________________
१५८
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ है। रूप सौन्दर्य के चित्रण में कवि ने कमाल कर दिखाया है । ग्रन्थ में चरित के साथ वन, पर्वत, नदियों और ऋतु आदि के प्राकृतिक दृश्यों, जन्म विवाहादि सामाजिक उत्सवों, शृंगारादि रसों, हाव-भाव विलासों तथा सम्पत्ति विपत्ति में सुख-दुखों के उतार चढ़ाव का हृदयमाही चित्रण किया गया है। धार्मिक उपदेशों का यथास्थान वर्णन दिया हया है। प्रसंगानुसार अनेक रोचक कथामों को जोड़कर ग्रन्थ को"पाकर्षक और रुचि पूर्ण बनाने का प्रयत्न किया गया है। प्रत्यकर्ता ने प्राणियों के कर्मफलों को दिखलाने में अधिक रसलिया है। क्योंकि उनके सामने नैतिकता का शुष्क प्रादर्श नहीं था।
छन्दों कि दृष्टि से ग्रन्थ में आर्या, वसन्ततिलका, मन्दाक्रान्ता, द्रसविलम्बित, रयोखता, शिखरिणी, दोषक वंशस्थ, उपजाति, पृथ्वी, उपेन्द्रवधा स्रग्धरा, इन्द्रवणा, भुजंगप्रयात, वियोगिनी, पुषिताना, तोटक, विद्युन्माला हरिणी, चतुष्पंदिका और पार्यगीति भादि छन्दों का उपयोग किया गया है। इस सब विवेचन से पारित की महत्ता का सहज अनुभव हो जाता है।
रविषेणाचार्य ने पप्रचरित का निर्माण भगवान महावीर के निर्वाण से १२०३ वर्ष छह महीने व्यतीत होने पर वि० सं०७३४ (सन् ६०ई०) के लग-जग किया है। जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न पद्य से स्पष्ट है :
द्विशतान्यधिक संमांसहन समातीतचतुर्ववर्यालय जिन भास्कर वर्द्धमान सिद्धे चरितं भयमुनरिव निवडामा१८५
__ शामनाचार्य शामकं डाचार्य-अपने समय के बड़े विद्वान थे। इन्होंने पद्धति रूप टीका का निर्माण किया था। यह टीका षटखंडागम के छठवें खण्ड को छोड़कर आदि के पांच खंडों पर तथा दूसरे सिद्धान्तमन्य कषाय-प्राभूत पर थी। यह टीका पद्धति रूप थी । वृत्ति सूत्र के विषम पदों के भंजन को-विश्लेषणात्मक विवरण को-पद्धति कहते हैं-"वित्ति सत्तविसम--पदभंजियाए विवरणाए पंजियाववएसादो सुत्त विनि विवरणाए पद्धई ववएसादो-" (जय ध० प्रस्ता० पं. १२ टि.) इससे जान पड़ता है कि शामकुण्डाचार्य के सम्मुख कोई वृत्ति सूत्र रहे हैं। जिनकी उन्होंने पद्धति लिखी थी । संभव है कि शामकुण्डाचार्य के समक्ष यतिवृषभाचार्य कृत वृत्ति सूत्र ही रहे हों, जिन पर बारह हजार श्लोक प्रमाण पद्धति रची हो । इन्द्र नन्दि ने श्रुतावतार में उसका उल्लेख किया है :
काले ततः कियत्मपि गते पुनः शामकुण्डसंज्ञेन । प्राचार्येण ज्ञात्वा द्विमेव मप्यागमः कात्यात् ॥१६२ द्वादश गुणित सहस्र ग्रन्थ सिद्धान्तयोरुभयो ।
षष्ठेन विना खण्डेन पृथु महाबन्ध संजेन ॥१६३ शामकूण्डाचार्य का समय संभवतः सातवीं शताब्दी हो, इस विषय में निश्चयतः कुछ नहीं कहा जा सकता।
बावननन्दि मुनि यह तमिल व्याकरणों-तोलकापियम, प्रगत्तियम् तथा प्रविनयम् नामक व्याकरण ग्रन्थों के ज्ञाता ही नहीं थे किन्तु संस्कृत व्याकरण जैनेन्द्र में भी प्रवीन थे। इन्होंने शिव गंग नाम के सामन्त के अनुरोध पर 'मन्नू लू' नाम के व्याकरण की रचना की थी। यह ग्रन्थ सबसे अधिक प्रचलित है, इस अंच पर अनेक टीकाए हैं। उनमें मुख्य टीका मल्लिनाथ की है। यह ग्रंथ स्कूल और कालेजों में पाठ्य क्रम के रूप में निर्धारित है। जैनेन्द्र व्याकरण के ज्ञाता होने के कारण इनका समय पूज्यपाद के बाद होना चाहिये । प्रात् यह ईसा की सातवीं शताब्दी के विद्वान हैं।