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१५वी, १६, १७वी और १८वी शताब्दी के आचार्य भट्टारक और कवि
शताब्दी के अंतिम चरण में हुई जान पड़ती है । क्योकि उसके बाद मुस्लिम शासकों के हमलो से चन्दवाड की श्री सम्पन्नता को भारी क्षति पहुची थी ।
कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक सधि के प्रारम्भ में ग्रन्थ रचना मे प्ररक साहु नेमिदास का जयघोष करते हुए मंगल कामना की है। जैसा कि उसके निम्नपद्या स प्रकट है
प्रतापरुद्रनृपराज विश्रुतस्त्रिकालदेवाचं नवं चिता शुभा । नोक्तशास्त्रामृतपानशुद्धधीः चिरं क्षितो नन्दतु नेमिदासः || ३ सत्कवि गुणानुरागी श्रेयांन्निव पात्रदानविधिदक्षः । तोसउ कुलनभचन्द्रो नन्दतु नित्येव नेमिदासाख्यः || ४ | प्रकाशित है, उसे प्रकाश में लाना ग्रावश्यक है ।
ग्रन्थ अभी तक
'जीवधर चरिउ' में तेरह सधिया दी हुई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में दर्शनविशुद्धयादि पोडाकारण भावनाओं का फल वर्णन किया गया है । उनका फल प्राप्त करने वाने जीववर तीर्थकर की रोचक कथा दी गई है। प्रस्तुत जावधर स्वामी पूर्व विदेह क्षेत्र के अमरावती देश में स्थित गधर्वराउ (राज) नगर के राजा सीमवर बार उनकी पट्ट महिपी महादेवी के पुत्र थे । इन्होंने दर्शनविशुद्धयादि पोडश कारण भावनाओं का भक्तिभाव से चितन किया था, जिसके फलस्वरूप वे धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक तीर्थकर हुए। ग्रन्थ का कथा भाग बड़ा ही सुन्दर है । परन्तु ग्रंथ प्रति अत्यंत अशुद्धरूप में प्रतिलिपि की गई है जान पड़ता है । प्रतिलिपिकार पुरानी लिपि का अभ्यासां नहीं था । प्रतिलिपि करवा कर पुनः जाच भी नही की गई ।
इस ग्रंथ का निर्माण कराने वाले साहु कुन्थदास, जो सम्भवत ग्वालियर के निवासा थे । कवि ने इस ग्रन्थको उक्त साहुको श्रवण भूषण' प्रकट किया है। साथ ही उन्ह प्राचार्य चरण सवी, राप्त व्यसन रहित, त्यागी धवलकीति वाला, शास्त्रों के अर्थ को निरतर अवधारण करनेवाला और शुभ मतो बतलाते हुए उन्ह साहु हेमराज और मील्हा देवी का पुत्र बतलाया गया है । कवि ने उनके चिरंजाव होने का कामना भी की है जसा कि द्वितीय सि के प्रथम पद्म से ज्ञात होता है ।
'जो भत्तो सूरिपाए विसगसगसया जि विरता स एयो । जो चाई पुत्त दाणे ससिपह धवली कित्ति वल्लिकु तेजो। जो नित्यो सत्य-प्रत्थे विसय सुहमई हेमरायरस ताम्रो । सो मोल्ही अंग जाओ 'भवदु इह धुवं कुंथुयामो विराम्री ।'
'सिरिपालचरिउ' या सिद्धचत्र विधि' में दश सधियाँ दी हुई हैं, श्रार जिनकी प्रानुमानिक लोक सख्या दो हजार दो सो बतलाई है। इसमे चम्पापुर के राजा श्रीपाल और उनके सभी साथिया का सिद्धचक्रव्रत (श्रष्टाह्निका व्रत) के प्रभाव मे कुष्ठ रोग दूर हो जाने प्रादि की कथा का चित्रण किया गया है और सिद्ध व्रत का माहात्म्य स्थापित करते हुए उसके अनुष्ठान की प्रेरणा की गई है । ग्रन्थ का कथा भाग बड़ा ही गुन्दर यार चित्ताकर्षक है । भाषा सरल तथा सुबोध हे । यद्यपि श्रीपाल के जीवन परिचय और सिद्धचक्रव्रत के महत्व को चित्रित करने वाले संस्कृत, हिंदी गुजराती भाषा में अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं । परंतु अपभ्रंश भाषा का यह दूसरा ग्रन्थ है । प्रथम ग्रन्थ पंडित नरगेन का है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ ग्वालियर निवासी अग्रवाल वंशी साहु बाटू के चतुर्थ पुत्र हरिसी साहु के अनुरोध से बनाया है कवि ने प्रशस्ति में उनके कुटुम्ब का संक्षिप्त परिचय भी अकित किया है । कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक सधियों के प्रारम्भ में संस्कृत पद्यों में ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक उक्त साहु का यशोगान करते हुए उनकी मंगल कामना की है। जैसा कि ७वीं संधि के निम्न पद्य से प्रकट है ।
यः सत्यं वदति व्रतानि कुरुते शास्त्रं पठन्त्यादरात् मोहं मुञ्चति गच्छति स्व समयं धत्ते निरीहं पदं ।