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पांचवीं शताब्दी मे आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
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नवस्तोत्रं तत्र प्रसरति कवीन्द्राः कथमपि प्रमाणं वज्रादौ रचयत परन्निदिनि मुनी नवस्तोत्र येन व्यरचि सकलाहतप्रवचन
प्रपंचान्तर्भाव प्रवणवर सन्दर्भ सुभगम् ॥११॥ पुन्नाट संघी जिनसेन ने हरिवंश पुराण में वज्रसूरि की स्तुति करते हुए लिखा है
वज्रसूरे विचारण्यः सहेत्वोर्बन्धमोक्षयोः ।
प्रमाणं धर्मशास्त्राणं प्रवक्तृणामिवोक्तयः॥३॥ अर्थात् वज्रसूरि को सहेतुक बन्ध-मोक्ष की विचारणा में धर्मशास्त्रों के प्रवक्ताओं की---गणधरदेवों की उक्तियों के समान प्रमाणभूत है। इससे स्पष्ट है कि उनके किसी ऐसे ग्रन्थ की प्रोर संकेत है जिसमें बन्ध मोक्ष उनके कारण राग-द्वेष तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादि की चर्चा है । महाकवि धवल ने भी अपने हरिवंश पराण में लिखा है कि
बज्जसूरि सुपसिद्धउ मुणिवरु, जेण पमाणगंथु किउ चंगउ । वज्रसूरि नाम के सुप्रसिद्ध मुनिवर हुए जिन्होंने सुन्दर प्रमाण ग्रन्थ बन.या। वज्रनन्दी और वज्रमूरि दोनों विद्वान यदि एक हैं तो नवस्तोत्र के अतिरिक्त उनका कोई प्रमाण ग्रन्थ भी होगा। जिनमेन तो उन्हें गणघर देवों के समान प्रामाणिक मानते हैं। और देवसेन ने उन्हें जैनाभास बतलाया है।'
नागसेन गुरु नागसेन गुरु-ऋषभसेन के शिष्य थे। जिन्होंने सन्यास विधि से श्रवण बेलगोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर देह त्याग किया था। जिसका श्रवण बेलगोल के शिलालेख नं० २४ (३४) में उल्लेख है। और उसमें महत्व के सात विशेषणों के साथ उनकी स्तुति को लिये हुए निम्न श्लोक दिया हुआ है :
नागसेनमनघं गुणाधिकं नाग नामकजितारि मंडलं ।
राज्यपूज्यममलश्रियास्पदं कामदं हतमदं नमयाम्यहं । इस शिलालेख का समय शक सं०६२२ (वि० सं० ७५७) सन् ७०० के लगभग अनुमान किया गया है, परन्तु उसका कोई आधार नहीं दिया।
स्वामी कुमार स्वामी कुमार ने अपना कोई परिचय प्रस्तुत नहीं किया। किन्तु कार्तिकेयानुप्रेक्षा की अन्तिम ४८६ नं० की गाथा में वसू पूज्यसूत-वासु पूज्य, मल्लि और अन्त के तीन नेमि, पाश्वं प्रौर वर्द्धमान ऐसे पाँच कमार श्रमण तीर्थकरों की वन्दना की गई है। जिन्होंने कूमारावस्था में ही जिन दीक्षा लेकर तपश्चरण किया है और जो तीन लोक के प्रधान स्वामी है। इससे यह बात निश्चित होती है कि प्रस्तुत ग्रन्थाकार कुमार श्रमण थे, बाल ब्रह्मचारी थे । और उन्होंने बाल्यावस्था में ही जिन दीक्षा लेकर तपश्चरण किया है। इसी से उन्होंने अपने को विशेष रूप में इष्ट पांच कूमार तीर्थकरों की स्तुति की है।
स्वामि-शब्द का व्यवहार दक्षिण देश में अधिक प्रचलित है और वह व्यक्ति विशेषों के साथ उनकी प्रतिष्ठा का द्योतक होता है। कुमारसेन कुमार नन्दी और कुमार स्वामी जैसे नामधारी आचार्य दक्षिण देश में हुए
१. देखो, दर्शनसार गाथा २७