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तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के प्राचार्य, विद्वान और कवि
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कवि वाग्भट व्याकरण, छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक चम्पू और साहित्य के मर्मज्ञ थे। कालिदास, दण्डी और वामन आदि विद्वानों के काव्य-ग्रन्थों से खूब परिचित थे और अपने समय के अखिल प्रज्ञालों में चडामणि थे तथा नूतन काव्यरचना करने में दक्ष थे' । कदि ने अपने पिता नेमिकुमार की खब प्रशसा की है, और लिखा है
कुल रूपी कमला का विकसित करने वाले अद्वितीय भास्कर थ, सकल शास्त्रों में पारगत तथा सम्पूर्ण लिपि भाषाओं से परिचित थे, और उनकी कीर्ति समस्त कविकुलों के मान सन्मान और दान से लोक में व्याप्त हो रही थी।
कवि वाग्भट भक्ति के अद्वितीय प्रेमी थे । स्वोपज्ञ काव्यानुशासन वृत्ति में आदिनाथ, नेमिनाथ और भगवान पार्श्वनाथ का स्तवन किया गया है। जिससे यह सम्भव है कि उन्होंने किसी स्तुति ग्रन्थ की रचना की हो; क्योंकि रसों में रति (शृंगार) का वर्णन करते हए देव विषयक रति के उदाहरण में निम्न पद्य दिया है
"नो मुक्त्यै स्पृहयामि विभवः कार्य न सांसारिकः, कित्वा योज्य करौ पुनरिद स्वामी शमभ्यचंये । स्वप्ने जागरणे स्थितौ विचलने दुःखे सुखे मन्दिरे ,
कान्तारे निशिवासरे च सततं भक्तिर्ममास्तु त्वयि ।" इस पद्य में बतलाया है कि हे नाथ ! मैं मुक्तिपुरी की कामना नहीं करता और न मांसारिक कार्यों के लिये विभव (धनादि सम्पत्ति) की ही याकांक्षा करता ह; किन्तु हे स्वामिन् हाथ जोड़कर मेरी यह प्रार्थना है कि स्वप्न में, जागरण में, स्थिति में, चलने में, दुःख सुख में, मन्दिर में, वन में, रात्रि और दिन में निरन्तर आपकी ही भक्ति हो।'
इसी तरह कृष्ण नील वर्णों का वर्णन करते हुए राहड के नगर ओर वहाँ के प्रतिप्ठित नेमि जिनका स्तवनसूचक निम्न पद्य दिया है :--
सजलजलदनीलाभातियस्मिन्वनाली मरकत मणिकृष्णो यत्रनेमिजिनेन्द्रः।
विकचकुवलयालि श्यामलं यत्सरोम्भः प्रमुदयति न कांस्कांस्तत्पुरं राहडस्य । इस पद्य में बतलाया है-'कि जिसमें वन पंक्तियां सजल मेघ के समान नीलवर्ण मालम होती है और जिस नगर में नीलमणि सदृश कृष्णवर्ण श्री नेमि जिनेन्द्र प्रतिष्ठित हैं तथा जिनमें तालाब विकसित कमल समूह से पूरित है वह राहड का नगर किन-किन को प्रमूदित नहीं करता।'
नेमिकूमार और गहड में राम लक्ष्मण के समान भारी प्रेम था। यद्यपि राहड ने विशेष अध्ययन नहीं किया था, क्योकि उसका उपयोग व्यापार की ओर विशेष था। उसने व्यापार में विपूल द्रव्य और प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। इस कारण नेमिकुमार को अध्ययन करने का विशेष अवसर मिल गया, और सिद्धान्त, छन्द, अलकार, काव्य और व्याकरणादि तथा भापा और लिपि का पग्ज्ञिान किया। अध्ययन के उपरान्त नेमिकूमार भी अपने भाई के साथ व्यापार में लग गये, और दोनों से न्याय में विपुल धन अजित किया। राहड प्रसिद्ध व्यापारी था उसका व्यापार द्वीपान्तरों में भी होता था। व्यापार में जो धन कमाया उससे उन्होंने दो नगर बसाये, राहड़पुर और नलोटकपुर राहड़पूर राहड के नाम से बसाया गया था, उसमें नेमि जिनका विशाल मन्दिर था जिसमें भगवान नेमिनाथ की मरकत मणि के समान कृष्ण वर्ण की सुन्दर मूर्ति विराजमान थी ।
१. नव्यानक महाप्रबन्धरचन चातुयं विस्फजित स्फारोदारयश. प्रचारसततव्याकीर्ण विश्वत्रयः ।
श्री मन्नेमिकुमार-मूरिरग्विनप्रज्ञानु चूडामणिः काव्यानामनुशासनं वमिदं चके कविर्वाग्भटः ।। २. 'दुस्तरसमस्तगास्त्रपारावारगहनमध्यावगाहन मदमन्दरम्य ।' काव्यानुशासन पृ० १ ३. 'अमन्दमन्दराय मारण्यानमात्रसहस्र मध्यमानमहाब्धिमध्य समुल्लासल्यक्ष्मी लक्षितवक्षःस्थलस्य । वही पृष्ठ १ ४. कारितामरपुरपरिस्पद्धि श्रीराहड़पुर प्रतिष्ठापित सुप्रसिद्धहिमिगिरिशिखरानुकारि रमणीय शुभ्राध्रालिह जिनवरा गारोत्त न शृङ्गोत्सङ्गसङ्गतसौवर्णध्वजाग्र लम्बायमानणोकिङ्किणी झणत्कारवित्रासितरविरथ तुरङ्गमस्य । वही पृ० १