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नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
गद्य चिन्तामणि के अन्तिम दो पद्यों से स्पष्ट है कि उनका नाम प्रोडयदेव था और वे वादो रूपो हाथियों को जीतने के लिये सिंह के समान थे। उनके द्वारा रचा गया गद्य चिन्तामणि ग्रन्थ सभा का भूषण स्वरूप था। प्रोडय देव वादीभसिंह पद के धारक थे। यद्यपि वादीभसिह के जन्म स्थान का कोई उल्लेख नहीं मिलता तो भी प्रोडय देव नाम से पं० के ० भुजबली शास्त्री ने अनुमान लगाया है कि वे उन्हें तमिल प्रदेश के निवासी थे और बी. शेषगिरिराव एम. ए. ने कलिंग के गंजाम जिले के आस-पासका निवासी होना सूचित किया है। गंजाम जिला मद्रास के एकदम उत्तर में है और जिसे अब उड़ीमा में जाड़ दिया गया है। वहां राज्य के सरदारों की ओडेय और गोडेय नाम की दो जातियां हैं, जिनमें पारम्परिक सम्बन्ध भी है । अतएव उनकी राय में वादीभसिंह जन्मतः प्रोडेय या उड़िया सरदार होंगे।
समय
चूंकि मल्लिपेण प्रशस्ति में मुनि पुणमेन को अकलंक का सधर्मा लिग्वा है, और वादीभसिंह ने उन्हें अपना गुरु बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि वादीभमिह अकलंक के उत्तरवर्तीविद्वान है। अकलंक के न्याय विनिश्चयादि ग्रन्थों का भी स्याद्वादसिद्धि पर प्रभाव है। अतएव उन्हें अकलक देव के उत्तरवर्ती मानने में कोई हानि नहीं है।
गद्य चिन्तामणि की प्रस्तावना में पं० पन्नालाल जी ने लिखा है कि गद्य चिन्तामणि के कुछ स्थल बाणभद्र के हर्ष चरित के वर्णन के अनुरूप है। वादीसिह की गद्य चिन्तामणि में जीवंधर के विद्यागुरु द्वारा जो उपदेश दिया गया, वह बाण की कादम्बरी के शुकनासोपेदेश मे प्रभावित है-इससे वादीसिह बाणभट्ट के उत्तर वर्ती हैं।
स्याद्वाद सिद्धि के छठे प्रकरण की १६ वीं कारिका में भट्ट और प्रभाकर का उल्लेख है और उनके अभि मत भावना नियोग रूप वेद वाक्यार्य का निर्देश किया गया है। वादीसिह ने कुमारिल्ल के श्लोक वानिक से कई कारिकाएं उद्धत कर उनकी आलोचना की है। उनका समय ईसा की सातवीं शताब्दी माना जाता है। इससे वादीभसिंह का समय ईसा की ८ वी शताब्दी का अन्त और ६ वी का पूर्वार्ध जान पड़ना है। इस समय के मानने में कोई बाधा नहीं पाती। विशेप के लिये स्याद्वासिद्धि की प्रस्तावना देखनी चाहिये ।
रचनाएं
वादीभसिह अपने समय के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान प्राचार्य थे। उनके कवित्व और गमकत्वादिको प्रशंसा भागवज्जिन सेन ने की है। वादीभसिंह उनकी उपाधि थी, वे ताकिक विद्वान रे। उनकी तीन रचनाए प्रसिद्ध हैंस्याद्वादसिद्धि, क्षत्रचूड़ामणि और गद्य चिन्तामणि।
स्याद्वाद सिद्धि-यद्यपि यह ग्रन्थ अपूर्ण है फिर भी ग्रन्थ में १४ अधिकारों द्वारा अनुष्टुप छन्दों में प्रतिपाद्य विषय का अच्छा निरूपण किया गया है ।-जीवसिद्धि, फलभोक्तृत्वाभावसिद्धि, युगपदनेकान्त सिद्धि ऋमानेकान्त सिद्धि, भोक्तृत्वाभावसिद्धि, सर्वज्ञाभावसिद्धि, जगत्कर्तृत्वाभावसिद्धि, अर्हत्सर्वज्ञ सिद्धि, अर्थापत्ति प्रामाण्यसिद्धि, बेद पौरपयत्वमिद्धि, परतः प्रामाण्य सिद्धि, प्रभाव प्रमाणदूपणसिद्धि, तर्क प्रामाण्य सिद्धि, और गुणगणी अभेदसिद्धि । इनके बाद अन्तिम प्रकरण की साड़े छह कारिकाएँ पाई जातो है। इससे स्पष्ट जान पडता है कि ग्रन्थ अपूर्ण है। इस प्रकरण की अपूर्णता के कारण कोई पुष्पिका वाक्य भी उपलब्ध नहीं होता। जैसा कि अन्य प्रकरणों में पप्पिका वाक्य उपलब्ध हैं यथा-"इति श्रीमद्वादीसिहसूरि विरचितायां स्यावाद सिटौ चार्ज प्रति जीव सिद्धिः।"
क्षत्रचूडामणि—यह उच्च कोटि का नीति काव्य ग्रन्थ है । भारतीय काव्य साहित्य में इस प्रकार का महत्व
१. जैन माहित्य और इतिहास दूसगसं० पृ० ३२४ । २. देखो, स्याद्वाद गिद्धिकी प्रस्तावना पृ० १९-२०