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गुहनन्दि
ये पंचस्तूपान्वय के प्रसिद्ध विद्वान थे। पंचस्तूपान्वय की स्थापना अर्हबली ने की थी जो पुण्ड्रवर्धन के निवासी थे । पुण्ड्रवर्धन जैन परम्परा का केन्द्र रहा है। अत: गुहनन्दि का समय गुप्तकालीन ताम्रशासन से पूर्ववर्ती है। उक्त ताम्रशासन के अनुसार गुप्त वर्ष १५६ (सन् ४७८-७९) में एक ब्राह्मण नाथशर्मा और उसकी भार्या राम्नी द्वारा बटगोहाली ग्राम में पंचस्तूपान्वय निकाय के निर्ग्रन्थ (श्रमण) आचार्य गुहनन्दी के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा अधिष्ठित विहार में भगवान अर्हन्तों (जैन तीर्थकरों) की पूजा सामग्री (गन्ध-धूप) आदि के निर्वाहार्थ तथा निर्ग्रन्थाचार्य गुहनन्दि के विहार में एक विश्राम स्थान निर्माण करने के लिए यह भूमि सदा के लिए इस विहार के अधिष्ठाता बनारस के पंचस्तूप निकाय संघ के प्राचार्य गुहनन्दि के शिष्य-प्रशिप्यों को प्रदान की गई थी। इससे गुहनन्दि का समय संभवतः ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी होना चाहिये ।
तुम्बुलूराचार्य यह तुम्बुलूर नामक सुन्दर ग्राम के निवासी थे। ये तुम्बुलूर ग्राम के वासी होने के कारण तुम्बुलू राचार्य कहलाये । जैसे कुन्दकुन्दपुर में रहने के कारण पद्मनन्दि आचार्य कुन्दकुन्द नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्होंने षट्खण्डागम के प्रथम पांच खण्डो पर 'चूड़ामणि' नाम की एक टीका लिखी थी, जिसका प्रमाण चौरासी हजार श्लोक प्रमाण बतलाया गया है । छठवें खण्ड को छोड़कर दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर एक महती व्याख्या कनड़ी भाषा में बनाई थी। इनके अतिरिक्त छठवें खण्ड पर सात हजार प्रमाण पञ्जिका' लिखी । इन दोनों रचनाओं का प्रमाण ६१ हजार श्लोक प्रमाण हो जाता है । महाधवल का जो परिचय धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थों के 'प्रशस्ति संग्रह' में दिया गया है, उसमें पंजिका रूप विवरण का उल्लेख पाया जाता है यथा
___वोच्छामि संतकम्मे पंचियरूवेण विवरणं सुमहत्थं ।।..."पुणो तेंहितो सेसहारसणियोगद्दाराणि संतकम्मे सव्वाणि परविदाणि । तो वि तस्सइगंभीरत्तादो, प्रत्य विसम पदाणमत्थे थोसद्धमेण पंचिय-हवेण भणिस्सामो।
तुम्बुलूराचार्य के समय के सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक इतिवृत्त नहीं मिलता, जिससे उनका निश्चित समय बताया जा सके। डा० हीरालाल जी ने धवला के प्रथम भाग की प्रस्तावना में इनका समय चौथी शताब्दी बतलाया है। जब तक उनके समय के सम्बन्ध में कोई प्राचीन प्रमाण उपलब्ध नहीं होता, तब तक डा० हीरालाल जी द्वारा मान्य समय ही मानना उचित है।
वीरदेव
वीरदेव मूलसंघ के विद्वान प्राचार्य थे जो सिद्धान्त शास्त्र में प्रवीण थे । इनके उपदेश से गंग वंश के राजा माधव वर्मा ने अपने राज्य के १३वें वर्ष में फाल्गुण सुदि पंचमी को मूलसंघ द्वारा प्रतिष्ठापित जिनालय को 'कुमारपुर' नाम का एक गाँव दान में दिया था यह ताम्र लेख गुप्त काल से पूर्व संभवतः ई० सन् ३७० का है। प्रस्तुत वीरदेव के राजगृह की सोनभण्डार गुफा के लेख में उत्कीर्ण वरदेव के साथ एकत्व की संभावना हो सकती है।'
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