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पांचवी शताब्दी से आठवीं शताब्दी के आचार्य
१२६ रात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का स्वरूप बतलाया गया है। प्रात्मा के विद्य की यह चर्चा प्राचार्य कून्दकून्द के ग्रन्थों, और पूज्यपाद देवनन्दी के ग्रन्थों से ली गई है। और उनका विस्तृत स्वरूप भी दिया है। बहिरात्मा अवस्था को छोड़ कर अन्तरात्मा होकर परमात्मा होने की प्रेरणा की है। परमात्मा के सकल-विकल भेदों का स्वरूप ३४ दोहों में दिया गया है। जीव के स्वशरीर प्रमाण होने की चर्चा, द्रव्य-गुण, पर्याय, कर्म, निश्चय नय सम्यक्त्व और मिथ्यात्वादि का वर्णन किया गया है।
दूसरे अधिकार में मोक्ष का स्वरूप मोक्ष का फल, मोक्ष मार्ग, अभेद रत्नत्रय, समभाव पुण्य-पाप की समानता और परम समाधि का कथन दिया हुआ है। परमात्म प्रकाश के दोहा अत्यन्त सुन्दर, रमणीय और शुद्ध स्वरूप के निरूपक हैं, उनके पढ़ने में मन रम जाता है, क्योंकि वे सरस और भावपूर्ण हैं।
रहस्यवाद-मुनि जोगचन्द ने आध्यात्मिक गूढ़वाद और नैतिक उपदेशों को सहज ढंग में व्यक्त किया है। उन्होंने अपने पद्यों में योगियों को अनेक बार सम्बोधित किया है, और गृह निवास को पाप निवास भी बतलाया है। परमात्म प्रकाश के दोहों में गूढ़ वादियों के सदश कहीं अस्पष्टता का प्राभास नहीं होता। उन्होंने पंचेन्द्रियों को जीतने और विषयों से पराङ्ग मुख रहने, अथवा उनका त्याग कर आत्म-साधना करने का स्पष्ट संकेत किया है। मानव देह पाकर जिन्होंने जीवन को विषय-कषायों में लगाया, और काम-कोधादि विभाव भावों का परित्याग न कर, वीतराग परम आनन्द रूप अमृत पाकर भी अनशनादि तप का अनुष्ठान नहीं किया, वे प्रात्मघाती हैं, क्योंकि ध्यान की गति महा विषम है। चित्तरूपी बन्दर के चंचल होने से शुद्धात्मा में स्थिरता प्राप्त नहीं हो सकती, और ध्यान की स्थिरता के अभाव में तो कर्म कलंक का विनाश नहीं होता। तब शुद्धात्मा की प्राप्ति कैसे हो सकती है ?
योगीन्द्र देव जैन गूढवादी हैं, उनकी विशाल दृष्टि ने ग्रन्थ में विशालता ला दी है, अतएव उनका कथन साम्प्रदायिक व्यामोह से अलिप्त है। उनमें बौद्धिक सहन-शीलता कम नहीं है। वेदान्त में आत्मा को सर्वगत माना है, और मीमांसक मुक्तावस्था में ज्ञान नहीं मानते । बौद्धों का कहना है कि वहां शून्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। योगीन्द्र देव इन मतभेदों से पाकुलित नहीं होते। क्योंकि उन्होंने अध्यात्म के प्रकाश में नयों की सहायता से शांकिक जाल का भेदन किया है और परमात्मस्वरूप की निश्चित रूप-रेखा स्वीकृत की है, वह मौलिक है। वे परमात्मा को जिन, ब्रह्म, शान्त, शिव और बुद्ध आदि संज्ञायें देते हैं । उन्होंने परमात्मस्वरूप के प्रकाशित करने का यथेष्ट उद्यम किया है। और अन्त में मोक्ष और मोक्ष का फल बतलाया है। वस्तु के स्वरूप वर्णन में उनकी दृष्टि विमल रही है। उनके दो चार दोहों का भी प्रास्वाद कीजिये, वे सुन्दर भावपूर्ण और सरस हैं ।
जो समभाव-परिट्ठियहं जो इहं कोई पुरेइ ।
परमाणंदु जणंतु फुड सो परमप्पु हवेई ॥१-३५ जो योगी समभाव में जीवन-मरण-लाभ-अलाभ सुख-दुख, शत्र और मित्रादि में समरूप परिणत है, और परम आनन्द को प्रकट करता है वही परमात्मा है।
भवतणु-भोय-विरत्त-मणु जो अप्पा झाएह ।
तासु गुरुक्की वेल्लड़ी संसारिणी तुझे इ॥१--३२ जो जीव संसार, शरीर, भोगों से विरक्त मन हुआ शुद्धात्मा का चिन्तवन करता है उसको संसार रूपी मोटी बेल नाश को प्राप्त हो जाती है।
कम्म-णिबद्ध वि जोइया देह वसंतु वि जोजि।
होइ ण सयलु कया वि फुड मुणि परमप्पउ सो जि ॥१-३६।। हे योगी ! यद्यपि प्रात्मा कर्मों से सम्बद्ध है, और देह में रहता भी है परन्तु फिर भी वह कभी देह रूप नहीं होता, उसी को तू परमात्मा जान ।