाण काव्य के कर्ता जिनका परिचय ऊपर दिया गया है। तीसरे वाग्भट (श्वे०) वाग्भट्रालंकार के
पत्र और सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह के सम कालीन और उनके महामात्य (मंत्री) थे। जय मिह का काल वि० सं० ११५० से ११९६ निश्चित हुआ है । गुजरातनो मध्यकालीन गजपूत इतिहास, दुर्गाशंकर शास्त्री का पृ० २२५ । चौथे वाग्भट नेमिकुमार के पुत्र थे, जिनका परिचय आगे दिया गया है।
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अहिच्छत्र पुरोत्पन्नः प्राग्वाटकुलशालिनः ।
छाहडस्य सुतश्चके प्रबन्धं वाग्भटः कविः ॥ इममे स्पष्ट है कि ववि का जन्म अहिच्छत्रपूर मे हा था। उनके पिता का नाम छाहड़ पोर कुल प्राग्वाट (पोरवाड) था । अहिच्छत्रपुर नाम के दो नगगे का उल्लेख मिलता है। उनमें एक अहिच्छत्रपूर उत्तरी पचाल की गजधानी था, जो एक पुगतन ऐतिहामिक नगर है। विविध तीर्थ कल्प (पाठ १४) मे इसका प्राचीन नाम 'सग्वावती दिया है । अहिच्छत्र का नाम तेईसव तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ के उपर्मग के जोतने और कैवल्य प्राप्त करने के कारण लोक में प्रसिद्व हना है । सोलह जनपदो में पनाल का नाम पाया है। उममें पचाल जनपद के दो भाग बतलाये है ; उत्तर और दक्षिण । उत्तर पचाल की राजधानी अहिच्छत्र योर दक्षिण को राजधानी काम्पिल्य । सातवी शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य पात्र वेसरी ने अहिच्छत्र के राजा को मेवा का परित्याग करके जेन दीक्षा ले ली थी । और बौद्धो के विलक्षण हेतु का निरसन करने के लिये विलक्षणक दर्थन' नाम का एक विशाल दानिक ग्रन्थ बनाया था। जो इस समय अनुपलब्ध है। दूसरे अहिच्छत के राजा दुर्मख की कथा जगत प्रसिद्ध है । वडा राजा वमपाल ने पार्श्वनाथ का एक विशाल मन्दिर बनवाया था और उसमे वलात्मक सुन्दर पाश्वनाथ की मति का निर्माण कराकर उसे वहा प्रातष्ठित किया था पार कलाकार का प्रचर द्रव्य प्रदान किया। नागपुर और अहिच्छत्रपूर कहा जाता था। पर उसकी इतनी प्रमिद्धि नही थी। पोरन वह तीर्थ ही कहलाता था। अस्तु यह निर्णय करना यहा शक्य नहीं है, किस अहिच्छत्रपुर में वाग्भट का जन्म हना था। इसके लिये प्राचीन प्रमाणों के अन्वेषण की अावश्यकता है। तभी दमका निर्णय हो सकेगा।
रचना
कवि की एक मात्रकृति 'नेमिनिर्वाण' काव्य है, जो १५ सर्गों में विभाजित है। और जिसकी श्लोक संख्या ६५६ है । इस काव्य में भगवान नेमिनाथ का जीवन वृत्त अकित है।
प्रथम सर्ग में चतुर्विशति तीर्थकरों का सुन्दर स्तवन दिया हुआ है। महाराज समुद्र विजय पुत्र के प्रभाव मे चिन्तित रहते थे। उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिये अनेक व्रतो का अनुष्ठान किया था।
दूसरे सर्ग मे रानी ने रात्रि के पिछले भाग मे सोलह स्वप्न देखे, महारानी शिवा की सेवा के लिये देवाग. नाए आई ओर अनेक तरह मे माता की सेवा करने लगी
तीमरे मर्ग मे गनी ने राजा से स्वप्नो का फल पूछा, गजा ने बतलाया कि तुम्हे लोकमान्य पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी, जो लोक का कल्याण कर मूक्ति को प्राप्त करेगा।
चौधे सर्ग में तीर्थकर क गर्भ में आने से रानी के सौन्दर्य की अभिवृद्धि होना पोर थावण शुक्ला षष्ठी क दिन पुत्र का जन्म हया, तीर्थकर के जन्माभिषेक की सूचना चागे निकाया के देवों को घण्टा, और शखध्वनि प्रादि से प्राप्त हई और वे मपरिकर द्वागवनी में पाये।
१ म्व० म०म० ओझा जी के अनुसार 'नागौर का पुराना नाम नागपुर या अहिच्छात्र पुर था।
-देखो, नागरी प्रचारिणी पत्रिका भा० २ १० १०६ २ देखो, अनेकान्त वर्ष २४ किरण ६ पृ० २६५ मे प्रकाशित लेखक का उत्तर पचाल की गजधानी अहिच्छत्र नाम
का लेख । ३ भूभृत्पदानुवर्ती मन गज सेवा पगॅगमुखः । सयतोऽपि च मोक्षार्थी भात्यमौ पात्र केशरी ॥
देखो,-नगरतालुक शिलालम्ब ४ हरिषेण कथा कोश की १२ वी कथा १० २२ ५ हरिषेण कथा कोशकी २०वी कथा ।
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचाय
पांचवें सर्ग में भगवान का देवों ने जन्माभिषेक धम-धाम से सम्पन्न किया। इन्द्रने उसका नाम अरिष्टनेमि रक्खा । जन्माभिषेक सम्पन्न कर देव स्वर्ग लोक चले गए।
छठे सग में अरिष्टनेमि की नवोदित चन्द्रमा के समान शरीर की अभिवृद्धि होने लगी। वे तीन ज्ञान के धारक थे। उनसे पुरजन परिजन सभी प्रानन्दित थे । युवा होने पर भी उनमें विषय-वासना नही थी। उनका सौन्दर्य अनुपम था। यादव लोग रैवतक पर वसन्त का अवलोकन करने गए। अरिष्टनेमि से भी सारथी ने रैवतक पर चलने के लिये निवेदन किया। सारथीकी प्रेरणा से नेमिनाथ भी पर्वत की शोभा देखने गये।
सातवे सर्ग में कवि ने रैवतक पर्वत का बड़ा सुन्दर वर्णन ५५ पद्यों में किया है। जिनमें लगभग ४४ छन्द प्रयुक्त हुए हैं। वर्णन की छटा अनूठी है । जलपूर्ण सरोवरो में हस क्रीड़ा कर रहे थे। चम्पा और सहकार की छटा इस पर्वत की भूमि को सुवर्णमय बना रही थो । कुरवक, अशोक, तिलक प्रादि वृक्ष प्रपनी शोभा से नन्दन वन को भी तिरस्कृत कर रहे थे। सारथि की प्रेरणा से पर्वतराज की शोभा देखने वाले नेमिनाथ ने सघन छाया में निर्मित पट मन्दिर में निवास किया । पर्वत कितना श्री मम्पन्न था। उस पर तपस्विनी गणनी प्रायिका विराजमान हैं। जो मुनि समूह से शोभित हैं, गुरुगों से सहित है। यदुवंश भूषण नेमिजिनेन्द्र के विराजमान होने पर उस पर्वत को शोभा का क्या कहना । ऊर्जयन्तगिरी का इतना सुन्दर वर्णन मुझे अन्यत्र देखने में नहीं आया।
पाठव सर्ग में यादवों की जल क्रीड़ा का सुन्दर वर्णन है, नवमें सर्गमें सूर्यास्त, सध्या, तथा चन्द्रोदय का सुन्दर सजीव वर्णन निहित है। मूर्यास्त होने पर अन्धकार ने प्रवेश किया। रात्रिके सघन अन्धकार को छिन्न-भिन्न करने के लिये ही मानों औषधिपति (चन्द्रमा) का उदय हया।
दशवे सर्ग में-मधुपान का वर्णन है, युवक और युवतियां मधुपान में आसक्त थीं, मधु का मादक नशा उन्हें प्रानन्द विभोर बना रहा था । यादव लोग मधुपान से उन्मत्त हो विविध प्रकार की सुरत क्रीड़ाओं में अनुरक्त थे।
ग्यारहवे सर्ग में राजा उग्रसेन की सूपूत्री राजोमती वसन्त में जल क्रीड़ा के लिये अपनी माताओं के साथ रवतक पर पाई थी। अरिष्ट नेमि के अवलोकनसे वह काम बाण से विध गई । शारीरिक सन्ताप मेटने के लिये सखियों ने चन्दनादि का उपयोग किया, किन्तु सन्ताप अधिक बढ़ गया । यादवेश समुद्र विजय ने नेमिके लिये राजीमती की याचना के लिए श्रीकृष्ण को भेजा। उग्रसेन ने सहर्ष स्वीकृति प्रदान की। अरिष्ट नेमि के विवाह का शुभ मूहर्त निश्चय किया गया । विवाहोत्सवकी तैयारिया होने लगी।
बारहवे सर्ग में नेमि की वर यात्रा सजने लगी, शृंगार वेत्तानों ने उनका श्रृंगार किया, शुद्ध वस्त्र धारण किये प्राभषण पहने, इससे नेमिके शरीर की प्राभा शरत्कालीन मेघ के समान प्रतीत होती थी। वे महान वैभव और सम्पत्ति से युक्त थे। स्वर्ण निर्मित तोरण युक्त राजमार्ग से नेमि धीरे-धीरे जा रहे थे। उधर राजीमती का भी सन्दर श्रृगार किया गया था। वर के सौन्दर्य का अवलोकन के लिये नारियाँ गवाक्षों में स्थित होगई। सभी लोग राजोमती के भाग्य की सराहना कर रहे थे । दूर्वा अक्षत, और कुकुम तथा दधिसे पूर्ण स्वर्ण पात्र को लिये राजीमती वर के स्वागतार्थ द्वार पर प्रस्तुत हुई।
तेरहवें सर्गमें रथ से उतरने के लिये प्रस्तुत अरिष्टनेमि ने पशुओं का करुण 'क्रन्दन' सुना। नेमि ने सारथी से पूछा कि पशमों की यह प्रार्तध्वनि क्यों सुनाई पड़ रही है ? सारथी ने उत्तर दिया-विवाह में समिलित पतिथियों को इन पात्रों का मांस खिलाया जायगा । सारथी के उत्तर से नेमि को अत्यधिक वेदना हई। और उन्हें पर्व जन्म का स्मरण हो पाया। वे रथ से उतर पड़े और समस्त वैवाहिक चिन्हों को शरीर से अलग कर दिया। उग्रसेन मादि ने तथा कुटुम्बी जनों ने अष्टिनेमि को समझाने का प्रयत्न किया, पर सब निष्फल रहा, उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया कि मैं विवाह नही करूंगा। जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पद्यों से प्रकट है:
१ मुनिगण सेव्या गुरुणा युक्तार्या जयति सामुत्र ।
चरणगत मग्विलमेव स्फुरतिारा लक्षणं यस्याः ॥ ७-२
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ श्रुत्वा तमार्तध्वनिमेकवीरः स्फारं दिगन्तेषु स दत्त दृष्टि । ददर्शवाट निकरे निषण्णः खिन्नाखिलखापद वर्ग गर्भम् ॥ तं वीक्ष पप्रच्छ कृती कुमारः स्व सारथि मन्मथसार मूर्तिः । किमर्थ मेते युगपन्निबद्धाः पार्शः प्रभूताः पशवो रटन्तः ॥३ श्रीमन्विवाहे भवतः समन्तादभ्यागतस्य स्वजनस्य भुक्त्यैः । करिष्यते पाक विधेविशेष वागिभिः तमित्युवाच ॥४ श्रुत्वा वचस्तस्य सवश्यवृत्तिः स्फुरत्कृपान्तः करणः कुमारः । निवारयामास विवाह कर्माण्य धर्मभीरुः स्मृत पूर्वजन्मा ॥५ अनत्तरत्यत्ररथान्निषिद्ध निः शेषवैवाहिक संविधान ।।
स विस्मयः किं किमति वाणः समाकुलो भूदथ बन्धुवर्गः ॥६ उन्होंने अपने शिकारी जीवन से जयन्त विमान में उत्पन्न होने तक की पूर्व भवावली भी सुनाई, और समस्त पुरजनों और परिजनों को समझा कर वन का मार्ग ग्रहण किया, और रैवतगिरि पर दीक्षा लेकर तप का अनुप्ठान करने लगे।
कवि ने तीर्थकर नेमिनाथ की विरक्ति के प्रसग में शान्तरस को सयोजित किया है। पशुओं के चीत्कारने उनके हृदय को द्रवित कर दिया है, और वे विवाह के समस्त वस्त्राभूपणों का परित्याग कर तपश्चरण के लिये वन में चले जाते है। इस सन्दर्भ को कवि वाग्भट ने अत्यन्त सुन्दर और मार्मिक बनाया है । भगवान नेमिनाथ विचार करते हैं:
परिग्रहं नाहमिमं करिष्ये सत्यं यतिष्ये परमार्थसिद्धय:। विभोग लीलामृगतृष्णकासु प्रवर्तके कः खलु सद्विवेकः ।। विभोग सारङ्गहतो हि जन्तुः परां भुवं कामपि गाहमानः । हिंसानृतस्तेयमहावनान्तर्वम्भ्रम्यते रेचित साधुमागः ।।
मात्मा प्रकृत्या परमोत्तमोऽयं हिसां भजन्कोपि निषादकान्ताम् । धिक्कार भाग्नो लभते कदाचिद संशयं दिव्यपुरप्रवेशम् ।। दानं तपोववृष वृक्षमूलं श्रद्धानतो येन विवर्ध्य दूरम् ।
स्वनन्ति मूढाः स्वयमेवहिंसा कुशीलता स्वीकरणेन सद्यः ।। मैं विवाह नहीं करूंगा, किन्तु परमार्थ सिद्धि के लिये समीचीन रूप से प्रयत्न करूंगा। ऐसा कौन सद्विवेकी पूरुष होगा, जो भोगरूपी मृगतृष्णा में प्रवृत्ति करेगा। भोगरूपी सारंग पक्षी से हृत प्राणी हिंसा, झूठ, चोरी कुशील और परिग्रह को करता हुआ अपने साधु कर्म का भी परित्याग कर देता है । यद्यपि यह प्रात्मा प्रकृति से उत्तम है तो भी वह पर क्रोधोत्पादक हिंसा का सेवन करता हुआ धिक्कार का भागी बनता है; किन्तु स्वर्ग और निर्वाण आदि को प्राप्त नहीं करता है। जो दान और तप रूपी धर्म वृक्ष पर श्रद्धान करते हुए उन्हें दूर तक नहीं बढ़ाते हैं, वे मूर्ख हैं और हिंसा कुशीलादि का सेवन कर धर्म वृक्ष की जड़ को उखाड़ डालते हैं । अर्थात् जो व्यक्ति द्रव्य या भावरूप हिंसा में प्रवृत्त होता है वह दुर्गति का पात्र बनता है। अतएव विवेकी पुरुष को जाग्रत होकर धर्म सेवन करना चाहिये।
चौदहवें सर्ग में नेमि ने दुर्धर एवं कठोर तपश्चरण किया । वर्षा ग्रीष्म और शरत ऋतु के उन्मुक्त वाता वरण में कायोत्सर्ग में स्थित हए और शुक्लध्यान द्वारा घाति-कर्म कालिमा को विनष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया। जिस तरह अन्धकार रहित दीपक की प्रभा द्वारा रात्रि में अपने भवनों को देखा जाता है उसी प्रकार वे भगवान नेमिनाथ समूत्पन्न हए केवलज्ञान द्वारा तीनों लोकों को देखने जानने लगे। यथा
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, और आचार्य
३१५
"स ददर्श जगन्नाथं ततो विलसन्केवल-बोध-सम्पदा ।
अवलुप्त तमः प्रदीप प्रभया ननक्तमिवात्ममन्दिरम् ॥१४-४८ अन्तिम १५ व सर्ग में केवलज्ञान प्राप्त होते ही देवों ने नेमि तीर्थकर की स्तुति की ओर समवसरण की रचना की। भगवान नेमिनाथ ने सप्ततत्त्व ओर कर्मबन्धादि विषयों का मार्मिक उपदेश दिया। प्रार विविध देशों में विहार कर जन-कल्याण के अादर्श मार्ग को बतलाया। उससे जगत में अहिसा पार सुख-शान्ति का प्रसार हा। अन्त में योग निरोधकर अवशिष्ट अघाति कर्म का विनाशकर अविनाशी स्वात्मोपलब्धि को प्राप्त किया।
इस तरह यह काव्य बड़ा ही सुन्दर सरल और ग्स अलंकारों से युक्त है । मुराष्ट्र देश में पृथ्वी का सुन्दर वर्णन करते हए समुद्र के मध्य में वमी द्वागवती का वर्णन अत्यन्त सुन्दर वन पड़ा है। उममें श्लिष्टोपमा का उदाहरण बहुत ही सुन्दर हुआ है।
परिस्फुरन्मण्डलपुण्डरीकच्छायापनीतातपसंप्रयोगैः ।
या राजहंसरुपसेव्यमाना, राजीविनीवाम्बनिधौ रराजे ॥३७ जो नगरी समुद्र के मध्य में कमलिनी के समान शोभायमान होती है। जिस प्रकार कमलिनी विकसित पण्डरीकों-कमलों-की छाया में जिनकी आताप व्यथा शान्त हो गई है ऐसे राजहंमों' हमविशेषो से सेवित होती है। उसी प्रकार वह नगरी भी तने हुए विस्तृत पुण्डरीकों-हत्रों-की छाया में प्रातप व्यथा दूर हो गई है ऐसे राजइंसों-बडे बडे श्रेष्ठ गजानों से सेवित थी--उसमें अनेक गजा महाराजा निवास करते थे।
कवि का सम्प्रदाय दि० जैन था, क्योंकि उन्होंने मल्लिनाथ तीर्थकर को कुरुराज का पुत्र माना है, पूत्री नहीं. जैसा कि श्वेताम्बर लोग मानते है। विरोधामास अलकार के निम्न उदाहरण से स्पष्ट है :-.
तपः कुठार-क्षत कर्मबल्लि-मल्लिजिनोवः श्रियमातनोतु ।
कूरोः सुतस्यापि न यस्य जातं, दुःशासनत्वं भुवनेश्वरस्य ।।१६।।
लाया है कि- 'तपरूप कुठार के द्वारा कर्मरूप वेल को काटने वाले वे मल्लिनाथ भगवान तुम सबकी लक्ष्मी को विस्तृत करे, जो कुछ के पुत्र होकर भी दुःशासन नहीं थे, पक्षमें दुष्ट शासन वाले नहीं थे।
मल्लिनाथ भगवान कुरुराज के पुत्र तो थे, किन्तु दुःशासन नहीं थे यह विरोध है, उसका परिहार ऐसे हो जाता है, कि मल्लिनाथ के पिता का नाम कुरुराज था, इसका कारण वे कुरुराज पुत्र कहलाये, किन्तु वे दुःशासन नहीं थे- उनका शासन दुष्ट नहीं था-उनके शासन के सभी जीव सुख-शांति से रहते थे। इस पद्य में तप और कुठार, कर्म और वल्लि का रूपक तथा बल्लि और मल्लि का अनुप्रास भी दृष्टव्य है।
वास्तव में अलकार भावाभिव्यक्ति के विशेष साधन है। प्रत्येक कवि रचना में सौन्दर्य और चमत्कार लाने के लिये अलंकारों की योजना करता है । कवि वाग्भट ने भी अपनी रचना में सौन्दर्य विधान के लिये अलंकारों को नियोजित किया है। अलंकारी के साथ रसों के सन्दर्भ की संयोजना उसे और भी सरस बना देती है । इससे पाठकों का केवल मनोरंजन ही नहीं होता किन्तु उन पर काव्य और कवि के श्रम का प्रभाव भी अंकित होता है।
रचनाकाल
कवि वाग्भट ने अपनी गुरुपरम्परा और रचनाकाल का ग्रन्थ में कोई उल्लेख नहीं किया। किन्तु वाग्भट्रालकार के कवि वाग्भट (मं० ११७६) ने अपने ग्रन्थ में नेमिनिर्माण काव्य के अनेक पद्य उद्धृत किये हैं । नेमिनिर्वाण काव्य के छठे सर्ग के ३ पद्य - 'कान्तारभूमी' 'जुहूर्वसन्ते' और नेमिविशाल नयनों आदि ४६, ४७ और ५१ नं० के पद्य वाग्भट्रालंकार के चतुर्थ परिच्छेद के ३५, ३६ और ३२ नं० पर पाये जाते हैं। और सातवें सर्ग का'वरणा प्रसन निकरा' आदि २६ न० का पद्य चौथे परिच्छेद के ४० नं० पर उपलब्ध होता है। इससे स्पष्ट है कि समिनिर्वाण काव्य के कर्ता कवि वाग्भट वाग्भट्रालंकार के कर्ता से पूर्ववर्ती हैं। उनका समय संभवतः वि. की ११वीं शताब्दी होना चाहिए। यहां यह विचारणीय है कि धर्मशर्माभ्युदय और नेमिनिर्वाण काव्य का तुलनात्मक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि दोनो का एक दूसरे पर प्रभाव रहा है। दोनों की कहीं-कहीं शब्दावली
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग ३ भी मिलती है। सम्भव है दोनों १०-२० वर्ष के अन्तराल को लिये हुए सम सामयिक हों। इस सम्बन्ध में अभी अन्य प्रमाणों के अन्वेषण की आवश्यकता है।
- नेमिनिर्वाण काव्य पर एक पंजिका उपलब्ध है । जिसके कर्ता भट्टारक ज्ञान भूषण हैं। पुष्पिका वाक्य में से नेमि निर्वाण महाकाव्य की पंजिका लिखा है। 'इति श्री भट्टारक महाकाव्य पंजिकायां प्रथम सर्गः'। पंजिका की प्रतिलिपि नयामन्दिर
पुरा दिल्ली के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है।
हरिसिंह मुनि मनि हरिसिंह का उल्लेख सुदर्शन चरित्र के कर्ता नयनन्दी ने सकल विधि विधान की प्रशस्ति में किया है। नयनन्दी इनके समीप ही रहते थे। इनकी प्रेरणा से उन्होंने 'सयल विहि विहाण काव्य' की रचना की है । हरि सिंह मनि भी धारा नगरी के निवासी थे। चूकि नयनन्दी ने सं० ११०० में सुदर्शन चरित्र समाप्त किया है । अतः इनका समय भी विक्रम की ११वीं शताब्दी है।
हंससिद्धान्त देव परतत प्राचार्य ससिद्धान्त देव सोमदेवाचार्य के नीतिवाक्यामत की रचना के समय लोक में प्रसिद्ध थे। और न सिद्धान्त के निरूपण में प्रमाण माने जाते थे। जैसा कि नीति वाक्यामृत की प्रशस्ति के निम्न वाक्य से
भवसि समयोक्ती हंस सिद्धान्त देवः।" जाना जाता है। इनका समय सोमदेव की तरह विक्रम की १०वीं या ११वीं शताब्दी का पूर्वार्ध जान पड़ता है।
हर्षनन्दी यह रामनन्दी की गुरु परम्परा के विद्वान् नन्दनन्दी के शिष्य थे। और जीतसार समुच्य के कर्ता वृषभ नन्दी के गुरु भाई थे । अत एव उन्होंने अपने ग्रन्थ प्रशस्ति के 'अनुज हर्षनन्दिना सुलिख्य जीतसार शास्त्रमुज्वलोद्धतं ध्वजायते'१ निम्न वाक्यों में उनका अनुजरूप से उल्लेख किया है। हर्षनन्दी ने जीतसार समूच्च की सुन्दर प्रति लिखकर दी थी। इनका समय विक्रम की दशवीं या ग्यारहवीं शताब्दी का प्रारम्भिक भाग होगा।
महामुनि हेमसेन यह द्रविड संघस्थ नन्दिसंघ, अरुंगलान्वय के विद्वान् थे जो शास्त्र रूपी समुद्र के पारगामी थे। जिनके वचन रूप वज़ाभिघात से प्रवादियों के मदरूपी भूभृत खण्डित हो जाते थे। जैसा कि निम्न पद्यों से जाना जाता है:
श्रीमद् विल-संधेऽस्मिन् नन्दिसंधेऽत्यरुङ्गलः । अन्वयो भाति योऽशेषः-शास्त्र-वाराशि-पारग ।। यद-वाग-वज्राभिघातेन प्रवादि-मद-भभतः ।
सच्चूणितास्तु भातिस्म हेमसेनो महामुनिः ।। सोमहामनि हेमसेन थे । हम्मच का यह लेख काल निर्देश से रहित है, फिर भी इसे सन १०७० ई० का कहा जाता है। प्रत: हेमसेन का समय ईसा की ११वीं शताब्दी का उपान्त्य भाग जान पडता है।
भावसेन काष्ठा संघ लाडवागड गच्छ के प्राचार्य थे । गोपसेन के शिष्य और जयसेन (१०५५) के गुरु थे, जिन्हों
देखो अनेकान्त वर्ष १४ किरण, १५० २७ पुराने साहित्य की खोज नाम का लेख
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान्, आचार्य ने सकली करहाटक में धर्मरत्नाकर की रचना की थी । प्रस्तुत भावसेन ११वी शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान् थे। इनकी कोई कृति प्राप्त नहीं है।
महाकवि हरिचन्द्र हरिचन्द्र नाम के अनेक विद्वान हो गए है। एक हरिचन्द्र का उल्लेख चरकसंहिता के टीकाकार के रूप में मिलता है । इनका आनुमानिक समय ईसाको प्रथम शताब्दी है । कवि बाणभट्ट ने हर्षचरित के हरिचन्द्र का उल्लेख किया है। राजशेखर की काव्य मीमांसा में भी हरिचन्द्र का उल्लेख मिलता है। गउडवहो में भास, कालिदास और सुबन्धुके साथ हरिचन्द्र का नामोल्लेख आता है। किन्तु प्रस्तुत हरिचन्द्र उक्तकवियों से भिन्न हैं । इन महाकवि हरिचन्द्र का जन्म सम्पन्न परिवार के नोमक वंश में हश्रा था। इनके पिता का नाम आर्द्रदेव और माता का नाम रथ्यादेवी था। इनकी जाति कायस्थ थी, परन्तु ये जैनधर्मावलम्बी थे। कवि ने स्वय अपने को परहन्तभगवान के चरण कमलों का भ्रमर लिखा है। इनके छोटे भाई का नाम लक्ष्मण था। जो इनका प्राज्ञाकारी भक्त और गृहस्थी का भार वहन करने में समर्थ था। धमशर्माभ्युदय को प्रशस्ति पद्यों से प्रकट है :
मुक्ताफल स्थिति रलंकृतिषु प्रसिद्धस्तत्रादेव इति निर्मल मूर्तिरासीत्। कायस्थ एव निरवद्य गुणग्रहः सन्नकोऽपि यः कलाकुलमशेषमलंचकार ॥२ लावण्याम्बुनिधिः कलाकुलग्रहं सौभाग्य सद्भाग्ययोः, । क्रीडावेश्मविलासवासवलभी भषास्पदं संपदाम् । शौचाचारविवेकविस्मयमही प्राणप्रिया शूलिनः, शर्वाणीव पतिव्रता प्रणयिनी रोत तस्याभवत् ॥३ प्रहत्पदाम्भोरुहचञ्चरीकस्तयोः सुतः श्रीहरिचन्द पासीत । गुरुप्रसादामला बभवुः सारस्वते स्रोत सि यस्य वाचः॥४ भक्तेन शक्तेन च लक्ष्मणेन निर्व्याकुलो राम इवानुजेन ।
याः पारमासादित बुद्धिसेतुः शास्त्राम्बुराशेः परमाससाद ॥५ महाकवि हरिचन्द्र काव्यशास्त्र के निष्णात विद्वान थे। उन्होंने कालिदास के रघुवंश, कुमारसंभव, किरात तथा शिशपाल वध के साथ चन्द्रप्रभचरित, तत्वार्थ सूत्र, और उत्तर पुराण आदि जैन ग्रन्थों का अध्ययन किया था। यद्यपि उन्होंने अपने से पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं का अवलोकन किया था और उनसे कुछ प्रेरणा भी ग्रहण की है किन्त उनके पद वाक्यादि का कोई उपयोग नही किया। क्योंकि कवि को सभी सन्दर्भो में मौलिकता व्याप्त है। सिद्धान्त शास्त्री पं० कैलाशचन्द्र जो ने महाकवि हरिचन्द्र के समय-सम्बन्धि लेखमें धर्मशर्माभ्युदय की वीरनन्दी के चन्द्रप्रभचरित के साथ तुलना करके लिखा है कि दोनों ग्रन्थों में अत्यधिक समानता है तो भी काव्य की दष्टि से हमें चन्द्रप्रभका धर्मशर्माभ्युदय पर कोई ऋण प्रतीत नही होता। क्योकि महाकवि हरिचन्द्र माघ आदि की टक्कर के कवि हैं।
महाकवि ने इस महाकाव्य में उन समस्त गुणों का वर्णन किया है जिनका उल्लेख कवि दण्डी ने किया १ पदबन्धो ज्ज्वलोहारी रम्य वर्णपदस्थितिः ।
भट्टारक हरिचन्द्रस्य गद्यबन्धो नपायते ॥ हर्षचरित १-१३ पृ० १० २ हरिचन्द्र चन्द्रगुप्तो परीक्षिता विह विशालायाम् ।।
-का० मी० अ०१०प० १३५ (विहार राष्ट्रभाषा संस्करण, १९५४ ई०) ३ भासम्मि जलणमित्ते कत्ती देवे अजस्म रहुआरे । सो बन्धवे अ बंधम्मि हरिचंदे अ आणंदो।।८००
-गउडवहो भाण्डार कर ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट पूना १९२७ ई०। ४ देखो, अनेकान्त वर्ष ८ किरण १७-१० पृ० ३७६
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
३१८
है । महाकाव्य में नायक के चरित के प्रसंगानुसार नगर, राजा, उपवन, पर्वत, ऋतुनों, जलक्रीड़ा, सन्ध्या, प्रभात, चन्द्रोदय और रतिविलास आदि प्रकृति की विचित्रताओं और जीवन की अनुभूतियों का वर्णन समाविष्ट करना श्रावश्यक है | पंडितराज जगन्नाथ ने काव्य के प्राचीन लक्षणों का समन्वय करते हुए काव्य का लक्षण - ' रमणीयार्थ प्रतिप्रादकः शब्दः काव्यम् - रमणीय अर्थ के प्रतिपादन करने वाले शब्द समूह को काव्य - बतलाया है । इससे स्पष्ट है। कि काव्य में रमणीयता केवल अलकारों से ही नही आती, किन्तु उसके लिए सुन्दर अर्थवाले शब्दों का चयन भी जरूरी है | महाकवि हरिचन्द्र ने इस काव्य में शब्द और अथ दोनों को बड़ी सुन्दरता के साथ सजोया है । कवि ने स्वयं लिखा है कि कवि के हृदय में भले ही सुन्दर अर्थ विद्यमान रहे, परन्तु योग्य शब्दों के बिना वह रचना में चतुर नही हो सकता । जैसे कुत्ता को गहरे पानी मे भी खड़ा कर दिया जाय तो भी वह जब पानी पीयेगा तत्र जीभ से ही चाट चाट कर पीयेगा । अन्य प्रकार से उसे पीना नही आता । यथा
हृदिस्थेऽपिकवि न कश्चिन्नि ग्रन्थिगोगुम्फ विचक्षणः स्यात् । जिह्वाञ्चलस्पर्शमपास्य परंतु श्वा नान्यथाम्भो घनमध्यवैति ॥ १४
सुन्दर शब्द से रहित शब्दावली भी विद्वानों के मन को आनन्दित नहीं कर सकती। जिस प्रकार थूवरसे
भरती हुई दुग्ध की धारा नयनाभिराम होने पर भी मनुष्यों के लिये रुचिकर नही होती । हृद्यार्थवन्ध्या पर बन्धुरापि वाणीबुधानां न मनो धिनोति ॥
न रोचते लोचन वल्लभापि स्नुही, क्षरत्क्षीरसरिन्नरेभ्यः ।। १५
कवि कहता है कि शब्द और अर्थ से परिपूर्ण वाणी ही वास्तव में वाणी है, ओर वह बड़े पुण्य से किसी विरले कवि को ही प्राप्त होती है । चन्द्रमा को छोड़ कर अन्य किसी की किरण अन्धकार की विनाशक और अमृत भराने वाली नही है । सूर्य की किरणें केवल अन्धकार की नाशक है, किन्तु भीषण आताप को भी कारण है । यद्यपि मणि किरणे प्रतापजनक नही है, किन्तु उनमें सर्वत्र व्याप्त अन्धकार को दूर करने की क्षमता नही है । यह उभय क्षमता विधिचन्द्र किरण में ही उपलब्ध होती है ।
वाणी भवेत्कस्यचिदेव पुण्यः शब्दार्थ सन्दर्भ विशेषगर्भा ।
इन्दु विना न्यस्य न दृश्यते युत्तमोधुनाना च सुधाधुनीव ॥१६
महाकवि हरिचन्द्र के इस महाकाव्य में वे समस्त लक्षण पाये जाते है जिन गुणों की शास्त्रकार काव्य में स्थिति आवश्यक बतलाते हैं । इस चरित ग्रन्थ में महनीयता के साथ चमत्कारों का वर्णन पूर्णतया समाविष्ट हुआ है । मंगल स्तवन के पश्चात् सज्जन- दुर्जन वर्णन, जम्बूद्वीप, सुमेरु पर्वत, भारतवर्ष, आर्यावर्त, रत्नपुरनगर, राजा, मुनि वर्णन, उपदेश, श्रवण, दाम्पत्यसुख, पुत्र प्राप्ति, बाल्य जीवन, युवराज अवस्था, विन्ध्याचल, षट्ऋतु, पुष्पावचय, जलक्रीड़ा, सन्ध्या, अन्धकार, चन्द्रोदय, नायिका प्रसाधन, पानगोष्ठी, रतिक्रीड़ा, प्रभात, स्वयंवर, विवाह, युद्ध, और वैराग्य आदि का विविध उपमानों द्वारा सरम और सालकार कथन दिया है ।
कवि ने धर्मनाथ तीर्थकर के चरित्र को साहित्यिक दृष्टि से गौरवशाली बनाया है । कवि ने धर्मनाथ का जीवन-परिचय गुणभद्राचार्य के उत्तर पुराण से लिया है । कवि ने स्वयं लिखा है कि जो रसरूप और ध्वनि के मार्ग का मुख्य सार्थवाह था, ऐसे महाकवि ने विद्वानों के लिये अमृतरसके प्रवाह के समान यह धर्मशर्माभ्युदय नामका महा काव्य बनाया है:
सकर्ण पीयूषरसप्रवाहं रसध्वनेरध्वनि सार्थवाहः । श्री धर्मशर्माभ्युदयाविधानं महाकविः काव्यमिदं व्यधत्त ॥
- प्रशस्ति पद्य ७
धर्मशर्माभ्युदय में
२१ सर्ग और १८६५ श्लोक है जिनमें कवि ने १५वे तीर्थकर धर्मनाथ का पावन चरित काव्य दृष्टि से अंकित किया है। काव्य में लिखा है कि धर्मनाथ महासेन और सुव्रता रानी के पुत्र थे । उनका
१. तिलोय पण्णत्ती मे धर्मनाथतीर्थंकर को भानु नरेन्द्र और सुव्रतारानी का पुत्र बतलाया है। रयणपुरे धम्मजिरणो भाग्गरगरिदेण सुव्वदारण ||
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
जन्म माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन पूष्प नक्षत्र में हया था। वे जन्म से ही तीन ज्ञान के धारक थे। वे बड़े भाग्यशाली पौर पुण्यात्मा थे। एक हजार आठ लक्षणों के धारक थे। उनके गर्भ में आने से पूर्व ही जन्म समयतक कुबेर ने १५ मास तक रत्नवष्टि की, उसमे नगर जन-धन मे सम्पन्न हो गया था। उसकी ममद्धि और शोभा द्विगुणित हो गई थी। इन्द्रादिक देवों ने उनका जन्मोत्सव मनाया । वालक का शरीर दिन पर दिन वृद्धि करता हुआ युवावस्था को प्राप्त हमा । उन्होंने पांच लाख वर्ष तक सांसारिक सुखों का उपभोग किया।
एक दिन उल्कापात को देख कर उन्हें देह-भोगों से विरक्ति हो गई। उन्होंने संसार की असारता का अनुभव किया और निश्चय किया कि यह जीवन बिजली की चंचल तरंगों के समान अस्थिर है, विनाशीक है। यह शरीर चर्मरूपी चादर के द्वारा ढका हरा होने से मून्दर प्रतीत होता है। परन्तु यह मलमूत्र से भरा हना है, दुर्गन्धित एवं अपवित्र है। चर्वी मज्जा ओर मधिर मे पंकिल है। यह कर्मरूपी चाण्डाल के रहने का घर है, जिससे दुर्गन्ध निकलती रहती है। मे घणित गरीर मे कौन बुद्धिमान गग करेगा ? मैं तपश्चरण द्वारा कर्म रूपी समस्त पापों को नष्ट करने का प्रयत्न करूंगा। भगवान ऐमा चिन्तवन कर ही रहे थे कि लौकान्तिक देव आगये । और उन्होंने भगवान के वैगग्य को प्रष्ट किया, और कहा कि जो आपने विचार किया है वह थेप्ठ है । उन्होंने पुत्र को राज्य भार देकर इन्द्रों द्वारा उठाई गई शिविका में प्रारूढ़ हो मालवन की ओर प्रस्थान किया, और वहाँ बेला का नियम लेकर पंच मूट्रियों से केशों का लोच कर डाला। अोर माघ शुक्ला त्रयोदशी को पुप्प नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ वस्त्राभूपणों का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रा धारण की'।
भगवान धर्मनाथ ने पाटलिपुत्र के गजा धन्यगेन के घर हस्तपात्र में क्षीगन्त की पारणा की तब देवों ने पंचाश्चर्य की वृष्टि की। और फिर बन में नामाग्र दृष्टि हो कायात्मग में स्थित हो गए। उन्होंने कठोर तपश्चरण दारा तेरह प्रकार के चारित्र का अनुष्ठान किया और मन-वचन कायरूप गुप्तियों का पालन करते हए उन्होंने समिनिरूपी अर्गलायों से अपने को संरक्षित किया। उनकी दष्टि निन्दा प्रशंमा में, शत्र-मित्र में और तण काञ्चन में समान थी। उन्होंने बड़ी कठिनाई से पकने योग्य कर्मम्पी लताओं के फलों को अन्तर्वाह्य रूप तपश्चरणों की
वाला से पकाया और वे प्रशंसनीय तपस्वी हो गए। वे व्यामोह रहित थे, निर्मद निप्परिग्रह, निर्भय और निर्मम थे। इस तरह वे छद्मस्थ अवस्था में एक वर्ष तक घोर तप का प्राचरण करते हुए दीक्षा वन में पहुंचे, और सप्तपर्ण वक्ष के नीचे स्थित हो शुक्ल ध्यान का अवलम्बनकर स्थित हुए। उन्होंने माघ मास की पूर्णिमा के दिन घाति कर्म का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। इन्द्रादिक देवोंने पाकर उनके केवल ज्ञान कल्याणक की पूजा की । भगवान जनाथ ने दिव्य ध्वनि द्वारा जगत का कल्याण करने वाला उपदेश दिया। और विविध देशों, नगरों में विहार कर लोक कल्याण कारी धर्म का प्रसार किया-जनता को सन्मार्ग में लगाया । अन्त में संघ सहित सम्मेदाचल पर पहुँचे, वहाँ चैत्र शुक्ला चतुर्थी को ८०६ मुनियों के साथ सादे वाह लाग्ब वर्ष प्रमाण आयु का और अवशिष्ट प्रघाति कर्मों का विनाशकर सिद्ध पद को प्राप्त किया । यथा
तत्रासाद्य सितांशुभोगसुभगां चैत्रे चतुर्थी तिथि, यामिन्यां स नवोत्तर र्यमवतां साक शतरष्टभिः । साधं द्वादशबर्षलक्षपरमा रम्यायुषः प्रक्षये,
ध्यानध्वस्त समस्तकर्म निगलो जातस्तदानी क्षणात् ।।१८४ इस तरह यह काव्य ग्रन्थ अपनी मानी नहीं रखता, बड़ा ही महत्वपूर्ण मनोहर और हृदयाग्रही काव्य है। १ प्रालेयाशी पुप्य मंत्री प्रयाने माघे शुक्ला या त्रयोदश्य निन्द्या ।
धर्मस्तस्यामात्तदीक्षोऽपगह जातः क्षोणीभत्सहस्त्रेण सार्धम् ।। ३१ -धर्मशर्माभ्युदय २०-३१ २ छद्मस्थोऽसौ वर्षमेकं विहृत्य प्राप्तो दीक्षाकाननं शालरम्यम् । देवो मूले सप्तपर्ण द्रमस्य ध्यानं शुक्लं सम्यगालम्ब तस्थौ ।। ५६ माघे मामे पूर्णमास्यां स पुष्ये कृत्वा धर्मो द्याति कर्मव्यपायम् । उत्पादान्तध्रौव्यवस्तुस्वभावोभासिज्ञानं केवलं स प्रपेदे ।। ५७
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
रचनाकाल
महाकवि हरिचन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदाय में उसका रचनाकाल नहीं दिया। इससे उसके रचनाकाल के निश्चित करने में बड़ी कठिनाई हो रही है। धर्मशर्माभ्युदय को सबसे पुरातन प्रतिलिपि सं० १२८७ सन् १२३० ई०) की संधवी पाड़ा पुस्तक भण्डार पाटण में उपलब्ध है। उस प्रति के अन्त में लिखा है कि-"१२८७ वर्षे हरिचन्द्र कवि विरचित धर्मशर्माभ्युदयकाव्य पुस्तिकाश्रीरत्नाकरमूरिमादेगेनकोतिचंद्रगणिना लिखित मिति भद्रम् ॥” इससे इतना तो स्पष्ट है कि धर्मशर्माभ्युदय सन् १२३० के पूर्व की रचना है, उसके बाद की नहीं।
पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने अनेकान्त वर्ष ८ किरण १०-११ में वीरनन्दी प्राचार्य के चन्द्रप्रभ चरित के साथ धर्मशर्माभ्युदय की तुलना द्वारा दोनों की अत्यधिक समानता बतलाई थी, पर उनमें साहित्यिक ऋण नहीं है। किन्तु हरिचन्द्र के सामने चन्द्रप्रभ जरूर रहा है। चन्द्रप्रभ चरित की रचना सं० १०१६ के लगभग हुई है। क्योंकि वीरनन्दी अभयनन्दी के शिष्य थे। और गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सि० चक्रवर्ती भी अभयनन्दी के शिष्य थे । किन्तु वीरनन्दी और इन्द्रनन्दी नेमिचन्द्र के ज्येष्ठ गुरु भाई थे। चामुण्डराय उस समय विद्यमान थे और गोम्टसार की रचना उनके प्रश्नानुसार हुई थी। चामुण्डराय ने अपना पुगण शक सं० ६०० (वि०सं० १०३५) में बनाकर समाप्त किया था। अत: प्रस्तुत धर्मगर्माभ्युदय ११वीं शताब्दी की रचना है। वहां यह भी विचराणीय है कि नेमिनिर्वाण काव्य और धर्मशर्माभ्युदय दोनों में एक दूसरे का प्रभाव परिलक्षित है। और नेमिनिर्वाण काव्य के अनेक पद्यकवि वाग्भट ने वाग्भट्टालंकार में उद्धत किये है। वाग्भट्टालंकार का रचना काल वि० स० ११५५ से ११६७ के मध्य का है। अत: नेमिनिर्वाण काव्य की रचना वाग्भट्टालंकार से पूर्ववर्ती है। अर्थात् वह विक्रम की ११ शताब्दी के मध्यकाल की रचना है।
कवि की दूसरी कृति जीबंधरचम्पू है । यह गद्य-पद्यमय चम्पू काव्य है इसमें भगवान महावीर के समकालीन होने वाले राजा जीवंधर का पावन चरित अंकित किया गया है । जीवंधर चम्पू के इस कथानक का आधार वादीभ सिंह की क्षत्रचूड़ामणि और गद्यचित्तामणि है । यह चम्पू काव्य सरस और सुन्दर है। रचना प्रौढ और सालंकार है। क्षत्र चुडामणि के समान ही इसमें ११ लम्ब हैं । कवि ग्रन्थ रचना में अत्यन्त कुशल है उसकी कोमल कान्त पदावली रस और अलंकार की पूटने उसे अत्यन्त आर्कषक बना दिया है। इसमें कवि की नैसर्गिक प्रतिभा का अलौकिक चत्मकार दृष्टिगत होने लगता है
क चत्मकार दप्टिगत होने लगता है। रचना सौष्ठव तो देखते ही बनता है। इसकी रचना कब हुई इसका निश्चय करना सहज नही है । ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। यह ग्रन्थ पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य की संस्कृत और हिन्दा टीका के साथ भारतीयज्ञान पीठ से प्रकाशित हो चका है।
ब्रह्मदेव ब्रह्मदेव ने अपना कोई परिचय नही दिया, और न अपनी टीकामों में अपनी गूरु परम्परा का ही उल्लेख किया है । इससे उनकी जीवन-घटनाओं का परिचय देना शक्य नहीं है। ब्रह्मदेव की दो टीकाएं उपलब्ध हैं । वृह द्रव्य संग्रह टीका और परमात्म प्रकाश टीका।
वृहद्रव्य संग्रह वत्ति का उत्थानिका वाक्य इस प्रकार है
"प्रथ मालवदेशे धारा नाम नगराधिपति राजाभोजदेवाभिधानकलिकालचक्रवर्ती सम्बन्धिन: श्रीपाल महामण्डलेश्वरस्य सम्वन्धिन्याश्रमनामनगरे श्री मुनिव्रत तीर्थकर चैत्यालये शुद्धात्म द्रव्य संवित्ति समुत्पन्न सुखामृतरसास्वादविपरीतनारकादि दुःख भयभीतस्य परमात्मभावनोत्पन्न सुखसुधारस पियासितस्य भेदाभेद रत्नत्रय भावना प्रियस्य भव्यवरपण्डरीकस्य भाण्डागाराद्यनेकनियोगधिकारिसोमाभिधान राजश्रेष्ठिनो निमित्तं श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त देवः पूर्व षडविंशति गाथा भिलघु द्रव्यसंग्रहं कृत्वा पश्चाद्विशेषतत्वपरिज्ञानार्थ विरचितस्य द्रव्य संग्रहस्याधिकार शुद्धि पूर्वकत्वेन व्याल्यावृत्तिः प्रारभ्यते।"
उत्थानिका की इन पंक्तियों में बतलाया गया है कि द्रव्य संग्रह ग्रन्थ पहले २६ गाथा के लघुरूप में नेमिचन्द्र सिद्धान्त देव के द्वारा 'सोम' नामक राजश्रेष्ठि के निमित्त प्राश्रम नामक नगर के मुनि सुव्रत चैत्यालय में रचा
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
गया था । पश्चात् विशेष तत्त्व के परिज्ञानार्थ उन्हीं नेमिचद्र के द्वाग द्रव्य संग्रह की रचना हुई है। उसकी अधिकारों के विभाजन पूर्वक यह व्याख्या या बत्ति प्रारम्भ की जाती है। साथ में यह भी सूचित किया है कि उस समय पाश्रम नामका यह नगर श्रीपाल महामण्डलेश्वर (प्रान्तीय शासक) के अधिकार में था। और सोम नाम का राजश्रेष्ठी भाण्डागार (कोष) आदि अनेक नियोगों का अधिकारी होने के साथ-साथ तत्त्वज्ञान रूप सुधारस का पिपासू था। वत्तिकार ने उसे 'भव्यवरपुण्डरीक' विशेपण मे उल्लेखित किया है, जिससे वह उस समय के भव्य पुरुषों में श्रेष्ठ था।
ब्रह्मदेव पाश्रम नाम के नगर में निवास करते थे। जिसे वर्तमान में केशोराय पाटन के नाम से पुकारते हैं। यह स्थान मालव देश में चम्बल नदी के किनारे कोटा से ६ मील दूर और बंदी मे तीन मील दूर अवस्थित है। जो प्रस्सारम्म पट्टण ' प्राथम पत्तन, पत्नन, पुट भेदन, केशोराय पाटन और पाटन नाम से प्रसिद्ध है । यह स्थान परमारवंशी राजाओं के राज्यकाल में रहा है। चर्मणवती (चम्बल) नदी कोटा और बंदी को सीमा का विभाजन करती है। इस चम्बल नदी के किनारे बने हा मुनिसुव्रतनाथ के चैत्यालय में जो, उस समय एक तीर्थ स्थान के रूप में प्रसिद्ध था । और वहां अनेक देशों के यात्रीगण धर्मलाभार्थ पहुंचते थे। 'मोमराजथेप्ठी भी वहां पाकर तत्त्वचर्चा का रस लेता था। वह स्थान उस समय पठन-पाठन और तत्त्व चर्चा का केन्द्र बना हया था। उस चैत्यालय में बीसवें तीर्थकर मुनि सुव्रतनाथ की श्यामवर्ण की मानव के आदमकद मे कुछ ऊंची सातिशय मूर्ति विराजमान है । यह मन्दिर प्राज भी उसी अवस्था में मौजूद है । इसमें श्यामवर्ण की दो मतियाँ और भी विराजमान हैं। सरकारी रिपोर्ट में इसे 'भुईदेवरा' के नाम से उल्लेखित किया गया है।
विक्रम की १३ वी शताब्दी के विद्वान मुनि मदनकीति ने अपनी शासन चतुस्त्रिशतिका के २८वें पद्य में प्राथम नगर की मुनिसुव्रत-सम्बन्धि ऐतिहासिक घटना का उल्लेख किया है
पूर्व याऽऽश्रममाजगाम सरिता नाथास्तुदिव्या शिला। तस्यां देवागणान् द्विजस्य दधतस्तस्थौ जिनेश: स्वयं । कोपात विप्रजनावरोधनकर देवः प्रपूज्याम्बर ।
दघ्र यो मुनिसुवतः स जयतात दिग्वाससां शासनम् ॥२८॥ इसमें बतलाया गया है कि जो दिव्य शिला सरिता मे पहले प्राश्रम को प्राप्त हई। उस पर देवगणों को धारण करने वाले विनों के द्वारा श्रोध वश अवरोध होने पर भी मूनिसुव्रत जिन स्वयं उस पर स्थित हए -वहां से फिर नहीं हटे। और देवों द्वारा आकाश में पूजित हा वे मुनिसुव्रत जिन ! दिगम्बरों के शासन की जय करें।
आश्रम नगर की यह ऐतिहासिक घटना उसके तीथं भूमि होने का स्पष्ट प्रमाण है। इसीसे निर्वाण काण्ड की गाथा में उसका उल्लेख हुआ है । यह घटना १३वीं शताब्दी में बहुत पूर्व घटित हुई है । और ब्रह्मदेव जैसे टीकाकार, सोमराज थेप्ठी और मुनि नेमिचन्द्र जैसे सैद्धान्तिक विद्वान वहाँ तत्त्वचर्चा गोष्ठी में शामिल रहे हैं। द्रव्य संग्रह की वत्ति में ब्रह्मदेव ने 'अत्राह-सोमाभिधान राजथेष्ठी' जैसे वाक्यों द्वारा टीकागत प्रश्नोत्तरों का सम्बन्ध व्यक्त किया है। क्योंकि नामोल्लेखपूर्वक प्रश्नोत्तर बिना समक्षता के नहीं हो सकते । सून मनाकर ऐसा प्रश्नोत्तर लिखने का रिवाज मेरे अवलोकन में नहीं पाया। ब्रह्मदेव का उक्त घटना निर्देश और लेखन शैली घटना की साक्षी को प्रकट करती है। और उक्त तीनों व्यक्तियों की सानिध्यता का स्पष्ट उदघोप करती है।
वत्तिकार ब्रह्मदेव ने उसी प्राथम पत्तन के मुनिसुव्रत चैत्यालय में अध्यात्मरस गभित द्रव्य संग्रह की महत्वपूर्ण व्याख्या की है। ब्रह्मदेव अध्यात्मरस के ज्ञाता थे। और प्राकृत संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषा के विद्वान थे। सोम नाम के राजश्रेष्ठी, जिसके लिये मूल ग्रन्थ और वृत्ति लिखी गई, अध्यात्मरस का रसिक था। क्योंकि वह शादात्मद्रव्य की संवित्ति से उत्पन्न होने वाले सुखामृत के स्वाद से विपरीत नारकादि दु:खों से भयभीत, तथा परमात्मा की भावना से उत्पन्न होने वाले सुधारस का पिपासु था, और भेदाभेदरूप रत्नत्रय (व्यवहार तथा
१. अस्सारम्मे पट्टणि मुणिसुव्वयजिणं च वदामि । निर्वाण काण्ड, मुणिसुव्व उजिणु तह आसरम्मि । निर्माण भक्ति
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ ३२२ निश्चय रत्नत्रय) की भावना का प्रेमी था। ये तीनों ही विवेकी जन समकालीन और उस प्रथम स्थान में बैठकर तत्त्वचर्चा में रस लेने वाले थे। उपरोक्त घटना-क्रम धाराधिपति राजा भोज के राज्यकाल में घटित हमा है। भोजदेव का राज्यकाल सं० १०७० से १११० तक रहा है। द्रव्यसंग्रह और उसको वृत्ति उसके राज्यकाल में रची गई है।
___ मूल द्रव्य संग्रह ५८ गाथात्मक है। उसमें जीव अजीव, धर्म, अधर्म आकाश और काल इन छ: द्रव्यों का समूह निदिष्ट है। इस कृति का निर्माण प्राचार्य कन्द के पचास्तिकाय प्राभूत से अनुप्राणित है उसी का दोहन रूप सार उसमें संक्षिप्त रूप में अंकित है। वृत्तिकार ने मूल ग्रन्थ के भावों का उदघाटन करते हए जो विशेष कथन दिया है और उसे ग्रन्थान्तरों के प्रमाणों के उद्धरणों मे द्वारा पूष्ट किया है । टीका में अध्यात्म की जोरदार पूट अकित है। उसमे टीका केवल पठनीय ही नहीं किन्तु मननीय भी हो गई है। ओर स्वाध्याय प्रेमियो के लिये अत्यन्त उपयोगी है।
वत्ति में सोमराज श्रेष्ठी के दो प्रश्नों का उत्तर नामोल्लेख के साथ दिया गया है। यदि टीकाकार समक्ष सोमराज श्रेष्ठी न होते तो उनका नाम लिये बिना हो प्रश्नों का उत्तर दिया जाता। चं कि वे उस समय विद्यमान थे, इसी में उनका नाम लेकर शका समाधान किया गया है। पाठकों की जानकारी के लिये उसका एक नमूना नीचे दिया जाता है :
सोमराज श्रेष्ठी प्रश्न करता है कि हे भगवन् ! केवलज्ञान के अनन्त वे भाग प्रमाण प्राकाश द्रव्य है और उस आकाश के अनन्तवे भागमें सबके बीच में लोक है, वह लोक काल की दृष्टि से अादि अन्त रहित है, वह किसी का बनाया हा नही है। प्रोर न कभी किसी ने नष्ट किया है, किसी ने उसे न धारण किया है, और न कोई उसका रक्षक ही है। लोक असंन्यात प्रदेशी है। उस असंख्यात प्रदेशी लोक में अनन्त जीव ओर उनसे अनन्तगुणे पूदगल परमाण, लोकाकाश प्रमाण कालाण, धर्म तथा अधर्म द्रव्य कैसे रहते हैं ?
इस शंका का समाधान करते हए ब्रह्म देव ने कहा है कि जिस तरह एक दोपक के प्रकाश में अनेक दीपकों का प्रकाश समा जाता है, अथवा एक गूढ रस भरे हुए शोगे के बर्तन में बहुत सा सुवर्ण समा जाता है । अथवा भस्म से भरे हुए घट में सुई और ऊटनी का दूध समा जाता है । उसी तरह विशिष्ट अवगाहन शक्ति के कारण असंख्यात प्रदेश बाले लोक में जीव पदगलादिक समा जाते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं पाता। यह प्रश्नोत्तर उनके साक्षातकारित्व का संसूचक है ही।
ब्रह्मदेव की वृत्ति के कारण द्रव्य संग्रह की महत्ता बढ़ गई, उन्होंने उसकी विशद ब्याख्या द्वारा चार चांद लगा दिये । अतः द्रव्यसंग्रह की यह टीका महत्व पूर्ण है।
परमात्म प्रकाश टीका-परमात्म प्रकाश की ब्रह्मदेव को यह टोका जहां दोहों का सामान्य अर्थ प्रकट करती है, वहा वह दोहों का केवल अर्थ ही प्रकट नहीं करती बल्कि उनके अन्त: रहस्य का भी उद्धावन करती है। ब्रह्मदेव ने योगीन्द्रदेव की अध्यात्मिक कृति का निश्चय को दृष्टि से कथन किया है। किन्तु परमात्म प्रकाश की यह टीका द्रव्यसंग्रह की टीका के समान कठिन नहीं है । टीकाकार सरल शब्दों में उसका रोचक वर्णन करते हैं, और उसे ग्रन्थान्तरों के उदाहरणों मे पुष्ट भी करते हैं। यह सच है कि यदि परमात्म प्रकाश पर ब्रह्मदेव की यह वृत्ति न होती तो वह इतना प्रसिद्ध नही हो सकता था। ब्रह्मदेव की यह टीका उसको विशेष ख्याति का कारण है । टीका के अन्त में टीकाकार ने लिखा है कि इस टीका का अध्ययन कर भव्य जीवों को विचार करना चाहिये कि मैं शुद्ध ज्ञानानन्द स्वभाव निर्विकल्प हूं, उदासीन हूं, निजानन्द निरंजन शुद्धात्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप निश्चय रत्नत्रयमयी निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वीतराग सहजानन्दरूप आत्मानुभुति मात्र स्वसं वेदन ज्ञान से गम्य हैं। अन्य उपायों से नहीं। और निर्विकल्प निरंजन ज्ञान द्वारा ही मेरी प्राप्ति है, राग, द्वेष, मोह क्रोध मान, माया, लोभ, पंचेन्द्रियों के विषय, द्रव्य कर्म, नो कर्म, भाव कर्म, ख्याति लाभ पूजा, देखे सुने और अनुभव किये भोगों की वांछा रूप निदानादि शल्यत्रय के प्रपंचोंसे रहित हं तीन लोक तीन काल में मन वचन काय, कृन, कारित मनुमोदनाकर शुद्ध निश्चय से मैं ऐसा प्रात्माराम हूं। यह भावना मुमुक्ष जीवों के लिये बहुत उपयोगी है। इसका निरन्तर मनन करना आवश्यक है।
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवी और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३२३
रचना काल
ब्रह्मदेव ने अपनी टीकाओ मे उनका रचना काल नही दिया, अोर न अपनी गुरुपरम्परा का ही उल्लेख किया है। इसमे टीकाग्रो के रचना काल के निर्णय करने में कठिनाई हो रही है।
द्रव्यसंग्रह की सबसे पुरानन प्रतिलिपि म०२४१६ की लिखी हई जयपर के ठोलियो के मन्दिर के शास्त्रभंडार में उपलब्ध है, जो योगिनीपूर दिल्ली में फीरोजगाह तुगलक के राज्य काल मे अग्रवाल वगी भरहपाल ने लिखवाई थी। इसमें इतना नी स्पष्ट कि उक्त टाकाम० १४१६ मे वाद की नही है किन्तु पूर्ववर्ती हे। क्योकि इसका निर्माण धारा नगरी के गजा भोज के गज्यकाल में हरा है। राजा भाज का राज्य काल म० १०७० मे १११० तक रहा है । म० १०७६ ग्रार १०७६ के उसके दो दान पत्र भी मिले है। इसमे द्रव्य मग्रह की टीका विक्रम की ११ वी शताब्दी के उपान्त्य पोर १० वी के प्रारम्भ मे रची गई है। यही निष्कर्ष टीका में उदधत ग्रन्थान्तरो के अवतरणो में भी स्पष्ट होता है। दानो टीकाग्रो में अमतचन्द्र, गमिह अमितगति प्रथम चामुण्डगय, डड्ढा पोर प्रभाचन्द्र आदि के ग्रथों के अवतरण मिलते है, जो विक्रम की १० वी पार ग्यारहवी शताब्दी के विद्वान है। इससे भी ब्रह्मदेव की टीकानो का वही समय निश्चित होता है, जिसका उल्ले ग्व ऊपर किया गया है। अतः ब्रह्मदेव का समय ११ वी शताब्दी का उपान्य पोर :- वो का प्रारम्भिक भाग है।
त्रिभुवनचन्द्र मूलमघ नन्दिमघ बलात्कार गण के विद्वान थे गुरु परम्परा में वर्धमान, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, गुणकीर्ति, विमलचन्द्र, गुणचन्द्र, अभय नन्दि, मकलचन्द्र, गण्डविमक्त पार त्रिभवनचन्द्र के नाम दिये है।
धारवाड जिले के प्रष्णिगेर मार गावरवाड ग्रामो में प्राप्त दा विस्तृत शिलालेख मिोहै। उनमे कल्याणी के चालुक्य राजा सोमेश्वर (द्वितीय) के समय मे गन० १०७०-७१ में मूलमघ नन्दिमघ बलात्कार गण क प्राचार्य त्रिभुवनचन्द्र को दान दिये जाने का वर्णन है। यह दान गग राजा बूतुग (द्वितीय) द्वारा अण्णिगेरे में निर्मित गगपेमाडि जिनालय के लिये दिया गया था। चोल राजानो के आक्रमण मे प्राप्त क्षति को दूर कर पुन: यह दान दिया था। अतएव त्रिभवन चन्द्र का समय ईसा की ११ वी शताब्दी का उत्तरार्ध है।
एपिग्राफिया डिका भा० १५ पृ० ३३७
रामसेन प्रस्तत राममेन मलमघ, मेनगण ओर पोगरिगच्छ के विद्वान गूणभद्र व्रतीन्द्र के शिष्य थे। इन्हें प्रतिकण्ठ सिगय्यने अपने शासक वम्मदव का प्रार्थना पत्र देकर त्रिभुवन मल्ल देव से चालुक्य विक्रम वर्ष २ सन् १०७७ ई. में चालक्य गग पेनिडि जिनालय की, जिन पूजा अभिषेक और ऋषि पाहारदानादि के लिये गाव का दान दिया गया था। अतः इन रामसेन का समय ईमा की ११ वी शताब्दी है।
-
-
-
-
-
दयापाल मुनि मुनिदयापाल २ द्रविड मघग्थ नन्दि सघ अगलान्वय के विद्वान थे। इनके गुरुका नाम मतिसागर था।
१मवत १४१६ वा भावमुदी १३ गगै दिने श्रीमद्योगिनी पुरे मकल राज्य शिगेमुकुट मारिणक्य मरीचिकृत चरण कमल पादपीठम्य श्रीगत् पेगेजमाहे मकलमाम्राउगधुगविभ्रागणम्य समये वर्तमाने श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये मूलसघ मरस्वती गच्छे बलात्कार गरगे भट्टारक रत्नकीति तरुण तारिणत्वमुर्वीर्वाण श्री प्रभाचन्द्राणा तम्य शिष्य ब्रह्मनाथ पठनार्थ अनोत्कान्वये गोहिल गोत्रे भग्थल वास्तव्य परम थावन साधु माउ भार्या वीगे तयो पुत्र साधु ऊधस भार्या बालही तस्य पुत्र कुलधर भार्या पाणधही तस्य पुत्र भरहपाल भार्या लोधाही श्री भरहपाल लिखापित कर्मक्षयार्थ । कनकदेव पडित लिखतम् शुभं भवतु ।
२. हित पिणा यम्य नग्गामुदात्तवाचा निबद्धाहित-रूपसिद्धिः । वद्यो दयापाल मुनिः सवाचा सिद्धम्सतामूई नि य: प्रभाव ।
-श्रवणवेलगोल ५४ वा शिला लेख
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
यह कनकसेनके शिष्य और वादिराज के सधर्मा गुरुभाई थे। इनकी रूप सिद्धि नामकी एक छोटी-सी रचना है । " चूंकि वादिराज ने पार्श्वनाथ चरित्र की रचना शक सं० ९४७ ( वि० सं० १०८०) में की है । अतः यही समय दयापाल मुनि का है । यह रचना प्रकाशित हो चुकी है ।
जयसेन
प्रस्तुत जयसेन लाड बागडसंघ के विद्वान थे । यह गुणी, धर्मात्मा शमी भावसेनसूरि के शिष्य थे । जो समस्त जनता के लिये आनन्द जनक थे । जैसा कि उनके सकल जनानन्द जनकः' वाक्य से प्रकट है। इसी लाड बागड संघ के विद्वान नरेन्द्रसेन ने सिद्धान्तसार की प्रशस्ति में भावसेन के शिष्य जयसेन को तपरूपी लक्ष्मी के द्वारा पापसमूह का नाशक, सत्त विद्यार्णव के पारदर्शी और दयालुनों के विश्वास पात्र बतलाया है, जैसा कि सिद्धान्तसार प्रशस्ति के निम्न पद्य से स्पष्ट है :
रव्यातस्ततः श्रीजयसेननामा जातस्तपः यः सतर्क विद्यार्णवपारदृश्वा विश्वासगेहं
श्रीक्षतदुः कृतौघः । करुणास्पदानां ||
इन्होंने धर्म रत्नाकर' नाम के ग्रन्थ की रचना की है, जो एक संग्रह ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ का प्रति पाद्य विषय गृहस्थ धर्म है, जो प्रत्येक गृहस्थ द्वारा ग्राचरण करने योग्य है । ग्रन्थ में गृहस्थों के अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत रूप द्वादशव्रतों के अनुष्ठानका विस्तृत विवेचन दिया हुआ है । ग्रन्थ मे बीस प्रकरण या अध्याय हैं। जिनमें विवेचित वस्तु को देखने और मनन करने मे उमे धर्म का सद् रत्ना कर अथवा धर्मरत्ना कर कहने में कोई अत्युक्ति मालूम नहीं होती । वह उसका सार्थक नाम जान पड़ता है । ग्रन्थ में कवि ने अमृतचन्द्राचार्य के पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, गुणभद्राचार्य के आत्मानुशासन और यशस्तिलक चम्पू आदि ग्रन्थों के पद्यों को संकलित किया है। इससे यह एक संग्रह ग्रन्थ मालूम होता है । जिसे ग्रन्थ कारने अपने और दूसरे ग्रन्थों के पद्य वाक्य रूप कुसुनों का संग्रह करके माला की तरह रचा है । ग्रन्थ कर्ता ने स्वयं इस की सूचना ग्रन्थ के अन्तिम पद्य ६० में - " इत्येतैरुपनीत विचित्र रचनैः स्वरन्यदीयं रपि । भूतोद्य गुणैस्तथापि रचिता मालेव से यं कृतिः"। वाक्य द्वारा की है ।
जयसेन ने अपनी गुरुपरम्परा का निम्न रूप में उल्लेख किया है। धर्मसेन, शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन और जयसेन । ये सब मुनि उक्त लाडवागड सघ के थे। जयसेन ने धर्मरत्नाकर की रचना का उल्लेख निम्न प्रकार किया है :
वाणेन्द्रिय व्योमसोम - मिते संवत्सरे शुभे । ग्रन्थोऽयं सिद्धतां यात सकली करहाटके ||
इससे प्रस्तुत यमेन का समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी का मध्य काल है ।
बाहुबलि श्रावार्य
यह मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान इन्द्रनन्दि के शिष्य थे । हन गुन्द ( बीजापुर मैसूर) के ११ वी शताब्दी के उत्तरार्ध के शिलालेख में इनके द्वारा एक जैनमन्दिर बनवाने और उसमंदिर के लिये कुछ भूमि दान देने का उल्लेख है इनका समय विक्रम की ११वीं सदी का उत्तरार्ध
I
?........ कनकसेन भट्टारकवरशिप्यर शब्दानुशासनक्के प्रक्रियेयेन्दु रूपसिद्धिय माडिद दयापालदेवरू पुष्पषेण मिद्धान्तदेवरूम्
शब्दानुशासन स्योच्चैर रूपसिद्धिर्महात्मना । कृता येन स बाभाति दयापालो मुनीश्वरः ।
- जैनलेखसं० भा० २ पृ० २६५
- जैन लेखसं० भा० २ पृ० ३०८
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य
३२५
माधवचन्द्र विद्य प्रस्तुत माधवचन्द्र नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के प्रधान शिष्य थे। प्राकृत संस्कृत भाषा के साथ सिद्धान्त व्याकरण और न्याय शास्त्र के विद्वान् थे। इसी से विद्य कहलाते थे। इन्होंने अपने गुरु नेमिचन्द्र की सम्मति से त्रिलोकसार में कुछ गाथाएं यत्र-तत्र निविष्ट की हैं जैसा कि उनको निम्न गाथा से स्पष्ट है :
गुरुणे मिचन्दसम्मद कदिवयगाहा तहि तहि रइया ।।
माहवचन्द तिविज्जेणिय मणसदणिज्ज मज्जेहिं ।। त्रिलोकसार की गाथा संख्या १०१८ है। माधवचन्द्र विद्य ने उस पर संस्कृत टीका लिखी है। यह ग्रन्थ संस्कृत टीका के साथ माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चका है, परन्तु बहत दिनों से अप्राप्य है। टीकाकार ने लिखा है कि गोम्मटसार की तरह इस ग्रन्थ का निर्माण भी प्रधानतः चामुण्डराय को लक्ष्य करके उनके प्रबोधार्थ रचा है। और इस बात को माधवचन्द्र जी ने अपनी टीका के प्रारम्भ में व्यक्त किया है। 'श्रीमद प्रतिहता प्रतिम निःप्रतिपक्षनिष्करण भगवन्नेमिचन्द्र सैद्धान्तदेवश्चतुरनुयोगचतुरुदधिपारगश्चामुण्डराय प्रतिबोधनव्याजन अशेषविनेयजनप्रतिवोधनार्थ त्रिलोकमारनामानं ग्रन्थमारचयन" वाक्या द्वारा स्पष्ट किया है। टीकाकार ने टीका का रचना समय नहीं दिया। फिर भी चामुण्डराय के समय के कारण इनका समय सन् १७८ वि० सं० १०३५ निश्चित है।
इस त्रिलोकसार ग्रन्थ की पं० टोडर मल जी ने स १८१८ में हिन्दी टीका बनाई हैं जिसमें उन्होंने गणित की संदष्टियों का भी अच्छा परिचय दिया है, जिसका उन्होंने बाद में संशोधन भी किया है। माधव चन्द्र विद्य चामुण्डराय के समकालीन है । अतः इनका समय विक्रम की ११ वों शताब्दी का मध्यभाग है।
पद्मनन्दी प्रस्तुत पद्मनन्दि वीरनन्दी के शिष्य थे । जो मूलसंघ देशीय गण के विद्वान् थे। पद्मनन्दो ने अपने गुरु का नाम 'दान पञ्चाशत्' के निम्न पद्य में व्यक्त किया है, और बतलाया है कि रत्नत्रयरूप आभरण से विभूषित श्री वीरनन्दी मुनिराज के उभय चरण कमलों के स्मरण से उत्पन्न हए प्रभाव को धारण करने वाले श्री पद्मनन्दी मनि ने ललित वर्गों के समूह से संयुक्त बावन पद्यों का यह दान प्रकरण रचा है :
रत्नत्रयाभरणवीरमुनीन्द्रपाद पद्मद्वयस्मरणसंजनितप्रभावः ।
श्री पद्मनन्दिमुनिराश्रितयुग्मदान पच्चाशतं ललितवर्ण चयं चकार ।। ग्रन्थ कर्ता ने और भी दो प्रकरणों में वीरनन्दी का स्मरण किया है।
यह वीरनन्दी वे ज्ञात होते हैं। जो मेघचन्द्र त्रविद्य के शिष्य थे। मेषचन्द्र विद्यदेव के दो शिष्य थे. प्रभाचन्द्र और वीरनन्दी। उनमें प्रभाचन्द्र पागम के अच्छे ज्ञाता थे और वीरनन्दो सैद्धान्तिक विद्वान थे। वीरनन्दी ने प्राचार सार और उसकी अनड़ी टीका शक स० १०७६ (वि० सं० १२४१) में बनाई थी। इनके गरु मेघचन्द विद्य का स्वर्गवास शक मं०१०३७ (वि० सं० ११७२) में हुआ था । अतएव इन वीरनन्दी का समय सं० १११२ से १२१२ तक है । सं० १२११ के बाद ही उनका स्वर्गवास हुप्रा होगा।
पभनागना
समय
पद्मनन्दि ने अपनी रचनाओं में समय का उल्लेख नहीं किया है, इससे रचनाकाल के निश्चित करने में बडी कठिनाई उपस्थित होती है। पद्मनन्दि पंच विशति प्रकरणों पर प्राचार्य अमृतचन्द्र, सोमदेव और अमितगति के ग्रंथों का प्रभाव और अनुशरण परिलक्षित होता है । इससे पद्मनन्दि बाद के विद्वान जान पड़ते हैं। इनमें अमित गति द्वितीय विक्रमकी ११वीं शताब्दी के विद्वान् हैं उनका समय सं० १०५० से १०७३ का निश्चित है। प्रस्तुत पद्मनन्दि इनसे बहत बाद में हुए हैं।
यहां पर यह भी ज्ञातव्य हैं कि पद्मनन्दि के चतुर्थ प्रकरणगत एकत्व सप्तति पर एक कन्नड़ टीका उपलब्ध है।
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
जिसके कर्ता पद्मनन्दि व्रती है, उन्होने अपने गुरु का नाम राद्धान्त शुभचन्द्र देव बतलाया है, वे उनके अपशिष्य थे । उन्होने यह टीका निम्बराज के प्रबोधनार्थ बनाई थी, जो शिलाहार नरेश गण्डरादित्य के सामन्त थे । निम्बराज ने कोल्हापुर मे शक म० १०५८ (वि०म० ११९३) में रूप नारायण वसदि (मन्दिर) का निर्माण कराया था और उसके लिए कोल्हापुर तथा मिरज के आस-पास के ग्रामो का दान भी दिया था ।' एकत्व सप्तति की यह टीका म० ११६३ के लगभग की रचना है, इसमे स्पष्ट है कि एकत्व सग्नति उसमे पूर्व बन चुकी थी। अर्थात् एकत्व सप्तति स० १९८०-८५ की रचना है।
उक्त पद्मनन्दि की निम्न रचनाए उपलब्ध है, जिनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है। यहा यह बात भी मुनिश्चित है कि पद्मनन्दि के ये सभी प्रकरण एक साथ नही बने, मिन्न-भिन्न समयो में उनका निर्माण हुआ है इसी दप्टि को लक्ष्य में रखकर रचना काल में भी परिवर्तन अनिवार्य है।
रचनाओं का नाम
१ धर्मोपदेशामृत, २ दानोपदेशन, ३ अनित्य पञ्चाशत्, ४ एकत्व सप्तति, ५ निभावनाप्टक, ६ उपासक सम्कार, ७ देशवनोद्यातन, ८ सिद्धस्तुति, ६ अालोचना, १० सद्वाध चन्द्रोदय, ११ निश्चय पञ्चाशन, १२ ब्रह्मचर्य रक्षा वति, १३ ऋपभ स्त्रोत्र, १४ जिन दशन स्तवन, १५ थुत देवता स्तुति, १६ स्वयभू स्तुति, १७ सुप्रभाताष्टक १८ शान्ति नाथ स्तात्र, १६ जिन पूजाप्टक, २० करुणाप्टक, २१ क्रियाकाण्डचूलिका, २२ एकन्या भावना दशक, २३ परमार्थ विति, २८ शरीराप्टक, २५ स्नानाप्टक, २६ ब्रह्मचर्याप्टक ।
धर्मोपदेशामत-- यह अधिकार सबसे बडा है, इसमे १६८ दलोक है। पहन धर्मापदेश के अधिकारो का
प्ट करते हुए, धर्म का स्वरूप व्यवहार पार निश्चय दष्टि से बतलाया है । व्यवहार के प्राथय में जीवदया को-अशरण को शरण देने और उसके दु.ख में स्वय दु.ख का अनुभव करने को-धर्म कहा है। वह दो प्रकार का है गृहस्थ धर्म ओर मुनि धर्म । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र की अपेक्षा तीन भेद, और उत्तम क्षमादि की अपेक्षा दश भेद बतलाये है। इस व्यवहार धर्म को शभ उपयोग बतलाया है, यह जीव को नरक तिर्यचादि दुर्गतियों मे बचाकर मनुष्य और देवर्गात के सुख प्राप्त कराता है। इस दृष्टि में यह उपादेय है। किन्तु सर्वथा उपाय तो वह धर्म है जो जीव को चतुर्गति के दुःखो से छुड़ा कर अविनाशी सुख का पात्र बना देता है। इश धर्म को शुद्धोपयोग या निश्चय धर्म कहते है।
गहि धर्म में श्रावक के दर्शन, व्रत प्रतिमा आदि ग्यारह भेदो का कथन किया है। इनके पूर्व में जुआदि सात व्यसनी का परित्याग अनिवार्य बतलाया है, क्योंकि उनके बिना त्यागे व्रत आदि प्रतिष्ठित नहीं रह सकते। क्योकि व्यसन जीवो को कल्याणमार्ग से हटाकर अकल्याण मे प्रवृत्ति कराते है। उन द्यूतादि व्यसनो के कारण युधिष्ठिर आदि को कष्ट भोगना पडा है। गहि धर्म मे हिसादि पच पापो का एक देश त्याग किया जाता है। इसी से गहि धर्म को देश चारित्र पार मुनि धर्म को सकल चारित्र कहा जाता है। सकल चारित्र के धारक मूनि रत्नत्रय में निप्ठ होकर मल गुण, उत्तर गुण, पच प्राचार और दश धर्मो का पालन करते है। मुनियो के मूल गुण २८ होते है-पाच महाव्रत, पाच समिति, पाचो इन्द्रियों का निरोध, समता, आदि छह आवश्यक लोच, वस्त्र का परित्याग, स्नान का त्याग भू शयन, दन्तघर्षण का त्याग, स्थिति भोजन, और एक भक्त भोजन ।
साघ स्वरूप के अतिरिक्त आचार्य और उपाध्याय का स्वरूप भी निदिष्ट किया है। मानव पर्याय का मिलना दुर्लभ है, अत: इसमे आत्महित के कार्यों में संलग्न रहना चाहिए। क्योंकि मृत्यु का काल अनियत है-वह
१ श्री पद्मनन्दि ति निमिनेयम् ए कन्व सप्तत्यग्विलार्थ पूतिः।। ___ वृत्तिश्चिर निम्बनूप प्रबोध लब्धात्मवृत्ति जयता जगत्याम् ।।
स्वम्नि श्री शुभचन्द्रराद्धान्तदेवाग्रशिप्येण कनकनन्दिपण्डित वाश्मिविक सितहृत्कुमुदानन्द श्रीमद् अमृतचन्द्र चन्द्रिकोन्मीलिन नेत्रोत्सलाव नोकिनाशेषाध्यात्मतत्त्ववेदिना पद्मनन्दिमुनिना श्रीमज्जैनमुधाब्धिवर्धनकगपूर्णेन्दु दुगगतिवीर श्री पति निम्बराजावबोधनाय कृतकत्व सप्लतेवत्तिरियम् ।
-पअनन्दि पविशति की अग्ने जी प्रस्तावना से उद्धत पु. १७
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३२७
कब प्राधमकेगी यह निश्चित नहीं है, अतएव बुद्धिमान मनप्य वे हैं, जो मानव जीवन और उत्तम कुलादि की साधन सामग्री को पाकर भी विषय तृष्णा मे पगङ्मुख होकर अपने आत्मा का हित करते हैं । अन्त में धर्म का महत्व बतलाकर प्रकरण समाप्त किया है।
२ दानोपदेशन - इस अधिकार में ५४ श्लोक हैं, जिनमें दान की आवश्यकता और महत्ता पर अच्छा प्रकाश डाला गया है । और दानतीर्थ के प्रवर्तक राजा थेयांम का पहले ही स्मरण किया है। जिस प्रकार पानी वस्त्रादि में लगे हये रुधिर को धोकर स्वच्छ बना देता है उसी प्रकार सत्पात्र दान भी वाणिज्यादि मे समूत्पन्न पापमल को धोकर निप्पाप बना देता है।
३अनित्य पञ्चाशत-इम अधिकार में ५५ श्लोक हैं। इस प्रकरण में शरीर, स्त्री पत्र, एवं धनादि की स्वाभाविक अस्थिरता बतलाते हए उसके संयोग-वियोग में हर्ष और विपाद के परित्याग की प्रेरणा की गई है। मरण प्रायकर्म के क्षीण होने पर होता है, अतः उसके होने पर शोक करना व्यर्थ है,
४ एकत्व सप्तति-इग प्रकरण में ८० श्लोक दिये है। जिनमें बतलाया है कि चेतनत्व प्रत्येक प्राणी के भीतर अवस्थित है, तो भी जीव अज्ञान वग उमे जान नहीं पाता। जैगे लकडी में अव्यक्त रूपमे अग्नि होते हा भी नहीं जान पाते, उसी तरह यात्मतत्व का बोध भी अज्ञान के कारण नहीं होता। जिनेन्द्र देव ने उम परम आत्म तत्त्व की उपासना का उपाय एक मात्र साम्यभाव को बतलाया है। स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध और गृद्धोपयोग ये सब उसी साम्य के नामान्तर हैं। कर्म और रागादि हेय हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिये। ज्ञान दर्शनादि उपयोग रूप परम ज्योति को उपादेय समझना चाहिए। अन्त में प्रात्मतत्त्व के अभ्यास का फल मोक्ष की प्राप्ति बतलाया है।
५ यतिभावनाष्टक- इस प्रकरण में पद्य हैं जिनमें उन मुनियों का स्तवन किया गया है, जो भयानक उपसर्ग होने पर अपने स्वरूप से विचलित नहीं होते, प्रत्युत कष्ट महिप्णु बनकर उन पर विजय प्राप्त करते हैं।
६ उपासक संस्कार-इसमें ६२ पद्य है, दान के आदि प्रवर्तक राजा श्रेयांस का उल्लेख करते हए, देव पूजादि पट आवश्यकों का कथन किया गया है। सामयिक व्रत का स्वरूप निदिष्ट करते हए सप्त व्यसनों का परित्याग अनिवार्य बतलाया है।
७. देशवतो द्योतन-इसमें २७ श्लोक हैं जिन में देव दर्शन 'पूजन रात्रिभोजन त्याग' चैत्यालय निर्माण, छह अावश्यक, आठ मुलगणों और पांच अणव्रतादि रूप उत्तर गुणों को धारण करने का उल्लेख किया है । और गृहस्थों को पाप मे उन्मुक्त होने के लिए चार दान को प्रेरणा की है।
. सिद्ध स्तुति-२६ श्लोकों में मिद्धों की स्तुति करते हुए अप्टकर्मों के प्रभाव से कौन-कौन से गुण प्रादुर्भूत होते है, इसका निर्देश किया है।
६. आलोचना--अज्ञान या प्रमाद में उत्पन्न हुए पाप को निष्कपट भाव मे जिनेन्द्र व गुरु के सामने प्रकट करना आलोचना है । आत्मशुद्धि के लिए दोपों की आलोचना आवश्यक है । आत्म निरीक्षण, निन्दा और गर्दा करना उचित है, आत्मनिन्दा करते हुए यह मेरा पाप मिथ्या हो ऐसा विचार करना चाहिए। कृत, कारित, अनुमोदना और मन वचन काय गे संगणित नी स्थानों से पाप उत्पन्न होता है, उनका परिमार्जन करने के लिए आलोचना करनी चाहिए।
१०. सद्वोध चन्द्रोदय-यह ५० पद्यों की रचना है। इसमें परमात्म स्वरूप का महत्व दिखलाकर बतलाया है कि जिसका चित्त उस चितस्वरूप में लीन हो जाता है वह योगियों में श्रेष्ठ हो जाता है । उस योगी को समस्त जीव राशि अपने समान दिखाई देती है, उसे कर्म कृत विकारों से भी क्षोभ नही होता। यह जीव मोह रूपी निद्रा में चिरकाल से सोया है, अब उसे इस ग्रन्थ को पढ़ कर जागृत हो जाना चाहिए।
११. निश्चय पञ्चाशत-६२ पद्यात्मक इस प्रकरण में प्रात्मा के जानने में कारणभूत शुद्ध नय और व्यवहार नय है। इनमें व्यवहार नय अज्ञानी जनों के बोध करने के लिये है। और शुद्धनय कर्म क्षय मे कारण है। इस कारण उसे भूतार्थ और व्यवहार नय को अभूतार्थ बत लाया है। वस्तु का यथार्थस्वरूप अनिर्वचनीय है, उसका कथन व्यहारनय से वचनों द्वारा किया जाता है। शुद्धनय के प्राश्रय से रत्नत्रय को पाकर अपना विकास करता है।
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२८
जन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
१२. ब्रह्मचर्य रक्षावति-यह २२ पद्यों का लघ प्रकरण है, इसमें काम सुभट को जीतने वाले मुनियों को नमस्कार कर ब्रह्मचर्य का स्वरूप निदिष्ट किया है। अपने स्वरूप में रमण करने का नाम ब्रह्मचर्य है। जितेन्द्रिय तपस्वियों की दृष्टि निर्मल होती है, राग उनके स्वरूप को विकृत करने में समर्थ नही होता, ऐसे योगी वन्दनीय होते हैं। राग को जीतने के लिए रहन-सहन सादा और सादा भोजन होना चाहिए।
१३. ऋषभ स्तोत्र-इस ६० गाथात्मक प्रकरण में प्रथम जिनकी स्तुति की गई है, जिनमें उनके जीवन की झांकी का भी दिग्दर्शन निहित है। उन्होंने सांसारिक वैभव का परित्याग कर किस तरह स्वात्मलब्धि प्राप्त की, उसका सुन्दर वर्णन किया गया है । तीर्थकर प्रकृति के महत्व का भी दिग्दर्शन कराया गया है।
१४. जिन दर्शन स्तवन-यह प्रकरण भी प्राकृत की ३४ गाथाओं को लिये हुए है । इसमें जिनदर्शन की महिमा का वर्णन है।
१५. श्रुत देवता स्तुति इसमें ३१ श्लोकों द्वारा जिनवाणी का स्तवन किया गया है। १६. स्वयंभू स्तुति इसमें २४ श्लोकों द्वारा चौवीस तीर्थकरों की स्तुति की गयी है।
१७. सुप्रभाताष्टक - यह अप्ट पद्यात्मक स्तुति है- जिस तरह प्रातः काल होने पर रात्रि का अन्धकार मिट जाता है और सूर्य का प्रकाश फैल जाता है । उस समय जन समुदाय की नीद भग होकर नेत्र खुल जाते हैं। उसी प्रकार मोह कर्म का क्षय हो जाने पर मोह निद्रा नष्ट हो जाता है, ओर ज्ञान दर्शन का विमल प्रकाश फैल जाता है।
१८. शान्तिनाथ स्तोत्र-इसमें ६ श्लोकों द्वारा तीन छत्र और पाठ प्रातिहार्यो सहित भगवान शान्तिनाथ का स्तवन किया गया है।
१६. जिन पूजाष्टक-१० पद्यात्मक इस प्रकरण में जल चन्दनादि द्रव्यों द्वारा जिन पूजा का वर्णन है।
२०. करुणाष्टक-इस में अपनी दीनता दिखला कर जिनेन्द्र में दया की याचना करते हए ससार से अपने उद्धार की प्रार्थना की गई है।
२१. क्रियाकाण्ड चूलिका-इसमें जिन भगवान से प्रार्थना की गयी है कि रत्नत्रय-मूल व उत्तर गुणों के सम्बन्ध में अभिमान और प्रमाद के वश मुझसे जो अपराध हुआ है, मन, वचन, काय और कृत, कारित अनुमोदना से मैने जो प्राणि पीडन किया है, उससे जो कर्म मंचित हुआ हो वह आप के चरण-कमल स्मरण में मिथ्या हो।
२२. एकत्व भावना दशक-इसमें ११ पद्यों द्वारा परम ज्योतिस्वरुप तथा एकत्वरूप अद्वितीय पद को प्राप्त आत्मतत्त्व का विवेचन किया गया है। उस आत्मतत्त्व को जो जानता है वह स्वयं दूसरों के द्वारा पूजा जाता है।
२३. परमार्थ विशति-इसमें बतलाया है कि सुख और दु.ख जिम कर्म के फल हैं वह कर्म आत्मा से पृथक है-भिन्न है । यह विवेक बुद्धि जिसे प्राप्त हो चुकी हैं, 'उसके मैं सुखी हूं अथवा दुखी हूं' ऐसा विकल्प ही उत्पन्न नहीं होता । ऐसा योगो ऋतु आदि के कष्ट को कष्ट नही मानता।
२४. शरीराष्टक-इसमें शरीर की स्वाभाविक अपवित्रता ओर अस्थिरता को दिखलाते हुए उसे नाडीव्रण के समान भयानक और कडुवी तूबड़ी के समान उपभोग के अयोग्य बतलाया है। अनेक तरह से उसका संरक्षण करने पर भी अन्त में जर्जरित होकर नष्ट हो जाता है।
२५ स्नानाष्टक -मल से परिपूर्ण घड़े के समान मल-मूत्रादि से परिपूर्ण रहने वाला यह शरीर जल स्नान से पवित्र नही हो सकता । उसका यथार्थ स्नान तो विवेक है जो जीव के चिर संचित मिथ्यात्वादि आन्तरिक मल को धो देता है । जल स्नान से प्राणि हिंसा जनित केवल पाप का ही संचय होता है । स्नान करने और सुगन्धित द्रव्यों का लेप करने पर भी उसकी दुर्गन्धि नहीं जाती।
२६. ब्रह्मचर्याष्टक-विषय भोग एक प्रकार का तीक्ष्ण कुठार है जो संयम रूप वृक्ष को निर्मूल कर देता है। विषय सेवन जब अपनी स्त्री के साथ भी निन्द्य माना जाता है । तब भला पर स्त्री और वेश्या के सम्बन्ध को मच्छा कैसे कहा जा सकता है।
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३२६
पद्मप्रभ मलधारीदेव पद्मप्रभ मलधारीदेव-मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय पुस्तकगच्छ और देशीगण के विद्वान वीरनन्दी व्रतीन्द्र के शिप्य थे । इनकी उपाधि मलधारी थी, यह उपाधि अनेक विद्वान आचार्यों के साथ लगी देखी जाती है । इनकी बनाई हई पाचर्य कुन्दकुन्द के नियमसार की एक सस्कृत टीका है जिसका नाम 'तात्पर्यवत्ति' है, वत्तिकार ने वत्ति की पप्पिका में अपने लिये तीन विशेषणों का प्रयोग किया है- 'मृविजनपयोजमित्र' 'पंचन्द्रियप्रसारवजित' प्रौर 'गात्रमात्रपरिग्रह' । इन तीन विशेषणों से ज्ञात होता है कि पद्मप्रभ सुकविजन रूप कमलों को विकसित करने वाले मित्र (सर्य) थे । और पंचेन्द्रियों के प्रसार से रहित थे-जितेन्द्रिय । नथा गरीरमात्र परिग्रह के धारी थेनन दिगम्बर थे। अच्छे विद्वान और कवि थे। इन्होंने समयमार के टीनाकार प्राचार्य अमतचन्द्र की तरह नियमसार की तात्पर्यवत्ति में भी अनेक सून्दर पद्य बनाकर उपमहार रूप में यत्र-नत्र दिये है।
पद्मप्रभ ने वत्ति में यथा स्थान अनेक विद्वानो ओर उनके ग्रन्धी क पद्यों को ग्रन्थ कर्ता का नाम लेकर या किया किसी नामोल्लेख के उद्धत किये है। उनमें ममन्तभद्र, गिद्धगेन, पज्याद, अमतचन्द्र, सोमदेव, गणभद्र. वादिराज, योगीन्द्रदेव और चन्द्रकीति तथा महामेन का नामोल्लग्न किया। समयसार का अमताशीति एकत्व सप्तति, और श्रतविन्दु नामक ग्रन्थो का उल्लेख किया है।
इनके अतिरिक्त वत्तिकार ने 'तथा चोक्तम् महागेन पडितदेवे , वाक्य के साथ निम्न पद्य उद्धत किया है।
ज्ञानाद्धिन्नो न चाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचन ।
ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेति कौतितः ॥ इसके पश्चात उक्त च पण्णवतिपापडिविजयोपाजिविशालनि महामन पडित देवैः वाक्य के साथ उद्धत किया है :
यथावद्वस्तनिर्णीतिः सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत ।
तत्स्वार्थव्यवसायात्मा कथंचित् प्रमितेः पथक् ॥" ये दोनों ही पद्य 'स्वरूप सम्बोधन' नामक ग्रथ के है, जिगो कर्ता प्राचार्य महामेन हैं। टीकाकारो कानमार छयानवे वादियों के विजेता थे। ग्रार लामा बगाल काति फैल रही थी। इनकी गम परम्परा और गण-गच्छादि क्या है, यह कुछ ज्ञात नहीं होना । टा० ॥orन. उपाध्ये ने स्वरूप सम्बोधन सम्बध में लिखा है कि वे नयसेन के शिष्य थे।
श्रियः पति केवल बोधलोचनं, प्रणम्य प्रद्मप्रभ गेध कारणं ।
करोमि कर्णाटगिरा प्रकाशनं, म्वरूपमंबोधन पंचविशते ।। "श्रीमन्नयसेनपंडित देवळं शिप्यरप्पश्रीमन्महामेनदेवभव्यमार्थगंबोधनार्थ मार्ग स्वरूप संबोधन विशति व ग्रंथमं माइत्तमा ग्रन्थद मादेलोल इष्ट देवता नमस्कार मं म्यडिद पर"। महासेन नामके और भी विटा हए है । एक तो लाड बागड गण के महागेन जो प्रद्यम्नचरित के कर्ता हैं। जो संवत् १०५० के लगभग हए जो
-- - - -- - -- - -- --- - ---- १. तद्विद्याढ्यं वीरनन्दि व्रतीन्द्रम् २. मलधारी विशेषण दिगम्बर श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायों के मुनियो के साथ संलग्न देखा जाता
स्वच्छता के विपरीत मल परीषह की सहन-गीलता का द्योतक है। गलधारी गण्डविमुक्त देव, मलघारी माधव मलधारी बालचन्द्र, मलधारि मल्लिषेण, मलधारिदेव, आदि दिगम्बर, मलधारी हेमचन्द्र, मलघारि अभयदेव मलधारि जिनभद्र आदि श्वेताम्बर । ३. 'इति सूकविजनपयोजमित्र पंचेन्द्रियप्रसरवजित गात्रमात्रपरिग्रह श्री पद्मप्रभमलघारि देव विरचितायां नियमसार व्याख्यायां तात्पर्यवत्ती शुद्ध निश्चियप्रायश्चित्ताधिकारोऽष्टमः श्रुतस्कन्धः ?
शियरप्पश्रीमन्महामन
प र" । महासेन नामक प्रार
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ मालवपति मुज नरेश द्वारा पूजित थे और जो गुणाकरसेनसूरि के शिष्य थे । दूसरे महासेन 'सुलोचना चरित' के कर्ता हैं जिनका उल्लेख 'हरिवंश पुराण' में पाया जाता है । प्रस्तुत महासेन इनसे भिन्न जान पड़ते हैं। यह कोई तीसरे ही महासेन हैं।
वृत्तिकार ने जहाँ वीरनन्दि को नित्य नमस्कार करने की बात लिखी है, और बतलाया है कि जिस मुमुक्ष मुनि के सदा व्यवहार और निश्चय प्रतिक्रमण विद्यमान हैं। और जिसके रंच मात्र भी अप्रतिक्रमण नहीं हैं ऐसे संयम रूपी माभूषण के धारक मुनि को मैं (पद्मप्रभ) सदा नमस्कार करता हूं।
वृत्तिकार ने अपने समय में विद्यमान 'माधवसेनाचार्य' को नमस्कार करते हुए उन्हें संयम और ज्ञान की मूर्ति, कामदेवरूप हस्ति के कुंभस्थल के भेदक और शिष्य रूप कमलों का विकास करने वाले सूर्य बतलाया है । पद्य में प्रयुक्त 'विराजते' क्रिया उनकी वर्तमान मौजूदगी की द्योतक है वह पद्य इस प्रकार है ।
"नोमस्तु ते संयमबोधमूर्तये, स्मरेभकुंभस्थल भेदनायवे,
विनेयपंकेरुह विकासभानवे विराजते माधवसेनसरये ॥" माधवसेन नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। परन्तु ये माधवसेन उनमे भिन्न जान पड़ते हैं।
एक माधवसेन काष्ठासंघ के विद्वान नेमिषेण के शिष्य थे, और अमितगति द्वितीय के गुरु थे। इनका समय सं० १०२५ से १०५० के लगभग होना चाहिये।
दूसरे माधवसेन प्रतापसेन के पट्टधर थे। इनका समय विक्रम की १३ वी १४ वीं शताब्दी होना संभव है।
तीसरे माधवसेन मूलसंघ, सेनगण पोगरिगच्छ के चन्द्रप्रभ सिद्धान्त देव के शिष्य थे । इन्होंने जिन चरणों का मनन करके और पंच परमेष्ठी का स्मरण कर के समाधि मरण द्वारा शरीर का परित्याग किया था । इनका समय ई० सन् ११२४ (वि०सं० ११८१) है।
चौथे माधवसेन को लोक्किय वसदि के लिये देकररस ने जम्बहलि प्रदान की। इस का दाम माधवसेन को दिया था। यह शिलालेख शक संवत ७८५-सन् १०६२ ई० का है। अतः इन माधवसेन का समय ईसा की ११वीं शताब्दी का तृतीय चरण है।
इन चारों माधवसेनों में से तकार द्वारा उल्लिखित माधवसेन का समीकरण नहीं होता। अतः वे इनसे भिन्न ही कोई माधवसेन नाम के विद्वान होंगे। उनके गण-गच्छादि और समय का उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया।
- पद्मप्रभ मलधारिदेव ने वृत्ति के पृ० ६१ पर चन्द्रकीतिमुनि के मन की वन्दना की है । और पृष्ठ १४२ में उन्हों ने श्रुत विन्दु' नाम के ग्रन्थ का 'तथा चोक्तं श्रुत बिन्दौ, वाक्य के साथ निम्न पद्य उद्धृत किया है :
जयति विजयदोषोऽमर्त्यमत्येन्द्रमौलिप्रविलसदरुमा लायचितांघ्रि जिनेन्द्रः । त्रिजगदजगती यस्ये दृशौ व्यश्नुवाते
सममिव विषयेष्वन्योन्य वृत्ति निषेद म् ॥ १. तच्छिष्यो विदिता खिलोरु समयो वादी च वाग्मी कविः ।
शब्दब्रह्मविचित्रधामयशसां मान्यां सताममणीः । आसीत् श्रीमहासेन सूरिरनघः श्री मुंजराजाचितः ।
सीमा दर्शन बोध वृत्तपसां भव्याब्जिनी बान्धवः ॥ -प्रद्युम्न चरित प्रशस्ति ३ २. महासेनस्य मधुरा शीलालंकार धारिणी।
कथा न वरिणता केन वनितेव सुलोचना ।।-हरिवंश पुराण १-३३ ३. यस्य प्रतिक्रमणमेव सदा मुमुक्षो-स्त्यि प्रतिक्रमण मप्यणुमात्र मुच्चः ।
तस्मै नमः सकलसंयमभूषणाय, श्री वीरनन्दि मुनि नामधराय नित्यम् ॥-नियमसार वृत्ति ४. निरुपम मिदं वन्धं श्रीचन्द्रकीति मुने मनः॥
-नियमसार वृत्ति पृ० १५२
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३३१ श्रवण बेल्गोल के शिलालेख नं० ५४ पृ० १०६ में इन्हीं चन्द्रकीति मुनि का स्मरण किया गया है और वन्दु का कर्ता भी बतलाया है :
विश्वं यश्श्रुविन्दुनावरुरुधे भावं कुशाग्रीयया, बुध्येवाति - महीयसाप्रवचसाबद्धं गणाधीश्वरः । शिष्यान्प्रत्यनुकम्पया कृशमतीनेदं युगीनात्सगी
स्तं वाचार्चत चन्द्रकीति गणिनं चन्द्राभकोति बुधाः ॥३२ मैसूर स्टेट के तु कर जिले में दो अभिलेख मिले हैं, वे पद्मप्रभ के प्रभाव क्षेत्र की अच्छी सूचना देते हैं। एक तो कुप्पी ताल्लुके के निटूरु में प्राप्त हुआ है जिसमें एक प्रसिद्ध धर्मात्मा महिला जनाम्बिका का उल्लेख है जो इनकी एक शिष्या थी। दूसरा अभिलेख पावुगड ताल्लुक के निडुगल्लु में पहाड़ी पर के एक जैन मन्दिर में मिला है-(एपिग्राफिया कर्नाटिका जि० १२ पावूगड ५२) इसमें एक मुखिया गांगेयन मारेय के द्वारा एक जैन मन्दिर के निर्माण कराये जाने का उल्लेख है। इस अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि यह मन्दिर निर्माता नेमि पंडित के द्वारा जैनधर्म में प्रविष्ट किया गया था। एपिग्राफिया कर्नाटिका जि० १२ Guvvi)। यह नेमि पंडित पद्मप्रभ मलधारी के शिष्य थे।
जब इरुङ्गोल देव राज्य कर रहा था-तत्पादपद्मोपजीवी गङ्गयनमारेय गङ्गय नायक और चामासे से उत्पन्न हया था। इसने नमि पण्डित से व्रत लिये थे। नेमि पण्डित को पद्मप्रभ मलधारी देव से मनोभिलषित प्रर्थ की प्राप्ति हुई थी। प० म० देव श्री मूलसंघ, देशीयगण, कोण्डकुन्दान्वय, पुस्तक गच्छ तथा वाणद बलिय के वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य थे ।
कालाजन (निडुगल) पर्वत के बदर तालाब के दक्षिण की तरफ एक चट्टान के सिरे पर गङ्गयन मारने पाव जिन की बसति खड़ी की थी। इसी को 'जोगवट्रिगे बसदि' भी कहते थे । पार्श्वनाथ-जिनेश की दैनिक पूजा, महाभिषेक करने के लिए, तथा चतुवर्ण को आहार दान देने के लिए गङ्गयन मारेय तथा उसकी स्त्री वाचले ने इरुङ्गुल देव से प्राचन्द्र-सूर्य-स्थायी दान करने के लिये प्रार्थना की तब उसने भूमियों का दान किया, तथा गङ्गेयमारेनहल्लि के कुछ किसानों ने मिलकर बहुत से अखरोट और पान प्रति बोझ पर दिये। पैलिके किसानों ने भी कोल्हनों से तेल दिया।
पद्मप्रभ मलधारी देव को दूसरी कृति 'लक्ष्मी स्तोत्र' है जो संस्कृत टीका के साथ मुद्रित हो चुका है। इनकी अन्य क्या रचनाएं हैं यह कुछ ज्ञात नहीं हुआ।
मद्रास प्रान्त के 'पाटशिवरम्' नामक ग्राम के दक्षिण प्रवेश द्वार पर स्थित एक स्तम्भ के खंडित शिलालेख में वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिप्य पद्मप्रभ मलधारी देव के सम्बन्ध में निम्न श्लोक अंकित है, जिसमें उनके देहोत्सर्ग की तिथि का उल्लेख है:
सक वर्ष सप्त वंदु क्षिति ११०७ परिमितिविश्वावसु प्रान्तफाल्गुण्यकनच्छुद्धा चतुर्थीतिथियुतभरणी सोमवारार्द्ध रात्रा धिकनाड्येकांत्यदोल्लु निर्मलमति मल्लन्टं नामपद्मप्रभ ।
पुस्तक गच्छं मूलसंघ यतिपतिनुतदेसीगण मुक्तनावं ॥ शक संवत ११०७ विश्वावसु, फाल्गुण शुक्ला ४ भरणी, सोमवार को-२४ फर्वरी सन १८५ई. (वि० सं० १२४२) को सोमवार के दिन पद्मप्रभ मलधारी देव का स्वर्गवास हुमा । यह लेख पश्चिमीय चालूक्य नरेश सोमेश्वर चतुर्थ के राज्यकाल का है । (Jainism in South India P. 159)
१. निरुङ्गोल-देवं राज्यं गेय्युत्तमिरे तत्पादपनोपजीवियप्प गङ्गयनायकङ्ग चामाङ्ग नेगवुद्भविसि गङ्ग यन मारेयं
श्री मूल-संघद देशिय-गणद कोण्डकुन्दान्वय पुस्तक गच्छद वारणद-वलिय श्री वीरनन्दि-सिद्धान्त-चक्रवतगिल शिष्यराद मेदिनीसिद्धर पद्मप्रभ-मलधारि देवर चरण-परिचर्येयिं पर्याप्त-कामिदराद नेमि-पण्डित रिनङ्गीकृत-व्रत नादम् ।
-जनलेख सं० भा०३१० ३३२
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
दामनन्दि विद्य दामनन्दि मूलसंघ, देशियगण, पुस्तकगच्छ और कून्दकून्दान्वय में प्रसिद्ध गुणचन्द्र देव के प्रशिष्य और नयकीति सिद्धान्तदेव के शिप्य थे। इनके छोटे भाई बालचन्द्र मुनीन्द्र थे। सोम सेट्टि ने पार्श्वजिन को अष्ट विध पूजन और मन्दिर की मरम्मत और मुनियो के ग्राहारदान के लिए दान दिया था और कुछ भूमि बालचन्द्र मुनि के पाद प्रक्षालन पूर्वक दी गयी थी। यह लख शक स० ११०० सन् ११७८ ईसवी का है । अतः इन दामनन्दि का समय १२वी शताब्दी है।
जैनलेख स० भ०३ ले० न० ३६४ पृ०१७७
कुलचन्द्र मुनीन्द्र कूलचन्द्र सिद्धान्त मुनीन्द्र-यह कुलभूषण सिद्धान्त मुनीन्द्र के शिप्य थे । धवला की हस्तलिखित प्रतियों में सत्प्ररूपणा विवरण के अन्त में कनाड़ी प्रशस्ति पाई जाता है। उसमें तीन प्राचार्यों की प्रशंसा की गई है। पद्मनन्दि सिद्धान्त मुनीन्द्र, कुलभूषण सिद्धान्त मुनीन्द्र और कुलचन्द्र सिद्धान्त मुनीन्द्र ।
जितयश से उज्वल कुलचन्द्र सिद्धान्त मुनान्द्र का उद्भव जंगमतीर्थ के समान था । वे सदा काय मौर मन से सच्चारित्रवान् दिना दिन शक्तिमान् पार नियमवान हात हुए उन्होंने विवेक बुद्धि द्वारा ज्ञान दोहन कर कामदेव को दूर रखा। सच्चारित्रवान् हाना हा कामदव के काध से बचने का एक मात्र मार्ग है । इससे उनकी चारित्र निष्ठता का पता चलता है। यह वही कलचन्द्र ज्ञात हात है जिनका उल्लख श्रवण वल्गोल के ४०वे (६४) लेख में पाया जाता है।
विद्धकर्णादिक पद्मनन्दी सद्धान्तकाख्योऽजनि यस्य लोके । कौमारदेव वातताप्रासाद्ध जोयात्तु सोज्ञाननिधिः सधीरः ।। तच्छिष्य:
कुलभषणाख्यर्यातपश्चारित्रवारांनिधि
कल स्सिद्धान्ताम्बुधिपारगो नविनेयस्तत्सधर्मो महान् । शब्दाम्भोरुहभास्करः प्रथितर्कग्रन्थकारः प्रभाचन्द्राख्यो मुनिराज पडितवरः श्रीकुण्डकुन्दन्वयः ।। तस्य श्रीकुलभूषणाख्य सुमुनेश्शिष्ये विनेयस्तुत
स्सद्वृत्तः कुलचन्द्रदेव मुनिपस्सिद्धान्तविद्यानिधिः ॥ इन पद्या में पद्मनन्दि, कुलभूषण और बुलचन्द्र मुनिया के बीच गुरु-शिष्य परम्परा का स्पष्ट उल्लेख है। इनमें पद्मनन्दि सैद्धान्तिक को, ज्ञानि निधि, सधार, अविद्धकर्ण ओर कामारदेव व्रती बतलाया है । वे कर्ण छेदन सस्कार से पहले ही दीक्षित हो गए थे। अतएव व कामारदव व्रतो भी कहलाते थे। अर्थात वे बाल ब्रह्मचारो थे। इनके एक शिष्य प्रभाचन्द्र थे, जो शब्दाम्भोज भास्कर पार प्रथित तक ग्रन्थकार थे । कुलभूषण को चारित्र वा रांनिधि और सिद्धान्ताम्बूधि पारग बतलाया है। ओर कुलचन्द्र को बिनय, सदवृत्त और सिद्धान्त विद्यानिधि कहा है। इनका समय सन् ११३३ के लगभग होना चाहिए । कुलचन्द्र के शिप्य माधनन्दि सैद्धान्तिक थे, जो कोल्हापूर की रूपनारायण वसदि के प्रधानाचार्य थे । इनका परिचय आगे दिया गया है।
कुलचन्द्रमुनि-मूलसघान्वय क्राणूरगण के विद्वान परमानन्द सिद्धान्त देव के शिष्य थे। इन्हें भुवनैक मल्ल के सुपूत्र ने, जिस समय उनका राज्य प्रवर्धमान था, और जो बंकापुर में निवास करते थे। उनके पाद पद्योप
१. सतत काल कायमति सच्चरित दिर्नाद दिनक्के वीर्य नलेददु मिक्क नियमगल नातु विवेकबोध दोहं तवे कतु मन्युगिर्द सच्चरित कुलचन्द्र देव सेदात मुनीन्द्र रूजितयशोज्वल जगमतीर्थरुद्भवम् ।
-धवला पु० २ प्रस्तावना पृ० ३
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
जीवी पेाडि भुवन कवीर उदयादित्य शासन कर रहे थे । तब भुवनैकमल्ल ने 'शान्तिनाथ मन्दिर ' के लिये उक्त कुलचन्द्र मुनि को नागर खण्ड में भूमि दान दिया। चूकि यह शिलालेग्व शक म० ६६६ (वि० सं० ११३१ सन् १०७५ है । अतः उक्त मुनि विक्रम की १२वी शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान थे । जैनलंग्व सं० भा० २ पृ ०, २६४-६५
प्राचाण्ण इनके पिता का नाम केशवराज और माता का नाम मल्लाम्बिका था। कवि का गोत्र भारद्वाज था। यह जैन ब्राह्मण थे। गुरु का नाम नन्दियोगीश्वर' और ग्राम का नाम पुरीकर नगर (पुलगिर) था। इनके पिता केशवराज और रेचण नाम के सेनापति ने, जो वसुधैक बान्धव के नाम से प्रसिद्ध था। वर्धमान नामक एक पूराण ग्रथ के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया था, किन्तु दुर्देव से उनका बीच में ही शरीरान्त हो गया, तब उस ग्रन्थ को आचाण्ण ने समाप्त किया। इस कवि की पार्श्वनाथ पुराण में, जो कविपाश्र्व द्वारा सन् १२०५ मे रचा गया हैप्रशंसा की है। इससे स्पप्ट है कि कवि पाचण्ण सन् १२०५ से पहले हुया है। कवि ने अपन से पूर्ववर्ता कवियों को स्तुति करते हुए अग्गल कवि की (११८६) की भी प्रशंसा का है। इमस कवि ११८९ के बाद हना है । रेचण चम्पति कलचुरि राजा का मत्री था। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि प्रावमल्ल (११८१-११८३) के और नवीन हयशालवश के वीर वल्लाल (११७२-१२१६) के समय में भी वह जीवित था। इसमे कवि का समय ११७५ के लगभग जान पड़ता है। प्रस्तुत वर्धमान पुराण में महावीर नीर्थकर का चरित वर्णित है । ग्रन्थ में १६ पाश्वास हैं। इसकी रचना अनुप्रास यमक आदि शब्दालंकारों से युक्त और प्रौढ़ है। कवि की अन्य किसी कृति का उल्लेख नहीं मिलता।
ब्रह्मशिव यह वत्सगोत्री ब्राह्मण था। इसके पिता का नाम अग्गल देव था। यह कीर्तिवर्मा ओर अाहवमल्ल नरेश का समकालीन था। पहले यह वैदिक मतानुयायी था । पश्चात उगे नि:सार समझकर लिंगायत मतका उपासक हो गया था। उस समय तक वह वेद, स्मृति और पुराण आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर चुका था। परन्तु उसे इन ग्रन्थों मे सन्तोप नहीं हुआ। लिंगायत मत को भी उसने यथार्थ नही समझा और पश्चात् उसने स्याद्वादमय जैनधर्म को ग्रहण कर सन्तुष्ट हो गया। इसका बनाया हुमा एक 'समय परीक्षा' नामक ग्रंथ है जिसमें शैव, वैष्णवादि मतों के पूराण ग्रन्थों तथा प्राचारों में दोप बतला कर जैनधर्म की प्रशंसा की है। इस ग्रंथ की कविता बहत ही सरल और ललित है। यह कनड़ी भापा का कवि है। समय परीक्षा मे ज्ञान होता है कि यह संग्कत का भी अच्छा विद्वान था । ग्रन्थ के पुष्पिका वाक्य से इमकं गुरु का नाम वीरनन्दी मुनि जान पड़ता है -" इति भगवदहत परमेश्वर चरण स्मरण परिणतान: करण वीरनन्दि मुनिन्द्र चरण सरसोरुह-षट् चरण-मिथ्या समय तीव्र तिमिर चण्डकिरणसकलागम निपुण- महाकवि ब्रह्मशिव विरचित समय परीक्षाया-"
ये वीरनन्दी मेद्यचन्द्र विद्य के शिष्य जान पड़ते है। जो सन् १११५ में दिवंगत हए थे । यदि ये वीरनन्दि वही हैं। तो कवि का समय सन् ११२०-११२५ होना चाहिये।
बालचन्द अध्यात्मी यह मूलसंघ, देशीयगण पुस्तकगच्छ और कुन्दकुन्द अन्वय के विद्वान थे। इनके गुरु नयकीति थे जो गूणचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य थे और जिनका स्वर्गवास शक सं० १०६६ सन् ११७७ में वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को हुआ था २ । इनके भाई का नाम दामनन्दी था। अनेक शिलालेखों में इनको स्तुति के
१. मद्रास के प्राच्य कोशालय के एक शिलालेख से मालूम होता है कि नन्दियोगीश्वर सन् १९८६ मे मौजूद थे । २. शाके रन्ध्रनवद्युचन्द्रमसि दुम्म ख्या च (ख्य) संवत्सरे ।
वैशाखे धवले चतुर्दशदिने वारे च सूर्यात्मजे । पूर्वाह्ये प्रहरे गतेऽर्द्ध सहिते स्वर्ग जगामात्मवान् । विख्यातो नयकीति-देव मुनिपो राद्धान्त-चक्राधिपः ॥२३ -जैन शिलालेख संग्रह भाग १ पृ० ३.
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
पद्य मिलते हैं। इनकी बनाई हई ५ टीकाएं उपलब्ध हैं। सारत्रय-प्रवचनसार, समयसार और पंचास्तिकय, परमात्मप्रकाश, और तत्वरत्न प्रदीपिका (तत्त्वार्थसूत्रटीका) ये टीकाए बड़ी सून्दर और अध्यात्म विषय पर विस्तत प्रकाश डालती है। प्राभूतत्रय की टीका के अन्त में निम्न गद्य पक्ति दी है-इति समस्त सैद्धान्धिक चक्रवर्ती श्रीनय कोतिनन्दन- विनेयजनानन्दन-निजरुचि सागरनन्दि-परमात्मदेवसेवासादितात्मस्वभावनित्यानंद-बालचंद्र देव विरचिता समय प्राभूत सूत्रानुगत तात्पर्य वृत्तिः । कवि ने तत्त्वार्थसूत्र की 'तत्त्वरत्न प्रदीपिका' टीका कुमुद चंद्र भट्टारक के प्रतिबोध के लिये बनाई थी, ऐसा टीका में उल्लेख मिलता है। इनका समय सन् ११७० ईस्वी है।
राजादित्य पद्यविद्याधर इनका उपनाम था। इसके पिता का नाम श्रीपति और माता का नाम वसन्ता था । कोडिमडल के पूविन बाग' में इसका जन्म हुआ था। यह विष्णुवर्धन गजा की सभा का प्रधान पंडित था। विष्णवर्धन ने ईस्वी सन् ११०४ से ११४१ तक राज्य किया है । कवि के समक्ष उसका राज्यभिषेक हुआ था । अपने माश्रय दाता राजा की इसने एक पद्य में बहुत प्रशसा की है। और उसको सत्यवक्ता, परहित चरित, सुस्थिर, भोगी, गभीर, उदार, सच्चरित्र अखिल विद्याबित और भव्य सेव्य बतलाया है । यह कवि गणित शास्त्र का बड़ा भारी विद्वान हुआ है। कर्णाटक कवि चरित के लेखक के अनुसार कनड़ी साहित्य में गणित का प्रथ लिखने वाला यह सबसे पहला विद्वान था। इसके बनाये हुए व्यवहार गणित, क्षेत्रगणित, व्यवहाररत्न, जैनगणित सूत्रटीका उदाहरण, चित्रह सूगे और लीलावती ये गणित ग्रन्थ प्राप्य है । ये सब ग्रन्थ प्रायः गद्य-पद्यमय है। इसका व्यवहार गणित नाम का ग्रन्थ बहुत अच्छा है । इसमे गणित के पैराशिक, पचराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, चक्रवद्धि प्रादि सम्पूर्ण विषय है और वे इतनी सुगम पद्धति से बतलाये गये है कि गणित जैसा कठिन और नीरस विषय भी सरम हो गया है। कवि ने अपनी विलक्षण प्रतिभा से इसे पांच दिन में बनाकर समाप्त किया था।
कवि के गुरु का नाम शुभचद्र देव था । संभवतः ये शुभचद्र वही है। जिनका उल्लेख श्रवणवेलगोल के शिलालेख न० ४३ में किया है और जिनकी मृत्यु ईस्वी सन् ११२३ में बतलाई गई है। इससे कनि १११५ से ११२० तक जान पड़ता है।
कीर्तिवर्मा यह चालुक्य वंशीय (सोलकी) महाराज त्रैलोक्य मल्ल का पुत्र था। त्रैलोक्यमल्ल ने सन् १०४४ से तक राज्य किया है । इस के चार पुत्र थे विक्रमाकदेव (१०७६ से ११२६), जयसिह, विष्णुवर्धन, विजया
और कीतिवर्मा । कीर्तिवर्मा त्रैलोक्यमल्ल की जैनधर्म धारण करनेवाली केतलदेवी रानी के गर्भ से उत्पन्न हया था। केतलदेवी ने सैकड़ों जैनमन्दिर बनवाये थे। उसके बनवाए हुए मन्दिरो के खडहर और उनके शिलालेख अब
कर्नाटक प्रान्तमें उसके नामका स्मरण कराते हैं । कीर्तिवर्मा के बनाये हुए ग्रन्थों में से इस समय केवल एक 'गोवैद्य' गन्थ प्राप्त है। इसमें पशुओं के विविध रोगों का और उनकी चिकित्सा का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इससे जान
कि वह केवल कवि ही नहीं वैद्य भी था। गोवैद्य के एक पद्य में उसने अपने लिये कीर्तिचन्द्र, वैरिकरिहरि, कन्दर्प मति, सम्यक्त्व रत्नाकर, बुधभव्य बान्धव, वंद्य रत्नपाल, कविताब्धिचन्द्र कीर्तिविलास प्रादि विशेषण दिये हैं।
रिहरि' विशेषण उसके बड़ा वीर तथा योद्धा होने को सूचित करता है। उसने अपने गुरू का नाम देवचन्द बतलाया है। श्रवण वेलगोल के ४० वे शिलालेख में राघव पाण्डवीय काव्य के कर्ता श्रुतकीर्ति विद्य के समका
जिन देवचन्द की स्तुति की है संभवतः वे ही कीर्तिवर्मा के गुरु हों अथवा अन्य कोई देवचन्द। इनका समय सन् ११२५ ई० है।
१. व्यवहार गणित के प्रत्येक पुष्पिका गद्य वाक्य से कवि के गुरु के नाम का पता चलता है-इति शुभचन्द्रदेव योग पादारविन्दमत्तमधुकरायमानमानसानन्दित सकलगणित तत्वविलासे विनेयजन नुते श्री राज्यादित्य विरचिते व्यवहार गणिते-इत्यादि।
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य ।
የቆዳ
पण्डित बोप्पण बोप्पण पण्डित-मुजनोत्तंस इसका उपनाम था। आच्चण्ण, पार्श्व, केशिराज प्रादि कवियों ने इसकी बहुत प्रशंसा की है । केशिराजने इसका 'सुकविममाजनुत, कह कर उल्लेख किया है और इसको ग्रन्थ पद्धात को लक्ष्यभूत मान कर अपनी रचना की है। इसमे जान पड़ता है कि यह अनेक ग्रन्थों का रचयिता होगा। परन्तु इस समय उसकी केवल दो छोटी-छोटी रचनाएँ ही मिलती हैं। जिनमें से एक तो 'गोम्मटेश्वर, की स्तुति है और दूसरी निर्वाणलक्ष्मी पति नक्षत्रमालिका, नाम की कविता है। गोम्मटेश्वर की स्तुति में कनड़ी के २७ पद्य है जो श्रवणबेलगुलके ८५ (२३४) वे शिलालेख में अकित है। 'निर्वाणलक्ष्मीपति नक्षत्रमालिका में भी २७ कनड़ी पद्य हैं। कवि ने गोम्मटेश्वर की स्तुति सैद्धान्तिक चक्रेश्वर नयकीर्ति के शिष्य आध्यात्मिक बालचन्द्र की प्रेरणा से रची थी। इससे स्पष्ट है कि कवि बालचन्द्र के समकालीन था। श्रवण बेलगुल का ८५ वां शिलालेख शक संवत् ११०२ सन् १९८० का लिखा हुआ है । अतः कवि का समय १२वी शताब्दी है ।
जैन लेख सं० भा० १ पृ० १६९
वीरनन्दी मूलसंघ देशीयगण के प्राचार्य मेघचन्द्र विद्य देव के पात्मज और शिष्य थे, जिनकी ताकिक चक्रवर्ती. सिद्धान्तेश्वर-शिखामणि त्रैविद्य देव उपाधियां थी। जैसा कि प्राचारसार के निम्न प्रशस्ति वाक्य से प्रकट है:
वैदग्धश्री वधटी पतिरतुलगुणालंकृतिमेघचन्द्रस्त्रविद्यस्यात्मजातो मदनमहिभृतो भेदने वज्रपातः ॥ सैद्धान्तिव्यूहचड़ामणिरत्नुफलचिन्तामणिभूजनामा । योऽभूत सोजन्यरुन्द्रश्रियमवति महावीरनन्दी मुनीन्द्रः ॥
-आचारसार १२, ४२ प्राचार्य वीरनन्दी चतुरता रूपी लक्ष्मी के स्वामी हैं, अनुपम गुणों से अलंकृत हैं। मेघचन्द्र विद्यदेव के प्रात्मज-पूत्र हैं, और कामदेव रूपी पर्वत को भेदन करने लिये वज के समान हैं, सिद्धान्त शास्त्रज्ञों के समूह में चूड़ामणि हैं, और पृथ्वी-मडल के लोगों को इच्छित फल देने वाले उत्तम चिन्तामणि हैं। ऐसे श्री वीरनन्दी मुनि सज्जनता रूप सघन लक्ष्मी की सदा रक्षा किया करते हैं।
प्रस्तुत वीरनन्दी अपने समय के अच्छे विद्वान थे। उन्होंने अपने आचारसार में अपने गुरु मेघचन्द्र की बड़ी प्रशंसा की है।
चूंकि मेघचन्द्र विद्यदेव का स्वर्गवास शक स० १०३७ (वि० संवत् ११७२) में मगसिरमुदी चतुर्दशी वहस्पतिवार के दिन धनुर्लग्न में हआ था। जैसा कि श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं०४७ के निम्न वाक्य से प्रकट है:
"सकवर्ष १०३७ नेय मन्मथसंवत्सरद मार्गसिर सुद्ध १४ वृहवार धनुलग्नद पूर्वाण्हदारुघलिगेयप्पा गलु श्रीमूलसवद देसियगणद पुस्तक गच्छ श्री मेघचन्द्र विद्यदेव तम्मवशान कालमनरिदु पल्यंकाशन दोलिदु प्रामभावनेयं भाविसुत्तं देवलोकक्के सन्दराभावनेयेन्तप्पुदेन्दोडे ।"
अनन्तबोधात्मकमात्मतत्त्वं निधायचेतस्यपहाय हेयं ।
विद्य ना मा मुनि मेघचन्द्रो दिवंगतो बोधनिधि विशिष्टाम ॥ इनके प्रमुख शिष्य प्रभाचन्द्र नाम के थे। इन्हीं प्रभाचन्द्र सिद्धान्त देवने महा प्रधान दण्ड नायक गंगराज द्वारा मेघचन्द्र की निषद्या का निर्माण कराया था।
प्रवचनसारादि ग्रन्थों के टीकाकार प्राचार्य जयसेन ने पंचास्ति काय की दूसरी गाथा की टीका में प्राचार्य १. मूलसघ कृत पुस्तक गच्छ देशीयोद्यङ्गणाधिपसुताकिक चक्रवर्ती । सैद्धान्तिकेश्वरशिखामणिमेषचन्द्रस्त्रविद्य देव इति सद्विबुधाः स्तुवन्ति ॥२६॥
श्रवण जैन ले० सं० भा०१ ले.नं० ४७ पु. ५८
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
वीरनन्दी के 'पाचारसार' के चतुर्थ अधिकार के ६५, ६६ नं० के दो श्लोक उद्धृत किये हैं । और डा० ए० एन० उपाध्ये ने अपनी प्रवचनसार की प्रस्तावना में प्राचार्य जयसेन का समय ११५० ई० के बाद विक्रम की १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध निश्चित किया है। इससे स्पष्ट है कि प्राचार्य जयसेन वीरनन्दी के ही समकालीन थे: क्योंकि प्राचारसार के मूल रचे जाने के कुछ समय बाद प्राचार्य वोरनन्दो ने ११५३ A.D. (वि० सं० १२१०) में उस पर एक कनड़ी टीका बनाई। इससे प्राचार्य वीरनन्दी का समय वि. की १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और १३वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। वे १३वीं शताब्दी में १०वर्ष जीवित रहे हैं । क्योंकि कन्नड टीका उम समय रची गई है। इनके शिष्य नेमिनाथ ने प्राचार्य सोमदेव के 'नीतिवाक्यामृत' की कनड़ टीका बनाई है।
___ 'प्राचारसार' संस्कृत भाषा का अपूर्व ग्रन्थ है। इसमें श्रवणों - मुनियों की क्रियाओं का- उनके प्राचारविचार का-- वर्णन किया गया है। माथ ही अन्य आवश्यक विषयों का भी समावेश किया गया है । इस ग्रन्थ में 'मुलाचार' के समान १२ अधिकार दिये हैं, मूलाचार और आचारसार का तुलनात्मक अध्ययन करने से पता चलता है कि वीरनन्दी ने मूलाचार को सामने रखकर इसकी रचना की है। प्रादि अन्त मंगल और प्रशस्ति को छोडकर शेष सब इलोकों का मलाचार के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध जान पड़ता है। हां, विपय वर्णन की क्रमवद्धता तो नहीं है। मूलाचार के १२वं पर्याप्ति अधिकार का वर्णन आचारसार के तीसरे चौथे सर्ग में पाया जाता है। इसकी तलना मैने जन सि० भा० भाग ६ की प्रथम किरण में दी हई है। ग्रन्थ पर वीरनन्दी की कन्नड टीका भी है, जो अभी प्रकाशित नहीं हुई।
गणधर कोति यह मनि गुजरात के निवासी थे। इन्होंने अपनी गुरु परम्पग प्रशस्ति में निम्न प्रकार दी है सागर नन्दी, स्वर्णनन्दी, पद्मनन्दी, पुष्पदन्त कुवलयचन्द्र और गणधर कीर्ति । यह प्राचार्य पुप्पदन्त के प्रशिष्य और कुवलयचन्द्र के शिष्य थे। इन्होंने किन्ही सोमदेव के प्रतिबोधनार्थ, गूढ अर्थ और संकेत को दूरने वाली सोमदेवाचार्य की 'ध्यान विधि' नामक ४० पद्यात्मक ध्यान ग्रन्थ पर टीका लिखी है' । टीका का नाम अध्यात्म तरंगिणी है। इसमें भगवान आदिनाथ की ध्यानावस्था का वर्णन करते हए ध्यानों का स्वरूप और विधि का विधान किया है। इस टीका का नाम अध्यात्मतरंगिणी है। लेखकों की कृपा से मूलग्रन्थ का नाम भी अध्यात्म तरंगिणी हो गया है ।
गणधर कीति ने वाट ग्राम (वटपद्र) जहां वीरसेनाचार्य ने धवला टीका लिखी थी । वहां शूभतू ग देव क वसति' नाम का जनमन्दिर था। वहीं पर गणधर कीर्ति ने यह टीका विक्रमसंवत ११८६ सन् ११३२ में चैत्र शुक्ल पंचमी रविवार के दिन गजगत के चालुक्य वंशीय राजा जयसिंह या सिद्धराज जयसिंह के राज्य काल में बनाकर समाप्त की है-जैसा उसके निम्न पद्य से प्रकट है :
एकादश शताकीर्णे नवाशीत्युत्तरे परे। संवत्सरे शभे योगे पुष्य नक्षत्रसंज्ञके ॥१७ चैत्रमासे सिते पक्षेऽथ पंचम्यां रवौ दिने। सिद्धा सिद्धिप्रदा टीका गणभत्कीति विपश्चितः ॥१८ निस्त्रिशत जिताराति विजयश्री विराजनि। जयसिंहदेव सौराज्ये सज्जनानन्द दायनि ।।१६
भट्टवोसरि यह दिगम्बराचार्य दामनन्दी के शिष्य थे। इन्होंने दामनन्दी के पास से पायों के गुह्य रहस्य १. श्री सोममेन प्रतिबोधनार्थ धर्मामिधानोच्चयशः स्थिरार्थाः ।
गूढार्थसन्देहहरा प्रशस्ता टीका कृताध्यात्म तरंगिणी यम् ।
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
१३७ को जानकर 'प्रायज्ञानतिलक' की रचना की है । यह प्रश्न विद्या से सम्बन्ध रखने वाला महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें प्रश्नों के शुभाशुभ फल को जानने और बतलाने की कला का निर्देश है । ग्रन्थ की गाथा संख्या ४१५ है । पौर निम्न २५ प्रकरण हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं-१ प्रायस्वरूप, २ पातविभाग, ३ अायावस्था, ४ ग्रहयोग, ५ पृच्छा कार्यज्ञान, ६ शुभाऽशुभ, ७ लाभाऽलाभ, ८ रोगनिर्देश, ६ कन्या परीक्षण १० भूलक्षण, ११ गर्भपरिज्ञान, १२ विवाह, १३ गमनागमन, १४ परिचयज्ञान, १५ जय-पराजय, १६ वलक्षण, १७ अर्धकाण्ड, १८ नष्ट परिज्ञान, १९ तपोनिर्वाह परिज्ञान, २० जीवितमान, २१ नामाक्षरोद्देश, २२ प्रश्नाक्षर-सख्या, २३ संकीर्ण, २४ काल, २५ पौर चक्रपूजा।
ग्रन्थ पर ग्रन्थकार की बनाई हुई स्वोषज्ञ एक संस्कृत टीका है, उसमे ही ग्रन्थ के विषय की जानकारी होती है। संभवतः ग्रन्थकार पहले प्रजैन रहे हों, बाद में जैन संस्कारों से संस्कृत होकर जैन धर्म में दीक्षित हए हों और दिगम्बराचार्य दामनन्दी के शिष्य हुए हों।
जिन दामनन्दी का उन्होंने अपने को शिष्य बतलाया है वे वही जान पड़ते हैं जिनका श्रवण बेलगोल के लेख नं ५५ (६६) में उल्लेख है, जिन्होंने महावादी विष्णु भट्टको बाद में पराजित किया था-पीस डाला था, इसी से उसे 'विष्णभद्र-घरट्र' लिखा है। ये दामनन्दी शिलालेखानुसार उन प्रभाचन्द्राचार्य के सधर्मा (साथी अथवा गरुभाई। थे जिनके चरण धाराधिपति भोज द्वारा पूजित थे। और जिन्हे महाप्रभावक उन गोपनन्दी प्राचार्य का सधर्मा लिखा है जिन्होंने कुवादि दैत्य धर्जटि को बाद में पराजित किया था। यदि यह कल्पना सही है तो उनके शिष्य का समय १२वीं शताब्दी हो सकता है ।
नाग चन्द्र नागचन्द्र-इनका दूसरा नाव अभिनव पम्प है। भारती कर्णपूर, कविता मनोहर, साहित्य विद्याधर साहित्य सर्वज्ञ, और सूक्ति मुक्तवतंस प्रादि अनेक कवि के नाम अथवा बिग्दथे । यह विद्वान होने के साथ धनवान भी था। इसने विपुल धन लगाकर 'मल्लिनाथ' का एक विशाल जिनमन्दिर बीजापुर में बनवाया था। जो इसका निवास स्थान था। उसी समय नागचन्द्र ने 'मल्लिनाथ पुराण' की रचना की थी। जो १४ आश्वासों में वर्णित है। ग्रन्थ गद्य-पद्य मय चम्पू शैली में लिखा गया है। कथन शैली मनमोहक है और मरम है।
इनके गुरु वक्र गच्छ के विद्वान मेघचन्द्र के सहाध्यायी बालचन्द्र थे । बालचन्द्र नाम के कई मुनि हो गए हैं जिनमें एक पुस्तक गच्छ भुक्त नयकीति के शिष्य थे । और प्राकृत ग्रन्थों के कनडी टीकाकार होने से प्राध्यात्मिक बालचन्द्र कहलाते हैं। ये सन् १९९२ तक जीवित थे। दूसरे बालचन्द्र वक्र गच्छ के थे और वीरनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्ती के गुरु मेघचन्द्र (पूज्यपाद कृत समाधि शतक या समाधितत्र के टीकाकार) के सहाध्यायी थे। यही दूसरे बालचन्द्र के गुरु थे।
कवि की दूसरी कृति रामायण अथवा पम्प रामायण है । यह बहुत ही सुन्दर एवं सरस ग्रन्थ है। इसका सभी अध्ययन करते हैं। कर्नाटक देश में इसका बड़ा प्रचार है। यह ग्रन्थ भी गद्य-पद्य मय है। जिन मौर जिनाक्षर माला ये दो ग्रन्थ भी इनके बनाये हुए कहे जाते हैं परन्तु उनकी रचना साधारण और महत्वहीन होने के कारण उक्त कवि की कृति नहीं मालूम पड़ती। संभव है उनके रचयिता कोई दूसरे ही कवि हों । इनका समय सन् ११०५ (वि० सं० १२४०) के लगभग है।
१. दामनन्दि गुरुणोऽमण्यं अयाण जाणियं गुज्झ ।
तं आयणाणतिलए वोखरिणा भन्नए पयर्ड ॥२॥" २. "श (स) वीयशास्त्रसारेण यत्कृतं जनमंडनं ।
तदाय शान तिलक स्वयं विवियते मया ॥" आयज्ञान तिलक
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
गुणभद्र गुणभद्र- मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ और कोण्ड कुन्दान्वय के दिवाकर थे। इनके शिष्य नयकीर्तिसिद्धान्तदेव थे और प्रशिप्य भानूकीर्ति, जिन्हें शक सं० १०६५ के विजय संवत् में होयसल वंश के बल्लाल नरेश ने पार्श्व व्रतीन्द्र को चौबीसवें तीर्थकरों की पूजन हेतु 'मारुहल्लि' नाम का एक गाँव दान में दिया था। प्रतापख इनका समय वि० संम्बत् १२३० है । और गणभद्र का समय इससे ३० वर्ष पहले माना जाय तो भी विक्रम की वीं शताब्दो का अन्तिम चरण हो सकता है।'
(देखो, जैनलेख सं० भा० ११०३८५) कर्णपार्य-के कण्णय, कर्णय, और कण्णमय आदि नामान्तर हैं। ये नाम इसके ग्रन्थों में जगह-जगह पाये जाते हैं। किले कल दर्ग के स्वामी गोवर्धन या गोपन राजा के विजयादित्य, लक्ष्मण या लक्ष्मी धर वर्धमान और शान्ति नाम के चार पुत्र थे। इनमें से कवि लक्ष्मीधर का प्राथित था। इस कवि के बनाये हए नेमिनाथ पुराण, वीरेश चरित और मालती माधव ये तीन ग्रन्थ बताये जाते हैं। परन्तु इस समय केबल नेमिनाथ पूराण ही उपलब्ध है। इसमें २२ व तीर्थकर नेमिनाथ का चरित वर्णित है। ग्रन्थ में १४ प्राश्वास हैं और वह चम्पू रूप है । प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उसे कवि ने लक्ष्मीधर की प्रेरणा से बनाया है। इसमें लक्ष्मीधर राजा की और कृष्ण को समता बतला कर स्तुति की है । लक्ष्मीधर के गुरु नेमिचन्द्र मुनि थे, और कवि के गुरु कल्याण कीति थे। कल्याण कीति मलधारि गुणचन्द्र के शिप्य और मेघचन्द्र विद्यदेव के-जो सन् १११५ में मृत्यु को प्राप्त हए हैं। सतीर्थ या सहपाठी थे। गुणचन्द्र भवनकमल्ल राजा (११६६ से १०६७ तक ) के समय में उनके गुरु थे। कविता संगम प्रौर ललित है। रुद्रभद्र (१२८० अण्डव्य (१२३५) मंगरस १५०६) और दोड्डय्य आदि कवियों ने इसकी प्रशंसा की है। (कर्नाटक जैनकवि)
श्रुतकीति-(पंचवस्तु व्याकरण ग्रन्थ के कर्ता)नन्दि संघ की गुर्वावली में श्रुतकीति को वैयाकरण भास्कर लिखा है ।' श्रुतकीर्ति की गुरु परम्परा ज्ञात नहीं है । और उक्त व्याकरण ग्रंथ में कर्ता का नाम नहीं है। ग्रन्थ के पांचवे पत्र में श्रुतकीति नाम पाया है। जिससे मालूम होता है कि वे व्याकरण ग्रंथ के रचयिता हैं :
"याम-वैर-वर्ण कर-चरणादीनां संधीनां बहनां संभवत्वात् सशयान: शिप्यः स प्रच्छतिस्म-कस्सन्धिरिति । सज्ञास्वर प्रकृति हलज विसर्ग जन्मा सन्धिस्तू इतीत्थ मिहाहरन्ये । तत्र स्वर प्रकृति हल्ज विकल्पतोऽस्मिन संधि विधा कथयति श्रुतकीनिगर्यः ।"
__ कनड़ी भाषा के 'चन्द्रप्रभ चरित' नामक ग्रंथ के कर्ता अग्गल कवि ने श्रुतकीर्ति को अपना गुरु बतलाया है । "इदु परमपुरुनाथकुलभूभृत समुद्भूत प्रवचन सरित्सरिन्नाथ-श्रुतकीति त्रैविद्य चक्रवति पद पद्मनिधान दीपवति श्रीमदग्गल देव विरचिते चन्द्रप्रभचरिते-" इत्यादि।
यह चन्द्रप्रभ चरित शक सं० १०११ (वि० सं० ११४६) में बन कर समाप्त हुआ है। अतएव यह श्रुतकीति विद्य चक्रवर्ती विक्रम की १२ वीं शताब्दी के विद्वान हैं।
वृत्ति विलास वृत्ति विलास-यह अमरकीति के शिष्य थे। इसके दो ग्रंथों का-धर्म परीक्षा और शास्त्र सार का-पता चलता है। धर्म परीक्षा, अमितगतिकृत संस्कृत धर्म परीक्षा के आधार से बनाई है। इसकी रचना बहुत ही सरल पौर सुन्दर है। इसके गद्य-पद्य मय दश प्राश्वास हैं। प्रारम्भ में वर्धमान स्वामी की स्तुति की है, फिर सिद्धपरमेष्ठी, यक्ष यक्षिणी और सरस्वती को नमस्कार कर केवलियों से लेकर द्वितीय हेमदेव तक गुरुत्रों का स्मरण किया है। ग्रंथ के अन्त में निम्न पुष्पिका वाक्य दिया है:-विनमदमरमुकुटतटघटितमणिगणमरीचि मञ्जरी पुजरंजित
१ विद्य- श्रुतकीाख्यो वैयाकरण भास्करः ।
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य पादरविन्दभगवदर्हत्यरमेश्वरवदनविनिर्गत श्रुताम्भोधिवर्द्धन सुधाकरे श्रीमदमरकीतिरावल्लव्रतीश्वरचरण सरसीरुह षट्पदवृत्तिविलासविरचिते धर्मपरीक्षा ग्रंथे-'पादि गद्य दिया है।
दूसरे नथ शास्त्रसार का कुछ भाग 'प्राक काव्यमाला' नाम की कनड़ी-ग्रथमाला में प्रकाशित हया है। परंतु पूरा ग्रंथ इस समय प्राप्य नहीं है । कवि ने अपने ग्रंथ में अपने समय आदि का कुछ भी परिचय नही दिया है। परंतु कवि ने जिन शुभकीति व्रती, सैद्धान्तिक माघनन्दि यति, भानू कीतियति, धर्मभूपण, अमर कीति (कवि का गरु), अभयसूरी, वादीश्वर आदि जैनाचार्यों का स्तवन किया है। उनके समय का विचार करने में इसका समय ११६० के लगभग निश्चित होता है। उक्त आचार्यों में से शुभकीति १११५ में दिवगत होने वाले मेघचन्द्र के समकालीन थे। माघनन्दि संद्धान्तिका समय ११६० है भानुकोति ११६३ में समाधिस्थ होने वाले देवकीन के सहपाठी थे। प्रभयसरि बल्लाल नरेश और चारुकीति पण्डित के समकालीन थे। क्योंकिसा उल नख मिलता है कि अभयसरि ने इन दोनों को एक बड़ी भारी व्याधि से मुक्त करके श्रवण बेलगोल में निवास कराया था। बल्लाल विष्णवर्धन राजा का भाई था ओर चारुकीति श्रुतकीति का पुत्र था। श्रवणवेलगुल के जन गुरुया 'चारकति पण्डिताचार्य' का पद १११७ के अनंतर धारण किया था। इससे मालूम होता है कि यह त्रारुकात श्रवण वलगाल का प्रथम चारुकीति पण्डित होगा। श्रवण बेलगोल के १११ व शिलालेख में विशालकानि क शिप्य शुभकीति, शभकीति के शिष्य धर्मभूषण और धर्मभूषण के शिष्य अमरकीति बतलाये गये है। प्रारगुन कति १११५ में दिवगत होने वाले मेघचन्द्र क समकालीन है । इसलिये शुभकीति के शिष्य धर्मभूषण पार प्रागाय अनरकीति का समय ११५० के लगभग होना चाहिये । शिलालेख को यह गुरु परम्परा धर्मपरीक्षोल्लिखित गरारम्परा स बराबर मिलती है। किन्तु यह शिला लेख शक १२६५ परिधाविसंवत्सर का है। अत: समय विचारणाय है।
देखा, कर्नाटक जैन कवि छत्रसेन-काष्ठासंघ माथरान्वय के विद्वान प्राचार्य थे । जो उच्छण नगर में अपने व्याग्याना स समस्त सभाजनों को सन्तुष्ट किया करते थे' । उच्छण नगर में उस समय परमारवगीय मइलक (मदनदव ) नाम के राजा का पौत्र चामुण्डराज का विजयराज पुत्र स्थलिदेश का शासक था । उक्त नगर में उस समय भूपण नामक एक जैन श्रावक ने आदिनाथ का एक मनोहर जिन मन्दिर बनवाकर उसमें वषभनाथ (ग्रादिनाथ) की प्रतिमा की वि० सं०११६६ वैशाख सुदी तीज सोमवार सन् ११०६ई० को प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई थी । अतः प्रस्तुत छत्रमेनाचार्य का समय ईसा को११वी शताब्दी का अन्तिम चरण और १२वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है।
सागरनन्दी सिद्वान्तदेव सागरनन्दी सिद्धान्त देव-मूलसंघ देशीयगण पुस्तक गच्छ कोण्डकुन्दान्वय कोल्हापूर सामन्त वसदि से प्रतिबद्ध माधनन्दि के प्रशिष्य और शुभचन्द्रत्रविद्यदेव के शिष्य थे। रेचिरस सेनापतिने १२०० ईस्वी के लगभग श्रवण बेलगोल में शान्तिनाथ का मन्दिर बनवाया था। कलचुरि कुल के सचिवोत्तम रेचरग ने बल्लालदेव के चरणों में पाश्रय पाकर आरसिय केरे में सहस्त्रकूट जिनालय की स्थापना की। भगवान की अष्टविधपूजा, पूजारी और सेवको की आजीविका तथा मन्दिर की मरम्मत के लिए राजा बल्लाल ने 'हन्दर हल्लु' ग्राम प्राप्त करके उक्त सागर नन्दि को प्रदान किया। रेचस द्वारा स्थापित इस सहस्त्रकूट जिनालय के लिए जैनों द्वारा एक करोड़ रुपया इक्ठा
१. यो माथुरान्वय नभस्थलतिग्मभानोाख्यानरंजितसमस्तसभाजनस्य । श्रीच्छत्रमेन सगुरोश्चरणारविंद सेवापरोभवदन्यमनाः सदैव ॥११
-अVणा शिलालेख अजमेर म्यूजियम् २. विक्रम संवत् ११६६ वैशाख सुदी ३ सोमे वृषभनाथस्य प्रतिष्ठा ।
श्रीवृषभनाथ धाम्नः प्रतिष्ठिते भूषणेन बिम्बमिदं उच्छणक नगरेस्मिन्निह जगतो वृषभनाथस्य ।।२६ अथणालेख वर्ष सहस्र याते षट् षष्ठयुत्तर शतेन संयुक्त । विक्रम भानोः काले स्थलि विषय भवति सति विजय राज्ये
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग ३
किया गया, उससे मन्दिर तथा उसकी चहार दीवार बनवाई गई। इस जिनालय के निर्माण में ७ करोड़ लोगों को सहायता होने से इसका नाम 'एल्कोटि जिनालय' रक्खा गया। प्रारसिय केरे के लोगों ने शान्तिनाथ का एक मन्दिर और बनवाया था। उसके प्रबन्ध के लिये दान दिया था। जैन लेख सं० भा० ३ पृ० ३११
अर्हनन्दि प्रहनन्दि-मूलसंघ देशीगण और पुस्तक गच्छ के प्राचार्य माघनन्दि सिद्धान्त देव के शिष्य थे। जो रूप नारायण वसदि के प्राचार्य थे। शक सं० १०७३ (सन् ११५१) में कामगाबुण्ड के द्वारा बनवाए हुए मन्दिर के, जो क्षल्लकपुर (कोल्हापुर) में रूपनारायण वसदिके नाम से प्रसिद्ध है। पार्श्वनाथ भगवान की प्रष्ट प्रकारी पूजा के
न्दिर की मरम्मत तथा मुनिजनों के आहारार्थ विजयादित्यदेव ने अपने मामा सामन्त लक्ष्मण की प्रेरणा से भूमिका दान दिया। इस कारण अर्हनन्दि का समय ईसा की १२वीं शताब्दी का मध्यकाल है।
-जैनलेख सं० भा०२ पृ०६६
माइल्ल धवल यह द्रव्य स्वभाव नयचक्र के कर्ता माइल्ल धवल हैं। जो देवसेन के शिष्य थे। उन्होंने नयचक्र के कर्ता देवसेन गुरु को नमस्कार किया है और उन्हें स्यात् शब्द से युक्त सुनय के द्वारा दुर्नय रूपी दैत्य के शरीर का विदारण करने में श्रेष्ठ वीर बतलाया है। यथा
सियसदसुणयदुण्णयवणुदेह-विदारणेक्कवरवीरं।
तं देवसेणदेवं णयचक्कयरं गुरु णमह ॥ ४२३ ग्रंथ कर्ता ने कुन्द कुन्दाचार्य के शास्त्र से सार ग्रहण करके अपने और दूसरों के उपकार के लिए द्रव्य स्वभाव नयचक्र की रचना की है । इस ग्रन्थ में ४२५ गाथाएँ है । ग्रन्थ निम्न १२ अधिकारों में विभाजित है । जैसा कि उसकी निम्न दो गाथाओं से स्पष्ट है :
गुणपज्जाया दवियं काया पंचत्थि सत्त तच्चाणि । अण्णे विणव पयत्था पमाण-णय तह य णिक्खेवं ॥ दंसणणाणचरित्ते कमसो उवयारभेदइदरेहि।
दव्वासहावपयासे प्रहियारा बारसवियप्पा ॥
य. व्य. पचास्तिकाय, साततत्त्व, नौ पदार्थ, प्रमाण, नय, निक्षेप और उपचार तथा निश्चय नय के भेद से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र । इन वारह अधिकारों में द्रव्यानुयोग का कथन समाविष्ट हो जाता है। क्योंकि जैन सिद्धान्त में छह द्रव्य पांच अस्तिकाय, सप्ततत्त्व, और नौ पदार्थ हैं। गण और पर्यायों का पाधार द्रव्य है और प्रमाण नय निक्षेप ज्ञेयों के जानने के साधन । चारित्र मोक्ष के मार्ग हैं। इस तरह इस नयचक्र में सभी ज्ञेयों का कथन किया गया है।
माइल्ल धवल ने ४२०वीं गाथा में लिखा है कि दोहों में रचित शास्त्र को सुनते ही शुभंकरने हंस दिया पौर बोला-इस रूप में यह ग्रन्थ शोभा नहीं देता, गाथाओं में इसकी रचना करो।
सुणिऊण वोहसत्थं सिग्धं हसिऊण सुहंकरो भणह।
एस्थ ण सोहा प्रत्यो गाहाबंषेण तं भणह ॥४२० पत्य कर्ता ने इस दोहा बद्ध द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र को कब किसने और कहां बनाया, इसका कोई उल्लेखनहीं किया । द्रव्य स्वभाव प्रकाश को दोहामों में रचा हुमा देखा, पौर उसे माइल्ल धवल ने गाथा बद्ध किया।
वव्वसहावपयासं दोहयबंषेण प्रासि जं विठं । तंगाहावंधण रइयं माइल्ल षवलेण ॥४२४
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
समय
ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है । श्रतः यह निश्चय करने में कठिनाई होती है कि यह ग्रन्थ कब श्रीर कहाँ रचा गया। पुरातात्त्विक, व लेखादि सामग्री भी उपलब्ध नहीं है । अतः ग्रन्थ के अन्तः परीक्षण द्वारा इस समस्या सुलझाने का यत्न किया जाता है । द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र में अनेक ग्रन्थकारों के पद्यों को उक्त च वाक्य के साथ उद्धृत किया गया है । और विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के विद्वान प० आशाधर जी द्वारा इष्टोपदेश टीका का निर्माण सं० १२८५ से पूर्व हो गया था, क्योंकि सं० १२८५ में रचे जाने वाले जिन यज्ञकल्प को प्रशस्ति में इष्टोपदेश टीका का उल्लेख है । इष्टोपदेश के २२वें पद्य की टीका के अन्तर्गत द्रव्य स्वभाव प्रकाश नयचक्र की ३४९ वीं गाथा उद्धत है
:
गहियं तं सुप्रणाणा पच्छा संवेयणेण भाविज्जा । जो गहु सुय मवलंवइ सो मुज्झइ अप्पसम्भावे || ३४६ ॥
३४१
चूकि आशाधर १३ वी शताब्दी के विद्वान हैं । अतः द्रव्य स्वभावप्रकाश की रचना सं० १२८५ से पूर्व हुई
है । वह उसके बाद की रचना नहीं है ।
एकत्व सप्तति श्रादि प्रकरणों के कर्त्ता मुनि पद्मनन्दि है । उनकी एकत्व सप्तति के पद्य अनेक विद्वानों ने उद्धृत किये हैं । एकत्व सप्तति के दो पद्यों को पद्मप्रभ मलधारी देव ने नियममार की टीका में (गाथा ५१ - ५५ में) तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ नामोल्लेख के साथ एकत्व सप्तति का ७६ वा पद्य, और १००वी गाथा की टीका में (३६–४१) पद्यों को उद्धृत किया है। पद्मप्रभ मलधारी देव का स्वर्गवास वि स० १२४२ मे हुआ था । अतः पद्मनन्दि की एकत्व सप्तति म०१२४२ से पूर्व बनकर प्रचार में ग्रा चुकी थी ।
इस एकत्व सप्तति की एक कनड़ी टीका है जिसके कर्ता पद्मनन्दिव्रती है जिनकी ३ उपाधिया पाई जाती हैं। पंडित देव, व्रती और मुनि । यह शुभचन्द्र राद्धान्त देव के अग्र शिष्य थे और उनके विद्या गुरु थे कनकनन्दि पण्डित । पद्मनन्द मुनि ने अमृतचन्द्र की वचन चन्द्रिका से प्राध्यात्मिक विकास प्राप्त किया था और निम्बराज नृपति के सम्बोधनार्थ एकत्व सप्तति की कनड़ी वृत्ति रची थी ।"
प्रस्तुत निम्बराज शिलाहार वंशीय गण्डरादित्य नरेश के सामन्त थे । उन्होंने कोल्हापुर में अपने अधिपति के नाम से 'रूपनारायण वसदि, नामक जैन मन्दिर का निर्माण कराया था । तथा कार्तिक वदि ५ शक सं० १०५८ ( वि० सं० १९९३) कोल्हापुर में मिरज के आस-पास के ग्रामों का आपने दान दिया था ।
एकत्वसप्तति के कर्त्ता पद्यनन्दि और कनड़ी वृत्ति के कर्त्ता पद्मनन्दि व्रती दोनों भिन्न भिन्न विद्वान है । पद्मनन्दि पचविशतिका के कर्त्ता पद्मनन्दि विक्रम की १२वीं के पूर्वार्ध के विद्वान जान पड़ते है । अतः द्रव्यस्वभाव प्रकाश नयचक्र के कर्त्ता माइल्ल धवल १२ वी शताब्दी के मध्यकाल के विद्वान होना चाहिये ।
कुमुदचन्द्र
कुमुदचन्द्र नाम के अनेक विद्वान आचार्य हो गए हैं । उनमें कल्याण मन्दिर स्तोत्र के रचयिता भिन्न
कवि हैं ।
१. श्रीपद्मनन्दिवृति निर्मिते यम् एकत्वसप्तत्य खिलार्थ पूर्तिः ॥ वृत्तिश्चिर निम्बनृप प्रबोधलब्धात्मवृत्ति र्जयतां जगत्याम् । स्वस्ति श्रीशु रचन्द्रराद्धान्तदेवाय शिष्येण कनकनन्दिपण्डितवाग्रस्मिविकसितहृत्कुमुदानन्द श्रीमद् अमृतचन्द्र चन्द्रिकोन्मीलितनेत्रोत्पलावलोकिताशेषाध्यात्मतत्ववेदिना पद्मनन्दिमुनिना श्रीमज्जै नसुधाब्धिवर्धनकरा पूर्णेन्दुराराति वीर श्रीपतिनिम्बराजावबोधनाय कृतैकत्वसप्ततेषु तिरियम् - तज्ज्ञाः संप्रवदन्ति सततमिह श्रीपद्मनन्दि व्रती कामध्वंसक इत्यलं तदमृत तेषां वचस्सर्वथा अंग्रेजी प्रस्तावना पद्मनन्दि पंचविंशति पृ० १७
-
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कल्याण मन्दिर स्तोत्र पार्श्वनाथ का स्तवन है । इस का आदिवाक्य 'कल्याण मन्दिर' से। ने के कारण यह स्तोत्र कल्याणमन्दिर के नाम से प्रसिद्ध हो गया है। प्रस्तुत स्तवन मे ४४ पद्य है। उन में ४३ पद्य बसन्ततिलका छन्द में और अन्तिम पद्य प्रावित्त में है। इसमें तेवीसवं तीर्थकर पार्श्वनाथ का स्तवन किया गया है। यह स्तवन दिगम्बर श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायो में माना जाता है। यद्यपि दिगम्बरो मे इस स्तोत्र की बड़ी भारी मान्यता है। सभी स्त्री पुरुप वालक बालिकाएं इसका नित्य पाठ करते देखे जाते है । अनेकों को यह स्तवन कण्ठस्थ है। और अनेकों को प.वनारमीदास कृत हिन्दी पद्यानुवाद कण्ठस्थ है।
वेताम्बर सम्प्रदाय मे कल्याणमन्दिर स्तोत्र का कर्ता सिद्धमेन दिवाकर को बतलाया गया है और उनका अपर नाम कुमुदचन्द्र माना गया है । सिद्धमेन दिवाकर का दूसरा नाम कुमुदचन्द्र प्राचीन इतिहास से सिद्ध नही होता आर न उन्होंने कही अपने इम द्वितीयनाम का कार्ड उल्लेख ही किया है। परन्तु अर्वाचीन कुछ ग्रन्थकारो ने उनका अपर नाम कुमुद चन्द्र गढ लिया है । जिसका इतिहास से कोई समर्थन नहीं होता किन्तु कल्याण मन्दिर स्तोत्र के विपयवणन में कई बाते श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रतिकल पाई जाती है।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तीर्थकर के अशोक वक्ष, मिहामन, चमर और छत्र त्रय ये चार प्रानिहायं माने गए है। उनके भक्तामर स्तोत्र पाठ मे भी चार ही पतिहार्य स्वीकार किये गये है। गप दुन्दुभि, पूरपप्टि, भामडल और दिव्य-दान छोड़ दिये गये है । टन ग्राट प्रतिहार्या का पाया जाना उक्त सम्प्रदाय के विपरीत है।
दूसरे स्तोत्र में भगवान पार्श्वनाथ के वैरी कमठ के जीव शम्बर यक्षन्द्र द्वारा किये गये भयकर उपसर्गो का 'प्रारभारममत'नमामि रजासि रोपात् नामक :१ व पद्य मे व पद्य तक वर्णन है, जो दिगम्बर पम्परा के अनुकुल
और श्वेताम्बर परम्परा की मान्यता के प्रतिकल है। क्या क दिगम्बराचार्य यतिवृपभ की 'तिलोय पण्णत्ति' की १६.० न० की गाथा में 'मनम तवीमतिम तित्त्थय गण च उवमग्गो' वाक्य से गालवे, तेवीमवे और अन्तिम तीर्थकर के मोपसर्ग होने का उल्लेख है। किन्तु स्वेताम्बर सम्प्रदाय मे अन्तिम तीर्थकर महावीर को छोड़कर गेप तेईस तीर्थकरी को निरुपमगं माना गया है जैमा कि आचाराग नियुक्ति की निम्न गाथा मे स्पष्ट है:---
सर्वेसि तवो कम्मं निरुवसाग तु वणिण्यं जिणाण ।
नवर त वडढमाणस्स सोवसगं मुणेयव्य ।।२७६ उसमे स्पष्ट है कि पारवनाथ का सोपसर्गी होना श्वेताम्बर मान्यता के विरुद्ध है । ऐसी स्थिति मे मिद्धमेन दिवाकर का म स्तोत्र का रचयिता मानना किसी तरह भी सगत नहीं है। चित्तोड़ के दि० जैन कीर्तिस्तभ को श्वेताम्बर वनान क अनेक प्रयत्न किये गये । मभवत. श्वेताम्बर परम्परा क साधुओ द्वारा इस तरह की इतिहास विरुद्ध अनक घटनाए गढ़ी गई है। जो अप्रमाणिक है।
प्रस्तुत कुमुदचन्द्र के है जिनका गुजरात के जर्यासह सिद्धराज की गभा मे वि० स० ११८१ में श्वेताम्बरीय विद्वान वादिमूरि दव के साथ वाद हया था। उस समय स ही सभवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय में उसका प्रचार हा जान पड़ता है।
संभवत: उस स्तोत्र की रचना १२वो शताब्दी मे हुई हो, क्योकि वादिदेव सूरि से कुमुदचन्द्र का वाद इसी शताब्दी में हुआ था। यह तो प्रायः निश्चित है कि कल्याणमन्दिर भक्तामर स्तोत्र के बाद की रचना है।
१ सिद्धमेनस्य दीक्षा काले 'कुमुदचन्द्र' इति नामासीत् । मूरिपदं पुनः 'सिद्धसेन दिवाकर इति नाम प्रपद्ये । तदा दिवाकर
इति मूरि: सज्ञा। --प्रबन्ध कोश-सिंधी जन ज्ञानपीठ शान्ति निकेतन सन् १९३५ ई०, वृद्धवादि सिद्धसेन दिवाकर प्रबन्ध पृ०१६ देखो, अनेकान्त वर्ष ६ किरण ११ पृ० ४१५ २. जन्मान्तरेऽपि तव पाद युग न देव | मन्ये मया महित मीहितदानदक्षम् । तेनह जन्मनि मुनीश ! पराभवाना, जातो निकेतनमह मथिताशयानाम् ।।३६
-कल्याण मन्दिर स्तोत्र
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य स्तवन कितना भावपूर्ण एवं सरस है इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है पाठकगण उसकी महत्ता मे स्वयं परिचित
_ जिनेन्द्र के गुणों में अनुगग होना भक्ति है-'गुणेषु अनुगगो भक्ति' । हां भक्ति के अनेक प्रकार हैं । वे सब प्रकार सकामा निष्कामा भक्ति में समाविष्ट हो जाते है। भक्त जब बीतगग के गुणों का अनुगगी होता है। तब उसका हृदय भगवत गुणानूगग में मरवार रहता है, उग ममय उसे किसी भी वस्तु की चाह नहीं होनी, वह तो केवल वीतगग भाव में मलग्न रहता है। वह उसकी निष्कामा भक्ति है, जो कम क्षय में साधक हाती है। भक्त जब किसी वांछा से भगवान के गुण गान करता है तब उसकी अभिलाषा इच्छित पदार्थ की प्राप्ति को प्रोर होती है, वह बाह्य में स्तवन करता है, हाथ जोड़ता है, विनय करता है किन्तु अान्तरिक भावना पहिक :च्छा की पूर्ति की प्रोर रहती है। इसी का नाम सकामा भक्ति है, अाजकल उगके रूप में भी परिवर्तन हो गया है । उग भक्ति में जितने अंश में विद्धि होती है उतने अंश में कर्म निर्जग ओर पाणका वध होता है।
कवि कहता है कि हे देव ! मुझेमा लग रहा है कि जन्मान्तर में मैंने मनवाछिन फली वाले ग्राप के चरण कमलों की पूजा नही की, मी हे मनीय । मैं ग भव मेंहदय भेद नरकारी का निशान हया । यदि मैने जन्मान्तर में आपके चरणों की पूजा की होती तो मुझे विश्वास है कि मेरी प्रापदा अवरप टल जाती।
प्राकरिणतोऽपि नहितोऽपि निरीक्षितोऽपि, ननं न चेतसि मया विधुतोसि भक्त्या।
जातोऽस्मि तेन जन बान्धव द:खपात्रं यस्मात्क्रिया प्रतिफलन्ति न भाव शून्याः ॥३हे नाथ ! मैंने अापका चरित्र मना, आपके चरणों की पूजा भी की, आपके दर्शन भी कि, किन्तु निश्चय से मैने भक्ति से आपका हृदय में धारण नही किया है, उमीमे मे दुःग्य का पात्र हुनाह , क्याकि मात्र गुन्य क्रियाए फलवती नही होती। कवि भगवान की भक्ति को समस्त दु:खों का नाशक मानता है:
त्वं नाथ ! दुःख जन-वत्सल हे शरण्य, कारुण्य-पुण्य-वशते वंशिनां वरेण्य ।
भक्त्या नते मयि महेश ! दयां विधाय, दुःखा-कुरोद्दलनतत्परतां विधेहि । हे नाथ! आप दीन दयाल, शरणागत प्रतिपाल, करुणानिधान योगीन्द्र और महेश्वर है । अतः भक्ति से नम्रीभूत मुझ पर दया करके मेरे दु:खांकरों को नाश करने में तत्परता कीजिए।
कवि अपने आराध्य के शील पर मुग्ध है उसका विश्वास है कि भगवान की भक्ति विपत्तियों का दर करने वाली है।
हृद्वति नि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्म-बन्धाः । सद्यो भुजंगममया इव मध्य-भाग
मम्यागते वन-शिखण्डिनि चन्दनस्य ॥ हे प्रभो ! आपके हृदय वर्ती होने पर कर्मों के बन्धन उसी तरह शिथिल पड़ जाते है जिस तरह चन्दन के वक्ष पर मयुर के पाने पर सो के बन्धन ढीले पड़कर नीचे खिसकने लगते हैं। इस पद्य में कवि ने उपमालंकार द्वारा पाराध्य के प्रभाव को व्यक्त किया है । पं० बनासीदास कृत इसका पद्यानुवाद भी दृष्टव्य है :
तुम प्रावत भविजन मन मांहि, कर्मनिबंध शिथिल हो जांहि।
ज्यों चन्दनतरुवोलहिमोर, डरहिंभुजंगलखें चहुंओर ॥ इस तरह यह स्तवन अतिशय सुन्दर भावपूर्ण और सरस है । कुमुदचन्द्र की यह कृति महत्वपूर्ण है ।
श्रीचन्द्र यह कुन्दकुन्दान्वय देशीगण के प्राचार्य सहस्त्र कीर्ति के प्रशिष्य और वीरचन्द्र के शिष्य थे। सहस्रकीति के गुरु श्रुतकीर्ति और प्रगुरु श्रीकीर्ति थे । सहस्रकीर्ति के (देवचन्द, वासवमुनि, उदयकीर्ति, शुभचन्द्र,
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
३४४
और वीरचन्द्र ) पांच शिष्य थे। इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी के मध्य भाग से लेकर १२वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक है । कवि श्रीचन्द्र ने अपने को मुनि पंडित और कवि विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है ।
कवि की दो रचनाएं उपलब्ध है । कथाकोष प्रौर रत्नकरण्ड श्रावकाचार ।
कथाकोष - कवि की प्रथम कृति जान पड़ती है । कथाकोश में त्रेपन सन्धियां हैं, जिनमें विविध व्रतों के अनुष्ठान द्वारा फल प्राप्त करने वालों की कथाओंों का रोचक ढंग से सकलन किया गया है । कथाएं सुन्दर और सुखद है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल और प्रतिज्ञा वाक्य के अनन्तर ग्रन्थकार कहते हैं कि मैंने इस ग्रन्थ में वही कहा है जिसे गणधर ने राजा श्रेणिक या बिम्बसार से कहा था, अथवा शिवकोटि मुनीन्द्र ने भगवती प्राराधना में जिस तरह उदाहरणस्वरूप अनेक कथाओं के संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किये हैं । उसी तरह गुरु क्रम मे और सरस्वती के प्रसाद से मैं भी अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूं। मूलाराधना में स्वर्ग और अपवर्ग के सुख साधन का - अथवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय का - गाथाओं में जो अर्थ प्रूपित किया गया है उसी अर्थ को मैं कथाओं द्वारा व्यक्त करूंगा, क्योंकि सम्बन्ध विहीन कथन गुणवानों को रस प्रदान नहीं करता, अतएव गाथाओं का प्रकट अर्थ कहता हूं तुम सुनो।
ग्रन्थकार ने देह-भोगों की असारता को व्यक्त करते हुए ऐन्द्रिक सुखों को सुखाभास बतलाया है। साथ ही धन-यौवन और शारीरिक सौन्दयं वगैरह को अनित्य बतलाकर मन को विषय-वासना के ग्राकर्षण से हटने का सुन्दर एवं शिक्षाप्रद उपदेश दिया है और जिन्होंने उनको जीत कर प्रात्म-साधना की है उनकी कथा वस्तु ही प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय है । इन कथाओं द्वारा कवि ने मानव हृदय में निर्वेदभाव उत्पन्न करने का प्रयत्न किया है। प्रस्तुत 'कथाकोश और हरिषेण की कथाओं में अत्यधिक समानता है, श्रीचन्द्र ने उससे पर्याप्त सहयोग लिया है। कवि ने ग्रन्थ में वंशस्थ, समानिका, पद्धड़िया, दुहडउ, (दोहा) मालिनी, प्रलिल्लह आदि छन्दों का प्रयोग किया है । इन छन्दों में संस्कृत के वर्णवृत्तों का प्रयोग हुआ है । जैसा कि निम्न उदाहरण से स्पष्ट है:"विविह रसरसाले, णेयको ऊहलाले । ललियवयणमाले, प्रत्थसंदोहसाले । भुवण-विदिद-णामे, सव्वदोसो वसामे इह खलु कहकोसे, सुन्दरे दिण्णतोसे ॥”
यह संस्कृत का मालिनी छन्द है । इसमें प्रत्येक पंक्ति में ८ और७ अक्षरों के बाद यति क्रम मे १५ अक्षर होते हैं । कवि ने प्रत्येक पक्ति को दो भागों में विभक्तकर यति के स्थान पर श्रीर पंक्ति की समाप्ति पर अन्त्यानुप्रास का प्रयोग कर छन्द को नवीन रूप दिया है ।
सौराष्ट्रदेश अणहिलपुर में प्रसिद्ध प्राग्वाट वंश के नीनान्वय कुल में समुत्पन्न सज्जनोत्तम सज्जन नाम का एक श्रावक था, जो धर्मात्मा था और मूलराज नृपेन्द्र की गोष्ठी में बैठता था । अपने समय में वह धर्म का एक आधार था उसका कृष्ण नाम का एक पुत्र था और जयन्ती नाम की एक पुत्री थी। जो धर्म कर्म में निरन, जनशिरो
१. गहर हो पयामिउ जिरावदरणा, संणिय हो प्रासि गरणवइरणा ।। frants मुरिगद जैमजए, कह कोसु कहिउ पंचम समए । निह गुरु कमेण अह मवि कमि, नियबुद्धि विसेसु नेव रहमि । महु देवि सराम सम्मुहिया, संभवउ समत्थु लोय महिया । भण्णहो मूलाराहगाहें, सग्गापवग्ग सुसाहरणहें ।
-
गाहं सरिया मोहाउ, बहु कहउ अस्थि रंजिय जणउ । धम्मस्थ काम मोक्खावासयउ, गाहासु जासु संठियउ तउ । ताणत्थं भरिणऊण पुरउ, पुरणु कहमि कहाउ कयायरउ । धत्ता - संबंध विहरणु सव्व वि जागरसु न देइ गुणवन्तहं । तेरिय गााउ पर्याड वि ताउ कहमि कहाउ सुरांतहूं ॥
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३४५
मणी पौर दानादि द्वारा चतुर्विध संघका संयोपक था। उसकी 'राणू' नामक साध्वी पत्नी से तीन पुत्र और चार पुत्रियाँ उत्पन्न हुई थीं। वीजा, साहनपाल और साढदेव । श्री, शृंगारदेवी, मुन्दु और सोखू, । इनमें से सुन्दु या सुन्दिका विशेषरूप से जैन धर्म के प्रचार और उद्धार में रुचि रखती थी। कृष्ण की सन्तान ने अपने कर्म क्षय के हेतु कथाकोश को व्याख्या कराई । कर्ता ने भव्यों की प्रार्थना से पूर्व प्राचार्य की कृति को रचना को श्रीचन्द्र के सम्मुख की। इसी कृष्ण श्रावक की प्रेरणा से कवि ने उक्त कथाकोश को बनाया था। प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम की ११वों शताब्दी की रचना है।
रचना काल
कवि श्रीचन्द्र ने अपना यह कथा ग्रन्थ मूलराज नरेश के राज्यकाल में अणहिलपुर पाटन में समाप्त किया था। इतिहास से ज्ञात होता है कि मूलराज सोलंकी ने सं। १६८ में चावडा वंशीय अपने मामा सामन्तसिंह (भूयड़) को मार कर राज्य छीन लिया था । और स्वयं गुजगत की राजधानी पाटन (अणहिलवाड़े) की गद्दी पर बैठ गया। इसने वि० सं० १०१७ से १०५२ तक राज्य किया है । मध्य में मने धरणी वगह पर भी चढ़ा की थी, तब उसने राष्ट्रकूट राजा धवल की शरण ली, ऐमा धवल के वि० स० १०५३ के शिलालेख से स्पष्ट है । मूलराज सोलंकी चालुक्य राजा भीमदेव का पुत्र था, उसके तीन पुत्र थे मूल राज, क्षमरज, और कर्ण । इनमें मूलराज का देहान्त अपने पिता भीमदेव के जीवन काल में ही हो गया था और अन्तिम समय में क्षेमराज को राज्य देना चाहा; परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया, तब उसने लघुपुत्र कर्ण को राज्य देकर सम्वती नदी के तट पर स्थित मंडकेश्वर में तपश्चरण करने लगा। अतः श्रीचन्द्र ने अपना यह कथाकोश सन् १६५ वि०म० १०५२ में या उसके एक दो वर्ष पूर्व ही सन् ६३ में बनाया होगा।
रत्नकरण्डश्रावकाचार-प्रस्तुत ग्रन्थ स्वामी समन्तभद्र के रत्नकरण्ड नामक उपासकाध्ययन रूप गंभीर कति का व्याख्यानमात्र है। कवि ने इस आधार ग्रन्थ को २१ मधियों में विभक्त किया है। जिसकी प्रानमानिक श्लोक संख्या चार हजार चार सौ अट्ठाईस बतलाई गई है। कथन का पुष्ट करने क लिये अनेक उदाहरण और व्रता चरण करने वालों को कथाओं को प्रस्तुत किया गया है। गहस्थो के आचार विषय का कथाओं के माध्यम से विशद किया गया है जिससे जन साधारण उसको समझ सके । अनेक संस्कन पद्य भी उद्धत किये हैं।
कवि ने ग्रन्थ में एक स्थल पर अपभ्रश के कुछ छन्दों का भी उल्लेख किया है। अरणाल, प्रावलिया, चच्चरि, रासक, वत्थ, अडिल, पद्धडिया, दोहा, उपदोहा, दुवई, हेला, गाथा, उपगाथा, ध्रुवक, खंडक उवखंडक और घत्ता आदि के नाम दिये हैं यथा
छंदणियारणाल प्रावलियहि, चच्चरि रासय रासहि ललियाह । वत्थु प्रवत्थु जाइ विसेसहि, अडिल मडिल पद्धडिया अंसहि । दोहय उवदोहय अवभंसहि, दुवई हेला गावगाहहि ।
धुवय खंड उवखंड य घहि, समविसमद्दसमेहि विचिनहिं । प्रशस्ति में हरिनन्दि मुनीन्द्र, समन्तभद्र, अकलंक, कुलभूपण, पादपुज्य (पूज्यपाद) विद्यानन्दि, अनन्त
१. यं मूलादुदमूलपद गुरुबलः श्री मूलगज नृपो, दन्धिो धरणीवराह नृपति यद्वद् द्विपः पादपम् । आयातं भूविकांदि शीक मभिको यस्तं शरण्यो दधौ। दंष्ट्रायामिवरूढमहिमा कोलो मही मण्डलम् ।।
-एपि ग्राफिया इंडिका जि.१ पृ० २१
२. देखो, राजपूतानेका इतिहास दूसरा संस्करण भा० १ पृ. २४१ ३. देखो, राजपूताने का इतिहास प्रथम जिल्द दूसरा सं० पृ० १९२
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
वीर्य, वरषेण, महामति वीरसेन, जिनसेन, विहंगसेन, गुणभद्र, सोमराज चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदन्त, श्रीहर्ष श्रीर कालिदास नाम के पूर्ववर्ती विद्वानों का उल्लेख किया गया है ।
कविने स्वयं अपनी रचना में प्रारणाल, दुवई (१२ -३) जंभिदिया उवखंडयं, गाथा और मदनावतार छंदों का प्रयोग किया है, किन्तु ग्रंथ में प्रधानता पद्धडिया की है ।
कवि ने रयणकरंडसावयायार की रचना सं० ११२३ में कर्ण नरेन्द्र के राज्यकाल में श्रीवालपुर में समाप्त की थी। यह कर्ण देव वही कर्ण देव ज्ञात होते हैं जो राजा भीमदेव के लघु पुत्र थे । प्रोर जिनका राज्यकाल प्रबन्ध चिन्तामणि के कर्त्ता मेरु तुरंग के अनुसार सं० ११२० से ११३६ तक उन्नीस वर्ष प्राठ महीना और इक्कीस दिन माना जाता है । इन दोनों रचनात्रों के प्रतिरिक्त कवि की अन्य रचनाएं अन्वेषणीय हैं, ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है ।
चन्द्र कीर्ति
त - श्रतबिन्दु के कर्ता ) - चन्द्रकीर्ति और उनके ग्रन्थ 'श्रुतबिन्दु' का उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति में पाया जाता है। यह प्रशस्तिलेख (५४) है जो शक सं० १०५० (सन् १९२८ ई० ) और वि० सं० १९८५ की फाल्गुण वदी तीज को उत्कीर्ण हुआ है, जिस दिन मुनि मल्लिषेण ने आराधना पूर्वक अपने शरीर का परित्याग किया था । चन्द्रकीर्ति का समय मल्लिषेण से सभवतः २५ वर्ष पूर्व मान लिया जाय, तो उनका समय वि० सं० १९६० के लगभग होना चाहिये ।
पद्यप्रभ मलधारी देव ने अपनी नियमसार की टीका में चन्द्रकीर्ति के दो पद्यों को उद्धृत किया है । एक पद्य पृ० ६१ में चन्द्रकीर्ति के नामोल्लेख के साथ दिया है
सकल करणग्रामालंबाद्विमुक्तमनाकुलं ।
स्वहित निरतं शुद्धं निर्वाणकारणकारणम् । शम-दममावासं मंत्रीदयादम मंदिरम् । निरुपममिदं वन्द्यं श्रीचन्द्र कीतिमुनेर्मनः ॥
दूसरा पद्य पृ० १४२ में 'तथा चोक्तं श्रुतवन्दी' (विन्वो) ' वाक्यों के साथ उद्धृत किया है ? जयति विजय दोषोऽमत्यंमत्येंन्द्रमौलि - प्रविलसदुरुमालायचतांघ्रिजिनेन्द्रः ।
त्रिजगदजगती यस्ये दृशौ व्य ेनुवाते सममिव विषमेष्वन्योन्यवृत्तिं निषेद्धुम् ॥
इससे स्पष्ट है कि चन्द्रकीर्ति का 'श्रुतबिन्दु नामका यह ग्रन्थ मल्लिपण और पद्यप्रभ मलाधारी देव के सामने मौजूद था । उसके बाद वह विनष्ट हो गया । ग्रन्थ भण्डारों में उसका अन्वेषण होना चाहिए ।
इस पद्य में बतलाया है कि जिनका मन सम्पूर्ण इन्द्रियों के ग्रामों रहित है, जो ग्राकुलता रहित अपने आत्मकल्याण में तत्पर है। निर्वाण के कारणभूत शुक्लध्यान की प्राप्ति का कारण है । समता और इन्द्रिय दमनता का मन्दिर है । दया और जितेन्द्रियता का घर है, उपमा रहित ऐसे चन्द्रकीर्ति गुरु का मन मेरे द्वारा वन्द्यनीय है ।
चन्द्रकीर्ति नाम के दूसरे विद्वान
यह माथुर संघ के विद्वान श्रीषेणसूरि के दीक्षित शिष्य थे । जो पण्डितों में प्रधान और वादिरूपी वन के लिये कृशानु (श्रग्नि ) थे । 'चन्द्रकीर्ति तपरूपी लक्ष्मी के निवास, प्रथिजन समूह की आशा पूरी करने वाले तथा
१. रायारह तेवीमा वाससया विक्कमस्स महि वइणो । जया गयाहु तया समाणिए सुंदरं रइयं ॥ कण्णणरिन्द हो रज्जसुहि सिरि सिरिबालपुरम्मि बुहदें ।
- बालपुर महि सिरियं रख दे एउ गंदउ कव्वु जयंणिदं
२. चन्द्रकीर्ति ने अपने शिष्यों पर अनुकम्पा करके श्रुतविन्दु ग्रन्थ की रचना की थी। देखो, शिलालेख का ३२ वां पद्य)
३. सिरि मेणसूरि पंडिय पहाणु, तहो सीसुवाइ कारणरण - किसाण ।
- षट्कर्मोपदेश प्रशस्ति, जैन ग्रभ्थ प्र० सं० भा० २ १४
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३४७
दूसरे परवादिरूप हाथियों के लिये मृगेन्द्र (सिंह) थे। जैसा कि 'षट् कर्मोपदेश' के निम्न पद्य से प्रकट है
पुण दिक्खउ तहो तवसिरि-णिवास अत्थियण-संघ-वुह-पूरियासु ।
__ परवाइ-कुंभि-दारण-मइंदु, सिरिचन्दकित्ति जायउमुणिदु ॥ इन्हीं के छोटे सहोदर गणि अमरकीति उनके शिष्य हए थे। अमरकीति ने अपना षटकर्मोप देश और नेमिनाथ चरित सं० १२४७, और १२४४ में बना कर समाप्त किया था। अत: इनका समय भी विक्रम की १३वीं शताब्दी का द्वितीय चरण होना चाहिये, यह ईसा की १२वीं शताब्दी के विद्वान थे।
चन्द्रकोति तीसरे चन्द्रकीति मूल संघ देशियगण के विद्वान राउलत्रिभुवन कोर्ति के शिष्य कलयुगिगणधर मलधारी बालचद्र राउल के पूत्र चन्द्रकोति न सन् १२९८ ईसवी में स्वर्गलाभ किया । हेगोरे के भव्य लोगों के अग्रणियों ने उक्त मूनि की स्वर्ग प्राप्ति के उपलक्ष में स्मारक बनाया। (EC.XII chik Nayakan Hallite No 24 जैन लेख सं० भाग ३ लख नं० ५४५ पृ० ३८३
चन्द्रकोति चौथे चन्द्रकीति-काप्ठा संघ नन्दि तट गच्छ और विद्यागण के भट्टारक थे। यह ईडर गद्दी के पट्टधर भ० विद्याभूपण के प्रशिप्य अोर भ०श्रीभूपण के शिप्य थे। ईडर की गद्दी के पद स्थान सुरत डंग कल्लाल आदि प्रधान प्रधान नगरी में थे। उनमें से भ. चन्द्रकीति किस स्थान के पट्टधर थे। यह निश्चित रूप से नही कहा जा सकता । पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वे ईडर के आस-पास के स्थान के भट्टारक रहे हैं । यह विद्वान होने के साथ कवि भी थे, और प्रतिष्ठादि कार्यों में दक्ष थे। इन्होंने अनेक मन्दिर ओर मतियों की प्रतिष्ठा करवाई थी। इनकी अनेक कृतियां उपलब्ध हैं । संस्कृत के अतिरिक्त हिन्दी में भी अनेक रचानएं पाई जाती है। यह १७ वी शताब्दी के विद्वान हैं। इन्होंने पार्श्व पुराण की रचना स० १६५४ में की है। ऋषभदेव पुराण पद्म पुराण, पंचमेरू पूजा आदि रचनाएं इनकी कही जाती है।
माघनन्दि सिद्धान्त देव प्रस्तुत माघ नन्दि सिद्धान्तदेव मल संघ कुन्दकुन्दान्वय देसियगण और पूस्तक गच्छ के सिद्धान्त विद्या निधि कूलचन्द्र देव के शिष्य थ, जो पण्डितजनों के द्वारा सेव्य और चारित्र चक्रेश्वर थे। । यह कोल्लापुर तीर्थ क्षेत्र के कर्ता थे। अताव कोल्हापूरीय कहलाते थे। यह कोल्लापुर (क्षुल्लकपुर) के निवासी थे । यह माघनन्दि
१. सद्वत्तः कुलचन्द्रदेव मुनिप स्सिद्धान्त विद्यानिधिः ।
तच्छिष्योजनि माघनन्दि मुनिपः कोल्लापुरे तीर्थकद्राद्वान्तार्णव पारगोऽचलघतिश्चारित्र चक्रेश्वरः ।।
-जन लेख सं० भा० १ ले० नं० ४०पू० २४ २. कोल्हापर दक्षिण महाराष्ट्र का एक शक्तिशाली नगर है। शिलालेखों और ग्रन्थ प्रशस्तियों में इसका नाम 'क्षल्लकपूर, मिलता है। यह जैनधर्म का केन्द्र रहा है। कोल्हापुर और उसके आस-पास के अनेक दि० जैन मन्दिर बनाये गये हैं। अनेक जैन मन्दिर इस समय वैष्णव सम्प्रदाय के अधिकार में हैं । यह दिगम्बर समाज का महान् विद्यापीठ था। इसमें त्यागीव्रती मुनियों के अतिरिक्त सामन्त और राजपुरुष भी शिक्षा प्राप्त करते थे। इस पर अश्वभृत्य, कदम्ब, राष्ट्रकूट, चालुक्य और शिलाहार राजाओं ने राज्य किया है। १३वीं शताब्दी में चालुक्यों से शिलाहारों ने राज्य छीन लिया था। शिलाहार नरेश जैनधर्म के उपासक थे। इनमें मारसिंह गवलगङ्गदेव, भोज, बल्लाल, गण्डारादित्य, विजयादित्य और द्वितीय भोज नाम के प्रतापी शासक हुए हैं। इनका राज्य सन १०७५ मे ११२६ ई० तक रहा है। इस समय भी यहाँ पर भट्टारकीय मठ मौजूद है। इन राजाओं से जैनमन्दिरों को अनेक दानप्राप्त हुए हैं।
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कोल्हापुर की रूपनारायण वसति (मन्दिर) के प्रधानाचार्य थे। ३३४ नं० के शिलालेख में इन माघनन्दि सिद्धांत देव को कुन्दकुन्दान्वय का सूर्य बतलाया है । इनके अनेक शिष्य थे। अपने समय के बड़े ही प्रभावशाली विद्वान थे । रूपनारायण वसदि क अतिरिक्त अन्य अनेक जिनालयों के भी प्रबंधक थे ।
रूपनारायण वदि का निर्माण सामन्त निम्बदेव ने कराया था। निम्वदेव जैन धर्म का पक्का अनुयायी था। उसने रूपनारायण वसदि का निर्माण कराकर अपना धर्म प्रेम प्रकट किया था। माघनन्दि सैद्धान्तिक इनके चारित्र गुरु थे । सन् ११३५ ई० में भगवान पार्श्वनाथ का मंदिर भी बनवाया था। इनके सामन्त केदारनाकरस, सामन्त कामदेव' और चमूपति भरत भी शिष्य थे इनकी शिष्य परम्परा में अनेक विद्वान् हुए हैं। माघनन्दि सैद्धान्तिक के पट्ट शिप्य गण्डविमक्त देव सिद्धान्त देव थे। अन्य शिष्य कनकनन्दि, चन्द्रकीति, प्रभाचन्द्र महनन्दि और माणिक्यनदि थे। ये सभी शिष्य अच्छे विद्वान् थे।
माण्डलिक गोक-जैन धर्म का पक्का श्रद्धानी और अनुयायी था। तेरदाल के जैन मंदिर में प्राप्त शिला लेख से गोककी जैन धर्म की दढ़ प्रतीति का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। लेख में बतलाया है कि पंचपरमेष्ठी के स्मरण मात्र से गोंक का विषदूर होगया था। गोक ने तेरदाल में नेमिनाथ का मदिर बनवाया था और उसके प्रबन्ध के लिये तथा जैन साधुओ को आहारदान देने के लिये भूमिदान दिया था यह दान रट्ट नरेश कार्तिवीर्य (द्वितीय) के शासन काल में अपनी रानी वाचलदेवी, जो इन्ही माघनन्दि की शिष्या थी, द्वारा निर्मापित गोंक जिनालय के नेमिनाथ के लिये शक स०१०४५ (सन् ११२३ ई०) को माघनन्दि सैद्धान्तिक को दिया था।
___ गण्ड विमुक्त देव के एक छात्र सेनापति भरत और दूसरे शिष्य भानुकीति और देवकीति थे । गण्डविमुक्त देव के सधर्मा श्रुतकीति विद्य मुनि थे, जिन्होंने विद्वानो को भी चकित करने वाले अनुलोम-प्रतिलोमकाव्य राघव-पाण्डवीय काव्य की रचनाकर निर्मलकीति प्राप्त की थी ओर देवेन्द्र जैसे विपक्ष वादियो को परास्त किया था। इनका समय शक स०१०४५ (सन् ११२३ ई.) से १०६५ (सन् ११४३ ई०) है यह वारहवी शताब्दी के विद्वान हैं।
देवकोति देवकीति मूलसघ कुन्दकुन्दान्वय दशीय गण और पुस्तक गच्छ के विद्वान माघनन्दि सैद्धान्तिक के प्रशिष्य और गण्ड विमुक्तदेव के शिष्य थे । अद्वितीय कवि 'तार्किक,वक्ता और मण्डलाचार्य थे। इनके सन्मुख सांख्य, चार्वाक, नैयायिक, वेदान्ती और बौद्ध आदि जेनेतर दार्शनिक विद्वान अपनी हार मानते थे। इनके अनेक शिप्य थे। किन्तु पट्टधरशिष्य देवचन्द पण्डित देव थे। इनके सधर्मा माधनन्दि विद्य, शुभचन्द्र विद्य, गण्डविमुक्त चतुर्मुख
रामचन्द्र विद्य थे । देव कीर्ति के पट्टधर शिप्य देवचन्द्र पडित देव को, जो कोल्लापुरीय वसदि के थे, शक स० ११०६ सन् ११८४ ई० को भरतियय्य दण्डनाथ और बाहु बली दण्डनाथ ने दान दिया था।
३. श्री मूलमघ देशीयगण पुग्नक गच्छ अधिपतेः क्षुल्नकपुर श्री रूपनारायण जिनालयाचार्यस्य श्रीमान् माघनन्दि सिद्धान्त देवस्य .........॥"
-एपि नाफिका इंडिका भा० ३ पृ० २०८ ४. श्री मूलमघ देशीगण-पुम्तयागच्छ क्षुल्लकपुर श्री रूपनागयण-चैत्यालयस्याचार्यः ।
श्री माघनन्दि सिद्धात देवो विश्व मही स्तुतः । कुलचन्द्र मुनेः शिष्यः कुन्दकुन्दान्वयाशुमान् ।।
-जन लेख सं० भा०३ ले० न० ३३४ १०६५ ५. देखो, जैन लेख म० भा० १ ले० न ४० पृ० २७ ६. देखो, जन लेख म० भा० २ लेख नं० २८० ७. जैन लेख स० भा० ३ लेख न० ४१४ ८. जैन लेख म० भा० ११० २६ ६. जैन लेख स० भा० ३ ले० न० ४११
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवी और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३४६
देवकीति का स्वर्गवास शक स० १०८५ सन् ११६३ सुभानुसवत्सर प्रापाढ शुक्ला नवमी बुधवार को सूर्योदय के समय हुआ था' । उनका समय सन् १०४० से ११६३ ई० है। अर्थात यह ईसा की १२वी शताब्दी के विद्वान है । यादव वशी नरेश नर्गसह प्रथम के मंत्री हल्लप ने निपद्या बनवाई, और देवकीति के शिष्य लक्खनन्दि और माधवचन्द्र ने प्रतिष्ठित की।
सिद्धान्तदेव यह मूलमघ कुन्दकुन्दान्वय देशीगण पूस्तक गच्छ के कोल्हापूरीय माघनन्दि सैद्धान्तिक के शिष्य थे । बड़े विद्वान थे । शक म० १०५२ (सन् ११३० ई०) में माघनन्दि के शिष्य गण्ड विमुक्त सिद्धान्तदेव को होयमल नरेश विष्णुवर्द्धन की पुत्री एव बल्लाल देव की बडी बहिन राजकुमारी हरियव्वरसि ने एक रत्न जटित जिनालय बनवाकर स्वगुरु को प्रदान किया था '' । और सन् ११३८ मे इन्ही गण्ड विमुक्तदेव बनीग को दान दिये जाने का उल्लेख है। । इनके पट्टधर शिष्य देवकीति थे, और अन्य शिप्य शुभनन्दी थे । देवकीति का समाधिमरण मन् ११६३ ई० में हुआ था । 3 । इनका समय मन् ११३५ मे ११४५ ई० तक है।
माणिक्यनन्दी यह मूलमघ कुन्दकुन्दान्वय देशी गण पुस्तक गच्छ के विद्वान माघनन्दि सैद्धान्तिक के गिप्य थे।
क्षल्लकपर (कोल्हापूर)के शिलाहार नरेश विजयादित्य ने मन् ११४३ मे माघनन्दि वे गहम्थ शिष्य द्वाग निर्मापित जिनालय के लिये उनके गिाय माणिक्यनन्दी को दान दिया था 1 ।यह भी वट विद्वान और तपस्वी थे। इनका समय ईमा की१२वी शताब्दी का मध्यभाग है।
माधवचन्द्र मलधारी यह भट्टारक अमृत चन्द्र के गम थे । और जो प्रत्यक्ष में धर्म, उपशम, दम, क्षमा के धारक, तथा इन्द्रिय और कपायो के विजेता थे। उनकी प्रसिद्धि 'मलधारी' नाम से थी। मलधारी एक उपाधि थी जो उम समय किसी किसी गाध मम्प्रदाय में प्रचलित थी। यह उपाधि दुर्धर परीपहो, विविध उपमर्गो, पोर शीत उप्ण तथा वप की बाधा महते हुए भी काट का अनुभव नही करते थे। पसीने सेतर बतर शरीर होने पर धुलि के कणो के ससर्ग से मल्लिन शरीर को पानी गे धोने या नहाने जैसी घोर बाधा को भी हसते हसते मह लेते थे। ऐसे ऋपि पगव ही उक्त उपाधि गे अलकृत किये जाते थे।
इनका समय विक्रम की १२वी शताब्दी का उत्तरार्ध जान पड़ता है। क्योकि इनके शिष्य अमृतचन्द्र कवि सिह के गरु थे। कवि सिह ने सिद्ध कवि के अपूर्ण खण्ड काव्य पज्जुण चरिउ को प्रगस्ति मे बम्हणवाड नगर का वर्णन किया है । उस समय वहा रणधारी या रणधीर का पुत्र बल्लाल था जोअर्णोराज का क्षय करने के लिए काल स्वरूप था क्योकि वह उसका वेरी था। जिसका मालिक भृत्य या मामन्त गुहिल वशीय क्षत्रीय भुल्लण बम्हणवाड का शासक था।
१० जन लग्य सभा० १ ले० नं० ३६ (६३) पृ० ११ जैन लेग स० भाग २ ले० ने० २६३ पृ० ४४५ १२ जैन लेख स० भा० ३ ले० न० ३०७ पृ० २१ १३ जैन लेख स० भा० १ ले० न० ३६ पृ० २१ १४ जैन लेख स०भा० ३ ले० न० ३२० पृ० ५३ १ ता मलधारि देव मुणि पु गमु, रण पच्चक्व धामु उवममु दमु । माहवचद आसि सुपसिद्धउ, जो खम, दम गम-णियम समिद्धउ ।
-पज्जुण्ण चरिउ प्रशस्ति
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
गुरगभद्र प्रस्तुत गुणभद्र संभवतः माथुर संघ के विद्वान थे। यह मुनि माणिक्यसेन के प्रशिष्य और नेमिसेन के शिप्य थे। इन्होंने अपने को सैद्धान्तज्ञ मिथ्यात्व कामान्त कृत, स्याद्वादामल रत्नभूषण धर, तथा मिथ्यानय ध्वंसक लिखा है, जिससे वे बड़े विद्वान तपस्वी मिथ्यात्व और काम का अन्त करने वाले, सैद्धान्तिक विद्वान थे । स्याद्वादरूप निर्मल रत्नभूपण के धारक तथा मिथ्या नयों के विनाशक थे।
इनकी एक मात्र कृति 'धन्यकुमार चरित्र' है जिसमें धन्यकुमार का जीवन-परिचय अंकित किया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ उन्होंने लम्ब कचुक गोत्री साहु शुभचन्द्र जो सुशील एवं शान्त और धर्म वत्सल थावक थे। साह शभचन्द्र के पुत्र बल्हण नामका था 'जो दानवान' परोपकार कर्ता, तथा न्यायपूर्वक धन का अर्जन करने वाला था. उसी धर्मानुरागी बल्हण के कल्याणार्थ धन्यकुमार चरित्र रच गया है। इसी से उसे वल्हण के नामांकित किया गया है
ग्रन्थ में कवि ने रचनाकाल नहीं दिया किन्तु उन्होंने धन्यकुमार चरित्र को विलास पुर के जिनमन्दिर में बैठकर परमदि के राज्य काल में बनाया था। जैसा कि प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है :---
शास्त्र मिदं कृतं राज्ये राज्ञो श्री परमदिनः ।
पुरे विलासपूर्वे च जिनालयविराजते ॥५ इस पद्य में उल्लिखित विलास पुर झांसी जिला उत्तर प्रदेश का मोठ परगना में पचार या पछार में सन १६७० में इस ग्राम के निवासी वृन्दावन नामक व्यक्ति को अपने मकान की नीव म्वादते समय एक ताम्र शासन मिला जिसे उसने सन् १६०८ में सरकार को भंट किया। इस अभिन्नखानुसार कालिजर नरेश परमदिदव (चन्दल परमाल) ने केशव शर्मा नाम के ब्राह्मण को करिग्राम पहल के अन्तर्गत विलासपुर नामक ग्राम में कर विमुक्त भमिदान की थी । इस करिग्राम को झांसी जिले के परगना मोठ में करंगेवा नामक स्थान से पहिचाना गया हैचन्देलों के समय में यह स्थान विलासपुर के नाम से प्रसिद्ध था।
प्रशस्ति पद्य में उल्लिखित परिमादिदेव चन्देल वंगी नरेग परमाल हैं, जिनका पथ्वीराज चौहान से सिरसा गढ़ में, जालोन जिले के उरई नामक स्थान के निकट युद्ध हुआ था। उसमें परमाल को पराजय हुई थी, फलतः झांसी का उक्त प्रदेश चौहानों के प्राधीन हो गया था। इस युद्ध का उल्लेख मदन पुर के सं० १२२६ सन् ११८२ ई. के लेख में पाया जाता है। बाद में कुछ प्रदेश उसने वापस ले लिया था, पर झांसी जिले का उत्तरी भाग प्राप्त नही कर सका।
धन्य कूमार चरित की प्रशस्ति के ५वं पद्य में उक्त विलासपूर को 'जिनालयविराजते' वाक्य द्वारा जिानलयों से शोभित लिखा है । इससे वहाँ कई जैनमन्दिर रहे होगे । पुरातत्त्वावशेपों से ज्ञात होता है कि वहां एक छोटा सा पाषाण का मन्दिर मोजूद है, किन्तु काल के प्रभाव से आस-पास की भूमि ऊंची हो गई है और मन्दिर की छत भूमितल से ६ फुट नीचे हो गई है। अन्वेपण करने पर वहां जैन मन्दिरों का पता चल सकता है। चूँकि परमाल का राज काल ११७० से ११८२ तक तो सुनिश्चित है। उसके बाद भी रहा है । धन्य कुमार चरित्र उक्त समय के मध्य ही रचा गया जान पड़ता है।
१. आचार समिती र्दधौ दश विधे धर्म तपः संयमम् । सिद्धान्तस्थ गणाधिपस्य गुणिनः शिष्यो हि मान्योऽभवत् । सद्धान्तो गुणभद्र नाम मुनिपो मिथ्यात्व-कामान्तकृत् ।
स्याद्वादामलरत्नभूषणधरो मिथ्यानयध्वंसकः ॥३ -धन्य कुमार चरित प्रशस्ति १. यु. पी. डिस्टिक्ट गजेट्रिटियर्स, बी. वाल्यूम (१६१६, पृ० ३६, ६५-६६ तथा डी. वाल्यूम १९३४ पृ० २१ २. एपीग्राफिया इण्डिका, x, पृ० ४४-४६ । ३. जनसन्देश शोधाङ्क १७, १० अक्टूबर १९६३ का शोधकरण नामका डा. ज्योतिप्रसाद का लेख । ४. देखो कनिधम रिपोर्ट १० पु०६८, तथा अनेकान्त वर्ष १६ कि० १-२ में मध्यभारत का जैन पुरातत्व प०५४
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
माधव चन्द्रवती प्रस्तुत माधवचन्द्रवती मूनि देवकीति के शिप्य थे। जो अद्वितीय ताकिक, कवि वक्ता और मण्डलाचार्य थे। इनकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है । इनका स्वर्गवास शक मं० १०८५ (वि० स०१२२०) सुभान संवत्सर आषाढ़ शुक्ला हवीं बुधवार को सूर्योदय के समय हुआ था तव उनके शिप्य लक्खनन्दी, माधवचन्द्र और त्रिभवन मल्लने इनकी निषद्या को प्रतिष्ठित किया था। अतः इनका ममय सन् ११६३ (वि० सं० १२२०) सनिश्चित यह ईसाकी १२वीं शताब्दी के विद्वान थे।
माधवचन्द्र यह मूल संघ देशीयगण पुस्तक गच्छ हनसोगे बलि के प्राचार्य थे और शुभचन्द्र सिद्धान्त देव के शिष्य थे। होयसल नरेश विष्ण वर्द्धन ने अपने पुत्र के जन्मोपलक्ष्य में इन्हें दोरघरट्ट जिनालय (उस समय जिसका नाम पार्श्वनाथ जिनालय कर दिया गया था) के लिए ग्रामादि दान दिये थे। यह लेख नय कीति सिद्धान्न चक्रवती के शिप्य मिचन्द्र पंडित देव को उसी जिनालय के लिए दिया था, जो वर्ष प्रमादिन के दान शासन में है। (एपिनाफिया क०५ वेलर पृ० १२४) मि० लू इराइसने इस लेख का समय सन् ११३३ ई० अनुमानित किया है। अतः यह माधवचन्द्र ईसा की १०वीं शताब्दी के पूर्वाध के विद्वान हैं।
इन्हीं माधवमेन को शक स० १०५७ (सन् ११३५ ई०) के लगभग विष्णुवर्धन के प्रसिद्ध दण्डनायक गंगराज के पुत्र बोपदेव दण्ड नायक ने अपने ताऊ बम्मदेव के पुत्र तथा अनेक वस्तियों के निर्माता एचिराज की मत्य पर उनकी निपद्या बनवाकर उन्ही द्वारा निर्मापित वस्तियों के लिए स्वयं एचिगज की पत्नी की प्रेरणा इन माधवचन्द्र को धारापूर्वक दान दिया था। (देखो, जैनलेख सं० भा० १ पृ० २६८)
कि इस लेख का समय लगभग सन् १०५७ है । अतः प्रस्तुत माधवचन्द्र ईमा की ११वीं शताब्दी विद्वान हैं।
वसुनन्दी सैद्धान्तिक वमनन्दी नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें एक वसुनन्दी योगी का उल्लेख ग्याहरवीं सदी के विद्वान अमितगति द्वितीय ने भगवती आराधना के अन्त में आराधना की स्तुति करते हुए 'वसुनन्दि योगिमहिता' पद द्वारा किया है। जिसमे वे कोई प्रसिद्ध विद्वान हुए हैं। प्रस्तुत वसुनन्दी उनसे भिन्न और पश्चाद्वर्ती विद्वान हैं। किन्त श्री कुन्दकुन्दाचार्य की वंशपरम्परा में श्रीनन्दी नामके बहुत ही यशस्वी गुणी एवं सिद्धान्त शास्त्र के पारगामी पाचार्य हरा हैं । उनके शिप्य नयनन्दी भी वैसे ही प्रख्यातकीर्ति, गुणशाली सिद्धान्त शास्त्र के पारगामी और भव्य सयानन्दी थे। इन्हीं नयनन्दी के शिष्य नेमिचन्द्र थे। जो जिनागम समुद्र की वेला तरंगों से ध्यमान पीर सकल जगत में विख्यात थे । उन्हीं नेमिचन्द्र के शिष्य वसुनन्दी थे। जिन्होंने अपने गुरु के प्रसाद से, प्राचार्य परम्परा से चले माये हुए थावकाचार को निबद्ध किया है।
वसनन्दी के नाम से प्रकाश में आने वाली रचनाओं में उपास का ध्ययन,-प्राप्तमो मांसा वत्ति, जिनशतक टीका, मुलाचार वृत्ति और प्रतिष्ठा सार संग्रह ये पांच रचनाएं प्रसिद्ध हैं। इनमें उपासकाध्ययन (वसुनन्दी श्रावका चार) और प्रतिष्ठासार संग्रह के कर्ता तो एक व्यक्ति नहीं हैं । प्रतिष्ठा पाठ के कर्ता वसुनन्दी पाशाधर के बाद के विद्वान है। क्योंकि प्रतिष्ठापाठ के समान उपासकाध्ययन में जिनबिम्ब प्रतिष्ठा का खूब विस्तार के साथ वर्णन करते हए अनेक स्थलों पर प्रतिष्ठा शास्त्र के अनुसार विधि-विधान करने की प्रेरणा की गई है। इसमें प्रतिष्ठा सम्बन्धी प्रकरण है, उसमें लगभग ६० गाथाओं में कारापक, इन्द्र, प्रतिमा, प्रतिष्ठाविधि. और पनि
१. देखो, वसुनन्दि श्रावकाचार की अन्तिम प्रशस्ति २. उपास का ध्ययन गाथा ३९६-४१०
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ फल इन पाँच प्राधिकारों में प्रतिष्ठा-सम्बन्धी कथन दिया हुआ है । पाकर शुद्धि गुणारोपण, मन्त्रन्यास, तिलकदान, मुख वस्त्र और नेत्रोन्मीलन आदि मुख्य-मुख्य विषयों पर विवेचना को है। इसको यह विशेषता है कि शासनदेवी-देवता की उपासना का कोई उल्लेख नहीं है । द्रव्य पूजा, क्षेत्र पूजा, काल पूजा और भाव पूजा का वर्णन है। इस वमनन्दि श्रावकाचार (उपाम का ध्ययन ) में ५४८ गाथाएं हैं, जिनमें श्रावकाचार का सुन्दर वर्णन किया गया है । ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ में अन्य श्रावकाचारों से वैशिष्ट लाने का प्रयत्न किया है। रचना पर कुन्दकुन्दाचार्य स्वामिकातिकेय के ग्रन्थों का और अमितगति के श्रावकाचार का प्रभाव रहा है। श्रावकाचार के कथन में कही-कहीं विशेष वर्णन भी दिया है उदाहरण स्वरूप । कट तुला और हीनाधिक मानोन्मान आदि को अतिचार न मान कर अनाचार माना है। और भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत के भोगविरनि, परिभोगविरति ये दो भेद बतलाये है । जिनका कही दिगम्बर-श्वेताम्बर श्रावकाचारों में उल्लेख नही मिलता और सल्लेखना को कुन्दकुन्दचार्य के समान चतुर्थ शिक्षाबत माना है । प्राप्तमीमांसा वृत्ति
प्राचार्य ममन्त भद्र के देवागम या प्राप्तमीमांसा में ११४ कारिकाए है। जिन पर वसुनन्दो ने अपनी वत्ति लिखी है। कारिकामों की यह वत्ति अत्यन्त संक्षिप्त है जो केवल उनका अर्थ उद्घाटित करता है। वृत्ति मे कारिकायों का सामान्यार्थ दिया है। उनका विशद विवेचन नही दिया। कही-कही फलितार्थनी मक्षिप्त में प्रस्तुत किया है। जो कारिकाप्रो के अर्थ समझने में उपयोगी है । वत्तिकार ने अपने को जडमति पार विम्मरणशोल बतलाते हुए अपनी लघता व्यक्त की है। उन्होंने यह वनि अपने उपकार के लिये बनाई है। इससे वनि बनाने का प्रयोजन स्पष्ट हो जाता है वत्तिकार ने ११५ व पद्य की टीका भी की है। किन्तु उन्होंने उसका कोई कारण नहीं बतलाया, सन्भवत: उन्होंने उसे मूल का पद्य समझकर उसको व्याख्या की है। पर वह मलकार का पद्य नहीं है। जिनशतकटीका
यह प्राचार्य समन्तभद्र कृत ११६ पद्यात्मक चतुविशति तीर्थकर स्तवन ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ का मलनाम 'स्तुति विद्या' है, जैसा कि उसके प्रथम मगल पद्य में प्रयुक्त हुए 'स्तुति विद्या प्रसाधये' प्रतिज्ञा वाक्य से ज्ञात होता है। ग्रथकार ने उसे स्वय 'पागसां जय'-पापों कोजीतने का हेतु बतलाया है। यह गव्दालकार प्रधान ग्रथ है । इसमें चित्रालकार के अनेक रूपों को दिया गया है। उनमें प्राचार्य महोदय के अगाध काव्य काशल का महज ही पता चल जाता है । इस ग्रन्थ के अन्तिम ११६ व 'गत्वैक स्तुतमेव' पद्य के सातवे वलय मे 'शान्तिवर्मकत' प्रारचा वलय म जिन स्ततिशत पदा का उपलब्धि होती है, जो कवि और काव्य नाम को लिये हा है। ग्रन्थ में कई तरह के चक्रवृत्त है । इसी में टीकाकार वमुनन्दी ने टीकाकी उत्थानि का में इस ग्रथ को 'समस्त गुणगणोपेता' 'सर्वालकार भूषिता' विगंपणो के साथ उल्लेखित किया है । ग्रंथ कितना महत्वपूर्ण है यह टीकाकार के-'धन-कठिन-घाति कर्मन्धन दहन समर्था' वाक्य मे जाना जाता है। जिसमें घने एवं कठोर घातिया कर्म रूपी ईधन को भस्म करने वाली अग्नि बतलाया है । यह ग्रंथ इतना गूढ है कि बिना संस्कृत टीका के लगाना प्रायः असंभव है। अतएव टीका कार ने 'योगिना मपि दष्कराविशेषण द्वारा योगियों के लिये भी दूर्गम बतलाया है। इसमें वर्तमान चोवीस तीर्थकरों का अलकृत भापा में कलात्मक स्तुति की गई है। इसका शब्द विन्याश अलंकार की विशेषता को लिये हुए है । कहीं श्लोक के एक चरण को उल्टा रख देने से दूसरा चरण बन जाता है, और पूर्वार्ध को उलटकर रख देने से उत्तरार्ध और समूचे श्लाक को उलट कर रख देने से दूसरा श्लोक बन जाता है। ऐसा होने पर भी अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। इस ग्रन्थ के अनेक पद्य ऐसे है जो एक से अधिक अलंकारों को लिये हुए हैं। मूल पद्य अत्यन्त क्लिष्ट और गंभीर अर्थ के द्योतक है। टीकाकार ने उन सब पदों की अच्छी व्याख्या की है और प्रत्येक पद्य के रहस्य को सरल भाषा में उद्घाटित किया है। मूल ग्रन्थ में प्रवेश पाने के लिये विद्यार्थियों के लिये बड़े काम की चीज है । इस टीका के सहारे ग्रन्थ में सनिहित विशेष अर्थ को जानने में सहायता मिलती है। ग्रंथ हिन्दी टीका के साथ सेवा मन्दिर से प्रकाशित
३. देखो, २१७, २१८, न० की गाथाएं, वमनन्दि था. प्र. ६६, १००। ४. देखो, उक्त श्राव का चार गाथा नं० २७१, २७२, पृ० १०६ ।
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३५३
हो चुका है। प्राचार वृत्ति
मूलाचार मूलसंघ के प्राचार विषय का वर्णन करने वाला प्राचीन मौलिक ग्रन्थ है। जिसका उल्लेख ५वीं शताब्दी के प्राचार्य यति वृषभ ने तिलोय पण्णत्ति के आठवे अधिकार की ५३२वीं गाथा में 'मलाइरिया' वाक्य के साथ किया है। और नवमी शताब्दी के विद्वान आचार्य वीरसेन ने अपनी धवला टीका में 'तह पायारंगे वि वत्तं' वाक्य के साथ उसकी 'पंचत्थिकाया' नाम की गाथा उद्धत की है जो उक्त आचारांग में ४०० नम्बर पर पाई जाती है। १२वीं शताब्दी के प्राचार्य वीरनन्दी ने आचारसार में मूलाचार की गाथाओं का अर्थशः अनुवाद किया है। १३वों शताब्दी के विद्वान पं०पाशाधर जी ने 'उक्तं च मलाचारे' वाक्य के साथ अनगार धर्मामृत की टीका के पृ०५५४ में 'सम्मत्तणाण संजम' नाम की गाथा उद्धत की है जो मूलाचार में ५१६ नम्बर पर पाई जाती है। १५वी शताब्दी के भट्रारक सकलकीर्ति ने 'मलाचार प्रदीप' नाम के ग्रथ में मनाचार की गाथाओं का सार दिया है । इससे उसके परम्परा प्रचार का इतिवृत्त पाया जाता है । ग्रन्थ में १२४६ गाथाए है जो १२ अधिकारों में विभक्त हैं।
___इस ग्रन्थ की टीका का नाम आचारवत्ति है, इसके कर्ता प्राचार्य वसुनन्दी हैं । टीकाकार ने टीका की उत्थानिका में वट्टकेराचार्य का नामोल्लेख किया है, परन्तु उनका कोई परिचय नहीं दिया, शिलालेखादि में भी वट्टकेर का नाम उपलब्ध नही होता, और न उनकी गुरु परम्परा ही मिलती है । टीका गाथाओं के सामान्यार्थ की बोधक है। यद्यपि उनकी विशेष व्याख्या नही है, किन्तु कही-कही गाथानों की अच्छी व्याख्या लिखी है । और उनके विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। टीकाकार ने पडावश्यक अधिकार की १७६वी गाथा की टीका में पमितगति उपासकाचार के–'त्यागी देह ममत्वस्य तनत्मृतिम्दाहृता' आदि पंच श्लोक उद्धत किये हैं । टीका में वसुनन्दी ने उसकी रचना का समय नहीं किया। डा० ए० एन० उपाध्ये ने इस वृत्ति का समय १२वीं शताब्दी बतलाया है।
समय
प्राचार्य वसनन्दी ने अपने उपासकाचार में और टीका ग्रन्थों में उनका रचनाकाल नहीं दिया । इस लिये निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि उक्त रचनाएं कब-बनी। विक्रम की १३ वीं शताब्दी के विद्वान पं० प्राशाधर जी ने सं०१२६६ में समाप्त हए सागारधर्मामत की टीका में वसुनन्दो का आदरणीय शब्दों में उल्लेख किया है:
यस्तु-पंचुवरसहियाई सत्त वि वसणाइं जो विवज्जेइ।
सम्मतविसुद्धमई सो दंसणसावनो भणियो।॥२०॥ इति वसुनन्दी सैद्धान्त मतेन दर्शन प्रतिमायां प्रतिपन्नस्तस्येदं । तन्मते नैव व्रत प्रतिमायां विभ्रतो ब्रह्माण तं स्यात तद्यथा-'पव्वेस इत्थिसेवा अणंगकीडा सया विवज्जेइ। थूलयड बंभयारी जिणेहि भणिदो पवयणम्मि। इस उल्लेख से वसुनन्दी १३वीं शताब्दी से पूर्ववर्ती है। चूकि उन्होंने ११वीं शताब्दी के प्राचार्य अमितगति के उपासकाचार के ५ पद्य प्राचार वृत्ति में उद्धत किये हैं । अतः वसुनन्दी का समय ११वीं शताब्दी का उपान्त्य पौर १२वीं शताब्दी का पूर्वार्ध हो सकता है।
नरेन्द्र कोति विद्य मलसंघ कोण्ड कुन्दान्वय देशियगण पुस्तक गच्छ की गुरु परम्परा में सागरनन्दी सिद्धान्तदेव के प्रशिष्य पौर अर्हनन्दि मुनि के शिष्य नरेन्द्रकीर्ति विद्य देव थे, जो न्याय व्याकरण और जैन सिद्धान्त के कमल वन थे। इनके साथी ३६ गुण पालक मूनिचन्द्र भट्टारक थे। कोशिक मुनिकी परम्परा में होने वाला देवराज था, उसका पत्र उदयादित्य था, उसके तीन पुत्र थे, देवराज, सोमनाथ, और श्रीधर । इनमें देवराज कड़चरिते का प्रधान था। उसे देवराज होयसलने सूरनहल्लि ग्राम दान में दिया, वहां उसने एक जिनमन्दिर बनवाया, उसकी प्रष्ट विधपजा मोर माहार दान के निमित्त उक्त ग्राम सन् १९५४ ई० में मुनिचन्द्र को प्रदान किया । मौर उसका नाम पार्श्वपुर
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ रक्खा । इससे प्रस्तुत नरेन्द्र कीति ईसा की १२वीं शताब्दी के विद्वान हैं । (जैन लेख सं० भा० ३ पृ०६०)
त्रिभुवन मल्ल त्रिभुवन मल्ल तर्काचार्य देवकीर्ति के शिष्य थे। इनके दो शिष्य और भी थे । लक्खनन्दि और माधवचन्द्र व्रती। देवकीर्ति का स्वर्गवास शक सं० १०८५ सन् १९६३ (वि० सं० १२२०) में सुभानु सं शक्ला हवीं बुधवार को हरा था । प्रतः त्रिभुवन मल्ल का समय ईसा की १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और विक्रम की १३वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है ।
जैन लेख सं० भा० ११० २२,२३
मुनिकनकामर मूनि कनकामर चन्द्र ऋषि गोत्र में उत्पन्न हुए थे। उनका कुल ब्राह्मण था। किन्तु देह भोगों से वैराग्य होने के कारण वे दिगम्बर मुनि हो गये थे। कवि के गुरु बुध मंगनदेव थे । कवि भ्रमण करते हुए प्रासाइ (प्राशापुरी) नगरी में पहुंचे थे । वे जिन चरण कमलों के भक्त थे। कवि ने वहां के भव्य जनों के विनय पूर्वक व स्नेह वश करकण्डु चरित की रचना की। जिनके अनुराग वश इस ग्रन्थ की रचना की, उनकी प्रशंसा करते हए भी कवि ने उनका नामोल्लेख नहीं किया। किन्तु वह कनक वर्ण और मनोहर शरीर का धारक था, विजय पाल नरेश का स्नेह पात्र, धर्म रूपी वक्ष का सींचने वाला, दुस्सह वैरियों का विनाशक, तथा बान्धवों, इष्टों और मित्र जनों का उपकारी था। भूपाल राजा का मनमोहक, अनाथों का दुःख भंजक और कर्ण नरेन्द्र का हृदय रंजक था, बडा दानी, धैर्यशाली, और जिन चरण कमलों का मधुकर था। उसके तीन पुत्र थे प्राहुल, रल्हु और राहुल । जो कनकामर के चरण कमलों के भ्रमर थे ।
कवि ने ग्रंथ में सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंक देव, जयदेव, स्वयंभ और पृष्पदन्त का उल्लेख किया है। इन में कवि पुष्पदन्त ने अपना महापुराण सन् ६६५ ई० में समाप्त किया था। अतः करकण्डु चरित उसके बाद की रचना है । कवि द्वारा उल्लिखित राजा गण यदि चन्देलवंशी हैं जिनका डा. हीरालाल जी ने उल्लेख किया है। तो ग्रंथ का रचना समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी हो सकता है। डा. हीरालाल जी ने विजयपाल कीर्तिवर्मा (भवनपाल) और कर्ण इन तीनों राजारों का अस्तित्व समय सन् १०४० और १०५१ के आस-पास का बतलाया है। प्रतः मुनि कनकामर का समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी का मध्यकाल हो सकता है। ग्रंथ कर्ता के गुरु बुध मंगल देव हैं, पर उनका भी कहीं से कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है।
प्रस्तुत ग्रंथ एक खण्ड काव्य है इस में पार्श्वनाथ की परम्परा में होने वाले राजा करकण्ड का जीवन परिचय अंकित किया गया है। ग्रंथ दश संधियों में विभक्त है, जिनमें २०१ कडवक दिये हये हैं। कवि ने ग्रंथ को रोचक बनाने के लिए अनेक प्रावान्तर कथाएं दी हैं। जो लोक कथाओं को लिये हुए है। उनमें मंत्र शक्ति का प्रभाव, प्रज्ञान से आपत्ति, नीच संगति का बुरा परिणाम और सत्संगति का अच्छा परिणाम दिखाया गया है। पांचवी कथा एक विद्याधर ने मदनावलि के विरह से व्याकुल करकंडु के वियोग को संयोग में बदल जाने के लिए
सातवीं कथा शुभ शकुन-परिणाम सूचिका है। आठवीं कथा पद्मावती ने विद्याधरी द्वारा करकंडु के हरण किये जाने पर शोकाकूल रतिवेगा को सुनाई। नोमीकथा भवान्तर में नारी को नारीत्व का परित्याग करने की सुचिका है। ग्रन्थ में देशी शब्दों का प्रचुर व्यवहार है, जो हिन्दी भाषा के अधिक नजदीक है। रस अलंकार, श्लेष और प्राकृतिक दृश्यों से ग्रन्थ सरस बन पड़ा है । ग्रन्थ में तेरापुर की ऐतिहासिक गुफाओं का परिचय भी अंकित है, जो स्थान धाराशिव जिले में तेर पुर के नाम से प्रसिद्ध है। डा. हीरालाल जी ने इस कंकण्डुचरित का सानुवाद सम्पादन किया है जो भारतीय ज्ञान पीठ से प्रकाशित हो चुका है।
कवि श्रीधर प्रस्तुत कवि हरियानादेश का निवासी था। और अग्रवाल कुल में उत्पन्न हुमा था। इनके पिता का १. विशेष परिचय के लिये करकण्ड चरित की प्रस्तावना देखें।
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवी और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३५५
नाम बुध 'गोल्ह' था पीर माता का नाम था वीन्हा देवी, जो सति साध्वी पार धर्म परायणा थी। कवि ने इसके अतिरिक्त अपनी जीवन घटनाग्रो पार गृहस्थ जीवन का कोई परिचय नहीं दिया। कवि की इस समय दो रचनाए उपलब्ध है । पामणाचरियाव ढमाण चरिउ । कवि ने ग्रन्थ में चन्द्रप्रभ चरित का उल्लेख किया है।
पासणाह चरिउ
प्रस्तुत ग्रथा क य काव्य है। जिगमें १२ मन्धिया है जिनकी श्लोक सख्या ढाई हजार से ऊपर है। ग्रन्थ में जैनियो नमन भगवान पार्श्वनाथ का जीवन परिचय अकित किया गया है। कथानक वही है जो अन्य प्राकृत-गरन
प ला हाता है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में कवि ने दिल्ली नगर का अलंकृत भाषा मे अच्छा परिचय दिया। माना जोणिपुर (योगिनीपूर) के नाम से विख्यात था, जन-धन से सम्पन्न, उत्तगसाल (कोट। [ पर मरिया (गाई) रणमडपो, मुन्दर मदिरा, समद गजघटाया, गतिशाल तुरंगो, और ध्वजानों गे अलकन थी। 7। र, पदनपुर ध्वनि को सुनकर नाचते हुए मयूरो पार विशाल हट्ट मार्गो का निर्देश किया गया है।
उस गमय दि. 1 + नागर वी क्षत्रिय अनगपाल तृतीय का राज्य था। यह अनगपाल अपने दो पूर्वज अनंगपालो मे भिन्न प्रधानमनपाल नाम मे ख्यात पा । यह बड़ा प्रतापी अोर वीर था, इसने हम्मीर वीर की सहायता की थी। हम्म.-: अनकाई नहो, प्रतिहार वग की द्वितीय शाखा के हम्मीर देव जान पड़ते हैं, जिन्होंने मवत १७५:
। नक ग्वालियर में राज्य किया है। अनगपाल का इनमे क्या सम्बंध था, यह कुछ ज्ञात नहा हा गाा। नगर दिल्ला वभव सम्पन्न थी, ग्रार उसमे तिविध जाति आर धर्म वाले लोग रहते थे।
ग्रन्थ रचना में प्रेरक पार्श्वनाथ
नाम प्ररक माह नद्रल था, जिसका पारिवारिक परिचय कवि ने निम्न प्रकार दिया है । नट्टराना । 'पाहण' था। इनका वश अग्रवाल था, वह सदा धर्म कर्म में सावधान रहते थे। माता का नाम -- श्रा, जी शाल रूपी मत् आभूपणो से अल कृत थी और वांधव जनों को सूख प्रदान करती था। गा नदन - भ्राता थे, राघव और सोढल । इनमे राघव बड़ा ही सुन्दर एवं रूपवान था। उसे देखकर कामनिया गनिनता जाता था। अोर सोढल विद्वानी को पानद दायक, गुरु भक्त और अरहंत देव की स्तुति करने वाला था, मदारीर विनय रूपी आभूषणो से अलकृत था, तथा बड़ा बुद्धिवान और धीरवीर था। नटल मा- न लप, गुण्यात्मा, मन्दर और जनवल्लभ था। कुल रूपी कमलो का आकर और पाप रूपी पाग (रज) का नाशक, न कर का प्रतिष्ठापक, वन्दी जनो को दान देने वाला, पर दोपों के प्रकाशन से विरक्त रत्नत्रय मे विभूपित पार न पनव को दान देने में सदा तत्पर रहता था। उस समय वह दिल्ली के जैनियों में प्रमुख था । व्यमनादि ने न पायको व्रतो का अनुष्ठान करता था । साहूनट्टल केवल धर्मात्मा ही नही था, किन्त उच्चकोटि का कुगल व्यापारी था। उग ममय उसका व्यापार अग, बग, कलिग, कर्नाटक, नेपाल, भोट पांचाल, चेदि, गौड, ठक्क (पजाय केरल, मरन्द्र, भादानक, मगध, गुर्जर, सोरठोर हरियाना प्रादि नगरों में चल रहा था। यह गजना ति का चतुर पड़ित भी था, कुटुम्बो जन तो नगर सेठ थे ओर आप स्वय तोमरवशी अनंगपाल तृतीय का प्रामात्य था। साह नट्टल ने कवि श्रीधर से, जो हरियाना देश से यमुना नदी पार कर दिल्ली में आये थे. पार्श्वनाथ चरित बनाने की प्रेरणा की। तब कवि श्रीधर ने इस सरस खण्ड काव्य की रचना वि.
१ मिरि जाग्वाल न । मभाग, जगणी-वील्हा-गभूभवेगा ।
अणवग्य विग्णग-गरणगार हेग, कइगा बुह गोल्ह-तगुरुहेण ॥-पार्श्वनाथ च० प्र० २ हि असि-वरतोडिय रिउ-कवाल, रणरणाहु प्रसिद्ध अणगवाल ।
-षा०च० प्र०
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ सं० ११८६ अगहन वदी अष्टमी रविवार के दिन पूर्ण की थी।
उस समय नट्टल साहु ने दिल्ली में आदिनाथ का एक प्रसिद्ध जिनमन्दिर बनवाया था, जो अत्यन्त सुन्दर था, जैसा कि ग्रंथ के निम्न वाक्यों से प्रकट है :
कारावेवि जाहेयहो णि केउ, पविइण्ण पंचवण्णं सुकेउ ।
पई पुणु पइट्ठ पविरइयम, पास हो चरितु जइ पुणवि तेम ॥ उस आदिनाथ मन्दिर की उन्होंने प्रतिष्ठा विधि भी सम्पन्न की थी, उस प्रतिष्ठोत्सव का उल्लेख ग्रन्थ की पांचवीं सन्धिके बाद दिये हुए निम्न पद्य से स्पष्ट है :
येनाराध्य विबुध्य धीरमतिना देवाधिदेवं जिनं । सत्पुण्यं समुपाजितं निजगुणः संतोषिता बांधवाः । जैनं चैत्यमकारिसुन्दरतरं जैनी प्रतिष्ठां तथा । स श्रीमान्विदितः सदैव जयतात्पृथ्वी तले नट्टलः ।। इयं सिरि पास चरित्तं रइय बुह सिरिहरेण गुणभरियं ।
अणुमण्णिय मणोज्जं णट्टल णामेण भव्वेण ॥ कवि की दसरी कति 'वडढमाणचरिउ है। इसमें १० संधियाँ और ३१ कवक हैं। जिनमें अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की जीवन गाथा दी हुई है। जिसकी श्लोक सख्या कविने ढाई हजार के लगभग बतलाई है। चरित वही है, जो अन्य ग्रन्थों में चचित है, किन्तु कवि ने उसे विविध वर्णों से संजोकर सरस और मनहर बनाया है। ग्रन्थ सामने न होने से उसका यहां विशेष परिचय देना संभव नहीं है।
व श्रीधर ने ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में अपना वही परिचय देते हुए ग्रन्थ रचना में प्रेरक जैसवालवंशी नेमिचन्द का परिचय कराया है, और लिखा है कि मैंने यह ग्रन्थ साह नेमिचन्द्र के अनुरोध से बनाया है, 'नेमिचन्द्र वोदाउ नगर के निवासी थे, जायस कुल कमल दिवाकर थे। इनके पिता का नाम साहु नरवर और माता का नाम सोमादेवी था, जो जैनधर्म को पालन करने में तात्पर थे । साह नेमिचन्द्र की धर्मपत्नी का नाम 'वीवादेवी था। संभवतः इनके तीन पुत्र थे-रामचन्द्र, श्रीचन्द्र और विमलचन्द्र ।
एक दिन साहु नेमिचन्द्र ने कवि श्रीधर से निवेदन किया कि जिस तरह आपने चन्द्रप्रभचरित्र और शान्तिनाथ चरित्र बनाये हैं उसी तरह मेरे लिये अन्तिम तीर्थकर का चरित्र बनाइये। तब कवि ने उक्त चरित्र का निर्माण किया है । इसीसे कवि ने प्रत्येक सन्धि पुष्पिका में उसे नेमिचन्द्रानुमत लिखा है, जैसा कि उसके निम्न पुष्पिका वाक्य से प्रकट है :
"इय सिरि वड्ढमाण तित्थयरदेवरिए पवरगुणरयणगुणभरिए विबुह सिरि सुकइसिरिहरविर इए सिरि गेमचंद प्रणुमण्णिए वीरणाह णिव्वाणगमणवण्णणो णाम दहमो परिच्छेओ सम्मत्तो।"
कवि ने प्रत्येक सन्धि के प्रारम्भ में जो संस्कृत पद्य दिये हैं उनमें नेमिचन्द्र को सम्यग्दष्टि, धीर, बुद्धिमान, लक्ष्मीपति, न्यायवान, और भव-भोगों से विरक्त बतलाते हुए उनके कल्याण की कामना की गई है। जैसा कि उसकी आठवीं सन्धि के प्रारंभ के निम्न श्लोक से प्रकट है :
यः सदृष्टि रुदारुधीरधिषणो लक्ष्मीमता संमतो। न्यायान्वेषणतत्परः परमतप्रोक्तागमासंगतः जनेकाभव-भोग-भंगुरवपुः वैराग्यभावान्वितो, नन्दत्वात्सहि नित्यमेवभुवने श्रीनेमिचन्द्रश्चिरम् ॥
१ विक्कम गरिदं सुप्रसिद्ध कालि; ढिल्ली पट्टणि धरण-कण विसालि ।
स एवासि एयारह सएहि, परिवाडिए वरिसहं परिगएहि । कसणडमोहिं आगहण मासि; रविवार समाणिउं सिसिर भासि ।। १२--१५
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
८३५७
कवि ने इस ग्रन्थ को विक्रम संवत् १९६० में ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी शनिवार के दिन बनाकर समाप्त किया है "। इस से एक वर्ष पहले सं० १९८६ में पार्श्वनाथ चरित नट्टल साहुकी प्रेरणा से बनाया | चन्द्रप्रभचरित सं० १९८६ से पूर्व बन चुका था, संवत् १९८७ या ११८८ में बनाया हो । और संभवतः १९८६ में ही शान्तिनाथ चरित की रचना की है, इसी से उसका उल्लेख सं० १९६० के वर्धमान चरित में किया है । कवि ने अन्य किन ग्रन्थों की रचना की, यह अभी अन्वेषणीय है । ये दोनों चरित ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं ।
मृतचन्द्र (द्वितीय)
यह महामुनि माधवचन्द्र मलधारी के शिष्य थे, जो प्रत्यक्ष धर्म, उपशम, दम, क्षमा के धारक और इन्द्रिय तथा कपायों के विजेता थे, और उस समय 'मलधारि देव' के नाम से प्रसिद्ध थे। अमृत चन्द्र इन्हीं माधव चन्द्र के शिष्य थे। यह महामुनि प्रमृत तप तेज रूपी दिवाकर, व्रत नियम तथा शील के रत्नाकर थे । तर्क रूपी लहरों से जिन्होंने परमत को कोलित कर दिया था - डगमगा दिया था, जो उत्तम व्याकरण रूप पदों के प्रसारक थे। जिनके ब्रह्मचर्य के तेज के आगे कामदेव भी छिन गया था - वह उनके समीप नहीं आ सकता था । इसमें उनके पूर्ण ब्रह्मचर्य निष्ठ होने का उल्लेख मिलता है। इनके शिष्य सिंह कवि ने जब अमृत चन्द्र विहार करते हुए बह्मणवाड नगर् (सिरोही) में आये तब सिद्ध कवि के अपूर्ण एवं खण्डित 'प्रद्युम्न चरित' का उद्धार किया था। इनका समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है ।
ता मलधारो देउ मुणि-पुंगमु, णं पच्चक्ख धम्मु उवसमु दमु । माहवचंद श्रासि सुपसिद्धउ, जो खम-दम जम-नियम- समिद्धउ । तासु सीसु तव तेय तिवायरु, वय-तव-नियम- सोल-रयणायरु । तक्क - लहरि कोलिय परमउ, वर वायरण -पवर पसरिय पउ । जासु भुवणदूरंतरु वं किवि, ठिउ पच्छष्णु मयणु श्रासं किवि । अमियच णामेण मडारउ, सोविहरंतु पत्तु बुह -सारउ | सस्सिर-णंदण-वण-संछण्णउ, मठ-विहार- जिणभवण रवण्णउ । म्हण वाडउ णामें पट्टणु । जैनग्रन्थ प्र० सं० भा० २ पृ० २१
मल्लिषेणमलधारी
यह द्रमिलसंघ नन्दिगण प्ररुङ्गलान्वय के वादीभसिंह अजितमेन पंडित देव और कुमारमेन के शिष्य थे । तथा श्रीपाल त्रैविद्य के गुरु थे । मल्लिपण बड़े तपस्वी थे । उनका शरीर बारह प्रकार के प्रचण्ड तपश्चरण का धाम था । और वह धूल धूसरित रहता था, उसका वे कभी प्रक्षालन नहीं करते थे । उन्होंने श्रागमोक्त रत्नत्रय का आचरण किया था और निःशल्य होकर प्रशेष प्राणियों को क्षमाकर जिनपाद मूल में देह का परित्याग किया था— सन्यास विधि द्वारा शक सं० १०५० के कीलक संवत्सर में (सन् १९२८ ई०) में श्रवण बेलगोल में तीन दिन के अनशन से मध्याह्न में शरीर का परित्याग किया था। जैसा कि मल्लिषेण प्रशस्ति के अन्तिम पद्यों से स्पष्ट है:
-
श्राराध्य रत्न- त्रयमागमोक्तं विधाय निश्शल्यमशेष जन्तोः I क्षमां कृत्वा जिनपादमूले देहं परित्यज्य दिवं विशामः ॥ ७१ ॥ शाके शून्यश राबरावनिमिते संवत्सरेकीलके, मासे फाल्गुण के तृतीय दिवसे वासं सितेभास्करे ।
१ णिव विक्कमाइच्च हो कालए, रिगब्बुच्छववर तूर खालए ।
यारह सहि परि विगर्याह, संवच्छर सय गवहि समय हि ।
जेट्ट पढम पक्खई पंचमिदिणे सूरुवारे गयणं गरि ठिइमगे ॥ जैन ग्रंथ प्र० सं० भा० २०१७८
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
स्वातौ श्वेत-सरोवरे सुरपुरं यातो यतीनां पतिमध्याह्न दिवसत्रयानशनतः श्रीमल्लिषेणो मुनिः ।।
लक्ष्मण देव कवि लक्ष्मण देव का वंश पुरवाड था। पिता का नाम रयण देव या रत्न देव था। इनकी जन्मभूमि मालव देशान्तर्गत गोनन्द' नामक नगर में थी। यह नगर उस समय जैन धर्म और विद्या का केन्द्र था। वहां अनेक उत्तंग जिन मन्दिर तथा मेरु जिनालय भी था । कवि अत्यन्त धार्मिक धन सम्पन्न और रूपवान था। और निरन्तर जिनवाणी के अध्ययन में लीन रहता था। वहां पहले पतंजलिने व्याकरण महाभाष्य की रचना की थी। जो विद्वानों के कण्ठ का आभारण रूप था। इससे गोनद नगर की महत्ता का आभास मिलता है । यह नगर मालवदेश में था। और उज्जन तथा भेलसा (विदिशा) के मध्यवर्ती किसी स्थान पर था । वहा के निवासी कवि जिनवाणी के रस का पान किया करते थे। इनके भाई का नाम अम्बदेव था, जो कवि थे, उन्हान भी किनी ग्रन्थ की रचना की थी। पर वह अनुपलब्ध है । मालव प्रान्त के किसी शास्त्र भण्डार में उसकी तलाश होनी चाहिये ।
कवि ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया, जिससे यह निश्चित करना कठिन है कि ग्रन्थ कव रचा गया। कवि ने गुरु परम्परा और पूर्ववर्ती कवियों का कोई उल्लेख नहीं किया । ग्रन्थ की प्रति लिपि मंवत् १५१० की प्राप्त हई है। उससे इतना ही कहा जा सकता है कि ग्रन्थ सं० १५१० मे पूर्व रचा गया है। कितने पूर्व रचा गया, यह विचारणीय है । ग्रन्थ सभवतः ११वी शताब्दी में रचा गया है।
प्रन्थ परिचय
प्रस्तुत मिणाह चरिउ' में चार संधियां और ८३ कडवक है जिनकी ग्रानुमानिक श्लोक संख्या १३५० के लगभग है। ग्रन्थ में चरित और धार्मिक उपदेश की प्रधानता होते हए भी वह अनेक मून्दर स्थलों से अलंकन है ग्रन्थ की प्रथम संधि में जिन और सरस्वती के स्तवन के साथ मानव जन्म को दुर्लभता का निर्देश करते हए सज्जनदुर्जन का स्मरण किया है और फिर कवि ने अपनी अल्पज्ञता को प्रदर्शित किया है। (मगध देश और राजगह नगर के कथन के पश्चात् राजा श्रेणिक (बिम्बसार) अपनी ज्ञान पिपामा को शांत करने के लिये गणधर से नेमिनाथ का चरित वर्णन करने के लिये कहता है। वराडक देश में स्थित वारावती या द्वारावती नगरी में जर्नादन नाम का राजा राज्य करता था, वही शौरीपुर नरेश समुद्रविजय अपनी शिव देवा के साथ रहते थे। जरासन्ध के भय से यादव गण शौरीपुर छोड़कर द्वारिका में रहने लगे। वही उनके तीर्थकर नेमिनाथ का जन्म हुआ था। यह कृष्ण के चचरे भाई थे। बालक का जन्मादि संस्कार इन्द्रादि देवों ने किया था। दूसरी मधि में नेमिनाथ को युवावस्था, वसत वर्णन और जल क्रीड़ा आदि के प्रसंगों का कथन दिया हुआ है । कृष्ण को नेमिनाथ के पराक्रम से ईपी हो होने लगती है और वह उन्हें विरक्त करना चाहते हैं। जूनागढ़ के राजा की पुत्री राजमती से नेमिनाथ का विवाह
१. प्रस्तुत 'गोणंद' नगर जिसे गोदन, या गोनद्ध कहा जाता था, मालव देश में अवस्थित था। डा० दशरथ शर्मा एम०ए० डी.लिट के अनुमार गोनर्द या गोनद्ध नगर पनञ्जलि की जन्म भूमि था । पतञ्जलि गोनर्दीय के नाम से प्रमिद्ध थे । पतञ्जलि ने पुष्प मित्र शक मे यज्ञ करवाया था। उन्होंने व्याकरण महाभाप्य की रचना इसी नगर में की थी। पतञ्जलि की गोनर्दीय संज्ञा भी उनके महाभाग्य की रचना का मकेत करती है। इसी से कवि लक्ष्मण ने भी नेगिनाथ चरित की प्रशस्ति में वहाँ प्रथम व्याकरण सार के रचे जाने का उल्लेख किया है।
सूत्त नियात की बुद्ध घोपीय टीका 'परमत्थज्योतिका' के अनुसार भी गोनद्ध या गोनर्द की स्थिति मालवदेश में थी। बद्धघोष ने उज्जयिनी गोनद वैदिश और वनमाय (तुम्बवन) का एक साथ वर्णन किया है। इसमें गोणंद नगर की स्थिति का स्पष्ट प्रतिभाष हो जाता है।
See Studies in the Geographyof Ancient and Medieval India p. 206—218)
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३५६
निश्चित होता है । बारात सज-धज कर जूनागढ़ के सन्निकट पहुंचती है, नेमिनाथ बहुत से राज पुत्रों के साथ रथ
बैठे हुए आस-पास की प्राकृतिक सुषमा का निरीक्षण करते हुए जा रहे थे । उस समय उनकी दृष्टि एक ओर गई तो उन्होंने देखा कि बहुत से पा एक वार्ड में बन्द है । वे वहा से निकलना चाहते है किन्तु वहां से निकलने का कोई मार्ग नही है । नेमिनाथ ने सारथि से रथ रोकने को कहा और पूछा कि ये पशु यहां क्यों रोके गए हैं। नेमिनाथ
सारथि मे यह जान कर बड़ा मंद हया कि बरात में आने वाले राजाओं के प्रातिथ्य के लिये इन पशुयों का वध किया जायगा । इसमे उनके दयालु हृदय को बडी उस लगी, वे बोल यदि मेरे विवाह के निमित्त इतने पशुओं का जीवन संकट में है, तो धिक्कार है मेरे इस विवाह को अब मैं विवाह नही करूंगा। पशुओं को छुड़वाकर तुरन्त ही रथ से उतर कर मुकुट और कंकण को फेक वन की ओर चल दिय । इस समाचार से बरात में कोहराम मच गया। उधर जूनागढ के अन्तःपुर में जब राजकुमारी का यह ज्ञात हुम्रा, तो वह मूर्छा खाकर गिर पड़ी। बहुत से लोगों ने नेमिनाथ को लौटाने का प्रयत्न किया, किन्तु सब व्यर्थं । नेमिनाथ पास में स्थित ऊर्जयन्त गिरि पर चढ गए चोर सहसाम्र वन में वस्त्राकार आदि परधान का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रा धर श्रात्मध्यान में लीन हो गए। राजमती प्रतिदुःखित हाती है तांगरी सधि में इसके वियोग का वर्णन है । राजीमनी ने भी तपश्चरण द्वारा ग्रात्म-साधना की । अन्तिम सन्धि में नेमिनाथ का पूर्ण ज्ञानी हो धर्मोपदेश और निर्वाण प्राप्ति का कथन दिया हुआ है । इस तरह ग्रन्थ का चरित विभाग बड़ा ही सुन्दर तथा सक्षिप्त है, यार कवि ने उक्त घटना को सजीव रूप में चित्रित करने का उपक्रम किया है ।
कवि ने संसार की विवशता का सुन्दर ग्रकन करते हुए कहा है-जिस मनुष्य के घर में अन्न भरा हुआ है । उसे भोजन के प्रति अरुचि है। जिसमे भोजन करने की शक्ति है, उसके पास शस्य (धान्य) नही । जिसमें दान का उत्साह है उसके पास धन नहीं, जिसके पास धन है, उसे अति लोभ है। जिसमें काम का प्रभुत्व है उसक भार्या नहीं जिसके पास स्त्री है उसका काम शान्त है । जमा को ग्रन्थ की निम्न पक्तियों से स्पष्ट है
जगु गेहि ग्रण्ण तमु ग्ररु होइ, जमु भोज सत्ति तमु ससुण होइ । जमु दाण चाहु तगु दविणु णत्थि जमु दविणु तासु उइलोहु प्रत्थि । जयपुरा तसि णत्थि भाम, जसु भाम तामु उच्छवण काम ।
-- मिणाहचरिउ ३-२
कवि ने ग्रंथ में कनकों के प्रारम्भ में हेला, दुवई और वस्तु बंध यादि छन्दों का प्रयोग किया है। किंतु ग्रन्थ में छन्दों की बहुलता नही है ।
ग्रंथकर्ता ने स्थान-स्थान पर अनेक सुन्दर सुभाषितों और सूक्तियों का प्रयोग किया है । वे इस
प्रकार है
कि जीवइ धम्म विवज्जि एण— धर्म रहित जीने से क्या प्रयोजन है
कि सुहडइ संगर कायरेण - युद्ध में कायर सुभटों से क्या ?
कि वयण असच्चा भाषण, झूठ वचन बोलने से क्या प्रयोजन
कि पुत्तइ गोत्तविणासणंण, — कुल का नाश करने वाले है पुत्र से क्या ?
कि फुल्लइ ग्रथ विवज्जिएण- गंध रहित फूल से क्या ?
ग्रंथ की पुष्पिका में कवि ने अपने पिता का उल्लेख किया है।
-
इति मिणाह चरिए अवुहकइ रयण सुन लक्खणेण विरइए भव्वयणमणाणंदे णेमिकुमार संभवोणाम पढमो परिच्छेश्रो समत्तो ।
लघु श्रनन्तवीर्य ( प्रमेय रत्नमाला के कर्ता)
लघु अनन्तवीर्य ने अपनी गुरु परम्परा का और रचना काल का कोई उल्लेख नहीं किया । इस कारण उनके रचना काल के निश्चय करने में कठिनाई हो रही है। इन लघु अनन्तवीर्य की एक मात्र कृति परिक्षामुख पंजि
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६०
१
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ का है, जिसका नाम उसकी पुष्पिका वाक्यों में 'लघुवृत्ति' दिया हुआ है । यह ग्रन्थ प्रमेय बहुल होने के कारण बाद को इसका नाम प्रमेय 'रत्न माला' हो गया है। कर्ता ने इसके विषय का संक्षेप में इतने सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया है कि न्याय के जिज्ञामुनों का चित्त उसकी ओर प्राकर्षित होता है । इसमें समस्त दर्शनों के प्रमेयों का इतने सुन्दर एवं व्यवस्थित ढंग से प्रतिपादन किया गया है । यदि प्रमेयों का विशद वर्णन न किया जाता तो प्रमाण की चर्चा प्रधूरी ही रहती । माणिक्यनन्दी के परीक्षामुखकी विशाल टीका प्रमेयकमल मार्त्तण्ड इन अनन्तवीर्य के सामने था, उसमें दार्शनिक विषयों का प्रतिपादन विस्तार से किया गया है। पंजिकाकार ने प्रभाचन्द्र के वचनों को उदार चन्द्रिकाकी उपमा दी है और अपनी रचना पंजिका को खद्योत (जुगनू) के समान प्रकट किया है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है :
"प्रभेन्दुवचनोदार चन्द्रिकाप्रसरे सति ।
मादृशाक्वनु गण्यन्ते ज्योतिरिगण सन्निभा ॥"
फिर भी लघु प्रनन्तवीर्य की यह कृति अपने विषय की मौलिक है, यह उसकी विशेषता है । अनन्तवीर्य ने इसकी रचना वैजेय के प्रिय पुत्र हीरप के अनुरोध से शान्तिषेण के लिये बनाई है ।
परीक्षामुख सूत्र ग्रन्थ छह अध्यायों में विभक्त है । उसी के अनुसार पंजिका भी छह अध्यायों में विभाजित है, जिन में प्रमाण, प्रमाण के भेदों का कथन, प्रमाण में प्रामाण्य स्वतः और श्रप्रमाण्य परतः हाता है, मीमांसको की इस मान्यता का निराकरण करते हुए अभ्यासदशा में स्वतः और अनभ्यासदशा में परतः प्रामाण्य सिद्ध किया गया है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के वर्णन में मति ज्ञान के ३३६ भेदों का प्रतिपादन सर्वज्ञ की सिद्धि और सृष्टि कर्तत्व का निराकरण किया गया है । परोक्ष प्रमाण के स्मृति प्रत्यभिज्ञान आदि भेदों का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए वेदों का पोरुषेय सिद्ध किया है । चार्वाक, बौद्ध, नैयायिक, वैशेपिक और मीमांसकों के मतां की आलोचना की गई है । प्रमाण का फल और प्रामणाभासों के भेद प्रभेदों का सुन्दर विवेचन किया है। इसमे ग्रन्थ की महत्ता और गौरव बढ़ गया है ।
आचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा स्मृत कलंक के सिद्धि विनिश्चय के व्याख्याकार अनन्तवीर्य इनसे भिन्न और पूर्ववर्ती हैं । पडित प्रवर ग्राशधर जी ने अनगार धर्मामृत की स्वोपज्ञ टीका ( पृ० ५२८) में प्रमेय रत्नमाला का मंगल श्लोक उद्धृत किया है । इन्होंने अनगार धर्मामृत को टीका को वि० सं० १३०० (सन् १२४३ ) में समाप्त किया था । इससे प्रमेयरत्नमालाकार लघु अनन्तवीर्य का समय ई० सन् १०६५ और ई० सन् १२४३ के मध्य प्राजाता है। अनन्तवीर्य की इस प्रमेय रत्नमाला का प्रभाव हेमचन्द्र की 'प्रमाण मीमांसा' पर यत्र तत्र पाया जाता है । हेमचन्द्र का समय ई० सन् १०८८ से ११७३ है । अतः अनन्तवीर्य ईसा की ११वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के विद्वान प्रमाणित होते हैं ।
५
बालचन्द्र सिद्धान्तदेव
मूलमंघ देशीयगण और वक्र गच्छ के विद्वान थे। इनके शिष्य रामचन्द्रदेव थे । जिन्हें यादव नारायण वीरवल्लाल देव के राज्य काल में नल संवत्सर १११८ ( सन् १९९६) में पुराने व्यापारी कवडमम्य और देव सेट्ठि ने शान्तिनाथदेव की वर्माद के लिये दान दिया था । इससे बालचन्द्र सिद्धान्तदेव का समय ईसा की १२वीं शताब्दी है । - जैन लेख सं० भा० ३ पृ० २३०
१ इति परीक्षा मुखम्य लघुवृत्ती द्वितीयः समुद्देशः ||२॥ २ वैजेयप्रियपुत्रम्य ही पस्योपरोधतः । शान्तिषेग्गार्थमारब्धा परीक्षामुपञ्जिका ॥
३ नतामरशिरोरत्न प्रभाप्रोतनरवत्विषे ।
नमोजिनाय दुर्वार मारवीरमदच्छिदे ।। - प्रमेय रत्नमाला
४ नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमि चैत्यालयेऽसिघत् ।
विक्रमादशतेत्रेषा त्रयोदशम् कार्तिके ||३१|| अनगार धर्मामृत प्रशस्ति ५ प्रमाण मीमांसा प्रस्तावना पृ० ४३
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
प्रभाचन्द्र
प्रभाचन्द्र - मेघचन्द्र त्रैविद्य देव के प्रधान शिष्य थे। ओर वर्द्धन राजा की पट्टरानी शांतलदेवी के गुरु थे । शक सं० १०६८ सन् ११४६ ( वि० सं० १२०३ ) में जिनके स्वर्गारोहण का उल्लेख श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं ० ५० में पाया जाता है । इनके गुरु मेघचन्द्र का स्वर्गवास शक स० १०३७ ( त्रि० स० ११७२ ) में हुआ था । इससे इन प्रभाचन्द्र का समय विक्रम की १२वी शताब्दी है । देखो जैन लेख संग्रह ४८
३६१
माधवसेन नाम के अन्य विद्वान
माधवसेन मूलसंघ सेनगण ओर पोगरिगच्छ के चन्द्रप्रभ सिद्धान्तदेव के शिष्य थे। इन माधवमेन भट्टारकदेव ने जिन चरणों का मनन करके पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए समाधिमरण द्वारा स्वर्ग प्राप्त किया । यह लेख संभवतः सन् १९२५ ई० का है। अतः इनका समय ईसा की १२वी शताब्दी है ।
( जैन लेग्व सं० भा० २ पृ० ४३७ ) यह माधवमेन प्रतापमेन के पट्टधर थे, जिन्होंने पंचेन्द्रियों को जीत लिया था, जिसमे यह महान तपस्वी जान पड़ते हैं । ये विद्वान होने के साथ-साथ मंत्रवादी भी थे। इन्होंने बादशाह अलाउद्दीन खिलजी द्वारा प्रायोजित वाद-विवाद में विजय प्राप्त कर जैनधर्म का उद्योत किया था, और दिल्ली के जैनिया का धर्मसंकट दूर किया था । (देवो, जैन सि० भा० भा० १ किरण ४ में प्रकाशित कालासंघ पट्टावली का फुटनोट)
वीरसेन पंडितदेव - मूलसंघ, मेनगण और पोगरिगच्छ के विद्वान थे। इनके महधर्मी पंडित माणिक्यसेन थे । जिन्हें सन् ११४२-४३ में दुन्दुभिवर्ष पुप्य शुद्ध सोमवार को उत्तरायण गक्रान्ति के समय, पश्चिमी चालुक्य राजा जगदेकमल्ल द्वितीय के १२००० प्रदेश पर शासन करनेवाले योगेश्वर दण्डनायक गेनाध्यक्ष ने पेगंडे मय्दुन मल्लिदेव सेनाध्यक्ष की अनुमति से भूमि दान दिया था । (जैन लेख सं० भा० ३ पृ ५६ )
नरेन्द्र सैन
लाडवाड संघ के विद्वान वीरसेन के प्रशिष्य और गुणमेन के शिष्य थे । इन वीरसेन के तीन शिष्य थे- गुणसेन, उदयमेन और जयमेन । इनमें गुणगेन सूरि अनेक कलाओं के धारक थे। इन्ही के शिष्य नरेन्द्र सेन ने 'सिद्धान्तसार संग्रह' की रचना की है । नरेन्द्रमेन ने ग्रन्थ के पुष्पिका वाक्य में अपने को पडिताचार्य विशेषण के साथ उल्लेखित किया है :
" इति श्री सिद्धान्तसारसंग्रहे पण्डिताचार्य नरेन्द्रसेन विरचित सम्यग्ज्ञाननिरूपणो द्वितीयः परिच्छेदः । "
जिस समय नरेन्द्रसेन ने सिद्धान्तसारसंग्रह की रचना का, उस समय उनके गुरु और प्रगुरु दोनों ही मौजूद थे । क्योंकि कवि ने ग्रन्थ के नवमें परिच्छेद में दोनों को नमस्कार किया है, और लिखा है कि वोरसेन के प्रसाद
1
से मेरी बुद्धि निर्मल हुई है और गुणसेनाचार्य की भक्ति करने से उनके प्रसाद में मैं साधु संपूजित देवसेन के पट्ट पर प्रतिष्ठित हुआ हूं' |
जिन देवसेन के पट्ट पर नरेन्द्रमेन प्रतिष्ठित हुए वे देवमेन कौन है ? यह विचारणीय है । नरेन्द्रसेन के समय की संगति को देखते हुए मुझे तो यह संभव प्रतीत होता है कि दूबकुण्ड के स्तम्भ लेख में, जो संवत् १९५२ में
१. योऽभूच्छ्री वीरसेनो विबुधजन कृताराधनो ऽगाधवृत्तिः ।
तस्माल्लब्धि प्रसादे मयि भवतु च मे बुद्धि वृद्धो विशुद्धिः ॥ २२४
सोऽयं श्री गुणसेन संयमधर प्रव्यक्तभक्तिः सदा, सत्प्रीतिं तनुते जिनेश्वरमहासिद्धान्तमार्गे गिरः । भूत्वा सोऽपि नरेन्द्रसेन इति वा यास्यत्यवश्यं पदम्, श्री देवस्य समस्तसाघुमहितं तस्य प्रसादान्ततः ।। २२५
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ उत्कीर्ण हुआ है। जिसमें-सं० ११५२ वैशाखसुदि पञ्चम्यां श्री काष्ठासंघ महाचार्यवर्य श्रीदेवसेन पादुका युगलम्" लेख अंकित है उसके भाग में एक खण्डित मूर्ति अंकित है जिसपर श्री देव (सेन) लिखा है। इस समय के साथ प्रस्तुत नरेन्द्रसेन का समय ठीक बैठ जाता है । अर्थात् प्रस्तुत नरेन्द्रसेन विक्रम की १२वीं शताब्दी के पूर्षि के विद्वान हैं। क्योंकि लाडवागड गण के जयसेन ने अपना 'धर्मरत्नाकर' सं०१०५५ में बनाकर समाप्त किया है। उनसे चौथी पीढी में प्रस्तुत नरेन्द्रसेन हुए हैं। यदि एक पीढ़ी का समय कम से कम २० वर्ष माना जाय तो तीन पीढियों का समय ६० वर्ष होता है, उसे १०५५ में जोड़ने पर सं०१११५ होता है। इसके बाद नरेन्द्रसेन का समय शुरु होता है। अर्थात् नरेन्द्रसेन सं० ११२० से ११६० के विद्वान ठहरते हैं।
प्रन्य रचना
इस समय इनकी दो कृतियां प्रसिद्ध हैं। एक सिद्धान्तसारसंग्रह और दूसरी कृति प्रतिष्ठादीपक है। सिद्धान्तसार संग्रह में १२ परिच्छेद या अधिकार हैं, जिनकी श्लोक संख्या १९२४ है । इस ग्रन्थ में गृद्धपिच्छाचार्य के तत्त्वार्थ सत्र का एक प्रकार से प्रकटीकरण है। इसके साथ ही अन्य अनेक बातों का संकलन किया गया है।
प्रथम परिच्छेद में सम्यग्दर्शन का वर्णन है, और द्वितीय परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान का निरूपण है। तीसरे परिच्छेद में सम्यक चारित्र का तथा अहिंसादि पंचव्रतों का कथन किया गया है। चौथे परिच्छेद में अन्य मतान्तरों का वर्णन किया है। पांचवें परिच्छेद में जीव तत्त्व का कथन किया है। और छठे परिच्छेद में नरक गति का वर्णन है।
सातवे परिच्छेद के २३४ पद्यों में मध्यलोक का कथन किया है। प्रोर पाठवें परिच्छेद में १४६ पद्यों द्वारा गत्यनुवाद द्वार से जीवतत्त्व का निरूपण किया गया है। नौवं परिच्छेद के २२५ पद्यों में अजीव प्रास्रव और बंध तत्व का वर्णन किया गया है। १० वें परिच्छेद के १६६ पद्यों द्वारा निर्जरा और प्रायश्चित्त का निरूपण किया गया है। ११वें परिच्छेद के १०१ पद्यों में मोक्ष तत्व का वर्णन किया है और अन्तिम १२ वें परिच्छेद के ६१ पयों में केवलज्ञान की प्राप्ति के लिये आराधना का कथन किया है।
इनकी दूसरी कृति प्रतिष्ठा दीपक है जिसे उन्होंने पूर्वाचार्यानुसार रचा है, और जो अभी अप्रकाशित है। ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति नहीं है। इसमें जिनमन्दिर, जिनमूर्ति आदि के निर्माण में तिथि, नक्षत्र, योग मादि का वर्णन, तथा स्थाप्य, स्थापक और स्थापना का कथन किया है । उसके प्रारंभ के मंगल पद्य इस प्रकार हैं:
विश्वविश्वम्भराभारधारि धर्मधुरन्धरः । देयाद्वो मङ्गलं देवो दिव्यं श्रीमुनिसुव्रतः ॥
नमस्कृत्य जिनाधीशं प्रतिष्ठासारदीपकम् । वक्ष्ये बुद्ध्यनुसारेण पूर्वसूरिमतानुगम् ।। अन्त में लिखा है
सर्वग्रन्यानुसारेण संक्षेपातचितं मया। प्रतिष्ठादीपकं शास्त्र शोषयन्तु विचक्षणाः ।।
कवि सिद्ध और सिंह कवि मिद्ध पंपाइय और देवण का पुत्र था । उसने अपभ्रंश भाषा में पज्जुण्ण चरिउ (प्रद्य म्नचरित) को रचना की थी, किन्तु वह ग्रन्थ किसी तरह खण्डित हो गया था और उसी अवस्था में वह सिंह कवि को प्राप्त हमा । कवि सिंह ने उसका समुद्धार किया था, जैसा कि निम्न वाक्य से प्रकट है:
१. See Archeological Survey of India VoL २०P. 102 २. "पुरण पंपाइय देवण णंदणु भवियण यणाणंदणू।
वुहयणजण पय पंकय छप्पउ, भणइ सिद्ध पणमिय परमप्पउ ॥"
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यायहकों और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
'कह सिद्ध हो विरयंत हो विणासु, संपत्तउ कम्मवसेण तासु ।'
पर कज्ज पर कव्वं विहडंतं जेहिं उद्धरियं" (पज्जुण्णच० प्र०) कवि सिद्ध ने इसे कब बनाया, इसका कोई उल्लेख नही मिलता।
कवि सिंह गुर्जर कुल में उत्पन्न हुआ था, जो एक प्रतिष्ठित कुल था। उसमें अनेक धर्मनिष्ठ व्यक्ति हो चुके हैं। कवि के पिता का नाम 'बुध रल्हण' था, जो विद्वान थे। माता का नाम जिनमती था, जो शीलादि सदगुणों से विभूषित थी। कवि के तीन भाई ओर थे, जिनका नाम शुभंकर, गणप्रवर और साधारण था। ये तीनों भाई धर्मात्मा और सुन्दर शरीर वाले थे। कवि सिह स्वयं प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश और देशी इन चार भाषाओं में निपुण था।
कवि ने पज्जुण्ण चरिउ की रचना बिना किसी की सहायता के की थी। उसने अपने को भव-भेदन में समर्थ, शमी तथा कवित्व के गर्व सहित प्रकट किया है। कवि ने अपने को, कविता करने में जिसकी कोई समानता न कर सके ऐसा असाधारण काव्य-प्रतिभा वाला विद्वान बतलाया है। साथ ही वह वस्तु के सार-प्रसार के विचार करने में सून्दर बुद्धिवाला समीचीन, विद्वानों में अग्रणी, सर्व विद्वानों की विद्वत्ता का सम्पादक, सत्कवि था। उसी ने इस काव्य-ग्रन्थ का निर्माण किया है।
साथ ही कवि ने अपनी लघता व्यक्त करते हा अपने को छन्द अलंकार और व्याकरण से अनभिज्ञ, तर्क शास्त्र को नहीं जानने वाला और साहित्य का नाम भी जिसके कर्णगोचर नही हुआ, ऐसा कवि सिंह सरस्वती देवी के प्रसाद को प्राप्तकर सत्कवियों में अग्रणी मान्य तथा मनस्वी प्रिय हना है ।
१. जातः श्री निजधर्मकर्म निग्नः शारत्रार्थमर्वप्रियो,
भाषाभिः प्रवरणश्चतुभिरभवच्छी सिंहनामा कविः । पुत्रो रल्हण पंडितग्य मतिमान् श्रीगूर्जरागो मिह । दृष्टि-ज्ञात-चरित्र भूषिततनुर्वशे विशालेवनौ ।।
-पज्जुण्ण चरिउ की १३वीं संधि के प्रारभ का पद्य २. “साहाय्यं समवाप्य नात्र सुकवेः प्रद्य म्न काव्यस्य यः । कर्ताऽभूद् भव-भेदनकचतुरः श्री सिह नामा शमी । साम्यं तस्य कवित्व गर्व सहित को नाम जातोऽवनौ, श्रीमज्जैनमत प्रगीत सुपथे सार्थः प्रवृत्तेः क्षमा ।"
--चौदहवी सधि के अन्त में सारासार विचार चारु धिषणः सद्धीमतामग्रणी। जातः सत्कविरत्नसर्व विदुषां वैदुप्य संपादकः। येनेदं चरितं प्रगल्भमनसा शातः प्रमोदास्पदं । प्रद्य म्नस्य कृतं कृतविता जीयात् स सिहः क्षितौ ।।
--९वी संधि के अन्त में ३. छन्दोऽनंकृति-लक्षणं न पठितं नाऽश्रावि तर्कागमो;
जातं हंत न कर्णगोचरचरं साहित्य नामाऽपि च । सिहः सत्कविरग्रणी समभवत् प्राप्य प्रसादं पर, वाग्देव्याः सुकवित्व जातयशसा मान्यो मनस्विप्रियः।।
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
गुरुपरम्परा
कविवर सिह के गुरु मुनि पुङ्गव भट्टारक अमृतचन्द्र थे, जा तप-तेज के दिवाकर, और व्रत नियम तथा शील के रत्नाकर (समुद्र) थे। तकं रूपी लहरों से जिन्हाने परमत को झंकोलित कर दिया था-डगमगा दिया थाजो उत्तम व्याकरण रूप पदो के प्रसारक थे, जिनके ब्रह्मचर्य क तेज के आगे कामदेव दूर से ही बकित (खडित) होने की प्राशंका से मानो छिप गया था-वह उनके समीप नहीं आसकता था-इससे उनके पूर्ण ब्रह्मचर्य निष्ठ होने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
कवि ने अन्तिम प्रशस्ति में अमृतचन्द्र को परवादियों को वाद में हराने में समर्थ और श्रुत केवली के समान धर्म का व्याख्याता बतलाया है।
प्रस्तुत भट्टारक अमृतचन्द्र उन आचार्य अमृत चन्द्र से भिन्न है, जो आचार्य कुन्दकुन्द के समयसारादि प्राभूतत्रय के टीकाकार और पुरुषार्थ सिद्धयुपाय आदि ग्रन्थों के रचयिता है । वे लोक में 'ठक्कुर' उपनाम से भी प्रसिद्ध है। उनकी समस्त रचनाओं का जैन समाज में बड़ा समादर है। वे विक्रम की दशवी शताब्दी के विद्वान हैं। उनका समय पट्टावली में सं०६६२ दिया हया है जो ठीक जान पड़ता है।
किन्तु उक्त भट्टारक अमृतचन्द्र के गुरु माधवचन्द्र थे, जो प्रत्यक्ष धर्म उपशम, दम, क्षमा के धारक और इन्द्रिय तथा कषायों के विजेता थे, और जो उस समय 'मलधारी देव' के नाम से प्रसिद्ध थे, और यम तथा नियम से सम्बद्ध थे। 'मलधारी' एक उपाधि थी, जो उस समय के किसी-किसी साधु सम्प्रदाय में प्रचलित थी। इस उपाधि के धारक अनेक विद्वान प्राचार्य हो गये है। वस्तुतः यह उपाधि उन नि पुगवां को प्राप्त होती थी, जो दुर्धर परीषहों, विविध घोर उपसर्गो और शीत-उप्ण तथा वर्षा को वाधा सहते हुए भी कभी कष्ट का अनुभव नही करते थे । और पसीने से तर वतर शरीर होने पर लि के कणों के संसर्ग से मलिन शरीर को साफ न करने तथा पानी से धोने या नहाने जैसी घोर बाधा को भी सह लेते थे। ऐसे मुनि पुगव ही उक्त उपाधि से अलंकृत किये जाते थे। प्रमतचन्द्र भ्रमण करते हुए बम्हणवाड नगर में आये थे। इन्हीं अमतचन्द्र गुरु के आदेश से पज्जण्ण चरिउ की रचना कवि ने को है।
रचना काल
कवि ने ग्रन्थ में रचना काल नही दिया, जिससे उसके निश्चय करने में बड़ी कठिनाई उपस्थित हो रही है। ग्रन्थ प्रशस्ति में 'बम्हणवाड' नगर का वर्णन करते हए मात्र इतना ही उल्लेख किया गया है कि उस समय वहां रणधोरी या रणधीर का पुत्र बल्लाल था, जो अर्णोराज का क्षय करने के लिये कालस्वरूप था । और जिसका मांडलिक भत्य अथवा सामन्त गुहिल वशीय क्षत्रा भुल्लण उस समय बम्हणवाड का शासक था इससे उक्त राजाओं के राज्य काल का परिज्ञान नही होता ।
प्राचार्य सोमप्रभ, प्राचार्य हेमचन्द्र और सोमतिलक सूरि के कुमारपाल चरित सम्बन्धी ग्रन्थों में
१. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह भा० २ पृ० २० २. देखो, 'अमृतचन्द्र का समय' शीर्षक लेख, अनेकान्त वर्ष कि० ४-५ । ३. अमिय मयंद गुरूरणं आएसं लहेवि झत्ति इय कव्वं ।
प्रद्युम्न चरित की अंतिम प्रशस्ति ४. सस्मिर-गणंदण-वग्ग-संझण्णउ, मठ-विहार-जिरण-भवरणर वाउ । बम्हणबाड गामें पट्टणु, अग्णिरणाह-सेणदल वट्टणु । जो भुंजइ अग्रिणग्वय काल हो, रणधोग्यि हो सुअहो बल्लाल हो। जामु भिच्चूदुज्जण-मगगमल्ला , खत्तिउ गुहिल उत्तु जहि भुल्लणु ॥
-प्रद्युम्न परित की प्रशस्ति
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३६५
बल्लाल को मालवराज लिखा है, और यह भी लिखा है कि बल्लाल पर चढ़ाई करने वाले सेनापति ने शत्रु का शिर छेद करके कुमारपाल की विजय पताका उज्जयिनी के राजमहल पर फहरा दो । उदयगिरि ( भेलसा) में कुमारपाल के दो लेख सं० १२२० और १२२२ के मिले हैं, जिनमें कुमारपाल को अवन्तिनाथ कहा गया है। मालवराज बल्लाल को मार कर कुमारपाल अवन्तिनाथ कहलाया ।
मंत्री तेजपाल के ग्राबू के लूण वसति गत सं० १२८७ के लेख में मालवा के राजा बल्लाल को यशोधवल द्वारा मारे जाने का उल्लख है' ।
यह यशोधवल विक्रमसिंह का भतीजा था। विक्रमसिंह के कैद हो जाने पर गद्दी पर बैठा था । यह कुमार पाल का मांडलिक सामन्त अथवा भृत्य था, मेरे इस कथन की पुष्टि अचलेश्वर मन्दिर के शिलालेख गत निम्न पद्य से भी होती है
" तस्मान्मही
"विदितान्यकलत्रपात्र, स्पर्शो यशोधवल इत्यवलम्बत े स्म ।
यो गुर्जर क्षितिपतिप्रतिपक्षमाजौ, बल्लालमालभत मालव मेदिनीन्द्रम् ॥"
यशोधवल का वि० सं० १२०२ (सन् १९४५) का एक शिलालेख जरी गांव से मिला है, जिसमें 'प्रमार वंशोद्भव महामण्डलेश्वर श्रीयशोधवल राज्ये' वाक्य द्वारा यशोधवल को परमार वंश का मण्डनेश्वर सूचित किया है । यशोधवल रामदेव का पुत्र था, इसकी रानी का नाम सौभाग्यदेवी था । इसके दो पुत्र थे, जिनमें एक का नाम धाराव श्रीर दूसरे का नाम प्रल्हाददेव था । इनमें यशोधवल के बाद राज्य का उत्तराधिकारी धारावर्ष था । वह बहुत ही वीर और प्रतापी था । इसकी प्रशंसा वस्तुपाल तेजपाल प्रशस्ति के ३६वं पद्य में पाई जाती
। धारावर्ष का म० १२२० एक लेख 'कायद्रा गांव के बाहर, काशी विश्वेश्वर के मन्दिर से प्राप्त हुआ है । यद्यपि इसकी मृत्यु का कोई स्पष्ट उल्लेख नही मिला, फिर भी उसकी मृत्यु उक्त सं० १२२० के समय तक या उसके अन्तर्गत जाननी चाहिए ।
कुमारपाल जब गुजरात की गद्दी पर बैठा, तब चौलुक्यराज के राज्य का विस्तार सुदूर प्रान्तों में था । कुमारपाल उसकी व्यवस्था में लगा हुआ था, उसका मंत्री उदयन था । उदयन का तीसरा पुत्र चाहड बड़ा साहसी और समरवीर था । उस समय चाहड किसी कारणवश कुमारपाल से प्रसन्तुष्ट हो शाकंभरी नरेश श्रर्णोराज से आ मिला। उसकी कूटनीति के कारण मालवा का राजा बल्लाल और चन्द्रावती का परमार विक्रर्मासह, और सपा दलक्ष का चौहान राज ये तीनों परस्पर में मिल गए। इन्होंने कुमारपाल के विरुद्ध जबर्दस्त प्रतिक्रिया की । परन्तु वे उसमें सफल नही हो सके । कुमारपाल ने अर्णोराज से युद्ध कर उसे शरणागत होने को वाध्य किया, और लौटते समय विक्रमसिंह की कैद कर पिंजड़े में बन्द कर ले आया, प्रोर उसका राज्य उसके भतीजे यशोधवल को दे दिया । फिर उसने बल्लाल को मारा और इस तरह उसने तीन राजाओं को परास्त कर मालवा को गुजरात में मिलाने का सफल प्रयत्न किया ।
मृत्यु
बल्लाल की को उल्लेख तो अनेक प्रशस्तियों में मिलता है । बड़नगर से प्राप्त कुमारपाल की प्रशस्ति के १५ श्लोकों में बल्लाल की हार और कुमारपाल की विजय का उल्लेख किया गया है। बड़नगर की
१. रोदः कदरवति कीति लहरी लिप्तामृतां शुद्यतेप्रद्युम्नवशोयशोधवल इत्यासीत्तनूजस्ततः ।
यश्चौलुक्य कुमारपाल नृपतिः प्रत्यर्थिनामागतं,
मत्वा सत्वरमेव मालवपति बल्लालमालब्धवान् ॥
२. शत्रु श्रेणी गलत्रिदलनोन्निद्र निस्त्रिशधारो, धारावर्ष: समजनि सुतस्तस्य विश्व प्रशस्यः । कोकान् प्रधनवा निश्चले यत्र जाताश्चोतन्नेत्रोत्पल जलकरणः कोकरणाधीशपत्न्यः ।
३. देखो, भारत के प्राचीन राजवंश भा० १ ० ७६-७७ ।
४. Epigraphica Indica V.3P.० २००
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-माग २
इस प्रशस्ति का काल सन् ११५१ (वि० सं० १२०८) है । प्रतः बल्लाल की मृत्यु सन् ११५१ (वि० सं० १२०८) से पूर्व हुई है।
पर विचारणीय यह है कि बल्लाल अवन्ति का शासक कब बना, और उसका वंश क्या था ?
ऐतिहासिक दृष्टि से सन् ११३८ तक मालवा पर जयसिंह का अधिकार रहा । उसके बाद संभवतः यशोवर्मन के पुत्र जयवर्मन ने जयसिंह चौलुक्य के अन्तिम दिनों में मालवा को स्वतन्त्र कर लिया। किन्तु वह उस पर अधिक समय तक शासन नहीं कर सका । कल्याण के चालुक्य जगदेकमल्ल और होयसल नरसिंह प्रथम ने मालवा पर आक्रमण कर दिया और उसकी शक्ति नष्ट कर दी, और उस देश की राजगद्दी पर बल्लाल नाम के व्यक्ति को बैठा दिया। इस घटना के कुछ समय पश्चात् सन् १०५० के लगभग चौलुक्य कुमारपाल ने बल्लाल का वध करा कर, भेलसा तक मालवा का सारा राज्य अपने राज्य में मिला लिया।
खेरला गांव (जि. वेतूल) से प्राप्त शिलालेख में, जो शक सं० १०७९ (सन् ११५७ ई०) का है, इस शिलालेख में राजा नरसिंह बल्लाल और जैतपाल ऐसी राज परम्परा दी हुई है । यह शिलालेख खंडित है इसलिये पूरा नहीं पढ़ा जा सकता। एक दूसरा लेख भी वहीं से प्राप्त हुआ है, जो शक सं० १०६४ (सन १९७२ ई०)का है । इस लेख का प्रारम्भ 'जिनानुसिद्धिः' वाक्य से हुआ है। जिससे जान पड़ता है कि ये राजा जैन थे। किन्तु जैतपाल को मराठी के कवि मुकुन्दराज ने वैदिक धर्म का उपदेश देकर वेदानुयायी बना लिया था।
ये सब राजा ऐलवंशी राजा श्रीपाल के वंशज थे। खेरला ग्राम श्रीपाल राजा के आधीन था। श्रीपाल के साथ महमूद गजनवी (सन् ६६६ से १०२७) के भांजे अब्दुल रहमान का युद्ध हुआ था। तवारीखए अमजदिया के अनुसार यह युद्ध सन् १००१ई० में एलिचपुर और खेरला ग्राम के निकट हुप्रा था। अब्दुल रहमान का विवाह हो रहा था, उसी समय लड़ाई छिड़ गई, और वह दूल्हे के वेश में ही लड़ा। इस युद्ध में दोनों मारे गए।
___इस ऐतिहासिक घटना से सिद्ध है कि बल्लाल ऐलवंशी था और उसके पूर्वजों का शासन ऐलिचपुर में था। कल्याण के चालुक्य जगदेक मल्ल और होयसल नरसिंह प्रथम ने परमार राजा जयवर्मन के विरुद्ध सन् ११३८ के लगभग आक्रमण करके उसे राज्यच्युत कर दिया, और अपने विश्वस्त राजा बल्लाल को एलिचपूर से बुला कर मालवा का राज्य सोंप दिया । बल्लाल वहां ५-७ वर्ष ही राज्य कर पाया था। वह वीर और पराक्रमी शासक था। उतने अल्प समय में ही उसने अपना प्रभाव जमा लिया था और अपने राज्य का विस्तार कर लिया था किन्तु सन ११४३ में या उसके कुछ समय पश्चात् चौलुक्य कुमारपाल की आज्ञा से चन्द्रावती के राजा विक्रमसिंह के भतीजे परमार वंशी यशोधवल ने बल्लाल पर आक्रमण करके युद्ध में उसका वध कर दिया और उसका सिर कमारपाल के महलों के द्वार पर लटका दिया। उस समय से कुमारपाल अवन्तिनाथ हो गया। अस्तु, प्रस्तुत बल्लाल ही ऊन के मन्दिरों का निर्माता है।
ऊपर के कथन से यह स्पष्ट मालूम होता है कि कुमारपाल यशोधवल, बल्लाल और अर्णोराज ये सव राजा समकालीन हैं । प्रस्तुत पज्जुण्ण चरिउ की रचना ईसा की १२वीं सदी के मध्यकाल की रचना है।
प्रन्थ रचना
पज्जुण्ण चरिउ के कर्ता कवि सिद्ध और सिंह हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ एक खण्ड काव्य है जिसमें १५ सन्धियां हैं और जिनकी श्लोक संख्या साढ़े तीन हजार के लगभग है। इसमें यदुवंशी श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न कुमार का जीवन-परिचय गुंफित किया गया है, जो जैनियों में प्रसिद्ध २४ कामदेवों में से २१वें कामदेव थे और जिन्हें उत्पन्न होते ही पूर्व जन्म का वैरी एक राक्षस उठा कर ले जाता है और उसे एक शिला के नीचे रख देता है। पश्चात् काल संवर नाम का एक विद्याधर उसे ले जाता है, और उसे अपनी पत्नी को सोंप देता है। वहां उसका लालन-पालन होता है, तथा वहां वह अनेक प्रकार की कलाओं की शिक्षा पाता है। उसके अनेक भाई भी कल। विज्ञ बनते हैं, परन्तु उन्हें इसकी चतुरता रुचिकर नहीं होती, उनका मन भी इससे नहीं मिलता, वे उसे अपने में
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३६७
दूर करने अथवा मारने या वियुक्त करने का प्रयत्न करते हैं। पर पुण्यात्मा जीव सदा सुखी और सम्पन्न रहते हैं । अतएव वह कुमार भी उनपर सदा विजयी रहा। बारह वर्ष के बाद कुमार अनेक विद्याओं और कलामों से संयुक्त होकर वैभवसहित अपने माता-पिता से मिलता है । उस समय पुत्र मिलन का दृश्य बड़ा ही करुण और दृष्टव्य है । वह वैवाहिक बन्धन में बद्ध हो कर सांसारिक सुख भी भोगता है, और भगवान नेमिनाथ द्वारा यह जानकर कि १२ वर्ष में द्वारावती का विनाश होगा, वह भोगों से विरक्त हो दिगम्बर साधु हो जाता है और तपश्चरण कर पूर्ण स्वातन्त्र्य प्राप्त करता है। इसी से कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि पुष्पिका में धर्म-अर्थ- काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय से भूषित बतलाया है ' । ग्रन्थ की भाषा में स्वाभाविक माधुर्य और पद लालित्य है । रस अलंकार और अनेक छंद भी उसकी सरसता में सहायक हैं । ग्रन्थ महत्वपूर्ण श्रौर प्रकाशित होने के योग्य है । पज्जुण्ण चरिउ की फरुख नगर की ६३ पत्रात्मक प्रति में १०वीं संधि तक सिद्ध कविकृत प्रथम संधि जैसी पुष्पिका दी हुई है। और ११वीं सघि से १५वीं संधि तक दूसरी पुष्पिका हैं । जिनसे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि कविसिंह ने ११वीं संधि से १५त्रीं संधि तक ५ सधियों को स्वयं रचा है। उससे पूर्व की सधियों के सम्बन्ध में यह कहना कठिन है कि कितनी संधि श्रीर समुद्धारित की हैं। क्योंकि ११वी सधि की पुष्पि का निम्न प्रकार है:
"इय पज्जुण्ण कहाए पर्याडिय धम्मस्थकाम मोक्खाए बुहरल्हण सुश्र कइ सोहविरइयाए सच्च महादेवी माणभंगो णाम एकादशमो सधि परिच्छेयो समत्तो ॥ "
पद्मनन्दि व्रती
प्रस्तुत पद्मनन्दि राद्धान्त शुभचन्द्र के शिष्य थे । इन्होंने अपने को उक्त शुभचन्द्र का अग्र शिष्य लिखा है । यह महातपस्वी और अध्यात्म शास्त्र के बड़े भारी विद्वान थे। और जैनामृतरूपी सागर के बढ़ाने वाले थे । इनके विद्यागुरु कनकनन्दी पंडित थे । इनके नाम के साथ पंडितदेव, व्रती और मुनि की उपाधियां पाई जाती हैं । इन्होंने प्राचार्य अमृतचन्द्र की वचन चन्द्रिका से आध्यात्मिक विकास प्राप्त किया था । इन्होंने निम्बराज के सम्बोधनार्थ पद्मनन्दि की एकत्वसप्तति की कनड़ी टीका बनाई थी। टीका की प्रशस्ति में पद्मनन्दी और निम्बराज की प्रशंसा की गई है । ये निम्बराज वे जान पड़ते हैं जो पार्श्वकवि कृत 'निम्ब सावन्त चरिते' नाम के ५०६ षट्पदी पद्यात्मक कन्नड काव्य के नायक हैं । इस काव्य के वृत्तान्त से ज्ञात होता है कि निम्बराज शिलाहारवंशीय गण्डरादित्य राजा के सामन्त थे । इन्होंने कोल्हापुर में 'रूपनारायण' वसदि का निर्माण कराया था । और कार्तिक वदि पंचमी शक सं १०५८ ( वि० सं० १९८३ ) में कोल्हापुर व मिरज के ग्रासपास के ग्रामों की आय का दान भी दिया था । इससे इन पद्मनन्दी व्रती का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है ।
एकत्व सप्तति की कनडी टीका की अन्तिम प्रशस्ति इस प्रकार है:
श्रीपद्मनन्दी तिनिमितेयम् एकत्वसप्तत्य खिलार्थपूतिः । वृत्तिश्चिरं निम्बनृप प्रबोधलब्धात्मवृत्ति जयतां जगत्याम् ॥
स्वस्ति श्री शुभचन्द्र राद्धान्तदेवाप्रशिष्येण कनकनन्दि पण्डितवाप्रश्मि विकसित हृत्कुमुदानन्द श्रीमद्अमृतचन्द्रचन्द्रिकोन्मीलित नेत्रोत्पला वलोकिताशेषाध्यात्मत स्ववेदिना पद्मनन्दिमुनिना श्रीमज्जैन सुधाब्धि वर्धनकरापूर्णेन्दुरारातिवीर श्रीपति निम्बराजावबोधनाय कृतकत्वसप्ततेव तिरियम् - तज्ज्ञाः संप्रवदन्ति संततमिह श्रीपद्मनन्दि व्रती, कामध्वंसक इत्यलं तवनृतं तेषां वचस्सर्वथा ।"
( - पद्मनन्दि पंच विंशतिका की अंग्रेजी प्रस्तावना पृ० १७ )
१. इय पज्जुण्ण कहाए पर्याडिय - धम्मत्थ-काम-मोक्खाए कई सिद्ध-बिरइयाए पढमो संधी परि समत्तो ॥ १॥
२. इय पज्जुण्ण कहाए पयडियधम्मस्थ काम मोक्खाए बुह रल्हण सुअ कद्द सीह विरइयाए पज्जुष्ण-संकु भाणु- प्रणिरुद्द निव्वाणममरणं शाम पष्णारहमो परिच्छेउ समत्तो ।
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
गिरि कोति
प्रस्तुत गिरिकीर्ति मूल संघ बलात्कार गण सरस्वतिगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान चन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। यह चन्द्रकीति मेघचन्द्र के सधर्मा थे। गिरिकीर्ति ने प्रशस्ति में निम्न विद्वानों का उल्लेख किया है श्रुतकीर्ति मेघचन्द्र चन्द्र कीर्ति और गिरकीति' । यह अपने समय के अच्छे विद्वान थे। गोम्मटसार की रचना प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने चामुण्डराय के प्रश्नानुसार की है। यह चामुण्डराय गंगनरेश मारसिंह द्वितीय के अमात्य और सेनापति थे। इन्होंने अपना चामुण्डराय पुराण शक० सं० ६०० (सन् १७८ ई०) में बनाया। अतः गोम्मटसार की रचना का भी वही समय है । गिरिकीति की एकमात्र कृति गोम्मटसार की पंजिका है। इस पजिका का उल्लेख अभयचन्द्र ने अपनी मन्द प्रबोधिका टीका में किया है । जो उन्होंने गोम्मटसार की रचना के लगभग एक सौ सोलह वर्ष वाद शक सं० १०१६ सन् १०६४ (वि० सं० ११५१) में बनाकर समाप्त की थी। जैसा कि निम्न गाथा से स्पष्ट है :
सोलह सहिय सहस्से गयसक काले पवड्ढमाणस्स ।
भावसमस्ससमत्ता कत्तिय गंदीसरे एसा । प्रस्तुत पंजिका की प्रति १८ पत्रात्मक है जो सं० १५६० की प्रतिलिपि की हुई है। पजिका की भाषा प्राकृत-संस्कृत मिश्रित है। जिसमें गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड की गाथानो के विशिट गब्दों या विपमपदों का अर्थ दिया गया है। कही कही व्याख्या भी सक्षिप्त रूप में दी गई है। सभी गाथानों पर पजिका नही है।
पंजिका की विशेषता
पंजिका का अध्ययन करने में उसकी विशिष्टता का अनुभव होना है। कही कही मैद्धान्तिक वातों का स्पप्टीकरण किया गया है, उसकी भी जानकारी होती है। जीवकाण्ड की पंजिका में बस्तुतत्त्व का विचार करते हए उसे पृष्ट करने के लिए अन्य ग्रन्थकारों के उल्लेख भी उद्धत किये हैं जिसमे ग्रन्थ को प्रामाणिकता रहे। उसका प्रादि मंगल पद्य निम्न प्रकार हैं :
पणमिय जिणिदं चंदं गोम्मट संग्गह समग्ग सुत्ताणं ।
केसिपि भणिस्सामो विवरण मण्णेस समासिज्ज ।। तत्थ ताव तेसि सुत्ताणमादिए मंगलझैं भणिस्स माणटुं विसय पइण्णा करणळं च कयस्स सिद्ध मिच्चाइ गाहा सुत्तस्सत्थो उच्चयेण? विवरणं कहिस्सामो तंजहा वोच्छं
चारो गुणस्थानों में भाव किस अपेक्षा से निरूपित हैं इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में भाव दर्शन मोह की अपेक्षा से कहे गये हैं, क्योंकि अविरत गुणस्थान तक चारित्र नहीं होता।
१. सो जयउ वामुपुज्जो सिवामु पुज्जासुपुज्ज-पय-पउमो।
पविमल वमुपूज्यसुदो मुदकिनि पिये पियं वादि ॥१ ममुदिय वि मेघचन्दप्पमाद सुदकित्तियरो जो सो कित्ति भणिज्जद परिपूज्जिय चंदकित्ति त्ति ॥२ जेगगासेस वसंतिया मग्मई ठाणंत रागो हरणीं। जं गाढं परिरुभिऊरण मुहया सोजत मुद्दासई जम्सा पुव्व गुणप्पभूदरयणालंकार सोहग्गिरि
....."कित्तिदेव जदिरणा तेरणासि ग्रंथो करो ॥ ३-पंजिका प्रशस्ति २. अथवा सर्छन गर्भोपपादानाश्रित्य जन्म भवतीति गोम्मट पंजिकाकारादीनामभिप्रायः ।
गो० जी० मन्द प्रबोधिका टीका गा०६३
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
इसे स्पष्ट करते हुए उक्तं च रूप से तत्त्वार्थ सूत्र के निम्न सूत्र का उल्लेख किया है
वत्तं च तच्चठ्ठयारेणं "मोहक्षयात ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायक्षयाच्च केवलमिदि।"
मिथ्यात्व के भेदों का कथन करते हुए उनके नाम और लक्षण निम्न प्रकार दिये हैं-एकान्त मिथ्यात्व, विपरीत मिथ्यात्व, वैनयिक मिथ्यात्व, संशयित मिथ्यात्व, और अज्ञान मिथ्यात्व ।'
एयंत मिथ्यत्वादि-अस्थि चेव, णत्थि चेव, प्रणिच्चमेव, एयमेव, अरण्यमेव तच्चमिच्चादि सव्वहावरणरूपो अहिप्पायो एयंत मिच्छत्त णाम ।
प्रहिंसादिलक्खण सद्धम्मफलस्स सग्गापवग्गस्स हिंसादि पावफलत्तेण परिच्छेदणाहिप्पायो विवरीय मिच्छत्तणाम ।
सम्मदसणादि हिरवेक्खेण गुरु-पाय-पूजादि लक्षणेण विणएणेव मोक्खोत्ति अहिप्पानो वेणइयमिच्छत्त णाम।
पच्चक्खादिणा पमाणेण पडिगेज्जमाणस्स प्रत्थस्स देसंतरे कालंतरे च एय सरूवावहारणाणुवत्तीदो, तस्स रुव परूवयाण मताहिमाणदंदज्झमाणाणं पि परप्पर विरुद्ध देसमाणामवंचयत्त णिच्छया भावादो इदमेव तच्चमिदं होदित्ति परिच्छेउ ण सक्कमिदि उहय सावलंबी अहिप्पायो संसइदमिच्छतं णाम।
विचारिज्जमारणमटाणमवठिटदत्ता भावादो कथ मिद मेवेरिस जेवेत्ति णिच्छियदित्ति अहिप्पायो अण्णाण मिच्छतं णाम।
पत्र३३ पर सामायिक और छेदोपस्थापना संयम का वर्णन करते हए पंजिकाकार ने दोनों की एकता का निरूपण करने के लिये भूतबलि भट्टारक का उल्लेख किया है-"प्रदो जेय दोण्हमेगत्तस्स वि परूवणठें भूदबलि भट्टारयेहिं दोण्हं एग जे गरणसुद्धि गहणं कदं ।'
पत्र ३४ की गाथा नं० ४८१ में दर्शन का लक्षण करते हुए पंजिकाकार ने प्राचार्य वीरसेन द्वारा चचित दर्शन विषय का उल्लेख निम्न शब्दों में किया है-एसो वीरसेण भयवंताणस्सयलागमगहिय साराणं च वक्खाण कमो परूवदो। पुव्वाइरिय वक्खारण कम पुण एसा गाहा परूवेदि।"
संयमी जीवों का प्रमाण छठे गुणस्थान से लेकर चोदहवें गणस्थान तक के जीवों का तीन कम नौ करोड बतलाया है। उन्हें मैं हाथ जोड़ कर नमस्कार करता हूँ। ये सब गाथाएं नम्बर क्रम के भेद के साथ जीवकाण्ड में पाई जाती हैं। पंजिका का पूरा अध्ययन करने पर अनेक विशेष बातों का बोध होगा।
जीव काण्ड की पंजिका का अन्तिम मंगल इस प्रकार है:जे पव्वयणस्थति विमुहा, साहिच्च मगच्चुदा, दिळं जेहि णय-पमाण-गहणं जोण्हंण सम्मं मदं । ते णिदंतु थुवंतु किं ममतदो, अण्णारिसा जेइधो,
ते रज्जति जदीह साह सहलो सव्वो पयासो मम ॥ कर्मकाण्ड की पंजिका का आदि मंगल निम्न प्रकार है:
णमह जिण चलग कमलं सुरमउलिमणिप्पहा जलुल्लसियं ।
णह किरण केसरंतम्भमंत देवी कयन्भमरं,॥ महकम्म भेदं परूवेमाणो विज्जाए अवच्छित्ति णिमित्तमिदि कादूण मंगलं जिणिदं णमोक्कारं करेवि
पणमिय सिरसा मि गण-रयण-विभसणं महावीरं।
सम्मत्त-रयण-णिलयं पयडिसमुक्कित्तणं वोच्छं ॥१ पणमिय-सम्मत्तरयणरिणलयं अप्पसरूव लद्धिलक्खण समीचीणत्त मेव रयणं तस्स णिलय मासयं, कुदो गुणरयणभूसणत्तादो । पडिसमुक्कित्तणं । पयडीरणं गाणावरणदीणं सम्मविसेसेण कित्तणं कहणं जत्थ तं बोच्छमिदि संबध्यते । जीवमेदे गिरवसेसे परुविय सम्मत्ते, किमट मिदं परूविज्जदे। ण, गुणादिवोस परूवणेसु परूविज्जमारणेसु । मोह जोगभवा सकम्मभवाइच्चाइसु कम्माण महिहाणमेत्तमेव परूविदं । ण समत्त सरुवं । प्रदो तद परुवि
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ णाए जीव भेदो चेयण सम्ममवगम्मबित्ति पडि समुक्कित्तणमारंभदे । किं तदित्याह-वाक्य के साथ उसकी पहली गाथा की पजिका दी गई है। अन्तिम भाग
सो जयउ वासुपुज्जो सिवासु पुज्जासु पुज्ज-पय-पउमो। पविमल वसुपुज्ज सुदो सुदकित्ति पिये पियंवादि ॥१॥ समुदिय वि मेघचंदप्पसाद सुदकित्तियरो।
जो सो कित्ति भणिज्जइ परिपुज्जिय चंदकित्ति ति ॥२॥ जेणासेसवसंतिया सरसई ठाणंत रागो हणी, जं गाढं परिरुभिऊण मुहया सोजत मुद्दासई । जस्सापुव्वगुणप्पभूदरयणालंकार सोहग्गिरि ........ कित्तिदेवजविणा तेणासि गंयो कमो ॥३॥
उप्पण्ण पण्णाण मिसीणमंसि, पयोजणं णत्थि तहा विहं चे
कज्जं भवे चे विमिणा बहूरणं, बालाणमिच्चत्य कयं ममेयं ॥४॥ अण्णाणेण पमाददोवगरिमा गंथस्स होदित्ति वा, पालस्सेण व एत्थ ज ण संबन्धणिज्ज पि मे। तं पुठवावर साहुसोहण सुही सोहंतु सम्म सुही, जंहा सव्वपरोवयारकरणे संतोगिही दय्वदा ॥५॥ एसो बंधदि बंधणिज्जमिदिमे वेदस्स बंधो इमो, एदं बंध णिमित्त मस्स समये भेदा इमेसि इमे।
इच्चेदं कहिदक्कमेण इमिणा णच्चा जदी संगह, पंचण्हं परिभावो भवभयं णिच्चासिमं बच्चये ।। प्रइ विमला गुण गुरुई बहुप्पिया झंति किय चमकारा, पंजीरंजिय भुवणा चिट्ठउ सुदकिति कित्तिव्य ।।
जादं जत्थ सु लद्ध मूलमहिमे साहाहि सस्सोहियं । सच्छायं सगुण ड्ढि वुद्डि विसयं भूदेवयाणं सया। धम्मारामुव राहवस्स कदिणो तत्थेसगंथो को। गामे पुन्वलि --णामसहिये कालामए ॥८॥ सोलह सहिय सहस्से गय सगकाले पवढ्डमाणस्स। भाव समस्ससमत्ता कत्तिय गंदीसरे एसा | इमिस्से गंथ संखाण सिलोएहि फडीकयं ।
पण्णासेहि समं बुच्छं दसयं दसहिगुणं ॥१०॥ ग्रंथ संख्या ५०००। श्रीपंचगुरुभ्यो नमः शुभमस्तु भव्यलोकाय । गोम्मट पंजिका नाम गोम्मटसार टिप्पणं समाप्तं ।
मेघचन्द्र विद्यदेव मेघचन्द्र नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं। उनमें सकलचन्द्र के शिष्य मेघवन्द्र का यहां परिचय दिया जा रहा है। यह मेघचन्द्र मूलसंघ देशीयगण और पूस्तक गच्छ के थे। न्याय, व्याकरण सिद्धान्त आदि सभी विषयों के अधिकारी विद्वान थे । इसी कारण श्रवणवेलगोल के ४७वें शिलालेख में आपकी बड़ी प्रशंसा की गई है और बतलाया है कि प्राचार्य मेघचन्द्र सिद्धान्त में वीरसेन, तर्क में अकलंकदेव और व्याकरण में पूज्यपाद के समान विद्वान थे। विद्य इनकी उपाधि थी और यह विद्यचक्रेश्वर कहलाते थे।
श्री मूलसंघकृत पुस्तक गच्छ देशीयोबद्गणाधिप सुताफिक चक्रवर्ती। सैद्धान्तिकेश्वर शिखामणि मेघचन्द्रस्त्र विद्यदेव इति सविबुधाः स्तुवन्ति ।
१. गुणचन्द्र के सधर्मा मेषचन्द्र । नयकीति के शिष्य मेघचन्द्र, नयकीति का स्वर्गवास शक सं० १०६६ (सन् १९७७) में हुना था। बालचन्द्र के शिष्य मेघचन्द्र, माघनन्दी व्रती के शिष्य मेघचन्द्र । और सकलचन्द्र के शिष्य मेघचन्द्र, जो विद्यचक्रेश्वर नाम से प्रसिद्ध थे।
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
सिद्धान्ते जिन वीरसेन सदृशः शास्त्राब्जभा-भास्करः षट्तर्केष्वकलंकदेव विबुधः सक्षादयं भूतले । सर्व व्याकरणे विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयं ।
विद्योत्तम मेघचन्द्र मुनिपो वादीभपंचाननः ।। इनके शिष्य वीरनन्दी प्राचार्य ने प्राचारसार को प्रशस्ति में उन्हें 'सिद्धान्तार्णवपूर्णतारकपति' योगीन्द्र चूड़ामणि, और विद्यविभूषण आदि विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है । यथा
सिद्धान्तार्णव पूर्णतारकपतिस्तकाम्बुजाहपतिः शब्दोद्यानवनामृतोरुसरणिर्योगीन्द्रचूड़ामणिः । विद्यापरसार्थ नाम विभवः प्रोद् धूतचेतोभवः, स्थेयादन्यमृतावनीमृदशनिः श्रीभेघचन्द्रो मुनिः ॥३० यद्वाक्छो रवतंस मण्डनमणिवर्दग्धदिग्धत्विषाम् यच्चारित्र विचित्रता शमभृतां सूत्रं पवित्रात्मनाम् । यत्कोतिधवलप्रसाधनधरं धत्ते धरा योषितः,
स विद्यविभूषणं विजयते श्रीमेघचन्द्रो मुनिः ॥३१ इनके अनेक शिष्य थे । वीरनन्दी, अनन्तकीर्ति, प्रभाचन्द्र और शुभकीर्ति । लेख नं० ५० में मेघचन्द्रत्रविद्य देश के शिष्य प्रभाचन्द्र को पागम का ज्ञाता और वीरनन्दी को भारो सैद्धान्तिक बतलाया है । इन प्रभाचन्द्र का स्वर्गवास शक सं० १०६८ (सन् ११४६ई०) पीर वि० स० १२०३ में हुआ था। इनमें वीरनन्दी 'आचारसार के कर्ता हैं. पौर जिन्होंने उसकी स्वोपज्ञ कनड़ी टीका शक स० १०७६ (सन् ११५३ ई०) में बनाकर समाप्त की थी।
मेघचन्द विटादेव का स्वर्गवास शक सं० १०३७ वि० स० ११७२) में मगशिर सदी चतर्दशी पनि वार के दिन धनुलग्न में हुआ था। जैसा कि श्रवणवेलगोल के शिलालेख न० ४७ के निम्न वाक्यों से प्रकट है
"सक वर्ष १०३७ नेयमन्मथ संवत्सरद मार्गसिर सुद्ध १४ वृहवार धनुर्लग्नद पूर्वाह्वदारुधलि मेयप्पग्गलु श्रीमूलसद देसियगणद पुस्तकगच्छद श्रीमेघचन्द्रत्र विद्यदेवर्तम्मवसानकालमवरिदु पल्यङ्कासन दोलिददु मात्मभावनेयं भाविसुत्त देवलोक्के सन्दराभाव नेयन्त प्पुदेन्दोडे ।" अतः इन मेधचन्द्र का समय वि० की १२ वीं शताब्दी सुनिश्चित है।
शान्तिषेण यह काष्ठासंधान्तर्गत माथुरसंघ के विद्वान अमितगति (द्वितीय) के शिष्य थे। जिन्होंने अपने चरण कमलोंपर महीश को नमा दिया था'। चूकि अमितगति द्वितीय का समय संवत् १०५० से १०७३ है। प्रतः उनके शिष्य शान्तिषण का समय ११वी शताब्दी का अन्तिम भाग होना चाहिये।
प्रमरसेन शान्तिषेण के शिष्य और माथुरमघ के अधिप अमरसेन हुए, जो पापों का नाश करने वाले थे-माहरसंघाहिउ प्रमरसेणु तहो हुउ विणेउ पुण हय-दुरेणु"। (षट् कर्मोपदेश प्रशस्ति) । इनका समय १२वीं शताब्दी का मध्य भाग संभव है।
श्रीषेणसूरि यह प्रमरसेन सूरि के शिष्य थे। माथुरसंघ के पंडितों में प्रधान और वादिरूपी वन के लिये कृशान (अग्नि १. गणि मंतिमण तहो जाउ सीसु, रिणय-चरण-कमल-णामिय महीसु-पट्कर्मोपदेश प्रशस्ति ।
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ थे। इनका समय १२वीं शताब्दी का तृतीय चरण होना चाहिये । "सिरिसेणु पंडित पहाणु, तहो तीसुवाइय-काणण-किसाणु।"
नेमिचन्द्र यह कवि अपने समय में बहुत प्रसिद्ध था। वीर वल्लाल देव और लक्ष्मण देव इन दो राजामों की सभा में इसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। कलाकान्त, कविराज मल्ल, कवि धवल, शङ्गारकारागृह, कविराज कंजर, साहित्य विद्या धर, विद्यावधवल्लभ, सुकविकण्ठाभरण, विश्वविद्या विनोद, चतुर्भापा कवि चक्रवर्ती, सूकर कवि शेखर, आदि इसके विरुद थे। इसकी दो कृतियाँ उपलब्ध हैं-लीलावती और नेमिनाथ पुराण। इनमें लीलावती कनड़ी भाषा का चम्पू ग्रन्थ है। इसमें १४ पाश्वास हैं। कवि ने इसे केवल एक वर्ष में बनाकर समाप्त किया था। यह ग्रन्थ मुख्यतः शृगारात्मक है। कर्नाटक कवि चरित में इसकी कथा का सार निम्न प्रकार दिया है :
कदम्बवंशीय राजाओं की राजधानी जयन्तीपुर अथवा जनवास नाम के नगर में थी। वहाँ चडामणि नाम का राजा राज्य करता था। उसकी प्रधान रानी का नाम पद्मावती और पुत्र का नाम कन्दर्प देव था । गुणगन्ध नामक मंत्री का पुत्र मकरन्द राजकुमार का बहुत ही प्यारा मित्र था। कन्दर्प एक दिन स्वप्न में एक रूपवती स्त्री का दर्शन करके उस पर अत्यन्त आसक्त हो गया। दूसरे दिन उस स्त्री को खोज में वह अपने मित्र के साथ उस दिशा की ओर चल दिया, जिस दिशा की ओर उसने उसे स्वप्न में जाते देखा था। चलते-चलते वह कुसुमपुर नाम के नगर में पहुंचा। वहाँ के राजा शृगारशेखर की लीलावती नाम की एक रूपवती राजकुमारी थी। इस राजकुमारी ने भी स्वप्न में एक राजकुमार को देखा था और उस पर अपना तन मन वार दिया था। स्वप्नदष्ट राजकमार की खोज में उसने कई दूत इधर-उधर भेजे थे। उन दूतों के द्वारा लीलावती और कन्दर्प का परिचय हो गया.और अन्त में उन दोनों का विवाह हो गया। लीलावती को प्राप्त करके कन्दर्प अपनो राजधानी को लौट प्राया और सुखपूर्वक राज्य-कार्य सम्पादन करने लगा।" इसका कथा भाग सुबन्धु कवि की वासवदत्ता का अनुकरण मालूम होता है।
___ लीलावती की रचना सरस और सुन्दर है । इसकी रचना गंभीर, शृगाररसपूरित और हृदयहारिणी है। इससे कवि की प्रतिभा, शब्द सामग्री का चयन और वाक्यपद्धति अनन्यसाधारण प्रतीत होती है।
कवि की दूसरी कृति 'नेमिनाथ पुराण' है । इसमें बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। यह ग्रन्थ कवि ने वीरवल्लाल नरेश (११७१-१२१६) के पद्यनाभ नामक मंत्री की प्रेरणा से बनाया था। यह ग्रंथ प्रधरा जान पड़ता है। क्योंकि इसके प्रारंभ में यह प्रतिज्ञा की गई है कि नेमिनाथ की कथा में गौणता से वासुदेव कृष्ण प्रौर कन्दर्प की कथा का भी समावेश किया जायगा, परन्तु आठवे आश्वास में कंसवध तक का कथा भाग पाया जाता है। जान पड़ता है, ग्रन्थ पूर्ण होने से पहले ही कवि दिवंगत हो गया हो। इस कारण ग्रन्थ का नाम 'प्रर्धनेमि' कहा जाने लगा है। इस ग्रन्थ के प्रारंभ में तीथकर, सिद्ध, यक्ष यक्षिणी और गणधर की स्तुति के बाद गद्धपिच्छ प्राचार्य से लेकर पूज्यपाद पर्यन्त पूर्वाचार्यों का स्मरण किया गया है। ग्रन्थ के प्रत्येक पाश्वास के अन्त में निम्नलिखित गद्य मिलता है-"इति मद्पद बन्ध बन्धुर सरस्वतीसौभाग्य व्यंग्य भंगी निधान दीपति-चतुर्भाषाकवि चक्रर्वात नेमिचन्द्र कृते श्रीमत्प्रताप चक्रर्वात श्री वीर बल्लाल प्रसादासादित-महाप्रधान पदवीविराजि नाभदेवकारिते नेमिनाथ पुराणे।"
___ लीलावती ग्रन्थ के अन्त में इसने एक पद्य में लिखा है कि राजा लक्ष्मणदेव समुद्र बलयांकित पृथ्वी का स्वामी है। उक्त लक्ष्मणदेव का कर्णपाय (११४०) ने अपने नेमिनाथपुराण में उल्लेख किया है। कर्णपार्य के समय में लक्ष्मणदेव सिंहासनारूढ़ नहीं हुआ था, उसका पिता या बड़ा भाई विजयादित्य राज्य करता था। परन्तु कवि नेमिचन्द्र के समय वह राज्य का स्वामी था। इससे कवि नेमिचन्द्र का समय कर्णपार्य के बाद का निश्चित होता है। नेमिचन्द्र ने नेमि पुराण की रचना जिस वीरवल्लाल के मंत्री पद्मनाभ की प्रेरणा से की है, उसका समय ११७२ से १२१६ पर्यन्त है । इससे भी उक्त समय यथार्थ प्रतीत होता है । कविनेमिचन्द्र ईसा की १२वीं शताब्दी के चतुर्थ चरण
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य पौर विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान हैं। कन्नड भाषा के जन्न, पाव, कमलभव, प्रादि कवियों ने कवि नेमिचन्द्र की प्रशंसा की है।
श्रीधर यह ज्योतिष शास्त्र के विशिष्ट विद्वान थे । यह कर्नाटक प्रान्त के जैन ब्राह्मण थे, और बेलबुल नाडांतर्गत नरिगंद के निवासी थे। इनकी माता का नाम अव्वोका और पिता का नाम बलदेव शर्मा था। इन्होंने अपने पिता से ही संस्कृत और कन्नड ग्रन्थों का अध्ययन किया था। प्रारम्भ में यह शैव धर्मानुयायी थे, किन्तु बाद में जैन धर्मानुयायी हो गए थे । यह गणितशास्त्र के अच्छे विद्वान थे । इनका समय ईसा की दशवीं शताब्दी का अन्तिम भाग और संभवतः ११वीं का प्रारंभ रहा है।
इनकी गणितसार और ज्योतिर्ज्ञान निधि दो रचनाएं संस्कृत भाषा में हैं और जातक तिलक कन्नड भाषा की रचना है।
गणितसार में अभिन्न गुणक, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल भिन्न, समच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागानुवन्ध, भागमात्र जाति, त्रैराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, भाण्डप्रतिभाण्ड, मिश्रक व्यवहार एक पत्रीकरण, सुवर्ण गणित, प्रक्षेपक गणित, क्रय-विक्रय, श्रेणी व्यवहार और काष्ठक व्यवहार आदि गणितों का कथन किया है।
ज्योतिनिनिधि-यह ज्योतिष का प्रारम्भिक ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ में संवत्सरों के नाम, नक्षत्रों के नाम, योग करण और उनके शुभा शुभ फल दिये हैं । इसमें व्यवहारोपयोगी ज्योतिष का वर्णन है।
जातक तिलक-कन्नड भाषा का ग्रन्थ है। यह जातक सम्बन्धी रचना है । यह कन्द वृत्तों में रचा गया है इसमें २४ अधिकार हैं । इसमें लग्न, ग्रह, ग्रहयोग और जन्मकुण्डली सम्बन्धी फलादेश का कथन किया गया है । इस ग्रन्थ को श्रीधराचार्य ने पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम के राज्यकाल में बनाया या। कवि ने लिखा है कि मैंने विद्वानों की प्रेरणा से जातक तिलक की रचना की । यह ग्रन्थ मैसूर विश्वविद्यालय की ओर से प्रकाशित हो
चुका है।
वासवचन्द्र मुनीन्द्र इन्हें मूलसंघ देशीयगण के विद्वान प्राचार्य गोपनन्दी के सधर्मा बतलाया है । यह कर्कश तर्कशास्त्र में निपुण थे। इन्होंने चालक्य राजधानी में अपने वाद पराक्रम से 'वाल सरस्वति' की उपाधि प्राप्त की थी। जैसा कि शिलालेख के निम्न पद्य से प्रकट है
वासवचन्द्र-मुनीन्द्रोरुन्द्र-स्याद्वाद-तर्कश-कर्कश-धिषणः । चालुक्य कटकमध्ये बाल-सरस्वतिरिति प्रसिद्धिप्राप्तः॥ .
-जैन लेख सं० भा० १ पृ० ११६ यह लेख शक सं० १०२२ (सन् ११०० ई०) में उत्कीर्ण किया गया है। प्रतः वासवचन्द्र का समय ईसा को ११वीं शताब्दी जान पड़ता है।
देवेन्द्रमुनि इनकी गुरु-शिष्य परम्परा ज्ञात नहीं है । इनकी एक रचना बालग्रह चिकित्सा है । इसमें बालकों को ग्रहपीड़ा की चिकित्सा का वर्णन है । ग्रन्थ प्रायः वाक्य रूप में है । कवि का समय लगभग १२०० ईसवी है।
नयकोतिमुनि मुनि नयकीति मूलसंघ देशीयगण के प्राचार्य गुणचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य थे । जो जैनागम के
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
विद्वान और सैद्धान्तिकाग्रेश्वर, चारित्र चूडामणी, शल्यत्रयरहित, और दण्डत्रय के ध्वंसक थे ' । नागदेव मंत्री इनके शिष्य थे । गुणचन्द्र मुनि के पुत्र माणिक्यनन्दी इनके सधर्मा थे। इनकी शिष्य मंडली में मेघचन्द्र व्रतीन्द्र, मलधारि स्वामी, श्रीधरदेव, दामनन्दि त्रैविद्य, भानुकीर्तिमुनि, बालचन्द्र मुनि, माघनन्दिमुनि, प्रभाचन्द्र मुनि, पद्मनन्दी मुनि और नेमिचन्द्र मुनि के नाम मिलते हैं ।
नयकीर्ति का स्वर्गवास शक सं० १०६६ (सन् १९७७) में वैशाख शुक्ला चतुर्दशी शनिवार को हुआ था । जैसा कि शिलालेख के निम्न पद्य से प्रकट है
शाके रन्ध्रनवद्यचन्द्रमसि दुम्मुख्याख्य संवत्सरे वैशाखे धवले चतुर्दशि दिने वारे च सूर्य्यात्मजे । पूर्वाह्न प्रहरे गतेऽर्द्धसहिते स्वर्ग जगामात्मवान् ॥ विख्यातो नयकीर्ति देव मुनिपो राद्धान्तचक्राधिपः ॥ २३ नागदेव मंत्री ने अपने गुरु नयकीर्ति की निषद्या का निर्माण कराया था ।
माणिक्यसेन पंडितदेव
यह मूलसंघ सेनगण पोगरि गच्छ के वीरसेन पंडितदेव का सधर्मा था । यह सन् १९४२-४३ ईसवी दुन्दुभि वर्ष पुष्य शुद्ध सोमवार को उत्तरायण संक्रान्ति के समय पश्चिमी चालुक्य राजा जगदेक मल्ल द्वितीय के राज्यकाल में, उसके वनवसे १२००० के प्रदेश पर शासन करने वाले योगेश्वर सेनाध्यक्ष की प्रशंसा करता है और पेगंडे मय्दुन मल्लिदेव सेनाध्यक्ष की अनुमति से, जो जिज्वलिगे ७० के राज्य पर शासन कर रहा था, इसने प्रावली के भगवान पार्श्वनाथ को एक भूमिदान दिया ।
और एक दान संभवतः एक जैनमन्दिर को मुद्द गावुण्ड और दूसरे लोगों द्वारा दिया गया था। जो जैनधर्म के पक्के अनुयायी श्रौर भक्त थे । यह दान उक्त वीरसेन पण्डितदेव के सहधर्मी माणिक्यसेन पण्डितदेव के पाद प्रक्षालनपूर्वक दिया गया था । इससे पण्डित माणिक्यसेन का समय ईसा की १२वीं शताब्दी का मध्य काल है । - ( जैन लेख संग्रह भा० ३ पृ० ५६
-
महासेन पण्डितदेव
इनकी गुरु परम्परा और गण गच्छादि का उल्लेख मेरे देखने में नहीं प्राया । डा० ए० एन० उपाध्ये के अनुसार ये नयसेन पण्डितदेव के शिष्य थे। इनका उल्लेख पद्मप्रभ मलधारिदेव ने नियमसार की तात्पर्यवृत्ति में किया है और उन्हें ६६ वादियों के विजेता होने से विशालकीर्ति को उत्पन्न करने वाला सूचित किया है । २ तथा १६१ गाथा की वृत्ति में ' तथा चोक्तम् श्री महासेन पण्डितदेवैः ' - वाक्य के साथ निम्न पद्य उद्धृत किया है :ज्ञानाद्भिन्नो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचनः । ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेति कीर्तितः ॥
१. साहित्य प्रमदा-मुखाब्जमुकुरश्चारित्र-चूड़ामणि । श्री जैनागम वाद्धि-वर्द्धन-सुधाशोचिस्समुद्भासते ।
शल्यत्रय - गारव-त्रय लसद्दण्ड त्रय ध्वंसक -- स्स श्रीमानन्नयकीर्ति देव मुनियस्सैद्धान्तिकाग्रेसरः ||२०
- जैन लेख सं० भा० १ पृ० ३७
---
२. उक्तं च षण्णवति पाषंडि विजयोपार्जित विशालकीर्तिभिः महासेन पण्डितदेव : यथावद्वस्तु निर्णीतिः सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत् । तत्वार्थ व्यवसायात्मा कथंचित् प्रमितेः पृथक् ।।
- नियमसार तात्पर्य वृत्ति पृ० १३६
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३७५
यह स्वरूप सम्बोधन का पद्य है।
इनकी दो कृतियां कही जाती हैं—एक स्वरूप सम्बोधन और दूसरा 'प्रमाण निर्णय' । स्वरूप सम्बोधन के कर्ता उक्त महासेन हैं । इनमें स्वरूप सम्बोधन २५ श्लोकात्मक एक छोटी सी महत्त्वपूर्ण कृति है । उस पर केशवाचार्य और शुभचन्द्र ने वत्तियाँ लिखी हैं। प्रमाण निर्णय ग्रन्थ मेरे अवलोकन में नही पाया। संभवत: वह अप्रकाशित दशा में किसी ग्रन्थ भंडार में होगा।
नियमसार वत्ति के कर्ता पद्मप्रभ मलधारि देव का स्वर्गवास शक सं० ११०७ सन् ११८५ ईसवी में हुप्रा था, यह सुनिश्चित है । अतः महासेन पण्डितदेव का समय सन् ११८५ ई० से पूर्ववर्ती है । अर्थात् वे ईसा की १२वीं शताब्दी के मध्य काल के विद्वान जान पड़ते हैं।
प्रभाचन्द्र प्रस्तुत प्रभाचन्द्र सूरस्थगण के विद्वान थे। ये अनन्तवीर्य के प्रशिष्य और बालचन्द्र मुनि के शिष्य थे। अनन्तवीर्य की स्तुति कम्बदहल्लि के शिलालेख में की गई है । यह शिलालेख शक मं० १०४० (मन् १११८) वि० सं० ११७५ का है । अतएव इन प्रभाचन्द्र का समय विक्रम की १२वी शताब्दी है।
(जैन लेख मं० भा० २ पृ०३६६)
प्रमाचन्द्र ये मूलसंघ, पुस्तकगच्छ देशियगण के प्रसिद्ध तार्किक विद्वान मेघचन्द्र विद्यदेव के प्रधान शिप्य थे । इन मेघचन्द्र विद्य का स्वर्गवास शक वर्ष नेय मन्मथ सवत्सरद १०३७ सन् १११५ मगशिर सुदि १४ वृहस्पतिवार को हुआ था। यह मेघचन्द्र सकल चन्द्रमुनि के शिष्य थे। इन मेघचन्द्र के दूसरे शिष्य वीरनन्दी थे। प्रस्तुत प्रभाचन्द्र विष्णु वद्धन राजा की पटरानी धर्मपरायणा, पतिव्रता, सतीसाध्वी, जो भक्ति में रुक्मणि सत्यभामा तथा सीता जैसी देवियों के समान थी, के गुरु थे।
शक सं० १०६८ (सन् ११४६) वि० सं० १२०३ में आसोज सुदि १०मी वृहस्पतिवार को जिनके स्वर्गारोहण का उल्लेख श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं०५० में पाया जाता है । इन प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव ने अपने गुरु की निषद्या महाप्रधान दण्डनायक गंगराज द्वारा निर्माण कराई थी।
मेघचन्द्र के शिष्य इन प्रभाचन्द्र ने शक सं० १०४१ (सन् १११६ ई०) में एक महापूजा प्रतिष्ठा कराई थी। इससे इन प्रभाचन्द्र का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है।
प्रभाचन्द्र विद्य यह मड़पगण के सूर्य, समस्त शास्त्रों के पारगामी, परवादिगज मृगराज और मंत्रवादि मकरध्वज प्रादि विशेषणों से युक्त थे और वीरपुर तीर्थ के अधिपति मुनि रामचन्द्र विद्य के शिष्य थे । नय-प्रमाण में निपुण एवं
१. एनाल्म ऑफ दि भाण्डारकर ओरियन्टल इन्स्टिचूट भा० १३
पृ०८८ में डॉ. ए. एन. उपाध्ये का लेख । २. श्री मूलसङ्ग कृत-पुस्तक गच्छ देशीयोद्यद्गणाधिप सुताकिक चक्रवर्ती ।। सैद्धान्तिकेश्वरशिखामणिमेघचन्द्र-स्त्रविद्यदेव इति सद्विबुधाः स्तुवन्ति ।
जैन लेख सं० भा. १ पृ० ७५ ३. जैन लेख सं० भा० १ लेख नं० ५० (१४०) पृ०७१ ४. जैन लेख सं० भा० ११०६४ ५. जैन साहित्य और इतिहास पृ. ३२
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
तीक्ष्ण बुद्धि थे यह भट्टारक प्रभाचन्द्र मंत्रवादी थे। इन्हें चालुक्य विक्रम राज्य संवत् ४८ (११२४ ई०) में
र ग्राम सेडिम्ब के निवासी, नारायण के भक्त, चौसठ कलाओं के जानकार, ज्वालामालिनी देवी के भक्त, तथा अपने अभिचार होम के बल से कांचीपुर के फाटकों को तोड़ने वाले तीनसौ महाजनों ने सेडिम में मन्दिर बनवाकर भगवान शान्तिनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी और मन्दिर पर स्वर्ण कलशारोहण किया था। मन्दिर की मरम्मत और नैमित्तिक पूजा के लिये २४ मत्तर प्रमाण भूमि, एक बगीचा और एक कोल्हू का दान दिया था। इससे इन प्रभाचन्द्र का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी का मन्तिम चरण है।
१. जिनपति मततत्वरुचिर्नयप्रमाणप्रवीणनिशितमतिः ।
परहितचरित्र पात्रो बभौ प्रभाचन्द्र यतिनाथः । ख्यातस्त्रविद्यापरनामा श्रीरामचन्द्रमुनि तिलकः । प्रियशिष्यःविद्यप्रभेन्दु भट्टारको लोके ॥
-जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० ४११
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्याय ५ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के प्राचार्य, विद्वान् और कवि कनकचन्द्र मुनीन्द्र
कमलभव विजयकीति
अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती देवसेनगणी
भानुकोति सिद्धान्तदेव मुनि देवचन्द्र (पासनाह च०)
मुनिचन्द्र (वि० सं० १२८६) जयसेन
अजितसेनाचार्य (प्रलंकार चिन्ता०) चन्द्रकीति
श्रीधरसेन (विश्वलोचनकोश) अमरकीति
विजयवर्णी (शृगारार्णव चन्द्रिका) अग्गलदेव
कवि वाग्भट (काव्यानुशासन) श्रीधर
रविचन्द्र (आराधना समुच्चय) मुनि विनयचन्द्र
रट्टकवि अर्हद्दास उदयचन्द्र
बालचन्द्र पण्डितदेव पं. महावीर
इन्द्रनन्दी कवि लक्ष्मण या लाखू
विमलकीति दामोदर
मेघचन्द्र श्रीधर (भविसयत्तकहा कर्ता)
कुमुदेन्द्र माधवचन्द्र विद्य (क्षपणासारगद्य)
गुणभद्र मुनि विनयचन्द्र (सागरचन्द्र के शिष्य)
प्रभाचन्द्र रामचन्द्र मुमुक्षु (पुण्यास्त्रम के कर्ता)
प्रण्डय्य विमलकीति
शिशुमायण मुनि सोमदेव (शब्दार्णवचन्द्रिका)
पार्श्वपण्डित कवि हरदेव
कवि जन्न यश:कोति (चंदप्पह चरिउ कर्ता)
श्रीकीति मदनकोति (प्रहद्दास)
महाबल कवि भावसेन विद्य
लघु समन्तभद्र पण्डितप्रवर प्राशाधर
कुलचन्द्र उपाध्याय नरेन्द्रकीति (महनन्दि शिष्य)
सकलचन्द्र भट्टारक वासवसेन (यशोधर च०)
सकलकोति वादीन्द्र विशालकोति
नल्वि गुंद मादिराज मुनि पूर्णभद्र (सुकुमालचरिउ)
शुभचन्द्र योगी गुणवर्म (द्वितीय)
मल्लिषण पण्डित
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
बालचन्द्र मलधारी वादिराज द्वितीय त्रिविक्रमदेव भट्टारक प्रभाचन्द्र भट्टारक इन्द्रनन्दि (योगशास्त्र टीका) देवसेन भावसंग्रह बाल चन्द्र कवि विद्यानन्द श्रुतमुनि रत्न योगीन्द्र कलभद्र कवि नागराज प्रभाचन्द्र मधुर कवि पं० हरपाल (वैद्यकग्रन्थ कर्ता) केशव वर्णी
कवि श्रीधर वर्द्धमान भट्टारक मंगराज द्वितीय अभयचन्द्र गुणभूषण अय्यपार्य माघनन्दि योगीन्द्र वादिकुमुदचन्द्र कवि मंगराज पं० वामदेव अमरकोति हस्तिमल्ल पं० नरसेन
सुप्रभाचार्य
भास्कर नन्दी सुखबोधा तत्त्वार्थ वत्तिकर्ता
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं शोर चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
३७६
कनकचंद्र श्री मूलसंघ क्राणूरगण मेष पाषाण गच्छद कनकचन्द्र सिद्धान्तदेवर-(सिद्धान्तदेव को) अरटाल के मन्दिर की पूजा के वास्ते दान दिया गया है । इस मन्दिर में भगवान पार्श्वनाथ की बड़ी कायोत्सर्ग मूर्ति विराजमान है । उसके नीचे कनड़ी अक्षरों में एक शिलालेख है। इस मन्दिर को वेट्टकेर निवासी बचिमेट्टि ने बनवाया था। [सत्याश्रय कुलतिलक चालुक्यराजम भुवनकमल्ल विजय राज्ये शाका १०४५ (वि० सं० ११७०) अर्थात् यह विक्रम की १२ वीं शताब्दी के तृतीत चरण के विद्वान हैं। ] देखो, दि० जैन डायरेक्टरी पृ० २४१)
विजयकोति प्रस्तुत विजयकीति शांतिषण गुरु के शिष्य थे। जो लाड बागड गण की आम्नाय के विद्वान देवसेन की शिष्य परम्परा के थे। ये शान्तिपेण दुर्लभसेन सरि के शिष्य थे, जिन्होने राजा भोजदेव की सभा में पंडित शिरोमणि अंवरसेन आदि के समक्ष सैकड़ों वादियों को हराया था। निर्मल बुद्धि और शुद्ध रत्नत्रय के धारक थे । इन्होंने दूबकुण्ड (चडोभ) ग्वालियर के मन्दिर की प्रशस्ति लिखी थी। उसमें लिखा है कि विक्रम संवत् ११४५ में कच्छपंशी महाराज विक्रमसिंह के राज्य काल में मुनि विजयकीति के उपदेश से जैसवालवंशी पाहड़, कुकेक, सूर्पट देवधर और महीचन्द्रादि चतुर श्रावकों ने ७५० फीट लम्बे और चारसौ वर्ग फीट चौड़े अंडाकार क्षेत्र में इस विशाल मन्दिर का निर्माण कराया था और उसके सरक्षण, पूजन और जीर्णोद्धार के लिए उक्त कच्छपवशी विक्रमसिंह ने भूमिदान दिया था।
इस प्रशस्ति में कच्छपवंश के राजामों की वंश परम्परा के राजाओं के नामों का-भीमसेन, अर्जनभपति, विद्याधर, राज्यपाल, अभिमन्यु, श्रीभोज, विजयपाल और विक्रमसिंह का काव्य दृष्टि से वर्णन किया है । ऐतिहासिक दृष्टि से यह प्रशस्ति महत्वपूर्ण है। विजयकीति विक्रम की १२वीं शताब्दी के द्वितीय तृतीय चरण के विद्वान् हैं।
देवसेनगणी (सुलोचना चरिउ के कर्ता) प्रस्तुत देवसेन सेनगण के विद्वान् विमलमेन गणधर के शिष्य थे। इन्होंने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख करते हए लिखा है कि वीरसेन जिनसेन की परम्परा में होटलमक्त नाम के मनि हए, जो र शीश तथा अनेक शिष्यरूप परिग्रह के धारक थे। और जो सकलागम से युक्त अपरिग्रही थे। उनका शिष्य गण्डविमुक्त हमा, जिनके तपस्वी जीवन का नाम रामभद्र था। इनके शिष्य संयम के धारक निबंडिदेव थे। इन्हीं निबंडिदेव के शिष्य मलधारीदेव थे, जो शील गुण रूप रत्न के धारक थे। उपशम, क्षमा ओर संयम रूप जल के सागर, मोहरूपी महामल्ल वृक्ष के उखाड़ने के लिए गज (हाथी) के समान थे। और भव्यजन रूप कुमुद वन के लिए शशिधर (चन्द्रमा) थे । पंचाचार रूप परिग्रह के धारक, पंचसमिति और गुप्तित्रय से समद्ध, गुणी जन से वंदित और लोक में प्रसिद्ध थे। कामदेव के बाणों के प्रसार के निवारक और दुर्धर पंच महाव्रतों के धारक मलधारिदेव
१. प्रास्थानाधिपती बुधादविगुणे श्रीभोजदेवे नृपे, सभ्येप्वरसेन पडितशिरोरत्नादिषूद्यन्मदान् । योनेकान् शतशो व्यजेष्टपटुता भीष्टोद्यमो वादिनः, शास्त्रांभोनिधिपारगो भवदतः श्रोशांतिपेणो गुरुः ।। गुरुचरण सरोजाराधनावाप्तपुण्य, प्रभवदमलबुद्धिः शुद्धरत्नत्रयोस्मात् । प्रजनिविजयकोतिः सूक्तरत्नावकीणां जलधिभवमिवंतां य: प्रशस्ति व्यधत्त । (बकुण्डनेख, जैन लेख सं०भा०२५०३४०)
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
थे, जिनका नाम विमलसेन था। इन्ही विमलसेन के शिष्य उक्त देवसेन थे जो सेनगण के विद्वान्, धर्माधर्म के विशेषज्ञ, सयम के धारक तथा भव्यरूप कमलों के अज्ञान तम के विनाशक रवि (सूर्य) थे । शास्त्रों के ग्राहक, कुशील के विनाशक धर्मकथा के प्रभावक, रत्नत्रय के धारक और जिन गुणों में अनुरक्त थे। प्रस्तुत देवसेन मम्मलपूरी में निवास करते थे। जैसा कि निम्न प्रशस्ति वाक्य से प्रकट है :-णिव मम्मल्लपुरि हो णिवसंते, चारुटाणे गुण गणवंते ।" इससे देवसेन दक्षिण देश के निवासी जान पड़ते हैं । इन्होंने राजा की मम्मलपुरी' में रहते हुए सुलोचना चरिउ की रचना राक्षस संवत्सर में श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवार के दिन की थी। ग्रन्थ को रचना राक्षस संवत्सर में हुई है। राक्षस संवत्सर साठ सवत्सरों में से ४६ वां सवत्सर हैं । ज्योतिष की गणनानुसार एक राक्षस संवत्सर सन् १०७५ (वि० सं०११३२) में २६ जुलाई को श्रावण शुक्ला बुधवार के दिन पड़ता है और दूसरा सन् १३१५ (वि० स० १३७२)में १६ जुलाई को उक्त चतुर्दशी बुधवार के दिन पड़ता है। इन दोनों समयों में २४० वर्ष का अन्तर है । प्रतः इनमें पहला सन् १०७५ (वि० सं० ११३२) इस ग्रन्थ की रचना का सूचक जान पड़ता है। मुनि देवसेन ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख करते हुए बाल्मीकि, व्यास, बाण , मयूर, हलिय गोविन्द, चतुर्मुख स्वयम्भ, पुष्पदन्त और भूपाल कवि का नाम दिया है। इनमें पुष्पदन्त का समय वि०म० १०३५ के लगभग है। पौर भूपाल कवि का समय प्राचार्य गुणभद्र के बाद और पं० आशाधर के पूर्ववर्ती है । अतः सभवतः ११वीं के विद्वान जान पड़ते हैं।
डा. ज्योति प्रसाद ने जैन सन्देश शोधांक १५ में देवसेन नामक विद्वानों का परिचय कराते हए लिखा हैंकल्याणि के चालुक्य वंश में जयसिह प्रथम (१०११-१०४२) का उत्तराधिकारी सोमेश्वर प्रथम त्रैलोक्य का नाम पाहवमल्ल था जिसका शासन काल लगभग १०४२-१०६८ ई०) था, और जिसका उत्तराधिकारी सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल (१०६८-१०७५ ई०) था । सोमेश्वर प्रथम नाम का राजा सामान्यतया त्रैलोक्यमल्ल नाम से प्रसिद्ध था, बड़ा प्रतापी था, दक्षिण भारत का बहुभाग उसके प्राधीन था। मम्मल नगर भी उसके राज्य में था। अतएव गंड विमुक्त रामभद्र का समय भी लगभग सन् १०४०-१०७० ई. में होना चाहिये और उनकी तीसरी पीढ़ी में होने वाले देवसेन ५० वर्ष पीछे (११२० ई०) में होने चाहिए। उक्त डा० सा० ने लिखा है एक अन्य गणना के अनुसार राक्षस संवत १०६२-६३ ई०, ११२२-२३ ई० और ११८२-८३ ई० की तिथि में पड़ता था। इन तीनों तिथियों में से ११२२-२३ ई० की तिथि ही अधिक संगत प्रतीत होती है।
डा० ज्योति प्रसाद के द्वारा बतलाई तिथि में और ऊपर की ज्योतिष के अनुसार बतलाई तिथि में ४५ वर्ष का अन्तर पड़ता है । विद्वानों को इस सम्बन्ध में विचार कर प्रस्तुत देवसेन का समय मानना चाहिए। वे १२वी शताब्दी के विद्वान जान पडते हैं।
रचना
मुनि देवसेन की एकमात्र कृति 'सुलोयणाचरिउ' है। प्रस्तुत ग्रन्थ की २८ सन्धियों में भरत चक्रवर्ती, (जिनके नाम से इस देश का नाम 'भारतवर्ष' पड़ा है) के सेनापति जयकुमार की धर्म पत्नी सुलोचना का, जो काशी के राजा अकम्पन और सुप्रभा देवी की सुपुत्री थी, चरित अंकित किया गया है। सुलोचना अनुपम सुन्दरी थी। इसके स्वयम्बर में अनेक देशों के बडे-बड़े राजागण माये थे। सुलोचना को देखकर वे मुग्ध हो गए। उनका हृदय क्षुब्ध हो उठा और उसकी प्राप्ति की प्रबल इच्छा करने लगे। स्वयंवर में सुलोचना ने जयकुमार को चुना, उनके गले में वरमाला डाल दी। इससे चक्रवर्ती भरत का पुत्र अर्ककीर्ति क्रुद्ध हो उठा, और उसने उसमें अपना अपमान
१. प्रस्तुत मम्मलपुर तमिल प्रदेश का मम्मलपुर जान पड़ता है जिसका निर्माण महामल्ल पल्लव ने किया था, जैसा कि डा० दशरथ शर्मा के निम्न वाक्य से प्रकट है। -Mammalpuram foundedby Mahamalla Pallava
जैन ग्रंथ प्र०सं० मा०२ काफुठनोट २. रक्वस-संवच्छरबुह-दिवसए, मुषक-च उसि सावरण मासए ।
चरित सुखोयणाहि गिप्पण्णाउ, सद्-अन्थ-वण्याण-मपुष्णः ।। जैन अथ शान्ति से भा० २ १२०
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौद वी शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
३८१ समझा । अपने अपमान का बदला लेने के लिये अर्ककीति और जयकुमार में युद्ध होता है और अन्त में जय कुमार की विजय होती है । उस युद्ध का वर्णन कवि के शब्दां म निम्न प्रकार है :
"भडो कोवि खग्गेण खग्गं खलंतो, रणे सम्महे सम्महो प्राणहंतो। भडो कोवि बाणण बाणो दलंतो, समुद्धाइ उद्धरो णं कयंतो। भडो कोवि कोतेण दतं सरतो, करे गाढ चक्को प्ररी स पहुंतो। झडो कोच पद संडकयंगो, लडत्त ण मुक्को सगा जो अहगा। भडा कोवि सगाम भूमि धुलंता, विवण्णोह गिद्धवली णाय अंता । भडो को धारण णवद ससो, प्रसवा वरई अरीसाण भीसो। भडो कोवि राष्पवाहे तरतो, फुरतप्पयेणं तडि सिग्ब पत्तो। पा को व मुलाउहे वन इत्त, रहे दिण्णयाउ विवण्णोह इत्ता। भड इत्या विसाणहि भण्णो, भडोच वि कंठाट छिण्णा सिण्णो। घत्ता--हि प्रबार णिय संण्ण पेच्छाव सरजज्जरियउ।
धाइ भयतोलत जउ वक मच्छर भरियउ॥ ६-१२ युद्धोगमा मुना बना । जा कुछ विचार किया था, उन ग्रन्यकार ने गूथन का प्रयत्न किया है। सुलोचना को जिनमन्दिर कहा जब यह मालूम हुआ कि महतादिक पुत्र, बल और तेज राम्पन्न पाच सो सेनिक शत्रपक्ष ने मार डाला, जो
लिय नियुक्त किर गए थ । तब वह यात्म निन्दा करता हुई विचार करती है कि यह सग्राम गरे बारमाही , जा बहुत स सनिका का विनाशक है । अत: मुझ ने जबन से काई प्रयोजन नही । यदि मद्धनघश्या य ) का जय होगी प्रार में उन्ह जीवित दरा नगा तभी शर र क निमित्त प्राहार करूंगी। हमरा स्पष्ट है कि मानय मुलाचना ने अपने पति की जावन-कामना के लिय ग्राहार का परित्याग कर दिया था । इमगे उसके पात्य का उच्चादशं सामने आता है। यथा
"इमं 45 पउत्तं जयेण, तुमं एह कण्या मणोहार वण्णा । सरक्खेत पूर्ण परेणह ऊणं, तउ जोइ लक्खा प्रणया असंखा। सुसत्था वारणा मह दिक्ख दिण्णा, रहा चारु चिधा गया जो मयधा। महंताय पुत्ता-बला-तेय जुत्ता, सया पचसखा हया वेरिपक्खा । परीए णिहाण परं तुंग गेह, फुरतीह णील मणील कराल । पिया तत्थ रम्मो वरे चित कम्मे, अरभीय चिता सुउ हुल्लवत्ता । णिय सोयवंती इणं चितवंती, अह पाव-यम्मा अलज्जा-अधम्मा। मह कज्ज एवं रणं अज्ज जाय..... . . . . . . . . . . . . .............. बहणं णराण विणास करेण, महं जीविएण ग कज्ज अणेणं ।
जया हंसताउ स-मेहेसराई, सहे मंगवाई इमो सोमराई। घना-एसयल वि संगामि, जीवियमाण कुमार हो । पेच्छमि होई पवित्ति, तो सरीर पाहार हो।
इस तरह ग्रन्थ का विषय आर कथानक मुन्दर है, भाषा सरल औरप्रसाद गुणयुक्त है। प्रस्तुत ग्रन्थ एक प्रामाणिक कृति है; क्योंकि प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्राकृतगाथाबद्ध सुलोचना चरित का पद्धडिया आदि छन्दों में अनुवाद मात्र किया है । यह कुन्दकुन्द प्रसिद्ध सारत्रय के कता से भिन्न ज्ञात होते है । ग्रन्थगन चरितभाग बडा ही
१. जं गाह। वं आमि उत्त, गिरि कुन्द कुन्द-गणिगणा गिरुत्त । तं एब्वाह पद्धडियाह करेमि, परि कि पि न गूढ उ अत्थु देपि ।। -जैन ग्रन्थ प्रशस्तिमंग्रह भा० २ पृ० १६ उक्त पद्य में निर्देशित कुन्दकुन्द ममयसारादि ग्रन्थों के रचयिता कुन्द कुन्द प्रतीत नही होते है। कोई दूसरे ही कुन्दकन्द नाम के विद्वान् की रचना सुलोचना चरित होगी । जिसकी देवमेन ने पद्धडिया छन्द में रचना की है।
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ सुन्दर है। क्योंकि जयकुमार और सुलोचना का चरित स्वयं ही पावन रहा है । १५ वीं शताब्दी के कवि रइधू ने अपने मेघेश्वर चरित में-"मेहेसरहु चरिउ सुर सेणे - वाक्य द्वारा उसका उल्लेख किया है।
मुनि देवचन्द्र ये मलसंघ देशीय गच्छ के विद्वान मूनि वासवचन्द्र के शिष्य थे जो रत्नत्रा के भपण, गुणों के निधान तथा प्रज्ञान रूपी अंधकार के विनाशक भानु (सूर्य) थे। प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार दी है श्री कीति, देवकीति, मौनिदेव, माधवचन्द्र, अभयनदी, वासवचन्द्र प्रोर देवचन्द्र । इस गुरु परम्परा के अतिरिक्त ग्रन्थकर्ता ने रचना समय का कोई उल्लेख नहीं किया, हा रचना का स्थल गुदिज्ज नगर का पार्श्वनाथ मन्दिर बतलाया हैं जो कहीं दक्षिण में अवस्थित होगा। वासवचन्द्र नाम के दो विद्वानो का उल्लेख मिलता है। प्रथम वासवचन्द्र का उल्लेख सं० १०११ वैशाख सुदि ७ सोमवार के दिन उत्कीर्ण किये गए खजुराहो के जिननाथ मंन्दिर के लेख में हुआ है जो राजा धंग के राज्य काल में उत्कीर्ण हुआ था।
दूसरे वासवचन्द्र का उल्लेख श्रवणवेल्गोल के ५५ व शिलालेख में पाया जाता है जो शक स० १०१२ (वि० सं० ११४७ ) का खोदा हुआ है । उसके २५ वे पद्य में वामवचन्द्र मुनि का नामोल्लेख है, जिनकी बुद्धि कर्कश तर्क करने में चलती थी, और जिन्हें चालुक्य राजा की राजधानी में बाल सरस्वति की उपाधि प्राप्त थी। यदि ये देवचन्द्र वासवचन्द्र के गुरु हों तो इनका समय विक्रम की १२वी शताब्दी हो सकता है। ग्रन्थ प्रशस्ति में वासवचन्द्र सूरि को अभयनन्दी का दीक्षित शिष्य बतलाया है और लिखा है कि उन्होंने चारों कषायों को विनष्ट किया था, जो भव्यजनो को आनन्ददायक थे, और जिन्होंने जिन मन्दिरों का उसार किया था, जैसा कि निम्न वाक्य से प्रगट है-'उद्धरियइ जे जिणमदिराइ।' उन्ही के शिप्य देवचन्द्र थे। ग्रन्थ के भापा साहित्यादि पर से वह १२वी १३वीं शताब्दी से पूर्व की रचना नहीं जान पड़ती। चरित्र भी सामान्यतया वहा हे । उसमें कोई खास वैशिष्ट्य के दर्शन होते।
प्रस्तुत ग्रन्थ में ११ संन्धियाँ और २०२ कडवक हैं। जिनमें भगवान पार्श्वनाथ वा चरित्र-चित्रण किया गया है। कवि ने दोधक छन्द में पार्श्वनाथ की निश्चल ध्यानमुद्रा को अकित है, उससे पाठक ग्रन्थ की शैली से परिचित हो सकेंगे।
तत्थ सिलायले थक्कु जिणिदो, संतु महंतु तिलोय हो वंदो, पंचमहर्वय-उद्दय कधो, निम्ममु चत्त चउध्विह बंधो। जीव दया वरु संग विमुक्को, णं दह लक्खणु धम्मु गुरुक्को । जन्म-जरामरणुझिय दप्पो वारसभेयतवस्स महप्पो। मोह-तमंध-पयाव-पयंगो, खंतिलयासहणे गिरितु गो। संजम-सील-विहूसिय देहो, कम्म-कसाय हुप्रासण महो। पुप्फ धरण वर तोमर धंसो मोक्ख-महासरि कीलण हंसो। इन्दिय-सप्पहविसहर यंतो, अप्पसरूव -समाहि-सरंतो केवलनाण-पयासण-कंखू , धाण पुरम्मि निवेसिय चक्खू । णिज्जिय सासु पलंवियवाहो, णिच्चल देह विसिज्जय-वाहो।
कंचण सेलु जहां थिरचित्तो,दोधक छंद इमो बुह वुत्तो ॥" इसमें बतलाया गया है कि भगवान पार्श्वनाथ एक शिला पर ध्यानस्थ बैठे हुए हैं। वे सन्त महन्त १. गुंदिज्ज नयरि जिणपासहम्मि, निवसंतु संतु संजरिणय-मम्मि ।
-जैनग्रन्थ प्रश० भा०२ पृ० २४ २. See Epigraphica Indca Vol T Page136 ३. वासवचन्द्रमुनीन्द्रोरुन्द्रस्याद्वादतर्क कर्कश-धिषणः ।
चालुक्यकटकमध्ये बालसरस्वतिरिति प्रसिद्धिःप्राप्तः ।। जनशिला ले० सं०भा० १ लेख २५ ।
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और बौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
त्रिलोकवति जीवों के द्वारा बन्दनीय हैं, पंच महाव्रतों के धारक हैं, निर्मम हैं,और प्रकृति प्रदेश स्थिति अनुभागरूप चार प्रकार के बन्ध से रहित है दयालु और संग (परिप्रह) से मुक्त हैं, दशलक्षण धर्म के धारक हैं। जन्म, जरा पोर मरण के दर्द से रहित हैं । तप के द्वादश भेदों के अनुप्ठाता हैं। मोहरुपी अंधकार को दूर करने के लिये सूर्य समान हैं। क्षमारूपी लता के प्रारोहणार्थ वे गिरि के समान उन्नत हैं। जिनका शरीर संयम और शील से विभूषित है। जो कर्मरूप कषाय हुताशन के लिये मेघ हैं। कामदेव के उत्कृष्ट बाणों को नष्ट करने वाले तथा मोक्षरूप महा सरोवर में क्रीड़ा करने वाले हंस हैं । इन्द्रियरूपी विपधर सर्पो को रोकने के लिये मंत्र हैं। प्रात्म-समाधि में चलने वाले हैं। केवलज्ञान को प्रकाशित करने वाले सूर्य हैं, नासाग्र दृष्टि हैं । श्वास को जीतने वाले हैं, जिनके बाहु लम्बायमान हैं और व्याधियों से रहित जिनका निश्चल शरीर है। जो सुमेरु पर्वत के समान स्थिर चित्त हैं।"
यह सब कथन पार्श्वनाथ की उस ध्यान-समाधि का परिचायक है जो कर्मावरण की नाशक है।
ग्रन्थ की यह प्रति सं० १४६८ के दुर्मति नाम संवत्सर के पूस महीने के कृष्ण पक्ष में अलाउद्दीन के राज्य काल में भट्टारक नरेन्द्रकीति के पटाधिकारी भटारक प्रतापकीमिके समय देवगिरि के महादुर्ग में अग्रवाल श्रावक पण्डित गांगदेव के पुत्र पासराज द्वाग लिखाई गई है।
जयसेन (प्रामृतत्रयके टीकाकार)यह मूलसंघ के विद्वान आचार्य वीरसेन के प्रशिष्य और सोमसेन के शिष्य थे। जयसेन मालूसाहू के पौत्र और महीपतिसाध के पुत्र थे। उनका बाल्यकाल का नाम चारुभट था, वे जिन चरणों के भक्त और प्राचार्यों के सेवक थे। जैसा कि उनकी प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है :
सूरिः । श्री वीरसेनाख्यो मूलसंघेपि सत्तपाः । नैर्थ पदवीं भेजे जातरूप धरोपि यः॥ ततः श्री सोमसेनोऽभद गणी गुणगणाश्रयः । तद्विनेयोऽस्ति यस्तस्य जयसेन तिपोभृते ॥ शीघ्र बभूव मालू (१) साधुः सदा धर्मरतो वदान्यः । सूनुस्ततः साधु महीपतियस्तस्मादयं चारुभटस्तनूजः ॥ यः संततं सर्वविदः सपर्या मार्ग क्रमराधनया करोति ।
स श्रेयसे प्राभृत नाम ग्रन्थ पुष्यत् पितुभक्ति विलोपभीरु।।। चारुभट जब दिगम्बर मूनि हो गये तब उनके तपस्वी जीवन का नाम जयसेन हो गया। उन्होंने कुन्दकुन्दाचार्य के प्राभूत ग्रन्थों का अध्ययन किया और समयसार पंचास्तिकाय और प्रवचनसार तीनों ग्रन्थों पर वृत्ति संस्कृत भाषा में बनाई, जिसका नाम तात्पर्य वृत्ति है। वृत्ति की भाषा सरल और सुगम है। इनमें पंचास्तिकाय की वृत्ति पर ब्रह्मदेव की द्रव्यसंग्रह को टीका का प्रभाव परिलक्षित है। उन्होंने सोमश्रेष्ठी के लिए द्रव्यसंग्रह के रचे जाने के निमित्त का भी 'अन्यत्र' द्रव्यसंग्रहादौ सोमश्रेष्ठयादि ज्ञातव्यं' निम्न शब्दों में उल्लेख किया है। जयसेन ने अपनी वृत्ति में रचना समय नहीं दिया, फिर भी अन्य साधनों से उनका समय डा० ए० एन० उपाध्याय ने ईसा की १२ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और विक्रम की १३वीं शताब्दी का पूर्वार्ध निश्चित किया है, क्योंकि इन्होंने प्राचार्य वीरनन्दी के आचार सार से दो पद्य उद्धत किये हैं। प्राचार्य वीरनन्दी ने आचारसार की स्वोपज्ञकनड़ी टीका शक सं० १०७६ (वि० सं० १२११) में समाप्त की थी। वीरनन्दी के गुरु मेघचन्द्र विद्यदेव का स्वर्गवास विक्रम की १२ वीं सदी
१. See Introduction of the Pravacansara P. 104 २. देखो, तात्पर्यवृत्ति पु०पौर आचार सार ४१६५-६६ श्लोक ३. स्वस्ति श्रीमन्मेषचन्दत्रविद्यदेवर श्री पादप्रसादासादितात्मप्रभाव समस्त-विद्या-प्रभाव सकल दिग्वति श्री कीर्ति
श्रीमदवीरनन्दिसैद्धान्तिकचक्रवतिगलु शकवर्ष १०७६ श्रीमुखनाम संवत्सरे ज्येष्ठ शुक्ल १ सोमवार दंता माडिया चार सारक्के कर्णाट वृत्ति माडिद पर"
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
के उपान्त्य समय में अर्थात् सन् १९७२ में हुआ है। इसमे जयसेन का समय विक्रम की १३ वीं सदी का प्रारम्भ ठीक
जयसेन ने प्रशस्ति में त्रिभवनचन्द्र नाम के गुरु को नमस्कार किया है जो कामदेव रूपी महा पर्वत के शतखण्ड करने वाले थे। संभव है, सोमसेन इनके दीक्षा गुरु हों और त्रिभुवनचन्द्र उनके विद्यागुरु रहे हों। इनका समय भी विक्रम की १३ वीं शताब्दी का प्रारंभ है।
जयसेन ने समयसार की तात्पर्य वत्ति के अन्त में, ब्रह्मदेव की परमात्म प्रकाश टीका की अन्तिम भावना को-जिसमें लिखा है कि परमात्मप्रकाश की टीका पढ़कर भव्य जनों को क्या करना चाहिए वाक्यों के साथ उल्लिखित है उसे, ज्यों के त्यों रूप में उद्धत किया है ।
अमरकोति प्रस्तुत अमरकीति काप्टासंघान्तर्गत उत्तर माथुर संघ के विद्वान मुनि चन्द्रकोर्ति के शिप्य एवं अनुज थे। अमरकीति की माता का नाम 'चचिणी' और पिता का नाम 'गूणपाल' था। इन्होने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार किया है'-अमितगति द्वितीय (१०५० से १०७३) के उत्तरवती शान्तिपंण, अमरमेन, श्रीषण, श्रीचन्द्र
और अमरकीति । इन विद्वानों का और अमितगति द्वितीय में पूर्ववर्ती चार विद्वानो का-देवमेन 'मित गति प्रथम, नेमिषेण और माधवमेन इन सब दश प्राचार्यो का समय दसवी शताब्दो मे मं०१०४७ तक टाई सौ वर्ष के लगभग
अविच्छिन्न परम्परा का बोध होता है। इन अमरकीति की परम्परा के गिप्यों का कोई उल्लेख नहीं मिलता। सिर्फ एक गिप्य का उल्लेख्य उपलब्ध हुआ है, जिनका नाम इन्द्रनन्दी है, जिन्होंने शक राबत् ११८० (वि० सं०१३१५) में हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्र पर संस्कृत टीका लिखी है। इसी परम्परा में उदय चन्द्र, बालचन्द्र और विनय. चन्द्र मुनि हुए हैं।
समय
कवि अमरकीर्ति का समय विक्रम को १३ वीं शताब्दी है। क्योंकि कवि ने अपने णेमणाहचरिउ को सं० १२४४ में भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी को समाप्त किया है और छक्कम्मोवास' (पटकर्मोपदेश) वि० सं०१२४७ बीतने पर भाद्रपद शुक्ला १४ गमवार के दिन आलस को दूर कर एक महीने में बनाकर समाप्त किया है। पदकर्मोपदेश की रचना गजरात देश के महीयड प्रदेश के गोध्रा नगर के आदिनाथ मन्दिर में बैठकर की है। उस समय गुजरात में चालुक्य अथवा सोलंकी वश के कण्ह या कृष्णनरेन्द्र का राज्य था, जिसको राजधानी अनहि लवाड़ा थी। जो वंदिग्गदेव का पुत्र था । परन्तु इतिहास में वदिग्गदेव और उनके पुत्र कृष्णनरेन्द्र का का उल्लेख देखने में नही आया। उस समय अनहिलवाड़े के सिंहासन पर भीम द्वितीय का राज्य शासन था। इनके बाद बघेलवश को शाखा ने अपना राज्य प्रतिष्ठिन किया है। इनका राज्य सं० १२२६ से १२३६ तक बतलाया जाता है। सवत् १२२० से १२३६ तक कुमारपाल, अजयपाल और मूलराज द्वितीय वहां के शासक रहे हैं। भीम द्वितीय के शासन समय से
लूक्य वंश की एक गाखा महीकांठा प्रदेश में प्रतिष्ठित हो गई, जिसकी राजधानी गोध्रा थी। इस सम्बन्ध १. अनेकान्त वर्ष २० कि०३ पृ० १०७ २. जैन ग्रन्थ प्रशरित संग्रह भा०२ पृ० ५६ ३. नाहं रज्जि दट्ट'नए विक्कमकालिगए, बारहमयच उ आलए मुक्व,
जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा० २ पृ० ५६ ४. वारह सयहं समत्त चयालिहि, विक्कम संवच्छर हु विशालहिं । गहिमि भट्ट वयह पक्खंतरि, गुरुवारम्मि चउहिमि वासरि । इक्के मासे इहु मम्मत्तिउ सई लिहियउ आलसु अवहत्थिउ ।
-जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा०२ पृ० १३ ।
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवी और चौदहवी शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कषि
३८५
में अभी अन्वेपण करने की आवश्यकता है जिसमे यह ज्ञात हो सके कि इस वश की प्रतिष्ठा कब हुई , और राज्य शासन कब तक चला। रचनाएं
कवि ने अपनी निम्न रचनाओं का उल्लेख किया है, जो मं० १२४७ तक रचो जा चुको थों-(१) णेमिणाहरिउ, (२) महाव: चरिउ (३) जसहरचरिउ, (४) धर्मचरित टिप्पण, (५) सुभाषितरत्न निधि, (६) धर्मोपदेश, (७) भाणपईव (ध्यानप्रदीप), (0) पट कर्मोपदेश, और (8) पुरदरविधान कथा।
इनमें केवल तीन रचनाएं ही उपलब्ध है।
इन रचनाओं में 'पृग्दर विहण कहा' 'छक्कम्मोवाएस' को दरावी मंधि में गमाविष्ट है। इसके माथ ही वहाँ देव पूजा का विस्तृत कथन समाप्त होता है। इसमे पुग्दर व्रत का विधान बनलाया गया है। यह व्रत किसी भी महीने के शुक्ल पक्ष में किया जा सकता है । शक्ल पक्ष की प्रतिपदा मे अप्टनी तक प्रापधोगबाम करना चाहिए। जिन पूजन और उद्यापन विधि का भी वर्णन है। कवि ने इसे अम्ब प्रमाद के निमित्त बनाया
णेमिणाहचरिउ
इस ग्रन्थ में २५ मन्धिया है जिनकी इन्दोव गाया छह रजार पाठ मा पच्चाणवे है। इसमें जैनियों के बाईसवं तीथकर भगवान मिनाथ की जीवनगाथा ग्रा तामण के चचेरे भाई थ । इस ग्रन्थ को कवि ने सवत् १०४८ -द्रपद वला चतुर्दगा का ममाप्त किया था। परन ग. १५१२ लिखा हई है, जो सानागिरि के भट्टारकीय शास्त्रभडार में मुगक्षत है। छक्कम्मोवएस
प्रस्तूत पटकर्मोपदेवा में१८ मन्धियां पोर : १५ कडवा से, जिनकी लोकगख्या २०५० के प्रमाण को लिए हए है । इस ग्रन्थ का कवि ने अम्बाप्रमाद के निमित्त ग बनाया है। प्रमर नि नेम ग्रन्थ में गहस्थो के पट कर्मो कादवपूजा, गुरुगेवा, स्वाध्याय । गाग्वाभ्याग) गयम (इप दमन) नार पट काय जाव रक्षा, इच्छा निरोध रूप तप,
और दान रूप पटक वा-वथन किया है । दुसर। गहवी मन्भिनक नाजा सविस्तन कथन किया गया है। जल, चन्दन, प्रक्षन, पाप, न घ, दाप, धप, फल प्रार अघ, इस गाट द्रा प्रकारा पूजा, उसका फल, अनेक नूतन वथा रूप दण्टालों के द्वाग उगम पार ग्राह्य बना दिया है। दावा गन्ध में जिन पूजा विधि की कथा और उद्यापन की विधि मन की गई है।
ग्यारहवी मधि म दमर तीसरे गहस्थ कर्म-गुरु पामना ग्रोर स्वाध्याय का सून्दर उपदेश दिया है। स्वाध्याय कं वाचना, पच्छना, अनप्रक्षा, आम्नाय आर धमपिदेश आदि का मा कथन नदिष्ट है । गुरु का स्वरूप बतलाते हए कहा है कि मन की गका का निवारण करने वाला, शालवान, शुद्ध निष्ठावान, चारित्र भूपण, दूषणों का त्यागी हो उत्कृष्ट गुम है। इन्द्रिय-विषय-विकारी गुरु राछिद्र नाका क ममान बतलाया है। अतएव विकी, विद्वान, संयमी विषय-व्यापार से रहित पूरुप को ही गुरु बनाना श्रयस्कर है।
१२ वो सधि में मयम का उपदेश है। संयम के दा भेद ? --एन्द्रियमयम अोर प्राणिमयम । पहले इन्द्रिय संयम है। इन्द्रियों का प्रसयम अापत्ति का कारण है। जव एक एक इन्द्रिय के विषय प्राणघातक तब पाची ही इन्द्रियों के विपय किस अनर्थ को उत्पन्न नही करते । अतएव इन्द्रिय-विपया का त्याग ज़रूरी है। मन द्वारा ही इन्द्रियां विषयो में प्रवति होती है। यदि मन वा में हो जाय, उसे विजित कर लिया जाय तो फिर इंद्रियाँ अपने विपयों में व्यापार नही कर सकती। अतः मन का जोतना जरूरी है। पट्काय के जीवों की रक्षा प्राणि संयम है। इसका पालन करना आवश्यक है।
४. See History of Gujrat in Bombay.Gazetecr rol. I
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ १३ वीं संधि में भी संयम का उपदेश दिया गया है । मौर गृहस्थों के पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का कथन करते हुए रात्रि भोजन त्याग पर जोर दिया है। और अन्त में समाधिमरण का उपदेश है। उसके साथ ही सन्धि समाप्त हो जाती है।
अन्तिम १४ वी सन्धि में दान और तप कर्म का उपदेश दिया गया है। दान की महत्ता का भी कथन किया है और उसका फल भोगभूमि का मुख बतलाया है। दान को दुर्मति नाशक और सब कल्याणों का कर्ता बतलाया है। उत्कृष्ट पात्र दान का फल उत्कृष्ट कहा है। ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है, उसका प्रकाशन होना चाहिए।
श्री चन्द्रकीति यह काप्ठा मंघान्तर्गत माथुरसंघ के विद्वान श्रीषेणसूरि के दीक्षित शिष्य थे। जो तपरूपी लक्ष्मी के निवास और अर्थिजन समूह की आशा को पूरी करने वाले, तथा परवादिरूपी हाथियों के लिए मृगेन्द्र थे। इनके शिष्य अमरकीति थे। जिनकी दो रचनाएँ नेमिपुराण (१२४४) और पट्कर्मोपदेश (१२४७) उपलब्ध हैं। श्रीचन्द्रकीर्ति का समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है । अर्थात् वे सं० १२२० से १२३५ के विद्वान होने चाहिए।
कवि अग्गल अग्गल मूलमंध, देशीयगण पुस्तक गच्छ और कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान श्रुतकीर्ति विद्यदेव का शिष्य था। इसके पिता का नाम शान्तीश और माता का नाम पोचाम्बिका था। कवि का जन्म इगलेश्वर नाम के ग्राम में हआ था। यह संभवतः किसी राज परिवार का प्रसिद्ध कवि था। जैन जैन मनोहर चरित, कवि कुल कलभ-बातय थाधिनाथ, काव्य-कर्णधार, भारती-बालनेत्र, साहित्यविद्याविनोद, जिन समयसार केलि मराल और सुललित कविता नर्तकी नृत्य-रंग आदि इनके विरूद थे।
इस कवि की एकमात्र कृति चन्द्रप्रभ पूराण है, जिसमें पाठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ का जीवन परिचय अंकित किया गया है । मद्रास लायब्रेरी में विलगी नाम के स्थान का शिलालेख है । उससे ज्ञात होता है कि इसने उक्त ग्रन्थ अपने गुरु श्रुतकीति त्रैविद्य की प्राज्ञा मे बनाया था। ग्रन्थ में १६ पाश्वास हैं। ग्रन्थ की भाषा प्रौढ़ और - संस्कृत बहल है। ग्रन्थ के प्रत्येक प्राश्वास के अन्त में निम्न पूष्पिका वाक्य पाये जाते हैं-'इति परमपरुष नाथकृत भभत्समद्धत प्रवचनसरित्सरिन्नाथ-श्रतकोति विद्य चक्रवर्ती पदपद्मविधान दीपर्वात श्रीमदग्गलदेव विरचिते चन्द्रप्रभ चरिते-दिया है । ग्रन्थ की रचना शक सं० १०११ (वि० सं० ११४६) सन् १०८६ में की गई है । अतः कवि का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है।
कवि श्रीधर कवि विबुध श्रीधर ने अपनी रचना में अपना कोई परिचय और गुरु परम्परा का उल्लेख नही किया। किन्तु इतनी मात्र सूचना दी है कि बलडइ ग्राम के जिन मन्दिर में पोमसेण (पद्ममेन) नाम के मूनि अनेक शास्त्रों का व्याख्यान करते थे।
कवि का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी का प्रारम्भ है।
प्रन्थ रचना
___ कवि की रचना 'सुकमाल चरिउ' है, जिसमें छह सन्धियां और २२४ कडवक हैं, जिनमें सुकुमाल स्वामी का जीवन-परिचय दिया हुआ है। सुकूमाल स्वामी का जीवन अत्यन्त पावन रहा है। इसी से सस्कृत अपभ्रश पौर हिन्दी भाषा में लिखे गए अनेक ग्रन्थ मिलते हैं। प्रस्तुत चरित में कवि ने सुकुमाल के पूर्व जन्म का वृत्तान्त
१. पुणु दिक्विउ तहो तवसिरि-रिणवासु, अत्थियण-संघ-बुहपूरियासु । परवाइ-कुंभि-दारण-मइंदु, मिरिचन्दकित्ति जायउ मुरिणदु। -षट् कर्मोपदेश प्रशस्ति
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के प्राचार्य, विद्वान और कवि
३८७
देते हए लिखा है कि वे पहले जन्म में कौशाम्बी के राजा के राजमंत्री के पुत्र थे और उनका नाम वायुभूति था। उन्होंने रोष में आकर अपनी भाभी के मुख में लात मारी थी, जिसमे कुपित हो उसने निदान किया था कि मैं तेरी इस टाग को खाऊंगी। अनन्तर अनेक पर्याय धारण कर जैनधर्म के प्रभाव से वे उज्जैनी में सेठ पुत्र हए वे बाल्य अवस्था में ही अत्यन्त सुकुमार थे, अतएव उनका नाम मुकुमाल रक्खा गया । पिता पुत्र का मुख देखते ही दीक्षित हो गया और प्रात्म-साधना में लग गया । माता ने बड़े यत्न से पुत्र का लालन-पालन किया और उसे सुन्दर महलों में रखकर सांसारिक भोगोपभोगों में अनुरक्त किया। उसकी ३२ सुन्दर स्त्रिया थी। जब उसकी प्राय अल्प रह गई, तब उसके मामा ने, जो माध थे, महल के पीछे जिनमन्दिर में चातुर्मास किया, अोर अन्त में स्तोत्र पाठ को सुनते ही सृकुमाल का मन देह-भोगादि मे विरक्त हो गया। वह एक रस्मो के सहारे महल में नीचे उतरा और जिन मंदिर में जाकर मुनिराज का नमस्कार कर प्रार्थना को कि हे भगवन् ! आत्मकल्याण का मार्ग वताइये। उन्होंने कहा- तेरी पाय तीन दिन की शेप रह गई है। अत: शीघ्र ही प्रान्म-माधना में तत्पर हो । मूकुमाल ने जिन दीक्षा लेकर और प्रायोपगमन सन्यास लकर कठोर तपश्चरण किया। वे शरीर में जितने सुकोमल थे, उपसर्ग-परिषहों के जीतने में वे उतने ही कठोर थे । वे वन में समाधिस्थ थे, तभी एक श्यालनो ने अपने बच्चे सहित आकर उनके दाहिने पैर को खाना शुरु किया और बच्चे ने बाएं पैर को उन्होने उस अमित कष्ट को शान्ति मे बारह भावनामों का चिन्तवन करते हुए सहन किया और सर्वार्थ सिद्धि में देव हुए। ग्रन्थ का चरित भाग बड़ा हो मुन्दर है।
ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक
__ कवि ने इस चरित की रचना साहु पीथे के पुत्र कुमार के अनुरोध से की है। प्रशस्त में उनका परिचय निम्न प्रकार दिया है :
बलड इ ग्राम के निवासी पुरवाड वशी साहु 'जग्गण' थे । उनकी भार्या का नाम 'गल्हा' देवी था। उससे आठ पुत्र उत्पन्न हुए थे। साहु पीथे, महेन्द्र, मणहर, जल्हण, सलकवणु, सपुण्णु, समुदपाल, और नयपाल । इनमें ज्येष्ठ पुत्र साह पीथे की पत्नी सुलक्षणा के पुत्र कुमार थ । कुमार के भी कई पुत्र थे। कुमार जैनधर्म का पाराधक था, देह-भोगी से विरक्त था, उसे दान देने का ही एक व्यसन था, विजयी, और जितेन्द्रिय था' । कवि ने सन्धियों के प्रारंभ में संस्कृत पद्यों मे कमार की मंगल कामना की है। ग्रन्थ चकि कमार की प्रेरणा से बनाया है अतएव उन्हीं के नामांकित किया है। जैसा कि उसके निम्न पूप्पिका वाक्य में प्रकट है:
इय मिरिकमालसामि मणोहरचरिए सुन्दर यरगुणरयण-णियरस भरि विवध सिरि मुकइ सिरिहर विरइए माह पोथे पुत्र कुमार णामकिए अग्गिभूइ-वाउभूइ सुमित्त मेलाववणणो णाम पढमो परिच्छनी समत्ती ।।१।।
कवि ने इस ग्रन्थ की रचना बलडइ (अहमदावाद) के राजा गोविन्दचन्द्र के राज्य में वि० स० १२०८ अगहन कृष्णा ततीया सोमवार के दिन समाप्त की है। पर इतिहास में अभी यह पता नहीं चला कि ये गोबिन्द राज कौन है और इनका राज्य कब से कब तक रहा है।
मुनि विनयचन्द्र प्रस्तुत मुनि विनयचन्द्र माथुरसंघ के विद्वान बालचन्द्र मुनि के दीक्षित शिष्य थे। इनके विद्यागुरु उदयचन्द्र थे, जो पहले गहस्थ थे और उनकी पत्नी का नाम देमति (देवमनी) था। उन्होंने उस अवस्था में 'मुगंध दशमी'
१ भक्तिर्यस्य जिनेन्द्रपादयुगले धर्मे मतिः सर्वदा। बैगग्यं भव-भोगबन्धविषये वांछा जिनेशागमे । सद्दाने व्यसने गुरी बियिता प्रीतिबुधाः विद्यते । स श्रीमान् जयताज्जितेन्द्रिय रिपुः श्रीमत्कुमाराभिधः ।।
-सुकुमाल चरिउ ३--१ २. देखो, जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भाग २ पृ० ११
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८५
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कथा का निर्माण किया था। पर कुछ समय बाद वे मुनि हो गए थे। वे मथुरा के पास यमुना नदी के तट पर बसे हा महावन में रहते थे। मूनि विनयचन्द्र भी वहा के जिन भवन में रहते थ। मूनि विनयचन्द्र ने महावन नगर
न्दिर म 'नरग उतारा राम का रचना का था। उसे स्वग बतलाया है जिसग वह अत्यन्त सुन्दर होगा। जैसा कि उसके निम्न पद्य मे प्रकट है :
अमिय सरीसउ जवरण जलु, णयरु महावण सग्गु ।
हि जिण भवणि वसंतइण, विरइउ रासु समग्गु ॥ मनि विनयचन्द्र अच्छे विद्वान पार वि थे। उनकी एक रचना का स्थल उक्त महावन था पोर दूसरी दो रचनायो का-णिज्झरपचमी कहा (गम) पार चनडी गस का-रचना स्थल तिहवण गिरि की तलहटी, ओर अजयपाल नरेन्द्र का विहार था।
__ कवि की इस समय पाच रचनाए उपलब्ध है। णिज्झर पचमी कहा (राम) नरग उतारी गस, चूनडी रास, कल्याणक रास और निर्दु ग्ख सप्तमी क्था।
रिपज्झरपचमी कहारास-दस गम मे कवि ने निर्भरपचमी व्रत का स्वरूप और उसके पालन का निर्देश किया है और बतलाया है कि अपाढ शुक्ला पचमा दिन जागरण करे, पार उपवास कर, तथा कार्तिक के महीने मे उसका उद्यापन करे । अथवा श्रावण माम म प्रारम्भ करक अगहन महीन में उद्यापन करे । उद्यापन मे छत्र चामरादि पाच-पाच वस्तुएँ मन्दिर जी में प्रदान कर। यदि उद्यापन की शक्ति न हा तो व्रत दुगुने दिन करे, जैसा कि उसके निम्न पद्य मे प्रकट है :
धवल पक्खि प्रासादांह पचमि जागरण, सह उपवासइ विज्जइ कातिक उज्जवणू । अह सावण पार भय पुज्जइ पागहणे,
इय मइ णिज्झर पचमि अक्खिय भय हरणे ॥ कवि ने इस राम की रचना तिहयणगिरि की तलहटी मे बनाकर समाप्त की हे यथा
तिहयण गिरि हट्टी इह रासह रयउ।।
माथुरसंघह मुणिवर विणयदि कहिउ ॥ दूसरी रचना 'नरग उतारी राम' है जिसे कवि ने यमुना नदी के किनारे बसे हा महावन (नगर) के जिनमन्दिर मे रहते हुए की थी।
तीसरी रचना 'चूनड़ी रास' है । इस राम म ३२ पद्य है। जिसम चनडा नामक उत्तरीय वस्त्र को रूपक बनाकर एक गीति काव्य के रूप में रचना की गई है। कोई मुग्धा युवती हमती हुई अपने पति म कहती है कि भग जिन मन्दिर जाइये और मेरे ऊपर दया करते हुए एक अनुपम चनडा शीघ्र छपवा दीजिए, जिसम म जिनशासन म विचक्षण हो जाऊ । वह यह भी कहती है कि माप वैसी चूनडी छपवा कर नही दगे, ता वह छपा मुझ तानाकशा करेगा। पति पत्नी की बात सुनकर कहता हे कि हे मुग्धे । वह छीपा मुझे जेनसिद्धान्त के रहस्य से परिपूर्ण एक सुन्दर चूनड़ी छापकर देने को कहता है ।।
"चूनड़ी उत्तरीय वस्त्र है, जिसे राजस्थान की महिलाएँ विशेष रूप से प्रोढती थी। कवि ने भी इसे रूपक बतलाते हुए चुनड़ी रास का निर्माण किया है। जो वस्तु तत्त्व के विविध वाग्-भूपण रूप प्राभूषणा मे भूपित है,
और जिसके अध्ययन से जैन सिद्धान्त के मार्मिक रहस्यो का उद्घाटन होता है । वैसे ही वह शरीर का अलकृत करती हई शरीर की अद्वितीय शोभा को बनाती है। उससे शरीर को अलकृत करती हुई वालाएं लोक म प्रतिष्ठा को प्राप्त होगी और अपने कण्ठ को भूषित करने के साथ-साथ भेद-विज्ञान को प्राप्त करने में समर्थ हो सकेगी। रचना सरस और चित्ताकर्षक है । इस पर कवि की एक विस्तृत स्वोपज्ञ टीका भी उपलब्ध है, जिमम चूनड़ो गस मे दिए सैद्धान्तिक शब्दो के रहस्य को उद्घाटित किया गया है । ऐसी सुन्दर रचना को स्वोपज्ञ सस्कृत टीका के साथ प्रकाशित करना चाहिए।
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवों और चौदहवी शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
३८९
कवि ने इस रास रचना को 'त्रिभुवनगढ़' में 'अजय नरेन्द्र' अजयपाल गजा के बनवाए हुए विहार में बैठ कर बनाया है। उस समय यह नगर यदुवी गजाग्री की गजधानी रहा है, अत. यह तहनग इसी से कवि ने उसे 'सग्ग खडण धरियल पायउ' वाक्य द्वारा उग स्वग खण्ड क दल्य बतलाया है। कवि को इस रचना से पूर्व इनके विद्यागुरु उदयचन्द्र मुनि हो च के थे । इमी में इसकी प्रगस्ति मे 'मथ रा मघहं उदय मुणोसरु' रूप से उल्लेखित किया है।
चौथी रचना कल्याणक गमते. जिमम चोवीमतीथंकरों को गर्भ. जन्म, दाक्षा, कवल ज्ञान प्राप्ति और निर्वाण रूप पंचकल्याणक की तिथियों का निर्देश किया गया है। इस रास की म०१८८५ की लिखी हुई प्रतिलिपि उपलब्ध है, जो पं० दीपचन्द्र पाण्ड्या ककनी के पास मोजद है।
पांचवी कथा निग्य सप्तमी है। जिगे कवि ने कहां बनाया, यह उस प्रति में कोई उल्लेख नही है । उसका प्रादि मगल पद्य इस प्रकार है:
सति जिणिदह-पय-कमलु, भव-सय-कलुस-कलंक-णिवार ।
उदयचन्द्र गर धर विमरणे, बालइंदु मुणि विवि णिरंतर ।। अन्तिम प्रशस्ति उपलब्ध नहीं है।
समय
मूनि विनयचन्द ने अपनी किसी भी रचना में उनका रचना काल नहीं दिया। किन्तु दो रचना स्थलों का उल्लेग्व अवश्य किया है । एक महावन का सार द्गग तिहुवण गिरि (नहनगढ) का तलहरा तथा उगक अजयपाल नरेन्द्र के विहार का । प्रस्तुत तिहुवण गिरि महावन मे दक्षिण-पश्चिम की यार लगभग माठ माल गजस्थान के पुगन कगला राज्य और भरत पुर राज्य में पढ़ता है। अत: इनका निवाम पार विहार क्षत्र मथग जिला पार भरतपुर राज्य
गढ़ क अजयपाल नरेगा की एक प्रशस्ति महावन म सन् १०५० (वि०म० १२०७) की मिली है। । और दूसरा लेख अजयपाल के उत्तराधिकारी हरिपाल का 'उगो महावन ग सन् ११७० (व० म० १२२७) का मिला है। इससे स्पष्ट है कि विनयनन्द्र ने अपनी रचना उक्त अजयपाल नरेश ने बिहार में बैठ कर बनाई है। अत: उसका रचना काल मन् ११५० मे ११७० के मध्य रहा है। अर्थात् विनयचन्द्र मुनि विक्रम का १३वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान टहरते है। भरतपुर राज्य के अधपुर स्पान में एक मूनि प्राप्त हुई है, जिस पर सन ११९२ (वि० स० १०८६) के उन्कीर्ण लेख मे सहनपाल नरेश का उल्लेख है। महनपाल के बाद कुमारपाल तिहवण गिरि को गद्दी पर बटा था। वह वहा ३-४ वर्ष ही गज्य कर पाया था कि उम पर सन् १९९६ में अाक्रमण कर दिया गया। मुगलमानी तवारीख 'ताजूलममामिर' में लिखा है कि हिजरी गन ५७२ सन ११९६ (वि० सं०१२५३) मे मुइजुद्दीन मुहम्मद गोरी ने कुमारपाल पर हमला कर उसे पगम्न कर तिहुवण गिरि का दुग वहारुद्दीन तुरल को सौप दिया। उस समय निहवण गिरि ग तरह तहस-नहम हा गया था। वहा के सब हिन्दू पार जन परिवार इधर उधर भाग गये थे । वह वीगन हा गया था । ऐसी स्थिति में वहां रहकर रचना करने का प्रश्न ही नहो उठता विनयचन्द्र ने अपना चनड़ी रास अजयपाल नरेन्द्र के विहार में बैठकर रचा था जिसे अजयपाल ने बनवाया था। अजयपाल की सन् १०५० को प्रशस्ति का ऊपर उल्लेख किया गया है। इसम विनयचन्द्र विक्रम का तेरहवी शताब्दी के पूर्वाधं के विद्वान निश्चित होते है।
१. देवो एपिग्राफिका इडिका जि० १ १०२८६ २. एपिग्राफिका डिका खण्ड २ पृ० २७६
TUT A. Cunningham volax! ३. नहिं णिवमंते मुग्गिवरे अजयगरिदं हो राजविहारहि । वेगे विरइय नडिय, सोहहु मुगिवर जे सुयधारहि ।।
-चूनडी प्रशस्ति
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
उदयचन्द कवि उदयचन्द्र ने अपनी रचना में अपना कोई खास परिचय नही दिया, किन्तु प्रात्म-निवेदन करते हए बतलाया है कि वे अपने कूलरूपी आकाश को उद्योतित करने वाले उदयचन्द्र नामधारी गहस्थ विद्वान थे और उनकी भार्या का नाम देमति या देवमति था, जो अत्यन्त सुशीला थी । वे मथग के पास यमुना नदी के तट पर बसे हुए महावन में रहते थे । उदयचन्द्र मुनि बालचन्द्र के दीक्षित शिप्य विनयचन्द्र के विद्यागुरु थे । विनयचन्द्र भी वहाँ रहते थे। उन्होंने वहाँ के जिन मन्दिर में नरग उतारी कथा (रास) बनाया था। उसके आदि में विद्यागुरु को नमस्कार नहीं किया, क्योंकि मुनि का गृहस्थ को नमस्कार करना उचित नहीं है, इसलिये उन्होंने -उदयचंदु गुस गणहर गग्वउ, वाक्य द्वारा उनका स्मरण किया है। उन्होंने महावन को "अमिय सरोसउ जवणजलु णयरु महावन सग्ग । तहि जिण भवणि वसंत इण विरइउ रासु समग्ग ॥" उक्त वाक्य में स्वर्ग बनलाया है। इससे महावन की सुन्दरता का आभास होता है। कवि विनयचन्द्र ने अपनी उक्त कृति का रचना स्थल महावन का जिन मंदिर बत लाया है।
कवि उदयचन्द्र ने लिखा है कि शास्त्रकारों ने सुगन्ध दशमो कथा को विस्तार के साथ कहा है। किन्तु मैंने उसे मनोहर रीति में गाकर सुनाया है। जिस तरह उन्होंने जसहर (यशोधर) पोर नागकुमार चरित्रों को बाँचकर मनोहर भाषा में सुनाया था।
सुगन्ध दशमी कथा दो सन्धियों की छोटी-सी रचना है, किन्तु रचना प्रसाद गुणयुक्त है, उसकी प्रथम सन्धि में १२ और दूसरी सधि में । कडवक है। इन कडवको की रचना प्रायः पद्धड़िया और अलिल्लह छन्दों में हुई है। इसमे दशमी के व्रत पालन की महत्ता और फल बतलाया गया है। सुगंधदशमी व्रत का पालन करने से आत्मा जहा पापो से छुटकारा पाता है वहा वह उसके प्रभाव से सुगन्धित गरीर भी पाता है, जैसा कि दुर्गन्धा ने मुगन्ध दशमी का व्रत पालकर प्राप्त किया था। कथा बड़ी रोचक है । कथानक की सुन्दरता ने ग्रन्थ की महत्ता को बढ़ावा दिया है। दमी से इस कथा की रचना प्राकृत, मस्कृत, अपभ्रग ओर हिन्दी भाषा में विविध कवियों ने की है। कथा में दुर्गन्धा द्वारा जिनामिपंक करने का कवि ने उल्लेख किया है, जो आम्नाय के प्रतिकल है।
यह कथा सम्कृत भाषा के १६१ पद्यों में ब्रह्मथतमागर ने बनाई है और उमी का पद्य रूप अनुवाद कवि खशालचन्द्र ने दोहा चौपाई मे किया है, जो कई बार छप चका है। कथानक वही है जो उदयचन्द्र की कृति में दिया है।
रचना काल
कवि ने कथा में रचना का उल्लेख नही किया और न रचनास्थल का सकेन किया है। किन्तु विनयचन्द्र मुनि ने अपने रास का रचना स्थल यमुना नदी के तट पर बमा हुआ महावन का मन्दिर बतलाया है । मथुरा के आसपास अनेक वनो का उल्लेख मिलता है, उसमें महावन भी एक है । उस महावन मे यदुवगीय राजा अजयपाल को मन् ११५० (वि०सं० १२०७) की एक प्रशस्ति उपलब्ध हुई है अोर सन् ११७० (वि० सं० १२२७) का एक लेख राजा अजयपाल के उत्तराधिकारी हरीपाल के राज्य का उत्कीर्ण किया हया उसी महावन में मिला है। भरतपुर राज्य के अघपुर नामक स्थान में भी एक मूर्ति उपलब्ध हुई है, जिस पर सन् ११६२ (वि० स० १२४६) के उत्कीर्ण लेख में सहनपाल नरेश का उल्लेख है। महनपाल के बाद (कुवरपाल) कूमारपाल, तिहवण गिरी की गद्दी पर बैठा था। वह ३-४ वर्ष ही राज्य कर पाया था। मुमलमानी तबारीख 'ताजुलमनासिर' मे लिखा है कि
१. णिय कुलगह-उज्जोइय-चदइ, सज्जण-मण कय-गण्यगणाणदद ।' २. अइ सुमील-देमइयहि कतई।' ३. इय मुअदिक्वहि कहिय सवित्थर, मई गावित्ति मुणाइय मणहर
भवियण-कण्णा-मणहर-भामई, जसहर-गायकुमार हो वायइ ।। -मुगंध दशमी कथा पृ० २८ ४. देखो एपि ग्राफिका इडिका, जिल्द १ पृ० २८६ । ५. एपिग्राफिका इंडिका, खण्ड २ पृ० २७६; तथा A Cunningham VOLXX
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
३६१ हिजरी सन् ५७२ सन् ११६६ (वि० सं० १२५३ ) में मुईजुद्दीन मुहम्मद गौरी ने कुमारपाल पर आक्रमण कर उसे परास्त किया, और तिहुवनगिरी का दुर्ग वहारुद्दीन तुघरिल को सौप दिया । उस समय तिहुवन गिरि नष्ट भ्रष्ट हो गया था और वहा से हिन्दू और जैन परिवार इधर-उधर भाग गये थे। नगर वीगन हो गया था।
नि विनयचन्द्र ने णिज्झर पचमी कहारास, की रचना तिहवण गरि की तलहटी में की थी, और चनडी की रचना का स्थल अजयपाल नरेन्द्रकृत विहार को बतलाया है. चनड़ी की रचना मे पूर्व उदयचन्द्र मुनि हो गये थे । उसका उल्लेख, माथुर सहि उदय नुणीसरु, वाक्य में किया है। सुगंधदशमो कथा उनके गृहो जीवन की रचना है।
इस सब कथन से सुनिश्चित है कि मुगन्ध दशमी की कथा का रचना काल सन् १०५० (वि० सं० १२०७) है।
पण्डित महावीर यह वादिराज पण्डित धरमेन के शिष्य थे। धाग नगरी के निवासी थे । न्याय शास्त्र, व्याकरण शास्त्र और धर्मशास्त्र के विद्वान थे।
सन ११९२ (वि०सं० १२४६) में जब शहाबुद्दीन गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराकर दिल्ली और अजमेर पर अधिकार कर लिया था, तब मदाचार के विनाश के भय से आशाधर जी वहुत मे परिजनो ओर परिवार के लोगों के साथ विन्ध्यवर्मा गजा के मालवमण्डल धाग नगरो मे आ वम थ । उम समय अागाधर जी सभवतः किशोर ही होंगे । उन्होंने उक्त पण्डित महावीर से प्रमाण शास्त्र और व्याकरण का अध्ययन किया था। इससे इनका समय विक्रम की तेरहवी शताब्दी का मध्य काल है।
कवि लाखु या लक्ष्मण कवि लक्ष्मण का कुल यादव या जायम है। जो प्रसिद्ध यदुवंश का विकृत रूप है। यह प्रसिद्ध क्षत्रिय कल है । कवि के प्रपिता का नाम कोमवाल था, जिनका यश दिक चक्र में व्याप्त था। उनके मात पुत्र थे-अहण, गाहल. साहल, सोहण, मइल्ल, रतन और मदन । ये मातों ही पुत्र कामदेव के समान गुन्दर रूप वाले और महामति थे। इन में प्रस्तुत कवि के पिता माहल धोठी थे। ये मातों भाई और कवि लक्ष्मण अपने परिवार के साथ पहले त्रिभवनगिरि या तहनगढ़ के निवासी थे। उस समय त्रिभवनगिरि जन-धन ग ममद्ध तथा वभव से युक्त था । परन्तु कुछ समय बाद त्रिभुवनगिरि की समृद्धि विनष्ट हो गई थो-उमे म्लेच्छाधिप मुइजुद्दीन मुहम्मद गारो ने बल पूर्वक घरा
१. तिहुयगणगिरि नलहट्टी रह गगउ रइउ,-माथरसंघहं मुगिवर विगायचदि कहिउ । २. तिहयणगिरि जगि विकावायउ, मग्गखंडणं धग्यलि आयउ ।
तहि णिवमते मुनिवरे अजयगगरिदहों गजविहारहि ।। वेगे विरइय चूनडिय सोहहु मुगिण वर जे सुयधारहि ।।
चूनड़ी प्रशस्ति ३. म्लेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्ते सृवत्त क्षति
त्रासाद्विन्ध्य नरेण्दो परिमलम्फूर्जत्रिवर्गोमि । प्राप्तो मालव मण्डले बहु परीवार: पुरीमावसन, । यो धागमपठज्जिनप्रमितिवाक्शास्त्र महावीरतः ।।५।।
अनगारधर्मामृत प्रशस्ति ४. यदुकुल प्रसिद्ध क्षत्रिय कुल है। यदुकुल ही यादव और बिगड़कर जायव या जायस बन गया है। इस कुल का राज्य
शूरसेन देश में था। शौरीपुर, मथुरा और भरतपुर में यदुवंशियों का राज्य रहा है। श्रीकृष्ण और नेमिनाथ तीर्थकर का जन्म इसी कुल मे हुआ था । यह क्षत्रिय वंश वर्तमान में वैश्य कुल में परिवर्तित हो गया है।
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
डालकर नष्ट-भ्रष्ट कर प्रात्ममात कर लिया था । अतः कविवर लक्ष्मण त्रिभूवनगिरि से भाग कर यत्र-तत्र भ्रमण करते हा विलरामपुर में आये । यह नगर प्राज भी इसी नाम से जिला एटा में वसा हुया है। उस समय वहां बिलरामपुर में सेठ विल्हण के पोत्र और जिनधर के पुत्र श्रीधर निवास करते थे। इन्होंने कविवर को मकान आदि की सविधा प्रदान की। यह कविवर के परम मित्र बन गए । साह विल्हण का वर पूरवाड़ था और श्रीधर उस वंश रूपी कमलों को विकसित करने वाले सूर्य थे। इस तरह कवि उनके प्रेम और सहयोग में वहां मुखपूर्वक रहने लगे। कवि को इस समय दो रचनाएं उपलब्ध है, जिनदत्त चरित, और अणुव्रत रत्न प्रदीप । जिनदत्त चरित
जिनदत्त चरित्र में ११ सन्धियां है जिनके श्लोकों की संख्या चार हजार के लगभग है। प्रस्तुत ग्रन्थ में जीवदेव और जीवंयगा श्रेष्ठी के सपत्र जिनदत्त का चरित्र अंकित है। कवि की यह रचना एक सुन्दर काव्य है। इम में प्रादर्श प्रेम को व्यक्त किया गया है। कवि काव्य शास्त्र में निष्णात विद्वान् था। ग्रन्थ का यमकालकार यूक्त प्रादि मंगल पद्य कवि के पाण्डित्य का सूचक है।
सप्पय सर कलहंस हो, हिय कलहंस हो, कलहंस हो सेयंसवहा ।
भणमि भवण कलहंस हो, णविवि जिण हो जिणयत्त कहा ॥ अर्थात-मोक्षरूपी मगेवर के मनोज्ञ हम, कलह के अंदा को हरने वाले, करि शावक (हाथी के बच्चे) केसम न उन्नत काध और भवन में मनोज्ञ म, ग्रादित्य के ममान जिनदेव की वन्दना कर जिनदत्त की कथा
कहता हूं।
ग्रन्थकर्ता ने इग ग्रन्थ में विविध छन्दों का उपयोग किया है। ग्रन्थ की पहली चार सन्धियों में कवि ने मात्रिक और वर्णवृत्त दोनों प्रकार के निम्न छन्दों का प्रयोग किया है --विलामिणी, मदनावतार, चिनंगया, मोत्ति यदाम, पिगल, विचित्तमणोहग. प्रारणाल, वस्तु, खड़य, जंभेट्रिया, भजगप्पयाउ, मामगजी, मग्गिणी, पमाणिया, पोमणी, चच्चर, न चामर, च, विभागणिया, ग्मणीलता, ममा गया, चित्तया, भमरपय, मोणय, और ललिता शादि । इन छन्दों के अवलंकन में यह स्पष्ट पता चलता है कि अपभ्रग कवि छन्द विपज होते थे।
कवि ने टममें काव्योचित अनुप्राम अलंकार और प्राकृतिक सौन्दर्य का गमावेश किया है। किन्तु भौगोलिक वर्णन की विपना ग्रार शब्द योजना सुन्दर तथा श्रृति-मुखद है । इन सबमे रचना थ निमुखद और हृदय हारिणी बन गई है। रन्थ मे अनेक अलंकृत काव्यमय कथन दिये है. जिममे काव्य मरम पार कवि के शब्द योजना चातुर्य में भापा भी मरम और सरल हो गई है।
कवि ने ग्रन्थ में अपने में पूर्ववर्ती अनेक जैन-जनेतर कवियों का आदरपूर्वक उल्लेख किया है-अकलंक, १. विजयपाल के उत्त गधिवागे त्रिभुवनपाल (तिहनपाल ) ने बयाना मे १८ मीन और वगैली से उत्तर पूर्व २४ मील
की दूरी पर नहनगढ़ का किला बनवाया। इमे त्रिनुवगिरि के नाम से उल्लेग्विन किया जाता था। त्रिभुवनपाल के पिना विजयपाल वा उल्लेख श्रीपथ (बयाना) के मन् १.४४ के उत्कीर्ण लेख में पाया जाता है। इस वंश के अजयपाल नामक राजा की एक प्रशरित महावन से मिली है। जिसके अनुसार मन् ११५० ई० में उमका राज्य वर्तमान था। इसके उत्तराधिकारी हरिपाल का भी सन् ११७० का उत्कीर्ण लेय महावन से मिला है। भरतपुर राज्य के अघपुर नामक स्थान गे एक मूर्ति मिली है जिसके मन् ११३२ के उत्कीर्ण लेख में सहनपाल नरेश का उल्लेख है। इनके उनगधिकारी कुमारपाल थे। जिनका उल्लेख मुमलमानी तवारीख 'ताजुल मनासिर' में मिलता है। जिसमें कहा गया है कि हिजरी सन् ५७२ सन् ११६६ ई० में मुदजुद्दीन मुहम्मद गोरी ने तहनगढ़ पर आक्रमण कर वहाँ के राजा कवर पाल को पगरन किया और वह दुर्ग बहाउद्दीन तुघरिल या तुमरीन को मीप दिया । कुमारपाल वहाँ सं० १२४६ मन् ११९२ के अामपास गद्दी पर बैठा था। वह वहां ३-४ वर्ष ही राज्य कर पाया था जब गोरी ने तहनगढ़ पर अधिकार किया, तब वहाँ के सब हिन्दु परिवार नगर छोडकर यत्र-तत्र भाग गये। उनके साथ जैनी लोग भी भाग गये । लाख या लक्ष्मण कवि का परिवार भी वहां से भागकर बिलराम (एटा) पहुंचा था।
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
चतुर्मुख, कालिदास श्रीहर्प, व्यास, द्रोण, बाण, ईशान, पुष्पदन्त, स्वयंभू, और वाल्मीकि' ।
ग्रन्थ रचना में प्रेरक श्रीधर का ऊपर उल्लेख किया गया है। एक दिन अवसर पाकर सेठ श्रीधर ने लक्ष्मण से कहा कि हे कविवर ! तुम जिनदत्तचरित की रचना करो। तब कवि लक्ष्मण ने श्रीधर श्रेष्ठी की प्रेरणा एव अनुरोध से जिनदत्त चरित की रचना वि० सं० १२७५ के पूसवदी षष्ठी रविवार के दिन समाप्त की है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है:
" बारहसय सत्तरयं पंचोत्तरयं धिक्कमका लिषि इत्तउ ।
पढम पक्खि रविवार छट्टि सहारइ पूसमासे सम्मति ॥ १- अन्तिम प्रशस्ति
चरित सार
प्रस्तुत ग्रन्थ में मगधराज्यान्तर्गत वसन्तपुर नगर के राजा शशिशेखर और उसकी रानी नयना सुन्दरी के कथन के अनन्तर उस नगर के श्रेष्ठी जीवदेव और जीवयंशा के पुत्र जिनदत्त का चरित्र अंकित किया गया है । वह क्रमशः बाल्यावस्था मे युवावस्था को प्राप्त कर अपने रूप-सौंदर्य मे युवति-जनों के मनको मुग्ध करता है— श्रौर अंग देश में स्थित चम्पानगर के मेठ की सुन्दर कन्या विमलमती से उसका विवाह हो जाता है। विवाह के पश्चात् दोनों बसंतपुर ाकर मुख से रहते है ।
३६३
जिनदत्त जुआरियों के चंगुल में फसकर ग्यारह करोड़ रुपया हार गया। इसमे उसे बड़ा पश्चाताप हुआ । उसने अपनी धर्म पत्नी की हीरा माणिक आदि जवाहरातो से प्रति कंचुली को नौ करोड़ रुपये में जुमारियों को बेच दिया | जिनदत्त ने धन कमाने का बहाना वना कर माता-पिता से चम्पापुर जाने की आज्ञा ले लो । ओर कुछ दिन बाद धर्म पत्नी को अकेली छोड़ जिनदत्त दशपुर ( मन्दसौर) या गया । वहा उसकी सागरदत्त से भेंट हुई सागरदत्त उसी समय व्यापार के लिए विदेश जाने वाला था, अवसर देख जिनदत्त भी उसके साथ हो गया, और वह सिंहल द्वीप पहुच गया। वहा के राजा की पुत्री श्रीमती का विवाह भी उसके साथ हो गया । जिनदत्त ने उसे जैन धर्म का उपदेश दिया। जिनदत्त प्रचुर धनादि सम्पत्ति को साथ लेकर स्वदेश लाटता है, परन्तु सागरदत्त ईर्षा के कारण उसे धोखे से समुद्र में गिरा देता है प्रोर स्वयं उसकी पत्नी में राग करना चाहता है । परन्तु वह अपने शील में सुदृढ़ रहती है । व चम्पा नगरी पहुंचते है और श्रीमती चम्पा के 'जिनचैत्य' में पहुंचती है। इधर जिनदत्त भी भाग्यवश वच जाता है और वह मणिद्वीप में पहुंचकर वहा के राजा अशोक की राजकुमारी शृंगारमती से विवाह करता है । और कुछ दिन बाद सपरिवार चम्पा श्रा जाता है। वहां उसे श्रीमती र विमलमतो दोनों मिल जाती है । वहा से वह सपरिवार वसन्तपुर पहुँचकर माता-पिता से मिलता है। वे उसे देखकर बहुत हर्षित होते है । इस तरह जिनदत्त अपना काल सुख पूर्वक व्यतीत करता है । अन्त में मुनि होकर तपश्चरण द्वारा कर्म, बंधन का विनाशकर पूर्ण स्वाधीन हो जाता है ।
वय रयण पव (अणुव्रत रत्नप्रदीप)
कवि की दूसरी कृति अणुव्रतरन्न प्रदीप है जिसमें ८ सन्धिया र २०६ पद्धडिया छन्द हैं । जिनकी श्लोक संख्या ३४०० के लगभग है । ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन के विवेचन के साथ श्रावक के द्वादश व्रतों का कथन किया गया है | श्रावक धर्म की सरल विधि और उसके परिपालन का परिणाम भी बतलाया गया है। ग्रन्थ की रचना सरस है । कवि ने इस ग्रन्थ को 8 महीनों में बनाकर समाप्त किया है ।
१. णिक्कलंकु अकलकु चउम्मुह हो, कालियासु सिरि हरिसुकइ सुहो । ar बिलासु कइया असरिसो, दोण बाणु ईसारण सहरिसो फुप्फयतु सुसंयंभुभल्लओ, बालमीउ सम्मई रसिल्लओ ।
- जिनदत्त चरित प्रशस्ति
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
- भाग २
कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना रायवद्दिय नगर में निवास करते हुए की थी। वहां उस समय चौहान वंश के राजा ग्राहवमल्ल राज्य करते थे। उनकी पट्टरानी का नाम ईमरिदे था, आहवमल्ल ने तात्कालिक मुसलमान शासकों से लोहा लिया था ओर उसमें विजय प्राप्त की था । किसी हम्मीरवार ने उनका सहायता भी की थो।
कवि के आश्रयदाता कण्डका वश लम्बकचुक या लमेचू था । इसवरा में 'हल्लण नामक श्रावक नगर श्रेष्ठी हु, जो लोक प्रिय और राजप्रिय थे । उनके पुत्र अमृत या श्रमयपाल थे, जो राजा अभयपाल के प्रधानमन्त्री थे। उन्होंने एक विशाल जिनमंदिर बनवाया था और उसका शिखरपर सुवर्ण कलश चढाया था। उनके पुत्र साहू सोढ़ थे, जो जाड नरेन्द्र और उनके पश्चात् श्रीवल्लाल के मंत्री बने । इनके दो पुत्र थे रत्नपाल और कण्हड । इन की माता का नाम 'महादे' था । रत्नपाल स्वतंत्र और निरर्गल प्रकृित के थे। किन्तु उनका पुत्र शिवदेव कला बोर विद्या में कुशल था, जो अपने पिता की मृत्यु के बाद नगर मेठ के पद पर ग्रारूढ़ हुआ था । और राजा ग्राहवमल्लने अपने हाथ से उसका तिलक किया था । कण्हड ( कृष्णादित्य) उक्त राजा ग्राह मल्ल के प्रधानमंत्री थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम 'सुलक्षणा' था। वह बड़ा उदार, धर्मात्मा, पतिभक्ता आर रूपवती थी। इनके दो पुत्र हुए । हरिदेव और द्विजराज । इन्ही कण्हकी प्रार्थना से कवि ने इस ग्रन्थ को वि० सं० १३१३ काति कृष्णा ७ सप्तमी गुरुवार के दिन पुष्प नक्षत्र और साहिज्ज योग में समाप्त किया था जैसा कि उनके निम्न वाक्य में प्रकट है
--
तेरहस्य तेरह उतराल परिगलिय विक्कमाइच्चकाल । संवेय रहइ सव्वहं समक्ख, कत्तिय मासम्मि सेय-पक्ख । सतमिणि गुरुवारे समोए, प्रट्ठमि रिक्खे साहिज्ज-जोए । नवमास रयते पायत्थु सम्मत्तउ कम कम एहु सत्थु || - ( जन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा०२ पृ० ३२ )
कविदामोदर
कविदामोदर का जन्म मेडेत्तम वश मे हुआ था। उनके पिता का नाम कवि माल्हण था जिसने दल्ह का चरित बनाया था । कवि के ज्येष्ठ भ्राता का नाम जिनदेव था । कवि गुर्जर देश से चलकर मालवदेश में आया था और वहां के मलखणपुर को देखकर सन्तुष्ट हुआ। उसने वीर जिनके चरणों को नमस्कार किया और स्तुति की। सलखणपुर उस समय एक जन-धन सम्पन्न नगर था, और परमारवशी नरेश देवपाल वहा का शासक था । इसी सलखणपुर में प० ग्राणाधरजी सवत् १२८२ में मोजूद थे, वे उस समय गृहस्थाचार्य के पद पर प्रतिष्ठित थे। इसी से उन्होंने अपने को 'गृहस्थाचार्य कुजर, लिखा है । वे उस समय श्रावक के व्रतों का प्रनुष्ठान करते थे। सलखण पुर : में उन्होंने परमारवशी दवपाल के राज्य समय में मल्हू के पुत्र नागदेव की धर्मपत्ना के लिये जो उस राज्य में चंगी व टैक्स विभाग में काम करता था उक्त सवत् १२८२ में संस्कृतगद्य में 'रत्नत्रयविधि' नाम की कथा लिखी थी । यह रचना उनकी रचनाओं में सबसे पहली जान पड़ती है । उसके बाद वे नलकच्छपुर में चले गये है ।
१. राजा आहवमल्लकी वंश की परम्परा चन्द्रवाड नगर से बतलाई गई है। चौहान वंशी राजा भरतपाल, उनके पुत्र अभयपाल, के पुत्र जाड, उनके श्रीवल्लाल और श्रीवल्लाल के आहवमल्ल हुए। इनके समय मे राजधानी 'राययि या गया हो गई थी । चन्द्रवाड और रायवद्दिय दोनों ही नगर यमुनातट पर बसे हुए थे ।
२. माधो मडितवाग्वंशसुमणेः सज्जैनचूडामणेः । मालाख्यम्य सुतः प्रतीतमहिमा श्रीनागदेवोऽभवत् १ ॥ यः शुल्कादिपदेपुमालवपते. नात्राति युक्तशिवं । श्रीमल्लक्षणयास्वमाश्रितवसः का प्रापयतः श्रिय २ ॥ श्री मत्केशव से नार्य वर्थ वाक्यादुपेयुपा । पाक्षिक श्रावका भाव तेन मालवमडले || ३ सल्लक्षरणपुरे तिष्ठन् गृहम्थाचार्य कुजरः । पण्डिताशाघरो भक्त्या विज्ञाप्तः सम्यगकदा ॥४ प्रायेण राजकार्येऽवरुद्ध धर्माश्रितग्य मे। भाद्र किचिदनुष्ठेयं व्रतमादिश्यतामिति ॥५ ततस्तेन समीक्षो वै परमागमविस्तर । उपविष्ट सतामिष्ट तस्याय विधिसत्तमः ||६
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवी और चौदहवी शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
उस समय सलक्षणपूर मे कमलभद्र नाम के मघवी रहते थ, जा काम के वाणा को विनष्ट करने के लिये तपश्चरण करते थे, अष्टमदा व विनास करने मे वीर पे, पोर वाईम परिपहावे मरने मेध र थ । कर्म शत्रयो का नाश करन वा ने तथा भ य रूप वमला का सम्बोधन वग्न के लिए सूर्य के समान य। कपाया पार गत्यत्रय के विनाशक श्रीमन्त सन्त योर सयम निधान थ । उमी नगर में मह (माला)ो पूर नाग: रहते थ, जो निरन्तर पुण्याजन करते थ । वही सयमी गृणी, गुशीत रामचन्द्र रहते थ। वहीं पर गण्डलवान कुलभपण विषय विरक्त, भव्यजन बान्ध व व शव के पुत्र इन्टक या उन्द्र चन्द्र रहते य जो जनधर्म रे धारक , और जिन भक्ति में तत्पर तथा मसार से उदापीन रहन थ। मगे स्पाट है कि उम ममय मतक्षणपुर ग अग्छ धर्मनिष्ठ लागा का निवास था। उक्त उन्दक नामिजिन की स्तुति कर तीन प्रदक्षिणा दी पार • व्य नागव का शुभागीर्वाद दिया। तव नागदव न कहा कि राज्य पारकर मक्या, मनहारी हम, गय म क्या, जप माना ।प। पुन कनत्र, मित्र सभी इन्द्रधनूप ममान यानन्य।निमल वित्त पार भव्या नागदा 7 ।हा, - दामादर काव | सा काम कीजिए जिमग धम म हानि न हो। मुभ न मजिन चारन बना पर द IT जमा न गभार भव में आज तर जाऊ ओर मग जन्म मफाहा जाय । नावि नागदव । अनुगमन, प्रार प . रामचन्द्र व आदश स नेमिनाथ जिन का चरित्र बनाया। जमा। उमगधिपूपि वा म प्रकट है -
दामोयर विरइए पडिय रामयद आए सिए नहाकवे मल्हसुअणग्गएवमायण्णए मणिव्वाण गमण पचमोपरिच्छेग्रो सम्मत्तो ॥१४५।।
प्रग्नत चरित व पाव्य है जिाम पाच सन्धिया मबागवायकर नोमनाथ पा पावन जोवन. गाथा अक्ति है । ग्रन्थ ।। ण पनि उपना मरभर विमा दारित्रम गरम उमा पूण प्रत उपनब्ध हो जाय। ग्रन्य मे काव्य-वकाव-पता नाहै हा चा TT गुन्दर ।। -471 वा । क प गण नद्र के पट्ट मम्द्धारक कलिमल क नाशक मूनि मूरिमन का नामानख किया है। ना गिय मन मलद्र थ, जाभव्यजन आनन्ददायक थे।
रचनाकाल
कवि ने ग्रन्थ की रचना का समय दिया है। कविन ग्रन्थ को रचना मनक्षणपूर म वि०म० १२४७ में परमारवशी राजा दवपाल के राज्य काल में समाप्त किया है जेगा कि उसके निम्न वाक्य म स्पष्ट है
बारहसयाई सत्तासियाइ विक्कमरायहो कालह ।
परमारह पट्ट समुद्धरण णवइदेवपालह ॥ दवपाल माल का परमाग्वशी राजा था, ग्रार महामार हरिश्चन्द्र वर्मा का, जा छाटो शाखा के वशधर थे, द्वितीय पुत्र था। क्याकि अर्जुन वर्मा ने काई सन्तान नहीं था, अत उम गद्दा का अधिकार इन्हे हा प्राप्त दया था। इमवा अपरनाम 'माहममल' था। इसक समय क ३ शिलाख और एक दान पत्र मिला है। उन एक विक्रम मवत १२७५ (मन १२१८) का हरसोडा गाव मे ओर दो ख ग्वालियर राज्य म मिन रे। जिनम एक
तेनान्यैश्च यथात्ति भवभीने पिटत । ग्रन्या बुधाशाधरण सहर्माय मयो वृत ॥ विनापशीत्यद्वादशाप शनापय । दशम्या पश्चिम (भाग) प्रपा प्रयता वना॥ पत्नी श्री नागदेवस्य नयाद्वमगगनायिा। यामीद्रत्नत्रयविधि चरतीना पुरस्सरी॥
-रत्नत्रय विधि प्रशस्ति १ तहिकमलभद्द सघाहिवई, कुसुम सर वियाग्ग नउ तवई । मय अट्ठ दुट्ठ रिगट्ठवण वीर, बावीस परिसह सहणवीरु ।
अरि कम्म विरडि छिण्णण, विवाण गईव भव्वसंबोहभाण । २. इन्डियन एण्टीक्वेरी जि० २०१० ३११
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६६
वि० सं० १२८६ और दूसरा वि० सं० १२८६ का है। मांधाता से वि० स० १२३५,२६ अगस्त) का दान पत्र भी मिला है ।
दिल्ली के सुलतान शमसुद्दीन अल्लमश ने मालवा पर सन् १२३१-३२ में चढाई की थी। और एक वर्ष की लड़ाई के बाद ग्वालियर को विजित किया था, और बाद में भेलसा और उज्जैन को जीता था, तथा वहां के महाकाल मंदिर को तोड़ा था, इतना होने पर भी वहां सुलतान का कब्जा न हो सका। सुलतान जब लूट-पाट कर चला गया। तब वहां का राजा देवपाल ही रहा। इसी के राज्य काल में पं० आशाधर ने वि० सं० १२८५ में नलकच्छपुर' में 'जिनयज्ञ कल्प' नामक ग्रन्थ की रचना की थी, उस समय देवपाल मौजूद थे। इतना ही नही किन्तु जब दामोदर कवि ने सवत् १२८७ में 'मिणाह चरिउ' रचा उस समय भी देवपाल जीवित था। किंतु जब सवत् १२९२ (सन् १२३५) मे ‘त्रिषष्ठि स्मृति शास्त्र आशाधर ने बनाया। उस समय उनके पुत्र 'जैतुगिदेव' का राज्य था । इससे स्पष्ट है कि देवपाल की मृत्यु स० १२९२ से पूर्व हो चुकी थी । वि० स० १३०० मे जब अनगार धर्मामृत की टीका बनी उस समय जैतुगिदेव का राज्य था । यह अपने पिता के समान ही योग्य शासक था ।
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ १२६२ भादों सुदी १५, (सन
कवि श्रीधर
कवि श्रीधर ने अपना कोई परिचय नही दिया, और गुरु परम्परा का भी उल्लेख नही किया । अन्यत्र से भी इसका कोई समधान नही मिलता । कवि विक्रम की १३वी शताब्दी का विद्वान है । इसकी एक मात्र कृति 'भविसयत्त कहा है । ग्रन्थ में छह सधियों और १४३ कडवक दिये हुए है, जिनकी श्लोक संख्या १५३० के लगभग है | ग्रन्थ में ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी ( श्रुत पंचमी) व्रतका फल और माहात्म्य वर्णन करते हुए व्रत संपालक भविष्य दत्तके जीवन परिचय को अंकित किया है । कथन पूर्व परम्परा के अनुसार ही किया गया है । श्रीधर ने भविसयत्त चरित की रचना चन्द्रवाड़ नगर में स्थित माथुरवशीय नारायण के पुत्र सुपट्ट साहुकी प्र ेरणा से की थी । समूचा काव्य नारायण साहुकी भार्या रूपिणी के निमित्त लिखा गया है सुपट्ट साहु नारायण के लघुपुत्र थे । उनके ज्येष्ठ भ्राता का नाम वासुदेव था । कविने प्रत्येक सधि के प्रारम्भ में संस्कृत पद्यों में रूपिणी की मंगलकामना की है, जो
।
१. इन्डियन एण्टी क्वेरी जि० २० पृ० ८३
२. एपि ग्राफिया इन्डिका जि० ६ पू० १०८ १३ ।
३. ब्रिग, फिरिश्ता जि० १५० २१०-११
४. नलकच्छपुर ही नालछा है, यह धारा से २० मील दूर है, यह स्थान उस समय जैन संस्कृति के लिए प्रसिद्ध था ।
विक्रम वर्ष सपंचाशीति द्वादशशतेप्यतीतेषु । आश्विनसितान्यदिवसे साहसमल्लापराख्यस्य ।। श्रीदेवपालनृपतेः प्रमारकुल शेखरस्य सोराज्ये । नलकच्छपुरे सिद्धो ग्रन्थोयं नेमिनाथ चैत्यगृहे ।। ५. प्रमारवश वार्षीन्दु देवपालनृपात्मजे ।
- जिनयज्ञ कल्प प्रशस्ति
श्रीमज्जगदेवे सिस्थाम्ना वन्तीमवन्यलम ॥ १२ नलकच्छपुरे श्री मन्नेमि चैत्यालयेऽसिधत् । ग्रन्थोऽयं द्विनवद्वयेक विक्रमार्क समात्यये ।। १३ ६. सिरिचन्दवाररणय रट्ठिएण, जिरणधम्म-करण उक्कठिएण । माहुरकुल-गयण तमीहरेण, विबुहयण सुयण - मरण- घरण -हरेण । + + + णीसेसें सविलक्ख गुरणालएण, मइवर सुपट्ट रगामालएरण७. गारायण देह समुब्भवेरण, मरण-वयरण- काय - रिंगदिय भवेरण |
+
सिरि वासुव गुरु भायरेण, भव- जलरिगहि-रिगवडरण - कायरेण ।।
— त्रिषष्ठि स्मृति शास्त्र
-- भविसयत्त कहा प्रशस्ति
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्योंही,
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
३९७ इन्द्र वजा और शार्दूल विक्रीडित आदि छन्दों में निबद्ध है जैसा कि उसके निम्न पद्यसे स्पष्ट है :
या देव-धर्म-गुरुपादपयोज-भक्ता, सर्वज्ञदेव सुखदायि-मतानु-रक्ता।
संसारकारिकूकथा कथनेविरक्ता, सा रूप्पिणी बुधजनन कथं प्रशस्या ।। -सधि २-२ यह काव्य-ग्रन्थ सीधी-सादी एवं सरल भाषा में निबद्ध है किन्तु भाषा चलती हुई प्रसाद गुण युक्त है। इसमें विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के जन सामान्य में प्रचलित भाषाके शब्द यत्र-तत्र मिलते हैं
-त्योंही, सपत्तउ (सपाटे से) विल्ल (वेल), कखंद (करोंदा) झन्ति झटसे) । भाषा में मुहावरे, लोकोक्तियों एवं सूक्तियों का प्रयोग हुआ है । बोलचाल की भाषा के प्रयोग भो देखने में आते हैं । सूक्तियां भी जन सामान्य में प्रचलित पाई जाती हैं यथा--
विणु उज्जमेण गउ किंपि होइ-विना उद्यम के कोई काम नही बनता।
जहि सच्चइ तहि फिरि-फिरि रमई---जहाँ अच्छा लगता है वहा मनुष्य बार-बार जाता है। ग्रन्थ का चरितभाग धनपाल की विसयत्त कथा से समानता रखता है। परन्तु धनपाल की भविसयत्त कथा की भाषा प्रौढ है। परन्तु धनपाल की कथा के समान भाषा का प्रांजल रूप, अलकरणता, कल्पनात्मक वैभव, और सौन्दर्यानुभति की झलक श्रीधर की भविष्यदत्त कथा में नही पाई जाती। फिर भी ग्रन्थ महत्वपूर्ण है।
कविने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १२३० (सन् ११७३ ई०) के फाल्गुनमास के कृष्णपक्ष की दशवीं रविवार के दिन समाप्त की है ।
माधवचन्द्र विद्य (क्षपणासारगद्य के कर्ता) प्रस्तुत माधवचन्द्र मलसंघ क्राणूरगण तिन्त्रिणी गच्छ के विद्वान मुनि चन्द्रमूरि के प्रशिष्य और सकलचन्द्र के शिष्य थे। जो तर्क सिद्धान्तादि तीन विषयों में निपुण होने के कारण त्रविद्य कहलाते थे।
जैन शिलालेख संग्रह तृतीय भाग के लेख नं० ४३१ में, जो शक सं० १११६ (वि० सं० १२५४ का उत्कीर्ण किया हया है, उसमें मुनिचन्द्र प्रक्षालन करके महाप्रधान दण्डनायक ने कुछ चावलों की भूमि, दो कोल्हू और एक दुकान का 'एदग' जिनालय को दान दिया है। इन्हीं सकलचन्द्र के शिष्य उक्त माधवचन्द्र हैं, जिनकी उपाधि विद्य थी। इन्होंने क्षल्लकपूर (वर्तमान कोल्हापुर) में क्षपणासार गद्यकी रचना की है।
क्षपणासार गद्य में कर्मो के क्षपण करने की प्रक्रिया का सुन्दर वर्णन किया गया है। माधवचन्द्र ने इस ग्रन्थ की रचना शिलाहार कुल के राजा वीर भोजदेव के प्रधान मंत्री बाहुबलो के लिये की थी। और जिन्हें माधव चन्द्रने भोजराज के समुद्धरण में समर्थ, बाहुबल युक्त, दानादिगुणोत्कृष्ट, महामात्य और लक्ष्मीवल्लभ बतलाया है। उन्हीं के लिये शकसं० ११२५ (सन् १२०३) वि० सं० १२६० में क्षपणासारगद्य का निर्माण किया था, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है :
प्रमूना माधवचन्द्रदिव्यगणिना वद्यिचक्र शिना.
क्षपणासारमकारि बाहुबलिसन्मंत्रीशसंज्ञप्तये । १. गरणाहविक्कमाइच्चकाले पवहंतए सुयारए विसाले।
बारहमय-वरिसहि परिगएहि फागुणमासम्मि बलक्वपक्खे । दसमिहि दिणे तिमिरुक्कर विवक्खे, रविवार समारिणउ एउ सत्थ ।।
-जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० २ पृ०५० । २. "पंचांगमंत्रबहस्पतिसमानबुद्धियुत-भोजराजप्राज्य साम्राज्यसमुद्धरणसमर्थ-बाहुबल युक्त-दानादि गुणोत्कष्ट महामात्य-पदवी-लक्ष्मीवल्लभ-बाहुबलिमहाप्रधानेन वा।"
-क्षपणासार गद्य प्रशस्ति जैन ग्रन्थ प्र० सं० भा० ११.१६५
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
शककालेशर-सूर्य-चन्द्रगणिते जाते पुरे क्षुल्लके,
शुभदे दुदुभिवत्सरेविजयतामाचन्द्रतार भुवि ।। इन्ही भोजगज के राज्यकाल में कोल्हापुर देशान्तवर्ती अजरिका (आजर) नामक गाँव में क्षपणासार गद्य की रचना के दो वर्ष बाद शक स० ११२७ क्रोधन सवत्सर (वि० स० १२६२) में सोमदेव ने शब्दार्णव चन्द्रिका नाम की जैन व्याकरण की वत्ति समाप्त की थी।
मुनि विनय चन्द्र यह मलमघ के विद्वान सागरचन्द्र मन न्द्र के शिप्य थे । इन्हे पनि आशाधर जी ने धर्मशास्त्र का अव्ययन कराया था। इन्ही विनयचन्द्र मुनि के अनुरोध मे प्राशाधर जी ने भव्यजना के हितार्थ इष्टोपदेशटाका भूपाल कविकृत च िवशतिका टीका ग्रार देवमेन के आराधनामार की टाका बनाई थी इन में प्रथम दा टीकाए प्रकाशित हो चकी है । विन्नु पागधनामार की टीका उपलब्ध नहीं हुई थी। किन्तु अामेर के शास्त्र भण्डार में मंवत् १५८१ की लिखी हई पागधनामार की टोका उपलब्ध है। टीका अत्यन्त सक्षिप्त हे, जो गाथाओ के गढपदों के अर्थ का बोधकराती है, । जैसा कि उसके मगल पद्य तथा प्रतिज्ञा वाक्य मे स्पष्ट है :
प्रणम्य परमात्मानं स्वशक्त्याशाधरः स्फुटः।
अाराधनासारगूढ पदार्थाकथयाम्यहम् ।।५१ "विमलेत्यादि - विमलेभ्यः क्षीणकषायगुणेभ्योऽतिशयेन विमला विमलतरा शुद्धतराः गणा परमावगाढ सम्यनादयः । सिद्ध जीवन मुक्त जगत्प्रतीतं वा। सुरसेन वंदियं सहड वैः स्वामिभिर्वतते निजनजस्वामियुक्त चतुकायदधस्तथा देवगनाम्ना प्रत्यकृता नमस्कृत मत्यर्थः। आराहणासारं सम्यग्दर्शना दोमुद्योतनाद्यपाय पंचकाराधना तस्याः स सम्यग्दनिादि चतष्टयं । तया तस्ये वा राधना तयोपाइयवत्तात ॥" अन्त मे लिगा है
“विनयेन्दुमुनेहंतोराशाधर कवीश्वरः । स्फूटमाराधनासार टिप्पनं कृतवानि ॥"
श्री विनय चन्द्रमित्यागाधरविचिताराधनामार विवृत्तिः समाप्ता। अत: विनय चन्द्र का समय वि० स० १२७० मे १२६६ तक जान पड़ता है ।
--रामचन्द्रमुमुक्षु प्राचार्य कुन्द-कन्द की वशपरम्परा में दिव्य वृद्धि के धारक केशवनन्दी नामके प्रसिद्ध यति हए। जो भव्य जीव रूप कमलो को विकसित करने के लिए सूर्यसमान, थे, सयम के प्रतिपालक, कामदेव रूप हाथी को नष्ट करने मे सिह के समान पराक्रमी, ग्रार अनेक दु:ग्वोत्पादक कर्मरूपो पर्वत को भेदने के लिये वज्र के समान थे। बड़े-बड़े योगीन्द्र और राजा महागजा जिनके चरणा की वन्दना करते थे। और जो समस्त विद्याओं में निष्णात थे। उन्हीं
-पूरी गाथा इस प्रकार है:
१. जैन ग्रन्थप्रति म० भा० १ पृ० १६६ २. उपशम इव मूर्ते मागरेन्द्रो मुनीन्द्रादजनि विनय चन्द्र. मच्चकोरैक चन्द्रः ।
जगदमतमगर्भा गास्त्रसदर्भगर्भा. शुचिचरितवरिप्णी यंग्यधिन्वनिवाचः ।। ३. विमल यर गुगगसमिद्ध, मिद्ध मुग्मेण वदिय सिग्मा।
गमिऊरण महावीर वोच्छं आगहरणा सारं ॥१ ४. “यो भव्याब्ज-दिवाकरो यमकगे मारेभ पञ्चाननो, नानाद.खविधायिकम्मकुभूतो वज्रायते दिव्यधीः । यो योगीन्द्र-नरेन्द्र-वन्दित पदो विद्यार्णवोत्तीर्णवान्, ख्यातः केशवनन्दिदेव-यतिपः श्रीकुदकुदान्वयः ॥१॥
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
३६६
के शिष्य रामचन्द्र मुमुक्षु था, जो ममम्तजनों का हिताभिलापी था । रामचन्द्र मुमुक्ष ने पद्मनन्दी नामके श्रेष्ठ मुनीन्द्र के पास में व्याकरण शास्त्र का अध्ययन कर गिरि और समिति के बराबर संख्यावाने सत्तावन पद्यों द्वारा पुण्यास्रव नामक कथा ग्रन्थ की रचना की ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में ५६ कथाएं हैं, जो छह अधिकारों में विभाजित हैं, जिन की श्लोक संख्या साढ़े चार हजार है । प्रथम पांच खण्ड में ग्राठ-आठ कथाएं हैं, और ग्रन्तिम छ खण्ड में १६ कथाएं दी हैं ।
प्रथम की कथाओं में देवपूजा में अर्हन्तदेव के स्वरूप की बोधक और देवपुजा के महत्व को ख्यापित करनेवाली कथाएं दी हैं, जो पुण्यफल की प्रतिपादक हैं ।
दूसरे 'ग्राटक मे णमो अरिहंताणं' आदि पत्र नमस्कार मन्त्र के उच्चारण करने वाली और उसके प्रभावको व्यक्त करने वाली ग्राट कथाए दी जिनमे पंच नमस्कार मन्त्रकी महत्ता का बोध होता है, और पुण्यफल की प्राप्ति रूप सद्गतिका लाभ प्रतिपादित किया है।
तृतीय अष्टक स्वाध्याय के पुण्य फलकी प्रतिपादक कथाएं दी हैं, जिनमें शास्त्रों के पठन-पाठन, उनके श्रवण और उच्चारण यादि का पुण्य भी निर्दिष्ट है ।
चौथे अष्टक के दलित के पालकों की पुण्य कथाएं दी हैं। गृहस्थों में पुरुषों को अपनी पत्नी के प्रति और पत्नी को पति के प्रति पूर्ण शीलवान होना आवश्यक है ।
पांच अष्टक में उपवास के पुण्यफल की प्रतिपादक कथाएं दी हैं। ओर छठे खण्ड में पावदान के महत्व की प्रतिपादक १६ वथाएं दी है। इन सब कथाओं के अध्ययन में जहां भावविशुद्धि होती है, वहां उनके प्रति आस्था भी उत्पन्न हो जाती है। महा कवि रध ने भी अपभ्रंशभाषा में पुण्यास्रव कथाकोप की रचना की है।
ग्रन्थकर्ता ने ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया, शोर न रचनास्थल का ही उल्लेख किया है। कर्नाटक कवि चरित से ज्ञात होता है कि नागराज ने कन्नड़ भाषा में 'पुण्यात्रत्र चम्पू काव्य की रचना शकसंवत् १२५३ (सन् १३३१ में की है जो संस्कृत ग्रन्थ का कनड़ी भाषान्तर है। बहुत सम्भव है कि नागराज ने रामचन्द्र मुमुक्ष के पुण्यात्रत्र का आधार लिया हो। क्योंकि दोनों में अत्यधिक समानता पाई जाती है । इसने रामचन्द्र मुमुक्ष की रचना पूर्ववर्ती है । इनका समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी जान पड़ता है। निश्चित समय तो केशवनन्दी के समय का निश्चय हो जाने पर मालूम हो सकता है ।
विमलकीति
प्रस्तुत विमलकीति रामकीर्ति गुरु के शिष्य थे। रामकीर्ति नाम के चार विद्वानों का उल्लेख मिलता है । उनमें प्रथम रामकीर्ति के शिष्य विमल कीर्ति हैं । दूसरे रामकति मूलसच बलात्कारगण ओर सरस्वती गच्छ के विद्वान थे । इनके शिष्य भ० प्रभाचन्द्र ने स० १४१३ मे वैशाख मुदि १३ बुधवार के दिन अमरावती के चोहान राजा अजयराज के राज्य में बल कंचुकान्वयी श्रावक ने एक जिनमूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी। जो वण्डितदशा में भौगांव क मन्दिर की छतपुर रखी हुई है ।
१. "शिष्योऽभूत्तम्यभव्यः सकल जनहितो रामचन्द्रो मुमुक्ष
जत्वा शब्दाशब्दान् सुविगद यशसः पद्मनन्द्याभिधानात् (याद्वै ) । वन्द्याद्वादभ सिंहासरमयतिपतेः मो व्यधाद्भव्यहेतोग्रन्थं पुण्यास्रवाख्यं गिरिममितिमितं दिव्यपद्यः कथायें || २ || — जैन ग्रन्थ प्रशम्ति सं० भा०१ पृ० १५४ २. संवत १४१३ वैशाख मुदि १३ बुधे श्रीमदमवगवती नगराधीश्वर चाहुवारण कुल श्रीअजय राय देव राज्य प्रवर्तमाने मूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे श्रीराम कीर्तिदेवास्तस्य शिष्य भ० प्रभाचन्द्र लंबकंचु कान्वये साधु भार्मा सोहल तयोः पुत्रः सा० जीवदेव भार्या सुरकी तयोः पुत्रः केशो प्रणमति ।
- देखो जैन सि० भा. भा. २२ अक ३
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
४००
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
तीसरे रामकीति भट्टारक वादिभूषण के पट्टधर थे, जिनका बिम्ब प्रतिष्ठित करने का समय संवत् १६७० है। यह रामकीर्ति १७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान हैं । चौथे रामकीति का नाम भट्टारक सुरेन्द्रकीति के पटधर के रूप में मिलता है। इनमें से प्रथम रामकीर्ति का सम्बन्ध ही विमलकीर्ति के साथ ठीक बैठता है। यह राम कीति के शिष्य थे, जिनकी लिखी हुई प्रशस्ति चित्तौड़ में संवत् १२०७ की उत्कीर्ण की हुई उपलब्ध है । रामकीर्ति के शिष्य यश:कीर्ति ने 'जगत सुन्दरी प्रयोगमाला' नामके वैद्यक ग्रन्थ की रचना की है। जिनका समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी है । क्योंकि यशःकीति ने जगत् सुन्दरी प्रयोगमाला में अभयदेव सूरि का शिष्य धनेश्वर सूरि का (सं० ११७१) का उल्लेख किया है।
विमलकीति की एक मात्रकृति सुगन्धदशमी कथा है । जिसमें अपभ्रशभाषाके ८ कड़वकों में भाद्रपद शक्ला दशमी के व्रत की कथा का वर्णन करते हए उसके फल का विधान किया गया है। कविने दशवीव्रत के अनुष्ठान करने की प्रेरणा की है। ग्रंथ में रचना काल नहीं दिया। इन के गुरु रामकीर्ति का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी का पूर्वाधं-(सं० १२०७) है । अतः विमलकीति का समय भी विक्रमकी १३वीं शताब्दी का पूर्वार्ध सुनिश्चित है।
मुनि सोमदेव मुनि सोमदेव व्याकरण शास्त्र के अच्छे विद्वान थे । इन्हों ने अपनी शब्दचन्द्रिका वृत्ति में अपनी गुरुपरम्परा और संघ-गण गच्छादिक का कोई उल्लेख नहीं किया। यह शिलाहारवंश के राजा भोज देव (द्वितीय) के समय हए हैं । कोल्हापुर प्रान्त के अर्जरिका नामक ग्राम के 'त्रिभवन तिलक' नामक जैन मन्दिर में, जो महामण्डलेश्वर गण्डरादित्य देव द्वारा निर्मापित किया गया था। उसमें भगवान नेमिनाथ जिनके चरण कमलों को आराधना के बल से और वादीभ वज्रांकुश विशालकीति पण्डितदेव के वैयावृत्य से मुनि सोमदेव ने शक सं० ११२७ (वि० सं० १२६२) में वीर भोजदेव के विजयराज्य में 'शब्द चन्द्रिका' नाम की वृत्ति बनाई । इस वृत्ति चन्द्र के दीक्षित शिप्य 'भुजंग सुधाकर' (नागचन्द्र) और उनके शिप्य हरिचन्द्र यति के लिये उक्त संवत में बनाकर समाप्त की थी। जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है :
'श्री मूलसंघ जलजतिबोधमानोर्मेधेन्दु दीक्षितभुजंगसुधाकरस्य ।
राद्धान्त तोयनिधिवृद्धि करस्यवृत्ति रेभे हरीन्दु यतये वर दीक्षिताय ॥२॥ शब्दार्णव की रचना गुणनन्दी ने की थी, क्यों कि मुनि सोमदेव ने शब्दचन्द्रिका वृत्ति को गुणनन्दी के शब्दार्णव में प्रवेश करने के लिये नौका के समान बतलाया है। तथा
'श्री सोमदेव यति-निमित मादधाति, यानौः प्रतीत-गुणनन्दित-शब्दवाधौं ।
सेयं सताममलचेतसि विस्फुरन्ती, वृत्तिः सदानुतपद परिवतिषीष्ट ।। प्रेमी जी ने दो नागचन्द्र नाम के विद्वानों का उल्लेख किया है। एक नागचन्द्र पम्परामायण के कर्ता हैं. जिन्हें अभिनव पम्प कहा जाता है यह गृहस्थ विद्वान् थे। दूसरे नागचन्द्र लब्धिसार के टीका कर्ता हैं यह मुनि थे। इन द्वितीय नागचन्द्र के शिप्य हरिचन्द्र के लिये मुनि सोमदेव ने वृत्ति बनाई है । इन हरिचन्द्रयती को 'राधान्त तोय
१. सएपि ग्राफिका इंडिया जि०२ पृष्ठ ४२१॥ २. देखो, जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला प्रशस्ति । ३. स्वस्ति श्री कोल्लापुरदेशान्तर्वार्जुरिका महास्थान युधिष्ठरावतार महामण्डलेश्वर गंडरादित्य देव निर्मापित त्रिभुवन तिलक जिनालये श्रीमत्परमपरमेष्ठि श्रीनेमिनाथ श्रीपादपमाराधनबलेन वादीभवनांकुश श्रीविशालकीर्ति पंडितदेव वैयावृत्यतः श्रीमच्छिलाहार कुल कमल मार्तण्डतेजः पुजराजाधिराज परमेश्वरपरम भट्टारकपश्चिम चक्रवति श्रीवीर भोजदेव विजय राज्ये शकवर्षक सहस्रक शतसप्तविंशति ११२७ तम क्रोधन सम्वत्सरे स्वस्ति समस्तानवद्यविद्याचक्रवर्ति श्री पूज्यपादानुरक्त चेतसा श्रीमत्सोमदेव मुनीश्वरेण विरचितेयं शब्दार्णव चन्द्रिका नाम वृत्तिरिति ।
-जैन अन्य प्रशस्ति सं०भा० १० १९६
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
४०१ निधिवृद्धिकरं' विगेपण दिया है, जिसमे वे सिद्धान्त के विद्वान् टीकाकार जान पड़ते हैं । और मेघचन्द्र मूलसंघ देशीयगण पुस्तकगच्छ के विद्वान् थे। उनके प्रभाचन्द्र 'शनचन्द्र, बीरनन्दी और रामचन्द्र आदि शिष्य थे । मेघचन्द्र का स्वर्गवास शक सं० १०३७ (वि० सं० ११७२) में हुआ है। इनके एक शिष्य शुभचन्द्र का स्वर्गवास शक स० १०६८ (वि० सं० १२०३) में हुमा था। और वीरनन्दी के प्राचारसार की कनड़ी टीका शक सं० १०७६ (वि. सं० १२१२) में बनाई थी।
मुनि सोमदेव का समय विक्रम की १३वी शताब्दो है। और नागचन्द्र के शिप्य हरिचन्द्र का समय भी विक्रम की १३वी शताब्दी है।
कवि हरिदेव इनके पिता का नाम चंग देव और माता का नाम चित्रा था। उनके दो जेठे भाई थे किंकर और कृष्ण । उनमें किंकर महागणवान, और कृष्ण स्वभावत: निपूण थे। उनो न मरे पर हरि हा। इनमे दो कनिष्ठ भाई द्विजवर ओर गघव थे। जो जिनचरणों के भक्त और पापों का मान मर्दन कर वार थे।
इस कुटुम्ब के परिचय नागदेव का मस्कृत मदनपराजय मे चलना -
यः युद्धसम्मकुलपविकासनाळ जातोऽथिनां विवादेवः । तन्नन्दनो हरिरसत्कविनामसंहः तस्मा भिषण माहिरि नागद वः ॥२॥ तज्जावुभौ मुभिपनावितहमामी, गमात्रिय कारा दिनां यः । तज्जवकित्सितमहाम्मुधपाराप्तः, सीमाल मजिएनएममनः॥ तज्जौह नागदेवाच्या राजानेन नंयुनः, छोलरका ....नानि वेदम्यहम्॥
कथाप्राकृतबन्न हद वेन या कृता, वक्ष्ये मरकर उन यान धर्मवृद्धये ॥५॥ __ अर्थात् पृथ्वी पर दाद मालम्पी कमान को दिक मत कार लिये गयरूप याचकों के लिये कल्पवक्ष चंगदेव हए। उनके पुत्र हरि हार, जो ग्रगन्क'वरूप हरितया - Eि । उनी हा वंद्यगज नागदेव । नागदेव के हेम पोर राम नाम के दो पहा, जो दोनों ही यच्छ वा ।म त्रहा प्रियकर, जो याचकों को प्रिय थे। प्रियंकर के पूत्र हा 'मागि, जा चिकित्मा महामि के पान्गामी निद्वान नथा जिनेन्द्र के चरण-कमलों के मत्तभ्रमर थे। उनका पुत्र आ में नागरेश नामक. जं। अल्पज्ञान' है। काग, कार, य र शब्द कोप के ज्ञान से विहीन हूँ। हरिदेव ने जिस कथा को प्राकृत बन्ध रचा था. ज. धनत्रो संस्कृत में रचता हैं।
कवि की एकमात्र काम 'मयणपगनय चर' है, जाद, रूपव काव्य है। इसमें दो सधियां हैं जिनमें से प्रथम सन्धि में ३७और दमरी गन्धिन८१ कूल ११८ कडवक है। जिन : मदन को जीतने का सन्द किया गया है। इसमें पद्धडिया, गाथा आर दुवई छन्द के सिवाय वस्तु (गड्ढा) छन्द का भी प्रयोग किया गया है। किंतु इन छन्दों में कवि को वस्तु या रड्ढा छन्द ही प्रिय रहा जाना पड़ता है। इस छन्द के साथ ग्रन्थ में यथास्थान
१. बंगावहुगविर्याजणायडु।
तह चित्त महागडहि पहपृत्त किवरू महागुग्ग । पुग बीयउ कण्ह हुउ 'जेरग लधु मसहाउ रिणय पुण ॥ हरि निज्ज उ कर जारिणय दियवर राघववेइ।
ले लहुया जिण यथाह पावहमाणु मलेइ ।।२।।-मयण पराजय चरिउ २. प्राकृत पिंगल में रडढा छ द का लक्षण इस तरह दिया है। जिसमें प्रथम चरण मे १५ मात्राए, दितीय चरण में १२ तृतीय चरण में १५ चतुर्थ चरण मे ११ और ५वें चरण में १५ मात्राएं हों। इस तरह १५४१२४१५४११x १५ कुल ६८ मात्राओं के पश्चात् अन्त में एक दोहा होना चाहिए, तब प्रसिद्ध रडढा छन्द होता है जिसे वस्तु छन्दx भी कहा जाता है । (प्रावृत्त पिंगल १-१३३)
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
लंकारों का भी संक्षिप्त वर्णन पाया जाना इस काव्य की अपनी विशेषता है। ग्रन्थ में अनेक सूक्तियां दी हुई हैं। जिन से ग्रन्थ सरस हो गया है। उदाहरणार्थ यहां तीन सूक्तियों को उद्धृत किया जाता है—
१ प्रसिधारा पण को गच्छइ - तलवार की धार पर कौन चलना चाहता है ।
२ को भूयदंडहि सायकलं घहि - भुजदंड से सागर कौन तरना चाहेगा ।
३ को पंचाणण सुत्त खवलइ - सोते हुए सिंह को कौन जगायगा ।
1
इस रूपक काव्य में कामदेव राजा, मोह मन्त्री और प्रज्ञान आदि सेनापतियों के साथ भावनगर में राज्य करता है | चारित्रपुर के राजा जिनराज के उसके शत्रु हैं, क्योंकि वे मुक्ति रूपी लक्ष्मी (सिद्धि) के साथ अपना विवाह करना चाहते हैं । कामदेव ने राग-द्व ेष नाम के दूत द्वारा जिनराज के पास यह सन्देश भेजा कि श्राप या तो मुक्तिकन्या से विवाह करने का अपना विचार छोड़ दें, और अपने ज्ञान दर्शन- चरित्र रूप सुभटों को मुझे सौंप दें, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जायें । जिनराज ने कामदेव से युद्ध करना स्वीकार किया और अन्त में कामदेव को पराजित कर अपना विचार पूर्ण किया ।
ग्रन्थ का कथानक परम्परागत ही है, कवि ने उसे सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है। रचना का ध्यान से समीक्षण करने पर शुभचन्द्राचार्य के ज्ञानार्णव का उस पर प्रभाव परिलक्षित हुआ जान पड़ता है । इससे इस ग्रन्थ की रचना ज्ञानार्णव के बाद हुई है । ज्ञानार्णव की रचना वि० की ११वीं शताब्दी की है। उससे लगभग दो सौ वर्ष बाद 'मयण पराजय' की रचना हुई जान पड़ती है ।
इस ग्रन्थ की एक प्रति सं० १५७६ की लिखी हुई आमेर भंडार में सुरक्षित है। और दूसरी प्रति सं० १५५१ के मगशिर सुदिष्टमी गुरुवार की प्रतिलिपि की हुई जयपुर के तेरापंथी बड़े मन्दिर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है । इस कारण यह ग्रन्थ की सं० १५५१ के बाद की रचना नहीं हैं। पूर्व की है । अर्थात् विक्रम की १३वीं शताब्दी के द्वितीय तृतीय चरण की रचना जान पड़ती है ।
यशःकीर्ति-यशः कीर्ति नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं' । प्रस्तुत यश: कीर्ति उन सबसे भिन्न जान पड़ते हैं । इन्होंने अपने को 'महाकवि' सूचित करने के अतिरिक्त अपनी गुरु परम्परा और गण-गच्छादि का कोई उल्लेख नहीं किया । इनकी एक मात्र कृति 'चंदप्पह चरिउ' है जिसमें ११ सन्धियां और २२५ कडवक है, जिनमें आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ जिनका जीवन-परिचय अंकित किया गया है। ग्रन्थ का गत चरितभाग बड़ा ही सुन्दर और प्रांजल है । इसका अध्ययन करने से जहां जैन तीर्थकर की आत्म-साधना की रूप रेखा का परिज्ञान होता है वहां आत्म-साधन की निर्मल भांकी का भी दिग्दर्शन होता है । कवि ने तीर्थकर के चरित को काव्य-शैली में अंकित किया है, किंतु साध्य चरित भाग को सरल शब्दों में रखने का प्रयास किया है । र अन्तिम ११वी सधि में तीर्थकर के उपदेश का चित्रण
१. प्रस्तुत यशःकीति गोपनन्दी के शिष्य थे, जो स्याद्वादतर्क रूपी कमलों को विकसित करने वाले सूर्य थे । बौद्ध वादियों
के विजेता थे । सिंहलाधीशने जिनके चरण कमलों की पूजा की थी। (जैन लेख सं० भा०१ लेख ५५ )
२. दूसरे यशःकीर्ति वागड संघ के भट्टारक विमलकीति के शिष्य और रामकीर्ति के प्रशिष्य थे ।
के शिष्य और शुभचन्द्र के गुरु थे ।
३. तीसरे यशः कीर्ति मूलसंघ के भट्टारक पद्मनन्दी के प्रशिष्य, भ० सकल कीर्ति ४. चोथे यशःकीति काष्ठासंघ माथुरान्वय पुष्करगरण के भ० सहस्रकीर्ति के प्रशिष्य, तथा भ० गुणकीर्ति के शिष्य, लघुभ्राता एवं पट्टधर थे । यह ग्वालियर के तोभर वंशी राजा डूंगरसिंह के राज्य काल में हुए है, इनक समय सं० १४८६ से १५२० तक है । इनकी अपभ्रंश भाषा की ४ रचनाएँ उपलब्ध हैं पाण्डवपुराण (१४९७) हरिवंशपुराण ( १५००) रविव्रत कथा, और जिन रात्रि कथा ।
पांचवें यशःकीति भ० ललितकीति के शिष्य थे, धर्मशर्माभ्युदय की 'सन्देह ध्वान्त दीपिका' नाम की टीका के कर्ता हैं ! छठवें यशः कीर्ति जगत्सुंदरी प्रयोग माला के कर्ता हैं ।
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
महाका
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि करते हुए धार्मिक सिद्धांतों का अच्छा कथन किया है। कितु लगता है कि कवि ने वीरनन्दि के चन्द्रप्रभ चरित्र के धार्मिक कथन को देखा है, दोनों की तुलना करने मे कथन शैली की समानता का आभास मिलता है।
ग्रन्थ में गुरु परम्परा का उल्लेख न होने से समय निर्णय करने में बड़ी कठिनाई हो रही है। कवि ने इस ग्रन्थ को हुबड कुलभूषण कुमरसिह के पुत्र सिद्धपाल के अनुरोध से बनाया है, और इसीलिए उसकी प्रत्येक पुष्पिका में सिद्धपाल का नामोल्लेख किया है । जैसा कि उसके निम्न पुप्पिका वाक्य से प्रकट हे:
___ "इयसिरि चंदप्पहचरिए महाकव्वे महाकइजसकित्तिविरइए महाभम्वसिद्धपालसवणभूसणे चंदप्पहसामिणिव्वाणगमणवण्णणो णाम एयारहमो सन्धि परिच्छेप्रो समत्तो।"
महाकवि ने ग्रन्थ में अपने से की प्राचार्या का उल्लेख करते हुए गाण कुन्दकुन्द, समन्तभद्र देवनन्दि (पूज्यपाद) अकलक और जिनसेन सिद्धमन का उल्लेख करते हुए प्राचार्य समन्तभद्र के मुनि जीवन के समय घटने वाली घटना द्वारा पाठवे तीर्थकर के स्तात्र की सामर्थ्य से चन्द्रप्रभ जिनका मूर्ति क प्रकट होने का उल्लेख निम्न वाक्यों में किया है :
"णामें समंतभद्दवि मुणिदु, अइणिाम्मलु णं पुण्णमहिचंदु । जिउ रजिउ राया रुद्दकोडि जिण थुत्ति मित्ति सिपिडि फोडि ।
णीहरिउ बिवुचंदप्पहासु उज्जायतउ फुडु दसदिसासु ।" और अकलंक देव को तारादेवी के मान को दलित करने वाला बतलाया है।
"अकलंकुणाइ पच्चक्खणाणु जे तारादेविहि दलिउ माणु।
उज्जाल्लिउ सासणु जगपसिद्ध णिद्धाडिउ थल्लिय सयलबुद्धि।" जिनसेन और सिद्धमेन को परवादियो क दर्प का नजक बतलाया है ।।
प्रस्तुत ग्रन्थ वीरनन्दि के चन्द्रप्रभ चरित के बाद वना है। प्रत. इसका रचनाकाल विक्रम की १२वीं या १३वीं शताब्दी हो सकता है।
कुछ विद्वानों ने चन्द्रप्रभ के कर्ता यशःकीर्ति और भ० गुणकीति क पट्टधर यश:कीति को नाम साम्य के कारण एक मान लिया है, पर उन्होंने दोनों की कृतियों का ध्यान से सगाक्षण नहा किया, पार न उनके भाषा साहित्य तथा कथन शैली पर ही दष्टि डाली है। विचार करने से दानी यश:ोति भिन्न-भिन्न है। उनमें चन्द्रप्रभ चरित के कर्ता यशःकीति पूर्ववर्ती है, और पाण्डव पुराणादि के कर्ता यशःकोति अर्वाचीन है। पाण्डव पुराणकी पुष्पिका वाक्य निम्न प्रकार है :
इय पण्डव-पुराणे सयलयण-मण-सवण-सुहयरे सिरिगुणकित्ति-सिस्स-मुणि जसकित्ति विरइए साधु वील्हा पुत्त हेमराज णामंकिए गेमिणाह जुधिटर-भीमाज्जु-ण णिव्वाण गमण नकुल सहदेव-सव्वट्ठसिद्धि बलहद्दपंचम-सग्ग गमण पयासणो णाम चउतीसमो इमो सग्गो समत्तो।" इस पुप्पिका वाक्य के साथ चंदप्पह चरिउ का निम्न पुष्पिका वाक्य की तुलना कीजिए।
"इय सिरि चंदप्पहचरिए महाकव्वे महाकइजसकित्तिविरइए महाभव्व सिद्धपाल सवणभूसणे चंदप्पह सामि णिव्वाण गमण वण्णणो णाम एयारहमो सन्धि परिच्छेप्रो समत्तो।"
दोनों के पुष्पिका वाक्य भिन्नता के द्योतक हैं। पाण्डव पुराण के कर्ता ने अपने से पूर्ववर्ती प्राचार्यों का कोई उल्लेख नहीं किया। हां अपनी भट्टारक परम्परा का अवश्य किया है।
मदनकोति अहसास प्रस्तुत मदनकीति वादीन्द्र विशाल कीर्ति के शिष्य थे। और बड़े भारी विद्वान थे। इनकी शासनचतुस्त्रिं
१.जिएणसेण सिद्धसेण वि भयत, परवाइ-दप्प-भजण-कयत ।
-चन्दप्रभ चरिउ प्रशस्ति
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
४.४
शतिका नामकी छोटी सी रचना है जिसकी पद्य सख्या ३५ है। जो एक प्रकार से तीर्थ क्षेत्रों का स्तवन है, उनमें पोदनपर के बाहबली, श्रीपूर के पार्श्वनाथ, शंखजिनेश्वर, धारा के पार्श्व जिन, दक्षिण के गोम्मट जिन, नागद्रहजिन, मेदपाट (मेवाड) के नागणिग्राम के मल्लिजिनेश्वर, मालवा के मगलपुर के अभिनन्दन जिन, पुप्पपुर (पटना) के पूष्पदन्त, पश्चिम समुद्र के चन्द्रप्रभ जिन, नर्वदा नदा के जल से अभिपक्त शान्तिाजन पावापुर के वीर जिन, गिरनार क नेमिनाथ, चम्पा क वामपूज्य आदि तीर्या का स्तवन किया गया। स्तवनी में अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख प्रकित है आर उमक प्रत्येक पद्य के अन्तिम चरण में दिग्वाससां शासनम' वाक्य द्वारा दिगम्वर शासन का जयघोष किया गया है।
मालव देश के मगलपुर में म्लेच्छो क प्रतार का प्रागमन बतलाते हुए लिखा है कि वहा अभिनन्दन जिन की मति को तोड़ दिये जान पर वह पुनः जुड़ गई। इस घटना का उल्नग्य विविध तीर्थ कल्प के पृ०५७ पर अभिनन्दन कल्प नाम से किया गया है।
श्री मन्मालवदेश मंगलपुरे म्लेच्छप्रतापागते, भन्नातिरथोभियोजिताशराः सम्पूर्णता माययौ। यस्योपद्रवनाशिनः कलयुगऽनेक प्रभादयं तः,
सश्रीमानभिनन्दनः स्थिरयत दिग्वाससा शासनम् ॥३४॥ इस पद्य म जा म्नच्छा क प्रताप क यागमन का बान रखा है वह म०१२४६ के बाद की घटना है। इससे इतना गोर स्पष्ट है कि मदनकात किम का १५ सनाद। विद्वान् आगाधर क समकालीन है। प० पाशाधर ने प्रशस्ति म 'मदन काति यति पा निा वाक्य क साप उनका उल्नख भा किया है।
पाश्रम पत्तन में घटित घटना का उल्न मुनि मदनकाति शासन चतुस्विशिका के निम्न २८वे पद्य में किया है।
पूर्व या श्रमनाजगामसारता नाथाभ्युदिव्याशिला, तस्या देवगण । द्विजस्य दघतस्तथा ।जनेशः स्वयं । कोपाद्विप्रजनाराधनकरः देवः प्रपूज्याम्बरे,
दधे या मुनिसुव्रतः स जयतात् दिग्वाससा शासनम् ॥२८॥
बतलाया है कि जा शला सारता . पह। प्रायम का प्राप्त हु। उस पर देवगणा को धारण करने वाल विप्रो कद्वारा काधवश प्रवरावहान परगा मुनिसुव्रत ।जनस्वर उस पर स्थित हए-वहा से फिर नही हटे. और देवो द्वारा आकाश में पूाजत हुए, व मुनि सुव्रत जिन ! दिगम्बर। क शासन की जय कर।
प्राश्रम पत्तन नाम का यह स्थान जा वतमान म कशाराय पाटन क नाम म प्रसिद्ध है। काटा से नो मील टर पार बदी स तीन मील दूर चम्बल नदा क किनार अवास्थत है। यह चम्बल नद। काटा पार बदी की सीमा का विभाजन करता है । इस नदा क किनार मुनिमुव्रतनाथ का चत्यालय है जा तीर्थ स्थान के रूप मप्रसिद नमि चन्द सिद्धान्त दवार ब्रह्मदव यहा रहत य । सामराज श्रष्ठा भावहा पाकर तत्त्व चर्चा का रस लता था। मि. चन्ट सिद्धान्त दवन उक्त साम राजश्रष्ठा क लिए द्रव्य संग्रह (पदाथ लक्षण) की रचना का थो, और ब्रह्मदेव ने उसकी वत्ति बनाई था। इस तीथ की यात्रा करन लिए दूर से यात्री पाते है।
राजशेखर सरि (स० १४०५) नअपने चतुविशात प्रबन्ध में लिखा है कि मदन कौति ने चारी दिशाम्रो वादियो को जीतकर उन्होन 'महा प्रामाणिक चड़ामणि' पदवी प्राप्त की थी। उन्होंने मदन कीति प्रबन्ध में लिखा
१. 'अस्सारम्म पट्टण मुनि सुन्वय जिण च वदामि'।-निर्वाणकाण्ड
'मणि सुव्वउ जिण तह आसरम्मि'। मुनि उदयकीर्ति कृत निर्वाण भक्ति २. देखिये, द्रव्य संग्रह की ब्रह्मदेव कृत वृत्ति की उत्थानिका, और द्रव्य संग्रह के कर्ता और टीकाकार के समय पर विचार नामका लेखक का लेख ।
-अनेकान्त वर्ष १६ कि० १.२ पृ० १४५
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
४०५
है कि एक बार मदन कीति गुरु के निषेध करने पर भी वे दक्षिणा पथ को प्रयाण करके कर्नाटक पहंचे । वहा विद्वप्रिय विजयपूर नरेश कुन्तिभोज उनके पाण्डित्य पर मोहित हो गए। ग्रार उन्हाने उनसे अपने पूर्वजो के चरित पर एक ग्रन्थ की रचना करने के लिए कहा । कुन्ती भाज की कन्या मदन मजरी माविका थी। मदन कोनि पद्य रचना करते जाते थे और मदन मजरी पर्दे का प्राड में बैठकर उसे लिखता जाता थी। कुछ समय बाद उन दाना के मध्य प्रेम का आविर्भाव हुआ, और वे एक दूसरे को चाहने लगे। राजा का जा सका न च ना ता उमो मदनकानि के वध करने की आज्ञा दे दी। परन्तु जब तक कन्या भी उनके लिए अपना मटेलिया क मामले के लिए तैयार हो गई, तब राजा ने लाचर हा उन दोना को विवाह मुत्र वाघ दिया। मदनकोति अन्नातक गहम्य ही रहे, गुरु वादीन्द्र विशाल कीर्ति के पत्रों द्वाग बार-बार प्रद्ध किये जाने पर भी प्रयुद्ध नही दा। तय विगाल कीति स्वय भी दक्षिण की ओर अपने शिप्प का प्रवुद्ध करन के नए गए। प्रार काल्हापुर प्रान्त जी का' नामक ग्राम में गए, वहाँ मुनि सोमदेव ने वादीन्द्र विशालकीति की वेयावत्य में 'शब्दार्णव' को 'चन्द्रिका' नाम का वत्ति शक स० ११२७ (वि. १२६२) में बनाई थी।
सभवतः वे अन्त समय में पढित अागाधर जो की मूक्तियो मे प्रबुद्ध हुए हो। प्रार मुनिसुव्रत काव्यादि प्रशस्ति पद्यो के अनुसार वे अहंदास हा गए हा ।
कवि अहंदास यह सुनिश्चित ह क काव प्राशाधर के शिष्य नह। थे। व उना समकालान य उनकी जिन वचन रूप सूक्तियों से प्रभावित थे । एका मु.न मुजत काय, पुम्दव चम्पू पार गव्य जन कण्ठाभरण अन्तिम प्रशस्ति पद्या से स्पष्ट प्रतीत होता है। बहुत राभव है कि कवि रागमाव के कारण श्रष्ठ मासच्युत हा गए थे। पार वहत काल भटकने के पश्चात् काललाब्ध वश व भ्रष्टमार्ग से पुन: मन्म।ग म लाट पाय थ। यह बात यथार्थ जान पड़ती है। जैसा कि मुनि सुव्रतकाव्य की प्रशस्ति स प्रकट है :
"धावन्कापथ सभते भववने सान्माग मेकं परम् । त्यक्त्वा धान्ततरश्चिराय कथमय्यासाद्य कालादमुम्। सद्धर्मामतमुद्धत जिनवचः क्षीरोदधरादरात,
पायं पाय मितः श्रमः सुखपथ दासो भवाम्यहत. ॥६४॥ अर्थात –'तमार्ग गभर हुए ममार रूपा वन में जा एक थष्ठ माग था, उस छोड़कर म बहत काल तक भटकता रहा । अन्त में बहुत थककर कमा तरह काललाब्ध या 37 फिर पाया । सा अव जिन वचनरूप से उद्धत किये हुए धमाभृत का सन्तापपूवक पी-पाकर पार ।वगत श्रम हाकर में अहद् भगवान का दास होता है।'
मिथ्यात्व रूप कर्म पटल से बहुत काल तक ढका हुई मेरी दाना प्राय जा कुमाग में ही जाती थी, आशाघर की उक्तियों के विशिष्ट अजन से स्वच्छ हो गइ और इसलिए अब मैं सत्पथ का प्राथयलेता ह। जैसा कि निम्न पद्य से प्रकट है:
मिथ्यात्व कर्मपटलश्चिरमावृते में युग्मे दृशं कुपथयाननिदानभूते।
प्राशाधरोक्ति लसदंजन संप्रयोगेरच्छीकृते प्टथल सत्पथमाश्रितोऽस्मि ॥६५।। परुदेव चम्प के अन्त मे कवि ने मिथ्यात्व कर्म रूप पक से गदले अपने मानम को आशाधर की मूक्तियों की निर्मली से स्वच्छ होने का भाव प्रकट किया है।
भव्य कण्ठाभरण पजिका में आशाधर की सूक्तियो की बड़ी प्रशसा की गई है । इससे लगता है कि मदन १. मिथ्यात्व पंककलुपे मम मानसंऽग्मिन्नाशाधरोक्ति कत्कप्रसर प्रसन्न ।
उल्लासितेन शरदा पुरुदेव भक्तया तच्चम्पु दभजलजेन समुज्जजम्भे ।। १ २. सूक्त्यैव तेषा भवभीरवो ये गृहाश्रमस्था श्चरितात्मधर्माः । त एच शेषा श्रमिणां सहाय धन्याः स्युराशाधरसूरिमुख्याः ।।२३६
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
कीर्ति अन्त में प्राशाधर की सूक्तियों के प्रभाव से प्रहंदास बन गये हों, तो कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि आँखें और मन दोनों ही राग भाव में कारण है। तो जब हृदय मन और नेत्र सभी स्वच्छ हो गये--रागरूपी अंजन ज्ञानार्जन से धुल गया और आत्मा अर्हन्त का दास बन गया। यह सब कथन कुपथ से सन्मार्ग में आने की घटना का संद्योतक है।
प्रेमी जी ने जैन साहित्य और इतिहास के पृ० ३५० में लिखा है कि-"इन पद्यों में स्पष्ट ही उनकी सूक्तियां उनके सद्ग्रन्थों का ही संकेत है जिनके द्वारा अर्हद्दास को सन्मार्ग की प्राप्ति हुई थी, गुरु-शिप्यत्व का नहीं।
हां, चतुर्विति-प्रवन्ध की पूर्वोक्त कथा को पढ़ने के बाद हमारा यह कल्पना करने को जी अवश्य होता है कि कही मदनकीति ही तो कुमार्ग में ठोकरे खाते-खाते अन्त में प्राशाधर की सूक्तियों से अहंद्दास न बन गये हों। पूर्वोक्त ग्रन्थों में जो भाव व्यक्त किये गए है, उनसे तो इस कल्पना को बहुत पुष्टि मिलती है।"
इनका समय विक्रम की १३वी शताब्दी है।
भावसेन विद्य भावमेन नाम के तीन विद्वानों का उल्लेख मिलता है। उनमें एक भावसेन काष्ठासंघ लाडवागड गच्छ के विदान गोपसेन के शिष्य और जयसेन के गुरु थे। जयसेन ने अपना 'धर्मरत्नाकर' नामक सस्कृत ग्रन्थ विक्रम संवत् १०५५ (सन् १९८) में समाप्त किया था । अतः ये भावमेन विक्रम की ११वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान है। दूसरे भावमेन भी काप्ठासंघ माथुरगच्छ के प्राचार्य थे। यह धर्मसेन के शिप्य और सहस्रकीति के गुरु थे। इनका समय विक्रम की १५वीं शताब्दी है। इन दोनों भावसेना से प्रस्तुत भावसेन विद्य भिन्न हैं। यह दक्षिण भारत के विद्वान थे।
यह मलसघ सेन गण के विद्वान आचार्य थे। और श्रविद्य को उपाधि से अलंकृत थे। यह उपाधि उन मानों को दी जाती थी, जो शब्दागम, नागम और परमागम में निपुण होते थे । सेनगण की पदावली में इनका
लेख निम्न प्रकार है:-'परम शब्द ब्रह्म स्वरूप त्रिविद्याधिप परवादि पर्वतवज्रदण्ड श्री भावसेन भट्टारकाणाम (जैन सि० भा० वर्ष ११०३८)
भावसेन त्रविद्य देव अपने समय के प्रभावशाली विद्वान ज्ञात होते है । इन्होंने अपनी रचनाओं में स्वयं त्रविद्य रवाहि पर्वत वज्रिणा उपाधियो का उल्लेख किया है, जिससे यह व्याकरण के साथ दर्शनशास्त्र के विशिष्ट
जान पडते है। इसीलिए वे वादिरूपी पर्वतो के लिये वज्र के समान थे। इनकी रचनाए भी व्याकरण ओर दर्शनशास्त्र पर उपलब्ध है। विश्वतत्व प्रकाश की प्रशस्ति क ५व पद्य म अपने को पटतर्क, शब्दशास्त्र, अशेष गटांत, वैद्यक, कवित्व सगीत और नाटक आदि का भी विद्वान सूचित किया है।
यथा-षटतर्क शब्दशास्त्रं स्वपरमतगताशेषराद्धान्तपक्षः वैद्यं वाक्य विलेख्यं विषमसमविभद प्रयुक्तं कवित्वम् । संगीत सर्वकाव्यं सरसकविकृतं नाटकं वेत्सि सम्यग,
विद्यत्वे प्रवृत्तिस्तव कथमवनी भावसेनव्रतीन्द्रम् ॥५ भावनेन विद्य ने अपने व्यवहार के सम्बन्ध में विश्वतत्त्व प्रकाश के अन्त में लिखा है कि-'दर्बलो के
१. वाणेन्द्रिय व्योम सोममिते संवत्सरे शुभे । १०५५ ।
ग्रन्थोऽयं सिद्धतां यात सबली कर हाट के॥ -धर्म रत्नाकर प्रशस्ति २. श्रवण वेलगोल के सन् १११५ के शिलालेखों में मेघचन्द विद्य को, सिद्धान्त में बीरसेन षट्तक में अकलंक देव
और व्याकरण में पूज्यपाद के समान बतलाया हैं। और नरेन्द कीर्ति विद्य को भी- 'तर्क व्याकरण-सिद्धान्ता म्बुरुहवन दिन कर मेदसिद श्रीमन् नरेन्दकीति विद्य देवर,' नाम से उल्लेख किया है।
जैन लेख सं०भा० ३ पु०६२
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, चाचार्य और कवि
४०७
प्रति मेरा अनुग्रह रहता है, समानों के प्रति सौजन्य, प्रौर श्रेष्ठों के प्रति सन्मान का व्यवहार किया जाता है किन्तु जो अपनी बुद्धि के गर्व से उद्धत होकर स्पर्धा करते हैं। उनके गर्वरूपी पर्वत के लिए मेरे वचन वज्र के समान होते हैं।
क्षीणेऽनुग्रहकारिता समजने सौजन्यमात्माधिके, संमानंऽनुतभावसेन मुनिपे विद्यदेवे मयि । सिद्धान्तोऽथ मयापि यः स्वधिषणा गर्वोद्धतः केवलं,
संस्पर्धेत तदीयगर्वकुधरे वजापते मद्वचः ।। इनकी कृतियों की पुष्पिकाओं और अन्तिम पद्यों में, परवादिगिरि सुरेश्वर, बादिपर्वत वज्रभृत् वाक्यों का उल्लेख मिलता है जिनमे उनके तर्कशास्त्र में निष्णात विद्वान होने की सूचना मिलती है यथा
भावसेन त्रिविद्यार्यो वादिपर्वतवनभत
सिद्धान्तसार शास्त्रऽस्मिन प्रमाणं प्रत्ययोपदत् ॥१०२ इति परवादिगिरि सुरेश्वर श्रीमद् भावसेन त्रैविद्य देव विरचिते सिद्धान्तसारे मोक्षशास्त्रे प्रमाणनिरूपणं नाम प्रथमः परिच्छेदः॥ कातंत्र रूपमाला के अन्त में भी उन्होंने 'विद्य और वादिपर्वत वज्रिणा उपाधि का उल्लेख किया है:
भावसेन विद्येन वादिपर्वत वज्रिणा। कृतायां रूपमालायां कृदन्तः पर्यपूर्यतः ।।
समय
भावसेन त्रैविध का अमरापुर गांव के निकट, जो आन्ध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले में निम्न समाधिलेख अंकित है।
"श्री मूलसंघ सेनगणद वादिगिरि वज्रदंडमप्प ।
भावसेनत्र विद्यचक्रवतिय निषिधिः ॥" इस लेख की लिपि तेरहवीं सदी के अधिक अनुकूल वतलाई जाती है। यदि यह लिपि काल ठीक है तो
ईसा की १३वी शताब्दी का अन्तिम भाग होना चाहिए। डॉ० विद्याधर जोहरापूरकर ने लिखा है कि वेद प्रामाण्य की चर्चा में भावसेन ने 'तुरुष्क शास्त्र' को (पृ० ८० और १८ में) बहुजन सम्मत कहा है। दक्षिण भारत में मुस्लिम सत्ता का विस्तार अलाउद्दीन खिलजी के समय हुआ है। अलाउद्दीन ने सन् १२६६ (वि०१३५३) से १३१५ (वि० स० १३७२) तक १६ वर्ष राज्य किया है। इससे भी भावसेन ईसा की १३वी के उपान्त्य में और विक्रम की १४वीं शताब्दी के विद्वान थे। ऐसा जान पड़ता है।
रचनाएं
डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर ने 'विश्वतत्त्व प्रकाश' की प्रस्तावना में भावसेन की दश रचनाएँ बतलाई हैं-विश्वतत्त्व प्रकाश, प्रमाप्रमेय, कथा विचार, शाकटायन व्याकरण टीका, कातन्त्ररूपमाला, न्याय सूर्यावली, भुक्ति मक्तिविचार, सिद्धान्तसार, न्यायदीपिका और सप्त पदार्थी टीका। ये रचनाएं सामने नहीं हैं। इसलिए इन सब के सम्बन्ध में लिखना शक्य नहीं हैं । यहां उनकी तीन रचनामों का संक्षिप्त परिचय दिया जाता है।
विश्वतत्व प्रकाश मालूम होता है यह गृद्धपिच्छाचार्य के तत्त्वार्थविषयक मंगल पद्य के 'ज्ञातारं विश्व तत्त्वानां' वाक्य पर विस्तत विचार किया है, इसीसे पुष्पिका में 'मोक्षशास्त्र विश्वतत्त्व प्रकाशे' रूप में उल्लेख किया है, और यह ग्रन्थ उसका प्रथम परिच्छेद है । इससे स्पष्ट जाना जाता है कि लेखक ने तत्त्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण पर विशाल ग्रन्थ लिखने का प्रयास किया था। इसके अन्य पच्छेिद लिखे गये या नहीं कुछ मालूम नहीं होता।
प्रमा प्रमय-यह ग्रन्थ भी दार्शनिक चर्चा से ओत-प्रोत है। इसके मंगल पद्य में तो 'प्रमा प्रमेयं प्रकटं
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
प्रवक्ष्ये' वाक्य द्वारा प्रमाप्रमेय ग्रन्थ को बनाने की प्रतिज्ञा की गई हैं । किन्तु अन्तिम पुष्पिका वाक्य में इमे सिद्धांतसार मोक्ष शास्त्र का पहला प्रकरण बतलाया है: -' इति परवादिगिरि सुरेश्वर श्रीमद् भावमेन त्रेविद्यदेव विरचिते सिद्धान्तसारे मोक्ष शास्त्रे प्रमाण निरूपणः प्रथमः परिच्छेदः । ये दोनों ग्रन्थकर्ता को दार्शनिक कृति हैं । और दोनों ही ग्रन्थ डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर द्वारा सम्पादित होकर 'जीवराज ग्रन्थमाला' शोलापुर से प्रकाशित हो चुके हैं । कातंत्ररूपमाला- इसमें शर्ववमांकृत कातन्त्र व्याकरण के सूत्रों के अनुसार शब्द रूपों की सिद्धि का वर्णन किया गया है । इस ग्रन्थ के प्रथम सन्दर्भ में ५७४ सूत्रों द्वारा सन्धि, नाम, समास और तद्धित का वर्णन है । और दूसरे सन्दर्भ में ८०६ सूत्रों द्वारा तिङ्गन्त व कृदन्त का वर्णन है ।
४०८
पंडित प्रवर श्राशाधर
महाकवि आशाधर विक्रम की १३ वी शताब्दी के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान थे। उनके बाद उन जैसा प्रतिभाशाली बहुश्रुत विद्वान ग्रन्थकर्ता और जैनधर्म का उद्योतक दूसरा कवि नही हुग्रा । न्याय, व्याकरण, काव्य, अलंकार, शब्दकोश, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र और वैद्यक आदि विविध विषयों पर उनका असाधारण अधिकार था। उनकी लेखनी अस्खलित, गम्भीर और विषय की स्पष्ट विवेचक है। उनकी प्रतिभा केवल जंन शास्त्रों तक ही सीमित नही थी, प्रत्युत अन्य भारतीय ग्रन्थों का उन्होंने केवल अध्ययन ही नही किया था, किन्तु 'ग्रप्टांग हृदय' काव्यालंकार और अमरकोश जैसे ग्रन्थों पर उन्होंने टीकाएं भी रची थी । किन्तु खेद है कि वे टीकाएं ग्रव उपलब्ध नही हैं | मालवपति अर्जुनवर्मा के राजगुरु बालसरस्वती कवि मदन ने उनके समीप काव्यशास्त्र का अध्ययन किया था । और विन्ध्य वर्मा के सन्धि विग्रहिक मन्त्री बिल्हण कवीश ने उनकी प्रगमा की है। उन्हें महा विद्वान यतिपति मदन कीर्तिने 'प्रज्ञापुंज' कहा है और उदयमेन मुनि ने जिनका 'नयविश्वचक्षु' 'काव्यामृतीघ रसपान सुतृप्त गात्र' तथा 'कलिकालिदास' जैसे विशेषण पदों से ग्रभिनन्दन किया है । ओर विन्ध्यवर्मा राजा के महासन्धि विग्रहिक मन्त्री (परराष्ट्र सचिव) कवीश विल्हण ने जिन की एकश्लोक द्वारा 'सरस्वती पुत्र' आदि के रूप में प्रशंसा को है । यह सब सम्मान उनकी उदारता और विशाल विद्वत्ता के कारण प्राप्त हुआ है । उस समय उनके पास अनेक मुनियों विद्वानों, भट्टारकों ने अध्ययन किया है। वादीन्द्र विद्यालकीर्ति को उन्होंने न्यायशास्त्र का अध्ययन कराया था, और भट्टारक विनयचन्द्र को धर्मशास्त्र पढ़ाया था। ओर अनेक व्यक्तियों को विद्याध्ययन कराकर उनके ज्ञान का विकास किया था । उनकी कृतियों का ध्यान में समीक्षण करने पर उनके विशाल पाण्डित्य का सहज ही पता चल जाता है । उनकी अनगार धर्मामत की टीका इस बात की प्रतीक है। उसमें ज्ञात होता है कि पण्डित आशाधर जी ने उपलब्ध जैन जैनेनर साहित्य का गारा अध्ययन किया था। वे अपने समय के उद्भट विद्वान थे, प्रोर उनका व्यक्तित्व महान था । और राज्य मान विद्वान थे ।
I
जन्मभूमि श्रौर वंश परिचय
पं० प्रशाधर और उनका परिवार मूलतः मांडलगढ़ (मेवाड़) के निवासी था । श्राशाधर का जन्म वहीं हुआ था । अतः आशाधर की जन्मभूमि मांडलगढ़ थी। वहां वे अपने जीवन के दश-पन्द्रह वर्ष ही बिता पाये थे कि सन् १२९२ (वि० सं० १२४६ ) में शहाबुद्दीन गोरी ने पृथ्वीराज को कैदकर दिल्ली को अपनी राजधामी बनाया, और अजमेर पर अधिकार किया। नव गोरी के आक्रमण से संत्रस्त हो और चारित्र की रक्षा के लिए वे सपरिकर बहुत लोगों के साथ मालवदेश की राजधानी धारा में श्रावसे थे । उस समय धारा नगरी मालवराज्य
१. आगाधर त्वं मयि विद्धि सिद्ध निसर्गसौन्दर्य मजर्य मायं । सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थे परं वाचमयं प्रपञ्चः ||६ २. म्लेच्छेशेन सरादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तक्षनित्रासाद्विन्ध्यनरेन्ददोः परिमलम्फूर्जस्त्रिवर्गोजसि । प्राप्तो मालव मण्डले बहुपरीवारः पुरीमावसन्, यो धारामपठज्जिनप्रमितिवाक्शास्त्रं महावीरतः ॥५
- अनगारधर्मामृतप्रशस्ति
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि
४०६
की राजधानी थी, और विद्या का केन्द्र बनी हई थी। और मालवराज्य का शासक परमार वंशी नरेश विन्ध्यवर्मा था। महाकवि मदन की पारिजात मजरी के अनुसार उम विशाल नगरी में चोरासी चोराहे थे। वहां अनेक देशों और दिशाओं गे पाने वाले विद्वानों ओर कला-कोविदो की भीड़ लगी रहती थी। यद्यपि वहां अनेक विद्यापीठ थे, कितु उन राब में ख्यातिप्राप्त शारदा मदन नामक विशाल विद्यापीठ था। वहाँ अनेक प्रतिष्ठित श्रावकों जैनविद्वानों और श्रमणों का निवाम था, जो ध्यान, अध्ययन और अध्यापन में मंलग्न रहते थे। इन सब से धारा नगरी उस समय सम्पन्न और समद्धि को प्राप्त थी। आशाधर ने धारा में निवास करते हए पण्डित श्रीधर के शिष्य पण्डित महावीर में न्याय ग्रीर व्याकरण शास्त्र का अध्ययन किया था ।
इनकी जाति वघरवाल थी। पिता का नाम 'मल्लखण' और माता का नाम 'श्री रत्नी' था। पत्नी का नाम सरस्वती और पुत्र का नाम छाड था, जिसने अर्जुनभूपति को अनुरंजित किया था। इसके सिवाय इनके परिवार का और कोई उल्लेख नही मिलता। पं० प्राशाधर अर्जुनवर्मा के राज्य काल में ही जैन धर्म का उद्योत करने के लिए धारा मे नलकच्छपुर (नालछा) में चले गये थे ।
यद्यपि प० प्राशाधर ने अपने जीवन काल में धारा के राज्य मिहामन पर पांच गजानों को बैठे हए देखा था । किन्तु उनकी उपलब्ध रचना, देवपाल और उनके पुत्र जैतुगिव के राय काल में रची गई थीं। इसीसे
की प्रशस्तियों में उक्त दोनो गजामों का उल्नेख मिलता है। नालछा में उस समय अनेक धर्मनिष्ठ श्रावकों का प्रावास था। वहा का नेमिनाथ का मन्दिर पाशाधर के अध्ययन और ग्रन्थ रचना का स्थल था। वह उनका एक प्रकार का विद्यापीठ था, जहां नीग-नीम वर्प रह कर उन्होने अनेक ग्रन्थ रने, उनकी टीकारा लिखी गई, और अध्यापन कार्य भी सम्पन्न किया। जैनधर्म ग्रोर जैन माहित्य के अभ्युदय ने लिए किया गया पण्डितप्रवर आशाघर का यह महत्वपूर्ण कार्य उनकी कीर्ति को अमर ग्ववेगा।
संवत १२८२ में प्रागाधर जी नालछा से मलखणपुर गरे थे। उग समय वहां अनेक धार्मिक श्रावक रहते थे। मल्ह का पुत्र नागदेव भी बनाना निवामी था, जो मालव राज्य के चगी ग्रादि विभाग में कार्य करता था। और यथाशक्ति धर्म का साधन भी करता था। आशाधर उस समय गहरथाचार्य थे। नागदेव की प्रेरणा से
१. "च मी चताप मगदन प्रध नेपालदिगन्नरोपगनाने कवि मरदावला-वोविद रसिक सूकवि संकूले। २. "यो धागमाठजिन प्रमिति वावगार महावीरतः।।" ३ 'यः पुत्रं छाई गुप रमिलार्जनभूतिम्' । ४. 'श्रीमदर्जुनभूपान गज्ये श्रावक संकुले।
जैनधर्मोदयार्थ यो नल कच्छपुरे वमत् ।। नलकच्छपर नो नानन्द्रा कहते है। यह स्थान पारा नगरी गे १० कोमकी दरी स्थित है। यहा अब भी जैन मन्दिर
और कुछ श्रावको के घर है। ५. साधोमंदितव गवंशमुमणेः सज्जन चुडामणेः । माल्हाख्यारय सुतः प्रतीत महिमा श्री नागदेवोऽभवत् ॥१ पः शुल्कादिपदेप मालवपतेः नावानि युक्तं शिवं । श्री मल्लक्षणया स्वमाथितवस का प्रापयतः श्रियं ।।२ श्रीमत्केशव मेनार्यवर्य वाक्यादुपेयुपा । पाक्षिक श्रावकीभावं तेनमालव मंडले ॥३ राल्लक्षणपुरे तिष्ठन् गृहस्थाचार्य कुजरः । पण्डिताशाधरो भक्त्या विज्ञप्तः सम्यगेकदा । प्रायेणराजकार्येऽवरुद्ध धर्माश्रितस्य मे । भाद्रंकिंचिदनुष्ठेयं व्रतमादिश्यतामिति ॥५ ततस्तेन समीक्षो वै परमागमविस्तरं । उपविष्ट सतामिष्टतस्यायं विधिसत्तमः ।। तेनान्यैश्च यथा शक्तिर्भवभीतरनुष्ठितः। ग्रंथो बुधाशाघरेण सद्धर्मार्थ मथो कृतः॥७ विक्रमार्क व्यशीत्यरद्वादशाब्दशतात्यये । दशम्या पश्चिमे (भागे) कृष्णे प्रथतां कथा ॥ पली श्री नागदेवस्य मंद्याद्धर्मेण नायिका। यासीद्रत्नत्रयविधि चरतीनां पुरस्मरी। -रलत्रय विधि प्रशस्ति
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
४१०
उन्होंने उसकी पत्नी के लिए 'रत्नत्रय - विधान' की रचना की थी। उसकी प्रशस्ति के चतुर्थ पद्य में उन्होंने अपने को 'गृहस्थाचार्य कु'जर' बतलाया है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है:
सल्लक्षणपुरे तिष्ठन् गृहस्थाचार्यकुंजरः । पण्डिताशाधरो भक्त्या विज्ञप्तः सम्यगेकदा ॥४॥
मालवनरेश अर्जुनवर्म देव का भाद्रपद सुदी १५ बुधवार सं० १२७२ का लिखा हुआ दानपत्र मिला है । उसके अन्त में लिखा है - 'रचितमिदं महासन्धि० राजा सलखण संमतेन राजगुरुणा मदनेन ।" इससे स्पष्ट है कि यह दान पत्र महासन्धि विग्रहिक मंत्री राजा सलखण की सम्मति मे राजगुरु मदन ने रचा । सम्भव है आशाधर के पिता सलखण अर्जुनवर्मा के महासन्धि विग्रहिक मंत्री बन गये हों ।
पण्डित प्रशार गृहस्थ विद्वान थे और वे अन्तिम जीवन तक सम्भवतः गृहस्थ श्रावक ही रहे है । हां जिन सहस्त्र नाम की रचना करते समय वे संसार के देह-भोगों से उदासीन हो गए थे, और उनका मोहावेश शिथिल हो गया था, जैसा कि उसके निम्न वाक्यों से प्रगट है :
प्रभो भवांगभोगेषु निर्विण्णो दुखभीरुकः । एषविज्ञापयामि त्वां शरण्यं करुणार्णवम् । १
श्रद्य मोहग्रहावेशशैथिल्यात्किञ्चि दुन्मुखः
सहस्त्र नाम की रचना स० १२८५ के बाद नहीं हुई वह स० १२९६ से पूर्व हो चुकी थी, क्योंकि जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्ति में उसका उल्लेख है । अतः वे १२९६ से कुछ पूर्व वे उदासीन श्रावक गये थे 1
रचनाए
आपकी २० रचनाओं का उल्लेख मिलता है । उनमें से सम्भवतः सात रचनाएं प्राप्त नही हुई । जिनकी खोज करने की आवश्यकता है। शेष १३ रचनाओं में से ५ रचनाओं में रचना काल पाया जाता है। आठ रचनाओं में रचनाकाल नही दिया ।
१ प्रमेय रत्नाकर - इसे ग्रन्थकार ने स्याद्वाद विद्याका निर्मल प्रसाद बतलाया है यह गद्य-पद्यमय ग्रन्थ होगा, जो अप्राप्य है ।
२ भरतेश्वराभ्युदय - (सिद्धयक) इसके प्रत्येक सर्ग के अन्तिम वृत्त में 'सिद्धि' शब्द आया है, स्वोपज्ञ टीका सहित है और उसमें ऋषभदेव के पुत्र भरत के अभ्युदय का वर्णन है । यह काव्य ग्रन्थ भी अप्राप्य है ।
१३ ज्ञानदीपिका - यह सागार अनगार धर्मामृत की स्वोपज्ञ पंजिका है, जो अब अप्राप्य हो गई है । भट्टारक यशःकीति के केशरिया जी के सरस्वती भवन की सूची में 'धर्मामृतपजिका' आशाधर की उपलब्ध है, जो सं० १५४१ की लिखा हुई है । सम्भव है यह वही हो, अन्वेषण करना चाहिए।
४ राजीमती विप्रलंभ - यह एक खण्ड काव्य है, स्वोपज्ञ टीका सहित है। इसमें राजीमती और नेमिनाथ के वियोग का कथन है, यह भी अप्राप्य है ।
I
५ अध्यात्म रहस्य - यह ७२ श्लोकात्मकग्रन्थ है, जिसे कविने अपने पिताकी आज्ञा से बनाया था। इसकी प्रति अजमेर के शास्त्रभंडार से मुख्तार सा० को प्राप्त हुई थी, जिसे उन्होंने हिन्दी टीकाके साथ वीरसेवामन्दिर से प्रकाशित किया है । यह अध्यात्म विषयका ग्रन्थ है । इसमें म्रात्मा परमात्मा और दोनों के सम्बन्ध की यथार्थ वस्तुस्थिति का रहस्य या मर्म उद्घाटित किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ये तीन भेद किये हैं पं० प्राशाधर जी ने स्वात्मा, शुद्धस्वात्मा और परब्रह्म ये तीन भेद किये हैं और उनके स्वरूप तथा प्राप्ति आदि का कथन किया है । ग्रन्थ मनन करने योग्य है ।
६ मूलाराधना टीका – यह शिवार्य के प्राकृत भगवती म्राराधना की टीका है। जो अपराजित सूरि की टीका के साथ प्रकाशित हो चुकी है ।
७ इष्टोपदेश टीका - यह आचार्य देवनन्दी (पूज्यपाद) के प्रसिद्ध ग्रन्थ की टीका है, जो सागरचन्द्र के शिष्य
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
४११
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य और कवि
मुनि विनचन्द्र के अनुरोध मे बनाई यो । योर वह हिन्दी टोका के साथ वार सेवामन्दिर में प्रकाशित हो चुकी है । ८ भूपाल चतुविशति टीका - यह भपाल कवि के चतुर्विंशति स्तात्र की टीका है, जा उक्त विनयचन्द्र मुनि के लिये बनाई गई थी, और बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है ।
६ श्राराधनासार टीका - यह देवमेन के प्राकृत आराधनासार की ७ पत्रात्मक ओर म० १५८१ की लिखी हुई सक्षिप्त टीका है, जो उक्त विनयचन्द्र मुनि के उपरोधमे रची गई है और ग्रामेर के शास्त्र भडार में उपलब्ध है, उसका आदि श्रन्त भाग इस प्रकार है :
-
प्रणम्य परमात्मानं स्वशक्त्याशाधरः स्फुट: । श्राराधनासारगूढ पदार्था कथयाम्यहं ॥ १
विमलेत्यादि । विमलेभ्यः क्षीणकषायगुणेभ्योऽतिशयेन विमला विपलतरा शुद्धतराः गणा परमावगाढ सम्यग्दर्शनादयः । सिद्धं जीवन्मुक्त जगत्प्रतीतं वा । सुरसेन वंदि - सहइ वे स्वामिभिर्वर्तने सेनाः स स्वामिकाः निज निज स्वामियुक्त चतुणिकाय देवैस्तथा देवमेन नाम्ना ग्रन्थकृता नमस्कृतमित्यर्थः । श्राराहणासारं सम्यग्दर्शनादी मुद्योतनाद्य पाय पंचकाराधना तस्याः स सम्यग्दर्शनादि चतुष्टयं तया तस्यै वा राधना तयोपादेय वलात् ॥१॥ विनयचन्द्रमुनेर्हता राशाधरकवीश्वरः ।
स्फुटमाराधनासार टिप्पनं कृतवानिदम् ॥
उपलब्ध है ।
उपशम इव मूर्त सागरन्द्रान्मुनीन्द्राऽदर्जानि विनयचन्द्रः सच्चकोकचन्द्रः । जगदमृत सगर्भाः शास्त्रसंदर्भगर्भाः शुचि चरितवरिष्णो यस्य धिन्वतिवाचः ॥ एवमाराधनासार गूढार्थ (पद) विवृतिः । शिष्ये तं श्रेयोर्थिनो बोधयितुं कृतामता ॥
श्री विनयचन्द्रार्थमित्याशाधर विरचिताराधनासार विवृत्तिः समाप्ता ।
शुभम् स्वस्ति श्रादिजिन प्रणम्य, सं० १५८१ छ ।।
१० अमरकोश टीका - यह अमरसिह के प्रसिद्ध कोप की टीका है जो अप्राप्य है ।
११ क्रियाकलाप - इसकी ५२ पत्रात्मक प्रति ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन बम्बई मे
१२ काव्यालंकार टीका - यह रुद्रट के काव्यानकार की टीका है ।
१३ सहस्र नाम स्वोपज्ञविवृति सहित - यह ग्रन्थ अपनी स्वोपज्ञ विवृति और श्रुतसागर सूरि की टीका तथा हिन्दी टीका के साथ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। इस टीका की प्रति मुनि विनयचन्द्र ने लिखी थी ।
१४ जिनयज्ञकल्प सटीक - यह मूल ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है । परन्तु इसकी स्वोपज्ञ टीका अभी श्रप्राप्त है । ग्रन्थ मे प्रतिष्ठासम्बन्धि क्रियाश्रो का विस्तृत वर्णन है। महाकवि आशाधर ने यह ग्रन्थ वि० सं० १२८५ मे परमरवशी राजा देवपाल के राज्य मे नल कच्छपुर के नेमिनाथ चैत्यालय मे पापा साधु के अनुराध से बनाकर समाप्त किया था। जैसा कि उसके प्रशस्ति पद्यसे प्रकट है :
:―
१. पूरी गाथा इस प्रकार है :
विमलयर गुणसमिद्ध सिद्ध' सुरसेण वंदियं सिरसा । मिऊण महावीरं वोच्छं आराहणासारं ॥ १ ॥
२. खाडल्यान्वय भूषरणाल्हरण सुतः सागारधर्मेरतो, वास्तव्यो नलकच्छ चारुनगरे कर्त्ता परोपक्रियाम् । सर्वज्ञानपात्रदानसमयोद्योत प्रतिष्ठाग्रणी,
पापासाषुरकायत्पुनरिमं कृत्वोपरोधं मुहुः ॥ - जिन यज्ञकल्प प्र०
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ विक्रम वर्ष सपंचाशीति द्वादशशतेष्वतीतेषु । आश्विनसितान्त्यदिवसे साहसमल्ला पराख्यस्य । श्रीदेवपाल नृपतेः प्रमारकुलशेखरस्य सौराज्ये, नल कच्छपुरे सिद्धो ग्रन्थोयं नेमिनाथचैत्यगृहे ॥२०॥
१५ त्रिषष्टि स्मृतिशास्त्र सटीक-इसमें तिरेसठ शलाका पुरुषों का चरित जिनसेनाचार्य के महापुराण के आधार से अत्यन्त संक्षेप में लिखा गया है । इसे पंडित जी ने नित्य स्वाध्याय के लिये, जाजाक पण्डित की प्रेरणा से रचा था । इसकी आद्यप्रति खण्डेलवाल कुलोत्पन्न धीनाक नामक थावक ने लिखी थी। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १२९२ में समाप्त की है, जैसा कि उसकी अन्तिम प्रशस्ति के निम्न पद्यों में प्रकट है :
प्रमारवंशवा?न्दुदेवपालनृपात्मजे । श्रीमज्जैतुगिदेवेऽसि स्थाम्नावन्तीमवत्यलम् ॥१२ नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमिचैत्यालयेऽसिधत् । ग्रन्थोऽयं द्विनवद्वयेकविक्रमार्कसमाप्तये ॥१३ नित्यमहोद्योत--यह जिनाभिषेक (स्नान शास्त्र) श्रुतसागर सूरिका टीका के साथ प्रकाशित हो चुका है।
१६ रत्नत्रय विधान-यह ग्रन्थ बहुत छोटा-सा है और गद्य में लिखा गया है, कुछ पद्य भी दिये हैं। इसे कवि ने सलखण पुर के निवासी नागदेव की प्रेरणा स, जा परमारवशी राजा देव पाल (साहसमल्ल) के राज्य में शाल्क विभाग में (चुगी आदि टंक्स के कार्य में) नियुक्त था, उसकी पत्नी के लिये स० १२८२ में बनाया था। जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्यसे प्रकट है :...
विक्रमाकं व्यशीत्यग्रद्वादशाब्दशतात्यये। दशम्यां पश्चिमे (भागे) कृष्ण प्रथतां कथा।
पत्नी श्रीनागदेवस्य नंद्याद्धर्मेण यायिका। तासीद्रत्नत्रर्यावधिचरतीनां पुरस्मरी ॥ १७-१८ सागरधर्मामृत की भव्यकुमक्चन्द्रिका टीका--
सागारधर्म का वर्णन करने वाला प्रस्तुत ग्रन्थ पंडित जी ने पौरपाटान्वयी महीचन्द साधु की प्रेरणा से रचा था और उसीने इसकी प्रथम पुस्तक लिखकर तैयार की। इसकी टीका की रचना वि० स० १२६६ में पोषवदी ७ शुक्रवार को हुई है' । इसका परिमाण ४५०० श्लोक प्रमाण है। १९-२० अनगार धर्मामृत को भव्य कुमुद न्द्रिका टीका
कवि ने इस ग्रन्थ की रचना ६५४ श्लोकों में की है। धणचन्द्र ओर हरिदेव की प्रेरणा से इसकी टीका की रचना बारह हजार दो सो इलाकों में पूर्ण की है, और उसे वि० सं० १३०० में कार्तिक सुदो ५ सोमवार के दिन समाप्त की थी। टीका पडित जी के विशाल पाडित्य की द्योतक है । इसके अध्ययन से उनके विशाल अध्ययन का पता चलता है । माणिकचन्द ग्रन्थमाला से इसका प्रकाशन सन् १९१६ में हुआ था। मूलग्रन्थ ओर सस्कृत टीका दोनों ही अप्राप्य हैं। भारतीय ज्ञानपीठ को इस ग्रन्थको सस्कृत हिन्दी टीका के साथ प्रकाशित करना चाहिये । ग्रन्थ प्रमेय बहुल है।
नरेन्द्रकोति विद्य
मुलसंघ कोण्डकून्दान्वय देशीयगण पुस्तक गच्छ के प्राचार्य सागर नन्दि सिद्धान्त देव के प्रशिष्य और मनि पुङ्गव अर्हनन्दि के शिष्य थे। जो तर्क, व्याकरण और सिद्धान्त शास्त्र में निपुण होने के कारण विद्य कहलाते थे। इनके सधर्मा ३६ गुणमण्डित और पंचाचार निरत मूनिचन्द्र भट्टारक थे। इनका शिष्य देव या देवराज था। यह देवराज कौशिक मुनि की परम्परा में हुमा है। कडुचरिते के देवराज ने सूरनहल्लि में एक जिन मन्दिर बनवाया था। उसको होयसल देवराजने सूरनहल्लि' ग्रामदान में दिया था। अत: उसने सूरनहल्लि ४० होन में से १० होन इसके लिये निकाल दिये, और उसका नाम 'पार्श्वपुर' रख दिया। देवराज ने मुनिचन्द्र के पाद प्रक्षालन दान दिया।
२. संक्षिप्यतां पुराणानि नित्य स्वाध्याय सिद्धये । इति पंडित जाजाकाद्विज्ञप्तिा प्रेरिकात्र में ॥-त्रिषष्ठि स्मृतिशास्त्र
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि
लुईसराइस के अनुसार इस लेख का समय ११५४ ई० है। यही समय सन ११५४ (वि० सं० १२११ नरेन्द्रकीति त्रैविद्य और उनके सधर्मा मुनिचन्द का है ।
वासवसेन मनि वासवसेन ने अपना कोई परिचय नहीं दिया। और न ग्रन्थ में रचना काल ही दिया। इनको एक मात्र कृति यशोधर चरित है। उसमे इतना मात्र उल्लेख किया है कि बागडान्वय में जन्म लेन वाले वासवमेन की यह कृति है-'कृति वासवसेनस्य वागडान्वय जन्मनः ।' ग्रय ८ सर्गात्मक एक खण्ड काव्य है । जिस में राजा यशोधर और चन्द्रमती का जीवन अंकित किया गया है । यशोधर का कथानक दयापूर्ण और सरस रहा है । इसी से यशोधर के संबंध में दिगम्बर-श्वेताम्बर विद्वानों और प्राचार्यों ने प्राकृत सस्कृत भापामें अनेक ग्रथ लिखे है। वास्तव में ये काव्य दयाधर्म के विस्तारक है। इनमें सबसे पुराना काव्य प्रभजन का यशाधर चरित है। इस चरित का उल्लेख कुवलयमाला के कर्ता उद्योतनमूरि (वि० स० ८३५ के लगभग) ने किया है ' । कविवासवर्गन ने लिखा है कि पहले प्रभंजन और हारपण आदि कविया न जा कुछ कहा है वह मुझ वालक स कम कहा जा सकता है
प्रेमी जी ने लिखा है कि विक्रम स० १३६५ म गंधर्व ने पुष्पदन्त के यशाधरचारत में कौल का प्रसंग, विवाह और भवांतर कथन चरित म शामिल किया है उसका उन्हान यथायस्थान उल्लेख भी कर दिया है। कांव गधर्व ने पहली संधि के २७ व कडवक की ७६वी पक्ति म लिखा है कि-'जं वासवसेणि पुव्वरइउ, तं पेक्खवि गंधव्वेण कहिउ'। इससे स्पष्ट है कि वासवगेन का यशोधर चरित पहल रचा गया था, उम दबकर हा गधव कोव ने लिखा है। इस उल्लेख से इतना स्पष्ट हो जाता है कि वासवसेन वि० सं० १३६५ में पूर्व वर्ती विद्वान है, उससे बाद के नही। संभवतः वे विक्रम की १३वी शताब्दी के विद्वान हों।
वादीन्द्र विशालकीति बड़े भारी वादी थे। इन्हें पण्डित पाशाधर जी ने न्यायशास्त्र पढ़ाया था। वे तर्कगास्त्र में निपुण थे, और धारा या उज्जैन के निवासी थे । यह धारा या उज्जैन की गद्दी दे. भट्टारक थे इनके शिष्य मदनकोति थे। अपने गफ के मना करने पर भी मदनकीति दक्षिण देश की ओर कर्नाटक चले गए थे। वहां पर विद्वप्रिय विजयपुर नरेश कन्तिभोज उनके पाण्डित्य पर मोहित हो गए। फिर वे वहां से वापिस नही लोटे । विशालकीति ने उन्हें अनेक पत्रों द्वारा प्रबुद्ध किया किन्तु वे टम से मस नही हुए। तब विशालकीति जी स्वयं दक्षिण की ओर गए। वे कोल्हापुर गये हों, और सम्भवतः उन्होंने मदनकीति को साक्षात्प्रेरणा की हो, ओर उससे सम्प्रबुद्ध हुए हों। सोमदेव मुनि कृत हाब्दार्णवचन्द्रिका की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कोल्हापुर प्रान्तान्तर्गत अर्जुरिका नाम के गांव में शक सं०११२७ (वि.सं. १२६२) में श्री नेमिनाथ भगवान के चरण कमलों की आराधना के बल से और वादीभवनांकश
१. सत्तूरण जो जमहरो जसहर चशिएग जगवाए पयडी।
कलिमलपभंजणांच्चिय पभंजणो आसि गरिसी ।कुवलयमाला २. प्रभंजनादिभिपूर्व हरिषेणसमन्वितैः ।
यदुक्तं तत्कथं शक्यं मया बालेन भापितुम् ।। यशोधरचरित ३. स्वस्ति श्रीकोल्लापुर देशान्तर्वार्जुरिकामहारथानयुधिष्ठिगवतार महामण्डलेश्वर गंडगदित्यदेव निर्मापित निभुवनतिलक जिनालये श्रीमत्तरमपरमेष्ठि श्री नेमिनाथ श्रीपादपपाराधनबलेन वादीभवज्राकुश श्रीविशालकीर्ति पंण्डित देव वयावृत्यतः श्री मच्छिलाहारकुलकमलमार्तण्डतेज; पुजराजाधिराजपरमेश्वरपरमभट्टारक पश्चिमचक्रवति श्रीवीरभोजदेव विजयराज्ये सकवर्षकसहस्रं कशतसप्तविंशति ११२७ तम क्रोधन सम्वत्सरे स्वस्तिसमस्तानवद्य विद्याचक्रवर्ति श्री पूज्यपादानुरक्तचेतसा श्रीमत्सोमदेवमुनीश्वरेण विरचितेयं शब्दार्णवचन्द्रिका नाम वृत्तिरिति ।
-जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा० १ पृ० १६६
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
विशालकीर्ति पण्डितदेव की वैयावृत्य से शब्दार्णवर्चा,द्रका की रचना की थी। उस समय वहां शिलाहारवंशीय वीर भोजदेव का राज्य था। राजशेखर सूरि के 'चतुविशति-प्रबन्ध' में वर्णित विजयपूर नरेश कूतिभोज और सोमदेव द्वारा वणित वीर भोजदेव दोनों एक ही हैं। अतः वादीन्द्र विशालकीति का समय सं० १२६० मे १३०० के मध्य तक जानना चाहिए। इस उपनेख से विशालकोति का कोल्हापूर के पास-पास जाना निश्चित है
मुनि पूर्णभद्र यह मुनि गुणभद्र के शिष्य थे । इन्होंने अपनी कृति 'सुकमालचरिउ को अन्तिम प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा का तो उल्लेख किया है किन्तु संघगण-गच्छादिक का काई उल्लेख नही किया। गुजरात देश के सुप्रसिद्ध नागर मडल के निवासी वीरमूरि के विनयशील शिप्य मुनिभद्र थे। उनके शिप्य कुसुमभद्र हुए, ओर कुसुमभद्र के शिप्य गणभद्र मूनि थे, पार गुण गद्र के शिष्य पूर्णभद्र थे । ग्रन्थ में कवि ने रचना काल का कोई उल्लेख नहीं किया। ऐसी स्थिति में समय का निश्चित करना कठिन है।
आमेर शास्त्र भंडार की यह प्रति सं०१६३२ की प्रतिलिपि को हुई है। इसमे मात्र इतना फलित होता है किसकमाल चरित की रचना मं० १६३२ से पूर्व हुई है।
'णमिणाह चरिउ' के कर्ता कवि दामोदर ने अपने गुरु का नाम महामुनि कमलभद्र लिखा है। जो गुणभद्र के शिष्य थे। और मुरमेन मुनि के शिष्य थे । यदि दामोदर कवि द्वारा उल्लिखित गुणभद्र और मूनि पूर्णभद्र के कणभट की एकता मिद्ध हा जाय तो इन पूर्णभद्र का ममय विक्रम को १३ वा शताब्दी का मध्यकाल हा सकता है: क्योंकि दामोदर ने नेमिनाथ चरित की रचना का समय सं० १२८७ दिया है, दामोदर गुजरात से सलखणपूर आये थे। ओर मुनिपूर्णभद्र भी गुजरात देश के निवासी थे।
प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'सुकमाल चरिउ' है । जिसमें छह सधियां हैं, जिनमें अवन्ति नगरी के सुकमालश्रेष्ठी का जीवन परिचय अकित है जिमसे मालम होता है कि उनका शरीर अत्यन्त सुकोमल था। पर वे उपसर्ग और परीषदों के सहने में उतने ही कठोर थे। उनके उपसर्ग की पीड़ा का ध्यान पाते ही शरीर के रोंगटे खडे हो जाते हैं। परन्तु उम साधु की निस्प्टहता और सहिष्णुता पर पाश्चर्य हा बिना नहीं रहता, जब गीदड़ी और उसके बच्चों द्वारा उनके शरीर के खाए जाने पर भी उन्होंने पीड़ा का अनुभव नहीं किया, प्रत्युत सम परिणामों द्वारा नश्वर काया का परित्याग किया। ऐसे परीपहजयी साधु के चरणो में मस्तक अनायास झुक जाता है।
__गुणवर्म (द्वितीय) कवि का निवास कुंडि नामक स्थान में था। इसके गुरु वही मुनिचन्द्र जान पड़ते हैं जो कार्तिवीर्य नरेश के गरु थ । कातिवीर्य 'अहितक्ष्मभद्वज्र' सेनापति शान्तिवर्म कवि का पोपक था। गणाब्जवन कलहस, वितिलक, और काव्यसत्कलाणव मृगलक्ष्मी आदि विरुद थे । कवि की दो रचनाएं उपलब्ध हैं, पुष्पदन्त पुराण पार चन्द्र नाथ पुप्पदन्त पुराण मे हवं तीर्थकर का चरित्र चित्रण किया गया है। उसमें अपने से पूर्ववर्ती कवियों का स्मरण करते हए कवि न जन्न कवि (सन् १२३० ई०) का गुणगान किया है। इससे स्पष्ट है कि कवि जन्य के बाद हमा है। पार सन् १२४५ ई० के मल्लिकार्जुन ने अपने 'सूक्तिसुधार्णव' में पुष्पदन्त पुराण के पद्य उद्धत किए है। इससे यह कवि मल्लिकार्जुन से पहले हुआ है। अतएव इसका समय सन् १२३५ ई० जान पड़ता है। कवि की रचना सूकर और प्रसाद गुणयुक्त है।
कमलमव मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय देशीगण और पुस्तक गच्छ के प्राचार्य माधनन्दि का शिष्य था। इसके दो विरुद थे, कवि कंजगर्भ, और सूक्तिसन्दर्भ गर्भ । कवि को एक मात्रकृति शान्तीश्वर पुराण है। इसने अपने से पूर्ववर्ती कवियों में
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य और कवि
४१५
जनकवि का स्मरण किया है। और मल्लिकार्जुन ने सूक्तिसुधार्णव में शान्तीश्वर चरित के पद्य उद्धृत किए हैं। इस कारण इसका समय भी सन् १२३५ ई० के लगभग जान पड़ता है ।
अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती
मूलसंघ, देशिय गण, पुस्तक गच्छ कुन्दकुन्दाव्यय की इंगलेश्वरीय शाखा के श्रीसमुदाय में माघनन्दि भट्टरक हुए । उनके दो शिष्य थे, नेमिचन्द्र भट्टारक और अभयचन्द्र सैद्धान्तिक । प्रस्तुत अभयचन्द्र सैद्धान्तिक बालचन्द्र पण्डित देव के श्रत गुरु थे' गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्द प्रबोधिका टीका में प्रभयन्द्र ने बालचन्द्र पण्डित देव का उल्लेख | किया है । अभयचन्द्र सूरि छन्द, न्याय, निघण्टु, शब्द, समय, कलकार और प्रमाण शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे । श्रत मुनि ने अभयचन्द्र मैद्धातिक को भावसंग्रह में शब्दागम, परमागम, और तर्कागम का ज्ञाता, और सब वादियों वो जीतने वाला बतलाया है'। इन सब उल्लेखों से प्रभयचन्द्र के व्यक्तित्व का आभास मिलता है । प्रस्तुत अभयचन्द्र और बालचन्द्र वही है जिनकी प्रशंसा वेल्लूर के शिलालेखा में की गई है। इनका स्वर्गवास शक वर्ष १२०१ सं० १२७६ में हुआ है । अतः अभयचन्द्र ईसा की १३वीं सदी के विद्वान हैं । गोम्मट सार की कनड़ी टीका के कर्ता के शववर्णी इन्ही अभयचन्द्र सूरि के शिष्य थे। इन्होंने अपनी कनड़ी टीका भ० धर्मभूषण की आज्ञानुसार शक सं० १२८१ (सन् १३५६ ई०) में की है ।
रचनाएँ
प्रस्तुत अभयचन्द्र दर्शन शास्त्र के विद्वान थे। इन्होंने अकलंक देव के 'लघीयस्त्रय' की 'स्याद्वाद भषण' नामक तात्पर्य वृत्ति के प्रारम्भ में जिनेन्द्र के विशेषण के रूप में अकलंक और अनन्तवीर्य का नामोल्लेख किया है । प्रस्तुत अभयचन्द्र ने आचार्य प्रभाचन्द्र के न्याय कुमुदचन्द्र को देखकर उक्त वृत्ति बनाई थी। जैसा कि उनके 'अकलंक प्रभा व्यक्तम्' वाक्य से जान पड़ता है। यह प्रभाचन्द्र के बाद के विद्वान
इनकी बनाई हुई गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्दप्रबोधिका टीका ३८३ गाथा तक ही उपलब्ध है । इस टीका में गोम्मटसार पंजिका टीका का उल्लेख निम्न शब्दों में है।
:
"अथवा सम्मूर्छन गर्भोपपादानाश्रित्य जन्म भवतीति गोम्मट पंजिका कारादीनामभिप्रायः । " ( गो० जी० मन्द प्र० टीका गा० ८३) । इस पंजिका टीका की १ प्रति उपलब्ध है । इस पंजिका के कर्ता गिरिकीति हैं । यह पंजिका गोम्मटसार की रचना से सौ वर्ष बाद बनी है। जैसा कि उसकी निम्न प्रशस्ति गाथा से स्पष्ट है।
--
सोलहस हियसहस्से गयसककालेपवड्डूमाणस्स । भावसमस्ससमत्ता कत्तियणंदीसरे एसा ॥
१. जैन शिलालेख सं० भा० ३ लेख ५२४ पृ० ३७१ २. गोम्मटसार जीवकाण्ड टीका कलकत्ता संस्करण पृ० १५० ३. छन्दो - न्याय निघण्टु-शब्द- समयालङ्कार पट्खण्डवाग्भूचक्रं विवृतं जिनेन्द्र हिमवजात प्रमाणद्वयी । गङ्गा-सिन्धु-युगेन- दुमंत खगोर्वी भृद्भिदा यत् स्वधीचक्राकान्त मतोऽभयेन्दु-यतिपः सिद्धान्तचक्राधिपः ।
जैनलेख सं० भा० ३ ले० ५२४ पृ० ३७१
४. सद्दागम-परमागम-तक्कागम निरवमेस वेदी हु । विजिद-सयलण्णवादी जयउ चिरं अभयसूरिसिद्धंती ॥ ५. एपिग्राफिया कटिका जिल्द ५ संख्या १३१-३३ ६. जैन लेख सं० भा० ३ लेख नं० ५२४ पृ० ३७१
- भावसंग्रह प्रशस्ति
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
पंजिका का रचना काल शक सं० १०१६ (वि० सं० ११५१) कार्तिक शुक्ला है।
कर्म प्रकृति संस्कृत गद्य-यह भी इन्हीं की कृति है, जिसमें संक्षेप में कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। द्रव्य कर्म के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग ओर प्रदेश भेदों का उल्लेख करते हए मल ज्ञानावरणादि पाठ और उत्तर १४८ प्रकृतियों के स्वरूप ओर भेदा का वर्णन किया है। प्रोर अन्त में पाँच लब्धियों तथा चौदह गुणस्थानों का कथन किया है। अन्य इनको क्या कृतियाँ है यह अन्वेषणीय है। यह ईसा का १३ वी शताब्दी के अन्तिम चरण के, प्रोर विक्रम को १४ वी शताब्दो के विद्वान हैं।
___ गोम्मटसार को कनड़ी टीकाकार केशववर्णी इन्ही अभयचन्द्र के शिष्य थे। केशववर्णी ने गोम्मटसार की जीवतत्त्व प्रबोधिका कनड़ावृत्ति भट्टारक धर्मभूषण के आदेशानुसार शक स० १२८१ (सन् १३५६ ई०) में समाप्त की थी।
भानुकोति सिद्धान्तदेव यह मूल संघ कुन्दकुन्दान्वय काणूरगण तिन्त्रिणी गच्छ के विद्वान् प्राचार्य पद्मनन्दी के प्रशिष्य और मुनि चन्द्रदेव यमी के शिष्य थे। जो न्याय व्याकरण और काव्यादि शारत्रों में पारगत थे। मन्त्र तत्र में बहुत चतुर थे। वन्दणिका तीर्थ के अधिपति थे जैसा कि तेवर तेप्प के शिलालेख के निम्न पद्य से प्रकट है :
श्रीमन्मलपदादि-संघ-तिलके श्रीकुन्डकुन्दान्वये, काणूर-नाम-गणोत्स-गत्सशुभगे-भूतिन्त्रिणी काहये। शिष्यः श्री मुनिचन्द्र देव यमिनः सिद्धान्त-पारङ्गयो ,
जीयाद् वन्दणिका-पुरेश्वरतया श्री भानुकोतिम्मुनिः ॥ इन भानुकीति सिद्धान्त देव को विज्जलदेव की पुत्री अलिया ने शक वर्ष १०८१ के प्रमाथि संवत्सर की पूष शुक्ला चतुर्दशी शुत्रवार को, सन् ११५६ वि० स० १२ १३ में) होन्नेयास के साथ इस सुन्दर मन्दिर को भूमियों का दान दिया था।
नागर खण्ड के सामन्न लोक गावुण्ड ने सन् ११७१ ई० (वि० सं० १२२८) में एक जैन मन्दिर का निर्माण कराया, और उसकी अष्टप्रकारी पूजा के लिये उक्त भानुकीति सिद्धान्त देव को भूमि दान की थी।
___ शक १०६६ (सन् ११७७ ई० वि० स० १२३४) में सङ्क गावुण्ड देकि सेट्टि के साथ मिलकर एलम्बलिल में एक जिनमन्दिर बनवाया और शान्तिनाथ वसदि की मरम्मत तथा मुनियों के आहार दान के लिए उक्त भानुकीति सिद्धान्त देव को भूमि दान दिया।
मुनिचन्द्र सिद्धान्त देव के शिष्य भानूकीति सिद्धान्त देव को राजा एक्कल ने कनकजिनालय के साथ-साथ चालुक्य चक्री जगदेव राजा के राज्य में राजा एक्कल ने सन् ११३६ (वि० सं० ११६६) में भूमिदान दिया ।
इन सब उल्लेखो से ज्ञात होता है कि भानुकीर्ति सिद्धान्तदेव उस समय प्रसिद्ध विद्वान् थे । यह ईसा की १२वीं और विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान थे।
मुनिचन्द्र मुनिचंद्र गुणवमं द्वितीय के शिष्य थे । इन्होंने अपने पुष्पदन्त पुराण' में उभय कवि कमलगर्ग कहकर स्मरण किया है और महाबलि कवि (१२५४) ने नेमिनाथ पुराण में-'अखिल तर्क तंत्र मंत्र व्याकरण भरत काव्य नाटक प्रवीण'
१.जैन लेख संग्रह अ० ३ पृ० ११७ २. जैन लेख सं० भा०३ पृ० १५२ ३. वही भा० ३ पृ० १७० ४. जैन लेख सं० अ०३ पृ० ३१-३२
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चोदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
४१७
लिखकर प्रशंसा की है। इनके उभय कवि विशेषण से मालम होता है कि ये संस्कृत अोर कनदी दोनों भापानी के कवि और ग्रंथकर्ता होंगे, परन्तु अभी तक इनका कोई भी नथ उपलब्ध नही है सौदत्तिके शिलालेखों में जो शक संवत् ११५१ और सन् १२२६ के लिखे हुए हैं और जो गयल एशियाटिक मोसाइटी बाम्बे ब्रांच के जर्नल में मुद्रित हो चुके है। मालूम होता है कि ये रट्टगज कार्तवीर्य के राजगुरु थे। पीर गृहस्थ अवस्था में उसके पुत्र लदमो देव को इन्होने शस्त्र विद्या और शास्त्र विद्या दोनों को शिक्षा दी थी । लक्ष्मीदेव के समय में ये उसके सचिव या मत्री भी रहे हैं । यह बड़े ही वीर और पराक्रमी थे । इमलिए इन्होंने शत्रुओं को दबाकर रट्टगज की रक्षा की थी मगन्धवर्ती १२ का शासन लक्ष्मीदेव चतुर्थ की अधीनता में रट्टों के राजगुरु मनिचंद्र देव के द्वारा होता था। इस कारण उन्हें रद्रराज प्रतिष्ठाचार्य की उपाधि भी प्राप्त हई थी। इनके समयमरदराज के शांतिनाथ, नाग और मसिलकार्जुन भी आमात्य रहे हैं। जो मनिचद्र के सहायक या परामर्गदाताओं में से थे। इससे स्पष्ट है कि मनिचंद्र का गमय शक म० १०५१ सन् १२२६ (वि० सं० १२८६) है । (जैन लेख मं० भा० ३ प० ३२२ से ३२६ तक)
अजितसेन इम नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उन सबमें प्रस्तुत अजनमेन मेनगग के विद्वान प्राचार्य प्रार तलू देश के निवामी थे क्योंकि शृंगार मजरी की पूप्पिका मं-"थी मेनगणग्रागण्य तपो लक्ष्मी विगजिना जितमेन देव यतीश्वर विचिनः शृगार मंजरी नामालकागेयम ।"-- मेनगण का अग्रणी बतलाया है।
इसमे अजिनमेन मेन गण के विद्वान थे यह मुनिश्चित है । प्राचाय अजितमेन की दो रचनाएं उपलब्ध है। शृगार मजरी और अलंकार चिन्तामणि ।
शृगार मंजरी- यह छोटा-मा अलकार ग्रन्थ है। इसमें तीन परिच्छेद है, जिनमें सक्षप में ग्म-रीति और अलंकारों का वर्णन है। यह ग्रय अजिनमेनाचार्य ने शीलविभूपणा रानो विट्ठल देवी के पुत्र, 'राय' नाम से ज्यात सोमवंशी जैन गजा कामिराय के पढ़ने के लिये बनाया था जेमा कि उसकी प्रगस्ति के निम्न पद्यों में प्रकट है :
राज्ञी विठ्ठल देवीति ख्याता शील विभषणा। तत्पुत्रः कामिरायाख्यो 'राय' इत्येव विश्रुतः ॥४६ तद्भुमिपालपाठार्थमुदितेयमलंक्रिया।
संक्षपेण बुधाषा पद्धात्रास्ति (') विशोध्यताम् ॥४६ प्रस्तुत कामिगय सोमवशी कदम्बों की एक शाखा वगवंश के नाम से विख्यात है। प० के भजबली शास्त्री के अनुसार दक्षिण कन्नड जिले के तुन्दिप्रदेशान्तर्गत वगवाडि पर इस वग का शामन रहा है । उक्त प्रदेश के
१. एक अजितमेन द्रमिल संघ में नन्दि संघ अरुङ्गलान्वय के विद्वान् मुनिय थे। जो मम्मूर्ग शास्त्रों में पारंगत थे। मूडहल्लिका का यह लेख संभवतः (लू• राइस) के अनुमार ११७० ई० का है ।
दूसरे अजितसेन आर्य मेन के शिष्य थे, बड़े विद्वान्, सौम्यमूर्ति, राज्यमान्य प्रभावशाली वक्ता और बंकापुर विद्यापीठ के प्रधान आचार्य थे । गंगवंशी राजा मानसिंह के गुरु थे। मारसिंह ने बंकापुर में समाधि मरण द्वारा शरीर का परित्याग किया था। यह चामुण्ड राय के भी गुरु थे, जो मारसिंह के महामात्य और सेनापति थे। गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्न चक्रवर्ती ने उन्हें ऋद्धि प्राप्ती गणधर के समान गुग्गी और भुवन गुरु बतलाया है। इनका समय विक्रम की १०वी शताब्दी का है।
तीसरे अजितसेन वे हैं जिनका उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति में पाया जाता है। उक्त प्रशस्ति शक सं० १०५० में उत्कीर्ण की गई है। उसमें अजितसेन को तार्किक और नया क बतलाया है। इनकी उपाधि वादीभ सिंह थी।
चौथे अजितसेन वे हैं । जिनका सन् ११४७ के लेख में उल्लेख है जिनका शिष्य बड़ा सर्दार पौद्धी था। उसका जेष्ठ पुत्र भीमप्पा, भार्या देलब्बा से दो पुत्र हुए। मगनीमेठी, मारीसेट्ठी, मारीमैट्ठी ने दोर समुद्र में एक जिन मन्दिर बनवाया था। अजितसेन नाम के और भी विद्वान हुए हैं, जिनका फिर कभी परिचय लिखा जायगा।
२. जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० वीर सेवामन्दिर भा० १, सन् १९४४ पृ०६०
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ जैन राजवंशों में यह वंश मान्य रहा है। इस वंश के प्रसिद्ध राजा वीर नरसिंह (सन १९५७-१२०८ ई.) के बाद चन्द्रशेखर वग मन (१२०८-१२२४ ई०) जो वीर नरमिह का पुत्र था । इनके छोटे भाई पाण्डेय वंग ने सन् (१२२४. १२३६ ई.) तक राज्य किया। इसके अनंतर पाड्य वग की वहिन रानी बिट्रलदेवी (१२३६-१२४४ ई.) तक राज्य का संचालन किया और उसके बाद उसका पुत्र कामिगय जो पाण्डय वग का भाग्नेय था सन् १२४४ में सिंहासनारूढ हुना। और उसने १२६४ ई० तक राज्य किया। इन्ही कामिराय की प्रेरणा से विजयवर्णो ने शृंगारर्णवचन्द्रिका का निर्माण किया।
अलंकार चिन्तामणि-यह अलंकार का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है।
जो जितमेनाचार्य की काव्य लक्षणविपयक धारणा का समन्वयात्मक रूप है। उन्होंने लिखा है कि -'काव्य शब्दालंकार तथा अर्थालंकार मे मुक्त, नवरसों से समन्वित, गैतियों के प्रयोग से मनोरम, व्यंग्यादि अर्थों से सम्पन्न, दोष विरहित होना चाहिये । कवि के अनुसार काव्य ग्रथ मे दो वातों का होना आवश्यक है। उभयलोकोपकारी और पुण्यधर्म के प्राप्त करने का साधन । जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पद्य से स्पष्ट हैं :
शब्दार्थालंकृतीद्धं नवरसकलितं रीतिभावाभिरामं । व्यंगाद्यर्थ विदोषं गुणगणकलितं नेतृ सद्वर्णनाढयम । लोकोद्वन्द्वोपकारि स्फुट मिह तनुतात् काव्यमग्र यं सुखार्थो ।
नानाशास्त्रप्रवीण: कविरतुलमतिः पुण्यधर्मोरुहेतुम् ॥ १-७ इस ग्रन्थ में पांच परिच्छेद है। उनमें प्रथम परिच्छेद की श्लोक मख्या १०६ है, जिनमें कविशिक्षा पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। दूसरे परिच्छेद में शब्दालंकारों के चित्र वक्रोक्ति, अनुप्रास अोर यमकालकार ये चार भेद बतलाये हैं। उनमें चित्रलकार का विशंप वर्णन किया गया है, उसके ४२ भेद बतलाये हैं। इस परिच्छेद के पद्यो की संख्या १८६ है। तीसरे परिच्छेद में चित्रालकार के अतिरिक्त शब्दालकार के अन्य भेद, वक्राक्ति, अनप्रास और यमक के उदाहरण के सहित विश्लेपण किया गया है। इस परिच्छेद की श्लोक संख्या ४१ है।
चौथे परिच्छेद में अर्थालकारों के ७० भेदों का विस्तृत वर्णन ३४५ पद्यों द्वारा किया है। साथ में बीचबीच में गद्याश भी निहित है। इस परिच्छेद के प्रारंभ में प्रलंकारों की परिभाषा, गण और उनके भेदा का विस्तत कथन दिया है।
पांचवं परिच्छेद में नोरस, चार रीति, दो पाक,-द्राक्षा और शब्द का स्वरूप और भेद लक्षणावनि या नाटकों कभद-प्रभेद आदि काव्य शास्त्र-मम्बन्धि सभी आवश्यक विपयो का चर्चाओं का समाविष्ट किया गया है। इसकी पद्यसख्या ४०६ है।
कवि ने अलकारों के उदाहरणों में समन्तभद्र, ज़िनसेन हरिचंद्र, वाग्भट, अर्हदास अोर पीयूष वर्षादि अनेक प्राचार्यो के ग्रथों के पद्यों को उद्धत किया है। इन सब विद्वाना में वाग्भट ११वी शताब्दी क है, ओर मुनिसुव्रत काव्य के कर्ता प्रहंडाम प०अाशाधर जी के सामकालीन है। मुनि सुव्रतकाव्य की रचना सागर धर्मामत स० १२९६ (सन् १२८८) के बाद हुई है। उन्हों ने उनके प्रति बहुत ही प्रादरव्यक्त किया है। इस कारण अजितसेनाचार्य का समय विक्रम की १३वी शताब्दी का उपान्त्य है।
श्रीधरसेन के प्राचार्य मनिमेन के शिष्य थे। जो बड़े भारी कवि और नैयायिक थे। नेमिकमार के पत्र
। नीमकुमार के पुत्र कवि वाग्भट ने 'काव्यानुशासन' की वृत्ति में पुप्पदन्त के साथ मुनिसेन का उल्लेख किया है और उनकी रचना की ओर भी सकेत किया है- "यत्पुष्पदन्त मुनिसेन मुनीन्द्रमुख्यः पूर्वः कृतं सुकविभिस्तदहं विधित्सः।" इससे
टिका के श्लोक ११ से १८ तक के पद्यों में दिया गया है। यह ग्रंथ डा. V.M १. इस वंश का परिचय शृगारावचन्द्रिका के श्लोक ११ से १८ तक के पद्यों में दिया गया। कलकर्णी द्वारा सम्पादित होकर भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है।
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवी और चौदहवी सताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
स्पष्ट है कि मूनिमेन ने कोई ग्रन्थ बनाया था, जो अब उपलब्ध नहीं है। कवि श्रीधरमेन नानागास्त्रो के पारगामी विद्वान थे, और बड़े-बड़े राजा लोग उन पर श्रद्धा रखते थे। वे काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान पार कवि थे।
इनकी एकमात्र कृति 'विश्वलोचन कोश है, इसका दमग नाम मक्तावलि कोग हे जेगा कि 'मक्तावली विरचिता' ग्रन्थ के वाक्य में स्पष्ट है । हम कोश में ०४५३ श्लोक है । स्वर वण योर ककागद के वर्णक्रम में शब्दो का सकलन किया गया है। नानार्थ कोगा मे यह सबसे बडा कोश है। इग कोश की यह विशेपता है कि श्रीधरसेन ने एक शब्द के अधिक से अधिक अर्थ बतलाये है। उदाहरण के लिए 'कचक' शब्द को लीजिये । विश्वलोचन मे इसके १२ अर्थ बतलाये।, अमरकोश के चार पार मेदनी में दश अर्थ बतलाये है।
प्रशस्ति के चाथ पद्य में 'पदविदा च पूरे निवामी' वाक्य से श्रीधर गेन का निवासस्थान ज्ञात होता है, पर उसके सम्बन्ध में इस समय कुछ बना शक्य नहीं है। कवि ने तय लिया है कि मन इम कोश की रचना कवि नागेन्द्र और अमर्गगह आदि के कोशी का मार लेकर की है। कांग मराव पूर्ण है।
कोग में रचनाकाल नहीं दिया। किन्तु इसकी रचना मेदनी पार हेमचन्द्र के बाद हई है अत श्रीधरसेन का समय विक्रम की १३वी शताब्दी का उपान्त्य जान पडना हे ।
विजयवर्णी विजयवर्णी ने अपना का परिचय नही दिया । कवन गुरू का ग्रार जिमको प्रेरणा मे ग्रन्थ बनाया उगका उल्लेख तो किया है किन्तु अपने सघगण-गन्छादि अोर समय का काई उल्लेख नहीं किया। यह काव्यशास्त्र के अच्छे विद्वान थे। इन्होंने बग नरेन्द्र कामिगय की प्ररणा में 'शृगागगर्गवचन्द्रिका' नाम का ग्रन्थ बनाया था जमा कि निम्न पूप्पिका वाक्य से प्रकट है -
इतिपरम जिनेन्द्रवदनचन्दिरविनिर्गतस्याद्वादचन्द्रिकाचकोर विजयकोतिमुनीन्द्रचरणाब्जचञ्चरीकविजयवणिविरचिते श्रीवीरनरसिंह कामिराज बङ्गनरेन्द्रकोशर दिन्दुसं निभकोतिप्रकाशके शृगारार्णव चन्द्रिका नाम्नि अलङ्कारसंग्रहे वर्णगणफलनिर्णय नाम प्रथमः परिच्छेदः।"
सोमवशी कदम्ब गजानी के द्वारा सरक्षित भूमिका शासन करने वाला नरेश वीर नर्गसह हया। इसने सन ११५७ ई० मे वगवाडि में अपनी राजधानी स्थापित की थी । इमने प्रजा पर धर्म और न्यायनीति से शासन किया था। इनका पुत्र चन्द्रशेखर राजा हुया इगने सन् १२० से १२२८६० तक, पार इनके छोटे भाई पाण्ड्य वग शासक हुए उन्होंने सन् १२२५ मे १२३६ तक राज्य किया। सन् १२३६ मे १२८४ तक पाण्ट्यवग की वहिन विट्टल महादेवी ने राज्य का मचालन किया। प्रार सन १२४५ मे १२६४ तक महागना विट्ठल देवो के पुत्र कामिराय ने
१. मनान्वये मालमत्वगतिथी श्रीमान जायत कविमुनिगेन नामा।
आन्वीदासी मकलशास्त्रमयी च विद्या यग्या स वाद पदवी न दवीयमी म्यान ॥१ तस्मादभूनखि नवादमापाररश्वा विश्वागतमवनीतलनायकानाम् । श्री श्रीधर सकलमत विगुम्फितन्व पीयूपपानकृतनिर्जर भाग्नीक ॥२ तम्पातिगायिनि ये. पथि जागरूक धीलोचनस्य गुरशासनलोचनग्य । नाना कवीन्द्ररचितानभिधान कोशानाकृष्यलोचनामवाय मदीपि कोग ।।३
-विश्वलोचन कोश प्र० २ नागेन्द्र गथित कोशममुद्रमध्ये नानाकवीन्द्रमुग्वशुक्ति ममुद्भवेयम् । विद्वदगृहादमरनिर्मित पट्टमूने मुक्तावली विरचिता हृदि मनिधातुम् ॥६
-विश्वलोचन कोश प्र. ३. श्रीमद्विजयवीयाम्य गुरुगजपदाम्बुजम । मदीयचित्रकासारे म्थेयात मद्धधीजले । ४. इत्थ न पाथितेन मयाऽलकारसग्रह । क्रियते मरिणा नाम्ना शृगागर्गवचन्द्रिका १-२२
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास- भाग २
शामन किया। प्रस्तुत कामिगय पाण्ड्यबंग का भागिनेय (भानजा) था । और उसे राजेन्द्र प्रजित
लाया है। कवि ने नामिराय के वंश का विस्तृत परिचय दिया है। ये सभी राजा जैनधर्म के पालक थे।
इस ग्रथ का नाम शृगाराणंव चन्द्रिका और अलकार संग्रह है। ग्रन्थ में दश परिच्छेद है। १ वर्गगणफल निर्णय काव्यगत शब्दार्थ निश्चय ३ रस भाव निश्चय ४ नायक भेद निश्चय ५ दश गुणनिश्चय ६रीति निश्चय ७वत्ति निश्चय - शय्या पाक निश्चय : अलकार निर्णय १० दोष गुण निर्णय । इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि अलंकारों के सभी उदाहरण स्वय कवि द्वारा निर्मित है। इस ग्रन्थ का निर्माण कवि ने सन् १२५० के लगभग किया है । अतः कवि का समय तेरहवी शताब्दी है। ग्रन्थ डा. कुलकर्णी द्वारा सम्पादित होकर भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो हो चुका है।
कवि वाग्भट वाग्भट नाम के अनेक विद्वान हुए है। उनमें अष्टाङ्ग हृदय नामक वेद्यक ग्रन्थ के कर्ता वाग्भट सिंहगुप्त के पूत्र और सिन्ध देश के निवामी थे । दूसरे वाग्भट नेमि निर्वाणकाव्य के कर्ता है, जो प्राग्वाट या पोरवाड़ वश के भपण तथा छाहड के पुत्र थ । तोसरे वाग्भट सोमश्रेप्ठी के पुत्र थे, वाग्भट्रालकार के कर्ता और गुजरात के सालकी राजा सिद्धराज जयर्यासह के महामात्य थे । ओर यह वि० स० ११७६ म मौजूद थे । वि. स. ११७८ में मुनिचन्द्र सूरि का समाधिमरण हुआ । वाग्भट ने धवल और ऊचा जेनन्दिर बनवाया था उसके एक वर्ष बाद देवसुार द्वारा वधमान का मूति की प्रतिष्ठा कराई थी। यह श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्वान थ' ।
चार्थ वाग्भट इन सबसे भिन्न थे, ओर महाकवि वाग्भट नाम से प्रसिद्ध थे। इनके पितामह का नाम 'मक्कलप' पितामही का नाम महादेवी था ओर पिता का नाम नमिकुमार था। मक्कलप क दो पुत्र थे राहड और नेमिकुमार । उनमें राहड ज्येप्ट और नेमिकुमार लघुपुत्र थे जो बड़े विद्वान धर्मात्मा और यशस्वो थे । और अपने ज्येप्ठ भ्राता राहड के परम भक्त थे। मेवाड़ देश में प्रतिष्ठित भगवान पार्श्वनाथ जिनके यात्रा महोत्सव से उनका अदभत यश अखिलविश्व में विस्तृत हो गया था। नेमिकुमार ने राह पुर में भगवान नेमिनाथ का और नलोटक पुर में वाईस देवकूलकायो सहित भगवान आदिनाथ का विशाल मन्दिर बनवाया था। राहड ने उसी नगर में आदि नाथ मन्दिर की दक्षिण दिशा में २२ जिनमदिर बनवाए थे। जिससे उसका यशरूपी चन्द्रमा जगत में पूर्ण हो गया था-व्याप्त हो गया था।
१. तस्य श्रीपाण्यङ्गम्य भागिनयो गुणवः । विट्ट नाम्बा महादेवी पुत्री राजेन्द्रपूजितः ।।१-१६ २. देग्यो, शृगाराएंव चन्द्रिका के ११ मे १८ तक के पद्य । ३. यज्जन्मन: सुकृतिन. पलु मिन्धु दंगे य. पुत्रवन्नमकरोद् भुवि मिह गुप्तम् । तेनोक्तमतदभयज्ञ भिपग्वरेण म्थान ममाप्नमिनि------॥१
-पद्यराज पुस्तकालय की अप्टाग हृदय की कन्नड़ी प्रति ४. अहिच्छत्र पुरोत्पन्न-प्राग्वाट कुलशालिन. ।
छाहडम्य सुतश्चक्रे प्रबन्ध वाग्भट कविः ॥८७ -नेमिनिर्वाण काव्य ५ सिरि वाहत्ति तनओ आमि वुहो तम्स सोमस्म' ! वाग्भटालकार शतकादशक साप्ट सप्ततो विक्रमानः । वत्मगणा व्यतिक्रान्ते श्री मुनिचन्द्र सूरयः । आगधनाविधि श्रेष्ठ कृत्वा प्रायोपवेशन । शमपीयूप कल्लोलप्लुतास्ते त्रिदिव ययु. ।। वत्सरे तत्र चकन पूर्ण श्री देवसूरिभिः । श्री वीरस्य प्रतिष्ठा मबाहटकारयन्मुदा युग्मम् ।। -प्रभावकचरित ६. राहडपुर मेवाड़ देश में कही था जो नमिकुमार के ज्येप्ठ भ्राता गहड द्वारा वसाया गया था
-काव्यानुशासन की उत्थानिका ७. नाभय चन्य सदन दिगि दक्षिण स्या, द्वाविंशति विदधता जिनमन्दिराणि । मन्ये निग्रजवर प्रभुराहडग्य, पूर्णी में जगति येन यशः शशाङ्कः ॥ -काव्यानुशासन पृ० ३४
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के प्राचार्य, विद्वान और कवि
४२१
कवि वाग्भट व्याकरण, छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक चम्पू और साहित्य के मर्मज्ञ थे। कालिदास, दण्डी और वामन आदि विद्वानों के काव्य-ग्रन्थों से खूब परिचित थे और अपने समय के अखिल प्रज्ञालों में चडामणि थे तथा नूतन काव्यरचना करने में दक्ष थे' । कदि ने अपने पिता नेमिकुमार की खब प्रशसा की है, और लिखा है
कुल रूपी कमला का विकसित करने वाले अद्वितीय भास्कर थ, सकल शास्त्रों में पारगत तथा सम्पूर्ण लिपि भाषाओं से परिचित थे, और उनकी कीर्ति समस्त कविकुलों के मान सन्मान और दान से लोक में व्याप्त हो रही थी।
कवि वाग्भट भक्ति के अद्वितीय प्रेमी थे । स्वोपज्ञ काव्यानुशासन वृत्ति में आदिनाथ, नेमिनाथ और भगवान पार्श्वनाथ का स्तवन किया गया है। जिससे यह सम्भव है कि उन्होंने किसी स्तुति ग्रन्थ की रचना की हो; क्योंकि रसों में रति (शृंगार) का वर्णन करते हए देव विषयक रति के उदाहरण में निम्न पद्य दिया है
"नो मुक्त्यै स्पृहयामि विभवः कार्य न सांसारिकः, कित्वा योज्य करौ पुनरिद स्वामी शमभ्यचंये । स्वप्ने जागरणे स्थितौ विचलने दुःखे सुखे मन्दिरे ,
कान्तारे निशिवासरे च सततं भक्तिर्ममास्तु त्वयि ।" इस पद्य में बतलाया है कि हे नाथ ! मैं मुक्तिपुरी की कामना नहीं करता और न मांसारिक कार्यों के लिये विभव (धनादि सम्पत्ति) की ही याकांक्षा करता ह; किन्तु हे स्वामिन् हाथ जोड़कर मेरी यह प्रार्थना है कि स्वप्न में, जागरण में, स्थिति में, चलने में, दुःख सुख में, मन्दिर में, वन में, रात्रि और दिन में निरन्तर आपकी ही भक्ति हो।'
इसी तरह कृष्ण नील वर्णों का वर्णन करते हुए राहड के नगर ओर वहाँ के प्रतिप्ठित नेमि जिनका स्तवनसूचक निम्न पद्य दिया है :--
सजलजलदनीलाभातियस्मिन्वनाली मरकत मणिकृष्णो यत्रनेमिजिनेन्द्रः।
विकचकुवलयालि श्यामलं यत्सरोम्भः प्रमुदयति न कांस्कांस्तत्पुरं राहडस्य । इस पद्य में बतलाया है-'कि जिसमें वन पंक्तियां सजल मेघ के समान नीलवर्ण मालम होती है और जिस नगर में नीलमणि सदृश कृष्णवर्ण श्री नेमि जिनेन्द्र प्रतिष्ठित हैं तथा जिनमें तालाब विकसित कमल समूह से पूरित है वह राहड का नगर किन-किन को प्रमूदित नहीं करता।'
नेमिकूमार और गहड में राम लक्ष्मण के समान भारी प्रेम था। यद्यपि राहड ने विशेष अध्ययन नहीं किया था, क्योकि उसका उपयोग व्यापार की ओर विशेष था। उसने व्यापार में विपूल द्रव्य और प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। इस कारण नेमिकुमार को अध्ययन करने का विशेष अवसर मिल गया, और सिद्धान्त, छन्द, अलकार, काव्य और व्याकरणादि तथा भापा और लिपि का पग्ज्ञिान किया। अध्ययन के उपरान्त नेमिकूमार भी अपने भाई के साथ व्यापार में लग गये, और दोनों से न्याय में विपुल धन अजित किया। राहड प्रसिद्ध व्यापारी था उसका व्यापार द्वीपान्तरों में भी होता था। व्यापार में जो धन कमाया उससे उन्होंने दो नगर बसाये, राहड़पुर और नलोटकपुर राहड़पूर राहड के नाम से बसाया गया था, उसमें नेमि जिनका विशाल मन्दिर था जिसमें भगवान नेमिनाथ की मरकत मणि के समान कृष्ण वर्ण की सुन्दर मूर्ति विराजमान थी ।
१. नव्यानक महाप्रबन्धरचन चातुयं विस्फजित स्फारोदारयश. प्रचारसततव्याकीर्ण विश्वत्रयः ।
श्री मन्नेमिकुमार-मूरिरग्विनप्रज्ञानु चूडामणिः काव्यानामनुशासनं वमिदं चके कविर्वाग्भटः ।। २. 'दुस्तरसमस्तगास्त्रपारावारगहनमध्यावगाहन मदमन्दरम्य ।' काव्यानुशासन पृ० १ ३. 'अमन्दमन्दराय मारण्यानमात्रसहस्र मध्यमानमहाब्धिमध्य समुल्लासल्यक्ष्मी लक्षितवक्षःस्थलस्य । वही पृष्ठ १ ४. कारितामरपुरपरिस्पद्धि श्रीराहड़पुर प्रतिष्ठापित सुप्रसिद्धहिमिगिरिशिखरानुकारि रमणीय शुभ्राध्रालिह जिनवरा गारोत्त न शृङ्गोत्सङ्गसङ्गतसौवर्णध्वजाग्र लम्बायमानणोकिङ्किणी झणत्कारवित्रासितरविरथ तुरङ्गमस्य । वही पृ० १
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
नलोटकपूर में पहले राहड ने अपनी रुचि के अनुसार ऋषभदेव का विशाल मन्दिर बनवाया था। बाद में नेमिकुमार ने उसी जिनालय के प्रागे दक्षिण भाग मे २२ वेदियां बनवाई थी।' उससे राहड की प्रसिद्धि अधिक हो गई थी। मेवाड़ की जनता नेमिकुमार से बहुत प्रभावित थी। इस जिनालय में रात्रि के समय स्त्री पुरुष इकट्ठे होकर स्तुतिया पढ़ते थे, और नारिया मिलकर सुन्दर गीत गाती थी। नगर बाग-बगीचों और तालाबों से शोभायमान था। नेमिकुमार की कीर्ति भी कम नही थी। रचनाएं
. महाकवि वाग्भट्ट की इस ममय दो कृतियाँ उपलब्ध हैं छन्दोऽनुशासन और काव्यानुशासन । इनमें छन्दोग्नुशासन काव्यनुशासन से पूर्व रचा गया है, क्योकि काव्यानुशासन की स्वोपज्ञवृत्ति में स्वोपज्ञ छन्दोऽनुशासन का उल्लेख करते हए लिखा है कि उसमे छन्दो का कथन विस्तार से किया गया है। अतएव यहा पर नही कहा जाता।
जैन साहित्य में छन्दशास्त्र पर 'छन्दोऽनुशासन' स्वम्भछन्द छन्दकोश' ओर प्राकृत पिगल आदि अनेक छन्दग्रन्थ लिखे गये है। उसमें प्रस्तुत छन्दोऽनुशासन सबसे भिन्न है यह सस्कृत भापा का छन्दग्रन्थ है और पाटन के श्वेताम्बरीयज्ञान भडार में ताड़पत्र पर लिखा हा विद्यमान है' । उसकी पत्रमख्या ४२ और श्लोक संख्या ५४० के करीब है और स्वोपज्ञवृत्ति से अलकृत है। इस ग्रन्थ का आदि मगलपद निम्न प्रकार है:
विभं नाभेयमानम्र, छन्दसामनुशासन । श्रीमन्ने मिकमारस्यात्मजोऽहं वच्मि वाग्भटः।।
यही मगल पद्य काव्यानुशासन को स्वोपज्ञवृत्ति म' छन्दसामनुशासन, के स्थान पर 'काव्यानुशासनम्' दिया हुआ है।
यह छन्दग्रन्थ पाँच अध्याया में विभक्त है, सज्ञाध्याय १ समवृत्ताख्य २ अर्धसमवृत्ताख्य ३ मात्रासमक ४ और मात्रा छन्दक ५। ग्रन्थ सामने नहाने से इन छन्दो के लक्षणादि का कोई परिचय नहीं दिया जा सकता और न यही बताया जा सकता है कि ग्रन्थकार न अपनी दूसरी किन-किन रचनानी का उल्लेख किया है ।
इस ग्रन्थ मे राहड और नेमिकुमार की कीति का खुलागान किया गया है प्रार राहइ को पुम्पोत्तम तथा
१. निजभुजयुगलोराजित वित्तजात जनित नलोटकपुर प्रतिष्ठित त्रिभुवनाद् भुत श्री नाभिसम्भाजन सदन प्राग्भाग निर्मा
पित द्वाविंशति देवगृहिका मण्डलम्य । (काव्यानु० पृ० १) २. अयं च सर्व प्रपंचः श्रीवाग्भट्टाभिध म्वोपज्ञछन्दोऽनुगासने प्रपंचित टति नात्रोच्यते' । ३. यह छन्दोऽनुशासन जपकीति के द्वारा रचा गया है । इमे उन्होने मादव, गिल जनाव' गेतव, पूज्यपाद (देवनन्दी)
और जयदेव आदि विद्वानों के छन्द ग्रन्थो को देखकर बनाया गया है। यह जयकीति अमलकीति के शिष्य थे। संवत् ११६२ मे योगसार की एक प्रति अमलकीनि ने लिखवाई थी, उममे जयकीति १२ वी शताब्दी के उत्तगर्घ और १३वी शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान जान पड़ते है। यह ग्रन्थ जैमलमेर के श्वेताम्बगेय ज्ञानभण्डार में सुरक्षित है। (देखो गायकवाड सस्कृत सीरीज में प्रकाशित जैसलमेर भाण्डागारीय ग्रन्थाना सूची।) ४ यह अपभ्रश और प्राकृत भाषा का महत्वपूर्ण मौलिक छन्द ग्रथ है। इसका सम्पादन एच० डी० वेलंकर ने किया है।
(देवो,बम्बई यूनिवर्सिटी जनरल सन् १९३३ नथा रायलएमियाटिक सोमाइटी जनरल सन्० ६३५), ५. रत्न शेखर सूरि द्वाग रचित प्राकृत भापा का छन्दकोश है। ६. पिगला ऽचार्य के प्राकृत पिगल को छोड़कर, प्रस्तुत पिगल ग्रन्थ अथवा छन्दोविद्या कविराजमल की कृति है। जिसे उन्होन श्रीमालकुलोत्पन्न वणिक पति राजाभारमल्ल के लिये रचा था। इस ग्रन्थ में छन्दों का निर्देश करते हुए राजा भारमल्ल के प्रताप यश और वंभव आदि का अच्छा परिचय दिया गया है। इन छन्द ग्रन्थो के अतिरिक्त छन्दशास्त्र,
वृत्तरलाकर और श्रुतबोध नाम के छन्द ग्रन्य और है जो प्रकाशित हो चुके है। 9. See Patan catalage of Manucripts P. 117.
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२३
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के प्राचार्य, विद्वान और कवि उनकी विस्तृत चैत्यपद्धति को प्रमुदित करने वाली प्रकट किया है यथा
पुरुषोत्तम राहडप्रभो कस्य न हि प्रमदं ददाति सद्यः ।
वितता तव चैत्यपद्धतिर्वातचलध्वजमालधारणी॥ कवि ने अपने पिता नेमिकूमार की प्रशंसा करते हए लिखा है कि घमने वाले भ्रमर से कम्पित कमल के मकरन्द (पराग) समूह मे पूरित, भडौच अथवा भृगुकच्छ नगर में नेमिकुमार की अगाध बावडी शोभित होती है। यथा
परिभमिरभमरकंपिरसरूहमयरंदपूंजपंजरिया।
वावी सहइ प्रगाहा जेमिकुमारस्स भरुअच्छे । इस तरह यह छन्द ग्रंथ बड़ा ही महत्वपूर्ण जान पड़ता है और प्रकाशित करने योग्य है।
काव्यानुशासन
यह ग्रन्थ मुद्रित हो चका है। इस लघुकाय ग्रन्थ में ५ अध्याय हैं जिन में क्रमशः ६२,७५,६८,२६, और ५८ कुल २८६ मूत्र हैं । जिनमें काव्य-सम्बन्धी विषयों का-रस, अलङ्गार, छन्द और गुण दोष वाक्य दोष आदि का-कथन किया गया है। इसकी स्वोपज्ञ अलंकारतिलक नामक वृत्ति' में उदाहरण स्वरूप विभिन्न ग्रन्थों के अनेक पद्य उद्धत किये गये है जिनमें कितने ही पद्य ग्रन्थ कर्मा के स्वनिर्मित भी होंगे, परन्तु यह बतला मकना कठिन है कि वे पद्य इनके किम ग्रन्थ के हैं। समृद्धत पद्या में कितने ही पद्य बद मुन्दर और सग्स मालम होते हैं । पाठकों की जानकारी के लिए दो तीन पद्य नीचे दिये जाते है :-.
कोऽयं नाथ! जिनो भवेत्त ववशी हुँ-हं प्रतापी प्रिये, हं-हं तहि विमुञ्च कातरमते शौर्यावलेपक्रियां ॥ मोहोऽनेनविनिजितः प्रभुरसौ तकिकराः के वयं,
इत्येवं रति कामल्पविषयः सोऽयं जिनः पातु वः ॥ एक समय कामदेव और रति जङ्गल में बिहार कर रहे थे कि अचानक उनकी दष्टि ध्यानस्थ जिनेन्द्र पर पडी. उनके रूपवान प्रशांत गरीर को देखकर कामदेव और रति का जो मनोरंजक संवाद हा है उसीका चित्रण इस पद्य में किया गया है। जिनेन्द्र को मेरुवत् निश्चल ध्यानस्थ देखकर रति कामदेव से पूछती है कि हे नाथ ! यह कौन है? तब कामदेव कहता है कि यह जिन हैं -- राग-द्वपादि कर्म शत्रयों को जीतने वाले हैं-पून: रति पछती है कि यह तुम्हारे वश में हए? तब कामदेव उत्तर देता है कि हे प्रिये ! यह मेरे वश में नही हुए; क्योंकि यह प्रतापी हैं, तब वह फिर कहती है यदि यह तुम्हारे वश में नहीं हुए तो तुम्हें 'त्रिलोक विजयी' पनकी शूरवीरता का
ड देना चाहिए। तब कामदेव रात से पुन: कहता है कि इन्हाने मोहराजा को जीत लिया है, जो हमारा प्रभु है, हमतो उसके किङ्कर हैं । इस तरह रति ओर कामदेव के संवाद विषयभूत यह जिन तुम्हारा कल्याण करें।
शठ कमठ विमुक्ताग्राव संघातघात-व्यथितमपिमनोन ध्यानतो यस्य नेतु :
प्रचलचलतुल्यं विश्वविश्वकधीरः, स दिशतुशु भमोशःपाश्र्वनाथोजिनोवः । इस पद्य में बतलाया है कि दुष्ट कमठ के द्वारा मुक्त मेघ समूह से पीड़ित होते हुए जिनका मन ध्यान से जरा भी विचलित नहीं हुआ वे मेरु के समान अचल और विश्व के अद्वितीयधीर, ईश पार्श्वनाथ जिन तुम्हें कल्याण प्रदान करें।
इसीतरह 'कारणमाला' के उदाहरण स्वरूप दिया हया निम्न पद्य भी बड़ा ही रोचक प्रतीत होता है। जिसमें जितेन्द्रियता को विनय का कारण बतलाया गया है। और विनय से गुणोत्कर्ष, गणोत्कर्ष से लोकानुरंजन और जनानुराग से सम्पदा की अभिवृद्धि होना सूचित किया है, वह पद्य इस प्रकार है:
१. इति महाकवि श्री वाग्मट विरचितायामलङ्कारतिलकाभिधान स्वोपज्ञ काव्यानुशासन वृत्ती प्रथमोऽध्ययः ।
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
जितेन्द्रियत्वं विनयस्य कारणं, गुण प्रकर्षोविनय दिवाप्तते! गुणप्रकर्षेणजनोऽनुरज्यते, जनानुरागप्रभवाहि सम्पदः ॥
इस ग्रन्थ की स्वोपज्ञवृत्ति में कवि ने अपनी एक कृति ऋषभदेवकाव्य का 'स्वोपज्ञ ऋषभदेव महाकाव्ये' वाक्य के साथ उल्लेख किया है और उसे 'महाकाव्य' बतलाया है, जिससे वह एक महत्वपूर्ण काव्य ग्रन्थ जान पड़ता है, इतना ही नहीं किंतु उसका निम्न पद्य भी उद्धृत किया है:
यत्पुष्पदन्त - मुनिसेन -मुनीद्रमुख्यैः पूर्वः कृतं सु कविभिस्तदहं विधित्सः ।
हास्याय कस्यननु नास्ति तथापिसंतः शृण्वंतुकंचन ममापि सुयुक्ति सूक्तम् ।
इनके सिवाय, कवि ने भव्य नाटक और अलंकारादि काव्य बनाये थे । परन्तु वे सब अभी तक अनुपलब्ध हैं, मालूम नही कि वे किस शास्त्र भण्डार की कालकोठरी में अपने जीवन की सिकियां ले रहे होंगे । कवि का सम्प्रदाय दिगम्बर था, क्योंकि उन्होंने विक्रम की दूसरी शताब्दी के प्राचार्य समन्तभद्र के वृहत्स्व यम्भू स्तोत्र के द्वितीय पद्य को 'आगम प्राप्तवचनं यथा दान के साथ उद्धृत किया है:प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषु शशासकृष्यादिषुकर्मस प्रजाः
प्रबुद्धतत्त्वः पुनर तोदयो ममत्त्वतो निविवदे विदांवरः ॥ २॥
वीरनन्दी 'चन्द्रप्रभ चरित का आदि मंगल पद्य भी उद्धृत किया है । ओर पृ० १६१ में सज्जन दुर्जन चिन्ता में वाग्भट के 'नेमि निर्वाण काव्य' के प्रथम सर्ग का २० वां पद्य भी दिया है ।:गुणप्रतीतिः सुजनां जनस्य, दोषेष्ववज्ञा खल जल्पितेषु । अतो ध्रुवं नेह मम प्रबन्धे, प्रभूतदोषेऽप्यशोऽवकाशः ॥
समय विचार
कवि ने ग्रन्थ में रचना समय का कोई उल्लेख नहीं किया। किंतु वीरनन्दी ओर वाग्भट के ग्रन्थों के पद्य उद्धृत किये हैं । इससे कवि इन के बाद हुआ है । काव्यानुशासन के पृष्ठ १६ में उल्लिखित ' उद्यान जल केलि मधुपान वर्णन नेमिनिर्वाण राजीमती परित्यागादौ" इस वाक्य के साथ नैमिनिर्वाण र राजीमती परित्याग नामके दो ग्रन्थों का समुल्लेख किया है । उनमें से नेमिनिर्वाण के ८वें सर्ग में जल क्रीड़ा और १० वं सर्ग में मधुपान सुरत का वर्णन दिया हुआ है। हां, 'राजीमती परित्याग' नामका अन्य कोई दूसरा हो काव्य ग्रन्थ है जिसमें उक्त दोनों विषयों को देखने की प्रेरणा की गई है । यह काव्य ग्रन्थ सम्भवतः पं० श्राशाधर जी का राजमती विप्रलम्भ या परित्याग जान पड़ता है । क्योंकि विप्रलम्भ और परित्याग शब्द पर्यायवाची हैं। पण्डित प्राशाधर जी का समय विक्रमको १३वीं शताब्दी है । कवि ने काव्यानुशासन में महाकवि दण्डो वामन और वाग्भटालंकार के कर्ता वाग्भट द्वारा माने गए, दश काव्य गुणों से कवि ने सिर्फ माधुर्य, ओज और प्रसाद ये तीन गुण ही माने है । और शेप गुणों का उन्हीं में अन्तर्भाव किया है' । वाग्भट्टालंकार के कर्ता का समय १२वीं शताब्दी है । इस सर्व विवेचन से कवि वाग्भट का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी का उपान्त्य और १४वीं का पूर्वार्ध हो सकता है ।
रविचन्द्र ( प्राराधना समुच्चय के कर्ता)
मुनि रविचन्द्र ने अपनी गुरु परम्परा संघ-गण- गच्छ और समय का कोई उल्लेख नहीं किया । इनकी एकमात्र कृति 'आराधना समुच्चय, है जो डा० ए० एन० उपाध्ये द्वारा सम्पादित होकर माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चुका है ।
१. इति दण्डि वामनवाग्भटादिप्रणीता दशकाव्यगुणाः । वयं तु माधुर्योजप्रसाद लक्षणास्त्रीनेव गुणा मन्यामहे, शेषास्तेष्वेवान्तर्भवन्ति । तद्यथा-माधुर्ये कान्तिः सौकुमार्य च, ओजसिश्लेपः समाधिरुदारता च । प्रसादेऽर्थ व्यक्तिः समता चान्तर्भवति । ( काव्यानुशासन २, ३१)
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवी शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
४२५
प्रस्तुत ग्रन्थ में संस्कृत के २५२ श्लोक हैं। जिनमें आराधना, आराधक, पाराधनोपाय तथा पाराधना का फल, इन चारों को आराधना के चार चरण बतलाये हैं। गुण-गणी के भेदसे आराधना के दो प्रकार बतलाये हैं। साथ में सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप ये पाराधना के चार गुण कहे। इन चारों पाराधनाओं के स्वरूप और भेद-प्रभेदों का सुन्दर वर्णन दिया है। चारित्र पागधना का स्वरूप और भेद-प्रभेदों का उनका काल
और स्वामी बतलाये हैं। सम्यक तप पाराधना के स्वरूप भेद प्रभेद वर्णन करने के पश्चात ध्यान के भेद और स्वामी प्रादि का परिचय कराया गया है। द्वादश अनुप्रेक्षायों का वर्णन मस्थान विचयधर्मध्यान में परिणत कर दिया है।
इस ग्रन्थ के कर्ता वर्तमान मैसूर राज्यन्तर्गत पनसोगे' निवासी मुनिरविचन्द्र है। ' ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नही है।
रट्टकवि अर्हद्दास यह जैन ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम नागकुमार था। यह कन्नड़ भापा के प्रकाण्ड विद्वान थे। कवि का समय सन् १३०० ईस्वी के आस-पास है । यह गंग मारसिह के चमपति काइमरस का वशज है । काइमरस वड़ा वीर और पराक्रमी था। वारेन्दुर के जीतने वाले राजा मारसिह का एक किला था। इस किले का किसी च वर्ता की मेनाने घेर लिया था। मारसिंह की आज्ञा से काडम रस ने बड़ी बहादुरी के साथ चक्रवर्ती की मेना को भगा दी, और ध्वना गिरादी, तथा वारह सामन्त योद्धाओं को परास्त किया। इसमे राजा बहन प्रसन्न हना । अतएव उसने काडमग्म को २५ ग्रामों की एक जागीर पारितोपिक में दे दी । इसी काडमरस को १५वा पीढ़ी में नागकुमार नाम का व्यक्ति हमा। कविन्द्र अहंदास इसी नागकुमार का पुत्र था।
___ इसने कन्नड में अदुमत नाम के महत्वपूर्ण ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की है। यह ग्रन्थ पूरा नहीं मिलता शकसंवतकी १४वीं शताब्दी में भास्कर नाम के आन्ध्र कवि ने इस ग्रन्थ का तेलगू भाषा में अनुवाद किया था। इस ग्रन्थ के उपलब्ध भाग में वर्षा के चिन्ह, आकस्मिकलक्षण, शकुन वायुचक गृहप्रवेश भूकप भूजात फल, उत्पात लक्षण इन्द्र धनुर्लक्षण प्रथम गर्भलक्षण, द्रोण सख्या, विद्युतलक्षण, प्रतिमूर्यलक्षण सवत्सरफल, ग्रहद्वेप मेघों के नाम कूलवर्ण, ध्वनिविचार, देशवृष्टि, मासफल, नक्षत्रफल, और सक्रान्तिफल आदि विषयों का निरूपण किया गया है।
बालचन्द्र पण्डितदेव वालचन्द्र नाम के अनेक विद्वान हो गए है। उनमें से एक बालचन्द्र का उल्लेख कम्बदहल्ली में कम्बदराय स्तम्भ में मिलता है। इनका समय शक सं० १०४० (वि० सं० ११५७) है। इनके गुरु का नाम राद्धान्तार्णव पारग अनन्तवीर्य और शिष्य का नाम सिद्धान्ताम्भोनिधि प्रभाचन्द्र था। (जैन लेख सं० भा०२ लेख नं० २६६ प०३९६)
दूसरे बालचन्द्र वे है जिनका उल्लेख वूवनहल्लि (मैसूर) के १० वीं सदी के कन्नड़ लेख में बालचन्द्र सिद्धान्त भट्टारक के शिष्य कमलभद्र गुरुद्वारा एक मूर्ति की स्थापना की गई थी। (जैन लेख सं० भाग ४ प०७०)।
तीसरे बालचन्द्र वे हैं जिनको शक सं९६६ में उत्तरायण संक्रान्ति के समय यापनीय सघ पुन्नाग वृक्ष मूलगण के बालचन्द्र भट्टारक को कुछ दान दिया गया था। (जैन लेख सं० भा० ४ पृ० ८१) ।
चौथे बालचन्द्र वे हैं जिनको सन् १११२ में मूलसंघ देशीगण पुस्तक गच्छ के प्राचार्य वर्धमान मुनि के शिष्य - १. पं० के भुजबली शास्त्री के अनुसार मैमूरजिलान्तर्खति कृष्णगजनगर तालुके में साले ग्राम मे लगभग ५ मील की दूरी पर अवस्थित हनसोगे (पनमोगे) ही आराधना समुच्चय का रचनास्थल है । वहां एक त्रिकूट जिनालय है जिसमें आदिनाथ और नेमिनाथ की मूर्तियां विराजमान हैं।
-अनेकान्त वर्ष २३ कि० ५-६ पृ० २३४ २. श्री रविचन्द्र मुनीन्द्रः पनसोगे ग्राम वासिभिग्रन्थः । रचितोऽय मखिलशास्त्र प्रवीण विद्वन्मनोहारी॥ ४२
-
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
बालचन्द्र व्रती के शिष्य अर्हनन्दि वेट्टदेव को पार्श्वनाथ वसदि के लिये भूमिदान दिए जाने का उल्लेख है (जैन लेख सं० भा० ४ पृ० १३४)
पाँचवें बालचन्द्र वे हैं जो मूलसंध देशीगण पनसोगे शाखा के नयकीति सिद्धान्त चक्रवर्ति के शिष्य अध्यात्मी बालचन्द्र के उपदेश से विम्मिसेटि के पुत्र केसरमेटि ने वेलर में सन् ११८० में मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। (जन लेख सं० भा० ४ पृ० २७०)।
छठे बालचन्द्र वे हैं, जो माधवचन्द्र विद्य के गिप्य थे, और कवि कन्दर्प कहलाते थे। इन्होंने शक ११२७, रक्ताक्षी संवत्सर में द्वितीय पौष शुक्ल २ को बेलगाँव के रट्टजिनालय के लिए वीचण द्वारा शुभचन्द्र को दिए जाने वाले लेख को लिखा था। अतएव इनका समय शक ११२७ सन् १२०४ (वि० स० १२६१) है। (जैन लेख सं० भा०४ १०२३६)।
इनमें प्रस्तुत बालचन्द्र पण्डितदेव मूलसंघ देशियगण पुस्तक गच्छ कुन्दकून्दान्वय इंगलेश्वर शाखा के थी समृदाय कर माघनन्दि भट्टारक के प्रशिप्य और नेमिचन्द्रभट्टारक के दीक्षित शिष्य थे । और अभयचन्द्र सैद्धान्तिक उनके श्रुत गुरु थे । ये बलचन्द्र प्रति श्रुतमुनि के अणुव्रत गुम थे श्रुतमुनि ने भी बालचन्द्र मुनि को अभयचन्द्र का शिप्य बतलाया है
___ "सिद्धताऽहयचंदस्स य सिस्सो बालचन्द मुणि पवरो।" (भावसंग्रह)
अभयचन्द्र ने स्वयं गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्द प्रबोधिका टीका में बालचन्द्र पण्डित देव का उल्लेख किया है । इन्होंने द्रव्यमंग्रह की टीका शक सं० ११६५ (वि० म०१३३०) में वनाई थी।
बालचन्द्र के सन १२७४ के समाधि लेख में संस्कृत के दो पद्यों में बतलाया है कि वे बालचन्द्र योगीश्वर जयवंत हों, जो जैन आगमरूपी समुद्र के बढाने के लिए चन्द्र, कामके अभिमान के खंडक, और भव्यरूप कमलों को प्रफुल्लित करने के लिए दिवाकर है, गुणों के सागर, दया के समुद्र, तथा अभयचन्द्र मुनिपति के शिष्योत्तम है. अपनी प्रात्मा में रत हैं । जिन्होंने इस जगत में पूर्वाचार्यों की परम्परा गत जिनस्तोत्र, पागम अध्यात्म शास्त्र रचे, वे अभयेन्दु योगी प्रख्यात शिप्य बालचन्द्र व्रती से जैन धर्म शोभायमान है। यथा
श्रीजैनागमवाधिवर्द्धन विधुः कंदर्पदपिहो, भव्याम्भोजदिवाकरो गुरणनिधिः कारुण्यसौधोदधिः। सश्रीमान् प्रभयेन्द्र सन्मुनिपति प्रख्यात शिष्योत्तमो, जीव्यात्....... निजात्मनिरतो बालेन्दु योगीश्वरः ॥ पूर्वाधार्यपरम्परागत जिनस्तोत्रागमाध्यात्मस, च्छास्त्राणि प्रथितानि येन सहसा भवन्निलामंडले । श्रीमन्मान्येभयेन्दुयोगिविबुधप्रख्यातसतसूनुना, बालेन्दुवतियेन तेनलसति श्रीजन|मधुना ।।
-(म० मैसूर के प्राचीन स्मारक पृ० २७८) इनबालचन्द्र पण्डित देव की गहस्थ शिप्या मालियक्के थी।
प्रस्तुत बालचन्द्र का स्वर्गवास सन् १२७४ में हुआ है। अत: यह बालचन्द्र ईसा की १३ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण और विक्रम की १४ वी शताब्दी के विद्वान थे।
इन्द्र नन्दी इन्द्रनन्दी ने अपनी गुरु परम्परा और ग्रन्थ रचनाकाल आदि का उल्लेख नहीं किया। इनकी एक कृति
१. गोम्मटसार जीवकाण्ड कलकत्ता संस्करण पृ० १५० । २. जैन लेख म० भा० ३ पृ. २६६ ।
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवी और चौदहवी शताब्दी के प्राचार्य विद्वान और कवि
४२७
'छेदपिण्ड' है। जो ३३३ गाथा को सख्या का लिए हुए है। प्रस्तुत ग्रन्थ का विपय प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त-विषयक यह ग्रन्थ एक महत्वपूर्ण कृति है। प्रायश्चित्त, छद, मलहरण, पापनाशन, शुद्धि, पुण्य पवित्र, अोर पावन ये सब उसके पर्यायवाची नामान्तर है ' । इममे सन्देह नहो कि प्रायश्चित्त स चित्त शुद्धि होती है। अोर चित्त शुद्धि प्रान्म विकास में निमित्त है। चित्तगद्धि के बिना प्रात्मा गनिमलता नहो पाती। अत प्रात्म विकास क इच्छुक मुमुक्ष जनो को प्रायश्चित्त करना उपयोगी है, ज्ञानी को आत्म निरीक्षण करते हुए अपने दोपा या अपराधो के प्रति मावधान होना पड़ता है। अन्यथा दोपा का उच्छेद सम्भव नही है। किम दोप का क्या प्रायश्चित्त विाहत हे यही इस ग्रन्थ का विषय है। जिसका कथन अनेक परिभापायो अोर व्याख्याओ द्वारा दिया है। इन्दनन्दो ने यह ग्रन्थ मूनि, प्रायिका, थावक, श्राविकारूप चतुर्विध सघ ओर ब्राह्मण-क्षत्रिय-वश्य-प्रार शूद्ररूप चारो वर्ण के मभी स्त्रा-पूषा को लक्ष्य करके लिखा गया है। सभी से बन पड़ने वाले दापो का अपराधी के प्रकार का--भागमादि विहित तपश्चरणादिरूप शोधनो का- ग्रन्थ में निर्देश किया गया है।
छेद शास्त्र के साथ इसकी तुलना करने से ऐसा जान पटना है कि एक दूसरे के सामने ये ग्रन्थ रहे है। छेद शास्त्र के कर्ता का नाम अज्ञात है । छेदशास्त्र की २-३ गाथाए छेदपिण्ड में प्रक्षिप्त है । क्योकि वहा उनका होना उपयुक्त नही है। छापण्ड की दूसरी प्रतियो मे वे नही पाई जाती। अतएव व वहा प्रक्षिप्त है। कुछ गाथाना में समानता भी पाई जाती है। इस कारण मेरी राय में छेदपिण्ड के कर्ता के सामने छेदशास्त्र अवश्य रहा है।
छेदपिण्ड व्यवस्थित स्वतत्र कृति मालम होती है।
इन्द्रनन्दी ने अपने को गणी और योगीन्द्र विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है। इन्द्रनन्दी नाम के अनेक विद्वान हो गए है :
प्रथम इन्द्रनन्दी व है, जा बासवनन्दी के गरु थे।
दूसरे इन्द्रनन्दी व है जो वासवनन्दी के प्रशिष्य पार बलनन्दी के शिप्य थे, और जिन्होंने शक म०८६१ (वि० स०६६६) में ज्वालामालिनी कल्प की रचना की है। सम्भवत. गोम्मटसार के कर्मा नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के भी गुरु यही जान पडते है।
तीसरे इन्द्रनन्दी श्रतावतार के कर्ता है । इनका समय निश्चित नही है। चौथे इन्द्रनन्दी का उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति मे पाया जाता है। जो शक म० १०५० (वि० स०११८५) मे उत्कीर्ग की गई है।
पाचवे इन्द्रनन्दी भट्रारक नीतिसार के कर्ता है। यह ग्रन्थ ११३ श्लोकात्मक है। इसमें जिन प्राचार्यों के ग्रन्थ प्रमाण माने जाते है। उनमे श्लोक ७० मे सोमदेवादि के साथ प्रभाचन्द्र पोर नेमिचन्द्र (गोम्मटसार के कर्ता) का भी नामोल्लेख है। इम कारण ये इन्द्रनन्दी उनके बाद के विद्वान है।
छठे इन्द्रनन्दी वे है। जिन्होंने श्वेताम्बरी विद्वान हेमचन्द्र के योगशास्त्र की टीका शक स०११८० (वि. स० १३१५) मे बनाई थी ओर जो अमरकीति के शिष्य थे। यह योगशास्त्र टीका कारजा भडार
सातवे इन्द्रनन्दी महिता ग्रन्थ के कर्ता है। इन सात इन्द्रनन्दी नाम के विद्वानों में से यह निश्चित करना कठिन है कि कौन से इन्द्रनन्दी छेदपिण्ड ग्रन्थ के कर्ता है।
प० नाथराम जी प्रेमी ने सदिता ग्रन्थ के कर्ता इन्द्रनन्दी को छेदपिण्ड का कर्ता बतलाया है। और मुख्तार सा० ने नीतिसार के कर्ता इन्द्रनन्दी को छेदपिण्ड का कर्ता सूचित किया है। बहत सभव हे नीतिसार क कर्ता हो छेदपिण्ड के कर्ता निश्चित हो जाय।
नीतिमार के कर्ता का समय विनम की तेरहवी शताब्दी माना जाता है। इन्होने अपने दैवज्ञ पार कुन्द
१. पायछित्त सो ही मलहरण पावागमगं छदो । पज्जाया....। छन्दशास्त्र २. देग्यो, पुगतन वाक्य-मू ची की प्रस्तावना पृ० १०६ ३ दुरित गह-निग्रहाद्भय यदि भो भरि-नरेन्द्र-बन्दिनम् । ननु तेन हि भव्यदेहिना भजत श्री मुनीमिन्दिने ।। -मल्लिपेण प्रगति
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
कुन्द प्रभु के चरणों की विनय करनेवाला सूचित किया है। इससे यह मूलसंघ के विद्वान ज्ञात होते हैं । मेरी राय में यह छेदपिण्ड के कर्ता हो सकते हैं।
विमलकीति प्रस्तुत विमलकीति वागडसंध के रामकोर्ति के शिष्य थे । यह रामकीति वही है जो जयकीति के शिष्य थे। और जिनकी लिखी हई प्रशस्ति चित्तौड़ में मंवत् १२०७ में उत्कीर्ण की हई उपलब्ध है।
विमलकीति की दो रचनाएँ हैं। सोखवइ विहाण कहा' और सुगन्धदसमो कहा। दोनों कथानों में व्रत का महत्त्व ओर उसके विधान का कथन किया गया है । जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला के कर्ता यश.कीर्ति भी विमलकाति के शिप्य थे । इनका समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी है।
मेघचन्द्र यह मूलसंघ, देशीगण, कुन्दकुन्दान्वय, पुस्तक गच्छ और इंगलेश्वर वलि के विद्वान थे । इनके गुरु का नाम भानूकीति था ओर प्रगुरु का वाहुबलि था। यह चन्द्रनाथ पार्श्वनाथ वसदि का पुरोहित था। अनन्तपुर जिले के ताडपत्रीय शिलालेख में प्रकट है कि उस स्थान पर एक जैन मन्दिर और जैन गुरुओं की प्रभावशाली परम्परा थी। उन्हें उम प्रदेश के सामान्तों से मरक्षण प्राप्त था । यह शिलालेख सन् ११६८ ई० का है, जिसमें उदयादित्य सामन्त के द्वारा मेघचन्द्र को भमिदान देने का उल्लेख है । (Jainism in South India P. 22)
इसमे प्रस्तुत मेघचन्द्र विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान है। इनकी कोई रचना उपलब्ध नही है।
कुमुदेन्दु
मूलसघ-नन्दिसंघ बलात्कार गण के विद्वान थे। इन कुम देन्दु योगी के शिष्य माघनन्दि सैद्धान्तिक थे । परवादिगिरिवज्र और सरस कवितिलक इनके उपनाम थे। इनकी एक मात्र कृति 'कमुदेन्द-रामायण' नाम का ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि-यह पद्मनन्दि व्रती का पुत्र था, और इसकी माता का नाम कामाम्बिका था । पद्मनन्दि व्रती साहित्य कुमुदवन चन्द्रचतुर चतुविधि पाण्डित्य कला शतदनविकसन दिनमणिवादि धराधर कृलिश-कवि मखमणिमकूर, उपाधियां थी। इनके पितव्य (काका) श्री अर्हनन्दि व्रति बतलाये गये है। उन्हें परमागम नाटक तर्क व्याकरण निघण्टु छन्दोलङ् कृति चरित पुराण पडङ्गस्तुति नीति स्मृतिवेदान्त भरत सरत मन्त्रीपधि सहित नर तुरग गजमणिगण परीक्षा परिणत विशेषणों के साथ उल्लेखित किया गया है। इनका समय सन् १२६० के लगभग है।
(कर्नाटक जैन कवि)
गुणभद्र यह मूलमंघ देशीगण ओर पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के गगन दिवाकर थे। इनके शिष्य नयकीर्ति सिद्धान्त देव थे, और प्रशिप्य भानु कीति व्रतीन्द्र को, जिन्हें शक स० १०६५ के विजय संवत में होय्यसल वंश के वल्लाल नरेश ने पार्श्वनाथ और चौबीस तीर्थकरो की पूजन हेतु 'मास हल्लि' नाम का गांव दान में दिया था। प्रताव इनका समय वित्रम सवत १२३० है। और इनके प्रगुरु गुणभद्र का समय इनमें कम से कम २५ वर्ष पर्व माना जाय तो उनका समय विक्रम की १२वी शताब्दी का अन्तिम चरण और १३वीं का प्रारम्भिक भाग माना जा सकता है।
(जैन लेख सं० भा०११० ३८५)
प्रभाचन्द्र प्रस्तुत प्रभाचन्द्र श्रवणवेलगोल के शक संवत् १११८ के उत्कीर्ण हुए शिलालेख नं० १३० में, और शक सं० १. रामकित्ति गुरुविण उ करविण विमलकित्ति माल पड़े विण। -मुगन्ध दसमी कहा प्र.
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
४२६
११२५ के १२: वें शिलालेख में नयकीति सिद्धान्तदेव के शिष्यो में प्रभाचन्द्र का नामोल्लेख है। इससे वे नयकीति के शिष्य थे। नयकीति का स्वर्गवास शक संवत् १०६६ (सन् ११७७-वि० सं० १२३४) में हुआ था । ऐसा शिला लेख नं०४२ से ज्ञात होता है। अतः यह प्रभाचन्द्र विक्रम की १३वी शताब्दी के विद्वान हैं।
अण्डय्य इनके पितामह का नाम भी अण्डय्य था। जिनके तीन पुत्र थे। शान्त, गम्मट और वैजण । ज्येष्ठ पुत्र शान्त की पत्नी बल्लब्बे क गर्भ से प्रस्तुत अण्डय्य का जन्म हुआ था। इनका निवास स्थान कन्नड था। इसका रचा हुया 'कब्बिगर' नाम का एक काव्य ग्रन्थ है, जो शुद्ध कन्नड़ी भाषा का ग्रन्थ है। इसमें संस्कृत का मिश्रण नहीं है। इसने जन्न कवि की स्तुति को है । अतएव इसका समय १२४०ई० के लगभग माना जा सकता है । यह ईसा की १३वी शताब्दी का कवि था।
शिशु मायण यह होयसल देश के अन्तर्गत नयनापुर नाम का एक ग्राम है। उमको ममीप कावेरी नदी की नहर बहती है भार वहाँ देवराज के इष्टानुमार गजगज ने भगतान नेमिनाथ का विशाल मन्दिर बनवाया है। इस ही ग्राम में उक्त कवि के पितामह मायण मेट्री रहते थे। वे बड़े भारी धनिक और व्यापारी थे। उनकी स्त्री तामरसि के गर्भ से बाममेट्टि नाम का पुत्र हुअा । वाग्ममेट्टि की स्त्री नेमाविका के गर्भ से कवि शिशुमायण का जन्म हुआ था। काणूर गण कं भानुमुनि इसके गुरु थ । कवि ने दो ग्रथों की रचना की है। त्रिपुर दहनसागत्य, और अंजनाचरित । इनमें अजना चरित की रचना कवि ने बेलुकेरे पुर के राजा गुम्मट देव की रुचि और प्रेरणा से की थी। इनका समय ईसा की १३वी शताब्दी है ।
पार्श्व पंडित यह पडित सोदत्तिके रदराज वंशी कातिवीर्य (१२०२-१२२०) का सभा कवि था। इसने अपने एक पद्य में कहा है कि-- कार्तवीर्य का पुत्र लक्ष्मणोवीर्य था। यह लक्ष्मणोवीर्य १२२६ में राज्य करता था। बाम्बे की रायल एशियाटिक सोसाइटा के जनल में जो एक शिलालेख प्रकाशित हा है, उसे पार्श्व कवि ने शक सम्वत ११२७ सन् १२०५ मे लिखा था, उसमे लिखा है कि-'काण्डी मण्डल के वेणुग्राम में रदृवंशीय राजाकार्तवीर्य,-जो मल्लिकाजुन के सहोदर भाई थे राज्य करते थे । पोर उन्होंने अपने मण्डल के प्राचार्य शुभचन्द्र भट्टारक के लिये उक्त ग्राम कर रहित कर दिया था। यह शिलालेख पार्श्वकवि का ही लिखा हुआ है । इसमें इसलिए भी सन्देह नही रहता कि कवि, ने अपने 'पार्श्वपुराण' मे जिस कविकुल तिलक विरुद को अपने नाम के साथ जोड़ा है, वही उक्त शिलालेख के भी अन्तिम पद्य में लिखा है। इसमे इस का समय १२०५ के लगभग निश्चित होता है। सुकविजन मनोहर्प शस्यप्रवर्ष बुधजन मनः पद्मिनी पमित्र, कविकुल तिलक आदि इसके प्रशसा सूचक उपनाम थे। इसकी एकमात्र कृति पार्श्व पुराण ग्रन्थ उपलब्ध है, जो गद्य-पद्य-मय चम्पू ग्रन्थ है। इसमें सोलह आश्वास है। ग्रथ के प्रारम्भ में जिनकी स्तुति करके कवि ने सिद्धान्तसेन से लेकर वोरनन्दी पर्यन्त गुरुपों की, और पप पोन्न, रन्न, धनंजय, भूपालदेव, अच्चण्ण अग्गल, नागचन्द्र, बोप्पण आदि पूर्व कवियो की स्तुति की है। कवि ने स्वय अपने इस ग्रन्थ की चार पद्यों में प्रशसा की है । अकलक भट्ट ने अपने शब्दानुशासन (१६०४) म इस ग्रथ क बहुत से पद्य उदाहरण स्वरूप उद्धृत किये हैं कवि का समय सन् १२०५ (वि० स० १२६२) है।
कवि जन्न जन्न-का जन्म कम्मे नामक वंश में हना था। इनके पिता का नाम शंकर और माता का नाम गंगादेवी था शंकर हयशालवंशीय राजा नरसिह के यहाँ कटकोपाध्याय (यूद्ध विद्या का शिक्षक या सेनाप
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
के गुरु रामचन्द्रदेव नाम के मुनि थे, जो माधवचन्द्र के शिष्य थे। रामचन्द्रदेव जगदेक मल्ल के दरबार के कटकोपा ध्याय थे यह जन्न के गुरु नागवर्म के भी गुरु थे। जन्न कवि सक्तिमूधार्णव ग्रन्थ के कर्ता मल्लिकार्जुन का साला और शब्दमणिदर्पण के कर्ता केशिराज का मामा था। यह चोलकूल नरसिहदेव राजा के यहाँ सभी कवि, सेनानायक और मन्त्री भी रहा है। यह बड़ा भारी धर्मात्मा था। इसने किलेकाल दुर्ग में अनन्तनाथ का मन्दिर और द्वार समुद्र के विजयी पार्श्वनाथ के मदिर का महाद्वार बनवाया था। इसकी यशोधरा चरित्र, अनन्तनाथ पुराण और शिवाय स्मरतन्त्र नाम की तीन रचनाएं मिलती हैं। इसका समय सन् १२०६ ई० कर्नाटक कवि रचित में दिया हुआ है।
श्री कोति यह मूनि- कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा के नन्दि सघ के विद्वान थे। जो चित्रकट से नेमिनाथ तीर्थकर की यात्राके लिये गिरनार जाते हए गुजरात की राजधानी अणहिलपूर म प्राये। वहा उन्हें राजा ने मण्डलाचार्य का विरुद (पद) प्रदान किया और उनका सत्कार किया। इनका समय विक्रम की १३वी शताब्दी है।
(देवो वेरावल का शिलालेख जैन लेख स० भा० ४ पृ० २२०)
शाके लिये गिरनार
जाका सत्कार किया।
का शिलालेख जन सय
महाबल कवि महाबल कवि-भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण था। इसके पिता का नाम रायिदेव और माता का नाम राजयक्का था। गुरुका नाम माधवचन्द्र था जो विद्य की उपाधि से उपलक्षिा थे। क्योंकि नेमिनाथ पुराण के अश्वास के अन्त में--'माधवचन्द्र विद्य चक्रवर्ती श्रीपादपदमप्रसादसादित सकलकलाकलाप" इत्यादि वाक्य लिख कर अपना नाम लिखा है। सहजकविमलगेह (१) माणिक्यदीप, और विश्वविद्याविरंचि, कवि इन तीन नामों से प्रसिद्ध था। इसकी एकमात्र कृति नेमिनाथ पुराण उपलब्ध है। जिम में २२ पाश्वास है । उसमें प्रधानता में हरिवंश और कुरुवश का वर्णन है। यह कनड़ी भाषा का चम्पू ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ में नेमिनाथ तीर्थकर, सिद्ध, सरस्वती आदि की स्तुति करके भूतबलि में लेकर पुप्पमेन पर्यन्त आचार्यों का स्तवन किया गया है । इसके पश्चात् अपने प्राश्रयदाता के नायक और अपना परिचय देकर कवि ने ग्रन्थ प्रारम्भ किया है। केतनायक परमवीर और स्वय कवि था। उसी के अनुरोध से इस ग्रन्थ की रचना हुई है। आय की रचना सुन्दर और प्रौढ है । कवि ने इसे शक सवत् ११७६ (ई० सन् १२५४) में समाप्त किया है।
लघु समन्तभद्र लघु समन्तभद्र-इनकी गुरु परम्परा और गण-गच्छादि का कोई परिचय नही मिलता। इन्होंने प्राचार्य विद्यानन्दकी अष्टसहस्री पर 'विषम पदतात्पर्यवृत्ति' नामक टिप्पण लिखा है, जो अष्टसहस्री के विपम पदों का अर्थ व्यक्त करता है। इनका समय विक्रम की १३वी शताब्दी बतलाया जाता है। इनके टिप्पण की प्राचीन प्रति पाटन के ज्ञान भण्डार में उपलब्ध है।
देवं स्वामिनममलं विद्यानदं प्रणम्य निजभक्त्या ।
विवृणोम्यष्टसहस्री विषमपदं लघुसमन्तभद्रोऽहम् ।। अन्तिम
शिष्ट कृत दुई ष्टि सहस्री दृष्टी कृत परदृष्टि सहस्री। स्पष्टी कुरुतादिष्टसहस्री मरमाविष्टपमष्टसहस्री ?
सं० १५७१ व-पूर्ण ग्रन्थ महतारसा. के नोट से कुलचन्द्र उपाध्याय-सं० १२२७ वैशाख वदि ७ शुक्रवार के दिन वर्द्धमानपुर के शांतिनाथ चैत्य में सा० भलन सा० गोगल ठा. ब्रह्मदेव ठा० कणदेवादि ने कटम्ब सहित अम्बिकादेवी की मूर्ति बनवाई और उसकी प्रतिष्ठा कुलचन्द्र उपाध्याय ने की। इससे कुलचन्द्र का समय विक्रम की १३वी शताब्दी है।
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
सकलचन्द भट्टारक मूलसंघ काणूरगण तिन्त्रिणी गच्छ के विद्वान थे। महादेव दण्डनायक के गुरु थे । मुनिचन्द्र के शिष्य कलभषणति विद्य विद्याधर के शिप्य थे। शक वर्ष १११६ (वि० स १२५४) में महादेव दण्डनायक ने 'एरग' जिनालय बनवा कर उसमें शान्तिनाथ भगवान की प्रतिष्ठाकर सकलचन्द्र भट्टारक के पाद प्रक्षालन पूर्वक हिडगण तालाब के नीचे दण्ड से नापकर ३ मत्तल चावल की भूमि, दो कोल्ल और एक दूकान का दान किया। अतः इनका समय वि० की १३वी शताब्दी है।
-- जैनलेम्व सं० भा० ३ पृ० २४६
सकलकोति यह माथुर संघ के प्राचार्य थे। संवत् १२३२ मे फाल्गुण सुदी १० मी को इनके भक्त श्रेष्ठी मनोरथ के पुत्र कुलचन्द्र ने मृति की प्रतिष्ठा की।
(संवत् १०३२ फाल्गुन मुदि १० माथुरमंचे पडिताचार्य श्री सकलकीति भक्त श्रेष्ठ मनोरथ मुत कुलचन्द्र लक्ष्मी पति श्रेयमेकारितेय ।)
इसी सवत् में एक दूसरी मूर्ति की भी प्रतिष्ठा उनके भक्त साह हेत्याक के प्रथम पुत्र वील्हण ने कल्याणार्थ की थी।
(सं० १२३२ फाल्गुन सुदि १० माथुरमंघे पडिताचार्य श्री सकलकोनि भक्तिन साह हेत्याकेन प्रथम पुत्र वील्हण सुतेन श्रेयमे करणये । (कारितेयं)
-दग्य, मागैठ का इतिहास
नल्विगुंद मादिराज इसका जन्म साकल्य कूल में हया था। इसके पिता का नाम चाम और माता का नाम महादेवी था। नल्विगद ग्राम में इसका जन्म हुआ था। गुण वर्म का पुष्पदन्त पुराण ई० सन् १२२६ के लगभग बना है। उसकी एक प्रति के अन्त में दो पद्य दिये है। पद्यों की रचना देखने से ज्ञात होता है कि यह एक अच्छा कवि था। पुष्पदन्त पुराण की प्रतिलिपि करने के कारण यह उससे कुछ समय बाद सन् १३०० के लगभग हुअा होगा। इसकी अन्य कोई रचना प्राप्त नहीं हुई।
शुभचन्द योगी इनके मंघ गण गच्छादि का कोई परिचय' उपलब्ध नही है। संभवतः यह मूलसंघ के विद्वान थे, तपश्चरण द्वारा प्रात्म-शोधन में तत्पर थे। रागादिरिपुमल्लाण-रागादि शत्रुओं को-जीतने के लिये मल्ल थे कषाय और इन्द्रिय जय द्वारा योग की साधना में उन्होंने चार चांद लगा दिये थे। उस समय वे अत्यन्त प्रसिद्ध थे।
जाहिणी प्रायिका ने, तपस्या द्वारा शरीर की क्षीणता के साथ कषायों को कृशकिया था। उसने अपने ज्ञानावरणी कर्मके क्षयार्थ शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव की प्रति लिखवा कर संवत् १२८४ में उन प्रसिद्ध शुभचन्द्र योगी को प्रदान की थी। इससे इन शुभचन्द्र का समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी है ।
-देखो ज्ञानार्णव की पाटन प्रति की लिपि प्रशस्ति ।
मल्लिषेण पंडित-- यह द्रविल संघ स्थित नन्दिसंघ अरुन्गलान्वय के विद्वान श्रीपालविद्य देव के प्रशिष्य और वासुपूज्य देव के शिष्य मल्ल पंडित को शक वर्ष १०५० (वि० सं० १२३५) में पारिसण्ण की मृत्यु के बाद उसके पुत्र शान्तियण दण्डनायक ने एक वसदि बनवाई और उसके लिये भूमिदान और दीपक के लिये तेल की चक्की दान में दी। तथा मल्ल गौण्ड प्रौर समस्त प्रजा ने गांव के घाट की प्रामदनी, तथा धान से चावल निकालते समय अनाज का हिस्सा भी उक्त मल्लिषेण पण्डित को दिया। मल्लिषेण पंडित का समय विक्रम को १३वीं शताब्दी है।
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिाहम - भाग २
बालचन्द मलधारि
मूल सघ, देशीय गण कोण्ड कुन्दान्वय पुस्तकगच्छ इंगलेश्वर वलिक त्रिभुवनकीर्ति रावल के प्रधान शिष्य थे । इनके प्रिय गृहस्थ शिष्य संजय के पुत्र वोम्मिसेट्टि तथा मेलब्वे से उत्पन्न मल्लि सेट्टि ने ते नगेर वसदि के प्रसन्न पार्श्वदेव के लिये तम्मडियहल्लि में सुपारी के २००० पेड़ों के दो हिस्से वशानु वंशतक जाने के लिये अलग निकाल दिये । और दोपनायक पोन्नव्वेसे उत्पन्न चेल्ल पिल्ले को अर्पित कर दिये । चेल्लपल्लेनेजो सवनगिरि श्रोर बालेन्दु-मल धारि देव का शिष्य था । अमरापुर के इस लेखका समय शक १२०० (सन् १२७८ ई० है । अता व नालचन्द्र मलधारि का समय ईसा की १३वी शताब्दी है ।
४३२
वादिराज (द्वितीय)
यह वादिराज की शिष्य परम्परा के विद्वान थे । ४६५ नं के शिलालेख में, जो शक्म० ११२२ (वि० स० १२५७ के लगभग का उत्कीर्ण किया हुआ है, लिखा है कि पट् दर्शन के अध्येता श्रीपादव के स्वर्गवास हो जाने पर उनके शिष्य वादिराज (द्वितीय) ने परवादिमल्ल जिनालय' नाम का मन्दिर बनवाया था । और उसकी पूजन तथा मुनिया के आहार दान के लिये कुछ भूमि का दान दिया। प्रस्तुत वादिराज गग नरेश राचमल्ल चतुर्थ या सत्य वाक्य के गुरु थे । इनका समय विक्रम का १३वी शताब्दी है । (जैनलेख स० भा० ११०४०८)
त्रिविक्रमदेव (प्राकृत शब्दानुशासन के कर्ता )
यह ग्रनन्दित्रैविद्य मुनि के शिष्य थे । त्रिविक्रम का कुल वाणस था । ग्रादित्यवर्मा के पौत्र और मल्लिनाथ के पुत्र थे । इनके भाई का नाम भाम (देव) था जो वृत्त और विद्या का धाम (स्थान ) था । यह दक्षिण देश के निवासी थे । इनकी एक मात्र कृति 'प्राकृत शब्दानुशासन' है । जो तीन अध्यायों में विभक्त है और स्वोपज्ञ वृत्ति से युक्त है । प्रत्येक अध्याय के चार-चार पाद हैं। इसमें हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में दिये हुए अपभ्रंश पद्या को उद्धृत किया है, और उनके पद्यों को उद्धृत कर उनका खण्डन भी किया है। इसमे यह निश्चित है कि प्रस्तुत व्याकरण का रचना काल हेमचन्द्र के बाद, विक्रम की १३वी शदी है, डा० ए० एन० उपाध्ये ने इनका समय १२३६ ई० बतलाया है | व्याकरण बहुत अच्छा है, इसका अध्ययन करने से प्राकृत भाषा का अच्छा परिज्ञान हो जाता है । डा० पी० एल० वैद्य ने इसका सम्पादन किया है, और यह ग्रंथ जीवराज ग्रंथमाला शोलापुर से सन् १९५४ में प्रकाशित हो चुका है ।
भट्टारक प्रभाचन्द
यह मूलमंघ के भट्टारक रत्नकीर्ति के पट्टधर थे । रत्नकीर्ति और प्रभाचन्द्र नाम के अनेक विद्वान प्राचार्य और भट्टारक हो गए है। उनमें यह भट्टरक प्रभाचन्द्र उन रत्नकीर्ति के पट्धर थे जो भ० धर्मचन्द्र के प्रपट्ट पर अजमेर में प्रतिष्ठित हुए थे, जिन का समय पट्टावली में स० १२९६ से १३१० बनलाया गया है । पट्टे श्री रत्नकीर्तेरनुपमतपसः पूज्यपादीयशास्त्र -
व्याख्या विख्यातकीर्ति गुणगणनिधिपः सत्क्रियाचारचंचः ।
१. श्रुभ रहनन्दि विद्यमुनेः पदाम्बुज भ्रमरः । श्री बाण सकुल कमनद्य मरोरादित्यवर्मणः पौत्रः ॥ श्रीमल्लिनाथ पुत्रो लक्ष्मीगर्भामृताम्बुधिसुधांशुः । भाग्य वृत्त विद्याधाम्नो भ्राता त्रिविक्रम. सुकविः ॥ ३
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवी और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
श्रीमानानन्दधामा प्रतिवधनतमामानसंदायिवादो।
जीयादाचन्द्रतारं नरपतिविदितः श्रीप्रभाचन्द्रदेवः ॥ पट्टावली के इस पद्य गे प्रकट है कि भट्टारक प्रभाचन्द्र रत्नकीति भट्टारक के पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे। रत्नकीति अजमेर पढ़ के भट्टारक थे। दूसरी पदावली में दिल्ली पट्ट पर भ० प्रभाचन्द्र के प्रतिष्ठित हाने का समय सं० १३१० बतलाया है । और पट्टकाल म० १३१० मे १३८५ तक दिया है, जो ७५ वर्ग के लगभग बटना है। दूसरी पट्टावली में स० १३१० पौप दी १५ प्रभाचन्द्र जी गहम्थ वर्प १२ दक्षा वर्ष १२ पट्ट वर्ष ७८ माम ११ दिवस १५ अन्तर दिवस ८ सर्व वर्ष ८ मास ११ दिवस ३ । (भट्टारक सम्प्रदाय प०६१)।
भट्टारक प्रभाचन्द्र जब भ रत्नकीति के पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए. उम गमय दिल्ली में किमका गज्य था, इसका उक्त पट्टालियों में कोई उल्लेग्न नही है। किन्तु १० प्रभाचन्द्र के गिप्य घनपाल के तथा दम शिष्य ब्रह्म नाथगम के स०१४५४ और १४१६ के उल्लेखो से ज्ञान होता है कि प्रभाचन्द्र ने मुहम्मद बिन तुगलक के मन को अनजित विया था और वादी जनी को वाद मे पगरत किया था - जमा कि उनके निम्न वाक्यों में प्रकट :
तहि भव्य हि सुमहोच्छव विहियउ, सिरिरयणकित्ति ण्टेणिहियउ । महमंद साहिमणुरंजियउ, विज्जविाइयमणुभजियउ ॥
-बाहुबलि चरित प्रशस्ति उग समय दिल्ली के भव्य जनो नाक उत्सव किया था और भ० रकाकांति के पद पर प्रभाचन्द्र को प्रनिटित किया था। मुहम्मद बिन तुगलक मन १३२५ (वि०म० १९८२) मे मन १३५१ वि० सं० १८०८) तक गज्य किया है। यह बादशाह बहभाप:-विज, न्यायी, विद्वानों का गमादर करने वाला प्रार अत्यन्त कठोर शासक था। अतः प्रभानन्द्र इमने राज्य में म०१३८५ के लगभग पट्ट पर प्रतिष्ठिन हा हो। दग कथन में पटालियो का वह समय छ अानुमानिक गा जान पड़ता है। वह इतिहाग की कगोटी पर ठीक नहीं बैठता । अन्य किमी प्रमाण से भी उसकी पुष्टि नहीं होती।
प्रभाचन्द्र अपने अनेक शिष्यों के साथ पट्टण, खभात, धागनगर और देवगिरि होते हए जोइणिपुर (दिल्ली) पधारे थे। जैसा कि उनके शिप्य धनपाल के निम्न उल्लेख से स्पष्ट है:
पटणे खंभायच्चे धारणार देवगिरि।
मिच्छामयविहुणंतु गणिपत्तउ जोयणपुरि॥ वा बलि चरिउ प्र० पागधना पजिका के म०१४१६ के उल्लेख में स्पष्ट है कि व भ. रत्नाति के पटट को मजीन बना रहे थे । इतना ही नही, किन्तु जहा वे अच्छे विद्वान, टीकाकार, व्याख्याता और मंत्र-तत्र-वादी थे, वहा वे प्रभावक व्यक्तित्व के धारक भी थे। उनके अनेक शिप्य थे। उन्होंने फीरोजशाह तुगलक के अनुरोध पर रक्ताम्बर वस्त्र धारण कर अन्तःपुर में दर्शन दिये थे। उस समय दिल्ली के लोगों ने यह प्रतिज्ञा की थी कि हम अापको सवस्त्र जती मानेगे । इस घटना का उल्लेख बखतावर शाह ने अपने बुद्धिविलास के निम्न पद्य में किया है :
दिल्ली के पातिसाहि भये पेरोजसाहि जब, चांदी साह प्रधान भट्टारक प्रभाचन्द्र तब, आये दिल्ली मांझि वाद जीते विद्यावर, साहि रीझि के कही करै दरसन अंतहपुर,
१. जैन सि० भा, भा०१ किरण ४ । २. मं० १४१६ चैत्र सुदि पचम्या मोमवासरे सकलराजशिरोमुकुटमाणिक्यमरीचि पिंजीकृत चरणकमल पादपीठस्य
श्रीपेरोजसाहेः सकल साम्राज्यधरीविनाणस्य समये श्री दिल्या श्रीकुदकु दाचार्यान्वये सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे भ० श्रीरत्नकीतिदेवपट्टोदयाद्रि तरुणतरणित्वमुर्वीकुर्वाण भट्टारक श्री प्रभाचन्द्रदेव तत्शिष्याणा ब्रह्म नाथगम इत्या गधना पंजिकाया ग्रन्थ आत्म पठनार्थ लिखापितम् । जैन साहित्य और इतिहास पृ०५१ दुसरी प्रशस्ति सं० १४१६ भादवा सुदी १३ गुरुवार के ग्नि की लिखी हुई द्रव्यसग्रह की है जो जयपुर के ठोलियो के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है । ग्रंथ सूची भा० २, पृ० १८० ।
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
तिह समै लंगोट लिवाय पनि चांद विनती उच्चरी।
मानि हैं जती जुत वस्त्र हम सब श्रावक सौगंद करी ॥६१६ यह घटना फीरोजशाह के राज्यकाल की है, फीरोजशाह का राज्य सं० १४०८ से १४४५ तक रहा है। इस घटना को विद्वज्जन बोधक में सं० १३०५ की बतलाई है जो एक स्थूल भूल का परिणाम जान पड़ता है क्योंकि उस समय तो फीरोजशाह तुगलक का राज्य ही नहीं था फिर उसको सगति कैसे बैठ सकती है। कहा जाता है कि भ० प्रभाचन्द्र ने वस्त्र धारण करके बाद में प्रायश्चित लेकर उनका परित्याग कर दिया था, किन्तु फिर भी वस्त्र धारण करने की परम्परा चालू हो गई।
इसी तरह अनेक घटना क्रमों में समयादि की गड़बड़ी नथा उन्हें बढ़ा-चढ़ा कर लिखने का रिवाज भी हो गया था।
_ दिल्ली में अलाउद्दीन खिलजी के समय राघो चेतन के समय घटने वाली घटना को ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किये बिना ही उसे फीरोजशाह तुगलक के समय की घटित बतला दिया गया है। (देखो बुद्धि
स पृ०७६ और महावीर जयन्ती स्मारिका अप्रैल १६६२ का अंक पृ० १२८) ।
राघव चेतन ऐतिहासिक व्यक्ति हैं और अलाउद्दीन खिलजी के ममय हुए हैं । यह व्यास जाति के विद्वान मंत्र, तंत्रवादी और नास्तिक थे। धर्म पर इनको कोई प्रास्था नहीं थी, इनका विवाद मुनि माहवसेन से हना था, उसमें यह पराजित हुए थे।
ऐसी ही घटना जिनप्रभमूरि नामक श्वे० विद्वान के सम्बन्ध में कही जाती है-एक बार सम्राट मुहम्मदशाह तुगलक की सेवा में काशी से चतुर्दश विद्या निपुण मंत्र तंत्रज्ञ राघवचेतन नामक विद्वान पाया। उसने अपनी चातुरी से सम्राट को रंजित कर लिया। सम्राट पर जैनाचार्य श्री जिनप्रभमूरि का प्रभाव उसे बहुत प्रखरता था। अतः उन्हें दोषी ठहरा कर उनका प्रभाव कम करने के लिए सम्राट् को मुद्रिका का अपहरण कर सूरिजी के रजोहरण में प्रच्छन्न रूप से डाल दी। (देखो जिनप्रभसूरि चरित पृ० १२) । जब कि वह घटना अलाउद्दीन खिलजी के समय को होनी चाहिए। इसी तरह कुछ मिलती-जुलती घटना भ० प्रभाचन्द्र के साथ भी जोड़ दी गई है। विद्वानों को इन घटनाचक्रों पर खब सावधानी से विचार कर अन्तिम निर्णय करना चाहिए।
टीका-ग्रन्थ
पटटावली के उक्त पद्य पर से जिसमें यह लिखा गया है कि पूज्यपाद के शास्त्रों की व्याख्या से उन्हें लोक में अच्छा यश और ख्याति मिली थी। किन्तु पूज्यपाद के समाधि तंत्र पर तो पं० प्रभाचन्द्र की टीका उपलब्ध है। टीका केवल शब्दार्थ मात्र को व्यक्त करती है उसमें कोई ऐसी खास विवेचना नहीं मिलती जिसमे उनकी प्रसिद्धि को बल मिल सके । हो सकता है कि वह टीका इन्हीं प्रभाचन्द्र की हो, आत्मानुशासन की टीका भी इन्हीं प्रभाचन्द्र की कृति जान पड़ती है, उसमें भी कोई विशेष व्याख्या उपलब्ध नहीं होती।
रही रत्नकाण्ड श्रावकाचार की टीका की बात, सो उस टीका का उल्लेख पं० आशाधरजी ने अनगार धर्मामत की टीका में किया है।
"यथास्तत्रः-भगवन्तः श्रीमत्प्रभेन्दुपादारत्नकरण्डटीकायां चतुरावर्तत्रितय इत्यादि सूत्र द्विनिषद्यइत्यस्यव्याख्यानेदेववन्दनां कुर्वताहि प्रारम्भे समाप्तौचोपविश्य प्रणामः कर्तव्य इति ।"
इन टीकाओं पर विचार करने से यह बात तो सहज ही ज्ञात होती है कि इन टीकानों का प्रादि-अन्त मंगल और टीका की प्रारंभिकसरणी में बहुत कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है। इससे इन टीकानों का कर्ता कोई एक ही प्रभाचन्द्र होना चाहिये । हो सकता है कि टीकाकार की पहली कृति रत्नकरण्डकटीका ही हो। और शेष, टीकाएं बाद में बनी हों। पर इन टीकानों का कर्ता प्रभाचन्द्र पं० प्रभाचन्द्र ही है, प्रमेयकमलमातंण्ड के कर्ता प्रभाचन्द्र इनके कर्ता नहीं हो सकते। क्योंकि इन टीकामों में विषय का चयन और भापा का वैसा सामंजस्य अथवा उसकी वह प्रौढता नहीं दिखाई देती, जो प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकूमूदचन्द्र में दिखाई देती है। यह प्रायः सनि.
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३५
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य और कवि
चित-सा है कि वे धारावासी प्रभाचन्द्राचार्य जो माणिक्यनन्दि के शिष्य थे उक्त टीकाओं के कर्ना नहीं हो सकते ।
समय- विचार
प्रभाचन्द्र का पट्टावलियों में जो समय दिया गया है, वह प्रवश्य विचारणीय है । उसमें रत्नकीर्ति के पट्ट पर बैठने का समय स० १३१० तो चिन्तनीय है ही । सं० १४८१ के देवगढ़वाले शुभचन्द्र वाले शिलालेख में भी रत्न - कीर्ति के पट्ट पर बैठने का उल्लेख है, पर उसके सही समय का उल्लेख नही है । प्रभाचन्द्र के गुरु रत्नकीर्ति का पट्टकाल पट्टावली में १२६६-१३१० बतलाया है। यह भी ठीक नहीं जंचता, सभव है वे १४ वर्ष पट्टकाल में रहे हों । किन्तु वे अजमेर पट्ट पर स्थित हुए और वही उनका स्वर्गवास हुआ। ऐसी स्थिति में समय सीमा को कुछ बढ़ा कर विचार करना चाहिए, यदि वह प्रमाणों यादि के आधार मे मान्य किया जाय तो उसमें १०-२५ वर्ष की वृद्धि अवश्य होनी चाहिये, जिससे समय की संगति ठीक बेठ सके | आगे पीछे का सभी समय यदि पुष्कल प्रमाकी रोशनी में चर्चित होगा, तो वह प्रायः प्रामाणिक होगा । आशा है विद्वान् लोग भट्टारकीय पट्टावलियां में हुए समय पर विचार करेंगे, ।
दिये
भट्टारक इन्द्रनन्दी (योगशास्त्र के टीकाकार)
यह काष्ठासंघान्तर्गत माथुरसंघ के विद्वान अमरकीति के शिष्य थे। जिन्हें इन्द्रनन्दिने चतुर्थागमवेदी मुमुक्षुनाथ ईशिन्, अनेक वादिव्रज सेवितचरण और लोक में परिलब्धपूजन जैसे विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है। यथा - लसच्चतुर्धागम वेदिनं परं मुमुक्षुनाथा :मरकीर्तिमीशिनम् । अनेकवादिव्रजसेवितक्रमं विनम्यलोके परिलब्धपूजनम् ||२|| जिना (निजा) त्मनो ज्ञानविदे प्रशिष्टां विद्वद्विशिष्टस्य सुयोगिनां च । योगप्रकाशस्य करोमि टीकां सूरीन्द्रनन्दीहितनन्दिनंवं ॥ ३
यह अपने समय के अच्छे विद्वान थे । इन इन्द्रनन्दि की एक मात्र कृति श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र कृत योगशास्त्र की टीका है । जिसका नामकर्ता ने योगीरमा, सूचित किया है। जैसा कि 'टीका के योगिरमेन्द्र मुनियः' वाक्य से जाना जाता है। इस टीका की एक प्रति स्व० पं० जुगलकिशोर मुख्तार को करंजाभंडार से माणिक चन्द्र जी चवरे द्वारा प्राप्त हुई थी। और जिसे भट्टारक इन्द्रनन्दि ने जैनागम, शब्दशास्त्र भरत (नाट्य) और छन्द शास्त्रादि की विज्ञा चन्द्रमता नाम की चारु विनया (विनयशील) शिष्य के बोध के लिये बनाई थी। जैसा कि प्रशस्ति के निम्न पद्य वाक्यों से स्पष्ट है
" श्री जैनागमशब्दशास्त्र भरत छन्दोभिमुख्या दिकवेत्री चन्द्रमतीति चारुविनया तस्या विबोध्यं शुभा ।। "
टीका सुन्दर और विषय की प्रतिपादक है। इस टीका का विशेष परिचय अनेकान्त वर्ष २० किरण ३ पृ० १०७ में देखना चाहिये। इस टीका का तुलनात्मक अध्ययन करने से योगशास्त्र की मल स्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ेगा। टीका में रचना समय दिया है। जिससे इन्द्रनन्दी का समय वि० सं० १३१५ निश्चित हैं । हेमचन्द्र के ८६ वर्ष बाद टीका बनी है। हेमचन्द्र का स्वर्गवास स० १२२६ में हुआ है । प्रस्तुत टीका ११वं ईश्वर सम्वत्सर ११८० ( वि० सं० १३१५ ) में चैत्र शुक्ल द्वितीया के दिन बनाकर समाप्त की गई है ।
खाष्टेशे शरदीतिमासिच शुचौ शुक्ल द्वितीया तिथौ, टीका योगिरमेन्द्रनन्दिमुनियः श्रीयोगसारीकृता ।
१. इति योगशास्त्रे ऽस्या पंचमप्रकाशम्य श्रीमदमरकीर्ति भट्टारकारणां शिष्य श्रीभट्टारक इन्द्रनन्दि विरचिताया योगशास्त्र टीकायां द्वितीयधकारः ।" कारंजा भण्डार प्रति, अनेकान्त वर्ष २० किरण ३ पृ० १०७
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
श्री जैनागम शब्दशास्त्र-भरत छन्दोमिमुख्यादिक
वेत्री चन्द्रमतीति चारुविनया तस्या विवोध्य शुभा ॥ श्वेताम्बरीय योगशास्त्र पर दिगम्बरीय विद्वान द्वारा लिखी गई यह टीका अवश्य प्रकाशनीय है। उससे कितनी ही बातों पर नया प्रकाश पड़ेगा।
बालचन्द कवि यह मलसंघ देशिय गण दंग नेश्वर शाखा के विद्वान नेमिचन्द्र पण्डितदेव के शिष्य थे । इनकी एक मात्र कति 'उद्योगमार' है, जो कनड़ीभापा में रचा गया है। कवि ने ग्रन्थ में अपना नाम व्यक्त नही किया। किन्तु निम्न पद्य में अपने को नेमिचन्द्र का शिप्य सूचित किया है:
थ तनिधि विमलदयाम्बुधिविततयशोधामनेमिचन्द्र मुनीन्द्रः।
श्रुतलक्ष्मी द्वितयक्कं सुतनोनिसि सुतत्वदशियेति सुवुदरिदे ।। श्रवण बेलगोल के शक स० १२०५, सन् १८३ ई. के लेख में महामण्डलाचार्य श्री मलसंघीय इंगलेश्वर देशीयगणाग्रगण्य गजगम नेमिचन्द पण्टिन देव का वर्णन कर उनके शिष्य वालचन्द का उल्लेख किया है । इससे यह ईसा की १३वी शताब्दी के अन्तिमचरण और वि. की १४वी शताब्दी के कवि हैं।
देवसेन (भावसंग्रह के कर्ता) देवसेन नाम के अनेक विद्वान हो गए है। उनग भावसंग्रह के कर्ता वे देवमेन हैं जो विमलमैन के शिष्य थं । दर्शनसार वं. कर्ता देवमेन इन से भिन्न है। उनका समय विक्रम की १०वीं शताब्दी है। किन्तु भावसंग्रह के कर्ता देवसेन मोमदेव और राजदोखर के बाद के विद्वान है। दर्शनसार के कर्ता विमलसेन के गिप्य नहीं थे, इससे भी दोनो की पृथकता स्पष्ट है । भावनग्रह के कर्ता उनमे पश्चाद्वी विद्वान् हैं।
भावसंग्रह में ७०१ गाथाएं हैं जिनमें चौदह गुणस्थानों का वर्णन किया गया है। प्रथम गणस्थान के वर्णन में मिथ्यात्व के पांच भेदों का उल्लेख करते हा ब्रह्मवादियों को विपरीत मिथ्यादष्टि बतलाया है ओर लिखा है कि व जल से शुद्धि मानते है, मांससे पितरों की तृप्ति, पशुघात से स्वर्ग और गौ के स्पर्ग से धर्म मानते हैं । इसका विवेचन करते हुए स्नान दूपण और मास दूपण का कथन किया है और उनकी आलोचना की है। प्रस्तुत ग्रन्थ मलसघ कं। पाम्नाय का प्रतीत नहीं होता, क्याकि उसमें कितना ही कथन उस ग्राम्नाय के विरुद्ध और असम्बद्ध पाया जाता है।
पचम गुणस्थान का वर्णन लगभग २५० गाथाना में किया गया है। किन्तु उसमें थावक के १२ व्रतों के नाम ओर अप्टमूलगुणो के नाम तो गिना दिये किन्तु उनके स्वरूपादि का कथन नहीं किया और न सप्त व्यसन और ११ प्रतिमाओं का स्वरूप ही दिया। हां दान पूजादि विषय का कथन विस्तार से दिया है। इस गुणस्थान के वर्णन में गुणव्रत और शिक्षाव्रतों के भेद तो कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार बतलाए हैं किंतु सामायिक के स्थान में त्रिकाल सेवा का स्थान दिया गया है।
भावसग्रह में त्रिवर्णाचार के समान ही आचमन, सकलीकरण, यज्ञोपवीत और पचामत अभिषेक का विधान पाया जाता है। इतना ही नहीं कितु इन्द्र, अग्न, काल, नैऋत्य, वरुण, पवन, यक्ष, सोम, दश दिक्पालों की उपासना, भगवान का उवटना करना, शास्त्र तथा युवति वाहन सहित ग्राह्वान करके बलि चर आदि पूज्य
- .. - - -- - - - - -- ---- १.टीका के विशेष परिचय के लिये देखें. अनेकान्त वर्ष २० कि०३ में मुख्तार श्री जुगलकिशोर का लेख पृ० १०७ २. जैन लेग्य स० भा० १ पृ० १५१-२ ३. सोममेन कृत विवर्णाचार में भी दश दिक्पालो का, आयुध, वाहन, शस्त्र और युवति सहित पूजने का विधान है-ओं इद्राग्नि यम नेऋत्य वरुण पवन कुवेरेशान धरण सोम्य: सर्वेत्यायुध वाहन युवति सहिता पायात आयात इद मघं
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवी और चौदहवी शताब्दी विद्वान, आचार्य और कवि
द्रव्य तथा यज्ञ के भाग को वीजाक्षर नाम युक्त मत्रों से देने का विधान किया गया है। जैसा कि उसकी निम्न दो गाथायो मे प्रकट है:
पाहाहिऊण देवे सुरवइ-सिहि-कालणेरिए वरुण । पवणे जर ली सपिय स वाहणे स सत्थेय ॥४३६ दाउण पुज्ज दव्वं वलि चरुयं तहय गण्ण भायंच ।
सवेसि मंते ह य बीयक्खरणामजुत्तेहिं ।।४४० पं० कलाशचन्द्र जी सिद्धान शास्त्री ने सोमदेव के उपासकाध्ययन ओर भावमग्रह का तुलनात्मक अध्ययन करके यह निक निकाला है कि भावसंग्रह कार ने सोमदेव के उपामकाध्ययन मे बहत कूछ लिया है। उपासका ध्ययन का रचनाकाल वि० स० १०१६। अत: भावसंग्रह उस के बाद को रचना है।
भावसग्रह के कर्मा ने कालधर्म का कथन कपूर मजरी से लिया जान पड़ता है। दोना कथना में प्रोर शब्दों में समानता दप्टिगोचर होती। भावमग्रट का शिथलाचार विषयक वर्णन उसका अर्वाचीनता का द्योतक है।
स्व. पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया ने भी भावसंग्रह के सम्बध में एक विम्तत तेय 'महावीर जयन्नी' रमारिका में प्रकट किया था। उसमें भावमंग्रह के कर्ता को दर्शनसार के कता से भिन्न मानते हुए अम्नाय विरुद्ध कथन करने का भी उल्लेख किया है।
गाथा १६वी में पुगतन साधनों की कर्म निर्जरा मे हीन महननधारी माधनो को निर्जग को महत्वपूर्ण बतलाया है।
वरिस सहस्सेण पुग जं कम्म हणइ तेण पुण्णेण ।
तं सपइ वरिसेणहु णिज्जरयइ हीण संहणणों ।।१३१ भावमग्रद कार ने प्राकृत पार अपभ्रश के पद्यों को एक साथ रक्खा है।
पण्डित वागदेव ने भावगग्रह का सरकृतिकरण किया है । वामदेव का समय विक्रम की १४ वी शताब्दी है। पण्डित प्रागाधर जा के सामने गावमग्रह नहीं था। यदि होता तो वे उसके सम्बंध में अवश्य कुछ लिखते । गंभव है देवरीन ने वि० वी १२वी शताब्दी के उपान्त्य रामय में इगका सकरन किया हो । ग्रन्थ में कुछ गाधाए पुगनी भी राग्रहीत है, कुछ १५ गतादी की भी है। यह मालिक ग्रंथ नही जान पड़ना । कथन क्रम की असम्बद्धता भी इसकी अवाचानता का सूचक है। इस ग्रन्थ के सम्बध में अन्वेषण होना चाहिए, जिससे ग्रन्ध सम्बद्ध ओर वस्तु स्वरूप का प्रामाणिक विवचक हो सके।
श्रु तमुनि मूलसघ, देशीयगण, पुस्तक गच्छ की इंगनेटवर शाखा में हुए है । इन के अणुव्रत गुरु वाजेन्दु (बालचन्द्र) और मुनिधर्म में दीक्षित करने वाले महावत गुरु नभयचन्द्र सिद्धांनी थे। इनमें बालचन्द्र मुनि भो अभय वन्द्र सिद्धांती के शिष्य थे, पोर इससे वे श्रतमान के ज्येष्ठ गरुभाई भी हए । शास्त्र गुरुओं में भी अभयसूरि सिद्धांती थे, जो शब्दागम, परमागम और तागम के पूर्ण जानकार थे। अोर उन्होंने राभी परवादियों को जीता था। और प्रमाचन्द्र मुनि सारत्रय में-प्रवचनसार, मगयसार पार पनास्तिकायसार में निपुण थे। परभाव से रहित हुए शुद्धत्मस्वरूप में लीन थे । और भव्य जनो को प्रतिबोध देने में सदा तत्पर थे। श्रुतमनि ने प्रशस्ति में इन सभी गुरुग्रां का जयघोप किया है । और चारुकीति मुनि का भी जयघोप किया है जो श्रवणबेलगोला की भट्टारकीय गद्दी के पट्टधर थे। और जिनका नाम चारुकीति रूढ़ था। उन्हें कवि ने नयनिक्षेपों तथा प्रमाणों के जानकार, सब धर्मों के विजेता,
१. देखो वर्णी अभिनन्दन ग्रन्य प० २०७ में कोलधर्म परिचय नाम का लेख
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
नपगण से वन्दितचरण, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता, और जिनमार्ग पर चलने वाले प्रकट किया है।
रचनाकाल
श्रुतमुनि की तीन रचनाएँ है-भावत्रिभंगी (भावसंग्रह) प्रास्रवत्रिभंगी और परमागमसार । इनमें प्रथम की दो रचनाओं में रचना समय नहीं दिया। अन्तिम रचना परगमसार में उसका रचना काल शक संवत् १२६२ (वि० सं० १३६७) वृषसंवत्सर मगशिर सुदी सप्तमी गरुवार दिया है। जैसा कि उसकी निम्न गाथा से प्रकट है:
सगकाले हु सहसस्से विसय-तिसठी १२६३ गदे दु विसरिसे ।
मग्गसिरसुद्धसत्तमि गुरुवारे ग्रन्थसंपुष्णो ॥२२४॥ इससे श्रुतमुनि का समय सन् १३४१ (वि० सं० १३६२) है । अर्थात् यह १४वीं शताब्दी के विद्वान् हैं । रचना-परिचय
भावत्रिभंगी- इसका नाम भावसंग्रह भी है, जो अनेक ताडपत्रीय प्रतियों में पाया जाता है जैसा कि 'मूल त्तरभावसरूवं पवक्खामि' वाक्यों से प्रकट है। ग्रन्थ की गाथा संख्या प्रशस्ति सहित १२३ है। इस ग्रन्थ में भावों के तीन भंग करके कथन करने से इसका नाम 'भावत्रिभंगी' रूढ़ हो गया है। इसमें जीवों के प्रीपशमिक आदिक क्षायोपशमिक पादयिक और पारिणामिक ऐसे पांच मूलभावों और इनके क्रमश: २,६,१८,२१ और ३८ ऐसे ५३ उत्तरभावों का कथन किया गया है । जो चौदह गुणस्थानों, १४ मार्गणास्थानों की दृष्टि को लिये हुए है। ग्रन्थ अपने विषय का महत्वपूर्ण है । ग्रन्थ में रचना काल दिया हुआ नहीं है।
प्रास्त्रवत्रिभंगी- इस ग्रन्थ की गाथा संख्या ६२ है। इसमें मिथ्यात्व, अविरत, कषाय, योग इन मल प्रास्रवों के क्रमशः ५,१२,२५,१५ ऐसे ५७ भेदों का गुणस्थान प्रौर मार्गणास्थान की दृष्टि से कथन किया है। इसमें गोम्मटसार की अनेक गाथानों को मूल का अंग बनाया गया है। अन्तिम गाथा में 'बालेन्दु' बालचन्द्र का जय गान किया है, जो श्रुतमुनि के अणुव्रत गुरु थे । इस ग्रन्थ में भो रचना काल नही दिया।
परमागमसार--इसकी गाथा संख्या २३० है, और पाठ अधिकारों में विभक्त है। पंचास्तिकाय, षट्दव्य
१. अणुवद-गुरु-बालेन्दु महव्वद अभयचन्द्र सिद्धति ।
सत्थे भयसूरि-पहाचंदा खलु सुय मुरिणस्स गुरू ।।११७ सिरि मूनसंघ देसिय (गण) पुत्थय गच्छ कोंडकुन्द मुरिगणाहं । (कुंदाणं) परमण इगलेस बलिम्मि जाद [स्स] मुरिण पहाणस्स ॥११८ सिद्धताऽहय चदस्स य सिस्सो बालचदमुणि पवरो। सो भविय कुवलयारण आणद करो सया जयऊ ।।११६ सद्दागम परमागम-तक्कागम-निरवसेस वेदी हु। विजिद-सयलण्णवादी जय उ चिर अभयसूरि सिद्धति ॥१२० रणय-णिक्खेव-पमारणं जाणित्ता विजिद-सयल-परसमयो । वर-णिवइ-णिवह-वंदिय-पय-मम्मो चारुकित्ति मुरणी ।।१२१ णाद-रणखिलत्थ सत्थो सयलपरि देहि पूजिमो विमलो। जिरण-मग्ग-गयण-सूरो जयउ विरं चारुकित्ति मुणो ॥१२२ वर सारत्तय-रिंगउरणो सुद्धप्परओ विरहिय-परभाओ। भवियागं पडिवोहणपरी पहाचंदणाम मुणी ॥१२३
--भावसंग्रह प्रशस्ति
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि
४३६
सप्ततत्त्व, नवपदार्थ, बन्ध, और बन्ध के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का क्रमशः वर्णन दिया हुआ है । ग्रन्थ के अन्त में उसका रचना काल शक सं० १२६३ (सन् १३४१ (वि० सं० १३६८) वृषसंवत्सर मगसिर सुदि सप्तमी गुरुवार दिया है । इससे श्रुतमुनि १४वीं शताब्दी के विद्वान हैं।
रत्नयोगीन्द्र इन्होंने अपनी गुरु परम्परा का कोई उल्लेख नहीं किया और न समय ही दिया। इनकी एक मात्र कृति 'नागकुमार चरित' है, जो पंचसर्गात्मक है। और पांच सौ श्लोक प्रमाण संख्या को लिये हए है। जिसमें पंचमी व्रत के उपवास का माहात्म्य वर्णित है।
श्री पंचम्युपवासस्य फलोदाहरणात्मकम्। एवं नाग कुमारस्य समाप्तिं चरितं ययौ ।। इति श्री रत्नयोगीन्द्रंणोपसंहत्य कीर्तितम् ।
सहस्त्रार्द्धमिति ग्रन्थये तच्चरितमुच्चकैः ॥ इति श्री नागकुमार चरिते श्री पंचमी महोपवास फलोदाहरणे पंचमः सर्गः ।
ग्रन्थ की यह प्रति खंभात के श्वेताम्बरीय शारत्र भंडार में अवस्थित है । ग्रन्थ की यह प्रति १४वीं शताब्दी की लिखी हुई है अतएव रत्नयोगीन्द्र का समय विक्रम की १३वीं या १४वी शताब्दी अनुमानित किया जा सकता है।
कुलभद्र कूलभद्र ने अपनी रचना में अपने नामोल्लेख के सिवाय अन्य कोई परिचय देने की कृपा नहीं की। और न अपनी गुरु परम्परा तथा गणगच्छादि का ही उल्लेख किया। इससे इनका परिचय और समय निश्चित करने में बड़ी कठिनाई उपस्थित हो रही है । इस ग्रन्थ की लिपिबद्ध प्रतियां जयपुर और उदयपुर के शास्त्रभंडार में पाई जाती है। इस पर पण्डित दौलतराम जी कासलीवाल ने हिन्दी टिप्पण भी लिखा है। जयपुर के वधीचन्द्र मन्दिर के शास्त्रभंडार में संवत् १५४५ कार्तिक सुदी चतुर्थी की लिखी हुई प्रतिलिपि पाई जाती है । इससे इतना तो सुनिश्चित है कि यह ग्रन्थ सं० १५४५ के बाद की रचना नहीं है, किन्तु उससे पूर्ववर्ती है।
इनकी एकमात्र कृति 'सार समुच्चय' है, जो एक उपदेशिक ग्रन्थ है रचना साधारण होते हुए भी उसमें सरल शब्दों में धर्म के सार को रखने का प्रयत्न किया है। ३३० संस्कृत के अनुष्टुप पद्यों द्वारा प्रात्मा के स्वहित का उपदेश दिया गया है। उसमें बतलाया है कि जो जीव कषायों से मलिन है, जिनका मन राग से अनुरंजित है, वह चारों गतियों में दुख उठाता है, और जो विपय-कषायों से संतप्त नहीं है किन्तु उन्हें जीतने का यत्न करता है वही सूख का पात्र बनता है । जो परीषहों के जीतने में वीर है, और इन्द्रियों के निग्रह में सुभट है, और कषायों के जीतने में सक्षम है, वही लोक में शूर-वीर कहा जाता है । अथवा जो इन्द्रियों को जीतने में वीर है, कर्म बंधन में कायर है, तत्त्वार्थ में जिसका मन लगा है। और जो शरीर से भी निस्पृह है। वही परीषह रूपी शत्रुओं को जीतने में समर्थ है। और वही कषायों के जीतने में भी धीर है, वही शूर वीर कहा जाता है । रचना को देखते हुए यह अनुमान होता कि प्रस्तुत
१. पंचस्थि कायदन छक्क तच्चाणि सत्तय पदत्था।
णवबन्धो तककारणं मोक्खो तक्कारणं चेदि । अहियो अट्ठविहो जिरणवयण णिरूविदो सवित्थर दो। वोच्छामि समासेरण य सुणुय जणा दत्त चित्ता हु ॥१० (परमागमसार) २. ग्रन्थ श्वेताम्बरीय Santinatha Sain bhan dar cambay में उपलब्ध है। देखो, खंभात भंडार की सूची भा०२ ३. अयं तु कुलभद्रेण भवविच्छत्ति कारणम् । द्रब्धो बालस्वभावेन ग्रंथः सार समुच्चयः ॥३२५
परीषह जये शूराः शूराश्चेन्द्रियनिग्रहे । कषायविजये शूरास्ते शूगगदिता बुधः ।।२१० ४. देखो, पद्य नं० २१४, २१५ ।
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४०
कृति १३वी १८वी शताब्दी को हो सकती है ।
कुलभद्र का यह ग्रन्थ धर्म और नीति का प्रधान सूक्ति काव्य है ।
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
नास्ति काम समो व्याधिर्नास्ति मोह समोरिपुः । नास्ति क्रोध समोह्निर्नास्ति ज्ञान सम सुखम् ॥२७ विषयोरगदष्टस्य कपाय विषमोहित । संयमो हि महामत्रस्त्राता सर्वत्रदेहिनम् ॥ ३० धर्मामृतं सदा पेय दुखातङ्क विनाशनम् । यस्मिन्पी पर सौख्य जीवानां जायते सदा ||६३
कवि नागराज
यह कौशिक गोत्रीय सेडिम्ब (मेडम ) के निवासी थे । जहा अनेक जिन मन्दिर बहु । इनके पिता का नाम विवेक विट्ठलदेव था, जो जिन शासन दीपक थे और माता का नाम भागोजी, भाई काम तिर था और गुरु ग्रनन्त वीर्य मुनीन्द्र थे । ग्रन्थ की पुष्पिकाओं में उन्होने अपने को मासिनलद नागराज कहा है । 'सरस्वती मुख-तिलक, कवि मुख-मुकुर' उभय कविता विलास आदि उनकी उपाधिया थी । यन के प्रारम्भ मे जिनेन्द्र, पत्र पर मप्ठी, सरस्वती आदि के स्तवन के पश्चात् उन्होंने वीरगन, जिनसेन, मिहनन्दि, गद्ध पिच्छ, कोण्डकन्द, गणभद्र, पूज्यपाद, समन्तभद्र, अकलक कुमारीत ( गतगणाधीश) धरगेन और अनन्तव में यदि पूर्ववर्ती ग्राचार्या का उल्लेख किया है । उन्होंने पम्प, वन्धुमं, पोन्न, रन्न, गजाकुश, गुणवमं प्रोर नागनन्द्र आदि पूर्ववर्ती कन्नड़ कवियों से प्रात्साहन प्राप्त किया था ।
इनकी रचना 'पुण्यास्त्रव चम्पू' जिसमें १२ श्रध्याय और ५२ कथाएं है । कवि ने सगर के लोगो के हितार्थ अपने गुरु अनन्तवीर्य की ग्राज्ञा मे टाक सवत् १२५३ सन् १३३९ ई० में संस्कृत से कन्नड में रूपान्तर किया है । कवि ने सूचित किया है कि उनकी इस कृति को आर्यमेन ने सुधार कर चित्ताकर्षक बनाया ।
प्रभाचन्द्र
यह मूल देशीयगण पुस्तक गच्छ के विद्वान थे। और श्रुत मुनि के विद्यागुरु थ । जो सारत्रय में निपुण थे। इसमे यह समयमार, प्रवचनमार और पचास्तिकाय के ज्ञाता जान पड़ते है । यह प्रभाचन्द्र विक्रमको १३वी शताब्दा के आन्त्य और १८वी शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान जान पड़ते है । क्योंकि अभयचन्द्र द्धान्तिक के शिष्य बालचन्द्र मुनि ने जाधुनमुन के अणुव्रत गुरु होने से उनके प्राय समकालीन थे। इन्होंने शक स० ११६५ (वि० म० १३३०) में द्रव्य संग्रह पर टाका लिखी है । दिगम्बर जैन ग्रन्थ कर्ता ओर उनके ग्रन्थ; नाम की सूची में उनका समय वि०स० १३१६ का उल्लेख है, जो प्रायः ठीक जान पड़ता है ।
मधुर कवि
यह वाजिवश के भारद्वाज गोत्र में उत्पन्न हुआ था । इनके पिता का नाम विष्णु और माता का नाम नागाम्विका था । बुक्कर राय के पुत्र हरिहर (द्वितीय १३७७ - १४०४ ई० ) का मन्त्री इसका पोपक था । (भूनाथास्थान चूड़ामणि मधुर कवीन्द्र ) विशेषण से यह ज्ञात होता है कि यह हरिहर राय द्वितीय का ग्रास्थान कवि या सभा कवि था।' इसी राजा के राज्यकाल में रत्न करण्ड कन्नड़ के कर्ता श्रायतवर्मा और परमागमसार के कर्ता चन्द्रकभी हुए हैं । कविविलास, कविराज कला विलास, कवि माधव मधुर माधव, सरस कवि रसालवन्त भारती' मानस केलि राजह्न आदि इसको उपाधिया थी । इसका दो कृतियाँ प्राप्त है। धर्मनाथ पुराण और गोम्मटाष्टक | यद्यपि धर्मनाथ पुराण पूरा नही मिलता । पर उपलब्ध भाग से भाषा की प्रौढ़ना और कविता हृदयहारिणी और सुन्दर है । कवि का समय ईसा की १४ वी शताब्दी है ।
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवी और चौदहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य और ववि
पं० हरपाल
पं० हरपाल ने अपना कोई परिचय नही दिया। किन्तु अपनी कृति वेद्यशास्त्र में उसका रचना काल वित्र सवत् १३४१) बतलाया है - विक्कम णरव-काने तेरसया गयाइ एयाल (१३४१) सिय पाराट्ठमि मद विज्जयसत्यां य पुण्णां य ।। २५७
४४१
इस वैद्यक गन्थ में २५७ गाथाएं हैं, जिनमें रोग और उनकी चिकित्मा का वर्णन है, ग्रन्थ प्राकृत भाषा मे लिखा गया है । गन्थ की २५५ वी गाथा मे 'जोयसारेहि' वाक्य द्वारा अपनी योग्यसार नामकी रचना का उल्लेख किया है, जो इसके पूर्व रचा गया था। परन्तु वह अभी उपलब्ध नही हुआ । कवि का रामय विक्रम की १४वी शताब्दी का दूसरा चरण है ।
haaaर्णी
यह अभयचन्द्रशिय थे । केशव वर्णी ने गोम्मटमार की कनडी बत्ति (जीततत्त्ववोधिका) भट्टारक धर्मभूषण के प्रादेशानुसार क स १२८१ (सन् १५६०) में बनाकर समाप्त की था। कर्नाटक कवित ज्ञात होता है कि उन्होन अमित गति के शावकाचार पर भी कनडी में वृत्ति लिसी भी स्विच जावला कथे' से ज्ञात होता है कि वेश्ववर्णी व शारतय- समयसार, प्रवचनसार पचास्तिकाय पर टीका लिगं । कवि मगराज ने शव का उल्लेख करते हुए उन्हें 'सारत्रय वेदि' विशेषण दिया है जिससे गारतय के ज्ञाता था । उनका समय ईसा की है।
?
कवि विबुध श्रीधर
पर से इतना
इन्होने पना कोई परिचय प्रस्तुत नही किया, जिसमे गुरु परम्परा योर गण-गच्छादि का परिचय देना शक्य नही है । कवि की एक मात्र कृति 'भविष्यदत्त' पत्तमी कथा है, जो सतपद्य में रची गई । ग्रन्थ में रचना काल भी नही दिया, जिसमे यह निश्चित करना कठिन है कि प्रस्तुत श्रीधर कम हुए है । हा. गन्थ जर कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थ की रचना की १५ शताब्दी के उत कि ग्रन्थ की प्रतिलिपि वि० ० १८८६ की लिखी हुई नया मंदिर धर्मपुरा दिल्ली के शाजार में जल है। ग्रन्थ की रचना लम्वकचक कुल के प्रसिद्ध साहु लक्ष्मण की प्ररणा से हुई था जमा प्रकट है:
ग्रन्थ
श्रीमद्वेदो नयूतायां ? स्थितेन नयशालिना । श्रीलम्बकंतु कानूक - नभो भूषण भानुना । प्रमिद्ध साधुधामेक दनुजेनदयावता । प्रवरोपासका चार-विचाराहित चेतसा ॥१० गुरु देवाना दान-ध्यानाध्ययन कर्मणा। साधना लक्ष्मणाख्येन प्रेरितोभक्ति सयुत ॥ ११ शक्तिहो वक्ष्ये चरित दुरितापह | श्रीमद्भघिप्य दत्तस्य कमलनी तनुभुव ॥ १२
ग्रन्थ में कमल श्री के पुत्र भवि दत्त का जीवन परिचय प्रकित किया गया है।
ग्रन्थ का रचनाकाल ग० १४८६ से बाद का नही हो सकता उससे पूर्ववत है संभवतः यह चादहवी शताब्दी की रचना होना चाहिए ।
१ संवत् १८८६ वर्षे आपाढ वदि ७ गुरुदिने गोपाचलदुर्गे राजाड़गर मिहराज्य प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठा सो भ पुरकरग आचा सहरत्रकीति देवास्तपट्टे आचार्य श्री गुग्ण कीर्तिदेवानिच्छिष्य श्री यश की दिवास्तेन निजज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ उद भविष्यदत्त पचमी कथा लिखापित |
- भविष्यदन पचमी कथा लिपि प्रशस्ति
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
कवि वर्द्धमान भट्टारक यह मलसंघ बलात्कारगण और भारतो गच्छ के विद्वान थे। इनकी उपाधि परवादि पंचानन' थी, वरांगचरित की प्रशस्ति में कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है :
स्वस्ति श्रीमूलसंघे भुवि विदितगणे श्रीबलात्कारसंज्ञ, श्रीभारत्याख्यगच्छे सकलगुण निधिर्वद्धमानाभिधानः। प्रासीद्भट्टारकोऽसौ सुचरितमकरोच्छीवरांङ्गस्य राज्ञो, भव्यश्रेयांसि तन्वद् भुविचरितमिदं वर्ततामातारम् ॥
-वरांगचरित १३.८७, वर्द्धमान नाम के दो विद्वानों का उल्लेख मिलता है। उसमें एक वर्द्धमान न्यायदीपिका के कर्ता धर्मभूषण के गुरु थे। और 'देशभक्त्यादि महाशास्त्र' के भी कर्ता थे, और दूसरे वर्द्धमान हमच शिलालेख के रचयिता है। इनका समय १५३० ई० के लगभग है । विजयनगर के शक सं० १६०७ (सन् १३८५ ई०) में उत्कीर्ण शिलालेख में भट्टारक धर्मभूषण के पट्टधर और सिंहनन्दी योगीन्द्र के चरण कमलों के भ्रमर वर्द्धमान मुनि थे, उनके शिष्य धर्मभूषण हुए। जैसा कि उसके निम्नपद्यों से प्रकट है:
पट्टे तस्य मुनेरासीद्वर्द्धमानमुनीश्वरः । श्री सिंहनन्दि योगीन्द्र चरणाम्भोज षट्पदः ॥१२ शिस्यस्तस्य गुरोरासीद्धर्मभूषणदेशिकः ।
भट्टारक मुनिः श्रीमान् शल्यत्रय विजितः ॥१३ इनके समय में शक सं० १३०७ (सन् १३८५ ई०) की फाल्गुण कृष्ण द्वितीया को राजा हरिहर के मंत्री चैत्रदण्ड नायक के पुत्र इरुगप्प ने विजयनगर में कुन्थनाथ का मन्दिर बनवाया था।
दश भक्त्यादि शास्त्र के निम्न पद्य में उल्लिखित विजयनगर नरेश प्रथम देवराज राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि से विभूषित थे। इनका राज्य संभवतः सन १४१८ ई. तक रहा है। और द्वितीय सन् १४१६ से १४४६ ई. तक माना जाता है।
राजाधिराज परमेश्वर देवराज, भूपाल मौल्लिसदंघ्रि सरोजयुग्मः।
श्रीवर्द्धमान मुनि वल्लभ मौढ्य मुख्यः श्रीधर्मभूषण सुखी जयती क्षमाढयः ॥ भट्टारक धर्मभूषण ने न्यायदीपिका की अन्तिम प्रशस्ति में, और पुप्पिका में भट्टारक वर्द्धमान का उल्लेख किया है :
मदगुरोर्वर्द्धमानेशो वर्द्धमानदयानिधेः । श्रीपदस्नेह सम्बन्धात् सिद्धेयं न्यायदीपिका ॥
-न्यायदीपिका प्रश० इन सब उल्लेखों से स्पष्ट है कि धर्मभूपण के गुरु वही भट्टारक वर्द्धमान हैं, जो वरांग चरित के कर्ता हैं। वर्द्धमान भट्टारक का समय धर्मभूषण के गुरु होने के कारण ईसा की चौदहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध है।
वरांग चरित्र संस्कृत भाषा का लघुकाय ग्रन्थ है। इस काव्य में १३ सर्ग हैं जिसमें बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के वरदत्त गणधर के समकालीन होने वाले राजा वरांग का चरित वर्णित किया गया है। यह जटिल
१. तस्य श्री चंचदण्डाधिनायकस्योर्जितश्रियः ।
प्रासीदिरुग दण्डेशो नन्दनो लोकनन्दनः ।। २१ तस्मिन्नि रुग दण्डेशः पुरेचारुशिलामयम् । श्री कुन्थ जिन नाथस्य चैत्यालयमचीकरत् ।। २८
-विजयनगर शि० नं. २
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदवहीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि
कवि के वरांग चरित का संक्षिप्त रूप है, कवि वद्धमान ने इसमें धार्मिक उपदेशों और कुछ वर्णनों को निकाल कर कथानक की रूप-रेखा ज्यों की त्यों रहने दी है, ऐसा डा० ए० एन० उपाध्ये ने लिखा है। जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पद्य से स्पष्ट है :
गणेश्वरैर्या कथिताकथावरावराङ्गराजस्य सविस्तरं पुरः।
मयापि संक्षिप्य च सैव वर्ण्यते सुकाव्यवन्धेन सुबुद्धि वधिनी ।। कवि वर्द्धमानने राजा वगग के कथानक में धर्मोप देश को कम कर दानिक और धार्मिक चर्चाओं को बहुत संक्षिप्त रूप में दिया है । पर जटिल मुनि के परांग चरित्र का उस पर पूरा प्रभाव है। वरांग का चरित इस प्रकार है -
विनीतदेश में रम्या नदी के तट पर उत्तमपुर ना-: का नगर हे उममे भोजवंशका राजा धर्म मेन राज्य करता था, उसकी गुणवती नाम की सुन्दर पार रूपवती पटगनी थी। समय पाकर उसके एक पुत्र हआ जिसका नाम वरांग रक्खा गया। जब वह युवा हो गया, तब उसका विवाह ललितपुर के राजा देवमेन की पुत्री मनदा, विन्ध्यपूर के राजा महेन्द्रदत्त की पुत्री वप्मती, सिंहपुर के राजा द्विपन्तप की पुत्री यशोमती, इप्टपूरी के गजा सनत्कुमार की पुत्री वसुन्धरा, मलयदेशके अधिपति मकरध्वज की पुत्री अनन्त सेना, चक्रपुर के राजा ममुद्रदत्त की पुत्री प्रियव्रता, गिरिव्रजनगर के राजा वाह्वायुध को पुत्री गुकंशो, श्रीकोशल पुरी के राजा सुमित्रसिंह की पुत्री विश्वसेना' वारांगदेश के राजा विनयन्धर की पुत्री प्रियकारिणो,अोर व्यापारी की पुत्री धनदत्ता के साथ होता है । वरांग इनके साथ सांसारिक सुख का उपभोग करता है। एक दिन अरिष्टनेमिके प्रधान गणधर वरदन उत्तमपुर में आये. राजा धर्म मेन मनिवदना को गया। राजा के प्रश्न करने पर उन्होंने ग्राचारादिका उपदेश दिया। वगंग के पळनेर उन्होंने सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का विवेचन किया। उपदेश से प्रभावित हो वरांग ने अणव्रत धारण किये । और उनकी भावनाओं का अभ्यास प्रारम्भ किया। तथा राज्य सचालन और अस्त्र-शास्त्र के सचालन में दक्षता प्राप्त की राजा धर्मसेन वरांग के श्रेष्ठ गुणों को प्रशंसा सुनकर प्रभावित हुग्रा और तीन सौ पुत्रोंके रहते हए वरांग को युवराज पद पर अभिपिक्त कर दिया। वरांग क अभ्युदय से उसको सौतेली मां सुपेणा तथा मूतेले भाई सण को ईर्पा हई । पीर मत्री सुबुद्धि से मिलकर उन्होंने पड़यत्र किया। मत्री ने एक शिक्षित घोड़ा वरांग को दिया। वरांग उस पर बैठते ही वह हवा से बात करने लगा। वह नदी, सरोवर, वन और अटवी को पार करता हमा अागे बढता है ओर वराग को एक कुएं में गिरा देता है । वरांग किसी तरह कुए से निकलता है,और भूख प्यास से पीडित हो पागेबढ़ने पर व्याघ्र मिलता है हाथी की सहायता से प्राणों की रक्षा करता है, और एक यक्षिणी अजगर से उसकी रक्षा करती है, और वह उसके स्वदार सन्तोप व्रत की परीक्षा कर सन्तुष्ट हो जाती है। वन में भटकते द्वारा वरांग को भील बलि के लिये पकड़ कर ले जाते हैं। किन्तु सर्प द्वारा दशित भिल्ल राज के पुत्र का विष दूर करने से उसे मक्ति मिल जाती है। वक्ष पर रात्रि व्यतीत कर प्रात: सागरवद्धिसार्थपति मे मिल जाता है। सार्थपति के साथ चलने पर मार्ग में बारह हजार डाकू मिलते हैं सार्थवाह का उन डाकूओं से युद्ध होता है । सार्थवाह को सेना युद्ध से भागती है इससे सागरवृद्धि को बहुत दुख हुआ। सकट के समय वरांग ने सार्थवाह से निवेदन किया कि आप चिन्ता न करें मैं सब डाकुओं को परास्त करता हूँ। कुमार ने डाकुओं को परास्त किया, और सागरवद्धि का प्रिय होकर सार्थवाहों का अधिपति बन ललितपुर में निवास करने लगता है।
___ इधर घोड़े का पीछा करने वाले सैनिक हाथी घोड़ा लौट आये, वराग का कही पता न चला, इससे धर्म सेन को बड़ी चिन्ता हुई। राजाने गुप्तचरों को कुमार का पता लगाने के लिये भेजा वे कुएं में गिरे हुये मृत अश्व को देखकर और कुमार के वस्त्रों को लेकर वापिस लौटे। उन्हें ढढ़ने पर भी कुमार का कोई पता न लगा। अंत: पुर में करुणा का समुद्र उमड़ पाया।
मथुरा के राजा इन्द्रसेन का पुत्र उपेन्द्रसेन था इस राजा ने एक दिन ललितपुर देवसेन के पास अपना दूत भेजा, और अप्रतिमल्ल नामक हाथी की मांग की, देवसेन द्वारा हाथी क न दिये जाने पर रुष्ट हो मथराधिपति ने
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास- भाग २
उस पर पात्रमण कर दिया । इन्द्रसेन अोर उपेन्द्र मेन दोनो की सेना ने बडी वीरता से युद्ध किया, जिससे देवसेन की सेना छिन्न-भिन्न होने लगी। कुमार वराग ने पाकर देवसेन की सहायता की और इन्द्रसेन पराजित हो गया।
ललितपुर क राजा देवमेन कुमार के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर उसे अपनी पुत्री सुनन्दा और प्राधा राज्य प्रदान करता है। एक दिन गजा की मनोरमा नाम को पूत्री कुमार के रूप सौन्दर्य को देखकर आसक्त हो जाती है, और विरह मे जलने लगती है। मनोरमा कुमार के पास अपना दूत भेजती है । पर दुराचार से दूर रहने वाला कुमार इवार कर देता है । मनोरमा चिन्तित और दुखी होती है।
वराग के लुप्त होजाने पर सुपेण उत्तम पुर के राज्य कार्य को सम्हालता है परन्तु वह अपनी अयोग्यतामो के कारण शामन में असफल हो जाता है। उसकी दुर्बलता अोर धर्ममेन का वृद्धावस्था का अनुचित लाभ उठाकर वतुलाधिपति उत्तमपुर पर आक्रमण कर देता है। धर्म मेन ललितपुर के राजा से सहायता मागता है। वराग इस अवगर पर उत्तगपुर जाता है, और वकुलाधिपति को पराजित कर देता है । पिता-पुत्र का मिलन हाता है, और प्रजा वगग का स्वागत करतो है। बह विधियो को क्षमाकर गज्य प्रशासन प्राप्त करता है। और पिता की अनमति गे दिग्विजय करने जाता है पर अपने नये राज्य की राजधानी सरस्वती नदी के किनारे पानर्तपूर को बमाता है।
वगग ने प्रानपुर मे सिद्धायतन नाम का चैत्यालय निर्माण कराया । अोर विधि पूर्वक उसकी प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई।
एक दिन ग्राम महतं मे गजा वर ग न तल ममाप्त होत हा दापक का देखकर दह-भागों में विरक्त हो जाता है ग्रार दाक्षा लेने का विचार करता हे परिवार के व्यक्तिगो ने उम दीक्षा लेने से रोकन का प्रयत्न किया, किन्तु वह न माना । आर वग्दत्त केवली के निकट दिगम्बर दीक्षा धारण को। प्रार तपश्चरण द्वारा प्रात्ममाधना करता हुआ अन्त में तपश्चरण मे सर्वार्थ सिद्धि विमान को प्राप्त किया। उसकी स्त्रियो ने भो दाक्षा ली उन्होंने भी अपनी शक्ति अनुसार तपादि का अनुष्ठान किया। श्रार यथायोग्य गति प्राप्त की।
मंगराज (द्वितीय) यह 'कम्म' कल के विश्वामित्र गोत्रीय रेम्माई रामरस का पुत्र था। यह अभिनव मगराज के नाम से प्रसिद्ध है। इसने मगगज निघण्टु या अभिनव निघण्ट नाम का कारा बनाया है। कवि ने शशिपूर के सोमेश्वर के प्रमाद से शक म० १३२० (सन १३६८ ई०) मे उक्त काप को समाप्त किया है। अतः कवि का समय ईसा का १४वी शदी का अन्तिम भाग है।
अभयचन्द्र यह कुन्दकन्दान्वय देशीय गण पुस्तक गच्छ के विद्वान जयकाति के शिष्य थे । यह वही राय राजगुरुमण्डलाचार्य महाबाद वादीश्वर रायवादी पितामह अभयचन्द्र मिद्धन्न देव जान पड़ते है जिन्होंने साख्य, योग, चार्वाक बौद्ध. भट प्रभाकर आदि अनक वादियो को शास्त्रार्थ में विजित किया था। शक स० १३३. (ई० सन् १४१५) में
नवे गहस्थ शिप्य वाल गाड़ ने समाधिमरण किया था । इनका समय १३७५-१४०० ई० के लगभग सुनिश्चित है। यही अभयचन्द्र लघीयस्त्र भयवृत्ति के टीकाकार जान पड़ते है ।
गुणभूषण यह मलमेघ व विद्वान मागपचन्द्र के गाय विनयचन्द्र मान के शिप्य त्रैलोक्यति थे उनके शिप्य गुण
१देखो, एपिग्राफिया कर्नाटिया सारख नानृाना १३६ ।
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवी शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य और कवि
४४५
भूषण थे । इन्होंने अपने को 'स्याद्वाद चूड़ामणि' लिखा है। इसकी एक मात्र कृति गुणभूपण श्रावक चार है । जिसे भव्य जिन चित्त वल्लभ' भी कहा जाता है। इस ग्रन्थ को कवि ने पुरपाट वशी जोमन और नामदेवी के पुत्र नेमिदेव के लिये बनाया था। जो गुणभूषण के चरणों का भक्त था। जोमन के दूसरे पुत्र का नाम लक्ष्मण था । जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पुष्पिका वाक्य से प्रकट है :
'इति श्रीमद् गुणभूषणाचार्य विरचिते भव्यजनचित्त वल्लभाभिधान श्रावकाचारे साधु नेमिदेव नामांकिते सम्यक्त्वचरित्रं तृतीयोद्द ेशः समाप्तः ।'
प्रस्तुत ग्रथ तीन उद्देश्यों में समाप्त हुआ है । अन्तिम उद्देश्यों में सम्यक्त्व और चारित्र का वर्णन किया गया है । गुणभूपण के श्रावकाचार पर वसुनन्दि के उपासका चार का प्रभाव अंकित है। इतना ही नहीं किन्तु दोनों की तुलना से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन्होंने उसकी अनेक प्राकृतिक गाथाओं के संस्कृत रूपान्तर द्वारा अपने ग्रन्थ श्री वृद्धि की है | श्रावकचार के वर्णन में कोई वैशिष्ट्य भी नहीं है - अन्य श्रावका चारों के समान ही उसमें कथन है । जैसा कि निम्न तुलना से स्पष्ट है :
स्यादन्योन्य प्रदेशानां प्रवेशो
जीवकर्मणोः । सबन्धः प्रकृति स्थित्यनुभावा दिस्वभावक ।।१७गु ण० प्रणोष्णाण पवेसो जो जीवपएसकम्नखंधाण |
सो पप डिडिदि प्रणुभव-पएसदो चउपिहो बंधो ॥२४१ वसु० सम्यक्तव्रतः कापादी निग्रहाद्योगनिरोधतः । कर्मास्रव निरोधा यः सत्स्वरः स उच्यते ॥। १८ गुण० सम्मतेहि वरहि कोहाइ कसाय णिग्गाह गुणेहि । जोगणिरोहेण तहा कम्मासव सवरो होइ ।।४२ वसु० सविपाका विपाकाश्च निर्जरा स्याद् द्विधादिमा । संसारे सर्व जीवानां द्वितीया सु-तपस्विनाम् ॥ गुण० विपागा प्रविवागादुविहा पुण णिज्जरा मुणेयव्वा । सव्र्व्वसि जीवाणं पढमा विदिया तवस्सीणं ॥ द्यूतमध्वामिषं वेश्याखेटचार्यपराङ्गना ।
सप्तैव तानि पापानि व्यसनानि त्यजेत्सुधीः ॥११४ गुण० जयं मज्जं मसं वेसा पारद्धि-चोर-परमारं ।
दुग्गइ गमणस्सेदाणि हेउभूदाणि पावाणि ॥ ५६ वसु०
इसी तरह गुणभूपण श्रावकाचार के २०४, २०५, २०६, २०७ पद्यों के साथ वसुनन्दी श्रावकाचारकी गाथा ३३६, ३३७, ३४२, र ३४४ के साथ तुलना कीजिए। और भी अनेक गाथाओं का सस्कृति रूपान्तर किया गया है । वसुनन्दी का समय १२वी शताब्दी है इससे इतना तो सुनिश्चित है कि गुणभूषण वसुनन्दी के बहुत बाद हुए हैं। गुणभूषण ने जोमन के पुत्र नेमिदेव के लिये इसकी रचना की है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है । नेमिदेव वीरजिनेन्द्र के चरण कमलों का भक्त, हैय उपादेय के विचारों में निपुण, रत्नत्रय के धारक, दानदाता, आदि
१. विख्यातोऽस्ति समस्तलोक वलये श्री मूलसघोऽनघः ।
तत्राद्विनयेन्दु तदभुतमति श्री सागरेन्दोः सुतः ॥ २५६ च्छियोजन मोहभूभृदर्शनर लोश्यकीर्तिमुनिः ।
तच्छियो गुणभूषणः समभवत्स्याद्वादचूड़ामणिः || २६० गुण ०प्र० २. देखा गुणभूषण श्रावकाचार प्रशस्ति के २६१ से २६७ तक के प
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
रूप से उसके गुणों की प्रशंसा करते हए उसकी मंगल का कामना की है।
समय-गुणभूषण ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया, अतः अन्य साधनों से उस पर विचार किया जाता है। विनयचन्द्र पं० पाशाधर के शिष्य थे, पाशाधर ने उन्हें धर्मशास्त्र पढ़ाया था। सागरचन्द्र के शिष्य विनयचन्द्र के लिए इप्टोपदेश प्रादि ग्रन्थों की टीका की थी। इन्हीं विनयचन्द्र के शिष्य त्रैलोक्य कीर्ति के शिष्य गुणभूषण थे। अतः गणभषण का समय विक्रम की १४वीं शताब्दी का पूर्वार्ध जान पड़ता है।
अय्यपार्य यह मूल संधान्वयी पुष्प मनि के शिष्य थे। अय्यणर्य ने अपने गुरु पूप्पसेन की बड़ी प्रशंसा की है, उन्हें 'अन्य मतांधकारमथनः' और 'स्याद्वाद तेजोनिधिः' जैसे विशेपणों से युक्त प्रकट किया है। इससे वे बड़े भारी विद्वान और तपस्वी जान पड़ते हैं। कवि के पिता का नाम करुणाकर था, जो श्रावक धर्म के पालक थे। और माता का नाम 'अम्बिा ' था जो पतिव्रता, पुण्यलक्ष्मी और चारित्रमूर्ति थी। इनका गोत्र काश्यप था । और इन दोनों का पत्र था अय्यपार्य, जो जिन चरण युगल के पाराधन में तत्पर था। जिसने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया था। और मंत्र तथा औषधियों का भी ज्ञाता था, नय-विनयवान था, उसने पद्मावती देवी द्वारा वर के प्रसाद से जिनेन्द्र कल्याणाभ्यूदय' नामक ग्रन्थ की रचना की थी । इस ग्रन्थ में जिनेन्द्र की प्रतिष्ठा विधि का वर्णन किया है। प्रशस्ति में कवि ने चविशतितीर्थकरों को स्तुति के बाद भगवान महावीर की सघ परम्परा के श्रतधर प्राचार्यों का उल्लेख करते हए कुन्दकुन्द, वाचक उमास्वाति (गद्धपिच्छाचार्य) समन्तभद्र, शिवकोटि, शिवायन, पूज्यपाद वीरसेन जिनसेन, गुणभद्र नेमिचन्द्र, रामसेन, प्रकलक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, रामचन्द्र, वासवचन्द्र, प्रादि का उल्लेख किया है।
१. श्रीमद वीरजिनेश पादकमले चेत. पडघ्रि सदा ।
हेयादेय विचारबोधनिपुणा बुद्धिश्च यस्यात्मनि ॥२६८ दानं श्रीकर कुडमले गुणनिर्देहे शिरग्युन्नतिः । रत्नाना विनयं हृदि स्थितममी ने मिश्चर नंदतु ॥२६६ २. तच्छिष्योन्य मतान्धकारमथनः म्याद्वादतेजोनिविः।'
-जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय प्र० ३. त पुष्पमेन देवं कलिगरणेश्वरं सदावंदे ।
यम्यपद्मसेना बिबुघानां भवति काम दुहाः ।५१ तदीयशिप्योजनि दाक्षिणात्यः श्रीमान्द्विजन्माभिपजां वरिष्टः । जिनेन्द्र पादाभ्बुरुहेक भक्त: मागारधर्मः करुणाकराग्यः ।।५२ तम्यं व पत्नी कुलदेवते व पतिव्रतालकृत पुण्यलक्ष्मीः, यदक्रमाम्बा जगति प्रतीतः चारित्रमूर्तिः जिनगासनोक्ता ॥५३ तयोरासीत्सूनुम्सदमलगुणाढ्यो स विनयो, जिनेन्द्रः श्री पादान्चुरुह युगलाराधन परः। अधीतः शास्त्राणामरिवलमणि मत्रीपधिवता, विपश्चि निर्णतः नय-विनयवानायं इतिपः ॥५४ श्रीमूलमंधकविता विल सन्मुनीना, श्रीपादपद्मसरसीरुह राजहसः । स्यादर्यपार्य इति काश्यप गोत्रवयों जैनालपाक वरवंशममुद्रचन्द्रः ।। ५५ -जिक कल्या०प्र० ४. पद्मावती दत्तवरप्रसादात्सा म्वतं प्राप्य बुधाय्यं येन । जिनेन्द्र कन्याण समा यो यं ग्रन्थोभ्युधाय्यभ्युदयाः प्रबधः ॥५६ -जि० कल्याण प्र०
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं मोर चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि
कारंजा शास्त्र भंडार' की प्रशस्ति में ग्रन्थ का रचना काल शक सं०१२४१ सिद्धार्थ संवत्सर बतलाया है। अय्यपार्य ने इस ग्रन्थ की रचना पुष्पसेनाचार्य के आदेश से शक १२४१ (सन् १३१६) माघ शुक्ला दशमी रविवार के दिन पूप्प नक्षत्र में एक शैल नगर में रुद्र कुमार के राज्यकाल में की है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है :
शाकाब्दे विधुवेदनेत्रहिमगे (१) सिद्धार्थ संवत्सरे । माघेमासि विशुद्ध पक्ष दशमी पुण्यार्करेऽहनि । प्रन्थो रुद्रकुमार राज्य विषये जैनेन्द्र कल्याणभाक ।
सम्पूर्णोऽभवदेक शैलनगरे श्रीपाल बन्धूजितः ।। कवि ने लिखा है जिनसेन गुणभद्र, वसुनन्दि, इन्द्रनन्दि आशाधर और हस्तिमल्ल आदि विद्वानों द्वारा कथित ग्रन्थों का सार लेकर इस ग्रन्थ की रचना की है :
वीराचार्य सुपूज्यपाद जिनसेनाचार्य संभाषितो। यः पूर्व गुणभद्र सूरिवसुनन्दीन्द्रादि न द्यूजितः । यश्चाशाधर हस्तिमल्ल कथितो यश्चैक संधीरितः।
तेभ्यः स्वहृतसारमार्यरचितः स्थाज्जैन पूजा क्रमः ॥१६ यही बात ग्रन्थ की अन्तिम पुप्पिका वाक्य मे भी स्पष्ट है
'इति श्री सकल तार्किकचक्रवर्तिश्रीसमन्तभद्र मुनीश्वर प्रभृति कवि वृन्दारक वन्द्यमान सरोवर राज हंसाय मान भगवदहर्तप्रतिमाभिषेक विशेष विशिष्ट गन्धोदकपवित्री कृतोत्तमाङ्गे वाय्यपार्येण श्री पुष्पसेनाचार्योपदेश क्रमेण सम्यग्विचार्य पूर्वशास्र भ्यः सारमुद्धृत्य विरचितः श्री जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदयापरनामधेयस्त्रि दशाभ्युदयोहंत प्रतिष्ठा ग्रन्थः समाप्तः ।
प्रस्तुत प्रशस्ति में ग्रन्थ का रचनास्थल एक शैलनगर बतलाया है, जो वर्तमान वरंगल का प्राचीन नाम है । वरंगल के और भी कई नाम हैं । यह प्राचीन नगर तैलंग देश को राजधानी था' । काकतेयों ने इस पर सन् १११०ई० से १३२३ ई० तक राज्य किया है । इसी वंश में रुद्रदेव हुए हैं । जान पड़ता है रुद्रदेव इस वंश के अन्तिम राजा थे। क्योंकि इस ग्रन्थ की रचना सन् १३१९-२० ई० में हुई है। उस समय वे वहाँ शासन कर रहे थे । अतएव अय्यपार्य वि० सं० १३७६ के विद्वान हैं ।
माघनन्दि योगीन्द्र प्रस्तुत माघनन्दि मूलसंघ-नन्दिसंघवलात्कार गण के विद्वान कुमुदेन्दु योगी के शिष्य थे। इन्हें सन् १२६५ ई०
2. Sec catalogse sons krit and prakrit manuscripts in the cenintral Province and berar!
रायबहादुर हीरालाल द्वारा सम्पादित । २. हिन्दी विश्व कोष भा० ३ १० ४६६ और list of the - Antquuarian rem ains in the Nizams, territories
By consens. Another name of warrangal x x,is Akshalinagar, which in the of mr. consens is the same yckshilanagara,,
--TheGeographycal dictionary of Anecent and Midicaval India Naudlal Day p. 8 ३. अनुमकुन्दपुर, अनुमकन्द पट्टन, कोरुकोल (of Ptalemy) वेणाटक, एक शेल नगर आदि (the geoproPhical CoP3
tionary (p. 262) ४. रुद्रदेव का शिलालेख JASB, 1834 P• 903 साथ ही peof Wilsons Mackenzie collection p. 76 ५. The Jcopraphical dictionorp p. 8 ६. वरंगलके का कतीयवंशी एक राजा xxx, | हिन्दी विश्वकोष भाग १२ पु ६२७ ।
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
( वि० सं० १३२२ ) में त्रिकूट रत्नत्रय शान्तिनाथ के जिनालय के लिए होयसल नरेश नरसिह द्वारा उक माघनन्दि सैद्धान्तिक को 'वल्लनगेरे' नाम का गांव दान में दिया गया। इस कारण इस जिनालय को त्रिकूट रत्नत्रय जिनालय भी कहते थे । दोर समुद्र के जैन नागरिको ने भी शान्तिनाथ की भेंट के लिये भूमि और द्रव्य प्रदान किया था । इन माघनन्द की चार रचनाओं का उल्लेख मिलता है। सिद्धान्तमार, श्रावकाचारसार, पदार्थसार और शास्त्रसार समुच्चय-
४४८
माघनन्दि योगीन्द्रः सिद्धान्ताम्बोधि चन्द्रमाः । श्रचीकर द्विचित्रार्थ शास्त्रसारसमुच्चयम् ।। उक्तं श्रीमूल संघ श्री बलात्कारगणाधिपैः ।
श्रीमानन्दि सिद्धान्तः शास्त्रसार समुच्चयम् ॥
ये दोनों पद्य दौर्बल जिनदास शास्त्री की टीका रहित प्रति में दिये हैं । इनका समय १३वीं शताब्दी है । इनके शिष्य कुमुदचन्द्र भट्टारक थे। शास्त्र समुच्चय के टोकाकार वही माघनन्दिश्रावकाचार के कर्ता है। टोका कन्नड़ में है ।
प्रेमी जी ने लिखा है कि मद्राम को ओरियन्टल लायब्रेरी में 'प्रतिष्ठाकल्प टिप्पण' या जिन संहिता नाम का एक ग्रन्थ है, उसकी उत्थानिका र अन्तिम पुषिका से मान्म होता है कि प्रतिष्ठान टिप्पण के कर्ता वादि कुमुदचन्द्र मानन्द सिद्धान्त चवर्ती के शिष्य थे ।
यह माघनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती के पुत्र थे । और प्रतिष्ठाकल्प के कनाडी टिप्पणकार हैं । श्री माघनन्दि सिद्धान्त चक्रवति तनुभवः ।
कुमुदेन्दु रहं वच्मि प्रतिष्ठा कल्पटिप्पणम् ॥
इस टिप्पण के अन्त में लिखा है
वादि कुमुद चन्द्र
' इति श्री माघनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती सुत चतुविध पाण्डित्य चक्रवर्ति श्री वादि कुमुदचन्द्र पण्डितदेव - विरचिते प्रतिष्ठा कल्प टिप्पणे । इस पुप्पि का वाक्य में वादि कुमुदचन्द्र को स्पष्ट रूप से 'सत' और 'यात्रार्चन विधि: समाप्तः' पद्य में 'तनुभव' लिखा है, जिसमे वे उनके पुत्र थे । ओर उनकी उपाधि चतुवि पाण्डित्य चक्रवर्ती थी अतः इनका समय भी वही है जो माघनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती का सन् १२६५ (वि०स० १३२२) है । यह विक्रम की १४ वी शताब्दी के विद्वान है ।
कवि मंगराज
इनका जन्म स्थान वर्तमान मैसूर राज्यान्तर्गत मुगुलिपुर था । उन्हें उभय कवीश, कवि पद्म भास्कर और साहित्य वैद्या विद्याम्बुनिधि उपाधियाँ प्राप्त थी । यह कन्नड और संस्कृत दोनों भाषाओं के प्रौढ़ कवि थे । और जैन धर्म के पालक थे । इनका समय स्वर्गीय प्रार० नरसिंहाचार्य ने सन् १३६० ई० के लगभग बतलाया है । इनकी कृति का नाम 'खगेन्द्रमणि दर्पण है ।
यह एक वैद्यक ग्रन्थ है, इसमें स्थावर विपों की प्रक्रिया और प्रायः सभी विपों की चिकित्सा लिखी है।
१. जैन लेख सं० भाग ४पृ० २५६
२. श्री माघनन्दि सिद्धान्त तनुभवः ।
कुमुदेन्दुरहं वच्मि प्रतिष्ठा कल्प टिप्पणम् ।
३. इति श्री माघनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती तनूभव चतुविध पाण्डित्य चक्रवर्ती श्रीवादि कुमुदचन्द्र मुनीन्द्र विरचिते जिन संहिता टिप्पर पूज्य पूजक पूजकाचार्य पूजाफल प्रतिपादनं समाप्तम् ॥
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवी शताब्दी के विद्वान. आचार्य और कवि
४४६
गरुड़ पक्षी सर्पो का वेरी है वह मर्प विपापहारक है, यह लोक में प्रसिद्ध है उसा प्रकार गरुड़मणि भो लोक में विष निवारक मानी जाती है। उसी तरह यह ग्रन्थ भी विप दूर करने के उपाय को बतलाता है, इस कारण इसका यह नाम अन्वर्थक जान पड़ता है। यह ग्रन्थ कद वृत्तों में रचा गया है । कवि ने इसे 'जीवित चिन्तामणि' भी बतलाया है । कवि इस ग्रन्थ को पुरुषार्थ चतुष्टय का कथन करने वाला बतलाता है।
इसमें १६ अधिकार है । जिनमें विप और उमके दूर करने के उपायों का वर्णन है।
प्रथम अधिकार मे मगल के बाद स्थावर जगम और कृत्रिम ग्रादि विपों के भेद, सो को जातियाँ प्रोपधियों का संग्रह कान, भेद और उनकी शक्तियों के वर्णन के साथ सद वैद्य और दुवंद्य के लक्षणादि बतलाये गये हैं।
दूसरे अधिकार में स्थावर विपभेद, विपाक्रान्त लक्षण और उनके परिहारक नग्य, पान, लेप पोर अंजन आदि के प्रौपध और अनेक मत्र दिया है। इसी तरह अन्य मब अधिकारी में 'विप' के दश प्रकार, लक्षण, उनके भेद, विषापहारक मत्र ार ग्रोधियों का वर्णन किया गया है। ग्रन्ध पदि हिन्दी अर्थ के साथ प्रकाशित हो जाय तो उसका परिज्ञान हिन्दी भापा भापियों को भी मूलभ हो जायगा। ग्रन्थ उपयोगी है।
ग्रन्थ मे कवि ने अपने में प्रवत्तों कछ प्राचार्यो प्रादि का नामोल्लेख किया है पूज्यपाद, बोरमेन, कन्दकन्द भानुकोति, अमरक ति न च्छाप्य धर्ममाण श्रादि ।
पं० वामदेव यह मूल मघ के भद्रारक विनय वन्द्र के शिष्य, त्रैलोक्यकोनि के शिष्य पोर मुनि लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य थे इन्होंने अपने को इन्द्रवाम देव भी लिखा है। पडित वामदेव का कुल नैगम था। नेगम या निगम कल कायस्थों का है, इसमे स्पष्ट है कि पीडत बामदेव कायस्थ थे । अनेक कायस्थ विद्वान जैन धर्म के धारक हुए है। जिनमें हरिचन्द्र, पद्मनाभ ार विजयनाप माथ र ग्रादि का नाम उल्लेखनीय है। पडित वामदेव जैन धर्म के अच्छे विद्वान, प्रतिष्ठादि कार्या के ज्ञाता पार जिन भका में तत्पर थे । वामदेव ने पन मग्रह दोपक को प्रशस्ति में अपने को--'नाना शास्त्र विचार कोविद मति: श्री वामदेव : कृती' वाक्य द्वारा नाना शास्त्र विचार काविद मति प्रकट किया है।
इनकी इम समय तीन रचनाएं उपलब्ध है । भावसग्रह (सस्कृत), 'लोक्य दीपक' अोर पच मंग्रह दीपक। इनमें से केवल भावमग्रह माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित हया है। शेप दोनों रचना अप्रकाशित है।
भावसंग्रह-प्रस्तुत ग्रन्थ मस्कृत भाषा का पद्य ग्रन्य है, जा ७८१ पद्यों में पूर्ण हुअा है। यह देवमेन के प्राकृत भावमग्रह का मशाचिन और परिधित अनुवाद है। यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थ माला में प्राकृत भाव संग्रह के साथ प्रकायन हो च का है।
१. भूपाइधानम्य विश्वहित: श्री मूनमधः थिये, यत्राभूद्विनयेन्दुर द्धतगुण: गच्छील दुग्धार्गव: । नन्छिप्पोऽजनि भद्र मुनिग्मलम्चलोका कोनि शशी। येन कान्नमहातमः प्रमथिने स्याहादविद्याकरः ॥७७६ दृष्टि म्बस्तटिनी महीधरपनि नाब्धिचन्द्रोदयो, वृन श्री न.लि केलि हेमनलिन शान्ति क्षमा मन्दिरम् काम ग्वात्मरक्षा प्रसन्न हृदयः मंगक्षपा भास्कर - म्तच्छिाप: क्षितिमण्डले विजयते लक्ष्मीन्दु नामां मुनिः ॥७८० श्रो मत्मर्वजपू जाकरण परिणतम्तत्त्वचिन्ता रसालो, लक्ष्मीचन्द्राहि पद्म मधुकर: श्री वामदेव: सुधीः । उत्पत्ति य जाता शशिविशद कुले नैगमश्री विशाले । सोऽयं जीया प्रकामं जगति रमलसद्भाव शास्त्र प्रणेता ॥७८१
-भाव संग्रह प्रशस्ति
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ त्रैलोक्य दीपक-इस ग्रन्थ में तीन लोक के स्वरूप का कथन किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के त्रिलोकसार का संस्कृत रूपान्तर है । उसे देखकर ही इसकी रचना की गई है। इस ग्रन्थ में तीन अधिकार-अधोलोक-मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक-इन तीनों अधिकारों के श्लोकों की कुल संख्या १२८१ श्लोक प्रमाण है। प्रथम अधिकार में २०५ श्लोक हैं। जिनमें लोक का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है कि जिसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल का संघात पाया जाता है वह लोक है। उस लोक का मान दो प्रकार का है। लौकिकमान और लोकोत्तर मान । इन दोनों मानों के भेद-प्रभेदों का कथन किया गया है।
दूसरे अधिकार में मध्य लोक का वर्णन है, जिसकी श्लोक संख्या ६१६ है। मध्य लोक का कथन करते हुए द्वीप, समुद्रों के वलय, व्यास, सूची व्यास, सूक्ष्म परिधि, स्थूल परिधि सूक्ष्म और स्थूल फल प्रादि का गणित द्वारा कथन किया है। जम्बूद्वीप के षट् कूलाचल और सप्त क्षेत्रों प्रादि का गणित द्वारा विस्तार के साथ वर्णन दिया है। भारत क्षेत्र के उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के षट कालों का वर्णन करते हए, तीर्थकरों, चक्रवतियों, नारायण प्रति नारायण श्रेसठ शलाका पुरुषों की आयु, शरीरोत्सेध, और विभूति आदि का सुन्दर वर्णन किया गया है । मध्यलोक के कथन में व्यासपरिधि, सूची फल, क्षेत्रफल और घनफल आदि के लाने के लिए करण सूत्र भी दिये हैं। सदृष्टियाँ भी यथास्थान दी हैं।
ऊर्ध्वलोक के वर्णन में भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिषी और कल्पवासी, देवों का वर्णन, प्रायू, शरीरोत्सेध, परिवार, विभव, कथन संख्या, विस्तार उत्सेध आदि का वर्णन किया गया है। यह सब त्रिलोकसार के अनुसार किया गया है।
कवि ने यह ग्रन्थ नेमिदेव की प्रार्थना से बनाया है। जो पूरवाडवंश में समस्त राजाओं के द्वारा माननीय कामदेव नाम का राजा हुआ। उसकी पत्नी का नाम नामदेवी था, जिससे राम और लक्ष्मण के समान जोमन और लक्ष्मण नाम के दो पुत्र हुए थे । पंच संग्रह दीपक की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि जोमन की पुत्री बड़ी गुणाग्र और धर्माराम रूप वृक्ष की वर्धिका, सर्वज्ञपदारविंदनिरता, सद्दान चिन्तामणी, और व्रतशोलनिष्ठा थी। प्रशस्ति पद्य के अन्तिम प्रक्षर अटित होने से उसका नाम ज्ञात नहीं हो सका जैसा कि उसके पद्य से प्रकट है।
जोमन का पूत्र नेमिदेव था, उसकी माता का नाम पद्मावती था । नेमिदेव जिनचरणसेवी और सम्यकव से विभूषित था। बड़ा उदार न्यायी, दानी, स्थिर यश वाला और प्रतिदिन जिनदेव की पूजा करता था। उक्त नेमिदेव के अनुरोध से ही ग्रन्थ की रचना की गई है। ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया। इसकी एक प्राचीन प्रति सं० १४३६ में फीरोजशाह तुग़लक के समय की योगिनीपुर (दिल्ली में लिखी हुई ८६ पत्रात्मक उपलब्ध है। जो अतिशय क्षेत्र महावीर जी के शास्त्रभंडार में उपलब्ध है। उससे जान पड़ता है कि त्रिलोकदोपक सं० १४३६ से पूर्व रचा गया है।
१. अस्त्यत्र वंशः पुरवाड़ संज्ञ: समस्त पृथ्वीपति माननीयः ।
त्यक्त्वा स्वकीया सुरलोक लक्ष्मी देवा अपीच्छन्ति हि यत्र जन्म ॥६३ तत्र प्रसिद्धोऽजनि कामदेव: पत्नी च तस्या जनि नामदेवी। पुत्रौ तयो|मन लक्ष्मणाख्यो बभूवतः राघव लक्ष्मणाविव ॥६४ -त्रैलोक्य दोपक प्रक २. जोमणस्य दुहिता जाता गुणानेसरा । धर्मारामतरो: प्रवर्धन सुधाकल्पक पुण्योह का । श्री सर्वज्ञपदारविंदनिरता सद्दान चिंतामणीश्चारित्त व्रत देवता सुविदिता श्री वाइदे......। २२१ –अनेकान्तवर्ष २३ कि०४ पृ० १४६ ३. पद्मावती पुत्र पवित्रवंशः क्षीरोदचन्द्रामलयोः यथास्य । तनोरुहः श्रीजिनपादसेवी स नेमिदेवाश्चिरमत्र जीयात् ।।
-पंच सं० दीपक शांतिनाथ सेनभंडार खभात ४. देखो, आमेर शास्त्रभंडार जयपुर की सूची प० २१८ अन्य० नं. ३०६ प्रति नं. २
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि
४५१
पंचसंग्रह दीपक
इस गन्थ की १०४ पत्रात्मक ताड पत्रीय प्रति खंभात के श्वेताम्बरीय शान्तिनाथसेन भंडार में नं० १३५ उपलब्ध है। उससे ज्ञात होता है कि यह नेमिचन्द्र सिद्धान्त चन्द्रवर्ती के गोम्मटसार अपरनाम पंचसंग्रह की संस्कृत श्लोक बद्ध रचना है, जैसा कि उसके प्रारम्भिक निम्न पद्यों से प्रकट है :
सिद्धं शद्ध जिनाधीशं नेमीशं गणभूषणम् । न त्वा ग्रन्थं प्रवक्ष्यामि ‘पंचसंग्रह दीपकम्' ॥१॥ नेमिचन्द्र मुनीन्द्रेण यः कृतः पंचसंग्रहः । स वव श्लोक बंधन प्रव्यक्ती क्रियते मया ॥२॥ बन्धको बध्यमानं च बंधभेदास्तथेसता। हेतवश्चेति पचानां संग्रहोभ प्रकाशते ॥३॥ यस्तत्र बंधको जीवः सदृ सत्कर्मणां स्वयम् । तत्म्वरूय प्रकाशाय विशतिः स्य प्ररूपणा ॥४॥ गण जीवाश्च पर्याप्ति प्राणसंज्ञाश्च मार्गणा। उपयोग समा यक्ता भवंव्येता-प्ररूपणा ॥५॥ मार्गणा गुण-भेदाभ्ला फवतो के प्ररूपणे ।
मार्गणांतर्गताशेषाः जीव मुख्याः प्ररूपणाः ॥६॥ गोम्मटसार का श्लोक बद्ध यह सस्कृतिकरण अब तक देखने में नही पाया था। स्व. मुनिश्री पूण्यविजय जी ने खंभात के शांतिनाथ सेन भंडार की सूची भाग० २ में न० १३६ में पचसगह दीपक का 'श्लोक बद्ध' नाम से परिचय दिया है।
यह ताडपत्र प्रति १३वीं शताब्दी की लिखी हई है।
'इति श्रीद्रवामदेव विरचिते 'परवाट वंश विशेषक श्री नेमिदेव यशः प्रकाशके पंचसंग्रह प्रदीपके बंधक स्वरूप प्र (प्ररूपिणो नाम) प्रथमो अधिकारः।
यह प्रति संभवतः ग्रन्थ रचना के समय की या आस-पास की रची हुई जान पड़ती है। चकि विनयचन्द्र पंडित आशाधर जी के शिष्य थे, उन्होंने विनयचन्द्र को धर्मशास्त्र पढ़ाया था। विनयचन्द्र के शिष्य त्रैलोक्य कीति के शिष्य लक्ष्मीचन्द्र थे । इन लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य वामदेव ने इस ग्रन्थ की रचना की। पं० आशाधर जी १३वी शताब्दी के विद्वान हैं । अतएव उसके बाद वामदेव का समय होना चाहिए । अतः वामदेव का समय विक्रम की १४वीं शताब्दी जान पड़ता है।
अमरकोति यहोन्द्रवंश के प्रसिद्ध विद्वान थे। जो विद्य कहलाते थे। यह अपने समय के अच्छे विद्वान जान पडते हैं। इनका बनाया हा धनंजय कवि की नाममाला का भाष्य भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चका है। उस ग्रन्थ की पुप्पिका में उन्हे विद्य महा पंण्डित और शब्द वेधस बतलाया है । भाष्य को देखने से अमरकीति विविध ग्रन्थों के अभ्यासी ज्ञात होते हैं।
_ "इति महापण्डित श्रीमदमरकीतिना विद्यन श्रीसेन्द्रवंशोत्पन्नेन शब्द वेधसा कृतायां धनंजय नाम मालायां प्रथम काण्डं व्याख्यातम"
1 Sce - No 1.9 Panchasangarha Dipak Slok Bandha, Folios 104 Extent Granthas Age M.S Firasta Play of 13th exet 4S- Shautinatha Sain Bhandar Combay
-अनेकान्त वर्ष २३ कि०४ १० १४६
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
.५२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
प्रस्तुत कोश का भाष्य लिखते हा अमरकीति ने परम भट्रारक यश कीति, अमरसिह, हलायुध, इन्द्रनन्दी, सोमदेव, हेमचन्द्र और आशाधर आदि के नामों का उल्लेख करते हुए महापुराण सूक्त मुक्तावली, हेमीनाममाला, यशस्तिलक, इन्द्रनन्दी का नीति सार और प्राशाधर के महाभिषेक पाठ का नामोल्लेख किया है। इनमें पाशाधर का समय स० १२४६ से १३०० तक है । अत अमरकीति इसके बाद के विद्वान ठहरते है। यह १३वी शताब्दो के उपान्त्य समय के या १४ वी शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान होने चाहिए !
हस्तिमल्ल इन क पिता का नाम गोविन्द भद्र था, जो वत्सगोत्री दक्षिणी ब्राह्मण ।। उन्धी प्राचार्य समन्तभद्र के 'देवागमस्तोत्र' को सुनकर सदृष्टि प्राप्त की थी-सर्वथा एकान्तरूप मिथ्या दृष्ट का परित्याग कर अनेकान्तरूप सम्यकदष्टि के श्रद्धालु बने थे। उनके छह पुत्र थे.-श्री कुमार, सत्यवाक्य, देवर वल्लन, उदय और वर्धमान '। ये सभी पूत्र सस्कृतादि भापाओ के मर्मज्ञ और काव्य शास्त्र के अच्छे जानकार एव कवि थे।
हस्तिमल्ल कवि का असली नाम नहीं है। असली नाम कुछ और ही रहा होगा। यह नाम उन्हे सरण्यापुर में एक मदोन्मत्त हाथी को वश में करने के कारण पाण्ड्य राजा द्वारा प्राप्त हुअा था। उस समय राज सभा में उनका अनेक प्रशसा वाक्य से सत्कार किया गया था। हस्ति युद्ध का उल्नेख मुभद्रा नाटक में कवि ने स्वय किया है। उसमें जिन मुनि का रूप धारण करने वाले किसी धर्त को भी परास्त करने का उलाग्य है ।
कवि के सरस्वती स्वयवर वल्लभ, महा कवि तल्लज पार 'मूक्तिरत्नाकर' विरुद थे ।
कवि हस्तिमल्ल गृहस्थ विद्वान थे । इनके पुत्र का नाम पायव पांडत था। जा अपन पिता के समान ही यशस्वी, शास्त्र ममज्ञ र धर्मात्मा था। हस्तिमल्ल न अपनी काति का लोक व्यापी बना दिया था। ओर स्याद्वादशासन द्वारा विशुद्ध कीति का अर्जन किया था। वे पूण्य मूर्ति और अशेप कवि चावी कहलात थे। तया परवादिरूप हस्तियो के लिये सिह थे । अतएव हस्तिमल्ल इस सार्थक नाम से लोक मे विथुन थ। इन्हे अनेक विरुद अथवा उपाधिया प्राप्त थी, जिनका समुल्लेख कवि ने स्वय विक्रान्त कौरव नाटक में किया है। 'राजा वलाकथे' के कर्ता कवि देवचन्द्र ने हस्तिमल्ल को 'उभय भाषा कविचक्रवर्ती' सूचित किया है। कविवर हस्तिमन ने स्वय अपने को कनड़ी आदि पुराण की पुष्पिका मे उभय भाषा चक्रवर्ती लिखा है। ऐसा जैन साहित्य अओर इतिहास से ज्ञात होता है। इससे वे सस्कृत ओर कनड़ी भाषा के प्रोढ़ विद्वान जान पड़ते है। उनके नाटक तो कवि को प्रतिभा क सद्योतक है ही, किन्तु जैन साहित्य में नाटक परम्परा क जन्मदाता है। मेरे ख्याल में शायद उस समय तक नाटक रचना नही हई था। कविवर हस्तिमल्ल ने इस कमी को दूर कर जैन समाज का बड़ा उपकार किया है। यह उस समय
विक्रन्त कौरव
विक्रन्तकोख
१. गोविन्द भट्ट इत्यासीद्विद्वान्मिथ्यात्वजित.। देवागमन मूत्रम्यश्रुत्या सद्दर्शनाचिन ।
अनेकान्तमनं तत्त्व बहुमन विदावर., नन्दनातम्य सजाता वाधिकाग्विनकोविदः ।। दाक्षिणात्या जयन्त्यत्र स्वर्णयक्षीप्रसादत., श्रीकुमारकविः सत्यवाक्यो देवरबल्लभः ।। उद्यद्भूषणनामा च हस्तिमल्लाभिधानका ; वर्धमानकविश्चति पड् भूवन कवीश्वरः । २. श्रीवत्मगोत्रजनभूपणगोरभट्टप्रेमैकधामतनुजो भुविहस्तियुद्धात् ।
नाना कालाम्बुनिधिपाण्डचमहीश्वरेण दलोक. शम्मसि सत्कृतवान् बभूव ।। ३. सम्यक्त्व सुपरीक्षित मदगजे मुक्ने सरण्यापुरे ।
चास्मिन्पाण्ड्यमहेश्वरण कपटाद्धन्तु म्वमभ्यागते (त)। शेलूष जिनमुद्धधारिणमपाम्यासौ मदध्वसिना । श्लोकेनापिमदेभ मल्ल इनि य. प्रख्यातवान्सूरिभि ।।-सुभद्रा, सम्यक्त्वस्य परीक्षार्थ मुक्त मत्तमनगजम् । यः मरण्यापुरे जित्वा हम्तिमल्लेति कीतिन ।। ४. 'इत्युभयापा कविचक्रवति हम्निमल्ल विरचित पूर्वपुगण महाकथाया दशमपर्वम् ।"
-आदि पु० पुष्पिका
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि
४५३ के कवियों में तो अग्रणो थे ही, कि तु नाटकों के प्रणयन में भी दक्ष थे पापक ज्येष्ठभ्राता सत्य वाक्य आपको सूक्तियों को बड़ी प्रशंसा किया करते थे।
हस्तिमल्ल ने पाण्ड्य नरेश का अनेक स्थानों पर उल्लेख किया है, पर उन्होने उनके नाम का उल्लेख नही किया। वे उनके कृपापात्र थ और उनकी राजधानी में अपने विद्वान प्राप्तजनो क साथ या वसे थ। पाण्डय नरेश ने सभा में उनका खूब सम्मान किया था। पाण्ड्य नरेश अपने भजबल में कर्नाटक प्रदेश पर शासन करते थे।
ब्रह्मसूरि ने प्रतिष्ठा सारोद्धार में लिखा है कि वे स्वय हम्तिमल्ल के वश में हुए है, उन्हाने उनके परिवार के सम्बन्ध में भी प्रकाश डाला है। उन्होने लिखा है कि पाण्ड्यदेश में दीप गांडपत्तन के शासक पाण्ड्य राजा थे। वे बड़े धर्मात्मा, वीर, कलाकुशल ओर विद्वानों का आदर करते थे । वहा भगवान आदिनाथ का रत्न सुवर्ण जटित सुन्दर मन्दिर था, जिसमे विशाखनदो आदि विद्वान मुनि रहने थे । कवि क पिता गोविन्दभट्ट यही के निवासी थे। पाण्ड्य राजानो का राज्य दक्षिण कार्नाटक में रहा है। काफिल वगेरह भी उसमें शामिल थे। इस देश में जैनधर्म का अच्छा प्रभाव रहा है। इस वंश में प्राय: मभी राजा जनधर्म पर प्रेम और आस्था रखते थे। कवि हस्तिमल्ल विक्रम की १४वी शताब्दी के विद्वान थे। कर्नाटक कवि चरित्र क का पार० नर्गसहाचार्य ने हस्तिमल्ल का समय ईसा की १३वी शताब्दी का उनराधं १२६० अोर विक्रम स० १३८७ निश्चित किया है।
रचनाएं
कवि की सात रचनाए उपलब्ध है। विक्रान्तकौरव, मेथिली कल्याण, अजनापयन जय प्रार मुभद्रा। ये चारों नाटक माणिकचन्द्र ग्रथमालाामें प्रकाशित हो चके है। प्रतिष्ठा पाठ प्राग जन सिद्धान्तभवन मे है और दो रचनाएं कन्नड भाषा की है अदिपूराण और थं पूराण। एनकी मल प्रतिया। मुलबिद्री अोर वगग जन मठा में पाई जाती है । कन्नड आदि पुराण का परिचय डा०ए०एन० उपाध्ये ने अंग्रेजी में हस्तिमल्ल एण्ड हिज आदिपुराण नामक लेख में कराया है।
पं० नरसेन इन्होंने अपना कोई परिचय नहीं दिया। इनकी दो कृतियां उपलब्ध हैं। सिद्धचक्रकथा और जिणरत्तिविहाण कथा।
सिद्ध चक्र कथा (श्रीपाल चरित)- इस ग्रन्थ में सिद्धाचक्र व्रतके माहात्म्य को व्यक्त करने वाली कथा दी हुई है। चम्पा नगरी के राजा श्रीपाल अगभोदय वस ओर उनके सातसौ साथी भयंकर कुष्ट रोग से पीड़ित हो गए। रोग की वृद्धि हो जाने पर उनका नगर में रहना असह्य हो गया। उनके शरीर की दुर्गध से जनता का वहां रहना भी दूभर हो गया। तब जनता के अनुरोध से उन्होने अपना राज्य अपने चाचा अरिदमन को दे दिया और
१. कि वोगणागुणझंकृतः किमथवा साद्वैर्मधुस्यन्दिभिविभ्राम्यत्सहकारकोरकशिग्वाकर्णावतसरपि । पर्याप्ताः श्रवणोत्सवाय कवितासाम्राज्यलक्ष्मीपते।
सत्य नस्तव हस्तिमल्लमुभगाम्तास्ता: सदासूक्तयः ।।-मै०० ना. २. दीपंगुडी पत्तनमस्तितम्मिन् हावलीतोरणराजिगोपुरैः । मनोहरागारसुरत्नसंभ्टतरुद्यानजर्भात्यमरावतीव ॥३ तद्राजगजेन्द्रमुपाण्ड्यभूपः कीर्त्या जगद्वचापितवान सुधर्मा । रराज भूमाविति निस्सपत्न: कलान्वितः सद्विबुधैः परीतः ॥४ तत्रास्ति सद्रस्नसुर्वर्णतुंगचंत्यालये श्रीवपभेश्वरो जिनः । विशाखनन्दीशमुनीद्रमुख्या:सच्यास्त्रवन्तो मुनयो वसन्ति ॥५
प्रशस्ति सग्रह, आग पृ० १६२
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास- भाग २ कहा कि जब मेरा रोग ठीक हो जायेगा, तब मैं अपना राज्य वापिस ले लूंगा । श्रीपाल अपने साथियों के साथ नगर छोड़ कर चले गए, और अनेक कष्ट भोगते हए उज्जैन नगर के बाहर जंगल में ठहर गए। वहां का राजा अपने को ही सब कुछ मानता था कर्मों के फल पर उसका विश्वास नहीं था। उसकी पुत्री मैना सुन्दरी ने जैन साधुओं के पास विद्याध्ययन किया था कर्मसिद्धान्त का उसे अच्छा परिज्ञान हो गया था। उसकी जैनधर्म पर बड़ी श्रद्धा और भक्ति थी! साथ ही साध्वी और शीलवती थी। राजा ने उसे अपना पति चनने के लिये कहा, परन्तु उसने कहा कि यह कार्य शीलवती पूत्रियों के योग्य नहीं है। इस सम्बन्ध में पाप ही स्वय निर्णय कर। राजा ने उसके उत्तर से असन्तुष्ट हो उसका विवाह कुष्ट रोगी श्रीपाल के साथ कर दिया। मंत्रियों ने बहुत समझाया परन्तु उस पर राजा ने कोई ध्यान न दिया। निदान कुछ ही समय में मैना सुन्दरी ने, सिद्ध चक्र का पाठ भक्ति भाव से सम्पन्न किया और जिनेन्द्र के अभिपेक जल से उन सब का कुष्ठ रोग दूर हो गया । और वे सुखपूर्वक रहने लगे । पश्चात् श्रीपाल बारह वर्ष के लिये विदेश चला गया, वहां भी उसने कर्म के अनेक शुभाशुभ परिणाम देखे और बाह्यविभूति के साथ बारह वर्ष बाद मैनासून्दरी से प्रा मिला। उसे पटरानी बनाया और चम्पापुर जाकर चाचा से अपना राज्य वापिस लेकर प्रजा का सुखपूर्वक पालन किया । अन्त में तप द्वारा आत्म-लाभ किया। इस कथानक से सिद्धचक्र की महत्ता का आभास मिलता है। रचना सुन्दर और संक्षिप्त है । कथानक रोचक होने के कारण इस पर अनेक ग्रन्थकारों की विभिन्न कृतियां पाई जाती हैं । ग्रन्थ में रचना काल और रचना स्थल का उल्लेख नही है।
जिनरात्रि कथा- इसे वर्धमान कथा भी कहा जाता है। जिस रात्रि में भगवान महावीर ने अप्ट कर्म का नाशकर अविनाशी पद प्राप्त किया उस व्रत की यह कथा शिवरात्रि के ढंग पर रची गई है। उस रात्रि में जनता को इच्छाओं पर नियत्रण रखते हुए प्रात्म-शोधन का प्रयत्न करना चाहिये । रचना मरस है । कवि ने रचना में अपना कोई परिचय नहीं दिया और न गुरु परम्परा तथा समयादि का कोई उल्लेख ही किया है। इससे कवि के सम्बन्ध में कोई जानकारी नही प्राप्त हो सकी।
सिद्ध चक्र कथा की प्रति सं०१५१२ लिखी हुई उपलब्ध है, उस से इतना तो सुनिश्चित है कि ग्रन्थ उक्त संवत् से पूर्व बन चुका था। संभवतः ग्रन्थ १४वीं शताब्दी के आस-पास कहीं रचा गया जान पड़ता है।
सुप्रभाचार्य इनका कोई परिचय प्राप्त नहीं है। इनकी एकमात्र कृति ७७ दोहात्मक वैराग्यसार है। जिसमें संसार के पदार्थों की असारता दिखलाते हुए वैराग्य को पुष्ट किया गया है। दोहों का अर्थ व्यक्त करने वाली अज्ञात कर्तृक एक संस्कृत टीका भी है, जो जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १६ किरण २ और भाग १७ किरण १ में प्रकाशित है। दोहा उपदेशिक है। पाठको की जानकारी के लिये उसमें से कुछ दोहा भावानुवाद के साथ नोचे दिये जाते हैं । भाषा सरल कथनी सम्बोधात्मक हैं। ग्रन्थ का पहला पद्य ही वैराग्यभाव का प्रतिपादन करता है । ससार में जहां एक घर में बधाई मंगलाचार हो रहे हैं वहीं दूसरे घर में धाड़मार-मार कर रोया जा रहा है। कवि सुप्रभपरमार्थभावसे कहता है कि ऐसी विषम स्थिति में वैराग्यभाव क्यों धारण नहीं किया जाता?
इक्कहि घरे वधामणा अण्णहि घरि धाहहि रोविज्जइ ।
परमत्थई सुप्पउ भणइ, किम वहरायाभाउ ण किज्जइ ॥१ सांसारिक विषयों की अस्थिरता और संसार की दुःखबहुलता का प्रतिपादन करते हुए कवि सुप्रभ कहते हैं। कि हे धार्मिको ! दशविध धर्म से स्खलित मत होमो, सूर्योदय के समय जो शुभ ग्रह थे। वे सूर्यास्त के होने पर श्मशान हो गए।
सुप्पउ भणइ रे धम्मिपहु खसहु म धम्मवियाणि।
जे सूरग्गमि धवलहरि ते अंथवण मसाण ॥२ कवि सुप्रभ का कहना है कि परोपकार करना मत छोड़, क्योंकि संसार क्षणिक है जब चन्द्रमा और सूय भी प्रस्त हो जाते हैं तब अन्य कौन स्थिर रह सकता है।
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि
४५५
सप्पउ भणइ मा परिहरहु पर उवयार चरत्थु ।
ससि-सूर दुहु ग्रंथणि अण्ण हं कवण थिरत्थु ॥ ३ यह जीव गुरुतर गंभीर पाप करके शरीर सरक्षणार्थ धन का संचय करता है, कवि सुप्रभ कहते है कि धन रक्षित वह शरीर दिन पर दिन गलता जाता है, ऐसी अवस्था में धन-धान्यादि अन्य परिग्रह कैसे नित्य हो सकते हैं।
जसु कारणि धन संचइ पाव करे वि गहीर ।
तं पिच्छह सुप्पउ भणइ, दिणि दिणि गलइ सरीरु ॥३६ जो पुरुष दोनों को धन देता है. सज्जनों के गुणों का आदर करता है । और मन को धर्म में लगाता है । कवि सुप्रभ कहते है कि विधि भी उसकी दासता करता है।
धणु दीणहं गुण सज्जणहं मणु धम्महं जो देइ ।
तह पुरिसे सुप्पउ भणइ विही दासत्तु कोइ ॥३८ जिस तरह अपने वल्लभ (प्रिय) का ध्यान किया जाता है वैसा यदि प्ररहंत का ध्यान किया जाय तो कवि सुप्रभ कहते हैं कि तव मनुष्यों के घर के आंगन में ही स्वर्ग हो जाय।।
जिम भाइज्जइ वल्लहउ तिमजइ जिय अरिहंतु ।
सुप्पउ भणइ ते माणसहं सग्गु रिंगण हुतु ॥६ इस तरह यह वैगग्य मार दोहा भावात्मक उपदेश का सुन्दर ग्रन्थ है। दोहों की भाषा हिन्दी के अत्यन्त नजदीक है। इससे यह ग्रन्थ १८वी शताब्दी का जान पड़ता है।
विद्यानन्द मलसंघ बलात्कारगण सस्वतीगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान राय राजगुरुमंडलाचार्य महा वादवादीश्वर सकल विद्वज्जन चक्रवर्ती सिद्धन्ताचार्य पूज्यपाद स्वामी के शिष्य थे। शक मं० १३१३ या १३१४ (सन् १३९२ ई०) अगिरस संवत्सर में फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की दशमी शनीवार के दिन विद्यानन्द के नाम पर निषिधि का निर्माण किया गया था। अत: मलखेड के यह विद्यानन्द ईसा को १५वों सदी के विद्वान है।
___ जैनिज्म इन साउथ इडिया पृ० ४ २२
भास्करनन्दी प्रस्तुत भास्करनन्दी सर्वसाधु के प्रशिप्य और मुनि जिनचन्द्र के शिष्य थे। जैसा 'सुखबोधा' नामक तत्त्वार्थवृत्ति को प्रशस्ति के निम्न पद्यो से प्रकट है :
"नो निष्ठोवेन्न शेते वदति च न परं एहि याहीति जातु । नो कण्डूयेत गात्र व्रजति न निशि नोद्धाट्येवार्नधत्ते । नावष्टं नाति किञ्चिद् गुणनिधिरिति यो बद्धपर्यङ्कयोगः । कृत्वा संन्यासमन्ते शुभगतिरभवत्सर्वसाधु प्रपूज्यः ॥२ तस्यासीत्सुविशुद्धदृष्टिविभवः सिद्धांतपारंगतः। शिष्यः श्रीजिनचन्द्रनामकलितश्चारित्र भूषान्वितः ।। शिष्यो भास्करनन्दिनामविबुधस्तस्या भवत्तत्ववित
तेनाकारि सुखाविबोधविषया तत्त्वार्थवृत्तिः स्फुटं । भास्करनन्दी' नाम के एक विद्वान का उल्लेख लक्ष्मेश्वर (मैसूर) के सन् १०७७-७८ के लेख में मिलता १. एक भास्करनन्दी का उल्लेख पारा जैन सिद्धान्त भवन की न्याय कुमुदचन्द्र की लिपि प्रशस्ति में सौख्यनन्दी के प्रशिष्य और देवनन्दी के शिष्य भास्करनन्दी का उल्लेख है, जो उनसे भिन्न हैं । (अनेकान्त वर्ष १ पृ० १३३
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ ५५६ है। सरस्थगण के श्रीनन्दिपंडित देव तथा उनके बन्धु भास्करनन्दि पंडितदेव के समाधिमरण का उल्लेख है। (जैन लेख म० भा०४ पृ० ११३) ।
जिनचन्द्र नाम के भी अनेक विद्वान हो गए हैं : -
एक जिनचन्द्र का उल्लेख स० १२२६ के विजोलिया के शिलालेख में है जो लोलाक के गुरु थे।
कलसापुर (मैसूर) के सन् ११७६ के शिलालेख में बालचन्द्र की गुरुपरम्परा में गोपनन्दि चतुर्मुखदेव के बाद जिनचन्द्र का उल्लेख है।
श्रवणबेलगोलक शिलालेख नं०५६ मे एक योगि जिनचन्द्र का उल्लेख है।
चौथे जिनचन्द्रवे है। जिनका स० १४४८ (सन् १३६२) के लेख में जिनचन्द्र भट्टारक के द्वारा मूर्ति स्थापना का उल्लेख है।
पाचवे जिनचन्द्र वे है जिनका उल्लेख माधवनन्दी को गुरु परम्परा में गुणचन्द्र के बाद जिनचन्द्र का नाम दिया है।
छठे जिनचन्द्र भास्करनन्दि के ग हैं। अोर सातवें जिनचन्द्र मूलसघ के भट्टारक शुभचन्द्र क पधर है, जो म० १५०७ में प्रतिष्ठिन हा थे । इनका समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी है।
इन जिनचन्द्रों में से कोन से जिनचन्द्र भास्करनन्दि के गुरु थे, यह निश्चित करना कठिन है।
भास्करनन्दि ने अपनी मूखवोधत्ति के तीसरे अध्याय के तोसरे मूत्र की टीका में निम्न पद्य उद्धत किया हैं :--जो उडढा के गम्कृत पच गग्रह के जीव समास प्रकरण का १६८ वां पद्य है :
द्विष्कापोताथ का पोता नील नीला च मध्यमा । नीलाकृष्णे च कृष्णाति कृष्णरत्नप्रभादिषु ॥
पंच स०१-१६८ पृ०६७० इसके अतिरिक्त भास्करनन्दी ने चतुर्थ अध्याय के दूसरे सूत्र की टीका में निम्न पद्य उद्धृत किये हैं
"लेश्या योगप्रवृत्तिः स्यात्कषायोदयरञ्जिताः। भावतो द्रव्यतोऽङ्गस्य छविः षोढोमतो तु सा" ॥११८४ "पडलेश्यांगा मतेऽन्येषां ज्योतिष्का भौमभावनाः । कापोतमुद्गगोमूत्र वर्णलेश्यानिलाजिनः ॥१-१६० "लेश्याश्चतुर्युषट् च स्युस्तिस्रस्तिस्रः शुभास्त्रिषु । गुणस्थानेषु शुक्लका षषु निलेश्यमन्तिमम् ॥१-१६५ प्राद्यास्तिस्रोप्य पर्याप्तष्व संख्येयाब्दं जीविष । लेश्याः क्षायिक सदृष्टौ कापोतास्या ज्जघन्यका" ॥१-१६६ षटन्ट-तियंक्ष तिस्त्रोऽन्त्यास्तेष्वसंख्याब्द जीविष ।
एकाक्ष विकला संजिष्वाद्य लेश्यात्रयं मतम्" ।।१-१६७ इसमे स्पष्ट है कि भास्करनन्दि ने उक्त पद्य डड्ढा के संस्कृत पचसंग्रह से उद्धत किये हैं। डडढा का समय विक्रम की ११वी शताब्दी का पूर्वार्ध है। और भास्करनन्दि उसके बहुत बाद हुए हैं।
शान्तिराज शास्त्री ने 'मुखबोधावृत्ति की प्रस्तावना में भास्करनन्दी का समय ईसा की १३वीं शताब्दी का अन्तिम भाग बतलाया है। मेरी राय में इनका समय विक्रम की १४वीं शताब्दी होना संभव है ग्रन्थ सामने न होने से उस पर इस समय विशेष विचार नहीं किया जा सकता।
भास्करनन्दी की दूसरी कृति ध्यानस्तव है। जिसमें मय प्रशस्ति पद्यों के १०० पद्य हैं, जिनमें ध्यान का वर्णन किया है इसका ध्यान से समीक्षण करने पर उसपर तत्त्वानशासनादिग्रन्थों का प्रभाव परिलक्षित होता है।
१. जैन लेख स० भा० ४ पृ० २०१ २. जैन लेख संग्रह भा० १ पृ० ११५ ३. जैन लेख सं०भा०४पृ० २८७
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
छठा अध्याय १५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि कवि रइधू
कवि गोविन्द हरिचन्द्र अग्रवाल
कवि कोटीश्वर भट्टारक पद्मनन्दी
पंडित खेता भट्टारक यशःकीति
भट्टारक ज्ञानभूषण मुनि कल्याणकोति
कवि दामोदर भट्टारक प्रभाचन्द्र
नागचन्द्र भ० शुभकीति
अभिनव समन्तभद्र कवि मंगराज (तृतीय)
भ० गुणभद्र सोमदेव
ब्रह्म श्रुतसागर पद्मनाभ कायस्थ
ब्रह्म नेमिदत्त कवि धनपाल
अभिनव धर्मभूषण भट्टारक सकलकोति
भ० विद्यानन्दि पण्डित रामचन्द्र
भ० श्रुतकीति नागदेव
कवि माणिक्यराज चारुकोति पण्डितदेव
कवि तेजपाल लक्ष्मीचन्द्र
भ० सोमकीति कवि हल्ल या हरिचन्द्र
अजित ब्रह्म कवि प्रसवाल
कवि ठकुरसी ब्रह्म साधारण
ब्रह्म जी बंधर बुध विजयसिंह
पं. नेमिचन्द्र (प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता) भट्टारक शुभचन्द्र
कवि धर्मधर भ० रत्नकोति
पं० हरिचन्द्र पंडित योगदेव
पं० मेघावी कवि जल्हिग
कवि महाचन्द्र नेमचन्द्र
भ० प्रभाचन्द्र पण्डित नेमिचन्द्र
भ० शुभचन्द्र भ. शुभचन्द्र
भ० अमरकीति कवि भास्कर .
वीर कवि या बुधवीर भ० कमलकीति
कवि दोड्डय्य कवि चन्द्रसेन
पंडित जिनदास
४५७
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
ब्रह्म कृष्ण या केशवसेन सूरि वादिचन्द्र कवि राजमल्ल शाह ठाकुर भट्टारक विश्वसेन भट्टारक विद्याभूषण भ० श्रीभूषण भ० चन्द्रकीति भ० सकलभूषण भ० धर्मकीति भ० गुणचन्द्र भ० रतनचन्द्र वादि विद्यानन्द ब्रह्म कामराज ब्रह्म रायमल्ल भ० ज्ञानकोति
पण्डित रूपचन्द्र सुमतिकोति भट्टकलंकदेव कवि भगवतीदास भ० सिंहनन्दी पण्डित शिवाभिराम पण्डित प्रक्षयराम कवि नागव पं० जगन्नाथ कवि वादिराज अरुणमणि (लालमणि) भ० देवेन्द्रकीति भ० धर्मचन्द्र विमलदास
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वी, १६वों, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्रारक और कवि
४५६
कविवर रइधू
कविवर रइध संघाधिप देवराय के पौत्र और हरिसिंघ के पुत्र थे, जो विद्वानों को आनन्ददायक थे, और माता का नाम 'विजयसिरि' (विजयथी) था जो रूपलावण्यादि गणों से अलंकृत होते हा भी शील संयमादि सद्गुणों से विभूपित थी। कविवर की जाति पद्मावती पुरवाल थी अोर कविवर उक्त पद्मावती कुलरूपी कमलों को विकसित करने वाले दिवाकर (सूर्य) थे जैसाकि 'सम्मइजिनचरिउ' ग्रंथ की प्रशस्ति के निम्न वाक्यों से प्रकट है
चंस देवराय संघाहिब गंदणु, हरिसिंघु बुहयण कुल, पाणंदणु। 'पोमावइ कुल कमल-दिवायरु, हरिसिघु बुहयण कुल, पाणंदणु।
जस्स घरिज रइधू बुह जायउ. देव-सत्थ-गुरु-पय-प्रणुरायउ॥' कविवर ने अपने कूल का परिचय 'पोमावइकूल' पोमावइ 'पूरवाडवंम' जैसे वाक्यों द्वारा कराया है। जिससे वे पद्मावती पुरवाल नाम के कुल में समुत्पन्न हुए थे। जैनसमाज में चोरासी उपजातियों के अस्तित्व का उल्लेख मिलता है। उनमें कितनी ही जातियों का अस्तित्व आज नहीं मिलता। कितु इन चोरासी जातियों में ऐसी कितनी ही उपजातियां अथवा वंग हैं जो पहले कभी बहुत कुछ समृद्ध और सम्पन्न रहे हैं; किंतु आज वे उतने समृद्ध एवं वैभवशाली नहीं दिखते और कितने ही वंश एवं जातियां प्राचीन समय में गौरवशाली रही हैं किंतु आज उक्त संख्या में उनका उल्लेख भी शामिल नहीं है। जैसे धर्कट' आदि।।
इन चौरासी जातियों में पद्मावती पूरवाल भी एक उपजाति है, जो आगग, मैनपुरी, एटा, ग्वालियर आदि स्थानों में आबाद है। इनकी जन-सख्या भी कई हजार पाई जाती है। वर्तमान में यह जाति बहुत कुछ पिछड़ी हुई है तो भी इसमें कई प्रतिप्टिन विद्वान है । वे आज भी समाज-सेवा के कार्य में लगे हुए है । यद्यपि इस जाति के विद्वान् अपना उदय ब्राह्मणों से बतलाते हैं और अपने को देवनन्दी (पूज्यपाद) का सन्तानोय भी प्रकट करते हैं, परन्तु इतिहास से उनकी यह कल्पना केवल कल्पित जान पड़ती है। इसके दो कारण है। एक तो यह कि उपजातियों का इतिवृत्त अभी अधकार में है। जो कुछ प्रकाश में आ पाया है, उसके आधार में उसका अस्तित्व विक्रम की दशमी शती से पूर्व का ज्ञात नही होता । हो सकता है कि वे उसके भी पूर्ववर्ती रही हों, परन्तु बिना किसी प्रामाणिक आधार के इस सम्बन्ध में कुछ नही कहा जा सकता,
पट्टावली वाला दूसरा कारण भी प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि पट्टावली में प्राचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) को पद्मावती-पुरवाल लिखा है, परन्तु प्राचीन ऐतिहासिक प्रमाणों से उनका पद्मावती-पुरवाल होना प्रमाणित नही होता, कारण कि देवनन्दी ब्राह्मण कुल में समुत्पन्न हुए थे।
जाति और गोत्रों का अधिकांश विकास अथवा निर्माण गाव, नगर और देश ग्रादि के नामों पर से हा है। उदाहरण के लिए सांभर के आस-पास के बघेरा स्थान से बघेरवाल, पाली मे पल्लीवाल, खण्डेला मे खण्डे नवाल, अग्रोहा से अग्रवाल, जायस अथवा जेसा से जरावाल और ओसा से प्रोसवाल जाति का निकास हा है। तथा चदेरी के निवासी होने से चन्देरिया, चन्दवाड से चादुवाड या चांदवाड और पद्मावती नगरी में पद्मावतिया अादि गोत्रों एवं मर का उदय हा है। इसी तरह अन्य कितनी ही जातियों के सम्बंध में प्राचीन लेखों, ताम्रपत्रों. सिक्कों. ग्रन्थप्रशस्तियों और ग्रन्थों आदि पर से उनके इतिवृत्त का पता लगाया जा सकता है।
१. हरिसिघह पुत्ते गुणगरण जुत्ते हंसिवि विजयसिरि गंदगोण ।
-समत्त गुणनिधान जैन ग्रन्थ प्र०, प्रस्ता० भा०: पृ० ८७ २. यह जाति जैन समाज में गौरवशालिनी रही है। इसमें अनेक प्रतिष्ठित श्रीमम्पन्न श्रावक और विद्वान् हुए हैं जिनकी
कृतियां आज भी अपने अस्तित्व से भूतल को समलंकृत कर रही हैं। भविष्यदत्त कथा के कर्ता बुध धनपाल और धर्मपरीक्षा के कर्ता बुध हरिषेण ने भी अपने जन्म से 'धर्कट वंश को पावन किया है। हरिषेण ने अपनी धर्मपरीक्षा वि० सं० १०४४ में बनाकर समाप्त की है। धर्कट वंश के अनुयायी दिगम्बर श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायों में रहे हैं।
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ उक्त कविवर के ग्रंथों में उल्लिखित 'पोमावई' शब्द स्वय पद्मावतो नाम को नगरी का वाचक है। यह नगरी पूर्व समय में खूब समृद्ध थी। उसकी इस समृद्धि का उल्लेख खजुराहो के वि० सं० १०५२ के शिलालेख में पाया जाता है। इसमे यह बतलाया गया है कि यह नगरो ऊंचे-ऊंचे गगनचुम्बी भवनों एवं मकनातां से सुशाभित थी उसके राजमार्गों में बड़े-बड़े तेज तुरंग दौड़ते थे और उसको चमकती हुई स्वच्छ एव शुभ्र दीवारें प्राकाश से बातें करती थीं
सोधुत्तुंगपतङ्गलङ्घनपथप्रोत्तुंगमालाकुला, शुभ्राउंकषपाण्डुराच्चशिखरप्राकारचित्रा (म्ब) रा प्रालेयाचल शृङ्गसन्नि (नि) भशुभप्रासादसमावती भव्यापूर्वमभूदपूर्वरचना या नाम पद्मावती। त्वंगत्तुंगतुरंगमोदगमक्षु (खु) रक्षोदाद्रजः प्रो [द्ध] त, यस्यां जीन (ण) कठोर बभु (स्र) मकरो कूर्मोदराभं नमः । मत्तानेककरालकुम्भि करटप्रोत्कृष्टवृष्ट्या [द् भु] वं । तं कर्दम मुद्रिया क्षितितलं ताबू (ब) त कि संस्तुमः ॥
- Enigraphica Indica V. I. P. 149 इस समूल्लेख पर से पाठक सहज ही में पद्मावती नगरी की विशालता का अनुमान कर सकते हैं। इस नगरी को नागराजाओं की राजधानी बनने का भी सौभाग्य प्राप्त हया था और पद्मावती कांतिपूरी तथा मथुग में नौ नागराजामों के राज्य करने का उल्लेख मिलता है। पद्मावती नगरी के नागराजाओं के सिको भी मालवा में कई जगह मिले हैं। ग्यारहवीं शताब्द। में रचित 'सरस्वती कंठाभरण' में भी पद्मावती का वर्णन है। मालती-माधव में भी पद्मावती का कथन पाया जाता है जिसे लेखवृद्धि के भय से छोड़ा जाता है। परंतु खेद है कि आज यह नगरी वहां अपने उस रूप में नही है किन्तु ग्वालियर राज्य में उसके स्थान पर 'पवाया' नामक एक छोटा सा गांव बसा दया है, जो कि देहली से बम्बई जाने वाली रेलवे लाइन पर 'देवरा' नाम के स्टेशन से कुछ ही दूर पर स्थित है। यह पद्मावती नगरी ही पद्मावती जाति के निकास का स्थान है। इस दृष्टि से वर्तमान 'पवाया' ग्राम पद्मावती
लिए विशेप महत्व की वस्तु है। भले ही वहां पर आज पद्मावती पूरवालों का निवास न हो, किन्तु उसके आस पास आज भी वहां पद्मावती पुरवालों का निवास पाया जाता है । ऊपर के इन सब उल्लेखों पर से ग्राम नगरादिक नामों पर से उपजातियों की कल्पना को पूष्टि मिलती है।
श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमी ने 'परवार जाति के इतिहास पर प्रकाश' नाम के अपने लेख में परवारो के साथ पद्मावती पुरवालों का सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न किया था और पं० बखतराम के 'बुद्धिविलास' के अनुसार सातवां भेद भी प्रगट किया है । हो सकता है कि इस जाति का कोई सम्बन्ध परवारों के साथ भी रहा हो किन्त पद्मावती पुरवालों का निकास परवारों के सत्तममूर पद्मावतिया से हुआ हो। यह कल्पना ठीक नहीं जान पडती और न किन्हीं प्राचीन प्रमाणों से उसका समर्थन ही होता है और न सभी 'पुरवाडवंश' परवार ही कहे जा सकते हैं । क्योंकि पद्मावती पुरवालों का निकास पद्मावती नगरी के नाम पर हुआ है, परवारों के सत्तममूर नहीं। अाज भी जो लोग कलकत्ता और देहली प्रादि दूर शहरों में चले जाते हैं उन्हे कलकतिया या कलकत्ते
१. नवनागा पद्मावत्यां कांतिपुर्या मयुरायां, विष्णु पु० अश ४ अ० २४ । २. देखो, राजपूतान का इतिहास प्रथम जिल्द पहला संस्करण पृ० २३० । ३. देखो, अनेकान्त वर्ष ३ किरण ७ ४. सात खांप परवार कहावे, तिनके तुमको नाम सुनावें ।
अठसक्खा पुनि हैं चौसक्खा, ते सक्खा पुनि हैं दोसक्खा । सोरठिया अरु गांगज जानो, पद्मावतिया सत्तम मानो॥ -बुद्धि विलास
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वी, १६वी, १७वी और १८वी शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि वाला देहलवो या दिल्ली वाला कहा जाता है, ठीक उसी तरह परवारो के सत्तममूर पद्मावतिया, की स्थिति है।
गाव के नाम पर से गोत्र कल्पना कैसे की जाती थी इसका उदाहरण प० बनारसीदासजी के अर्धकथानक से ज्ञात होता है और वह इस प्रकार है-मध्यप्रदेश के निकट 'बीहोलो'नाम का एक गाव था उममें राजवशी राजपूत रहते थे । वे गुरु प्रमाद से जैनी हो गये और उन्होंने अपना पापमय त्रिया-काण्ड छोड़ दिया। उन्होने णमोकार मन्त्र की माला पहनी, उनका कुल श्रीमाल कहलाया और गोत्र बिहोलिया रक्ग्वा गया।
याही भरत सुखेत में, मध्यदेश शभ ठांउ । वस नगर रोहतगपर, निकट बिहोती गांउ ॥८ गांउ बिहोली में बस, राजवंश रजपूत । ते गुरुमुख जैनी भए, त्यागि करम अध-भूत ॥ पहिरी माता मंत्र की पायो कल श्रीमाल । थाप्यो गोत्र बिहोलिया, बीहोली रखपाल ॥१०॥ इसी तरह से उपजातियो और उनक गोत्रादि का निर्माण हया है ।
कवि रइधु भट्टारकीय प० ये, पार तात्कालिक भट्टारको का वे अपना गुरु मानते थे। प्रोर भट्टारको के साथ उनका इधर उधर प्रवास भी हपा है। उन्होने कछ स्थानो मे कुछ समय ठहरफर कई ग्रथो की रचना भी की है, ऐमा उनकी ग्रथ प्रशस्तियो पर न जाना जाता है। वे पनिठाचार्य भी ये और उन्होंने अनेक मतियो की प्रतिष्ठा भी कराई थी। उनके द्वारा प्रतिष्ठित कई मूर्तियो के मूति नख आज भी प्रत है जिनगे यह मालम होता है कि उन्होंने उनकी प्रतिष्ठा स. १४६७ ओर १५०६ में ग्वालियर के प्रसिद्ध शामक राजा इगसिह के राज्य में कराई थी। वह मति आदिनाथ की है।' ओर स० १५२५ का लेख भी ग्वालियर के राजा कातिसिह के गज्यवाल का है।
विपर विवाहित ये या यतिवाहित, इसका कोई स्पष्ट उलोप मेरे देयने म नही पाया पार न करने अपने को वाल ब्रह्मचारी ही प्रकट किया है। इसमे तो वे विवाहित मालूम होते है पोर जान पडना है कि व गहस्थ-पटित थे ार उस समय वे प्रतिष्ठित विद्वान् गिने जाते थे। ग्रन्थ-प्रणयन में जो भटस्वरूप धन या वस्त्राभूषण प्राप्त होते थे, वही उनकी ग्राजीविका का प्रधान प्राधार था।
बलभद्र चरित्र (पद्मपुराण) की अन्तिम प्रशस्ति के १७२ कडवक के निम्न वाक्यो में मालम होता है कि उक्त कविवर के दा भाई ओर भी थे, जिनका नाम बाहोल ओर माहर्णामह था। जेमा कि उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति के निम्न वाक्यों से प्रकट है
मिरिपोमावडपरवालवस, णंदउ हरिसिंघ संघवी जासमंस घत्ता- बाहोल माहणसिंह चिरु णंदउ, इह रइधूकवि तीयउ वि धरा।
मोलिक्य समाणउ कलगण जाणउ णंदउ महियलि सो वि परा॥ यहा पर मै इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि मेघश्वर चरित (पादिपूराण) की मवत १८५१ की लिखी गई एक प्रति नजीबाबाद जिला बिजनोर के शास्त्र-भण्डार मे है जो बहुत ही अशुद्ध रूप से लिखी गई है जिसके कान पाने को प्राचार्य मिहमेन लिखा है और उन्होने अपने को सघवी हरिसिह का पुत्र भी बतलाया है। सिहपेन के आदिपुराण के उस उल्लेख पर से ही प० नाथूरामजी प्रेमी ने दशलक्षण जयमाला की प्रस्तावना मे कवि रइधू का परिचय कराते हुए फुटनोट मे श्री पडित जुगलकिशोरजी मुख्तार की रइधू को मिहमेन का बड़ा भाई मानने की कल्पना को अमगत ठहराते हुए रइधू आर सिहसेन को एक ही व्यक्ति होने की कल्पना की है । परन्तु प्रेमीजी की यह कल्पना सगत नही है ओर न रइधू सिहमेन का बड़ा भाई ही है किन्तु रइधू ओर सिहसेन दोना भिन्न-भिन्न व्यक्ति है । सिहमेन ने अपने को 'पाइरिय' प्रगट किया है जबकि रइधू ने अपने को पण्डित अोर कवि ही सचित किया है। उस आदिपुराण की प्रति का देखने और दूसरी प्रतियो के साथ मिलान करने से जान पड़ता है कि उसके कर्ता कवि रइधू ही है। सारे ग्रन्थ की वेवल आदि अन्त प्रशस्ति में ही कुछ परिवर्तन है।
शेष ग्रन्थ का कथा भाग ज्यो का त्यों है उसमें कोई अन्तर नही। ऐसी स्थिति में उक्त प्रादिपुराण के कर्ता
१. देखो, ग्वालियर जंटियर जि० १, तथा अनेकान्त वर्ष १० कि० ३, पृ. १०१ ।
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ रइध कवि ही प्रतीत होते हैं, सिंहसेन नहीं। हाँ, यह हो सकता है कि सिंहसेनाचार्य का कोई दूसराही ग्रन्थ रहा हो, पर उक्त ग्रन्थ सिहसेनादूरिय का नहीं किन्तु रइधू कविकृत ही है । सम्मइजिनचरिउ की प्रशस्ति में रइधू ने सिंहसेन नाम के एक मुनि का उल्लेख भी किया है और उन्हें गुरु भी बतलाया है और उन्हीं के वचन से सम्मइजिनचरिउ की रचना की गई है । धत्ता -
"तं णिसुणि वि गुरुणा गच्छहु गुरुणाई सिंहसेण मुणे ।
पुरुसंठिउ पंडिउ सील अखंडिउ भणिउ तेण तं तम्मि खणि ॥५॥ गुरु परम्परा
कविवर ने अपने ग्रन्थों में अपने गा का कोई परिचय नहीं दिया है और न उनका स्मरण ही किया है। हां, उनके ग्रन्थों में तात्कालिक कुछ भट्टारकों के नाम अवश्य पाये जाते है जिनका उन्होंने पादर के साथ उल्लेख किया है। पद्मपुराण की आद्य प्रशस्ति के चतुर्थ कडवक की निम्न पक्तियों में, उक्त ग्रन्थ के निर्माण में प्रेरक साहु हरसी द्वारा जो वाक्य कवि रधु के प्रति कहे गए हैं उनमें रइध को 'श्रीपाल ब्रह्म प्राचार्य के शिष्य रूप से सम्बोधित किया गया है। साथ ही साहू सोढल के निमित्त 'नेमिपुराण के रचे जाने और अपने लिए रामचरित के कहने की प्रेरणा भी की गई है जिसमे स्पष्ट मालूम होता है कि रइधू के गुरु ब्रह्म श्रीपाल थे। वे वाक्य इस प्रकार हैं:
भो रइधू पंडिउ गुरण णिहाणु, पोमावइ वर वंसह पहाणु। सिरिपाल ब्रह्म प्रायरिय सीस, महु वयणु सुणहि भो बुह गिरीस ॥ सोढल णिमित्त णेमिहु पुराण, विरयउ जह कइजणविहिय-माणु।
तं रामचरित्त वि महु भणेहि, लक्खण समेउ इय मणि मुणहि ॥ प्रस्तुत ब्रह्म श्रीपाल कवि रइधू के गुरु जान पड़ते हैं, जो भट्टारक यश:कीति के शिष्य थे । 'सम्मइ-जिनचरिउ' की अन्तिम प्रशस्ति में मुनि यश:कीति के तीन शिष्यों का उल्लेख किया गया है' -खेमचन्द, हरिपेण और ब्रह्म पाल (ब्रह्म श्रीपाल)। उनमें उल्लिखित मूनि ब्रह्मपाल ही ब्रह्म श्रीपाल जान पड़ते हैं। अब तक सभी विद्वानों की यह मान्यता थी कि कविवर रइधु भट्टारक यशःकीर्ति के शिष्य थे किंतु इस समुल्लेख पर से वे यश:कीर्ति के शिष्य न होकर प्रशिष्य जान पड़ते हैं।
कविवर ने अपने ग्रंथों में भट्टारक यश:कीर्ति क खला यशोगान किया है और मेघेश्वर चरित की प्रशस्ति में तो उन्होंने भट्टारक यशःकीति के प्रसाद से विचक्षण होने का भी उल्लेख किया है। सम्मत्त गुण-णिहाण ग्रंथ में मुनि यग:कीति को तपस्वी, भव्यरूपी कमलों को संबोधन करने वाला सूर्य, और प्रवचन का व्याख्याता भी बतलाया है और उन्ही के प्रसाद से अपने को काव्य करने वाला और पापमल का नाशक बतलाया है।
तह पण सुतव तावतवियंगो, भव्य-कमल-संबोह-पयंगो। णिच्चोभासिय पवयण संगो, वंदिवि सिरि जसकित्ति प्रसंगो।
तासु पसाए कव्वु पयासमि, प्रासि विहिउ कलि-मलु-णिण्णासमि । इसके सिवाय यशोधर चरित्र में भट्टारक कमलकीति का भी गुरु नाम से स्मरण किया है। निवास स्थान और समकालीन राजा
कविवर रइधू कहां के निवासी थे और वह स्थान कहां है और उन्होंने ग्रन्थ रचना का यह महत्वपूर्ण कार्य किन राजाओं के गज्यकाल में किया है यह बातें अवश्य विचारणीय है। यद्यपि कवि ने अपनी जन्मभूमि आदि का कोई परिचय नही दिया, जिससे उस सम्बन्ध में विचार किया जाता, फिर भी उनके निवास स्थान आदि के
१. मुरिण जमकित्ति हु सिम्स गुणायरु, खेमचन्दु हरिसेणु तवायरु ।
मुणि त पाल्ह बभुए णंदहु, तिणि वि पावहु भास णिकंदहु ।
-सम्मइ जिनपरिउ प्रशस्ति
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
सम्बन्ध में जो कुछ जानकारी प्राप्त हो सकती है, उसे पाठकों की जानकारी के लिए नीचे दिया जाता है: - उक्त कवि के ग्रन्थो मे पता चलता है कि वे ग्वालियर में नेमिनाथ और वर्द्धमान जिनालय में रहते थे और कवित्तरूपी रसायन के निधि रसाल थे। ग्वालियर १५वी शताब्दी में खूब समृद्ध था, उस समय वहां पर देहली के तोमर वंश का शासन चल रहा था। तोमर वंश बड़ा ही प्रतिष्ठित क्षत्रिय वंग रहा है और उनके शासनकाल में जैनधर्म को पनपने का बहुत कुछ आश्रय मिला है। जैन साहित्य में ग्वालियर का महत्वपूर्ण स्थान रहा है । उस समय तो वह एक विद्या का केन्द ही बना हुआ था, वहां की मूर्तिकला और पुरातत्व की कलात्मक सामग्री आज भी दर्शकों के चित्त को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। उसके समवलोकन से ग्वालियर की महत्ता का सहज ही भान हो जाता है । कविवर ने स्वयं सम्यक्त्व-गुण-निधान नामक ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति में ग्वालियर का वर्णन करते हुए वहां के तत्कालीन श्रावकों की चर्या का जो उल्लेख किया है उसे बतौर उदाहरण के नीचे दिया जाता है:
तहु रज्जि महायण बहुषणट्ठ, गुरु-देव सत्थ विणयं वियट्ठ । जहि विक्खण मणुव सव्व, धम्माणुरत वर गलिय गव्व ॥ जहि सत्त वसण-चुय सावयाई, णिवसह पालिय दो -दह-वयाई । सम्म सण - मणि-भूसियंग, णिच्चोन्भासिय पवयण सुयंग || दारापेखण विहि णिच्चलीण, जिण महिम महुच्छव णिरु पवीण । चेयणगुण प्रप्पारुह पवित्त, जिण सुत्त रसायण सवण तित्त ॥ पंचम दुस्समु अइ-विसमु-कालु, णिद्दल वि तुरिउ पविहिउ रसालु । धम्मभाणे जे कालुलित, णवयारमंतु ग्रह - णिसु गुणंति ॥ संसार महण्णव-वडण-भीय, णिस्संक पमुह गुण वण्णणीय | जहिं णायण दिढ सीलजुत्त, दाणे पोसिय णिरु तिविह पत्त ॥ तिय मिसेण लच्छि अवयरिय एत्यु, गयरूव ण दोसइ का वि तेत्थ । वर वर कणयाहरण एहि, मंडिय तणु सोहहिं मणि जहि ॥ जि--- उच्छाह चित्त, भव-तणु-भोर्याह णिच्च जि विरुत्त । गुरुदेव पाप पंयाहि लोण, सम्मद्दंसणपालण पवीण ॥
पर पुरिसस बंधव सरिस जांहि, श्रह णिसु पडिवण्णिय णिय मनाहि । fe वणमि तहि हउ पुरिस जारि, जहं डिंभ वि सग वसणावहारि ।
४६३
वह पह पोसह कुणंति, घरि घरि चच्चरि जिण गुण थुणंति । सम्म वत्थु fire वहंति, पर अवगुण पहि गुण कहति ॥ एरि सावर्या विहियमाणु, णेमीसुरजिण हरि वड्ढमाणु ।
विसs जा रहधू कवि गुणालु, सुक्ति रसायण- णिहि रसालु ॥५॥
इन पद्यों पर दृष्टि डालने से उस समय के ग्वालियर की स्थिति का सहज ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है ।
उस समय लोग कितने धार्मिक सच्चरित्र और अपने कर्त्तव्य का यथेष्ट पालन करते थे यह जानने तथा अनुकरण करने की वस्तु है ।
ग्वालियर में उस समय तोमर वंशी राजा डूंगरसिंह का राज्य था। डूंगरसिंह एक प्रतापी और जैनधर्म में प्रास्था रखने वाला शासक था। उसने अपने जीवन काल में अनेक जैन मूर्तियों का निर्माण कराया, वह इस पुनीत कार्य को अपनी जीवित अवस्था में पूर्ण नहीं करा सका था, जिसे उसके प्रिय पुत्र कीर्तिसिंह या करणसिंह ने पूरा किया था । राजा डूंगरसिंह के पिता का नाम गणेश या गणपतिसिंह था, जो वीरमदेव का पुत्र था । गणपतिसिंह वि० सं० १४७९ में राज्य पद पर आसीन थे। इनके राज्य काल में उक्त संवत् वैशाख सुदि शुक्रवार के दिन मूल संघी नंद्याम्नायी भट्टारक शुभचन्द्र देव के मण्डलाचार्य पण्डित भगवत के पुत्र खेमा और धर्मपत्नी खेमादे ने धातु की
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २
चौबीसी मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी' । पश्चात् मं० १४८१ में डूंगरसिंह राजगद्दी पर बैठा । राजा ड्रगनिह राजनीति में दक्ष, शत्रों के मान मर्दन करने में समर्थ, और क्षत्रियोचित क्षात्र तेज मे अलंकृत था। गुण गगह मे विभूपित, अन्याय रूपी नागों के विनाश करने में प्रवीण, पंचांग मंत्रशास्त्र में कुशल तथा असि रूप अग्नि गे मिथ्यात्व-रूपी वंश का दाहक था । उसका यश सब दिशामों में व्याप्त था। वह राज्य-पटट से अलकन. विपल बल से सम्पन्न था। डंगरसिंह की पटरानी का नाम चंदादे था, जो अतिशय रूपवती और पतिव्रता थी । इनके पुत्र का नाम करणसिंह, कीनिमिह या कीर्तिपाल था, जो अपने पिता के समान ही गुणज्ञ, बलवान और राजनीति में चतुर था । डंगरमिह ने नरवर के किले पर घेरा डाल कर अपना अधिकार कर लिया था। शत्र लोग इगके प्रताप एव पराक्रम से भयभीत रहते थे। जैनधर्म पर केवल उसका अनुराग ही न था किंतु उस पर वह यानी पूरी प्रारथा भी रखता था। फलस्वरूप उसने जैन मूर्तियों की खुदवाई में सहस्रों रुपये व्यय किए थे। इससे ही उसको आस्था का अनुमान किया जा सकता है।
__डंगरांसह सन् १४२४ (वि० सं० १८८१) में ग्वालियर की गद्दी पर बैठा था । उसके राज्य समय के दो मूर्ति लेख सम्बत् १४६६ और १५१० के प्राप्त हैं । सम्वत् १४८२ की एक, और सम्बत् १८८६ का दा लेखक प्रशस्तियाँ पं० विबुध श्रीधर के संस्कृत भविष्यदत्त चरित्र और अपभ्रंश-भापा के सुकमानचारत्र की प्राप्त हुई हैं। इनके सिवाय 'भविष्यदत्त पंचमी कथा' की एक अपूर्ण लेखक प्रशस्ति कारजा के ज्ञान भण्डार का प्रात में प्राप्त हुई है । इंगरांसह
० सं० १४८१ से सं० १५१० या इसके कुछ बाद तक शासन किया। उसके बाद राज्य सत्ता उसक पुत्र कातिसिह के हाथ में आई थी।
__ कविवर रइधू ने राजा डूगरसिह के राज्य काल में तो अनेक ग्रन्थ रचे ही है किन्तु उनके पुत्र कीतिसिह के राज्य काल में भी सम कौमुदी (सावय चरिउ) की रचना की है। ग्रन्थकता ने उक्त ग्रन्थ को प्रशस्ति में कीर्तिसिह का परिचय कराते हुए लिखा है कि वह तोमर कुल रूपी कमलों को विकसित करने वाला सूर्य था पोर दुर्वार शत्रयों के संग्राम मे अतृप्त था । वह अपने पिता डुगरसिह के समान ही राज्य भार का धारण करने में समर्थ था। वन्दी-जनों ने उसे भारी अर्घ समर्पित किया था। उसकी निर्मल यश रूपी लता लोक में व्याप्त हो रही थी। उस समय वह कलिचक्रवर्ती था।
तोमरकुलकमलवियास मित्त, दुचारवैरिसंगर प्रतित्तु । डूंगरणिवरज्जधरा समत्थु, वंदीयण समप्पिय भूरि प्रत्थु । चउराय विज्जपालण प्रतंदु, णिम्मल जसवल्ली भुवरणकंदु । कलिचक्कवट्टि पायडणिहाणु, सिरिकित्तिसिंधु महिवइपहाणु ॥
-सम्यक्त्व कौमुदी पत्र २ नागौर भण्डार
१. चौबीमी धातु-१५ इंच-संवत् १४७६ वर्ष वैशाखसुदि ३ शुक्रवासरे श्री गणपति देव राज्य प्रवर्तमाने श्री मूलसघे
नद्याम्नाये भट्टारक शुभचन्द्र देवा मंडलाचार्य पं. भगवत तत्पुत्र संघवी खेमा भार्या खेमादे जिनबिम्ब प्रतिष्ठा कारापितम्।
नयामंदिर लश्कर २. सं० १४८२ वैशाखमुदि १० श्रीयोगिनीपुरे साहिजादा मुरादखान राज्य प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठा संधे माथुरान्वये पुष्करगणे आचार्य श्रीभावसेन देवास्तत्प? भ. श्रीगुणकीर्तिदेवास्तशिष्य 2ी यशःकोति देवा उपदेशेन लिखापितं ॥
-जैन ग्रन्थसूची भा० ५ पृ० ३६३ ३. सन् १४५२ (वि० सं० १५०६) में जौनपुर के सुलतान महमूदशाह शर्की और देहली के बादशाह बहलोल लोदी के बीच होने वाले संग्राम में कीतिसिंह का दूसरा भाई पृथ्वीपाल महमूदशाह के सेनापति फतहखां हार्वी के हाथ से मारा गया था। परंतु कविवर रइधु के ग्रंथों में कीर्तिसिंह के दूसरे भाई पृथ्वीपाल का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता।
-देखो टाड राजस्थान पृ० २५० स्वर्गीय महामना गौरीशंकर हीराचंद जी ओझा कृत ग्वालियर की तंवर वंशावाली टिप्पणी।
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं १६वीं १७वीं, और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
४६५
कीर्तिसिंह वीर और पराक्रमी शासक था। उसने अपना राज्य अपने पिता से भी अधिक विस्तृत किया था । वह दयालु एवं सहृदय था। जैनधर्म के ऊपर उसकी विशेष आस्था थी। वह अपने पिता का आज्ञाकारी था, उसने अपने पिता के जैनमूर्तियों के खुदाई के अवशिष्ट कार्य को पूरा किया था। इसका पृथ्वीपाल नाम का एक भाई और भी था । जो लड़ाई में मारा गया था । कीर्तिसिह ने अपने राज्य को यहाँ तक पल्लवित कर लिया था कि उस समय उसका राज्य मालवे के सम कक्षका हो गया था। दिल्ली का बादशाह भी कोर्तिसिह की कृपा का अभिलापी बना रहना चाहता था । सन् १४६५ ( वि० सं० १५२२ ) में जौनपुर के महमूदशाह के पुत्र हुमैनशाह ने ग्वालियर को विजित करने के लिए बहुत बड़ी सेना भेजी थी। तब से कोर्तिसिह ने देहलो के बादशाह बहलोल लोदी का पक्ष छोड़ दिया था और जौनपुर वालों का सहायक बन गया था ।
सन् १४७८ (वि० स० १५३५ ) में हुसैनशाह दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी से पराजित होकर अपनी पत्नी और सम्पत्ति वगैरह को छोड़कर तथा भागकर ग्वालियर में राजा कीर्तिसिंह की शरण में गया था तब कीर्तिसिंह ने धनादि से उसकी सहायता की थी और कालपी तक उसे सकुशल पहुचाया भी था। इसके सहायक दो लेख सन् १४६८ और (वि० ० १५२५) सन् १८७३ ( वि० स० १५३० ) के मिन हे | कीर्तिसिह की मृत्यु सन् १४७६ (वि०स० १५३६ ) मे हुई थी । अतः इसका राज्य काल सम्वत् १५१० के बाद से स० १५३६ तक पाया जाता है' । इन दोनो क राज्यकाल में ग्वालियर में जैनधर्म खूब पल्लवित हुआ ।
रचनाकाल
1
कवि रडधू के जिन ग्रन्थों का परिचय दिया गया है, यहा उनके रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार किया जाता है । कवि की सबसे प्रथम कृति श्रात्म-सम्बोध काव्य है । उसकी म० १४४८ की लिखित प्रति ग्रामेर भण्डार में सुरक्षित है । रइधू के मम्मत्त गुणनिधान और सुकोमलचरिउ इन दो ग्रन्थों में ही रचना समय उपलब्ध हुआ है । सम्मत्तगुणनिधान नाम का ग्रन्थ वि० स० १४९२ की भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा मंगलवार के दिन बनाया गया है और जो तीन महीने में पूर्ण हुआ था और सुकोशलचरिउ उसमे चार वर्ष बाद विक्रम सं० १४६६ में माघ कृष्णा दशम के अनुराधा नक्षत्र में पूर्ण हुआ है । गम्मत्तगुणनिधान में किसी ग्रन्थ के रचे जाने का कोई उल्लेख नही है, हाँ सुकोशलचरिउ में पार्श्वनाथ पुराण हरिवंश पुराण और बलभद्रचरिउ इन तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, जिससे स्पष्ट है कि ये तीनों ग्रन्थ भी सवत् १८६६ से पूर्व रचे गये है और हरिवंश पुराण में त्रिपप्टशलाका पुरुषचरित ( महापुराण) मेघेश्वरचरित, यशोधर चरित, वृत्तसार, जीवधरचरित प्रोर पार्श्वचरित इन छह ग्रन्थों के रचे जाने का उल्लेख है, जिससे जान पड़ता है कि ये ग्रन्थ भी हरिवण की रचना से पूर्व रचे जा चुके थे । सम्मइ जिनचरिउ में, पार्श्वपुराण, मेघेश्वरचरित, त्रिपष्टिशलाका पुरुषचरित ( महापुराण) बलभद्रचरित ( पउमचरिउ ) सिद्धचक विधि, सुदर्शनचरित और धन्यकुमारचरित इन सात ग्रन्थों के नामों का उल्लेख किया गया है, जिससे यह ग्रन्थ भी उक्त सम्वत् से पूर्व रचे जा चुके थे ।
१. बहलोल लोदी देहली का बादशाह था उनका राज्य काल सन् १४५१ ( वि० स० १५०८) से लेकर सन १४८६ ( वि० सं० १५४६ ) तक ३८ वर्ष पाया जाता है ।
२. देखो, श्रोझा जी द्वारा सम्पादित टाट राजस्थान हिन्दी पृष्ठ २५४
३. 'चउदमय वारराव उत्तरालि, वरिमइगय विक्कमरायकालि ।
वक्यत्तु जि जिरणवय समक्वि, भद्दव मासम्मि स- सेय पक्व ।
मिदिरिण कुजवारे समोई, मुहयारे सुहग्गा में जरणे ं । तिहु मास यहि पुष्णहूउ, सम्मत्तगुण। हिरिणह गधूउ ।" ४. "सिरि विक्कम समयंतरालि, वट्टतइ इंदु सम विभम कालि । चउदस्य संवच्छरइ अण्ण छण्णउ अहिपुरणु जाय पुण्ण । माह दुजि हिदमी दिम्म अरगुराहुरिक्ख पयडिय सकमि ॥”
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
इसके अतिरिक्त करकण्डुचरिउ, सम्यक्त्व कौमुदी, वृत्तसार अणथमोकथा, पुण्णासबकथा, सिद्धांतार्थसार, दशलक्षण जयमाला और षोडशकारण जयमाला। इन आठ ग्रन्थों में से पुण्यास्रव-कथा कोष को छोड़कर शेष ग्रन्थ कहां और कब रचे गए, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। रइधु ने प्रायः अधिकांश ग्रन्थों को रचना ग्वालियर में रहकर तोमर वंश के शासक डूंगरसिंह और कीतिसिंह के राज्य समय में की है जिनका राज्य काल संवत् १४८१ से सं० १५३६ तक रहा है। अतएव कवि का रचनाकाल स० १४४० से १५३० के मध्यवर्ती समय माना जा सकता है।
___ मैं पहले यह बतला आया हूं कि कविवर रइधू प्रतिष्ठाचार्य थे। उन्होंने कई प्रतिष्ठाएँ कराई थीं। उनके द्वारा प्रतिष्ठित संवत् १४६७ की प्रादिनाथ की मूर्ति का लेख भी दिया था । यह प्रतिष्ठा उन्होंने गोपाचल दुर्ग में कराई थी इसके सिवाय, संवत् १५१० और १५२५ की प्रतिष्ठित मूर्तियों के लेख भी उपलब्ध है, जिनकी प्रतिष्ठा वहां इनके द्वारा सम्पन्न हुई है' संवत् १५२५ में सम्पन्न होने वाली प्रतिष्ठाएँ रइधू ने ग्वालियर के शासक कीतिसिंह या करणसिंह के राज्य में कराई है, जिनका राज्य संवत् १५३६ तक रहा है।
___ कुरावली (मैनपुरी) के मूर्तिलेख जिनका संकलन वाबू कामताप्रसाद जी ने किया था। ये भी रइधू को प्रतिष्ठाचार्य घोषित करते हैं। तदनुसार रइधू ने सं० १५०६ जेठ सुदि शुक्रवार के दिन चंदवाड़ में चौहान वंशी राजा रामचन्द्र के पुत्र प्रतापसिंह के राज्यकाल में अग्रवाल वंशी साह गजाधर और भोलाने भगवान शांतिनाथ की मति की प्रतिष्ठा कराई थी। अन्वेपण करने पर अन्य मति लेख भी प्राप्त हो सकते हैं। इन मतिलेखों से कवि रइध के जीवनकाल पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। वे सं० १४४० मे मंवत १५२५ तक तो जीवित रहे ही हैं, कितु बाद में और कितने वर्ष तक जीवित रहे, यह निश्चय करना अभी कठिन है अन्य साधन-सामग्री के मिलने पर उस पर प्रौर भी विचार किया जायगा। इस तरह कवि विक्रम की १५वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान थे।
१. देवो, अनेकान्त वर्ष १०, किरण १०, तथा ग्वालियर गजिटियर जि० १ २. देखो, मेरी नोट बुक सं० १५२५ में प्रतिष्ठित मूर्तिलेख, ग्वालियर ३. सं० १५०६ जेठ मुदी "शुक्रे श्रीचन्द्रपाट दुर्गे पुरे चौहान बगे राजाधिराज श्रीरामचन्द्रदेव युवराज श्री प्रतापचन्द्रदेव
राज्य वर्तमाने श्री काप्ठा संवे माथुगन्वये पुष्करगरणे आचार्य श्री हेमकीतिदेव तत्प? भ. श्री कमलकीर्तिदेव । पं. आचार्य रेषु नामधेय तदम्नाये प्राग्रोतकान्वये वामिल गोत्रे साहु त्योधर भार्या द्वौ पुत्रौ द्वौ सा महाराज नामानी त्योंध. भार्या श्रीपा तयोः पूत्राश्चत्वारः संघाधिपति गजाधर मोल्हण जनक गतू नामान: संधाधिपति गजे भार्या द्वे राय श्री गांगो नाम्नि संघाधिपति मोल्हण भा० सोमश्री पुत्र तोहक, मघाधिपति जलकू. भार्या महाश्री तयोः पुत्री कुलचन्द्र मेघचन्दौ सघपति रातू भा० अभया श्री माधु त्योधर पुत्र महागज भार्या मदन श्री पुत्रौ द्वौ माणिक'''भार्या शिवदे... सघपति जयपाल भार्या मुगापते संघाधिपति गजाधर संघा० भोला प्रमुख शान्तिनाथ बिम्बं प्रतिष्ठापितं प्रण मितं च । देखो, (प्राचीन जैन लेख मंग्रह, सम्पादक बा० कामताप्रसाद)। ४. 'अग्रवाल यह शब्द एक क्षत्रिय जाति का सूचक है। जिसका विकास अग्रोहा या अग्रोदक जनपद से हुआ है। यह स्थान पंजाब राज्य में हिमारनगर से १३ मील दूर दिल्ली मिग्मा सड़क पर स्थित है। इस समय यह उजड़ा हुआ छोटा सा गाव है । यह प्राचीन काल में विशाल एवं वैभव सम्पन्न ऐतिहासिक नगर था। इसका प्रमाण वे भग्नावशेष हैं जो इसके स्थान के निकट प्रायः सात मौ एकड़ भूमि में फैले हुए हैं। यहां एक टीला ६० फुट ऊंचा था, जिसकी खुदाई मन् १९३६ या ४० में हुई थी। उसमे प्राचीन नगर के अवशेष, और प्राचीन सिक्को आदि का ढेर प्राप्त हुआ था। २६ फुट से नीचे प्राचीन पाहन मुद्रा का नमूना, चार यूनानी सिक्के और ५१ चौखटे तांबे के सिक्को में सामने की मोर वृषभ' और पीछे की ओर सिंह या चैत्यवृक्ष की मूर्ति है। सिरको के पीछे ब्राह्मी अक्षरे में-'अगोद के अगच जनपदस 'शिलालेख भी अंकित है' जिसका अर्थ 'अग्नोदक में अगच जनपद का सिक्का' होता है । अग्रोहे का नाम अग्रोदक भी रहा है । उक्त सिक्कों पर अंकित वृषभ, सिंह या चैत्य वृक्ष की मूर्ति जैन मान्यता की ओर संकेत करती हैं। (देखो, एपिग्राफिका इंडिका जि०२ पृ० २४४ । इंडियन एण्टीक्वेरी भाग १५ के प० ३४३ पर अग्रोतक वैश्यों
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वी, १६वी, १७वी, और १८वी शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
४६७
रचनाएं
कवि रइधू ने अपभ्रश भाषा में अनेक ग्रन्थो की रचना की है। उनमें से उपलब्ध रचनात्रों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है :
१. अप्प सम्बोहकव्व-यह कवि की सबसे पहली कृति ज्ञात होती है। क्योकि इसकी २६ पत्रात्मक एक हस्तलिखित प्रति मं० १४४८ की आमेर भडार मे उपलब्ध है। इस प्राथमिक रचना को प्रात्मसम्बोधार्थ लिखो हैं इसमें ३ संधिया और ५८ कड़वक है। जिनमे हिमा अणव्रतादि पच व्रतो का कथन किया गया है। और बतलाया है कि जो दोष रहित जिन देव, निर्ग्रन्थगुरु और दशलक्षण रूप अहिमा धर्म का श्रद्धान (विश्वास) करता है वह सम्यक्त्वरत्न को प्राप्त करता है :
जिणदेव परमणिगंथगुरु, दहलक्णधम्मु अहिंसयरू ।
सोणिच्छ उभावे सहसइ, सम्मत्त-रयण फड सोलहइ॥ इसके पश्चात पच उदम्बर फन और मद्य-मास-मधु के त्याग को अष्टमूल गुण बतलाया है। और इस प्रथम संधि में अहिमा, सत्य और अनोयं रूप तीन अणवतो के स्वरूप का कथन दिया है। दूसरी सधि में चतुर्थ अणुव्रत ब्रह्मचर्य का वर्णन किया है। तृतीय सधि में भगवान महावीर का नमस्कार कर कर्मक्षय के हेत् परिग्रह परिमाण नाम के पाचवे प्रणवत के कथन करने को प्रतिज्ञा की है।
____सम्मत्त गुणरिणहारण-यह ग्रन्थ ग्वालियर निवासी साहु खेमसिह के ज्येष्ठ पुत्र कमल सिह के अनुरोध से बनाया गया है। इस ग्रन्थ में ४ सधि पार १०८ कड़वक दिये हुए है, उनकी अनुमानिक श्लोक सख्या तेरह सौ पचहत्तर के लगभग है । ग्रन्थ का श्राद्यन्त प्रशस्ति में साह कमल मिह के परिवार का परिचय दिया हुआ है। इसमें सम्यक्त्व के आठ अगी में प्रसिद्ध होने वाले प्रमुख पुरुषो की रोचक कथाए बहुत ही सुन्दरता से दी गई है ये कथाएं पाठको
का वर्णन दिया है। यह स्थान ही अग्रवाल जाति वा मून निवाग ग्थान था। यहा के निवासी देशभक्त वीर अग्नवाली ने यूनानी, शक, कुपाण, हरण और मुसलमान आदि विदेशी प्राक्रमण कारिपो में अनक शताब्दियो तक जमकर लोहा लिया था। मुहम्मद गौरी के आक्रमण के समय (मवत् १२५१) में वही प्राचीन राज्य पूर्णतया विनष्ट हो गया था। और यहा के निवासी अग्रवाल प्रादि राजस्थान और उत्तर प्रदेश आदि मे वस गए थे ।
कहा जाता है कि अनोहा मे अग्रमेन नाम के एक क्षत्रिय गजा थे । उन्ही की सन्तान परम्परा अग्रवाल कहलाते है । अग्नवाल गब्द के अनेक अर्थ है । किन्तु यहा उन अर्थो की विवक्षा नहीं है, यहा अग्रदंग के रहने वाले अर्थ ही विवक्षित है । अग्रवालो के १८ गोत्र बतलाये जातो। जिनमे गर्ग, गोयल, मिनल िन्दल, मिहल आदि नाम है। अग्रवालों में दो धर्मों के मानने वाले पाये जाते है। जैन अग्रवान योर वैष्णव अग्रवाल । श्री लोहाचार्य के उपदेश मे उस समय जो जैनधर्म में दीक्षित हो गय थे, वे जैन अग्रवाल कहलाये और शेष वैष्णव, परन्तु दोनो मे गेटी बटी व्यवहार होता है, रीति रिवाजो में कुछ समानता होते हा भी उनमे अपन-अपने धर्मपरक प्रवत्ति पाई जाती हे हॉ मभी अग्रवाल हिमा धर्म के मान्नेव ले है। उपजातियो का इतिवृत्त १. वी शताब्दी मे पूर्व का नही मिलता, हो सकता है कि कुछ उपजातियाँ पूर्ववर्ती रही हो। अग्नवाली की जन परम्पग के उल्लेख १२वी शताब्दी तक के मेरे देखने मे आए है। यह जाति खूब सम्पन्न रही है। लोग धर्मज्ञ, आचार्ग-प्ठ दयालु और जन-धन से स पन्न नथा राज्यमान्य रहे है । तोमर बंशी गजा अनगपाल तृतीय के राज श्रेष्ठी और ग्रामात्य अग्रवाल कुलावतश साह नट्टल ने दिल्ली मे आदिनाथ का एक विशाल सुन्दरतम मदिर बनवाया था, जिमका उ लेग कवि श्रीधर अग्रवाल द्वाग रचे गये पावपूगण मे किया गया है । यह पाश्व पुराण सवत् ११८६ मे दिल्ली में उक्त नट्टल साह के द्वारा बनवाया गया था उसकी संवत् १५७७ को लिखित प्रति आमेर मडार मे सुरक्षित है । अग्रवालो द्वारा अनेक मन्दिरो का निर्माण तथा ग्रन्थों की रचना और उनकी प्रतिलिपि करवाकर साधुओ, भट्टारको आदि को प्रदान करने के अनेक उल्लेख मिलते है। इसमें इस जाति की
सम्पन्नता धनिष्ठा और परोपकारवृत्ति का परिचय मिलता है। हाँ, इनमे शासकवृत्ति अधिक पाई जाती है। १. लिपि सवत् १४४८ वष फाल्गुण वदि १ गुगै दिने स्रावग (श्रावक) लप्मण लक्ष्मण कभ्मक्षय विनावा (शा) र्थ लिखित । आमेर भडार
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन हतिहास-भाग २
को अत्यन्त सुरुचिकर और सरस मालूम होती हैं प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि क्षेमसिंह का कूल अग्रवाल और गोत्र गोयल था उनकी पत्नी निउरादे से दो पुत्र हुए। कमलसिंह और भोजराज, कमल सिंह विज्ञान कला कुशल और बुद्धिमान, देव शास्त्र और गुरु का भक्त थ। इसकी भार्या का नाम 'सरासइ' था, उससे मल्लिदास नाम का पुत्र हा था। और इनके लघु भ्राता भोजराज की पत्नी देवइ से दो पुत्र चन्द्रसेन और देवपाल नाम के हुए थे । ग्रन्थ को प्रथम संधि में १७वें कडवक से स्पष्ट है कि कमलसिह ने भगवान आदिनाथ की ग्यारह हाथ की ऊँची एक विशाल मूर्ति का निर्माण राजा इंगरसिंह के राज्यकाल में कराया था, जो दुर्गति के दुःखों की विनाशक, मिथ्यात्व रूपी गिरीन्द्र के लिये वज्र समान, भव्यों के लिये शुभगति प्रदान करने वालो, दु:ख, रोग, शोक की नाशिका थी-जिसके दर्शन चिन्तन से भव्यों की भव बाधा सहज ही दूर हो जाती थी। इस महत्वपूर्ण मूर्ति को प्रतिष्ठा कर कमलसिंह ने महान पुण्य का संचय किया था।
"जो देवहिदेव तित्थंकरु, प्राइणाहु तित्थोयसुहंकरु । तह पडिमा दुग्गइणिण्णासणि, जा मिच्छत्त-गिरिदं-सरासणि। जापुणु भन्वहसुहगइ-सासणि, जामहिरोय-सोय-दुहु-णासणि । सा एयारहकर-प्रविहंगी, काशवियणिरूवमप्रइतुगी। प्रगरिणयप्रणपडिमकोलक्खइं, सरगरुताह गणणजइअक्खइ।
करि वि पयि? तिलउ पुणु दिण्णउ, चिरुभवि पविहिउ कलिमलु-छिण्णउ ॥" तव कमलसिंह ने चतुर्विधि सघ की विनय की थी। सम्यक्त्व के अंगों में प्रसिद्ध होने वाले पुरुषों की कथाओं का प्राधार आचार्य सोमदेव का यशस्तिलक चम्पू का उपासकाध्ययन रहा प्रतीत होता है । कवि ने इस ग्रन्थ की रचना सं० १४६२ में की थी।
"चउदह सय बाणउ उत्तरालि, वरिसह गय विक्कमराय कालि। वक्खयत्तु जि जणवय समक्खि, भद्दव मासम्मि स-सेयपक्यि ।
पुण्णमिदिणिकुजवारे समोइ, सुहयारे सुहणामें जणोइ ।" सम्मइजिणचरिउ-इसमें १० सर्ग और २४६ कडवक हैं, जिसमें जैनियों के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर का जीवन-परिचय अंकित किया गया है । कवि ने इस ग्रन्थ के निर्माण करने को कथा बड़ी रोचक दी है। ब्रह्म खेल्हाने कवि से ग्रन्थ बनाने की स्वयं प्रेरणा नहीं की, क्योंकि उन्हें सन्देह था कि शायद कवि उनकी अभ्यर्थना को स्वीकार न करे । इसी से उन्होंने भट्टारक यश:कीति द्वारा कवि को ग्रन्थ बनाने की याद दिलाने का प्रयत्न किया क्योंकि उन्हें विश्वास था कि कवि भट्रारक यशःकीति की बात को टाल नहीं सकते । भ० यशःकीति ने हिसार निवासी साहू तोसउ की दानवीरता, साहित्य रसिकता, और धर्म निष्ठता का परिचय कराते हुए उनके लिये 'सम्मइ जिनचचरिउ' के निर्माण करने का निर्देश किया। कवि ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए उसे स्वीकृति किया। इससे ब्रह्मचारी खेल्हा को हर्प होना स्वाभाविक है । प्रस्तुत ब्रह्म खेल्हा हिसार निवासी अग्रवाल वंशी गोयल गोत्रीय साहूतोसउ का ज्येष्ठ पुत्र था। उसका विवाह कुरुक्षेत्र के तेजा साहू की जालपा पत्नी से उत्पन्न खीमी नाम की पुत्री से हुआ था। उनके कोई सन्ता, न थी। अतः उन्होंने अपने भाई के पुत्र हेमा को गोद ले लिया, और गृहस्थी का सब भार उसे सौंपकर मुनि यश:कीति से अणुव्रत ले लिये। उसी समय से वे ब्रह्म खेल्हा के नाम से पुकारे जाने लगे। वह उदार, धर्मात्मा और गुणज्ञ थे और संसार देह-भोगों से उदासीन थे।
___ उन्होंने ग्वालियर के किले में चन्द्रप्रभ भगवान की एक ग्यारह हाथ उन्नत विशाल मूर्ति का निर्माण कराया।
ता तम्मि खणि बंभवय-भार भारेण सिरि अयरवालंकवंसम्मि सारेण । संसार-तण-भोय-णिविष्णचित्तण, वरधम्म भाणामएणव तित्तण। खेल्हाहिहाणेण गमिऊण गुरुतेण जसकित्ति विण्णत्त मंडिय गुणेहेण । भो मयणदावग्गिउल्हवरणवणदाण, संसार-जलरासि-उत्तार-वर जाण ।
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६हं
१५वी, १६वी, १७वी और १८वी शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि
श्रम्हहं पसाएणभव- दुह कयंतस्स ससिपह जिणेदस्स पडिमा विसुद्धस्स । काराविया मई जि गोवायले तुंग, उडुचावि णामेण तित्थम्मि सुहसंग । खेत्हा ने उस समय अपनी त्यागवृत्ति वा क्षत्र बढ़ा लिया था और ग्यारह प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्राव " के रूप में आत्मसाधना करने लगे थे ।
ग्रन्थ की प्राद्यन्त प्रशस्ति में कवि ने तोसउ साहु के वश का विस्तृत परिचय दिया है जिसमें उनके परि वार द्वारा सम्पन्न होने वाले धार्मिक कार्यों का परिचय मिल जाता है । कविने ताप साहू का उल्लेख करते हुए उन्हें जिन चरणों का भक्त, पंचइन्द्रियो के भोगो से विरक्त, दान देन में तत्पर, पाप से शक्ति-भय-भीत और तत्त्वचिन्तन में सदा निरत बतलाया है। साथ ही यह भी लिखा है उसकी लक्ष्मी दुखी जनो के भरण-पोषण में काम प्राती थी । वाणी श्रुत का प्रवधारण करती थी । मस्तक जिनेन्द्र को नमस्कार करन में प्रवृत्त होता था । वह शुभमती था, उसके सभापण में कोई दोष नही होता था । चिन तत्त्व विचार में निमग्न रहता था और दोनों हाथ जिन पूजा-विधि से सन्तुष्ट रहते थे ।
जो णिच्चं जिण पाय कंज भसलो जो णिच्च दाणेरदो । जो पंचेदिय भोय-भाव-विरदो जो चितए संहिदो । जो संसार महोहि पावन भिदो जो पावदो संकिदो । एसो णंदउ तोसडो गुणजुदो सत्तत्थ वेईचिरं ॥२ लच्छी जस्स दहीजणाणभरणे वाणी सुयं धारिणे । सीस सन्नई कारणे सुभमई दोसं ण संभासणे । चित्तं तव विधारणे करजुयं पूया - विही संददं । सोज्यं तोसउ साहु एत्थ धवलो संणदश्रो भूयले || ३ वील्ला, जो जैनधर्मी निष्पाप तथा दिल्ली के बादशाह
हिसार के अग्रवाल वशी साहु नरपति के पुत्र साहु फीरोजशाह तुगलक द्वारा सम्मानित थे ।
धाधिप सहजपाल ने, जो सहदेव का पुत्र था, जिनेन्द्रमूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी। साहू सहजहाल के पुत्र ने गिरनार की यात्रा का सघ भी चलाया था, और उसका सब व्यय भार स्वयं वह्न किया था। ये सब ऐतिहा सिक उल्लेख महत्वपूर्ण है। और अग्रवालों के लिये गौरवपूर्ण है ।
कवि ने प्रशस्ति में काटा संघ की भट्टारक परम्परा का इस प्रकार उल्लेख किया है— देवमेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावमेन, सहस्र कीति, गुणकीनि (म० १४६८ से १४० १ ) यश. कीर्ति १४८ से १५१०, मलयकीर्ति १५०० से १५२५, गुणभद्र १५२० से १५४० ) ।
कवि अपने से पूर्ववर्ती निम्न साहित्यकारों का उल्लेख किया है - चउमुह, स्वयंभू, पुण्यदन्त श्रीर वीर कवि । कवि ने इस ग्रन्थ से पूर्व रची जानेवाली इन रचनाओं का नामोल्लेख किया है -
पासणाहचरिउ, मेहेसरचरिउ, सिद्धचक्क माहप्प, वलहद्दचरिउ, सुदंसणचरिउ श्रौर धणकुमारचरिउ ।
सुकौशलचरिउ - मे ४ मधियां और ७४ कडवक है । पहली दो संधियों में कथन क्रमादि की व्यवस्था व्यक्त करते हुए तीसरी मधि में चरित्र का चित्रण किया है। चौथी सधि में चरित्र का वर्णन करते हुए उच्चकोटी का काव्यमय वर्णन किया है । किन्तु शैली विषयवर्णनात्मक ही है । कवि ने इस खण्ड-काव्य में सुकौशल की जीवनगाथा को प्रति किया है कथानक इस प्रकार है.
इक्ष्वाकु वंश में कीर्तिधर नाम के प्रसिद्ध राजा थे । उन्हें उल्कापात के देखने से वैराग्य हो गया था, अतएव वे साधुजीवन व्यतीत करना चाहते थे । परन्तु मंत्रियों के अनुरोध से पुत्रोत्पत्ति के समय तक गृही जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया। कई वर्षो तक उनके कोई सन्तान न हुई । उनकी रानी सहदेवी एक दिन जिन मन्दिर गई। वहां जिन दर्शनादि क्रिया सम्पन्न कर उसने एक मुनिराज से पूछा कि मेरे पुत्र कब होगा ? तब साधु ने कहा की तुम्हारे एक पुत्र अवश्य होगा, परन्तु उसे देखकर राजा दीक्षा ले लेगा, और पुत्र भी दिगम्बर साधु को देखकर साधु बन जायगा । कुछ समय पश्चात् रानी के पुत्र हुम्रा । रानी ने पुत्रोत्पत्ति को गुप्त रखने का बहुत प्रयत्न किया;
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
विन्तु राजा को उसका पता चल गया और राजा ने तत्काल ही राज्य का भार पुत्र को सोंप कर जिन दीक्षा ले ली। राजा ने पुत्र के शुभ लक्षणो को देखकर उसका नाम सुकौशल रक्खा। रानी को पति-वियोग का दुःख असह्य था। साथ ही पुत्र के भी साधु हो जाने का भय उसे प्रातकित किये हुए था । युवावस्था में उसका विवाह ३२ राज कन्याओं से करदिया गया और भोग विलासमय जीवन विताने लगा। उसे महल से बाहर जाने का कोई अधिकार न था। माता सद। इस बात का ध्यान रखती थी कि पुत्र कही किसी मुनि को न देख ले। अतएव उसने नगर में मुनियों का पाना निपिद्ध कर दिया था।
एक दिन कुमार के मामा मुनि कीतिधवल नगर में आये, किन्तु उनके साथ अच्छा व्यवहार न किया गया। जब राजकुमार को यह ज्ञात हा, तो उसने राज्य का परित्याग कर उनके समीप ही साधु दीक्षा लेकर तप का अनप्ठान करने लगा। माता सहदेवी पुत्र वियोग से अत्यन्त दुखी हई ओर पार्त परिणामो से मर कर व्याघ्री हई।
एक दिन उसने अत्यत भूखी होने के कारण पर्वतपर ध्यानस्थ मुनि सुकौशल को ही खा लिया। सुकौशल ने समताभाव से कर्म कालिमा नष्ट कर स्वात्मलाभ किया। इधर मुनि कातिधवल ने उस व्याघ्री को उपदेश दिया, जिसे सुनकर उसे जाति स्मरण हो गया, और अन्त मे उसने सन्यास पूर्वक शरीर छोड़ा और स्वर्ग प्राप्त किया, कीर्तिधवल भी प्रक्षय पद को प्राप्त हुए । कविने यह ग्रथ अग्रवाल वशी साहू पाना के पुत्र रणमल के अनुरोध से बनाया था।
कवि ने इस ग्रन्थ को वि० स० १४६६ मे माघ कृष्ण दशमी के दिन ग्वालियर में राजा डुगरमिह के राज्य में समाप्त किया। सावय चरिउ (सम्मत्तकउम इ)
इस ग्रन्थ में छह सधिया है, जिनमे थावकाचारका कथन करते हए सम्यवतोत्पादक सुन्दर कथानो का सयोजन किया है । ग्रथ की अन्तिम पुग्पिका में 'सम्मत्त क उम्र का नाम ग्रन्थ कार ने स्वय दिया है :
इस सिरि सावयरिए मदसण पमूह मुद्ध गुण भरिए मिरि पंदित र इधु वण्णिए सिरि महाभव्य सेउ साह सुय साहू संधाहिव कुसराज अणुमण्णिए सम्मत्त उमुट नाम छट्टो सधि परिच्छेग्रो ममनो।"
ग्रन्थ के आदि में कवि ने-'तह सावय चरिउ भणहुमत्थ' वाक्य द्वारा थावकाचार कहने का उल्लेख किया है। इससे स्पप्ट है कि कर्ता ने ग्रन्थ के दोनो नाम दिये है। यद्यपि ग्रन्थ में थावकाचार का कोई खास कथन नही किया, किन्तु सम्यक्त्वोत्पादन सुन्दर आठ स्थाए अक्ति की है। ये कथाएं मस्कृत की सम्यक्खकौमुदी मे भी ज्यों की त्यो पाई जाती है। उन में भाषा-भेद अवश्य विद्यमान है।
साह टेक्कणि ने इसके बनाने की कवि से प्रेरणा की थी। और वही ग्वालियर के गोलाराडान्वधी सेउ साह के पत्र वशराज को कवि के समीप ले गया और उनका कवि से परिचय कराया। अतएव वह ग्रन्थ रचना में प्ररक है। पौर काव रइध ने कशराज की अनुमति से ग्रन्थ की रचना की है। कुशराज मूलमघ के अनुयायी थे। इसलिये कवि ने मूलसघ के भट्टारक पद्मनन्दी शुभचन्द्र और जिनचन्द्र का उल्लेख किया है।
-जैन ग्रन्थ प्रशरित० भा० २, पृ० ७२
१. सिरिविकाम समयतगलि बट्टनर दुम्ममविसमकालि ।
चउदह सय मवक्छरद अण्ण, छण्णव अहिय पुण जाय पुण्ण । माह दुजि किण्ह दहमी दिणम्मि, अगगहु रिक्वि पटिय स कम्मि। २. मूलमघ उज्जोयण दिणयरु, पामगदि मिरि बुहयण मुरतर । तामु पट्टिग्यगत्तयधारउ सजायउ, मुहचदु भटारउ । पुग्ण उवण्णु सिंहामण मडणु, मिच्छावाइ वर-मड-खडण । जिग मामगा कारणरण पचाणगग गादिसघ पदिय तव मागगग । सद्द बभरयगोह पयोगि हि, दिव्यवारिण उप्पाइय जगदिहि । सरसइ गच्छे गच्छ सत्याहि उ, बाल बंभयागे सज साहिउ । सिरि जिणच भडारउ मुगवइ, तहु पय-पयरुह वदिवि कइवइ।
-सावयचरिउ प्रशस्ति।
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७१
१५वीं, १६वीं, १७वीं, भौर १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
कुशराज ग्वालियर के निवासी थे । उन्होंने राजा डुगरसिंह के पुत्र कीर्तिसिंह के राज्यकाल में ध्वजारों से अलंकृत जिनमंदिर का निर्माण किया था वह लोभ रहित और पर नारी से पराङ्मुख था । दुःखी दरिद्रीजनों का सपोषक था। उक्त सावयचरिउ (सम्यक्त्वकौमुदी) उसी की अनुमति से रचागया था । इसो से प्रत्येक संधि पुष्पिका वाक्य में-"संघाहिवइ कसराज अणमण्णिए' वाक्य के साथ उल्लेख किया गया हैं। इससे सावयचरिउ की रचना सं० १५१० के बाद हुई जान पड़ती हैं, क्योकि कीतिसिह सं० १५१० के बाद गद्दी पर बैठा था।
___ 'पासणाहपुराण या पासणाहचरिउ' में ७ सन्धियाँ और १३६ के लगभग कडवक हैं, जिनमें जैनियों के तेवीसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ का जीवन-परिचय दिया हया है। पार्श्वनाथ के जीवन-परिचय को व्यक्त करने वाले अनेक ग्रंथ प्राकृत, संस्कृत और अपभ्र श भाषा में तथा हिन्दी में लिखे गये हैं। परन्तु उनसे इसमें कोई खास विशेषता ज्ञात नही होती। इस ग्रन्थ की रचना जो पुर (दिल्ली) के निवासी साह खेऊ या खेमचन्द की प्रेरणा से की गई है इनका वंश अग्रवाल और गोत्र एडिल था। मेमचंद के पिता का नाम पजण साहु, और माता का नाम बील्हादेवी था किन्तु धर्मपत्नी का नाम धनदेवी था उसमे चार पुत्र उत्पन्न हा थे, सहमराज, पहराज, रघपति, और, होलिवम्म । इनमें सहमराज ने गिरनार की यात्रा का मंघ चलाया था। माह मेमचन्द सप्त व्यसन रहित और देवशास्त्र गुर के भक्त थे। प्रशस्ति में उनके परिवार का विस्तृत परिचय दिया हुआ है। अतएव उक्त ग्रथ उन्ही के नामांकित किया गया है । ग्रन्थ की पाद्यन्त प्रगस्ति वढी ही महत्वपूर्ण है, उससे तात्कालिक ग्वालियर की सामाजिक धामिक, राजनैतिक परिस्थितियों का यथेष्ट परिचय मिल जाता है। और उसमे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उस समय ग्वालियर में जैन समाज का नैतिक स्तर बहत ऊंचा था, और वे अपने कर्तव्य पालन के साथ-साथ अहिमा, परोपकार और दयालुता का जीवन में प्राचरण करना श्रेष्ठ मानते थे।
ग्रन्थ बन जाने पर साहू खेमचन्द ने कवि रइध को द्वीपातर से आये हुए विविध वस्त्रों और प्राभरणादिक से सम्मानित किया था, और इच्छित दान देकर मंतृप्ट किया था।
'बलहद्दचरिउ' (पउमत्ररिउ) में ११ संधियाँ और २४० कडवक हैं जिनमें बलभद्र, (रामचन्द्र), लक्ष्मण और सीता आदि की जीवनगाथा अंकित की गई है, जिसकी श्लोक संख्या साढ़े तीन हजार के लगभग है। ग्रन्थ का कथानक बड़ा ही रोचक और हृदयस्पर्शी है। यह १५वी शताब्दी की जैन रामायण है। ग्रथ की शैली सीधी और सरल है, उसमें शब्दाडम्बर को कोई स्थान नहीं दिया गया, परन्तु प्रसगवश काव्योचित वर्णनों का सर्वथा अभाव भी नहीं है । राम की कथा बड़ी लोकप्रिय रही है । इससे इस पर प्राकृत संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी में अनेक ग्रथ विविध कवियों द्वारा लिखे गए हैं।
यह ग्रन्थ भी अग्रवालवशी साहु बाटू के सुपुत्र हरसी साहु की प्रेरणा एवं अनुग्रह मे बनाया गया है । साह हरसी जिन शासन के भक्त और कषायों को क्षीण करने वाले थे। आगम और पुराण-ग्रन्थों के पठन-पाठन में समर्थ, जिन पूजा और सुपात्रदान में तत्पर, तथा रात्रि और दिन में कायोत्सर्ग में स्थित होकर आत्म-ध्यान द्वारा स्व-पर के भेद-विज्ञान का अनुभव करने वाले, तथा तपश्चरण द्वारा शरीर को क्षीण करने वाले धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे। आत्मविकास करना उनका लक्ष्य था। ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति में हरसी साहू के कुटुम्ब का पूरा परिचय दिया हुआ है। ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है।
_ 'मेहेसरचरिउ' में २३ संधियाँ और ३०४ कडवक हैं। जिनमें भरत चक्रवर्ती के सेनापति जयकुमार और उनकी धर्मपत्नी सुलोचना के चरित्र का सुन्दर चित्रण किया गया है। जयकुमार और सुलोचना का चरित बड़ा ही, पावन रहा है । ग्रन्थ की द्वितीय-तृतीय संधियों में प्रादि ब्रह्मा-ऋषभदेव का गृहत्याग, तपश्चरण और केवलज्ञान की प्राप्ति, भरत की दिग्विजय, भरत बाहुबलि युद्ध, वा हुबलि का तपश्चरण और कैवल्य प्राप्ति आदि का कथन दिया हुआ है । छठवीं सन्धि के २३ कडवकों में सुलोचनाका स्वयम्बर, सेनापति मेघश्वर (जयकुमार) का भरत चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीतिके साथ युद्ध करने का वर्णन किया है । ७वी सन्धि में सुलोचना और मेघेश्वर के विवाह का कथन दिया हुआ है । और ८वी से १३वीं संधि तक कुबेर मित्र, हिरण्यगर्भ का पूर्व भव वर्णन तथा भीम भट्टारक का निर्वाण गमन, श्रीपाल चक्रवर्ती का हरण और मोक्ष गमन, एवं मेघेश्वर का तपश्चरण, निर्वाण गमन आदि का
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
सुन्दर कथन दिया हया है। ग्रन्थ काव्य-कला की दृष्टि से उच्चकोटि का है। ग्रन्ध में कवि ने दुवई, गाहा, चामर, पत्ता, पद्धडिया, समानिका और मत्तगयंद आदि छन्दों का प्रयोग किया है। रसों में शृगार, वीर, बीभत्स और शान्त रस का, तथा रूपक उपमा और उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों की भी योजना की गई है। इस कारण ग्रन्थ सरस और पठनीय बन गया है।
कवि ने ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती निम्न कवियों और उनकी कृतियों का उल्लेख किया है। कवि चक्रवर्ती धीरसेन, देवनन्दी अपर नाम पूज्यपाद (ईस्वी सन् ४७५ से ५२५ ई०) जैनेन्द्र व्याकरण, वज्रमेन और उनका पड़दर्शन प्रमाण नाम का जैन न्याय ग्रन्थ का, रविपेण (वि० सं०७३४) तथा उनका पद्मचरित, पुन्नाटमंघी जिनसेन (वि० सं०८४०) और उनका हरिवंश, महाकवि स्वयभू, चतुमख तथा पुष्पदन्त, देवमेन का महेस रचरिउ (जयकुमारसुलोचना चरित) दिनकरसेन का अनंगचरित ।
ग्रन्थ की पाद्यन्त प्रशस्तियों में ग्रन्थ रचना में प्रेरक ग्वालियर नगर के सेठ अग्रवाल कलावतंश साह खेऊ या वेसिह के परिवार का विस्तत परिचय दिया हया है। और ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि के प्रारम्भ में कवि ने संस्कृत श्लोको में प्राश्रयदाता उक्त साह की मंगल कामना की है। द्वितीय संधि के प्रारम्भ का निम्न पद्य दृष्टव्य है।
तीर्थेशो वषभेश्वरो गणनुतो गौरीश्वरो शंकरो, प्रादीशो हरिणंचितो गणपतिः श्रीमान्युगादिप्रभ । नाभेयो शिववाद्धिवर्धन शशिः कैवल्यभाभासरः,
क्षेमाख्यस्य गुणांन्वितस्य सुमतेः कुर्याच्छिवं सो जिनः ।। में ऋषभदेव के जो विशेषण प्रयुक्त हए हैं वे जहाँ उनकी प्राचीनता के द्योतक हैं, वहाँ वे ऋपभदेव और शिव की सादृश्यता की झांकी भी प्रस्तुत करते है । ग्रन्थ सुन्दर है और इसे प्रकाश में लाना चाहिये।
रिट्ठणेमिचरिउ' या 'हरिवंश पुराण' ग्रन्थ में १४ सन्धियाँ और ३०२ कडवक हैं तथा १६०० के लगभग पद्य होंगे, जिनमें ऋपभ चरित, हरिवंशोत्पत्ति, वसुदेव और उनका पूर्वभव कथानक, बन्धु-बान्धवां से मिलाप, कस बलभद्र और नारायण के भवों का वर्णन, नारायण जन्म, कंसवध, पाण्डवों का जुए में हारना द्रोपदी का चीर हरन, पाण्डवों का अज्ञातवास, प्रद्यम्न को विद्या प्राप्ति और श्रीकृष्ण से मिलाप, जरासंध वध, कृष्ण का राज्यादि सुखभोग नेमिनाथ का जन्म, बाल्यक्रीडा यौवन, विवाहमें वैराग्य, दीक्षा तथा तपश्चरण केवलज्ञान अोर निर्वाण प्राप्ति आदि का कथन दिया है। ग्रन्थ में जैनियों के बाईसवें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ को जीवन-घटनाओं का परिचय दिया हुया है । नेमिनाथ यदुवंशी क्षत्री थे और थे कृष्ण के चचेरे भाई । उन्होंने पशुप्रों के वधन खुलवाए अोर संसार को असारता को देख, वैरागी हो तपश्चरण द्वारा प्रात्म-शोधन किया, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बने, और जगत को आत्महित करने का मुन्दरतम मार्ग बतलाया । उनका निर्वाण स्थान ऊर्जयन्त गिरि या रैवगिरि है जो आज भी नेमिनाथ के अतीत जीवन की झांको को प्रस्तुत करता है। तीर्थकर नेमिकुमार की तपश्चर्या और चरण रज से वह केवल पावन ही नहीं हुआ, किन्तु उसकी महत्ता लोक में आज भी मौजूद है।
इस ग्रन्थ की रचना योगिनीपुर (दिल्ली) से उत्तर की ओर वसे हुए किसी निकटवर्ती नगर का नाम था जो पाठ की अशुद्धि के कारण ज्ञात नहीं हो सका । ग्रन्थ की रचना उस नगर के निवासी गोयल गोत्रीय अग्रवाल वंशी महाभव्य साहु लाहा के पुत्र संघाधिप साहु लोणा की प्रेरणा से हुई है । ग्रन्थ की आद्यन्त प्रशस्तियों में साह लोणा के परिवार का संक्षिप्त परिचय कराया गया है।
कवि ने ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती विद्वानों और उनके कुछ ग्रन्थों का उल्लेख किया है, देवनन्दि (पूज्यपाद) जैनेन्द्र व्याकरण, जिनसेन (महापुराण) रविषेण (जैन रामायण-पद्मचरित) कमलकीति और उनके पट्टधर शुभचन्द्र का नामोल्लेख है। जिनका पट्टाभिषेक कनकगिरि वर्तमान सोनागिरि में में हुआ था । साथ ही कवि
१. कमल कित्ति उतम खमधारउ, भव्वह-भव-अंबोरिणहि-तारउ ।
तस्स पट्ट करणयट्ठि परिछिउ, सिरि-सुहचंद मु-तव-उक्कंट्ठिउ॥
हरिवंश पु०प्र०
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं १६वीं १०वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
४७३
ने अपने रिट्ठमिचरिउ से पहले बनाई हुई अपनी निम्न रचनाओं के भी नाम दिये हुए हैं। महापुराण, भरत मेनापति चरित ( मेघेश्वर चरित) जसहरचरिउ ( यशोधरचरित) वित्तसार, जीवंधर चरिउ और पासचरिउ का नामोल्लेख किया है । ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया, इसलिए यह निश्चित बतलाना तो कठिन है कि यह ग्रन्थ कब बना ? फिर भी अन्य सूत्रों से यह अनुमान किया जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम की १५वीं शताब्दी के अन्तिम चरण या १६वीं के प्रथम चरण मे रचा गया है ।
प्रस्तुत 'धणकुमार चरिउ में चार सन्धियां और ७४ कडवक हैं। जिनकी श्लोक संख्या ८०० श्लोकों के लगभग है जिनमें धनकुमार की जीवन-गाथा अंकित की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ को रचना प्रारौन जिला ग्वालियर निवासी जैसवाल वंशी साहु पुण्यपाल के पुत्र साहु भुल्लण की प्रेरणा एवं अनुरोध से हुई है। अतएव उक्त ग्रन्थ उन्हीं के नामांकित किया गया है । ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति में साहु भुल्लण के परिवार का विस्तृत परिचय कराया गया है । इस ग्रन्थ की रचना कब हुई ? यह ग्रन्थप्रशस्ति पर से कुछ ज्ञात नहीं होता; क्योंकि उसमें रचना काल दिया हुआ नहीं है । किन्तु प्रशस्ति में इस ग्रन्थ के पूर्ववर्ती रचे हुए ग्रन्थों के नामों में 'णंमिजिणिद चरिउ (हरिवंश (पुराण) का भी उल्लेख है इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ उसके बाद बनाया गया है ।
'जसहर चरिउ' में ४ सन्धिया और १०४ कडवक हैं जिनकी श्लोक संख्या ६७७ के लगभग है । ग्रन्थ में योधेय देशके राजा यशोधर र चन्द्रमती का जीवन परिचय दिया हुआ है । ग्रन्थ का कथानक सुन्दर और हृदयग्राही है और वह जोव दया की पापक वार्तानों से ओत-प्रोत है । यद्यपि राजा यशोधर के सम्बंध में संस्कृतभाषा में अनेक चरित ग्रन्थ लिखे गए हैं जिनमें आचार्य सोमदेव का 'यशस्तिलक चम्पू' सबसे उच्चकोटि का काव्य-ग्रन्थ है परन्तु अपभ्रंश भाषा का यह दूसरो रचना है प्रथम ग्रन्थ महाकवि पुष्पदन्त का है । यद्यपि भ० अमरकीर्ति ने भी 'जसहर चरिउ' नाम का ग्रन्थ लिखा था; परंतु वह अभी तक अनुपलब्ध है । ऐ० प० सरस्वती भवन व्यावर में इसकी सचित्र प्रति विद्यमान है ।
इस ग्रन्थ की रचना भट्टारक कमलकीर्ति के अनुरोध से तथा योगिनीपुर (दिल्ली) निवासी अग्रवाल वंशी साहु कमलसिंह के पुत्र साहु हेमराज को प्रेरणा से हुई है । अतएव ग्रन्थ उन्हीं के नाम किया गया है। उक्त साहु परिवार ने गिरनार जी को तीर्थयात्रा का संघ चलाया था । ग्रन्थ की आद्यन्त प्रशस्ति में साहु कमलसिंह के परिवार का विस्तृत परिचय कराया गया है । कवि ने यह ग्रन्थ लाहड़पुर के जोधा साहू के विहार में बंटकर बनाया है, और उसे स्वयं 'दयारसभर गुणपवितं ' - पवित्र दयारूपी रस से भरा हुआ बतलाया है ।
'अणथमी कहा' में रात्रिभोजन के दोषों और उससे होने वाली व्याधियों का उल्लेख करते हुए लिखा है। कि दो घड़ी दिन के रहने पर श्रावक लोग भोजन करें; क्योंकि सूर्य के तेज का मंद उदय रहनेपर हृदय कमल सकुचित हा जाता है अतः रात्रि भोजनके त्याग का विधान धार्मिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से किया गया है। जैसा कि उसके निम्न दो पद्यों से प्रकट है
:
" जि रोय दलद्दिय दीण प्रणाह, जि कुट्ठ-गलिय कर करण सवाह । दुहग्ग जि परियणु बग्गु प्रणेह, सु-रयणिहि भोयण फलु जि मुणेहु । घड़ी दुइ वासरु थक्कइ जाम, सुभोयण सावय भुंजहि ताम । दिवायरु तेज जि मंदउ होइ, सकुच्चर चित्तहु कमलु जिब सोइ ।"
कथा रचने का उद्देश्य भोजन सम्बन्धो असंयम से रक्षा करना है, जिससे ग्रात्मा धार्मिक मर्यादाओं का पालन करते हुए शरीर को स्वस्थ बनाये रखे ।
'सिद्धांतार्थसार' का विषय भी सैद्धांतिक है और मपभ्रंश के गाथा छंद में रचा गया है। इसमें सम्यग्दर्शन जीव स्वरूप, गुणस्थान, व्रत, समिति, इंद्रिय निरोध आदि प्रावश्यक क्रियाओं का स्वरूप, अट्ठाईस मूलगुण, प्रष्टकर्म द्वादशांगत, लब्धिस्वरूप, द्वादशानुप्रक्षा दशलक्षणधर्म और ध्यानों के स्वरूप का कथन दिया गया है। इस ग्रन्थ की रचना वणिकवर श्रेष्ठी खेमसी साहु या साड्डु खेमचन्द्र के निमित्त की गई है । परन्तु खेद है कि उपलब्ध ग्रन्थ
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
का अंतिम भाग खंडित है । लेखक ने कुछ जगह छोड़कर लिपि पुष्पिका की प्रतिलिपि कर दी है । ग्रन्थ के शुरू में कवि ने लिखा है कि यदि मैं उक्त सभी विषयों के कथन में स्खलित हो जाऊं तो छल ग्रहण नहीं करना चाहिए। यह ग्रन्थ भी तोमर वंशी राजा कीतिसिह के राज्य में रचा गया है।
'वत्तसार' में छह सर्ग या अंक (अध्याय) हैं। ग्रन्थ का अन्तिम पत्र त्रुटित है जिसमें ग्रन्थकार की प्रशस्ति उल्लिखित होगी। यह ग्रन्थ अपभ्रंश के गाथा छंद में रचा गया है, जिनकी संख्या ७५० है। बीच बीच में संस्कृत के गदय-पदयमय वाक्य भी ग्रन्थांतरों से प्रमाण स्वरूप में उद्धृत किये गये है। प्रथम अधिकार में सम्यग्दर्शन का सन्दर विवेचन है, और दूसरे अधिकार में मिथ्यात्वादि छह गुणग्थानों का स्वरूप निदिष्ट किया है। तीसरे अधिकार में शेष गुण-स्थानों का और कर्मस्वरूप का वर्णन है। चौथे अधिकार में बारह भावनामों का कथन दिया हया है। पाँचवें अंक में दशलक्षण धर्म का निर्देश है और छठवें अध्याय में ध्यान की विधि और स्वरूपादि का सुन्दर विवेचन किया गया है। ग्रन्थ सम्पादित होकर हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाश में पाने वाला है।
पृण्णाम व कहा कोश' में १३ मंधियां दी हुई है जिनमें पुण्य का आस्रव करने वाली सुन्दर कथाओं का संकलन किया गया है । प्रथम सन्धि में मम्यक्त्व के दोपों का वर्णन है, जिन्हें सम्यक्त्वी को टालने की प्रेग्णा की गई है। दूसरी संधि में मम्यक्त्व के निम्नांकितादि आट गुणों का स्वरूप निदिष्ट करते हए उनमें प्रसिद्ध होने वाले अंजन चोर का चित्ताकर्षक कथानक दिया हया है तीसरी मंधि में निकांक्षित और निविचिकित्मा इन दो अगो में प्रसिद्ध होत वाले अनन्तमती और उदितोदय गजा की कथा दी गई। चोथी मंधि में प्रमुढापिट प्रोर स्थितिकरण अग में रेवती रानी और श्रेणिक गजा के पुत्र वारिपेण का कथानक दिया हया है। पांचवी मन्धि में उपगहन अंग का कथन करते हए उसमें प्रसिद्ध जिनभक्त मेठ की कथा दी हुई है। मातवी सन्धि में प्रभावना अग का कथन दिया हया है। पाठवीं संधि में पूजा का फल, नवमी सधि में पंननमस्कार मत्र का फल, दशवी धि में आगमभक्ति का फल पार ग्यारहवी संधि में मती सीता के शील का वर्णन दिया हुआ है। बाहरवी सन्धि में उपवास का फल ओर १३वी मधि में पात्रदान के फल का वर्णन किया है । इस तरह ग्रन्थ की ये सब कथाय बडी ही रोचक और शिक्षाप्रद है।
इस ग्रन्थ का निर्माण अग्रवाल कुलावतंस साह नेमिदास की प्रेरणा एव अनुरोध से हुआ है और यह ग्रन्थ उन्ही के नामाकित किया है। ग्रन्थ की पाद्यन्त प्रशस्तियों में नेमिदास और उनके कुटुम्ब का विस्तृत परिचय दिया हुआ है । और बतलाया है कि साहु नेमिदास जोइणिपुर (दिल्ली) के निवासी थे और साहु तोसउ के चार पुत्रों में में प्रथम थे । नेमिदाम श्रावक बातो के प्रतिपालक, शास्त्रस्वाध्याय, पात्रदान, दया और परापकार आदि मन कार्यो मे प्रवत्ति करते थे । उनका चित्त ममदार था ओर लोक में उनकी धार्मिकता और सुजनता का महज ही आभास हो जाता है, और उनके द्वारा अगणित मूर्तियों के निर्माण कराये जाने, मन्दिर बनवाने और प्रतिष्ठिादि महोत्सव सम्पन्न करने का भी उल्लेख किया गया है । साहु नेमिदास चन्द्रवाड के राजा प्रतापरुद्र से सम्मानित थे । वे सम्भवत: उम समय दिल्ली मे चन्द्रवाइ चले गए थे, और वहां ही निवास करने लगे थे उनके अन्य कटम्बी जन उस समय दिल्ली में ही रह रहे थे गजा प्रतापरुद्र चौहान वगी राजा रामचद्र के पुत्र थे, जिनका राज्य विक्रम सं० १४६८ में वहा विदयमान था । ग्रन्थ में उसका रचनाकाल दिया हुआ नही है, परन्तु उसकी रचना पन्द्रहवीं
- - - - - - -- -- -- - १. णिव पयावरुद्द सम्माणिउ-पुण्यामव प्रशस्ति। २. चन्दवाड के सम्बन्ध में लेखक का स्वतन्त्र लेग्य देखिए । सं० १४६८ में राजा रामचन्द्र के राज्य मे चन्द्रबाड में अमरकीति के पट कर्मोपदेश की प्रतिलिपि की गई थी, जो अब नागौर के भटाग्वीय शास्त्र भडार मे सरक्षित है। यथाअथ मवत्सर १४६८ वर्षे ज्येष्ठ कृपण पंचदश्यां शुक्रवासरे श्रीमच्चन्द्रपाट नगरे महाराजाधिराज श्रीराम चन्द देवराज्ये । तत्र श्री कुंदकुंदाचार्यान्वये श्री मूलमंघ गूजरगोष्ठि तिहुयनगिरिया साहु श्री जगसीहा भार्याः सोमा तयोः पुत्राः (चत्यागः) प्रथम उदेसीह (द्वितीय) अजैसीहि तृतीय पहराज चतुर्थ खाह्मदेव । ज्येष्ठ पुत्र उदेसीह भार्या रतो, तस्य त्रयोः पत्राः, ज्येष्ठ पूत्र देल्हा द्वितीय राम तृतीय भीखम ज्येष्ठ पुत्र देल्हा भार्या हिरो (तयोः) पुत्राः द्वयो: ज्येष्ठ पत्र हालू द्वितीय पुत्र अर्जुन ज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इदं षट्कर्मोपदेश लिखापितं ।।
" भग्नपष्ठि कटिग्रीवा सच्च दृष्टि रघो मुखं । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ॥ -नागौर भंडार
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७५
१५वी, १६, १७वी और १८वी शताब्दी के आचार्य भट्टारक और कवि
शताब्दी के अंतिम चरण में हुई जान पड़ती है । क्योकि उसके बाद मुस्लिम शासकों के हमलो से चन्दवाड की श्री सम्पन्नता को भारी क्षति पहुची थी ।
कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक सधि के प्रारम्भ में ग्रन्थ रचना मे प्ररक साहु नेमिदास का जयघोष करते हुए मंगल कामना की है। जैसा कि उसके निम्नपद्या स प्रकट है
प्रतापरुद्रनृपराज विश्रुतस्त्रिकालदेवाचं नवं चिता शुभा । नोक्तशास्त्रामृतपानशुद्धधीः चिरं क्षितो नन्दतु नेमिदासः || ३ सत्कवि गुणानुरागी श्रेयांन्निव पात्रदानविधिदक्षः । तोसउ कुलनभचन्द्रो नन्दतु नित्येव नेमिदासाख्यः || ४ | प्रकाशित है, उसे प्रकाश में लाना ग्रावश्यक है ।
ग्रन्थ अभी तक
'जीवधर चरिउ' में तेरह सधिया दी हुई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में दर्शनविशुद्धयादि पोडाकारण भावनाओं का फल वर्णन किया गया है । उनका फल प्राप्त करने वाने जीववर तीर्थकर की रोचक कथा दी गई है। प्रस्तुत जावधर स्वामी पूर्व विदेह क्षेत्र के अमरावती देश में स्थित गधर्वराउ (राज) नगर के राजा सीमवर बार उनकी पट्ट महिपी महादेवी के पुत्र थे । इन्होंने दर्शनविशुद्धयादि पोडश कारण भावनाओं का भक्तिभाव से चितन किया था, जिसके फलस्वरूप वे धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक तीर्थकर हुए। ग्रन्थ का कथा भाग बड़ा ही सुन्दर है । परन्तु ग्रंथ प्रति अत्यंत अशुद्धरूप में प्रतिलिपि की गई है जान पड़ता है । प्रतिलिपिकार पुरानी लिपि का अभ्यासां नहीं था । प्रतिलिपि करवा कर पुनः जाच भी नही की गई ।
इस ग्रंथ का निर्माण कराने वाले साहु कुन्थदास, जो सम्भवत ग्वालियर के निवासा थे । कवि ने इस ग्रन्थको उक्त साहुको श्रवण भूषण' प्रकट किया है। साथ ही उन्ह प्राचार्य चरण सवी, राप्त व्यसन रहित, त्यागी धवलकीति वाला, शास्त्रों के अर्थ को निरतर अवधारण करनेवाला और शुभ मतो बतलाते हुए उन्ह साहु हेमराज और मील्हा देवी का पुत्र बतलाया गया है । कवि ने उनके चिरंजाव होने का कामना भी की है जसा कि द्वितीय सि के प्रथम पद्म से ज्ञात होता है ।
'जो भत्तो सूरिपाए विसगसगसया जि विरता स एयो । जो चाई पुत्त दाणे ससिपह धवली कित्ति वल्लिकु तेजो। जो नित्यो सत्य-प्रत्थे विसय सुहमई हेमरायरस ताम्रो । सो मोल्ही अंग जाओ 'भवदु इह धुवं कुंथुयामो विराम्री ।'
'सिरिपालचरिउ' या सिद्धचत्र विधि' में दश सधियाँ दी हुई हैं, श्रार जिनकी प्रानुमानिक लोक सख्या दो हजार दो सो बतलाई है। इसमे चम्पापुर के राजा श्रीपाल और उनके सभी साथिया का सिद्धचक्रव्रत (श्रष्टाह्निका व्रत) के प्रभाव मे कुष्ठ रोग दूर हो जाने प्रादि की कथा का चित्रण किया गया है और सिद्ध व्रत का माहात्म्य स्थापित करते हुए उसके अनुष्ठान की प्रेरणा की गई है । ग्रन्थ का कथा भाग बड़ा ही गुन्दर यार चित्ताकर्षक है । भाषा सरल तथा सुबोध हे । यद्यपि श्रीपाल के जीवन परिचय और सिद्धचक्रव्रत के महत्व को चित्रित करने वाले संस्कृत, हिंदी गुजराती भाषा में अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं । परंतु अपभ्रंश भाषा का यह दूसरा ग्रन्थ है । प्रथम ग्रन्थ पंडित नरगेन का है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ ग्वालियर निवासी अग्रवाल वंशी साहु बाटू के चतुर्थ पुत्र हरिसी साहु के अनुरोध से बनाया है कवि ने प्रशस्ति में उनके कुटुम्ब का संक्षिप्त परिचय भी अकित किया है । कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक सधियों के प्रारम्भ में संस्कृत पद्यों में ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक उक्त साहु का यशोगान करते हुए उनकी मंगल कामना की है। जैसा कि ७वीं संधि के निम्न पद्य से प्रकट है ।
यः सत्यं वदति व्रतानि कुरुते शास्त्रं पठन्त्यादरात् मोहं मुञ्चति गच्छति स्व समयं धत्ते निरीहं पदं ।
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
पापं लुम्पति पाति जीवनिवहं ध्यानं समालम्बते । सोऽयं नंदतु साधुरेव हरषी पुष्णाति धर्म सदा।
-सिद्धचक्र विधि (श्रीपालच० संधि ७) कवि की अन्य कृतियाँ :
इन ग्रन्थों के अतिरिक्त कवि की 'दश लक्षण जयमाला' पोर 'षोडशकारण जयमाला' ये दोनों पूजा ग्रन्थ भी मुद्रित हो चुके हैं। इनके सिवाय पञ्जुण्ण चरिउ, सुदसणचरिउ, करकण्डुचरिउ ये तीनों ग्रन्य अभी अनुपलब्ध हैं । इनका अन्वेषणकार्य चालू है । । 'सोऽहं थुदि' नाम की एक छोटी-सी रचना भी अनेकात में प्रकाशित हो चुकी है।
अभी अभी सूचना प्राप्त हुई है कि रइधू कवि का तिसट्ठि पुरिस गुणालंकार (महापुराण) ग्रन्थ बाराबकी के शास्त्र-भण्डार से पं० कैलाशचन्द्र सि० शा० को प्राप्त हुआ है, जिसकी पत्र संख्या ४६५ है, ५० सधियाँ, १३५७ कदवक है । यह प्रति स० १४६६ की लिखी हुई है।
कवि रइध ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का अपनी रचनायो में ससम्मान उल्लेख किया है। उनके नाम इस प्रकार है-१ देवनन्दी (पूज्यपाद) २ रविषेण ३ च उमुह ४ द्रोण ५ स्वयभूदेव, ६ वज्रसेन, ७ पुन्नाट सघी जिनसेन ८ पुष्पदन्त ह और दिनकर सेन का अनंग चरित। इनमें से अधिकांश कवियों का परिचय इसी ग्रथ में मन्यत्र दिया हुआ है।
कवि हरिचन्द कवि हरिचन्द का वंश अग्रवाल है। पिता का नाम जंडू और माता का नाम वोल्हादेवी था। कवि ने अपने गुरु का कोई उल्लेख नहीं किया।
कवि की एक मात्र रचना 'अणत्थमिय कहा है। प्रस्तुत कथा में १६ कडवक दिये हए है, जिनमें रात्रि भोजन से होने वाली हानियों को दिखलाते हुए उसका त्याग करने की प्रेरणा को गई है और बतलाया है कि जिस तरह अन्धा मनुष्य ग्रासकी शुद्धि अशुद्धि सुन्दरता आदि का अवलोकन नही कर सकता। उसी प्रकार मूर्य के प्रस्त हो जाने पर रात्रि में भोजन करने वाले लोगों से कीड़ी, पतगा, झीगुर, चिउटो, डास मच्छर आदि सूक्ष्म और स्थूल जीवों की रक्षा नहीं हो सकती। बिजली का प्रकाश भी उन्हें राकने में समर्थ नही हा सकता। रात्रि में भोजन करने से भोजन में उन विषैले जीवों के पेट में चले जाने से अनेक तरह के रोग हो जाते है, उनमे शारीरिक स्वास्थ्य को बडी हानि उठानी पड़ती है। प्रतः धार्मिक दृष्टि और स्वास्थ्य का दप्टि से रात्रि में भोजन का परित्याग करना हो श्रेयस्कर है जैसा कि कवि के निम्न पद्य से स्पष्ट है:
जिहि दिष्ट्र णय सरह प्रधुजेम, नहि गास-सूद्धि भण होय केम किमि-कोड-पयंगइ झिगुराइ पिप्पीलई डंसई मच्छिराई। खज्जूरई कण्णसलाइयाइं प्रवरइ जीवई जे बहु सयाई।
अण्णाणी णिसि भुंजंतएण, पसु सरिसु परिउ अप्पाणु तेण ॥ पत्ता- जवालि विदीणउकरि उज्जोवउ अहिउ जीउ संभवई परा।
भमराई पयंगई बहुविह भंगई मंडिय दोसई जित्थु धरा ॥५॥ कवि ने ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया। परन्तु रचना पर से वह रचना १५वी शताब्दी को जान पड़ती है।
भ० पद्मनन्दी मुनि पद्मनन्दी भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्टधर विद्वान थे । विशुद्ध सिद्धान्तरत्नाकर और प्रतिभा द्वारा प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए थे। उनके शुद्ध हृदय में प्रभेद भाव से प्रालिङ्गन करती हुई ज्ञान रूपी हंसी आनन्दपूर्वक
१. विशेष परिचय के लिए देखिए, अनेकान्त वर्ष : किरण ६ में प्रकाशित महाकवि र इधू नाम का लेख । तथा वर्णी
अभिनन्दन ग्रन्थ १०३६८ । २. भीमप्रभाचम्द मुनीन्द्र पट्ट, शश्वत प्रतिष्ठा प्रतिभागरिष्ठः। विशुद्धसिद्धान्त रहस्यरलरत्नाकरानन्दतु पपमन्दी ॥ -शुभचन्द पट्टावली
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वी १२वीं ११ीं और १८वीं शादी के आचार्य, भट्टारक और कवि
४७७ क्रीड़ा करती थी वे स्याद्वाद सिन्धु रूप अमृत के वर्धक थे। उन्होंने जिनदोक्षा धारण कर जिनवाणो और पृथ्वी को पवित्र किया था। महाव्रती पुरन्दर तथा शान्ति से रागांकुर दग्ध करने वाले वे परमहंस निर्ग्रन्थ, पुरुषार्थ शालो, प्रशेष शास्त्रज्ञ सर्वहित परायण मुनिश्रेष्ट पद्मनन्दी जयवन्त रहें।' इन विशेषणों से पद्मनन्दी की महत्ता का सहज ही बोध हो जाता है। इनकी जाति ब्राह्मण थी। एक बार प्रतिष्ठा महोत्सव के समय व्यवस्थापक गृहस्थ की अविद्यमानता में प्रभाचन्द्र ने उस उत्सव को पट्टाभिषेक का रूप देकर पद्मनन्दी को अपने पट्ट पर प्रतिष्ठिन किया था। इनके पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का समय पट्टावली में सं० १३८५ पौष शुक्ला सप्तमी बनलाया गया है। वे उस पटट पर संवत् १४७३ तक तो आसीन रहे ही हैं। इसके अतिरिक्त और कितने समय तक रहे, यह कुछ ज्ञात नहीं हुआ, और न यह ही ज्ञात हो सका कि उनका स्वर्गवास कहां और कब हुअा है ?
कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि पद्मनन्दी भट्टारक पद पर स० १४६५ तक रहे हैं । इस सम्बन्ध में उन्होंने कोई पुष्ट प्रमाण तो नहीं दिया, किन्तु उनका केवल वैसा अनुमान मात्र है अोर यह भी संभव है कि पटट पर शुभचन्द्र को प्रतिष्ठित कर प्रतिष्ठादि कार्य सम्पन्न किये हो कुछ समय और अपने जीवन से भूमहल को अलकृत करते रहे हों। अत: इस मान्यता में कोई प्रामाणिकता नहीं जान पड़ती। क्योंकि सवत् १४७३ को पद्मकीति रचित पार्श्वनाथ चरित की प्रशस्ति से स्पष्ट जाना जाता है कि पद्मनन्दी उस समय तक पट्ट पर विराजमान थे, जैसा कि प्रशस्ति के निम्न वाक्य से प्रकट है
"कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री रत्नकोति देवास्तेषां पट्टे भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र देवा तत्पट्टे भ० स्त्री पद्म नन्दि देवास्तेषां पट्टे प्रवर्तमाने-'
(मुद्रित पार्श्वनाथ चरित प्रशस्ति) इससे यह भी ज्ञात होता है कि पद्मनन्दी दीर्घजीवी थे। पट्टावली में उनकी आयु निन्यानवे वर्ष अठ्ठाईस दिन की बतलाई गई है और पट्टकाल पैसठ वर्ष पाठ दिन बतलाया है।
यहाँ इतना और प्रकट कर देना उचित जान पड़ता है कि वि० सं० १४७६ में असवाल कवि द्वारा रचित 'पासणाहचरिउ' में पद्मनन्दी के पट्ट पर प्रतिष्ठित होने वाले भ० शुभचन्द्र का उल्लेख निम्न वाक्यों में किया है"तहो पट्टवर ससिणामें सुहससि मणि पयपंकयचंद हो।" चूंकि सं० १४७४ में पद्मनन्दी द्वारा प्रतिष्ठित मूर्ति लेख उपलब्ध है, अतः उससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि पद्मनन्दी ने सं० १४७४ के बाद और सं०१४७६ से पूर्व किसी समय शुभचन्द्र को अपने पद पर प्रतिष्ठित किया था।
कवि असवाल ने कुशात देश के करहल नगर में सं० १४७१ में होने वाले प्रतिष्ठोत्सव का उल्लेख किया है। और पद्मनन्दी के शिष्य कवि हल्ल या जयमित्र हल्ल द्वारा रचित 'मल्लिणाह' काव्य की प्रशसा का भी उल्लेख किया है। उक्त ग्रन्थ भ० पद्मनन्दी के पद पर प्रतिष्ठित रहते हुए उनके शिष्य द्वारा रचा गया था। कवि हरिचन्द ने अपना वर्धमान काव्य भी लगभग उसी समय रचा था। इसी से उसमें कवि ने उनका खुला यशोगान किया है:'पद्मणंदि मुणिणाह गणिदहु, चरण सरण गुरु का हरिइंबहु'
-(वर्धमान काव्य) आपके अनेक शिष्य थे, जिन्हें पद्मनन्दी ने स्वयं शिक्षा देकर विद्वान बनाया था। भ० शुभचन्द, तो उनके
१. हंसोजानमरालिका समसमा श्लेषप्रभूताद्भुता । नन्दं क्रीडति मानमेति विशदे यस्यानिश सव्वंतः ।। स्याद्वादामृतसिन्धुवर्धनविधी श्रीमप्रभेन्दुप्रभाः। पट्टे सूरि मतल्लिका स जयतात् श्रीपग्रनन्दी मुनिः ।। महाव्रत पुरन्दरः प्रश्मदग्ध रोगाङ्कुरः । स्फुरत्परमपौरुषः स्थितिरशेषशास्त्रार्थवित् यशोभर मनोहरीकृत समस्तविश्वम्भरः । परोपकृति तत्परो जयति पपनन्दीश्वरः ॥
- शुभचन्द्र पट्टावली
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
पट्टधर शिष्य थे ही, किन्तु आपके अन्य तीन शिष्यो से भट्टारक पदी की तीन परम्पराए प्रारम्भ हुई थी जिनका
आगे शाखा-प्रशाखा रूप में विस्तार हुआ है । भट्टारक शुभचन्द दिल्ली परम्परा के विद्वान थे । इनक द्वारा 'सिद्धचक्र' को कथा रची गई है। जिसे उन्होंने सम्यग्दप्टि जालाक के लिये बनाई थी। भ० सकलकाति स ईडर को गद्दी
र देवेन्द्रकीति से मरत की गही की स्थापना हुई थी। चकि पद्मनन्दी मलसघ के विद्वान थे अतः इनकी परम्परा स मल मघ की परम्परा का विस्तार हमा। पद्मनन्दी अपन समय के अच्छे विहान, विचारक प्रार प्रभावशाली भट्टारक थे । भ० सकलकीति ने इनके पास आठ वर्ष रहकर धर्म, दर्शन, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोप, माहित्य आदि का ज्ञान प्राप्त किया था और कविता में निपुणता प्राप्त को थी। भट्टारक सकलकानि न अपनी रचनात्रा में उनका स-सम्मान उल्लेख किया है पद्मनन्दी केवल गद्दी धारी भट्टारक ही नही थ, किन्तु जन सस्कृति के प्रचार एव प्रसार में सदा सावधान रहते थे।
पद्मनन्दी प्रतिष्ठाचार्य भी थे। इनके द्वारा विभिन्न स्थानो पर अनेक मनिया को प्रतिष्ठा की गई थी। जहा वे मत्र-तत्र वादी थे, वहा वे अत्यन्न विवेकशील और चतुर थे। पापके द्वारा प्रतिष्ठित मनिया विभिन्न स्थानो के मन्दिरो में पाई जाती है । पाठकों की जानकारी के लिये दो मूर्ति लेख नीचे दिये जाते है:
१ आदिनाथ-ओं संवत १४५० वैशाख सुदी १० गरी श्री चहुवाण वश कुशेशय मार्तण्ड सारवे विक्रमन्य श्रीमत स्वरूप भूपान्वय झुडदेवात्मजस्य भूषज शक्रस्य श्री सबानृपतेः राज्ये प्रवर्तमाने श्री मलयंघे भ० श्री प्रभाचन्द देव, तत्पट्टे श्री पद्मनन्दि देव तदुपदेशे गोलाराडान्वये---
-(भटटारक सम्प्रदाय ८६२) २ अरहंत-हरितवर्ण कृष्णमूर्ति- स० १४६३ वर्षे माघ मुदी १३ शुक्र श्री मल संघे पट्टाचार्य श्री पदम नन्दि देवा गोलाराडान्वये साधु नागदेव सुत----। (इटावा के जंन मूनि लेख- प्राचीन जन लेख पग्रह पृ०३८) ऐतिहासिक घटना
भ० पद्मनन्दी के सानिध्य में दिल्ली का एक सघ गिरनार जी की यात्रा को गया था। उस गमय श्वेताम्बर सम्प्रदाय का भी एक सघ उक्त तीर्थ की यात्राथ वहा आया हुआ था। उस समय दाना गधा में यह विवाद छिड़ गया कि पहले कोन वन्दना करे, जब विवाद ने तूल पकड़ लिया पार कुछ भी निर्णय न हो सका, तब उसक शम नार्थ यह युक्ति सोची गई कि जो सघ सरस्वती से अपने को 'आद्य' कहला देगा, वही मध पहल यात्रा का जा सकगा अतः भट्टारक पद्मनन्दी ने पापाण की सरस्वती देवी के मुख से 'याद्य दिगम्बर' शब्द पहला दिया, पारणामस्वरूप दिगम्बर्ग ने पहले यात्रा की, और भगवान नेमिनाथ की भाक्त पूर्वक पूजा को। उसके बाद श्वनाम्बर सम्प्रदाय ने की। उसी समय से बलात्कारगण की प्रसिद्धि मानी जाती है । वे पद्य इस प्रकार है :
पद्मनन्दि गुरुर्जातो बलात्कारगणाप्रणी। पाषाणघटिता येन वादिता श्री सरस्वती॥ ऊर्जयन्त गिरौ तेन गच्छः सारस्वतोऽभवत् ।
अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्री पद्मनन्दिने ॥ यह ऐतिहासिक घटना प्रस्तूत पद्मनन्दी के जीवन के साथ घटित हई थी। पद्मनन्दी नाम साम्य के कारण
i ने इस घटना का सम्बन्ध प्राचार्य प्रवर कन्दकन्द के साथ जाड दिया । वह ठाक नही है क्योंकि कुन्दकुन्दाचार्य मूल संघ के प्रवर्तक प्राचीन मुनि पुंगव है ओर घटनाक्रम अर्वाचीन है । ऐसी स्थिति में यह घटना प्रा० कुन्दकुन्द के समय की नही है । इसका सम्बन्ध तो भट्टारक पद्मनन्दी से है।
१. श्रीपानन्दी मुनिराजपट्टे शुभोपदेशी शुभचन्द्रदेवः ।
श्रीसिद्धचक्रस्य कथाऽवतारं चकार भव्याबुजभानुमाली।
(जननन्थ प्रशस्ति सं० भा० १ पृ. ८८)
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वी शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
रचनाएँ
पद्मनन्दी की अनेक रचनाएं हैं। जिनमें देवशास्त्र गरु-पूजन संस्कृत, सिद्धपूजा सस्कृत, पद्मनन्दि श्रावका चारमारोद्धार, वर्धमानकाव्य, जीगपल्लि पार्श्वनाथ ग्नोत्र पार भावनाचविंशति । इनके अतिरिक्त वीतराग स्तोत्र, शान्तिनाथ स्तोत्र भी पता नन्दी कृत है, पर दोनों स्तोत्रों, देव-शास्त्र गरु-पूजा तथा सिद्धपूजा में पद्मनन्दि का नामोल्लेख तो मिलता है, परन्तु उममें भ० प्रभाचन्द का कोई उल्लेख नहीं मिलता। जब कि अन्य रचनाओं में प्रभाचन्द का म्पाट उल्लेग्न है, टलिये उन रचनाओं को बिना किमी ठोस आधार के प्रस्तुग पद्मनन्दो को ही रचनाएं नहीं कहा जा सकता। हो गकता है कि वे भी इन्ही की कृति रही हों।
श्रावकाचारमागेद्धार गरकृत भापा का पद्य बद्ध ग्रन्य है, उसमें तीन परिच्छेद है जिनमें थावक धर्म का गच्छा विवेचन किया गया है । इस ग्रन्थ के निर्माण में लम्बयंचक कुलान्वयी (लमेच वंशज) साह वासाधर प्रेरक हैं।' प्रशस्ति में उनके पितामह का भी नामोल्लेख किया है जिन्होंने 'मुपकारगार' नामक ग्रय का रचना को थी। यह ग्रन्थ अभी अनपलब्ध है। विद्वानों को उगका अन्वेपण करना चाहिए। इस ग्रन्थ को अन्तिम प्रशस्ति में कर्ता ने साह वामाघर परिवार का अता परिचय कराया है । और वतलाया है कि गोकर्ण के पूत्र सोमदेव हए, जो चन्द्रवाड के राजा अभयनन्द्र ग्रोर जयचन्द्र के समय प्रधान मन्त्री थे । गोमदेव की पत्नी का नाम प्रेमसिरि था, उसमे सात पुत्र उत्पन्न हा थे । यामाधर, हरिगज, प्रहलाद, महागज, भवराज रतनाग्य पोर मतनाव्य। इनमें से ज्येष्ठ पुत्र वामाधर गवगे अधिक बुद्धिमान, धर्मात्मा ग्रार कर्तव्यपरायण था। इनकी प्रेरणा प्रोर अाग्रह में हो मुनि पद्मनन्दी न उक्न थबाकाचाकी निना की थी। माहवामाधर ने चन्द्रवाट में एक जिनमन्दिर बनवाया था और उनको प्रतिष्ठा विधि भी गम्पन्न नी । कब धनपाल के शब्दो में वासाधर मम्यग्दग्टि, जिनचरणों का भक्त, जैनधर्म के पालन में तत्पर, दयाल, वह मित्र, मिथ्यात्वरहित और विशुद्ध चित्तवाला था। भ० प्रमाचन्द्र के शिप्य धनपाल ने भी सं०१४५.८ में चंद्रवाट नगर में उक्त वाराधिर की प्रेरणा से अपभ्रंश भाषा में बाहुबलोचरित की रचना की थी।
दुमरी कृति वर्धमान काव्य या जिनरात्रि कथा है, जिसके प्रथम सर्ग में ३५६ श्लोक है। जिनमें अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर का चरित अंकित किया गया है, किन्तु ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया जिममे उसका निश्चित समय बतलाना कठिन है। इस ग्रन्थ की एक प्रति जयपुर के पार्श्वनाथ दि० जैन मदिर के शास्त्र भंडार में अवस्थित है जिसका लिपिकाल सं० १५१८ है और दूसरी प्रति सं० १५२२ की लिखी हई गोप.पूरा गूरत के शास्त्र भंडार में सुरक्षित है। इनके अतिरिक्त 'अन व्रत कथा' भी भ० प्रभाचद्र के शिप्य पद्मनन्दो की बनाई उपलब्ध है। जिममें ८५ श्लोक है।
पद्मनन्दी ने अनेक देशों, ग्रामों, नगरों आदि में विहार कर जन कल्याण का कार्य किया है, लोकोपयोगी साहित्य का निर्माण तथा उपदेशों द्वारा सम्मार्ग दिखलाया है। इनके शिप्य-शिष्यों मे जैनधर्म और सस्कृति की महती सेवा हई है। वर्षों तक माहित्य का निर्माण, शास्त्र भंडारों का सकलन पोर प्रतिष्ठादकार्यो द्वारा जैन सस्कृति के प्रचार में बल मिला है । इमी तरह के अन्य अनेक संत है, जिनका परिचय भी जनसाधारण तक नहीं पहुंचा है। इसी दप्टिकोण को सामने रखकर पद्मनन्दी का परिचय दिया गया है चूकि पद्मनन्दी मूल सघ के विद्वान थे, वे दिगम्बर वेप में रहते थे और अपने को मुनि कहते थे। और वे यथाविध यथाशक्य निर्दोष आचार विधि का पालन कर जीवन यापन करते थे।
१. थोलम्ब केचुकुलाद्मविकासभानुः सोमात्मजो दुरितदारु चयकृशानुः ।
धमकमाधन परो भुवि भव्यबन्धु साधरो विजयते गुणरत्न सिन्धुः ।। -बाहुबलीचरित संधि ४ २. जिणणाह चरण भत्तो जिणधम्मपरो दयालोए । सिरि सोमदेवताओ णंदउ वासद्धगे णिच्चं । सम्मत्त जुत्तो जिणपायभत्तो दयालुरनो बहुलीय मित्तो। मिच्छत्तचत्तो सुविसुद्धचित्तो वासाघरो णंदउ पुण्णचित्तो।। -बाहुबली चरित सधि ३
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
शिष्य परम्परा
भ० पद्मनन्दी के अनेक शिष्य थे उनमें चार प्रमुख थे। शुभचन्द्र उनके पट्टधर शिष्य थे। देवेन्द्र कीर्ति ने सूरत में भट्टारक गद्दी स्थापित की थी। शिवनन्दी जिनका पूर्वनाम सूरजन साहु था। पद्मनन्दी द्वारा दीक्षित होकर शिवनन्दी नाम दिया, जो बड़े तपस्वी थे। धर्मध्यान और व्रतादि में संलग्न रहते थे। बाद में उनका स्वर्गवास हो गया था। चतुर्थ' शिष्य सकलकीर्ति थे जिन्होंने ईडर में भटारक गद्दी स्थापित की थी। यह अपने समय के सबसे प्रसिद्ध और प्रतिभा सम्पन्न भट्टारक थे। दिगम्बर मुद्रा में रहते थे। इन्होंने अनेक प्रतिष्ठाए, और अनेक ग्रन्थों वी रचना की है। इनकी शिप्य परम्परा भी पल्लवित रही है। भ. पद्मनन्दी द्वारा दीक्षित रत्नथी' नाम की प्रायिका भी थी। इस तरह पद्मनन्दी ने और उनकी शिष्य परम्परा ने जैन संस्कृति की महान् सेवा की है।
भट्टारक यशःकोति यह काष्ठासघ माथुर गच्छ और पुष्कर गण के भट्टारक गूणकीति जिनका तपश्चरण से शरीर क्षीण हो गया था, लघभ्राता और पट्टधर थे । यह उस समय के सुयोग्य विद्वान और प्रतिष्ठाचार्य थे। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश भापा के अच्छे विद्वान और कवि थे। अपने समय के अच्छे प्रभावशाली भट्टारक थे। जैसा कि निम्न प्रशस्ति वाक्यो से प्रकट है:
"सुतास पट्टभायरो वि प्रायमत्थ-सायरो, रिसिस गच्छणायको जयन्त सिक्ख दायको जसक्ख कित्ति सुदरो अकंपुणाय मंदिरो,।"
(पास पुराण प्र०) 'तहो बंधउ जसमुणि सीस जाउ, आयरिय पणासिय दोस. राउ ।'
-हरिवंश पुराण 'भब्व-कमल-सबोह पगो तह पुण-तव ताव तबियंगो। णिच्चोभासि य पवयण अंगो, वंदिधि सिरि जस कित्ति प्रसगो।"
-सन्मति जिन च०प्र० यशः कीति प्रसंग (परिग्रह रहित) थे, और भव्यरूप कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान थे. वे यशः कीति वन्दनीय है । काष्ठासंघ की पट्टावली में उनकी अच्छी प्रशंसा की गई है। उनकी गुणकीर्ति प्रसिद्ध थी वे पुण्य मति, कामदेव के विनाशक और अनेक दिशष्यों से परिपूर्ण, निर्ग्रन्थ मुद्रा के धारक, जिनके चित्त में जिन चरण कमल प्रतिष्ठित थे-जिन भक्त थे और स्याद्वाद के सत्प्रेक्षक थे।
इन्होंने स० १४८६ में विबुध श्रीधर के संस्कृत भविष्यदत्त चरित्र मौर अपभ्रंश भाषा का 'सूकमाल चरित' ये दो ग्रन्थ लिखवाये थे।
भट्टारक यशः कीति ने स्वयंभू कवि के खंडित जीर्ण-शीर्ण दशा में प्राप्त हरिवंशपुराण (रिटणेमि चरिउ) का ग्वालियर के समीप कुमारनगर के जैन मन्दिर में व्याख्यान करने के लिए उद्धार किया था। उसमें उन्होंने
१.स. १४७१ पट्टावली के प्रारम्भ में सकल कीर्ति को पमनन्दी का चतुर्थ शिष्य बतलाया है। २. तहो सीम सिद्ध गुण कित्तिणासु, तव तावें जासु शरीर खामु ।
तहो बंधव जस मुणि सी जाउ, मायरिय वरण सिय दोसु-राउ ॥ (हरिवंशपुराण) ३. सं०१४८६ वर्षे आषाढ वदि ७ गुरु दिने गोगवल दुर्गे राजा डूंगरेन्द्र सिंह देव विजय राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठा संधे
माथगन्वये पष्कर गणे आचार्य श्री सहस्रकीर्ति देवास्तत्प? आचार्य गुणकीतिदेवास्तच्छिप्य श्री यशःकीतिदेवास्तेन निन ज्ञानवरंगी कर्म क्षयार्थ इदं भविष्यरत पंचमी कथा लिखापितम् ॥"
(नयामदिर धर्मपुरा दिल्ली प्रति) तथा जैन अन्य प्रशस्ति संग्रह भा०२ पृ० ८३ ४. तं जसकित्ति मुरिणहि, उरियउ, णिए वि सत्तु हरिवंसच्चरित। रिण गुरु सिरि-गुगणकित्ति पसाएं किउ परिपुण्ण महो अगएँ। सरह सणेदं (१) सेठि पाएसें, कुमरिणयरि माविउ सविसेसें। गोवग्गिरिहे समीवे विसालए परिणयारहे जिणवर यालए। सावय जगहो पुरस वखारिएड, दिढ़ मिच्छत्त मोह अषमामिड। -हरिवंश पुराण प्रशस्ति
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वी, १६वों, १०वों और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
अपना नाम भी अकित कर दिया था। कवि रइ इन्हें अपना गुरु मानते थे ।
समय
मं० १४८२ में बैशाख सुदी १० के दिन योगिनीपुर (दिल्ली) के शाहजादा मुराद के राज्य में यशः कीर्ति के उपदेश से श्रीधर की भविष्यदत्त कथा लिखवाई गई। कवि का समय मंवत् १४८२ मे १५०० तक उपलब्ध होता है । अतः कवि का समय १५वी शताब्दी सुनिश्चित है। क्योकि स० १५०० में इन्होंने हरिवंशपुराण की रचना की है, उसके बाद कितने समय और जीवित रहे यह कुछ ज्ञात नहीं होता। इनके अनेक शिष्य थे । इनके पट्टधर शिष्य मलय कीर्ति थे ।
रचनाएँ
इनकी इस समय चार रचनाएं उपलब्ध हैं । पाण्डवपुराण, हरिवंशपुराण, जिनरात्रि कथा, और रवि
व्रत कथा ।
1
पाण्डव पुराण – इस ग्रन्थ में ३४ सन्धियाँ है जिनमें भगवान नेमिनाथ की जीवन-गाथा के साथ युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव, और दुर्योधनादि कौरवों के परिचय से युक्त कौरवों में होने वाले महाभारत युद्ध में विजय, नेमिनाथ युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की तपश्चर्या तथा निर्माण प्राप्ति, नकुल, सहदेव का सर्वार्थ सिद्धि प्राप्त करना ओर बलदेव का ५ वें स्वर्ग में जाने का उल्लेख किया है । कवि यशःकीर्ति विहार करते हुए नवग्राम नामक नगर में आये जो दिल्ली के निकट था । कवि ने पाण्डवपुराण की रचना इस नगर में शाह हेमराज के अनुरोध से सं० १४६६ कार्तिक शुक्ला अष्टमी बुधवार को समाप्त किया था। शाह मिराज पद मुबारिक शाह के मन्त्री यह सन् १४५० में मुवारिक शाह का मन्त्री था । कवि ने ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक हेमराज की सस्कृत पद्यों में मंगल कामना की है । इन्होंने एक चैन्यानय भी बनवाया था। उसकी प्रतिष्ठा संवत् १८६७ पूर्व हुई थी । ग्रन्थ में नारी का वर्णन परम्परागत उपमानों से अलकृत है किन्तु शारीरिक सान्दर्य का अच्छा वर्णन किया गया है- 'जाहे नियंति रइवि उक्खिज्जइ' – जिसे देखकर रति भी खीज उठती है। इतना ही नहीं किन्तु उसके सौन्दर्य में इन्द्राणी भी खिन्न हो जाती है - 'लावणं वासवपिय जूरइ' । कवि ने जहा शरीर के बाह्य सौन्दर्य का कथन किया है वहां उसके अन्तर प्रभाव की भी सूचना की है। छन्दों में पद्धडिया के अतिरिक्त आरणाल, दुवई, खंडय, हेला, जंभोटिया, मलय विलासिया, आवला, चतुष्पदी, गुदरी, वंशस्थ, गाहा, दोहा, र वस्तु छन्द का प्रयोग किया है । कवि ने २८वीं संधि के कडवा के प्रारम्भ में दोहा छन्द का प्रयोग किया है और दोह को दोधक और दोहउ नाम भी दिया है । यथा-
४८ १
१. स० १४८२ बैश १० दिो खमुदी १० दिने श्री योगिनीपुरे साहिदा मुरादगान राज्यप्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरान्वये प्राचार्य श्री भावमेन देवास्तपट्टे श्री गुणीति देवनशिष्य श्री यशःकोनि उपदेशेन लिखापित |
दि० जैन पत्र पती मंदिर व पवा, जैन ग्रन्थ सूत्री भा० ५ पृ० ३६३
२. सिरिअवान सहि पहा. जो मघहं वच्छलु विगयमाणु ।
तहो दगु वोल्हा गमाउ, नव गाव नगरि सो सई जिआउ ।। ३. विक्रमराय हो गय कानए, महि- सायर-गह- रिसि अकालए । कतिय मिमि बुह वास, हुउ परिपुष्ण, पढम गंदीसर |
पाण्डवपु० प्र०
( जैन ग्रंथ प्रश० भा० २ पृ० ४० )
४. सुरतान मुवारख तणइ रज्ज, मंतितरथिउ पिय भारकज्ज । ५. जेरण करावउ जिण चेयालउ, पुण्णहेउ चिर-रय पक्वालिउ । धय-तोरण - कलसेहि अलंकिउ, जसु गुरुति हरि जाणु वि संकिउ । - वही जैन ग्रंथ प्रश० भा०२ पृ० ३६
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
द्रोधक- ता सिंचिय सीयल जलेण, विज्जिय चमर विलेण ।
उप्रिय सीयानल तविय, मयलिय अंजुजलेण ॥ ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में हेमराज के परिवार का विस्तृत परिचय दिया है और ग्रन्थ उन्हीं के नामांकित किया है जैसा कि निम्न पुप्पिका वाक्य से प्रकट है:--
इय पंडव पुराण सयल जणमण सवण सहयरे सिरिगुणकित्ति सोस मुणि जसकित्ति विरइए साधु वोल्हा सत राय मंति हेमराजणामंकिए-................।'
हरिवंस पुराण-प्रस्तुत ग्रंथ में १३ सन्धियाँ और २६७ कडवक हैं। जो चार हजार श्लोकों के प्रमाण को लिए हए है । इसमें कवि ने भगवान नेमिनाथ और उनके समय में होने वाले यदुवंशियों का-कौरव पाण्डवादि का-संक्षिप्त परिचय दिया गया है। अर्थात महाभारतकालीन जैन मान्यता सम्मत पौराणिक आख्यान दिया हया है। ग्रन्थ में काव्यमय अनेकस्थल अलंकृत शैली से वणित हैं। उसमें नारी के बाह्यरूप का ही चित्रण नही किया गया किन्तु उसके हृदयस्पर्शी प्रभाव को अंकित किया है। कवि ने ग्रन्थ को पद्धडिया छन्द में रचने की घोषणा की है 'किन्तु प्रारणाल' दुवई, खंडय, जंभोट्टिया, वस्तुबध और हेलाआदि छन्दों का भी यत्र-तत्र प्रयोग किया गया है। ऐतिहासिक कथनों की प्रधानता है, परन्तु सभी वर्णन सामान्य कोटि के हैं उनमें तीव्रता की अभिव्यक्ति नही है। यह ग्रन्थ हिसार निवासी अग्रवाल वंशी गर्ग गोत्री माहु दिवड्डा के अनुरोध से बनाया गया था। साह दिवड्डा परमेष्ठी पाराधक, इन्द्रिय विपय विरक्त, सप्त व्यसन रहित, अप्ट मुलगणधारक, तत्त्वार्थ श्रद्धानी, अष्ट अंग परिपालक, ग्यारह प्रतिमा आगधक, और बारह व्रतों का अनुप्ठापक था, उसके दान-मान की यशः कीति ने खूब प्रशसा को है। कवि ने लिखा है कि मैंने इस ग्रन्थ की रचना कवित्त कीति और धन के लोभ से नही की है और न किसी के मोह से, किन्तु केवल धर्म पक्ष से कर्म क्षय के निमित्त और भव्यों के संबोधनार्थ की है। कवि ने दिवठा साह के प्रनरोध वश यह ग्रन्थ वि० सं० १५०० में भाद्रपद शुक्ला एकादशी के दिन इद उर (इन्द्रपूर) में जलालखां के राज्य में, जो मेवातिचीफ के नाम से जाना जाता है, की है । इसने शय्यद मुबारिक शाह को बड़ी तकलीफें दी थीं।
जिनरात्रि कथा में शिवरात्रि कथा की तरह भगवान महावीर ने जिस रात्रि में अवशिष्ट प्रघाति कर्म का विनाशकर पावापुर से मुक्तिपद प्राप्त किया था, उस का वर्णन प्रस्तुत कथा में किया गया है। उसी दिन और रात्रि में व्रत करना तथा तदनुसार प्राचार का पालन करते हुए प्रात्म-साधना द्वारा आत्म-शोधन करना कवि की रचना का प्रमुख उद्देश्य है।
रवि व्रत कथा में रविवार के व्रत से लाभ और हानि का वर्णन करते हुए रवि व्रत के अनुष्ठापक और उसकी निन्दा करने वाले दोनों व्यक्तियों की अच्छी-बुरी परिणतियों से निप्पन्न फल का निर्देश करते हुए व्रत की सार्थकता, और उसकी विधि प्रादि का सून्दर विवेचन किया है।
मुनि कल्याण कोति यह मूल संघ देशीयगण पुस्तक गच्छ के भट्टारक ललित कीर्ति के दीक्षित शिष्य थे। इनके विद्यागुरु कौन थे यह ज्ञात नहीं हुआ । भट्टारक ललित कीति कार्कल के मठाधीश थे । ललित कीति के गुरुदेव कीति । इन भट्टारकों
१. दाणेण जासु कित्ती पर उवयाग्सु सपया जस्स। णिय पुत्त कलत्त सहिउ गणंद उ दिवढाख्य इह भुवरणे॥ -हरिवंशपुराण प्र. भवियण सबोहरणहं णिमित्त , एउ गंथु किउरिणम्मल चित्त । उकवित्त कित्तहें घणलोहें, णउ कासुवरि पवडिय मोहें। x +
+ कम्मक्खय णिमित्त रिणरवेक्खे, विरइउ केवल पम्मह पक्खें। (जन ग्रंथ प्रशस्ति सं०भा०२ पृ. ४२) २. इंद उरहि एउ हुउ संपुण्णउ, रज्जे जलालखान कय उण्णउ । -वही प्रशस्ति सं०१ भा०२ प. ४२ ३.देखो, तबारीख मुबारिकशाही पु० २११
+
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि का मूल पट्टस्थान मैसूर राज्यान्तर्गत पनसोगे (हनसोगे) में था। इनके देवचन्द्र नाम के दूसरे भी शिष्य थे, जैसा कि जिनयज्ञ-फलोदय कि प्रशस्ति के निम्न वाक्य से प्रकट है-'देवचन्द्र मुनीन्द्रार्यो दयापाल: प्रसन्नधीः'। कल्याण कीर्ति अपने समय के अच्छे विद्वान कवि और लेखक थे। और वादिरूपी पर्वतों के लिये वज्र के समान थे।
इनकी अनेक रचनाएं हैं जिनमें नो रचनामों का नामोल्लख इस प्रकार है:-१. जिनयज्ञफलोदय २. ज्ञानचन्द्राभ्युदय ३. कामनकथे ४. अनुप्रेक्षे ५. जिनस्तुति ६. तत्त्वभेदाप्टक ७ सिद्धराशि, ८. फणिकुमारचरित ६. और यशोधर चरित ।
प्रस्तुत कवि पाण्ड्य राजा के समय मौजूद थे। यह पाण्ड्यराज वही वीर पाण्डव भैररस प्रोडेय हैं जिन्होंने कार्कल में बाहुबलीस्वामी को विशाल एव मनोग्य मूर्ति का स्थापित किया था और जिसकी प्रतिष्ठा शक सं० १३५३ सन् १४३१-३२ ई. में हुई थी।
१. जिन यज्ञफलोदय-में जिन पूजा और उनके फलोपदेश का वर्णन किया गया हैं इसमें नो लम्ब और दो हजार सातसौ पचास श्लोक हैं। यथा
"द्विसहस्रमिदं प्रोक्तं शास्त्रं ग्रन्थं प्रमाणतः ।
पञ्चाशदुत्तरैः सप्त शतश्लोकैश्च संगतम् ॥" कवि ने इसको रचना शक स. १३५० में को थो, जैसाकि उसको प्रशस्ति के निम्न वाक्य से प्रकट है
पञ्चाशस्त्रिशती युक्त सहस्रशकवत्सरे ।
प्लवंगे श्रुत पञ्चम्यां ज्येष्ठे मासि प्रतिष्ठितम् ॥४२८ २. ज्ञानचन्द्राभ्युदय --में १०८ पद्य हैं। ओर उसको रचना शक स० १३६१ (सन् १४३६ ई०) में समाप्त हई है। यह ग्रन्थ षट्पदी छन्द में है। इस कारण इसे ज्ञानचन्द्र पट् पदी भी कहते ह। ज्ञानचन्द्र नाम के राजा ने तपश्चर्या द्वारा मुक्ति प्राप्त की थी। उसी का कथानक इस ग्रन्थ में दिया हुआ है।
३. कामनक थे-सांगत्य छन्द में रची गई है। इसमें जैन धर्मानुसार काम-कथा का वर्णन ४ सन्धियों और ३३१ पद्यों में किया गया है । ग्रंथ के प्रारम्भ में गुरु ललित कीति का स्मरण किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना तुलुव देश के राजा भैरव सुत पाण्डव राय की प्रेरणा से की थी।
४. अनुप्रेक्षे- में ७४ पद्य है जो कुन्दकुन्दाचार्य की प्राकृत अनुप्रेक्षा का अनुवाद जान पड़ता है। ५. जिनस्तुति-६. तत्त्वभेदाप्टक-इनमें से जिन स्तुति में १७ और तत्त्वभेदाष्टक में पद्य हैं। ७. सिद्ध राशि का परिचय ज्ञात नही हपा।
८. फणि कूमार चरित-कन्नड़ भाषा में रचा गया है। प० के भजबली शास्त्री इमका कर्ता इन्हीं कल्याण कीति को मानते हैं । जो शक १३६४ (सन् १४४२) में समाप्त हुया है।
ह. यशोधर चरित्र-प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत के १८५० श्लोकों में रचा गया है। यह ग्रन्थ गंधर्व कवि के प्राकृत (अपभ्रश) यशोधर चरित को देख कर पाण्डयनगर के गोम्मट स्वामी चैत्यालय में शक स० १३७३ (मन १४५१) में समाप्त किया है। इसमें राजा यशोधर और चन्द्रमति का कथानक दिया हुआ है। इसके प्रशस्ति पद्य में मनि ललितकोति का उल्लेख किया है :
यो ललितकोतिमुनिमहदुदयगिरेरभवदागममयूखः
कल्याणकीति मनि रवि रखिल घरातलतत्त्वबोधन समर्थः ॥२२१ इस सब रचानों के समय से ज्ञात होता है कि मुनि कल्याण कीति ईसा की १५वीं शताब्दी के विद्वान हैं। वे विक्रम सं० १४८८ से १५०८ के ग्रन्थकर्ता हैं ।
प्रमाचन्द्र यह काष्ठा संघीय भट्टारक हेमकीर्ति के शिष्य और धर्म चन्द्र के शिष्य थे। जो तर्क व्याकरअदि सकल
१. देखो प्रशस्ति संग्रह, जैन सिद्धान्तभवन पारा पृ० २७ श्लोक ४११ से ४१३ ।
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
शास्त्रों में निपुण थे। भव्यरूपी कमलो को विकसित करने वाले सर्य थे। वे संघ सहित विहार करते हए सकीट नगर में पाए, जो एटा जिले में है इन्होंने सकीटनगर (एटा जिला) वासी लम्बकचुक (लमेचू) आम्नाय के सकतू साह के पुत्र प. सोनिक' को प्रार्थना पर तत्त्वार्थसूत्र का 'तत्त्वाथ रत्न प्रभाकर', नाम को टोका वि०सं० १४८६ म ब्रह्मचारी जैताख्य के प्रबोधार्थ लिखी थी । इससे इस प्रमाचन्द्र का समय विक्रम का १५वी शताब्दो सुनिशचत है। काल्ह पुत्र हावा साधू की प्रार्थना से उक्त टिप्पण बनाया गया और उन्ही के नामाकित किया है। जसा कि उसके निम्न पूष्पिका वाक्य में प्रकट है :
इति श्री भट्टारक धर्मचन्द्र शिप्य गणिप्रभाचन्द्र विरचिते तत्त्वार्थ टिप्पणके ब्रह्मचारि जैता साधु हावादेव नामाकिते दशमा ऽध्यायः समाप्तः ।
भ० शुभकीति शभकीति नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें एक शूभकीति वादीन्द्र विशाल कोति के पट्टधर थे। इनकी बुद्धि पंचाचार क पालन में पवित्र थी। एकान्तर आदि उग्रतपा के करने वाले तथा सन्मार्ग के विधि विधान में ब्रह्मा के तुल्य थे, मुनियों में श्रष्ठ पार शुभ प्रदाता थ'। इनका समय विक्रम की १३वी शताब्दा है। दूसर शभकीति कुन्दकन्दान्वयी प्रभावशाली रामचन्द्र के शिष्य थे । ओर तीसरे गुभकोति प्रस्तुत शान्तिनाथ चारत के कर्ता हैं । जो देवकीति के समकालीन थे, उन्होंने प्रभाचन्द्र के प्रसाद से शान्तिनाथ चरित की रचना का थी कवि ने अपनी गुरुपरम्पग ओर जीवन-घटना के सम्बन्ध में कोई प्रकाश नही डाला। ग्रन्थ का पुष्पिका वाक्य में उहय भासा चक्का वट्टि मुकित्तिदेव विरइए' पद दिया है, जिससे वे अपभ्रश आर सस्कृत भापा में निष्णात विद्वान थे। कविने ग्रन्थ के अन्त म देवकीति का उल्लेख किया हैं। एक देवकीति काप्ठासघ माथुरान्वय के विद्वान थे उनके द्वारा सं०१४६४ आपाढ वदि २ के दिन प्रतिष्ठित एक धातु मति आगरा के कचौडा बाजार के मन्दिर में विराज मान है । हो सकता है कि प्रस्तुत शुभकीति देवकीति के सम कालीन हों, या किसी अन्य देव कीति के समकालान
१. प्राप्त पुर सकीटाख्य समानीता जिनालय ।
लम्बक चुक आम्नाये सकतू माधुनन्दनः ॥११ पडिता सानिका विद्वान जिनपादाब्जपट्पदः । सम्यग्दृष्टि गुणावासो बुध-शोपं शिरोमणि ॥१२ (आदि प्रशस्ति) अस्मिन्सवत्सर विक्रमादित्य नपते. गते । चतुर्दशतेऽनोते नवासीत्यब्द सयुते ॥ १३ भाद्रपद शुक्ल पंचमी वामर शुभे । वारनं वैनियोग विशाखा ऋक्षके वरे ॥१४ तत्त्वार्थ टिप्ण भद्र प्रभाचन्द्र तपस्विना । कृत मिद प्रबांधाय नाख्य ब्रह्मचारिणे ॥१५ (अन्तिम प्र०) ... ... तपो महात्मा शुभकीत्ति देवः । एफन्त गद्यग्रतमो विधानाद्धाते सन्मार्गविध विधाने। -पट्टावली शुभचन्द्र:
तत्पट्ट जनि विख्यातः पवाचारपवित्रधीः ।
शुभकीर्ति मुनि श्रेष्ठ शुभकीति शुभप्रदः ।। -मुदर्शन चरित्र ४. श्री कुदकुदम्य बभूबवशे श्री रामचन्द्र प्रथत प्रभावः शिष्यस्तदीय: शुभकीर्तिनामा तपोंगना बक्ष सि हारभूतः ।। ७ प्रद्योतने सम्प्रति तम्य पट्ट विद्या प्रभावेण विशालकीतिः । शिष्यरनेकरुपसेव्यमान एकान्तवादादि विनाश बज्रय ॥ -धर्मशर्माभ्युदय लिपि प्र० ५.स. १४६४ आषाढ वदि २ काष्ठासंघे माथरान्वये श्री देवकीर्ति प्रतिष्ठिता।
३
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वी, १६वी, १७वीं और १८वीं शताब्दो आचार्य, भट्टारक और कवि
४८५
पर जब कवि ग्रन्थ का रचना काल स. १४३६ दे रहा है तब देवकोति दूसरे हो होंगे यह विचारणीय है ।
प्रस्तुत शान्तिनाथ चरित १६ मन्धियो में पूर्ण हम्रा है। इसको एक मात्र कृति नागोर के शास्त्रभंडार में मुरक्षित है जो सर १५५१ की लिखी हुई है । इस ग्रन्थ में जैनिया के १६ व तीर्थकर भगव न शान्तिनाथ का जीवन परिचय अकित है। भगवान शान्ति नाय पचम चक्रवर्ती थे, उन्होंने पट खण्डा का जीतकर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था। फिर उसका परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा ले तपश्चरणरूप समाधिचक्र म महा दुजय मोहकर्मका विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और अन्न में अघाति कर्मका नाश कर अचल अविनाशी सिद्ध पद प्राप्त किया। कविने इम ग्रन्थ को महाकाव्य के रूप में बनाने का प्रयत्न किया है। काव्य-कला को दृष्टि में भले ही वह महाकाव्य न माना जाय। परन्तु ग्रन्थ कर्ता की दृष्टि उसे महाकाव्य बनाने की रही है । कविन लिग्या है कि शान्तिनाथ का यह चरित वीर जिनेश्वर ने गीतम को कहा, उसे ही जिन न आर पुष्पदन्त न कहा, वहीं मैन भी कहा है।
ज अत्थं जिणराजदेव कहियं जं गोयमेणं सुदं, जं सत्थं जिणसेण देव रइय ज० पुष्पदंतादिही । तं प्रत्थं सुहकित्तिणा विभणियं स रूपचंद त्थियं,
सणीणं दुज्जण सहाव परमं पीएहिए संगदं ।।१०वी संधि। कविने ग्रन्य निर्माण मे प्रेरक रूपचन्द्र का परिचय देत हुए कहा है कि व इक्ष्वाकूवशी कूल में (जमवालवश में) प्राशाधर हा, जो टक्कर नाम से प्रसिद्ध थ आर जिन शासन क भक्त थ इनके धनवउ 'ठक्कूर नाम का पूत्र हवा उसकी पत्नी का नाम लोनावती था, जिसका शरीर सम्पक्त्व में विभुपित था उमगे रूपचन्द्र नाम का पुत्र हआ जिसने उक्त शान्तिनाथ चरित का निमाण कराया है । कवि ने प्रत्येक मधि के अन्त में रूपचन्द्र की प्रशशा में व अाशोवादात्मक अनेक पद्य दिया है, उसका एक पद्य पाठकों की जानकारी के लिये नीचे दिया जाता है:
इक्ष्वाकूणां विशुद्धो जिनवरविभवाम्नाय वंशे समांश । तस्मादाशाधरीया बहुजनमहिमा जातजैसालवंशे । लीला लंकार सारोद्भव विभवगुणा सार सत्कार लुद्ध।
शद्धि सिद्धार्थसारा परियगुणी रूपचन्द्रः सचन्द्रः॥ कविने अन्त में ग्रन्थ का रचना काल स.१४३६ दिया है जैसाकि उनके निम्न पद्य से स्पष्ट है:
पासी विक्रमभूपतेः कलियुगे शांतोत्तरे संगते । सत्यं क्रोधननामधेयविपले संवच्छरे संमते । दत्ते तत्र चतुर्दशेतु परमो त्रिशके स्वांशके।
मासे फाल्गुणि पूर्व पक्षकबुधे सम्यक् तृतीयां तिथौ ॥ इससे स्पष्ट है कि कवि शुभकाति १५वी शताब्दी के विद्वान है। अन्य ग्रन्थ भंडारों में शान्तिनाथ चरित्र की इस प्रति का अन्वेपण आवश्यक है । अन्यथा एक ही प्रति पर से उसका प्रकाशन किया जाय।
कवि मंगराज तृतीय कवि के पितामह का नाम 'माधव' ओर पिता का नाम 'विजयभूपाल' था, जो होयसल देशान्तर्गत होसवत्ति प्रान्त की राजधानी कलहल्लि का स्वामी था, और जिसके उद्धव कुल चूड़ामणि, शार्दूलाक उपनाम थे। यूदूवंश के महा मण्डलेश्वर चगाल नपके मत्रीवंश में उत्पन्न हुआ था। इसकी माता का नाम 'देविले' था और इसकेगरु का नाम 'चिक्क-प्रभेन्दु' था। प्रभु राज और प्रभुकुल रत्नदीप इसके उपनाम थे। इसकी छह कृतियां उपलब्ध हैंजयनप काव्य, प्रभंजन चरित, सम्यक्त्व कौमुदी, थापाल चरित, नेमि जिनेश संगीत, पाकशास्त्र (सूपशास्त्र) ।
जयनप काव्य-यह काव्य परिवद्धिनी षट्पदी में लिखा गया है, इसमें १६ सन्धियाँ और १०७० पद्य है। इसमें कुरु जांगल देश के राजा राजप्रभदेव के पुत्र जयनृप की जीवन कथा वर्णित है। कवि ने लिखा है कि पहले यह चरित जिनसेन ने रचा था, और दूध में शकंरा मिथण के समान संस्कृत में कनडी मिश्रित कर मैंने इसकी रचना की
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
है। ग्रन्थ में अपने मे पूर्ववर्ती निम्न विद्वानों का स्मरण किया है-गुणभद्र, कवि परमेष्ठी, बाहुबलि अकलंक, जिनसेन पूज्यपाद, प्रभेन्दु और तत्पुत्र श्रुतमुनि का नामोल्लेख किया हैं ।
प्रभंजन चरित- इसमें शुभदेश के भंभापुर नरेश देवसेन के पुत्र प्रभंजन की जीवन-गाथा अंकित है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में जिन, मध्यमें गुरु, उपाध्याय, साधु, 'सरस्वती, यक्ष, नवकोटि मुनि, और अपने गुरु चिक्क प्रभेन्दु का स्मरण किया हैं । इस ग्रन्थ की अपूर्ण प्रति ही उपलब्ध है।
__सम्यक्त्व कौमुदी—इसमें सम्यक्त्व को प्राप्त करने वालों की कथाएँ दी गई हैं । ग्रन्थ में १२ संधियाँ और १२ पद्य हैं जिनमें अर्हदास सेठ की स्त्रियों द्वारा कही गई सम्यक्त्वोत्पादक कथाएं हैं। इसमें कवि ने, पच, रत्न, श्रीविजय, गुणवर्म, जन्न, मधुर, पौन्न, नागचन्द्र, कण्णय, नेमि और बन्धुवर्ग का उनकी रचनाओं के नामोल्लेख साथ स्मरण किया हैं । कवि ने इसकी रचना शक सम्वत १४३१ (सन् १५०६) में की है।
कवि मंगराज ने शक संवत् १३५५ (१४३३) में श्रुतमुनि को ऐतिहासिक प्रशस्ति लिखी है । जिसकी पद्य संख्या ७८ है। प्रशस्ति सुन्दर और भावपूर्ण है। इसने श्रवण वेल्गोल का १०८ वां संस्कृत का शिलालेख (शक संवत् १४४३ (सन् १५२१ ई०) में लिखा था।
प्रबन्ध-ध्वनि सम्बन्धात्सद्रागोत्पादन-क्षमा ।
मराज-कवेर्वाणी वाणी वीणायते तरां ।। ७८ श्रीपाल चरित- इस ग्रन्थ में १४ सन्धियाँ और १५२७ पद्य हैं । यह संगात्य छन्द में रचा गया है । इसमें पण्डरीकिणी नगरी के राजा गुणपाल के पुत्र श्रीपाल का चरित वणित है। मंगल पद्य के बाद कवि ने भद्रबाहु, पूज्य पाद आदि कवियो की प्रशंसा की है।
नेमि जिनेश संगति—इसमें ३५ सन्धियाँ और १५३८ सोमत्य छन्द हैं। इसमें नेमिनाथ तीर्थकर का चरित वणित है। कवि ने इसमें अनेक विद्वान आचार्यों का उल्लेख किया है।
पाकशास्त्र (सूप शास्त्र)—यह ग्रन्थ वाधिक षट् पदी के ३५६ पद्यों में समाप्त हुआ है । इसमें पाक और शास्त्र का अच्छा वर्णन किया है। कवि का समय ईसा को १५वीं शताब्दी का उत्तरार्ध १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है।
सोमदेव इनका वंश बघेरवाल था। इनके पिता का नाम आभदेव और माता का विजैणी (विजयिनी) था. जो सधर्मा. सगणा और सुशीला थी। यह गृहस्थ विद्वान थे । नेमिचन्द्राचार्य रचित 'त्रिभंगी सार' की, थतमनि द्वारा वर्नाटक भाषा में रची गई टीका को लाटीय भाषा में रचा है । सोमदेव ने गुणभद्राचार्य की स्तुति की है, सभवतः वेदन के गरु होंगे । या अन्य कोई प्राचीन प्राचार्य, क्योंकि गुणभद्र को टीका कर्ता ने कर्मद्र मोन्मीलन दिक्करोन्द्र, सिद्धान्त थे । निधिदष्टपार, और पट् त्रिंशदाचार्य गुण युक्त तीन विशेषणों से विशिष्ट बतलाते हुए नमस्कार किया है ।
१. इश-गर शिग्वि-विधुमित-शकररिधावि शरद द्वितीयगाषा।
मित नमि-विधु-दिनोदय जुषि सविशाखे प्रतिष्ठितेय मिह ॥ ७६ २. यथा नरेन्द्रभ्य पुलोमजात्स्यिा नारायणस्याब्धि सुता बभूव । तथाभदेवस्य बिजणि नाम्नी प्रिया सुधर्मा सुगुणा सुशोला ॥३ तयो सुतः सद्गुण वान सुवृत्तः सोमोऽविधः कौमुदवृद्धि कारी। व्याघ्रर पा लाम्बु निधेः सुरत्नं जीयाच्चिरं सर्व जनीन वृत्तः ।।४ ३. या पूर्व श्रुत मुनिना टीका कर्णाटभाषया विहिता। लाटीयभाषया सा विरच्यते सोमदेवेन ।।
वही जैन ग्रन्थ प्र. भा० ११० २८
-जैन अन्य प्रशस्ति सं० भा० १५०२८
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
४८७ कर्मद्रुमोन्मीलन दिक्करीन्द्र सिद्धान्तपायोनिधिदृष्टपारं।
षट् त्रिशदाचार्य गुणेः प्रयुक्तं नमाम्यहं श्री गुणभद्रसूरिम् ॥ श्रतमुनि ने अपना ‘परमागमसार' शक सं० १२६३ (वि० सं० १३६८) में रचा है। अतः टीकाकार सोमदेव उसके बाद के (१५वीं शताब्दी के ) विद्वान हैं।
पद्मनाभ कायस्थ कवि पद्मनाभ का जन्म कायस्थ कुल में हुआ था। वह संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान थे, और जैनधर्म के प्रेमी थे। इन्होंने भट्टारक गुणकीति के उपदेश से पूर्व सूत्रानुसार यशोधर चरित या दयासुन्दरविधान नामक काव्य की रचना की थी। सन्तोप नाम के जैसवाल ने उनके इस ग्रन्थ को प्रशंसा की थी, और विजय सिंह के पुत्र पृथ्वीराज ने अनुमोदना की थी।
प्रस्तुत यशोधर चरित्र में हसंधियाँ हैं जिनमें राजा यशोधर और चन्द्रमती का जीवन-परिचय दिया गया है । यह ग्रन्थ वीरमदेव के राज्य में कुशराज के लिए लिखा गया था। कुशराज ग्वालियर के तोमर वंशी राजा वीरम देव का विश्वास पात्र मन्त्री था । यह राजनीति में चतुर और पराक्रमी शासक था। सन् १४०२ (वि० सं० १४५६) या उसके कुछ समय बाद राज्य सत्ता उसके हाथ में आई थी। इसने अपने राज्य की सूदढ व्यवस्था की थो । शत्रु भी इसका भय मानते थे । इसके समय हिजरी सन् ८०५ सन् १४०५ (वि० सं० १४६२) में मल्ल इकबाल खां ने ग्वालियर पर चढ़ाई की। परन्तु उसे निराश होकर लौटना पड़ा। फिर उसने दूसरी बार ग्वालियर पर घेग डाला, किन्तु उसे इस बार भी आस-पास के इलाके लट-पाट कर दिल्ली का रास्ता लेना पड़ा।
कुशराज वीरमदेव का विश्वासपात्र महामात्य था, जो जैसवाल कुल में उत्पन्न हया था, यह राजनीति में दक्ष और वीर था। पितामह का नाम भल्लण और पितामही का नाम उदिता देवी था और पिता का नाम जनपाल और माता का नाम लोणादेवी था। कुशराज के ५ भाई और भी थे जिनमें चार बडे और एक छोटा था। हंसराज, सैराज, रैराज, भवराज, ये बड़े भाई थे। और क्षेमराज छोटा भाई था। इनमें कुशराज बड़ा धर्मात्मा
और राजनीति में कुशल था। इसने ग्वालियर में चन्द्रप्रभ जिनका एक विशाल मन्दिर बनवाया था और उसका प्रतिष्ठादि कार्य बडे भारी समारोह के साथ सम्पन्न किया था। कुशराज की तीन स्त्रियाँ थीं रल्हो, लक्षण श्री
१. वंशेऽभूज्जैसवाले विमलगुणनिषभूल्लणः साधु रत्नं, माधु श्री जैनपालो भवदुदितया स्तत्सुतो दानशीलः । जैनेन्द्राराधनेषु प्रमुदित हृदयः सेवकः सद् गुरुणा लोणाख्या सत्यशीलाऽजनि विमलमति जैनपालस्य भार्या ॥५ जाताः षट् तनयास्तयोः सुकृतिनोः श्री हंसराजोऽभवत् । तेपामाद्यत मस्ततस्तदनुजः सैराज नामाऽजनि । रैराजो भवराजकः समजनि प्रख्यात कीतिर्महा, साधु श्री कुशराज कस्तदनुच श्रीक्षेमराजो लघुः ॥६ जातः श्रीकुशराज एव सकलक्ष्मापाल चूलामणेः । श्रीमत्तोमर-वीरमस्य विदितो विश्वास पात्रं महान् । मंत्री मंत्र विचक्षणः क्षणभयः क्षीणारिपक्षः क्षणात्। क्षीणोमीक्षण रक्षण क्षममति जैनेन्द्र पूजारतः ॥७॥ स्वर्ग स्पद्धि समृद्धि कोति विमलश्चैत्यालयः कारितो, लोकानां हृदयंगमो बहुधश्चन्द्र प्रभस्य प्रभोः । ये नतत्समकालमेव हचिरं भव्यं च काव्यं तथा । साधु श्री कुशराज केनसुधिया कीर्तश्चिरस्थापकं ॥ -चनबन्ध प्रशस्ति भा० १५०६
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ और कौशीरा । ये तीनों ही पत्नियाँ सती, साध्वी तथा गणवती थीं और नित्य जिन पूजन किया करती थीं । ल्हो से कल्याणमिह नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो बड़ा ही रूपवान दानी और जिन गुरु के चरणाराधन मे तत्पर था ।
मं० १४७५ आषाढ़ सुदि ५ को वीरमदेव के राज्य में कुशराज उसके परिवार द्वारा प्रतिष्ठित किया हुआ यंत्र नरवर के मन्दिर में मौजूद है। कुशराज ने श्रुतभक्ति वश यशोधर चरित्र की रचना कवि पद्मनाभ से कराई थी । यह पौराणिक चरित्र बड़ा ही रुचिकर प्रिय और दयारूपी अमृत का श्रोत बहाने वाला है । इस पर अनेक विद्वानों द्वारा प्राकृत, संस्कृत अपभ्रंश और हिन्दी गुजराती भाषा में ग्रन्थ रचे गए है ।
कवि ने ग्रन्थ में रचनाकाल नही दिया । किन्तु यह रचना स० १४७५ के आस-पास की है। क्योंकि वीरमदेव का राज्य मं० १४७६ के कुछ महीने तक रहा है। उक्त स० १४७६ के वैशाख में महीने उनके पुत्र गणपतिसिंह का राज्य हो गया था। उसी के राज्यकाल में धातु वी चोवीसी मूर्ति की प्रतिष्ठा को गई थी । अतः पद्मनाभ कायस्थ का समय विक्रम की १५ वी शताब्दी का तनं य चरण है ।
कवि धनपाल
कवि धनपाल गुजरात देश के पल्हूणपुर या पालनपुर के निवासी थे । वहाँ राजा वीसल देव का राज्य था। उसी नगर के पुरवाड़ वश जिसने प्रगणित पूर्व पुरुष हो चुके है 'भांवइ' नाम के राज श्रेष्ठी थ । जो जिनभक्त और दयागुण से युक्त थे। यह कवि धनपाल के पितामह थे । इनके पुत्र का नाम 'सुहड प्रभ' श्रेष्ठी था, जो धनपाल के पिता थे । कवि की माता का नाम सुहडादेवी' था इनके दो भाई चार भी थे, जिनका नाम सन्तोष और हरिराज था । इनके गुरु प्रभाचन्द्र थे, जो अपने बहुत से शिष्यो के साथ देशाटन करते हुए उसी पल्हणपुर में आये थे । धनपाल ने उन्हें प्रणाम किया और मुनि ने आशीर्वाद दिया कि तुम मेरे प्रमाद से विचक्षण हो जाओगे और मस्तक पर हाथ रखकर बोले कि मैं तुम्हे पत्र देता है ! तुम मेरे मुख से निकले हुए ग्रक्षरों को याद करो । प्राचार्य प्रभाचन्द्र के वचन सुनकर धनपाल का मन ग्रानन्दित हुआ, और उसने विनय में उनके चरणो की वन्दना की, और आलस्य रहित होकर गुरु के ग्रागे शास्त्राभ्यास किया, और सुकवित्व भी पा लिया । पश्चात् प्रभाचन्द्र गणी खंभात धारनगर और देवगिरि (दौलताबाद) होते हुए योगिनी पुर (दिल्ली) आये । देहली निवामियों ने उस समय एक महोत्सव
६. सत्रत् १४७६ वर्ष वंशाग्य सुदि ३ शुक्रवासरे गणपति देव राज्य वर्तमाने श्री मूलम | नयापाये स्ट्टारक शुभचन्द्रदेव मलाचार्य पं० भगवन तत्पुत्र मघवी खेमा भार्या खेभादे जिनबिम्ब प्रतिष्ठा कारावितम् ।
मूर्ति लेख नया मन्दिर लश्कर
१. पालनपुर (पल्हणपुर) Palanpur श्राबू राज्य के परमारवंशी धारा वर्षं म० १२२० (सन् १९६३ ई० ) से १२७६ ई० सन् १२१६) तक आबू का राजा धारावर्ष था, जिसके कई लेख मिल चुके है उसके कनिष्ठ भ्राता यशोधवल के पुत्र प्रह्लादन] देव (पालनमी) ने अपने नाम पर बसाया था। यह बड़ा वीर योद्धा था, साथ में विद्वान भी था। इसी से इमे कवियों ने पालनपुर या पल्हापुर लिखा है । यह गुजरात देश की राजधानी थी। यहा अनेक राजाओं ने शासन किया है। आबू के शिला लेखो में परमावश की उत्पत्ति और माहात्म्य का वर्णन है और प्रह्लादन देव की प्रशंसा का भी उल्लेख है ! जिस समय कुमारपाल शत्रुंजयादि तीर्थो की यात्रा को गया, तब प्रह्लादन
देव भी साथ था ।
प्रह्लादन देव की प्रशंसा प्रसिद्ध कवि सोमेश्वर ने कीर्ति कौमुदी मे लूणवसही की प्रशस्ति में की है। यह प्रशस्ति वि० सं० १२८७ में आबू पर लगाई थी। मेवाड़ के गुहिल वंशी राजा सामन्तसिंह और गुजरात के सोलं की राजा अजयपाल की लड़ाई में, जिसमें
- ( पुरातन प्रबंध सं० पृ० ४३ ) और तेजपाल मंत्री द्वारा बनवाए हुए देलवाड़ा गांव के नेमिनाथ मन्दिर में
वह घायल हो गया था प्रह्लादन ने बड़ी वीरता से लड़ कर गुजरात की रक्षा की थी।
प्रस्तुत पालनपुर में दिगम्बर श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदाय के लोग रहते थे । धनपाल के पितामह तो वहां के राज्य श्रेष्ठी थे । इताम्बर समाज का तो वह मुख्य केन्द्र ही था ।
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वौं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के पाचार्य, भट्टारक और कवि
४८६ किया और भट्टारक रत्नकीति के पट्ट पर उन्हें प्रतिष्ठित किया। भट्टारक प्रभाचन्द्र ने मुहम्मदशाह तुगलक के मन को अनुरजित किया था और विद्या द्वारा वादियो का मनोरथ भग्न किया था । मुहम्मदशाह ने वि० सं० १३८१ से १४०८ तक राज्य किया है।
भट्टारक प्रभाचन्द्र का भ० रत्नकोति के पट्ट पर प्रतिप्ठि न होने का समर्थन भगवती पागधना की पजिका टीका की उस लेखक प्रशिस्ति से भी होता है जिसे म०१४१६ में इन्ही प्रभाचन्द्र के शिप्य ब्रह्मनाथराम ने अपने पढने के लिए दिल्ली के बादशाह फोराजशाह तुगलक के शासन काल में लिखवाया था। उसमें भ० रत्नकीति के पटट पर प्रतिष्ठित होने का स्पष्ट उल्लेख है। फीरोज शाह तुगलक ने सं० १४०८ मे १४४५ तक राज्य किया है। इससे स्पष्ट है कि भ० प्रभाचन्द्र स० १४१६ से कुछ समय पूर्व भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित हुए थे।
कविवर धनपाल गुरु आज्ञा से सौरिपुरतीर्थ के प्रसिद्ध भगवान नेमिनाथ जिन को वन्दना करने के लिये
मार्ग में इन्होने चन्द्रवाड नाम का नगर देखा, जो जन धन से परिपूर्ण ओर उत्त ग जिनालयों मे विभपित था वहा साह वासाधर का बनवाया हुआ जिनालय भी देखा और वहा के श्री अरहनाथ जिनकी वन्दना कर अपनो गर्दा तथा निदा को और अपने जन्म-जरा और मरण का नाश होने की कामना व्यक्त की। इस नगर में कितने ही ऐतिहासिक पुरुष हुए है जिन्होने जैनधर्म का अनुष्ठान करते हुए वहाँ के राज्य मत्री रहकर प्रजा का पालन किया है। कवि का समय १५ वी शताब्दी का मध्यकाल है। क्योकि कवि ने अपना बाहुबली चरित स० १४५४ में पूर्ण किया है।
कवि की एक मात्र रचना 'बाहबली चरित' है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अठारह सन्धिया तथा ४७५ कडवक है। कवि कथा सम्बन्ध के बाद सज्जन दुर्जन का स्मरण करता हुआ कहता है कि 'नीम को यदि दूध मे सिचन किया जाय तो भी वह अपनी कटुता का परित्याग नही करती। ईख को यदि शस्त्र से काटा जाय तो भी वह अपनी मधुरता नहीं छोडती। उसी तरह सज्जन-दुर्जन भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। सूर्य तपता है और चन्द्रमा शीतलता प्रदान करता है।
ग्रन्थ में आदि ब्रह्मा ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली का, जो सम्राट् भरत के कनिष्ठ भ्राता और प्रथम कामदेव से चरित दिया हना है। बाहबली का शरीर जहाँ उन्नत और सुन्दर था वहा वह बल पोरुप गे भी सम्पन्न था। वे डन्दिय विजयी और उग्र तपस्वी थे। वे स्वाभिमान पूर्वक जोना जानते थे, परन्तु पराधीन जीवन को मृत्यु गे कम नही मानते थे। उन्होंने भरत सम्राट् से जल-मल्ल और दृष्टि युद्ध में विजय प्राप्त की थी, परिणाम स्वरूप भाई का मन अपमान से विक्षुब्ध हो गया और बदला लेने की भावना से उन्होने अपने भाई पर चक्र चलाया, किन्त देवो. पनीत प्रस्त्र 'वंश-घात' नही करते । इसमे चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर वापिस लोट गया-वह उन्द कोई नुकसान न पहुंचा सका । बाहुबली ने रणभूमि में भाई को कधे पर से धारे मे नीचे उतारा पोर विजयी होने पर भी उन्हें ससार-दशा का बड़ा विचित्र अनुभव हुआ।
१. तहि भव्वहि सुमहोच्छव विहि ।उ मिरिग्यणकित्ति पट्टे णिहियउ ।
महमद स हि मणु रजियउ, विज नहि वाइयमण भजियउ।" -बाहुबलिचरिउ प्रगति २. संवत् १४१६ वर्षे चैत्र मुदि पञ्चम्या सोमवासरे सकलगज शिरो मुकुटमाणिक्यमरीचि पिजीकृत चरण कमल पाट पीठम्य श्रीपीरोजसाहे सकलमाम्राज्यधुरी विभ्राणम्य समये श्री दिल्या थीदुन्दकुन्दाचार्यान्वये सररवनी गच्छे बलाकारगणे भट्टारक श्री रत्नकोति देव पट्टोदयाद्रि तरुणतरुणित्वमुर्वी कुर्वाण भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र देव शिष्याणा ब्रह्म नाथराम इत्याराधना पंनिकाया ग्रथ आत्म पठनार्थ लिखापितम् ।
-आरा० पंजि० प्र० व्यावर भवन प्रति ३. णिबु कोवि जइ खीरहि मिचहि तो वि ण सो कुडवत्तणु मुचइ । उच्छू को वि जह सस्य खडइ, तो विण सो महुरत्तणु छडइ। दुज्जण-सुअण सहावे तप्परू, सूरु तवइ ससहरसीयरकरू। -बाहबली चरित प्रशस्ति
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
वे सोचने लगे कि भाई को परिग्रह की चाह ने अंधा कर दिया है और अहंकार ने उनके विवेक को भी दूर भगा दिया है। पर देखो, दुनिया में किसका अभिमान स्थिर रहा है ? अहकार को चेष्टा का दण्ड हो तो अपमान है। तुम्हें राज्य की इच्छा है तो लो इसे सम्हालो और जो उस गद्दी पर बैठे उसे अपने कदमों में झुकालो, उस राज्य सत्ता को धिक्कार है, जो न्याय-अन्याय का विवेक भुला देती है। भाई-भाई के प्रेम को नष्ट कर देती है और इंसान को हैवान बना देती है । अब मै इस राज्य का त्याग कर प्रात्म-साधना का अनुष्ठान करना चाहता हूँ ओर सबके दग्बते देखते ही वे तपोवन को चले गये, जहां दिगम्बर मुद्राद्वारा एक वर्ष तक कायोत्सर्ग में स्थित रहकर उस कठोर तपश्चर्या द्वारा आत्म-साधना की, और पूर्ण ज्ञानी वन स्वात्मोपलब्धि को प्राप्त हए।
ग्रन्थ में अनेक स्थल काव्यमय और अलकृत मिलते हैं। कवि ने अपने से पूर्ववर्ती अनेक कविनों ओर उनको कुछ प्रसिद्ध कृतियों का नामोल्लेख किया है-जमे कविचक्रवर्ती धीरसेन, जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता देवनन्दो (पूज्यपाद) श्री वज्रसूरि और उनके द्वारा रचित पट्दर्शन प्रमाण ग्रन्थ, महासन सुलोचना चरित, रविपण पद्मचरित जिनसन हरिवश पुराण, मुनि जटिल वरागरित, दिनकर सन कदप चरित, पद्मसन पार्श्वनाथ चरित, अमृताराधना गणिग्रम्बसेन, चन्द्रप्रभ चरित, धनदत्त चारत, कवि विष्णु सेन मुनिसिहनन्दी, अनुप्रेक्षा, णवकार मन्त्र-नरदेव' कवि असग-वीरचरित, सिद्धसेन, कवि गोविन्द, जयधवल, शालिभद्र, चतुमुख, द्रोण, स्वयंभू, पुष्पदन्त प्रोर सेढ कवि।
कवि ने इस ग्रथ का नाम 'काम चरि उ या कामदेव चरित भी प्रकट किया है और उसे गुणों का सागर बतलाया है । ग्रन्थ में यद्यपि छन्दों की बहुलता नहीं है फिर भी ११ वी संधि में दोहों का उल्लेख अवश्य हया है। कवि ने इस ग्रथ की रचना उस समय का है जब कि हिन्दी भाषा का विकास हो रहा था। कवि ने इसे वि. स. १४५४ में वशाख शुक्ला त्रयोदगी को स्वाति नक्षत्र में स्थित सिद्धियोग में सोमवार के दिन, जबकि चन्द्रमा तुला राशि पर स्थित था पूर्ण किया है।
प्रन्य निर्माण में प्रेरक
प्रस्तुत ग्रन्थ चन्द्रवाड नगर के प्रसिद्ध राज श्रेष्ठी और राजमंत्री, जो जादव कुल के भूपण थे । साह वासाधर की प्रेरणा से बनाया है, और उन्ही के नामांकित किया है । वासाधर के पिता का नाम सोमदेव था, जो सभरी नरेन्द्र कर्णदेव के मन्त्री थे । कवि ने साहु वासाधर को सम्यक्त्वी, जिन चरणों के भक्त, जिन धर्म के पालन में तत्पर. दयालु, बहलोक मित्र, मिथ्यात्वरहित ओर विशुद्ध चित्तवाला बतलाया है। साथ ही आवश्यक दैनिक षट कर्मों में प्रवीण, राजनीति में चतुर और अष्ट मूलगुणों के पालने में तत्पर प्रकट किया है।
जिणणाह चरणभत्तो जिणधम्मपरो दया लोए, सिरि सोमदेव तणो णंदउ वासद्धरो णिच्चं ॥ सम्मत्त जुत्तो जिणपायभत्तो दयालुरत्तो बहुलोयमित्तो।
मिच्छत्त चत्तो सुविसु द्ध चित्ते वासाधरो णदंउ पुण्यचित्तो। -सन्धि ३ वासाधर की पत्नी का नाम उभयश्री या, जो पतिव्रता और शीलव्रत का पालन करने वाली तथा चत. विध संघ के लिए कल्पनिधि थी। इनके पाठ पुत्र थे, जसपाल, जयपाल, रतपाल, चन्द्रपाल, विहराज, पुण्यपाल, वाइड और रूपदेव । ये सभी पुत्र अपने पिता के समान ही सुयोग्य, चतुर और धर्मात्मा थे । इन आठों पुत्रो के साथ
१. श्री लंब के कुलपद्म विक्रामभानुः, सोमात्मजो दुरित चारुचयकृशानुः ।
धमकमाधनपरो भुविभव्य बन्धुर्वासाधरो विजयते गुणरत्नसिन्धुः-संधि । २. बिक्कमणग्दि किय ममए, च उदहसय संबच्छरहि गए। पंचामवरिसचउ अहिय गणि वैसाहरहो सिय-तेरसि सु-दिणि । साईणक्खत्ते परिट्ठियई वार सिद्ध जोग णामें ठियई। -बाहुबलि चरिउ प्रशस्ति
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं १६वीं १७वी और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्रारक और कवि
साहू वासाधर अपने धर्म का साधन करते हुए जीवन यापन करते थे। कवि ने उनका खूब गुणगान किया है। भट्टारक पद्मनन्दि ने श्रावकाचार सारोद्धार नाम का ग्रन्थ भी वासाधर के लिये बनाया था।
सधियों में पाये जाने वाले पद्य में कवि ने सूचित किया है कि गजा अभय चन्द्र ने अन्तिम जीवन में राज्य का भार रामचन्द्र को देकर स्वर्ग प्राप्त किया। म० १४५४ में गमचन्द्र ने राज्य पद प्राप्त किया था। जो राज्य कार्य में दक्ष और कर्तव्य परायण था। इस तरह यह रचना महत्वपूर्ण प्रोर प्रकाशित होने के योग्य है।
भ० सकलकोति मूलसघ सरस्वती गच्छ बलात्कारगण के भटटारक पद्मनन्दि के शिष्य थे । इनका जन्म मवत १४४३ में हना था। इनके माता-पिता 'अणहिलपर पटटण' के निवासी थे। इनकी जाति वइ थी, प्रतिष्ठित जाति है। इस जाति में अनेक प्रसिद्ध पुरुप योर दानी थावक-श्राविकाएं तथा राजमान्य व्यक्ति हुए हैं । इनके पिता का नाम 'करमसिह' और माता का नाम 'शाभा' था। इनको बाल्यावस्था का नाम पूर्णसिंह था। जन्मकाल से हो यह होनहार तथा कुशाग्र बद्धि थे। पिता ने पाच वर्षको बाल्यावस्था मेंटन्हें विद्यारम्भ करा दिया था, और थोडे ही समय में इन्होंने उसे पूर्ण कर लिया था। पूर्णमह मन पगात अहद्धक्ति था। चौदह वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हो गया था। किन्तु इनका मन गागारिक विषयों का प्रोर नही था। अतः वे घर में उदामीन भाव गे रहते थे। माता-पिता ने उनकी उदासीन वनि देवकर इन्हें बहा ममझाया और कहा कि हमारे पास प्रचुर धन-सम्पत्ति है वह किम काम आवेगी? मयम पालन के लिये तो अभी बहत समय पडा है। परन्तु पूर्णसिह १२ वर्ष से अधिक घर में नही रहे, और २६ वयं का अवस्था में वि.. ग्राम में आकर भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्ट शिप्य भ० पद्मनन्दी के पाग दीक्षित हो गए और उनके पास पाठ वर्ष तक रह कर जैन सिद्धान्त का अध्ययन किया और काव्य, न्याय, छन्द और अलंकार आदि में निपुणता प्राप्त की। 'दीक्षित होने पर गुरु ने इनका नाम 'सकलकीति' रखा। तब से वे 'मकलकति' नाम में ही लोक में विश्रत हए। उस समय उनकी अवस्था ६४ वर्ष की हो गई। तब वे प्राचार्य कहलाये। भटटारक बनने से पहले प्राचार्य या मण्डडलाचार्य पद देने की प्रथा का उल्लेख पाया जाता है।
सकलकीति १५वी शताब्दी के अच्छ विद्वान और कवि थे । उनने शिप्यो ने उनकी खूब प्रशसा की है। उनकी कृतिया भी उनके प्रतिभा सम्पन्न विद्वान होने की सूचना देती है। ब्रह्म जिनदास ने, जो उनके शिष्य और लघभ्राता थे। उन्होंने गमचरित्र की प्रशरित में निर्ग्रन्थ, प्रतापी ववि, नादि काला प्रवीण, तपोनिधि मोर 'तत्पटपकेज विकास भास्वान्' बतलाया है।
तत्पट्ट पंकेज विकास भास्वान बभूव निर्ग्रन्थवरः प्रतापी ।
महाकवित्वादि कला प्रवीणरतपोनिधि श्री सकलादिकीतिः ।। १८४ और शचन्द्र ने 'पूगण काव्यार्थ विदाम्बर' बतलाया है।
ब्रह्म कामराज ने जयपराण में सकलकोति को योगीश, ज्ञानी भटारकेश्वर बतलाया है। इससे वे अपने समय के प्रसिद्ध ज्ञानी दिगम्बर भट्टारक थे, इसमें कोई सन्देह नही है।
नैण वां से शिक्षा सम्पन्न होकर पाने के पश्चात् जन साधारण में चेतना जागन करने के लिये स्थान-स्थान पर विहार करने लगे। एक बार वे खोडण नगर आये, और नगर के बाहर उद्यान में ध्यानस्थ मुद्रा में बैठ गए और सम्भवतः तीन दिन तक वे उसी मुद्रा में स्थित रहे, उन पर किमी की दष्टि न पड़ी। नगर से पानी भरने आई हुई एक श्राविका ने जब नग्न साधु को ध्यानस्थ बैठे देखा तो उसने शीघ्र जाकर अपनी सासु से निम्न शब्दों में निवेदन किया-कि इस नगर के बाहर कुएं के समीप जो पुराना मकान बना हुआ है उस
१. पुराण-काव्यार्थ विदावरत्वं विकाशयन्मुक्ति विदारत्वं ।
विभातु वीरः सकलादिकीर्तिः........... . .."|| श्रेणिक चरित प्र० २. सकलकीर्ति योगीश ज्ञानी भट्टारकेश्वरः। जयपुराण प्र.
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
पुराने मकान के पास एक साधु बैठा है जिसके पास एक काठ का कमंडलु और मोर की पिच्छिका है। सासू ने कहा कोई माधऋषी पाया होगा, यह कह कर वह वहाँ गई और उन्हें 'नमोस्तु' कहकर नमस्कार किया तीन प्रदक्षिणा दी, तब साध ने धर्म वृद्धिरूप प्राशीर्वाद दिया, और वे नगर में आये, पोचा श्रावक के घर उन्होंने पाहार लिया। सकलकीति ने बागड प्रान्त के छोटे बड़े नगरों में विहार किया, जनता को धर्ममार्ग का उपदेश दिया उन्हें जैन धर्म का परिचय दिया और जनसमूह में पाये हुए धार्मिक शैथिल्य को दूर किया और जैनधर्म की ज्योति को
उद्योग किया। मं० १४७७ से १४६६ तक के २२ बाईस वर्षीय काल में सकलकोति ने ग्रन्थ रचना, जिन मंदिर-मतियों की प्रतिष्ठा आदि प्रशस्त कार्यों द्वारा जैन धर्म का प्रसार किया। इससे सकलकीति के कार्यो का हति वृत्त सहज ही ज्ञात हो जाता है । प्रतिष्ठाकार्य
सकलकीति ने कितनी प्रतिष्ठाएं सम्पन्न कराई । इसका निश्चित प्रमाण बतलाना कठिन है। जब तक सभी स्थानों के मति लेख संग्रह नही किये जाते, तब तक उक्त प्रश्न का सही उत्तर देना संभव नही जंचता । मेरी को बक में ६ प्रतिष्ठानों के मति लेख विद्यमान है मं० १४८०, १४६०', १४६२, १४९६, १४६७ और १४६ के हैं। इनमें सं० १४.०का और १४६र के लेख मुनि कांतिसागर की दायरी तथा हरिसागर के सग्रह के श्वेताम्बरीय मदिरो में प्रतिष्ठित दिगम्बर मतियों के हैं, शेप चारों लेख उदयपुर, डूंगपुर, सूरत, जयपर में प्रतिष्ठित मतियों के हैं। उस काल के अनेक प्रतिष्ठित संघपतियों ने उनकी प्रतिष्ठानों में सहयोग दिया था। गलियाकोट में स०१४ में मं. पति मलराज ने चर्तविशति जिनबिम्ब की स्थापना कराई थी। नागद्रह में संघपति ठाकुरसिह ने बिम्ब प्रतिष्ठित में योग दिया था।
सकलकीति रास में उनकी कुछ रचनाओं का उल्लेख किया गया है । ग्रन्थ भंडारों में उनकी जो कतियां उप.
। उनमें से किसी में भी उन्होने रचना काल नही दिया। सकलकीति की सभी रचनाए सुन्दर है। हां काव्य की दष्टि मे उनमें रसमलंकार आदि का विशेष वर्णन नही है। सीध सादे शब्दों में कथानक या चरित दिया हया है। यद्यपि उनमें पूर्ववर्ती ग्रन्थों से कोई खास वैशिष्ट्य नही है किन्तु रचना सक्षिप्त और सरल है। उनके सभी गाय प्रकाशन के योग्य है। संस्कृत रचनाएं
१. प्रादिपुगण (वृषभनाथ चरित) २. उत्तर पुराण, ३. शांतिनाथ पुराण ४. पार्श्व पुराण ५. वर्धमान पराण ६. मल्लिनाथ चरित्र ७. यशोधर चरित्र ८. धन्यकुमार चरित्र ६. सुकमाल चरित्र १०. सुदर्शन चरित्र
जम्ब स्वामि चरित्र १२. श्रीपाल चरित्र १३. मूलाचार प्रदीप १४. सिद्धान्तसारदीपक १५. पुराणसार संग्रह तत्त्वार्थसार दीपक १७ आगमसार १८. समाधिमरणोत्साह दीपक १६. सारचतुविशतिका २०. द्वादशानप्रेक्षा
कर्म विपाक २२. अनन्त व्रत पूजोद्यापन २३. अष्टाह्निक पूजा २४. सोलह कारण पूजा २५. गणधर वलय पूजा २६. पंच परमेष्ठी पूजा २७. परमात्मराज स्तोत्र । राजस्थानी गुजराती रचनाएं १. पाराधना प्रति बोधसार २. कर्म चूरव्रतवेलि ३. पार्श्वनाथाष्टक ४. मुक्तावलि गीत ५. सोलह कारण
- - - - - - - - १. स. १४६० वर्षे बैशाख सुदी ६ शनी श्री मूलसधे नन्दि संवे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्य भाभी पद्मनन्दी तत्प? श्री शुभचन्द्र तस्य [गुरु] भ्राता जगतत्रय विख्यात मुनि श्री सकलकीर्ति उपदेशात् हुंबड ज्ञातीय ठा०
नग्वद आर्या बला तयोः पुत्राः ठा० देवपाल, अर्जुन, भीम्मं कृपा चासण चांपा काटा श्री आदिनाथ प्रतिमेयं (सरत)। २. सं० १४६७ मूलसंघे श्री सकलकीति हुंबड ज्ञातीय शाह कर्ण भार्या भोली सुता सोमा भ्रात्रा मोदी भार्या पासी आदि. नाथं प्रणमति ।
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
४६३ रास ६. शान्तिनाथ फागु ७. धर्म वाणी ८. पूजा गीत ६. णमोकार गीतडी १०. जन्माभिषेक धूल ११. भवभ्रमण गीत १२. चउवोसतीर्थकर फागु १३. सारशिखामण रास १४. चारित्रगीत १५. इंद्रिय सवर गीत आदि।
रचनाए सामने न होने से इनका परिचय नहीं दिया जा रहा । ग्रन्थों के नाम सूचियों पर से दिये गये हैं। अवकाश मिलने पर फिर कभी इनका परिचय लिखा जायगा।
__मूलाचार प्रदीप में भी रचना काल नहीं है किन्तु , बडाली के चातुर्मास में लिखी गई एक गुजराती कविता में मलाचार प्रदीप के रचे जाने का उल्लेख किया गया है । इसकी रचना उन्होंने लघुभ्राता जिनदास के अनुग्रह से की गई थी, उसका समय सं० १४८१ दिया गया है।
"तिहि अवसरे गुरु प्राविया वडाली नगर मझार रे। चातुर्मास तिहाकरो शोमनो, श्रावक कीधा हर्ष अपार रे। प्रमीझरे पधरावियां वधाई पावे नरनार रे । सकल संघ मिलके दया कीन्या जय-जयकार रे।
चौदह सौ इक्यासी भला , श्रावणमास लसंत रे। पूणिमा दिवस पूरण कर्मा , मूलाचार महंत रे।
भ्राताना अनुग्रह थकी, कीधा ग्रन्थ महानरे।" भ० सकलकीति ने १५ वीं शताब्दी में राजस्थान और गुजरात में विहार कर जनता में धार्मिक कचि जगत की उन्हें जैनधर्म का परिज्ञान कराया, और प्रवचनों द्वारा उनके अज्ञान मल को धोया। उन्ही का अनुसरण उनके लघ भ्राता ब्रह्म जिनदास ने किया। उसके बाद उनकी शिष्य परम्परा में वही क्रम चलता रहा।
संवत १४८२ में इंगर पुर में दीक्षा महोत्सव सम्पन्न किया' । संवत् १४९२ व गलिया कोट में भटटारक गद्दी की स्थापना की और अपने को बलात्कारगण और सरस्वती गच्छ का भट्टारक घोपित किया।
समय विचार
पटटावली में भटटारक सकलकीति का जीवन ५६ वर्ष का बतलाया है । संवत १४६९ में महसाना में दिवंगत हए। वहां उनकी निषधि भी बनी हुई है। सकलकीति का जन्म सं० १४४३ में हमा। १४ वर्ष की प्रवस्था में उनका विवाह हुआ।और १२ वर्ष वे गृहस्थी में रहे । २६ वर्ष की अवस्था में सं०१४६६ में घर में नैणवा
काभ. पद्मनन्दी से दीक्षा लेकर आठ वर्ष तक उनके पास रहकर, न्याय, व्याकरण. सिद्धान्त, काव्य छन्द अलकार ग्रादि का अध्ययन कर वैदुष्य प्राप्त किया। सकलकीति रास में भूल से 'चउद उनहत्तर' के स्थान पर 'चउद सठि पदा गया या लिखा गया, जो गलत है, उससे उनके समय सम्बन्ध में विवाद उठ खड़ा हुआ। वे सं० १४७७ में चौतीस
की अवस्था में बागड़ गुजरात के ग्राम खोडणे में पाये, और वहाँ शाह पोचा के गृह में आहार लिया। पश्चात
वर्ष पर्यन्त विविध स्थानों में भ्रमण किया । अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ बनाये । मन्दिर-मति निर्वाण एवं प्रतिष्ठादि कार्य सम्पन्न किये और अन्त में ५६ वर्ष की अवस्था में सं० १४६९ में स्वर्गवासीहए।
डा. ज्योति प्रसाद जी सकलकीति का जीवन ८१ वर्ष का स्वीकार करते हैं जो ठीक नहीं जान पडता डा० विद्याधर जोहरापुर कर ने भट्टारक सम्प्रदाय में सकलकीति का समय सं० १४५० से १५१० तक का दिया है जिसका उन्होंने कोई आधार नहीं बतलाया । उक्त दोनों विद्वानों द्वारा बतलाया समय पट्टावली के समय से मेल नहीं खाता । आशा है दोनों विद्वान अपने बतलाये समय पर पुनः विचार करेंगे।
१. चउदह अव्यासीय संवति कुल दीपक नरपाल संघपति । डूंगरपुर दीक्षा महोच्छव तीणि कियाए। श्री सकलकीर्ति सह गुरु सुकरि, दीषी दीक्षा आणंदभरि-जय जयकार सयल चराचरु ए।
-सकलकीर्ति रास
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
पंडित रामचन्द
इनका जन्म लम्ब कंचुक वंश में हुया था। इनके पिता का नाम 'मुभग' और माता का नाम 'देवकी' था। इनकी धर्मपत्नी का नाम 'मल्हणा' देवो था, जिसमे 'अभिमन्यु' नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो शीलादि सद् गुणों में अलंकृत था। कवि ने उक्त अभिमन्यु की प्रार्थना से प्राचार्य पुन्नाट संघीय जिनसेन के हरिवंश पुराणानुसार सक्षिप्त हरिवंश पुराण की रचना की है । ग्रन्थ की रचना कब और कहां पर हई इसका प्रशस्ति में कोई उल्लेख नहीं है । कारंजा के बलात्कारगण के शास्त्र भडार की यह प्रति सं०१५६० की लिखो हुई है। इसमे इतना तो सुनिश्चित है कि ग्रन्थ संवत् १५६० से पूर्ववर्ती है । संभवत: यह रचना १५ वीं शताब्दी में रची गई हो।
नागदेव
नागदेव मल्लूगित का पुत्र था उमने अपने कदम्ब का परिचय इस प्रकार दिया है:--चंगदेव का पूत्र हरदेव हरदेव का नागदेव, नागदेव के दो पुत्र हुए हेम और राम । ये दोनों ही वैद्य कला में अच्छे निष्णात थे। राम के प्रियंकर और प्रियंकर के मल्लगित, और मल्लूगित के नागदेव नाम का पूत्र हया।
नागदेव ने अपनी लघता व्यवन करते हए अपने को अल्पज्ञ तथा छन्द अलंकार, काव्य, व्याकरणादि से नभिज प्रकट किया है। इसकी एक मात्र कृति 'मदन पराजय' है। कवि ने लिखा है कि सबसे पहले हरदेव ने मयणपराजय' नाम का एक ग्रन्थ अपभ्रंश भापा के पद्धडिया प्रोर रंगा छन्द में बनाया था। नागदेव ने उमी का अनवाद एवं अनुसरण करते हुए उस | यथावश्यक मशोधन परिवर्धनादि के माथ विविध छन्दों आदि मे समलकृत किया है।
यह ग्रन्थ एक रूपक खण्ड काव्य है, जो बड़ा ही सरस और मनमोहक है, इसमें कामदेव राजा मोह, मत्री कार और अज्ञान प्रादि सेनानियों के साथ जो भावनगर में राज्य करते है। चारित्र पुर के राजा जिनराज उनक शत्र है: क्योंकि वे मुक्तिरूपी कन्या से पाणिग्रहण करना चाहते है। कामदेव ने राग-द्वप नाम के दूत द्वारा महाराज जिनराज के पास यह सन्देश भेजा कि आप या तो मुक्ति कन्या से अपने विवाह के विचार का परित्याग कर अपने प्रधान सुभट दर्शन, ज्ञान, चारित्र को मुझं सांप द, अन्यथा युद्ध के लिये तैयार हा जाय। जिनराज ने उत्तर में काम देव से युद्ध करना ही श्रेयस्कर समझा और अन्त में कामदेव को पराजित कर अपना विचार पूर्ण किया।
अब रही समय की बात, ग्रन्थ कर्ता ने रचना समय नहीं दिया, जिसमे यह निश्चित करना कठिन है कि नागदेव कब हए है । ग्रन्थ की प्रति म. १५७३ की प्रतिलिपि की हुई उपलब्ध है उससे स्पष्ट है कि ग्रन्थ उसके बाद का नहो हो सकता, उससे पूर्ववर्ती है। संभवतः ग्रन्थ विक्रम की १५ वीं शताब्दी में रचा गया है ।
१. लम्बकंचा वंशेऽसौ जातो जन-मनोहरः ।
गोभनाती सुभगाख्यो देवको यस्य वल्लभा ।।४ तदात्मजः कलावेदी विश्वगुण विभूषितः । रामचन्द्रामिधः श्रेष्ठी मल्हणा वनिता प्रिया ॥५ नन्मू नुन विख्यातः शील पूजाद्यलंकृतः । • अभिमन्यु महादानी तत्प्रार्थना वशादसो॥६ -जन ग्रन्थ प्रशस्ति० भा० १ पृ० ३६ २. यः शुद्ध मोमकुल-पद्म-विकाशनार्को जातोऽथिनां सुरतरु विचंगदेवः । तन्नंदनो हरि रसत्कवि नागसिंहः तस्माद्भिषग् जनपति भुं विनागदेवः ॥२ ताजा बुभी मुभिषजा विह हेम-रामी रामात्प्रियंकर इति प्रियदोऽथिनां यः । तज्जश्चिकित्सित-महांबुधि-पारमाप्तः श्री मल्लुगिज्जिनपदांबुज-मत्त-भृगः ॥३ जन प्रन्थ प्रश० भा०१ प्र०७६
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वों १६वों १७वीं पोर १५वी शताब्दी के माचार्य, भट्रारक और कवि
अभिनव वारुकीति पंडितदेव चारु कीर्ति पडि देव-यह नन्दिसघ देशोय गण पुस्तक गच्छ इग नेश्वर बलिशाखा के भट्टारक श्रुतकोति के शिष्य थे । इनका जन्म नाम कुछ और ही रहा होगा। चाहकोनि नाम दोश्रवणबेलगोल के पट पर बैठने कारण प्रसिद्ध हया है। इनका जन्मस्थान द्रविण देशान्तर्गत मिहपुर था'। यह चारूकीर्ति पडिनाचार्य के नाम से ख्यात थे और श्रवण बेलगोल के चारकीति भट्टारक के पद पर प्रतिष्ठिन थे । यह विद्वान और तपस्थी थे । वादी तथा चिकित्सा शास्त्र में निपुण थे। तप में निष्ठुर, चित्त में उपशान्न, गुणो म गुरुना अोर शरीर में कृशता थी एक बार राजा बल्लान युद्ध क्षेत्र के समीप मरणासन्न हो गए। भट्टारक चारकीति ने उन्हें तत्काल नीरोग कर दिया था।
इन्होंने गंगवश के राजकुमार देवराज के अनुरोध मे 'गीत वीतराग' का प्रणयन किया था। इसमें ऋषभदेव का चरित वणित है। जयदेव (मन ११८०) के 'गीत गोविन्द'के डग पर इमको रचना हुई है। इसका अपर नाम अप्टपदी है।
इस ग्रन्य का पि का वाक्य इस प्रकार है :
"इति श्री मद्रायगज गरु भूमण्डलाचार्यवर्य महावाद वादीश्वराय वादि पितामह सकलविद्वज्जन चक्रवर्ती बल्लाल राय जोव रक्षापाल (१) कृत्याद्यनेक विपदावलिविराजच्छीमद्वेलगोल सिद्ध सिंहासनाधीश्वर श्रीमदभिनवचारुकोति पाण्डताचार्य वर्य प्रणीत गीत वीतरागाभिधानाष्ट पदी समाप्ता।"
इनको दुसरा कृति 'प्रमेयरत्नमालालकार है जो परीक्षामुखमूत्र की व्याम्या प्रमेयरत्न माला की व्याख्या है। उसी के विषय का विशद विवेचन किया है। ग्रन्थ दार्गनिक है पर छह परिच्छेदो में विभक्त है । ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है इसका समाप्ति पुप्पिका बाक्य इस प्रकार है :
इति श्रीमद्दे शिगणाग्रगणण्यस्य श्रीमडल मुलपुर निबास रसिकस्य चारुकोति पण्डिता चार्यस्य कृतौ परीक्षा मुख सूत्र व्याख्यायां प्रमेय रत्नमाला लङ्कार समाख्यायां षष्ठः परिच्छेदः समाप्तः ॥
समय-भट्टारक श्रुतकीर्ति का स्वर्गवास शक स. १३५५ (सन् १४३३) में हुया है। अतएव अभिनव चारुकीति का समय शक सं० १३५० (सन् १४२८) है। यह विक्रम की १५वी शताब्दी के विद्वान हैं।
लक्ष्मीचन्द्र इनका कोई परिचय प्राप्त नही है । लक्ष्मीचन्द्र की दो कृतिया उपलब्ध है । एक सावय धम्म दोहा (श्रावक धर्म दोहा) दूसरी कृति 'अनुप्रेक्षा दोहा' है।
श्रावक धर्म दोहा-में श्रावक धर्म का वर्णन २२४ दोहों में किया गया है। दोहा सरस अोर सरल है। किन्त कवि कुशल, अनुभवा, व्यवहार चतुर और नोतिज्ञ जान पड़ता है। कथन शला पादशात्मक है । ग्रन्थ की भाषा अपभ्रश हाते हए भी लोक भाषा के अत्यधिक निकट है। दाहों में दृष्टान्त वाक्य जुड़े होने के कारण ग्रन्थ प्रिय और सग्राह्य हो गया है। वादीसह की क्षत्र चूड़ामणि सुभापित नीतियों के कारण बहुत ही प्रिय और उपादेय बना हुमा है। डा० ए० एन० उपाध्याय के अनुसार ब्रह्मश्रुतसागर ने नौ दोहे इस ग्रन्थ के उक्तं च रूप से दिये है । इससे इतना तो स्पष्ट है कि प्रस्तुत दोहों की रचना विक्रम की सोलहवी शताब्दी के मध्य काल से पूर्व हुई है ग्रन्थ में अप्ट प्रकारी पूजा का फल दिया है और निम्न मभक्ष वस्तुओं के खाने से सम्यग्दर्शन का भंग होना बतलाया है।
सूलउ-णाली-भिसु-ल्हसुणु-तुवड-करडु-कलिगु । सूरण-फुल्ल-ऽस्थाणयहं भक्खणि सण-भंगु ।
- -- -- -- -- - १. द्रविड देश विशिष्टे सिहपुरे लब्धशस्त जन्मासी। -गीत वीतराग प्रश० २. जैन लेखसंग्रह भा० १ पृ० २१३ लेख नं० १०८ । ३. देखो, गीत वीतराग प्रशस्ति ।
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
इसका अर्थ पं० दीपचन्द पाण्डया ने इस प्रकार दिया है- मूली प्रादि हरे जमीकंद, नाली (कमल प्याज पाटि की नाली भिस.. कमल की जड़, लहसुण, लुम्बी शाक (लोकी शाक १) करड कंसभी की भाजी ) कलिंग (तरबजा १) सरण कन्द आदि कन्द, पुष्प हरे फूल, सब प्रकार के अनाज (बहुत दिनों का बना पाचार मुरब्बा) इनके खाने से दर्शन भग होता है । इसमें लुम्बी शाक का अर्थ लोकी (घोया) दिया गया है। लोकी को कहीं भी प्रभक्ष पदार्थों में नही गिनाया गया। सम्भव है ग्रन्थकार का इससे कोई दूसरा ही अभिप्राय हो, क्योंकि लोकी जिसे घिया भी कहा जाता है, वह अभक्ष नहीं है इसी तरह सेम की फली भी अभक्ष नही है।
ग्रम की तुलना पर से स्पष्ट है, कि प्रस्तुत रचना पं० पाशाधर के बाद की है । सस्कृत भाव संग्रह के कर्ता वामदेव या इन्द्र वामदेव के गुरु लक्ष्मी चन्द्र थे। पर इनके सम्बन्ध में अन्य कोई जानकारी प्राप्त नहीं हैं। डा. ए. नपाध्ये ने मावय धम्म दोहा का कर्ता १६वीं शताब्दी के लक्ष्मीचन्द को नही माना, उसका कारण ब्रह्म थतसागर द्वारा सावयधम्म दोहा के पद्यों को उद्धत करना है । अतः लक्ष्मीचन्द्र १६वीं शताब्दो के नहीं हो सकते । उन्होंने उसे
वर्ती बतलाया है। । मेरी राय में यह ग्रन्थ १४वीं शताब्दी या उसके पास-पास को रचना होनी चाहिये । प० दीपचन्द पाण्डया ने सावयधम्म दोहा का रचना काल विक्रम की १६वीं शताब्दी का प्रथम चरण बतलाया है । अतः निहासिक प्रमाणों के आधार पर लक्ष्मीचन्द का समय निश्चित करना जरूरी है, प्राशा है विद्वान इस ओर अपना ध्यान दगे।
देहानप्रेक्षा -में ४७ दोहा हैं, उनमें कवि ने अपना नाम उल्लिखित नहीं किया, किन्तु सची में उसका कर्ता 'लक्ष्मीचन्द्र' लिखा । यह दोहा नुत्प्रेक्षा अनेकान्त वर्ष १२ की १०वी किरण में प्रकाशित है । दोहा सुन्दर और प्रत्येक भावना के स्वरूप के विवेचक है। सावय धम्म दोहा से अनुप्रेक्षा के दोहा अधिक सुन्दर व्यवस्थित जान पड़ते है पर रचना काल और रचना स्थल तथा लेखक के नाम से रहित होने के कारण उस पर विशेष विचार करना शक्य नही है। साथ ही यह निर्णय भी वांछनीय है कि दोनों के कर्ता एक ही हैं; या भिन्न-भिन्न ।
कवि हल्ल या हरिचन्द मूलसंघ, बलात्कारगण और सरस्वती गच्छ के भट्टारक प्रभाचन्द्र के प्रशिष्य और भट्टारक पद्मनन्दी के शिष्य थे । अच्छे विद्वान और कवि थे इनकी दो कृतियां उपलब्ध है। णिक चरिउ या वढमाणकव्व और मल्लिणाहकव्व । कर्ता ने रचनाकाल नहीं दिया। फिर भी अन्य साधनों से कवि का समय विक्रमी की १५वीं शताब्दी है। रचनाएँ
श्रेणिक चरित या वर्द्धमानकाव्य में ११ संधियां हैं, जिनमें अंतिम तीर्थकर वर्द्धमान का जीवन परिचय अंकित किया गया है । कवि ने यह ग्रन्थ देव राय के पुत्र 'होलिवम्म' के लिये बनाया है । साथ ही उनके समकालीन द्वान वाल मगध सम्राट् बिम्बसार या थेणिक की जीवन गाथा भी दी हुई है। यह राजा बड़ा प्रतापी और राजनीति में कशल था। इसके सेनापति थप्ठि जंबकुमार थे। इस राजा की पट्ट महिषी रानी चेलना थी, जो वैशाली गणतंत्र के अध्यक्ष लिच्छवि राजा चेटक की विदुषी पुत्री थी। जो जैन धर्म संपालिका और पतिव्रता थी। श्रेणिक प्रारम्भ में अन्य धर्म का पालक था, किन्तु चेलना के सहयोग से दिगम्बर जैन धर्म का भक्त और भगवान महावीर की सभा का प्रमुख श्रीता हो गया था। प्रस्तुत ग्रन्थ देवराय के पुत्र संधाधि पहोलिवम्म के अनुरोध से रचा गया है। और गन्थ का सं० १५५० लिखी हुई प्रति वधी चन्द्र मंदिर जयपुर के शास्त्र भंडार में मौजद है।
१. यह लक्ष्मीचन्द्र श्रुतसागर के समका तीन लक्ष्मीचन्द्र से जुदे हैं। परमात्म प्रकाश प्रस्तावना पृ० १११ २. ग्रन्थकार का नाम लक्ष्मीचन्द्र है और उनका समय ग्रन्थ की उपलब्ध प्रतियों और प्राप्त ऐतिहासिक प्रमाणों के
आधार पर विक्रम की-१६वीं शताब्दी का प्रथम चरण रहा है। सावय धम्मु दोहा, सम्पादकीय पृ० १२ इयसिरि वड्ढमारण कव्वे पयडिय चउवग्गभरिए सेणियअभयचरित्ते विरइय जयमित्तहल्ल सुकयन्तो भवियण जणमण हरणे संघाहिव होलिवम्म कण्णाहरणे सम्मइजिण रिणवाण गमणो णाम एयारहमो संधि परिच्छेओ समतो।।
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
૪૨૭
१५वीं १६वीं १७वी और १५वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
कवि की दूसरी रचना मल्लिनाथ 'काव्य' है । जिसमें १६वें तीर्थकर मल्लिनाथ का जीवन परिचय दिया हुआ है। आमेर शास्त्र भण्डार की यह प्रति त्रुटित है, इसके प्रादि के तीन पत्र और अन्तिम पत्र भी उपलब्ध नही है । इस ग्रन्थ की रचना पृथ्वीराज (संसारचन्द) चोहान के राज्य में हुए हैं। इसीलिए कवि ने 'चिरणंदर देसु पुसहमि णरेसु ' वाक्य में उनका उल्लेख किया । पृथ्वीराज भोजराज चौहान करहल का पुत्र था, इसकी माता का नाम नाइक्क देवी था । पार्श्वनाथ चरित के कर्ता सवाल (सं० १४७६) ने उसके राज्य की सं० १४७१ की घटना का उल्लेख किया है, उक्त १४७१ में भोजराज के मंत्रो यदुवंशी अमरसिंह ने रत्नमयी जिन बिम्ब को प्रतिष्ठा की थी। वि हल्ल के मल्लिनाथ काव्य के कर्ता की लोणासाहु ने प्रशसा की थी। इसमे उक्त मल्लिनाथ काव्य सं० १४७१ या १४७० की रचना है | अतः कवि का समय सं० १४५० से १४७५ है ।
कवि की तीसरी कृति 'श्रीपालचरित्र' है । यह भी अपभ्रंश भाषा में रचा गया है । इसकी ६० पत्रात्मक प्रति दि० जैन मंदिर दीवानजी कामा के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है । ( राजस्थान ग्रन्थ सूची भाग ५ पृ० ३६३) कवि असवाल
कवि का वंश गोलाराड या गोलालारे था । यह पंडित लक्ष्मण का पुत्र था । कवि कहां का निवासी था । कवि ने इसका उल्लेख नहीं किया। पर कवि ने मूल संघ बलात्कारगण के भ० प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, शुभचन्द्र और धर्मचन्द्र का उल्लेख किया है । अतः कवि इन्हीं की आम्नाय का था । संवत् १४६ मे कवि के पुत्र विद्याधर ने भ० अमरकीर्तित के 'पट् कर्मोपदेश' की प्रति लिखी थी । यह ग्रन्थ नागौर के शास्त्र भंडार में सुरक्षित है ।
कवि की एक मात्र कृति पार्श्वनाथचरित्र है । जिसमें १३ सधियां है । जिनमें २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथ की जीवन गाथा दी हुई है । ग्रन्थ में पढडिया छन्द की बहुलता है । ग्रन्थ की भाषा उस समय की है जब हिन्दी भाषा अपना विकास और प्रतिष्ठा प्राप्त कर रही थी । भाषा मुहावरेदार है। रचना सामान्य है ।
यह ग्रन्थ कुशार्त देश में स्थित 'करहल " नगर निवासी साहु सांणिग के अनुरोध से बनाया था, जो यदुवंश में उत्पन्न हुए थे । उस समय करहल में चौहान वंशी राजाओं का राज्य था । इम ग्रन्थ की रचना वि० सं० १४७६ भाद्रपद कृष्णा एकादशी को बनाकर समाप्त की गई थी । ग्रन्थ निर्माण में कवि को एक वर्ष का समय लगा था । ग्रन्थ निर्माण के समय करहल में चौहान वंशी राजाभोजराज के पुत्र संसारचन्द्र ( पृथ्वीसिंह) का राज्य था। इनकी माता का नाम नाइक्कदेवी था और यदुवंशी अमरसिंह भोजराज के मंत्री थे, जो जैन धर्म के संपालक थे । इनके चार भाई और भी थे, जिनके नाम करमसिंह, समरसिह, नक्षत्रसिह और लक्ष्मणसिंह थे । अमरसिंह की धर्म पत्नी का नाम कमल श्री था । उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे । नन्दन, सोणिग और लोणा साहु । इनमें लोणा साहु जिनयात्रा, प्रतिष्ठा आदि प्रशस्त कार्यों में द्रव्य का विनियम करने थे और अनेक विधान - उद्यापनादि कार्य कराते थे । उन्होंने मल्लिनाथ चरित के कर्ता कवि 'हल्ल' को प्रशसा की थी । लोणा साहू के अनुरोध मे कवि असवाल ने पार्श्वनाथ चरित की रचना उनके ज्येष्ठ भ्राता सोणिग के लिए की थी । प्रशस्ति में सं० १४७१ में राजा भोजराज के राज्य में सम्पन्न होने वाले प्रतिष्ठोत्सव का भी उल्लेख किया है, जिसमें रत्नमयी जिन विम्ब की प्रतिष्ठा सानन्द सम्पन्न हुई थी ।
I
कवि की अन्य क्या रचना है अन्वेषण करना आवश्यक है । कवि का समय १५ वीं शताब्दी का तृतीय
चरण है ।
१. अहो पंडिय लक्खरण सुय गुलग, गुलराड वंसि धयवड अहंग ।
जैन ग्रन्थ प्रशस्ति० भा० २ पृ० १२६
पंडित असवाल सुन विद्याधर नामा लिलेखि । "
२. गोलाराडान्वये इक्ष्वाकुवंशे श्री मूलसवे ३. कुशातं देश सूरसेन देश के उत्तर में
( नागौर शास्त्र भन्डार प्रति ) वसा हुआ था और उसकी राजधानी गौरो पुर थी, जिसे यादवों ने बसाया था । जरा संघ के विरोध के कारण यादवों को इस प्रदेश को छोड़कर द्वारिका को अपनी राजधानी बनानी पड़ी थी।
४. करहल इटावा से १३ मील की दूरी पर जमुना नदी के तट पर बसा हुआ है, वहां चौहान वंशी राजाओं का राज्य रहा है। यहां शिखरबन्द चार जैन मन्दिर है । और अच्छा शास्त्रभंडार भी हैं ।
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास- भाग २
ब्रह्म साधारण यह मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वयी भ० परम्परा के विद्वान हरिभूषण शिष्य नरेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने अपनी गुरुपरम्परा का निम्न प्रकार उल्लेख किया है :
सिरि कुन्दकुन्द गणि रयणकित्ति, पहसोम पोम गंदी सुवित्त ।
हरिभूसण सीसणरिदंकित्ति, विज्जाणंदिय सण धरित्ति ॥" रत्नकीर्ति, प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, हरिभूषण शिष्य नरेन्द्र कीर्ति, और विद्यानन्द । कवि ने अपनी रचनाओं में रचनाकाल और रचना स्थल का कोई उल्लेख नही किया। कथा की यह प्रति वि० सं०१५०८ की लि इससे ग्रन्थ उक्त म०१५०८ से पूर्व रचा गया है। कवि का समय १५ वीं शताब्दी है।
इस कथा संग्रह में ८ कथाएं और अनुप्रेक्षा दी हुई है । कोकिला पंचमी, मुकुट सप्तमी, दुद्धारसिक था, आदित्यवार कथा, तीन चउवीसी कथा पुष्पांजलि कथा, निदुखसत्तमी कथा, निझर पंचमी कथा और अनुप्रेक्षा। प्रत्येक रचना के अन्त में निम्न पुष्प्पिका वाक्य दिया हुआ है।
'इति श्री नरेन्द्र कोति शिप्य ब्रह्म साधारण कृता अनुप्रेक्षा समाप्ता।'
इन कथानों में जैन सिद्धान्त के अनुसार व्रतों का विधान और उनके फल का विवेचन किया गया है। साथ ही व्रतों के आचरण का क्रम और तिथि आदि के उल्लेखों के साथ संक्षेप में उद्यापन विधि का उल्लेख किया है। यदि उद्यापन की शक्ति न हो तो दुगने वर्ष व्रत करने की प्रेरणा की है।
___ अन्तिम ग्रन्थ अनुप्रक्षा में अनित्यादि द्वादश भावनाओं के स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए ससार और देहभोगों की असारता का उल्लेख करते हए आत्मा को वैराग्य की ओर आकृष्ट करने का प्रयत्न किया गया है।
कोइल पंचवी कथा :
पाठकों की जानकारी के लिए 'कोइल पंचमी' कथा का सार नीचे दिया जाता है-भरत क्षेत्र के कुरु जांगल देश में स्थित रायपुर नामक नगर में वीरसेन नाम के राजा राज्य करते थे। उसी राज्य में धनपाल सेठ अपनी भार्या धनमति के साथ सुख पूर्वक रहते थे। उनका पुत्र धनभद्र और पुत्रवधू जिनमति थी । जिनमति कुशल गृहिणी जिनपूजा और दानादि में अभिरुचि रखने बली थी, परन्तु उसकी सासु धनमति को जैन धर्म से प्रेम नही था। दोनों के बीच यही एक खाई का कारण था।
कालान्तर में धनपाल काल कवलित हो गया। कुछ समय वाद विषण्ण वन्दना धनमति भी चलवसी, और पापकर्म के कारण वह उसी घर में कोइल हुई । अतः दुर्भावशात् वह जिनमति के शिर में हमेंशा टक्कर मारकर उसे दु:खित करती रहती थी।
___एक दिन उस नगर में श्रुतसागर नाम के मुनिराज पाये, वे अवधिज्ञानी थे। धनभद्र और जिनमति ने उन्हें प्राहार देकर उनसे कोइल की गतिविधियों के सन्दर्भ में पंछा। तब मुनिराज ने बतलाया कि वह तम्हारी जननी है । मुनियों के आहार दान मे अन्तराय डालने के कारण वह कोइल हुई । पश्चात् मुनिराज ने संसार की प्रसारता का वर्णन किया, और बतलाया कि ५ वर्ष तक कोइल पंचमी व्रत का अनुष्ठान करो, प्राषाढ़ महीने के कृष्ण पक्ष में उपवासकरो, व्रत पूरा होने पर कार्तिक के कृष्ण पक्ष में उसका उद्यापन करो, उद्यापन में पांच पांच वस्तएं जिन मन्दिर में दीजिए उद्यापन की शक्ति न हो तो दुगुने दिन व्रत करना चाहिए।
यह सुन कर कोइल मूर्छित हो गयी, जल सिंचन से उसे सचेत किया गया प्रनंतर धर्मोपदेश सुनकर कोइल ने सन्यास पूर्वक दिवंगत हुई।
१. सं० १५०० वर्षे श्री मूलसंधे जिनचन्द्र देव खंडेलान्वये सावडा गोत्रे सा.पं० वीझा इयं कथानक अन्य लिखाप्य कर्मक्षय निमित्त प्रदत्त।
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वी और १८वी शताब्दी के आचाय, भट्टारक और कवि
४६६ दम्पति ने मुनिराज द्वारा निर्दिष्ट कोइल पंचमी व्रत का विधि पूर्वक पालन किया। व्रत समाप्त होने पर उसका उद्यापन किया। कालान्तर में वे भी सन्यास पूर्वक स्वर्ग वासी हए। इसमें जीव दया पालन करने का फल बतलाया गया है। इसी तरह अन्य सब कथाएं दी गई हैं। कथाएं अप्रकाशित हैं।
बुध विजयसिंह कवि के पिता का नाम सेठ विल्हण और माता का नाम राजमती था। कवि का वंश पद्मावती पूरवाल था पौर यह मेरुपुर के निवासी थे । कवि ने अपने गुरु का नामोल्लेख नही किया। कविको एकमात्र कृति 'अजित पुराण' उपलब्ध है जिसका रचना काल वि० सं०१५०५ कार्तिकी पूर्णिमा है। इससे कवि का समय सं०१४८५ से १५१५ तक समझना चहिए।
अजित नाथ पुराण
इस ग्रन्थ में १० संधियाँ हैं, जिनमें जैनियों के दूसरे तीर्थकर अजितनाथ का जीवन परिचय अंकित किया गया है । रचना साधारण हैं, भाषा अपभ्रंश होते हुए भी उसमें देशी शब्दों की बहुबलता है।
___ कवि ने इस ग्रन्थ की रचना महाभव्य पं० कामराय के पुत्र देवपाल की प्ररणा से की है । ग्रन्थ की आद्यन्त प्रशस्ति में कामराय के परिवार का सक्षिप्त परिचय कराया है । और लिखा है कि वणिपुर या वणिक पुर नाम के नगर में खंडेल वाल वंश में कउडि (कोडी) नाम के पंडित थे उनके पुत्र छीतू या छोतर थे, जो बड़े ध की ११ प्रतिमाओं का पालन करते थे। वही पर लोकमित्र पडित खेता थे, उनके प्रसिद्ध पुत्र कामराय थे। कामराय की पत्नी का नाम कमलश्री था, उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे। जिनका नाम जिनदास, रयणु और दिउपाल (देवपाल) था। उसने वहां वर्धमान का एक चैत्यालय बनवाया था, जो उत्तु गध्वजारों से अलंकृत था । और जिस में वर्धमानतीर्थकर की प्रशान्त मूर्ति विराजमान थी। उसी देवपाल ने यह चरित्र ग्रन्थ बनवाया था। कवि ने प्रथम सन्धि में जिनसेन, अकलंक, गूणभद्र, गद्ध पिच्छ, पोढिल्ल (प्रोप्ठिल्ल) लक्ष्मण और श्रीधर कवि का नामोल्लेख किया है। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना स० १५०५ में कार्तिकी पूर्णिमा के दिन की है।
समएह पणदह सएह पंचतह कत्तिय पुण्णिम वासरे। ससिद्ध गंथुइउ विसिंह किउ वुह दिउपालकयादरे ॥३२५
भट्टारक शुभचन्द्र यह मलसंघ दिल्ली पट्ट के भट्टारक पद्मनन्दी के पटधर शिप्य थे। यह पद्मनन्दी के पटपर कब प्रतिष्ठित हए, इसका निचिय समय तो ज्ञात नहीं हो सका, पर वे संभवतः १४७० और १४७ समय पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे। ग्वालियर लश्कर के नयामन्दिर के चोबोसी धातु की मति लेख में सं० १४७९ में भ० शुभचन्द्र का उल्लेख है। अतः वे उससे पूर्व ही पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए जान पड़ते हैं। यह अपने समय के प्रच्छे विद्वान थे। इनकी दो कृतियां मेरे अवलोकन में आई हैं। 'सिद्ध चक्र कथा' और श्री शारदा स्तवन । शारदा स्तवन के वें पद्य में-श्री पद्मनन्दीन्द्र मुनीन्द्र पटे शुभोपदेशी शुभचन्द्रदेवाः' वाक्य द्वारा उन्होंने अपना उल्लेख किया है। यह प्रतिष्ठाचार्य भी रहे हैं । इनके समय में ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ भी हुई हैं। इनके पट्टधर शिष्य जिनचन्द्र थे भ० शुभचन्द्र संभवतः १५०२ तक उस पट्ट पर प्रतिष्ठित रहे हैं।
१. "तत्पट्टांबुधिः सच्चन्द्रः शुभचन्द्रः सतांवरः । पंचाक्षवन दावग्नि कषायाममा धराशनिः । २०-मूलाचार प्रशस्ति तासु पट्टी रयणत्तय धारउ, संजायउ सुचन्द भडारउ । सिद्ध चक्र कथा प्रशस्ति पुण उवण्ण सिंहासण मंडण, मिच्छावाइ वाय-भड-खंडण, साबय चरिउ प्र०
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
५००
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ सिद्धचक्र कथा
इसमें सिद्धचक्र व्रत के माहात्म्य का वर्णन है जिसे उन्होंने सम्यग्दृष्टि श्रावक जालाक के लिए कल्याणकारी कथा का चित्रण किया था। इस कथा की अन्तिम प्रशस्ति के निम्न वाक्य में-'श्री पदर पट्टे शभोपदेशी शुभचन्द्रदेवः' श्री सिद्धचक्रस्य कथावतारं चकार भव्यां बुजभानुमाली ॥१॥
भ० शुभचन्द्र का समय विक्रम की १५वीं शताब्दी का तृतीय चतुर्थचरण है।
FT
रत्नकोति यह बलात्कारगण के विद्वान थे। यह भावकीति और अनंतकीति के शिष्य थे। इनकी एकमात्र कृति पुष्पांजलि व्रतकथा है जो अपभ्रश भापा की रचना है। कथा में कवि ने रचनाकाल और रचनास्थल का कोई उल्लेख नहीं किया। इसका कारण रचना काल का निश्चय करना कठिन है। संभव है १५वीं शताब्दी की रचना हो।
पंडित योगदेव यह कनारा जिले के कुम्भनगर के निवासी थे। पंडित योगदेव राजा भजबली भोमदेव के द्वारा राज्यमान्य थे। वहां की राज्यसभा में सम्मान प्राप्त था। इनकी एक कृति तत्त्वार्थसूत्र की टोका 'सुखबोधवृत्ति' है । ग्रन्थ में गुरु परम्परा और रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं है। इस कारण इनका समय निश्चित करना कठिन है।
___ अपभ्रश भाषा की 'सुव्रतानुप्रेक्षा' नाम की २० कडवक की रचना है जिसमें मुनि सुव्रत को बारह भावना का वर्णन है। जिसे उन्होंने कभनगर में रहते हए विश्वसेन मुनि के चरण कमलों की भक्ति से रचा है। इस ग्रन्थ को यह प्रतिलिपि सं० १५८५ बैशाख वदि १३ के दिन मैमूर के पद्यप्रभ चैत्यालय में की गई है। इससे इतना तो सुनिश्चित है कि पंडित योगदेव उससे पहले हुए हैं। संभवत: यह १५वीं शताब्दी के विद्वान हैं ।
कवि जल्हिग इन्होंने अपना कोई परिचय, गुरुपरम्परा और 'रचना' काल नहीं दिया जिससे उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। इनकी एकमात्र कृति, 'अनुपहारास' है जिसमें अनित्य, प्रशरण संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, प्रास्रव, संवर, निर्जरा लोक बोधि दुर्लभ और धर्म। इन बारह भावनाओं का स्वरूप दिखलाते हुए उनके बार-बार चिन्तवन करने की प्रेरणा की है। ये भावनाएं देह-भोगों को प्राशक्ति को दर करती हई उनके प्रति अरुचि उत्पन्न करती हैं और प्रात्मस्वरूप की पोर आकृष्ट करती हैं। इसीलिये इन्हें माता के समान हितकारी बतलाया है । कवि जल्हिग कब हुए, यह रचना पर से ज्ञात नही होता। संभवतः इनका समय विक्रम की १४वीं या १५वीं शताब्दी है। कवि कहता है कि जो इनको भावना भाता है वह पाप-पास को दूर करता हया परम सुख प्राप्त करता है। साथ में कवि कहता है कि मैने निज शक्ति से इसकी रचना की है, उसमें जो कुछ हीन या अधिक कहा गया हो, या पद प्रक्षर मात्रा से हीन हो, तो उसका विगत-मल मूनीश्वर शोधन करें।
नेमचन्द यह माथुर संघ के विद्वान थे। इनकी रची हुई 'रविवयकहा' (रवि व्रत कथा) है जिसमें रविवार के व्रत की विधि और उसके फल प्राप्त करने वाले की कथा दी गई है। रचना में गुरुपरम्परा और रचना काल का कोई उल्लेख नहीं है । इससे निश्चित समय बतलाना शक्य नहीं है। कथा की भाषा साहित्यादि पर से १५वीं शताब्दी की रचना जान पड़ती है। अन्य साधन सामग्री के अन्वेषण से समयादिका निश्चय हो सकेगा।
१. सम्यग्दृष्टि विशुद्धात्मा जिनधर्म च वत्सलः । जालाकः कारयामास कथा कल्याण कारिणि ॥२
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं १६वीं १७वीं और १८त्रीं शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि
५०१
पंडित नेमिचन्द्र
यह षट् तर्क चक्रवर्ती विनयचन्द्र के प्रशिष्य और देवनन्दी के शिष्य थे। इन्होंने धनंजय कवि के 'राघव पाण्डवीय' काव्य या द्विसन्धान काव्य की 'पदकौमुदी नाम की टीका बनाई है। टीकाकार ने रचना काल का उल्लेख नहीं किया । प्रशस्ति में त्रैलोक्यकीर्ति नाम के एक विद्वान का उल्लेख किया है जिसके चरण कमलों के प्रसाद से वह ग्रन्थ समुद्र के पार को प्राप्त हुआ है । टीका में रचना काल न होने से समय के निश्चय करने में बड़ी कठिनाई हां रही है । इस टीका की अनेक प्रतियां भण्डारों में पाई जाती हैं। जयपुर के पार्श्वनाथ मन्दिर के शास्त्र भण्डार में ७० पत्रात्मक प्रति जी सं० १५०६ में राजाडूंगरसिंह के काल में गोपांचल में लिखी गई थी, लेखक प्रशस्ति अपूर्ण है । (जैन ग्रन्थ सूचो भा० ४ पृ० १७२ ) इससे इतना तो सुनिश्चित है कि पद कोमुदो टीका इससे पूर्ववर्ती है । संभवतः १५वीं शताब्दी में रची गई है ।
भ० शुभचन्द्र
यह कर्नाटक प्रदेश के निवासी और काणूरगण के विद्वान थे जो राद्धान्त रूपी समुद्र के पार को पहुचे हुए थे और विद्वानों के द्वारा अभिवन्दनीय थे। इनको एक छोटी सी कृति 'षट्दर्शन प्रमाण प्रमेय संग्रह' नाम को उपलब्ध है, जो जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १६ किरण २ पृष्ठ ४५ पर प्रकाशित हो चुकी है।
भट्टारक शुभचन्द्र ने प्राचार्य समन्तभद्र की प्राप्तमी मांसा गत प्रमाण के 'तत्वज्ञान प्रमाण' नामक लक्षण का उल्लेख करते हुए उसके भेद - प्रभेदों की चर्चा की है । ग्रन्थ में रचना काल दिया हुआ नहीं है और न गुरु परम्परा का ही कोई उल्लेख किया है। जिससे भट्टारक शुभचन्द्र के समय पर प्रकाश डाला जा सके । ग्रन्थ में सांख्य, योग, चवाक, मीमांसक और बौद्ध दर्शन के तत्वों का संक्षेप में विचार किया है।
कारगण में अनेक विद्वान हो गये हैं । श्रवणबेलगोल के समीप वही सोमवार नामक ग्राम की पुरानी बस्ती के समीप शक सं० १००१ (सन् १०७९ ) के उत्कीर्ण किये हुए शिलालेख में काणूरगण के प्रभाचन्द्र सिद्धान्त देव का उल्लेख निहित है । पर यह निश्चित करना कठिन है कि उक्त शुभचन्द इस काणूरगण में कब हुए हैं।
'ग्रन्थ की भाषा अत्यन्त सरल है, उससे जान पड़ता है कि यह विक्रम की १४वीं शताब्दी में रचागया होगा । विश्व तत्व प्रकाश की प्रस्तावना के पृष्ठ ६६ में डा० विद्याधर जोहरापुर करने भ० विजय कीर्ति के शिष्य भ० शुभचन्द्र को उक्त ग्रन्थ का कर्ता ठहराया है जबकि यह शुभचन्द्र मूलसंघ बलात्कारगण के थे और षट् दर्शन प्रमाण प्रमेय संग्रह के कर्ता भ० शुचन्द्र कंडूरगण विद्वान थे । प्रतएव मूलसंघ के भ० शुभचन्द्र इसके कर्ता नहीं हो सकते। इनकी भिन्नता होते हुए भी डा० विद्याधर जोहरापुर करने उन्हें मूलसंघ के भ० विजय कीर्ति का शिष्य कैसे मान लिया । इस सम्बन्ध में अन्वेषण करना आवश्यक है, जिससे यथार्थ स्थिति का निर्णय हो सके ।
भास्कर कवि
यह विश्वामित्र गोत्री जैन ब्राह्मण था, इसके पिता का नाम बसवांक था। कवि पेनुगोंडे ग्राम का वासी था । इसकी एक रचना 'जीवंधर चरित' प्राप्त है । जो वादीभसिंह सूरि के संस्कृत ग्रन्थ का कनड़ी अनुवाद है । ऐसी सूचना कवि ने स्वयं दी है। ग्रंथ के प्रारम्भ में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती प्राचार्यों और कवियों का स्मरण किया है— पंच परमेष्ठी, भूतवलि, पुष्पदन्त, वीरसेन, जिनसेन, प्रकलंक, कवि परमेष्ठी समन्तभद्र, कोण्डकुन्द, वादी भसिंह, पण्डितदेव, कुमारसेन, वर्द्धमान, धर्मभूषण, कुमारसेन के शिष्य वीरसेन, चरित्र भूषण, नेमिचन्द्र, गुणव नागवर्म, होत्र ( पोत्र), विजय, अग्गलदेव, गजांकुश और यशचन्द्र आदि ।
कवि ने इस ग्रन्थ की रचना 'शान्तेश्वर वस्ती' नाम के जैन मन्दिर में शक सं० १३४५ के क्रोधन संवत्सर (सन् १४२४) में फाल्गुण शुक्ला १०मी रविवार के दिन पेनुगोंड के जिन मन्दिर में समाप्त की है । कवि का समय ईसा की १५वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है ।
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २
भ० कमल कीर्ति यह काष्ठासंघ माथुरगच्छ और पुष्करगण के विद्वान भट्टारक अमलकीति के पट्टधर थे। उनकी गुरु परम्परा क्षेमकीर्ति, हेमकीर्ति अमलकोति कमलकीर्ति यह परम्परा सं० १५२५ के ग्वालियर के मूर्ति लेख में पाई जाती है । इसी सम्वत् के दूसरे लेख में, अमलकीर्ति के बाद संयमकीर्ति का नाम मिलता है। कमलकीर्ति केपट्ट पर सोना गिर में शभचन्द्र प्रतिष्ठित हए थे । इसका उल्लेख कवि रइध ने किया है। इससे स्पष्ट है कि ग्वालियर का एक पट्ट सोना गिर में था, और उस पर कमलकीर्ति प्रतिष्ठित थे । उन्हीं के पट्ट पर शुभचन्द्रप्रतिष्ठितहुए थे । अतः ये सब भट्टारक १५वीं शताब्दी विद्यमानमें रहे हैं।
कमलकित्ति उत्तमखमषारउ, भव्वाभवम्भोणिहितार। तस्स पट्टकणयट्टिपरिठिउ, सिरि सुहचन्द सु तव उक्कंट्ठिउ ।
हरिवंशपुराण, प्रादि प्र० जिणसुत्त प्रत्थ प्रलहतएण सिरिकमलकिति पयसेवएण। सिरि कंजकित्ति पटंटवरसु, तच्चत्य सत्थभासणदि णेस । उइण मिच्छत्ततमोहणासु, सुहचन्द भडारउ सुजस वासु।
हरि० अन्तिम प्र० कमलकीर्ति की एकमात्र रचना 'तत्वसार' टीका है। यह देवसेन के तत्वसार की टीका है जिसे कमल कीति ने कायस्थ माथरान्वय में अग्रणी अमरसिंह के मानस रूपी अरविन्द को विकसित करने के लिए दिनकर (सूर्य) स्वरूप इस टीका की रचना की है अर्थात् यह टीका उनके लिए लिखी गई है। प्रस्तुत कमलकीर्ति वहीं हैं जिन का उल्लेख कवि रइधू ने हरिवंश पुराण में किया है और जिसका उल्लेख सं० १५२५ के कवि रइधू द्वारा प्रतिष्ठित मूति लेख में हुआ है । अतः इनका समय १५वीं शताब्दी का उत्तार जान पड़ता है।
कवि चन्द्रसेन इन्होंने अपना परिचय देने की कोई कृपा नहीं की। कवि की एकमात्र लघु कृति अपभ्रंश भाषा की १० पद्यात्मक 'जयमाला' उपलब्ध है जिसमें सिद्धचक्र व्रत के माहात्म्य को ख्यापित किया गया है और बतलाया है कि सिद्धचक्र व्रत का मन में अच्छी तरह चिन्तन करने से व्यक्ति के ज्वर, क्षय, गंडमाला, कुष्ट शूल आदि रोग नष्ट हो जाते हैं तथा सिद्धचक्र का स्मरण करने वाले व्यक्ति के सभी बन्धन, चौरादिक का भय और विपदाएं विनष्ट हो जाती हैं । परन्तु इसका स्मरण भावात्मक और निश्चल होना चाहिये ।
पत्ता-इय वर जयमाला परमरसाला विधुसेणेन वि कहिय थुहिं ।
जो पढइ पढावइ निय मणिभावइ सोणरु पावइ सिद्ध सुहम् ॥ कवि ने जयमाला का रचनाकाल नहीं दिया। पर लगताहै कि कवि को यह रचना १५वीं शताब्दी के लगभग होगी।
कवि गोविन्द इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र 'गर्ग' था। इनके पिता का नाम साहु हीगा और माता का नाम पद्मश्री था। यह जिनशासन के भक्त थे। यह संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान थे। इनकी एकमात्र कृति 'पुरुषार्थानुशासन' है। ग्रन्थ में उल्लेख है कि माथर कायस्थों के वंश में खेतल हम्रा जो बन्धुलोक रूपी तारागणों से चन्द्रमा के समान प्रकाशमान था। खेतल के रतिपाल नाम का पुत्र हुमा, रतिपाल के गदाधर और गदाधर के अमरसिंह और अमरसिह के लक्ष्मण नाम का पुत्र हमा, जिसकी ग्रन्थ प्रशस्ति में बड़ी प्रशंसा को गई है। अमरसिंह मुहम्मद बादशाह के द्वारा अधिकारियों में सम्मिलित होकर प्रधानता को पाकर के भी गर्व को प्राप्त नहीं हमा। वह प्रकृतितः
Page #537
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०३
१५वीं १६वीं १७वी और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि उदार था । कायस्थ जाति में और भी अनेक विद्वान हुए हैं जिन्होंने जैनधर्म को अपनाकर अपना कल्याण किया है । पोर कितने ही अच्छे कवि हुए हैं जिनकी सुन्दर एवं गंभीर रचनाओं से साहित्य विभूषित है। कितने ही लेखक हुए हैं । कवि ने यह ग्रंथ अमरसिंह के पुत्र लक्ष्मण के नामांकित किया है क्योंकि वह इन्हीं की सत्प्रेरणादि को पाकर ग्रन्थकार उसके बनाने में समर्थ हुआ है।
प्रशस्ति में कहीं पर भी रचनाकाल दिया हुआ नहीं है, जिससे कवि का समय निश्चित किया जाता। हां, प्रशस्ति में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का स्मरण जरूर किया गया है, जिनमें समन्तभद्र, भट्ट अकलंक, पूज्यपाद (देवनन्दी) जिनसेन, रविषेण, गुणभद्र वट्ट केर, शिवकोटि, कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वाति, सोमदेव, वीरनन्दी धनंजय, असग, हरिचन्द्र जयसेन और अमितगति (द्वितीय)।
इन नामों में हरिचन्द्र और जयसेन ११वीं और १३वीं शताब्दी के विद्वान हैं। किन्तु इस प्रशस्ति में मलयकीर्ति और कमलकीर्ति नाम के विद्वान भट्टारक का भी उल्लेख है, जिनका समय विक्रम की १५वीं शताब्दी है । अतः यह रचना भी १५वीं शताब्दी की जान पड़ती है।
कवि कोटीश्वर इनके पिता तम्मणसेट्टि तुलुदेशान्तर्गत बइदूर राज्य के सेनापति थे । इनकी माता का नाम रामक, बड़े भाई का नाम सोमेश और छोटे भाई का नाम दुर्ग था। संगीतपुर के नगर सेठ 'कामसेणही' इनका जामाता था। श्रवण बेलगुल के पण्डित योगी के शिष्य प्रभाचन्द्र इनके गुरु थे। संगीतपुर के नेमिजिनेन्द्र इनके इप्टदेव थे और संगीतपर के राजा संगम इनके आश्रय दाता थे। इन्ही के आदेश से कवि कोटीश्वर ने जीवन्धर षट्पदी, नाम के ग्रन्थ की रचना की थी।
बिलगि ताल्लुके के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि श्रुतकीति संगम के गुरु थे और इन्ही व तिकीति की शिष्य परम्परा में 'कर्नाटक शब्दानुशासन' के कर्ता भट्टाकलंक (१६०४) पांचवें थे । कोटीश्वर ने जीबन्धर षट् पदी में अपने पूर्ववर्ती गुरुओं की स्तुति विजयकीति के शिष्य श्रुतकीति पर्यन्त की है । इससे कोटीश्वर का समय ई० सन् १५०१ के लगभग जान पड़ता है।
जीवंधरषट् पदी की एक ही अपूर्ण प्रति प्राप्त हुई है, जिसमें अध्याय के और दशवें अध्याय ११६ पद्य दिये दए हैं। इसके मंगलाचरण में कवि ने कोण्डकुन्द, समन्तभद्र, पंडित मुनि, धर्मभूषण, भट्टाकलंक, देवकीति, मुनिभद्र, विजय कीर्ति, ललितकीति और श्रुतकीर्ति आदि गुरुनों का स्तवन किया है।
___ और पूर्ववर्ती कवियों में जन्न, नेमिचन्द्र, होन्न, हंपरस, अग्गल, रन्न, गुणवर्म औरनागवर्म का स्मरण किया है। कवि का समय ईसा की १५वीं शताब्दी का उपान्त्य और विक्रम सं० १५७८, सोलहवीं का उत्तरार्द्ध है।
पंडित खेता पंडित खेता ने अपना कोई परिचय अंकित नहीं किया । मौर न अपनी गुरु परम्परा का ही उल्लेख किया है। इनकी एक मात्र कृति 'सम्यक्त्व कौमुदी' है, जो तीन हजार श्लोकों के प्रमाण को लिए हुए है। इस ग्रन्थ की यह प्रति सं० १६६६ की माघ वदि ५ गुरुवार के दिन जहांगीर बादशाह के राज्य में श्रीपथ (वयाना) में लिखी गयी
वह प्रति सं० १६८९ ज्येष्ठ कृष्णा १३ को शुभ दिन में शाहजहां के राज्य में काष्ठासंघ माथुर गच्छ पुष्करगण समाचार्यान्वय के भट्टारक गुणचन्द्र, सकलचन्द्र, महेन्द्रसेन के शिष्य पं० भगवती दास को श्वेताम्बर रुपचन्द्र के पास से प्राप्त हुई थी, जो अब नयामंदिर दिल्ली के शास्त्र भंडार में सुरक्षित है।
रचना सरल है, उसकी भाषा आदि से १५वीं-१६वीं शताब्दी की कृति जान पड़ती । ग्रंथ अप्रकाशित है, प्रकाशन की वाट जोहरहा है।
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
भट्टारक ज्ञानभूषण ज्ञान भूपण नाम के चार विद्वानों का उल्लेख मिलता है उनमें तीन ज्ञान भूषण इनके बाद के विद्वान हैं। प्रस्तुत ज्ञान भषण मलसंघ सरस्वती गच्छ बलात्कारगण के भट्टारक सकलकीति को परम्परा में होने वाले भ० भवनकोति के पट्टधर थे । यह संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान और कवि थे। गुजरात के निवासी थे, अतएव गुजराती भाषा पर इनका अधिकार होना स्वाभाविक हैं। यह सागवाड़ा गद्दी के भट्टारक थे । यह सं० १५३१ में भुवनकीति के पटट पर प्रतिष्ठित हए थे। और वे उस पर १५५७ तक अवस्थित रहे हैं। पश्चात उन्होंने स्वयं विजयकीर्ति को अपने पद पर प्रतिष्ठित कर भट्टारक पद से निवृत्ति ले लो। भट्टारक पद पर रहते हुए उन्होंने अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई।
गुजरात में इन्होने सागराधर्म प्रौर आभीर देश में श्रावक की एकादश प्रतिमानों को धारण किया था। और वाग्वर (वागड़) देश में पंचमहाव्रत धारण किये थे। इन्होंने भट्टारक पद पर आसीन होकर आभीर, वागड तौलब तेलंग. द्रविण, महाराष्ट और दक्षिण प्रान्त के नगरों और ग्रामों में विहार ही नहीं किया, किन्तु उन्हें सम्बोधित किया और सन्मार्ग में लगाया था। द्रविण देश के विद्वानों ने इनका स्तवन किया था, और सौराष्ट्र देशवासी धनी श्रावकों ने उनका महोत्सव किया था उन्होंने केवल उक्त देशों में ही धर्म का प्रचार नहीं किया था किन्तु उत्तरप्रदेश में भी जहाँ तहाँ विहार कर धर्म मार्ग की विमल धारा बहाई थी। जहाँ यह विद्वान और कवि थे, वहाँ ऊंचे दर्जे के प्रतिष्ठाचार्य भी थे। आप के द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ आज भी उपलब्ध हैं। इन्होंने भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित होते ही स० १५३१ में डूगरपुर में सहस्रकूट चैत्यालय की प्रतिष्ठा का सचालन किया। स० १५३४ को प्रतिष्ठिापत मतियाँ कितने ही स्थानों पर मिलती हैं। सं० १५३५ में उदयपुर में प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न किया। सं० १५४० में हंबड़ श्रावक लाखा और उसके परिवार ने इन्ही के उपदेश से आदिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई थी।
___ ऋषभदेव के यश:कोति भण्डार को पट्टावली से ज्ञात होता है कि ज्ञान भूपण पहले भ० विमलेन्द्र के शिष्य थे। और इनके सगे भाई एवं गुरु भ्राता ज्ञानकीर्ति थे। यह गोलालारीय जाति के श्रावक थे। सं० १५३५ में सागवाड़ा और नोगाम में महोत्सव एक ही साथ आयोजित होने से दो भट्टारक परम्पराएं स्थापित हो गई। सागरवाड़ा की प्रतिष्ठा के संचालक थे भ० ज्ञानभूषण । और नोगाम की प्रतिष्ठा के संचालक थे ज्ञानकोति । ज्ञानभूषण बडसाजनों के भट्टारक माने जाने लगे और ज्ञानकीर्ति लोहड साजनों के भ. कहलाने लगे। बाद में यह भेद समाप्त हया और भ० ज्ञान भूषण ने भुवन कीर्ति को गुरु मानना स्वीकार किया।
भ० ज्ञान भूषण अपने समय के अच्छे प्रतिभा सम्पन्न भट्टारक थे। डा. कस्तूरचन्द कासली वाल ने द्वितीय ज्ञानभूषण की रचनाओं को प्रथम ज्ञानभूषण की रचनाएँ मान लिया है। जो ठीक नहीं हैं। सिद्धान्तसार भाष्य, पोषहरास, जलगालनरास आदि रचनाएँ द्वितीय ज्ञानभूषण की हैं। जो लक्ष्मीचन्द वीरचन्द के शिष्य थे। और सूरत की गद्दी के संस्थापक भ. देवेन्द्र कीर्ति के परम्परा के विद्वान ये। सबसे पहले पं० नाथुराम जी प्रेमी ने सिद्धान्तसार भाष्य को प्रथम ज्ञान भूषण को कृति माना था। डा० ए० एन० उपाध्याय ने कार्तिकेयाणप्रेक्षा की प्रस्तावना पृ० ८० पर सिद्धान्तसार भाष्य को इन्हीं ज्ञान भूषण की कृति लिखा है जो ठीक नहीं जान पड़ता।
१. विख्यातो भुवनादि कीति मुनियः श्री मूलसंघेऽभवत् ।
तत्प? जनि बोधभूषण मुनिः स्वात्मस्वरूपे रतः । जाता प्रीति रतीवतस्य महना कल्याणकेषु प्रभोस्तेनेदं विहितं ततो जिनपतेराद्यस्य सवर्णणं ॥ आदिनाथ फाग प्र० २. शुभ चन्द्र गुर्वावली ३. देखो, राजस्थान के जैन संत, पृ०५४-५५ ४. देखो, सिद्धान्तसारादि संग्रह की भूमिका पृ०६
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
५०५ रचनाएं
प्रथम ज्ञानभूषण की निम्न रचनाएँ उपलब्ध हैं-पूजाप्टक टीका, तत्वज्ञानतरंगिणी स्वोपज्ञवृत्ति सहित मादिनाथ फाग, नेमिनिर्वाण पंजिका, परमार्थदेश, सरस्वती स्तवन ।
इन सब रचनात्रों में पूजाष्टक टीका सबसे पहली कृति जान पड़ती है ; क्योंकि कवि ने उसे मुनि अवस्था में वि० सं० १५२८ में डुगरपुर के प्रादिनाथ चैत्यालय में ब
यह ज्ञानभूषण की स्वयं रचित पूजामों की स्वोपज्ञ टीका है। यह दश अधिकारों में विभाजित है । इसकी एक लिखित प्रति सम्भवनाथ मन्दिर उदयपूर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है। उसमें पूजाप्टक टीका का नाम 'विद्वज्जनवल्लभा' बतलाया है। तत्वज्ञानतरंगिणी स्वोपज्ञटीका सहित
यह ग्रन्थ १८ अध्यायों में विभक्त हैं। इसमें शुद्ध चिद्र प का अच्छा कथन दिया हुआ है। ग्रन्थ अध्यात्म रस
है । ग्रन्थ रोचक और मुमुक्षुत्रों के लिये उपयोगी हैं । इस ग्रन्थ की रचना कवि ने उस समय की है जब वे भट्टारक पद से निःशल्य हो गये थे। उस समय ध्यान और अध्ययन दो ही कार्य मुख्य रह गये थे। यह ग्रथ हिन्दी अर्थ के साथ प्रकाशित हो चका है। पाठकों की जानकारी के लिये उसके कुछ पद्य हिन्दी भावार्थ के साथ दिये जाते हैं
स्वकीये शुद्धचिन्द्रपे सचिर्या निश्चयेन तत् ।
सहर्शनं मतं 'तज्ज्ञ: कर्मन्धन हताशनम् ॥८-१२ जिसकी शुद्ध चिद्र प: में रुचि होती है उसे तत्वज्ञानियों ने निश्च र सम्यग्दर्शन बतलाया है, वह सम्यग्दर्शन कम ईंधन के जलाने के लिये अग्नि के समान है।
मैं शुभ चैतन्य स्वरूप हूं ऐसा स्मरण करते ही शुभाशुभ कर्म न जाने कहाँ चले जाते हैं । चेतन अचेतन परिग्रह और रागादि बिकार हो विलीन हो जाते हैं। यह मैं नहीं जानता।
क्व यांति कर्माणि शुभा शुभानि क्व यांति संगाश्चिदचित्स्वरूपः ।
क्व यान्ति रागादय एव शुद्ध चिद्र पकोहं स्मरणे न विद्मः ॥८-२ इस शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति के लिए ज्ञानी जन निस्पृह होकर सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर एकान्त पर्वतों की गुफाओं में निवास करते हैं।
संगं विमुच्य विजने वसंति गिरि गह्वरे।
शद्ध चिद प सम्प्राप्त्य ज्ञानिनोऽन्यत्र निःस्पृहा ॥५-३ हे प्रात्मन् ! तू उस शुद्ध चिद्र प का स्मरण कर, जिसके स्मरणमात्र से शीघ्र ही कर्म नष्ट हो जाते हैं।
तं चिद्र पं निजात्मानं स्मर शुद्ध प्रतिक्षणं।
यस्य स्मरण मात्रण सद्यः कर्मक्षयो भवेत् ॥१३-२ कवि ने तत्त्वज्ञान तरगिणी की रचना सं० १५६० (सन् १५०३) में बनाकर समाप्त की है। আদিনাথ কাল
यह ग्रन्थ ५६१ श्लोकों की संख्या को लिए हुए है, जिसमें २२६ पद्य संस्कृत भाषा के हैं और २६२ पद्य हिन्दी भाषा के हैं । इन सब को मिला कर ग्रन्थ की ५६१ श्लोक प्रमाण संख्या पाती है।
समेिव नवोन षट्शहमितान (५६१) श्लोकान्विवुध्याऽन्नव ।
शुद्धं ये सुधियः पठन्ति सवहं ते पाठयन्त्वावरात् ॥"
१. इति भट्टारक श्री भुवनकीर्ति शिष्य मुनि ज्ञानभूषण विरचितायां स्वकृताष्टक दशक टीकायां बिद्वज्जन वल्लभा संज्ञायां नन्दीश्वर द्वीपजिनालयाचंन वर्णनीय नामा दशमोऽधिकारः।।
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
इममें भगवान आदि नाथ की जीवन गाथा अंकित है। उनके जन्म, जन्माभिषेक, वाल्य लीला राज्य पद और तपस्वी जीवन का मुन्दर एवं संक्षिप्त परिचय दिया है। हिन्दी पद्यों में जिन पर गुजराती भाषा का प्रभाव अंकित है, उन्ही मंस्कृत पद्यों का भाव दिया हया है।
डा. प्रेमसागर ने हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि में इस ग्रन्थ का रचना काल सं० १५५१ दिया है, जो किसी भूल का परिणाम है। उन्होंने ५६१ पद्य संख्या को फुटनोट में दिया है। वह निर्माण सूचक पद्य नहीं है, किन्तु पद्य संख्या की सूचना देता है। यदि प्रति में उसका रचना काल उन्हें मिला है तो उसका प्रमाण देना चाहिए था, पर नहीं दिया, यह रचना समय गलत है।
नेमि निर्वाण पंजिका
इसमें वाग्भट के नेमि निर्वाण महाकाव्य के विषम पदों का अर्थ स्पष्ट किया है । कहीं-कहीं यमक आदि के गूढ स्थलो के उद्घाटन करने का भी प्रयत्न किया है । पंजिका उपयोगी है उसका मगल पद्य निम्न प्रकार है :
धत्वा नेमीश्वरं चित्ते लब्धानन्तचतष्टयं ।
कुहं नेमिनिर्वाण महाकाव्यस्य पंजिका ॥ श्री नाभिसूनो: युगादिदेवस्य प्रथयंतु विस्तारयंतु । समं युगपत् । विस्तृताः, अधः पतिताः, मणीयितं मणिभिरिव चरितं । यः पदपद्मयुग्मनरवैः ।।
इति भट्टारक श्री ज्ञानभूपण विरचितायां महाकाव्य पंजिकायां प्रथम सर्गः ॥१॥
नेमि निर्वाण के सातवे सर्ग में रैवतक (गिरनार) पर्वत का बड़ा सुन्दर वर्णन आर्या, विन्द्यमाला मादि ४४ छन्दों में किया है जिस श्लोक में छन्द का प्रयोग किया है उसका नाम भी पद्य में अकित द्वयर्थक पद्यों के अर्थ को स्पष्ट किया है:
मुनिगण सेव्या गुरुणा मुक्तार्या जयति सा मुत्र ।
चरणमतमखिलमेव स्फुरतितरां लक्षणं यस्याः ॥७-२ इसकी पंजिका निम्न प्रकार है:
" 'मुनिगण सेव्या मुनिगणो भदन्तसमूहः सेव्यो लक्षणया पूज्यो नमस्करणीयो वयस्याः स तथोक्ताः, पक्षे सप्तगण सेव्या । गुरुणा गुरु दीक्षा गुरुः शिक्षा गुरुर्वरतेन, पक्षे एकेन दीर्घाक्षरेण । प्रार्या, प्रायिका, पक्षे प्रार्या नाम छन्दः । प्रमुत्र प्रत्र रैवतकाचले पक्षे अस्मिन्स । चरणगतेहे चारित्राश्रितम् पक्षे पादाश्रितम् । यस्याः प्रायिकायाः पक्षे प्रार्यस्याः ॥"
दिल्ली धर्मपुरा मंदिर के शास्त्र भंडार में इस पंजिका की प्रति उपलब्ध है।
परमार्थोपदेश–यह ग्रन्थ सूचियों में दर्ज हैं । पर मैने उसे देखा नहीं है, इसलिये उसका परिचय शक्य नहीं है । सरस्वती स्तवन-छोटा सा स्तोत्र है, जिसमें सरस्वती का स्तवन किया है, यह स्तोत्र अनेकान्त में प्रकाशित
-सम्वोधन नाम का ग्रन्थ भी बताया जाता है, पर उसके देखे बिना उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता।
इन्हीं ज्ञानभूषण के उपदेश से नागचन्द्रसूरि ने विषापहार और एकीभाव स्तोत्र की टीका की है। इनका समय १५२० से १५६० तक है । इसके बाद इनका कोइ विशेष परिचय मुझे ज्ञात नही होसका । इनकी मृत्यु कहां और कब हुई यह भी ज्ञात नहीं हो सका।
कवि दामोदर यह मूलसंघ सरस्वति गच्छ और बलात्कार गण के भट्टारक प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, शुभचन्द्र और जिन चन्द्र के शिष्य थे। भट्टारक जिनचन्द्र दिल्ली पट्ट के पट्टधर थे। उस समय के प्रभावशाली भट्टारक थे, प्राकृत संस्कृत के विद्वान और प्रतिष्ठाचार्य थे। आपके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां भारत के प्रायः सभी मन्दिरो में पाई
Page #541
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वी, १७वों और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
५०७
जाती हैं। यह सं० १५०७ में भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित हए थे और पट्टावली के अनुसार उस पर ६२ वर्ष तक प्रवस्थित होना लिखा है। इनके अनेक शिष्य थे, उनमें पंडित मेधावी और कवि दामोदर आदि हैं। कवि दामोदर की इस समय दो कृतियाँ प्राप्त हैं-सिरिपाल चरिउ और चन्दप्पहचरिउ। इन ग्रन्थों को प्रशस्ति में कवि ने अपना कोई परिचय अंकित नहीं किया।
सिरिपाल चरिउ
इस ग्रन्थ में चार संधियाँ हैं। जिनमें सिद्धचक्र के माहात्म्य का उल्लेख करते हुए उसका फल प्राप्त करने वाले राजा श्रीपाल पीर मनासुन्दरी का जीवन परिचय दिया हुआ है । सिद्धचक्रव्रत के माहात्म्य से श्रीपाल का और उनके सात सौ साथियों का कुष्ठ रोग दूर हुआ था । ग्रन्थ में रचना समय नहीं दिया, इसमे उसका निश्चित समय बतलाना कठिन है। चंदप्पह चरिउ
यह ग्रंथ नागीर के शास्त्रभंडार में उपलब्ध है, पर ग्रन्थ देखने को अभी तक प्राप्त नहीं हो सका. इस कारण यहां उसका परिचय नहीं दिया जा सका । ग्रन्थ में आठवें तीर्थकर की जीवन-गाथा अंकित की गई है। कवि का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है । कवि की अन्य क्या कृतियां है, यह अन्वेषणीय है।
नागचन्द्र यह मूलसंघ देशीयगण पुस्तक गच्छ-पनसोगे के जो तूलू या तौलववदेश में था, भट्टारक ललितकीति के प्रग्र शिष्य और देवचन्द मुनीन्द्र के शिष्य थे। कर्णाटक के विप्रकूल में उत्पन्न हा थे। इनका गोत्र श्रीवत्स था, पार्श्वनाथ और गुमटाम्बा के पूत्र थे। इन्हों ने धनजय कविकृत विपापहारस्तोत्र की संस्कृत टीका की प्रशस्ति में अपने को प्रवादिगज केशरी और नागचन्द्र सूरि प्रकट किया है । विपापहारस्तोत्र टीका बागड देश के मण्डलाचार्य ज्ञानभूषण के अनुरोध से बनाई है
___ "बागड देश मंडलाचार्य ज्ञानभूषण देवैमुहमहुरुपरद्धः कार्णादिराजसभे प्रसिद्धः प्रवादिगज केशरी विरुद कविमद विदारी सद्दर्शन ज्ञानधारी नागचन्द्रसूरि धनंजयसूरिभिहिमार्थ व्यक्तीकत्तुं शक्नुवन्नपि गुरुवचन मलंघनीयमिति न्यायेन तदभिप्रायं विवरीतुं प्रतिजानीते।"
(विपा० स्तोत्र पु० वाक्य) यह जैन धर्मानुयायी थे। इन्होंने ललितकीर्ति के शिप्य देवचन्द्र मुनीन्द्र का भी उल्लेख किया है :
इय महन्मत क्षीर पारावार पार्वण शशांकस्य मूलसंघ देशीय गण पुस्तक गच्छ यनशोकावलो तिलकालं कारस्य तौलवदेश पवित्रीकरणप्रबल श्रीललितकीति भट्टारकस्याग्रशिष्य गण वहण पोषण सकल शास्त्राध्ययन प्रतिष्ठा यात्राद्युपदेशानून धर्मप्रभावना धुरीण देवचन्द्र मुनीन्द्र चरण नख किरण चंद्रिका चकोरायमाणेन कर्णाट विप्रकुलोत्तस श्रीवत्सगोत्र पवित्र पार्श्वनाथ गुमटान्वातनुजेन प्रवादिगजकेशरिणा नागचन्द्रसूरिणा विषापहार स्तोत्रस्य कृता व्याख्या कल्पांत तत्त्व बोधायेति भद्र।"
विषापहार स्तोत्र की यह टीका उपलब्ध टीकामों में सबसे अच्छी है। स्तोत्र के प्रत्येक पद्य का अर्थ स्पष्ट किया है । कहा जाता है कि इन्होंने पंच स्तोत्रों पर टीका लिखी है। किन्तु वह मुझे उपलब्ध नहीं हुई। हां
१. भट्टारक ललित कीर्ति काव्य न्याय व्याकरणादि शास्त्रो के अच्छे विद्वान एवं प्रभावशाली भट्टारक थे । उनके शिष्य
थे कल्याण कीति, देवकीति और नागचन्द्र आदि। इन्होंने कारकल में भररस राजा वीरपाण्ड्य द्वारा निर्मापित ४१ फुट ५ इंच उत्तुंग बाहुबली की विशाल मूर्ति की प्रतिष्ठा शक सं० १३५३ (वि० सं० १४८८) में स्थिर लग्न में कराई थी। इनके बाद कारकल की इस भट्टारकीय गद्दी पर जो भी भट्टारक प्रतिष्ठित होता रहा वह ललित कीर्ति नाम से उल्लेखित किया जाता है।
Page #542
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
एकीभावस्तोत्र' की टीका जरूर उपलब्ध हुई है, उसकी कापी जयपुर के भंडार की प्रति पर से मैंने सन् ४४ मं की थो जो मेरे पास है । उसकी उत्थानिका में लिखा है भट्टारक ज्ञानभूषण के उपरोध से मैने यह टीका भव्यों के शीघ्र सुख बोध के लिये छायामात्र लिखी है ।
'चास्याति गहन गंभीरस्य सुखावबोधार्थं भव्याशुजिप्टक्षापारतंत्रज्ञानभूषण भट्टारकेरुपरुद्धौ नागचन्द्र सूरि यथाशक्ति छायामात्रमिदं निबंधनमभिधत्ते ।'
इन टीकों के प्रतिरिक्त नागचन्द्र की अन्य किसी कृति का उल्लेख मेरे देखने में नहीं श्राया । इनका समय १६वीं शताब्दी है । क्योंकि नागचन्द्र ने भ० ज्ञानभूषण का उल्लेख किया है, और ज्ञानभूषण ने सं० १५६० में तत्त्वज्ञानतरंगिणी की टीका समाप्त की है। अतएव नागचन्द्र का समय भी १६वीं शताब्दी सुनिश्चित है । श्रभिनव समन्तभद्र
५०८
अभिनव समन्तभद्र मुनि के उपदेश से योजन श्रेष्ठी के बनवाये हुए नेमीश्वर चैत्यालय के सामने कांसी का एक मानस्तम्भ स्थापित हुआ था। जिसका उल्लेख शिमोगा जिलान्तर्गत नगर ताल्लुके के शिलालेख नं०५५ में मिलता है' । यह शिलालेख तुलु, कोंकण आदि देशों के राजा देवराय के समय का है, और इस कारण मि० डेविस राइस साहब ने इनका समय ई० सन् १५६० के करीब बतलाया है ।
भट्टारक गुरणभव
गुणभद्र नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। परन्तु यह उनसे भिन्न जान पड़ते हैं। यह काष्ठासघ माथु - रान्वय के भट्टारक मलय कीर्ति के शिष्य और भ० यशःकीर्ति के प्रशिष्य थे । और मलयकीर्ति के बाद उनके पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे। यह प्रतिष्ठाचार्य भी थे, इनके द्वारा अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई है। इन्होंने अपने विहार द्वारा जिनधर्म का उपदेश देकर जनता को धर्म में स्थिर किया है, और उसके प्रचार एवं प्रसार में सहयोग दिया है । इनके उपदेश से अनेक ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ की गई हैं। इनकी बनाई हुई निम्न १५ कथाएं उपलब्ध है । १ सवणवारसि कहा २ पक्खवइ कहा ३ प्रायास पंचमी कहा ४ चंदायणवय कहा ५ चंदणछठ्ठी कहा ६ दुग्धारस कहा, ७ णिद्दह सत्तमी कहा ८ मउडसत्तमी कहा ६ पुप्फंजलि कहा १० रयणत्तय कहा १९ दहलक्खणवय कहा १२ अणंतवय कहा १३ लद्धिविहाण कहा १४ सोलह कारण कहा १५ और सुयधदशमी कहा ।
भ० गुणभद्र संभवतः १५०० में या उसके कुछ वर्ष बाद भ० पट्ट पर प्रतिष्ठित हो गये थे। क्योंकि सं० १५१० में प्रतिलिपि की गई समयसार की प्रशस्ति ग्वालियर के डूंगरसिंह राज्य काल में भ० गुणभद्र की ग्राम्नाय में अग्रवाल वंशी गगं गोत्रीय साहु जिनदास ने लिखवाई थी । इस कवि गुणभद्र का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है ।
गुणभद्र ने उक्त व्रत कथानों में व्रत का स्वरूप, उनके आचरण की विधि और फल का प्रतिपादन करते हुए व्रत की महत्ता पर अच्छा प्रकाश डाला | आत्म-शोधन के लिए व्रतों की नितान्त आवश्यकता है; क्योंकि प्रात्म शुद्धि के बिना हित साधन सम्भव नहीं है । इन कथाओंों में से श्रावण द्वादशी कथा और लब्धि विधान कथा ये दो कथाएं ग्वालियर निवासी संघपति साहू उद्धरण के जिनमन्दिर में निवास करते हुए साहु सारंगदेव के पुत्र देवदास की प्रेरणा से रची गई है। और दशलक्षण व्रतकथा, अनन्त व्रत कथा और पुष्पांजलि व्रतकथा ये तीनों कथाएं जैसवालवंशी चौधरी लक्ष्मणसिंह के पुत्र पण्डित भीमसेन के अनुरोध से बनाई हैं। और नरक उतारी दुद्धारस कथा बीधू के पुत्र सहणपाल के लिए बनाई गई । शेष 8 कथाएं कवि ने किसकी प्र ेरणा से बनाई, यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका । वे धार्मिक भावना से प्रेरित हो रची गई जान पड़ती हैं । कवि की अन्य क्या रचनाएँ है यह अन्वेषणीय है ।
ब्रह्म श्र ुतसागर मृलसंघ सरस्वती गच्छ और बलात्कारगण के विद्वान थे। इनके गुरु का नाम विद्यानन्दि था जो भट्टारक १. देखो, दानवीर मणिकचन्द्र पृ० ३०
Page #543
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य भट्टारक और कवि
५०६
हुए थे I
पद्मनन्दि के प्रशिष्य और देवेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे। और देवेन्द्रकोर्ति के बाद ये सूरत के पट्ट पर प्रासीन विद्यानन्दी के बाद उस पट्ट पर क्रमशः मल्लिभूषण और लक्ष्मीचन्द्र प्रतिष्ठित हुए थे। इनमें मल्लिभूषण गुरु श्रुतसागर को परम प्रादरणीय गुरु भाई मानते थे और इनकी प्रेरणा से श्रुतसागर ने कितने ही ग्रन्थों का निर्माण किया है। ये सब सूरत की गद्दी के भट्टारक हैं । इस गद्दी की परम्परा भ० पद्मनन्दी के बाद देवेन्द्र कीर्ति से प्रारम्भ हुई जान पड़ती है। ब्रह्मश्रुतसागर भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित नहीं हुए थे, किन्तु वे जीवन पर्यन्त देश व्रती ही रहे जान पड़ते हैं ।
श्रुतसागर ने ग्रन्थों के पुष्पिका वाक्यों में अपने को 'कलिकाल सर्वज्ञ, व्याकरण कमलमार्तण्ड, तार्किक शिरोमणि, परमागम प्रवीण, नवनवति महावादि विजेता आदि विशेषणों के साथ, तर्क- व्याकरण- छन्द अलंकारसिद्धान्त और साहित्यादि शास्त्रों में निपुणमती बतलाया है जिससे उनकी प्रतिभा और विद्वत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है ।
यशस्तिलक चन्द्रिका की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि श्रुतसागर ने ६६ वादियों को विजित किया था । जहां ये विद्वान टीकाकार थे, वहाँ वे कट्टर दिगम्बर और असहिष्णु भी थे । यद्यपि अन्य विद्वानों ने भी दूसरे मतों का खण्डन एव विरोध किया है, पर उन्होंने कहीं अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया । किन्तु श्रुतसागर ने उनका खण्डन करते हुए अप्रिय अपशब्दों का प्रयोग किया है, जो समुचित प्रतीत नहीं होते ।
मूलसंघ के विद्वानों, भट्टारकों में विक्रम की १३वीं शताब्दी से प्राचार में शिथिलता बढ़ने लगी थी, और श्रुतसागर के समय तक तो उसमें पर्याप्त वृद्धि हो चुकी थी। इसी कारण श्रुतसागर के टीका ग्रन्थों में मूल परम्परा के विरुद्ध कतिपय बातें शिथिलाचार की पोषक उपलब्ध होती हैं, जैसे तत्त्वार्थसूत्र के 'संयम श्रुत प्रतिसेवना' आदि सूत्र की तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरी टीका ) में द्रव्य लिंगी मुनि को कम्बलादि ग्रहण करने का विधान किया है । मूल सूत्रकार का ऐसा अभिप्राय नहीं है ।
समय विचार
ब्रह्मश्रुतसागर ने अपनी कृतियों में उनका रचना काल नहीं दिया जिससे यह निश्चित करना शक्य नहीं है कि उन्होंने ग्रन्थों की रचना किस क्रम से की है। पर यह निश्चयतः कहा जा सकता है कि वे विक्रम की १६वी शताब्दा के विद्वान हैं । वे सोलहवीं शताब्दी के प्रथम चरण से लेकर तृतीय चरण के विद्वान रहे हैं । इनके गुरु भट्टारक विद्यानन्दी के वि० सं० १४६६ से १५२३ तक ऐसे मूर्तिलेख पाये जाते हैं जिनकी प्रतिष्ठा भ० विद्यानन्दी ने स्वयं की है अथवा जिनमें भ० विद्यानन्दी के उपदेश से प्रतिष्ठित होने का समुल्लेख पाया जाता है और मल्लिभूषण गुरु वि० सम्वत १५४४ तक या उसके कुछ समय बाद तक पट्ट पर आसीन रहे हैं ऐसा सूरत आदि के मतिलेखों से स्पष्ट जाना जाता है। इससे स्पष्ट है कि विद्यानन्दी के प्रिय शिष्य ब्रह्मश्रुतसागर का भी यही समय है । क्योंकि वह विद्यानन्दी के प्रधान शिष्य थे। दूसरा आधार उनका व्रत कथा कोष है, जिसे मैंने देहली पंचायती मन्दिर के शास्त्र भण्डार में देखा था, और उसकी आदि अन्त प्रशस्तियां भी नोट की थी। उनमें २०वीं 'पल्यविधान कथा' की प्रशस्ति में ईडर के राठौर राजाभानु प्रथवा रावभाणू जी का उल्लेख किया गया है और लिखा है। कि- 'भानुभूपति की भुजा रूपी तलवार के जल प्रवाह में शत्रु कुल का विस्तृत प्रभाव निमग्न हो जाता था, और उनका मंत्री हुबड कुलभूषण भोजराज था, उसकी पत्नी का नाम विनयदेवी था, जो प्रतीव पतिव्रता साध्वी और जिनदेव के चरण कमलो की उपासिका थी । उससे चार पुत्र उत्पन्न हुए थे, उनमें प्रथम पुत्र कर्मसिंह, जिसका शरीर भूरि रत्नगुणों से विभूषित था और दूसरा पुत्र कुलभूषण था, जो शत्रु कुल के लिए काल स्वरूप था, तीसरा
1
१. देखी, गुजरातीमन्दिर सूरत के मूर्तिलेख, दानवीर माणिकचन्द्र पृ० ५३, ५४
२. मल्लि भूषण के द्वारा प्रतिष्ठित पद्मावती की सं० १५४४ को एक मूर्ति, जो सूरत के बढे मन्दिर जी में विराजमान है।
Page #544
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
पत्र पुण्य शाली थी घोपर, जो सघन पापरूपी गिरीन्द्र के लिए वन के समान था और चौथा गंगा जल के समान निर्मल मन वाला गङ्ग। इन चार पुत्रों के बाद इनकी एक बहिन भी उत्पन्न हुई थी, जिसका नाम पुतली था जो ऐसी जान पड़ती थी कि जिनवर के मुख से निकली हुई सरस्वती हो, अथवा दृढ़ सम्यक्त्व वाली रेवती हो, शील वती सीता हो और गुणरत्नराशि राजुल हो'। श्रुतसागर ने स्वयं भोजराज की इस पुत्री पुतली के साथ संघ सहित गजपन्थ और तुङ्गीगिरि आदि की यात्रा की थी। और वहां उसने नित्य पूजन की, तप किया पौर संघ को दान दिया था। जैसा कि उक्त प्रशस्ति के निम्न पद्यों से स्पष्ट है:
"श्री भानुभूपति भुजासिजलप्रवाह निर्मग्नशत्रुकुलजातततप्रभावः । सद्बुद्धच हुंवृह कुले बृहतील दुर्गे श्री भोजराज इति मंत्रिवरो बभूव ॥४४ भार्यास्य सा विनयदेव्यभिधासुधोपसोद्गारवाक् कमलकान्तमुखी सखीव । लक्ष्म्याः प्रभोजिनवरस्य पदान्जभृगी साध्वी पतिव्रतगुणामणिवन्महाया ॥४५ सासूत भूरिगुणरत्नविभूषितांगं श्री कर्मसिंहमिति पुत्रमनूकरत्नं । कालं च शत्रुकुलकालमनूनपुण्यं श्री घोषरं घनतराधगिरीन्द्र वज्र ॥४६ गंगाजलप्रविलोच्यमनोनिकेतं तुयं च वर्यतरमंगजमत्र गंगं। जाता पुरस्तवन पत्तलिका स्वसैषां वक्त्रष सज्जिनवरस्य सरस्वतीव ॥४७ सम्यक्त्वदाढर्यकलिता किल रेवतीव सीतेव शीलसलिलोक्षित राजीमतीव सुभगा गुणरत्नराशिः वेला सरस्वति इवांचति पुतलीह ॥४८ यात्रां चकार गजपंथ गिरो ससंघा ह्य तत्तपो विदधती सदढ़वतासा। सच्छान्तिकं गणसमर्चनमहंदीश नित्यार्चन सकलसंघ सदत्त दानम् ॥४६ तुगीगिरौ च बलभद्रमुनेः पदान्जभृगी तथैव सुकृतं यतिभिश्चकार । श्री मल्लिभूषणगुरुप्रवरोपदेशाच्छास्त्रं व्यधाय यदिदं कृतिनां हृदिष्ट ॥५०
-पल्य विधान कथा प्रशस्ति इन प्रशस्ति पद्यों में उल्लिखित भानुभूपति ईडर के राठौर वंशी राजा थे। यह राव के पूँजोजी प्रथम के पुत्र और रावनारायण दास जी के भाई थे, और उनके बाद राज्य पद पर आसीन हुए थे। इनके समय वि० सं० १५०२ में गुजरात के बादशाह मुहम्मद शाह द्वितीय ने ईडर पर चढ़ाई की थी, तब उन्होंने पहाड़ों में भागकर अपनी रक्षा की, बाद में उन्होंने सुलह कर ली थी। फारसी तबारीखों में इनका वीरराय नाम से उल्लेख किया गया है। इनके दो पुत्र थे सूरजमल्ल और भीसह । रावभाण जी ने स० १५०२ से १५२२ तक राज्य किया है । इनके बाद राव सूरजमल्ल जी स० १५५२ में राज्यासीन हुए थे । उक्त पल्ल विधान कथा की रचना रावभाण जी के राज्यकाल में हुई है। इससे भी श्रुतसागर का समय विक्रम को सोलहवीं शताब्दी का द्वितीय चरण निश्चित होत
श्रुतसागर का स्वर्गवास कब और कहाँ हमा, उसका कोई निश्चित आधार अब तक नहीं मिला, इसी से उनके उत्तर समय की सीमा निर्धारित करना कठिन है, फिर भी सं० १५८२ से पूर्व तक उसकी सीमा जरूर है और जिसका आधार निम्न प्रकार है :
थतसागर ने पं० पाशाधर जी के महाभिषेक पाठ पर एक टीका लिखी है जिसकी स० १५७० की लिखी हई टीका की प्रति भ० सोनागिर के भंडार में मौजूद है । इससे यह टीका सं० १५७० से पूर्व बनी है यह टोका अभिषक पाठ संग्रह में प्रकाशित हो चुकी है। उसकी लिपि प्रशस्ति सं० १५८२ की है जिससे भ० लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य ब्रह्मज्ञानसागर के पठनार्थ आर्या विमलश्री की चेली और भ० लक्ष्मीचन्द्र द्वारा दीक्षित विनयश्री ने स्वयं लिखकर
१. देखो, भारत के प्राचीन राजवंश भा० ३ पृ० ४२६ । २. सं० १५८५ की लिखी हुई श्रुतसागर की षट् पाहुड टीका की एक प्रति आमेर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध है। उसकी लिपिप्रशस्ति मेरी नोटबुक में उद्धृत है।.
Page #545
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य भट्टारक और कवि प्रदान की थी। इनके सिवाय, ब्रह्मनेमिदत्त ने अपने आराधना कथा कोश, श्रीपाल चरित, सुदर्शन चरित, रात्रिभोजन त्याग कथा और नेमिनाथ पुराण आदि ग्रन्थों में श्रुतसागर का प्रादरपूर्वक स्मरण किया हैं। इन ग्रन्थों में आराधना कथा कोश सं० १५७५ के लगभग की रचना है, और श्रीपाल चरित सं० १५८५ में रचा गया है। शेष रचनाएं इसी समय के मध्य की या आसपास के समय की जान पड़ती है। रचनाएँ
ब्रह्म श्रुतसागर की निम्न रचनाएं उपलब्ध हैं-१. यशस्तिलक चन्द्रिका २. तत्त्वार्थ वृत्ति ३. तत्त्व त्रय प्रकाशिका. ४. जिन सहस्र नाम टीका ५. महाभिषेक टीका ६. पट् पाहुडरीका ७. सिद्धभक्ति टोका ८. सिद्ध चक्राष्टक टीका,
६ व्रत कथा कोश-ज्येष्ठ जिनवर कथा, रविव्रतकथा, सात परम स्थान कथा, मुकुट सप्तमी कथा, अक्षयनिधि कथा, षोडश कारण कथा, मेघमालाव्रत कथा, चन्दन पष्ठी कथा, लब्धिविधान कथा, पुरन्दर विधान कथा दशलाक्षणी व्रत कथा, पुष्पांजलि व्रत कथा, प्राकाश पचमी कथा, मुक्तावलि व्रत कथा, निर्दु ख सप्तमी कथा, सुगंधदशमी कथा, थावण द्वादशी कथा, रन्नत्रय व्रत कथा, अनन्त व्रत कथा, अशोक रोहिणी कथा, तपो लक्षण पक्ति कथा मेरु पंक्ति कथा, विमान पक्ति कथा और पल्ल विधान कथा । इन सब कथामों के संग्रह का नाम व्रत कथा काष है। यद्यपि इन कथाओं में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के अनुरोध एव उपदेशादि द्वारा रचे जाने का स्पष्ट उल्लेख निहित है। १० श्रीपाल चरित ११. यशोधर चरित १२. औदार्य चिन्तामणि (प्राकृत स्वोपज्ञवृत्ति युक्त व्याकरण) १३. श्रत स्कन्ध पूजा १४. श्रीपार्श्वनाथ स्तोत्रम् १५. शान्तिनाथ स्तुतिः । पार्श्वनाथ स्तोत्र १५ पद्यात्मक है, जा अनेकान्त वर्ष १२ किरण ८ पृ० २३६ पर प्रकाशित हुआ है । यह जीरा पल्लिपुर' में प्रतिष्ठित पाश्वनाथ जिन का स्तवन है। इस स्तवन में पार्श्वनाथ जिन का पूरा जीवन अकित है। इसमें पार्श्वनाथ के पिता का नाम विश्वसन बतलाया हे, जा काशी (वाराणसी) के राजा थे।
वमिष्टो विश्वसेनः शतमख रुचितः काशि वाराणसीशः। प्राप्तज्यो मेरु शृगे मरकत मणि रुक्पार्श्वनाथो जिनेन्द्रः । तस्याभूस्त्वं तनूजः शत शरद् चितस्वापुरानंदहेतु
*व्यानां भाव्यमानो भवचकितधियां धर्मधुर्यो धरित्र्यां ॥" शान्तिनाथ स्तुतिः में नौ पद्य हैं । यह स्तवन भी अनेकान्त वर्ष १२ किरण ६ पृ० २५१ में मुद्रित हुआ है । ब्रह्म श्रुतसागर की कई रचनाएँ अभी अप्रकाशित हैं जिनके प्रकाशन की व्यवस्था होनी चाहिए।
ब्रह्म नेमिदत्त यह मूलसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कार गण के विद्वान मल्लिभूषण के शिष्य थे। इनके दीक्षा गुरु भ० विद्यानन्दि थे, जो सूरत गही के संस्थापक भ० देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। इन्ही विद्यानन्दि के पट्ट पर प्रतिष्ठित होने वाले मल्लिभूषण गुरु थे, जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्ररूप रत्नत्रय से सुशोभित थे। और विद्यानिन्द रूप पट्ट को प्रफुल्लित करने वाले भास्कर थे' । मल्लिभूषण के दूसरे शिष्य भ० सिंहनन्दिगुरु थे, जो मालवा की गद्दी के भट्टारक थे। इनकी प्रार्थना (मालवादेश भट्टारक श्री सिहनन्दि प्रार्थना) से श्रुतसागर ने यशस्तिलक चम्पू की 'चन्द्रिको' नाम की टीका लिखी थी और ब्रह्मनेमिदत्त ने नेमिनाथ पुराण भी मल्लिभूषणके उपदेश से बनाया था और वह उन्हीं के नामांकित किया गया था।
ब्रह्म नेमिदत्त के साथ मूर्ति लेख में ब्रह्म महेन्द्रदत्त नाम का और उल्लेख मिलता है । जो नेमिदत्त के सहपाठी हो सकते हैं । ब्रह्मनेमिदत्त संस्कृत हिन्दी और गुजराती भाषा के विद्वान थे। आपकी संस्कृत भाषा को १०
१. जीरा पल्लिपुर प्रकृष्ट महियन मौकुन्द सेवानिधे।
-पाश्र्वनाथ स्तवन
Page #546
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
चना उपलब्ध हैं। वे सब ग्रन्थ परित पुराण और कथा सम्बन्धी हैं। पूजा सम्बन्धी साहित्य भी प्रापका रचा हना होगा। अंतरीक्ष पार्श्वनाथ पूजा अापकी लिखी हुई पाई जाती है। प्रापका समय विक्रम की १६वीं शताब्दी का ततीय चतुर्थ चरण है। क्योंकि इन्होंने पाराधना कथाकोश सं० १५७५ प्रौर श्रीपाल चरित सं० १५५५ में बनाकर समाप्त किया है। इनका जन्मकाल सं०१५५० या १५५५ के पासपास का जान पड़ता है।
रचनाएँ
(१) पाराधना कथा कोश (२) रात्रिभोजन त्याग कथा (३) सुदर्शन चरित (५) श्रीपाल चरित (५) धर्मों पदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार (६) नेमिनाथ पुराण (७) प्रीतिकर महामुनि चरित (८) धन्य कुमार चरित (8) नेमिनिर्माण काव्य (ईडर भंडार) (१०) और अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ पूजा। इनके अतिरिक्त हिन्दी भाषा की भी दो रचनाएं उपलब्ध हैं । मालारोहिणी (फुल्ल माल) पौर आदित्य व्रतरास । इन दोनों रचनाओं का परिचय अनेकान्त वर्ष १८ किरण दो प०२पर देखना चाहिए । नेमिदत्त के आराधना कथा कोश के अतिरिक्त अन्य रचनाएँ अभी अप्रकाशित हैं । रचनाएं सामने नहीं है । अतः उनका परिचय देना शक्य नहीं है। नेमिनाथ पुराण का हिन्दी अनुवाद सुरत से प्रकाशित हुआ है । पर मूल रूप छपा हुआ मेरे अवलोकन में नहीं आया।
म० अभिनव धर्मभूषण धर्मभूषण नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं। प्रस्तुत धर्मभूषण उनसे भिन्न हैं। क्योंकि इन्होने अपने को 'अभिनव' 'यति' और 'प्राचार्य विशेपणों के साथ उल्लेखित किया है । यह मूलसंघ में नन्दिसंधस्थ बलात्कारगण सरस्वति गच्छ के विद्वान भट्टारक वर्द्धमान के शिष्य थे। विजय नगर के द्वितीय शिलालेख में उनकी गुरुपरम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार पाया जाता है-पद्मनन्दी, धर्मभूषण, अमरकीति, धर्मभूषण, वर्द्धमान, और धर्मभूषण' ।
यह अच्छे विद्वान व्याख्याता और प्रतिभाशाली थे। इनका व्यक्तित्व महान् था। विजयनगर का राजा देवराय प्रथम, जो राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि से विभूषित था, इनके चरण कमलों की पूजा किया करता था।
राजाधिराज परमेश्वर देवराय, भूपाल मौलिलसदंघ्रि सरोजयुग्मः । श्रीवर्धमान मुनि वल्लभ मौढ्य मुख्य ; श्रीधर्मभूषण सुखी जयति क्षमाढ्यः ।
दशभक्त्यादि महाशास्त्र इस राजा देवराय प्रथम को महारानी भीमा देवी जैनधर्म को परम भक्त थो। इसने श्रवण बेलगोल को मंगायी वसदि में शान्तिनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित कराई थी और दान दिया था। इसका राज्य सन् १४१८ ई. तक
विजय नगर के दितीय शिलालेख में जो शक सं०१३०७ (सन १३८५) का उत्कोणं किया हना है। इससे इन धर्मभूषण का समय ईसा की १४वीं शताब्दी का उत्तरार्ध पोर १५वीं शताब्दी का पूर्वार्ध सुनिश्चित है।
इसमें मन्देह नहीं कि अभिनव धर्मभूषण प्रपने समय के प्रसिद्ध विद्वान थे। पद्मावती देवो के शासन लेख में इन्हें बड़ा विद्वान और वक्ता प्रकट किया है । यह मुनियों और राजामों से पूजित थे ।
१. "शिष्यम्तस्य गुरोरासी धर्मभूषण देशकः।"
भट्टारक मुनिः श्रीमान् शल्यत्रय विवर्जितः।। विजय नगर द्वि. शिलालेख । "मदगुरो वर्चमानिशो वर्द्धमान दयानिधेः ।
श्री गद स्नेह सम्बन्धात् सिद्धेयं न्याय दीपिका ।। -न्याय दीपिका प्रशस्ति २. विजय नगर का द्वितीय शिलालेख, जैन सि० भास्कर भा० १ किरण ४१०५६ ३. प्रशस्ति संग्रह, जैनसिद्धान्तभवन मारा पृ० १२५ । ४. मिडियावल जैनिज्म पृ० २६६ ।
Page #547
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं १६वीं १७वीं और १६वीं शताब्दी के आचार्य भट्टारक और कवि
५१३
न्याय दीपिat
मापकी एकमात्र कृति 'न्यायदीपिका' है, जो प्रत्यन्त संक्षिप्त विशद और महत्वपूर्ण कृति है । यह जैन न्याय के प्रथम अभ्यासियों के लिये बहुत उपयोगी है। इसकी भाषा सुगम श्रौर सरल है । जिससे यह जल्दी ही विद्यार्थियों के कण्ठ का भूषण बनजाती है। श्वेताम्बरीय विद्वान उपाध्याय यशोविजय जी ने इसके अनेक स्थलों को श्रानुपूर्वी के साथ अपना लिया है। इसमें संक्षेप में प्रमाण और नय का स्पष्ट विवेचन किया गया है ।
इसमें तीन प्रकाश या प्रध्याय - प्रमालक्षण प्रकाश, प्रत्यक्ष प्रकाश और परोक्षप्रकाश । इनमें से प्रथम प्रकाश में उद्देशादि निर्देश के साथ प्रमाणसामान्य का लक्षण, संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय का लक्षण, इन्द्रियादि को प्रमाण न हो सकने का वर्णन, स्वतः परतः प्रमाण का निरूपण, बौद्ध भाट्ट और प्रभाकर तथा नैयायिकों के प्रमाण लक्षणादि की आलोचना और जैनमत के सम्यगज्ञानत्व को प्रमाणसामान्ग का निर्दोष लक्षण स्थिर किया है ।
दूसरे प्रकाश में प्रत्यक्ष का स्वरूप, लक्षण, भेद-प्रभेदादि का वर्णन करते हुए प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष का समर्थन कर सर्वज्ञसिद्धि आदि का कथन किया है ।
तीसरे परोक्षप्रकाश में परोक्ष का लक्षण, उसके भेद-प्रभेद साध्य साधनादिका लक्षण, हेतु के रुप और पंचरूप का निराकरण, अनुमान भेदों का कथन, हेत्वाभासों का वर्णन तथा अन्त में आगम और नय का कथन करते हुए अनेकान्त तथा सप्तभंगी का संक्षेप में प्रतिपादन किया है ।
ग्रन्थ में ग्रन्थ कर्ता ने रचना काल नहीं दिया। फिर भी विजयनगर के द्वितीय शिलालेख के अनुसार इनका समय ईसा की १४वीं - १५वीं शताब्दी है ।
भ० विद्यानन्दी
मूलसंघ भारतीगच्छ और बलात्कार गण के कुन्दकुन्दान्वय में हुए थे। इन्होंने अपनी पट्ट परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार किया है - प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, देवेन्द्रकीर्ति और विद्यानन्द ।
श्रीमूलसङ्घे वर भारतीये गच्छे बलात्कारगणेऽतिरम्ये ।
श्री कुन्दकुन्दाख्य मुनीन्द्र पट्टे जातः प्रभाचन्द्र महामुनीन्द्रः || ४७ पट्टे तदीये मुनिपद्मनन्दी भट्टारको भव्यसरोजभानुः । जातो जगत्त्रयहितो गुणरत्न सिन्धुः कुर्यात् सतां सार सुखं यतीशः ॥ ४८ तत्पट्टपद्माकर भास्करोऽत्र देवेन्द्रकोतिर्मु निचक्रवर्ती।' तत्पाद पङ्केज सुभक्तियुक्तो विद्यादिनन्दी चरितं चकार ॥४६ —सुदर्शन चरित प्रशस्ति
इनके गुरु भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति थे, जो सूरत की गद्दी के पट्टधर थे । भट्टारक पद्मनन्दी का समय सं०१३८५ से १४५० तक पाया जाता है। सम्भवतः सूरत की पट्ट शाखा का प्रारम्भ इन्हीं देवेन्द्रकीर्ति ने किया है । इन्हीं के पट्टशिष्य विद्यानन्दी थे। सूरत के सं० १४६९ के धातु प्रतिमा लेख से जो चौबीसी मूर्ति के पादपीठ पर अंकित है, उसकी प्रतिष्ठा विद्यानन्दी गुरु के प्रादेश से हुई थी । सं० १४६९ से १५२१ तक की मूर्तियों के लेखों से स्पष्ट है कि वे विद्यानन्दी गुरु के उपदेश से प्रतिष्ठित हुई हैं ।
विद्यानन्दी के गृहस्थ जीवन का कोई परिचय मेरे प्रवलोकन में नहीं श्राया । सं० १५१३ के मूर्तिलेख से
१. सं० १४९९ वर्षे बैशाख सुदी १० बुधे श्री मूलसंधे बलात्कारगरों सरस्वती गच्छे मुनि देवेन्द्रकीति तत्शिष्य श्री विद्याभग्नी रानी श्रेया चतुर्विंशतिका कारा(सूरत, दा० मा० पु० ५५
नन्दी देवा उपदेशात् श्री हुबडवंश शाह सेता भार्या रूडी एतेषां मध्ये राजा पिता ।
Page #548
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ स्पष्ट है कि वे भ० देवेन्द्र कीर्ति के द्वारा दीक्षित थे । इन्होंने अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा की और करवाई।
इनका कार्य सं० १४६६ से १५३८ तक पाया जाता है। पट्टावली के अनुसार इन्होंने सम्मेदशिखर, चम्पा, पावा, ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार) आदि सिद्ध क्षेत्रों की यात्रा की थी। ये अनेक राजाओं से-वजांग, गंगजय सिंह व्याघनरेन्द्र प्रादि से सम्मानित थे। इन्हें डा. हीरालाल जी ने प्रष्ट शाखा प्राग्वाट वंश, परवारवंश का बतलाया है। इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ हूमडवंशी श्रावकों की अधिक पाई जाती है।
भ० विद्यानन्दी के अनेक शिष्य थे-ब्रह्म श्रुतसागर, मल्लिभूषण, ब्रह्म प्रजित, ब्रह्म छाहड, ब्रह्म धर्मपाल प्रादि। श्रतसागर ने अनेक ग्रन्थों की रचना की, उन्होंने अपने गुरु का आदरपूर्वक स्मरण किया है। मल्लिभूषण इनके पट्टधर शिष्य थे । ब्रह्मअजित ने भडौंच में हनुमान चरित की रचना की । ब्रह्म छाहड ने सं० १५९१ में भडौंच में धनकमार चरित की प्रति लिखी । और ब्रह्म धर्मपाल ने स० १५०५ में एक मूर्ति स्थापित की थी ।
इनकी दो कृतियों का उल्लेख मिलता है-सुदर्शन चरित और सुकुमाल चरित ।।
सदर्शन चरित-यह संस्कृत भाषा में लिखा गया एक चरित ग्रन्थ है जो १२ अधिकारों में विभक्त है. मौर जिसकी श्लोक संख्या १३६२ है। प्रस्तुत ग्रन्थ में सुदर्शन मुनि के चरित के माध्यम से णमोकार मंत्र का माहात्म्य प्रदर्शित किया गया है। मुनि सुदर्शन तीर्थकर महावीर के पांचवें अन्तकृत् केवली माने गये हैं। इनकी सबसे बडी विशेषता है कि इन्होंने घोर तपस्या करते हए नाना उपसर्गो को सह कर उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर स्वात्म लब्धि को प्राप्त किया है।
ग्रन्थ में सुदर्शन मुनि के पांच भवों का वर्णन सरल संस्कृत पद्यों में किया गया है। णमोकार मन्त्र के प्रभाव से बालक गोपाल ने सेठ सुदर्शन के रूप में जन्म लिया, खूब वैभव मिला, किन्तु उसका उदासीन भाव से उपभोग किया । घोर यातनाएं सहनी पड़ी, पर उनका मन भोग विलास में न रमा, प्रोर न परीषह उपसर्गों से भी रंचमात्र विचलित हए । आत्म संयम के उच्चादर्श रूप में वीतरागता और सर्वज्ञता प्राप्त कर अन्त में शिवरमणी को
सुदर्शन की यह पावन जीवन-गाथा प्राकृत संस्कृत और अपभ्रंश के ग्रन्थों में अकित की गई है। दूसरी रचना सुकुमाल चरित्र को मुमुक्षु विद्यानन्दी की कृति बतलाया है, देखो, टोडारायसिह भण्डार मची. जैन सन्देश शोधांक १० पृ० ३५६ । ग्रन्थ सामने न होने से इसके सम्बन्ध में कुछ लिखना सम्भव नहीं है। इनका समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है।
भट्टारक श्रुतकीर्ति श्रुतकीति नन्दि संघ बलात्कारगण सरस्वती गच्छ के विद्वान थे। यह भट्टारक देवेन्द्रकीति के प्रशिष्य र निभवन कीति के शिष्य थे। ग्रन्थकर्ता ने भ० देवेन्द्रकीति को मृदुभाषी और अपने गुरु त्रिभुवनकीति को प्रमत वाणी रूप सद्गुणों के धारक बतलाया है। श्रुतकीति ने अपनी लघुता व्यक्त करते हए अपने को अल्प बदि बतलाया है। कवि को उक्त सभी रचनाएं वि० सं० १५५२ और १५५३ में रची गई हैं और वे सब रचनाएं मांडवगढ (वर्तमान मांड) के सुलतान गयासुद्दीन के राज्य में दमोवा देश के जेरहट नगर के नेमिनाथ मन्दिर में रची गई हैं।
इतिहास से प्रकट है कि सन् १४०६ में मालवा के सूबेदार दिलावर खां को उसके पुत्र अलफ खां ने विष देकर मार डाला था, मोर मालवा को स्वतन्त्र उद्घोषित कर स्वयं राजा बन बैठा था। उसकी उपाधि हशंगसाह
१. सं० १५१३ वर्षे वैशाखसुदी १० बुधे श्री मूलसंषे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे भ. श्रीप्रभाचन्द्रदेवाः तत्पटे भ. पयनन्दी ततशिष्य श्री देवेन्द्रकीति दीक्षिकार्य श्री विद्यानन्दी गुरूपदेशात् गांधार वास्तव्य हुबह ज्ञातीय समस्त श्री संघेन कारापित मेरुशिखरा कल्याण भूयात् ।
(सूरत दा० मा०प० ४३) २. जन सि. भा० १० १० ५१ 1. भट्टारक सम्प्रदाय पृ० १६
Page #549
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि
५१५ थी। इसने मांडवगढ़ को खूब मजबूत बनाकर उसे ही अपनी राजधानी बनाई थी। उसी के वंश में गयासुद्दीन, हुआ, जिसने मांडवगढ़ से मालवा का राज्य सं० १५२६ से १५५७ अर्थात् सन् १४६६ से १५०० ई० तक किया है । इसके पुत्र का नाम नसीरशाह था, और इसके मन्त्री का नाम पुजराज था जो वणिक और वैष्णव धर्मानयायी था, संस्कृत भापा का अच्छा विद्वान कवि और राजनीति में चतुर था । जैन धर्म तथा जैन विद्वानों से प्रेम रखता था।
भट्टारक श्रुतकीति को तीन कृतियां पूर्ण और चौथी कृति अपूर्णरूप में उपलब्ध है। हरिवंशपुराण परमेष्ठी प्रकाशसार और जोगसार। चौथी कृति का नाम 'धर्म परीक्षा है, जो डा० हीरालाल जी एम० ए० डी० लिट् को प्राप्त हुई है। हरिवंशपुराण
इसमें ४७ सन्धियां है जिनमें २२वें तीर्थकर नेमिनाथ का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। प्रसंग वश उसमें श्रीकृष्ण प्रादि यदुवंशियों का सक्षिप्त जीवन चरित्र भी दिया हना है।
इस ग्रन्थ की दो प्रतियाँ उपलब्ध हुई हैं। एक प्रति जैन सिद्धान्त भवन पारा में हैं, और दूसरी पामेर के भटटारक महेन्द्र कीति के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है, जो सम्वत् १६०७ की लिखी हई है और जिसका रचना काल सम्वत् १५५२ हैं । जो जेरहट नेमिनाथ मन्दिर में गयासुद्दीन के राज्य काल म रचा गया है। पारा की प्रति सं० १५५३ की लिखी हुई है और जिसमें ग्रन्थ के पूरा होने का निर्देश है, जो मण्डपाचल (मांड) दुर्ग के शासक गयासुद्दीन के राज्य काल में दमोवा देश के जेरहट नगर के महाखान और भोजखान के समय लिखी गई है । ये महाखान भोजखान जेरहट नगर के सुबेदार जान पड़ते है। वर्तमान में रहट नाम का एक नगर दमोह के अन्तर्गत है। दमोह पहले जिला रह चुक बहुत सम्भव है कि दमोह उस समय मालव राज में शामिल हा । कवि ने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार किया है-नन्दिसघ बलात्कारगण, वागेश्वरी (सरस्वती) गच्छ में, प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, विद्यानन्दि, पद्मनन्दि (द्वितीय), देवन्द्र कीति (द्वितीय), त्रिभुवन कीर्ति, श्रुतकीर्ति ।
परमेष्ठी प्रकाशसार
इस ग्रन्थ की एकमात्र प्रति आमेर ज्ञानभण्डार में उपलब्ध हई है जिसके आदि के दो पत्र और अन्त का एक पत्र नहीं है, पत्र संख्या २८८ है। ग्रन्थ में सात परिच्छेद या अध्याय हैं जिनकी श्लोक संख्या तीन प्रमाण को लिए हए है। ग्रन्थ का प्रमुख विपय धर्मोपदेश है, इसमें सष्टि और जीवादि तत्वों का सून्दर विवेचन कडवक और घता गैली में किया गया है। कवि ने इस ग्रन्थ को भी उक्त माडवगढ़ के जेरहट नगर के प्रसिद्ध नेमीश्वर जिनालय में बनाया है । उस समय वहां गयासुद्दीन का राज्य था और उसका पुत्र नसीरशाह राज्य कार्य में अनु
१. See Combridge Shorter History of india P.309 २. संवतु विक्कम सेरण गरेसई, सहसु पंचसय बावरणसेसई। मडवगडु बर मालवदेसई, साहि गयासु पयावअसेसई।
णयर जेरहट जिणिहर चंगउ, मिणाह जिणबिव अभंग। -जैन ग्रन्थ प्रश. भा० २ पृ.' ३. सं० १५५३ वर्षे ववार वदि द्वजसुदि (द्वीतीय) गुरौ दिने अद्येह मण्डपाचलगढ़ दुर्गे सुलतान गयासुद्दीन राज्ये प्रवर्तमाने
श्री दमोवादेशे महाखान भोजखान प्रवर्तमाने जेरहट स्थाने सोनी श्री ईसुर प्रवर्तमाने श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनन्दि देवतस्य शिष्य मण्डलाचार्य देविंदकीतिदेव तच्छिष्य मण्डलाचार्य श्री त्रिभूवनकोति देवान् तस्य शिष्य श्रुतकीति हरिवंश पुराणे (णे) परिपूर्ण कृतम् ........"
-आरा प्रति
Page #550
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
राग रखता था। पुजराज नाम का एक वणिक उसका मन्त्री था। ईश्वर दास नाम के सज्जन उस समय प्रसिद्ध थे। जिनके पास विदेशों से वस्त्राभूषण पाते थे, जयसिंह, संघवी शंकर पौर संघपति नेमिदास उक्त अर्थ के ज्ञायक थे। अन्य साधर्मी भाइयों ने भी इसकी अनुमोदना की थी और हरिवशपुराणादि ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ कराई थी। प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम सं० १५५३ के श्रावण महीने की पंचमी गुरुवार के दिन समाप्त हुमा था। जोगसार
प्रस्तुत ग्रन्थ दो संधियों या परिच्छेदों में विभक्त है जिनमें गृहस्थोपयोगी प्राचार सम्बन्धी सैद्धान्तिक बातों पर प्रकाश डाला गया है। साथ में कुछ मुनि चर्या प्रादि के सम्बन्ध में भी लिखा गया है।
__ग्रन्थ के अन्तिम भाग में भगवान महावीर के बाद के कुछ प्राचार्यों की गुरु परम्परा के उल्लेख के साथ कुछ ग्रन्थकारों की रचनाओं का भी उल्लेख किया गया है, और उससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि भट्टारक श्रत कीति इतिहास से प्रायः अनभिज्ञ थे और उसे जानने का उन्हें कोई साधन भी उपलब्ध न था, जितना कि आज उपलब्ध है। दिगम्बर श्वेताम्बर संघभेद के साथ प्रापुलीय (यापनीय) संघ मिल्ल और निःपिच्छक संघ का नामोल्लेल किया गया है । और उज्जैनी में भद्रबाहु से सम्राट चन्द्रगुप्त की दीक्षा लेने का भी उल्लेख है। ग्रन्थकार संकीर्ण मनोवृत्ति को लिए था, वह जैनधर्म की उस उदार परिणति से भी अनभिज्ञ था, इसीसे उन्होंने लिखा है कि-'जो प्राचार्य शूद्रपुत्र और नोकर वगैरह को व्रत देता है वह निगोद में जाता है और अनन्त काल तक दुःख भोगता है। प्रस्तुत ग्रन्थ सं० १५५२ में मार्गशिर महीने के शुक्ल पक्ष में रचा गया है । इसकी अन्तिम प्रशस्ति में 'धर्म परीक्षा' ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जिससे वह इससे पूर्व रची गई हैं।
कवि की चौथी कृति 'धम्म परिक्खा' धर्मपरीक्षा है। जिसकी एक अपूर्ण प्रति डा. हीरालाल जी एम० ए. डी० लिट्को प्राप्त हुई थी। उसमे १७६ कडवक है, उसे सम्वत् १५५२ मे बना कर समाप्त किया था। जिस का परिचय उन्होंने 'अनेकान्त' वर्ष १२ किरण दो में दिया था। इन चारों ग्रथों के अतिरिक्त कवि की अन्य भी कृतियां होगी, जिनका अन्वेषण करना आवश्यक है।
कवि माणिक्यराज यह जैसवाल कुलरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये तरणि (सूर्य) थे । इनके पिता का नाम 'बुधसूरा' था और माता का नाम 'दीवा' था । कवि ने अमरसेन चरित में अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार दी है-क्षेमकीति, हेमकीति, कुमारसेन, हेमचन्द्र और पद्मनन्दी। ये सब भट्टारक मूलसंघ के अनुयायी थे। कवि के गुरु पद्मनन्दी थे, जो बडे तपस्वी शील को खानि निर्ग्रन्थ, दयालू और अमृतवाणी थे। प्रमरसेन चरित की अन्तिम प्रशस्ति में कवि ने पद्मनन्दी के एक शिष्य का और उल्लेख किया है, जिनका नाम देवनन्दी था और जो श्रावक की एकादश प्रतिमानों के सपालक, राग द्वेष के विनाशक, शुभध्यान में अनुरक्त और उपशमभावी था। कवि ने अपने गुरु का अभिनन्दन किया है।
कवि की दो रचनाएं उपलब्ध हैं । कवि ने रोहतासपुर के जिनमंदिर में निवास करते हुए ग्रन्थों की रचना पौर दोनों ग्रन्थ ही अपूर्ण हैं। उनमें प्रथम प्रमरसेन चरित का रचनाकाल वि० सं० १५७३ चंत्रशुक्लपंचमी
-योगसार पत्र ६५
१. अह जो सूरि देइ वउगिच्चह, नीच-सूद-सुय दासभिच्चहं।
जाय णियोग असुहअणुहुन्जई, अभिय कालतहं घोर दुह भुजह । २. विक्कम रायह ववगह कालई, पण्णंरह सयते बावण अहियई।
रयउ गंधु तं जाउ सउण्णउ, पंच"....."दासस जायउ 1. "सिरि जयसवाल-कुल-कमल-तरणि, इक्ष्वाकु वंस महियलि वरिट्ठ,वुहसूरा णंदण सुअ गरिट्ट। उघण्णउ दीवा उररवण्णु, बहुमाणिकुणामें वुहाहि मण्ण।"
-जोग-सार प्रशस्ति
-नागकुमार चरित प्र.
Page #551
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि शनिवार है। पौर दूसरे ग्रन्थ नागकुमार चरित्र का रचनाकाल सं० १५७६ है अतः कवि विक्रम को १६वीं शताब्दी के तृतीय चरण के विद्वान हैं।
अमरसेन चरित्र
इस ग्रन्थ में सात सन्धिया या परिच्छेद हैं, जिनमें प्रमरसेन की जीवन गाथा दी हुई है। राजा अमरसेन धर्मनिष्ठ और संयमी था। इसने प्रजा का पुत्रवत् पालन किया था। वह देह-भोगों लिये उद्यत हुप्रा । उसने राज्य और वस्त्राभूषण का परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा ले ली और शरीर से भी निस्पृह हो अत्यन्त भीषण तपश्चरण किया। प्रात्मशोधन को दष्टि से अनेक यातनाओं को साम्यभाव से सहा। उनकी कठोर साधना का स्मरण पाते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यह १६वीं शताब्दी का अपभ्रंश भाषा का अच्छा खण्डकाव्य है । पामेरशास्त्र भंडार की इस प्रतिका प्रथम पत्र त्रुटित है। प्रति सं० १५७७ कार्तिक वदी चतुर्थी रविवार को सुनपत में लिखी गई है। यह ग्रन्थ रोहतासपुर के अग्रवाल वन्शी सिघल गात्री साहु महण के पुत्र चौधरी देवराज के अनुरोध से रचा गया है और उन्ही के नामांकित किया गया है। प्रशस्ति में इनके वश का विस्तत परिचय दिया हुमा है।
नागकुमार चरित्र
दूसरी रचना नागकुमार चरित है। जिसमें चार सन्धियां हैं जिसकी श्लोक संख्या ३३०० के लगभग है। जि.में नागकुमार का पावन चरित अकित किया गया है। चरित वही है जिसे पुष्पदत्तादि कवियो ने लिखा है। उसमें कोई खास वैशिष्टय नहीं पाया जाता। ग्रन्थ की भाषा सरल और हिन्दी के विकास को लिये हए है। इस खण्डकाव्य के भी प्रारम्भ के दो पत्र नहीं है। जिससे प्रति खण्डित हो गई है। उससे आद्य प्रशस्ति का भी कुछ भाग टित हो गया है। कवि ने यह ग्रन्थ साह जमनी के पुत्र साह टोडरमल की प्रेरणा से बनाया है। साह टाडरमल का वंश इक्ष्वाकु था और कुल जायसवाल' । टोडरमल धर्मात्मा था वह दानपूजादि धार्मिक कार्यो में सलग्न रहता था । और प्रकृतितः दयालु था। कवि ने ग्रन्थ उसी के अनुरोध से बनाया है, और उसी के नामांकन किया है। ग्रन्थ की कुछ सन्धियों में कतिपय संस्कृत के पद्य भी पाये जाते हैं, जिनमें साहू टोडरमल का खुला यशोगान किया गया है। उसे कर्ण के समान दानी, विद्वज्जनों का सम्पोषक, रूप लावण्य से युक्त और विवेकी बतलाया है।
कवि ने चौथी संधि के प्रारम्भ में साहू टोडरमल का जयघोष करते हुए लिखा है कि वह राज्य सभा में मान्य
१. विक्कम रायहु ववगय कालई । लेसु मुणीस विसर अकालई !
धरणि अकसह चइत विमासे, सरिणवारे सुय पंचमी दिवसे। -अमरसेन च० प्रश० २. यादव या जायस वंश का इतिहास प्राचीन है । परन्तु उसके सम्बन्ध में कोई अन्वेषण नहीं हुआ । जैसा से जैसवालों की
कल्पना की गई है किन्तु ग्रन्थ प्रशस्तियों में यादव, जायस आदि नाम मिलते हैं, अतः इन्हें यदुवंशियों की सन्तान बताया जाता है। उसी यदु या यादव का अपभ्रश जादव या जायस जान पड़ता है। यदु एक क्षत्रिय राजवंश है, उसका विशाल राज्य रहा है । शौरीपुर से लेकर मथुरा और उसके आस-पास के प्रदेश उसके द्वारा शासित रहे है । यादव वंशी जरासंध के भय से शौरीपुर को छोड़कर द्वारावती (द्वारिका) में बस गये थे। श्रीकृष्ण का जन्म यदुकुल में हुआ था, और जैनियों के २२वें तीर्थकर नेमिनाथ का जन्म भी उसी कुल में हुआ था, वे कृष्ण के चचेरे भाई थे। जायस वंश में अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति हुए हैं। अनेक ग्रन्थकर्ता, विद्वान, श्रेष्ठी राजमान्य तथा राजमन्त्री भी रहे हैं। उनके द्वारा जिन मन्दिरों का निर्माण और प्रतिष्ठादि कार्य भी सम्पन्न हुए हैं। प्रस्तुत टोडरमल और कवि मणिक राज
उसी वंश के वंशज हैं। १. "जइसवाल कुल संपन्नः दान-पूय-परायणः ।
अगसी नन्दनः श्रीमान् टोडरमल चिरं जियः ॥"
Page #552
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
था, प्रखण्ड प्रतापी, स्वजनों का विकासी प्रोर पूत्रां से अलंकृत था। यथा
नपति सदसि मान्यो यो ह्यखण्ड प्रतापः, स्वजन जनविकासी सप्ततत्त्वावभासी।
विमल गुणनिकेनो म्रात पत्रो समेतः, स जयति शिवकाम: साध टोडरुत्ति नामा ॥
कवि ने इस ग्रन्थ को पूरा कर जब साहू टोडरमल के हाथ में दिया तब उसने उसे अपने शिर पर रखकर कवि माणिक्य राज का खूब आदर सत्कार किया। उसने कवि को सुन्दर वस्त्रों के अतिरिक्त ककण कुण्डल और मुद्रिका प्रादि प्राभूषणों से भी अलंकृत किया था। उस समय गुणी जनों का आदर होता था। किन्तु आज गुणी जनों का निरादर करने वाले तो बहुत है किन्तु गुण ग्राहक बहुत ही कम हैं ; क्योंकि स्वार्थ तत्परता ओर अहकार ने उसका स्थान ले लिया है। अपने स्वार्थ तथा कार्य की पूर्ति न होने पर उनके प्रति आदर की भावना उत्पन्न हो 'गुण न हिरानो किन्तु गुण ग्राहक हिरानो' की नीति के अनुसार खेद है कि आज टोडरमल ने गण ग्राहक धर्मात्मा श्रावकों की संख्या विरल है-वे थोड़े हैं। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् १५५६ फाल्गुन शुक्ला हवीं के दिन पूर्ण की हैं।
कवि तेजपाल यह मूलसंघ के भट्टारक रत्नकीति भुवनकीति, धर्मकीति, और विशालकीति की ग्राम्नाय का विद्वान था। वासवपुर नामक गांव में वस्सावडह वंश में जाल्हड नाम के एक साहु थे। उनके पुत्र का नाम मूजउसाह था। जो दयावंत और जिनधर्म में अनुरक्त रहता था। उसके चार पुत्र थे-रणमल, बल्लाल, ईसरार पोल्हण । ये चारों भाई खण्डलवाल कुल के भूपण थे। प्रस्तुत रणमल साह के पुत्र ताल्य साहु हुए। उनका पून कवि तेजपाल था। कवि के तीन खण्डकाव्य अपभ्रश भाषा में रचे गए हैं, जो अभी अप्रकाशित है। कवि का समय विक्रम की सोलहवी शताब्दी का पूर्वार्ध है। कवि की तीन रचनाओं के नाम सभवणाह चरिउ, वराग चरिउ, आर पाराणाह चरिउ है। १ संभवणाह चरिउ
इस ग्रन्थ में छह संधियां और १७० कडवक हैं, जिनमें जैनियों के तीसरे तीर्थकर सभवनाथ का जीवन परिचय दिया गया है। रचना संक्षिप्त और वाह्याडंबर से रहित है। इस खण्ड काव्य में तीर्थकर चरित को सीधे सादे शब्दों में व्यक्त किया गया है।
प्रस्तुत ग्रंथ की रचना में प्रेरक अग्रवाल वंशो साह थील्हा है जिनका गोत्र मित्तल था, और जो श्रीप्रभनगर के निवासी थे । थील्हा साह लखमदेव के चतुर्थ पुत्र थे। इनकी माता का नाम महादेवा था और धर्मात्नी का नाम कोल्हाही था, दूसरी भार्या का नाम आसाही था। जिससे त्रिभुवनपाल और रणमल नाम के दो पुत्र हुए थे। साह थील्हा के पाच भाई और थे, जिनके नाम 'खि उसी, होल्ल दिवमी मल्लिदाम, और कुन्थदास हैं। ये सभी भाई धर्मनिप्ठ, नीतिमान तथा जैनधर्म के उपासक थे। लखमदेव के पितामह साह होल ने जिनविम्ब प्रतिष्ठा कगई थी, उन्हीं के वंशज थील्हा के अनुरोध से कवि तेजपाल ने संभवनाथ चरिउ की रचना भादानक देश के श्रीप्रभनगर में दाउद शाह के राज्य काल में की थी। ग्रन्थ रचना का समय संभवतः १५०० के आस-पास का होना चाहिये।
२ वरांग चरिउ
दूसरी रचना 'वरांगचरिउ' है, जिसमें चार संधियां है। उनमें राजा वराग का जीवन-परिचय अकित किया गया है । राजा वरांग यदुवशी तीर्थकर नेमिनाथ के शासन काल में हुए हैं। राजा वराग का चरित बड़ा सुन्दर रहा
१. "विक्कमरायहं ववगय काले, ले समुणीस विसरअकाले। पण रहसइ गुण्णासिय उरवाले, फागुण चंदिण पक्खि ससिवालें। एवमी मुहणक्खित्तु सुहवाले, सिरि पिरथी चन्दु पसाये सुंदरें ॥"
-नागकुमार चरित प्र०
Page #553
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वी और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
है। रचना साधारण और संक्षिप्त है, और भाषा हिन्दी के विकास को लिये हए है। कवि तेजपाल ने इस ग्रन्थ को वि० सं० १५०७ वैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन समाप्त किया है । और उसे विपुलकीनि मुनि के प्रसाद से बनाया था। ३ पासणाह चरिउ
तीमरी रचना पार्श्वनाथ चरित है। यह भी एक खण्ड काव्य है, जो पद्धडिया छन्द में रचा गया है । और जिसे कवि यदुवशी माहु धलि की अनुमति से बनाया था। यह मुनि पद्मनन्दि के शिप्य शिवनदि भट्टारक की आम्नाय के थे। जिनधर्म रत, थावकधर्म प्रतिपालक, दयावंत ओर चतुर्विधसंघ के संपोपक थे। मुनि पद्मनन्दि ने शिवनदी को दिगम्बर दीक्षा दी थं। । दीक्षा से पूर्व इनका नाम सुरजनसाहु था जो लबकंचुक कुल के थे। जो संसार से विरक्त पोर निग्तर भावनामो का चितवन करते थे। उन्होंने दीक्षा लेने के बाद कठोर तपश्चरण किया, मासोपवास किये, तथा निरंतर धर्मध्यान में सलग्न रहते थे। बाद में उनका स्वर्गवास हो गया। प्रशस्ति में सुरजन साह के परिवार का भी परिचय दिया। तीर्थकर पार्श्वनाथ का चरित वही है, जो अन्य कवियों ने लिखा है, उसमें कोई वैशिष्ट्य देखने में नहीं मिलता। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १५१५ कार्तिक कृष्णा पचमी क दिन समाप्त की थी।
"पणरह सय पणरह अहियएहिं, एत्तिय जिसंवच्छर एहि।
पंचमिय किण्ह कत्तिय हो मासि ।....'वारे समत्तउ सरय भासि ॥" कवि ने मधि वाक्य भी पद्य में दिये है
सिरि पारस चरितं रइयं वुह तेजपाल साणंदं । अणु मण्णियं सुहदं घूाल सिवदास पुत्तेण ॥१ देवाणरयण विट्ठी वम्माए वीएसोल सो दिट्ठो। कयगन्भसोहणत्थं पढमो संधि इमो जानो ॥२
सोमकीति काष्ठासंघ के नन्दीतट गच्छ के रामसेनान्वयी भट्टारक लक्ष्मीसेन के प्रशिष्य और भीमसेन के शिष्य थे । कवि सोमकीति की सस्कृत भाषा की तीन रचनाएं उपलब्ध है-सप्त व्यसन कथा-समुच्चय, प्रद्यम्न चरित्र और यशोधर चरित्र ।
सप्त व्यसन कथा समुच्चय-में दो हजार सड़सठ श्लोकों में द्यतादि सप्त व्यसनों का स्वरूप और उनमें प्रसिद्ध होने वालो की कथा देते हुए उनके सेवन से होने वाली हानि का उल्लेख किया है, और उनके त्याग को श्रेष्ठ बतलाया है। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १५२६ में माघ महीने के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा सोमवार के दिन पूर्ण की है।
प्रद्यम्नचरित्र-दूसरी रचना है। जिसमें ४८५० श्लोकों में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्यम्न का जीवन परिचय अंकित किया है । इस ग्रन्थ में सोलह अधिकार है। अन्तिम अधिकार में प्रद्युम्न शंवर और अनुरुद्ध आदि के निर्वाण
१. सम पमाय संवच्छ खीणइ, पुणु सत्तगल सउ वोलीणइ ।
वइसाह हो किण्ह वि सत्तमिदिणि, किउ परिपुण्णउ जो सुह महर-झरिण॥ -वरांग परिउ प्र० २. रसनयनसमेते बाण युक्तेन चन्द्रे (१५२६)
गतिवति सति नूनं विक्रमस्यैव काते। प्रतिपदि घवलायां माघ मासस्य सोमे । हरिभ दिन मनोज्ञे निर्मितो ग्रन्थ एषः ॥ ७१ ॥ (सप्त व्यसन कथा समुच्चय प्र०)
Page #554
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
५२०
प्राप्त करने का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना कवि ने संवत् १५३१ पौष शुक्ला त्रयोदशी बुधवार के दिन भीमसेन के प्रसाद से बना कर समाप्त की थी।
यशोधरचरित - यह कवि की तीसरी रचना है, इसमें राजा यशोधर और चद्रमती का जीवन परिचय अंकित किया गया है । इसमें १०१८ श्लोक हैं । इस ग्रन्थ की रचना कवि ने संवत् १५३६ में मेदपाठ (मेवाड़) के गोंढिल्य नगर के शीतल नाथ मन्दिर में पौष कृष्णा पंचमी के दिन बनाकर समाप्त की है।
इनके अतिरिक्त कवि की हिन्दी राजस्थानी भाषा की कई रचनाएं हैं। उनमें यशोधर रास १५३६ में बनाया । ऋषभनाथ की धूल, त्रेपन क्रिया गीत आदि रचनाएं भी इनकी बनाई हुई कही जाती हैं। सोमकीर्ति कवि १६वीं शताब्दी के द्वितीय चरण के विद्वान हैं । प्रजित ब्रह्म
6
मूलसंघ के भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे । यह गोल शृंगार (गोल सिंघाडे ) वंश में उत्पन्न हुए। थे 1 इनके पिता का नाम बीरसिंह और माता का नाम बीधा था । यह भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति के दीक्षित शिष्य थे और ब्रह्मजित के नाम से लोक में प्रसिद्ध थे। इन्होंने विद्यानन्दि के प्रदेश से 'हनुमान' चरित की रचना दो हजार श्लोकों में की थी । हनुमान पवनंजय का पुत्र था, बड़ा बलवान तथा वीर पराक्रमी था । इसकी माता का नाम अंजना था, जो राजा महेन्द्र की पुत्री थी । कवि ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया, किन्तु ग्रन्थ के रचना स्थल का उल्लेख किया है । और हनुमान के चरित को पाप का नाशक बतलाया है । कवि ने इस चरित की रचना भृगुकच्छ (भडौच) के नेमिनाथ जिनमन्दिर में की है । कवि ने ग्रन्थ में कुन्दकुन्द, जिनसेन, समन्तभद्र, अकलंक, नेमिचन्द्र, और पद्मनन्दि आदि पूर्ववर्ती श्राचार्यो का स्मरण किया है।
इस ग्रंथ की सं० १५६६ की लिखी हुई एक प्राचीन प्रति लाला विलासराय पंसारी टोला इटावा के मंदिर शास्त्रभंडार में मौजूद है। इससे इस ग्रंथ की रचना उससे पूर्व ही हुई है ।
कल्याणालोचना - नाम की एक रचना उपलब्ध , जिसमें ५४ पद्यों में आत्मकल्याण की आलोचना की गई
करते हुए अपने से जो दुष्कृत बने हैं 'मिच्छामे दुक्कडं हुज्ज' वाक्यों द्वारा परमात्मा का ही शरण है, अन्य कोई
है । ग्रन्थ में श्रात्मसम्बोधन रूप से अपनी भूलों अथवा अपराधों की विचारणा जिन-जिन जीवादिकों की जिस तिस प्रकार से विराधना हुई है, उसके लिये खेद व्यक्त किया गया है। स्वभावसिद्ध ज्ञान दर्शनादि रूप एक आत्मा को एक शरण नहीं है । 'प्रणो ण मज्झ सरणं सरणं सो एक्क परमप्पा' शब्दों द्वारा उसकी घोषणा की है। यह रचना भी अजित ब्रह्म की है । सभक्तः यह रचना इन्हीं प्रजित ब्रह्म की है। इन प्रजित ब्रह्म का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है ।
१. जैनेन्द्र शासन सुधारस पानपुष्टो देवेन्द्रकीति यतिनायक नैष्ठिकात्मा । तच्छिय संयम धरेण चरित्रमेतत् सृष्टं समीरणसुतस्य महद्धिकस्य ||१|| २. गोला श्रृंगारवंशे नभसि दिनमरिण वीरसिंहो विपश्चित् ।
भार्या वीधा प्रतीता तनुरूह विदितो ब्रह्मदीक्षाश्रितोऽभूद् । तेनोच्चरेष ग्रन्थः कृति इति सुतरां शैलराजस्य सूरेः । श्री विद्यानन्द देशात् सुकृतविधिवशात्सर्वसिद्धि प्रसिद्धयं ॥ ६६ ३. मंवत्सरे सत्तिथि संज्ञके वे वर्षे ऽत्र त्रिशंक युते (१५३१ ) पवित्रे । विनिर्मितं पौषसुदेश्च (?) तस्यां त्रयोदशीया बुधवार युक्ता ॥ १६९ ४. वर्षे षट्त्रिश संख्ये तिथि परगरणना युक्त संवत्सरे ( १५३६) वं । पंचम्यां पौष कृष्णे दिनकर दिवसे चीत्तरस्थे हि चन्द्र । गोंढिल्यां मेदपाटे जिनवरभवने शीतलेन्द्रस्य रम्ये । सोमादि कीर्तिनेदं नृपवर चरितं निर्मितं शुद्धभक्त्या ।। ६२
- हनुमान चरित प्रशस्ति
- हनुमान चरित प्रशस्ति
— जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० भाग १ पृ० ६१
- जैन ग्रन्थ प्र० सं० भा० १ पृ० १०६
Page #555
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १५वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
५२१
कवि ठकुरसी प्रस्तुत कवि चाटसू (वर्तमान चम्पावती) नगरी के निवासी थे। इनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र 'प्रजमेरा' था। ठकुरसी के पिता का नाम 'घेल्ह' था जो कवि थे। इनकी कविता मेरे अवलोकन में नहीं पाई,
वि ने 'पंचेन्द्रिय वेलि' के प्रतिम पद के 'कवि-घेल्ह सुतन गुण गाऊँ' वाक्य में उन्हें स्वयं कवि ने सूचित किया है। कवि के पुत्र का नाम नेमिदास था, जिसने मेघमाला व्रत को भावना की थी । कवि की रचनायों का काल सं० १५७८ से १५८५ है । मेघमाला वय कथा अपभ्रंश भाषा में रची गई है, किन्तु शेष रचनाएं हिन्दी भाषा के विकास को लिये हुए हैं । कृपण चरित्र, पंचेन्द्रिय वेल, नेमि राजमती वेल और जिन चउवीसी।
मेघमाला व्रत कथा-इसमें ११५ कडवक है जो लगभग २१५ श्लोंकों के प्रमाण को लिये हुए हैं । इस मेघमालावत के अनुष्ठान की विधि और उसके फल का वर्णन किया है। इस व्रत का अनुष्ठान भाद्रपद मास की प्रतिपदा से किया जाता है। व्रत के दिन उपवास पूर्वक जिनपूजन अभिषेक, स्वाध्याय और सामायिक प्रादि धार्मिक अनुष्ठान करते हुए समय व्यतीत करना चहिए । इस व्रत को पांच प्रतिपदा, और पांच वर्ष तक सम्पन्न करना चाहिए । पश्चात उसका उद्यापन करे । यदि उद्यापन की शक्ति न हो तो दुगने समय तक व्रत करना चाहिए।
इस व्रत का अनुष्ठान चाटस (पम्पावती) नगरी के श्रावक-श्राविकाओं ने सम्पन्न किया था। उस समय राजा रामचन्द्र का राज्य था। वहाँ पार्श्वनाथ का सुन्दर जिनालय था और तत्कालीन भट्टारक प्रभाचन्द्र भी (जिनकी दीक्षा सं १५७१ में हई थी) मौजद थे। जो गणधर के समान भव्यजनों को धर्मामत का पान करा रहे थे। वहाँ खण्डेलवाल जाति के अनेक श्रावक रहते थे। उनमें पं० माल्हा पुत्र कवि मल्लिदास ने कवि ठकुरसी को मेघमाला व्रत की कथा के कहने की प्रेरणा की थी। वहाँ के श्रावक सदा धर्म का अनुष्ठान करते थे। हाथुह साह नाम के एक महाजन और भट्टारक प्रभाचन्द्र के उपदेश से कवि ने 'मेघमाला' व्रत कैसे करना चाहिए, इसका सक्षिप्त वर्णन किया। वहाँ तोषक, माल्हा और मल्लिदास प्रादि विद्वान भी रहते थे। थावकजनों में प्रमुख जीणा, ताल्ह, पारस, नेमिदास, नाथूसि, भुल्लण और वडली आदि ने इस व्रत का अनुष्ठान किया था। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना सं० १५८० प्रथम श्रावण शुक्ला छठ के दिन पूर्ण किया था।
कवि ने सं० १५७८ में 'पारस श्रवण सत्ताइसी' नाम की एक कविता लिखी थी, जो एक ऐतिहासिक घटना को प्रकट करती है। और कवि के जीवन काल में घटी थी, उसका कवि ने आँखों देखा वर्णन किया है। कवि की सभी रचनाएं लोकप्रिय और सरल है ।
ब्रह्म जीबंधर यह माथर संघ विद्यागण के प्रख्यात भट्टारक यशकीर्ति के शिष्य थे। आप संस्कृत और हिन्दी भाषा के सयोग्य विदान थे। प्रापकी संस्कृत भाषा की दो कृतियाँ उपलब्ध हैं। यद्यपि वे लघुकाय हैं किन्तु महत्त्वपूर्ण हैं। उनमें पहली कृति 'चतुर्विशति तीर्थकर स्तवन जयमाल हैं'। इसका अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि जीबंधर
कत भाषा में सन्दर कविता कर सकते थे। पाठक पाश्र्वनाथ और महावीर स्तवन-विषयक निम्न दो पद्य पढ़ें. जो भावपूर्ण और सरस एवं सरल हैं :
"विधुरित विघ्नं पाश्वजिनेशं दुरित तिमिरभर हनन दिनेशम् । प्रज्ञान दम तीब्रकुठारं वांछित सुखदं करुणाधारं ॥ 'जीवंधर' नुत-चरण सरोजं विकसित निर्मल कीतिपयोजम ।
कल्याणोवयकवलोकन्वं, वन्वे वीरं परमानन्दम् ॥ दूसरी संस्कृत रचना 'श्रुतजयमाला' है, जिसमें प्राचाराङ्ग प्रादि द्वादश अंगों का परिचय दिया गया है।
१. देखो अनेकान्त वर्ष १५ किरण ४ में प्रकाशित 'चतुर्विशति तीर्थकर-जयमाला ।' सन् १९६२ ।
Page #556
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ रचना सुन्दर और संस्कृत पद्यों में निबद्ध है।
इनके अतिरिक्त कवि की दस रचनाएं हिन्दी भाषा की उपलब्ध हैं, जिनका परिचय 'राजस्थान जैन साहित्य परिषद' की सन १९६७-६८ की स्मारिका पृष्ठ ७पर लेखक ने दिया है। जो 'राजस्थान के संत ब्रह्म जीबंधर' नाम से मुद्रित हा है। कवि की उन रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं- गुणठाणावेलि, खटोला रास, झबक गीत, मनोहर, रास या नेमिचरित रास, सतीगीत. बीस तीर्थकर जयमाला वीस चौबीसी स्तुति, ज्ञान विरगा विनति मुक्तावली रास और आलोचना प्रादि । रचनाएँ सुन्दर और सरल हैं ।
ब्रह्म जीवंधर विक्रम की १६वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के विद्वान हैं। इन्होंने सं० १५६० में बैसाख वदी १३ सोमवार के दिन भट्टारक विनयचन्द्र की स्वोपज्ञ चुनड़ी टीका की प्रतिलिपि अपने ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयार्थ की थी। इससे इनका समय १६वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध सुनिश्चित है।
पं० नेमिचन्द (प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता) यह देवेन्द्र और आदि देवी के द्वितीय पुत्र थे। इनके दो भाई और भी थे जिनका नाम प्रादिनाथ और विजयम था। इन्होंने अभयचन्द्र उपाध्याय के पास तर्क व्याकरणादि का ज्ञान प्राप्त किया था । नेमिचन्द्र के दो पुत्र थे-कल्याणनाथ और धर्मशेखर । दोनों ही विद्वान थे। नेमिचन्द्र ने सत्यशासन मुख्य प्रकरणादि ग्रन्थ रचे । प्रतिष्ठा तिलक को इन्होंने अपने मामा ब्रह्मसूरि के आदेश से बनाया था। कवि ने उस में अपने कुटुम्ब की दश पीढ़ियों तक का परिचय दिया है, किन्तु उसमें रचनाकान नहीं दिया। पर प्रतिष्ठा तिलक का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इनकी यह रचना पं० पाशाधर जी के बहुत बाद रची गई है। संभवत: यह रचना १५वीं शताब्दी की है। ग्रंथ सामने न होने से उस पर विशेष विचार नहीं किया जा सकता।
कवि धर्मधर __पं० धर्मधर इक्ष्वाकु वंश के गोलाराडान्वयी साहु महादेव के प्रपुत्र और पं० यशपाल के पुत्र थे । यशपाल कोविद थे। उनकी पत्नी का नाम 'हीरा देवी' था। उससे भव्य लोगों के बल्लभ रत्नत्रय के समान तीन पुत्र थे, उनमें दो ज्येष्ठ और लघु पुत्र धर्मधर थे। विद्याधर, देवधर और धर्मधर । इनमें विद्याधर और देवधर श्रावकाचार के पालक और परोपकारकर्ता थे और धर्मधर धर्म कर्म करने वाला था । धर्मधर की पत्नी का नाम 'नन्दिका' था जो शीलादि सद्गुणों से अलंकृत थी । उससे दो पुत्र और तीन पुत्री उत्पन्न हुई थी। पुत्रों का नाम पाराशर और मनसुख था । इस तरह कवि का परिवार सम्पन्न था।
___ कवि ने मूल संघ सरस्वती गच्छ के भट्टारक पद्मनन्दी, शुभचन्द्र और भट्टारक जिनचन्द्र का उल्लेख किया है जिससे ज्ञात होता है कि कवि मूल संघ की प्राम्नाय का था। उसने पद्मनन्दी योगी से विद्या प्राप्त की थी और वह उन्हें गुरु रूप से मानता था। कवि का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है क्योंकि कवि ने नागकुमार
१. कोविदः यशपालस्य समभूत्तनु-जगत्रयं ।
वल्लभं भव्यलोकानां रत्नत्रयमिवापरं ॥२॥ वैयाकरणपारीण घिषणो धिषणोपमः । हीराकुक्षि समुत्पन्नः आद्यो विद्या घराधिपः ॥३॥ देवार्चनरतो नित्यं ततो देवघरोऽभवत् । श्रावकाचार शुद्धात्मा परोपकृति तत्परः ॥४॥ अमी धर्मघरः पश्चात् तृतीयो धर्मकर्मकृत् । पद्मनन्दि गुरोर्लब्ध्वा विद्यापरम् योगिनः ॥५॥
-श्रीपाल चरित प्रशस्ति, भट्टारक भण्डार, अजमेर ।
Page #557
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वी, १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, भद्रारक और कवि
५२३
चरित्र की रचना सं० १५११ में की है। उसमें अपनी पहली रचना 'श्रीपाल चरित' की रचना का उल्लेख किया है। अतः धर्मधर १६वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान सुनिश्चित हैं।
कवि को दो रचनाएं उपलब्ध हैं-श्रीपाल चरित और नागकुमार चरित ।
श्रीपाल चरित-में कवि ने पूर्ववर्ती पुराणों का अवलोकन करके सिद्ध चक्र के माहात्म्य का कथन किया है। उसके माहात्म्य से श्रीपाल और उसके सात सौ साथियों का कुष्ट रोग दूर हो गया था। उनकी पत्नी मैना सन्दरी ने
कवत का अनुष्ठान किया था। इस ग्रन्थ की रचना कवि ने गोलाराडान्वयी श्रावक खेमल की प्रेरणा से की थी। प्रशस्ति में खेमल के परिवार का परिचय दिया है । खेमल जिन चरणों का भक्त, दानी, रूप-शील सम्पन्न और परोपकारी था।
श्री सर्वज्ञपदारविदयुगले भक्तिविकासाम्बुधिः; दानचतुष्टये च निरता लक्ष्मीसुधायुग्म च। रूपं शीलगतं परोपकारकरण व्यापारनिष्ठं वपुः;
साधो खेमलसंज्ञको गतमदं काले कलौ दृश्यते ॥२६॥ ग्रन्थ चार सर्गात्मक है । ग्रन्थकर्ता कवि और रचना प्रेरक श्रावक खेमल सम्भवतः एक ही स्थान चन्दवाड के पास 'दत्त पल्ली' नाम के नगर के निवासी थे।
नागकमार चरित-इसमें कवि ने पूर्वसूत्रानुसारत:' पूर्वसूत्रानुसार कामदेव नागकुमार का चरित अंकित किया है। नागकमार ने अपने जीवन में जो-जो कार्य किये, व्रतादि का अनुष्ठान कर पुण्य सचय किया और परिणा विद्यादि का लाभ तथा भोगोपभोग की जो महती सामग्री मिली उसका उपभोग करत हुए नागकुमार ने उनसे कि होकर प्रात्म-साधना-पथ में विचरण किया है । उसका जीवन बड़ा ही पावन रहा है। उसे क्षण
रातियों में प्रासक्ति उत्पन्न करने में असमर्थ रही है। वह प्रात्म-जयी वीर था, जो अपनी साधना खरा उतरा है, और अपने ही प्रयत्न द्वारा कर्मबन्धन की अनादि परतन्त्रता से सदा के लिये उन्मुक्ति प्राप्त की है।
पन्थ रचना में प्रेरक-इस ग्रन्थ को कवि ने यदुवंशी लंबकंचुक (लमेचू) गोत्री साह नल्ह की प्रेरणा से बनाया सपाट या चन्द्रवाड नगर के समीप दत्तपल्ली नामक नगर के निवासी थे। उस समय उस नगर में
द नामक चातरवर्ण के लोग निवास करते थे। नल्ह साह के पिता का नाम धनेश्वर या भाया। जिनदास के चार पुत्र थे-शिवपाल, धूलि, जयपाल और धनपाल धिनपाल कीपनीक
या धनपाल चौहानवशी राजा माधवचन्द्र का मंत्री था' । धनपाल के दो पुत्र थे - ज्येष्ठ नल्ह और दसरा
जिनभाक्तिक और राजा माधवचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित थ । ज्येष्ठ पुत्र नल्हसाह की दो पत्नी थोंउदयसिह । दाना हा जिनभाक्तिक आर राजा माधवचन्द्र
राज्यमान्य थे। उनके चार पुत्र थे तेजपाल, विनयपाल, चन्दनसिह और नरसिंह । इन्हीं दूमा और यशोमती । साहू नल्हू राज्यमान्य थे। उनके चार पूत्र थे तेजपाल वि
पाट की प्रेरणा से कवि धर्मधर ने कवि पुष्पदन्त के नागकुमार चरित्र को देख कर इसका रचना की है। "कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० स० १५११ में श्रावणशुक्ला पूणिमा सोमवार के दिन की है।
व्यतीते विक्रमादित्ये रुद्र व्रत-शशिनामनि। श्रावणे शुक्लपक्षे च पूर्णिमा चन्द्रवासरे ॥५३ प्रभूत्समाप्तिर्ग्रन्थस्य जयंधरसुतस्य हि। नूनं नागकुमारस्य कामरूपस्य भूपतेः ॥५४
पं हरिचन्द्र मूलसंघ बलात्कारगण सरस्वती गच्छ के भट्टारक पद्मनन्दि, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, सिंहकीति, मनि खेमचन्द्र.
है। साहू नल्ह चन्द्रपाट या चन्द्रवाड नगर के ममी ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र नामक चातरवर्ण के लोग निवार
१. तस्य मन्त्रिपदे श्रीमद्यदुवंश समुद्भवः।
लंबकंचक सद्गोत्रे धनेशो जिनदासजः॥१२
-नागकुमारचरित प्रशस्ति, जयपुर तेरापंथी मंदिर प्रति ।
Page #558
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
विजयकोति जिनका शरीर तप से क्षीण हो गया था, आम्नाय के विद्वान थे। इन्होंने ग्वालियर के तोमर वंशी राजा कीतिसिह के राज्यकाल में सं० १५२५ में भाद्रपद शुक्ला ५वीं गुरुवार के दिन लम्बकंचक वंश के साहु जिनदास के पूत्र हरिपाल के लिए अपभ्रश भाषा में दसलक्षणव्रत की कथा को रचना प्रादिनाथ के चैत्यालय में की है।
"जिण पाइणाह - चेइ हरयं, विरहय दहलक्खण कह सुवयं । उवएसय कहियं गणग्गलयं, पंदहसइ बउवीस मलयं॥ भावव सुदि पंचमि प्रहविमलं, गुरुवार विसारयणु खलु प्रमलं ॥"
-अग्रवाल मन्दिर उदयपुर, जैन ग्रन्थ सूची भा० ५, पृ० ४४५ इससे प० हरिचन्द का समय वि० की १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है।
पंडित मेधावी यह मूल संघ के भट्टारक जिनचन्द्र के शिष्य थे। यह भट्टारकीय विद्वान थे। इनका वंश अग्रवाल था। यह साहू लवदेव के प्रपुत्र और उद्धरण साहु के पुत्र थे। इनकी माता का नाम 'भीषुही' था। यह प्राप्त प्रागम के विचारज्ञ और जिनचरण कमलों के भ्रमर थे। इन्होने अपने को पंडित कंजर लिखा है । यह विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के अच्छे विद्वान और कवि थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थों की पुस्तकदात्री प्रशस्तियाँ भी लिखी हैं जिनमें लिपि कराने वाले दातार के कुटुम्ब का विस्तृत परिचय कराया गया है। जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । इनसे स्पष्ट है कि विक्रम की १६वीं शताब्दी में श्रावकों द्वारा हस्तलिखित ग्रन्थों को लिखाकर प्रदान करने की परम्परा जैन समाज में प्रचलित थी। शास्त्र दान की यह परम्परा जहाँ श्रुतभक्ति और उसके संरक्षण को बल प्रदान करती है, वहाँ दातार भी अपनी विशुद्ध भावनावश अपूर्व पुण्य का संचय करता है। इससे ग्रन्थों के संकलन और तरक्षा को प्राश्रय मिला है। इन दात प्रशस्तिनों के कारण मेधावी उस समय प्रसिद्ध विद्वान माने जाते थे । मेधावी द्वारा लिखित दातृ प्रशस्तियाँ सं० १५१६, १५१६, १५२१, १५३३ और १५४६ की लिखी ह लाचार, तिलोय पण्णत्ती, तत्त्वार्थभाष्य (सिद्धसेन गणि ) जंबूद्वीप पण्णत्ती, अध्यात्म तरंगिणी और नीतिवाक्यामत की मेरी नोट बुक में दर्ज हैं । सं० १५१४ में ज्येष्ठ सुदी ३ गुरुवार के दिन हिसार में वहलोल लोदी के राज्य में अग्रवालवंशी वंसल गोत्री साह छाज ने हेमचन्द्र के प्राकृत हेम शब्दानुशासन की प्रति लिखाकर प्रदान की थी, जो अजमेर के हर्ष कीर्ति भंडार के बड़े मन्दिर में मौजूद है ।
मेधावी ने सं०१५४१ में एक श्रावकाचार की रचना की थी, जिसे धर्म संग्रह श्रावकाचार के नाम से उल्लेखित किया जाता है । इनका समय १५०० से १५५० तक का रहा है । यह विक्रम की १६वीं शताब्दी के विद्वान हैं ।
कवि महिन्दु या महाचन्द्र महाचन्द्र इल्लराज के पुत्र थे । नामोल्लेख के अतिरिक्त कवि ने अपना कोई परिचय नहीं दिया। प्रशस्ति
१. जिण आइरणाह चेइ हरयं विरइय दह लक्खरण कह सुवयं ।
उवएसय कहिय गुरगग्गलयं, पंदहसइ पउवीस मलयं ।। भादव सुदि पंचमी अयविमलं, गुरुवार विसारयण खल अमलं । गोवग्गिरि दुग्गइ दाणइयं तोमरहं वंस कित्तिम समयं ।। वर लंबकंच बंसह तिलकं जिणदास सुधम्महं पुरण णिलयं ।
भज्जा विमुतीला गुणसहियं णंदण हरिपारु बुद्धिणिहियं । -दशलक्षण कथा प्रशस्ति । २. अग्रोत वंशजः साधुर्लवदेवाभिधानकः ।
तत्त्वगुद्धरणः संज्ञा तत्पत्नी भीषुहीप्सुभिः ॥१२ तयोः पुत्रोऽस्ति मेधावी नामा पंडितकुंजरः । प्राप्तागम विचारज्ञो जिनपादाब्ज षट्पदः ॥३३, 'तत्त्वार्थभाष्य दात प्रा.
Page #559
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वी, १६वीं, १७वीं मौर १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
५२५ में काष्ठा संघ माथुर गच्छ की भट्टारकीय परम्परा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि काष्ठासंघ माथुर गच्छ पुष्कर गण में भट्टारक यशः कीति और उनके शिष्य गुणभद्र सूरी थे। इससे यह स्पष्ट है कि कवि इन्हीं की माम्नाय का था। पर इनमें किसका शिष्य या यह स्पष्ट नहीं लिखा।
कवि की एकमात्र कृति 'शान्तिनाथ चरित' है, जिसमें १३ सन्धियां या परिच्छेद और २६० कडवक हैं जिनकी प्रानुमानिक श्लोक संख्या पांच हजार है। ग्रन्थ की प्रथम संधि के १२ कडवकों में मगध देश के शासक राजा श्रेणिक और रानी चेलना का वर्णन, श्रोणिक का महावीर के समवशरण में जाना और महावीर को वंदन कर गौतम से धर्म कथा का सुनना।
दूसरी संधि के २१ कडवकों में विजया पर्वत का वर्णन, प्रकलंक कीर्ति की मुक्ति साधना, और विजयांक के उपसर्ग निवारण करने का कथन है।
तीसरी सन्धि के २३ कडवकों में भगवान शान्तिनाथ की पूर्व भवावली का कथन है। चौथी सन्धि के २६ कडवकों में शान्तिनाथ के भवान्तर, बलभद्र जन्म का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है । ५वीं सधि के १६ कडवकों में वज्रायुध चक्रवर्ती का सविस्तर कथन है। और छठी संधि के २६ कडवकों में मेघरथ की सोलह कारण भावनाओं की प्राराधना, प्रोर साथसिद्धि गमन का वर्णन दिया है।
सातवीं सन्धि के २५ कडवकों में मुख्यतः भ. शान्तिनाथ के जन्माभिषेक का वर्णन है। पाठवीं संधि के २६ कडवकों में भगवान शान्तिनाथ की कैवल्य प्राप्ति और समवसरण विभूति का विस्तृत वर्णन है। नौमी संधि के २७ कडवकों में भगवान शान्तिनाथ की दिव्य ध्वनि एव प्रवचनों का कथन है।
दशवीं संधि के २० कडवकों में तिरेसठ शलाका पुरुषों के चरित का संक्षिप्त वर्णन है।
११वीं सधि के ३४ कडवकों में भौगोलिक आयामों का वर्णन है, भरत क्षेत्र का ही नहीं किन्त तीनों लोकों का सामान्य कथन है । १२वीं संधि के १८ कडवकों में भगवान शान्तिनाथ द्वारा वणिन सदाचार का कथन दिया हमा है । और अन्तिम १३वीं संधि के १७ कडवकों में शान्तिनाथ का निर्वाण गमन का वर्णन है।
यद्यपि कथावस्तु की दृष्टि से ग्रन्थ में कोई नवीनता दृष्टिगोचर नहीं होती, किन्तु काव्यकला और शिल्प की दृष्टि से रचना महत्वपूर्ण है । ग्रन्थ का वर्ण्य विषय पौराणिक है। इसी से उसे पौराणिकता के सांचे में ढाला गया है। मालोच्यमान रचना अपभ्रश के चरित काव्यों को कोटि की है। इसमें चरितकाव्य के सभी लक्षण परिलक्षित होते हैं। प्रत्येक संधि के प्रारम्भ में कवि ने अग्रवाल श्रावक साधारण की शानिनाथ से मंगल कामना की है।
ग्रन्थ रचना में प्रेरक जोयणिपुर' (दिल्ली) निवासी अग्रवाल कुलभूषण गर्ग गोत्रीय साह भोजराज के, पत्रों (खेमचन्द्र. ज्ञानचन्द्र, श्रीचन्द्र, गजमल्ल पोर रणमल) में से द्वितीय पुत्र ज्ञानचन्द्र का पुत्र साधारण शा जिसकी प्रेरणा से ग्रन्थ की रचना की गई है। कवि ने प्रशस्ति में साधारण के परिवार का विस्तत परिचय कराया है। उसने हस्तिनापर की यात्रार्थ संघ चलाया था। और जिनमन्दिर का निर्माण करा कर उसकी प्रतिष्ठा सम्पन्न कर पण्यार्जन किया था। ज्ञानचन्द्र की पत्नी का नाम 'सउराजही' था, जो अनेक गुणों से विभूषित थी। उससे तीन पत्र हुए थे। पहला पुत्र सारंगसाहु था, जिसने सम्मेद शिखर की यात्रा की थी। उसकी पत्नी का नाम 'तिलोकाही' था। दूसरा पत्र साधारण था, जो बड़ा विद्धान और गुणी था, उसका वैभव बढ़ा चढ़ा था। उसने शत्रंजय की यात्रा की थी, उसकी पत्नी का नाम 'सोवाही' था, उससे चार पुत्र हुए थे-अभयचन्द्र, मल्लिदास, जितमल्ल और सोहिल्ल उनकी चारों पत्नियों के नाम चंदणही, भदासही, समदो पौर भीखणही। ये चारों ही पतिव्रता, साध्वी प्रौर धर्मनिया थीं। इस तरह साह साधारण ने समस्त परिवार के साथ शान्तिनाथ चरित का निर्माण कराया।
१. जोयरिणपुर दिल्ली का नाम है । यहाँ ६४ योगिनियों का निवास था, और उनका मन्दिर भी बना हुआ था। इस कारण
इसका नाम योगिनीपुर पड़ा है। 'जोयणिपुर' अपभ्र श भाषा का रूप है। विशेष परिचय के लिये देखें, अनेकान्त वर्ष १३ किरण में प्रकाशित दिल्ली के पांच नाम शीर्षक मेरा लेख ।
Page #560
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० स० १५८७ की कार्तिक कृष्णा पंचमी के दिन मुगल बादशाह बाबर' के राज्यकाल में योगिनीपुर में बनाकर समाप्त की थी।
कवि ने अपने से पूर्ववर्ती निम्न विद्वान कवियों का स्मरण किया है-प्रकलंक, पूज्यपाद (देवनन्दी), नेमिचन्द्र सैद्धातिक, चतुर्मुख स्वयंभू, पुष्पदन्त, यशःकीर्ति, रइधू, गुणभद्रसूरि और सहणपाल । इनमें सहणपाल का कोई ग्रन्थ अवलोकन में नहीं आया।
भट्टारक प्रभाचन्द्र यह भ० पद्मनन्दी के प्रपट्ट पर प्रतिष्ठित होने वाले भट्टारक जिनचन्द्र के पट्ट शिष्य थे। जिनका पट्टाभिषेक सम्मद शिखर पर सवर्ण कलशों से सं० १५७१ में फाल्गुन कृष्ण दोइज के दिन हना था। इनक नाम सुहृज्जन था, जो विवेकी और वादि रूपी गजों के लिए सिंह के समान था। यह वैद्यराट् बिंझ के द्वितीय पुत्र थे। इन्होंने राजा के समान विभूति का त्याग कर दीक्षा ग्रहण की थी। भट्टारक होने पर इनका नाम प्रभाचन्द्र रक्खा गया था । वे इस पद पर ६ वर्ष ४ मास और २५ दिन रहे हैं।
भट्टारक प्रभाचन्द्र सं० १५७८ में चम्पावती (चाटसू) में थे और वहाँ के श्रावकों में उन्होंने धार्मिक रुचि बढाने का प्रयत्न किया था। कवि ठकुरसी ने सं० १५७८ में मेघमाला कथा में प्रभाचन्द्र का उल्लेख किया है । इन प्रभाचन्द्र की कोई रचना मेरे अवलोकन में नहीं पाई। इनका समय वि० की १६वीं शताब्दी का तृतीय चरण है।
भट्टारक शुभचन्द्र मूल संघ कुन्दकुन्दान्वय में प्रसिद्ध नन्दिसंघ और बलात्कारगण के भट्टारक ज्ञानभूषण के प्रशिष्य और भ०
१. बाबर ने सन् १५२६ मे पानीपत की लड़ाई में दिल्ली के बादशाह इब्राहीम लोदी को पराजित और दिवंगत कर दिल्ली का राज्य शासन प्राप्त किया था। उसके बाद उसने आगरा पर भी अधिकार कर लिया था और सन् १५३० (वि० स० १५८७) में आगरा में ही उसकी मृत्यु हो गई थी। इसने केवल ५ वर्ष ही राज्य किया है। २. विक्रमरायहु ववगय कालहु, रिसिवसु-सर-भुवि-कालइ।
कत्तिय-पढम पक्खि पंचमिदिणि, हुउ परिपुण्ण वि उग्गंतइ इणि। शान्तिनाथ चरित प्रशस्ति ३. तत्पट्टोदय भूधरेऽजनि मुनिः श्रीमत्प्रभेन्दुवंशी। हेयायविचारणकचतुरो देवागमालकृतो। भोजदिवाकरादिविविध तक्कै च चंचुश्चरणो। जनन्द्रादिकलक्षणप्रणयने दक्षोऽनुयोगेषु च ॥३२ त्यक्त्वा सासारिकी भूति किपाकफल सन्निभाम् । चिन्तारत्न निभा जैनी दीक्षा सप्राप्य तत्त्ववित् ॥३३ शब्द ब्रह्मसरित्पतिस्मृतिबलादुत्तीर्य यो लीलया। पट् तर्कागमार्क कर्कश गिरा जित्वाऽखिलान् वादिनः । प्राच्या दिग्विजयी भवन्निव विभूजनी प्रतिष्ठाकृते ।
श्री सम्मेदगिरी सुवर्ण कलशः पट्टाभिषेकः कृतः ॥३४ -बलात्कारगण गूर्वावली ४. द्वितीय पुत्रोऽपि सुहृज्जनाख्यो विवेकवान्वादिगजेन्द्रसिंहः ।
आसीत्सदा सर्वजनोपकारी खानिः सुखानां जिनधर्मचारी ॥३६॥ भट्टारकः श्री जिनचंन्द्र पट्टे भट्टारकोऽयं समभूद् गुणाढ्यः ।
प्रभेन्दु संज्ञो हि महा प्रभावः त्यक्त्वा विभूति नुपराज साम्याम् ॥३७ ५. 'तह मज्झिपहाससि वा मुणीसु, सह, संठिउ रणं गोय, मुणीसु ॥ मेघमाला कथा प्र०
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, भद्रारक और कवि
५२७ विजयकीर्ति के शिष्य थे। यह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती और हिन्दी भाषा के विद्वान थे । कवि ने अपने को अध्यात्मतरंगिणी टीका प्रशस्ति में-'संसारभीताशय, भावाभाव विवेकवारिधि और स्याद्वाद विद्यानिधि' विशेषणों से युक्त प्रकट किया है। तथा 'अंग पण्णत्ति' में अपने को विद्य और 'उभयभापापरिसेवी' सूचित किया है। तथा का
क्षा की टीका में 'विद्य' और 'वादिपर्वतवविणा' लिखा है'। यह सागवाड़ा गही के भटारक 1 से ज्ञात होता है कि वे तर्क, व्याकरण, साहित्य और अध्यात्मशास्त्र आदि विषयों के महान ज्ञाता थे। उन्होंने विभिन्न स्थानों की यात्रा की थी। उनके अनेक शिष्य थे। उन्होंने वादियों को परास्त किया था, उनका 'वादि पर्वतवत्रिणा' विशेषण इस बात का पोषक है।
भट्टारक शुभचन्द्र ने अनेक प्रतिष्ठा समारोहों में भाग ही नहीं लिया किन्तु भट्टारक होने के नाते उनके प्रतिष्ठा कार्य को भी सम्पन्न किया। इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूतियाँ उदयपुर, सागवाड़ा, डूंगरपुर और जयपुर आदि के मन्दिरों में विराजमान हैं । संवत् १६०७ में इन्हीं के उपदेश से पञ्चपरमेष्ठी की मूर्ति की स्थापना की गई थी।
भट्टारक शुभचन्द्र ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है, जिन्हें दो विभागों में विभाजित किया जा सकता है। रचनाओं के नाम निम्न प्रकार हैं:
अध्यात्मतरंगिणी (समयसारकलश टीका) जीवंधरचरित, चन्दनाचरित, अंगपण्णत्ती, पार्श्वनाथ पंजिका, करकंडचरित, संशयवदन विदारण, स्वरूप सम्बोधनवृत्ति, प्राकृत व्याकरण, श्रेणिकचरित, स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा टीका, पाण्डव पुराण, सप्ततत्त्व निरूपण, अपशब्द खण्डन, स्तोत्र (तर्क ग्रन्थ) नन्दीश्वर कथा, कर्मदहन विधि, चिन्तामणि पूजा, तेरह द्वीप पूजा, पंचकल्याणक पूजा, गणधर वलय पूजा, पल्यापम उद्यापन विधि, सार्धद्वयद्वाप पूजा, सिद्धचक्र पूजा, पुष्पांजलि व्रत पूजा, सरस्वती पूजा, चारित्र शुद्धि विधान, सर्वतो भद्र विधान पादि।
इन रचनामों में से यहाँ कुछ रचनाओं का परिचय दिया जाता है। रचना-परिचय
प्रध्यात्मतरंगिणी टीका-यह प्राचार्य प्रमतचन्द्र के समयसार कलशों (नाटक समयसार की टीका है जिसे भट्रारक शुभचन्द्र ने सं० १५७३ में बनाकर समाप्त की थी। टीका में कलश के पद्यों के अर्थ का उद्घाटन किया है । टीका विशद है और पद्यों के अन्तर्भाव को खोलने का प्रयत्न किया गया है। कहीं-कहीं टीकाकार ने पद्यों के प्रर्थ करने में चमत्कार दिखलाया है । भट्टारक शुभचन्द्र की यही टीका सबसे पहली रचना जान पड़ती है । टीका प्रकाशित हो चुकी है।
जीवंधर चरित-इसमें भगवान महावीर के समकालीन होने वाले जीवंधर कुमार का जो राजा सत्यंधर
थे, जीवन परिचय अंकित किया गया है। जीवंधर ने अपने पिता के राज्य को पुनः प्राप्त किया, भोग भोगे, किन्तु अन्त में अपने पुत्र को राज्य देकर भगवान महावीर से दीक्षा लेकर प्रात्म-साधना की। कठोर तपश्चरण कर कर्म
१. शिष्यस्तस्य विशिष्ट शास्त्रविशदः संसारभीताशयो।
भावाभावविवेक वारिधितरस्याद्वादविद्यानिधि :॥ -अध्यात्मतरंगिणी टीका प्र. २. "तप्पय सेवणसत्तो तेवेज्जो उहय भास परिवेई।" -अंगपणत्ती प्र० ३. सूरिश्रीशुभचन्द्रण वादिपर्वतवचिणा। ।
विद्यनानुप्रेक्षाया वृत्तिविरचिता नरा॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा टी०प्र० ४: संवत् १६०७ वर्षे बैशाखवदी २ गुरु श्री मूलसंघे भ. श्री शुभचन्द्र 'गुरूपदेशात् हबडशंखेश्वरा गोत्रे सा० जिना ।
भट्टारक सम्प्रदाय प्र० १४५ ५. विक्रम वरभूपालापंचत्रिशते स्त्रिसप्तति व्यषिके।
वर्षेप्याश्विन्मासे शुक्ल पक्षेऽथ पंचमीदिवसे ॥६अध्या० टी० प्र.
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२८
बन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ शृंखला का विनाश कर अविनाशी पद प्राप्त किया। भट्टारक शुभचन्द्र ने इस पावन चरित की रचना संवत् १६०३ में की है।
- अंगपण्णत्तो-यह प्राकृत भाषा का ग्रन्थ है। इसमें २४८ गाथाएं दी हुई हैं, जिनमें अंग पूर्वादि का स्वरूप पौर पदादि की संख्या दी हुई है। ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के सिद्धान्त सारादि संग्रह में प्रकाशित हो चुका है। ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका-यह स्वामी कुमार की प्राकृकि गाथामों में निबद्ध अनुप्रेक्षा ग्रन्थ है जिसे कार्तिकेयानुप्रेक्षा कहा जाता है । मूल ग्रन्थ में ४६१ गाथाएँ हैं । इन अनुप्रेक्षात्रों को ग्रन्थकार ने भव्यजनों के प्रानन्द को जननी लिखा है, ग्रन्थ हृदयग्राही है और उक्तियाँ अन्तस्तल को स्पर्श करती हैं। शुभचन्द्र ने टीका द्वारा मूल गाथाओं का अर्थ उद्घाटित करते हए अनेक ग्रन्थों से समृद्धत पद्यों द्वारा उस विषय को स्पष्ट करने है । शुभचन्द्र के शिष्य लक्ष्मीचन्द्र ने भी कुछ भाग लिखा था। वह भी उसमें शामिल कर लिया गया है । भट्टारक शुभचन्द्र ने यह टीका वि० सं० १६१३ में बनाकर समाप्त की है।
श्रेणिक चरित्र-इस ग्रंथ में १५ पर्व हैं जिनमें मगध देश के शासक और भगवान महावीर के प्रमुख श्रोता राजा श्रेणिक बिम्बसार का जीवन-वृत्त अंकित किया गया है। इसका दूसरा नाम 'पद्मनाभ पुराण' भी हैं। क्योंकि श्रेणिक का जीव पद्मनाभ नाम का प्रथम तीर्थकर होगा, इस कारण ग्रन्थ का नाम भी पद्मनाभचरित रख दिया गया है। कर्ता ने इसका रचनाकाल नहीं दिया।
करकण्डु चरित-इसमें १५ सर्ग हैं । यह एक प्रबन्ध काव्य है। इसमें राजा करकंड का जीवन परिचय अंकित किया गया है। चरित पावन रहा है, और ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है । यह राजा पार्श्वनाथ को परम्परा में हुआ है । कवि ने इस ग्रन्थ की रचना संवत् १६११ में जवाछपुर के प्रादिनाथ चैत्यालय में की है । इस ग्रन्थ की रचना में शुभचन्द्र के शिष्य सकलभूषण सहायक थे।
पाण्डव पुराण-इस ग्रन्थ में २५ सर्ग या पर्व हैं जिनमें पाण्डवों आदि का जीवन-परिचय दिया हुआ है। उनकी जीवन-घटनामों का भी उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में कवि ने अपने रचित २८ ग्रन्थों का उल्लेख किया है । शुभचन्द्र ने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १६०८ में बाग्वर देश के शाकीवाटपुर के आदिनाथ चैत्यालय में की है। इसकी रचना ने श्रीपाल वर्णी ने सहायता की है।
१. श्रीमद् विक्रमभूपतेर्वसुहत दंतेशते सप्तह ।
वेदय॑नतरे समे शुभतरे मासे वरेण्ये शुचौ । वारेणीष्पतिक त्रयोदशतिथी सन्नुतने पत्तने ।
श्रीचन्द्रप्रभधाम्नि वैविरचितं चेदं मया तोषतः ॥७॥ जीवं० प्र० २. श्रीमत् विक्रम भूपतेः परमिते वर्षे शते षोडशे। माघे मासि दशाग्रवन्हि सहिते (१६१३) ख्याते दशम्यां तिथी। श्रीमधीमहिसार-सार नगरे चैत्यालये श्रीगुरोः । श्रीमच्छी शुभचन्द्र देव-विहिता टीका सदा नन्दतु ॥६॥ ३. द्वयष्टे विक्रमतः शते समहते चका दशान्दाधिके, भाद्रे मासि समुज्वले युगतियो खङ्ग जवाछापुरे। श्री मद्रीवृषभेश्वरस्य सदने चके चरित्रत्विदं । राज्ञः श्री शुभचन्द्रसूरि यतिपश्चंपाधिपस्याद् ध्रुवं ॥५५॥ -करकण चरित प्र० ४. श्रीमद्विक्रमभूपतेर्दिकहते स्पष्टाष्टसंख्ये शते।
रम्येऽष्टाधिकवत्सरे (१६०८) सुखकरे भाद्र वितीया तिथी। . श्रीमद्वाग्वर नोवृतीमतुले श्री शाकबाडेपुरे, श्रीमच्छीपुरुषाम्नि वरचितं स्यात्पुराणं चिर ॥१६ .
Page #563
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वी शत्राब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
५२९ इनके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थ मेरे अवलोकन में नहीं पाए, इससे उनके सम्बन्ध में लिखना कुछ शक्य नहीं है । पूजा ग्रन्थ भी सामने नही हैं इसलिए उनका परिचय भी नहीं दिया जा सकता।
कवि की संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त अनेक हिन्दी रचनाएँ भी हैं जिनके नाम यहाँ दिए जाते हैंमहावीर छन्द (स्तवन २७ पद्य) विजयकीति छन्द, तत्त्वसार दूहा, नेमिनाथ छन्द आदि ।
भ० शुभचन्द्र का कार्यकाल सं० १५७३ (सन् १५१६) से १६१३ (सन् १५५६) ४० वर्ष रहा है । इनके अनेक शिष्य थे-श्रीपालवी, सकलचन्द्र, लक्ष्मीचन्द्र और सुमतिकीर्ति आदि । इनका समय १६वीं और १७वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है।
अमरकोति यह मूल संघ सरस्वतो गच्छ के भट्टारक मल्लिभूषण के शिष्य थे। मल्लिभूषण मालवा की गद्दी के पट्टधर थे । इन्हीं के समकालीन विद्यानन्दि अोर श्रुतसागर थे। अमरकीति ने जिन सहस्र नाम स्तोत्र की टीका प्रशस्ति में विद्यानदि और श्रतसागर दोनों का आदरपूर्वक स्मरण किया है। इनको एकमात्र कृति जिन सहस्रनाम टीका है । प्रशस्ति में रचनाकाल दिया हुआ नही है। फिर भी अमरकोति का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है। टीका अभी अप्रकाशित है उमे प्रकाश में लाना चाहिए । अमरकीति की यह टीका भ० विश्वसेन द्वारा अनुमोदित है।
___वीर कवि या बुधवीर कवि का वंश अग्रवाल था और यह साहू तोतू के पुत्र थे तथा भट्टारक हेमचन्द्र के शिष्य थे । संस्कृत भाषा के विद्वान और कवि थे। इनकी दो कतियाँ मेरे देखने में आई हैं वहत्सिद्धचक्र पूजा और धर्मचक्र पजा।
वहत्सिद्धचक्र पूजा-यह सिद्धचक्र की विस्तृत पूजा है । पं० जिनदास काप्ठा संघ माथुरान्वय और पुष्करगण के भटारक कमलकीति, कुमुदचन्द्र और भट्टारक यशमेन के अन्वय में हए हैं। यशसेन को शिप्या राजश्री नाम की थी. जो मंयम निलया थी। उसके भ्राता पद्मावती पुरवाल वंश में समुत्पन्न नारायण सिंह नाम के थे, जो मनियों को दान देने में दक्ष थे। उनके पुत्र जिनदास नाम के थे, जिन्होंने विद्वानों में मान्यता प्राप्त की थी। इन्हीं पंडित जिनदास के आदेश मे उक्त पूजा-पाठ रचा गया है। जिसे कवि ने वि० सं० १५८४ में दिल्ली के बादशाह बाबर के राज्यकाल में रोहितासपुर (रोहतक) के पार्श्वनाथ मन्दिर में बनाया है ।।
धर्मचना पूजा-१स पूजा-पाठ को भी उक्त पद्मावती पुरवाल पडित जिनदास के निर्देश से रोहितासपुर के पार्श्वनाथ जिन मन्दिर में अग्रवाल वंशी गोयल गोत्री साधारण के पुत्र साहू रणमल्ल के पुत्र मल्लिदास के लिए बनाया गया है। टमकी श्लोक संख्या ८५० है। इसे कवि ने सं० १५८६ में पूम महीने के शक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन समाप्त किया है । इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि ने नन्दीश्वर पूजा और ऋषिमंडल यंत्र पूजा-पाठ की भी रचना की है। ये दोनों पूजा ग्रन्थ मेरे देखने में नहीं आए, इसी से उनका परिचय नहीं दिया। इनके अतिरिक्त कवि की अन्य क्या कृतियाँ हैं वह अन्वेषणीय है। कवि का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है।
१. वेदाष्टवाण शशि-संवत्सर विक्रमनपाद्वहमाने । रुहितासनाम्नि नगरे बर्बर मुगलाधिराज-सद्राज्ये ॥? श्रीपाश्वं चैत्यगेहे काष्ठा संघे च माथुरान्वयके ।।
पुष्करगणे बभूव भट्टारकमरिणकमल कीाह्वः ॥ २ (सिद्ध० पू०प्र०) २. चन्द्रबाणाष्ट षष्ठांकः (१५८६) वर्तमानेषु सर्वतः ।
श्री विक्रमनपान्नूनं नय विक्रमशालिनः ॥८॥ पौष मासे सिते पक्षे षष्ठींदु दिन नामके । रुहितामपुरे रम्ये पार्श्वनाथस्य मन्दिरे ॥६॥
-धर्मचक्र पूजा प्र०
Page #564
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
कवि दोड्डव्य यह देवप्प का पुत्र था, जो जैन पुराणों की कथा में निपुण था और पंडित मुनि का शिष्य था। देवप्प जैन ब्राह्मण था और उसका गोत्र 'आत्रेय' था। यह होयसल देश के चंग प्रदेश के पिरिय राज शहर में राज्य करने वाले यदुकुल तिलक विरुपराज का दरबारी कत्थक था। यह राजा साहित्य का बड़ा प्रेमी था, और इसने शान्ति जिन की एक मूर्ति को विधिवत् तैयार करा कर उसे स्थापित किया था। ऐसा लेख मद्रास के अजायबघर में मौजूद एक जैन मूर्ति के नीचे उत्कीर्ण किया हुआ है।
- कवि दोड्डय्य ने अपने चन्द्रप्रभ चरित में विरुप राजेन्द्र की स्तुति की है । जैन ब्राह्मण पं० सलिवेन्द्र का पुत्र वोम्मरस इसी राजा का प्रधान था।
चन्द्रप्रभ चरित में २८ सन्धियाँ प्रौर ४४७५ पद्य हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ में कवि ने लिखा है कि मैं कवि परमेष्ठी और गुण भद्र की कही हुई कथा को कानड़ी में लिखता हूं। पहले चन्द्रनाथ, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, रत्नत्रय, सरस्वती, गणधर, ज्वालामालिनी, विजयपक्ष और पिरिय शहर के अनन्त जिन की, और कमलभंग महिषिकुमारपुराधीश्वर ब्रह्मदेव की स्तुति की है।
ग्रन्थ में कुछ पूर्ववर्ती कवियों का भी स्मरण किया है। कवि का समय १५५० के लगभग अर्थात् ईसा की १६वीं शताब्दी है।
पं० जिनदास यह वेद्य विद्या में निष्णात वैद्य थे। इनके पिता का नाम 'रेखा' था जो वैद्य थे । इनकी माता का नाम 'रिखश्री' था और पत्नी का नाम जिनदासी था, जो रूप लावण्यादि गुणों से अलंकृत थी। पंडित जिनदास रणस्तम्भ दूर्ग के समीप नवलक्षपुर के निवासी थे । ग्रन्थ प्रशस्ति में उन्होंने अपने पूर्वजों का परिचय निम्न प्रकार दिया है :
उनके पूर्वज 'हरिपति' नाम के वणिक थे। जिन्हें पद्मावती देवी का वर प्राप्त था और जो पे नामक राजा से सम्मानित थे। उन्हीं के वंश में 'पद्म' नामक के श्रेष्ठी हुए, जिन्होंने अनेक दान दिये और ग्यासशाहि नाम के राजा से बहु मान्यता प्राप्त की। इन्होंने शाकम्भरी नगरी में विशाल जिन मन्दिर बनवाया था। वे इतने प्रभावशाली थे कि उनकी प्राज्ञा का किसी भी राजा ने उल्लंघन नहीं किया। वे मिथ्यात्व के नाशक थे और जिन गणों के नित्य पूजक थे। इनके दो पूत्र थे। उनमें प्रथम का नाम बिझ था, जो वंद्यराट् था। बिझ ने शाह नसीर से उत्कर्ष प्राप्त किया था। इनके दूसरे पुत्र का नाम 'सुहृज्जन' था, जो विवेकी और वादी रूपी गजों के लिए सिंह के समान था। सबका उपकारक प्रौर जैन धर्म का आचरण करने वाला था। यह जिनचन्द्र भट्टारक के पट्ट पर प्रतिष्ठित हया था। इनका पट्टाभिषेक सं० १५७१ (सन् १५१४) में सम्मेदशिखर पर सुवर्ण कलशों से हुना था। इन्होंने राजा के समान विभूति का परित्याग कर भट्टारक पद प्राप्त किया। इनका नाम भट्रारक प्रभाचन्द्र रखा गया। वे इस पट्ट पर नौ वर्ष ४ मास और २५ दिन रहे । उक्त बिझ वैद्य का पुत्र धर्मदास हुमा, जिसने महमूद शाह से बहमान्यता प्राप्त की थी। यह भी वैद्य शिरोमणि और विख्यातकीति था। इसे भी पद्मावती देवी का वर प्राप्त था। इसकी पत्नी का नाम 'धर्मश्री' था, जो अद्वितीय दानी, सदृष्टि, रूपवान्, मन्मथविजयी और प्रफुल्ल वदना थी। इसका रेखा नाम का एक पुत्र था, जो वैद्यकला में दक्ष, वैद्यों का स्वामी और लोक में प्रसिद्ध था। यह 'वैद्य विद्या' इनकी कुल परम्परा से चली पा रही थी और उससे अापके वंश की बड़ी प्रतिष्ठा थी। रेखा अपनी वंद्य विद्या के कारण रणस्तम्भ (रणथम्भोर) नामक दुर्ग के बादशाह शेरशाह द्वारा सम्मानित हुमा था, इन्हीं रेखा का पुत्र पं० जिनदास था। इनका पुत्र नारायण दास नाम का था।
पंडित जिनदास ने शेरपुर के शान्तिनाथ चैत्यालय में ५१ पद्योंवाली 'होलीरेणका चरित्र की प्रति का प्रवलोकन कर सं० १६०८ (सन् १५५१ ई०) में ज्येष्ठ शुक्ला दसवीं शुक्रवार के दिन इस 'होलीरेणु का चरित्र' अन्य की रसना ४३ लोकों में की है।
...L.T.J.28.
Page #565
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३१
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आवार्य, भट्टारक और कवि
"पुरे शेरपुरे-शान्तिनाथचंत्यालये वरे। वसुखकायशीतांशु (१६०८) संवत्सरे तथा ॥ ज्येष्ठमासे सिते पक्षे दशम्यां शुक्रवासरे।
अकारि ग्रन्थः पूर्णोऽयं नाम्ना दृष्टिप्रबोधकः ।।" कवि जिनदास ने इस ग्रन्थ को भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य मूनि धर्मचन्द्र और धर्मचन्द्र के शिष्य मूनि ललित कीति के नाम किया है। कवि का समय १७वीं शताब्दी का पूर्वार्ष है।
ब्रह्मकृष्ण या केशवसेनसूरि काष्ठासंघ के भट्टारक रत्नभूषण के प्रशिष्य और जयकीर्ति के पट्टधर शिष्य थे। यह कवि कृष्णदास के नाम से प्रसिद्ध थे। वाग्वर (बागड) देश के दम्पति वीरिका और कान्तहर्ष के पुत्र और ब्रह्म मंगलदास के अग्रज (ज्येष्ठ भ्राता ) थे । कर्णामत की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि का गंगासागर पर्यन्त, दक्षिण देश में, गुजरात में मालवा प्रौर मेवाड़ में यश और प्रतिष्ठा थी। वे अपने समय के सुयोग्य विद्वान थे और १७वीं शताब्दी के अच्छे कवि थे।
आपकी इस समय तीन रचनाएं उपलब्ध हैं, मुनिसुव्रतपुराण-कर्णामृत पुराण और षोडशकारण व्रतोद्यापन।
मुनिसुव्रत पुराण-इसमें जैनियों के २० वें तीर्थकर मुनिसुव्रत की जीवन गाथा अंकित की गई है। मंगल सहोदर कवि कृष्ण ने इस पुराण का निर्माण वि० सं० १६८१ के कार्तिक शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के अपराण्ह काल में कल्पवल्ली नगर में कर समाप्त किया है।
इन्दष्टषटचन्द्र मितेऽथ वर्षे (१६८१) श्री कातिकास्ये धवले च पक्षे।
जीवे त्रयोदश्यपरान्हया मे कृष्णेन सौख्याय विनिमितोऽयं ॥९६ कवि ने अपने को लोहपत्तन का निवासी और हर्ष वणिक का पुत्र बतलाया है। और कल्पवल्ली नगर में ब्रह्मचारी कृष्ण ने ३०२५ पद्यों में इस ग्रन्थ की रचना की है। जैसा कि उसके पुष्पिका वाक्य से स्पष्ट है :
इति श्री पुण्यचन्द्रोदये मुनिसुवत पुराणे श्रीपूरमल्लां के हर्ष वीरिका देहज श्री मंगलदासाग्रज ब्रह्मचारीश्वर कृष्णदास विरचिते रामदेव शिवगमनं त्रयोविंशतितमः सर्गः समाप्तः ।
कर्णामृत पुराण-इसमें कर्ण राजा के चरित का वर्णन किया गया है। यह दूसरी रचना है। कवि ने इसे वि० सं० १६८८ में मालव देश को तिलक पुरी के पार्श्वनाथ मन्दिर में माघ महीने में पूर्ण किया है । इस ग्रन्थ की रचना में ब्रह्मवर्धमान ने सहायता पहुंचायी थी, जो इनके शिष्य जान पड़ते हैं।
षोडशकारण व्रतोद्यापन-इसमें षोडशकारणव्रत की विधि और उसके उद्यापन का वर्णन किया गया कि केशवसेन या कृष्ण ने इसे वि० सं० १६९४ (सन् १६३७) में मगशिर शुक्ला सप्तमी के दिन रामनगर में बना कर समाप्त किया है।
वेवनंद रसचन्द्रवत्सरे (१६६४) मार्गमासि सितसप्तमी तिथौ।
रामनामनगरे मया कृताान्य-पुण्यनिवहाय सूरिणा ।१४ इति प्राचार्य केशवसेन विरचितं षोडशकारण व्रतोद्यापनं संपूर्णः इसके अतिरिक्त कवि की अन्य कृतियां भी अन्वेषणीय हैं। कवि का समय विक्रम की १७वीं शताब्दी है।
१. लेलिहान-वसु-षड़ विधुप्रमे (१६५८) वत्सरे विविध भाव संयुतः। • एष एव रचितो हिताय में ग्रन्थ प्रात्मन इहाखिलागिनाम् ।।
जैन ग्रन्थ प्रश० भा०११०५५
Page #566
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
भ० वादिचन्द्र यह मूलसंघ सरस्वती गच्छ के भट्रारक-भट्रारक ज्ञानभूषण द्वितीय के प्रशिष्य और भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य थे। यह अपने समय के अच्छे विद्वान कवि और प्रतिष्ठाचार्य थे । इनको पट्ट परम्परा निम्न प्रकार है:-विद्यानन्दि के पट्टधर मल्लिभूषण, उनके पट्टधर लक्ष्मीचन्द्र, वोरचन्द्र, ज्ञानभूषण, प्रभाचन्द्र और इनके पट्टधर वादिचन्द्र । इनको गद्दी गुजरात में कही पर थी।
इनकी निम्न रचनाए उपलब्ध हैं-पार्श्वपुराण, ज्ञानसूर्योदय नाटक, पवनदूत, सुभग सुलोचना चरित, श्रीपाल पाख्यान, पाण्डवपुराण, और यशोधर चरित। होलिका चरित ओर अम्बिका कथा ।
पार्श्वपुराण-इस ग्रन्थ में १५०० पद्य है जिनमें भगवान पार्श्वनाथ का चरित अकित है। इस ग्रन्थ को कवि ने वि० सं० १६४० कार्तिक सुदो ५ के दिन बाल्मीकि नगर में बनाया है ' । वादिचन्द्र ने अपने गुरु प्रभाचन्द्र को बौद्ध, काणाद, भाट्ट, मीमांसक, सांख्य, वैशेषिक आदि को जीतने वाला और अपने को उनका पट्ट सुशोभित करने वाला प्रकट किया है
बौद्धो मूढति बौद्ध भितिमतिः काणादको मूकति, भट्टो भृत्यति भावनाप्रतिभटो मीमांसको मन्दति । सांख्यः शिष्यति सर्वथैवकथनं वैशेषिको कति,
यस्य ज्ञानपाणतो विजयतां सोऽयं प्रभाचन्द्रमा॥ ज्ञानसर्योदय नाटक-यह एक सस्कृत नाटक है, जो 'प्रबोधचन्द्रोदय' नामक नाटक के उत्तर रूप में लिखा गया है। कृष्णमिश्रयति परिव्राजक ने बुन्देलखण्ड के चन्देल वंशो राजा कीर्तिवर्मा के समय में उक्त नाटक रचा है। कहा जाता है कि वि० सं० ११२२ में उक्त राजा के सामने यह नाटक खेला भी गया था। इसके तीसरे अंक में क्षपणक (जैन मुनि) को निन्दित एवं घृणित पात्र रूप में चित्रित किया है। वह देखने में राक्षस जसा है ओर श्रावकों को उपदेश देता है कि तुम दूर से चरण वन्दना करो, ओर यदि हम तुम्हारी स्त्रियों के साथ अति प्रसग करे तो तम्हें ईर्षा नहीं करनी चाहिये । प्रादि । उसी का उत्तर वादिचन्द्र ने दिया है। दोनों नाटकों की तुलना करने से पात्रो को समानता है, दोनो के पद्य पार गद्य वाक्य कुछ हेर फर के साथ मिलते है। अस्तु, कवि न इस ग्रन्थ को रचना वि० सं० १७४८ में मधूक नगर (महुमा) में समाप्त का थी
वसु-वेद-रसाब्जके वर्षे माघे सित्ताष्टमी दिवसे ।
श्रीमन्मधूकनगर सिद्धोऽयं बोधसंरभः ।। पवन दूत-यह एक खण्ड काव्य है, जिसकी पद्य सख्या १०१ है। जिस तरह कालिदास के विरही यक्ष ने मेघ के द्वारा अपनी पत्नी के पास सन्देश भेजा है, उसी तरह इसमे उज्जयिनी के राजा विजय न अपना प्राणाप्रया तारा के पास, जिसे प्रशनिवेग नाम का विद्याधर हर ले गया था, पवन को दूत बनाकर विरह सन्देश भेजा है। यह रचना सुन्दर और सरस है । अपने पद्य में कवि ने अपने नाम के सिवाय अन्य कोई परिचय नही दिया है । पद्य स स्पष्ट है कि यह रचना विगतवसन वादिचन्द्र का है । यह वादिचन्द्र वही है जा ज्ञान सूर्योदय नाटक के कत्ता है।
सुभग सुलोचना चरित्र-इस ग्रन्थ की एक प्रति ईडर के शास्त्र भडार में है । प्रशस्ति से जान पड़ता है कि १. तत्पट्टमण्डनं सूरिदिचन्द्रा व्यरीरचत् ।
पुराणमेतत्पाश्वस्य वादिवृन्द शिरोमणिः ॥२ शून्यवेदरासाब्जाके वर्षे पक्षे समुज्वले । कातिके मासि पचम्या बाल्मीक नगरे मुदा॥३
पा० पु०प्र० २. पादौ नत्वा जगदुयकृस्वर्थ सामर्थ्यवन्तौ विघ्नध्वान्तप्रसर तरणेः शान्तिनाथस्य भक्त्या ।
श्रोत चैतत्सदसि गुणितावायुद्ताभिधानं, काव्यं चक्रे विगतवसनः स्वल्पधीर्वादिचन्द्रः॥ -पवन-द्रत
Page #567
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वी, १६, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
५३३
यह ग्रन्थ सुगम संस्कृत में लिखा गया है । वादिचन्द्र के शिष्य सुमतिसागर ने वि० सं० १६६१ में व्यारा (नगर) में लिखा था " ।
श्रीपाल श्राख्यान - यह एक गीतिकाव्य है जो गुजराती मिश्रित हिन्दी भाषा में है, और जिसे कवि ने सं० १६५१ में सघपति धनजी सवा की प्रेरणा से बनाया था ।
पाण्डव पुराण - इस ग्रन्थ में पाण्डवों का चरित अकित किया गया है जिसको रचना कवि ने वि० सं० में 'समाप्त की है।
१६५४
वेद वाण षडब्जांके वर्षे नभसि मासके । बोधका नगरेऽकारि पाण्डवानां प्रबन्धकः ॥
- तेरापंथी बड़ा मन्दिर, जयपुर
यशोधर चरित - इसमे यशोधर का जीवन-परिचय दिया हुआ है । कवि ने इस ग्रन्थ को अकनेश्वर (भरांच) के चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर मे वि० स० १६५७ में रचा है ।
एक पंच - षडैकांक वर्षे नभसि मासके ।
मुदाकथामेनां वादिचन्द्रो विदांवरः ॥
इनके अतिरिक्त कवि की होलिका चरित प्रोर ग्रम्विका कथा दो रचनाएं वतलाई जाती है, जो मेरे देखने में नहीं आई । आदित्यवार कथा यार द्वादश भावना हिन्दी की रचनाएं है । एक दो गुजराती रचनाएं भी इनकी कही जाती है । कवि का समय १७वी शताब्दी है ।
1
कवि राजमल्ल
काष्ठा सघ माथरगच्छ पुष्करगण के भट्टारकों की आम्नाय के विद्वान् थे उस समय पट्ट पर भ० खमकोर्ति विराजमान थे । कवि राजमल्ल १७वी शताब्दी के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान और कवि थे । व्याकरण, सिद्धान्त, छन्द शास्त्र र स्याद्वादविद्या में पारगत थे । स्याद्वाद और अध्यात्मशास्त्र के तलस्पर्शी विद्वान थे। राजमल्ल ने स्वय लाटी सहिता का संघिया में अपन का स्याद्वादानवद्य गद्य-पद्य-विद्या विशारद विद्वन्मणि' लिखा है' । कुन्दकुन्दाचाय के समयसारादि ग्रन्थों के गहरे अभ्यासी थे । उन्होने जन मानस में अध्यात्म विषय को प्रतिष्ठित करन के
१. विहाय पद काठिन्य सुगमेर्वचनोत्करैः । चकार चरितं साध्व्या वदिचन्द्रोऽल्पमेधसाम् ॥
इति भट्टारक प्रभाचन्द्रानुचरमूरि श्री वादिचन्द्र विरचितं नवमः परिच्छेदः समाप्तः ॥
स० १६६१ वर्ष फाल्गुन मासे सुदि पचम्यां तिथी श्री व्यारा नगरे शान्तिनाथ चैत्यालये श्री मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वये भ० ज्ञानभूपणाः भ० श्री प्रभाचन्द्राः भ० वादिचन्द्रस्य शिष्य ब्रह्म श्री सुमतिसागरेण इद चरित लिखितं ज्ञानावरणीय कर्मक्षयार्थमिति ।
२. संवत् सोल एकावना वर्षों कीधां य् परबंधजी ।
भवियन थिर मन करीने सुराज्यो नित सबध जी ॥ दान दीजे जिन पूजा कीजे समकित मन राखिजे जी । सूत्रज भणिए नवकार वणिए असत्य न विभषिजे जी ॥ १० लोभव तजी ब्रह्म धरीजे सॉभल्यानुं फल एह जी ।।
ए गीत जे नरनारी सुरण से अनेक मंगल तरु गेह जी ॥११ संघपति धनजी सवा वचनें कीधोए परबंध जी ॥
केवली श्रीपाल पुत्र सहित तुम्ह नित्य करो जयकार जी ॥ १२ ३. इतिश्री स्याद्वादानवद्य गद्यपद्य
विद्याविशारद - राज मल्ल विरचितायां श्रावकाचारापर नाम लाटीसंहितायां साधुदात्मज - फामनमनः सरोजारविदविकाशनैक मार्तण्ड मण्डलायमानायां कथामुख वर्णनं नाम प्रथमः सर्गः ॥
Page #568
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ लिए आचार्य अमृतचन्द्र के समय सार कलश के पद्यों की खंडान्वयी टीका लिखी थी । इस टीका के अध्ययन से अनेक लोग अध्यात्मरस का पान करने को समर्थ हो सके हैं । आपका व्यक्तित्व प्रभावशाली था, और उनके चित्त में जन कल्याण की भावना सदा जागृत रहती थी। उन्होंने अनेक स्थानों पर विहार कर जनता को कल्याणमार्ग का उपदेश दिया था । खासकर राजस्थान के मारवाड़ और मेवाड़ देश में विहार कर जनकल्याण करते हुए यश और प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। उनका विशुद्ध परिणाम और सर्वोपकारिणी बुद्धि इन दोनों गुणों का एकत्र सम्मेलन उनके बौद्धिक जीवन की विशेषता थी। इन्हीं से साहित्य संसार में उनके यश सौरभ का विस्तार हो रहा था। उनकी अध्यात्मकमल मार्तण्ड और पंचाध्यायी कृतियाँ उनके अध्यात्मानुभव ओर स्याद्वादसरणी की निर्देशक हैं। वे जहाँ जाते वहाँ उनका स्वागत होता था।
उन्हें प्रागर। में शाहजहां के राज्यकाल में कुछ समय रहने का अवसर मिला है। उन्होंने शाहजहाँ को नजदीक से देखा है । और जम्बूस्वामी चरित में उसकी विशेषताओं का दिग्दर्शन भी कराया है। गुजरात विजय का वर्णन करते हुए लिखा है । उसने 'जजियाकर' छोड़ दिया था और शराब भी बन्द कर दी थी।
"मुमोच शुल्कं त्वय जेजियाभिधं, स यावदंभोधर भूधराधरं ॥" २७ "प्रमादमादायजः प्रवर्तते कुधर्मवमेषु यतः प्रमत्तधीः । ततोऽपि मधं तदवद्यकारणं निवारयामास विदांबरः सहि॥" २६
-जंबू स्वामिचरित उस समय आगरा में अकबर बादशाह के खास अधिकारी कृष्णामंगल चौधरी नाम के क्षत्रिय थे, जो ठाकर और अरजानी पुत्र भी कहलाते थे और इन्द्रश्री को प्राप्त थे। उनके आगे 'गढमल्लसाह' नाम के एक वैष्णव धर्मावलम्बी दूसरे अधिकारी थे, जो बड़े परोपकारी थे। कवि ने उन्हें परोपकारार्थ शाश्वती लक्ष्मी प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया है । जम्बू स्वामी चरित की रचना कराने वाले साहू टोडर उन दोनों के खास प्रीतिपात्र थे, उन्हें कवि ने टकसाल के कार्य में दक्ष बतलाया है :
"तयोद्धयोः प्रीतिरसामृतात्मकः सभातिनानाटकसार दक्षकः ।" साहू टोडर भटानिकोल (अलीगढ़) के निवासी अग्रवाल थे, इनका गोत्र गर्ग था । यह काष्ठा संघी भट्टारक कुमारसेन की आम्नाय के श्रेष्ठी थे । कवि ने इन्हीं कुमारसेन के पट्ट पर क्रमश: हेमचन्द्र, पद्मनन्दी, यशःकीर्ति और क्षेमकीति का प्रतिष्ठित होना लिखा है।
___ कवि राजमल्ल की निम्न कृतियाँ उपलब्ध हैं-जम्बू स्वामी चरित्र, अध्यात्म-कमल मार्तण्ड, समयसारकलशटीका, लाटी सहिता, छन्दोविद्या और पंचाध्यायी। रचना-परिचय
जम्बूस्वामी चरित्र--इसमें अन्तिम केवली जम्बू स्वामी के चरित्र का अंकन किया गया है । इस काव्य में १३ सर्ग और २४०० के लगभग श्लोक हैं। इस ग्रन्थ की रचना कवि ने आगरे में की है, अतः आगरे का वर्णन करना स्वाभाविक है । वहाँ के शासक शाहजहाँ का अच्छा वर्णन किया है और उसके कार्यों को प्रशंसा भी की है। काव्य
राग्य प्रधान है। कहीं पर युद्ध का वर्णन करते हए वीर रस पा गया है, कहीं धर्मशास्त्र और नीति का वर्णन है। जम्बूकुमार के साथ उनकी स्त्रियों और विद्युच्चर के जो संवाद हुए हैं वे बहुत ही रोचक हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्व के हैं । इस ग्रन्थ की रचना साहू टोडर के अनुरोध से हुई है जिसने प्रचुर द्रव्य व्यय करके मथुरा में ५१४ स्तूपों का जीर्णोद्धार किया था । और उनकी प्रतिष्ठा चतुर्विध संघ के समक्ष ज्येष्ठ महीने के शुक्ल पक्ष में द्वादशी बुधवार के दिन की थी' । प्रतिष्ठादि कार्य राजमल्ल द्वारा सम्पन्न हुआ था। इस ग्रन्थ की रचना कवि ने सं० १६३२ में
२. सवत्सरे गताब्दानां शतानां षोडगंक्रमात्, शुद्धस्त्रिंशद्भिरदश्च साधिकं दधति स्फुटम् ११९ शुभे ज्येष्ठे महामासे शुक्ल पक्षे महोदये, द्वादश्यां बुधवारे स्थाद्घटीनां च नवोपरि, ।
-चंबू स्वामि चरित्र १,११९२०
Page #569
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५त्री, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
५३५ चैत्र वदी अष्टमी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में की है।
अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड- इसमें चार परिच्छेद हैं और २५० श्लोक हैं, रचना प्रौढ़ है, इसमें मोक्ष, मोक्ष मार्ग का लक्षण, द्रव्य सामान्य, द्रव्य विशेष और अन्तिम चतुर्थ परिच्छेद में साततत्व नौ पदार्थों का वर्णन है। कवि ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में चिदात्मभाव को नमस्कार किया है, और संसार ताप की शान्ति के लिए मोहनीय कर्म को नाश करने के लिए ग्रन्थ की रचना की है।
समयसारकलश टीका-कवि ने प्राचार्य प्रमतचन्द्र द्वारा रचित समयसार की प्रात्मख्याति टीका के संस्कृत पद्यों में उसके हार्द को अभिव्यक्त करने वाले जो कलश रूप पद्य दिये हैं, उन्हीं पद्यों को हृदयंगम कर उनकी खंडान्वयात्मक बालबोध टीका लिखी है। यह टीका जिनागम, गुरुउपदेश, मुक्ति और स्वानुभव प्रत्यक्ष को प्रमाण कर लिखी गई है । यद्यपि टोका की भाषा ढुंढारी ब्रज-राजस्थानी मिश्रित है फिर भी गद्य काव्य सम्बन्धी शैली और लालित्यादि विशेपताओं से प्रोत-प्रोत है। पढ़ते ही चित्त में आह्लाद उत्पन्न करती है।
___टीका में प्रत्येक श्लोक के पद-वाक्यों का शब्दशः अर्य करते हुए उसके मथितार्थ को 'भावार्थ इस्यो' वाक्य द्वारा प्रकट किया है। खंडान्वय में विशेषणों और तत्सम्बन्धी सन्दर्भो का स्पष्टीकरण बाद में किया जाता है। राजमल्ल की इस टीका में उक्त पद्धति से ही विवेचन किया गया है । टीका में अनेक विशेपताएं पाई जाती है । जान पड़ता है कवि ने समय सारादि ग्रन्थों का खूब मनन किया था। उन्होंने उसका अनुभव होने पर ही इस टीका की रचना की है । टीका कब रची गई, इसका उल्लेख नहीं मिलता। टीका मनन करने योग्य है।
___ कवि ने इस टीका का निर्माण संवत् १६८० से पूर्व १६४० में किया है क्योंकि १६८० में अरथमलढोर ने यह बनारसोदास को दी है। उसके प्रचार-प्रसार में समय लगा होगा।
लाटी संहिता-यह प्राचार-शास्त्र का ग्रन्थ है। इसमें सात सर्ग और पद्यों की संख्या १६०० के लगभग है। कवि ने इस रचना को अनुच्छिप्ट और नवीन बतलाया है । कवि ने यह गश अग्रवाल वंशावतस मगल गोत्रीं साह दूदा के पुत्र संघ के अधिपति 'फामन' नाम के श्रेष्ठी के लिए बनाया है। कवि फामन के वंश का विस्तृत वर्णन करते हुए फामन के पूर्वजों का मूल निवास स्थान 'डौकीन' नगरी बतलाया है। फामन ने बैराट नगर के 'ताल्हू' नाम के विद्वान की कृपा से धर्म-लाभ किया था। जो भट्टारक हेमचन्द्र की आम्नाय के बालक थे । बैराट नाम का यह नगर वही प्रसिद्ध नगर जान पड़ता है जो राजा विराट की राजधानी था, जो मत्स्य देश में स्थित था
और जहाँ बनवास के समय पाण्डव लोग गुप्त रूप में रहे हैं । यह नगर जयपुर से लगभग ४० मील दूर है । कवि ने इस नगर की खुब प्रशंसा की है। वहां उस समय अकबर बादशाह का शासन था और नगर कोट-खाई से युक्त था । उसकी पर्वतमाला में तांबे की कितनी ही खाने थी जिनसे तांबा निकाला जाता था। नगर में ऊँच स्थान पर फामन के बडे भाई न्योतो ने एक विशाल जिनमन्दिर का निर्माण कराया था जो एक कीर्ति स्तम्भ ही था। यह दिगम्बर जैनमन्दिर बहत विशाल और अनेक सुन्दर चित्रों से अलंकृत था। यह मन्दिर पार्श्वनाथ के नाम से लोक
१. देखो, जम्बू स्वामीचरित के अन्त की गद्य प्रशस्ति। २. अध्यात्मकमल मार्तण्ड के प्रारम्भ के चार पद्य । ३. सत्यं धर्म रसायनो यदि तदा मां प्रशिक्षयोप कमात सारोद्धारमिवाप्यनुग्रहतया स्वल्पाक्षर सारवत् । आपं चापि मृदूक्तिभि. स्फुटमच्छिष्टं नवीनं महनिर्माणं परिधेहि संघ नपतिर्भूयाप्यवादीदिति ॥७६ लाटी संहिता ४. तत्राद्यस्य वरो सुतो वरगुणो न्योताह्व संघाधिपो,
येनैतज्जिनमन्दिरं स्फुटमिह प्रोत्तुंगमत्यद्भुतं । वैराटे नगरे निधाय विधिवत्पूजाश्च बह्वयः कृताः । पत्रामुत्र सुखप्रदः स्वयशसः स्तंभः समारोपितः ।। ७२ लाटी संहिता
Page #570
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
प्रसिद्ध था। इसी मन्दिर में बैठ कर कवि ने इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् १६४१ में प्राश्विन शुक्ला दशमी रविवार के दिन बनाकर समाप्त की है, जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है :
श्रीनपविक्रमादित्यराज्ये परिणते सति सहैक चत्वारिंशद्भिरब्दानां शतषोडश ॥२ तत्राप्यऽश्विनीमासे सितपक्षे शुभान्विते।
दशम्यां दाशरथेश्च शोभने रविवासरे ॥३ ग्रन्थ के प्रथम सर्ग में कथा मुख वर्णन है। और दोप छह सर्गों में ग्रन्थ कार ने आठ मुलगूण, सात व्यसन, सम्यग्दर्शन तथा श्रावक के १२ व्रतों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है । सम्यग्दर्शन का वर्णन करने के लिए दो सर्ग और अहिंसाणवत के लिए एक सर्ग की स्वतंत्र रचना की गई है।
छन्दो विद्या-इस ग्रन्थ की २८ पत्रात्मक एक मात्र प्रति दिल्ली के पंचायती मन्दिर के शास्त्रभण्डार में मौजूद है, जो बहुत ही जोर्ण-शीर्ण दशा में है । और जिसकी श्लोक संख्या ५५० के लगभग है। इसमें गुरु और लघु अक्षरों का स्वरूप बतलाते हए लिखा है-जो दीर्घ है, जिसके पर भाग में संयुक्त वर्ण है, जो विन्दु (अनुस्वार-विसर्ग से यक्त है-पादान्त है वह गुरु है, द्विमात्रिक है और उसका स्वरूप वक्र (5) है । जो एक मात्रिक है वह लघ होता है और उसका रूप शब्द-वक्रता से रहित सरल (1) है !
दीहो संजुत्तवरो विदुजुमो यालिप्रो (?) विचरणंते ।
__स गुरू वकं दुमतो अण्णो लहु होइ शुद्ध एकप्रलो॥ इसके आगे छन्द शास्त्र के नियम-उपनियमों तथा उनके अपवादों आदि का वर्णन किया है। इस पिंगल ग्रन्थ में प्राकृत संस्कृत अपभ्रश और हिन्दी इन चार भाषाओं के पद्यों का प्रयोग किया गया है । जिनमें प्राकृत और अपभ्रंश भाषा की प्रधानता है उनमें छन्दों के नियम, लक्षण और उदाहरण दिये हैं। संस्कृत भाषा में भी नियम
पाये जाते हैं। और हिन्दी में भी कुछ उदाहरण मिलते हैं। इसमे कवि की रचना चातुर्य और काव्य प्रवत्ति का परिचय मिलता है।
छन्दो विद्या के निदर्शक इस पिंगल ग्रन्थ की रचना भारमल्ल के लिये की गई है। राजा भारमल्ल का कुल श्रीमाल और गोत्र रांक्याण था। उनके पिता का नाम देवदत्त था, नागौर के निवासी थे। उस समय नागौर में तपागच्छ के साध चन्द्रकीति पट्ट पर स्थित थे। भारमल्ल उन्हीं की ग्राम्नाय के सम्पत्तिशाली वणिक थे । भारमल्ल के पूर्वज 'रंकाराउ' के प्रथम राजपूत थे। पुन: श्रीभाल और श्रीपुर पट्टन के निवासी थे। फिर ग्राबू में गुरु के उपदेश से श्रावक धर्म धारक हुए थे, उन्हीं की वंश परम्परा में भारमल्ल हुए थे।
पढमं भूपालं पुणु सिरिभालं सिरिपुर पट्टण वासु, पुणु प्राबू देसि गुरु उवएसि सावय धम्मणिवासु । धण धम्महणिलयं संघह तिलयं रंकाराऊ स रिंदु,
ता वंश परंपर धम्मधुरंधर भारहमल्ल गरिंदु ॥११६ (मरहट्टा) भारमल्ल के दो पुत्र थे-इन्द्रराज और अजयराज।
इन्द्रराज इन्द्रावतार जस नंदन दिल्ट, अजयराज राजाधिराज सब कज्ज गरिट्र। स्वामी दास निवास लच्छि बहू साहि समाणं ।
सोयं भारहमल्ल हेम-हय-कजर-दानं ॥ १३१ (रोडक) भारमल्ल कोट्याधीश थे, सांभर झील और अनेक भू-पर्वतों की खानों के अधिपति थे। संभवतः टकसाल भी प्रापके हाथों में थी। आपके भण्डार में पचास करोड सोने का टक्का (अशफियाँ) मौजद थीं। जहाँ पाप धनी थे वहाँ दानी भी थे। बादशाह अकबर प्रापका सम्मान करता था। कवि ने इनका प्रतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है। ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया। यह रचना भारमल्ल को प्रसन्न करने को लिखी गई है।
Page #571
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य भट्टारक, और कवि
५३७ नागौर से कविवर वैराट पाये । और वे वहाँ के पार्श्वनाथ जिनमन्दिर में रहने लगे। वह नगर उन्हें प्रति प्रिय हुआ । वहाँ लाटी संहिता के निर्माण करते समय उनके दिल में एक ग्रन्थ बनाने का उत्साह जागृत हुआ।
पंचाध्यायो-कवि ने इम ग्रन्थ की पांच अध्यायों में लिखने की प्रतिज्ञा की थी। वे उसका डेढ अध्याय ही बना सके खेद है। कि बीच में ही आयु का क्षय होने मे वे उसे पूरा नहीं कर सके । यह समाज का दुर्भाग्य ही है। कवि ने आचार्य कुन्द कुन्द और अमनचन्द्राचार्य के ग्रन्थों का दोहन करके इस ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ में द्रव्य सामान्य का स्वरूप अनेकान्त दृष्टि मे प्रतिपादित किया गया है। और द्रव्य के गुण पर्याय तथा उत्पाद व्यय ध्रौव्य का अच्छा विचार किया है। द्रव्य क्षेत्र काल-भाव की अपेक्षा उगके स्वरूप का निबधि चिन्तन किया है। नयों के भेद और उनका स्वरूप, निश्चय नय और व्यवहार नय का स्पष्ट कथन किया है। खासकर सम्यग्दर्शन के विवेचन में जो विशेषता दप्टिगोचर होतो है वह कवि के अनुभव को द्योतक है। वास्तव में कवि ने जिस विपय का स्पर्श किया उसका सागोपांग विवेचन स्वच्छ दर्पण के समान खोलवर सप्ट रख दिया है । ग्रन्थ राज के कथन की विशेषता अपूर्व ओर अदभत है। उसमें प्रवचनसार का सार जो समाया हुआ है, जो दोनो ग्रन्थों की तुलना से स्पष्ट है। उस ममय कवि का स्वानुभव बढ़ा हना था । यदि ग्रन्थ पूरा लिखा जाना ता वह एक पूर्ण मोलिक कृति होती । ग्रन्थ को कथन शैली गहन और भाषा प्रौढ है। ग्रन्थ अध्ययन पोर मनन करने के योग्य है । वर्णी ग्रन्थमाला से इसका प्रकाशन हुआ है।
कवि का समय ११ वी गताब्दी है।
कवि शाह ठाकुर वंश परिचय-कवि की जाति खंडेलवाल और गोत्र लूहाच्या या लुहाडिया था। यह वंश राज्यमान्य रहा है। शाह ठाकुर साह सील्हा के प्रपुत्र अोर साहु ग्यता के पुत्र थे, जो देव-शास्त्र-गुरु के भक्त और विद्याविनोदी थे. उनका विद्वानों से विदोप प्रेम था। कवि सगीत शास्त्र, छन्द अलंकार आदि में निपुण थे और कविता करने में उन्हें आनन्द प्राता था। उनकी पत्नी यति पोर थावकों का पोपण करने में सावधान थी, उसका नाम 'रमाई था। याचक जन उसको कोनि का गान किया करते थे। उसके दो पुत्र थे गोविन्ददास ओर धर्मदास । इनके भी पुत्रादिक थे। इस तरह शाहठाकुर का परिवार सम्पन्न परिवार था। इनमें धर्मदास विशेष धर्मज्ञ और सम्पूर्ण कुटुम्ब का भार वहन करने वाला, विनयो और गुरु भक्त था। महापुराण कलिका की प्रशस्ति में उनका विस्तत परिचय दिया हुआ है।
गरु परम्परा-मूल सघ, सरस्वती गच्छ के भट्टारक प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, प्रभाचन्द चन्द्रकोति प्रोर विशानकाति के शिष्य थे। इनके प्रगुरु भ० प्रभाचन्द्र जिनचन्द्र के पट्टधर थे, जो षट तर्क में निपुण तथा कर्कश वाग्गिरा के द्वारा अनेक कवियों के विजेता थे, पोर जिनका पट्टाभिषेक सं० १५७१ में सम्मेद शिखर पर सुवर्ण कलशों से किया गया था । इन्ही प्रभाचन्द्र के पट्टधर भ० चन्द्रकीति थे। इनका पट्टाभिषेक भी उक्त सम्मेद शिखर पर हुआ था । लक्ष्मणगढ़ के दिगम्बर जैन मन्दिर में एक पाषाण मूर्ति है जिसे सं० १६. में खंडेल वश के शाह छाजू के पुत्र नारण मन के पुत्र गूजर ने मूलसर नंद्याम्नाय के भट्टारक चन्द्रकीति द्वारा प्रति.
१. पट्टावती के ३२,३३,३४ पद्यों में प्रभाचन्द्र के सम्मेद गिग्वर पर होने वाले पट्टाभिषेक का वर्णन है। उसके बाद निम्न ३५ वें पद्य में चन्द्रकीति के पट्टाभिषेक का कथन किया गया है । श्री मत्प्रभाचन्द्र गणीन्द्र पट्टे भट्टारक श्री मुनि चन्द्रकीतिःसंस्स्रापितो योऽवनिनाथवृन्दः सम्मेद नाम्नीह गिरीन्द्र मूनि ॥३५ प्रस्तुत प्रभाचन्द्र चित्तौड़ की गद्दी के भट्टारक थे, और चन्द्रकीति का पट्टाभिषेक १६२२ में सम्मेद शिखर पर हमा था। इनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र गोधा था। इस पट्टावली में विशालकीर्ति का उल्लेख नहीं है।
Page #572
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
५३८
ठित कराया था । उन्हीं के समसामयिक उक्त विशालकीर्ति थे, जिनको कवि ने गुरु रूप से उल्लेखित किया है । यद्यपि विशालकीर्ति नाम के कई भट्टारक हो गए हैं, परन्तु प्रस्तुत विशालकीति नागौर के पट्टधर ज्ञात होते हैं ।
ग्रन्थ रचना - शाह ठाकुर के दो ग्रन्थ मेरे अवलोकन में प्राये हैं- महापुराण कलिका, और शान्ति नाथ चरित । ये दोनों ही ग्रंथ अजमेर के भट्टारकीय भंडार में उपलब्ध हैं । इनमें महापुराण कलिका में त्रेसठ शलाका पुरुषों का परिचय हिन्दी पद्यों में दिया है, कहीं-कहीं उसमें संस्कृत पद्य भी मिलते हैं । भाषा में अपभ्रंश और देशी शब्दों का बाहुल्य है। इस ग्रन्थ की रचना कवि ने २७ सन्धियों में पूर्ण की है। इसका रचना काल सं० १६५० है । उस समय दिल्ली में हुमाऊँ नन्दन अकबर का राज्य था । श्रौर जयपुर में मानसिंह का राज्य था । कवि ने इस त्रेसठ पुण्य पुरुषों की कथा को अज्ञान विनाशक, भव जन्म छेदन करने वाली, पावनी और शुभ करने वाली बतलाया है ।
या जन्माभवछेद निर्णयकरी या ब्रह्म ब्रह्म श्वरी । या संसारविभावभावनपरा या धर्मकमापुरी । प्रज्ञानादथध्वंसिनी शुभकरी ज्ञेया सदा पावनी, या वेसट्ठिपुराण उत्तमकथा भव्या सदा यापुनः ॥
महा पुराण कलिका
कवि की दूसरी कृति 'शान्ति नाथ पुराण' है जो अपभ्रंश भाषा की रचना है, जिसमें पांच सन्धियाँ हैं । afa ने उनमें शान्तिनाथ का जीवन परिचय अंकित किया है। जो चक्रवर्ती कामदेव और तीर्थकर थे । रचना साधारण है । कवि ने सीधे-सादे शब्दों में जीवन-गाथा अंकित की है । कवि ने यह विक्रम सं० १६५२ भाद्र शुक्ला पंचमी के दिन चकत्ता वंश के जलालुद्दीन अकबर बादशाह के शासन काल में, ढूंढाड देश के कच्छप वंशी राजा मानसिंह के राज्य में लुवाइणी पुर में समाप्त किया है । उस समय मानसिंह की राजधानी ग्रामर थी ।
कवि की अन्य रचनाओं का अन्वेषण करना आवश्यक है । कवि का समय १७वीं शताब्दी का मध्यकाल है ।
भट्टारक विश्वसेन
संघ के नन्दित गच्छ रामसेनान्वय के भट्टारक विशालकीर्ति के शिष्य थे ।
१. देखो, प्राचीन जैन स्मारक मध्यभारत व राजपूताना पृ० १९६६ २. " कल्याणं कोति लोके जसु भवति जगे मंडलाचार्य पट्टे, नद्याम्नाये सुगच्छे सुभग श्रुतमते भारतीकार मूर्ते ।
सोऽयं मे वैश्य वंशे ठकुर गुरुयते कीर्ति नामा विशालो ।।" ३. सवत् चिति आरिण जो जगि जारणी सोलसइ पंचासइले । सटी सुदि माह अरु गुरु लाह रेवती नरिवत पवरण भले ॥ दुवई – किय कवि महापुरिस गुरण कलिका सुइ संबोह सारणें । भवि पव्वहरणाइ जिद्द बुधी पइडहु भुवणि कवि इणें ॥ ३ ४. साहि अकवर दिल्ली मंडले हुमाऊं नंदन च खंडले,
पुब्वा पच्छिम कूट दुहाइ उत्तर दक्खिण सव्व अपणाइ । ५. संवत सोलासइ सुभग सालि, बावन वरिसउ ऊपरि विसालि । भादव सुदि पंचमि सुभग वारि, दिल्ली मंडलु बेसहु मारि
अकबर जलालदी पाति साहि, वारइ तहु राजा मानसाहि ।
कुरभवंसि आंवरि सानि, बूढाहड देहु सोभिराम - शान्तिनाथ चरित प्रशस्ति, भट्टारकीय अजमेर भण्डार
महापुराण कलिका सन्धि २३
Page #573
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टाक और कवि
५३६ विशालकोतिश्च विशालकोतिः जम्बू मांके विमलेश देवः । विभाति विद्यार्णव एव नित्यं वैराग्यपाथोनिधि शुद्धचेताः ॥ श्रीविश्वसेनो यतिवृन्दमुख्यो विराजते वीतभयः सलीलः ।
स्वतर्क निर्नाशित सर्वडिम्भः विख्यातकीतिजितमारमूतिः ॥५५॥ कवि की एकमात्र कृति 'षण्णवति क्षेत्रपाल' पूजा है। कवि ने उसमें रचना काल नहीं दिया। अतएव यह निश्चित करना कठिन है कि भ० विश्वसेन ने इसकी रचना कब की।
इन्होंने सं० १५९६ में एक मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। इनके द्वारा रची आराधनासार की टीका सेन गण भंडार नागपुर में उपलब्ध है।
___ भट्टारक श्रीभूषण ने अपने शान्तिनाथ पुराण में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख करते हुए विशालकीर्ति के शिष्य भ० विश्वसेन का उल्लेख किया है। इनके शिष्य विद्याभूषण थे। अतएव इनका समय विक्रम की १६वीं शताब्दी का अन्तिम चरण है।
भ० विद्याभूषण काष्ठा संघ नन्दी तटगच्छ और विद्यागण के विद्वान भटारक विश्वसेन सूरि के शिष्य थे। संस्कृत और गुजराती भाषा के विद्वान् थे। इनकी संस्कृत और हिन्दो गुजराती मिश्रित अनेक रचनाए उपलब्ध है।
जम्बूस्वामी चरित्र, वर्द्धमान चरित्र, बारह सा चौंतीस विधान पल्यविधान पूजा, ऋषिमण्डल यत्र पूजा, वृहत्कलिकुण्ड पूजा, सिद्धयंत्र मत्रोद्धार स्तवन-पूजन। इनमें जम्बूस्वामी चरित्र की रचना सं० १६५३ में की है, और पल्य विधान पूजा की रचना सवत १६१४ में समाप्त की है।
___ इनके उपदेश से बडौदा के वाडी मुहल्ले के दि. जैन मन्दिर में पार्श्वनाथ की प्रतिमा सं० १६०४ में प्रतिष्ठित कराई थी जिसे इनको दीक्षित शिप्या हुवड अनंतमती ने की थी।
इन्होंने गुजरातो में भविष्यदत्तरास की रचना सं० १६०० में को थी। द्वादशानुप्रक्षा (द्वादश भावना)। नेमीश्वर फाग ३१५ पद्यों में रचो गई हैं। यह एक सात्हियक कृति है, इसके २५१ पद्यां में नेमिनाथ का जीवन परिचय प्रकित किया गया है दश भवान्तरों के साथ। इसके प्रारम्भ के दो पद्य सस्कृत में हैं और कहीं-कहीं मध्य में भी सस्कृत पद्य पाये जाते है। इनका समय १६०० से १६५३ तक सुनिश्चित है। यह १७वी शताब्दी के भट्टारक है ।
भट्टारक श्रीभूषण यह काष्ठा सघ नन्दि तटगच्छ और विद्या गण में प्रसिद्ध होने वाले रामसेन, नेमिसेन, लक्ष्मीसेन, धर्मसेन, विमलसन, विशालकोति, और विश्वसन, आदि भट्टारको को परम्परा में होने वाले भट्टार पट्टधर थ । पार साजित्रा (गुजरात) को गद्दी के पट्टधर थे। भट्टारक समुदाय से ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम कृष्णासाह और माता का नाम माकुहा था। अच्छे विद्वान थे, परन्तु मूलसंघ से विद्वेष रखते थे। उसके प्रति उनका ताव कषाय थी । पं० नाथूराम जा प्रमो ने अपन जैन साहित्य पोर इतिहास के पृष्ठ ३६१ में उनके प्रतिबाधचिन्तामणि' नामक संस्कृत ग्रन्थ का परिचय कराया है। उससे उनकी उस विद्वष रूप परिणति का सहज ही पदाफाश हो जाता है । साजित्रा में काष्ठा संघ के भट्टारका को गही थी, जो अब नही है। भ० विद्याभूषण स० १६०४ में उक्त पट्ट पर मौजूद थे । उक्त सम्वत् में उनके उपदेश से पार्श्वनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा हूंबड
१. सं० १५६६ वर्षे फा० वदि २ सोभे काष्ठा संघे नरसिहपुरा ज्ञातीय नागर गोत्र भ. रत्नश्री भा० लीलादे नित्य प्रणमति भ. श्री विश्वसेन प्रतिष्ठा ।
-भ. सम्प्रदाय पृ० २६९
Page #574
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ ज्ञातीय अनन्तमती ने कराई थी। श्रीभूषण उक्त पट्ट पर कब प्रतिष्ठित हए इसका स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता। किन्तु पाण्डव पुराण के सं० १६५७ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि वे उक्त पट्ट पर प्रतिष्ठित हो चके थे। सं० १६३४ में इनका श्वेताम्बरों से बाद हुमा था जिससे उन्हें देश त्याग करना पड़ा था। इन्होंने बादिचन्द्र को भी बाद में पराजित किया था।
श्रीभषण के शिष्य भ० चन्द्रकीति ने अपने गुरु श्रीभूषण को सच्चारित्र तपोनिधि, विद्वानों के अभिमान शिखर को तोडने वाला वज, और स्याद्वादविद्याचरण बतलाया है।
यह प्रतिष्ठाचार्य भी थे । इन्होंने सं० १६३६ में पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की थी। और सं० १६६० में पद्मावती की मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी।
तत्पट्टाम्बर भूषणकतरिणः स्याद्वादविद्याचिणो।१। विद्वद्वन्द कुलाभिमानशिखरी प्रध्वंसतीवाशनिः। सच्चारित्र तपोनिधिधर्मनिवरो विद्वत्सुशिष्य बजः,
श्री श्रीभूषण सरिराट् विजयेत् श्री काष्ठा संघाग्रणी ॥७२ आपकी निम्न कृतियाँ उपलब्ध हैं -पाण्डव पुराण, शान्तिनाथ पुराण, हरिवश पुराण, अनन्तव्रत पूजा, ज्येष्ठ जिनवर व्रतोद्यापन चतविशति तीर्थकर पूजा, द्वादशाग पूजा ।
पाण्डव पुराण-इस में पाण्डवों का चरित अंकित गया है, जिसकी श्लोक संख्या छह हजार सात सौ बतलाई गई है। कवि ने इस ग्रन्थ को वि० सम्वत १६५७, पूस महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया रविवार के दिन पर्ण किया है
श्री विक्रमार्क समयागत षोडशार्के सत्सुंदराकृति वरे शुभवत्सरे वै। वर्षे कृतं सुखकरं सुपुराणमेतत् पचाशदुत्तर सुसप्त युते (१६५७) वरेण्ये ।।
पौस मासे तथा शुक्ले नक्षत्रे तृतियादिने ।११० रविवारे शुभेयोगे चरितं निर्मितं मया ॥१११
-इसमें भगवान शान्तिनाथ का जीवन परिचय अंकित है जिसकी पद्य संख्या ४०२५ बतलाई गई है। प्रशस्ति में कवि ने अपनी पट्ट परम्परा के भट्टारकों का उल्लेख किया है। कवि ने इस ग्रन्थ को सं० १६५६ में मगशिर के महीने की त्रयोदशी को सौजित्र में नेमिनाथ के समीप पूरा किया है
संवत्सरे षोडशनामधेये एकोनशत्पष्ठियुते (१६५६) वरेण्ये । श्री मार्ग शीर्षे रचित मयाहि शास्त्रं च वष विमल विशुद्धं ॥४६२ त्रयोदशी सद्दिवसे विशुद्ध वारे गुरौ शान्ति जिनस्य रम्यं ।
पुराणयेत द्विपुलं विशालं जीयाच्चिरं पुण्यकरं नराणाम् ॥४६३ (युग्म) हरिवंश पुराण-इस ग्रन्थ की प्रति तेरहपंथी बड़ा मन्दिर जयपुर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है, जिस का रचना काल सं० १६७५ चैत्र शुक्ला त्रयोदशी है। (जैन ग्रन्थ सूची भा० २१० २१८)
शेष पूजा ग्रन्थ हैं, उनकी प्रतियाँ सामने न होने से उनका परिचय देना शक्य नहीं है।
भट्टारक चन्द्रकोति काष्ठासंघ नन्दितटगच्छ विद्यागण के भट्टारक श्रीभूषण के पट्टधर शिष्य थे । अच्छे विद्वान थे। इन्होंने अपने यस्थों के अन्त में जो प्रशस्ति दी है उसमें नन्दितट गच्छ के भद्रारकों की प्रशंसा की गई है । चन्द्रकीर्ति कहां के पट्रधर थे. उसका स्पष्ट निर्देश नहीं मिला। उस समय सोजित्रा के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी काष्ठासंघ के पटट रहे
१. सं० १६०४ वर्षे वैशाखवदी ११ शुक्र काप्ठा संघे नन्दी तटगच्छे विद्यागणे भट्टारक रामसेनान्वये भ. श्री विशाल
कीर्ति तत्पट्टे भट्टारक श्री विश्वसेन तत्पट्टे भ० विद्याभूषणेन प्रतिष्ठितं, हैवड जातीय गृहीत दीक्षा वाई अनन्तमती नित्यं प्रणमति ।
Page #575
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वी शताब्दी के आवार्य, भट्टारक और कवि
५४१ हैं। चन्द्रकीति ने दक्षिण की यात्रा करते हए कावेरी नदी के तौर पर नरसिह पटन में कृष्ण भट्ट को बाद में पराजित किया था। यह १७वी शताब्दी के विद्वान थे । इनकी निम्न रचनाए उपलब्ध है- पायपुराण, वृपभदेव पुराण, कथाकोश, पद्मपुराण, पंचमेरू पूजा, अनंतव्रतपूजा आर नन्दीश्वर विधान आदि :
पार्श्वपुराण-१५ सगों में विभक्त है, जिसका पद्य सख्या २७१५ है। इसमें तेवीसव तीर्थकर पार्श्वनाथ का चरित वर्णित है। कवि ने इसकी रचना देवगिरि नामक मनोहर नगर के पाश्र्वनाथ जिनालय में वि० सं० १६५४ के वैशाख शुक्ला सप्तमी गुरुवार को समाप्त की है।
श्रीमद्देवगिरी मनोहरपुरे श्रीपाश्र्वनाथालये, वर्षब्धी पुरसैक मेय (१६५४) इह वै श्रीविक्रमांकेश्वरे । सप्तम्याँ गरवासरे श्रवण भे वशाखमासे सिते.
पाश्र्वाधीशपुराणमुत्तमिदं पर्याप्तभेवोत्तरम् ।। (पाश्व० प्र०) वषभदेव पराण-इसमें आदिनाथ का चरित वणित है। यह २५ सर्गो में समाप्त हुआ है । कवि ने इस ग्रन्थ में रचना काल नही दिया, अतः दोना ग्रन्थों के अवलाकन किय बिना यह निश्चय करना कठिन है कि इनमें कौन ग्रन्थ पहले बना, और कौन बाद में ।
कथा कोश-में सप्त परमस्थान के व्रतों की कथाएदी हुई है, । ग्रन्थ दो अधिकारो मे समाप्त हुआ है । ग्रन्थ में रचना काल दिया हुआ नही है। अन्य ग्रन्थ सामन न हाने से उनका परिचय देना सम्भव नहीं है। ग्रन्थकर्ता कवि चन्द्रकीति १७वी शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान है।
भ० सकलभूषण मलसंघ स्थित नन्दिसघ पार सरस्वती गच्छ के भट्टारक विजय कीर्ति के प्रशिप्य और भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य एव भट्टारक सुमति कीति के गुरुभ्राता थे। भ० मुमतिकीर्ति भी शुभचन्द्र के शिप्य थे और उनके बाद पट्ट पर बैठे थे।
भ० सकलभपण ने नेमिचन्द्राचार्य प्रादि यनियों के प्राग्रह तथा वर्धमान टोला आदि की प्रार्थना से उपदेश रत्नमाला नाम के ग्रन्थ की रचना वि० ग. १६२७ में थावण शुक्ला पाठी के दिन समाप्त की है । इस ग्रन्थ में १८ अध्याय और तीन हजार तीन सो तेगमी (३३८३) पद्य है।
इनकी दूसरी कृत 'मल्लिनाथचरित्र' है, जिसकी प्रति बदी के अभिनन्दन स्वामी के मन्दिर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध है । अन्य रचनाए' अन्वेपणीय है । कवि का समय १७ वीं शताब्दी है।
भ० धर्मकोति मूलसघ सरस्वतीगच्छ ओर बलात्कार गण के विद्वान भट्टारक ललितकीति के शिप्य थे । ललितकीर्ति मालवा की गद्दी के भट्टारक थे । प्रस्तुत धर्मकीनि की दो रचनाएं उपलब्ध हैं-पद्मपुराण ओर हरिवंश पुराण । पद्म पुराण की रचना कवि ने रविषेण के पद्म चरित को देखकर मालव देश में सं०१६६६ में थावण महीने की तृतियाशनिवार के दिन पूर्ण की थी । और हरिवंश पुराण भी उसी मालवा में सं० १६७१ के आश्विन महीने की कृष्णा पंचमी
--
१. सप्तविशत्यधिके पोडशशतवत्मरे (१६२७) विक्रमत. ।
श्रावणमासे शुक्ले पो पाट्या कृतो ग्रन्थ. । २३५ -जैन ग्रन्थ प्र० स० १ १० २० २. जैन ग्रन्थसूची भा० ५ पृ० ३६६ ३. "संवत्सरे द्वयष्ट शते मनोज्ञे चैकोन सप्तत्यधिके (१६६६) सुमासे ।
श्री श्रावणे सूर्यदिने तृतीयातिथौ च देशेष हि मालवेषु ॥ (पप पु० प्र०)
Page #576
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
रविवार के दिन पूर्ण किया था । धर्मकीति ने इन ग्रन्थों में अपनी गुफ परमाग का उल्लेल किया है, वह निम्न प्रकार है-देवेन्द्रकीति, त्रिलोक कीति, सहस्त्रकीति, पद्मनन्दी, यशः कोनि, ल नतकीति और धर्मकोति । कवि का समय विक्रम की १७वीं शताब्दो का उत्तरार्घ हैं । कवि की अन्य रचनाए अन्वेषणीय हैं।
भ० गुणचन्द्र यह मूलसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कार गण के विद्वान थे । यह भ० रत्नकोति के द्वारा दीक्षित और यशः कीति के शिष्य थे। इन के पूजा ग्रन्थ ही उपलब्ध है । अन्य कोई महत्व की रचनाए अवलोकन करने में नही आई। यह १७वीं शताब्दी के विद्वान थे। भ० गुणचन्द्र ने बाग्वर (वागड) देश के सागवाडा के निवासी हबड या इमड
या हूमड वशी सेठ हरषचन्द दुर्गादास की प्रेरणा से उनके व्रत के उद्यापनार्थ स० १६३३ म वहा के आदिनाथ चैत्यालय में ८०० श्लोकों में 'अनतजिन ब्रत पूजा' की रचना की थी।
संवत षोडशत्रिंशवष्य फुलके (१६३३) पक्षेऽवदाते तिथो, पञ्चम्यां गुरुवासरे पुरुजिनेट् श्री शाकमार्गपुरे। श्रीमद्ध म्बड वंश पद्म सविताहर्षाख्यदुर्गो वणिक्, सोऽयंकारितवाननंतजिनसत्पूजांबरे वाग्बरे॥
-जैन ग्रन्थ प्रग० म. भा० ११० ३४ मौन व्रत कथा और अन्य अनेक पूजा ग्रन्थ इनके बनाये हुए कहे जाते है, पर सामने न होने से उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता।
भट्टारक रत्नचन्द्र यह हुंबड जाति के महीपाल वैश्य और चम्पा देवी के पुत्र थे। तथा मूलमंघ सरस्वतिगच्छ के भट्टारक सकलचन्द्र के शिष्य थे। इन्होंने अपनी गुरु परम्परा के भट्टारकों का उल्लेख निम्न प्रकार दिया है-पद्मनन्दी सकल कीर्ति, भुवनकीति, रत्नकोति, मंडलाचार्य यशःकीर्ति, गुणचन्द्र, जिनचन्द्र, सकल चन्द्र पोर रत्नचन्द्र ।
रत्नचन्द्र स्याद्वाद के जानकार थे। इनकी एकमात्र रचना मुझे मचक्रवर्ती चरित्र है, जो सात सर्गो में समाप्त हुआ है। कवि ने इस ग्रथ को वि० सं० १६८३ मे भाद्रपद शुकला पचमी गुरुवार के दिन समाप्त किया है। यह विक्रम की १७वी (और ईसा की १६२७ सत्रहवी) शताब्दी के विद्वान थे।
भट्टारक रत्न चन्द्र ने यह ग्रन्थ खडेलवाल वशोत्पन्न हेमराज पाटनी के लिये बनाया था, जो सम्मेद शिखर की यात्रार्थ भ० रत्नचन्द्र के साथ गये थे। हेमराज की धर्मपत्नी का नाम 'हमीरदे' था । यह वाग्वर देश में स्थित सागवाड़ा के निवासी थे । कवि ने ग्रन्थ बुध तेजपाल की सहायता से बनाया था।
वादि विद्यानन्द विद्यानन्द नन्दि संघ, कुन्दकुन्दान्वय बलात्कारगण पार भारतीगच्छ के प्राचार्य थे । यह अपने समय के १. 'वर्षे द्वयष्ट शते चकाग्रसप्नत्यधिके (१६७१) ग्वौ।
अश्विने कृष्ण पचम्यां गन्थोऽयं रचित मया ॥" -हरिवश पु० प्र० २. संवते षोडसाख्याने त्र्यशीति वत्मरांकिते। __ मासि भाद्र पदे श्वेत पंचम्या गुरुवारके ॥११ ३. अन्य का पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है :इति श्री सुभीमचरित्रे सूरि श्रीसकलचन्द्रानुचर भट्टारक श्री रत्नचन्द्र विचिते बिबुधनेजपालसाहाय्य सोपक्षे श्रीखण्डेलबालान्वय पणि गोत्राम्बरादित्य श्रेष्ठि हेमराजनामांकित सुभौमनरकप्राप्ति वर्णनो नाम सप्तमसर्ग :।
(जैन ग्रन्थ प्र०पृ० ६२)
Page #577
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वी, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि अच्छे विद्वान, तार्किक और वादी रूप में प्रसिद्ध थे। इनका उल्लेख शक सं० १४५२ (ई० सन् १५३०) में उत्कीर्ण हए हम्बच्चके नगर ताल्लुक लेख न०४६ में हुया है। वर्द्धमान मुनीन्द्र ने, जो इन्हीं विद्यानन्द के शिष्य और बन्ध थे, उन्होंने शक सं० १४६४ (सन् १५४२) में रामाप्त हा दशभक्तयादि महाशास्त्र में उनका खुब स्तवन किया है। यह विद्यानन्द विजय नगर साम्राज्य के समकालीन है। इन्होंने गजराज, देवराज, कृष्णराज आदि अनेक राजानों की सभा में जाकर शास्त्रार्थ किये ग्रार उनमें विजय प्राप्त कर यश और प्रतिष्ठा प्राप्त को । इन्होंने गेरुसोडये, कोयण और श्रवण बेलगोल याद स्थाना में अनेक धार्मिक कार्य सम्पन्न किये। इनके देवेन्द्र कीति, वर्द्धमान मुनीन्द्र आदि अनेक शिप्य थे। इनमें वर्द्धमान मुनीन्द्र ने दशभक्तयादि महाशास्त्र और वरांग चरित की रचना की है। स्वर्गीय आर० नसिहाचार्य का अनुमान है कि ये विद्यानन्द भल्लातकी पुर (गैरसोप्पे) के निवासी थे। और इन्होंने 'काव्यसार' के अतिरिक्त एक और ग्राथ की रचना की थी।
इनका स्वर्गवारा शक सं० १४६३ (मन् १५४१) में हुया था जैसा कि दशभक्तयादि महाशास्त्र के निम्न वाक्य से प्रकट है :
"शोक वेद खराब्धि चन्द्र कलिते सवत्सरे शावरे, शद्ध श्रावणभाककृतान्त मेये धरणोतुग्मंत्र खो। ककिस्थे समुरी जिनरमरणतो वारीन्द्रवन्दाचितः। विद्यानन्द मुनीश्वरः सगतवान स्वर्ग चिदानन्दकः ।
-प्रशस्तिसं० १० १२८
ब्रह्म कामराज मूलसंघ बलात्कार गण के भट्टारक पद्मनन्दः के. अन्वय में हुए हैं। यह भटटारक सकलभूषण के प्रशिष्य और नरेन्द्र कीति के शिप्य ब्रह्म महलाद वर्णी के शिष्य थे । इन्होंने भट्टारक सकलकोति के आदि पुराण को देखकर मेवाड में शक सं० १५५५ फाल्गुन महीने में (सन् १६३३ वि० सं० १६६१) में जय पुराण नाम के ग्रन्थ की रचना की है। रचना साधारण है । कवि का समय विक्रम की १७वी शताब्दी है।
ब्रह्म रायमल्ल इनका जन्म हंबड वंश में हया था। इनके पिता का नाम 'मा' और माता का नाम चम्पादेवी था। यह जिन चरणो के उपासक थे। इन्होंन महामागर के तट भाग में समाश्रित ग्रीवापुर के चन्द्रप्रभ जिनालय में वर्गीकर्मसी के वचनों मे 'भक्तामर स्तोत्र को वत्ति स० १६६७ में प्राषाढ शक्ला पंचमी बुद्धवार के दिन बनाई थी।
ब्रह्म रायमल्ल मुनि अनन्तकीर्ति के शिष्य थे, जो भट्टारक रत्नकीर्ति के पट्टधर थे। इनकी हिन्दी गुजराती मिथित ७-८ रचनाए उपब्ध :- नेमीश्वररास, हनुमन्त कथा, प्रद्युम्नचरित, सुदर्शनसार, निर्दोषसप्तमी व्रत कथा, श्रीपालगस और भविष्यदत्त कथा। इनका समय १७वीं शताब्दी है।
- १. देखो, अनेकान्त वर्ष २६ किरण २ पृ० ८२ २. प्रशस्तिसंग्रह पृ० १४४ ३. राष्ट्रम्य नत्पुराण शक मनुजपतेर्मेदपाटम्य पुर्या । पश्चामंवत्सरस्य प्ररचितपटतः पंच पंचाशतो हि । अभ्राभ्राक्षकसवच्छरनिविय नः (१५५५) फाल्गुणे मामि पूर्णे।
मुख्यायामोदयायो सुकविनपिनो लालजिष्णोश्च वाक्यात् ॥ जैनग्रन्थ प्र० पृ. ३६ ४. मप्तषप्ठयंकित वर्षे षोडश ख्ये हि संवते (१६६७) । आषाढे श्वेत पक्षस्य पंचम्यां बुधवारके ॥
ग्रीवापूरे महासिंधो स्तटभागं समाथिते । प्रस्तुंगदुर्ग-संयुक्ते श्रीचन्द्रप्रभसपनि ॥ वणिनः कर्मसीनाम्नोवचनात् मयकाइरचि । भक्तामरस्य सद्वृत्तिः रायमल्लेनवणिनाः ॥१. जैन ग्रन्थ प्र०प०१..
Page #578
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भास २
भट्टारक ज्ञानकोति मृलसंघ कुन्दकुन्दान्वय सरस्वती गच्छ और बलात्कारगण के भट्टारक वादि भूपण के पट्टधर शिप्य थे, और पद्म कीति के गुरु भाई थे।
"श्री मूलसंघे च सरस्वतीति गच्छे बलात्कारगणे प्रसिद्ध । श्री कुन्दकन्दान्वयके यतीशः श्री वादिभषो जयतीह लोके ॥५८ तदगुर बन्ध वन समय॑ः पंकजकीतिः परम पवित्रः । सरि पदाप्तो मदन विमुक्तः सद्गणराशिर्जयत् चिरं सः ॥५६
शिष्यस्तयोज्ञानसक ति नामा श्री सरिचाल्प सशास्त्रवेत्ता" ज्ञानकीर्ति की एकमात्र रचना 'यगोधर चरित' है, जिसमें राजा यशोधर और चन्द्रमती का जीवन-परिचय दिया हया है। कवि ने इस ग्रन्थ को बंगदेश में स्थित चम्पानगरी के समीप 'अकच्छपूर' (गव बरपुर) नामक नगर के आदिनाथ चैत्यालय में विक्रम सं०१६५६ में माघमादा परमी शक्रवार के दिन बनाकर पूर्ण किया।
भट्टारक ज्ञानकीति ने माह नान की प्रार्थना और वृधजयचन्द्र के प्राग्रह से इस ग्रन्थ की रचना की थी। साह
कुल को जीतने वाले राजा मानमिह के महामात्य (प्रधानमत्री थे।) खण्डलवाल वश भूपण गोधा गोत्रीय माह रूपचन्द्र के सुपुत्र थे । माह रूपचन्द्र जेसे श्रीमन्त थे वैसे ही समुदार, दाता, गुणज्ञ और जिनपूजन में तत्पर रहते थे।
अप्टापद शैल पर जिस तरह भरत चक्रवर्ती ने जिनालयों का निर्माण कराया था, उसी तरह साह नान ने भी मम्मेद गैल पर निर्वाण प्राप्त वीस तीर्थकगे के मन्दिर बनवाये थे और उनकी अनेक बार यात्रा भी की थी।
पंडित रूपचन्द्र यह कुह नाम के देश में स्थित म नेमपुर के निवामी थे। आप अग्रवाल वश के भूषण और गर्ग गोत्री थे। अापके पितामह का नाम मामट ओर पिता का नाम भगवानदास था। भगवानदास की दो पत्नियाँ थी। जिनमें प्रथम मे ब्रह्मदाम नाम के पुत्र का जन्म हुआ। पोर मरी 'चाचा' मे पात्र पुत्र समुत्पन्न हुए थे-हरिगज, भूपति, अभयगज, कीर्ति चन्द्र और रूपचन्द्र। इनमें अभिम रूपचन्द्र हो प्रसिद्ध कवि थे और जैन सिद्धान्त के अच्छे मर्मज्ञ विद्वान थे । वे ज्ञान प्राप्ति के लिये बनारम गरे थे पोर वहाँ से शब्द अर्थ रूप सुधारम का पान कर दरियापर में लौटकर आये थे। दरियापुर वर्तमान में वाराबंकी और अयोध्य के मध्यवती स्थान में वसा हुआ है, जिसे दरियाबाद भी कहा जाता है। वहाँ आज भी जैनियों की बस्ती है और जिन मन्दिर बना हया है।
हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध कवि बनारसी दास जी ने अपने 'अर्धकथानक' में लिखा है कि संवत १६६२ में
१. शने पोडशा कोन षष्ठिवत्सरके शुभे ।
माये शुक्लेऽपि पंचम्या वितं भृगुवासरे ॥६१-यशोधर च० प्र० २. राजाधिगजोऽत्र तदा विभाति श्रीमान मिहो जित वैग्विर्ग ।
अनेकगजेन्द्र विनम्यपादः म्वदान मर्पित विश्वलोकः ॥ प्रतार सूर्य म्नपतीह यस्य द्विषां शिरस्मु प्रविधाय पाद । अन्याय-दुध्यन्ति मयास्य दूरं यथाकरं यः प्रविकागयेच्च ।।६३ तथैव गज्ञोऽस्ति महानमात्यो नान सुनामा विदिनो धरित्र्या।" 1. सम्मेद शृ'गे च जिनेन्द्र गेहमष्टापदे वादिम चक्रधारी ॥६४
यो कारयद्यत्र च तीर्थनाथाः सिद्धि गता विशति मानभुक्ताः।"
-यशोधर
यशोधर च०प्र०
Page #579
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि .
५४५ प्रागरा में पं० रूपचन्द्र जी गुनी का प्रागमन हुआ और उन्होंने तिहुना साहू के मन्दिर में डेरा किया । उस समय मागरा में सब अध्यात्मियों ने मिलकर विचार किया कि उक्त पंडित जी से प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा रचित गोम्मटसार ग्रन्थ का वाचन कराया जाय। चनांचे पंडित जी ने गोम्मटसार ग्रन्थ का प्रवचन किया और मार्गणा, गुणस्थान, जीवस्थान तथा कर्मबन्धादि के स्वरूप का विशद विवेचन किया। साथ ही क्रियाकाण्ड और निश्चय व्यवहार नय की यथार्थ कथनी का रहस्य भी समझाया और यह भी बतलाया कि जो नय दृष्टि मे विहीन हैं उन्हें वस्तु स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती तथा वस्तु स्वभाव से रहित पुरुष सम्यग्दृष्टि नही हो सकते । पंडित रूपचन्द्र जी के वस्तु तत्त्व विवेचन से पं० बनारसी दास का वह एकान्त अभिनिवेश दूर हो गया जो उन्हें और उनके साथियों को 'नाटक समयसार' की रायमल्लीय टीका के अध्ययन से हो गया था और जिसके कारण वे जप, तप, सामायिक, प्रतिक्रमण प्रादि क्रियाओं को छोड़कर भगवान को चढ़ा हुअा नैवेद्य भी खाने लगे थे। यह दशा केवल बनारसी दास जी की नहीं हई किन्तु उनके साथी 'चन्द्रभान, उदयकरन और थानमल्ल की भी हो गई थी। ये चारों ही जने नग्न होकर एक कोठरी में फिरते थे और कहते थे कि हम मुनिराज हैं, हमारे पास कुछ भी परिग्रह नहीं है। जैसा कि अर्धकथानक के निम्न दोहे से स्पष्ट है :
"नगन होंहि चारों जने फिरहि कोठरी मांहि ।
___ कहंहि भये मुनिराज हम, कछु परिग्रह नांहि ।" पांडे रूपचन्द्र जी के बचनों को सुनकर बनारसी दास जी का परिणमन और रूप ही हो गया। उनकी दृष्टि में सत्यता प्रोर श्रद्धा में निर्मलता का प्रादुर्भाव हुआ। उन्हें अपनी भूल मालूम हुई और उन्होंने उसे दूर किया । उस समय उनके हृदय में अनुपम ज्ञान ज्योति जागृत हो उठी थी, और इमीसे उन्होंने अपने को 'स्याद्वाद परिणति' में परिणत बतलाया है।
___ सं० १६९३ में पं० बनारसी दास ने प्राचार्य अमृत चन्द्र के 'नाटक समयसार कलश' का हिन्दी पद्यानवाद किया मोर संवत् १६६४ में पंडित रूपचन्द्र जी का स्वर्गवास हो गया ।
१. म० १६६० के लगभग रूपचन्द्र का आगरा में आगमन हुआ।
अनायास इस ही समय नगर प्रागरे थान । रूपचन्द्र पडित गुनी प्रायो पागमजान ॥६३० तिहुना साहु देहग किया, तहाँ पाय तिन डेरा लिया। अर्धकथानक तिहना साह का यह देहरा स. १६५१ से पहले का बना हुआ है। कविवर भगवती दाम ने सं० १६५१ में निमित
अगलपुर जिनमंन्दिर' के 4वें पद्य में इसका उल्लेख किया है। २. सब अध्यातमी कियो विचार, अथ बंचायो गोम्मटसार ।
तामे गुनथानक परवान, कह्यो ज्ञान अरु क्रिया विधान ॥ ३. अनायास इसही समय नगर पागरे थान, रूपचन्द्र पण्डित गुनी आयो आगमजान ।। तिहनासाहदेहरा किया, तहाँ आप तिन डेरा लिया, मब अध्यात्मी कियो विचार, ग्रन्थ बचायो गोम्मट सार ॥६३१ तामें गुन थानक परवान, कह्यो ज्ञान अरु क्रिया विधान । जो जिय जिस गुनथानक होइ, जैसी क्रिया कर सब कोइ।६३२ भिन्न-भिन्न विवरण विस्तार, अन्तरनियत बहुरि व्यवहार । सबकी कथा सब विष कही, सुनि के संस कछु ना रही ॥६३३ तब बनारसी ओरहि भयो, स्याद्वाद परिणति परिनयो। पांडे रूपचन्द्र गुरु पास, सुन्यो प्रन्थ मन भयो हुलास ॥६३४ फिर तिस समय बरस के बीच, रूपचंद्र को आई मीच । सुन-सुन रूपचन्द्र के बैन, बनारसी भयो दिढ़ जैन ॥६३५ अर्ष कथानक
Page #580
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अर्ध कथानक के इस उल्लेख से मालूम होता है कि प्रस्तुत पाडे रूपचन्द्र हो उक्त 'समवसरण पाठ' के रचयिता है । चूंकि उक्त पाठ भी सवत् १६६२ में रचा गया है और प० बनारसी दास जो ने उक्त घटना का समय भी अर्धकथानक में स० १६९२ दिया है । च कि उक्त पाठ आगरे को घटना में पूर्व हो रचा गया था, इससे प्रशस्ति मे उसका कोई उल्लेख नही किया गया।
प० बनारसी दास ने नाटक समयसार को रचना स०१६६३ में समाप्न को है। ओर स. १६६४ में रूप चन्द्र की मृत्यु हो गई। अत: नाटक समयसार प्रशस्ति म पाँच विद्वाना मे प० रूपचन्द्र प्रथम का उल्लेख किया है । वे वही रूपचन्द्र है जो आगरा में सं० १६६० के लगभग आये थे।
इनकी सस्कृत भाषा की एकमात्र कृति 'समवसरण पाठ अथवा केवल ज्ञान कल्याणाची' है। इसमे जेन तीर्थकर के केवलज्ञान प्राप्त कर लेने पर जो अन्तर्बाह्य विभति प्राप्त होती है, अथवा ज्ञानावरण, दशनावरण, मोहनीय और अन्तरायरूप घातिया कर्मों के विनाश मे अनन्त चतुष्टय रूप आत्म निधि की समुपलब्धि होती है उसका वर्णन है । साथ ही बाह्य में जो समवमरणादि विभति का प्रदर्शन होता हे वह सब उनके गुणातिशय अथवा पुण्यातिशय का महत्व है-वे उस विभूति से सर्वथा अलिप्त अन्तरीक्ष में विराजमान रहते 7 ओर वीतराग विज्ञान रूप आत्म-निधि के द्वारा जगत का कल्याण करते है, समार के दुखी प्राणियो को उममे छुटकारा पान प्रार शाश्वत सुख प्राप्त करने का सुगम मार्ग बतलाते है।
कवि ने इस पाठ की रचना आचार्य जिनसेन के आदि पुगण गत 'ममवसरण' विषयक कथन को दष्टि में रखते हए की है। प्रस्तुत ग्रन्थ दिल्ली के बादशाह जहागीर के पूत्र गाहजहाँ के राज्य काल में मवत् १६६१ के आश्विन महीने के कृष्ण पक्ष मे नवमी गुरुवार के दिन, सिद्धि योग में और पुनर्वसु नक्षत्र में समाप्त तुपा है जेमा कि उसके निम्न पद्य मे स्पष्ट है:
श्रीमत्सवत्सरेऽस्मिन्नरपति नत यद्विक्रमादित्य राज्येऽतीते दुगनंद भद्राशुक्रत परिमिते (१६९२) कृष्णपक्षे च मासे । देवाचार्य प्रचारे शुभनवमतिथौ सिद्धयोगे प्रसिद्ध ।
पौनर्वस्वित्पुडस्थे (?) समवसृतिमहं प्राप्त माप्ता समाप्ति ।।३ ४ पं० रूपचन्द्र ने 'केवल ज्ञान कल्याणक पूजा' के बनवाने में प्रेरक भगवानदास के कुटुम्ब का विस्तृत परिचय दिया है जो इस प्रकार है:
मूल संघान्तर्गत नन्दिसघ, बलात्कारगण, सरस्वती गच्छ के प्रसिद्ध कुन्दकुन्दान्वय मे वादी म्पो हस्तियों के मद को भेदन करने वाले सिहकीति हुए । उनके पट्ट पर धर्मकीति, धर्मकीति के पट्ट पर ज्ञानभूपण, ज्ञानभपण के
पर भारती भूषण तपस्वी भट्टारको द्वारा अभिनन्दनीय विगतदूषण भट्टारक जगतभूषण हए । इन्ही भ० जगद्भूषण की गोलापूर्व' आम्नाय में दिव्यनयन हुए। उनकी पत्नी का नाम दुर्गा था। उससे दो पुत्र हुए।
१. यह उपजाति है जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रही है। इसका निवाम अधिकतर बंदे नखण्ड में पाया जाता है यह सागर, दमोह जबलपुर, छतरपुर, पन्ना, सतना, रीवा, अहार, महोबा, नाबई, धुवेला, शिवपुरी, दिल्ली
और ग्वालियर के आस-पास के स्थानो में भी निवास करते है। १२वी और १३वी शताब्दी के मूर्ति लेग्यो मे टमकी समृद्धि का अनुमान लगाया जा मकता है। इस जाति का निकास 'गोल्लागढ' (गोलाकोट) की पूर्व दिशा से हुआ है। उसकी पूर्व दिशा में रहने वाले गोलापूर्व कहलाए। यह जाति किमी समय दक्ष्वाकु वशी क्षत्रिय थी। किन्तु व्यापार आदि करने के कारण वरिणको मे इनकी गणना होने लगी। ग्वालियर के पास कितने ही गोलापूर्व विद्वानो ने ग्रन्थ रचना और ग्रंथ प्रतिलिपि करवाई हैं। ग्वालियर के अन्तर्गत श्योपुर (शिवपुरी) मे कवि धनगज गोलापूर्व ने स. १६६४ से कुछ ही समय पूर्व भव्यानद पंचामिका' (भक्तामर का भाषा पद्यानुवाद) किया था और उनके पितृव्य जिनदास के पुत्र खडगसेन (असिसेन) ने पन्द्रह-पन्द्रह पदो की एक सस्कृत जयमाला बनाई थी। इसकी एक जोर्ण-शीर्ण सचित्र प्रति मुनि कान्तिसागर जी के पास थी। धनराज का हिन्दी पद्यानुवाद पाडे हेमराज
Page #581
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वी, १७वी और १५वी शताब्दी के आचार्य, भद्रारक और कवि
५४७
चक्रसेन और मित्रसेन । चक्रमेन की पत्नी का नाम कष्णावती था, और उससे केवलसेन तथा धर्म सेन नाम के दो पुत्र हुए। मित्रमेन की धर्मपत्नी का नाम यशोदा था। उससे भी दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। उनमें प्रथम पुत्र का नाम भगवानदास था, जो बडा ही प्रतापी और गघ का नायक था। और दूसरा पुत्र हरिवश भी धर्म प्रेमी और गुण सम्पन्न था। भगवान दास की धर्मपत्नी का नाम केशरिदे था। उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे-महासेन, जिनदास और मुनिसुव्रत । मघाधिप भगवानदास ने जिनेन्द्र भगवान की प्रतिष्ठा कराई थी और संघराज की पदवी को प्राप्त किया था। वह दान में कर्ण के समान था। इन्ही भगवानदास की प्रेरणा से पडित रूपचन्द्र जी ने प्रस्तुत पाठ की रचना की थी। पंडित रूपचन्द्र जी ने दुग ग्रन्थ की प्रशस्ति में नेत्रसिह नाम के अपने एक प्रधान शिष्य का भी उल्लेख किया है, पर वे कौन थे और कहा न निवासी थे, यह कुछ मालूम नही हो सका।
उक्त सरकत पाठ के प्रति रक्त कवि रूपचन्द्र का हिन्दी भाषा की निम्न कृतिया उपलब्ध है, जिनमें रूपचन्द्र दोहाशतक, पचमगल पाठ, नेमिनाथ राम, जकड़ी और खटोलना गीत आदि है।
R
सुमतिकोति भूल मघ स्थित नन्दिमघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण ओर कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान भट्टारक प्रभाचन्द्र के पटटधर थे। भट्टारक लक्ष्मीचन्द्र इनके दीक्षा गुरु और भ० वीरचन्द्र शिक्षागुरु थे। साथ मे सुमतिकीति ने ज्ञानभपण को गुरु मानकर नमस्कार किया है। इन्होने प्राकृत पचसग्रह की सस्कृत टीका हसा ब्रह्मचारी के उपदेश में वि० म० १६२० मे भाद्रपद शुक्ला दशमी के दिन ईडर के आदिनाथ मन्दिर में बनाकर समाप्त की है।
पचमग्रह में जीव ममाम, प्रकृति समुत्कीर्तन, कर्मस्तव शतक और सप्तति इन पाँच प्रकरणों का सग्रह है । प्राकृत मग्रह की यह मूल प्राकृत रचना बहुत पुरानी है। इस पर पद्मनन्दी की प्राकृत वृत्ति भी है । इम पचमग्रह का १०वी ११वी शताब्दी में तो सस्कृतकरण श्रीपाल सुत डड्ढा ओर अमितगति ने किया है। इतना ही नही किन्तु पंचसग्रह की प्राकृत गाथाएं धवला में उद्धत पाई जाती है। सम्भवतः मूल पचमग्रह प्रकलक देव के सामने भा रहा है । प० आशाधर जी ने मूलाराधना दर्पण नाम को टीका में इसका ५ गाथाए उद्धत की है। इसके उत्तर तत्रकर्ता लोहारिया भट्टारक अथ भूदिअ पायरिया वाक्य से आत्म भूति आचार्य जान पड़ते है। इससे इसकी प्रामाणिकता और प्राचीनता झलकती है । भट्टारक सुमतिकीति ने इसकी टीका १७वी शताब्दी के पूर्वार्धन बना है।
समतिकाति ने धर्मपरीक्षा नाम कारक ग्रन्थ गुजराती भाषा मे १६२५ में बनाया है। ऐ०प०दि जेन सरस्वता भवन बम्बई की सूची में 'उत्तर छत्तीसी' नामक एक सस्कृत ग्रन्थ है जो गणित विपय पर लिखा गया है, उसके कर्ता भी सम्भवतः यही सुमतिकीति है। स० १६२७ मे त्रिलाकसार रास की रचना कोदादा शहर में को।
की टीम में पूर्ववर्ती हे । मू खो और मन्दिरी की विशालना से गोलापूर्वान्वय गौरवान्वित है। वर्तमान में भी उमा पाग अनक शिवरवाद मन्दिर विद्यमान है। गोलापून्विय के सवत् ११६६,१२०२, १२०७,१२१३ और १-३७ आदि के अनेक लेख हे। जिनसे इस जाति की सम्पन्नता पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इस उपजाति में भी अनक प्रतिष्ठिन विद्वान, ग्रन्यकार, और श्रीसम्पन्न परिवार रहे है । वर्तमान में भी अनेक डाक्टर, आचार्य और विद्वान एव व्याख्याता आदि है। विशेष परिचय के लिए देखे 'शिलालेखो मे गोलापूर्वान्वय' भनेकान्त वर्ष २४,
कि०३ पृ० १०२ १. 'तत्य गुगागणामं भागहणा इदि । किं कारण ? जेण आराधिज्जन्ते अणाम दसण-गाण-चरित्त-तवाणि ति। कतारा तिविधा-मूलततकत्ता, उत्तरतत कत्ता, उत्तरोत्तर तत कत्ता चेदि । तत्व मूलतन कत्ता भयव महावीरो। उत्तरताकत्ता गोदम भयवदो । उत्तरोत्तरतंतकत्ता लोहायरिया भट्टारक अप्प भूदिअ आयरिया।"
(-पंच स० ५४३,४४)
Page #582
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
___ यह प्रतिष्ठाचार्य भी थे । इन्होंने सम्वत् १६२२ वैशाख सुदी ३ सोमवार के दिन एक मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी । इनका समय १७वीं शताब्दी है।
मट्टाकलंकदेव यह मूलसंघ देशीयगण पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के चारुकीर्ति पंडिताचार्यका शिष्य था। इसने अपने गरु का परिचय निम्न वाक्यों में दिया है-"मलसंघ-देशीयगण-पुस्तकगच्छ-कदकुन्दान्वय-विराजमान श्रीमद्रायराज गरु मण्डलाचार्य महावादि वादीश्वर वादिपिता मह सकल बिद्वज्जन चक्रवतिबल्लालराय जीवरक्षापालकेत्यादि अनेकान्वित बिरुदावली विराजमान श्रीमच्चारुकीर्ति पण्डितदेवाचार्य शिष्य परम्परापात श्री संगीतपुर सिंहासन पटाचार्य श्रीमदकलंक देवनु"। कवि की एकमात्र कृति 'कर्णाटक शब्दानुशासन' नाम का व्याकरण है । जिसे कवि ने शक सं० १५२६ (ई. सन् १६०४) में निर्मित किया है। विलेगियाताल के एक शिलालेख से इसको परम्परा विषयक कुछ बातें ज्ञात होती हैं।
देवचन्द्र ने अपनी 'राजावली कथे' में लिखा है कि सुधापुर के भट्टाकलंक स्वामी सर्वशास्त्र पढ़कर महा विद्धान हुए । इन्होंने प्राकृत संस्कृत मागधी प्रादि षट् भाषाकवि हो कर कर्णाटक व्याकरण की रचना की।
यह कनड़ी भाषा का व्याकरण है इसमें ४ पाद और ५६२ सूत्र हैं। इन सूत्रों पर भाषा मंजरी नाम की इति पर मजरीमकरंद नाम का व्याख्यान है। सूत्र, वृत्ति, और व्याख्यान तीनों ही संस्कृत में हैं। प्राचीन कनडी वियों के ग्रन्थों पर से अनेक उदाहरण दिये हैं । कर्णाटक भाषा भूषण की अपेक्षा यह विस्तृत व्याकरण है । यह कनड़ी भाषा का अच्छा व्याकरण है।
कवि ने इसमें अपने से पूर्ववर्ती निम्न कवियों-पंप, होन्न, रन्न, नागचन्द्र, नेमिचन्द्र, रूद्रभट्ट, पागल, मंडय्य, मधुर का स्मरण किया है। कवि का समय ईसा की १७वीं शताब्दी का प्रथम चरण (१६०४) है ।
(कर्नाटक कवि चरित)
कवि भगवतीदास यह काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्कर गण के विद्वान भट्टारक गुणचन्द्र के पट्टधर भ. सकलचन्द्र के प्रशिष्य और भटटारक महेन्द्रसेन के शिष्य थे । महेन्द्र सेन दिल्ली की भट्टारकीय गद्दी के पट्टधर थे। इनकी प्रभी तक कोई रचना देखने में नहीं माई । और न कोई प्रतिष्ठित मूर्ति ही प्राप्त हुई है। इससे इनके सम्बन्ध में विशेष विचार करना सम्भव नहीं है। भ० महेन्द्र सेन प्रस्तुत भगवतीदास के गुरु थे, इसीसे उन्होंने अपनी रचनामों में उनका मादर के साथ स्मरण किया है। यह बूढ़िया जिला अम्बाला के निवासी थे। इनके पिता का नाम किसनदास था और जाति अग्रवाल और गोत्र वंसल था। इन्होंने चतुर्थ वय में मुनिव्रत धारण कर लिया था । यह संस्कृत प्राकृत-अपभ्रंश
१. संवत १६२२ वैशाख सुदि ३ सोमे श्री कुन्दकुन्दान्वये......."भ. श्री विजयकीर्ति देवाः तत्पभ. श्री शुभचंद्र देवाः
तत्प भ० सुमतिकीर्ति गुरूपदेशात् हुवंड ज्ञातीय गा रामा भार्या वीरा...। अनेकान्त वर्ष ४१०५०३ २. बठिया पहले एक छोटी सी रियासत थी, जो मुगल काल में धन-धान्यादि से खूब समृद्ध नगरी थी। जगाधरी के वस जाने से बढ़िया की अधिकांश आबादी वहाँ चली गई। पाजकल वहां खण्डहर अधिक हो गये हैं, जो उसके गत वैभव
की स्मृति के सूचक हैं। ३. गुरुमुनि माहिदसेन भगोती, तिस पद-पंकज रन भगोती। किसनदास वरिणउ तनुज भगोती, तुरिये गहिउ व्रत मुनि जु भगोती॥ नगर दूढिये वसै भगोती, जन्मभूमि है मासि भगोती। अग्रवाल कुल वंसल गोती, पण्डित पदजन निरख भगोती॥८३ -वृहत्सीतासतु, सलावा प्रति
Page #583
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वी और १८वी शताब्दी के प्राचार्य, भद्रारक और कवि
५४६
पौर हिन्दी भाषा के अच्छे विद्वान कवि थे। इनको अधिकांश रचनाएं हिन्दी पद्य में लिखी गई हैं, जिनकी सख्य। ६० के लगभग है। उनमें कई रचनाएं भाषा साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, जैसे अनेकार्थ नाममाला (कोष) सीतासतु, टंडाणारास, मादित्य व्रतरास, खिचड़ी रास आदि' । इनकी सब उपलब्ध रचनाए सवत् १६५१ से १७०४ तक की उपलब्ध है, जो चकत्ता बादशाह अकबर' जहागीर और शाहजहां के राज्य में रची गई हैं। ज्योतिष और वैद्यक की रचनाओं को प्रशस्ति सस्कृत म रची थी, रचना हिन्दा पद्या म है जो कारजा के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित हैं। इनके रचे अनेक पद और गीत आदि भा मिलते है । रचनाओं में अनेक रचना-स्थलां का उल्लेख किया है। उनमें बुढ़िया (अम्बाला) दिल्ली, आगरा, हिसार, कपित्थल, सिहदि आदि । कवि को रचनाए' मनपुरो, दिल्ली, अजमेर आदि के शास्त्र भंडारों में उपलब्ध है। कवि की सब रचनाएं संवत् १६५१ से १७०४ तक की उपलब्ध होती हैं । अतएव कवि का कार्य काल ५४ वर्ष है।
कवि की अपभ्रंश भाषा की तीन रचनाएं उपलब्ध हैं-मगांक लेखाचरिउ, सुगंधदसमी कहा और मुकुट सप्तमी कथा । मृगांक लेखाचरित में चार संधियां है जिनमें कवि ने चन्द्रलेखा और सागरचन्द के चरित वर्णन करते हए चन्द्रलेखा के शीलवत का माहात्म्य ख्यापित किया है। चन्द्रलेखा विषदा के समय साहस और धैर्य का परिचय देती हुई अपने शोलवत से जरा भी विचलित नही होतो, प्रत्युत उसमें स्थिर रहकर अपने सतीत्व का जो प्रादर्श उपस्थित किया है, वह अनुकरणीय है। ग्रन्थ की भाषा अपभ्रंश होते हुए भी हिन्दी के अत्यधिक नजदीक है। जैसा कि उसके दोहों से स्पष्ट है
ससिलेहा णियकंत सम, धारई संजमु सार जम्मणु मरण जलंजली, दाण सुयणु भव-तार ॥ करि तणु तउ सिउपुर गयउ, सो वणि सायरचंदु ।
ससिलेहा सुरवरु भई तजि तिय-तणु अइणिदु ॥ मुकुट सप्तमी कथा में मुकुट सप्तमी व्रत को अनुष्ठान-विधि का कथन किया गया है।
सुगंधदसमी कथा में 'भाद्रपद शुक्ला दसमी के व्रत का विधान और उसके फल का वर्णन किया गया है । शेष सभी रचनाएं हिन्दी की हैं। कवि का समय १७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और अठारहवीं का पूर्वार्ध है।
भ. सिंहनन्दी मलसंघ पुष्कर गच्छ के भट्टारक शुभचन्द्र के पट्ट पर प्रतिष्ठित हए थे। इन्होंने 'पंच नमस्कार दीपिका' नाम का ग्रन्थ सं० १६६७ में कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा के दिन समाप्त किया है।
अन्दैस्तत्त्व रसतु चंद्र कलिते (१६६७) श्री विक्रमादित्यके । मासे कातिक नामनीह धबले पक्ष शरत्संभवे । वारे भास्वति सिद्ध नामनि तथा योगेषु पूर्णातियौ,
नक्षत्रेऽश्वनि नामनि तत्वरसिकः पूर्णाकृतो ग्रन्थकः ॥५५ ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भवन बम्बई की ग्रन्थ सूची में 'व्रततिथि निर्णय' नाम का एक ग्रंथ भ. सिंहनन्दी के नाम से दर्ज है। यह ग्रन्थ पारा के जैन सिद्धान्त भवन में भी पाया जाता है, पर बह इन्हीं सिंहनन्दी
१. देखो, बनेकान्त वर्ष ११ किरण ४-५ तथा अनेकान्त वर्ष २० किरण ३ प०१०४ २. संवत सोलह सइ जु इक्यावन, रविदिनु मास कुमारी हो, जिन बंदनु करिफिरि घरि-आए, विजय दसमि सजयारी हो (अर्गलपुर जिनवंदना) मह रचना अकबर के राज्य में
रची गई है। ३. श्री मूल संघे वर पुष्कराज्ये गच्छे सुजातः शुभचन्द्र सूरि ।
तस्याऽत्र पट्टेऽजनि सिंहनन्दिर्भट्टारकोऽभूद्विदुषां वरेण्यः ॥५३
Page #584
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५०
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
की कृति है या अन्य की, यह ग्रन्थ के अवलोकन के बिना निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। इनके अतिरिक्त कवि की प्रन्य रचनाए अन्वेषणीय है। कवि का समय १७ वी शताब्दी है।
पंडित शिवाभिराम कवि ने अपना परिचय नही दिया पार न गुरु परम्परा का ही उल्लेख किया है। केवल अपने को 'पुषद वनिय' का पुत्र बतलाया है। पडित शिवाभिराम १७वो शताब्दी के विद्वान थे। इनकी दो कृतिया उपलब्ध है पट् चतुर्थ-वर्तमान-जिनार्चन ; और चन्द्रप्रभ पुराण सग्रह (अष्टमजिन पुराण संग्रह)।
इनमें से प्रथम ग्रन्थ की रचना मालवदेश में स्थित विजयसार के 'दिविज' नगर के दुर्ग में स्थित देवा लय में, जब परिकुलशत्रु सामन्तसेन हरितनु का पुत्र अनुरुद्ध पृथ्वो का पालन कर रहा थाः जिस के राज्य का प्रधान सहायक रघुपति नाम का महात्मा था। उसका पुत्र ध-यराज ग्रन्थ कर्ता का परम भक्त था। उसो की सहायता से वि० सं०१६६२ में बनाकर समाप्त किया है
नवशि (?) च नयनाख्ये कर्मयक्तेन चन्द्र, गतिवति सति तो विक्रमस्यैव काले।
निपततितुषारे माघचद्रावतारे जिनवर पदचर्चा सिद्धये सप्रसिद्धा ॥१८ दूसरे ग्रन्थ में पाठव तीर्थकर चन्द्रप्रभ जिन का जीबन-परिचय अकित किया गया है । उसमें २७ गगई। प्रशस्ति में बतलाया है कि वहद्गुर्जरवश का भूपण राजा तारामिह था, जो कुम्भनगर का निवासी था और दिल्ली के बादशाह द्वारा सम्मानित था। उसके पट्ट पर साममिह हआ जिसे दिगम्बराचार्य के उपदेश में जैन धर्म का लाभ हुआ था। उसका पुत्र पनसिंह हुआ, जो राजनीति में कुशल था। उसकी धर्मपत्नी का नाम 'वाणा दवी' था, जो शीलादि सद्गुणों से विभूषित थी। उसीके उपदेश एवं अनुरोध से उक्त चरित ग्रन्थ की रचना हुई है। ग्रन्थ मे रचना काल दिया हुमा नहीं है । अतएव निश्चित रूप में यह बतलाना कठिन है कि शिवाभिराम ने उस ग्रथ का र कब को है। पर प्रथम ग्रन्थ की प्रशस्ति से यह स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ का रचना १७वी शताब्दी के अन्तिम चरण में
पंडित अक्षयराम यह भट्टारक विद्यानन्द के शिष्य थे। भट्टारकीय पडित होने के कारण सम्कृत भापा के विद्वान थे । इनका सभय विक्रम की १८वी शताब्दी है। जयपुर के राजा सवाई जर्यासह के प्रधान मन्त्री थावक ताराचन्द्र । ने चतुर्दशी का व्रत किया था, उसी का उद्यापन करने के लिये पडित अक्षयराम ने संवत् १८०० में चैत्र शुक्ला पंचमी के दिन 'चतुर्दशीव्रतोद्यापन' नामक ग्रन्थ की रचना की थी।
अब्दे द्विशून्याष्टकांके (१८००) चैत्रमासे सिते दले। पंचम्या च चतुर्दश्या ब्रतस्योद्योतन कृतं ॥४॥
कवि नागव इसके पिता का नाम 'सोड डेसे टिट' था. जो कोटिलाभान्वय का था और माता का नाम 'चौडाम्बिका' था। कवि ने 'माणिकस्वामिचरित' की रचना की है। यह ग्रन्थ भामिनी पटपदी में लिखा गया है, इसमें ३ सन्धिया पोर २६८ पद्य हैं। इसमें माणिक्य जिनेश का चरित अंकित किया गया है। उसमें लिखा है-कि देवेन्द्र ने अपना 'माणिक जिनबिम्ब' रावण की पत्नी मदोदरी को उसकी प्रार्थना करने पर दे दिया और वह उसकी पूजा करने लगी। राम-रावण युद्ध में रावण का वध हो जाने के बाद मन्दोदरी ने उस मूर्ति को समुद्र के गर्भ में रख दिया। बहुत समय बीतने पर 'शंकरगण्ड' नाम का राजा एक पतिव्रता स्त्री की सहायता से माणिक स्वामी की वह मूर्ति ले आया
१. श्री जयसिंह भूपस्य मंत्रिमुख्योऽग्रणी सता।
श्रावकस्ताराचंद्राख्यस्तेनेदं व्रत समुदतं ॥
-जैन ग्रन्थ प्र० भा०११०२७
Page #585
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वी, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
५५१
और निजाम स्टेट के 'कुलपाक' नाम के तीर्थस्थान में उसको स्थापित किया। इस मूर्ति के कारण वह एक तीर्थ
बन गया ।
कवि ने ग्रन्थ के शुरू में माणिक जिन की, सिद्ध, सरस्वती, गणधर और यक्ष-यक्षी की स्तुति की है । ग्रन्थ में समय नही दिया । सभवतः ग्रन्थ को रचना सन् १७०० के लगभग हुई है
( अनेकान्त वर्ष १, किरण ६-७ )
पं० जगन्नाथ
इनकी जाति खडेलवाल और गोत्र सोगाणी था। इनके पिता का नाम सोमराज श्रेष्ठी था । जगन्नाथ ज्येष्ठ पुत्र थे और वादिराज लघु पुत्र थे। जगन्नाथ संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे । यह टोड़ा नगर के निवासी थे, जिसे 'तक्षकपूर' कहा जाता था । ग्रन्थ प्रशस्तियों में उसका नाम तक्षकपुर लिखा मिलता है। १६वीं १७वीं शताब्दी में टोडा नगर जन-धन से सम्पन्न नगर था । उस समय वहा राजा रामचन्द्र का राज्य था। वहां खंडेलवाल जैनियों की अच्छी बरती थी। टोडा में भट्टारकीय गद्दी थी, और वहा एक अच्छा शास्त्र भडार भी था। प्राकृत और संस्कृत भाषा के अच्छे ग्रन्थो का राम था। वहां अनेक सज्जन संस्कृत के विद्वान हुए है । संवत् १६२० में वहां की गद्दी पर मंडलाचार्य धर्मचन्द्र विराजमान थे, जिन्होंने संस्कृत में गोतम चरित्र की रचना की है। यह ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है।
पडित जगन्नाथ भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने 'श्वेताम्वर पराजय की प्रशस्ति में अपने को कवि-गमक-वादि और वाग्मि जेमे विशेषणों से उल्लेखित किया है । - 'कवि - गमक- वादि- वाग्भित्व गुणालंकृतेन खांडिल्लवंशोद्भव पोमराज श्रेष्ठ सुतेन जगन्नाथ वादिना कृतौ केवलिभुक्ति निराकरणं समाप्तम् ।'
कर्मस्वरूप नामक ग्रन्थ को प्रशस्ति में कवि ने अपना नाम अभिनव वादिराज सूचित किया हैं' ।
कवि की निम्न कृतियां उपलब्ध हैं- चतुर्विंशतिसंधान, (स्वोपज्ञटीका सहित) सुख निधान, नेमिनरेन्द्रस्तोत्र मुषेणचरित्र, कर्म स्वरूप वर्णन ।
चतुविशति संधान - स्रग्धरा छन्दात्मक निम्न पद्य को २५ बार लिख कर २५ अर्थ किये हैं। एक-एक प्रकार में २४ तीर्थकरों की अलग-अलग स्तुति की है, और अन्तिम २५वें पद्य में समुच्चय रूप से चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की है।
श्रयान् श्री वासुपूज्यो वृषभजिनपतिः श्रीक्रमांकोऽथ धर्मो पुष्पदन्तो मुनिसुव्रत जिनोऽनंतवाक्
हर्यक : श्री सुपार्श्वः । शान्ति: पद्मप्रभोऽरो विमलविभुरसौ वर्द्धमानोप्यजांको । मल्लिने मिर्न मिर्मा सुमतिरवतु सच्छ्री जगन्नाथ धीरं ॥१॥
दूसरी रचना 'श्वेताम्बर पराजय' है । कवि ने इस ग्रन्थ को विबुध लाल जी की आज्ञा से बनाया है । इसमें श्वेताम्बरो द्वारा मान्य ‘केवलिभुक्ति' का सयुक्तिक खण्डन किया है । ग्रन्थ में 'नेमिनरेन्द्र स्तोत्र स्वोपज्ञ' का एक पद्य उद्धृत किया है :
यतदु तव न भुक्तिर्नष्टः दुःखोदयत्वाद्वसनमपि न चांगे वीतरागत्वतश्च । इति निरुपमहेतु न ह्यसिद्धाद्यसिद्धौ विशद-विशद दृष्टीनां हृदिल: ( ? ) सुयुक्तये ।"
कवि ने इस ग्रन्थ की रचना संवत् १७०३ में दीपोत्सव के दिन समाप्त की थी । उसका अन्तिम पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है
इति श्वेताम्बर पराजये कवि गमक- वादि- वाग्मित्व गुणालंकृतेन खांडिल्ल वशोद्भव पोमराज श्रेष्ठ सुतेन जगन्नाथ वादिना कृतौ केवलिभुक्ति निराकरणं समाप्तम् ।"
तीसरी रचना सुखनिधान है - इस ग्रन्थ में विदेह क्षेत्रीय श्रीपाल चक्रवर्ती का कथानक दिया हुआ है । प्रस्तुत काव्य ग्रन्थ की रचना सरस और प्रसाद गुण से युक्त है। इस ग्रन्थ की रचना कवि ने राजस्थान में 'मालपुरा' — कर्मस्वरूप वर्णन प्रश०
१. पडित जगन्नाथैरपराख्याभिनववादिराजं विरचिते कर्मस्वरूप ग्रन्थे ।
Page #586
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहारा-भाग २
(जयपुर) नामक स्थान में की है।
कवि ने इस ग्रन्थ में अन्यच्च अस्माभिरुक्तं शृङ्गार समुद्र काव्ये' वाक्य के साथ अपने शृगार समुद्र काव्य नाम के ग्रन्थ का उल्लेख किया है। इस कृति का अन्वेषण होना चाहिये कि किसी भण्डार में यह ग्रन्थ उपलब्ध है या नहीं । इस ग्रन्थ की ५१ पत्रात्मक एक प्रति पाटौदी भण्डार जयपुर में हैं जिसमें उसका रचना काल संवत् १७०० असोज सुदी १०मी दिया है।
चौथी रचना 'नेमिनरेन्द्र स्तोत्र' है । इसमें २२वें तीर्थकर नेमिनाथ का स्तवन किया गया है । रचना सुन्दर है और अभी अप्रकाशित है। इसमें भी केवलिभक्ति और कवलाहार का निषेध किया गया है । इस पर स्वोपज्ञ टीका भी निहित है। इसे प्रकाश में लाना चाहिये । इसका रचना काल भी ज्ञात नहीं हुआ।
पांचवीं रचना 'सुपेण चरित्र' है। इस ग्रन्थ की ४६ पत्रात्मक एक प्रति आमेर भण्डार में उपलब्ध है, जो सं० १८४२ की लिखी हुई है।
छठवीं रचना 'कर्मस्वरूप वर्णन' है, जिसमें ज्ञानावरणादि कर्मों की मल और उत्तर प्रकृतियों के वर्णन के साथ प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप चार बंधों का स्वरूप निदिप्ट किया है। कवि ने इस ग्रन्थ को संवत १७०७ के चैत महीने के शुक्ल पक्ष की दोइज के दिन समाप्त किया है :
वर्षे तत्व नभोश्वभू परिमिते (१७०७) मासे मघौ सुन्दरे। तत्पक्षे च सितेतरेहनि तथा नाम्ना द्वितीयाह्वये । थी सर्वज्ञ पदांबुजानति गलद ज्ञानावति प्राभवा
स्त्र विद्यश्वरता गता व्यरचयन श्री वादिराजा इमम ।। कदि का समय १७वी शताब्दी का अन्तिम अंश और १८वीं शताब्दी का पूर्वाध है।
कवि बादिराज यह खंडेलवंशी पोमराज श्रेष्ठी के लघु पुत्र थे । ज्येष्ठ पुत्र पंडित जगन्नाथ थे, जो संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे । इनका गोत्र 'सौगाणी' था। यह तक्षक नगर (वर्तमान टोडा नगर) के निवासी थे । लघु पुत्र का नाम वादिराज था । जो संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान, कवि थे और राजनीति में पटु थे। इनके चार पुत्र थे-रामचन्द्र, लाल जी, नेमिदास और विमलदास । विमलदास के समय 'टोडा' में उपद्रव हुआ था जिसमें एक गुच्छक (मटका) भी लूट गया था। बाद में उसे छुड़ा कर लाये, वह फट गया था, और उसे सम्हाल कर रक्खा गया।
वादिराज ने अपने को उस समय धन जय, प्राशाधर और वाग्भट का पद धारण करने वाला दूसरा वाग्भट बतलाते हुए लिखा है कि राजा राजसिंह दूसरा जयसिंह हैं और तक्षक नगर दूसरा अणहिलपुर है और मैं वादिराज दूसरा वाग्भट हूँ।
धनंजयाशापरवाग्भटानां धत्ते पदं सम्प्रति वादिराजः।
खांडिल्ल वंशोद्भवपोमसूनुजिनोक्ति पीयूष सुतृप्त गात्रः॥३ वादिराज तक्षक नगर के राजा राजसिंह के महामात्य थे। राजसिंह भीमसिंह के पुत्र थे।
कवि की इस समय दो रचनायें उपलब्ध हैं। वाग्भटालंकार की टोका 'कविचन्द्रिका' जिसका पूरा नाम 'वाग्भट्टालंकारावचरि-कवि चन्द्रिका' है। इस टीका को कवि ने राज्य कार्य से प्रवकाश निकाल कर बनाई थी। पौर दूसरी रचना 'ज्ञानलोचन स्तोत्र' नाम का एक स्तोत्र ग्रन्थ । यह स्तोत्र माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थ माला से
१. संवत् १७५१ मगसिर बदी तक्षक नगरे खण्डेलवालान्वये सोगानी गोत्रे साह पोमराज तत्पुत्र साह वादिराजस्तत्पुत्र
चत्वार प्रथम पुत्र रामचन्द्र द्वितीय लाल जी तृतीय नेमिदास, चतुर्थ विमलदास, टोडा में विषो हुओ, जब पाहपोथी लुटी, वहां थे छूडाई फटी तुटी संवारि सुधारि माछी करी, ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ पुत्रादि पठनाथं शुभं भवत ।
म. प्र. प्रशस्ति सं० भाग १ पृ० ३६ । २. इति मत्वा रत्नत्रयालंकृत विद्यचित्तो विमल पोम श्रेष्ठि कुल भूपो महामात्य पदभृच्छी मदाग्भट महाकविस्ताव
दिष्ट देवतामभीष्टेति ।
Page #587
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वी शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
५५३
प्रकाशित सिद्धान्त सारादि संग्रह में मुद्रित हो चुका है । और पहला ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है । कवि ने इसकी अन्तिम प्रशस्ति में अपना परिचय भी अंकित कर दिया है। कवि ने इस चन्द्रिका टीका को वि० सं० १७२६ की दीपमालिका के दिन गुरुवार को चित्रा नक्षत्र और वश्चिक लग्न में बनाकर समाप्त किया है। कवि की अन्य रचनाएं प्रन्वेषणीय है। कवि का समय १८ वी शताब्दी है।
अरुणर्माण यह भट्टारक श्रुतकीति के प्रशिष्य और बुध राघव के शिष्य थे । बुध राघव ने ग्वालियर में जैन मन्दिर बनवाया था। इनके ज्येष्ठ शिष्य बुध रत्नपाल थे, दूसरे वनमाली तथा तीसरे कान्हरसिंह थे। प्रस्तुत प्ररुणमणि (लालमणि) इन्हीं कान्हरसिंह के पुत्र थे। प्रशस्ति में इन्होंने अपनी गुरु परम्परा' इस प्रकार बतलाई है-काष्ठा संघ में स्थित माथ रगच्छ और पुष्करगण में लोहाचार्य के अन्वय में होने वाले भ० धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीति, गुणकीति, यशकीति, जिनचन्द्र, श्रुतिकीर्ति के शिष्य बुधरत्नपाल, वनमाली और कान्हरसिंह । इनमें कान्हरसिह के पुत्र प्ररुणमणि ने 'अजित पुराण' की रचना मुगल बादशाह अवरगशाह (औरंगजेब) के राज्य काल में सं० १७१६ में जहानाबाद नगर (वर्तमान न्यू दिल्ली) के पार्श्वनाथ जिनालय में बनाकर समाप्त की है।
इनके शिष्य ५० बलाकीदास थे। इन्होंने दिल्ली में बलाकीदास को पढ़ाया था। कवि बलाकीदास ने प्रश्नोत्तर श्रावकाचार प्रशस्ति में इनका निम्न पद्यों में उल्लेख किया है
"अरुन-रतन पंडित महा, शास्त्र कला परवीन । बलचन्द तिनपै पढ्यो, ग्यान प्रश तहाँ लोन ॥१६ बहुत हेत करि प्ररुन नै, दयो ज्ञान को भेद।
तव सुबुद्धि घट में जगी, करि कुबुद्धि तम छेद ॥"२० प्रस्तुत अजितपुराण में दूसरे तीर्थकर अजितनाथ का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। रचना सरस और सरल है।
भट्टारक देवेन्द्रकोति यह मूलसंघ के भट्टारक जगतकीति के पट्टधर थे । जगतकीति भ० सुरेन्द्रकीति के पट्ट पर सं० १७३३ में १. सवत्सरे निधिदृगश्व शशाङ्कयुक्त दीपोत्सवाख्य दिवसे सगुरो सचित्रे ।
लग्नेऽलि नाम्नि च समाप गिरः प्रसादात सदादिराज रचिता कवि चन्द्रिकेयम् ॥१ श्री राजसिंह नपतिजयसिंह एवं श्री तक्षकाख्यनगरी अहिल्लतुल्या। श्री वादिराज विबुधोऽपर वाग्भटोऽयं श्री सूत्र वृत्तिरिह नन्दतु चार्क चन्द्रम् ॥ २
श्रीमद्भीमनपालजस्य बलिनः श्री राजसिंहस्य मे, सेवायामवकाशमाप्य विहिता टीका शिशूनां हिता। होनाधिक्य वचो यदत्र लिखितं तद्वं बुधः क्षम्यताम् ।
गार्हस्थ्यावनिनाथसेवनधियः कः स्वस्थता माप्नुयात् ॥३ २. देखो, जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भाग १, पृ०६७। ३. रस-वृष-यति-चंद्रे ख्यात संवत्सरे (१७१६) ऽस्मिन्, नियमित सितवारे वैजयन्ती दशम्यां, अजित जिनचरित्रं बोध पात्रं बुधानां, रचितममलवाग्मि-रक्त रत्नेन तेन।।४० मुद्गले भूभुजां श्रेष्ठे राज्येऽवरंग साहिके।' जहानाबाद-नगरे पाश्र्वनाथ जिनालये ४१
Page #588
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
आमेर में प्रतिष्ठित हुए थे । यह अपने समय के अच्छे विद्वान थे । भ० देवेन्द्र कीर्ति ने 'समयसार' ग्रन्थ की एक टीका 'ईसरदे' ग्राम में संवत् १७८८ में भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी को बनाकर समाप्त की थी। जैसा कि उसके निम्न पद्यों से प्रकट है :
:
चरण है ।
वस्वष्टयुक्त सप्तेन्दुयुते ( १७८८) वर्षे मनोहरे । शुक्ले भाद्रपदे मासे चतुर्दश्यां शुभे तिथौ ॥ १ ईस रदेति सद्ग्रामे टीका पूर्णितामिता । भट्टारक जगत्कर्ते: दुष्कर्महानये शिष्य टीका समयसारस्य
पट्टे देवेन्द्र कीर्तिना ॥२
मनोहर - गिरा कृता । सुगमा तत्वबोधिनी ॥ ३
इस टीका का नाम कवि ने 'तत्वबोधिनी' दिया है । कवि का समय विक्रम की १८वीं शताब्दी का अन्तिम
भ० धर्मचन्द्र
मूलसंघ बलात्कार गण भारतीगच्छ के भट्टारक श्रीभूषण के शिष्य थे । इन्होंने अपनी परम्परा निम्न प्रकार बतलाई है - नेमिचन्द्र, यशः कीर्ति, भानुकीर्ति और श्रीभूषण । इनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र सेठी था । यह संवत् १७१२ में पट्ट पर बैठे थे । और उस पर १५ वर्ष तक रहे। इनका पट्ट स्थान महरोठ था । भट्टारक धर्मचन्द्र ने वि० सं० १७२६ में ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया शुक्रवार के दिन रघुनाथ नामक राजा के राज्य में महाराष्ट्र ग्राम के प्रादिनाथ चैत्यालय में 'गौतम चरित्र' बनाकर समाप्त किया है । कवि का समय १८ वीं शताब्दी है ।
विमलदास
यह अनन्तसेन के शिष्य और वीरग्राम के निवासी थे । तर्कशास्त्र के अच्छे विद्वान थे। इन्होंने प्लवंग सवत्सर की वैशाख शुक्ला अष्टमी बृहस्पतिवार के दिन सप्तभंग तरंगिणी नाम का ग्रंथ तंजोर नगर में पूर्ण किया था । यह ग्रंथ प्रकाशित हो गया है । इनका समय १७वीं शताब्दी अनुमानित किया गया है ।
सप्तभंग तरंगिणी ग्रंथ का विस्तार ८०० श्लाक प्रमाण हैं । उसमें समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्द माणिक्यनन्दी और प्रभाचन्द्र आदि के ग्रन्थों के उद्धरण देकर सरल भाषा में स्याद्वाद के प्रस्ति नास्ति प्रादि सप्तभंगों का विवेचन किया है, तथा अनेकान्तबाद में प्रतिपक्षियों द्वारा दिए गए संकर, व्यतिकर, विरोध और असभव प्रादि दोषों का निरसन किया है । प्रान्त में लेखक ने बौद्ध, मीमांसक नैयायिक और सांख्यादि मतों में अप्रत्यक्ष रूप से सार पेक्षवादका अवलम्बन किया है, इसको स्पष्ट किया है ।
१. संवत् सत्रासं अर तेतीसं, सावणबदि पंचमी भणि । पदवी भट्टारक अचल विराजित धण दान धण राजतंत्र ॥ २. श्रीमच्छुरिगणाधिपो विजयतां श्रीभूषणाख्यो मुनिः ।। २६६ पट्टे तदीये मुनि धर्मचन्द्रोभूच्छी बलात्कार गरणे प्रधानः । श्री मूलसंघे प्रविराजमानः श्री भारती गच्छ सुदीप्ति भानुः ।। २६७ राजच्छ्री रघुनाथ नामनृपती ग्रामे महाराष्ट्रके ।
नाभेयस्य निकेतनं शुभतरं भाति प्रसोख्याकरम् ।।
X
X
X
तस्मिन् विक्रमया द्विवाद रस युगाद्रींदु प्रमे वर्षके ।
ज्येष्ठे मासे सिद्वितीये दिवसे कांते हि शुक्रान्विते ॥ २६६
-- भट्टारक पट्टावली
— गौतम चरित्र
Page #589
--------------------------------------------------------------------------
Page #590
--------------------------------------------------------------------------
Page #591
--------------------------------------------------------------------------
_