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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ रचना सुन्दर और संस्कृत पद्यों में निबद्ध है।
इनके अतिरिक्त कवि की दस रचनाएं हिन्दी भाषा की उपलब्ध हैं, जिनका परिचय 'राजस्थान जैन साहित्य परिषद' की सन १९६७-६८ की स्मारिका पृष्ठ ७पर लेखक ने दिया है। जो 'राजस्थान के संत ब्रह्म जीबंधर' नाम से मुद्रित हा है। कवि की उन रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं- गुणठाणावेलि, खटोला रास, झबक गीत, मनोहर, रास या नेमिचरित रास, सतीगीत. बीस तीर्थकर जयमाला वीस चौबीसी स्तुति, ज्ञान विरगा विनति मुक्तावली रास और आलोचना प्रादि । रचनाएँ सुन्दर और सरल हैं ।
ब्रह्म जीवंधर विक्रम की १६वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के विद्वान हैं। इन्होंने सं० १५६० में बैसाख वदी १३ सोमवार के दिन भट्टारक विनयचन्द्र की स्वोपज्ञ चुनड़ी टीका की प्रतिलिपि अपने ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयार्थ की थी। इससे इनका समय १६वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध सुनिश्चित है।
पं० नेमिचन्द (प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता) यह देवेन्द्र और आदि देवी के द्वितीय पुत्र थे। इनके दो भाई और भी थे जिनका नाम प्रादिनाथ और विजयम था। इन्होंने अभयचन्द्र उपाध्याय के पास तर्क व्याकरणादि का ज्ञान प्राप्त किया था । नेमिचन्द्र के दो पुत्र थे-कल्याणनाथ और धर्मशेखर । दोनों ही विद्वान थे। नेमिचन्द्र ने सत्यशासन मुख्य प्रकरणादि ग्रन्थ रचे । प्रतिष्ठा तिलक को इन्होंने अपने मामा ब्रह्मसूरि के आदेश से बनाया था। कवि ने उस में अपने कुटुम्ब की दश पीढ़ियों तक का परिचय दिया है, किन्तु उसमें रचनाकान नहीं दिया। पर प्रतिष्ठा तिलक का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इनकी यह रचना पं० पाशाधर जी के बहुत बाद रची गई है। संभवत: यह रचना १५वीं शताब्दी की है। ग्रंथ सामने न होने से उस पर विशेष विचार नहीं किया जा सकता।
कवि धर्मधर __पं० धर्मधर इक्ष्वाकु वंश के गोलाराडान्वयी साहु महादेव के प्रपुत्र और पं० यशपाल के पुत्र थे । यशपाल कोविद थे। उनकी पत्नी का नाम 'हीरा देवी' था। उससे भव्य लोगों के बल्लभ रत्नत्रय के समान तीन पुत्र थे, उनमें दो ज्येष्ठ और लघु पुत्र धर्मधर थे। विद्याधर, देवधर और धर्मधर । इनमें विद्याधर और देवधर श्रावकाचार के पालक और परोपकारकर्ता थे और धर्मधर धर्म कर्म करने वाला था । धर्मधर की पत्नी का नाम 'नन्दिका' था जो शीलादि सद्गुणों से अलंकृत थी । उससे दो पुत्र और तीन पुत्री उत्पन्न हुई थी। पुत्रों का नाम पाराशर और मनसुख था । इस तरह कवि का परिवार सम्पन्न था।
___ कवि ने मूल संघ सरस्वती गच्छ के भट्टारक पद्मनन्दी, शुभचन्द्र और भट्टारक जिनचन्द्र का उल्लेख किया है जिससे ज्ञात होता है कि कवि मूल संघ की प्राम्नाय का था। उसने पद्मनन्दी योगी से विद्या प्राप्त की थी और वह उन्हें गुरु रूप से मानता था। कवि का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है क्योंकि कवि ने नागकुमार
१. कोविदः यशपालस्य समभूत्तनु-जगत्रयं ।
वल्लभं भव्यलोकानां रत्नत्रयमिवापरं ॥२॥ वैयाकरणपारीण घिषणो धिषणोपमः । हीराकुक्षि समुत्पन्नः आद्यो विद्या घराधिपः ॥३॥ देवार्चनरतो नित्यं ततो देवघरोऽभवत् । श्रावकाचार शुद्धात्मा परोपकृति तत्परः ॥४॥ अमी धर्मघरः पश्चात् तृतीयो धर्मकर्मकृत् । पद्मनन्दि गुरोर्लब्ध्वा विद्यापरम् योगिनः ॥५॥
-श्रीपाल चरित प्रशस्ति, भट्टारक भण्डार, अजमेर ।