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जैन धर्म का प्रचीन इतिहास-भाग २
हैं । दक्षिण देश में प्राचीन समय से क्षेत्रपाल की पूजा का प्रचार रहा है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा को गाथा नं० २५ में 'क्षेत्रपाल' का स्पष्ट नामोल्लेख है और उगके विषय में फैली हई रक्षा सम्बन्धो मिथ्या धारणा का प्रतिषेध किया है। इससे लगता है कि ग्रन्थकार कुमार स्वामी दक्षिण देश के विद्वान थे। डा० ए० एन० उपाध्ये का यह अनुमान सही प्रतीत होता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में ४८६ गाथाओं में द्वादश भावनाओं का मून्दर विवेचन किया गया है। भावनाओं का क्रम गद्धपिच्छाचार्य के तत्त्वार्थ सूत्रानुसार ही है। जैसा कि दोनों के उद्धरण गे स्पष्ट है :
प्रद्धवमसरणमेगत्रमण्ण-संसार-लोगमसुचित्तं । पासव-सवर-णिज्जर-धम्मं वोहि च चितेज्जो॥
-वारस अणुवेक्खा अनित्याऽशरण - ससारकत्वाऽन्यत्वाऽशुच्याऽऽस्रव-संवर-निर्जरा-लोक-बोधिदुर्लभ-धर्मस्याख्यातत्त्वानुचिन्तन मनुप्रेक्षाः। - तत्त्वार्थ सूत्र ६-७
प्रद्धव प्रसरण भणिया संसारामेगण्ण मसूइत्तं ।
आसव-संवरणामा णिज्जर लोयाण पेहाम्रो॥ भावनायों का यह म-भूलाचार, भगवती आराधना और वारम अणवेक्मा में एक ही क्रम पाया जाता है । जव कि तत्त्वार्थ मूत्र और कातिके यानु प्रेक्षा का क्रम उनसे भिन्न एक रूप है। दूसरे भावनाओं के वर्णन के साथ श्रावकाचार का भी सून्दर वर्णन किया है। इससे स्वामी कूमार उमास्वाति (गद्रपिच्छचार्य) के बाद के विद्वान होने चाहिये।
इय जाणिऊण भावह दल्लह-धम्माण भावणा। णिच्चं मण-वयण-काय-सुद्धी एदा दस दोय भणिया है।
जोइन्दु
जोइन्द (योगीन्द्र देव)-यह अध्यात्मवादी कवि थे। उनकी कृतियों में आत्मानुभूति का रस है। यह अपभ्रश भाषा के विद्वान थे। जोइन्दु का संस्कृत रूपान्तर गलत रूप में योगीन्द्र प्रचलित हैं। किन्तु योगसार में 'जोगिचन्द्र' नाम का उल्लेख है :
संसारह भय-भीयएण, जोगिचन्द मुणिएण ।
प्रप्पा संबोहणकया दोहा इक्क-मणेण ॥१०॥ डा० ए० एन० उपाध्ये के अनुसार 'योगेन्दु' पाठ है, जो योगिचन्द्र का समानार्थक है । यह अध्यात्म रस के रसज्ञ थे। प्राकृत-संस्कृत के विद्वान न होते हुए भी उनकी रचना सरल अपभ्रंश में है। जोइन्दु की निम्न रचनाय उपलब्ध है। परमात्मप्रकाश, योगसार, निजात्माष्टक और अमृताशीति । ये सभी रचनाये अध्यात्मवाद के गूढ़ रहस्य से युक्त हैं।
परमात्म प्रकाश-इस ग्रन्थ में टीकाकार ब्रह्मदेव के अनुसार ३४५ पद्य हैं। दो अधिकार हैं, उनमें पांच प्राकृत गाथाएं, एक स्रग्धरा, एक मालिनी, और एक चतुप्पदिका है। यद्यपि परमात्मप्रकाश में दोहे का कोई उल्लेख नही है। किन्तु योगसार में दोहा शब्द का उल्लेख मिलता है । दोहे में दोनों पक्तियाँ समान होती हैं और प्रत्येक पंक्ति में दो चरण होते हैं। प्रथम चरण में १३ और दूसरे में ११ मात्रायें होती हैं। विरहांक और हेमचन्द्र के अनुसार दोहे में १४ और १२ मात्राएं होती हैं; किन्तु परमात्म प्रकाश के दोहों म दीर्घ उच्चारण करने पर भी प्रथम चरण में १३ मात्राएं पाई जाती हैं और दूसरे में ग्यारह ।
ग्रन्थ के प्रथम अधिकार में पंच परमेष्ठियों को नमस्कार करने के बाद प्रात्मा के तीन भेदों का.-बहि
१. दो पाया भण्णड दुनिहड, विग्हाँक