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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
पूर्ण नीति काव्य ग्रन्थ अन्यत्र देखने में नहीं पाया। इसकी सरस सूक्तियां और उपदेश हृदय-स्पी हैं। यह पद्यात्मक सन्दर रचना है। इसमें महाकवि वादीभसिंह ने क्षत्रियों के चडामणि महाराज जीवंधर के पावन चरित्र का प्रत्यन्त रोचक ढंग से वर्णन किया है । कुमार जीवधर भगवान महावीर के समकालोन थे। उन्होंने शत्रु से अपने पिता का राज्य वापिस ले लिया और उसका उचित रीति से पालन कर अन्त में ससार, के देह, भोगों से विरक्त हो भगवान महावीर के सम्मुख दीक्षा लेकर तपश्चरण द्वारा प्रात्म-शुद्धि कर अविनाशी पद प्राप्त किया। ग्रंथ का कथानक आकर्षक और भाषा सरल संस्कृत है। ग्रन्थ प्रकाशित है।
गद्य चिन्तामणि-क्षत्रचडामणि और गद्यचिन्तामणि का कथानक एक और कथा नायक पात्र भी वही है । सर्ग या लम्ब भी दोनों के ग्यारह-ग्यारह हैं। घटना सादृश्य भी दोनों का मिलता-जुलता है। गद्यचिन्तामणि गद्य काव्य है । भाषा प्रौढ़ और कठिन है। इसके काव्य पथ में पदों की सुन्दरता, श्रवणीय शब्दों की कथासार, चित्ताकर्षक विस्मयकारी कल्पनाए, हृदय में प्रसन्नोत्पादिक धर्मोपदेश, धर्मसे अविरुद्ध नीतियाँ, एवं रस और अलंकारों की पुटने उसमें चार चांद लगा दिये हैं। प्रकृति वर्णन सरस और सुन्दर है । कथानक में सादृश्य होते हए भी पाठक को वह नवीन सा लगता है और कवि की अद्भुत कल्पनाए पाठक के चित्त में विस्मय उत्पन्न कर देती है। गद्य काव्यों की श्रृंखला में गद्यचिन्तामणि का महत्व पूर्ण स्थान है।
अर्ककीर्ति यह यापनीय नन्दिसंघ पुनांग वृक्ष मूलगण के विद्वान थे । इनके गुरु का नाम विजय कीति और प्रगुरु का नाम कु बिलाचार्य था जो व्रत समिति गुप्ति गुप्त मुनि वृन्दों से वदित थे, और श्री कीर्त्याचार्य के अन्वय में हुए थे। अमोघ वर्ष (प्रथम) के पिता प्रभूत वर्ष या गोविन्द तृतीय का जो दान पत्र कडंब (मैसूर) में मिला है, वह शक सं०७३५ सन् ८१२ का है। जिसमें शक संवत ७३५ व्यतीत हो जाने पर ज्येष्ठ शुक्ला दशमी पुष्य नक्षत्र चन्द्रवार के दिन अर्ककीति मुनि के लिये जालमंगल नाम का एक ग्राम मान्यपुर ग्राम के शिलाग्राम नाम के जिनेन्द्र भवन के लिये दान में दिया था। क्योंकि मुनि अर्ककीति ने जिले के शासक विमलादित्य को शनैश्चर की पीड़ा से उन्मुक्त किया था। (जैन लेख सं० भाग २ पृ० १३७)
बोरसेन
वीरसेन–मूल संघ के 'पंचस्तूपान्वय' के विद्वान थे। यह पंचस्तूपान्वय बाद में सेनान्वय या सेन-संघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है । वीरसेन ने अपने वश को 'पचस्तूपान्वय' ही लिखा है। प्राचार्य वीरसेन चन्द्रसेन के प्रशिप्य और आर्यनन्दी के शिष्य थे' । उनके विद्या गुरु एलाचार्य और दीक्षा गुरु आर्यनन्दी थे। प्राचार्यवीरसेन
-धवला प्रशस्ति
१ अज्जज्जणदि सिस्सेणुज्जुव-कम्मम्स चंदमेणस्य ।
नह णत्तवेण पंचत्थूहण्यं भाणणा मुणिणा ॥४ यग्नपोदीप्त किरणभव्याम्भोजानि बोधयन् । व्यद्योतिष्ठ मुनीनेनः पञ्चस्तूपान्वयाम्बरे ।। २० प्रशिष्यश्चन्द्रसेनम्य यः शिष्योऽप्यायनन्दिनाम् । कुलं गणं च सन्तानं स्वगुणरुदजिज्वलत् ।। २१
-जय धवला प्रशस्ति
२ पचस्तूपान्वय की दिगम्बर परम्पग बहुत प्राचीन है। आचार्य हरिषेण कथाकोश में वर मुनि के कथा के निम्न पद्य में मथुरा में पंचम्तूपो के बनाने जाने का उल्लेख किया है
महाराजन निर्माणन् रवचितान् मणिनाम् कैः ।
पंञ्चस्तूपान्विधाया समुच्चजिनवेश्मनाम् ।। आचार्य वीरसेन ने धवला टीका में और उनके प्रधान शिष्य जिनसेन ने जयधवला टीका प्रशस्ति में पंचस्तूपान्वय के